24 जून/बलिदान-दिवस
महारानी दुर्गावती का बलिदान
महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की
एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में 1524 ई. की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के
अनुरूप ही तेज, साहस
और शौर्य के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी।
उनका विवाह गढ़ मंडला के प्रतापी राजा संग्राम शाह के पुत्र
दलपतशाह से हुआ। 52 गढ़ तथा 35,000 गांवों वाले गोंड साम्राज्य का क्षेत्रफल 67,500 वर्गमील था। यद्यपि दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी।
फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने उसे अपनी
पुत्रवधू बना लिया।
पर दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का
निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने
स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी
तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी
दासी के नाम पर चेरीताल, अपने
नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।
रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य उनके देवर सहित
कई लोगों की आंखों में चुभ रहा था। मालवा के शासक बाजबहादुर ने कई बार
हमला किया; पर हर
बार वह पराजित हुआ। अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना
चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी
(सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा।
रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व
में सेनाएं भेज दीं। आसफ खां गोंडवाना के उत्तर में कड़ा मानकपुर का सूबेदार था।
एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ; पर
अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय
बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा
स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 शत्रु सैनिक मारे गये। रानी की भी अपार क्षति हुई। रानी उसी दिन अंतिम
निर्णय कर लेना चाहती थीं। अतः भागती हुई मुगल सेना का पीछा करते हुए वे उस दुर्गम
क्षेत्र से बाहर निकल गयीं। तब तक रात घिर आयी। वर्षा होने से नाले में पानी भी भर
गया।
अगले दिन 24 जून, 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था। अतः रानी ने
अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा।
रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया। रानी ने इसे भी
निकाला; पर
उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।
रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि
वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे; पर वह इसके लिए तैयार
नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर
बढ़ गयीं। गढ़मंडला की इस जीत से अकबर को प्रचुर धन की प्राप्ति हुई। उसका ढहता
हुआ साम्राज्य फिर से जम गया। इस धन से उसने सेना एकत्र कर अगले तीन वर्ष में चित्तौड़
को भी जीता।
जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, वहां
रानी की समाधि बनी है। देशप्रेमी वहां जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
(संदर्भ :
दैनिक स्वदेश 24.6.2011)
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24 जून/जन्म-दिवस
इतिहासाचार्य विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े
भारत में जो इतिहास हम पढ़ते हैं, उसे विदेशी हमलावरों ने षड्यंत्रपूर्वक लिखवाया,
जिससे भारतवासी कभी स्वयं पर गर्व न कर सकें।
हमें पढ़ाया गया कि हिन्दू जातिभेदों में बंटा होने के कारण सदा पिटता रहा;
पर सत्य इसके उलट है। ऐसे तथ्ययुक्त इतिहास को
सामने लाने में जिन लोगों की बड़ी भूमिका रही, उनमें प्रख्यात लेखक और वक्ता विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े भी
एक थे। उनके काम को देखकर उन्हें ‘इतिहासाचार्य
राजवाड़े’ कहा जाता है।
राजवाड़े का जन्म 24 जून, 1863 को महाराष्ट्र
के रायगढ़ जिले में स्थित गांव बरसई में हुआ था। जब वे केवल तीन साल के थे,
तो उनके पिताजी का देहांत हो गया। अतः उनका
पालन बड़गांव में उनके चाचा के पास हुआ। पुणे के शनिवार पेठ की पाठशाला में उनका
प्राथमिक शिक्षण हुआ। 1882 में उन्होंने
मैट्रिक पास किया। इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने मुंबई के एल्फिंस्टन काॅलेज
में प्रवेश लिया; पर धनाभाव में वे
अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सके। इसके बावजूद उन्होंने स्वतंत्र रूप से अध्ययन जारी
रखा।
1888 में विवाह होने पर वे पुणे के न्यू इंग्लिश
स्कूल में पढ़ाने लगे। पर कुछ समय बाद पत्नी की मृत्यु हो गयी। उन्होंने दूसरा
विवाह नहीं किया तथा 1893 में नौकरी
छोड़कर पब्लिक सर्विस की दूसरी परीक्षा में बैठने वाले छात्रों को पढ़ाने लगे।
इससे प्राप्त धन से उन्होंने इतिहास, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र,
नीति, राजनीति, दर्शन, तर्क, व्याकरण एवं समाजशास्त्र के हजारों ग्रंथ खरीदे। उन्होंने विष्णुकांत चिपलूणकर,
रायबहादुर काशीनाथ पंत, परशुराम गोडबोले, रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, श्री झलकीकर जैसे
विद्वानों के ग्रंथों का अध्ययन किया और 1891 में पुणे के डेक्कन महाविद्यालय से बी.ए की परीक्षा
उत्तीर्ण कर ली।
1894 में उन्होंने अनुवाद आधारित ‘भाषातंर’ नामक मराठी पत्रिका शुरू की। इस दौरान उन्हें इतिहास की
विसंगतियां ध्यान में आयीं। अतः उन्होंने अपनी पूरी ताकत महाराष्ट्र के सही इतिहास
की खोज में लगा दी। उन्होंने महाराष्ट्र का सघन प्रवास किया। अलग-अलग किताबों में
उपलब्ध प्रसंगों को आपस में मिलाने पर अनेक सत्य और झूठ प्रकट हुए। उन्होंने
तथ्यों की कसौटी पर इन्हें कसा और फिर 22 खंडों में ‘मराठों के इतिहास
के स्रोत’ लिखा। उनके लेखन में
इतिहास और मानवशास्त्र का अद्भुत समन्वय मिलता है। 1910 में उन्होंने पुणे में ‘भारत इतिहास संशोधक मंडल’ की स्थापना की और जो भी सामग्री उनके पास थी, वह उसे सौंप दी।
मराठा इतिहास की खोज के लिए वे हजारों गांवों
एवं ऐतिहासिक स्थानों पर गये। किसी जगह प्राचीन किताबों या पुरातात्विक सामग्री का
उन्हें पता लगता था, तो वे जरूरी
कपड़े और खाना पकाने के बर्तन लेकर वहां पहुंच जाते थे। वे लोकमान्य तिलक की परम्परा
के प्रतिनिधि थे। उन्होंने विदेशी इतिहासकारों पर आरोप लगाया कि पहले वे भारत का
इतिहास जलाते और नष्ट करते हैं और फिर कहते हैं कि इनका कोई इतिहास ही नहीं है। वे
संस्कृत, व्याकरण और समाजशास्त्र
के भी विद्वान थे। ‘राजवाड़े धातुकोश’
‘संस्कृत भाषाचा उलगडा’ तथा ‘भारतीय विवाह
संस्था का इतिहास’ जैसे ग्रंथ इसके
प्रमाण हैं।
