नवम्बर चौथा सप्ताह

24 नवम्बर/जन्म-दिवस

सरसंघचालकों की छाया डा. आबाजी थत्ते
सरसंघचालक श्री गुरुजी और फिर बालासाहब देवरस के प्रवास में उनकी छाया की तरह साथ रहने वाले डा. वासुदेव केशव (आबाजी) थत्ते का जन्म 24 नवम्बर, 1918 को हुआ था। उनका पालन स्टेट बैंक में कार्यरत उनके बड़े भाई अप्पा जी और भाभी वाहिनी थत्ते ने अपने पुत्र की तरह किया। 1939 में बड़े भाई की प्रेरणा से वे मुंबई की प्रसिद्ध शिवाजी पार्क शाखा में जाने लगे। 

मुंबई से एम.बी.बी.एस. पूर्ण कर आबाजी ने प्रचारक बनने का संकल्प लिया। अतः 1944-45 में श्री बालासाहब देवरस ने उन्हें नागपुर बुला लिया। वस्तुतः बालासाहब के मन में उनके बारे में कुछ और योजना थी। अतः सर्वप्रथम उन्हें बड़कस चौक में डा. पांडे के साथ चिकित्सा कार्य करने को कहा गया।

बालासाहब चाहते थे कि श्री गुरुजी के साथ कोई कार्यकर्ता सदा रहे। अतः पहले उन्होंने आबाजी को पर्याप्त चिकित्सा का अनुभव लेने दिया। इसके बाद उन्हें शाखा विस्तार के लिए बंगाल में शिवपुर भेजा गया। उन दिनों बंगाल में संघ का काम नया था। अतः महाराष्ट्र से ही वहां प्रचारक भेजे जाते थे; पर आबाजी के प्रयास से शिवपुर से स्थानीय प्रचारक भी निकलने लगे।

1950 में संघ से प्रतिबन्ध हटने के बाद बालासाहब ने आबाजी को श्री गुरुजी के साथ रहने को कहा। इस दायित्व को निभाते हुए आबाजी ने पहले श्री गुरुजी और फिर बालासाहब के साथ लम्बे समय तक प्रवास किया। आबाजी ने इस दौरान न जाने कितने महत्वपूर्ण प्रसंग देखे और सुने; पर इनको उन्होंने कभी व्यक्त नहीं किया। श्री गुरुजी के निधन के बाद जब बालासाहब ने प्रवास प्रारम्भ किया, तो आबाजी ने उनके साथ रहते हुए एक कड़ी की भूमिका निभाई और देश भर में प्रमुख कार्यकर्ताओं से उन्हें मिलवाया।

श्री गुरुजी के साथ आबाजी सभी जगह जाते थे। अतः वे दोनों इतने एकरूप हो गये थे कि यदि किसी समारोह में किसी कारण से गुरुजी नहीं पहुंच सके और आबाजी पहुंच गये, तो गुरुजी की उपस्थिति मान ली जाती थी। बालासाहब के देहांत के बाद उन्हें 'अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख' बनाया गया। इसके साथ ही ग्राहक पंचायत, सहकार भारती, राष्ट्र सेविका समिति तथा अन्य महिला संगठनों से समन्वय बनाने का काम भी उनके जिम्मे था।

आबाजी संपर्क करने में कुशल थे तथा काम के व्यस्तता में से समय निकालकर नागपुर के कार्यकर्ताओं से मिलते रहते थे। अपने संपर्कों को जीवन्त बनाये रखने के लिए वे प्रवास के दौरान लगातार पत्र-व्यवहार भी करते रहते थे। आपातकाल के बाद जब संघ विचार की अनेक संस्थाओं को देशव्यापी रूप दिया गया, तो आबाजी के इन संपर्कों का बहुत उपयोग हुआ।

श्री गुरुजी के देहांत के बाद उन पर कई पुस्तकें लिखी गयीं। जब आबाजी से भी इसका आग्रह किया गया, तो उन्होंने कहा कि श्रीराम के साथ हनुमान जी बहुत समय तक रहे; पर श्रीराम का चरित्र ऋषि वाल्मीकि ने लिखा, हनुमान ने नहीं। यह उत्तर उनके आत्मविलोपी व्यक्तित्व का परिचायक है।

आबाजी कभी-कभी डायरी लिखते थे। उसमें उन्होंने हाथ से श्री गुरुजी के अनेक चित्र भी बनाये थे। उन्होंने डायरी में एक स्थान पर लिखा था कि उत्तंुग ध्येय वाले कार्यकर्ता को विश्राम देने की सामर्थ्य तीन अक्षर के शब्द ‘मृत्यु’ में ही है। उन्होंने अपने कर्तत्व से इस श्रेष्ठ विचार को सत्य कर दिखाया और 27 नवम्बर, 1995 को चिर विश्रान्ति पर चले गये।  

(संदर्भ : आत्मविलोपी आबाजी - दत्तोपंत ठेंगड़ी)
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25 नवम्बर/पुण्य-तिथि

त्रिपुरा में नरबलि का अन्त

पूर्वांचल के सात राज्यों में त्रिपुरा भी एक है। 1490 ई. में यहाँ राजा धन्य माणिक्य का शासन था। राजा और उनकी रानी कमला देवी बड़े धार्मिक स्वभाव के थे। उन्होंने काशी और प्रयाग से विद्वानों को बुलाकर अपने राज्य में गंगोत्री, यमुनोत्री, त्रिपुर सुन्दरी, काली माँ आदि के विशाल मन्दिर, तालाब तथा शमशान घाट बनवाये। इस प्रकार वे जनहित के काम में लगे रहते थे।

एक बार रानी एक मन्दिर में पूजा कर रही थी कि उसे एक महिला के रोने का स्वर सुनाई दिया। रानी की पूजा भंग हो गयी, उन्होंने तुरन्त उस महिला को बुलवाया। वह निर्धन महिला थर-थर काँपने लगी। रानी ने उसको पुचकारा, तो वह और जोर से रोने लगी। बहुत समझाने पर उसने बताया कि उसके एकमात्र पुत्र का कुछ लोगों ने नरबलि के लिए अपहरण कर लिया है।

रानी सुनकर हैरान रह गयी। वस्तुतः त्रिपुरा में लम्बे समय से नरबलि की परम्परा चल रही थी। शासन की ओर से उस पर कोई रोक भी नहीं थी। महिला ने कहा, "रानी जी, मेरा यही एकमात्र पुत्र है। यदि यह मर गया, तो मैं भी अपना जीवन त्याग दूँगी। आपके तो तीन पुत्र हैं, क्या आप अपने एक पुत्र को बलि के लिए देकर मेरे पुत्र की प्राणरक्षा कर सकती हैं ?"

रानी स्वयं एक माँ थीं। उन्होंने उस महिला को आश्वासन दिया कि मैं हर स्थिति में तुम्हारे पुत्र की रक्षा करूँगी। महल लौटकर रानी ने राजा से कहा कि क्या हम अपने एक पुत्र को बलि के लिए दे सकते हैं ? राजा ने कहा कि तुम कैसी माँ हो, क्या तुम्हें अपनी सन्तान से कोई प्रेम नहीं है, जो ऐसी बात कह रही हो ? इस पर रानी ने प्रातः मन्दिर वाली पूरी बात उन्हें बताई और नरबलि प्रथा को पूरी तरह बन्द करने का कहा।

राजा बहुत असमंजस में पड़ गया; क्योंकि यह प्रथा बहुत पुरानी थी। इससे राज्य के पंडितों के भी नाराज होने का भय था। रानी ने फिर कहा कि राजा का कर्तव्य केवल कर वसूल करना या नागरिकों की रक्षा करना ही नहीं है। यदि राज्य में कोई कुरीति है, तो उसे मिटाना भी राजा का ही कर्त्तव्य है। इसलिए आपको मेरी बात मानकर इस कुप्रथा का अन्त करना ही होगा।

