देशानुरागी राजा महेन्द्र प्रताप सिंह
राजा महेन्द्र प्रताप सिंह ऐसे स्वाधीनता सेनानी थे, जिन्होंने विदेशों में रहकर देश की आजादी के लिए प्रयास किये। उनका जन्म मुरसान (हाथरस, उ.प्र.) के एक प्रसिद्ध जाट राजवंश में एक दिसम्बर, 1886 को हुआ था। वे अपने पिता राजा घनश्याम सिंह के तीसरे पुत्र थे। उनका लालन-पालन और प्राथमिक शिक्षा वृंदावन में हुई। इसके बाद उन्होंने अलीगढ़ के मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलिज से प्रथम श्रेणी में एम.ए की परीक्षा उत्तीर्ण की। यही विद्यालय आजकल अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कहलाता है।
एक बार उन्होंने देखा कि एक प्रदर्शिनी में छोटी सी बात पर एक छात्र की पुलिस वालों से झड़प हो गयी। प्रधानाचार्य ने इस पर उसे तीन साल के लिए विद्यालय से निकाल दिया। इसके विरोध में राजा महेन्द्र प्रताप के नेतृत्व में छात्रों ने हड़ताल कर दी। उस समय वे बी.ए के छात्र थे। उनके ओजस्वी भाषण से नाराज होकर उन्हें भी विद्यालय से निकाल दिया गया।
राजा महेन्द्र प्रताप अपने पिताजी तथा एक अध्यापक श्री अशरफ अली से बहुत प्रभावित थे, जो हिन्दू धर्म व संस्कृति से प्रेम करते थे। छात्र जीवन में ही उनका विवाह पंजाब के एक राजवंश में हो गया। 1906 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में जाने पर उनके ससुर ने उनसे संबंध तोड़ लिये।
राजा महेन्द्र प्रताप जब देश भ्रमण पर गये, तो उन्हें देशवासियों की दुर्दशा और शासन के अत्याचार देखने को मिलेे। इससे उनका मन बहुत दुखी हुआ। 17 अगस्त, 1917 को उन्होंने विश्व यात्रा के लिए प्रस्थान किया। वे रोम, पेरिस, बर्लिन तथा लंदन गये। इस यात्रा से उनके मन में देश की आजादी की ललक और तीव्र हो गयी। भारत लौटकर उन्होंने अपनी सम्पत्ति से एक विद्यालय की स्थापना की। इसके बाद वे फिर विदेश प्रवास पर चल दिये।
अगले 31 साल वे जर्मनी, स्विटरजरलैंड, अफगानिस्तान, तुर्की, यूरोप, अमरीका, चीन, जापान, रूस आदि देशों में घूमकर आजादी की अलख जगाते रहे। इस पर शासन ने उन्हें राजद्रोही घोषित कर उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली। दिसम्बर 1915 में उन्होंने विदेश में अपनी अध्यक्षता में भारत की अस्थायी सरकार की। इसमें मौलाना बरकत अली को प्रधानमंत्री बनाया गया।
वे भारत की ही नहीं, तो विश्व के हर देश की स्वाधीनता के पक्षधर थे। 1925 में उन्होंने न्यूयार्क में नीग्रो लोगों की स्वतंत्रता के समर्थन में भाषण दिया। सितम्बर 1938 में उन्होंने एक सैनिक बोर्ड का गठन किया, जिसमें वे अध्यक्ष, रासबिहारी बोस उपाध्यक्ष तथा आनंद मोहन सहाय महामंत्री थे।
द्वितीय विश्व युद्ध में उन्हें बंदी बना लिया गया; पर कुछ नेताओं के प्रयास से वे मुक्त करा लिये गये। अगस्त 1945 में जलयान से चेन्नई पहुंचने पर उनका भव्य स्वागत हुआ। इसके बाद वे देश में जहां भी गये, देशभक्त जनता ने उन्हें सिर आंखों पर बैठाया। स्वाधीनता के लिए मातृभूमि से 32 वर्ष दूर रहने तथा अपनी सारी सम्पत्ति होम कर देने वाले ऐसे त्यागी पुरुष के दर्शन करने लोग दूर-दूर से पैदल चलकर आते थे।