वे कहते थे कि हम अपने गौरवशाली इतिहास को भूल
गये हैं, जिसे फिर से प्राप्त करना
है। अंत समय में वे उच्च रक्तचाप से पीडि़त हो गयेे। 1926 के मार्च महीने में वे अपनी टिप्पणियों से भरे दो ट्रक सामग्री
लेकर धुले गये। वहीं 31 दिसम्बर,
1926 को उनका देहांत हो गया।
उस सामग्री के आधार पर धुले में ही ‘राजवाड़े संशोधक मंडल’ की स्थापना हुई।
भारतीय इतिहास कांग्रेस उनके नाम पर ‘विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े पुरस्कार’ देती है। सरकार ने 2003 में उन पर पांच
रु. का डाक टिकट जारी किया है।
(विकी, पाथेय कण 16.6.2019/7)
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24 जून/इतिहास-स्मृति
शाह आलमी की आग
मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग, 16 अगस्त, 1946 को सीधी कार्यवाही के नाम पर हजारों हिन्दुओं की हत्या और कांग्रेस की कायरता से मुसलमानों की हिम्मत बढ़ती गयी। जहां उनकी संख्या अधिक थी, वहां उन्होंने खुलेआम हिंसा का तांडव शुरू कर दिया। इसका सामना किया, तो केवल संघ के स्वयंसेवकों ने। इनमें एक 18 वर्षीय युवक महेन्द्र भी था, जो हर संकट के समय सबसे पहले वहां पहुंच जाता था।
लाहौर में कई क्षेत्र ऐसे थे, जहां कम जनसंख्या के कारण हिन्दू अत्याचार सहने को बाध्य थे। किला मोहल्ले के मियां परिवार का एक सदस्य लाहौर का नगराध्यक्ष था। यहां उपद्रवियों के लिए 24 घंटे भोजनालय खुला रहता था। हिन्दू या सिख को मारने तथा उनकी सम्पत्ति को जलाने वालों को नकद पुरस्कार भी दिया जाता था। पुलिस के मुसलमान सिपाही इन उपद्रवियों को प्रोत्साहित करते थे, जबकि हिन्दू और सिख अधिकारी भयवश वहां जाने से बचते थे।
लाहौर के इन उपद्रवियों की नजर में शाह आलमी दरवाजा बहुत चुभता था,क्योंकि इससे ही पुराने शहर के हिन्दू आते-जाते थे। इस मोहल्ले में बाजार तंग था तथा लोहे के कई मजबूत दरवाजे लगे थे। संकट में इन दरवाजों पर युवक डट जाते थे, जिससे उपद्रवियों को खाली हाथ वापस लौटना पड़ता था।
लाहौर के कुख्यात मजिस्ट्रेट चीमा ने एक दिन वहां से 150 हिन्दुओं को गिरफ्तार कर लिया। तलाशी के नाम पर लूटपाट की और मोहल्ले के सुरक्षा द्वार व उनके ताले तोड़ दिये। उसके साथ सब सिपाही भी मुसलमान ही थे। इसके बाद 20 जून, 1947 की रात में उपद्रवियों ने एक मकान को आग लगा दी; पर जागरूक लोगों ने शीघ्र ही उसे बुझा दिया। सुबह होते ही चीमा ने 24 घंटे का कर्फ्यू लगा दिया। षड्यन्त्रपूर्वक पुलिस की गश्त बढ़ा दी गयी। जो भी बाहर निकला, उसे गोली मार दी गयी।
रात में एक बार फिर भीड़ हथियारों से लैस होकर शाह आलमी दरवाजे पर टूट पड़ी। उन्होंने पैट्रोल छिड़क कर कई दुकानों और मकानों में आग लगा दी। इस बाजार में कागज, तेल, कपड़े, घी आदि की कई दुकानें थीं। अतः आग ने शीघ्र ही भीषण रूप ले लिया। पुरुष और युवक तो आग बचाने में लग गये; पर इस बीच सैकड़ों महिलाएं व बच्चे आग में जलकर मारे गये।
संघ के स्वयंसेवक भी मोर्चे पर डटे ही थे। वे गलियों में स्थित कुओं से पानी लेकर आग बुझाने लगे। कुछ युवक पूरे मोहल्ले को आग से बचाने के लिए जलते भवनों को तोड़कर उन्हें बाकी से अलग करने लगे। अचानक महेन्द्र को ध्यान आया कि गांधी स्क्वायर में पानी निकालने का एक इंजन रहता है। वह जान पर खेलकर अपने कुछ साथियों के साथ बाहर निकला और मती चौक वाले दूसरे रास्ते से इंजन को लाकर पानी चालू कर दिया।
पर फिर भी आग दावानल की तरह बढ़ती ही रही। अतः निर्णय लिया गया कि तीन ओर से बारूद लगाकर जलती हुई दुकानों को उड़ा दिया जाए, जिससे शेष मोहल्ला बच सके। यह काम भी महेन्द्र ने अपने कंधे पर लिया। कई घंटे के प्रयास के बाद बारूद लगाया जा सका और फिर एक विस्फोट के साथ जलती हुई दुकानें ध्वस्त कर शेष मोहल्ले को बचा लिया गया।
पर इस अग्नियुद्ध में वह वीर बुरी तरह झुलस गया। बाहर का वातावरण इतना खराब था कि उसे किसी चिकित्सालय में भी ले जाना संभव नहीं था। तीन दिन तक अपार कष्ट सहकर हिन्दुओं का रक्षक और लाहौर के जन-जन का वह दुलारा स्वयंसेवक महेन्द्र 24 जून, 1947 को परमधाम को चला गया।
(संदर्भ : अभय भारत, 15 जुलाई, 2010)
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25 जून/इतिहास-स्मृति
अंग्रेज सेना का समर्पण
जिन अंग्रेजों के अत्याचार की पूरी दुनिया में चर्चा होती
है, भारतीय
वीरों ने कई बार उनके छक्के छुड़ाए हैं। ऐसे कई प्रसंग इतिहास के पृष्ठों पर
सुरक्षित हैं। ऐसा ही एक स्वर्णिम पृष्ठ कानपुर (उ.प्र.) से सम्बन्धित है।
1857 में जब देश के अनेक भागों में भारतीय वीरों ने अंग्रेजों के विरुद्ध
संघर्ष का बिगुल बजा दिया, तो इसकी आँच से कानपुर भी
सुलग उठा। यहाँ अंग्रेज इतने भयभीत थे कि 24 मई, 1857 को रानी विक्टोरिया की वर्षगाँठ के अवसर पर हर साल की तरह तोपें नहीं दागी
गयीं। अंग्रेजों को भय था कि इससे भारतीय सैनिक कहीं भड़क न उठें। फिर भी चार जून
को पुराने कानपुर में क्रान्तिवीर उठ खड़े हुए। मेरठ के बाद सर्वाधिक तीव्र
प्रतिकिया यहाँ ही हुई थी। इससे अंग्रेज अधिकारी घबरा गये। वे अपने और अपने
परिवारों के लिए सुरक्षित स्थान ढूँढने लगे। उस समय कानपुर का सैन्य प्रशासक मेजर
जनरल व्हीलर था। वह स्वयं भी बहुत भयभीत था।
पुराने कानपुर को जीतने के बाद सैनिक दिल्ली की ओर चल दिये।
जब ये सैनिक रात्रि में कल्याणपुर में ठहरे थे, तो नाना साहब पेशवा, तात्या
टोपे और अजीमुल्ला खान भी इनसे आकर मिले। इन्होंने उन विद्रोही सैनिकों को समझाया
कि कानपुर को इस प्रकार भगवान भरोसे छोड़कर आधी तैयारी के साथ दिल्ली जाने की बजाय
पूरे कानपुर पर ही नियन्त्रण करना उचित है।
जब नेतृत्व का प्रश्न आया, तो इसके लिए सबने नाना
साहब को अपना नेता बनाया। नाना साहब ने टीका सिंह को मुख्य सेनापति बनाया और यह
सेना कानपुर की ओर बढ़ने लगी। व्हीलर को जब यह पता लगा, तो वह
सब अंग्रेज परिवारों के साथ प्रयाग होते हुए कोलकाता जाने की तैयारी करने लगा; पर
भारतीय सैनिकों ने इस प्रयास को विफल कर दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने
गलियों और सड़कों पर ढूँढ-ढूँढकर अंग्रेजों को मारना प्रारम्भ कर दिया।
यह देखकर व्हीलर ने एक बैरक को किले का रूप दे दिया। यहाँ 210 अंग्रेज
और 44 बाजा बजाने वाले भारतीय सैनिक, 100 सैन्य अधिकारी, 101 अंग्रेज नागरिक, 546 स्त्री व बच्चे अपने 25-30 भारतीय
नौकरों के साथ एकत्र हो गये। नाना साहब ने व्हीलर को कानपुर छोड़ने की चेतावनी के
साथ एक पत्र भेजा; पर जब
इसका उत्तर नहीं मिला, तो
उन्होंने इस बैरक पर हमला बोल दिया। 18 दिन तक लगातार यह संघर्ष चला।
14 जून को व्हीलर ने लखनऊ के जज गोवेन को एक पत्र लिखा। इसमें उसने कहा कि हम
कानपुर के अंग्रेज मिट्टी के कच्चे घेरे में फँसे हैं। अभी तक तो हम सुरक्षित हैं; पर
