16 नवम्बर/बलिदान-दिवस
भगतसिंह के प्रेरणास्रोत करतार सिंह सराबा
अमर बलिदानी करतार सिंह सराबा को भगतसिंह अपना अग्रज, गुरु, साथी तथा प्रेरणास्रोत मानते थे। वे भगतसिंह से 11 वर्ष बड़े थे और उनसे 11 वर्ष पूर्व केवल 19 वर्ष की तरुणावस्था में ही भारतमाता के पावन चरणों में उन्होंने हंसते हुए अपना शीश अर्पित कर दिया।
करतार सिंह का जन्म 1896 ई. में लुधियाना जिले के सराबा गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री मंगल सिंह का देहान्त जल्दी ही हो गया था। प्रारम्भिक शिक्षा खालसा स्कूल, लुधियाना में पूरी कर चाचा जी की अनुमति से केवल 14 वर्ष की अवस्था में पढ़ाई के लिए सान फ्रान्सिस्को चले गये।
उन दिनों वहाँ भारतीयों में देशप्रेम की आग सुलग रही थी। करतार सिंह भी उनमें शामिल हो गये। उन्होंने थोड़े समय में ही यह देख लिया कि गोरे लोग भारतीयों से घृणा करते हैं और उन्हें कुली समझते हैं। करतार सिंह का मत था कि इसे बदलने का एकमात्र मार्ग यही है कि भारत स्वतन्त्र हो। इसके लिए उन्होंने स्वयं की आहुति देने का निश्चय कर लिया।
शीघ्र ही उनका सम्पर्क लाला हरदयाल से हो गया। फिर तो वे ही करतार के मार्गदर्शक बन गये। ‘गदर पार्टी’ की स्थापना के बाद करतार उसके प्रमुख कार्यकर्ता बने। पोर्टलैण्ड में हुए उसके सम्मेलन में भी वे शामिल हुए। करतार के प्रयास से वहाँ ‘युगान्तर आश्रम’ की स्थापना हुई और पार्टी का साप्ताहिक मुखपत्र ‘गदर’ कई भाषाओं में छपने लगा। उन्होंने घर से पढ़ाई के लिए मिले 200 पौंड भी लाला जी को समाचार पत्र के लिए दे दिये। इस पत्र में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की कुछ प्रेरक सामग्री अवश्य होती थी।
प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत आये। उनका विचार था कि यह अंग्रेजों को बाहर निकालने का सर्वश्रेष्ठ समय है। उन्होंने रासबिहारी बोस तथा शचीन्द्रनाथ सान्याल जैसे क्रान्तिकारियों से भी भेंट की। 21 फरवरी, 1915 को पूरे देश में एक साथ क्रान्ति की योजना बनी।
करतार सिंह पर पंजाब की जिम्मेदारी थी। उन्होंने कई धार्मिक स्थानों की यात्रा कर युवकों तथा सेना से सम्पर्क किया। रेल तथा डाक व्यवस्था को भंग करने की योजना बन गयी। इन सबका केन्द्र लाहौर था। वहाँ छावनी में शस्त्रागार के चौकीदार से भी बात हो गयी। धन के लिए कई डाके भी डाले गये।
पर दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। कृपाल सिंह नामक एक पुलिस वाले ने मुखबिरी की और धरपकड़ होने लगी। करतार अपने कुछ साथियों के साथ भारत की उत्तर पश्चिम सीमा की ओर चले गये; पर उन्हें सरगोधा के पास पकड़ लिया गया और लाहौर के केन्द्रीय कारागार में बन्द कर दिया। इनके साथ 60 अन्य लोगों पर पहला लाहौर षड्यन्त्र केस चलाया गया।
करतार ने अपने साथियों को बचाने के लिए सारी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। न्यायाधीश ने इन्हें अपना बयान बदलने को कहा; पर इस बार करतार ने और कठोर बयान दिया। अतः उन्हें फाँसी की सजा सुना दी गयी। एक बार उन्होंने जेल से भागने का भी प्रयास किया; पर वह योजना विफल हो गयी। करतार का उत्साह इतना था कि फाँसी से पूर्व इनका वजन बढ़ गया।
16 नवम्बर, 1915 को करतार सिंह सराबा और उनके छह साथियों ने लाहौर केन्द्रीय जेल में फाँसी का फन्दा चूम लिया। इनके नाम थे - विष्णु गणेश पिंगले, हरनाम सिंह, बख्शीश सिंह, जगतसिंह, सुरेन सिंह एवं सुरेन्द्र सिंह।
.......................
16 नवम्बर/जन्म-दिवस
हिन्दी पत्रकारिता के जनक बाबूराव विष्णु पराड़कर
श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर भारत के उन महान पत्रकारों में से थे, जिन्होंने पत्रकारिता को न केवल नयी दिशा दी, बल्कि उसका स्वरूप भी सँवारा। उनका जन्म 16 नवम्बर, 1883 को वाराणसी (उ.प्र.) में हुआ था। उन्होंने 1906 में पत्रकारिता जगत में प्रवेश किया और जीवन के अन्तिम क्षण तक इसी में लगे रहे। इस क्षेत्र की सभी विधाओं के बारे में उनका अध्ययन और विश्लेषण बहुत गहरा था। इसी से इन्हें पत्रकारिता का भीष्म पितामह कहा जाता है।
उन्होंने बंगवासी, हितवार्ता, भारत मित्र, आज, कमला तथा संसार का सम्पादन कर देश, साहित्य और संस्कृति की बड़ी सेवा की। वे महान क्रान्तिकारी भी थे। ब्रिटिश शासकों को खुली चुनौती देने वाले उनके लेख नये पत्रकारों तथा स्वाधीनता सेनानियों को प्रेरणा देते थे। देश के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक नव जागरण में उनके लेखन का महत्वपूर्ण स्थान है।
उस समय समाचार जगत व्यापार नहीं था। लोग इसमें एक ध्येय लेकर आते थे। पत्र निकालने वाले भी उदात्त लक्ष्य से प्रेरित होते थे; पर पराड़कर जी ने दूरदृष्टि से देख लिया कि आगे चलकर इस क्षेत्र में धन की ही तूती बोलेगी। 1925 में वृन्दावन में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने जो भविष्यवाणी की थी, वह आज प्रत्यक्ष हो रही है।
उन्होंने कहा था कि स्वाधीनता के बाद समाचार पत्रों में विज्ञापन एवं पूँजी का प्रभाव बढ़ेगा। सम्पादकों की स्वतन्त्रता सीमित हो जाएगी और मालिकों का वर्चस्व बढ़ेगा। हिन्दी पत्रों में तो यह सर्वाधिक होगा। पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े धनिकों या संगठित व्यापारिक समूहों के लिए ही सम्भव होगा।
पत्र की विषय वस्तु की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे, आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता और कल्पनाशीलता होगी। गम्भीर गद्यांश की झलक और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब होगा; पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त या मानवता के उपासक महाप्राण सम्पादकों की नीति न होगी। इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क के समझे जायेंगे। सम्पादक की कुर्सी तक उनकी पहुँच भी न होगी।
बाबूराव विष्णु पराड़कर को भारत में आधुनिक हिन्दी पत्रकारिता का जनक माना जाता है। पत्रकारिता के विभिन्न अंगों के संगठन एवं संचालन की उनकी प्रतिभा व क्षमता असाधारण थी। वे कहते थे कि पत्रकारिता के दो ही मुख्य धर्म हैं। एक तो समाज का चित्र खींचना और दूसरा लोक शिक्षण के द्वारा उसे सही दिशा दिखाना। पत्रकार लोग सदाचार को प्रेरित कर कुरीतियों को दबाने का प्रयत्न करें। पत्र बेचने के लिए अश्लील समाचारों और चित्रों को महत्व देकर, दुराचारी और अपराधी का आकर्षक वर्णन कर हम अपराधियों से भी बड़े अपराधी होंगे।
श्री पराड़कर ने जो कुछ भी कहा था, वह आज पूरी तरह सत्य हो रहा है। यों तो सभी भाषाओं के पत्रों के स्तर में गिरावट आयी है; पर हिन्दी जगत की दुर्दशा सर्वाधिक है। समाचार जगत में अनेक नये आयाम जुड़े हैं। दूरदर्शन और अन्तरजाल का महत्व बहुत बढ़ा है; पर इनमें से अधिकांश समाज में मलीनता, अश्लीलता और भ्रम फैलाने को ही अपना धर्म समझ रहे हैं।
भावी को स्पष्ट देखने और उसे डंके की चोट पर कहने वाले इस यशस्वी पत्रकार का 12 जनवरी, 1955 को शरीरान्त हुआ।
..............................
16 नवम्बर/जन्म दिवस
ब्रह्मदेश में संघ के प्रचारक रामप्रकाश धीर
ब्रह्मदेश (बर्मा या म्यांमार) भारत का ही प्राचीन भाग है। अंग्रेजों ने जब 1905 में बंग-भंग किया, तो षड्यंत्रपूर्वक इसे भी भारत से अलग कर दिया था। इसी ब्रह्मदेश के मोनीवा नगर में 16 नवम्बर, 1926 को श्री रामप्रकाश धीर का जन्म हुआ था। बर्मी भाषा में उनका नाम ‘सयाजी यू सेन टिन’ कहा जाएगा। उनके पिता श्री नंदलाल जी वहां के प्रसिद्ध व्यापारी एवं ठेकेदार थे। 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां तेजी से बदलीं, तो पूरा परिवार बर्मा छोड़कर भारत में जालंधर आ गया। उस समय रामप्रकाश जी मोनीवा के वैस्ले मिशनरी स्कूल में कक्षा नौ के छात्र थे।
इसके बाद उनकी शेष पढ़ाई भारत में ही हुई। इस दौरान उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ। धीरे-धीरे संघ के विचार ने उनके मन में जड़ जमा ली। 1947 में उन्होंने पंजाब वि.वि. से बी.ए. किया। बी.ए. में उनका एक वैकल्पिक विषय बर्मी भाषा भी था। शिक्षा पूर्ण कर वे संघ के प्रचारक बन गये। उनका प्रारम्भिक जीवन बर्मा में बीता था। अतः उन्हें वहां पर ही संघ की स्थापना करने के लिए भेजा गया; पर 1947-48 में वहां काफी आंतरिक उथल-पुथल हो रही थी। अतः कुछ समय बाद ही उन्हें वापस बुला लिया गया।
इसके बाद वे पंजाब में ही प्रचारक रहे; पर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता डा. मंगलसेन के आग्रह पर 1956 में उन्हें फिर बर्मा भेजा गया। भारत से बाहर स्वयंसेवकों ने कई नामों से संघ जैसे संगठन बनाये हैं। इसी कड़ी में डा. मंगलसेन ने 1950 में बर्मा में ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की थी, जो अब ‘सनातन धर्म स्वयंसेवक संघ’ कहलाता है। इसका विस्तार बहुत कठिन था। न साधन थे और न कार्यकर्ता। फिर बर्मा का अधिकांश भाग पहाड़ी है। वहां यातायात के साधन बहुत कम हैं। ऐसे में सैकड़ों मील पैदल चलकर रामप्रकाश जी ने बर्मा के प्रमुख नगरों में संघ की शाखाएं स्थापित कीं।
बर्मा मूलतः बौद्ध देश है, जो विशाल हिन्दू धर्म का ही एक भाग है। रामप्रकाश जी ने शाखा के माध्यम से युवाओं को जोड़ा, तो पुरानी पीढ़ी को प्रभावित करने के लिए महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर एक प्रदर्शिनी बनायी। इसे देखकर बर्मी शासन और प्रशासन के लोग भी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने इसे बर्मा के सब नगरों में लगाने का आग्रह किया और इसके लिए सहयोग भी दिया। इस प्रकार प्रदर्शिनी के माध्यम से जहां एक ओर हिन्दू और बौद्ध धर्म के बीच समन्वय की स्थापना हुई, वहां रामप्रकाश जी का व्यापक प्रवास भी होने लगा। आगे चलकर यह प्रदर्शिनी थाइलैंड में भी लगायी गयी।
यह प्रदर्शिनी बर्मा में संघ के विस्तार में मील का पत्थर सिद्ध हुई। इसे देखने बड़ी संख्या में आम जनता के साथ-साथ बौद्ध भिक्षु और विद्वान भी आते थे। इसका पहला प्रदर्शन यंगून के पहाड़ों में स्थित ऐतिहासिक ‘काबा अये पगोडा’ में रेत की प्रतिमाओं और बिजली की आकर्षक चमक-दमक के बीच हुआ। आजकल तो तकनीक बहुत विकसित हो गयी है; पर उस समय यह बिल्कुल नयी बात थी। अतः पहले प्रदर्शन से ही इसकी धूम मच गयी।
इसके बाद रामप्रकाश जी का जीवन बर्मा और थाइलैंड में संघ शाखा तथा उसके विविध आयामों के विकास और विस्तार को समर्पित रहा। वृद्धावस्था में वे यंगून के पास सिरियम स्थित ‘मंगल आश्रम छात्रावास’ में रहकर बर्मा में संघ कार्य के विकास और विस्तार का इतिहास लिखने लगे। 20 जून, 2014 को यंगून के एक चिकित्सालय में फेफड़े और हृदय में संक्रमण के कारण उनका निधन हुआ। उनका अंतिम संस्कार उनकी कर्मभूमि में ही किया गया। रामप्रकाश जी का पूरा परिवार संघ से जुड़ा था। उनके बड़े भाई रामप्रसाद धीर सेवानिवृत्त होने के बाद विश्व हिन्दू परिषद में सक्रिय थे। 17 मार्च, 2014 को वि.हि.प के दिल्ली स्थित केन्द्रीय कार्यालय पर ही उनका निधन हुआ था।
(संदर्भ : पांचजन्य 6/13.7.2014/विश्व विभाग का पत्रक)
------------------------------
17 नवम्बर/बलिदान-दिवस
पंजाब केसरी लाला लाजपतराय
‘‘यदि तुमने सचमुच वीरता का बाना पहन लिया है, तो तुम्हें सब प्रकार की कुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए। कायर मत बनो। मरते दम तक पौरुष का प्रमाण दो। क्या यह शर्म की बात नहीं कि कांग्रेस अपने 21 साल के कार्यकाल में एक भी ऐसा राजनीतिक संन्यासी पैदा नहीं कर सकी, जो देश के उद्धार के लिए सिर और धड़ की बाजी लगा दे...।’’
इन प्रेरणास्पद उद्गारों से 1905 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी नगर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में लाला लाजपतराय ने लोगों की अन्तर्रात्मा को झकझोर दिया। इससे अब तक अंग्रेजों की जी हुजूरी करने वाली कांग्रेस में एक नये समूह का उदय हुआ, जो ‘गरम दल’ के नाम से प्रख्यात हुआ। आगे चलकर इसमें महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक और बंगाल से विपिनचन्द्र पाल भी शामिल हो गये। इस प्रकार लाल, बाल, पाल की त्रयी प्रसिद्ध हुई।
लाला जी का जन्म पंजाब के फिरोजपुर जिले के एक गाँव में 28 जनवरी, 1865 को हुआ था। अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के लाला लाजपतराय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से फारसी की तथा पंजाब विश्वविद्यालय से अरबी, उर्दू एवं भौतिकशास्त्र विषय की परीक्षाएँ एक साथ उत्तीर्ण कीं। 1885 में कानून की डिग्री लेकर वे हिसार में वकालत करने लगे।
उन दिनों पंजाब में आर्यसमाज का बहुत प्रभाव था। लाला जी भी उससे जुड़कर देशसेवा में लग गये। उन्होंने हिन्दू समाज में फैली वशांनुगत पुरोहितवाद, छुआछूत, बाल विवाह जैसी कुरीतियों का प्रखर विरोध किया। वे विधवा विवाह, नारी शिक्षा, समुद्रयात्रा आदि के प्रबल समर्थक थे। लाला जी ने युवकों को प्रेरणा देने वाले जोसेफ मैजिनी, गैरीबाल्डी, शिवाजी, श्रीकृष्ण एवं महर्षि दयानन्द की जीवनियाँ भी लिखीं।
1905 में अंग्रेजों द्वारा किये गये बंग भंग के विरोध में लाला जी के भाषणों ने पंजाब के घर-घर में देशभक्ति की आग धधका दी। लोग उन्हें ‘पंजाब केसरी’ कहने लगे। इन्हीं दिनों शासन ने दमनचक्र चलाते हुए भूमिकर व जलकर में भारी वृद्धि कर दी। लाला जी ने इसके विरोध में आन्दोलन किया। इस पर शासन ने उन्हें 16 मई, 1907 को गिरफ्तार कर लिया।
लाला जी ने 1908 में इंग्लैण्ड, 1913 में जापान तथा अमरीका की यात्रा की। वहाँ उन्होंने बुद्धिजीवियों के सम्मुख भारत की आजादी का पक्ष रखा। इससे वहाँ कार्यरत स्वाधीनता सेनानियों को बहुत सहयोग मिला।
पंजाब उन दिनों क्रान्ति की ज्वालाओं से तप्त था। क्रान्तिकारियों को भाई परमानन्द तथा लाला लाजपतराय से हर प्रकार का सहयोग मिलता था। अंग्रेज शासन इससे चिढ़ा रहता था। उन्हीं दिनों लार्ड साइमन भारत के लिए कुछ नये प्रस्ताव लेकर आया। लाला जी भारत की पूर्ण स्वाधीनता के पक्षधर थे। उन्होंने उसका प्रबल विरोध करने का निश्चय कर लिया।
30 अक्तूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में एक भारी जुलूस निकला। पंजाब केसरी लाला जी शेर की तरह दहाड़ रहे थे। यह देखकर पुलिस कप्तान स्कॉट ने लाठीचार्ज करा दिया। उसने स्वयं लाला जी पर कई वार किये। लाठीचार्ज में बुरी तरह घायल होने के कुछ दिन बाद 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहान्त हो गया। उनकी चिता की पवित्र भस्म माथे से लगाकर क्रान्तिकारियों ने इसका बदला लेने की प्रतिज्ञा ली।
ठीक एक महीने बाद भगतसिंह और उनके मित्रों ने पुलिस कार्यालय के बाहर ही स्कॉट के धोखे में सांडर्स को गोलियों से भून दिया।
.................................
