जुलाई तीसरा सप्ताह

16 जुलाई/स्मृति-दिवस

जलसेवक सन्त बलबीर सिंह सींचेवाल

भारत में सन्त और महात्माओं की छवि मुख्यतः धर्मोपदेशक की है; पर कुछ सन्त पर्यावरण संरक्षण, सड़क एवं विद्यालय निर्माण आदि द्वारा नर सेवा को ही नारायण सेवा मानते हैं। ऐसे ही एक सन्त हैं बलबीर सिंह सींचेवाल, जिन्होंने सिख पन्थ के प्रथम गुरु श्री नानकदेव के स्पर्श से पावन हुई ‘काली बेई’ नदी को शुद्ध कर दिखाया। यह नदी होशियारपुर जिले के धनोआ गाँव से निकलकर हरीकेपत्तन में रावी और व्यास नदी में विलीन होती है। 
दो फरवरी, 1962 को बलबीर सिंह जी का जन्म जालन्धर में ग्राम सींचेवाल में हुआ था। एक बार भ्रमण के दौरान उन्होंने सुल्तानपुर लोधी (जिला कपूरथला) गाँव के निकट बहती काली बेई नदी को देखा। वह इतनी प्रदूषित हो चुकी थी कि स्नान और आचमन करना तो दूर, उसे छूने से भी डर लगता था। दुर्गन्ध के कारण उसके निकट जाना भी कठिन था। 162 किलोमीटर लम्बी नदी में निकटवर्ती 35 शहरों का मल-मूत्र एवं गन्दगी गिरती थी। नदी के आसपास की जमीनों को भ्रष्ट पटवारियों ने बेच दिया था या फिर उन पर अवैध कब्जे हो चुके थे। लोगों का ध्यान इस पवित्र नदी की स्वच्छता की ओर बिल्कुल नहीं था।
ऐसे में संकल्प के धनी बलबीर सिंह जी ने कारसेवा के माध्यम से इस नदी को शुद्ध करने का बीड़ा उठाया। उनके साथ 20-22 युवक भी आ जुटे। 16 जुलाई, 2001 ई. को उन्होंने वाहे गुरु को स्मरण कर गुरुद्वारा बेर साहिब के प्राचीन घाट पर अपने साथियों के साथ नदी में प्रवेश किया; पर यह काम इतना आसान नहीं था। स्थानीय माफिया, राजनेताओं और शासन ही नहीं, तो गुरुद्वारा समिति वालों ने भी इसमें व्यवधान डालने का प्रयास किया। उन्हें लगा कि इस प्रकार तो हमारी चैधराहट ही समाप्त हो जाएगी। कुछ लोगों ने उन कारसेवकों से सफाई के उपकरण छीन लिये।
पर सन्त सींचेवाल ने धैर्य नहीं खोया। उनकी छवि क्षेत्र में बहुत उज्जवल थी। वे इससे पहले भी कई विद्यालय और सड़क बनवा चुके थे। उन्हें न राजनीति करनी थी और न ही किसी संस्था पर अधिकार। अतः उन्होंने जब प्रेम से लोगों को समझाया, तो बात बन गयी और फिर तो कारसेवा में सैकड़ों हाथ जुट गये। उन्होंने गन्दगी को शुद्ध कर खेतों में डलवाया। इससे खेतों को उत्तम खाद मिलने लगी और फसल भी अच्छी होने लगी। सबमर्सिबल पम्पों द्वारा भूमि से पानी निकालने की गति जब कम हुई, तो नदी का जल स्तर भी बढ़ने लगा। जब समाचार पत्रों में इसकी चर्चा हुई, तो हजारों लोग इस पुण्य कार्य में योगदान देने लगे।
सन्त जी ने न केवल नदी को शुद्ध किया, बल्कि उसके पास के 160 कि.मी. लम्बे मार्ग का भी निर्माण कराया। किनारों पर फलदार पेड़ और सुन्दर सुगन्धित फूलों के बाग लगवाये। उन्हांेने पुराने घाटों की मरम्मत कराई और नये घाट बनवाये। नदी में नौकायन का प्रबन्ध कराया, जिससे लोगों का आवागमन उस ओर खूब होने लगा। इससे उनकी प्रसिद्धि चहुँ ओर फैल गयी।
होते-होते यह प्रसिद्धि तत्कालीन राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम तक पहुँची। वे एक वैज्ञानिक होने के साथ ही पर्यावरण प्रेमी भी हैं। 17 अगस्त, 2006 को वे स्वयं इस प्रकल्प को देखने आये। उन्होंने देखा कि यदि एक व्यक्ति ही सत्संकल्प से काम करे, तो वह असम्भव को सम्भव कर सकता है। सन्त जी को पर्यावरण के क्षेत्र में अनेक राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय सम्मान मिले हैं; पर वे विनम्र भाव से इसे गुरु कृपा का प्रसाद ही मानते हैं। भारत सरकार ने 2017 में उन्हें ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया है।
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16 जुलाई/जन्म-दिवस