आश्चर्य तो इस बात का है कि हम अब तक कैसे बचे हुए हैं। हमारी एक ही याचना है
सहायता, सहायता, सहायता।
यदि हमें निष्ठावान 200 अंग्रेज
सैनिक मिल जायें, तो हम
शत्रुओं को मार गिरायेंगे।
पर उस समय लखनऊ में भी इतनी सेना नहीं थी कि कानपुर भेजी जा
सके। अन्ततः व्हीलर का किला ध्वस्त हो गया। इस संघर्ष में बड़ी संख्या में अंग्रेज
सैनिक हताहत हुए। देश की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रहे अनेक भारतीय सैनिक भी
बलिदान हुए। 25 जून को व्हीलर ने बैरक पर
आत्मसमर्पण का प्रतीक सफेद झण्डा लहरा दिया। 1857 के संग्राम के बाद अंग्रेजों ने इस स्थान पर एक स्मृति चिन्ह (मैमोरियल
क्रास) बना दिया, जो अब
कानपुर छावनी स्थित राजपूत रेजिमेण्ट के परिसर में स्थित है।
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25 जून/इतिहास-स्मृति
लोकतन्त्र पर काला धब्बा
संविधान के निर्माताओं की इच्छा था कि भारत एक लोकतान्त्रिक
देश रहे; पर 25 जून, 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, उनके पुत्र संजय गांधी और
उनकी मंडली ने लोकतन्त्र के मुख पर कीचड़ पोत दी।
1971 में लोकसभा चुनाव और फिर पाकिस्तान से युद्ध में सफलता से इंदिरा गांधी का
दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा था। वे उ.प्र. में रायबरेली से सांसद बनीं थी; पर उनके निर्वाचन क्षेत्र
में हुई धांधली के विरुद्ध उनके प्रतिद्वन्द्वी राजनारायण ने प्रयाग उच्च न्यायालय
में मुकदमा दायर कर दिया था। न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने साहसी निर्णय देते
हुए इंदिरा गांधी के निर्वाचन को निरस्त कर उन पर छह साल तक चुनाव लड़ने पर
प्रतिबन्ध लगा दिया।
इंदिरा गांधी सर्वोच्च न्यायालय में चली गयीं। वहां से
उन्हें इस शर्त पर स्थगन मिला कि वे संसद में तो जा सकती हैं; पर बहस
और मतदान में भाग नहीं ले सकतीं। माता-पिता की अकेली संतान होने के कारण वे बचपन
से ही जिद्दी थीं। उन्होंने त्यागपत्र देने की बजाय आंतरिक उपद्रव से निबटने के
नाम पर आपातकाल लगा दिया। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने भी 25 जून, 1975 की रात में कागजों पर हस्ताक्षर कर दिये।
वस्तुतः इसके लिए मंत्रिमंडल की सहमति आवश्यक थी; पर
इंदिरा, संजय
और उनके चमचों ने कुछ नहीं देखा। अगले दिन प्रातः मंत्रियों से हस्ताक्षर की
औपचारिकता भी पूरी करा ली गयी। आपातकाल लगते ही नागरिकों के मूल अधिकार स्थगित हो
गये। विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबन्ध
लगा दिया गया। समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लागू कर दी गयी। सारे देश में आतंक छा
गया।
इसके बाद इंदिरा गांधी ने संविधान में ऐसे अनेक संशोधन
कराये, जिससे
प्रधानमंत्री पर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता था। 39 वां संशोधन सात अगस्त, 1975 को
संसद में केवल दो घंटे में ही पारित कर दिया गया। विपक्षी नेता जेल में थे और
सत्ता पक्ष वाले आतंकित। ऐसे में विरोध कौन करता ? आठ
अगस्त को यह राज्यसभा में भी पारित हो गया। नौ अगस्त, (शनिवार) को अवकाश के बावजूद सभी राज्यों की विधानसभाओं के विशेष सत्र बुलाकर वहां भी इसे
पारित करा दिया गया। दस अगस्त ( रविवार) को राष्ट्रपति ने
भी सहमति दे दी और इस प्रकार यह कानून बन गया।
इस तेजी का कारण यह था कि 11 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की सुनवाई होनी थी। नये कानून से
इंदिरा गांधी न्यायालय से भी ऊंची हो गयीं और सुनवाई नहीं हो सकी। पूरा देश तानाशाही की गिरफ्त में आ गया; पर समय
सदा एक सा नहीं रहता। धीरे-धीरे लोग आतंक से उबरने लगे। संघ द्वारा भूमिगत रूप से
किये जा रहे प्रयास रंग लाने लगे। लोगों का आक्रोश फूटने लगा। आपातकाल और
प्रतिबन्ध के विरुद्ध हुए सत्याग्रह में एक लाख से अधिक स्वयंसेवकों ने गिरफ्तारी
दी। लोकतन्त्र की इस हत्या के विरुद्ध विदेशों में भी लोग इंदिरा गांधी से प्रश्न
पूछने लगे।
इससे इंदिरा गांधी पर दबाव पड़ा। उसके गुप्तचरों ने सूचना
दी कि देश में सर्वत्र शांति हैं और चुनाव में आपकी जीत सुनिश्चित है। इस भ्रम में
इंदिरा गांधी ने चुनाव घोषित कर दिये; पर यह दांव उल्टा पड़ा।
चुनाव में उसकी पराजय हुई और दिल्ली में जनता पार्टी की सरकार बन गयी। मां और
पुत्र दोनों चुनाव हार गये। इस शासन ने वे सब असंवैधानिक संशोधन निरस्त कर दिये, जिन्होंने
प्रधानमंत्री को न्यायालय से भी बड़ा बना दिया था। इस प्रकार इंदिरा गांधी की
तानाशाही समाप्त होकर देश में लोकतन्त्र की पुनर्स्थापना हुई।
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25 जून/इतिहास-स्मृति
मोगा में संघ की शाखा
पर हमला
1980 का दशक भारतवर्ष और विशेषकर पंजाब
के लिए बहुत दुखदायी रहा। कुछ भ्रमित नेताओं की शह पर एक अलग देश (खालिस्तान) लेने
के लिए कई उग्र समूह पनप उठे। बस, रेल और घरों से निकालकर सैकड़ों हिन्दुओं को मारा गया। इससे हिन्दू और सिखों के
रोटी-बेटी के संबंध टूटने लगे। यद्यपि बाद में स्थिति सुधर गयी; पर कुछ लोगों के मन के घाव कभी नहीं भर सके।
उधर राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के कार्यकर्ता इस प्रयास में लगे थे कि हिन्दू और सिखों में दरार न पड़े। संघ दोनों
को एक मानता है। शाखा पर सब आते हैं। उसके पदाधिकारियों में दोनों समुदायों के लोग
होते हैं। संघ के सेवा कार्यों में कोई भेदभाव नहीं किया जाता। लोग इसलिए संघ वालों
का बड़ा सम्मान करते हैं; पर उग्रवादी इस एकता
को तोड़ना चाहते थे।
देश भर की तरह पंजाब
के मोगा शहर में भी संघ की सुबह और शाम की कई शाखाएं लगती हैं। ऐसी ही एक प्रभात शाखा
वहां नेहरू पार्क में लगती थी। सैकड़ों लोग वहां घूमने भी आते थे। 25 जून, 1989 (रविवार) को वहां नगर
की सब प्रभात शाखाओं का मिलन रखा गया था। शाखा के नियमित कार्यक्रम हो रहे थे कि अचानक
6.25 पर कुछ आतंकी छोटे दरवाजे से पार्क में घुस आये। आते ही उन्होंने शाखा का ध्वज
उतारने को कहा। संघ के पदाधिकारियों के मना करने पर वे अंधाधुंध गोली चलाने लगे। इससे
स्वयंसेवकों तथा वहां टहल रहे नागरिकों में भगदड़ मच गयी।
स्वयंसेवक निहत्थे थे, तो आंतकी हथियारों से लैस। अतः कुछ ही देर में वहां
चारों और खून बिखर गया। कुछ स्वयंसेवकों ने वहीं दम तोड़ दिया, तो कुछ ने अस्पताल में जाकर। उस दिन शहीद हुए 22 लोगों के नाम हैं - सर्वश्री लेखराज धवन, बाबूराम, भगवान दास, शिवदयाल, मदन गोयल, मदन मोहन, भगवान सिंह, गजानंद, अमन कुमार, ओमप्रकाश, सतीश कुमार, केसोराम, प्रभजोत सिंह, नीरज, मुनीश चैहान, जगदीश भगत, वेदप्रकाश पुरी, भगवान दास, पंडित दुर्गा दत्त, प्रह्लाद राय, जगतार राय सिंह तथा कुलवंत सिंह।
