जुलाई चौथा सप्ताह

24 जुलाई/बलिदान-दिवस

नरसिंहगढ़ का शेर कुंवर चैनसिंह

भारत की स्वतन्त्रता के लिए किसी एक परिवार, दल या क्षेत्र विशेष के लोगों ने ही बलिदान नहीं दिये। देश के कोने-कोने में ऐसे अनेक ज्ञात-अज्ञात वीर हुए हैं, जिन्होंने अंग्रेजों से युद्ध में मृत्यु तो स्वीकार की; पर पीछे हटना या सिर झुकाना स्वीकार नहीं किया। ऐसे ही एक बलिदानी वीर थे मध्य प्रदेश की नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार कुँवर चैनसिंह।

व्यापार के नाम पर आये धूर्त अंग्रेजों ने जब छोटी रियासतों को हड़पना शुरू किया, तो इसके विरुद्ध अनेक स्थानों पर आवाज उठने लगी। राजा लोग समय-समय पर मिलकर इस खतरे पर विचार करते थे; पर ऐसे राजाओं को अंग्रेज और अधिक परेशान करते थे। उन्होंने हर राज्य में कुछ दरबारी खरीद लिये थे, जो उन्हें सब सूचना देते थे। नरसिंहगढ़ पर भी अंग्रेजों की गिद्ध दृष्टि थी। उन्होंने कुँवर चैनसिंह को उसे अंग्रेजों को सौंपने को कहा; पर चैनसिंह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया।

अब अंग्रेजों ने आनन्दराव बख्शी और रूपराम वोहरा नामक दो मन्त्रियों को फोड़ लिया। एक बार इन्दौर के होल्कर राजा ने सब छोटे राजाओं की बैठक बुलाई। चैनसिंह भी उसमें गये थे। यह सूचना दोनों विश्वासघाती मन्त्रियों ने अंग्रेजों तक पहुँचा दी। उस समय जनरल मेंढाक ब्रिटिश शासन की ओर से राजनीतिक एजेण्ट नियुक्त था। उसने नाराज होकर चैनसिंह को सीहोर बुलाया। चैनसिंह अपने दो विश्वस्त साथियों हिम्मत खाँ और बहादुर खाँ के साथ उससे मिलने गये। ये दोनों सारंगपुर के पास ग्राम धनौरा निवासी सगे भाई थे। चलने से पूर्व चैनसिंह की माँ ने इन्हें राखी बाँधकर हर कीमत पर बेटे के साथ रहने की शपथ दिलायी। कुँवर का प्रिय कुत्ता शेरू भी साथ गया था।

जनरल मेंढाक चाहता था कि चैनसिंह पेंशन लेकर सपरिवार काशी रहें और राज्य में उत्पन्न होने वाली अफीम की आय पर अंग्रेजों का अधिकार रहे; पर वे किसी मूल्य पर इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस प्रकार यह पहली भेंट निष्फल रही। कुछ दिन बाद जनरल मंेढाक ने चैनसिंह को सीहोर छावनी में बुलाया। इस बार उसने चैनसिंह और उनकी तलवारों की तारीफ करते हुए एक तलवार उनसे ले ली। इसके बाद उसने दूसरी तलवार की तारीफ करते हुए उसे भी लेना चाहा। चैनसिंह समझ गया कि जनरल उन्हें निःशस्त्र कर गिरफ्तार करना चाहता है। उन्होंने आव देखा न ताव, जनरल पर हमला कर दिया।

फिर क्या था, खुली लड़ाई होने लगी। जनरल तो तैयारी से आया था। पूरी सैनिक टुकड़ी उसके साथ थी; पर कुँवर चैनसिंह भी कम साहसी नहीं थे। उन्हें अपनी तलवार, परमेश्वर और माँ के आशीर्वाद पर अटल भरोसा था। दिये और तूफान के इस संग्राम में अनेक अंग्रेजों को यमलोक पहुँचा कर उन्होंने अपने दोनों साथियों तथा कुत्ते के साथ वीरगति पायी। यह घटना लोटनबाग, सीहोर छावनी में 24 जुलाई, 1824 को घटित हुई थी।

चैनसिंह के इस बलिदान की चर्चा घर-घर में फैल गयी। उन्हें अवतारी पुरुष मान कर आज भी ग्राम देवता के रूप में पूजा जाता है। घातक बीमारियों में लोग नरसिंहगढ़ के हारबाग में बनी इनकी समाधि पर आकर एक कंकड़ रखकर मनौती मानते हैं। इस प्रकार कुँवर चैनसिंह ने बलिदान देकर भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।
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24 जुलाई/जन्म-दिवस

प्रखर ज्योतिपुंज ज्योति स्वरूप जी
छोटे कद, पर ऊंचे इरादों वाले श्री ज्योति जी का जन्म 24 जुलाई, 1928 को अशोक नगर (जिला एटा, उ.प्र.) में हुआ था। इनका परिवार मूलतः इसी जिले के अवागढ़ का निवासी था; पर पिताजी नौकरी के लिए अशोक नगर आ गये थे। छात्र जीवन में ही उनका संपर्क संघ से हुआ और फिर वह उनके मन और प्राण की धड़कन बन गया। 

बचपन में ही माता-पिता देहांत के बाद एक बड़ी बहन ने उनका पालन किया। एटा से कक्षा दस उत्तीर्ण कर वे बरेली आ गये। यहां संघ कार्यालय में रहकर, सायं शाखा चलाते हुए ट्यूशन पढ़ाकर उन्होंने बी.ए किया और प्रचारक बन गये। संघ के पैसे से पढ़ना या पढ़ते समय प्रचारकों की तरह परिवारों में भोजन करना उन्हें स्वीकार नहीं था। छात्र जीवन में निर्मित संघर्ष और स्वाभिमान की यह प्रवृत्ति उनमें सदा बनी रही।

प्रचारक जीवन में वे कई वर्ष अल्मोड़ा के जिला प्रचारक रहे। कुमाऊं के पहाड़ों को कई बार उन्होंने अपने पैरों से नापा। नयी भाषा सीखकर उसे बेझिझक बोलना उनके स्वभाव में था। बरेली में श्री रतन भट्टाचार्य के सान्निध्य में उन्होंने बंगला, तो नागपुर आते-जाते मराठी सीख ली। इसी प्रकार ब्रज, कुमाऊंनी, हिमाचली, डोगरी, पंजाबी, भोजपुरी आदि भी खुलकर बोलते थे।

नवयुवकों के हृदय में संघ-ज्योति प्रज्वलित करने के वे माहिर थे। उनमें भविष्य के प्रचारकों को पहचानने की अद्भुत क्षमता थी। इसके लिए प्रथम श्रेणी के छात्रों पर वे विशेष ध्यान देते थे। वे जहां भी रहे, लम्बे समय तक काम करने वाले प्रचारकों की एक बड़ी टोली उन्होंने निर्माण की। 

वे जल्दीबाजी की बजाय कार्यकर्ता को ठोक बजाकर ही प्रचारक बनाते थे। 1970-71 में वे विभाग प्रचारक होकर मेरठ आये। आपातकाल में वे कुलदीप के छद्म नाम से प्रवास करते थे। वे जेल में कई बार कार्यकर्ताओं से मिलकर आते थे, वहां प्रायः उनके पत्र भी पहुंचते थे; पर पुलिस वाले उन्हें नहीं पा सके।

मेरठ विभाग, संभाग, पश्चिमी उ.प्र. में सहप्रांत प्रचारक, हिमगिरी प्रांत और फिर वे काशी में प्रांत प्रचारक रहे। प्रवास करते समय वे दिन-रात या छोटे-बड़े वाहन की चिन्ता नहीं करते थे। उनके एक थैले में कपड़े और दूसरे में डायरी, समाचार पत्र आदि होते थे। वे हंसी में इन्हें अपना घर और दफ्तर कहते थे। 

काशी में उनके जीवन में एक बहुत विकट दौर आया। उनके दोनों घुटनों में चिकित्सा के दौरान भारी संक्रमण हो गया। कुछ चिकित्सक तो पैर काटने की सलाह देने लगे; पर ईश्वर की कृपा और अपनी प्रबल इच्छा शक्ति के बल पर वे ठीक हुए और पहले की ही तरह दौड़भाग प्रारम्भ कर दी।

ज्योति जी कार्यकर्ता से व्यक्तिगत वार्ता पर बहुत जोर देते थे। इसके लिए वे छात्रों के कमरों या नये प्रचारकों के आवास पर रात में दो-तीन बजे भी पहुंच जाते थे। उनके भाषण मुर्दा दिलों में जान फूंक देते थे। एक जीवन, एक लक्ष्यउनका प्रिय वाक्य था। 

अंग्रेजी भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। प्राध्यापकों आदि से धाराप्रवाह अंग्रेजी में बात कर वे अपनी धाक जमा लेते थे। वे युवा कार्यकर्ताओं को अंग्रेजी समाचार पत्र बोलकर पढ़ने और उन्हें सुनाने को कहते थे तथा बीच-बीच में उसका अर्थ भी पूछते और समझाते रहते थे। पढ़ने और लिखने का उनका प्रारम्भ से ही स्वभाव था।

जीवन के अंतिम कुछ वर्ष में वे स्मृति लोप के शिकार हो गये। वे नयी बात या व्यक्ति को भूल जाते थे; पर पुराने लोग, पुरानी बातें उन्हें अच्छी तरह याद रहती थीं। इसी बीच उनकी आहार नली में कैंसर हो गया। इसी रोग से 27 मार्च, 2010 को मेरठ में संघ कार्यालय पर ही उनका देहांत हुआ। देहांत के बाद उनकी इच्छानुसार उनके नेत्रदान कर दिये गये।
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24 जुलाई/जन्म-दिवस