सबकेे शंकराचार्य पूज्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती

हिन्दू धर्म में शंकराचार्य का बहुत ऊँचा स्थान है। अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड एवं पूजा आदि के कारण प्रायः शंकराचार्य मन्दिर-मठ तक ही सीमित रहते हैं। शंकराचार्य की चार प्रमुख पीठों में से एक कांची अत्यधिक प्रतिष्ठित है। इसके शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती इन परम्पराओं को तोड़कर निर्धन बस्तियों में जाते हैं। इस प्रकार उन्होंने अपनी छवि अन्यों से अलग बनाई। हिन्दू संगठन के कार्यों में वे बहुत रुचि लेते हैं। यद्यपि इस कारण उन्हें अनेक गन्दे आरोपों का सामना कर जेल की यातनाएँ भी सहनी पड़ीं।

श्री जयेन्द्र सरस्वती का बचपन का नाम सुब्रह्मण्यम था। उनका जन्म 16 जुलाई, 1935 को तमिलनाडु के इरुलनीकी कस्बे में श्री महादेव अय्यर के घर में हुआ था। पिताजी ने उन्हें नौ वर्ष की अवस्था में वेदों के अध्ययन के लिए का॰ची कामकोटि मठ में भेज दिया। वहाँ उन्होंने छह वर्ष तक ऋग्वेद व अन्य ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। मठ के 68 वें आचार्य चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती ने उनकी प्रतिभा देखकर उन्हें उपनिषद पढ़ने को कहा। सम्भवतः वे सुब्रह्मण्यम में अपने भावी उत्तराधिकारी को देख रहे थे।

आगे चलकर उन्होंने अपने पिता के साथ अनेक तीर्थों की यात्रा की। वे भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन के लिए तिरुमला गये और वहाँ उन्होंने सिर मुण्डवा लिया। 22 मार्च, 1954 उनके जीवन का महत्वपूर्ण दिन था, जब उन्होंने संन्यास ग्रहण किया। सर्वतीर्थ तालाब में कमर तक जल में खड़े होकर उन्होंने प्रश्नोच्चारण मन्त्र का जाप किया और यज्ञोपवीत उतार कर स्वयं को सांसारिक जीवन से अलग कर लिया। इसके बाद वे अपने गुरु स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती द्वारा प्रदत्त भगवा वस्त्र पहन कर तालाब से बाहर आये।

इसके बाद 15 वर्ष तक उन्होंने वेद, व्याकरण मीमाँसा तथा न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन किया। उनकी प्रखर साधना देखकर कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उनका नाम जयेन्द्र सरस्वती रखा। अब उनका अधिकांश समय पूजा-पाठ में बीतने लगा; पर देश और धर्म की अवस्था देखकर कभी-कभी उनका मन बहुत बेचैन हो उठता था। वे सोचते थे कि चारों ओर से हिन्दू समाज पर संकट घिरे हैं; पर हिन्दू समाज अपने स्वार्थ में ही व्यस्त है।