जब आतंकवादी भाग रहे थे, तो श्री ओमप्रकाश एवं छिंदर कौर नामक वीर दम्पति ने
उन्हें ललकारा। इस पर उन्हें भी गोलियों से भून दिया गया। पास में खेल रही डेढ़ साल
की बच्ची डिंपल भी गोली का शिकार होकर मारी गयी। मरने वाले 25 के अलावा 31 स्वयंसेवक और नागरिक घायल भी हुए।
इस दुर्घटना से पूरे
राज्य में तहलका मच गया। कई लोग कहने लगे कि अब तो हिन्दू और सिखों में गृहयुद्ध छिड़
जाएगा;
पर संघ के कार्यकर्ताओं ने धैर्य
नहीं खोया। उन्होंने सबको समझाया कि यह काम कुछ सिरफिरे लोगों का है। आम सिखों में
हिन्दुओं के प्रति कोई द्वेष नहीं हैं। हम सब सगे सहोदर भाई हैं। इससे वातावरण खराब
नहीं हुआ और आतंकियों के मंसूबे विफल हो गये।
अगले दिन फिर वहीं शाखा
लगी। आज पहले से भी अधिक स्वयंसेवक उपस्थित थे। वहां गीत बोला गया, ‘‘कौन कहदां ए हिन्दू सिख वख ने, भारत माता की सज्जी-खब्बी अख ने।’’ (कौन कहता है कि हिन्दू और सिख अलग हैं। वे तो भारत माता
की दाहिनी और बायीं आंख जैसे हैं।) यह गीत सुनकर आंतकियों और उनके हमदर्दों ने सिर
पीट लिया।
कुछ दिन बाद स्वयंसेवकों
और नगर के नागरिकों ने ‘मोगा पीडि़त मदद और स्मारक
समिति’ गठित कर वहां एक ‘शहीदी स्मारक’ का निर्माण किया। उसका
शिलान्यास संघ के वरिष्ठ प्रचारक भाउराव देवरस ने नौ जुलाई को तथा उद्घाटन 24 जून, 1990 को संघ के सरकार्यवाह श्री रज्जू भैया ने किया। हर साल
25 जून को हजारों स्वयंसेवक तथा नागरिक वहां आकर हिन्दू और सिख एकता के लिए शहीद हुए
स्वयंसेवकों को श्रद्धांजलि देते हैं। वह पार्क भी अब ‘शहीदी पार्क’ कहलाता है।
(राकेश सैन, प्रभासाक्षी 25.6.2020)
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26 जून/जन्म-दिवस
वन्देमातरम् के गायक : बंकिमचन्द्र चटर्जी
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में वन्देमातरम् नामक जिस
महामन्त्र ने उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक जन-जन को उद्वेलित किया, उसके
रचियता बंकिमचन्द्र चटर्जी का जन्म ग्राम काँतलपाड़ा, जिला
हुगली,पश्चिम
बंगाल में 26 जून, 1838 को हुआ था। प्राथमिक शिक्षा हुगली में पूर्ण कर उन्होंने कोलकाता
विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंसी कालिज से उच्च शिक्षा प्राप्त की। पढ़ाई के साथ-साथ
छात्र जीवन से ही उनकी रुचि साहित्य के प्रति भी थी।
शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी और
उसमें उत्तीर्ण होकर वे डिप्टी कलेक्टर बन गये। इस सेवा में आने वाले वे प्रथम
भारतीय थे। नौकरी के दौरान ही उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया। पहले वे अंग्रेजी में
लिखते थे। उनका अंग्रेजी उपन्यास ‘राजमोहन्स
वाइफ’ भी खूब
लोकप्रिय हुआ; पर आगे
चलकर वे अपनी मातृभाषा बंगला में लिखने लगे।
1864 में उनका पहला बंगला उपन्यास ‘दुर्गेश नन्दिनी’ प्रकाशित
हुआ। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके पात्रों के नाम पर बंगाल में लोग अपने बच्चों
के नाम रखने लगे। इसके बाद 1866 में ‘कपाल
कुण्डला’ और 1869 में ‘मृणालिनी’ उपन्यास
प्रकाशित हुए। 1872 में
उन्होंने ‘बंग
दर्शन’ नामक
पत्र का सम्पादन भी किया; पर
उन्हें अमर स्थान दिलाया ‘आनन्द
मठ’ नामक
उपन्यास ने, जो 1882 में प्रकाशित हुआ।
आनन्द मठ में देश को मातृभूमि मानकर उसकी पूजा करने और उसके
लिए तन-मन और धन समर्पित करने वाले युवकों की कथा थी, जो
स्वयं को ‘सन्तान’ कहते
थे। इसी उपन्यास में वन्देमातरम् गीत भी समाहित था। इसे गाते हुए वे युवक मातृभूमि
के लिए मर मिटते थे। जब यह उपन्यास बाजार में आया, तो वह जन-जन का कण्ठहार
बन गया। इसने लोगों के मन में देश के लिए मर मिटने की भावना भर दी। वन्देमातरम्
सबकी जिह्ना पर चढ़ गया।
1906 में अंग्रेजों ने बंगाल को हिन्दू तथा मुस्लिम आधार पर दो भागों में
बाँटने का षड्यन्त्र रचा। इसकी भनक मिलते ही लोगों में क्रोध की लहर दौड़ गयी। 7 अगस्त, 1906 को कोलकाता
के टाउन हाल में एक विशाल सभा हुई, जिसमें पहली बार यह गीत
गाया गया। इसके एक माह बाद 7 सितम्बर को
वाराणसी के कांग्रेस अधिवेशन में भी इसे गाया गया। इससे इसकी गूँज पूरे देश में
फैल गयी। फिर क्या था, स्वतन्त्रता के लिए होने
वाली हर सभा, गोष्ठी
और आन्दोलन में वन्देमातरम् का नाद होने लगा।
यह देखकर शासन के कान खड़े हो गये। उसने आनन्द मठ और वन्देमातरम्
गान पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इसे गाने वालों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे जाते
थे; लेकिन
प्रतिबन्धों से भला भावनाओं का ज्वार कभी रुक सका है ? अब
इसकी गूँज भारत की सीमा पारकर विदेशों में पहुँच गयी। क्रान्तिवीरों के लिए यह
उपन्यास गीता तथा वन्देमातरम् महामन्त्र बन गया। वे फाँसी पर चढ़ते समय यही गीत
गाते थे। इस प्रकार इस गीत ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में अतुलनीय योगदान दिया।
बंकिम के प्रायः सभी उपन्यासों में देश और धर्म के संरक्षण
पर बल रहता था। उन्होंने विभिन्न विषयों पर लेख, निबन्ध और व्यंग्य भी
लिखे। इससे बंगला साहित्य की शैली में आमूल चूल परिवर्तन हुआ। 8 अपै्रल, 1894 को
उनका देहान्त हो गया। स्वतन्त्रता मिलने पर वन्देमातरम् को राष्ट्रगान के समतुल्य
मानकर राष्ट्रगीत का सम्मान दिया गया।
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27 जून/पुण्य-तिथि
कर्तव्य कठोर :
दादाराव परमार्थ
बात एक अगस्त, 1920 की
है। लोकमान्य तिलक के देहान्त के कारण पूरा देश शोक में डूबा था। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार किसी कार्य से घर से निकले। उन्होंने देखा कुछ लड़के सड़क पर
गेंद खेल रहे हैं। डा. जी क्रोध में उबल पड़े - तिलक जी जैसे महान् नेता का देहान्त हो गया और तुम्हें खेल सूझ रहा है। सब बच्चे सहम गये। इन्हीं में एक थे गोविन्द सीताराम परमार्थ, जो आगे
चलकर दादाराव परमार्थ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
दादाराव का जन्म नागपुर के इतवारी मौहल्ले में 1904 में हुआ था। इनके पिता डाक विभाग में काम करते थे। केवल चार वर्ष की
अवस्था में इनकी माँ का देहान्त हो गया। पिताजी ने दूसरा विवाह कर लिया। इस कारण
से दादाराव को माँ के प्यार के बदले सौतेली माँ की उपेक्षा ही अधिक मिली। मैट्रिक में पढ़ते समय इनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हो
गया। साइमन कमीशन के विरुद्ध आन्दोलन के समय पुलिस इन्हें पकड़ने आयी; पर ये
फरार हो गये। पिताजी ने इन्हें परीक्षा देने के लिए पंजाब भेजा; पर
परीक्षा पुस्तिका इन्होंने अंग्रेजों की आलोचना से भर दी। ऐसे में परिणाम क्या
होना था, यह
स्पष्ट है।
दादाराव का सम्बन्ध भगतसिंह तथा राजगुरू से भी था। भगतसिंह,सुखदेव