राजा ने जब रानी के इस दृढ़ निश्चय को देखा, तो उसने तुरन्त ही आज्ञा दी कि आज से नरबलि प्रथा को बन्द किया जाता है। कुछ रूढ़िवादियों ने देवी के नाराज होने का भय दिखाया, तो राजा ने कहा कि जो लोग नरबलि देना चाहते हैं, वे अपनी सन्तानों की बलि देने को स्वतन्त्र हैं; पर छल, बल से अपहरण कर किसी दूसरे की बलि अब नहीं दी जाएगी। 

अब इसका विरोध करने का साहस किसमें था ? इस प्रकार इस कुप्रथा का अन्त हुआ और उस निर्धन महिला को उसका एकमात्र पुत्र वापस मिल गया। सारी जनता धन्य-धन्य कह उठी। इसके बाद राजा ने जनता के कल्याणार्थ अनेक काम किये। उन दिनों प्रयाग में अस्थि विसर्जन और गया में पिण्डदान के लिए जाने में बहुत कठिनाई होती थी। राजा ने मकर संक्रान्ति पर गोमती नदी पर मेला प्रारम्भ किया और वहीं अस्थि विसर्जन और पिण्डदान की व्यवस्था करायी। यह मेला आज भी उस परोपकारी राजा और रानी का स्मरण कराता है। 

राजा ने अनेक धर्मग्रन्थों का स्थानीय भाषा में अनुवाद भी कराया। 25 नवम्बर, 1520 को राजा और रानी दोनों एक साथ ही स्वर्गवासी हुए।
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25 नवम्बर/जन्म-दिवस

गुमनाम नायक ठेबले उरांव

इस दुनिया में कुछ लोग थोड़ा सा काम करके भी नाम और दाम कमा लेते हैं, जबकि कुछ लोग बहुत करने के बाद भी पीछे रह जाते हैं। ऐसे ही एक गुमनाम नायक ठेबले उरांव का जन्म रांची के पास गुडू रातू में पिता जीता उरांव और मां पुनी उराइन के घर में हुआ था। गरीबी के कारण वे थोड़ा ही पढ़ सके; पर उन्होंने अपने समाज के शैक्षिक और आर्थिक उत्थान के भरपूर प्रयास किये। इसके लिए उन्होंने 1902 में उरांव मुंडा एजुकेशन सोसाइटीतथा 1930 में छोटा नागपुर किसान सभाका गठन किया।

1917 में जब गांधी जी रांची आये, तो ठेबले उरांव ने उनसे भेंट की। उसके बाद वे कांग्रेस के हर आंदोलन में सहभागी होते थे। वे रांची शहर तथा ग्रामीण क्षेत्र में साइकिल से घूम-घूमकर सभाएं करते थे। 1942 के आंदोलन में विदेशी सामान की होली जलाने में उनकी मुख्य भूमिका थी। अतः रांची के डिप्टी कमिश्नर जे.डाउटन ने उनकी गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया; पर ग्रामीण क्षेत्र में व्यापक संपर्क के कारण वे पकड़ में नहीं आये। काफी कोशिश के बाद वे तीन साल बाद हाथ आये और जेल भेज दिये गये।

जब बंगाल से बिहार अलग हुआ, तो अलग झारखंड की मांग भी उठी।  पर इसके लिए एक संगठन की जरूरत थी, जो शासन तक अपनी बात पहुंचा सके। अतः ठेबले उरांव ने छोटा नागपुर उन्नति समाजनामक संगठन बनाया। 1928 में साइमन कमीशन के रांची आने पर संस्था ने उन्हें ज्ञापन देकर स्थानीय लोगों की भावना बतायी तथा अलग राज्य की बात कही। जनवरी 1939 में ठेबले उरांव, थियोडोर सोरेन, बंदीराम उरांव, इग्नेस बेक आदि ने जयपाल सिंह मुंडा से अपनी दूसरी वार्षिक सभा की अध्यक्षता का आग्रह किया।

उन दिनों जयपाल सिंह मुंडा बीकानेर रियासत में राजस्व मंत्री थे। इन सबके आग्रह पर वे महासभा में शामिल हुए। यह महासभा हरमू नदी के किनारे हिंदपीढ़ी के सभाभवन के मैदान में हुई थी। यहां भी छोटा नागपुर तथा संताल परगना को मिलाकर अलग झारखंड बनाने की मांग उठाई गयी। इसके बाद संस्था की बागडोर जयपाल सिंह मुंडा को दे दी गयी। 1950 में यह संस्था झारखंड पार्टीबन गयी और राजनीति में आ गयी।

ठेबले उरांव का समाज में व्यापक प्रभाव था। पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से उनके अच्छे संबंध थे। वे भारत की संविधान सभा के सदस्य तथा फिर पहली संसद में सांसद भी बने। बिहार राज्य में जनजाति संबंधी नीति बनाते समय उनकी सलाह जरूर ली जाती थी। वे बिहार कृषि सलाहकार समिति के सदस्य थे। लोकसभा में उन्होंने अपनी मातृभाषा कुडुख में भाषण दिया था। उन दिनों बिहार में प्रभावी जमींदार, राजा आदि वनवासी लड़कियों को अपनी सेवा में रख लेते थे। इस सामाजिक पतन को रोकने के लिए उन्होंने डा. राजेन्द्र प्रसाद की प्रेरणा से सनातन आदिवासी सभाबनायी।

ठेबले उरांव प्रकृति प्रेमी सरना धर्मको मानते थे। यह हिन्दू धर्म का ही एक रूप था। उन दिनों झारखंड में मिशनरी बहुत सक्रिय थे। वे सभी प्रभावी लोगों को अपने साथ लेना चाहते थे। ठेबले उरांव के उनसे अच्छे संबंध थे; पर उन्होंने ईसाई मत स्वीकार नहीं किया। पहले विश्व युद्ध के समय रांची से ब्रिटिश सैनिकों के लिए गोमांस भेजा जाता था। गोभक्त ठेबले उरांव ने इसके विरोध में आंदोलन चलाया और फिर इसके लिए एक संस्था भी बनायी।

ठेबले उरांव का जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा के लिए समर्पित था। वे बहुत गरीबी में पले थे। यद्यपि सांसद बनने पर उनकी आर्थिक स्थिति ठीक हो गयी; पर उनके जीवन में सादगी बनी रही। एक जून, 1958 को 95 साल की परिपूर्ण आयु में उनका देहांत हुआ। प्रतिवर्ष 25 नवंबर को बड़ी संख्या में लोग उनके जन्मस्थान पर आकर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं।

(दै.जा. 27.3.22, सप्तरंग/3, संजय कृष्ण)

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25 नवम्बर/जन्म-दिवस

पंडित राधेश्याम कथावाचक

उर्दू मिश्रित हिन्दी में रामायण और उसके नाट्य रूपान्तर को घर-घर लोकप्रिय करने वाले पंडित राधेेश्याम कथावाचक का जन्म बरेली (उ.प्र.) के बिहारीपुर मोहल्ले में 25 नवम्बर, 1890 को हुआ था। 

उनके पिता पं.बांकेलाल तथा माता श्रीमती रामप्यारी देवी थीं। पं. बांकेलाल गाने के शौकीन तथा कई रागिनियों के जानकार थे। आसपास होने वाली रामलीलाओं में वे जब अपनी खनकदार आवाज में चौपाई गाते, तो धूम मच जाती थी। चंग बजाकर ‘लावनी’ गाने का भी उन्हें शौक था। कई बार बालक राधेश्याम भी उनका साथ देता था। हारमोनियम की प्रारम्भिक शिक्षा तो उन्हें पिता से ही मिली; पर आगे चलकर उन्होंने पंडित बहादुरलाल से विधिवत हारमोनियम सीखा। इस प्रकार उन्हें यह विरासत अपने पिता से प्राप्त हुई।