राजा महेन्द्र प्रताप पंचायती राज को ही वास्तविक स्वाधीनता मानते थे। वे आम आदमी के अधिकारों के समर्थक तथा नौकरशाही के अत्यधिक अधिकारों के विरोधी थे। वे 1957 में मथुरा से लोकसभा के निर्दलीय सदस्य बने। वे ‘भारतीय स्वाधीनता सेनानी संघ’ तथा ‘अखिल भारतीय जाट महासभा’ के भी अध्यक्ष रहे। 29 अपै्रल, 1979 को उनका देहांत हुआ।
(संदर्भ : मातृवंदना, क्रांतिवीर नमन अंक, मार्च-अपै्रल 2008/विकीपीडिया आदि)
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1 दिसम्बर/जन्म-दिवस
बाल उपवन के सुमन द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
अच्छे और कालजयी साहित्य की रचना एक कठिन कार्य है; पर इससे भी कठिन है, बाल साहित्य का सृजन। इसके लिए स्वयं बच्चों जैसा मन और मस्तिष्क बनाना होता है। श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ऐसे ही एक साहित्यकार थे, जिनके लिखे गीत एक समय हर बच्चे की जिह्ना पर रहते थे।
श्री माहेश्वरी का जन्म 1 दिसम्बर, 1916 को आगरा (उ.प्र.) के रौहता गाँव में हुआ था। बाल्यकाल से ही वे अत्यन्त मेधावी थे। अतः पढ़ने में सदा आगे ही रहते थे; पर बच्चों के लिए लिखे जाने वाले गद्य और पद्य साहित्य में कठिन शब्दों और भावों को देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती थी। इस कारण बच्चे उन गीतों को याद नहीं कर पाते थे। उनका मत था कि यदि बच्चों को अच्छे और सरल भावपूर्ण गीत दिये जायें, तो वे गन्दे फिल्मी गीत नहीं गायेंगे। अतः उन्होंने स्वयं ही इस क्षेत्र में उतरकर श्रेष्ठ साहित्य के सृजन को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया।
उन्हें पढ़ने और पढ़ाने का बड़ा चाव था। पढ़ने के लिए वे इंग्लैण्ड भी गये; पर आजीविका के लिए उन्होंने भारत में शिक्षा क्षेत्र को चुना। अनेक महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हुए वे शिक्षा निदेशक और निदेशक साक्षरता निकेतन जैसे पदों पर पहुँचे। उनके कई कालजयी गीत आज भी हिन्दी के पाठ्यक्रम में हैं और बच्चे उन्हें बड़ी रुचि से पढ़ते हैं।
उनके एक लोकप्रिय गीत ‘हम सब सुमन एक उपवन के’ से बाल समीक्षक कृष्ण विनायक फड़के बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी वसीयत में ही लिख दिया कि उनकी शवयात्रा में ‘राम नाम सत्य है’ के बदले बच्चे मिलकर यह गीत गायें, तो उनकी आत्मा को बहुत शान्ति मिलेगी।
उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग ने अपने प्रचार पटों में इस गीत को लिखवाया और उर्दू में भी ‘हम सब फूल एक गुलशन के’ पुस्तक प्रकाशित की। श्री माहेश्वरी ने बच्चों के लिए 30 से भी अधिक पुस्तकें लिखीं। साक्षरता विभाग में काम करते समय उन्होंने नवसाक्षरों के लिए भी पाँच पुस्तकें लिखीं। इसके अतिरिक्त भी उन्होंने कई काव्य संग्रह और खण्ड काव्यों की रचना की।
उन दिनों बड़े लोगों के लिए देश के हर भाग में कवि सम्मेलन होते थे। यह देखकर माहेश्वरी जी ने बाल कवि सम्मेलन प्रारम्भ कराये। उत्तर प्रदेश में शिक्षा सचिव रहते हुए उन्होंने कई कवियों के जीवन पर वृत्त चित्र बनवाए। इनमें सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ पर बनवाया हुआ वृत्त चित्र अविस्मरणीय है।