17 नवम्बर/इतिहास-स्मृति
अमर बलिदान का साक्षी मानगढ़
मानगढ़ राजस्थान में बांसवाड़ा जिले की एक पहाड़ी है। यहां मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमाएं भी लगती हैं। 17 नवम्बर, 1913 को यह पहाड़ी ऐसे अमर बलिदान की साक्षी बनी, जो विश्व के इतिहास में अनुपम है।
यह सारा क्षेत्र वनवासी बहुल है। मुख्यतः यहां महाराणा प्रताप के सेनानी अर्थात भील जनजाति के हिन्दू रहते हैं। स्थानीय सामंत, रजवाड़े तथा अंग्रेज इनकी अशिक्षा, सरलता तथा गरीबी का लाभ उठाकर इनका शोषण करते थे। इनमें फैली कुरीतियों तथा अंध परम्पराओं को मिटाने के लिए गोविन्द गुरु के नेतृत्व में एक बड़ा सामाजिक एवं आध्यात्मिक आंदोलन हुआ।
गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में गोवारिया जाति के एक बंजारा परिवार में हुआ था। बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ अध्यात्म में भी थी। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र वागड़ क्षेत्र को बनाया।
गोविन्द गुरु ने 1903 में ‘सम्प सभा’ की स्थापना की। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने; परिश्रम कर सादा जीवन जीने; प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने; विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया।
कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी। इससे वागड़ का यह वनवासी क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा।
17 नवम्बर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने शासन को पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित वनवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने का आग्रह किया था; पर प्रशासन ने पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया।
उस समय तक वहां लाखों भगत आ चुके थे। पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे हजारों लोग मारे गये। इनकी संख्या 1,500 से लेकर 2,000 तक कही गयी है। पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी।
1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहांत हुआ। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर आकर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
स्वतंत्रता संग्राम में अमृतसर के जलियांवाला बाग कांड की खूब चर्चा होती है; पर मानगढ़ नरसंहार को संभवतः इसलिए भुला दिया गया, क्योंकि इसमें बलिदान होने वाले लोग निर्धन वनवासी थे।
(संदर्भ : दैनिक स्वदेश, इंदौर 16.12.2011...आदि)
...............................
18 नवम्बर/जन्म-दिवस
तेजस्वी कार्यकर्ता मोरुभाऊ मुंजे
प्रचारक और फिर गृहस्थ जीवन बिताते हुए भी संघ कार्य को ही अपने जीवन की प्राथमिकता मानने वाले कार्यकर्ताओं की विशाल मालिका के बल पर ही आज रा.स्व.संघ का काम दुनिया भर में प्रभावी हुआ है। श्री मोरेश्वर राघव (मोरुभाऊ) मुंजे ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। उनका जन्म महाराष्ट्र में वर्धा जिले के पवनार ग्राम में 18 नवम्बर, 1916 को हुआ था।
1927 में 11 वर्ष की अवस्था में मोरुभाऊ अच्छी शिक्षा पाने के लिए नागपुर आ गये। एक दिन शाम को मोरुभाऊ ने मोहिते के बाड़े के पास स्थित खंडहर में कुछ लड़कों को खेलते देखा। अगले दिन वे फिर वहां गये, तो 38 वर्षीय एक तेजस्वी पुरुष ने उन्हें भी खेल में शामिल होने के लिए कहा। वे संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार थे। इस प्रकार मोरुभाऊ संघ से जुड़े, तो फिर संघ ही उनके जीवन के रग-रग में समा गया। क्रमशः वे डा. हेडगेवार के अतिप्रिय स्वयंसेवकों में से एक बन गये।
डा. हेडगेवार की इच्छा थी कि संघ का काम यथाशीघ्र पूरे देश में फैल जाए। अतः उन्होंने कुछ युवा स्वयंसेवकांे को नागपुर से बाहर जाकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया। 1932 में ऐसे चार कार्यकर्ता बाहर गये। इन चारों को डा. हेडगेवार ने स्वयं विदा किया। मोरुभाऊ को इससे बहुत प्रेरणा मिली। उन दिनों विभाजन की आशंकाएं हवा में तैर रही थीं। पंजाब का माहौल लगातार बिगड़ रहा था। अतः डा. जी कुछ साहसी कार्यकर्ताओं को वहां भेजना चाहते थे। 1937 में उन्होंने दिगम्बर विश्वनाथ (राजभाऊ) पातुरकर को लाहौर, कृष्ण धुंडीराज (के.डी.) जोशी को स्यालकोट तथा मोरुभाऊ को बप्पा रावल द्वारा स्थापित रावलपिंडी भेज दिया। मोरुभाऊ ने इसी वर्ष नागपुर के सिटी कॉलिज से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। उनके परिश्रम से वहां श्री गुरुपूर्णिमा उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाये गये। डा. जी ने पत्र लिखकर तीनों को बधाई दी।
1937 से 1941 तक मोरुभाऊ रावलपिंडी के विभाग प्रचारक रहे। इस दौरान उन्होंने झेलम, पेशावर तथा गुजरांवाला जैसे बड़े नगरों तथा कई गांवों में शाखाएं शुरू कीं। वहां मुस्लिम जनसंख्या 60 से 90 प्रतिशत तक थी। अतः शाखा लगाना बहुत खतरे से भरा काम था। दो बार उनकी हत्या का भी प्रयास किया गया। मोरुभाऊ ने युवकों को प्रभावित करने के लिए एक बार झेलम के बर्फीले पानी में पुल से छलांग लगायी और तैरकर किनारे आ गये। प्रख्यात विद्वान और क्रांतिवीर भाई परमानंद से भी मोरुभाऊ का गहरा संबंध रहा।
1941 में मोरुभाऊ मध्य प्रदेश में रायपुर तथा 1943 से 45 तक जबलपुर में विभाग प्रचारक रहे। 1946 में गृहस्थ होकर वे जबलपुर के ‘महाराष्ट्र विद्यालय’ में पढ़ाने लगे। गांधी हत्या के बाद वे गिरफ्तार कर लिये गये। सात महीने बाद छूटने पर उन्होंने 52 स्वयंसेवकों के साथ फिर सत्याग्रह किया। इस बीच उनकी नौकरी छूट गयी। अतः एक दवा कम्पनी में काम कर उन्होंने किसी तरह घर चलाया। इसके बावजूद वे संघ में तथा उनकी पत्नी जनसंघ में सक्रिय रहीं। श्रीमती कुमुदिनी मुंजे ने 1965 के कच्छ सत्याग्रह में जबलपुर के महिला जत्थे का नेतृत्व किया। 1947 में पंजाब से जबलपुर आये लोगों को वे लम्बे समय तक प्रतिदिन एक टीन आटा तथा एक टोकरी आलू देते रहे।
1982 से 89 तक वे प्रांत बौद्धिक प्रमुख तथा फिर संभाग प्रचारक रहे। इसके बाद उन पर विश्व हिन्दू परिषद की जिम्मेदारी रही। अयोध्या आंदोलन के समय उन्होंने कारसेवा में भाग लिया तथा चार महीने मणिराम छावनी में रहकर व्यवस्था संभाली। जबलपुर में उन्होंने ‘डा.हेडगेवार स्मृति मंडल’ की स्थापना की, जिससे कई सेवा कार्य किये जा रहे हैं। वर्ष 2000 में श्री हो.वे.शेषाद्रि के आग्रह पर उन्होंने बंगलौर में डा. हेडगेवार तथा संघ के प्रारम्भिक इतिहास पर कई व्याख्यान दिये।
आठ दिसम्बर, 2007 को हृदयाघात से ऐसी तेजस्वी कार्यकर्ता का निधन हुआ। (संदर्भ: पांचजन्य 26.3.2017)
-------------------------------
18 नवम्बर/जन्म-दिवस
परोपकार की प्रतिमूर्ति स्वामी प्रेमानन्द
भारत में संन्यास की एक विशेष परम्परा है। हिन्दू धर्म में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और फिर संन्यास को आश्रम व्यवस्था कहा गया है; पर कई लोग पूर्व जन्म के संस्कार या वर्तमान जन्म में अध्यात्म और समाज सेवा के प्रति प्रेम होने के कारण ब्रह्मचर्य से सीधे संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो जाते हैं।
आद्य शंकराचार्य ने समाज में हो रहे विघटन एवं देश-धर्म पर हो रहे आक्रमण से रक्षा हेतु दशनामी संन्यासियों की परम्परा प्रारम्भ की; पर इन दशनाम संन्यासियों से अलग भी अनेक प्रकार के पन्थ और सम्प्रदाय हैं, जिनमें रहकर लोग संन्यास व्रत धारण करते हैं। ऐसे लोग प्रायः भगवा वस्त्र पहनते हैं, जो त्याग और बलिदान का प्रतीक है।
ऐसे ही एक संन्यासी थे स्वामी प्रेमानन्द, जिन्होंने संन्यास लेने के बाद समाज सेवा को ही अपने जीवन का ध्येय बनाया। वे पूजा पाठ एवं साधना तो करते थे; पर उनकी मुख्य पहचान परोपकार के कामों से हुई।
स्वामी जी का जन्म 18 नवम्बर, 1930 को पंजाब के एक धनी एवं प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। सम्पन्नता के कारण सुख-वैभव चारों ओर बिखरा था; पर प्रेमानन्द जी का मन इन भौतिक सुविधाओं की बजाय ध्यान, धारणा और निर्धन-निर्बल की सेवा में अधिक लगता था। इसी से इनके भावी जीवन की कल्पना अनेक लोग करने लगे थे।
प्रेमानन्द जी का बचपन कश्मीर की सुरम्य घाटियों में बीता। वहाँ रहकर उनका मन ईश्वर के प्रति अनुराग से भर गया। वे अपने जीवन लक्ष्य के बारे में विचार करने लगे; पर उन्होंने शिक्षा की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से इतिहास में और पंजाब विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए किया। इसके बाद वे अनेक विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक भी रहे; पर उनके लिए तो परमपिता परमात्मा ने कोई और काम निर्धारित कर रखा था।
धीरे-धीरे उनका मन सांसारिक माया मोह से हट गया। वे समझ गये कि भौतिक वस्तुओं में सच्चा सुख नहीं है। वह तो ईश्वर की प्राप्ति और मानव की सेवा में है। उन्होंने विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़ दी और अपने आध्यात्मिक गुरु से संन्यास की दीक्षा ले ली। लोग उनके इस निर्णय पर आश्चर्य करते थे; पर अब उनके जीवन का मार्ग दूसरा ही हो गया था।
स्वामी जी ने मानव कल्याण के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने हिन्दी में मानव जाग, जीव शृंगार; अंग्रेजी में आर्ट ऑफ़ लिविंग, लाइफ ए टेण्डर स्माइल तथा उर्दू में ऐ इन्सान जाग नामक पुस्तकें लिखीं। ये पुस्तकें आज भी अत्यन्त प्रासंगिक हैं; क्योंकि इनसे पाठकों को अपना जीवन सन्तुलित करने का पाथेय मिलता है। इन पुस्तकों में उनके प्रवचन भी संकलित हैं, जो सरल भाषा में होने के कारण आसानी से समझ में आते हैं।
उनके लेखन और प्रवचन का मुख्य विषय विज्ञान और धर्म, विश्व शान्ति, विश्व प्रेम, नैतिक और मानवीय मूल्य, वेदान्त और जीवन की कला आदि रहते थे। उन्होंने साधना के बल पर स्वयं पर इतना नियन्त्रण कर लिया था कि वे कुल मिलाकर ढाई घण्टे ही सोते थे। शेष समय वे सामाजिक कामों में लीन रहते थे। 23 अपै्रल, 1996 को मुकेरियाँ (पंजाब) के पास हुई एक दुर्घटना में स्वामी जी का देहान्त हो गया। आज भी उनके नाम पर पंजाब में अनेक विद्यालय और धर्मार्थ चिकित्सालय चल रहे है।
...........................................