पिताजी की इच्छानुसार राधेश्याम जी इसी दिशा में आगे बढ़े। वे बहुत अच्छे ढंग से ‘रुक्मिणी मंगल’ की कथा का पाठ करते थे। उन्होंने अपने पिता के साथ प्रयाग में मोतीलाल नेहरू की पत्नी स्वरूप रानी के बहुत बीमार होने पर उनके घर पर एक महीने तक लगातार रामचरित मानस का पाठ किया था। 

इसके बाद वे स्वतंत्र रूप से कथा बांचने लगे और उन्होंने अपने नाम के आगे कथावाचक भी लिखना प्रारम्भ कर दिया। खद्दर की साफ धुली कुछ चौड़ी किनारी वाली धोती, प्रायः भगवा कुर्ता, माथे पर चंदन का तिलक और छोटे बाल, यही अब उनकी वेशभूषा बन गयी। 

वे मुख्यतः रामायण और महाभारत को ही आधार बनाकर कथा कहते थे। हिन्दी से इतर भाषी प्रान्तों में वे अधिक जाते थे। इस प्रकार उन्होंने इन क्षेत्रों में हिन्दी का भी प्रचार-प्रसार किया। वे पारसी थियेटर की तर्ज पर धार्मिक नाटक भी लिखते और मंचित कराते थे। उन्होंने नाटक में सुधार और परिष्कार कर नारद की भूमिका को विशेष रूप से सब नाटकों में जोड़ा। 

उन्होंने मुसलमान पात्रों को भी हिन्दू देवताओं के अभिनय हेतु प्रेरित किया। 1911-12 में पं0 मदनमोहन मालवीय जी को बरेली में उन्होंने अपने नाटक के अंश सुनाकर उनका आशीर्वाद पाया। वे मालवीय जी को अपना गुरु मानते थे। आगे चलकर जीवन के 50वें वर्ष में उन्होंने पत्नी सहित उनसे विधिवत दीक्षा भी ली।

उनके नाटकों की भाषा के बारे में प्रारम्भ में लोगों को संदेह था, क्योंकि उसके संवाद शुद्ध हिन्दी में होते थे; पर उन्हें भरपूर सफलता मिली। यद्यपि आगे चलकर राधेश्याम जी ने अपनी लेखन शैली में परिवर्तन कर उर्दू मिश्रित हिन्दी का प्रयोग किया, इससे उन्हें और अधिक सफलता मिली। 

वे हिन्दी के प्रखर समर्थक होते हुए भी उर्दू के प्रचलित शब्दों के प्रयोग करने के विरोधी नहीं थे। वे एक स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में हिन्दी को स्थापित करना चाहते थे। इस बारे में वे देवकीनंदन खत्री के समर्थक थे, जिनके अनुसार समय आने पर हिन्दी स्वयं ही यात्री गाड़ी से एक्सप्रेस गाड़ी बन जाएगी।

पंडित राधेश्याम कथावाचक को असली प्रसिद्धि ‘राधेश्याम रामायण’ से  मिली। जब वह प्रकाशित हुई, तो उसकी धूम मच गयी। हिन्दीभाषी क्षेत्र में दशहरे से पूर्व होने वाल रामलीलाएं उसी आधार पर होने लगीं। इसके बाद भी वे कथा वाचन से जुड़े रहे, क्योंकि उन्होंने प्रारम्भ इसी से किया था। वे कथावाचकों के जीवन में भी सादगी और पवित्रता के पक्षधर थे। उन्होंने स्वयं ऐसा ही जीवन जिया, इसीलिए उनके उपदेशों का श्रोताओं पर अच्छा असर पड़ता था।

इसी प्रकार देश, धर्म और हिन्दी की सेवा करते हुए 26 अगस्त, 1963 को बरेली में ही उनका देहांत हुआ। 

(संदर्भ : जनसत्ता, 19.4.09)
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26 नवम्बर/बलिदान-दिवस

क्रांतिवीर अशोक नन्दी

न्याय को प्रायः अन्धा कहा जाता है, क्योंकि वह निर्णय करते समय केवल कानून को देखता है, व्यक्ति को नहीं; पर अंग्रेजी राज में कभी-कभी न्यायाधीश भी अन्धों की तरह व्यवहार करते थे। क्रांतिवीर अशोक नंदी को इसका दुष्परिणाम अपने प्राण देकर चुकाना पड़ा।

अशोक नंदी एक युवा क्रांतिकारी था। देखने में वह दुबला पतला तथा अत्यन्त सुंदर था; पर उसके दिल में देश को स्वाधीन कराने की आग जल रही थी। इसीलिए वह क्रांतिकारी दल में शामिल होकर बम बनाने लगा। एक बार पुलिस ने बम फैक्ट्री पर छापा मारा, तो वह भी पकड़ा गया। इसलिए उसे जेल में बंद कर ‘अलीपुर बम कांड’ के अन्तर्गत मुकदमा चलाया गया।

पुलिस ने उस पर दो मुकदमे लाद दिये। एक मुकदमा विस्फोटक पदार्थों से संबंधित था, तो दूसरा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध युद्ध का। क्रांतिकारी लोग सावधानी रखते हुए बम की सारी सामग्री एक ही जगह नहीं बनाते थे। इससे विस्फोट होने के साथ ही अन्य कई तरह के खतरे भी थे। जहां से अशोक नंदी पकड़ा गया, वहां बम का केवल एक भाग ही बनता था। इस आधार पर वकीलों ने बहस कर उसे निर्दोष सिद्ध करा दिया। 

पर दूसरे मुकदमे में उसे सात वर्ष के लिए अंदमान जेल का दंड दिया गया। अशोक के परिजनों ने इसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की। इसलिए उसे अंदमान भेजना तो स्थगित हो गया; पर जेल में उसे अमानवीय परिस्थितियों में रखा गया। इससे वह जोड़ों की टी.बी. से ग्रस्त हो गया।

उच्च न्यायालय में कोलकाता के प्रसिद्ध देशभक्त वकील श्री चितरंजन दास ने अशोक नंदी का मुकदमा लड़ा। चितरंजन दास जी की योग्यता की देश भर में धाक थी। उन्होंने न्यायाधीश से अशोक नंदी की जमानत का आग्रह करते हुए कहा कि एक मुकदमे में वह निर्दोष सिद्ध हो चुका है। दूसरे पर उच्च न्यायालय में विचार हो रहा है। फिर उसका स्वास्थ्य भी बहुत खराब है। अतः  उसे जमानत पर जेल से छोड़ देना चाहिए। 

पर न्यायाधीश ने इन तर्कों को नहीं सुना। उसने अपील ठुकराते हुए कहा कि अभियुक्त को दुमंजिले अस्पताल के हवादार कमरे में रखा गया है। उसका इलाज भी किया जा रहा है। इतनी अच्छी सुविधाएं उसे अपने घर में भी नहीं मिलेंगी। अतः उसे जमानत पर नहीं छोड़ा जा सकता। 

अब श्री चितरंजन दास ने अशोक नंदी के पिताजी को सुझाव दिया कि वे बंगाल के गवर्नर महोदय के पास जाकर अपनी बात कहें। यदि वे चाहें, तो अशोक की जमानत हो सकती है। मरता क्या न करता; अशोक के पिताजी ने गवर्नर महोदय के पास जाकर प्रार्थना की। उनका दिल न्यायाधीश जैसा कठोर नहीं था। उन्होंने प्रार्थना स्वीकार कर ली। 

अब न्यायालय के सामने भी उसे छोड़ने की मजबूरी थी। 26 नवम्बर, 1909 को न्यायाधीश ने अशोक नंदी को निर्दोष घोषित कर रिहाई के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिये; पर मुक्ति के कागज लेकर जब पुलिस और अशोक के परिजन जेल पहुंचे, तो उन्हें पता लगा कि वह तो इस जीवन से ही मुक्त होकर वहां जा चुका है, जहां से कोई लौटकर नहीं आता। 

इस प्रकार न्यायालय की कठोर प्रक्रिया ने एक 19 वर्षीय, तपेदिक के रोगी, युवा क्रांतिवीर को जेल के भीतर ही प्राण देने को बाध्य कर दिया। 