उन्हें साहित्य सृजन के लिए देश के सभी भागों से अनेक मान-सम्मान मिले; पर जब उनके गीतों को बच्चे सामूहिक रूप से या नाट्य रूपान्तर कर गाते थे, तो वे उसे अपना सबसे बड़ा सम्मान मानते थे। माहेश्वरी जी जहाँ वरिष्ठ कवियों का सम्मान करते थे, वहीं नये साहित्यकारों को भी भरपूर स्नेह देते थे। आगरा के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान को वे एक तीर्थ मानते थे। इसमें जो विदेशी या भारत के अहिन्दीभाषी प्रान्तों के छात्र आते थे, उनके साथ माहेश्वरी जी स्वयं बड़ी रुचि से काम करते थे।
हम सब सुमन एक उपवन के; वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो; जिसने सूरज चाँद बनाया; इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है...जैसे अमर गीतों के लेखक श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का 29 अगस्त, 1998 को देहावसान हुआ। उनकी आत्मकथा ‘सीधी राह चलता रहा’ उनके जीवन का दर्पण है।
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2 दिसम्बर/पुण्य-तिथि
मातृभक्त गुरुदास बनर्जी
इन दिनों प्रायः लोग बड़ी डिग्री पाकर या ऊंची कुर्सी पर बैठकर अपने माता-पिता की सेवा और सम्मान करना भूल जाते हैं; पर श्री गुरुदास बनर्जी ने कोलकाता विश्वविद्यालय के उपकुलपति तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश होते हुए भी आजीवन अपनी माता की सेवा का व्रत निभाया।
गुरुदास बनर्जी का जन्म 26 जनवरी, 1844 को कोलकाता में हुआ था। उन्होंने 1864 में स्वर्ण पदक के साथ गणित में एम.ए. किया। इसके बाद 1865 में बी.एल तथा 1876 में कानून में डॉक्टर की उपाधि (डी.एल.) प्राप्त की। वे कई वर्ष बहरामपुर कॉलिज में कानून के प्राध्यापक रहे। इसके बाद 1872 से वे कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे।
1878 में वे कोलकाता वि.वि. में ‘टैगोर लॉ प्रोफेसर’ बने। इस पद पर रहकर उन्होंने हिन्दू विवाह कानून तथा स्त्रीधन विषय पर भाषण दिये। वे 1879 में कोलकाता वि.वि. के फैलो, 1887 में बंगाल विधान परिषद के सदस्य, 1888 में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और फिर मुख्य न्यायाधीश बनाये गये। शिक्षाशास्त्री होने के कारण वे दो वर्ष तक कोलकाता वि.वि. में उपकुलपति भी रहे। वे इस पद पर बैठने वाले पहले भारतीय थे।
1904 में सरकारी सेवा से अवकाश लेने के बाद उन्हें नाइटहुड (सर) की उपाधि दी गयी। उन्होंने ‘ए फ्यू थाट्स ऑन एजूकेशन’ नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी, जिसमें उनके शिक्षा में सुधार सम्बन्धी विचार तथा अनुभव संग्रहित हैं। उनकी धर्म-कर्म में भी बहुत रुचि थी। वे स्वयं को गर्वपूर्वक कट्टर सनातनी कहते थे। उन्होेंने हिन्दू धर्म के व्यापक दृष्टिकोण को दर्शाते हुए कई पुस्तकें लिखीं। इनमें बंगला में लिखित ‘ज्ञान ओ कर्म’ बहुत प्रसिद्ध हुई।
श्री गुरुदास बनर्जी की मां ने काफी कष्ट सहकर उन्हें पढ़ाया और बड़ा किया था। अतः अपनी मां के प्रति उनके मन में अत्यधिक पूज्यता का भाव था। उनकी माता जी प्रतिदिन गंगा स्नान करने जाती थीं। जब वृद्ध होने के कारण उन्हें गंगा तक जाने में असुविधा होने लगी, तो श्री बनर्जी स्वयं प्रतिदिन उनके स्नान व पूजा के लिए नदी से ताजा गंगाजल लेकर आते थे।