18 नवम्बर/जन्म-दिवस
राममंदिर आंदोलन के साक्षी चम्पतरायजी
1947 के बाद भारत के हिन्दू नवजागरण में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन की विशेष भूमिका है। इसने देश के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। आंदोलन में सार्वजनिक मंचों पर वरिष्ठ साधु-संतों के साथ विश्व हिन्दू परिषद के श्री अशोक सिंहल सदा उपस्थित रहते थे; लेकिन पीछे रहकर सब योजनाओं को परिणाम तक पहुंचाने वाले चंपतरायजी इस आंदोलन के जीवंत कोष (एनसाइक्लोपीडिया) और निकटस्थ साक्षी हैं।
चंपतजी का जन्म 18 नवम्बर, 1946 को नगीना (जिला बिजनौर, उ.प्र.) में कपड़े के कारोबारी श्री रामेश्वर प्रसाद बंसल और श्रीमती सावित्री देवी के घर में हुआ था। पिताजी संघ के कार्यकर्ता थे और 1948 के प्रतिबंध काल में जेल गये थे। दस भाई-बहिनों में चंपतजी का नंबर दूसरा है। बचपन से ही वे शाखा में जाते थे। रज्जू भैया, ओमप्रकाशजी, सूर्यकृष्णजी, सलेकचंदजी आदि प्रचारक घर आते रहते थे। पढ़ाई में तेज होने से 1969 में भौतिकी में एम.एस-सी. करते ही वे रोहतक (हरियाणा) के एक डिग्री काॅलिज में पढ़ाने लगे। 1972 में वे धामपुर (उ.प्र.) के आर.एस.एम. डिग्री काॅलिज में आ गये।
यथासमय उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण पूरे किये। 1975 में देश में आपातकाल और संघ पर प्रतिबंध लग गया। चंपतजी बिजनौर में संघ के जिला कार्यवाह थे। अतः काॅलिज में ही पुलिस उन्हें पकड़ने आ गयी। चंपतजी उनके साथ घर गये। कुछ कपड़े लिये और माता-पिता के पैर छूकर जेल चले गये। ‘मीसा’ लगाकर उन्हें बरेली, आगरा और नैनी जेल में रखा गया। 1980 में नौकरी छोड़कर वे संघ के प्रचारक बने। देहरादून और सहारनपुर में जिला तथा 1985 में मेरठ के विभाग प्रचारक के बाद 1986 में वे विश्व हिन्दू परिषद (पश्चिमी उ.प्र.) के सह संगठन मंत्री बनाये गये। फिर वे उ.प्र. के संगठन मंत्री, केन्द्रीय मंत्री, संयुक्त महामंत्री, महामंत्री तथा उपाध्यक्ष बने। 1996 से केन्द्रीय कार्यालय, दिल्ली में रहकर वहां की व्यवस्था भी उन्होंने संभाली।
1990 के बाद मंदिर आंदोलन में तेजी आयी। उन दिनों चंपतजी का केन्द्र अयोध्या ही था। वहां की हर व्यवस्था उनके जिम्मे थी। इस दौरान वे वहां की हर गली, मोहल्ले और आश्रम के इतने पक्के जानकार हो गये कि लोग हंसी में उन्हें ‘अयोध्या का पटवारी’ कहते थे। आंदोलन ने उतार-चढ़ाव के कई दौर देखे। चंपतजी हर जगह पृष्ठभूमि में रहकर काम करते थे। व्यवस्था के हर पहलू पर उनकी पूरी पकड़ रहती थी। परिषद के काम से पूरे देश का प्रवास तो उन्होंने किया ही है। एक बार अशोकजी के साथ वे विदेश भी गये हैं। विज्ञान के छात्र होने के बावजूद वे लेखा कार्यों के भी तज्ञ हैं। विश्व हिन्दू परिषद का काम सैकड़ों न्यासों के माध्यम से चलता है। हर न्यास का प्रतिवर्ष आॅडिट होता है। केन्द्र में कांग्रेसी सरकारों ने हिसाब-किताब के नाम पर कई बार परिषद को घेरने का प्रयास किया; पर उनकी दाल नहीं गली।
अयोध्या आंदोलन में लखनऊ से लेकर दिल्ली तक मुकदमों का लंबा दौर चला। यह जिम्मेदारी भी मुख्यतः चंपतजी पर ही थी। वे आंदोलन की हर फाइल और कागज को संभालकर रखते थे, जिससे उनके पक्ष के वकील उसे न्यायालय में सही समय पर प्रस्तुत कर सकें। मुकदमे के दौरान वे चुपचाप बैठकर बहस सुनते थे। मुकदमों की पैरवी देश के कई बड़े वकीलों ने निःशुल्क की। परिश्रम, सादगी और विनम्रता चंपतजी का विशेष गुण है। इसलिए वरिष्ठ वकील, साधु-संत और शासन-प्रशासन के लोग भी उन्हें बहुत मानते हैं।
लम्बे संघर्ष के बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से अब मंदिर बन रहा है। चंपतजी ‘श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास’ के महासचिव हैं। 22 जनवरी, 2024 को श्रीरामलला की प्राणप्रतिष्ठा को वे अपने जीवन लक्ष्य की सार्थकता मानते हैं।
(पवन कुमार अरविंद : हिन्दुस्थान समा/3.3.20 तथा सुधीर बंसल)
--------------------------------------------------------------------------------------
18 नवम्बर/इतिहास-स्मृति
अन्तिम सांस तक संघर्ष
भारतीय वीर सैनिकों के बलिदान की गाथाएं विश्व इतिहास में यत्र-तत्र स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं। चाहे वह चीन से युद्ध हो या पाकिस्तान से; हर बार भारतीय वीरों ने अद्भुत शौर्य दिखाया है। यह बात दूसरी है कि हमारे नेताओं की मूर्खता और समझौतावादी प्रवृत्ति ने रक्त से लिखे उस इतिहास को कलम की नोक से काट दिया। 18 नवम्बर 1962 को चुशूल में मेजर शैतान सिंह और उनके 114 साथियों का अप्रतिम बलिदान इसका साक्षी है।
उत्तर में भारत के प्रहरी हिमालय की पर्वत शृंखलाएं सैकड़ों से लेकर हजारों मीटर तक ऊंची हैं। मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में 13वीं कुमाऊं की ‘सी’ कम्पनी के 114 जवान शून्य से 15 डिग्री कम की हड्डियां कंपा देने वाली ठंड में 17,800 फुट ऊंचे त्रिशूल पर्वत की ओट में 3,000 गज लम्बे और 2,000 गज चौड़े रजांगला दर्रे पर डटे थे।
वहां की कठिन स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि चाय बनाने के लिए पानी को कई घंटे तक उबालना पड़ता था। भोजन सामग्री ठंड के कारण बिलकुल ठोस हो जाती थी। तब आज की तरह आधुनिक ठंडरोधी टैंट भी नहीं होते थे।
उन दिनों हमारे प्रधानमंत्री नेहरू जी ‘हिन्दी-चीनी, भाई-भाई’ के नशे में डूबे थे, यद्यपि चीन की सामरिक तैयारियां और उसकी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति देखकर सामाजिक रूप से संवेदनशील अनेक लोग उस पर शंका कर रहे थे। इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी भी थे। उस समय हमारे सैनिकों के पास शस्त्र तो दूर, अच्छे कपड़े और जूते तक नहीं थे। नेहरू जी का मत था कि यदि हम शांति के पुजारी हैं, तो कोई हम पर आक्रमण क्यों करेगा ? पर चीन ऐसा नहीं सोचता था।
18 नवम्बर 1962 को भोर में 4.35 पर चीनी सैनिकों रजांगला दर्रे पर हमला बोल दिया; पर उन्हें पता नहीं था कि उनका पाला किससे पड़ा है। मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में भारतीय सैनिक शत्रु पर टूट पड़े। उन्होंने अंतिम सांस और अंतिम गोली तक युद्ध किया। पल्टन के सब सैनिक मारे गये; पर चीन का कब्जा वहां नहीं हो पाया। कैसी हैरानी की बात है कि इस युद्ध का पता दिल्ली शासन को महीनों बाद तब लगा, जब चुशूल गांव के गडरियों ने सैनिकों के शव चारों ओर छितरे हुए देखे।
भगतसिंह के प्रेरणास्रोत करतार सिंह सराबा
अमर बलिदानी करतार सिंह सराबा को भगतसिंह अपना अग्रज, गुरु, साथी तथा प्रेरणास्रोत मानते थे। वे भगतसिंह से 11 वर्ष बड़े थे और उनसे 11 वर्ष पूर्व केवल 19 वर्ष की तरुणावस्था में ही भारतमाता के पावन चरणों में उन्होंने हंसते हुए अपना शीश अर्पित कर दिया।
करतार सिंह का जन्म 1896 ई. में लुधियाना जिले के सराबा गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री मंगल सिंह का देहान्त जल्दी ही हो गया था। प्रारम्भिक शिक्षा खालसा स्कूल, लुधियाना में पूरी कर चाचा जी की अनुमति से केवल 14 वर्ष की अवस्था में पढ़ाई के लिए सान फ्रान्सिस्को चले गये।
उन दिनों वहाँ भारतीयों में देशप्रेम की आग सुलग रही थी। करतार सिंह भी उनमें शामिल हो गये। उन्होंने थोड़े समय में ही यह देख लिया कि गोरे लोग भारतीयों से घृणा करते हैं और उन्हें कुली समझते हैं। करतार सिंह का मत था कि इसे बदलने का एकमात्र मार्ग यही है कि भारत स्वतन्त्र हो। इसके लिए उन्होंने स्वयं की आहुति देने का निश्चय कर लिया।
शीघ्र ही उनका सम्पर्क लाला हरदयाल से हो गया। फिर तो वे ही करतार के मार्गदर्शक बन गये। ‘गदर पार्टी’ की स्थापना के बाद करतार उसके प्रमुख कार्यकर्ता बने। पोर्टलैण्ड में हुए उसके सम्मेलन में भी वे शामिल हुए। करतार के प्रयास से वहाँ ‘युगान्तर आश्रम’ की स्थापना हुई और पार्टी का साप्ताहिक मुखपत्र ‘गदर’ कई भाषाओं में छपने लगा। उन्होंने घर से पढ़ाई के लिए मिले 200 पौंड भी लाला जी को समाचार पत्र के लिए दे दिये। इस पत्र में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की कुछ प्रेरक सामग्री अवश्य होती थी।
प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत आये। उनका विचार था कि यह अंग्रेजों को बाहर निकालने का सर्वश्रेष्ठ समय है। उन्होंने रासबिहारी बोस तथा शचीन्द्रनाथ सान्याल जैसे क्रान्तिकारियों से भी भेंट की। 21 फरवरी, 1915 को पूरे देश में एक साथ क्रान्ति की योजना बनी।
करतार सिंह पर पंजाब की जिम्मेदारी थी। उन्होंने कई धार्मिक स्थानों की यात्रा कर युवकों तथा सेना से सम्पर्क किया। रेल तथा डाक व्यवस्था को भंग करने की योजना बन गयी। इन सबका केन्द्र लाहौर था। वहाँ छावनी में शस्त्रागार के चौकीदार से भी बात हो गयी। धन के लिए कई डाके भी डाले गये।
पर दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। कृपाल सिंह नामक एक पुलिस वाले ने मुखबिरी की और धरपकड़ होने लगी। करतार अपने कुछ साथियों के साथ भारत की उत्तर पश्चिम सीमा की ओर चले गये; पर उन्हें सरगोधा के पास पकड़ लिया गया और लाहौर के केन्द्रीय कारागार में बन्द कर दिया। इनके साथ 60 अन्य लोगों पर पहला लाहौर षड्यन्त्र केस चलाया गया।
करतार ने अपने साथियों को बचाने के लिए सारी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। न्यायाधीश ने इन्हें अपना बयान बदलने को कहा; पर इस बार करतार ने और कठोर बयान दिया। अतः उन्हें फाँसी की सजा सुना दी गयी। एक बार उन्होंने जेल से भागने का भी प्रयास किया; पर वह योजना विफल हो गयी। करतार का उत्साह इतना था कि फाँसी से पूर्व इनका वजन बढ़ गया।
16 नवम्बर, 1915 को करतार सिंह सराबा और उनके छह साथियों ने लाहौर केन्द्रीय जेल में फाँसी का फन्दा चूम लिया। इनके नाम थे - विष्णु गणेश पिंगले, हरनाम सिंह, बख्शीश सिंह, जगतसिंह, सुरेन सिंह एवं सुरेन्द्र सिंह।
.......................
16 नवम्बर/जन्म-दिवस
हिन्दी पत्रकारिता के जनक बाबूराव विष्णु पराड़कर
श्री बाबूराव विष्णु पराड़कर भारत के उन महान पत्रकारों में से थे, जिन्होंने पत्रकारिता को न केवल नयी दिशा दी, बल्कि उसका स्वरूप भी सँवारा। उनका जन्म 16 नवम्बर, 1883 को वाराणसी (उ.प्र.) में हुआ था। उन्होंने 1906 में पत्रकारिता जगत में प्रवेश किया और जीवन के अन्तिम क्षण तक इसी में लगे रहे। इस क्षेत्र की सभी विधाओं के बारे में उनका अध्ययन और विश्लेषण बहुत गहरा था। इसी से इन्हें पत्रकारिता का भीष्म पितामह कहा जाता है।
उन्होंने बंगवासी, हितवार्ता, भारत मित्र, आज, कमला तथा संसार का सम्पादन कर देश, साहित्य और संस्कृति की बड़ी सेवा की। वे महान क्रान्तिकारी भी थे। ब्रिटिश शासकों को खुली चुनौती देने वाले उनके लेख नये पत्रकारों तथा स्वाधीनता सेनानियों को प्रेरणा देते थे। देश के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक नव जागरण में उनके लेखन का महत्वपूर्ण स्थान है।
उस समय समाचार जगत व्यापार नहीं था। लोग इसमें एक ध्येय लेकर आते थे। पत्र निकालने वाले भी उदात्त लक्ष्य से प्रेरित होते थे; पर पराड़कर जी ने दूरदृष्टि से देख लिया कि आगे चलकर इस क्षेत्र में धन की ही तूती बोलेगी। 1925 में वृन्दावन में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने जो भविष्यवाणी की थी, वह आज प्रत्यक्ष हो रही है।
उन्होंने कहा था कि स्वाधीनता के बाद समाचार पत्रों में विज्ञापन एवं पूँजी का प्रभाव बढ़ेगा। सम्पादकों की स्वतन्त्रता सीमित हो जाएगी और मालिकों का वर्चस्व बढ़ेगा। हिन्दी पत्रों में तो यह सर्वाधिक होगा। पत्र निकालकर सफलतापूर्वक चलाना बड़े धनिकों या संगठित व्यापारिक समूहों के लिए ही सम्भव होगा।
पत्र की विषय वस्तु की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा था कि पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे, आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता और कल्पनाशीलता होगी। गम्भीर गद्यांश की झलक और मनोहारिणी शक्ति भी होगी। ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जाएगी। यह सब होगा; पर पत्र प्राणहीन होंगे। पत्रों की नीति देशभक्त, धर्मभक्त या मानवता के उपासक महाप्राण सम्पादकों की नीति न होगी। इन गुणों से सम्पन्न लेखक विकृत मस्तिष्क के समझे जायेंगे। सम्पादक की कुर्सी तक उनकी पहुँच भी न होगी।
बाबूराव विष्णु पराड़कर को भारत में आधुनिक हिन्दी पत्रकारिता का जनक माना जाता है। पत्रकारिता के विभिन्न अंगों के संगठन एवं संचालन की उनकी प्रतिभा व क्षमता असाधारण थी। वे कहते थे कि पत्रकारिता के दो ही मुख्य धर्म हैं। एक तो समाज का चित्र खींचना और दूसरा लोक शिक्षण के द्वारा उसे सही दिशा दिखाना। पत्रकार लोग सदाचार को प्रेरित कर कुरीतियों को दबाने का प्रयत्न करें। पत्र बेचने के लिए अश्लील समाचारों और चित्रों को महत्व देकर, दुराचारी और अपराधी का आकर्षक वर्णन कर हम अपराधियों से भी बड़े अपराधी होंगे।
श्री पराड़कर ने जो कुछ भी कहा था, वह आज पूरी तरह सत्य हो रहा है। यों तो सभी भाषाओं के पत्रों के स्तर में गिरावट आयी है; पर हिन्दी जगत की दुर्दशा सर्वाधिक है। समाचार जगत में अनेक नये आयाम जुड़े हैं। दूरदर्शन और अन्तरजाल का महत्व बहुत बढ़ा है; पर इनमें से अधिकांश समाज में मलीनता, अश्लीलता और भ्रम फैलाने को ही अपना धर्म समझ रहे हैं।
भावी को स्पष्ट देखने और उसे डंके की चोट पर कहने वाले इस यशस्वी पत्रकार का 12 जनवरी, 1955 को शरीरान्त हुआ।
..............................
16 नवम्बर/जन्म दिवस
ब्रह्मदेश में संघ के प्रचारक रामप्रकाश धीर
ब्रह्मदेश (बर्मा या म्यांमार) भारत का ही प्राचीन भाग है। अंग्रेजों ने जब 1905 में बंग-भंग किया, तो षड्यंत्रपूर्वक इसे भी भारत से अलग कर दिया था। इसी ब्रह्मदेश के मोनीवा नगर में 16 नवम्बर, 1926 को श्री रामप्रकाश धीर का जन्म हुआ था। बर्मी भाषा में उनका नाम ‘सयाजी यू सेन टिन’ कहा जाएगा। उनके पिता श्री नंदलाल जी वहां के प्रसिद्ध व्यापारी एवं ठेकेदार थे। 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जब अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां तेजी से बदलीं, तो पूरा परिवार बर्मा छोड़कर भारत में जालंधर आ गया। उस समय रामप्रकाश जी मोनीवा के वैस्ले मिशनरी स्कूल में कक्षा नौ के छात्र थे।
इसके बाद उनकी शेष पढ़ाई भारत में ही हुई। इस दौरान उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ। धीरे-धीरे संघ के विचार ने उनके मन में जड़ जमा ली। 1947 में उन्होंने पंजाब वि.वि. से बी.ए. किया। बी.ए. में उनका एक वैकल्पिक विषय बर्मी भाषा भी था। शिक्षा पूर्ण कर वे संघ के प्रचारक बन गये। उनका प्रारम्भिक जीवन बर्मा में बीता था। अतः उन्हें वहां पर ही संघ की स्थापना करने के लिए भेजा गया; पर 1947-48 में वहां काफी आंतरिक उथल-पुथल हो रही थी। अतः कुछ समय बाद ही उन्हें वापस बुला लिया गया।
इसके बाद वे पंजाब में ही प्रचारक रहे; पर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता डा. मंगलसेन के आग्रह पर 1956 में उन्हें फिर बर्मा भेजा गया। भारत से बाहर स्वयंसेवकों ने कई नामों से संघ जैसे संगठन बनाये हैं। इसी कड़ी में डा. मंगलसेन ने 1950 में बर्मा में ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की थी, जो अब ‘सनातन धर्म स्वयंसेवक संघ’ कहलाता है। इसका विस्तार बहुत कठिन था। न साधन थे और न कार्यकर्ता। फिर बर्मा का अधिकांश भाग पहाड़ी है। वहां यातायात के साधन बहुत कम हैं। ऐसे में सैकड़ों मील पैदल चलकर रामप्रकाश जी ने बर्मा के प्रमुख नगरों में संघ की शाखाएं स्थापित कीं।
बर्मा मूलतः बौद्ध देश है, जो विशाल हिन्दू धर्म का ही एक भाग है। रामप्रकाश जी ने शाखा के माध्यम से युवाओं को जोड़ा, तो पुरानी पीढ़ी को प्रभावित करने के लिए महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं पर एक प्रदर्शिनी बनायी। इसे देखकर बर्मी शासन और प्रशासन के लोग भी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने इसे बर्मा के सब नगरों में लगाने का आग्रह किया और इसके लिए सहयोग भी दिया। इस प्रकार प्रदर्शिनी के माध्यम से जहां एक ओर हिन्दू और बौद्ध धर्म के बीच समन्वय की स्थापना हुई, वहां रामप्रकाश जी का व्यापक प्रवास भी होने लगा। आगे चलकर यह प्रदर्शिनी थाइलैंड में भी लगायी गयी।
यह प्रदर्शिनी बर्मा में संघ के विस्तार में मील का पत्थर सिद्ध हुई। इसे देखने बड़ी संख्या में आम जनता के साथ-साथ बौद्ध भिक्षु और विद्वान भी आते थे। इसका पहला प्रदर्शन यंगून के पहाड़ों में स्थित ऐतिहासिक ‘काबा अये पगोडा’ में रेत की प्रतिमाओं और बिजली की आकर्षक चमक-दमक के बीच हुआ। आजकल तो तकनीक बहुत विकसित हो गयी है; पर उस समय यह बिल्कुल नयी बात थी। अतः पहले प्रदर्शन से ही इसकी धूम मच गयी।
इसके बाद रामप्रकाश जी का जीवन बर्मा और थाइलैंड में संघ शाखा तथा उसके विविध आयामों के विकास और विस्तार को समर्पित रहा। वृद्धावस्था में वे यंगून के पास सिरियम स्थित ‘मंगल आश्रम छात्रावास’ में रहकर बर्मा में संघ कार्य के विकास और विस्तार का इतिहास लिखने लगे। 20 जून, 2014 को यंगून के एक चिकित्सालय में फेफड़े और हृदय में संक्रमण के कारण उनका निधन हुआ। उनका अंतिम संस्कार उनकी कर्मभूमि में ही किया गया। रामप्रकाश जी का पूरा परिवार संघ से जुड़ा था। उनके बड़े भाई रामप्रसाद धीर सेवानिवृत्त होने के बाद विश्व हिन्दू परिषद में सक्रिय थे। 17 मार्च, 2014 को वि.हि.प के दिल्ली स्थित केन्द्रीय कार्यालय पर ही उनका निधन हुआ था।
(संदर्भ : पांचजन्य 6/13.7.2014/विश्व विभाग का पत्रक)
------------------------------
17 नवम्बर/बलिदान-दिवस
पंजाब केसरी लाला लाजपतराय
‘‘यदि तुमने सचमुच वीरता का बाना पहन लिया है, तो तुम्हें सब प्रकार की कुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए। कायर मत बनो। मरते दम तक पौरुष का प्रमाण दो। क्या यह शर्म की बात नहीं कि कांग्रेस अपने 21 साल के कार्यकाल में एक भी ऐसा राजनीतिक संन्यासी पैदा नहीं कर सकी, जो देश के उद्धार के लिए सिर और धड़ की बाजी लगा दे...।’’
इन प्रेरणास्पद उद्गारों से 1905 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी नगर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में लाला लाजपतराय ने लोगों की अन्तर्रात्मा को झकझोर दिया। इससे अब तक अंग्रेजों की जी हुजूरी करने वाली कांग्रेस में एक नये समूह का उदय हुआ, जो ‘गरम दल’ के नाम से प्रख्यात हुआ। आगे चलकर इसमें महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक और बंगाल से विपिनचन्द्र पाल भी शामिल हो गये। इस प्रकार लाल, बाल, पाल की त्रयी प्रसिद्ध हुई।
लाला जी का जन्म पंजाब के फिरोजपुर जिले के एक गाँव में 28 जनवरी, 1865 को हुआ था। अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के लाला लाजपतराय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से फारसी की तथा पंजाब विश्वविद्यालय से अरबी, उर्दू एवं भौतिकशास्त्र विषय की परीक्षाएँ एक साथ उत्तीर्ण कीं। 1885 में कानून की डिग्री लेकर वे हिसार में वकालत करने लगे।
उन दिनों पंजाब में आर्यसमाज का बहुत प्रभाव था। लाला जी भी उससे जुड़कर देशसेवा में लग गये। उन्होंने हिन्दू समाज में फैली वशांनुगत पुरोहितवाद, छुआछूत, बाल विवाह जैसी कुरीतियों का प्रखर विरोध किया। वे विधवा विवाह, नारी शिक्षा, समुद्रयात्रा आदि के प्रबल समर्थक थे। लाला जी ने युवकों को प्रेरणा देने वाले जोसेफ मैजिनी, गैरीबाल्डी, शिवाजी, श्रीकृष्ण एवं महर्षि दयानन्द की जीवनियाँ भी लिखीं।
1905 में अंग्रेजों द्वारा किये गये बंग भंग के विरोध में लाला जी के भाषणों ने पंजाब के घर-घर में देशभक्ति की आग धधका दी। लोग उन्हें ‘पंजाब केसरी’ कहने लगे। इन्हीं दिनों शासन ने दमनचक्र चलाते हुए भूमिकर व जलकर में भारी वृद्धि कर दी। लाला जी ने इसके विरोध में आन्दोलन किया। इस पर शासन ने उन्हें 16 मई, 1907 को गिरफ्तार कर लिया।
लाला जी ने 1908 में इंग्लैण्ड, 1913 में जापान तथा अमरीका की यात्रा की। वहाँ उन्होंने बुद्धिजीवियों के सम्मुख भारत की आजादी का पक्ष रखा। इससे वहाँ कार्यरत स्वाधीनता सेनानियों को बहुत सहयोग मिला।
पंजाब उन दिनों क्रान्ति की ज्वालाओं से तप्त था। क्रान्तिकारियों को भाई परमानन्द तथा लाला लाजपतराय से हर प्रकार का सहयोग मिलता था। अंग्रेज शासन इससे चिढ़ा रहता था। उन्हीं दिनों लार्ड साइमन भारत के लिए कुछ नये प्रस्ताव लेकर आया। लाला जी भारत की पूर्ण स्वाधीनता के पक्षधर थे। उन्होंने उसका प्रबल विरोध करने का निश्चय कर लिया।
30 अक्तूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में एक भारी जुलूस निकला। पंजाब केसरी लाला जी शेर की तरह दहाड़ रहे थे। यह देखकर पुलिस कप्तान स्कॉट ने लाठीचार्ज करा दिया। उसने स्वयं लाला जी पर कई वार किये। लाठीचार्ज में बुरी तरह घायल होने के कुछ दिन बाद 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहान्त हो गया। उनकी चिता की पवित्र भस्म माथे से लगाकर क्रान्तिकारियों ने इसका बदला लेने की प्रतिज्ञा ली।
ठीक एक महीने बाद भगतसिंह और उनके मित्रों ने पुलिस कार्यालय के बाहर ही स्कॉट के धोखे में सांडर्स को गोलियों से भून दिया।
.................................