(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश)
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26 नवम्बर/जन्म-दिवस    

महान गोभक्त लाला हरदेवसहाय

गोरक्षा आन्दोलन के सेनापति लाला हरदेवसहाय जी का जन्म 26 नवम्बर, 1892 को ग्राम सातरोड़ (जिला हिसार, हरियाणा) में एक बड़े साहूकार लाला मुसद्दीलाल के घर हुआ था। संस्कृत प्रेमी होने के कारण उन्होंने बचपन में ही वेद, उपनिषद, पुराण आदि ग्रन्थ पढ़ डाले थे। उन्होंने स्वदेशी व्रत धारण किया था। अतः आजीवन हाथ से बुने सूती वस्त्र ही पहने।

लाला जी पर श्री मदनमोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक तथा स्वामी श्रद्धानंद का विशेष प्रभाव पड़ा। वे अपनी मातृभाषा में शिक्षा के पक्षधर थे। अतः उन्होंने ‘विद्या प्रचारिणी सभा’ की स्थापना कर 64 गांवों में विद्यालय खुलवाए तथा हिन्दी व संस्कृत का प्रचार-प्रसार किया। 1921 में तथा फिर 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में वे सत्याग्रह कर जेल गये। 

लाला जी के मन में निर्धनों के प्रति बहुत करुणा थी। उनके पूर्वजों ने स्थानीय किसानों को लाखों रुपया कर्ज दिया था। हजारों एकड़ भूमि उनके पास बंधक थी। लाला जी वह सारा कर्ज माफ कर उन बहियों को ही नष्ट कर दिया, जिससे भविष्य में उनका कोई वंशज भी इसकी दावेदारी न कर सके। भाखड़ा नहर निर्माण के लिए हुए आंदोलन में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही।

1939 में हिसार के भीषण अकाल के समय मनुष्यों को ही खाने के लाले पड़े थे, तो ऐसे में गोवंश की सुध कौन लेता ? लोग अपने पशुओं को खुला छोड़कर अपनी प्राणरक्षा के लिए पलायन कर गये। ऐसे में लाला जी ने दूरस्थ क्षेत्रों में जाकर चारा एकत्र किया और लाखों गोवंश की प्राणरक्षा की। उन्हें अकाल से पीड़ित ग्रामवासियों की भी चिन्ता थी। उन्होंने महिलाओं के लिए सूत कताई केन्द्र स्थापित कर उनकी आय का स्थायी प्रबंध किया। 

सभी गोभक्तों का विश्वास था कि देश स्वाधीन होते ही संपूर्ण गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध लग जाएगा; पर गांधी जी और नेहरु इसके विरुद्ध थे। नेहरु ने तो नये बूचड़खाने खुलवाकर गोमांस का निर्यात प्रारम्भ कर दिया। लाला जी ने नेहरु को बहुत समझाया; पर वे अपनी हठ पर अड़े रहे। लाला जी का विश्वास था कि वनस्पति घी के प्रचलन से शुद्ध घी, दूध और अंततः गोवंश की हानि होगी। अतः उन्होंने इसका भी प्रबल विरोध किया।

लाला जी ने ‘भारत सेवक समाज’ तथा सरकारी संस्थानों के माध्यम से भी गोसेवा का प्रयास किया। 1954 में उनका सम्पर्क सन्त प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा करपात्री जी महाराज से हुआ। ब्रह्मचारी जी के साथ मिलकर उन्होंने कत्ल के लिए कोलकाता भेजी जा रही गायों को बचाया।
इन दोनों के साथ मिलकर लालाजी ने गोरक्षा के लिए नये सिरे से प्रयास प्रारम्भ किये। अब उन्होंने जनजागरण तथा आन्दोलन का मार्ग अपनाया। इस हेतु फरवरी 1955 में प्रयाग कुम्भ में ‘गोहत्या निरोध समिति’ बनाई गयी।

लाला जी ने प्रतिज्ञा की थी कि जब तक देश में पूरी तरह गोहत्या बन्द नहीं हो जायेगी, तब तक मैं चारपाई पर नहीं सोऊंगा तथा पगड़ी नहीं पहनूंगा। उन्होंने आजीवन इस प्रतिज्ञा को निभाया। उन्होंने गाय की उपयोगिता बताने वाली दर्जनों पुस्तकंे लिखीं। उनकी ‘गाय ही क्यों’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक की भूमिका तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखी थी। लाला जी के अथक प्रयासों से अनेक राज्यों में गोहत्या-बन्दी कानून बने। 

30 सितम्बर, 1962 को गोसेवा हेतु संघर्ष करने वाले इस महान गोभक्त  सेनानी का निधन हो गया। उनका प्रिय वाक्य ‘गाय मरी तो बचता कौन, गाय बची तो मरता कौन’ आज भी पूरी तरह प्रासंगिक है।

(संदर्भ : लाला हरदेव सहाय, जीवनी/लेखक एम.एम.जुनेजा)
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26 नवम्बर/जन्म-दिवस    

दुग्ध क्रांति के जनक वर्गीज कुरियन

कहते हैं कि किसी समय भारत में दूध-दही की नदियां बहती थीं; पर फिर ऐसा समय भी आया कि बच्चों तक को शुद्ध दूध मिलना कठिन हो गया। इस समस्या को चुनौती के रूप में स्वीकार करने वाले श्री वर्गीज कुरियन का जन्म 26 नवम्बर, 1921 को कोझीकोड (केरल) में हुआ था। मैकेनिकल इंजीनियर की पढ़ाई कर वे सेना में भर्ती होना चाहते थे; पर कुछ समय पूर्व ही उनके पिता की मृत्यु हुई थी। अतः मां ने उन्हें अनुमति नहीं दी और चाचा के पास जमशेदपुर भेजकर टाटा उद्योग में काम दिला दिया।

1944 में सरकारी छात्रवृत्ति पाकर उन्होंने अमरीका के मिशिगन वि.वि. से मैकेनिकल तथा डेयरी विज्ञान की पढ़ाई की। इससे पूर्व उन्होंने राष्ट्रीय डेरी शोध संस्थान, बंगलौर में भी प्रशिक्षण लिया था। पढ़ाई पूरी होते ही अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी यूनियन कार्बाइड ने उन्हें बहुत अच्छे वेतन पर कोलकाता में नौकरी का प्रस्ताव दिया; पर सरकारी अनुबन्ध के कारण उन्हें 1949 में गुजरात के एक छोटे से कस्बे आनंद के डेरी संस्थान में नौकरी स्वीकार करनी पड़ी। 

श्री कुरियन खाली समय में वहां कार्यरत ‘खेड़ा जिला दुग्ध उत्पादक संघ’ की कार्यशाला में चले जाते थे। यह घाटे में चल रही एक सहकारी समिति थी, जिसकी देखरेख श्री त्रिभुवन दास पटेल करते थे। श्री कुरियन के सुझावों से इसकी स्थिति सुधरने लगी। गांव वालों का विश्वास भी उनके प्रति बढ़ता गया। अतः अनुबंध पूरा होते ही उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़कर 800 रु. मासिक पर इस समिति में प्रबंधक का पद स्वीकार कर लिया।

श्री कुरियन के प्रयासों से समिति के चुनाव समय पर होने लगे। काम में पारदर्शिता आने से गांव के लोग स्वयं ही इससे जुड़ने लगे। उन्होंने अपनी समिति से लोगों को अच्छी नस्ल की गाय व भैंसों के लिए कर्ज दिलवाया तथा दूध की उत्पादकता के साथ ही उसकी शुद्धता पर भी जोर दिया। कुछ ही समय में उनकी सफलता की चर्चा पूरे देश में होने लगी। 