इन समस्याओं पर विचार करने के लिए वे एक बार मठ छोड़कर कुछ दिन के लिए एकान्त में चले गये। वहाँ से लौटकर उन्होेंने पूजा-पाठ एवं कर्मकाण्ड के काम अपने उत्तराधिकारी को सौंप दिये और स्वयं निर्धन हिन्दू बस्तियों में जाकर सेवा-कार्य प्रारम्भ करवाये। उन्हें लगता था कि इस माध्यम से ही निर्धन, अशिक्षित एवं व॰िचत हिन्दुओं का मन जीता जा सकता है।

उन्होंने मठ के पैसे एवं भक्तों के सहयोग से सैकड़ों विद्यालय एवं चिकित्सालय आदि खुलवाये। इससे तमिलनाडु में हिन्दू जाग्रत एवं संगठित होने लगे। धर्मान्तरण की गतिविधियों पर रोक लगी; पर न जाने क्यों वहाँ की मुख्यमन्त्री जयललिता अपनी सत्ता के मार्ग में उन्हें बाधक समझने लगी। उसने षड्यन्त्रपूर्वक उन्हें जेल में ठूँस दिया; पर न्यायालय में सब आरोप झूठ सिद्ध हुए। जनता ने भी अगले चुनाव में जयललिता को भारी पराजय दी। आज भी खराब स्वास्थ्य और वृद्धावस्था के बावजूद पूज्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती हिन्दू समाज की सेवा में लगे हैं।
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17 जुलाई/जन्म दिवस  

          भारतीयता के सेतुबंध बालेश्वर अग्रवाल

भारतीय पत्र जगत में नये युग के प्रवर्तक श्री बालेश्वर अग्रवाल का जन्म 17 जुलाई, 1921 को उड़ीसा के बालासोर (बालेश्वर) में जेल अधीक्षक श्री नारायण प्रसाद अग्रवाल एवं श्रीमती प्रभादेवी के घर में हुआ था।  

बिहार में हजारीबाग से इंटर उत्तीर्ण कर उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. (इंजिनियरिंग) की उपाधि ली तथा डालमिया नगर की रोहतास  इंडस्ट्री में काम करने लगे। यद्यपि छात्र जीवन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आकर वे अविवाहित रहकर देशसेवा का व्रत अपना चुके थे।

1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर उन्हें गिरफ्तार कर पहले आरा और फिर हजारीबाग जेल में रखा गया। छह महीने बाद रिहा होकर वे काम पर गये ही थे कि सत्याग्रह प्रारम्भ हो गया। अतः वे भूमिगत होकर संघर्ष करने लगे। उन्हें पटना से प्रकाशित ‘प्रवर्तक पत्र’ के सम्पादन का काम दिया गया।

बालेश्वर जी की रुचि पत्रकारिता में थी। स्वाधीनता के बाद भी इस क्षेत्र में अंग्रेजी के हावी होने से वे बहुत दुखी थे। भारतीय भाषाओं के पत्र अंग्रेजी समाचारों का अनुवाद कर उन्हें ही छाप देते थे। ऐसे में संघ के प्रयास से 1951 में भारतीय भाषाओं में समाचार देने वाली ‘हिन्दुस्थान समाचार’ नामक संवाद संस्था का जन्म हुआ। दादा साहब आप्टे और नारायण राव तर्टे जैसे वरिष्ठ प्रचारकों के साथ बालेश्वर जी भी प्रारम्भ से ही उससे जुड़ गये।