17 नवम्बर/इतिहास-स्मृति
अमर बलिदान का साक्षी मानगढ़
मानगढ़ राजस्थान में बांसवाड़ा जिले की एक पहाड़ी है। यहां मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमाएं भी लगती हैं। 17 नवम्बर, 1913 को यह पहाड़ी ऐसे अमर बलिदान की साक्षी बनी, जो विश्व के इतिहास में अनुपम है।
यह सारा क्षेत्र वनवासी बहुल है। मुख्यतः यहां महाराणा प्रताप के सेनानी अर्थात भील जनजाति के हिन्दू रहते हैं। स्थानीय सामंत, रजवाड़े तथा अंग्रेज इनकी अशिक्षा, सरलता तथा गरीबी का लाभ उठाकर इनका शोषण करते थे। इनमें फैली कुरीतियों तथा अंध परम्पराओं को मिटाने के लिए गोविन्द गुरु के नेतृत्व में एक बड़ा सामाजिक एवं आध्यात्मिक आंदोलन हुआ।
गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में गोवारिया जाति के एक बंजारा परिवार में हुआ था। बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ अध्यात्म में भी थी। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र वागड़ क्षेत्र को बनाया।
गोविन्द गुरु ने 1903 में ‘सम्प सभा’ की स्थापना की। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने; परिश्रम कर सादा जीवन जीने; प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने; विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया।
कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी। इससे वागड़ का यह वनवासी क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा।
17 नवम्बर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने शासन को पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित वनवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने का आग्रह किया था; पर प्रशासन ने पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया।
उस समय तक वहां लाखों भगत आ चुके थे। पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे हजारों लोग मारे गये। इनकी संख्या 1,500 से लेकर 2,000 तक कही गयी है। पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी।
1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहांत हुआ। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर आकर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
स्वतंत्रता संग्राम में अमृतसर के जलियांवाला बाग कांड की खूब चर्चा होती है; पर मानगढ़ नरसंहार को संभवतः इसलिए भुला दिया गया, क्योंकि इसमें बलिदान होने वाले लोग निर्धन वनवासी थे।
(संदर्भ : दैनिक स्वदेश, इंदौर 16.12.2011...आदि)
...............................
18 नवम्बर/जन्म-दिवस
तेजस्वी कार्यकर्ता मोरुभाऊ मुंजे
प्रचारक और फिर गृहस्थ जीवन बिताते हुए भी संघ कार्य को ही अपने जीवन की प्राथमिकता मानने वाले कार्यकर्ताओं की विशाल मालिका के बल पर ही आज रा.स्व.संघ का काम दुनिया भर में प्रभावी हुआ है। श्री मोरेश्वर राघव (मोरुभाऊ) मुंजे ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। उनका जन्म महाराष्ट्र में वर्धा जिले के पवनार ग्राम में 18 नवम्बर, 1916 को हुआ था।
1927 में 11 वर्ष की अवस्था में मोरुभाऊ अच्छी शिक्षा पाने के लिए नागपुर आ गये। एक दिन शाम को मोरुभाऊ ने मोहिते के बाड़े के पास स्थित खंडहर में कुछ लड़कों को खेलते देखा। अगले दिन वे फिर वहां गये, तो 38 वर्षीय एक तेजस्वी पुरुष ने उन्हें भी खेल में शामिल होने के लिए कहा। वे संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार थे। इस प्रकार मोरुभाऊ संघ से जुड़े, तो फिर संघ ही उनके जीवन के रग-रग में समा गया। क्रमशः वे डा. हेडगेवार के अतिप्रिय स्वयंसेवकों में से एक बन गये।
डा. हेडगेवार की इच्छा थी कि संघ का काम यथाशीघ्र पूरे देश में फैल जाए। अतः उन्होंने कुछ युवा स्वयंसेवकांे को नागपुर से बाहर जाकर पढ़ने के लिए प्रेरित किया। 1932 में ऐसे चार कार्यकर्ता बाहर गये। इन चारों को डा. हेडगेवार ने स्वयं विदा किया। मोरुभाऊ को इससे बहुत प्रेरणा मिली। उन दिनों विभाजन की आशंकाएं हवा में तैर रही थीं। पंजाब का माहौल लगातार बिगड़ रहा था। अतः डा. जी कुछ साहसी कार्यकर्ताओं को वहां भेजना चाहते थे। 1937 में उन्होंने दिगम्बर विश्वनाथ (राजभाऊ) पातुरकर को लाहौर, कृष्ण धुंडीराज (के.डी.) जोशी को स्यालकोट तथा मोरुभाऊ को बप्पा रावल द्वारा स्थापित रावलपिंडी भेज दिया। मोरुभाऊ ने इसी वर्ष नागपुर के सिटी कॉलिज से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। उनके परिश्रम से वहां श्री गुरुपूर्णिमा उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाये गये। डा. जी ने पत्र लिखकर तीनों को बधाई दी।
1937 से 1941 तक मोरुभाऊ रावलपिंडी के विभाग प्रचारक रहे। इस दौरान उन्होंने झेलम, पेशावर तथा गुजरांवाला जैसे बड़े नगरों तथा कई गांवों में शाखाएं शुरू कीं। वहां मुस्लिम जनसंख्या 60 से 90 प्रतिशत तक थी। अतः शाखा लगाना बहुत खतरे से भरा काम था। दो बार उनकी हत्या का भी प्रयास किया गया। मोरुभाऊ ने युवकों को प्रभावित करने के लिए एक बार झेलम के बर्फीले पानी में पुल से छलांग लगायी और तैरकर किनारे आ गये। प्रख्यात विद्वान और क्रांतिवीर भाई परमानंद से भी मोरुभाऊ का गहरा संबंध रहा।
1941 में मोरुभाऊ मध्य प्रदेश में रायपुर तथा 1943 से 45 तक जबलपुर में विभाग प्रचारक रहे। 1946 में गृहस्थ होकर वे जबलपुर के ‘महाराष्ट्र विद्यालय’ में पढ़ाने लगे। गांधी हत्या के बाद वे गिरफ्तार कर लिये गये। सात महीने बाद छूटने पर उन्होंने 52 स्वयंसेवकों के साथ फिर सत्याग्रह किया। इस बीच उनकी नौकरी छूट गयी। अतः एक दवा कम्पनी में काम कर उन्होंने किसी तरह घर चलाया। इसके बावजूद वे संघ में तथा उनकी पत्नी जनसंघ में सक्रिय रहीं। श्रीमती कुमुदिनी मुंजे ने 1965 के कच्छ सत्याग्रह में जबलपुर के महिला जत्थे का नेतृत्व किया। 1947 में पंजाब से जबलपुर आये लोगों को वे लम्बे समय तक प्रतिदिन एक टीन आटा तथा एक टोकरी आलू देते रहे।
1982 से 89 तक वे प्रांत बौद्धिक प्रमुख तथा फिर संभाग प्रचारक रहे। इसके बाद उन पर विश्व हिन्दू परिषद की जिम्मेदारी रही। अयोध्या आंदोलन के समय उन्होंने कारसेवा में भाग लिया तथा चार महीने मणिराम छावनी में रहकर व्यवस्था संभाली। जबलपुर में उन्होंने ‘डा.हेडगेवार स्मृति मंडल’ की स्थापना की, जिससे कई सेवा कार्य किये जा रहे हैं। वर्ष 2000 में श्री हो.वे.शेषाद्रि के आग्रह पर उन्होंने बंगलौर में डा. हेडगेवार तथा संघ के प्रारम्भिक इतिहास पर कई व्याख्यान दिये।
आठ दिसम्बर, 2007 को हृदयाघात से ऐसी तेजस्वी कार्यकर्ता का निधन हुआ। (संदर्भ: पांचजन्य 26.3.2017)
-------------------------------
18 नवम्बर/जन्म-दिवस
परोपकार की प्रतिमूर्ति स्वामी प्रेमानन्द
भारत में संन्यास की एक विशेष परम्परा है। हिन्दू धर्म में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और फिर संन्यास को आश्रम व्यवस्था कहा गया है; पर कई लोग पूर्व जन्म के संस्कार या वर्तमान जन्म में अध्यात्म और समाज सेवा के प्रति प्रेम होने के कारण ब्रह्मचर्य से सीधे संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो जाते हैं।
आद्य शंकराचार्य ने समाज में हो रहे विघटन एवं देश-धर्म पर हो रहे आक्रमण से रक्षा हेतु दशनामी संन्यासियों की परम्परा प्रारम्भ की; पर इन दशनाम संन्यासियों से अलग भी अनेक प्रकार के पन्थ और सम्प्रदाय हैं, जिनमें रहकर लोग संन्यास व्रत धारण करते हैं। ऐसे लोग प्रायः भगवा वस्त्र पहनते हैं, जो त्याग और बलिदान का प्रतीक है।
ऐसे ही एक संन्यासी थे स्वामी प्रेमानन्द, जिन्होंने संन्यास लेने के बाद समाज सेवा को ही अपने जीवन का ध्येय बनाया। वे पूजा पाठ एवं साधना तो करते थे; पर उनकी मुख्य पहचान परोपकार के कामों से हुई।
स्वामी जी का जन्म 18 नवम्बर, 1930 को पंजाब के एक धनी एवं प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। सम्पन्नता के कारण सुख-वैभव चारों ओर बिखरा था; पर प्रेमानन्द जी का मन इन भौतिक सुविधाओं की बजाय ध्यान, धारणा और निर्धन-निर्बल की सेवा में अधिक लगता था। इसी से इनके भावी जीवन की कल्पना अनेक लोग करने लगे थे।
प्रेमानन्द जी का बचपन कश्मीर की सुरम्य घाटियों में बीता। वहाँ रहकर उनका मन ईश्वर के प्रति अनुराग से भर गया। वे अपने जीवन लक्ष्य के बारे में विचार करने लगे; पर उन्होंने शिक्षा की उपेक्षा नहीं की। उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से इतिहास में और पंजाब विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए किया। इसके बाद वे अनेक विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक भी रहे; पर उनके लिए तो परमपिता परमात्मा ने कोई और काम निर्धारित कर रखा था।
धीरे-धीरे उनका मन सांसारिक माया मोह से हट गया। वे समझ गये कि भौतिक वस्तुओं में सच्चा सुख नहीं है। वह तो ईश्वर की प्राप्ति और मानव की सेवा में है। उन्होंने विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़ दी और अपने आध्यात्मिक गुरु से संन्यास की दीक्षा ले ली। लोग उनके इस निर्णय पर आश्चर्य करते थे; पर अब उनके जीवन का मार्ग दूसरा ही हो गया था।
स्वामी जी ने मानव कल्याण के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना की। उन्होंने हिन्दी में मानव जाग, जीव शृंगार; अंग्रेजी में आर्ट ऑफ़ लिविंग, लाइफ ए टेण्डर स्माइल तथा उर्दू में ऐ इन्सान जाग नामक पुस्तकें लिखीं। ये पुस्तकें आज भी अत्यन्त प्रासंगिक हैं; क्योंकि इनसे पाठकों को अपना जीवन सन्तुलित करने का पाथेय मिलता है। इन पुस्तकों में उनके प्रवचन भी संकलित हैं, जो सरल भाषा में होने के कारण आसानी से समझ में आते हैं।
उनके लेखन और प्रवचन का मुख्य विषय विज्ञान और धर्म, विश्व शान्ति, विश्व प्रेम, नैतिक और मानवीय मूल्य, वेदान्त और जीवन की कला आदि रहते थे। उन्होंने साधना के बल पर स्वयं पर इतना नियन्त्रण कर लिया था कि वे कुल मिलाकर ढाई घण्टे ही सोते थे। शेष समय वे सामाजिक कामों में लीन रहते थे। 23 अपै्रल, 1996 को मुकेरियाँ (पंजाब) के पास हुई एक दुर्घटना में स्वामी जी का देहान्त हो गया। आज भी उनके नाम पर पंजाब में अनेक विद्यालय और धर्मार्थ चिकित्सालय चल रहे है।
...........................................