1965 में प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री ने उन्हें पूरे देश में इसी तरह का काम प्रारम्भ करने को कहा। श्री कुरियन ने दो शर्तें रखी। पहली तो यह कि उनका मुख्यालय आनंद में ही होगा और दूसरी यह कि सरकारी अधिकारी उनके काम में हस्तक्षेप नहीं करेंगे। शास्त्री जी ने इसे मान लिया। इस प्रकार आनंद और अमूल के उदाहरण के आधार पर पूरे देश में काम प्रारम्भ हो गया। 

उनकी कार्यशैली के परिणाम शीघ्र ही दिखाई देने लगे। उन दिनों गर्मियों में दूध की कमी हो जाती थी। अतः महंगे दामों पर विदेश से दूध मंगाना पड़ता था; पर आज वर्ष भर पर्याप्त दूध उपलब्ध रहता है। उन्होंने विश्व में पहली बार भैंस के दूध से पाउडर बनाने की विधि भी विकसित की। 

वैश्विक ख्याति के व्यक्ति होने के बाद भी वे टाई या सूट जैसे आडम्बर से दूर रहते थे। उनके प्रयासों से गुजरात और फिर भारत के लाखों दूध उत्पादकों की आर्थिक तथा सामाजिक स्थिति में सुधार हुआ। उनकी उपलब्धियों को देखकर उन्हें राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय स्तर के अनेक प्रतिष्ठित सम्मान मिले। 

भारत को विश्व में सर्वाधिक दूध उत्पादक देश बनाने वाले दुग्ध क्रांति के पुरोधा श्री कुरियन का 90 वर्ष की आयु में नौ सितम्बर, 2012 को अपनी कर्मभूमि आनंद में ही देहांत हुआ। वे जन्म से ईसाई होते हुए भी अनेक हिन्दू मान्यताओं के समर्थक थे। अतः उनकी इच्छानुसार आनंद के कैलाश धाम में सर्वधर्म प्रार्थना सभा के बीच उनका दाह संस्कार किया गया।

(संदर्भ : 10/11.9.2012 के समाचार पत्र आदि)
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27 नवम्बर/इतिहास-स्मृति

कोटली के अमर बलिदानी

‘हंस के लिया है पाकिस्तान, लड़ के लेंगे हिन्दुस्तान’ की पूर्ति के लिए नवनिर्मित पाकिस्तान ने 1947 में ही कश्मीर पर हमला कर दिया। देश रक्षा के दीवाने संघ के स्वयंसेवकों ने उनका प्रबल प्रतिकार किया। उन्होंने भारतीय सेना, शासन तथा जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरिसिंह को इन षड्यन्त्रों की समय पर सूचना दी। इस गाथा का एक अमर अध्याय 27 नवम्बर, 1948 को कोटली में लिखा गया, जो इस समय पाक अधिकृत कश्मीर में है। 

युद्ध के समय भारतीय वायुयानों द्वारा फेंकी गयी गोला-बारूद की कुछ पेटियां शत्रु सेना के पास जा गिरीं। उन्हें उठाकर लाने में बहुत जोखिम था। वहां नियुक्त कमांडर अपने सैनिकों को गंवाना नहीं चाहते थे, अतः उन्होंने संघ कार्यालय में सम्पर्क किया। उन दिनों स्थानीय पंजाब नैशनल बैंक के प्रबंधक श्री चंद्रप्रकाश कोटली में नगर कार्यवाह थे। उन्होंने कमांडर से पूछा कि कितने जवान चाहिए ? कमांडर ने कहा - आठ से काम चल जाएगा। चंद्रप्रकाश जी ने कहा - एक तो मैं हूं, बाकी सात को लेकर आधे घंटे में आता हूं।

चंद्रप्रकाश जी ने जब स्वयंसेवकों को यह बताया, तो एक-दो नहीं, 30 युवक इसके लिए प्रस्तुत हो गये। कोई भी देश के लिए बलिदान होने के इस सुअवसर को गंवाना नहीं चाहता था। चंद्रप्रकाश जी ने बड़ी कठिनाई से सात को छांटा; पर बाकी भी जिद पर अड़े थे। अतः उन्हें ‘आज्ञा’ देकर वापस किया गया। सबने अपने आठों साथियों को सजल नेत्रों से विदा किया।

सैनिक कमांडर ने उन आठों को पूरी बात समझाई। भारतीय और शत्रु सेना के बीच में एक नाला था, जिसके पार वे पेटियां पड़ी थीं। शाम का समय था। सर्दी के बावजूद स्वयंसेवकों ने तैरकर नाले को पार किया तथा पेटियां अपनी पीठ पर बांध लीं। इसके बाद वे रेंगते हुए अपने क्षेत्र की ओर बढ़ने लगे; पर पानी में हुई हलचल और शोर से शत्रु सैनिक सजग हो गये और गोली चलाने लगे। इस गोलीवर्षा के बीच स्वयंसेवक आगे बढ़ते रहे।

इसी बीच श्री चंद्रप्रकाश और श्री वेदप्रकाश को गोली लग गयी। उस ओर ध्यान दिये बिना बाकी छह स्वयंसेवक नाला पारकर सकुशल अपनी सीमा में आ गये और कमांडर को पेटियां सौंप दी। अब अपने घायल साथियों को वापस लाने के वे फिर नाले को पार कर शत्रु सीमा में पहुंच गये। उनके पहुंचने तक उन दोनों वीर स्वयंसेवकों के प्राण पखेरू उड़ चुके थे। स्वयंसेवकों ने उनकी लाश को अपनी पीठ पर बांधा और लौट चले। यह देख शत्रुओं ने गोलीवर्षा तेज कर दी। इससे एक स्वयंसेवक और मारा गया। 

उसकी लाश को भी पीठ पर बांध लिया गया। तब तक एक अन्य गोली ने चौथे स्वयंसेवक की कनपटी को बींध दिया। वह भी मातृभूमि की रक्षा हित बलिदान हो गया। इस दल के वापस लौटने का दृश्य बड़ा कारुणिक था। चार बलिदानी स्वयंसेवक अपने चार घायल साथियों की पीठ पर बंधे थे। जब उन्हें चिता पर रखा गया, तो ‘भारत माता की जय’ के निनाद से आकाश गूंज उठा। नगरवासियों ने फूलों की वर्षा की।

इन स्वयंसेवकों का बलिदान रंग लाया। उन पेटियांे से प्राप्त सामग्री से सैनिकों का उत्साह बढ़ गया। वे भूखे शेर की तरह शत्रु पर टूट पड़े। कुछ ही देर में शत्रुओं के पैर उखड़ गये और चिता की राख ठंडी होने से पहले ही पहाड़ी पर तिरंगा फहराने लगा। सेना के साथ प्रातःकालीन सूर्य ने भी अपनी पहली किरण चिता पर डालकर उन स्वयंसेवकों को श्रद्धांजलि अर्पित की। 

(संदर्भ : पांचजन्य 28.2.2010)
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28 नवम्बर/जन्म-दिवस

क्रान्तिकारी भाई हिरदाराम

भारत का चप्पा-चप्पा उन वीरों के स्मरण से अनुप्राणित है, जिन्होंने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपना तन, मन और धन समर्पित कर दिया। उनमें से ही एक भाई हिरदाराम का जन्म 28 नवम्बर, 1885 को मण्डी (हिमाचल प्रदेश) में श्री गज्जन सिंह स्वर्णकार के घर में हुआ था। 

उन दिनों कक्षा आठ से आगे शिक्षा की व्यवस्था मण्डी में नहीं थी। इनके परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि इन्हें बाहर भेज सके। अतः पढ़ने की इच्छा होने के बावजूद इन्हें अपने पुश्तैनी काम में लगना पड़ा।
कुछ समय बाद सरला देवी से इनका विवाह हो गया। इनकी पढ़ाई के शौक को देखकर इनके पिता कुछ अखबार तथा पुस्तकें ले आते थे। उन्हीं से इनके मन में देश के लिए कुछ करने की भावना प्रबल हुई। 