उन दिनों बंगाल में श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर एक समाज सुधारक के नाते प्रसिद्ध थे। उन्होंने बाल-विधवाओं के पुनर्विवाह के लिए बहुत प्रयास किये। अतः समाज के रुढ़िवादी लोग उनका विरोध करते थे। उन्होंने श्री विद्यासागर को समाज-बहिष्कृत कर रखा था।
यद्यपि श्री बनर्जी की मां स्वयं अनेक कर्मकांड तथा रुढ़ियों का पालन करती थीं; पर वे श्री विद्यासागर के इस काम की समर्थक थीं। उनकी इच्छा थी कि उनकी अंत्येष्टि में श्री विद्यासागर भी उपस्थित हों। श्री गुरुदास बनर्जी ने समाज के भारी विरोध को सहते हुए भी श्री विद्यासागर को बुलाकर अपनी मां की अंतिम इच्छा का सम्मान किया।
बचपन में मां की बीमारी में जिस धाय मां ने उन्हें दूध पिलाया था, वह एक बार उनसे मिलने न्यायालय में आ गयीं। जैसे ही श्री बनर्जी ने उन्हें देखा, तो कुर्सी से उठकर उनके चरणों में माथा टेककर प्रणाम किया। ऐसे श्रेष्ठ विद्वान, शिक्षाशास्त्री, न्यायविद् तथा मातृभक्त श्री गुरुदास बनर्जी का दो दिसम्बर, 1918 को देहांत हुआ। उनके नाम पर फूलबागान, कोलकाता में एक विद्यालय तथा वि.वि. में एक प्राध्यापक पीठ बनी है।
(संदर्भ : अंतरजाल पर उपलब्ध सामग्री)
4 दिसम्बर/जन्म-दिवस
नव दधीचि नाना भागवत
बिहार में पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और फिर विश्व हिन्दू परिषद के कार्य विस्तार में अपना महत्वपूर्ण योगदान देने वाले दत्तात्रेय बालकृष्ण (नाना) भागवत का जन्म वर्धा (महाराष्ट्र) में चार दिसम्बर, 1923 को हुआ था। छात्र जीवन में ही ये संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के सम्पर्क में आ गये। तब से ही संघ कार्य को इन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।
एक बार ये कुछ मित्रों के साथ डा. जी से मिलने गये। वहाँ जब चाय की बात चली, तो इन्होंने कहा कि मैं चाय नहीं पीता हूँ। इस पर डा. हेडगेवार ने समझाया कि जिससे मिलने जाते हैं, वहाँ चाय के बहाने कुछ देर बैठना हो जाता है। फिर इस बीच संघ की बात चल पड़ती है। अतः संगठन करने वालों को चाय न पीने का दुराग्रह नहीं करना चाहिए।
1944 में बी.एस-सी. की शिक्षा पूर्ण कर नाना भागवत प्रचारक बने। तब तक वे संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण भी कर चुके थे। श्री गुरुजी ने उन्हें सर्वप्रथम कर्नाटक भेजा। दो वर्ष वहाँ रहने के बाद 1946 में उनकी योजना बिहार के लिए हुई। इसके बाद लगभग 40 वर्ष वे बिहार में ही रहे।
बिहार में छपरा जिला प्रचारक के रूप में उन्होंने काम प्रारम्भ किया। भिन्न भाषा, खानपान और परिवेश के बीच काम करना कठिन था; पर नाना भागवत भी जीवट के व्यक्ति थे। जहाँ भी वे रहे, वहाँ संघ की भरपूर फसल उन्होंने उगायी। बिहार में अनेक स्थानों पर वे जिला एवं विभाग प्रचारक रहे।
1975 में जब इन्दिरा गांधी ने देश में आपातकाल थोपकर संघ पर प्रतिबन्ध लगाया, तब वे दरभंगा में विभाग प्रचारक थे। 1977 में आपातकाल तथा प्रतिबन्ध की समाप्ति के बाद 'विश्व हिन्दू परिषद' के कार्य के महत्व को देखते हुए उन्हें बिहार का संगठन मन्त्री बनाया गया। नाना भागवत ने बिहार का सघन प्रवास कर विश्व हिन्दू परिषद की इकाइयाँ खड़ी कीं।