18 नवम्बर/जन्म-दिवस
राममंदिर आंदोलन के साक्षी चम्पतरायजी
1947 के बाद भारत के हिन्दू नवजागरण में श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन की विशेष भूमिका है। इसने देश के धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। आंदोलन में सार्वजनिक मंचों पर वरिष्ठ साधु-संतों के साथ विश्व हिन्दू परिषद के श्री अशोक सिंहल सदा उपस्थित रहते थे; लेकिन पीछे रहकर सब योजनाओं को परिणाम तक पहुंचाने वाले चंपतरायजी इस आंदोलन के जीवंत कोष (एनसाइक्लोपीडिया) और निकटस्थ साक्षी हैं।
चंपतजी का जन्म 18 नवम्बर, 1946 को नगीना (जिला बिजनौर, उ.प्र.) में कपड़े के कारोबारी श्री रामेश्वर प्रसाद बंसल और श्रीमती सावित्री देवी के घर में हुआ था। पिताजी संघ के कार्यकर्ता थे और 1948 के प्रतिबंध काल में जेल गये थे। दस भाई-बहिनों में चंपतजी का नंबर दूसरा है। बचपन से ही वे शाखा में जाते थे। रज्जू भैया, ओमप्रकाशजी, सूर्यकृष्णजी, सलेकचंदजी आदि प्रचारक घर आते रहते थे। पढ़ाई में तेज होने से 1969 में भौतिकी में एम.एस-सी. करते ही वे रोहतक (हरियाणा) के एक डिग्री काॅलिज में पढ़ाने लगे। 1972 में वे धामपुर (उ.प्र.) के आर.एस.एम. डिग्री काॅलिज में आ गये।
यथासमय उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण पूरे किये। 1975 में देश में आपातकाल और संघ पर प्रतिबंध लग गया। चंपतजी बिजनौर में संघ के जिला कार्यवाह थे। अतः काॅलिज में ही पुलिस उन्हें पकड़ने आ गयी। चंपतजी उनके साथ घर गये। कुछ कपड़े लिये और माता-पिता के पैर छूकर जेल चले गये। ‘मीसा’ लगाकर उन्हें बरेली, आगरा और नैनी जेल में रखा गया। 1980 में नौकरी छोड़कर वे संघ के प्रचारक बने। देहरादून और सहारनपुर में जिला तथा 1985 में मेरठ के विभाग प्रचारक के बाद 1986 में वे विश्व हिन्दू परिषद (पश्चिमी उ.प्र.) के सह संगठन मंत्री बनाये गये। फिर वे उ.प्र. के संगठन मंत्री, केन्द्रीय मंत्री, संयुक्त महामंत्री, महामंत्री तथा उपाध्यक्ष बने। 1996 से केन्द्रीय कार्यालय, दिल्ली में रहकर वहां की व्यवस्था भी उन्होंने संभाली।
1990 के बाद मंदिर आंदोलन में तेजी आयी। उन दिनों चंपतजी का केन्द्र अयोध्या ही था। वहां की हर व्यवस्था उनके जिम्मे थी। इस दौरान वे वहां की हर गली, मोहल्ले और आश्रम के इतने पक्के जानकार हो गये कि लोग हंसी में उन्हें ‘अयोध्या का पटवारी’ कहते थे। आंदोलन ने उतार-चढ़ाव के कई दौर देखे। चंपतजी हर जगह पृष्ठभूमि में रहकर काम करते थे। व्यवस्था के हर पहलू पर उनकी पूरी पकड़ रहती थी। परिषद के काम से पूरे देश का प्रवास तो उन्होंने किया ही है। एक बार अशोकजी के साथ वे विदेश भी गये हैं। विज्ञान के छात्र होने के बावजूद वे लेखा कार्यों के भी तज्ञ हैं। विश्व हिन्दू परिषद का काम सैकड़ों न्यासों के माध्यम से चलता है। हर न्यास का प्रतिवर्ष आॅडिट होता है। केन्द्र में कांग्रेसी सरकारों ने हिसाब-किताब के नाम पर कई बार परिषद को घेरने का प्रयास किया; पर उनकी दाल नहीं गली।
अयोध्या आंदोलन में लखनऊ से लेकर दिल्ली तक मुकदमों का लंबा दौर चला। यह जिम्मेदारी भी मुख्यतः चंपतजी पर ही थी। वे आंदोलन की हर फाइल और कागज को संभालकर रखते थे, जिससे उनके पक्ष के वकील उसे न्यायालय में सही समय पर प्रस्तुत कर सकें। मुकदमे के दौरान वे चुपचाप बैठकर बहस सुनते थे। मुकदमों की पैरवी देश के कई बड़े वकीलों ने निःशुल्क की। परिश्रम, सादगी और विनम्रता चंपतजी का विशेष गुण है। इसलिए वरिष्ठ वकील, साधु-संत और शासन-प्रशासन के लोग भी उन्हें बहुत मानते हैं।
लम्बे संघर्ष के बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से अब मंदिर बन रहा है। चंपतजी ‘श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास’ के महासचिव हैं। 22 जनवरी, 2024 को श्रीरामलला की प्राणप्रतिष्ठा को वे अपने जीवन लक्ष्य की सार्थकता मानते हैं।
--------------------------------------------------------------------------------------
18 नवम्बर/इतिहास-स्मृति
अन्तिम सांस तक संघर्ष
भारतीय वीर सैनिकों के बलिदान की गाथाएं विश्व इतिहास में यत्र-तत्र स्वर्णाक्षरों में अंकित हैं। चाहे वह चीन से युद्ध हो या पाकिस्तान से; हर बार भारतीय वीरों ने अद्भुत शौर्य दिखाया है। यह बात दूसरी है कि हमारे नेताओं की मूर्खता और समझौतावादी प्रवृत्ति ने रक्त से लिखे उस इतिहास को कलम की नोक से काट दिया। 18 नवम्बर 1962 को चुशूल में मेजर शैतान सिंह और उनके 114 साथियों का अप्रतिम बलिदान इसका साक्षी है।
उत्तर में भारत के प्रहरी हिमालय की पर्वत शृंखलाएं सैकड़ों से लेकर हजारों मीटर तक ऊंची हैं। मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में 13वीं कुमाऊं की ‘सी’ कम्पनी के 114 जवान शून्य से 15 डिग्री कम की हड्डियां कंपा देने वाली ठंड में 17,800 फुट ऊंचे त्रिशूल पर्वत की ओट में 3,000 गज लम्बे और 2,000 गज चौड़े रजांगला दर्रे पर डटे थे।
वहां की कठिन स्थिति का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि चाय बनाने के लिए पानी को कई घंटे तक उबालना पड़ता था। भोजन सामग्री ठंड के कारण बिलकुल ठोस हो जाती थी। तब आज की तरह आधुनिक ठंडरोधी टैंट भी नहीं होते थे।
उन दिनों हमारे प्रधानमंत्री नेहरू जी ‘हिन्दी-चीनी, भाई-भाई’ के नशे में डूबे थे, यद्यपि चीन की सामरिक तैयारियां और उसकी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति देखकर सामाजिक रूप से संवेदनशील अनेक लोग उस पर शंका कर रहे थे। इनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी भी थे। उस समय हमारे सैनिकों के पास शस्त्र तो दूर, अच्छे कपड़े और जूते तक नहीं थे। नेहरू जी का मत था कि यदि हम शांति के पुजारी हैं, तो कोई हम पर आक्रमण क्यों करेगा ? पर चीन ऐसा नहीं सोचता था।
18 नवम्बर 1962 को भोर में 4.35 पर चीनी सैनिकों रजांगला दर्रे पर हमला बोल दिया; पर उन्हें पता नहीं था कि उनका पाला किससे पड़ा है। मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में भारतीय सैनिक शत्रु पर टूट पड़े। उन्होंने अंतिम सांस और अंतिम गोली तक युद्ध किया। पल्टन के सब सैनिक मारे गये; पर चीन का कब्जा वहां नहीं हो पाया। कैसी हैरानी की बात है कि इस युद्ध का पता दिल्ली शासन को महीनों बाद तब लगा, जब चुशूल गांव के गडरियों ने सैनिकों के शव चारों ओर छितरे हुए देखे।
सर्दियां कम होने पर जब भारतीय जवान वहां गये, तब पूरा सच सामने आया। भारतीय सैनिकों के हाथ बंदूक के घोड़े (ट्रिगर) पर थे। कुछ के हाथ तो हथगोला फेंकने के लिए तैयार मुद्रा में मिले। इसी स्थिति में वे जवान मातृभूमि की गोद में सदा के लिए सो गये। भारतीय सीमा में एक हजार से भी अधिक चीनी सैनिकों के शव पड़े थे। स्पष्ट था कि अपना बलिदान देकर 13वीं कुमाऊं की ‘सी’ कम्पनी ने इस महत्वपूर्ण चौकी की रक्षा की थी।
चीन से युद्ध समाप्त होने के बाद मूलतः जोधपुर (राजस्थान) निवासी मेजर शैतान सिंह को परमवीर चक्र, आठ सैनिकों को वीर चक्र तथा चार को सेना पदक दिया गया। सर्वस्व बलिदानी इस पल्टन को भी सम्मानित किया गया।
इस युद्ध की स्मृति में रजांगला में एक स्मारक बना है, जिस पर 114 सैनिकों के नाम लिखे हैं। पास में ही ‘अहीर धाम’ बना है, चूंकि उस पल्टन के प्रायः सभी सैनिक रिवाड़ी (हरियाणा) के आसपास के अहीर परिवारों के थे। इस बलिदानी युद्ध से प्रेरित होकर एम.एस.सथ्यू ने ‘हकीकत’ फिल्म बनायी, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुई।
(संदर्भ : जनसत्ता, 16.11.08)
..................................
19 नवम्बर/पुण्य-तिथि
निरासक्त सन्त देवरहा बाबा
भारतीय सन्तों की लीलाएँ अजब-गजब रहती हैं। कोई निर्वस्त्र रहता है, तो कोई केवल टाट पहन कर। कोई सालों मौन रहता है, तो कोई एक टाँग पर खड़े रहकर ही 10-20 साल बिता देता है। इस लीला को समझना आसान नहीं है। हिन्दू विरोधी या उथले मस्तिष्क के लोग इसे भले ही ढांेग कहें; पर आम हिन्दू इन्हें श्रद्धा से ही देखता है।
ऐसे ही एक सन्त थे देवरहा बाबा, जो नदी के किनारे या बीच में मचान पर रहते थे तथा वहीं से भक्तों को दर्शन देते थे। नदी का तटवर्ती क्षेत्र देवरहा कहलाता है, इसलिए इनका नाम ही देवरहा बाबा पड़ गया। बाबा का जन्म कब और कहाँ हुआ, उनके माता-पिता और उनका असली नाम क्या था, उनकी शिक्षा कहाँ हुई, उनके गुरु कौन थे, यह किसी को नहीं मालूम। वे प्रायः वृन्दावन, प्रयाग, काशी और देवरिया में रहते थे और बीच-बीच में देहरादून और हरिद्वार की यात्रा किया करते थे। प्रयाग में वे माघ मेले के समय गंगा जी के प्रवाह के बीच मचान बनाकर रहते थे।
बाबा के दर्शन के लिए दूर-दूर से प्रतिदिन हजारों लोग आते थे। वे अपनी मस्ती में रहकर सबको अपने हाथ या पैर से स्पर्श कर आशीर्वाद देते थे। बाबा प्रचार एवं प्रसिद्धि से दूर रहते थे। एक बार एक प्रख्यात लेखक ने उनकी जीवनी लिखने के लिए उनसे सम्पर्क किया, तो उन्होंने स्पष्ट मनाकर दिया।
बाबा की गणना स्वामी अखण्डानन्द और भक्ति वेदान्त प्रभुपाद जी की श्रेणी में होती है। कुछ आध्यात्मिक विद्वान् उन्हें प्रयाग के लाहिड़ी महाशय और अवतारी बाबा की श्रेणी का योगी मानते हैं। बाबा के बारे में पूज्य माँ आनन्दमयी ने एक बार कहा था उस समय उनके दो समकालीन योगी हिमालय में समाधि लगाये हैं। माँ ने बाबा की कृपा से उनके दर्शन का सौभाग्य पाया था।
बाबा के शिष्यों तथा प्रशंसकों में जयपुर के महाराजा मानसिंह, नेपाल के 17 पीढ़ी पूर्व के महाराजा राजा महेन्द्र प्रताप सिंह, राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद और डा. जाकिर हुसेन, इंग्लैण्ड के जॉर्ज पंचम, प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री, पण्डित मोतीलाल नेहरू, डॉ. सम्पूर्णानन्द, महमूद बट्ट जैसे राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी, शिक्षाविद, सन्त और समाजसेवी शामिल थे।
वे सदा भूखों को भोजन, वस्त्रहीन को कपड़ा, अशिक्षित को शिक्षा और मनुष्य ही नहीं समस्त जीवों को चिकित्सा देने की बात कहते थे। बाबा ने अपनी शरण आने वाले हर व्यक्ति के कष्टों का निवारण किया। उन्होंने गरीब कन्याओं के विवाह और विधवाओं के लिए सेवा प्रकल्प चलाने, यमुना को स्वच्छ करने, वृक्षारोपण कर पर्यावरण रक्षा के निर्देश अपने शिष्यों को दिए थे।
बाबा दूरद्रष्टा थे। एक बार विश्व हिन्दू परिषद् के श्री अशोक सिंहल उनके दर्शन को गये। उन दिनों राम मन्दिर आन्दोलन चल रहा था। अशोक जी ने उनसे इस बारे में पूछा, तो बाबा बोले, "बच्चा, चिन्ता मत कर। लाखों लोग आयेंगे और इसकी एक-एक ईंट उठाकर ले जायेंगे। राममन्दिर के निर्माण को दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकेगी। "
किसी को उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ; पर छह दिसम्बर 1992 को सचमुच ऐसा ही हुआ, जब देश भर से आये लाखों कारसेवक बाबरी ढाँचे की ईंटे तक उठाकर ले गये।
दुनिया भर के लाखों लोगों के प्रेरणास्रोत पूज्य देवरहा बाबा ने 19 नवम्बर, 1990 को वृन्दावन में अपनी देहलीला समेट ली।
..................................
19 नवम्बर/जन्म-दिवस
विवेकानंद शिला स्मारक के शिल्पी एकनाथ रानडे
एकनाथ रानडे का जन्म 19 नवम्बर, 1914 को ग्राम टिलटिला (जिला अमरावती, महाराष्ट्र) में हुआ था। पढ़ने के लिए वे अपने बड़े भाई के पास नागपुर आ गये। वहीं उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से हुआ। वे बचपन से ही बहुत प्रतिभावान एवं शरारती थे। कई बार शरारतों के कारण उन्हें शाखा से निकाला गया; पर वे फिर जिदपूर्वक शाखा में शामिल हो जाते थे। इस स्वभाव के कारण वे जिस काम में हाथ डालते, उसे पूरा करके ही दम लेते थे।
मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के पास जाकर प्रचारक बनने की इच्छा व्यक्त की; पर डा. जी ने उन्हें और पढ़ने को कहा। अतः 1936 में स्नातक बनकर वे प्रचारक बने। प्रारम्भ में उन्हें नागपुर के आसपास का और 1938 में महाकौशल का कार्य सौंपा गया। 1945 में वे पूरे मध्य प्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने।
1948 में गान्धी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। संघ के सभी प्रमुख अधिकारी पकड़े गये। ऐसे में देशव्यापी सत्याग्रह की जिम्मेदारी एकनाथ जी को दी गयी। उन्होंने भूमिगत रहकर पूरे देश में प्रवास किया, जिससे 80,000 स्वयंसेवकों ने उस दौरान सत्याग्रह किया। एकनाथ जी ने संघ और शासन के बीच वार्ता के लिए मौलिचन्द्र शर्मा तथा द्वारका प्रसाद मिश्र जैसे प्रभावशाली लोगों को तैयार किया। इससे सरकार को सच्चाई समझ में आयी और प्रतिबन्ध हटा लिया गया।
इसके बाद वे एक साल दिल्ली रहे। 1950 में उन्हें पूर्वोत्तर भारत का काम दिया गया। 1953 से 56 तक वे संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख और 1956 से 62 तक सरकार्यवाह रहे। इस काल में उन्होंने संघ कार्य तथा स्वयंसेवकों द्वारा स॰चालित विविध संगठनों को सुव्यवस्था प्रदान की। प्रतिबन्ध काल में संघ पर बहुत कर्ज चढ़ गया था। एकनाथ जी ने श्री गुरुजी की 51वीं वर्षगाँठ पर श्रद्धानिधि संकलन कर उस संकट से संघ को उबारा।
1962 में वे अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख बने। 1963 में स्वामी विवेकानन्द की जन्म शताब्दी मनायी गयी। इसी समय कन्याकुमारी में जिस शिला पर बैठकर स्वामी जी ने ध्यान किया था, वहाँ स्मारक बनाने का निर्णय कर श्री एकनाथ जी को यह कार्य सौंपा गया। दक्षिण में ईसाइयों का काम बहुत बढ़ रहा था। उन्होंने तथा राज्य और केन्द्र सरकार ने इस कार्य में बहुत रोड़े अटकाये; पर एकनाथ जी ने हर समस्या का धैर्यपूर्वक समाधान निकाला।
इसके स्मारक के लिए बहुत धन चाहिए था। विवेकानन्द युवाओं के आदर्श हैं, इस आधार पर एकनाथ जी ने जो योजना बनायी, उससे देश भर के विद्यालयों, छात्रों, राज्य सरकारों, स्थानीय निकायों और धनपतियों ने इसके लिए पैसा दिया। इस प्रकार सबके सहयोग से बने स्मारक का उद्घाटन 1970 में उन्होंने राष्ट्रपति श्री वराहगिरि वेंकटगिरि से कराया।
1972 में उन्होंने विवेकानन्द केन्द्र की गतिविधियों को सेवा की ओर मोड़ा। युवक एवं युवतियों को प्रशिक्षण देकर देश के वनवासी अ॰चलों में भेजा गया। यह कार्य आज भी जारी है। केन्द्र से अनेक पुस्तकों तथा पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन भी हुआ।
इस सारी दौड़धूप से उनका शरीर जर्जर हो गया। 22 अगस्त 1982 को मद्रास में भारी हृदयाघात से उनका देहान्त हो गया। कन्याकुमारी में बना स्मारक स्वामी विवेकानन्द के साथ श्री एकनाथ रानडे की कीर्त्ति का भी सदा गान करता रहेगा।
......................................