दुबले शरीर और दृढ़ संकल्प वाले धर्मवीर सिंह

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक धर्मवीर सिंह का जन्म 24 जुलाई, 1947 को उ.प्र. के बिजनौर जिले में स्थित गांव अस्करीपुर में हुआ था। उनके पिता श्री विश्वनाथ सिंह तथा माता श्रीमती मूंगिया देवी थीं। घर में खेती का काम था। जब धर्मवीरजी केवल एक वर्ष के ही थे, तो उनकी माताजी का निधन हो गया। अतः वे मां के प्यार से वंचित ही रहे। उनके दादा श्री शिवनाथ सिंह स्वाधीनता सेनानी थे; पर उन्होंने इससे कोई सुविधा नहीं ली तथा अपने किसी परिजन को भी इसका लाभ नहीं लेने दिया।  

दादाजी आर्य समाज के प्रचार के लिए काफी समय घर से बाहर रहते थे; पर धर्मवीरजी की मां के निधन के बाद फिर वे कहीं नहीं गये। इस प्रकार उनका पालन दादाजी ने ही किया। धर्मवीरजी शुरू से ही बहुत दुबले-पतले थे। शायद मां का दूध कम मिलने से ऐसा हुआ। कक्षा पांच तक की शिक्षा गांव में पूरी कर उन्होंने 1964 में गोहावर (बिजनौर) से कक्षा 11 की परीक्षा उत्तीर्ण की; पर स्वास्थ्य बिगड़ने से वे कक्षा 12 की परीक्षा नहीं दे सके। इस कमी को उन्होंने 1984 में आगरा से व्यक्तिगत परीक्षा देकर पूरा किया।

1966 में वे पढ़ाई के लिए अपने मामाजी के गांव बसेड़ा कुंवर गये हुए थे। वहां संघ की शाखा लगती थी। अपने ममेरे भाई ओमप्रकाश सिंह के साथ वे भी वहां जाने लगे; पर कुछ समय बाद वह शाखा बंद हो गयी। इस पर वहां के मंडल कार्यवाह महेन्द्रजी ने उन्हें ही शाखा लगाने की विधि सिखा दी। इससे धर्मवीरजी ने मुख्यशिक्षक बनकर वह शाखा फिर शुरू कर दी।

1967 से 71 तक उन्होंने रामगंगा बांध परियोजना के कालागढ़ स्थित प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र की फार्मेसी में काम किया। 1968, 69 तथा 1971 में उन्होंने क्रमशः तीनों संघ शिक्षा वर्ग पूरे किये। अब उन्होंने नौकरी छोड़ दी और संघ के प्रचारक बन गये। चमोली, जोशीमठ, कर्णप्रयाग के बाद उन्हें 1975 में चमोली जिला प्रचारक बनाया गया; पर तभी देश में आपातकाल और फिर संघ पर प्रतिबंध भी लग गया। इससे वे कभी पहाड़ तो कभी बिजनौर जिले में जन जागरण करते रहे। एक बार पुलिस वालों ने उनके गांव आकर उनके घर की कुर्की भी की; पर धर्मवीरजी और उनके परिवार वाले डरे नहीं।  

धर्मवीरजी को पैदल चलने का बहुत अभ्यास रहा है। आपातकाल में कई बार सड़क पर पुलिस दिख जाती थी। अतः वे पैदल मार्गों से, एक से दूसरी पहाड़ी पर होकर निकल जाते थे। इस प्रकार उन्होंने पूरे गढ़वाल में संपर्क बनाये रखा। एक बार वे साहसपूर्वक बिजनौर जेल में जाकर वहां बंदी कार्यकर्ता विद्यादत्त तिवारी से खुद को उनका बड़ा भाई बताकर मिल भी आये। बाद में जब जेल अधिकारियों को असली बात पता लगी, तो बड़ा हड़कम्प मचा।

प्रतिबंध हटने पर उन्हें फिर चमोली जिले का काम दिया गया; पर आपातकाल के अस्त-व्यस्त जीवन से उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। अतः वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नकुड़, हरदोई, पीलीभीत, रामपुर, चांदपुर, नौएडा, दादरी आदि में नगर तथा तहसील प्रचारक रहे। कई वर्ष वे प्रांत कार्यालय (आगरा) की व्यवस्था में भी सहयोगी रहे। उत्तरांचल और मेरठ प्रांत में सेवा प्रमुख, उत्तरांचल प्रांत कार्यालय प्रमुख (देहरादून), केशव धाम (वृंदावन), अल्मोड़ा और मुरादाबाद में भी वे रहे। बीच-बीच में आने वाले अल्पकालीन कामों में भी उनको लगा दिया जाता है। वे पूर्ण शक्ति से उस काम में लग जाते हैं।

धर्मवीरजी को संघ कार्य में मा. रज्जू भैया, ओमप्रकाशजी, कौशलजी, ज्योतिजी, सूर्यकृष्णजी, गजेन्द्र दत्त नैथानी, अशोक सिंहल, भाउराव देवरस, माधवराव देवड़े आदि वरिष्ठ प्रचारकों का भरपूर सान्निध्य और स्नेह मिला है। कमजोर शरीर के बावजूद वे दृढ़ संकल्प के धनी हैं। इन दिनों वे मेरठ के प्रांतीय कार्यालय प्रमुख के नाते वहां की देखभाल कर रहे हैं।


(13.12.2018 को प्राप्त लिखित जानकारी)
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25 जुलाई/बलिदान-दिवस

अमर बलिदानी श्रीदेव सुमन

1947 से पूर्व भारत में राजे-रजवाड़ों का बोलबाला था। कई जगह जनता को अंग्रेजों के साथ उन राजाओं के अत्याचार भी सहने पड़ते थे। श्रीदेव सुमनकी जन्मभूमि उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में भी यही स्थिति थी। उनका जन्म 25 मई, 1916 को बमुण्ड पट्टी के जौल गांव में श्रीमती तारादेवी की गोद में हुआ था। इनके पिता श्री हरिराम बडोनी क्षेत्र के प्रसिद्ध वैद्य थे। प्रारम्भिक शिक्षा चम्बा और मिडिल तक की शिक्षा उन्होंने टिहरी से पाई। संवेदनशील हृदय होने के कारण वे सुमनउपनाम से कविताएं लिखते थे।

अपने गांव तथा टिहरी में उन्होंने राजा के कारिंदों द्वारा जनता पर किये जाने वाले अत्याचारों को देखा। 1930 में 14 वर्ष की किशोरावस्था में उन्होंने नमक सत्याग्रहमें भाग लिया। थाने में बेतों से पिटाई कर उन्हें 15 दिन के लिए जेल भेज दिया गया; पर इससे उनका उत्साह कम नहीं हुआ। अब तो जब भी जेल जाने का आह्नान होता, वे सदा अग्रिम पंक्ति में खड़े हो जाते।

पढ़ाई पूरी कर वे हिन्दू नेशनल स्कूल, देहरादून में पढ़ाने लगे। इसके साथ ही उन्होंने साहित्य रत्न, साहित्य भूषण, प्रभाकर, विशारद जैसी परीक्षाएं भी उत्तीर्ण कीं। 1937 में उनका कविता संग्रह सुमन सौरभप्रकाशित हुआ। वे हिन्दू, धर्मराज, राष्ट्रमत, कर्मभूमि जैसे हिन्दी व अंग्र्रेजी पत्रों के सम्पादन से जुड़े रहे। वे हिन्दी साहित्य सम्मेलनके भी सक्रिय कार्यकर्ता थे। उन्होंने गढ़ देश सेवा संघ, हिमालय सेवा संघ, हिमालय प्रांतीय देशी राज्य प्रजा परिषद, हिमालय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद आदि संस्थाओं के स्थापना की।

1938 में विनय लक्ष्मी से विवाह के कुछ समय बाद ही श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित एक सम्मेलन में नेहरू जी की उपस्थिति में उन्होंने बहुत प्रभावी भाषण दिया। इससे स्वाधीनता सेनानियों के प्रिय बनने के साथ ही उनका नाम शासन की काली सूची में भी आ गया। 1939 में सामन्ती अत्याचारों के विरुद्ध टिहरी राज्य प्रजा मंडलकी स्थापना हुई और सुमन जी इसके मंत्री बनाये गये। इसके लिए वे वर्धा में गांधी जी से भी मिले। 1942 के भारत छोड़ोआंदोलन में वे 15 जेल में रहे। 21 फरवरी, 1944 को उन पर राजद्रोह का मुकदमा ठोक कर भारी आर्थिक दंड लगा दिया।

पर सुमन जी तो इसे अपना शासन मानते ही नहीं थे। उन्होंने अविचलित रहते हुए अपना मुकदमा स्वयं लड़ा और अर्थदंड की बजाय जेल स्वीकार की। शासन ने बौखलाकर उन्हें काल कोठरी में ठूंसकर भारी हथकड़ी व बेड़ियों में कस दिया। राजनीतिक बन्दी होने के बाद भी उन पर अमानवीय अत्याचार किये गये। उन्हें जानबूझ कर खराब खाना दिया जाता था। बार-बार कहने पर भी कोई सुनवाई न होती देख तीन मई, 1944 से उन्होंने आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया।

शासन ने अनशन तुड़वाने का बहुत प्रयास किया; पर वे अडिग रहे और 84 दिन बाद 25 जुलाई, 1944 को जेल में ही उन्होंने शरीर त्याग दिया। जेलकर्मियों ने रात में ही उनका शव एक कंबल में लपेट कर भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम स्थल पर फेंक दिया।