उनके संगठन कौशल को देखकर 1980 में उन्हें माधवराव देशमुख के साथ बिहार और उत्तर प्रदेश का सह क्षेत्रीय संगठन मन्त्री बनाया गया। कुछ समय बाद उनका कार्यक्षेत्र बंगाल, उड़ीसा और समस्त पूर्वोत्तर भारत तक बढ़ा दिया गया। इस क्षेत्र में जहां एक ओर संघ का काम काफी कम था, वहां दूसरी ओर मिशनरियों की गतिविधियां जोरों पर थीं। बंगलादेश से हो रही घुसपैठ से भी यही क्षेत्र सर्वाधिक प्रभावित था। ऐसे में नाना ने अपने परिश्रम से सर्वत्र विश्व हिन्दू परिषद का काम खड़ा किया।
किसी भी काम को बहुत व्यवस्थित ढंग से करना नाना भागवत के स्वभाव में था। 1985-86 में उन्हें वि.हि.प. के केन्द्रीय मन्त्री का दायित्व देकर दिल्ली केन्द्रीय कार्यालय पर बुला लिया गया। उन्होंने पंजाब में आतंक के दिनों में निकाली गयी 'सद्भावना यात्रा' का सुन्दर समायोजन किया।
इससे पूर्व 'प्रथम एकात्मता यात्रा' में नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर से चली यात्रा के संयोजक भी वही थे। इस यात्रा से ही विश्व हिन्दू परिषद का देशव्यापी संजाल बना और श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन की भूमिका बनी। आगे चलकर जब अयोध्या में श्रीराम मन्दिर निर्माण का आन्दोलन चला, तो 'शिलापूजन कार्यक्रम' की पूरी व्यवस्था उन्होंने ही सँभाली।
नाना भागवत संघ के जीवनव्रती प्रचारक थे। उनके पास निजी सम्पत्ति तो कुछ थी नहीं; पर 16 जून, 2002 को उन्होंने अपने शरीर को भी चिकित्सा विज्ञान के छात्रों को देने की घोषणा की। देहदान के ऐसे उदाहरण देखने में कम ही मिलते हैं। 19 दिसम्बर, 2006 को दिल्ली में ही उनका देहान्त हुआ। उनकी इच्छानुसार उनका पार्थिव शरीर चिकित्सा महाविद्यालय को दे दिया गया।
केवल जीवन में ही नहीं, तो जीवन के बाद भी समाज के लिए सर्वस्व अर्पण करने वाले ऐसे नवदधीचि स्तुत्य हैं।
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4 दिसम्बर/जन्म-दिवस
राष्ट्रधर्म के सम्पादक आनन्द मिश्र ‘अभय’
5 दिसम्बर/जन्म-दिवस
संघ के वरिष्ठ प्रचारक
रंगा हरि का जन्म पांच दिसम्बर, 1930 को केरल में
कोच्चि के पास त्रिपुन्थरा गांव में हुआ था। 13 वर्ष की अवस्था
में वे शाखा जाने लगे थे। 1948 में संघ पर लगे प्रतिबंध
के विरोध में सत्याग्रह कर वे पांच महीने कन्नूर जेल में बंद रहे। स्नातक करने के
बाद वे प्रचारक बने।
अपनी प्रचारक यात्रा में विभिन्न दायित्व निभाते हुए हरि जी 1983 में केरल के प्रांत प्रचारक, 1990 में अ.भा.सहबौद्धिक प्रमुख तथा 1991 से 2005 तक अ.भा.बौद्धिक प्रमुख रहे। एशिया और आस्टेªलिया में संघ कार्य के प्रभारी के नाते वे वहां प्रवास पर भी गये। 75 वर्ष के होने पर उन्होंने प्रत्यक्ष दायित्व से मुक्ति ले ली। फिर भी अगले 15 वर्ष तक वे प्रवास करते रहे। उनके भाषण और वार्तालाप की शैली इतनी रोचक थी कि बच्चे और बड़े सब उन्हें घेरे रहते थे। हंसते-हंसते गंभीर संदेश देने की उनकी शैली अद्भुत थी।
केरल में ईसाई, मुस्लिम और कम्यूनिस्ट तीनों संघ को समूल नष्ट करने में लगे रहते हैं। एक समय
वहां हिन्दुओं का मनोबल बहुत गिरा हुआ था। केरल के प्रांत प्रचारक भास्करराव ने
प्रयासपूर्वक इस माहौल को बदला और हिन्दुओं को ईंट का जवाब पत्थर से देने वाला
बनाया। भास्करराव के बाद हरि जी ने इसी नीति को आगे बढ़ाया। इस संघर्ष में सैकड़ों