इससे भारतीय पत्रों में केवल अनुवाद कार्य तक सीमित संवाददाता अब मौलिक लेखन, सम्पादन तथा समाचार संकलन में समय लगाने लगे। इस प्रकार हर भाषा में काम करने वाली पत्रकारों की नयी पीढ़ी तैयार हुई। ‘हिन्दुस्थान समाचार’ को व्यापारिक संस्था की बजाय ‘सहकारी संस्था’ बनाया गया, जिससे यह देशी या विदेशी पूंजी के दबाव से मुक्त होकर काम कर सके। 

उन दिनों सभी पत्रों के कार्यालयों में अंग्रेजी के ही दूरमुद्रक (टेलीप्रिंटर) होते थे। बालेश्वर जी के प्रयास से नागरी लिपि के दूरमुद्रक का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। तत्कालीन संचार मंत्री श्री जगजीवन राम ने दिल्ली में तथा राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन ने पटना में इसका एक साथ उद्घाटन किया। भारतीय समाचार जगत में यह एक क्रांतिकारी कदम था, जिसके दूरगामी परिणाम हुए। 

आपातकाल में इंदिरा गांधी ने ‘हिन्दुस्थान समाचार’ पर ताले डलवा दिये; पर बालेश्वर जी शान्त नहीं बैठे। भारत-नेपाल मैत्री संघ, अन्तरराष्ट्रीय सहयोग परिषद तथा अन्तरराष्ट्रीय सहयोग न्यास आदि के माध्यम से वे विदेशस्थ भारतीयों से सम्पर्क में लग गये। कालान्तर में बालेश्वर जी तथा ये सभी संस्थाएं प्रवासी भारतीयों और भारत के बीच एक मजबूत सेतु बन गयी।

वर्ष 1998 में उन्होंने विदेशों में बसे भारतवंशी सांसदों का तथा 2000 में ‘प्रवासी भारतीय सम्मेलन’ किया। प्रतिवर्ष नौ जनवरी को मनाये जाने वाले ‘प्रवासी दिवस’ की कल्पना भी उनकी ही ही थी। प्रवासियों की सुविधा के लिए उन्होंने दिल्ली में ‘प्रवासी भवन’ बनवाया। वे विदेशस्थ भारतवंशियों के संगठन और कल्याण में सक्रिय लोगों को सम्मानित भी करते थे। जिन देशों में भारतीय मूल के लोगों की बहुलता है, वहां उन्हें भारतीय राजदूत से भी अधिक सम्मान मिलता था। कई राज्याध्यक्ष उन्हें अपने परिवार का ही सदस्य मानते थे। 

‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्रतिरूप बालेश्वर जी का न निजी परिवार था और न घर। अनुशासन और समयपालन के प्रति वे सदा सजग रहते थे। देश और विदेश की अनेक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया था। जीवन का अधिकांश समय प्रवास में बिताने के बाद वृद्धावस्था में वे ‘प्रवासी भवन’ में ही रहते हुए विदेशस्थ भारतीयों के हितचिंतन में लगे रहे। 23 मई, 2013 को 92 वर्ष की आयु में भारतीयता के सेतुबंध का यह महत्वपूर्ण स्तम्भ टूट गया। 

(संदर्भ : हिन्दू चेतना 16.8.10/प्रलयंकर 24.5.13/पांचजन्य 2.6.13)
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17 जुलाई/जन्म-दिवस

जम्मू-कश्मीर में भारत की आवाज गोपाल सच्चर

जम्मू-कश्मीर का इतिहास और भूगोल जिनकी उंगलियों पर रहता था, ऐसे वरिष्ठ पत्रकार गोपाल सच्चर का जन्म 17 जुलाई, 1927 को जम्मू के पास एक सामान्य ग्रामीण परिवार में हुआ था। उनकी माताजी को आंखों से नहीं दिखता था; पर उन्होंने अपने बेटे की पढ़ाई पर पूरा ध्यान दिया। उनके मामाजी ने भी उन्हें टिकरी डोगरी पढ़ाई, जो अब प्रचलन में नहीं है। उन दिनों पटवारी की नौकरी बहुत बड़ी मानी जाती थी। अतः उनके जन्म के बाद दादी ने एक पंडित से पूछा कि क्या मेरा पोता पटवारी बनेगा ? पंडित ने कहा कि पटवारी तो नहीं बनेगा, पर बहुत पढ़ेगा और उससे अधिक सम्मान पाएगा।