और राजगुरू की फाँसी के बाद हुई तोड़फोड़ में पुलिस इन्हें पकड़कर ले गयी थी। जब
इनका सम्बन्ध डा. हेडगेवार से अधिक हुआ,तो ये संघ के लिए पूरी
तरह समर्पित हो गये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रारम्भ में डा. हेडगेवार के साथ काम करने वालों में बाबासाहब आप्टे तथा दादाराव परमार्थ
प्रमुख थे। 1930 मंे जब डा. साहब ने जंगल सत्याग्रह में भाग लिया, तो
दादाराव भी उनके साथ गये तथा अकोला जेल में रहे।
दादाराव बहुत उग्र स्वभाव के थे। दाँत बाहर निकले होने के कारण
उनकी सूरत भी कुछ अच्छी नहीं थी; पर उनके भाषण बहुत
प्रभावी होते थे। उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। भाषण देते समय वे थोड़ी देर में ही
उत्तेजित हो जाते थे और अंग्रेजी बोलने लगते थे। दादाराव को संघ की शाखाएँ
प्रारम्भ करने हेतु मद्रास, केरल, पंजाब
आदि कई स्थानों पर भेजा गया।
डा. हेडगेवार के प्रति उनके मन में अटूट श्रद्धा थी। कानपुर में एक बार शाखा
पर डा. जी के जीवन के बारे में उनका भाषण था। इसके बाद उन्हें अगले स्थान पर जाने
के लिए रेल पकड़नी थी; पर वे बोलते हुए इतने
तल्लीन हो गये कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। परिणामस्वरूप रेल छूट गयी।
1963 में बरेली के संघ शिक्षा वर्ग में रात्रि कार्यक्रम में डा. जी के
बारे में दादाराव को बोलना था। कार्यक्रम का समय सीमित था। अतः वे एक घण्टे बाद
बैठ गये; पर
उन्हें रात भर नींद नहीं आयी। रज्जू भैया उस समय प्रान्त प्रचारक थे। दो बजे उनकी
नींद खुली, तो
देखा दादाराव टहल रहे हैं। पूछने पर वे बोले - तुमने डा. जी की याद दिला दी। ऐसा लगता है मानो बाँध टूट गया है और अब वह थमने का
नाम नहीं ले रहा। फिर कभी मुझे रात में इस बारे में बोलने को मत कहना।
दादाराव अनुशासन के बारे में बहुत कठोर थे। स्वयं को कितना
भी कष्ट हो; पर
निर्धारित काम होना ही चाहिए। वे प्रचारकों को भी कभी-कभी दण्ड दे देते थे; पर
अन्तर्मन से वे बहुत कोमल थे। 1963 में सोनीपत संघ शिक्षा वर्ग से लौटकर वे दिल्ली कार्यालय पर आये। वहीं
उन्हें बहुत तेज बुखार हो गया। इलाज के बावजूद 27 जून, 1963 को उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया।
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27 जून/पुण्य-तिथि
जीवनव्रती : गजेन्द्र दत्त नैथानी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में जीवनव्रती प्रचारकों की
सुदीर्घ परम्परा है। इसी के एक दैदीप्यमान नक्षत्र थे श्री गजेन्द्र दत्त नैथानी।
उनका परिवार मूलतः पौड़ी गढ़वाल (उत्तरांचल) का था; पर उनके पूर्वज टिहरी
राज्य की सेवा में आ गये थे। वहीं 1921 में गजेन्द्र जी का जन्म हुआ। इसके बाद उनके पिताजी देहरादून की सुरम्य
घाटी में स्थित भोगपुर गांव में आकर बस गये। उनकी आर्थिक सम्पन्नता का इसी से
अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां उन्होंने दो गांव खरीद लिये थे। गजेन्द्र जी का
बचपन एवं युवावस्था यहीं बीती।
1943 में देहरादून में पढ़ते समय वे स्वयंसेवक बने। श्री जगदीश प्रसाद माथुर
उनसे दो कक्षा आगे पढ़ते थे, वही उस सायं शाखा के
मुख्यशिक्षक थे। गजेन्द्र जी ने 1943, 44 और फिर 1947 में संघ
शिक्षा वर्ग किये। उन दिनों पश्चिम उत्तर प्रदेश को दिल्ली प्रांत में माना जाता
था, जिसके
प्रांत प्रचारक श्री वसंतराव ओक थे। मेरठ में लगे प्रथम वर्ष के वर्ग में उनके ‘व्यक्ति
और समाज’ विषय
पर तीन बौद्धिक हुए। उनसे प्रभावित होकर गजेन्द्र जी ने प्रचारक बनने का निर्णय
लिया और फिर उसे अंतिम सांस तक निभाया।
प्रचारक बनने के बाद धामपुर, नजीबाबाद, मुजफरनगर, शाहजहांपुर
और नैनीताल में संघ के विभिन्न दायित्वों पर रहकर उन्होंने काम किया। 1967-68 में उन्हें 'भारतीय जनसंघ' में काम करने के लिए भेजा गया। इसके बाद तो वे
लगातार राजनीतिक क्षेत्र में ही काम करते रहे। इस क्षेत्र में काम करने वालों को
प्रायः चुनाव लड़ने या विधान परिषद और राज्यसभा में पहुंचने की इच्छा जाग्रत हो
जाती है; पर
गजेन्द्र जी ने कभी इस ओर विचार नहीं किया। उन्होंने सदा संगठन संबंधी कार्यों को
ही प्राथमिकता दी।
स्वास्थ्य संबंधी कारणों से जब प्रवास में उन्हें कठिनाई
होने लगी, तो 1989 में उन्हें लखनऊ मंे प्रदेश भाजपा कार्यालय का प्रभारी बनाया गया। इसके
बाद तो कार्यालय और गजेन्द्र जी एकरूप हो गये। वयोवृद्ध और सर्वाधिक अनुभवी होने
के कारण सब उन्हें ‘ताऊ जी’ कहते
थे। कार्यालय पर काम करने वाली सभी कर्मचारियों से वे परिवार के सदस्यों की तरह
व्यवहार करते थे। इस नाते उनका सम्बोधन ‘ताऊ जी’ सार्थक
ही था।
वे मधुमेह के तो लम्बे समय से रोगी थे; पर 2006 में शरीर के निचले भाग में अधरंग (पैरालेसिस) हो जाने से उनकी गतिविधियां
थम सी गयीं। इसके बाद भी महत्वपूर्ण निर्णय लेते समय उनसे परामर्श अवश्य किया जाता
था। वे अपने अनुभव और स्पष्ट दृष्टिकोण के कारण एकदम सटीक सलाह देते थे।
बीमार होने बाद भी उनके मन का उत्साह एवं आशावाद कम नहीं
हुआ। उनसे मिलने आने वाला हर व्यक्ति इसे अनुभव करता था। वे कहते थे कि अपने हाथ
में काम करना है, सफलता
या असफलता ईश्वर के हाथ में है। इसीलिए संगठन ने जो काम उन्हें सौंपा, उसे वे
अपनी पूरी शक्ति से करते थे। जब तक संभव हुआ, सुबह-शाम वे कुछ देर के
लिए कार्यालय में अवश्य बैठते थे। जब कोई उनके स्वास्थ्य का हाल पूछता, तो वे
हंस कर कहते - इस उम्र में जैसा होना चाहिए, वैसा ही ठीक हूं। सहायक
के माध्यम से वे व्यायाम करते और बरामदे में टहलते भी थे।
87 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 27 जून, 2008 की रात्रि में उन्होंने अपना जीवन सदा के लिए बदरीश भगवान के चरणों में
विसर्जित कर दिया।
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27 जून/जन्म-दिवस
सुगंधित गुलाब : दादा
भाई
श्री गुलाबचंद खंडेलवाल (दादा भाई) का जन्म 27 जून, 1922 को ग्राम चारमंडी( जिला सीहोर, म.प्र.) में हुआ था। इनके पिता श्री राधाकृष्ण तथा माता श्रीमती मूलीबाई थीं।
इंदौर के होल्कर क१लिज में पढ़ते समय1937 में
वे संघ के स्वयंसेवक बने। दादाभाई को संघ के संस्थापक पूज्य डा. हेडगेवार के दर्शन करने का भी सौभाग्य मिला था। इसलिए अनेक संकटों और
झंझटों के बावजूद संघ से उनका यह नाता जीवन भर चलता रहा।
दादा भाई ने संघ में गटनायक से लेकर विभाग कार्यवाह और फिर
प्रांत के सह व्यवस्था प्रमुख जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभाईं। उन्होंने
अपने छोटे भाई प्यारेलाल खंडेलवाल को भी स्वयंसेवक और फिर प्रचारक बनाया। संघ से
प्राप्त देशभक्ति के संस्कारों के कारण 1942 के ‘भारत
छोड़ो आंदोलन’ में
दादा भाई ने भी भाग लिया। स्वाधीनता के बाद उन्होंने1966 तक भारत सरकार के जनगणना विभाग में नौकरी कर परिवार का भरण-पोषण किया।