स्वयंसेवक मारे गये। अनेक कार्यकर्ताओं को आजीवन कारावास हुआ; लेकिन दिल पर पत्थर रखकर संघ ने इसे सहन किया। इनकी चर्चा से ही हरि जी की
आंखें भीग जाती थीं।
केरल के खानपान में मछली
सामान्य चीज है;
पर वे वैष्णव परिवार से थे। अतः कई बार उन्हें
दही-भात ही खाना पड़ता था। हरि जी को केरल में उनके संगठन कौशल के लिए जाना जाता
है; पर देश भर में उनकी पहचान एक प्रबुद्ध वक्ता, लेखक तथा बौद्धिक योद्धा की थी। उनकी कई भाषाओं में लिखित और अनुवादित 62 पुस्तकें हैं। श्री गुरुजी की जन्मशती पर नागपुर में रहकर उन्होंने श्री
गुरुजी समग्र को 12 खंडों में प्रकाशित करवाया।
वे नये लेखकों को बहुत
प्रोत्साहित करते थे। एक बार का पढ़ा हुआ उन्हें संदर्भ सहित याद रहता था। मलयालम
उनकी मातृभाषा थी;
पर भाषा सीखने की रुचि के कारण वे हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, तमिल, कोंकणी, मराठी, गुजराती, बंगला और असमी भी समझ और बोल लेते थे। देहांत से कुछ दिन पूर्व ही उनकी पुस्तक
‘पृथ्वी सूक्त’ प्रकाशित हुई थी। केरल
में केवल संघ ही नहीं, तो अन्य विचारों के लोग भी उनका आदर करते थे।
संघ से इतर अन्य सामाजिक कामों को उनका समर्थन तथा सहयोग रहता था। इन दिनों प्रवास
से विश्राम लेकर वे कोच्चि के संघ कार्यालय पर रह रहे थे। 29 अक्तूबर,
2023 को कोच्चि में ही उनका देहांत हुआ।
केरल में विभिन्न जातियों
के अलग शमशान होते हैं; पर उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनका दाह
संस्कार सार्वजनिक शमशान (आइवरम मठम) में हुआ। कहते हैं कि पांडवों ने अपने
पूर्वजों का पिंडदान वहां किया था। उनकी अस्थियां भी किसी तीर्थ की बजाय पास के
जलाशय में ही विसर्जित की गयीं। वे ब्रह्मकपाल में अपना श्राद्ध एवं पिंडदान कर
चुके थे, जिससे किसी पर कोई बंधन न रहे। केरल में वामपंथी नेताओं का
लाल कपड़े में अग्निदाह किया जाता है। इसकी देखादेखी कई स्वयंसेवकों का दाह
संस्कार भगवा कपड़े में होने लगा। हरि जी ने भगवे रंग को पवित्र बताते हुए इसके
लिए मना किया था।
उन्होंने तीन संस्कृत
श्लोकों में अपने जीवन को धन्य मानते हुए भगवान से प्रार्थना की थी कि अगले जीवन
में भी उन्हें अपने साथियों के साथ यही संघ कार्य करने का अवसर दे। एक श्रेष्ठ
लेखक, ओजस्वी वक्ता और मौलिक चिंतक के नाते वे सदा याद रखे
जाएंगे।
(संदर्भ: देहांत के बाद पांचजन्य, आर्गनाइजर, स्वदेश, विकी.. आदि)
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7 दिसम्बर/जन्म-दिवस
उच्च मनोबल के धनी डा. अन्ना साहब देशपांडे
डा. अन्ना साहब देशपांडे संघ के प्रारम्भिक कार्यकर्ताओं में से एक थे। उनका जन्म सात दिसम्बर, 1890 को वर्धा जिले के आष्टी गांव में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा नागपुर में होने से उनकी मित्रता डा. हेडगेवार से हो गयी। उनकी भव्य कद-काठी और बोलने की शैली भी डा. जी से काफी मिलती थी।
नागपुर के बाद वे अमरावती चले गये। वहां से इंटर साइंस करने के बाद उन्होंने मुंबई से एम.बी.बी.एस. की उपाधि ली। इस प्रकार प्रशिक्षित चिकित्सक बनकर उन्होंने अमरावती जिले के परतवाड़ा में अपना चिकित्सा कार्य प्रारम्भ किया। चार वर्ष बाद उन्होंने आर्वी को अपना निवास बनाया। जब डा. जी ने संघ की स्थापना की, तो अन्ना साहब पूर्ण निष्ठा से उनके साथ जुड़ गये।