सुमन जी के बलिदान का अर्घ्य पाकर टिहरी राज्य में आंदोलन और तेज हो गया। एक अगस्त, 1949 को टिहरी राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हुआ। तब से प्रतिवर्ष 25 जुलाई को उनकी स्मृति में सुमन दिवसमनाया जाता है। अब पुराना टिहरी शहर, जेल और काल कोठरी तो बांध में डूब गयी है; पर नई टिहरी की जेल में वह हथकड़ी व बेड़ियां सुरक्षित हैं। हजारों लोग वहां जाकर उनके दर्शन कर उस अमर बलिदानी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
(संदर्भ: शिशु मंदिर संदेश, देवभूमि उत्तराखंड अंक, जनवरी 2009)
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26 जुलाई/जन्म-दिवस

कन्नड़ साहित्य के साधक डा. भैरप्पा

अपने उपन्यासों की विशिष्ट शैली एवं कथानक के कारण बहुचर्चित कन्नड़ साहित्यकार डा. एस.एल. भैरप्पा का जन्म 26 जुलाई, 1931 को कर्नाटक के हासन जिले के सन्तेशिवर ग्राम के एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ। आठ वर्ष की अवस्था में एक घण्टे के अन्तराल में ही इनकी बहिन एवं बड़े भाई की प्लेग से मृत्यु हो गयी। कुछ वर्ष बाद ममतामयी माँ तथा छोटा भाई भी चल बसा। इस प्रकार भैरप्पा का कई बार मृत्यु से साक्षात्कार हुआ। इनके पिता कुछ नहीं करते थे। अतः इन्हें प्रायः भूखा सोना पड़ता था।

अब इनकी देखभाल का जिम्मा इनके मामा पर था; पर वे अत्यन्त क्रूर एवं स्वार्थी थे। अध्ययन में रुचि के कारण भैरप्पा ने कभी अगरबत्ती बेचकर, कभी सिनेमा में द्वारपाल का काम कर, तो कभी दुकानों में हिसाब लिखकर पढ़ाई की। एक बार उन्होंने मुम्बई जाने का निर्णय लिया; पर पैसे न होने के कारण वे पैदल ही पटरी के किनारे-किनारे चल दिये। रास्ते में भीख माँग कर पेट भरा। कभी नाटक कम्पनी में तो कभी द्वारपाल, बग्घी चालक, रसोइया आदि बनकर मुम्बई में टिकने का प्रयास किया; पर भाग्य ने साथ नहीं दिया। अतः एक साधु के साथ गाँव लौट आये और फिर से पढ़ाई चालू कर दी।

चन्नरायपट्टण में प्राथमिक शिक्षा के बाद भैरप्पा ने मैसूर से एम.ए. किया। जीवन के थपेड़ों ने इन्हें दर्शन शास्त्र की ओर आकृष्ट किया। मित्रों ने इन्हें कहा कि इससे रोटी नहीं मिलेगी; पर इन्होंने बी.ए एवं एम.ए दर्शन शास्त्र में स्वर्ण पदक लेकर किया। इसके बाद सत्य और सौन्दर्यविषय पर बड़ोदरा के सयाजीराव विश्वविद्यालय से इन्हें पी-एच.डी की उपाधि मिली।

1958 में इनकी अध्यापन यात्रा कर्नाटक, गुजरात, दिल्ली होती हुई मैसूर में पूरी हुई। 1991 में डा. भैरप्पा अवकाश लेकर पूर्णतः लेखन के प्रति समर्पित हो गये। इनका पहला उपन्यास धर्मश्री’ 1961 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद यह क्रम चल पड़ा। सार्थ, पर्व, वंशवृक्ष, तन्तु आदि के बाद 2007 में इनका 21वाँ उपन्यास आवरणछपा। उल्लंघनऔर गृहभंगका अंग्रेजी एवं भारत की 14 भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।

डा. भैरप्पा के उपन्यासों के कथानक से पाठक का मन अपने धर्म एवं संस्कृति की ओर आकृष्ट होता है। इनके अनेक उपन्यासों पर नाटक और फिल्में भी बनी हैं। इनकी सेवाओं को देखते हुए कर्नाटक साहित्य अकादमी, केन्द्रीय साहित्य अकादमी तथा भारतीय भाषा परिषद, कुमार सभा पुस्तकालय जैसी संस्थाओं ने इन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया।

डा. भैरप्पा अखिल भारतीय कन्नड़ साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहे तथा उन्होंने अमरीका में आयोजित कन्नड़ साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता भी की। कला एवं शास्त्रीय संगीत में रुचि के कारण उन्होंने अनेक अन्तरराष्ट्रीय संग्रहालयों का भ्रमण कर उन्हें महत्वपूर्ण सुझाव दिये। डा. भैरप्पा ने यूरोप, अमरीका, कनाडा, चीन, जापान, मध्य पूर्व तथा दक्षिण एशियाई देशों की यात्रा की है। प्रकृति प्रेमी होने के कारण उन्होंने हिमालय के साथ-साथ अण्टार्कटिका, आल्प्स (स्विटरजरलैण्ड), राकीज (अमरीका) तथा फूजीयामा (जापान) जैसी दुर्गम पर्वतमालाओं का व्यापक भ्रमण किया।

ईश्वर से प्रार्थना है कि वह डा. भैरप्पा को स्वस्थ रखे, जिससे वे साहित्य के माध्यम से देश और धर्म की सेवा करते रहें। 
(संदर्भ : कुमारसभा पुस्तकालय पत्रक)
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26 जुलाई/जन्म-दिवस

निष्ठावान कार्यकर्ता ओंकार भावे
विश्व हिन्दू परिषद का काम यों तो 1964 में प्रारम्भ हुआ; पर उसके प्रभाव में उल्लेखनीय वृद्धि 1984 में प्रारम्भ हुए श्रीराम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन से हुुई। इस दौरान जिन्होंने हर संघर्ष और संकट को अपने सीने पर झेला, उनमें श्री ओंकार भावे प्रमुख हैं। 

श्री भावे का जन्म 26 जुलाई, 1924 को आजमगढ़ (उ.प्र.) में श्रीमती लक्ष्मीबाई की गोद में हुआ था। उन दिनों उनके पिता श्री नरसिंह भावे वहां सरकारी सेवा में थे। 14 वर्ष की अवस्था में वे स्वयंसेवक बनेे। 1940, 41 तथा 42 में उन्होंने प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वर्ष का संघ शिक्षा वर्ग नागपुर से ही किया। 1945 में प्रयाग वि.वि. से बी.ए. कर उन्होंने प्रचारक के रूप में अपना जीवन संघ को समर्पित कर दिया।

भावे जी प्रयाग, हरदोई व अलीगढ़ में जिला तथा फिर आगरा व लखनऊ में विभाग प्रचारक रहे। लखनऊ में वे 'राष्ट्रधर्म प्रकाशन' के व्यवस्थापक तथा राष्ट्रधर्म मासिक पत्रिका के सह सम्पादक भी थे। इसके बाद वे प्रयाग विभाग, प्रयाग सम्भाग, काशी सम्भाग प्रचारक, पूर्वी उ.प्र. के शारीरिक तथा व्यवस्था प्रमुख भी रहे। 1962 में अलीगढ़ में लगे संघ शिक्षा वर्ग में वे मुख्य शिक्षक थे। इससे पहले तक वर्गों में मुख्य शिक्षक नागपुर से ही आते थे।

1975 में लगे आपातकाल में पुलिस उन्हें पूरे समय तलाशती रही; पर वे बाहर रहकर ही आंदोलन में सक्रिय रहे। 1982 में विश्व हिन्दू परिषद ने देश भर में संस्कृति रक्षा निधिका संग्रह किया। श्री ओंकार भावे को उस दौरान परिषद का पूरे उ.प्र. का काम दिया गया था। लम्बे समय तक लखनऊ केन्द्र बनाकर वे परिषद के कार्य को गति देते रहे। 

1983 में हुए प्रथम एकात्मता यज्ञ में गंगा माता तथा भारत माता के रथों के साथ पूरे देश में सैकड़ों यात्राएं निकाली गयीं। तीन मुख्य यात्राओं में से एक हरिद्वार से नागपुर तक थी। ओंकार जी उसके प्रमुख थे। 1984 में वे 'श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति' तथा 'धर्मस्थान मुक्ति यज्ञ समिति' के वरिष्ठ मंत्री बने। जन्मभूमि का ताला खुलने पर रामजानकी रथों को शासन ने बंद कर दिया। उनकी मुक्ति के लिए हुए आंदोलन का उन्होंने ही नेतृत्व किया तथा शासन को झुकने को मजबूर कर दिया।

1984 में उन्हें उ.प्र. और म.प्र. में परिषद के संगठन विस्तार का काम मिला। दो नवम्बर, 1990 को अयोध्या में हुई कारसेवा में उन्होंने एक जत्थे का नेतृत्व किया था। 1991 में वे परिषद के केन्द्रीय मंत्री बने और उनका केन्द्र दिल्ली हो गया। 1995 में वे संयुक्त महामंत्री तथा 2009 में उपाध्यक्ष बने। इस काल में उन्होंने मातृशक्ति, दुर्गावाहिनी तथा बजरंग दल के कार्य को नये आयाम प्रदान किये। श्रीमां जन्मशती आयोजनों में भी वे सक्रिय रहे।

लेखन व प्रकाशन कार्य में भावे जी की प्रारम्भ से ही रुचि थी। परिषद के केन्द्रीय कार्यालय से प्रकाशित होने वाले पाक्षिक हिन्दू विश्वके वे सम्पादक तथा प्रकाशक थे। पाक्षिक समाचार बुलेटिन संस्कृति सरगमके भी वे प्रकाशक तथा स्वामी थे। स्वर्गीय जगन्नाथ राव जोशी के बारे में प्रकाशित मराठी ग्रंथ तथा उनके अनेक भाषणों का उन्होंने हिन्दी अनुवाद किया था। परिषद के विविध आयामों के बारे में उन्होेंने छोटी-छोटी पुस्तकें प्रकाशित कीं।