19 नवम्बर/जन्म-दिवस
उ.प्र. में संघ कार्य के सूत्रधार भाऊराव देवरस
उ.प्र. में यों तो संघ की शाखा सर्वप्रथम काशी में भैयाजी दाणी द्वारा प्रारम्भ की गयी थी; पर संघ के काम को हर जिले तक फैलाने का श्रेय श्री मुरलीधर दत्तात्रेय (भाऊराव) देवरस को है। उनका जन्म 19 नवम्बर, 1917 (देवोत्थान एकादशी) को नागपुर के इतवारी मोहल्ले के निवासी एक सरकारी कर्मचारी श्री दत्तात्रेय देवरस के घर में हुआ था। वे पांच भाई थे तथा उनसे दो वर्ष बड़े श्री मधुकर दत्तात्रेय (बालासाहब) देवरस भी संघ के प्रचारक बनकर अनेक दायित्व निभाते हुए संघ के तीसरे सरसंघचालक बने।
उन दोनों भाइयों की जोड़ी बाल-भाऊ के नाम से प्रसिद्ध थी। संघ की स्थापना होने पर पहले बाल और फिर 1927-28 में भाऊ भी शाखा जाने लगे। डा. हेडगेवार के घर में खूब आना-जाना होने से दोनों संघ और उसके विचारों से एकरूप हो गये। 1937 में भाऊराव ने स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। अब डा. हेडगेवार ने उन्हें उ.प्र. में जाने को कहा। अतः भाऊराव ने लखनऊ वि.वि. में बी.काॅम तथा एल.एल.बी. में प्रवेश ले लिया। उन दिनों वहां दो वर्ष में डबल पोस्ट डिग्री पाठ्यक्रम की सुविधा थी। भाऊराव ने दोनों विषयों में स्वर्ण पदक प्राप्त किये। लखनऊ में वे संघ के साथ स्वाधीनता आंदोलन में भी सक्रिय रहे। उनके प्रयास से वहां सुभाष चंद्र बोस का एक भव्य कार्यक्रम हुआ था।
भाऊराव के घर की स्थिति बहुत सामान्य थी। वे अब आसानी से कहीं भी डिग्री काॅलेज में प्राध्यापक बन सकते थे; पर उन्हें तो उ.प्र. में संघ का काम खड़ा करना था। अतः वे यहीं डट गये। एम.एस-सी. के छात्र बापूराव मोघे भी उनके साथ थे। घर वालों ने पैसे भेजना बंद कर दिया था। अतः ट्यूशन पढ़ाकर तथा एक समय भोजन कर वे दोनों शाखा विस्तार में लगे रहे।
उन दिनों नागपुर में श्री मार्तंडराव जोग का गुब्बारे बनाने का कारखाना था। भाऊराव ने लखनऊ में गुब्बारे बेचकर कुछ धन का प्रबन्ध करने का प्रयास किया; पर यह योजना सफल नहीं हुई। 1941 में उन्होंने काशी को अपना केन्द्र बना लिया। क्योंकि वहां काशी हिन्दू वि.वि. में पढ़ने के लिए देश भर से छात्र आते थे। वहां श्री दत्तराज कालिया की हवेली में उन्होंने अपना ठिकाना बनाया। यद्यपि उनका पूरा दिन छात्रावासों में ही बीतता था। उन छात्रों के बलपर क्रमशः उ.प्र. के कई जिलों में शाखाएं खुल गयीं। श्री दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, रज्जू भैया जैसे श्रेष्ठ छात्र उन दिनों उनके संपर्क में आये, जो फिर संघ और अन्य अनेक कामों में शीर्षस्थ स्थानों पर पहुंचे।
उ.प्र. में संघ कार्य करते हुए भाऊराव का ध्यान और भी कई दिशाओं में रहता था। इसी के परिणामस्वरूप 1947 में लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई। जिसके माध्यम से राष्ट्रधर्म मासिक, पांचजन्य साप्ताहिक तथा तरुण भारत जैसे दैनिक पत्र प्रारम्भ हुए। आज ‘विद्या भारती’ के नाम से देश भर में लगभग एक लाख विद्यालयों का जो संजाल है, उसकी नींव 1952 में गोरखपुर में 'सरस्वती शिशु मंदिर' के माध्यम से रखी गयी थी।
उ.प्र. में संघ कार्य को दृढ़ करने के बाद भाऊराव क्रमशः बिहार, बंगाल और पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक तथा फिर सह सरकार्यवाह बनाये गये। इन दायित्वों पर रहते हुए उन्होंने पूरे देश में प्रवास किया। फिर उनका केन्द्र दिल्ली हो गया। यहां रहते हुए वे विद्या भारती तथा भारतीय जनता पार्टी जैसे कामों की देखरेख करते रहे। व्यक्ति पहचानने की अद्भुत क्षमता के कारण उन्होंने जिस कार्यकर्ता को जिस काम में लगाया, वह उस क्षेत्र में यशस्वी सिद्ध हुआ।
धीरे-धीरे उनका शरीर थकने लगा। फिर भी उनकी मानसिक जागरूकता बनी रही। 13 मई, 1992 को दिल्ली में ही उनका देहांत हुआ। आज संघ और स्वयंसेवकों द्वारा संचालित अनेक कार्यों में उ.प्र. के कार्यकर्ता प्रमुख स्थानों पर हैं। इसका श्रेय निःसंदेह भाऊराव और उनकी अविश्रांत साधना को ही है।
(संदर्भ : भाऊराव की कहानी, उनकी ही जबानी - लोकहित प्रकाशन)
-----------------------------
19 नवम्बर/जन्म-दिवस
सिन्धु रत्न ठाकुरदास टंडन
राजस्थान में संघ के काम में अपना जीवन गलाने वाले श्री ठाकुरदास टंडन का जन्म 19 नवम्बर, 1927 को हैदराबाद (सिन्ध) में हुआ था। इनके पिता श्री टहलराम जी वहां लकड़ी के बड़े व्यापारी थी। इस कारण इनका बचपन सुख-सुविधाओं में बीता। ठाकुरदास जी छह भाइयों में सबसे छोटे थे।
जब हैदराबाद में शाखा प्रारम्भ हुई, तो इनके बड़े भाई और फिर ये भी स्वयंसेवक बने। 1944 में सिन्ध के प्रसिद्ध विद्यालय नवलराय हीरानंद अकादमी से इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर इण्टर साइंस में प्रवेश लिया। संस्कृत के प्रति रुचि होने के कारण इन्होंने उसकी शिक्षा भी प्राप्त की।
उन दिनों देश विभाजन की चर्चा गरम थीं। मुस्लिम गुंडे खुलेआम हिन्दुओं की हत्या कर रहे थे। लोगों की आशा का केन्द्र केवल संघ के स्वयंसेवक थे। 1945 में हैदराबाद किले में लगने वाली बाल शाखा पर मुसलमानों ने आक्रमण किया। इसमें नेणूराम शर्मा नामक स्वयंसेवक मारा गया। उस आक्रमण के प्रतिकार में ठाकुरदास जी को भी काफी चोटें आयीं; पर इससे भयभीत होने की बजाय उनके मन में संघ कार्य को तीव्र करने की आग और धधक उठी।
1946 में उन्होंने मेरठ से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। वर्ग के बीच ही उन्हें माता जी के निधन का समाचार मिला; पर उन्होंने प्रशिक्षण को बीच में छोड़ना उचित नहीं समझा। इसके बाद 1947 और 1953 में उन्होंने द्वितीय और तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया। प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण पाकर 1946 में वे प्रचारक बन गये। देश विभाजन के बाद वे अजमेर में प्रचारक रहे। इसके बाद उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान ही रहा।
1949 से 1983 तक वे क्रमशः उदयपुर, बीकानेर, कोटा, जोधपुर तथा अजमेर में विभाग प्रचारक रहे। एक वर्ष उदयपुर संभाग प्रचारक रहने के बाद 1984 में उन्हें सेवा भारती के कार्य में भेजा गया। आपातकाल के बाद संघ ने सेवा का क्षेत्र में कदम बढ़ाये थे। उसे समर्थ बनाने के लिए अनुभवी और धैर्य से काम करने वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता थी। ठाकुरदास जी में ये दोनों गुण भरपूर मात्रा में थे। राजस्थान के चप्पे-चप्पे से परिचित होने के कारण उन्होंने थोड़े ही समय में सेवा कार्यों का सबल तन्त्र खड़ा कर दिया।
देश विभाजन के समय पूरा सिन्ध प्रान्त पाकिस्तान में चला गया। वहां से आये लाखों लोग भारत के विभिन्न भागों में बस गयेे। ऐसे लोगों को संगठित करने, उनकी भाषा एवं संस्कारों को जीवित रखने के लिए स्वयंसेवकों ने ‘भारतीय सिन्धु सभा’ का गठन किया। ठाकुरदास जी ने 10 वर्ष तक राजस्थान में इस कार्य को भी संभाला। उनके योगदान को देखते हुए राजस्थान सिन्धी अकादमी ने उन्हें 1995 में ‘सिन्धु रत्न’ की उपाधि से विभूषित किया।
ठाकुरदास जी को सभी लोग ‘भाऊ जी’ कहते थे। वे होम्योपैथी के सफल चिकित्सक भी थे; पर अपनी इस योग्यता का उपयोग उन्होंने सम्पर्क बढ़ाने में ही किया। सामान्य वार्तालाप की शैली में होने वाले उनके बौद्धिक से संघ का विचार आसानी से सबके गले उतर जाता था। उनका पत्र-व्यवहार का क्षेत्र भी बहुत व्यापक था। उनके अक्षर भी मोती की तरह सुंदर होते थे।
ठाकुरदास जी खानपान के शौकीन थे; पर बांटकर और मिलजुल कर खाने में ही उन्हें आनंद आता था। वृद्धावस्था के कारण 1984 के बाद उन पर कोई विशेष दायित्व नहीं रहा। फिर भी वे कुछ न कुछ काम करते रहते थे। 10 मई, 1996 को इस तपस्वी प्रचारक का निधन हुआ।
(संदर्भ : अभिलेखागार, भारती भवन, जयपुर)
..................................
20 नवम्बर/जन्म-दिवस
वैकल्पिक सरसंघचालक डा. लक्ष्मण वासुदेव परांजपे
स्वाधीनता संग्राम के दौरान संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने 1930-31 में जंगल सत्याग्रह में भाग लिया था। उन दिनों संघ अपनी शिशु अवस्था में था। शाखाओं की संख्या बहुत कम थी। डा. जी नहीं चाहते थे कि उनके जेल जाने से संघ कार्य में कोई बाधा आये। अतः वे अपने मित्र तथा कर्मठ कार्यकर्ता डा. परांजपे को सरसंघचालक की जिम्मेदारी दे कर गये।
डा. परांजपे ने इस दायित्व को पूर्ण निष्ठा से निभाया। उन्होंने इस दौरान शाखाओं को दुगना करने का लक्ष्य कार्यकर्ताओं के सम्मुख रखा। डा. हेडगेवार जब लौटे, तो उन्होंने यह दायित्व फिर से डा. जी को सौंप दिया। डा. हेडगेवार के ध्यान में यह बात भी आयी कि इस दौरान उन्होंने अनेक नयी शाखाएं खोली हैं। वे डा. जी से मिलने कई बार अकोला जेल में भी गये।
डा. परांजपे का परिवार मूलतः कोंकण क्षेत्र के आड़ा गांव का निवासी था। उनका जन्म 20 नवम्बर, 1877 को नागपुर में हुआ था। उनका बालपन वर्धा में बीता। वहां से कक्षा चार तक की अंग्रेजी शिक्षा पाकर वे नागपुर आ गये। नागपुर के प्रसिद्ध नीलसिटी हाइस्कूल में पढ़ने के बाद उन्होंने मुंबई के ग्रांट मैडिकल कॉलिज से एल.एम.एंड एस. की उपाधि ली तथा 1904 ई. से नागपुर में चिकित्सा कार्य प्रारम्भ कर दिया।
डा. परांजपे बालपन से ही अपने मित्रों को साथ लेकर व्यायाम करने के लिए प्रतिदिन अखाड़े जाते थे। डा. मुंजे के साथ वे लोकमान्य तिलक के समर्थक थे। 1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में व्यवस्था करने वाली स्वयंसेवकों की टोली के प्रमुख डा. हेडगेवार तथा डा. परांजपे ही थे। इस नाते उनकी डा. हेडगेवार से अच्छी मित्रता हो गयी, जो आजीवन बनी रही।
नागपुर में बाजे-गाजे के साथ धार्मिक जुलूस निकालने की प्रथा थी; पर 1923 से मुसलमान मस्जिद के सामने से इनके निकलने पर आपत्ति करने लगे। अतः स्थानीय हिन्दू पांच-पांच की टोली में ढोल-मंजीरे के साथ वारकरी पद्धति से ‘दिण्डी’ भजन गाते हुए वहां से निकलने लगे। यह एक प्रकार का सत्याग्रह ही था। 11 नवम्बर, 1923 को श्रीमंत राजे लक्ष्मणराव भोंसले के इसमें शामिल होने से हिन्दुओं का उत्साह बढ़ गया।
इस घटना से हिन्दुओं को लगा कि हमारा भी कोई संगठन होना चाहिए। अतः नागपुर में श्रीमंत राजे लक्ष्मणराव भोंसले के नेतृत्व में हिन्दू महासभा की स्थापना हुई। डा. परांजपे के नेतृत्व में नागपुर कांग्रेस में लोकमान्य तिलक और हिन्दुत्व के समर्थक 16 युवकों का एक ‘राष्ट्रीय मंडल’ था। 1925 में जब संघ की स्थापना हुई, तो उसके बाद डा. परांजपे संघ के साथ एकाकार होकर डा. हेडगेवार के परम सहयोगी बन गये।
नागपुर में संघ के सभी कार्यक्रमों में वे गणवेश पहन कर शामिल होते थे। मोहिते संघस्थान पर लगे पहले संघ शिक्षा वर्ग की चिकित्सा व्यवस्था उन्होंने ही संभाली। आगे भी वे कई वर्ष तक इन वर्गों में चिकित्सा विभाग के प्रमुख रहे। जब भाग्यनगर (हैदराबाद) की स्वाधीनता के लिए सत्याग्रह हुआ, तो उसमें भी उन्होंने सक्रियता से भाग लिया।
संघ और सभी सामाजिक कामों में सक्रिय रहते हुए 22 फरवरी, 1958 को नागपुर में ही उनका देहांत हुआ।
(संदर्भ : साप्ताहिक विवेक, मुंबई द्वारा प्रकाशित संघ गंगोत्री)
.............................................
20 नवम्बर जन्म-दिवस
महान आत्मा ठाकुर गुरुजन सिंह
विश्व हिन्दू परिषद में कार्यरत वरिष्ठतम प्रचारक ठाकुर गुरजन सिंह का जन्म मार्गशीर्ष कृष्ण 13 (20 नवम्बर, 1918) को ग्राम खुरहुंजा (जिला चंदौली, उ.प्र.) में श्री शिवमूरत सिंह के घर में हुआ था। उनका मूल नाम दुर्जन सिंह था; पर सरसंघचालक श्री गुरुजी ने उसे गुरजन सिंह कर दिया।
बनारस के जयनारायण इंटर काॅलिज में उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई; पर उनकी पढ़ने में कुछ विशेष रुचि नहीं थी। उनके कुछ परिजन ‘शीला रंग कंपनी’ नामक उद्योग चलाते थे। अतः वे भी वहीं काम करने लगे। इसी दौरान वे वहां पास के एक अहाते में लगने वाली शाखा में जाने लगे। जब भाऊराव देवरस ने अपना केन्द्र काशी बनाया, तो दोनों अच्छे मित्र बन गये। दोनों एक ही साइकिल पर दिन भर शाखा विस्तार के लिए घूमते रहते थे। जब पूरा दिन इसमें लगने लगा, तो उन्होंने नौकरी छोड़नी चाही; पर उद्योग के मालिक उनके व्यवहार से इतने प्रभावित थे कि कई वर्ष तक उन्हें बिना काम के ही वेतन देते रहे।
1948 के प्रतिबंध के समय पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। जेल में उनके साथ भाऊराव देवरस, अशोक सिंहल, दत्तराज कालिया आदि भी थे। प्रतिबंध समाप्ति के बाद गुरुजन जी अपना पूरा समय संघ के काम में ही लगाने लगे। वे 1955-56 में काशी के नगर कार्यवाह थे। इसके कुछ वर्ष बाद वे जिला प्रचारक तथा 1964 में काशी में ही विभाग प्रचारक बनाये गयेे।
गुरुजन सिंह जी का विवाह बालपन में ही हो गया था; पर संघ कार्य के बीच वे घर की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते थे। जब उनके एकमात्र पुत्र का विवाह हुआ, तो सब व्यवस्था अन्य लोगों ने ही की। जब बारात चलने वाली थी, तब ही वे पहुंच सके। क्रांतिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल से उनके बहुत अच्छे संबंध थे। शचीन्द्र जी की बीमारी में गुरुजन जी ने उनकी बहुत सेवा की। सुभाष चंद्र बोस के काशी प्रवास में कोई कांग्रेसी उन्हें अपने घर ठहराने को तैयार नहीं था। ऐसे में गुरुजन सिंह जी के प्रयास से पहले रामकृष्ण आश्रम और फिर कांग्रेस के ही एक कार्यकर्ता शिवप्रसाद जी ने उन्हें अपने घर ठहराया।
गुरुजन सिंह जी ने ‘भारतीय किसान संघ’ की स्थापना से पूर्व 1971 से 78 तक स्वयंप्रेरणा से किसानों में काम किया। आपातकाल में वे साधुवेश में लगातार घूमते रहे। 1979 में प्रयागराज में हुए ‘द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मेलन’ की व्यवस्थाओं के वे आधार स्तम्भ थे। इसके बाद तो फिर वे वि.हि.प. के काम में ही लगे रहे। संगम स्नान और गोसेवा के प्रति उनकी भक्ति अटूट थी।
गुरुजन जी सरलता की प्रतिमूर्ति थे। खादी का मोटा कुर्ता और धोती उनकी स्थायी वेशभूषा थी। वे किसी से पैर नहीं छुआते थे। कार्यालय पर आये अतिथि को वे स्वयं खाना बनाकर खिलाते थे। आयुर्वेद तथा प्राकृतिक चिकित्सा के उनके अनुभवसिद्ध ज्ञान का बहुतों ने लाभ उठाया। श्री गुरुजी का उन पर बहुत प्रेम था। वे अपना कमंडलु किसी को नहीं देते थे। जब वह कुछ खराब हुआ, तो उसकी मरम्मत के लिए उन्होंने वह गुरुजन जी को ही सौंपा।
गुरुजन सिंह जी का हृदय बहुत विशाल था। काशी में संघ कार्यालय के सामने बैठने वाले एक गरीब व अशक्त मुसलमान को वे प्रतिदिन भोजन कराते थे। इसी कारण श्री गुरुजी उन्हें ‘महात्मा’ कहते थे। गुरुजन सिंह जी की मेज पर सदा उनके आध्यात्मिक गुरु श्री सीताराम आश्रम तथा दादा गुरु दिगम्बरी संत श्री भास्करानंद जी महाराज के चित्र तथा अपने गुरुजी से प्राप्त ‘श्रीरामचरितमानस’ रहती थी। वे प्रतिदिन मानस का पारायण कर ही सोते थे।
वर्ष 2001 से उनका निवास प्रयाग में ‘महावीर भवन’ ही था। वे प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा से सदा दूर रहते थे। 20 नवम्बर, 2013 को 95 वर्ष पूरे होने पर उनकी अनिच्छा के बावजूद कार्यकर्ताओं ने यज्ञ एवं पूजा आदि की; पर उसके एक सप्ताह बाद 28 नवम्बर को ही उनका देहावसान हो गया।
(संदर्भ: श्री चंपत जी, महासचिव वि.हि.प.)