पहले मनावर और फिर जम्मू से पढ़ाई पूरी कर गोपाल सच्चर ने पत्रकारिता शुरू की। आजादी के बाद ज/क के भारत में पूर्ण विलय के लिए प्रजा परिषदने पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में आंदोलन किया। इसमें वे एक सिपाही की तरह जुड़े। आगे चलकर उन्होंने स्वदेशअखबार शुरू किया। वे कुल पांच अखबारों के संपादक रहे और सबका स्वर राष्ट्रवादी ही रहा। इस कारण वे कई बार जेल गये और यातनाएं भी सहीं। पुलिस की मार से उनकी एक उंगली टूट गयी, जो आजीवन मुड़ी ही रही। श्रीनगर जेल में उनकी बैरक पर दुश्मन एजेंटलिखा रहता था।

वे ज/क को अब्दुल्लाशाही से मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने फारुख अब्दुल्ला के शासन में ही उसके ज/क लिबरेशन फ्रंटसे संबंधों को सचित्र प्रकाशित किया। प्रामाणिक होने के कारण सरकार तिलमिला कर रह जाती थी। जब डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार कर श्रीनगर लाया गया, तो गोपाल सच्चर भी श्रीनगर जेल में थे। उन्होंने बताया कि डा. मुखर्जी को किसी बंगले मंें नहीं, बल्कि निशातबाग में एक माली की झोंपड़ी में रखा था। क्योंकि शासन उन्हें कैसे भी मारना चाहता था। उनकी मृत्यु के बाद लोग उस झोंपड़े को देखने आने लगे, तो शासन ने उसे भी नष्ट करवा दिया।

गोपाल सच्चर देश और विदेश के सभी बड़े नेताओं के ज/क प्रवास की रिपोर्टिंग करते थे। उनके आलेख पंजाब केसरी, पांचजन्य, आर्गनाइजर, यू.एन.आई, डेक्केन हेरल्ड, मदरलैंड, दिनमान जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में छपते थे। पंजाब केसरीके संस्थापक लाला जगतनारायण उन्हें बहुत मानते थे। ज/क में केवल स्थानीय व्यक्ति ही अखबार निकाल सकता था। इसलिए उन्होंने जम्मू में पंजाब केसरीकी स्थापना के लिए प्रकाशक और मुद्रक की जगह अपना नाम दिया। उनके पास राज्य की हर घटना और दुर्घटना की सही जानकारी रहती थी। उनके अभिलेखागार में हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू के हजारों पुराने अखबार थे। वे राज्य के जीवंत विश्वकोश एवं पत्रकारिता के विश्वविद्यालय थे।

गोपाल सच्चर ने दिग्गज पत्रकार लाला जगतनारायण, के.आर. मलकानी और रामनाथ गोयनका के पथ का अनुसरण करते हुए अपनी कलम से ज/क में देशद्रोही तत्वों को बेनकाब किया। यह काम खतरे से खाली नहीं था। उनके आलेखों में कश्मीर में सक्रिय अलगाववादी तत्वों के मन्सूबे, सत्ता पक्ष की उनसे सांठगांठ, पाकिस्तान और अन्य विदेशी तत्वों से मिलने वाली सहायता आदि का विस्तृत वर्णन होता था। सत्य, तथ्य और प्रमाणों के कारण उनकी रिपोर्ट को कोई चुनौती नहीं दे पाता था। उन्हें अपने काम पर अनेक मान और सम्मान मिले। इनमें पांचजन्य एवं भारत प्रकाशन का नचिकेता सम्मानभी था, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दिया था।