जून की भीषण गर्मी में परिषद के प्रशिक्षण वर्गों के प्रवास से लौटने पर सांस संबंधी कठिनाई के कारण उन्हें चिकित्सालय में भर्ती कराया गया। वहां पता लगा कि उनके फेफड़े बुरी तरह संक्रमित हो चुके हैं। चिकित्सा के दौरान ही उनके गुर्दे भी संक्रमित हो गये। कई दिन तक जीवनरक्षक प्रणालियों पर रहने के बाद 23 जुलाई, 2009 को उनका देहांत हो गया। इस प्रकार एक निष्ठावान कार्यकर्ता ने आजीवन सक्रिय रहकर अपनी संघ प्रतिज्ञा पूर्ण की।
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26 जुलाई/जन्म-दिवस

समग्र मानवता के धर्माचार्य आचार्य आनन्दऋषि

जैन मत में बहुत कठिन साधना, स्वाध्याय एवं तप के बाद आचार्य जैसे गरिमापूर्ण पद पर कोई प्रतिष्ठित हो पाता है। आचार्य आनन्दऋषि ऐसे ही एक महामानव थे, जिनके उपदेश सम्पूर्ण मानवता के लिए मार्गदर्शक हैं।

आचार्य जी का जन्म गाँव चिंचोड़ी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) में 26 जुलाई, 1900 को माँ हुलसाबाई तथा पिता सेठ देवीचन्द गुगालिया के घर में हुआ था। इनका नाम नेमीचन्द रखा गया। जिस समय सब बच्चे गली-मोहल्ले में खेल में मस्त रहते थे, तब वे धर्मग्रन्थों के अध्ययन मेें जुटे रहते थे। अभिभावक इससे चिन्तित होते थे; पर उनके शरीर के कुछ चिन्हों को देखकर विद्वानों का मत था कि आगे चलकर वे महान सन्त बनेंगे।

13 वर्ष की अवस्था में नेमीचन्द ने सात दिसम्बर, 1913 को अहमदनगर के ही मिरी गाँव में श्री रत्नऋषि से दीक्षा ले ली। अब इनका नाम आनन्दऋषि हो गया। इसके बाद आगामी 30 वर्ष तक वे श्रमण संघ के अनुशास्ता रहे। उन्हें स्वाध्याय के प्रति बहुत अनुराग था। वे प्रतिदिन घण्टों तक आगमवाणी का अध्ययन करते। यहाँ तक कि स्वाध्याय पूरा किये बिना वे भोजन भी नहीं करते थे। इस गहन अध्ययन का ही परिणाम यह हुआ कि हजारों धर्मग्रन्थ उनको कण्ठस्थ हो गये। स्मरण शक्ति के बल पर जब वे प्रवचन में उनके सटीक उद्धरण देते थे, जो श्रोता आश्चर्यचकित रह जाते थे।

आचार्य जी का हस्तलेख भी मोतियों के समान सुन्दर था। उन्हें पढ़ाने का भी बहुत शौक था। ग्रन्थों को अपने सरल शब्दों में नये साधकों को समझाने में उन्हें बहुत आनन्द आता था। अच्छी स्मरण शक्ति के बावजूद वे अध्यापक की भाँति पढ़ाने से पहले एक बार ग्रन्थ को फिर से देख लेते थे। इतना ही नहीं, वे पढ़ाते समय साथ में शब्दकोश आदि भी रखते थे और उसमें से एक शब्द के प्रयोगानुसार अनेक अर्थ बताकर साधकों की जिज्ञासा का समाधान करते थे। इससे साधकों को भी बहुत सन्तुष्टि एवं आनन्द प्राप्त होता था।

दिनांक 13 मार्च, 1964 को अजमेर में उन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। इसके बाद उन्हें श्रमण संघ के प्रशासनिक कार्यों की ओर भी ध्यान देना पड़ा। वे अनुशासन के मामले में बड़े कठोर थे; पर इसके पीछे भी व्यक्ति में सुधार की भावना रहती थी। गलती ठीक होते ही उनके मन और वाणी से प्रेम का झरना फूट पड़ता था। इस कारण सबके मन में उनके प्रति सदा आदरभाव बना रहता था।

आचार्यश्री के प्रवचन सरल भाषा में होते थे तथा वे बोधकथाओं द्वारा बात समझाते थे। इन प्रवचनों में सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की कामना होती थी। उन्हें श्रमण संघ के गौरव एवं प्रतिष्ठा से मोह था, पर पद से नहीं, अतः एक बार उन्होंने आचार्य पद छोड़ कर महामन्त्री का कार्य करना स्वीकार किया। शिक्षा, परीक्षा, दीक्षा और फिर भिक्षा का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए वे साधकों को लौकिक शिक्षा पूरी करने का भी आग्रह करते थे।

प्राचीन साहित्य के संरक्षण और नवीन साहित्य के निर्माण के प्रति उनका बहुत आग्रह था। उनकी प्रेरणा से अनेक ज्ञान भण्डार स्थापित किये गये। 29 नवम्बर, 1989 को उनका दीक्षा अमृत महोत्सव मनाया गया और उन्हें राष्ट्रसन्तकी उपाधि दी गयी। 28 मार्च, 1992 को अहमदनगर में ही उनका देहान्त हुआ। साहित्य के प्रति उनके प्रेम को देखते हुए उनकी स्मृति में अनेक साहित्यकारों को प्रतिवर्ष सम्मानित किया जाता है।
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27 जुलाई/बलिदान-दिवस

वीर बालक शान्तिप्रकाश का बलिदान

देश की आजादी के लिए हजारों वीर पुरुषों, माताओं, बहिनों और नवयुवकों ने बलिदान दिया। इनमें से ही एक था 18 वर्षीय वीर बालक शान्तिप्रकाश, जिसने इस यज्ञ में 27 जुलाई, 1939 को प्राणाहुति दी। इसका जन्म ग्राम कलानौर अकबरी (जिला गुरदासपुर, पंजाब) में हुआ था।

यों तो सत्याग्रहियों और क्रान्तिकारियों पर पूरे देश में अत्याचार होते थे; पर हैदराबाद रियासत की बात ही निराली थी। वहाँ का निजाम मुस्लिम लीगी था। उसके गुर्गे सामान्य दिनों में भी हिन्दुओं पर बहुत अत्याचार करते थे। कोई मठ, मन्दिर वहाँ सुरक्षित नहीं था। 

निजाम की इच्छा थी कि देश स्वतन्त्र न हो। यदि हो, तो हैदराबाद रियासत को स्वतन्त्र रहने या पाकिस्तान के साथ जाने की छूट मिले। अंग्रेजों ने भी उसे खुली छूट दे रखी थी। ऐसे में स्थानीय हिन्दुओं ने निजाम के विरुद्ध आन्दोलन किया। आर्य समाज के नेतृत्व में देश भर से सत्याग्रही हैदराबाद आने लगे। उनमें में वीर बालक शान्तिप्रकाश भी था।

प्रायः जेलों में गुण्डे और चोर ही होते हैं। जेलर इनसे गाली और मारपीट से ही बात करते हैं; पर हैदराबाद की जेल में अब जो लोग आये, वे सम्पन्न, शिक्षित और प्रतिष्ठित लोग थे। अतः उनसे मारपीट करना बहुत कठिन था। वे किसी सुविधा या न्यायालय में जमानत के लिए भी अनुरोध नहीं करते थे।

ऐसे में जेलर ने सोचा कि इनसे क्षमापत्र लिखवा कर इन्हें छोड़ दिया जाये; पर कोई सत्याग्रही इसके लिए तैयार नहीं था। अतः जेलर ने पुराना तरीका अपनाया। बन्दियों को जूतों, डण्डों, लोहे की चेन से पीटा जाता। भरी दोपहर में उनसे भारी पत्थर ढुलवाये जाते। लोहे की पतली तार के सहारे गहरे कुएँ से बड़े डोल से पानी खिंचवाया जाता। इससे हाथ कट जाते थे। दोपहर 12 बजे से चार बजे तक धूप में नंगे सिर और पाँव खड़ा कर दिया जाता। बेहोश होने पर क्षमापत्र पर उनके अंगूठे लगवा लिये जाते। इससे बन्दियों की संख्या घटने लगी और सत्याग्रह की बदनामी होने लगी।

शान्तिप्रकाश का कोमल शरीर यह अत्याचार सहन नहीं कर पाया, उसने चारपाई पकड़ ली। इलाज के अभाव में जब उसकी हालत बिगड़ गयी, तो उसके घर तार से सूचना भेजी गयी। उसके पिता श्री रामरत्न शर्मा दौड़े-दौड़े हैदराबाद आये। पुत्र की हालत देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गये।

शान्ति ने इस अवस्था में भी उन्हें धैर्य बँधाया और माँ तथा अन्य परिजनों का हाल पूछा। जेलर ने देखा कि यह अच्छा मौका है, उसने शान्ति के पिता से कहा कि यदि आप चाहें, तो आपका बेटा बच सकता है। बस, यह क्षमापत्र भर दे, तो आज ही इसकी रिहाई हो सकती है; पर शान्ति को दृढ़ता के संस्कार पिता से ही तो मिले थे। उन्होंने भी मना कर दिया। शान्ति ने सन्तुष्टि के साथ मुस्कुराते हुए पिता की गोदी में सिर रखा और प्राण त्याग दिये।