--------------------------
20 नवम्बर/जन्म-दिवस
सबके सहायक गोपाल भाई आशर
पूर्वोत्तर भारत में विश्व हिन्दू परिषद के एक प्रमुख स्तम्भ श्री गोपाल भाई आशर का जन्म 20 नवम्बर, 1928 को कोलकाता में श्री दामोदर भाई आशर के घर में हुआ था। वे मूलतः गुजरात के लोहाना राजपूत वंश से सम्बन्ध रखते थे। छात्र जीवन में ही वे संघ के स्वयंसेवक बने।
बी.ए. तक की शिक्षा पूर्ण कर घरेलू आवश्यकता के लिए उन्होंने भाई-भतीजों के साथ व्यापार तो किया; पर गृहस्थी नहीं बसाई, जिससे सामाजिक कार्यों को सदा प्राथमिकता दी जा सके। कुछ वर्ष वे 'भारतीय जनसंघ' में भी सक्रिय रहे। जब पूर्वोत्तर में वि.हि.प. का काम प्रारम्भ हुआ, तो वे उससे जुड़ गये और फिर सदा इसी में लगे रहे।
अंग्रेजों ने षड्यन्त्रपूर्वक पूर्वोत्तर के लोगों को हिन्दू धर्म और भारत से अलगाव के पाठ पढ़ाये। 1977 में आपातकाल की समाप्ति के बाद संघ ने भी वहां अनेक विद्यालय, छात्रावास, चिकित्सालय, प्रशिक्षण केन्द्र, मंदिर आदि सेवा केन्द्र प्रारम्भ किये। इनके संचालन के लिए कई युवा, गृहस्थ तथा वानप्रस्थी कार्यकर्ता पूरा समय देने लगेे। उन्हें जीवनयापन के लिए मानदेय तथा मार्गव्यय दिया जाता था। इससे धीरे-धीरे वहां का वातावरण बदलने लगा।
पर इन कार्यों में बहुत धन खर्च होता था। इसके लिए सब कार्यकर्ताओं को कोलकाता, गोहाटी तथा कटक के हिन्दू व्यापारियों के पास आना पड़ता था। धन एकत्र करना आसान नहीं है; पर गोपाल भाई इसके लिए सदा तैयार रहते थे। उनका कोलकाता में मोटर के कलपुर्जाें का कारोबार था।
वे लम्बे समय तक 'कोलकाता मोटर पार्ट्स संघ' के अध्यक्ष तथा 'अखिल भारतीय मोटर डीलर्स संघ' के सचिव रहे। देश भर के व्यापारियों से सम्पर्क का उपयोग वे सेवा प्रकल्पों के लिए धन जुटाने में करते थे। उनकी सादगी, वार्ता की प्रभावपूर्ण शैली तथा निःस्वार्थ सेवा से प्रभावित होकर अनेक व्यापारी इनमें सहयोग देने लगे। बंगाल के अनेक बुद्धिजीवी तथा सन्तों ने भी इन कार्यों को समर्थन दिया।
दुबले-पतले गोपाल भाई सदा मंच और माला से दूर रहकर काम करते थे। श्रीराम शिला पूजन कार्यक्रमों में बंगाल के वामपंथी शासन ने अनेक बाधाएं डालीं। कार्यकर्ताओं की इच्छा थी कि कोलकाता में समापन कार्यक्रम अति भव्य हो; पर शासन ने अनुमति नहीं दी। स्थिति बड़ी विचित्र हो गयी।
कुछ कार्यकर्ताओं का मत था कि हमारी शक्ति कम है, अतः टकराव ठीक नहीं है; पर कुछ कहते थे कि हमें हिन्दू जनता की शक्ति पर विश्वास करना चाहिए। गोपाल भाई दूसरे पक्ष में थे। अंततः श्रीराम शिलाओं की शोभायात्रा निकालने का निर्णय हुआ। यह सूचना फैलते ही नगर और गांवों से हिन्दू उमड़ पड़े और 80,000 लोगों के साथ ऐतिहासिक शोभायात्रा सम्पन्न हुई। इसका बंगाल के वातावरण पर बहुत निर्णायक प्रभाव हुआ।
वि.हि.प. के सेवा प्रमुख श्री सीताराम अग्रवाल, श्री अरविन्द भट्टाचार्य और श्री गोपाल भाई ने पूर्वोत्तर के पहाड़ों में हजारों कि.मी पैदल चलकर सेवा कार्य खड़े किये। खड़गपुर के पास ‘गोपाली आश्रम’ की स्थापना में भी गोपाल भाई की प्रमुख भूमिका रही, जो आज पूर्वोत्तर भारत की सभी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र है।
गोपाल भाई वि.हि.प. में केन्द्रीय प्रबन्ध समिति तथा प्रन्यासी मंडल के सदस्य थे। 2007 में अनेक जटिल रोगों से घिर जाने से उनकी सक्रियता बहुत कम हो गयी। इस पर भी वे सदा परिषद के बारे में ही सोचते रहते थे। वे स्वस्थ होकर कई नये प्रकल्प प्रारम्भ करना चाहते थे; पर प्रभु की इच्छा के अनुसार 22 जून, 2010 को कोलकाता में उनका शरीरांत हो गया।
.......................................
21 नवम्बर/पुण्य-तिथि
वनांचल के ज्योतिपुंज गहिरा गुरु
मध्यप्रदेश के रायगढ़ और सरगुजा जिले में गोंड, कंवर, उरांव, कोरवा, नगेसिया, पंडो आदि वनवासी जातियां वर्षों से रहती हैं। ये स्वयं को घटोत्कच की संतान मानती हैं। मुगल आक्रमण के कारण उन्हें जंगलों में छिपना पड़ा। अतः वे मूल हिन्दू समाज से कट गये। गरीबी तथा अशिक्षा के चलते कई कुरीतियों और बुराइयों ने जड़ जमा ली।
इन्हें दूर करने में जिस महामानव ने अपना जीवन खपा दिया, वे थे रायगढ़ जिले के लैलूंगा विकास खंड के ग्राम गहिरा में जन्मे रामेश्वर कंवर, जो ‘गहिरा गुरु’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। गहिरा गुरु का जन्म 1905 में श्रावणी अमावस्या को हुआ था। उस क्षेत्र में कोई बच्चा पढ़ता नहीं था। यही स्थिति रामेश्वर की भी थी। घर में लाल कपड़े में लिपटी एक रामचरितमानस रखी थी। जब कोई साधु-संन्यासी आते, वही उसे पढ़कर सुनाते थे। इससे रामेश्वर के मन में धर्म भावना जाग्रत हुई।
वहां मद्यपान तथा मांसाहार का आम प्रचलन था। 8-10 वर्ष तक बच्चे नंगे रहते थे। उसके बाद पुरुष लंगोटी तथा महिलाएं कमर से नीचे आधी धोती पहनती थीं। नहाना-धोना तो दूर, शौच के बाद पानी के प्रयोग की भी प्रथा नहीं थी। अतः शरीर से हर समय दुर्गन्ध आती रहती थी। ऐसे माहौल में रामेश्वर का मन नहीं लगता था।
वे जंगल में दूर एकांत में बैठकर चिंतन-मनन करते थे। उन्होंने लोगों को प्रतिदिन नहाने, घर में तुलसी लगाने, उसे पानी देने, श्वेत वस्त्र पहनने, गांजा, मासांहार एवं शराब छोड़ने, गोसेवा एवं खेती, रात में सामूहिक नृत्य के साथ रामचरितमानस की चौपाई गाने हेतु प्रेरित किया।
प्रारम्भ में अनेक कठिनाई आयीं; पर धीरे-धीरे लोग बात मानकर उन्हें ‘गहिरा गुरुजी’ कहने लगे। वे प्रायः यह सूत्र वाक्य बोलते थे -
चोरी दारी हत्या मिथ्या त्यागें, सत्य अहिंसा दया क्षमा धारें।
अब उनके अनुयायियों की संख्या क्रमशः बढ़ने लगी। उनके द्वारा गांव में स्थापित ‘धान मेला’ से ग्रामीणों को आवश्यकता पढ़ने पर पैसा, अन्न तथा बीज मिलने लगा। इससे बाहरी सहायता के बिना सबकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। उन्होंने ‘सनातन संत समाज’ बनाकर लाखों लोगों को जोड़ा।
शिक्षा के प्रसार हेतु उन्होंने कई विद्यालय एवं छात्रावास खोले। इनमें संस्कृत शिक्षा की विशेष व्यवस्था रहती थी। समाज को संगठित करने के लिए दशहरा, रामनवमी और शिवरात्रि के पर्व सामूहिक रूप से मनाये जाने लगे। लोग परस्पर मिलते समय ‘शरण’ कहकर अभिवादन करते थे।
उन दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से श्री बालासाहब देशपांडे ने ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ नामक संस्था बनाई थी। इसे जशपुर के राजा श्री विजयभूषण सिंह जूदेव का भी समर्थन था। इन सबके प्रति गहिरा गुरु के मन में बहुत प्रेम एवं आदर था। भीमसेन चोपड़ा तथा मोरूभाई केतकर से उनकी अति घनिष्ठता थी। वे प्रायः इनसे परामर्श करते रहते थे। इनके कारण उस क्षेत्र में चल रहे धर्मान्तरण के षड्यन्त्र विफल होने लगे।
गहिरा गुरु ने अपने कार्य के कुछ प्रमुख केन्द्र बनाये। इनमें से गहिरा ग्राम, सामरबार, कैलाश गुफा तथा श्रीकोट एक तीर्थ के रूप में विकसित हो गये। विद्वान एवं संन्यासी वहां आने लगे। एक बार स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर उन्हें शासन के विशेष विमान से दिल्ली लाकर हृदय की शल्य क्रिया की गयी। ठीक होकर वे फिर घूमने लगे; पर अब पहले जैसी बात नहीं रही।
कुछ समय बाद गहिरा गुरु प्रवास बंद कर अपने जन्म स्थान गहिरा ग्राम में ही रहने लगे। 92 वर्ष की आयु में 21 नवम्बर, 1996 (देवोत्थान एकादशी) के पावन दिन उन्होंने इस संसार से विदा ले ली। उनके बड़े पुत्र श्री बभ्रुवाहन सिंह अब अपने पिता के कार्यों की देखरेख कर रहे हैं।
(संदर्भ : वनांचल का नंदादीप, लेखक सुनील किरवई)
.................................
21 नवम्बर/जन्म-दिवस
बाल शाखाओं के आग्रही रोशनलालजी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काम में सायं शाखा का बड़ा महत्व है, चंूकि इनमें विद्यार्थी आते हैं। इस समय मिले विचार और संस्कार स्थायी होते हैं। यही स्वयंसेवक फिर कार्यकर्ता बनते हैं। सायं शाखा पर आने वाले बाल और शिशु स्वयंसेवक प्रायः चंचल और ऊधमी होते हैं। कई लोग इस कारण उनकी उपेक्षा करते हैं; पर रोशनलालजी सदा सायं शाखाओं की वृद्धि के प्रयास में लगे रहे। वे ऐसे छोटे स्वयंसेवकों की ऊर्जा को ठीक दिशा देने में माहिर थे।
उनका जन्म 21 नवम्बर, 1938 को लाहौर में श्री सोहनलाल सचदेव एवं श्रीमती इंदिरावती के घर में हुआ था। उनके पिताजी की वहां प्रिटिंग प्रेस थी। उन दिनों पूरे पंजाब और सिंध में गुंडे हथियार लेकर ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारों के साथ जुलूस निकलते थे। इस माहौल में आठ साल की अवस्था में रोशनलालजी ने शाखा जाना शुरू किया।
1947 में विभाजन के बाद यह परिवार देहरादून के प्रेमनगर छावनी क्षेत्र में आ गया। यहां उनके पिताजी ने मिलट्री प्रेस में काम किया। रोशनलालजी अपनी माताजी के साथ पत्थर ढोते थे तथा जंगल से लकड़ी लाते थे। वे कहते थे कि हम शरणार्थी नहीं, पुरुषार्थी हैं। कक्षा 12 के बाद 1956 में उन्हें राज्य के रेशम विभाग में नौकरी मिल गयी। इसे करते हुए उन्होंने प्राइवेट बी.ए. भी किया। 1956 से 60 तक उन्होंने तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग किये। 1964 में उनका विवाह हुआ।
नौकरी के दौरान वे उ.प्र. में कई जगह पर रहे; पर 1981 के बाद उनका समय उत्तराखंड में ही बीता। यहां के प्रायः सभी जिलों में वे रहे। राज्य के अधिकांश गांव उन्होंने देखे थे। उन दिनों सर्वत्र कांग्रेसी सरकारें थीं; पर वे निःसंकोच शाखा जाते थे। इससे चिढ़कर स्थानीय कांग्रेसी नेता उनका स्थानांतरण करा देते थे। इस कारण कठिनाई होते देख उन्होंने परिवार को प्रेमनगर ही छोड़ दिया।
वे कहते थे कि जब हम अपना काम समय से पूरा करते हैं, तो फिर डर कैसा ? सरकार स्थानांतरण कर सकती है; पर नौकरी नहीं ले सकती। हर स्थानांतरण को वे एक सुअवसर मानकर नये स्थान पर फिर शाखा के काम में लग जाते थे। उ.प्र. और उत्तराखंड में कई स्थानों पर शाखा उन्होंने ही शुरू कीं। विपरीत परिस्थिति और कठिन स्थान पर वे दूने उत्साह से काम करते थे।
श्री गुरुजी, रज्जू भैया और दीनदयालजी का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव था। एक बार देहरादून से 15 कि.मी. दूर ‘मानक सिद्ध मंदिर’ पर वन विहार कार्यक्रम में प्रांत प्रचारक रज्जू भैया को आना था। जिला प्रचारक ने उन्हें स्टेशन भेज दिया। रज्जू भैया ने उनकी दुबली काया देखकर उन्हें आगे बैठाया और स्वयं साइकिल चलाकर कार्यक्रम में आये।
अकेले होने के कारण कई जगह वे संघ कार्यालय पर ही रहेेे। इससे कार्यालय भी खुला और साफ रहता था; पर वे खाना बाहर ही खाते थे तथा आवास सुविधा के लिए किराया भी देते थे। वे अपनी छुट्टियों में तालमेल कर संघ के शिविर और प्रशिक्षण वर्ग के लिए समय निकाल ही लेते थे। गृहस्थ होते हुए भी वे प्रचारकों से बढ़कर थे।
रोशनलालजी प्रवास में डायरी साथ नहीं रखते थे। उन्हें हर शाखा और कार्यकर्ता का नाम याद रहता था। वे कहते थे कि शाखा के आंकड़े सक्रिय कार्यकर्ताओं की उंगलियों पर रहते हैं। 1996 में रेशम विभाग में निरीक्षक पद से अवकाश प्राप्ति के बाद प्रेमनगर आकर सबसे पहले उन्होंने वहां की सायं शाखा को ठीक किया।
संघ कार्य में उन पर नगर, जिला, विभाग और प्रांत तक के दायित्व रहे। 2014 में वृद्धावस्था के कारण उन्होंने प्रांत सह संघचालक की जिम्मेदारी छोड़ दी। फिर वे स्मृति लोप से भी पीडि़त हो गये। जन्माष्टमी (23 अगस्त, 2019) को अपने बड़े बेटे मनीष के निवास पर उनका निधन हुआ। उनके जीवन में संघ कार्य सदा प्राथमिकता पर रहा। इसलिए उनके पार्थिव शरीर को कंधा देने राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत भी संघ कार्यालय पहुंचे।
(संदर्भ: मनीषजी से प्राप्त जानकारी)
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
22 नवम्बर/जन्म-दिवस
वीरांगना झलकारी बाई
भारत की स्वाधीनता के लिए 1857 में हुए संग्राम में पुरुषों के साथ महिलाओं ने भी कन्धे से कन्धा मिलाकर बराबर का सहयोग दिया था। कहीं-कहीं तो उनकी वीरता को देखकर अंग्रेज अधिकारी एवं पुलिसकर्मी आश्चर्यचकित रह जाते थे। ऐसी ही एक वीरांगना थी झलकारी बाई, जिसने अपने वीरोचित कार्यों से पुरुषों को भी पीछे छोड़ दिया।
झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर, 1830 को ग्राम भोजला (झांसी, उ.प्र.) में हुआ था। उसके पिता मूलचन्द्र जी सेना में काम करते थे। इस कारण घर के वातावरण में शौर्य और देशभक्ति की भावना का प्रभाव था। घर में प्रायः सेना द्वारा लड़े गये युद्ध, सैन्य व्यूह और विजयों की चर्चा होती थी। मूलचन्द्र जी ने बचपन से ही झलकारी को अस्त्र-शस्त्रों का संचालन सिखाया। इसके साथ ही पेड़ों पर चढ़ने, नदियों में तैरने और ऊँचाई से छलांग लगाने जैसे कार्यों में भी झलकारी पारंगत हो गयी।
एक बार झलकारी जंगल से लकड़ी काट कर ला रही थी, तो उसका सामना एक खूँखार चीते से हो गया। झलकारी ने कटार के एक वार से चीते का काम तमाम कर दिया और उसकी लाश कन्धे पर लादकर ले आयी। इससे गाँव में शोर मच गया। एक बार उसके गाँव के प्रधान जी को मार्ग में डाकुओं ने घेर लिया। संयोगवश झलकारी भी वहाँ आ गयी। उसने हाथ के डण्डे से डाकुओं की भरपूर ठुकाई की और उन्हें पकड़कर गाँव ले आयी। ऐसी वीरोचित घटनाओं से झलकारी पूरे गाँव की प्रिय बेटी बन गयी।
जब झलकारी युवा हुई, तो उसका विवाह झाँसी की सेना में तोपची पूरन कोरी से हुआ। जब झलकारी रानी लक्ष्मीबाई से आशीर्वाद लेने गयी, तो उन्होंने उसके सुगठित शरीर और शस्त्राभ्यास को देखकर उसे दुर्गा दल में भरती कर लिया। यह कार्य झलकारी के स्वभाव के अनुरूप ही था। जब 1857 में अंग्रेजी सेना झांसी पर अधिकार करने के लिए किले में घुसने का प्रयास कर रही थी, तो झलकारी शीघ्रता से रानी के महल में पहुँची और उन्हें दत्तक पुत्र सहित सुरक्षित किले से बाहर जाने में सहायता दी।
झलकारी ने इसके लिए जो काम किया, उसकी कल्पना मात्र से ही रोमांच हो आता है। उसने रानी लक्ष्मीबाई के गहने और वस्त्र आदि स्वयं पहन लिये और रानी को एक साधारण महिला के वस्त्र पहना दिये। इस प्रकार वेष बदलकर रानी बाहर निकल गयीं। दूसरी ओर रानी का वेष धारण कर झलकारी बाई रणचंडी बनकर अंग्रेजों पर टूट पड़ी।
काफी समय तक अंग्रेज सेना के अधिकारी भ्रम में पड़े रहे। वे रानी लक्ष्मीबाई को जिन्दा या मुर्दा किसी भी कीमत पर गिरफ्तार करना चाहते थे; पर दोनों हाथों में तलवार लिये झलकारी उनके सैनिकों को गाजर मूली की तरह काट रही थी। उस पर हाथ डालना आसान नहीं था। तभी एक देशद्रोही दुल्हाज ने जनरल ह्यूरोज को बता दिया कि जिसे वे रानी लक्ष्मीबाई समझ रहे हैं, वह तो दुर्गा दल की नायिका झलकारी बाई है।
यह जानकर ह्यूरोज दंग रह गया। उसके सैनिकों ने एक साथ धावा बोलकर झलकारी को पकड़ लिया। झलकारी फाँसी से मरने की बजाय वीरता की मृत्यु चाहती थी। उसने अपनी एक सखी वीरबाला को संकेत किया। संकेत मिलते ही वीरबाला ने उसकी जीवनलीला समाप्त कर दी। इस प्रकार झलकारी बाई ने अपने जीवन और मृत्यु, दोनों को सार्थक कर दिखाया।
......................................