1975 के आपातकाल के समय वे पूरे समय जेल में रहे। वहां भी वे भोजनालय विभाग के
प्रमुख थे। इस बीच में ही उनकी बेटी का विवाह हुआ, जिसके
लिए शासन ने केवल तीन दिन का पेरोल स्वीकृत किया। दादा भाई बाहर आकर विवाह की
व्यवस्था में लग गये। प्रचारक के नाते उनके छोटे भाई प्यारेलाल जी भी भूमिगत थे।
दोनों भाई दुबले-पतले थे और दोनों का चेहरा भी एक सा ही था। पुलिस वालों ने दादा
भाई को ही प्यारेलाल समझ कर फिर से पकड़ लिया। जब थाने में पहुंचकर दादा भाई ने
अपने पेरोल के कागज प्रस्तुत किये, तब पुलिस वाले अपना सिर
पीट कर रह गये।
जब दादा भाई के बच्चों ने घरेलू काम संभाल लिये, तो 1987 में वे 'विश्व हिन्दू परिषद' में पूरा समय देने लगे। वे अपने जीवन के चार
सूत्र बताते थे। कम खाना, गम खाना, नम
जाना और खप जाना। अर्थात बहुत कम भोजन करना, अपने निजी दुखों को मन
में रखना, सबसे
नम्रता का व्यवहार करना और जो काम दिया जाए, उसमें पूरी शक्ति लगा
देना। इन सूत्रों का पालन करते हुए वे सदा स्वस्थ रहे।
वे चाय, काफी, शीतल
पेय आदि भी नहीं पीते थे। दिन में एक बार हल्का भोजन, सुबह
पपीता और रात को गोदुग्ध, यही
उनका आहार था। प्रतिदिन प्राणायाम, आसन, विष्णु
सहस्रनाम का
जप करने और क्रोध, गुटबाजी
व मनमुटाव से दूर रहने का नियम भी उन्होंने जीवन भर निभाया।
दादा भाई के जीवन में एक कठिन क्षण तब आया, जब 1992 में उनके बड़े पुत्र दीपक की सड़क दुर्घटना में असामयिक मृत्यु हो गयी।
श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन उस दिनों चरम पर था और दादा भाई उसकी बैठक के लिए दिल्ली
में थे। यह समाचार सुनकर स्थितप्रज्ञ की भांति उन्होंने घर आकर सब आवश्यक कार्य
निपटाए और फिर पूर्ववत संगठन कार्य में लग गये। उनकी कर्मठता से उनकी पत्नी और
पुत्रवधू ने भी इस संकट को साहस से झेल लिया।
गृहस्थ होते हुए भी दादा भाई को धन-सम्पदा से भी कोई मोह
नहीं था। जब गांव में उनका पैतृक मकान बिका, तो अपने हिस्से आये धन का
बड़ा भाग उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद और अन्य संगठनों को दे दिया। उनके छोटे भाई
प्यारेलाल खंडेलवाल भाजपा में सांसद एवं कई महत्वपूर्ण पदों पर रहे; पर
केन्द्र या म.प्र. की सरकार से लाभ लेने का विचार कभी उनके मन में नहीं आया। विश्व हिन्दू
परिषद में रहते हुए वे गोसेवा विभाग में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष थे। म.प्र. में गोसेवा आयोग बनने पर उन्हें उसका सदस्य बनाया गया।
सदा स्वस्थ और प्रसन्न रहने वाले दादा भाई को एक सितम्बर को
सीने में दर्द एवं हृदयाघात के कारण चिकित्सालय में भर्ती कराया गया, जहां
अगले दिन दो सितम्बर, 2010 को उन्होंने देह त्याग दी।
(संदर्भ :
हिन्दू उदय, अभिनंदन
स्मारिका,
2006)
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28 जून/जन्म-दिवस
अनुपम दानी :
भामाशाह
दान की चर्चा होते ही भामाशाह का नाम स्वयं ही मुँह पर आ
जाता है। देश रक्षा के लिए महाराणा प्रताप के चरणों में अपनी सब जमा पूँजी अर्पित
करने वाले दानवीर भामाशाह का जन्म अलवर (राजस्थान) में 28 जून, 1547 को हुआ था। उनके पिता श्री भारमल्ल तथा माता श्रीमती कर्पूरदेवी थीं। श्री भारमल्ल राणा साँगा के समय रणथम्भौर के किलेदार थे। अपने
पिता की तरह भामाशाह भी राणा परिवार के लिए समर्पित थे।
एक समय ऐसा आया जब अकबर से लड़ते हुए राणा प्रताप को अपनी
प्राणप्रिय मातृभूमि का त्याग करना पड़ा। वे अपने परिवार सहित जंगलों में रह रहे
थे। महलों में रहने और सोने चाँदी के
बरतनों में स्वादिष्ट भोजन करने वाले महाराणा के परिवार को अपार कष्ट उठाने पड़
रहे थे। राणा को बस एक ही चिन्ता थी कि किस प्रकार फिर से सेना जुटाएँ,जिससे
अपने देश को मुगल आक्रमणकारियों से चंगुल से मुक्त करा सकंे।
इस समय राणा के सम्मुख सबसे बड़ी समस्या धन की थी। उनके साथ
जो विश्वस्त सैनिक थे, उन्हें
भी काफी समय से वेतन नहीं मिला था। कुछ लोगों ने राणा को आत्मसमर्पण करने की सलाह
दी; पर
राणा जैसे देशभक्त एवं स्वाभिमानी को यह स्वीकार नहीं था। भामाशाह को जब राणा
प्रताप के इन कष्टों का पता लगा, तो उनका मन भर आया। उनके
पास स्वयं का तथा पुरखों का कमाया हुआ अपार धन था। उन्होंने यह सब राणा के चरणों
में अर्पित कर दिया। इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने 25 लाख रु. तथा 20,000 अशर्फी राणा को दीं। राणा ने आँखों में आँसू भरकर भामाशाह को गले से लगा
लिया।
राणा की पत्नी महारानी अजवान्दे ने भामाशाह को पत्र लिखकर
इस सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त की। इस पर भामाशाह रानी जी के सम्मुख उपस्थित हो
गये और नम्रता से कहा कि मैंने तो अपना कर्त्तव्य निभाया है। यह सब धन मैंने देश
से ही कमाया है। यदि यह देश की रक्षा में लग जाये, तो यह मेरा और मेरे
परिवार का अहोभाग्य ही होगा। महारानी यह सुनकर क्या कहतीं, उन्होंने
भामाशाह के त्याग के सम्मुख सिर झुका दिया।
उधर जब अकबर को यह घटना पता लगी, तो वह
भड़क गया। वह सोच रहा था कि सेना के अभाव में राणा प्रताप उसके सामने झुक जायेंगे; पर इस
धन से राणा को नयी शक्ति मिल गयी। अकबर ने क्रोधित होकर भामाशाह को पकड़ लाने को
कहा। अकबर को उसके कई साथियों ने समझाया कि एक व्यापारी पर हमला करना उसे शोभा
नहीं देता। इस पर उसने भामाशाह को कहलवाया कि वह उसके दरबार में मनचाहा पद ले ले
और राणा प्रताप को छोड़ दे; पर
दानवीर भामाशाह ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। इतना ही नहीं उन्होंने अकबर से युद्ध
की तैयारी भी कर ली। यह समाचार मिलने पर अकबर ने अपना विचार बदल दिया।
भामाशाह से प्राप्त धन के सहयोग से राणा प्रताप ने नयी सेना
बनाकर अपने क्षेत्र को मुक्त करा लिया। भामाशाह जीवन भर राणा की सेवा में लगे रहे।
महाराणा के देहान्त के बाद उन्होंने उनके पुत्र अमरसिंह के राजतिलक में महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभायी। इतना ही नहीं, जब उनका अन्त समय निकट
आया, तो
उन्होंने अपने पुत्र को आदेश दिया कि वह अमरसिंह के साथ सदा वैसा ही व्यवहार करे, जैसा
उन्होंने राणा प्रताप के साथ किया है।
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28 जून/पुण्य-तिथि
जनता का आदमी : हरिदेव
शौरी
कवि दुष्यन्त कुमार ने कहा है - कौन कहता है आसमाँ में छेद नहीं हो सकता; एक
पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।।
अवकाश प्राप्त आई.सी.एस अधिकारी हरिदेव शौरी ने अपने बलबूते
पर कवि की इन पंक्तियों को सत्य सिद्ध कर दिखाया। विभिन्न न्यायालयों में जनहित
याचिकाएँ दायर कर उन्होंने अन्धे और बहरे शासन को झुकने को मजबूर किया था।