इस घटना के कुछ वर्ष बाद लोगों ने देखा गुरदासपुर से बटाला जाने वाले मार्ग पर एक साधु ने डेरा लगाया। वह दिन भर पतले लोहे के तार से बड़े डोल में कुएँ से पानी खींचकर आते-जाते लोगों को पिलाता था। प्याऊ के बाहर सूचना लिखी थी कि यहाँ कोई किसी को गाली न दे। लोगों का अनुमान था कि यह वही क्रूर जेलर है, जिसके अत्याचारों से पीड़ित होकर शान्तिप्रकाश का देहान्त हुआ था। उसके बलिदान ने जेलर का मन बदल दिया और वह नौकरी छोड़कर सेवा में लग गया।
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27 जुलाई/जन्म-दिवस

सरसंघचालकों के पत्रलेखक बाबूराव चौथाइवाले
श्री कृष्णराव एवं श्रीमती इंदिरा के सबसे बड़े पुत्र मुरलीधर कृष्णराव (बाबूराव) चौथाइवाले का जन्म 27 जुलाई,  1922 को बारसी (जिला सोलापुर, महाराष्ट्र) में हुआ था। यह परिवार मूलतः यहीं का निवासी था; पर बाबूराव के पिता पहले कलमेश्वर और फिर नागपुर में अध्यापक रहे। बाबूराव के छह में से तीन भाई (शरदराव, शशिकांत तथा अरविन्द चौथाइवाले) प्रचारक बने। 

जिन दिनों वे कक्षा नौ में पढ़ते थे, तब कलमेश्वर में डा. हेडगेवार आये। उन्होंने सबसे संघ की प्रतिज्ञा लेने को कहा। बाबूराव ने इसके लिए पिताजी से पूछा। पिताजी यद्यपि स्वयंसेवक नहीं थे; पर डा. हेडगेवार तथा वीर सावरकर के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। अतः उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी।

कक्षा 12 उत्तीर्ण कर बाबूराव दो वर्ष छिन्दवाड़ा में प्रचारक रहे। इसके बाद नागपुर में अध्यापन करते हुए क्रमशः बी.ए, बी.एड तथा एम.ए पूर्ण किया। छात्र जीवन में ही वे तृतीय वर्ष कर चुके थे। पूणे, तुम्कूर तथा फगवाड़ा के संघ शिक्षा वर्गों में वे मुख्यशिक्षक होकर भी गये। 1948 के प्रतिबंध में बाबूराव ने भूमिगत रहते हुए सत्याग्रह का संचालन किया। 1975 में प्रतिबंध लगते ही उन्होंने श्री गुरुजी के व्यक्तिगत सामान (पत्र, कमंडल आदि) को सुरक्षित रखने की व्यवस्था की। इसके बाद वे जेल गये और प्रतिबंध समाप्ति तक मीसा में बंद रहे। 

बाबूराव का घर नागपुर में महाल संघ कार्यालय के पास ही था। 1954 से वे सरसंघचालक श्री गुरुजी के पत्र-व्यवहार संभालने लगे। वे आने वाले हर पत्र पर दिनांक डालकर प्राप्ति की सूचना देते थे। श्री गुरुजी जो भी पत्र लिखते, बाबूराव एक रजिस्टर में उसकी हस्त-प्रतिलिपि तैयार करते थे। ऐसे लगभग 11,000 पत्रों की प्रतिलिपि से पत्ररूप श्री गुरुजीग्रन्थ बनाया गया।

जहां श्री गुरुजी हर पत्र का उत्तर स्वयं लिखते थे, वहां तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब बाबूराव को उसका उत्तर बता देते थे। फिर बाबूराव ही उसे लिखते थे। बालासाहब विजयादशमी या अन्य महत्वपूर्ण भाषणों की विषय वस्तु भी उन्हें बताते थे। बाबूराव उसे भी लिखकर उन्हें दे देते थे।

श्री गुरुजी के प्रति बाबूराव के मन में दैवत्व का भाव था। गुरुजी और फिर बालासाहब के नागपुर निवास के समय वे कार्यालय से ही विद्यालय आते-जाते थे। बाकी दिनों में भी वे विद्यालय से सीधे कार्यालय आकर रात में ही घर जाते थे। श्री गुरुजी उनके घर को अपना दूसरा घर मानते थे। जब उन्हें कुछ विशेष चीज खाने की इच्छा होती थी, तो वे समाचार भेजकर उनके घर पर वह बनवा लेते थे। इस प्रकार बाबूराव और श्री गुरुजी एकात्मरूप थे।

डा. आबाजी थत्ते की बीमारी के दौरान उन्होंने कुछ समय श्री गुरुजी के साथ प्रवास भी किया था। बालासाहब के देहांत के बाद उन्होंने मेरे देखे हुए श्री बालासाहब देवरसपुस्तक लिखी। सबकी इच्छा थी कि वे श्री गुरुजी पर भी एक पुस्तक लिखें। अतः उन्होंने प्रवास कर बहुत सी महत्वपूर्ण सामग्री एकत्र की; पर जब वे अपने पुत्र के घर संभाजीनगर (औरंगाबाद) में इसे लिखने बैठे, तो दो अध्याय लिखने के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और चार फरवरी, 1996 को वे चल बसे। आगे चलकर जब श्री रंगाहरि ने श्री गुरुजी पर पुस्तक लिखी, तो उसमें बाबूराव द्वारा एकत्रित सामग्री का भरपूर उपयोग किया।
(संदर्भ   : नागपुर में शरदराव चौथाइवाले से वार्ता)
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27 जुलाई/जन्म-दिवस

आत्मीयता के प्रतिरूप कृष्णचन्द्र भार्गव
श्री कृष्णचंद्र भार्गव (भैया जी) का जन्म 27 जुलाई, 1926 को अजमेर (राजस्थान) में श्री कन्हैयालाल भार्गव के घर में हुआ था। वे हॉकी, फुटबॉल तथा क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे; पर जब उनके कई साथी शाखा जाने लगे, तो 1941 में वे भी संघ की ओर आकर्षित हो गये। वे एक सम्पन्न, शिक्षित एवं प्रतिष्ठित परिवार में जन्मे थे। उनके बड़े भाई पुलिस विभाग में डी.एस.पी. थे। इस पद पर उन दिनों प्रायः अंग्रेज ही होते थे। 

भैया जी ने 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ोआंदोलन में भाग लिया। उसके बाद 1943, 44 और फिर 1946 में संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण प्राप्त कर वे प्रचारक बने। सर्वप्रथम उन्हें बीकानेर में जिला प्रचारक बनाया गया। उस समय श्री सुंदर सिंह भंडारी वहां विभाग प्रचारक थे। उन्होंने 20 रु. में एक साइकिल खरीदी, जिससे भैया जी पूरे जिले का प्रवास करते थे।

1947 में उन्हें जोधपुर भेजा गया। गांधी जी की हत्या के बाद 1948 में लगे प्रतिबन्ध के समय वे 17 मास बीकानेर जेल में बंद रहे। जेल में उन्हें अपराधियों जैसा भोजन मिलता था। कई बार जेलर से शिकायत करने पर उन्हें राजनीतिक बन्दी की मान्यता मिली और भोजन व्यवस्था ठीक हुई।

प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद वे क्रमशः चुरू जिला, अजमेर विभाग और फिर जोधपुर विभाग प्रचारक बनाये गये। कुछ समय वे असम में भी रहे; पर वहां की नम जलवायु से उनके घुटनों में कष्ट होने लगा, अतः उन्हें फिर राजस्थान में ही भेज दिया गया। उस समय लोग संघ वालों को गांधी जी का हत्यारा मानकर खराब दृष्टि से देखते थे। अतः अर्थाभाव के साथ ही भोजन, आवास और प्रवास की भी कठिनाई थी। ऐसे में भैया जी विभाग प्रचारक रहते हुए भी कई बार साइकिल से प्रवास करते थे। 

1952 में गोरक्षा के लिए हुए हस्ताक्षर अभियान में उन्होंने कार्यकर्ताओं के साथ पुष्कर के प्रसिद्ध मेले में एक प्रदर्शनी लगाई। कुछ दिन बाद सरकार के विरोध के कारण प्रदर्शनी तो हटानी पड़ी; पर तब तक लाखों लोगों ने वहां आकर हस्ताक्षर कर दिये थे।

केवल रात में ही भोजन करने वाले भैया जी अच्छे गायक, दंड के श्रेष्ठ शिक्षक, कुशल वंशीवादक और चित्रकार भी थेे। घरों में भोजन करते समय वे पूरे परिवार के साथ बैठकर खाना खाते थे। वे होली पर रंग नहीं खेलते थे। उस दिन वे कहीं एकांत में चले जाते थे और एक रंगीन चित्र बनाकर किसी कार्यकर्ता को भेंट कर देते थे। वे समाज के सब लोगों से संपर्क रखते थे। 1956 में श्री गुरुजी के 51 वें जन्मदिन पर एकत्र हुई श्रद्धा निधि के लिए वे कांग्रेसी सांसद मुकुट बिहारी भार्गव से भी धन ले आये।

1975 के प्रतिबन्ध काल में कुछ समय तो वे भूमिगत रहे; पर एक दिन मौलवी के वेश में घूमते हुए पुलिस ने उन्हें पहचान लिया और मीसा में बंद कर दिया। प्रतिबन्ध हटने पर उन्हें राजस्थान का सहप्रान्त प्रचारक और 1987 में प्रान्त प्रचारक बनाया गया। 1992 में राजस्थान को तीन प्रान्तों में बांटकर क्षेत्र बनाया गया। भैया जी इसके पहले क्षेत्र प्रचारक बने।