अन्ना साहब ने चिकित्सा कार्य करते हुए भरपूर यश अर्जित किया। चिकित्सा करते समय वे गरीबों के साथ विशेष सहानुभूति का व्यवहार करते थे। उन्हें प्रायः दूर-दूर के गांवों में मरीज देखने जाना पड़ता था; पर उन्होंने कभी इसके लिए अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया। संघ के सक्रिय कार्यकर्ता होने के बाद भी स्थानीय मुसलमानों का सर्वाधिक विश्वास उन्हीं पर था।
अन्ना साहब संघ के साथ ही कांग्रेस तथा अन्य सामाजिक कार्यों में भी पर्याप्त रुचि लेते थे। आर्वी में उन्होंने एक बालिका विद्यालय की स्थापना की। 1928 से 30 तक वे स्थानीय बोर्ड के अध्यक्ष रहे। गांधी जी के आह्नान पर जंगल सत्याग्रह और फिर नमक सत्याग्रह में भाग लेकर वे जेल गये। 1948 में जब संघ पर प्रतिबंध लगा, तब भी उन्होंने जेल यात्रा की।
शाखा वृद्धि के लिए अन्ना साहब का प्रवास पर बहुत जोर रहता था। वृद्ध होने पर जब कोई उन्हें अब प्रवास न करने को कहता, तो वे जवाब देते थे कि मुझे यह सब करने दीजिये। इससे मैं कुछ और समय तक जीवित रह सकूंगा। प्रवास में वे अपना सामान किसी दूसरे को नहीं उठाने देते थे।
उन पर विभाग संघचालक की जिम्मेदारी थी। किसी शिविर या बैठक आदि में उनके बुजुर्ग तथा संघचालक होने के नाते ठहरने की व्यवस्था यदि अलग की जाती थी, तो वे कहते थे कि आप मुझे सब लोगों से दूर क्यों रखना चाहते हैं ? मैं सबके साथ ही ठीक हूं। अन्ना साहब का मनोबल बहुत ऊंचा था। उनका मत था कि हमें हर परिस्थिति में संघ कार्य करते रहना चाहिए।
1960 में आर्वी में लगे संघ शिक्षा वर्ग में वे सर्वाधिकारी थे। इस बीच चोरों ने उनके घर में सेंध लगाकर 35,000 रु. चुरा लिये। इसका मूल्य आजकल संभवतः 35 लाख रुपये के बराबर होगा। यह उनकी न जाने कितने वर्ष की बचत थी; पर स्थितप्रज्ञ अन्ना साहब यह कहकर फिर काम में लग गये कि अच्छा हुआ, भगवान ने दीवाला निकालकर सब झंझटों से मुक्त कर दिया।
एक बार संपूर्ण विदर्भ प्रांत का बड़ा सम्मेलन हो रहा था। 10,000 स्वयंसेवक आये थे। संघचालकों के आवास के पास आधा खुदा हुआ एक कुआं था। वे उसमें गिर गये। कुएं में पानी बहुत कम था। लोगों ने उन्हें बाहर निकाला, तो उनकी पीठ पर काफी चोट लगी थी। उन्होंने वहां दवा लगाई और गणवेश पहन कर संघस्थान पर चले गये। यह समाचार मिलते ही श्री गुरुजी उन्हें देखने आये, तो पता लगा कि अन्ना साहब तो शाखा पर गये हैं।
एक बार जिस बैलगाड़ी पर वे यात्रा कर रहे थे, वह उलट गयी; पर चोट ठीक होते ही वे फिर प्रवास करने लगे। अंतिम सांस तक सक्रिय रहते हुए अन्ना साहब ने 25 नवम्बर, 1974 को अंतिम सांस ली।
(संदर्भ : साप्ताहिक विवेक, मुंबई द्वारा प्रकाशित संघ गंगोत्री)
विजय जी अच्छा प्रयास है......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग भी देखे......
http://harvilas.blogspot.in/
http://hvgupta.blogspot.in/
Sitaramji goel, father in law of my real elder brother, was expired on 3rd December and not 2nd!
जवाब देंहटाएंJust a correction! Dinesh Kumar🙏🏾
🙏विजयजी गुम्बदों पर भगवा ३० अक्टूबर को फहराया गया था, कृपया ठीक करें, धन्यवाद
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