कुछ समय के लिए इनका रुझान अध्यात्म की ओर भी हुआ। 1913 में सान फ्रान्सिस्को में लाला हरदयाल ने ‘गदर पार्टी’ की स्थापना की तथा हरदेव नामक युवक को कांगड़ा में काम के लिए भेजा। इनका सम्पर्क हिरदाराम से हुआ और फिर मण्डी में भी गदर पार्टी की स्थापना हो गयी।

1915 में बंगाल के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस जब अमृतसर आये, तो उनसे बम बनाने का प्रशिक्षण लेने हिरदाराम भी गये थे। यह काम बहुत कठिन तथा खतरनाक था। इनके साथ परमानन्द और डा. मथुरा सिंह को भी चुना गया था। ये तीनों जंगलों में बम बनाकर क्रान्तिकारियों तक पहुँचाते थे।

गदर पार्टी ने 21 फरवरी 1915 का दिन गदर के लिए निश्चित किया था; पर इसकी सूचना अंग्रेजों को मिल गयी। अतः इसे बदलकर 19 फरवरी कर दिया गया; पर तब तक हिरदाराम पुलिस की पकड़ में आ गये। उनके पास कई बम बरामद हुए। अतः उन्हें व उनके साथियों को लाहौर के केन्द्रीय कारागार में ठूँस दिया गया।

26 अप्रैल 1915 को इनके विरुद्ध जेल में ही मुकदमा चलाया गया। तीन न्यायाधीशों के दल में दो अंग्रेज थे। शासन ने इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध बैरिस्टर सी. वेवन पिटमैन को अपनी ओर से खड़ा किया; पर क्रान्तिकारियों की ओर से पैरवी करने वाला कोई नहीं था। जिन 81 अभियुक्तों पर मुकदमा चला, उनमें से भाई हिरदाराम को फाँसी की सजा दी गयी। उनकी अल्पव्यस्क पत्नी सरलादेवी ने वायसराय हार्डिंग से अपील की। इस पर इनकी सजा घटाकर आजीवन कारावास कर दी गयी।

आजीवन कारावास के लिए इन्हें कालेपानी भेजा गया। वहाँ हथकड़ी बेड़ी में कसकर इन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं। चक्की पीसना, बैल की तरह कोल्हू खींचना, हंटरों की मार, रस्सी कूटना और उसके बाद भी घटिया भोजन कालेपानी में सामान्य बात थी।

एक बार उन्होंने देखा कि हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़े एक क्रान्तिकारी को कई लोग कोड़ों से पीट रहे हैं। हिरदाराम ने इसका विरोध किया। इस पर उन्हें 40 दिन तक लोहे के पिंजरे में बन्द कर दिया गया। बाद में पता लगा कि जिसे उसे दिन पीटा जा रहा था, वे वीर सावरकर थे।

काफी समय बीतने पर उन्हें मद्रास स्थानान्तरित कर दिया गया। कारावास पूरा कर जब वे वापस अपने घर मण्डी आये, तब तक उनका शरीर ढल चुका था। 21 अगस्त, 1965 को क्रान्तिवीर भाई हिरदाराम का देहान्त हुआ। उस समय वे अपने पुत्र रणजीत सिंह के साथ शिमला में रह रहे थे।
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28 नवम्बर/रोचक प्रसंग

सिलक्यारा सुरंग अभियान

12 नवम्बर, 2023 को भारत में सभी लोग दीवाली मनाने की तैयारी में थे; पर अचानक उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले से एक दुखद समाचार मिला। वहां गंगोत्री और यमुनोत्री के बीच का मार्ग घटाने के लिए पहाड़ में एक सुरंग बन रही थी। इसका एक सिरा यमुनोत्री मार्ग पर बड़कोट में था, तो दूसरा गंगोत्री मार्ग पर सिलक्यारा में। इससे 22 कि.मी. का रास्ता केवल 4.5 कि.मी रह जाता। इससे यात्रियों का समय, खर्च, गाडि़यों से होने वाला प्रदूषण तथा सर्दियों में हिमपात के कारण रास्ता बंद होने का खतरा भी समाप्त हो जाता।

12 नवम्बर को सिलक्यारा की तरफ सुरंग में अचानक मिट्टी गिरने लगी। सफाई में लगी गाड़ी भी आधी दब गयी और 41 श्रमिक अंदर फंस गये। यह भगवान की कृपा रही कि जिस क्षेत्र में ये श्रमिक फंसे थे, वह दो कि.मी तक पक्का हो चुका था। वहां की बिजली और पानी की सप्लाई चालू थी। कुछ खानपान सामग्री भी वहां मौजूद थी। अगले दिन सिंचाई विभाग के आर्गन पाइप को सुरंग में डाला गया; पर कुछ समय बाद सामने एक पत्थर आ गया। अब वायुसेना के विमान से 750 हाॅर्स पावर का अमरीकी पाइप दिल्ली से मंगाया गया; पर चैथे दिन लोहे की एक बड़ी राॅड इसमें फंस गयी। उसे काटने के लिए इंदौर से एक और मशीन मंगाई गयी।

पर काम इतना आसान नहीं था। इंदौर वाली मशीन भी 50 मीटर अंदर जाकर फंस गयी। अब डी.आर.डी.ओ से प्लाज्मा, लेजर और मैग्मा कटर मंगाये गये। कुछ आगे बढ़कर ये भी रुक गये। असल में जो मलबा गिरा था, उसमें भारी पत्थरों के साथ बड़ी संख्या में मोटे सरिये और गर्डर आदि थे। इसलिए मशीनें बार-बार फंस और टूट रही थीं। अतः पांच अन्य विकल्प सोचे गये और उन पर काम होने लगा। इस बीच अंतरराष्ट्रीय सुरंग विशेषज्ञ आर्नोल्ड डिक्स तथा क्रिस कूपर भी अपनी टीम के साथ आ गये। भारत में उपलब्ध सभी अनुभवी इंजीनियर पहले ही वहां पहुंच चुके थे।

सर्वप्रथम सुरंग में ऊपर से छेद किया जाने लगा, जिससे श्रमिकों तक खानपान सामग्री पहुंच सके। कुछ दिन बाद पाइप से आॅक्सीजन, साफ पानी, ताजा भोजन तथा दवाएं भी पहुंचने लगीं। श्रमिकों का मनोबल बना रहे, इसके लिए विशेषज्ञ चिकित्सकों से उनकी बात कराई जाने लगी। चारों ओर से बंद होने के कारण वहां बहुत ठंड नहीं थी। सबको दो कि.मी. के खुले क्षेत्र में टहलने तथा भजन आदि की सलाह दी गयी। कुछ दिन बाद एक विशेष फोन से श्रमिकों की अपने घर में वीडियो वार्ता होने लगी। एक श्रमिक गबर सिंह नेगी पहले भी एक बार फंस चुके थे। वे सबको हिम्मत दिलाते रहते थे। हर सुबह आशा की किरण लेकर आती थी; पर रात होते तक फिर अंधकार छा जाता था।

अंततः मानव शक्ति रैट माइनर्सकी सहायता ली गयी। ये लोग अंदर जाकर मलबा हटाते और उसे बाहर निकालते थे। आठ मीटर का अंतिम हिस्सा इन्होंने ही साफ किया। इससे वह पाइप श्रमिकों तक पहुंच सका और 28 सितम्बर को सब बाहर आ गये। इस अभियान में राज्य और केन्द्र सरकार के समन्वय का बड़ा योगदान रहा। इससे हर आवश्यक उपकरण तुरंत आ जाता था। तेल एवं प्राकृतिक गैर आयोग, सतलुज जल विद्युत विकास निगम, सीमा सड़क संगठन, थलसेना, वायुसेना, रेलवे आदि ने मिलकर काम किया।

दिल्ली से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी अभियान पर नजर बनाए हुए थे। केन्द्रीय मंत्री वी.के.सिंह पूरे समय उत्तरकाशी में ही रहे। सुरंग के बाहर 41 श्रमिकों के लिए 41 एंबुलेंस तैयार थीं। बाहर आते ही उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, ऋषिकेश भेज दिया गया। इस प्रकार यह अभियान पूरा हुआ और सबने राहत की सांस ली। वहां स्थानीय लोकदेवता बाबा बौखनाथ का मंदिर है। सुरंग निर्माता कंपनी अब उसे भव्य रूप दे रही है।