वृद्धावस्था में उनकी लगन देखकर अनेक लोग उनके साथ जुड़ गये। इसी में से 1980 में ‘कॉमन कॉज’ नामक
संस्था का जन्म हुआ।
हरिदेव शौरी ने उन दिनों जनहित याचिकाओं को एक सबल शस्त्र
के रूप में प्रयोग किया, जब
नागरिक अधिकारों और उपभोक्ता हितों के बारे में कोई चर्चा भी नहीं करता था। लोग यह
कहकर कि सरकार से लड़ना आसान नहीं है, उन्हें हतोत्साहित ही
करते थे; पर एक
पेंशन मामले में सरकार के फैसले के विरुद्ध उन्होंने न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
उसमें उन्हें सफलता मिली। फिर तो उन्हें जनसेवा का चस्का ही लग गया।
यद्यपि पैसे और प्रतिष्ठा से परिपूर्ण प्रशासनिक अधिकारी की
नौकरी से अवकाश के बाद वे आराम का जीवन जी सकते थे। उनके बच्चे भी प्रतिष्ठित पदों
पर कार्यरत थे। उनके पुत्र अरुण शौरी इण्डियन एक्सप्रेस के सम्पादक और फिर अटल
बिहारी वाजपेयी के शासन में केन्द्रीय मन्त्री रहे। उनके दूसरे पुत्र दीपक तथा
पुत्री नलिनी सिंह भी पत्र जगत से जुड़े हैं।
अपनी अवस्था की चिन्ता किये बिना श्री शौरी स्वयं जनहित
याचिकाएँ तैयार कर वकीलों के पास भेजते थे। उन्होंने स्वयं कानून की पढ़ाई नहीं की
थी; पर
उनके तर्कों को न्यायालयों में बहुत ध्यान से सुना जाता था। उन्होंने आम जनता के
हित में नीचे से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक 75 जनहित
याचिकाएँ दायर कीं। इसके फलस्वरूप ही आज जिला स्तर पर उपभोक्ता न्यायालय कार्यरत
हैं। इसी प्रकार अतिक्रमण, अवैध
निर्माण, जल और
बिजली संकट जैसे विषयों पर व्यवस्था से लड़ने के कारण वे सामान्य व्यक्ति की आवाज
और उनकी आशाओं के केन्द्र बन गये थे।
राजनीतिक दलों को भी अपने आय-व्यय का का हिसाब देना चाहिए,इसके
लिए वे सर्वोच्च न्यायालय तक गये और सफलता पायी। कांग्रेस शासन में पैट्रोल पम्प
देने के नाम पर जो भ्रष्टाचार हुआ था, उसके विरुद्ध दायर जनहित
याचिका के कारण सभी आवण्टन निरस्त कर तत्कालीन तेल मन्त्री सतीश शर्मा पर न्यायालय
ने 50 लाख रु. का जुर्माना किया। यह शीर्ष पर फैले भ्रष्टाचार को उजागर करने की उनकी
प्रतिबद्धता का अद्भुत उदाहरण है।
राजधानी दिल्ली में बिजली संकट को देखकर उनकी जनहित याचिका
के आधार पर शासन को मजबूर होकर बिजली वितरण का काम निजी कम्पनी को देना पड़ा। जनता
को सूचना का अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने लम्बी लड़ाई लड़ी। उसी से इस बारे में
कानून बन सका।
यद्यपि भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनके युद्ध से भ्रष्टाचार
मिटा नहीं; पर
उन्होंनेे सिद्ध कर दिया कि यदि किसी उचित विषय को लेकर लड़ाई को अन्त तक लड़ा
जाये, तो
परिणाम सदा अच्छे ही निकलते हैं। समाज सेवा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखकर
केन्द्र शासन ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’देकर
सम्मानित किया।
1911 में लाहौर में जन्मे तथा आम जनता के हित में शान्त भाव से सदा संघर्षरत
रहने वाले इस योद्धा का 28 जून, 2005 को देहान्त हो गया।
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29 जून/पुण्य-तिथि
रसोईघर से अध्यक्ष पद तक
सुनने में ही यह बहुत अजीब लगता है कि क्या कोई साधारण
रसोइया कभी किसी राष्ट्रव्यापी संस्था का अध्यक्ष बन सकता है; पर
अपनी लगन और कर्मठता से जिन्होंने इसे सत्य सिद्ध कर दिखाया, वे थे
स्वामी ध्रुवानन्द सरस्वती।
मथुरा (उ.प्र.) के पानीगाँव नामक ग्राम में जन्मे धुरिया नामक बालक को जीवन के 23 वर्ष तक पढ़ने का अवसर ही नहीं मिला। निर्धन और अशिक्षित परिवार में जन्म
लेने के कारण कुछ बड़े होते ही उसे पशु चराने के काम में लगा दिया गया। कुछ दिनों
बाद स्वामी सर्वानन्द जी ने उसे अपनी संस्कृत पाठशाला के छात्रावास में भोजन बनाने
का काम दे दिया।
बच्चों को संस्कृत पढ़ते देखकर उसके मन में भी पढ़ने की
लालसा होती थी; पर उसे
भोजनालय में काफी समय लग जाता था। एक बार बहुत संकोच से उसने स्वामी जी को अपनी
इच्छा बताई। स्वामी जी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। वे सबके साथ उसे भी पढ़ाने लगे।
उन्होंने उसका नाम धुरेन्द्र रख दिया।
शिक्षा प्रारम्भ होते ही धुरेन्द्र की प्रतिभा प्रकट होने
लगी। वह अपने साथियों से सदा आगे दिखायी देते थे। क्रमशः उन्होंने पंजाब
विश्वविद्यालय से शास्त्री, जयपुर
से नव्य शास्त्र तथा काशी से दर्शन शास्त्र की उच्च शिक्षा पायी। इसके बाद वे आगरा
में शुद्धि सभा के मन्त्री बने। वे बंगाल और गुरुकुल बैद्यनाथ धाम, बिहार
में प्राचार्य भी रहे। उनकी ख्याति सुनकर शाहपुर नरेश ने अपने युवराज सुदर्शन देव
को पढ़ाने के लिए उन्हें बुलाया और राजगुरु का सम्मान दिया। अन्य अनेक राजाओं की
ओर से भी उन्हें भरपूर मान सम्मान प्र्राप्त हुआ।
हैदराबाद के निजाम के अत्याचारों से हिन्दुओं की
मुक्ति हेतु हुए सत्याग्रह में वे 1,500 साथियों के साथ सम्मिलित हुए और जेल की यातनाएँ सहीं। 1946 में जब सिन्ध प्रान्त में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर
प्रतिबन्ध लगा, तो
इसके विरुद्ध उन्होंने कराची में सत्याग्रह किया। गान्धी जी के साथ भी वे अनेक बार
जेल गये।
7 जुलाई, 1954 को अलीगढ़ के पास स्थित सर्वदानन्द साधु आश्रम में स्वामी आत्मानन्द से
संन्यास की दीक्षा लेकर वे राजगुरु धुरेन्द्र शास्त्री से स्वामी ध्रुवानन्द
सरस्वती हो गये। तत्कालीन संयुक्त प्रान्त की आर्य प्रतिनिधि सभा के अध्यक्ष के
नाते उन्होंने संगठन में नये प्राण फूँके।
उनकी विद्वत्ता के कारण देश-विदेश से उन्हें निमन्त्रण आते
रहते थे। उन्होंने भारत से बाहर युगाण्डा, जंजीबार, बर्मा, मारीशस, सिंगापुर, थाइलैण्ड
आदि देशों में आर्यसमाज एवं हिन्दुत्व का प्रचार किया। जब आर्यसमाज ने गोहत्या
बन्दी के लिए पूरे देश में आन्दोलन चलाया, तो उसकी बागडोर उन्हें ही
सौंपी गयी। इसके लिए उन्होंने दिन रात परिश्रम किया। उनकी योग्यता, समर्पण
तथा संगठन क्षमता से सब लोग बहुत प्रभावित हुए। आगे चलकर उन्हें आर्यसमाज की
सर्वोच्च संस्था ‘सार्वदेशिक आर्य
प्रतिनिधि सभा’ का
अध्यक्ष बनाया गया।
इस पद पर रहकर उन्होंने विभिन्न इकाइयों में चल रहे विवादों
को सुलझाया। वे हर हाल में संगठन हित को ही सर्वोपरि रखते थे। स्वामी ध्रुवानन्द सरस्वती ने संगठन कार्य के लिए अपने स्वास्थ्य की भी
चिन्ता नहीं की। 29 जून, 1965 को वे मुम्बई से दिल्ली के लिए अपने आवास से निकले ही थे कि उन्हें तीव्र
हृदयाघात हुआ। चिकित्सक के आने से पहले ही उनका शरीर छूट गया।
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29 जून/पुण्य-तिथि
देहदानी :
शिवराम पंत जोगलेकर
बात 1943 की
है। श्री गुरुजी ने युवा प्रचारक शिवराम जोगलेकर से पूछा - क्यों शिवराम, तुम्हें
रोटी अच्छी लगती है या चावल ?