वरिष्ठ पत्रकार गोपाल सच्चर ने आजादी के बाद से राज्य के सभी मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में होने वाली हिन्दुओं की दुर्दशा को देखा। 14 नवंबर, 2022 को जम्मू स्थित अपने घर पर ही उनका देहांत हुआ। जीवन के अंतिम समय में उन्हें अनुच्छेद 370 हटने का अपार हर्ष और संतोष था।

(पांचजन्य 27.11.22/43, तरुण विजय)

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17 जुलाई/जन्म-दिवस

उड़ीसा में संगठन के रचनाकार हरिहर नंदा 

संपूर्ण भारत की तरह उड़ीसा में भी संघ कार्य का बीजारोपण महाराष्ट्र से आये प्रचारकों ने किया; पर उनके परिश्रम, समर्पण भाव और कार्य कुशलता से क्रमशः उड़ीसा में भी कार्यकर्ताओं की पौध तैयार होने लगी। शुरुआती दौर में जो लोग जीवनव्रती प्रचारक बने, उनमें ‘हरिहर दा’ के नाम से प्रसिद्ध श्री हरिहर नंदा को बड़े आदर से याद किया जाता है।

हरिहर दा का जन्म 17 जुलाई, 1936 को जिला बालेश्वर के ग्राम नाइकुड़ी में हुआ था। यद्यपि उनका पैतृक ग्राम उसी जिले में बलियापाटी था। उनके पिता श्री कृतिवास नंदा तथा माता श्रीमती कस्तूरीमणि देवी थीं। पांच भाई बहिनों में उनका नंबर दूसरा था। उनकी प्राथमिक शिक्षा इड़दा प्राथमिक विद्यालय और फिर बालेश्वर के जिला स्कूल में हुई। बालेश्वर के फकीर मोहन काॅलेज से इंटरमीडिएट तथा कोलकाता के सिटी काॅलेज से बी.एस-सी. कर उन्होंने रूपसा, जामशूली तथा इड़दा के हाई स्कूलों में अध्यापन कार्य किया। इस दौरान उन्होंने कोलकाता वि.वि. से कानून की डिग्री भी प्राप्त की। 

बालेश्वर में हाई स्कूल में पढ़ते समय तत्कालीन विभाग प्रचारक सदानंद पांतेवाने के संपर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने। शाखा कार्य में कई जिम्मेदारियां निभाते हुए 1957 से 60 तक संघ शिक्षा वर्ग के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण भी उन्होंने प्राप्त किये। कोलकाता में पढ़ते हुए उन्हें संघ कार्य के विस्तार के लिए नक्सलबाड़ी जैसे खतरनाक क्षेत्र में भी भेजा गया। 

संघ के विचारों के प्रसार के लिए उड़ीसा में एक अखबार की जरूरत थी। अतः 1964 में एक साप्ताहिक पत्र ‘राष्ट्रदीप’ प्रारम्भ कर हरिहर दा उसके संस्थापक संपादक बनाये गये। 1974 तक उन्होंने यह काम संभाला। इस दौरान वे कटक के जिला प्रचारक भी रहे। 1974 में उन्हें उड़ीसा प्रांत कार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी। अब पूरे प्रांत में उनका प्रवास होने लगा।

लेकिन 1975 में इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया। संघ पर भी प्रंतिबंध लगा दिया गया। ऐसे कठिन समय में हरिहर दा ने भूमिगत रहकर पूरे प्रांत में सत्याग्रह का संचालन किया। आपातकाल समाप्त होने पर तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री बाबूराव पालधीकर को क्षेत्र प्रचारक बनाकर कोलकाता भेज दिया गया। अब हरिहर दा को प्रांत प्रचारक की जिम्मेदारी मिली। उन्होंने सघन प्रवास कर शाखा तथा संघ के समविचारी संगठनों के काम को नीचे तक फैलाया। इसीलिए उन्हें उड़ीसा में संगठन का रचनाकार माना जाता है। वनवासी बहुल राज्य होने के कारण उड़ीसा में ईसाई मिशनरियों का काम बहुत पुराना है। उनसे कई बार टकराव भी होता था; पर हरिहर दा साहसी स्वभाव के थे। उनके नेतृत्व में स्वयंसेवकों ने कई जगहों से मिशनरियों को खदेड़ दिया।