(पांचजन्य 7.1.24 तथा सामयिक अखबार)

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29 नवम्बर/जन्म-दिवस 

सेवाव्रती ठक्कर बापा

पूजा का अर्थ एकान्त में बैठकर भजन करना मात्र नहीं है। निर्धन और निर्बल, वन और पर्वतों में रहने वाले अपने भाइयों की सेवा करना भी पूजा ही है। अमृतलाल ठक्कर ने इसे अपने आचरण से सिद्ध कर दिखाया। उनका जन्म 29 नवम्बर, 1869 को भावनगर (सौराष्ट्र, गुजरात) में हुआ था। उनके पिता श्री विट्ठलदास ठक्कर धार्मिक और परोपकारी व्यक्ति थे। यह संस्कार अमृतलाल जी पर भी पड़ा और उन्हें सेवा में आनन्द आने लगा।

शिक्षा के बाद उन्हें पोरबन्दर राज्य में अभियन्ता की नौकरी मिली। वे रेल विभाग के साथ तीन साल के अनुबन्ध पर युगांडा गये। वहाँ से लौटे तो उनके क्षेत्र में दुर्भिक्ष फैला हुआ था। यह देखकर उनसे रहा नहीं गया और वे इनकी सेवा में जुट गयेे। यहीं से उनका नाम ‘ठक्कर बापा’ पड़ गया। 

इसके बाद उन्होंने मुम्बई नगर निगम में काम किया। इस पद पर रहते हुए उन्हें सफाईकर्मियों के लिए उल्लेखनीय कार्य किये। 1909 में पत्नी के देहान्त के बाद निर्धनों की सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर वे मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में बसे वनवासियों के बीच काम करने लगे। 

यह काम करते समय उन्होंने देखा कि वहाँ विदेशों से आये मिशनरियों ने विद्यालय, चिकित्सालय आदि खोल रखे थे; पर वे वनवासियों की अशिक्षा, निर्धनता, अन्धविश्वास आदि का लाभ उठाकर उन्हें धर्मान्तरित कर रहे थे। बापा ने इस दुश्चक्र को तोड़ने का निश्चय कर लिया। इसके लिए वे हरिकृष्ण देव के साथ ‘भारत सेवक समाज’ में सम्मिलित हो गये। 

उन्होंने गांधी जी, गोपाल कृष्ण गोखले, देवधर दादा, सुखदेव भाई और श्रीनिवास शास्त्री के साथ भी काम किया; पर राजनीतिक कार्य उनके अनुकूल नहीं थे। इसलिए वे उधर से मन हटाकर पूरी तरह वनवासियों के बीच काम करने लगे। 1914 में मुंबई नगर निगम की स्थायी नौकरी छोड़कर वे ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसायटी’ के माध्यम से पूरे समय काम में लग गये। 

1920 में उड़ीसा के पुरी जिले में बाढ़ के समय ठक्कर बापा ने लम्बे समय तक काम किया। 1946 में नोआखाली में हिन्दुओं के नरसंहार के बाद वहां जाकर भी उन्होंने सेवाकार्य किये। वे जिस काम में हाथ डालते, उसका गहन अध्ययन कर विभिन्न पत्रों में लेख लिखकर जनता से सहयोग मांगते थे। उनकी प्रतिष्ठा के कारण भरपूर धन उन्हें मिलता था। इसका सदुपयोग कर वे उसका ठीक हिसाब रखते थे। 

ठक्कर बापा जहाँ भी जाते थे, वहाँ तात्कालिक समस्याओं के निदान के साथ कुछ स्थायी कार्य भी करते थे, जिससे उस क्षेत्र के लोगों का जीवन उन्नत हो सके। विद्यालय, चिकित्सालय और आश्रम इसका सर्वश्रेष्ठ माध्यम थे। उन्होंने अनेक स्थानों पर प्रचलित बेगार प्रथा के विरोध में आन्दोलन चलाए। स्वतन्त्रता के बाद जब असम में भूकम्प आया, तब वहाँ के राज्यपाल के आग्रह पर अपने सहयोगियों के साथ वहाँ जाकर भी उन्होंने सेवा कार्य किये।

1932 में गांधी जी के आग्रह पर वे ‘हरिजन सेवक संघ’ के मंत्री बने। श्री घनश्याम दास बिड़ला ने इसका अध्यक्ष पद इसी शर्त पर स्वीकार किया कि ठक्कर बापा इसके मंत्री होंगे। बापा ने भील सेवा मंडल, अन्त्यज सेवा मंडल आदि संस्थाएं बनाकर इन वर्गों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति सुधारने के प्रयास किये। उन्हें सेवा कार्य में ही आनंद आता था। देश में कहीं भी, कैसी भी सेवा की आवश्यकता हो, वे वहां जाने को सदा तत्पर रहते थे।

19 जनवरी, 1951 को भावनगर में अपने परिजनों के बीच महान सेवाव्रती ठक्कर बापा का देहांत हुआ। 

(संदर्भ : सेवाव्रती ठक्कर बापा, गिरीश चंद्र मिश्र)
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29 नवम्बर/प्रेरक-प्रसंग

एकात्मता रथों का त्रिवेणी महासंगम

विश्व हिन्दू परिषद के नाम और काम को फैलाने में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन का बहुत बड़ी भूमिका है; पर इससे पूर्व संगठन का विस्तार भी जरूरी था। अतः 1983 में एकात्मता यज्ञयात्रा का आयोजन किया गया। इस अद्भुत योजना के रचनाकार थे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक मोरोपंत पिंगले, जिन्होंने स्वयं नेपथ्य में रहकर पूरे कार्यक्रम को दिशा दी।

1981 में हुए मीनाक्षीपुरम् धर्मान्तरण कांड से संघ परिवार में चिन्ता व्याप्त थी। अतः कुछ ऐसा आयोजन करने का विचार हुआ, जिससे हिन्दुओं के सभी मत, पंथ, संप्रदाय एक साथ आ सकें। इसके लिए तीन ट्रकों पर गंगा माता और भारत माता की विशाल मूर्तियों वाले तीन रथ बनवाए गये। तांबे के बड़े कुंभ में गंगोत्री का पावन जल था। पहला पशुपति रथ’ 28 अक्तूबर को काठमांडु से चलकर 16 दिसम्बर को रामेश्वर पहुंचा। दूसरा महादेव रथ’ 16 नवंबर को हरिद्वार से चलकर 20 दिसम्बर को कन्याकुमारी पहुंचा। तीसरा कपिल रथ’ 15 नवंबर को गंगासागर से चलकर सोमनाथ तक गया।

इन तीन प्रमुख यात्राओं के साथ 312 उपयात्राएं भी थीं। इनमें उस क्षेत्र की पवित्र नदी और तीर्थों का जल लिया गया। इस प्रकार 38,526 स्थानों से 77,440 पवित्र कलश आये। उपयात्रा का कार्यक्रम ऐसे बनाया गया जिससे देश के सभी विकास खंडों तक ये पहुंच सकें। इसके बाद वे किसी एक प्रमुख यात्रा के साथ मिल जाते थे। हर जगह आठ-दस लोगों की स्वागत एवं संचालन समिति बनाई गयी। 974 स्थानों पर यात्राओं का रात्रि विश्राम हुआ। इस दौरान 4,323 धर्मसभाएं हुईं, जिसमें कुल मिलाकर 7.28 करोड़ लोग सहभागी हुए। इन रथों ने 50,000 कि.मी से अधिक की दूरी तय की।