भैया जी का जीवन बहुत साधारण था। मिलट्री रंग के एक थैले में उनका सब सामान आ जाता था। उसमें एक तामचीनी का मग लटका रहता था, जिस पर सिर रखकर वे रात में सो भी जाते थे। उनसे मिलने वाला हर व्यक्ति उनके आत्मीय व्यवहार का ऋणी हो जाता था। 1998 में उन्हें क्षेत्र सेवा प्रमुख और फिर 1999 में क्षेत्र प्रचारक प्रमुख बनाया गया। वृद्धावस्था संबंधी रोगों के कारण 14 मई, 2011 को जोधपुर के एक चिकित्सालय में उनका निधन हुआ।  
(संदर्भ   : पाथेय कण एवं अभिलेखागार, भारती भवन, जयपुर)
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28 जुलाई/जन्म-दिवस

विश्व हिन्दू परिषद और केशवराम शास्त्री
गुजरात में 'विश्व हिन्दू परिषद' के पर्याय बने श्री केशवराम शास्त्री का जन्म 28 जुलाई, 1905 को हुआ था। उनके पिता का नाम श्री काशीराम था। धार्मिक परिवार में जन्म लेने के कारण शास्त्री जी को बालपन से ही हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अध्ययन में विशेष आनन्द मिलता था। वे अद्भुत मेधा के धनी थे। उन्होंने सैकड़ों ग्रन्थों की रचना की। संयमित जीवन, सन्तुलित भोजन और नियमित दिनचर्या के बल पर वे 102 वर्ष तक सक्रिय रह सके।

1964 की जन्माष्टमी पर मुम्बई के सान्दीपनी आश्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी और हिन्दू समाज के अनेक मत-पन्थों के विद्वानों एवं धर्मगुरुओं की उपस्थिति में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई। श्री केशवराम शास्त्री वहाँ उपस्थित थे। परिषद की स्थापना की घोषणा होते ही उन्होंने गुजरात प्रदेश विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना की और अपना जीवन इसके लिए समर्पित कर दिया।

अपने घर आकर वे गुजरात में विश्व हिन्दू परिषद को सबल बनाने में लग गये। इसके लिए उन्होंने गुजराती भाषा में विश्व हिन्दू समाचारनामक पत्र निकाला। 26 वर्ष तक वे उसके सम्पादक रहे। वे कहते थे कि मैं मूलतः साहित्यिक जीव हूँ। लेखन मेरा मुख्य कार्य है। इसलिए यह पत्र मेरी गोद ली हुई सन्तान है। उसका काम दूसरे कार्यकर्त्ता को सौंपने के बाद भी वे उसके लिए लगातार लिखते रहे और उसके प्रकाशन की चिन्ता करते रहे।

परिषद के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन की चर्चा होने पर शास्त्री जी ने उसे गुजरात में करने का प्रस्ताव दिया। उनके आग्रह पर सिद्धपुर में यह अधिवेशन सम्पन्न हुआ। उन्होंने अपने संगठन कौशल के बल पर गुजरात में परिषद का मजबूत तन्त्र खड़ा किया। 7,000 गाँवों में परिषद की समितियाँ उनके सामने खड़ी हो गयीं थीं। सेवा कार्यों पर भी उनका बहुत जोर था। वनवासी क्षेत्र हो या नगरों के निर्धन हिन्दू परिवार; सबके बीच में शिक्षा और चिकित्सा के अनेक प्रकल्प उन्होंने प्रारम्भ कराये। इससे ईसाई मिशनरियों द्वारा स॰चालित धर्मान्तरण के षड्यन्त्रों पर रोक लगी और परावर्तन का क्रम प्रारम्भ हुआ।

शास्त्री जी का सब कार्यकर्ताओं से आग्रह रहता था कि वे संगठन के विस्तार के लिए समय दें। वे स्वयं प्रवास तो करते ही थे; पर प्रतिदिन शाम को चार से पाँच बजे तक विश्व हिन्दू परिषद कार्यालय पर अवश्य आते थे। अस्वस्थ होने पर कार्यकर्त्ताओं को अपने घर बुलाकर उनसे संगठन सम्बन्धी बात करते रहते थे। स्वर्गवास से दो दिन पूर्व उन्होंने कहा था कि यदि मैं खड़ा हो सका, तो सबसे पहले परिषद कार्यालय पर जाना चाहूँगा।

जब वे 75 वर्ष के हुए, तो गुजरात विश्व हिन्दू परिषद ने उनका अमृत महोत्सवमनाया और उनके शतायु होने की कामना की। शास्त्री जी ने अपने अभिनन्दन के प्रत्युत्तर में कहा - "परिषद के विविध कार्य और सेवा प्रकल्प ही मुझमें प्राणबल की पूर्ति करते हैं। जीना है तो इसी ध्येय के लिए जीना, ऐसी हृदय में दृढ़ता है और परमात्मा इसे पूरा करेंगे, ऐसी मेरी आत्मश्रद्धा है।"

छह दिसम्बर, 1992 को बाबरी ढाँचा गिरने पर वे गिरफ्तार कर लिये गये। उन्होंने घोर वृद्धावस्था में भी जेल जाना स्वीकार किया; पर झुकना नहीं। ऐसे समर्पित कार्यकर्त्ता ने नौ सितम्बर, 2006 को अपने जीवनकार्य को विराम दिया। उनकी इच्छानुसार उनके पार्थिव शरीर को विश्व हिन्दू परिषद कार्यालय लाया गया। इसके बाद ही उनका अन्तिम संस्कार हुआ।
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28 जुलाई/इतिहास-स्मृति

त्रिपुरा के बलिदानी स्वयंसेवक

विश्व भर में फैले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करोड़ों स्वयंसेवकों के लिए 28 जुलाई, 2001 एक काला दिन सिद्ध हुआ। इस दिन भारत सरकार ने संघ के उन चार वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की मृत्यु की विधिवत घोषणा कर दी, जिनका अपहरण छह अगस्त, 1999 को त्रिपुरा राज्य में कंचनपुर स्थित ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के एक छात्रावास से चर्च प्रेरित आतंकियों ने किया था। 
इनमें सबसे वरिष्ठ थे 68 वर्षीय श्री श्यामलकांति सेनगुप्ता। उनका जन्म ग्राम सुपातला (तहसील करीमगंज, जिला श्रीहट्ट, वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था। श्री सुशीलचंद्र सेनगुप्ता के पांच पुत्रों में श्री श्यामलकांति सबसे बड़े थे। विभाजन के बाद उनका परिवार असम के सिलचर में आकर बस गया। 

मैट्रिक की पढ़ाई करते समय सिलचर में प्रचारक श्री वसंतराव, एक अन्य कार्यकर्ता श्री कवीन्द्र पुरकायस्थ तथा उत्तर पूर्व विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक श्री उमारंजन चक्रवर्ती के संपर्क से वे स्वयंसेवक बने। 

मैट्रिक करते हुए ही उनके पिताजी का देहांत हो गया। घर की जिम्मेदारी कंधे पर आ जाने से उन्होंने नौकरी करते हुए एम.काॅम. तक की शिक्षा पूर्ण की। इसके बाद उन्होंने डिब्रूगढ़ तथा शिवसागर में जीवन बीमा निगम में नौकरी की। 1965 में वे कोलकाता आ गये। 1968 में उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। इससे उन्हें तीन पुत्र एवं एक कन्या की प्राप्ति हुई। नौकरी के साथ वे संघ कार्य में भी सक्रिय रहे। 1992 में नौकरी से अवकाश लेकर वे पूरा समय संघ कार्य में लगाने लगे। वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने उनकी योग्यता तथा अनुभव देखकर उन्हें क्षेत्र कार्यवाह का दायित्व दिया।

दूसरे कार्यकर्ता श्री दीनेन्द्र डे का जन्म 1953 में उलटाडांगा में हुआ था। उनके पिता श्री देवेन्द्रनाथ डे डाक विभाग में कर्मचारी थे। आगे चलकर यह परिवार सोनारपुर में बस गया। 1963 में यहां की ‘बैकुंठ शाखा’ में वे स्वयंसेवक बने। यहां से ही उन्होंने 1971 में उच्च माध्यमिक उत्तीर्ण किया। 

‘डायमंड हार्बर फकीरचंद काॅलिज’ से गणित (आॅनर्स) में पढ़ते समय उनकी संघ से निकटता बढ़ी और वे विद्यार्थी विस्तारक बन गये। क्रमशः उन्होंने संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। प्रचारक के रूप में वे ब्रह्मपुर नगर प्रचारक, मुर्शिदाबाद सह जिला प्रचारक, कूचबिहार, बांकुड़ा तथा मेदिनीपुर में जिला प्रचारक रहे। इसके बाद वे विभाग प्रचारक, प्रांतीय शारीरिक प्रमुख रहते हुए वनवासियों के बीच सेवा कार्यों में भी संलग्न रहे।
51 वर्षीय श्री सुधामय दत्त मेदिनीपुर शाखा के स्वयंसेवक थे। स्नातक शिक्षा पाकर वे प्रचारक बने। पहले वे हुगली जिले में चूंचड़ा नगर प्रचारक और फिर मालदा के जिला प्रचारक बनाये गये। कुछ समय तक उन पर बंगाल के सेवाकार्यों की भी जिम्मेदारी रही। इसके बाद पत्रकारिता में उनकी रुचि देखकर उन्हें कोलकाता से प्रकाशित हो रहे साप्ताहिक पत्र ‘स्वस्तिका’ का प्रबन्धक बनाया गया। अपहरण के समय वे अगरतला में विभाग प्रचारक थे। 