22 नवम्बर/बलिदान-दिवस
प्रखर युवा नेत्री ज्योतिर्मयी गांगुली
भारत की स्वाधीनता के यज्ञ में अपनी प्राणाहुति देने वाली कुमारी ज्योतिर्मयी गांगुली का जन्म 1889 में कोलकाता के एक धनी व्यक्ति श्री द्वारकानाथ जी के घर में हुआ था। उनके आग्नेय भाषण श्रोताओं के हृदय को आंदोलित कर देते थे। इस कारण शासन भी उनसे थर्राता था।
स्वाधीनता संग्राम के दौरान जब भी कोई आंदोलन या अभियान होता, वे सबसे आगे बढ़कर उसमें भाग लेती थीं। 1921 का असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह, 1930 का सविनय अवज्ञा आंदोलन, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तथा 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में वे कई बार जेल गयीं।
ज्योतिर्मयी अपने भाषण में पुलिस वालों का स्वाभिमान जगाने का प्रयास भी करती थीं; पर पुलिस वाले सिर झुका कर रह जाते थे। उनके जीवन की एकमात्र प्राथमिकता देश की स्वाधीनता थी। उसकी प्राप्ति तक उन्होंने अविवाहित रहने का निर्णय लिया तथा अपनी सरकारी नौकरी भी छोड़ दी।
ज्योतिर्मयी गांगुली के पास एक विशेष प्रकार की कार थी। उसके रूप, रंग और हार्न को पुलिस वाले खूब पहचानते थे। जैसे ही उन्हें कहीं आंदोलन या सत्याग्रहियों पर होने वाले अत्याचार की सूचना मिलती, वे अपनी कार में बैठकर वहां पहुंच जाती थीं। इससे आंदोलनकारियों का उत्साह बढ़ जाता था, जबकि पुलिस वाले हतोत्साहित होकर पीछे हट जाते थे।
ज्योतिर्मयी जहां एक ओर कांग्रेस द्वारा निर्देशित आंदोलन में सक्रिय रहती थीं, तो दूसरी ओर सुभाष चंद्र बोस द्वारा आजाद हिन्द फौज का निर्माण और अंग्रेजों के विरुद्ध किया जा रहा संघर्ष भी उन्हें बहुत प्रेरणा देता था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद जब आजाद हिन्द फौज के सैनिकों पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाया गया, तो इसके विरोध में उन्होंने 21 नवम्बर, 1945 को कोलकाता में छात्रों के विशाल जुलूस का नेतृत्व किया।
यह जुलूस शांतिपूर्वक आगे बढ़ रहा था; लेकिन एस्प्लेनेड रोड पर पहुंचते ही पुलिस ने उसे रोक लिया। आंदोलनकारियों और पुलिस में काफी देर तक तीखी बहस हुई; पर पुलिस ने जुलूस को आगे नहीं बढ़ने दिया। इस पर युवक भी क्रोधित एवं उग्र हो गये। अंततः पुलिस ने गोली चला दी, जिससे रामेश्वर बनर्जी नामक युवक की वहीं मृत्यु हो गयी।
अब छात्र अपने उस बलिदानी साथी की शवयात्रा निकालने पर अड़ गये; पर पुलिस इसकी अनुमति देने को तैयार नहीं थी। रात के दो बज गये; पर कोई पक्ष पीछे नहीं हटा। मध्यस्थता के लिए डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी और गवर्नर भी आये; पर बात नहीं बनी। देर होती देख पुलिस ने फिर गोली चला दी। इस बार 36 छात्र बलिदान हुए। इसके बावजूद छात्र वहीं डटे रहेे। अंततः शासन को सद्बुद्धि आयी और उसने सभी 36 युवाओं की सामूहिक शवयात्रा अगले दिन निकालने की अनुमति दे दी।
22 नवम्बर को शवयात्रा में भाग लेने के लिए ज्योतिर्मयी अपनी कार से जा रही थी। यह देखकर एक पुलिस अधिकारी ने अपनी लारी को तेज गति से चलाते हुए उनकी कार को कुचल दिया। ज्योतिर्मयी गांगुली को भीषण चोट आयी। लोगों ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया; पर वे बच नहीं सकी।
अगले दिन ज्योतिर्मयी की शवयात्रा में पहले दिन से भी अधिक लोगों ने भाग लेकर उस तेजस्वी नारी को भावभीनी श्रद्धांजलि दी।
(संदर्भ : स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश तथा क्रांतिकारी कोश)
.....................................
22 नवम्बर/जन्म-दिवस
समय को बांधने वाले महावीर जी
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री महावीर जी का जन्म 22 नवम्बर, 1951 को वीरों की भूमि पंजाब में मानसा जिले के बुढलाड़ा में हुआ था। श्री दीवान चंद छाबड़ा उनके पिता और श्रीमती कृष्णा देवी उनकी माता जी थीं। विभाजन के बाद उनका परिवार बुढलाड़ा में आकर बस गया। श्री दीवान चंद जी पुराने स्वयंसेवक थे। बुढलाड़ा में भी वे नगर कार्यवाह के नाते काम करते रहे। अतः संघ का विचार महावीर जी को घर में ही प्राप्त हुआ। इसके बाद में शाखा जाने पर ये विचार क्रमशः संस्कार बन गये और संघ का काम ही उनके मन और प्राण की धड़कन बन गया।
महावीर जी की प्रारम्भिक शिक्षा बुढलाड़ा में ही हुई। वहां पर ही वे स्वयंसेवक बने। इसके बाद उन्होंने मानसा से बी.एस-सी. तथा फिर पंजाब वि.वि. चंडीगढ़ से सांख्यिकी में प्रथम श्रेणी में एम.एस-सी. किया। शिक्षा पूरी कर 1972 में वे प्रचारक बन गये। उनके प्रचारक जीवन का काफी भाग हिमाचल प्रदेश में बीता। मंडी व शिमला में जिला प्रचारक के बाद वे कांगड़ा में विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद उन्हें हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर को मिलाकर बनाये गये ‘हिमगिरि’ प्रांत के सहप्रांत प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी।
हिमाचल में लगभग 25 वर्ष बिताने के बाद महावीर जी पंजाब के प्रांत प्रचारक बनाये गये। पंजाब के उथल-पुथल भरे माहौल में उन्होंने काफी परिश्रम से स्थिति को संभाला। अमृतसर प्रांत का केन्द्र होने के कारण उन्होंने वहां के काम को सुदृढ़ आधार प्रदान किया। उनके प्रयास से नगर की 119 में से 100 बस्तियों में शाखाएं प्रारम्भ हो गयीं। उन्होंने इसके बाद वे दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल तथा जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र प्रचारक रहे। इसके बाद वे संघ के अखिल भारतीय सह बौद्धिक प्रमुख तथा फिर केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के नाते काम करते रहे।
महावीर जी का मानना था कि समय एवं दिनचर्या के उचित प्रबंधन से समय को बांधकर कम समय में भी अधिक काम कर सकते हैं। वे यह बात कहते ही नहीं, स्वयं करते भी थे। वे प्रतिदिन सुबह की शाखा जाने से पहले ही स्नान आदि से निवृत्त हो जाते थे। वे कहते थे कि जल्दी उठने से दिन 36 घंटे का हो जाता है। अखिल भारतीय जिम्मेदारी मिलने के बाद उन्हें पूर्वोत्तर भारत की ओर विशेष रूप से ध्यान देने को कहा गया। अतः उन्होंने वहां का सघन प्रवास कर संघ कार्य को गति दी।
महावीर जी मधुरभाषी तथा बचपन से ही बहुत सौम्य एवं शांत स्वभाव के थे। उन्हें जो काम दिया जाता, उसे वे धैर्यपूर्वक समझते और फिर पूरी जिम्मेदारी से करते थे। इस कारण वे जहां भी रहे, वहां उन्होंने कार्यकर्ताओं की एक विशाल मालिका का निर्माण किया। खूब सोच-विचार के साथ किये जाने से उनके द्वारा खड़े किये गये सब प्रकल्प भी स्थायी प्रवृत्ति के रहते थे।
संघ कार्य की भागदौड़, समय-असमय के प्रवास एवं तरह-तरह के खानपान के बीच वे हृदय रोग से पीड़ित हो गये; पर इसकी चर्चा उन्होंने अधिक लोगों से नहीं की। वे नहीं चाहते थे कि संघ का पैसा तथा श्रमशक्ति उन पर खर्च हो। वे अपने कष्ट से बाकी लोगों को परेशान कराना नहीं चाहते थे। इस कारण वह रोग बहुत बढ़ गया; पर वे इस ओर ध्यान न देकर संत के समान संघ एवं समाज सेवा के काम में लगे रहे।
24 अक्तूबर, 2017 को दिल्ली से चंडीगढ़ जाते समय रास्ते में उन्हें दिल का दौरा पड़ा। उन्हें तुरंत चंडीगढ़ के पी.जी.आई. अस्पताल में भरती कराया गया; पर वह आघात इतना भीषण था कि उसी दिन दोपहर में उनका निधन हो गया। अगले दिन उनके पैतृक स्थान मानसा में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया। इससे पूर्व उनकी इच्छानुसार उनके नेत्रदान कर दिये गये। (संदर्भ : वि.सं.केन्द्र, भारत)
---------------------------------------------------------
23 नवम्बर/जन्म-दिवस
चमत्कारी संत सत्यसाईं बाबा
भारत देवी, देवताओं और अवतारों की भूमि है। यहां समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लेकर मानवता के कल्याण के लिए अपना जीवन अर्पण किया है। ऐसे ही एक श्रेष्ठ संत थे श्री सत्य साईं बाबा।
बाबा का जन्म 23 नवम्बर, 1926 को ग्राम पुट्टपर्थी (आंध्र प्रदेश) के एक निर्धन मजदूर पेंडवेकप्पा राजू और माता ईश्वरम्मा के घर में हुआ था।
उनका बचपन का नाम सत्यनारायण राजू था। बचपन में उनकी रुचि अध्यात्म और कथा-कीर्तन में अधिक थी। कहते हैं कि 14 वर्ष की अवस्था में उन्हें एक बिच्छू ने काट लिया। इसके बाद उनके मुंह से स्वतः संस्कृत के श्लोक निकलने लगे, जबकि उन्होंने संस्कृत कभी पढ़ी भी नहीं थी। इसके कुछ समय बाद उन्होंने स्वयं को पूर्ववर्ती शिरडी वाले साईं बाबा का अवतार घोषित कर दिया और कहा कि वे भटकी हुई दुनिया को सही मार्ग दिखाने आये हैं।
शिरडी वाले साईं बाबा के बारे में कहते हैं कि उन्होंने 1918 में अपनी मृत्यु से पहले भक्तों से कहा था कि आठ साल बाद वे मद्रास क्षेत्र में फिर जन्म लेंगे। अतः लोग सत्यनारायण राजू को उनका अवतार मानने लगे। क्रमशः उनकी मान्यता बढ़ती गयी और पुट्टपर्थी एक पावन धाम बन गया। बाबा का लम्बा भगवा चोगा और बड़े-बड़े बाल उनकी पहचान बन गये। वे भक्तों को हाथ घुमाकर हवा में से ही भभूत, चेन, अंगूठी आदि निकालकर देते थे। यद्यपि इन चमत्कारों को कई लोगों ने चुनौती देकर उनकी आलोचना भी की।
बाबा ने पुट्टपर्थी में पहले एक मंदिर और फिर अपने मुख्यालय ‘प्रशांति निलयम्’ की स्थापना की। इसके अतिरिक्त उन्होंने बंगलौर तथा तमिलनाडु के कोडैकनाल में भी आश्रम बनाये। बाबा भक्तों को सनातन हिन्दू धर्म पर डटे रहने का उपदेश देते थे। इससे धर्मान्तरण की गति अवरुद्ध हो गयी।
बाबा का रुझान सेवा की ओर भी था। वे शिक्षा को व्यक्ति की उन्नति का एक प्रमुख साधन मानते थे। अतः उन्होंने निःशुल्क सेवा देने वाले हजारों विद्यालय, चिकित्सा केन्द्र और दो बहुत बड़े चिकित्सालय स्थापित किये। इनमें देश-विदेश के सैकड़ों विशेषज्ञ चिकित्सक एक-दो महीने की छुट्टी लेकर निःशुल्क अपनी सेवा देते हैं। उन्होंने पुट्टपर्थी में एक स्टेडियम, विश्वविद्यालय तथा हवाई अड्डा भी बनवाया। विदेशों में भी उन्होंने सामान्य शिक्षा के साथ ही वैदिक हिन्दू संस्कार देने वाले अनेक विद्यालय स्थापित किये।
आंध्र प्रदेश में सूखे से पीड़ित अनंतपुर जिले के पानी में फ्लोराइड की अधिकता से लोग बीमार पड़ जाते थे। इससे फसल भी नष्ट हो जाती थी। बाबा ने 200 करोड़ रु. के व्यय से वर्षा जल को संग्रहित कर पाइप लाइन द्वारा पूरे जिले में पहुंचाकर इस समस्या का स्थायी समाधान किया। इस उपलक्ष्य में डाक व तार विभाग ने एक डाक टिकट भी जारी किया।
पूरी दुनिया में बाबा के करोड़ों भक्त हैं। नेता हो या अभिनेता, खिलाड़ी हो या व्यापारी, निर्धन हो या धनवान,..सब वहां आकर सिर झुकाते थे। सैकड़ों प्राध्यापक, न्यायाधीश, उद्योगपति तथा शासन-प्रशासन के अधिकारी बाबा के आश्रम, चिकित्सालय तथा अन्य जनसेवी संस्थाओं की देखभाल करते हैं।
हिन्दू धर्म के रक्षक श्री सत्य साईं बाबा 24 अपै्रल, 2011 को दिवंगत हुए। उन्हें पुट्टपर्थी के आश्रम में ही समाधि दी गयी। उनके भक्तों को विश्वास है कि वे शीघ्र ही पुनर्जन्म लेकर फिर मानवता की सेवा में लग जाएंगे।
(संदर्भ : देहांत के बाद के पत्र व पत्रिकाएं)
🙏 कृपया १९ नवम्बर की तिथि में महारानी लक्ष्मी बाई का जीवन-वृत सम्मिलित करें, धन्यवाद
जवाब देंहटाएं