यात्रा से पहले इसका पूरा विवरण वि.हि.प महासचिव हरमोहन लाल जी, संयुक्त महासचिव अशोक सिंहल, कार्यालय मंत्री जसवंत राय तथा स्वागत समिति के अध्यक्ष स्वामी विजयानंद ने राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह को दिया। वे यह योजना सुनकर तथा इसका नक्शा देखकर हैरान रह गये। उन्होंने इसके लिए शुभकामनाएं दीं। पूरी यात्रा में हिन्दुओं का उत्साह अवर्णनीय रहा। सभी दलों के राजनेता अपने मतभेद भूलकर दर्शन को आये। पुरुषों से अधिक उत्साह महिलाओं में था। हरिद्वार से कई लाख प्लास्टिक की छोटी बोतलों में गंगाजल भरा गया, जो यात्रा के दौरान प्रसाद के रूप में श्रद्धालुओं को दिया गया।

एकात्मता यज्ञ यात्रा की सफलता में वि.हि.प अध्यक्ष महाराणा भगवत सिंह मेवाड़, जगद्गुरु शंकराचार्य शांतानंद जी, स्वामी चिन्मयानंद जी, कांची के शंकराचार्य, जैन मुनि, बौद्ध भिक्खु, सिख संत, कबीरपंथी महंतों आदि ने पूर्ण सहयोग दिया। एक ओर इसमें निर्धन वर्ग उमड़ रहा था, तो दूसरी ओर उद्योगपति भी सहयोग कर रहे थे। कुछ जगह विघ्नसंतोषियों ने बाधा डाली; पर दो महीने तक पूरा देश भारत माता और गंगा माता की जयकारों से गूंजता रहा। मीडिया ने भी बहुत सहयोग दिया। यात्रा की योजना इतनी परिपूर्ण थी कि कोई कार्यक्रम निरस्त या देरी से नहीं हुआ। हर दिन औसत तीन धर्मसभा हुईं।

इस यात्रा में 29 नवंबर, 1983 का दिन बहुत विशेष है। इस दिन तीनों प्रमुख रथों का संगम तथा विराट धर्मसभा नागपुर के रेशीम बाग में हुई। यहीं संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार की समाधि तथा दूसरे सरसंघचालक श्री गुरुजी का स्मृति चिन्ह बना है। संघ के बड़े शिविर आदि इसी परिसर में होते हैं। मैदान तथा आसपास की सड़कें खचाखच भरी थीं। सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस पूरे कार्यक्रम में उपस्थित रहे। एक दिन पूर्व उन्होंने भारत माता की मूर्तियों के निर्माता दम्पति तथा जगाधरी में बने बड़े कुंभ/कलश के निर्माता भाइयों का सम्मान किया। यात्रा के स्वागत आदि लिए बनी समितियां बाद में वि.हि.प में समाहित हो गयीं। इस संगठन के बल पर ही फिर राममंदिर आंदोलन हुआ।

(विहिप की 42 वर्षीय विकास यात्रा/71, रघुनंदन प्रसाद शर्मा)

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30 नवम्बर/जन्म-दिवस

धुन के पक्के भूषणपाल जी

भूषणपाल जी का जन्म 30 नवम्बर, 1954 को जम्मू-कश्मीर राज्य के किश्तवाड़ नामक नगर में हुआ था। उनके पिता श्री चरणदास गुप्ता तथा माता श्रीमती शामकौर थीं। चारों ओर फैली सुंदर हिमाच्छादित पर्वत शृंखलाओं और कल-कल बहती निर्मल नदियों ने उनके मन में भारत माता के प्रति प्रेम का भाव कूट-कूट कर भर दिया। उच्च शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने कुछ समय किश्तवाड़ के भारतीय विद्या मंदिर में पढ़ाया; पर मातृभूमि के लिए कुछ और अधिक करने की इच्छा के चलते 1981 में वे प्रचारक बन गये।

चार भाइयों में से तीसरे नंबर के भूषणपाल जी छात्र जीवन में ही संघ की विचारधारा में रम गये थे। उनका अधिकांश समय शाखा कार्य में ही लगता था। नगर की अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी वे सक्रिय रहते थे। आपातकाल में कई स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह कर वे कारागृह में भी रहे। 

भारत में लोग चाहते हैं कि शिवाजी पैदा तो हो; पर वह अपने नहीं, पड़ोसी के घर में जन्म ले, तो अच्छा है। इस भूमिका के कारण ही हिन्दुओं की दुर्दशा है। सामान्यतः जब कोई युवक प्रचारक बनता है, तो उसके परिवारजन घर की समस्याओं और जिम्मेदारियां बताकर उसे इस पथ पर जाने से रोकते हैं; पर भूषणपाल जी के माता-पिता समाजसेवी और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। अतः उन्होंने अपने पुत्र को प्रचारक बनने की सहर्ष अनुमति दी। 

इस अवसर को प्रेरक बनाने के लिए उन्होंने एक विशाल यज्ञ किया। इसमें किश्तवाड़ तथा निकटवर्ती गांवों के सैकड़ों हिन्दुओं ने आकर भूषणपाल जी को इस पवित्र पथ पर जाने का आशीर्वाद दिया। इसके बाद भी जब तक वे जीवित रहे, अपने पुत्र का मनोबल बनाये रखा।

प्रचारक बनने पर उन्हें लद्दाख तथा फिर कठुआ में जिला प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। पर्वतीय क्षेत्र में काम मैदानों जैसा सरल नहीं है। एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंचने में कई बार पूरा दिन लग जाता है। शाखा, कार्यकर्ता एवं कार्यालय कम होने के कारण भोजन-विश्राम भी ठीक से नहीं होता। ऐसे कठिन एवं दुर्गम क्षेत्र में भी भूषणपाल जी ने प्रसन्नता से काम किया। कई-कई दिन तक पैदल भ्रमण कर उन्होंने दूरस्थ क्षेत्रों में शाखाएं स्थापित कीं। इसके बाद उन्हें जम्मू-पुंछ के विभाग प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। इस समय तक पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद भी बढ़ने लगा था; पर वे सघन प्रवास कर कार्यकर्ताओं तथा स्थानीय हिन्दू जनता का मनोबल बढ़ाने में लगे रहे।

धार्मिक कार्यों में रुचि के कारण 1990 में उन्हें जम्मू-कश्मीर प्रान्त में विश्व हिन्दू परिषद का संगठन मंत्री बनाया गया। परिश्रमी स्वभाव एवं मधुर व्यवहार के कारण उन्होंने शीघ्र ही पूरे प्रान्त में सैकड़ों नये कार्यकर्ता खड़े कर लिये। उनका कंठ बहुत मधुर था। इसका उपयोग कर उन्होंने पुरुषों एवं महिलाओं की कई भजन मंडली एवं सत्संग मंडल गठित कर डाले। 

परिषद के काम के लिए उन्होंने प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों तक प्रवास किया। इससे वे अनेक रोगों से ग्रस्त हो गये। उन्हें बहुत कम दिखाई देने लगा था। फिर भी वे प्रवास पर चले जाते थे। कई बार राह चलते पशुओं और वाहनों से टकराकर वे चोटग्रस्त हो जाते थे। उनका मन आराम की बजाय काम में ही लगता था।

अपनी धुन के पक्के भूषणपाल जी ने जीवन के अंतिम तीन वर्ष बहुत कष्ट में बिताये। उनके रक्त में अनेक विकार हो जाने के कारण कार्यालय पर ही दिन में तीन बार उनकी डायलसिस होती थी; पर इस पीड़ा को कभी उन्होंने व्यक्त नहीं किया। 12 मई, 2011 को राम-राम जपते हुए किश्तवाड़ के चिकित्सालय में ही उनका शरीरांत हुआ।

2 टिप्‍पणियां:

  1. विजय जी अच्छा प्रयास है......
    मेरे ब्लॉग भी देखे......
    http://harvilas.blogspot.in/

    http://hvgupta.blogspot.in/

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  2. 🙏श्रीमान विजय जी, कृपया ३० नवम्बर में डॉक्टर जगदीशचंद्र बसु जी की जयंती सम्मिलित करें, धन्यवाद

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