बंगाल में 24 परगना जिले के स्वयंसेवक, 38 वर्षीय श्री शुभंकर चक्रवर्ती इनमें सबसे युवा कार्यकर्ता थे। एल.एल.बी. की परीक्षा देकर वे प्रचारक बने। वर्धमान जिले के कालना तथा कारोयात में काम करने के बाद उन्हें त्रिपुरा भेजा गया। इन दिनों वे त्रिपुरा में धर्मनगर जिले के प्रचारक थे। 

इन सबकी मृत्यु की सूचना स्वयंसेवकों के लिए तो हृदय विदारक थी ही; पर उनके परिजनों का कष्ट तो इससे कहीं अधिक था, जो आज तक भी समाप्त नहीं हुआ। चूंकि इन चारों की मृत देह नहीं मिली, अतः उनका विधिवत अंतिम संस्कार तथा मृत्यु के बाद की क्रियाएं भी नहीं हो सकीं।


(संदर्भ : राष्ट्रधर्म सितम्बर 2001/कोलकाता से प्रकाशित सेवा की आड़ में चर्च का षड्यंत्र)
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29 जुलाई/पुण्य-तिथि

सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत   : ईश्वरचंद्र विद्यासागर

भारत में 19वीं शती में जिन लोगों ने सामाजिक परिवर्त्तन में बड़ी भूमिका निभाई, उनमें श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका जन्म 26 सितम्बर, 1820 को ग्राम वीरसिंह (जिला मेदिनीपुर, बंगाल) में हुआ था। धार्मिक परिवार होने के कारण इन्हें अच्छे संस्कार मिले।

नौ वर्ष की अवस्था में ये संस्कृत विद्यालय में प्रविष्ट हुए और अगले 13 वर्ष तक वहीं रहे। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; अतः खर्च निकालने के लिए इन्होंने दूसरों के घरों में भोजन बनाया और बर्तन साफ किये। रात में सड़क पर जलने वाले लैम्प के नीचे बैठकर ये पढ़ा करते थे। इस कठिन साधना का यह परिणाम हुआ कि इन्हें संस्कृत की प्रतिष्ठित उपाधि विद्यासागरप्राप्त हुई।

1841 में वे कोलकाता के फोर्ट विलियम कालेज में पढ़ाने लगे। 1847 में वे संस्कृत महाविद्यालय में सहायक सचिव और फिर प्राचार्य बने। वे शिक्षा में विद्यासागर और स्वभाव में दया के सागर थे। एक बार उन्होंने देखा कि मार्ग में एक वृद्ध और असहाय महिला पड़ी है। उसके शरीर से दुर्गन्ध आ रही थी। लोग उसे देखकर मुँह फेर रहे थे; पर ईश्वरचन्द्र जी उसे उठाकर घर ले आये। उसकी सेवा की और उसके भावी जीवन का भी प्रबन्ध किया।

ईश्वरचन्द्र जी अपनी माता के बड़े भक्त थे। वे उनका आदेश कभी नहीं टालते थे। एक बार उन्हें माँ का पत्र मिला, जिसमें छोटे भाई के विवाह के लिए घर आने का आग्रह किया था। उन दिनों वे कोलकाता के सेण्ट्रल कालेज में प्राचार्य थे। उन्होंने प्रबन्धक से अवकाश माँगा; पर उसने मना कर दिया। इस पर ईश्वरचन्द्र जी ने अपना त्यागपत्र लिखकर उनके सामने रख दिया। विवश होकर प्रबन्धक महोदय को अवकाश स्वीकृत करना पड़ा।

जिन दिनों महर्षि दयानन्द सरस्वती बंगाल में प्रवास पर थे, तब ईश्वरचन्द्र जी ने उनके विचारों को सुना। वे उनसे बहुत प्रभावित हुए। उन दिनों बंगाल में विधवा नारियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। बाल-विवाह और बीमारी के कारण बाल विधवाओं का शेष जीवन बहुत कष्ट और उपेक्षा में बीतता था। ऐसे में ईश्वरचन्द्र जी ने नारी उत्थान के लिए प्रयास करने का संकल्प लिया।

उन्होंने धर्मग्रन्थों के द्वारा विधवा-विवाह को शास्त्र सम्मत सिद्ध किया। वे पूछते थे कि यदि विधुर पुनर्विवाह कर सकता है, तो विधवा क्यों नहीं कर सकती ? उनके प्रयास से 26 जुलाई, 1856 को विधवा विवाह अधिनियम को गर्वनर जनरल ने स्वीकृति दे दी। उनकी उपस्थिति में 7 दिसम्बर, 1856 को उनके मित्र राजकृष्ण बनर्जी के घर पर पहला विधवा विवाह सम्पन्न हुआ।

इससे बंगाल के परम्परावादी लोगों में हड़कम्प मच गया। ऐसे लोगों ने उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया। उन पर तरह-तरह के आरोप लगाये गये; पर वे शान्त भाव से अपने काम में लगे रहे। बंगाल की एक अन्य महान विभूति श्री रामकृष्ण परमहंस भी उनके समर्थकों में थे। ईश्वरचन्द्र जी ने स्त्री शिक्षा का भी प्रबल समर्थन किया। उन दिनों बंगाल में राजा राममोहन राय सती प्रथा के विरोध में काम कर रहे थे। ईश्वरचन्द्र जी ने उनका भी साथ दिया और फिर इसके निषेध को भी शासकीय स्वीकृति प्राप्त हुई।

नारी शिक्षा और उत्थान के प्रबल पक्षकार श्री ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का हृदय रोग से 29 जुलाई, 1891 को देहान्त हो गया। भारतीय स्त्री समाज उनका चिर ऋणी रहेगा।
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29 जुलाई/पुण्य-तिथि

साहसी व दिलेर सूर्यप्रकाश जी
श्री सूर्यप्रकाश जी मूलतः पंजाब के स्वयंसेवक थे। विभाजन के बाद उनके परिजन दिल्ली आ गये। 1949 में वे राजस्थान में प्रचारक के रूप में आये। 1949 से 59 तक वे बीकानेर विभाग में तथा फिर 1971 तक कोटा विभाग में प्रचारक रहे। सब लोग उन्हें सूरज जी भाई साहबकहते थे।

जब वे कोटा में प्रचारक होकर आये, तो वहां केवल 25 शाखा थीं; पर उनके परिश्रम से कोटा देश में सर्वाधिक 300 शाखाओं वाला जिला हो गया। उन्होंने काम के लिए अध्यापकों तथा छात्रावासों को आधार बनाया। इन छात्रों को वे छुट्टियों में निकटवर्ती गांवों में शाखा विस्तार के लिए भेजते थे। उन्होंने कोटा में रात्रि शाखाएं प्रारम्भ कीं। कार्यकर्ता ध्वज और ध्वज दंड के साथ लालटेन भी लेकर जाते थे। बाद में रात्रि शाखा का यह प्रयोग पूरे देश में प्रचलित हुआ। उन्होंने मिल के मजदूरों में भी शाखाएं लगाईं।

उन दिनों संघ के पास साधनों का अभाव था। ऐसे में पैदल या साइकिल से प्रवास कर उन्होंने शाखाओं का जाल बिछाया। वे जहां रहे, वहां की स्थानीय भाषा-बोली में ही बोलते थे। इससे कार्यकर्ताओं में वे शीघ्र ही लोकप्रिय हो जाते थे। आम लोग भी उन्हें अपने बीच का ही व्यक्ति समझते थे। वे अति परिश्रमी, तेजस्वी वक्ता तथा हिसाब-किताब के मामले में बहुत कठोर थे। उन दिनों कार्यकर्ताओं से संपर्क का माध्यम पत्राचार ही था। रात में पत्र लिखते-लिखते जब हाथ से कलम गिरने लगती थी, तभी वे सोते थे।

जिस समय सूरज जी राजस्थान आये, तो अनेक स्थानों पर मुसलमानों का आतंक व्याप्त था। वे कोटा में हिन्दुओं की डोल यात्राओं पर प्रायः हमला करते थे। मथुराधीश मंदिर में जाने वाली महिलाओं को वे छेड़ते थे। सूरज जी बहुत दिलेर और साहसी व्यक्ति थे। उन्होंने अखाड़े में व्यायाम तथा शस्त्राभ्यास करने वाले सभी जाति के हिन्दू युवकों से संपर्क कर गुंडों की खूब ठुकाई की। इससे डोल यात्रा तथा कोटा के दशहरे मेले की व्यवस्था ठीक हो गयी। कोटा के गुंडे उनके नाम से ही डरने लगे।

सूरज जी ने संघ कार्य के साथ ही अन्य कार्यों को भी ऊर्जा प्रदान की। 1966 में प्रयाग में हुए प्रथम 'विश्व हिन्दू सम्मेलन' में कोटा से बड़ी संख्या में कार्यकर्ता गये। इसी वर्ष दिल्ली में गोरक्षा के लिए हुए प्रदर्शन में भी कोटा की अच्छी सहभागिता रही। इसके बाद उन्होंने कोटा में विश्व हिन्दू परिषद का सम्मेलन कराया। इसमें पूज्य स्वामी सत्यमित्रानंद जी, हाड़ोती के राणा, कोटा के महाराज कुमार ब्रजराज सिंह जैसे प्रसिद्ध लोग आये।

उन्होंने 'भारतीय किसान संघ' का पहला प्रांतीय अधिवेशन भी कोटा में कराया। 'विद्यार्थी परिषद' और 'भारतीय मजदूर संघ' के लिए भी उनके प्रयास उल्लेखनीय हैं। उनके तैयार किये हुए अनेक कार्यकर्ता आगे चलकर संघ, राजनीति तथा समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में प्रसिद्ध हुए।

ऐसे श्रेष्ठ कार्यकर्ता सूरज जी गले के कैंसर से पीड़ित हो गये। इससे उन्हें बोलने में बहुत कष्ट होने लगा। मुंबई में अंग्रेजी तथा फिर जयपुर के पास चोमू ग्राम में एक प्रसिद्ध वैद्य से आयुर्वेदिक उपचार कराया गया; पर विधि के विधान के अनुसार 29 जुलाई, 1973 में उनका देहांत हो गया।