शिवराम जी ने कुछ संकोच से कहा - गुरुजी, मैं
संघ का प्रचारक हूं। रोटी या चावल, जो मिल जाए, वह खा
लेता हूं। श्री गुरुजी ने कहा - अच्छा, तो तुम चेन्नई चले जाओ, अब
तुम्हें वहां संघ का काम करना है। इस प्रकार शिवराम जी संघ कार्य के लिए तमिलनाडु
में आये, तो फिर
अंतिम सांस भी उन्होंने वहीं ली।
शिवराम जी का जन्म 1917 में बागलकोट (कर्नाटक) में हुआ था। उनके पिता श्री यशवंत जोगलेकर डाक
विभाग में काम करते थे; पर जब शिवराम जी केवल एक
वर्ष के थे, तब ही
उनका देहांत हो गया। ऐसे में उनका पालन मां श्रीमती सरस्वती जोगलेकर ने अपनी
ससुराल सांगली में बड़े कष्टपूर्वक किया।
छात्र जीवन में वे अपने अध्यापक श्री चिकोडीकर के राष्ट्रीय
विचारों से बहुत प्रभावित हुए। उनके आग्रह पर शिवराम जी ने ‘वीर
सावरकर’ के
जीवन पर एक ओजस्वी भाषण दिया। युवावस्था में पूज्य मसूरकर महाराज की प्रेरणा से
शिवराम जी ने जीवन भर देश की ही सेवा करने का व्रत ले लिया।
सांगली में पढ़ते समय 1932 में डा. हेडगेवार के दर्शन के साथ ही उनके जीवन में संघ-यात्रा प्रारम्भ हुई। 1936 में इंटर उत्तीर्ण कर वे पुणे आ गये। यहां उन्हें नगर कार्यवाह की
जिम्मेदारी दी गयी। 1938 में
बी.एस-सी पूर्ण कर उन्होंने ‘वायु में धूलकणों की गति’ पर एक
लघु शोध प्रबंध भी लिखा।
21 जून, 1940 को जब उन्हें डा. हेडगेवार के देहांत का समाचार
मिला, वे
पुणे में मौसम विभाग की प्रयोगशाला में काम कर रहे थे। उन्होंने तत्काल प्रचारक
बनने का निश्चय कर लिया; पर
पुणे के संघचालक श्री विनायकराव आप्टे ने पहले उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करने का
आग्रह किया। अतः शिवराम जी 1942 में
स्वर्ण पदक के साथ एम.एस-सी उत्तीर्ण कर प्रचारक बने।
सर्वप्रथम उन्हें मुंबई भेजा गया और फिर 1943 में चेन्नई। तमिलनाडु संघ कार्य के लिए प्रारम्भ में बहुत कठिन क्षेत्र
था। वहां के राजनेताओं ने जनता में यह भ्रम निर्माण किया था कि उत्तर भारत वालों
ने सदा से हमें दबाकर रखा है। वहां हिन्दी के साथ ही हिन्दू का भी व्यापक विरोध
होता था। ऐसे वातावरण में शिवराम जी ने सर्वप्रथम मजदूर वर्ग के बीच शाखाएं प्रारम्भ
कीं। इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत संबंध बनाने पर अधिक जोर दिया।
उन दिनों संघ के पास पैसा तो था नहीं, अतः
शिवराम जी पैदल घूमते हुए नगर की निर्धन बस्तियों तथा निकटवर्ती गांवों में
सम्पर्क करते थे। वहां की पेयजल, शिक्षा, चिकित्सा
जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन्होंने अनेक सेवा केन्द्र प्रारम्भ किये। इससे
उनके उठने-बैठने और भोजन-विश्राम के स्थान क्रमशः बढ़ने लगे। इसमें
से ही फिर कुछ शाखाएं भी प्रारम्भ हुईं। सेवा से हिन्दुत्व जागरण एवं शाखा प्रसार
का यह प्रयोग अभिनव था।
शिवराम जी अपने साथ समाचार पत्र रखते थे तथा गांवों में
लोगों को उसे पढ़कर सुनाते। वे शिक्षित लोगों को सम्पादक के नाम पत्र लिखने को
प्रेरित करते थे। इसमें से ही आगे चलकर ‘विजिल’ नामक
संस्था की स्थापना हुई। इस प्रकल्प से हजारों शिक्षित लोग संघ से जुड़े। आज
तमिलनाडु में संघ कार्य का जो सुदृढ़ आधार है, उसके पीछे शिवराम जी की
ही साधना है।
60 वर्ष तक तमिलनाडु में संघ के विविध दायित्व निभाते हुए 29 जून, 1999 को शिवराम जी का देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार मृत्योपरांत उनकी देह
चिकित्सा कार्य के लिए दान कर दी गयी।
(संदर्भ :
पांचजन्य)
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30 जून/इतिहास-स्मृति
संथाल परगना में स्वाधीनता संग्राम
स्वाधीनता संग्राम में 1857 ई. एक मील का पत्थर है; पर वस्तुतः यह समर इससे
भी पहले प्रारम्भ हो गया था। वर्तमान झारखंड के संथाल परगना क्षेत्र में हुआ ‘संथाल
हूल’ या ‘संथाल
विद्रोह’ इसका
प्रत्यक्ष प्रमाण है।
संथाल परगना उपजाऊ भूमि वाला वनवासी क्षेत्र है। वनवासी
स्वभाव से धर्म और प्रकृति के प्रेमी तथा सरल होते हैं। इसका जमींदारों ने सदा लाभ
उठाया है। कीमती वन उपज लेकर उसी के भार के बराबर नमक जैसी सस्ती चीज देना वहां आम
बात थी। अंग्रेजों के आने के बाद ये जमींदार उनसे मिल गये और संथालों पर दोहरी मार
पड़ने लगी। घरेलू आवश्यकता हेतु लिये गये कर्ज पर कई बार साहूकार 50 से 500 प्रतिशत तक ब्याज ले लेते थे।
1789 में संथाल क्षेत्र के एक वीर बाबा तिलका मांझी ने अपने साथियों के साथ
अंग्रेजों के विरुद्ध कई सप्ताह तक सशस्त्र संघर्ष किया था। उन्हें पकड़ कर
अंग्रेजों ने घोड़े की पूंछ से बांधकर सड़क पर घसीटा और फिर उनकी खून से लथपथ देह
को भागलपुर में पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी।
30 जून, 1855 को तिलका मांझी की परम्परा के अनुगामी दो सगे भाई सिद्धू और कान्हू मुर्मु
के नेतृत्व में 10,000 संथालों ने
इस शोषण के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इनका जन्म भोगनाडीह गांव में हुआ था।
उन्होंने एक सभा में ‘संथाल राज्य’ की
घोषणा कर अपने प्रतिनिधि द्वारा भागलपुर में अंग्रेज कमिश्नर को सूचना भेज दी कि
वे 15 दिन में अपना बोरिया-बिस्तर समेट
लें।
इससे बौखला कर शासन ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयास किया; पर
ग्रामीणों के विरोध के कारण वे असफल रहे। अब दोनों भाइयों ने सीधे संघर्ष का
निश्चय कर लिया। इसके लिए शालवृक्ष की टहनी घुमाकर क्रांति का संदेश घर-घर पहुंचा
दिया गया। इस परिणाम यह हुआ कि उस क्षेत्र से अंग्रेज शासन लगभग समाप्त ही हो गया।
इससे उत्साहित होकर एक दिन 50,000 संथाल
वीर अंग्रेजों को मारते-काटते कोलकाता की ओर चल दिये।
यह देखकर शासन ने मेजर बूरी के नेतृत्व में सेना भेज दी।
पांच घंटे के खूनी संघर्ष में शासन की पराजय हुई और संथाल वीरों ने पकूर किले पर
कब्जा कर लिया। सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे गये। इसके कम्पनी के अधिकारी घबरा गये।
अतः पूरे क्षेत्र में ‘मार्शल ल१’ लगाकर
उसे सेना के हवाले कर दिया गया। अब अंग्रेज सेना को खुली छूट मिल गयी। अंग्रेज
सेना के पास आधुनिक शस्त्रास्त्र थे, जबकि संथाल वीरों के पास
तीर-कमान जैसे परम्परागत हथियार। अतः बाजी पलट गयी और चारों ओर खून की नदी बहने
लगी।
इस युद्ध में लगभग 20,000 वनवासी वीरों ने प्राणाहुति दी। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने इस
युद्ध के बारे में अपनी पुस्तक ‘एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में
लिखा है, ‘‘संथालों
को आत्मसमर्पण जैसे किसी शब्द का ज्ञान नहीं था। जब तक उनका ड्रम बजता रहता था, वे
लड़ते रहते थे। जब तक उनमें से एक भी शेष रहा, वह लड़ता रहा। ब्रिटिश
सेना में एक भी ऐसा सैनिक नहीं था, जो इस साहसपूर्ण बलिदान
पर शर्मिन्दा न हुआ हो।’’
इस संघर्ष में सिद्धू और कान्हू के साथ उनके अन्य दो भाई
चांद और भैरव भी मारे गये। इस घटना की याद में 30 जून को
प्रतिवर्ष ‘हूल दिवस’ मनाया
जाता है। कार्ल मार्क्स ने अपनी पुस्तक ‘नोट्स
अ१फ इंडियन हिस्ट्री’ में इस
घटना को जनक्रांति कहा है। भारत सरकार ने भी वीर सिद्धू और कान्हू की स्मृति को
चिरस्थायी बनाये रखने के लिए एक डाक टिकट जारी किया है। (संदर्भ :
स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश)
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