सूरज जी ने कोटा में एक भूमि ली थी। उनके देहांत के बाद वहां संघ कार्यालय का निर्माण कराया गया। उसका नाम सूरज भवनरखा गया है। वह भवन उनके कर्तत्व, साहस एवं शौर्य की याद दिलाता रहता है।    
(संदर्भ  : अभिलेखागार, भारती भवन जयपुर/श्री मोहन जोशी)
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30 जुलाई/जन्म-दिवस

भोजपुरी साहित्याकाश के नक्षत्र चन्द्रशेखर मिश्र

भारत में सैकड़ों भाषाएं तथा उनके अन्तर्गत हजारों बोलियां व उपबोलियां प्रचलित हैं। हिन्दी की ऐसी ही एक बोली भोजपुरी है, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के बड़े भाग में बोली जाती है। अपने व्यापक प्रभाव के कारण अनेक साहित्यकार तथा राजनेता इसे अलग भाषा मानने का आग्रह करते हैं।

भोजपुरी के श्रेष्ठ साहित्यकार श्री चंद्रशेखर मिश्र का जन्म 30 जुलाई, 1930 को ग्राम मिश्रधाम (जिला मिर्जापुर, उ.प्र.) में हुआ था। गांव में अपने माता-पिता तथा अन्य लोगों से भोजपुरी लोकगीत व लोककथाएं सुनकर उनके मन में भी साहित्य के बीज अंकुरित हो गये। कुछ समय बाद उन्होंने कविता लेखन को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।

भोजपुरी काव्य मुख्यतः श्रृंगार प्रधान है। इस चक्कर में कभी-कभी तो यह अश्लीलता की सीमाओं को भी पार कर जाता है। होली के अवसर पर बजने वाले गीत इसके प्रमाण हैं। इसके कारण भोजपुरी लोककाव्य को कई बार हीन दृष्टि से देखा जाता है। चंद्रशेखर मिश्र इससे व्यथित थे। उन्होंने दूसरों से कहने की बजाय स्वयं ही इस धारा को बदलने का निश्चय किया।

चंद्रशेखर मिश्र ने स्वाधीनता के समर में भाग लेकर कारावास का गौरव पाया था। अतः सर्वप्रथम उन्होंने वीर रस की कविताएं लिखीं। गांव की चौपाल से आगे बढ़ते हुए जब ये वाराणसी और फिर राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में पहुंचीं, तो इनका व्यापक स्वागत हुआ। राष्ट्रीयता के उभार के साथ ही भाई और बहिन के प्रेम को भी उन्होंने अपने काव्य में प्रमुखता से स्थान दिया।

उनके लेखन का उद्देश्य था कि हर व्यक्ति अपनी तथा अपने राष्ट्र की शक्ति को पहचाकर उसे जगाने के लिए परिश्रम करे। राष्ट्र और व्यक्ति का उत्थान एक-दूसरे पर आश्रित है। उन्होंने 1857 के प्रसिद्ध क्रांतिवीर कुंवर सिंह पर एक खंड काव्य लिखा। इससे उनकी लोकप्रियता में चार चांद लग गये। कवि सम्मेलनों में लोग आग्रहपूर्वक इसके अंश सुनते थे। इसे सुनकर लोगों का देशप्रेम हिलोरें लेने लगता था। युवक तो इसके दीवाने ही हो गये।

कुंवर सिंह की सफलता के बाद उन्होंने द्रौपदी, भीष्म, सीता, लोरिक चंद्र, गाते रूपक, देश के सच्चे सपूत, पहला सिपाही, आल्हा ऊदल, जाग्रत भारत, धीर, पुंडरीक, रोशनआरा जैसे काव्यों का सृजन किया। साहित्य की इस सेवा के लिए उन्हें राज्य सरकार तथा साहित्यिक संस्थाओं ने अनेक सम्मान एवं पुरस्कार दिये। मारीशस में भी भोजपुरी बोलने वालों की संख्या बहुत है। वहां के साहित्यकारों ने भी उन्हें विश्व सेतु सम्मानसे अलंकृत किया।

उनके काव्य की विशेषता यह थी कि उसे आम लोगों के साथ ही प्रबुद्ध लोगों से भी भरपूर प्रशंसा मिली। इस कारण उनकी अनेक रचनाएं विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाई जाती हैं। कवि सम्मेलन के मंचों से एक समय भोजपुरी लगभग समाप्त हो चली थी। ऐसे में चंद्रशेखर मिश्र ने उसकी रचनात्मक शक्ति को जीवित कर उसे फिर से जनमानस तक पहुंचाया।

17 अपै्रल, 2008 को 78 वर्ष की आयु में भोजपुरी साहित्याकाश के इस तेजस्वी नक्षत्र का अवसान हुआ। उनकी इच्छा थी कि उनके दाहसंस्कार के समय भी लोग भोजपुरी कविताएं बोलें। लोगों ने इसका सम्मान करते हुए वाराणसी के शमशान घाट पर उन्हें सदा के लिए विदा किया। 
(संदर्भ  : भारतीय वांगमय, वर्ष 9 अंक 5)
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31 जुलाई/जन्म-दिवस

उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का मूल नाम धनपतराय था। उनका जन्म ग्राम लमही (वाराणसी, उ.प्र.) में 31 जुलाई, 1880 को हुआ था। घर में उन्हें नवाब कहते थे। उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्र में मुस्लिम प्रभाव के कारण बोलचाल में प्रायः लोग उर्दू का प्रयोग करते थे। उन दिनों कई स्थानों पर पढ़ाई भी मदरसों में ही होती थी। इसीलिए 13 वर्ष की अवस्था तक वे उर्दू माध्यम से ही पढ़े। इसके बाद उन्होंने हिन्दी पढ़ना और लिखना सीखा।

1898 में कक्षा दस उत्तीर्ण कर वे चुनार में सरकारी अध्यापक बन गये। उन दिनों वहां एक गोरी पल्टन भी रहती थी। एक बार अंग्रेज दल और विद्यालय के दल का फुटब१ल मैच हो रहा था। विद्यालय वाले दल के जीतते ही छात्र उत्साहित होकर शोर करने लगे। इस पर एक गोरे सिपाही ने एक छात्र को लात मार दी। यह देखते ही धनपतराय ने मैदान की सीमा पर लगी झंडी उखाड़ी और उस सिपाही को पीटने लगे। यह देखकर छात्र भी मैदान में आ गये। छात्र और उनके अध्यापक का रोष देखकर अंग्रेज खिलाड़ी भाग खड़े हुए।

प्रेमचंद छुआछूत, ऊंचनीच, जातिभेद आदि के घोर विरोधी थे। अपनी पहली पत्नी के निधन के बाद उन्होंने एक बाल विधवा शिवरानी से पुनर्विवाह किया। वे बाल गंगाधर तिलक तथा गांधी जी से बहुत प्रभावित थे। युवकों में क्रांतिकारी चेतना का संचार करने के लिए उन्होंने इटली के स्वाधीनता सेनानी मैजिनी और गैरीबाल्डी तथा स्वामी विवेकानंद की छोटी जीवनियां लिखीं।

अध्यापन के साथ पढ़ाई करते हुए उन्होंने बी.ए कर लिया। अब उनकी नियुक्ति हमीरपुर में जिला विद्यालय उपनिरीक्षक के पद पर हो गयी। इस दौरान उन्होेंने देशभक्ति की अनेक कहानियां लिखकर उनका संकलन सोजे वतनके नाम से प्रकाशित कराया। इसमें उन्होंने अपना नाम नवाबरायलिखा था।

जब शासन को इसका पता लगा, तो उन्होंने नवाबराय को बुलवा भेजा। जिलाधीश ने उन्हें इसके लिए बहुत फटकारा और पुस्तक की सब प्रतियां जब्त कर जला दीं। जिलाधीश ने यह शर्त भी लगाई कि उनकी अनुमति के बिना अब वे कुछ नहीं लिखेंगे। नवाबराय लौट तो आये; पर बिना लिखे उन्हें चैन नहीं पड़ता था। अतः उन्होंने अपना लेखकीय नाम प्रेमचंदरख लिया।

प्रेमचंद अब तक उर्दू में लिखते थे; पर अब उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम हिन्दी को बनाया। उन्होंने अपने कमरे में क्रांतिवीर खुदीराम बोस का चित्र लगा लिया, जिसे कुछ दिन पूर्व ही फांसी दी गयी थी। उन दिनों रूस में समाजवादी क्रांति हुई थी। प्रेमचंद के मन पर उसका भी प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपने प्रेमाश्रमनामक उपन्यास में उसकी प्रशंसा की।

प्रेमचंद जनता को विदेशी शासकों के साथ ही जमींदार और पंडे-पुजारियों जैसे शोषकों से भी मुक्त कराना चाहते थे। वे स्वयं को इस स्वाधीनता संग्राम का एक सैनिक समझते थे, जिसके हाथ में बंदूक की जगह कलम है। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को आधार बनाकर कर्मभूमिनामक उपन्यास भी लिखा।

प्रेमचंद की रचनाओं में जन-मन की आकांक्षा प्रकट होती थी। आम बोलचाल की भाषा में होने के कारण उनकी कहानियां आज भी बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। उनके कई उपन्यासों पर फिल्म भी बनी हैं। सरल और संतोषी स्वभाव के प्रेमचंद का आठ अक्तूबर, 1936 को निधन हुआ। 
(संदर्भ  : केन्द्र भारती, अक्तूबर 2008)

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