1978 से 1996 तक प्रांत प्रचारक रहने के बाद उन्हें क्रमशः क्षेत्र बौद्धिक प्रमुख, क्षेत्र प्रचार प्रमुख और फिर हिन्दू जागरण मंच के राष्ट्रीय संयोजक की जिम्मेदारी मिली। इन दायित्वों को भी उन्होंने लम्बे समय तक निभाया। आयु बढ़ने पर जब स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं आने लगीं, तो उन्हें सक्रिय काम से अवकाश दे दिया गया। इस दौरान वे यकृत के कैंसर से पीडि़त हो गये। इलाज के बावजूद रोग बढ़ता गया और उसी के चलते 11 मार्च, 2019 को ब्रह्म मुहूर्त में भुवनेश्वर के सम अस्पताल में उनका निधन हुआ।

हरिहर दा ने प्रचुर मौलिक लेखन के साथ श्री गुरुजी, बाबासाहब आप्टे, शेषाद्रिजी, दत्तोपंत ठेंगड़ी, वीर सावरकर, भाऊ साहब भुस्कुटे आदि की कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के ओडि़या भाषा में अनुवाद भी किये। वे अच्छे वक्ता होने के साथ ही अच्छे गीतकार भी थे। उन्होंने ओडि़या में संघ के कई गीतों की रचना की, जिन्हें आज भी वहां की शाखाओं में गाया जाता है।


(संदर्भ : नारायण नायक, अ.भा.साहित्य परिषद, आर्गनाइजर 24.3.19)
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17 जुलाई/पुण्य-तिथि
 


रज्जू भैया के विश्वस्त सहायक श्री शिवप्रसाद जी
 

संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री शिवप्रसाद जी का जन्म 1926 ई. में ग्राम टेंडवा अल्पी मिश्र (जिला बहराइच, उ.प्र.) में हुआ था। उनके पिता श्री सियाराम गौड़ कपूरथला रियासत में जिलेदार अर्थात राजस्व अमीन थे। उनके छोटे भाई श्री दुखहरणनाथ गौड़ बेसिक शिक्षा परिषद में प्राचार्य रहे। 

गांव में इस परिवार की काफी अच्छी खेतीबाड़ी थी। प्राथमिक शिक्षा के बाद शिवप्रसाद जी ने महराज सिंह इंटर कॉलिज, बहराइच से प्रथम श्रेणी में माध्यमिक शिक्षा उत्तीर्ण कर पुरस्कार पाया। इसके बाद तालुकेदार इंटर कॉलिज, लखनऊ से उन्होंने इंटर और फिर लखनऊ वि.वि. से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। तालुकेदार इंटर कॉलिज में उन दिनों प्रायः जमीदारों और नवाबों के बच्चे ही पढ़ते थे। इससे उनके परिवार की सम्पन्नता का पता लगता है।
 

उन दिनों व्यापारी अपना हिसाब उर्दू में ही रखते थे। शिवप्रसाद जी का उर्दू पर अच्छा अधिकार था। अतः उन्हें लखनऊ में बाजार निरीक्षक की सरकारी नौकरी मिल गयी। उनका विवाह बचपन में ही ग्राम रीवान, जिला सीतापुर के जमींदार श्री त्रिवेणी सहाय की एकमात्र संतान विद्योत्तमा देवी से हो गया था। विवाह के बाद ससुर जी अपनी सारी सम्पत्ति उन्हें देना चाहते थे, पर उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। विवाह से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई; पर वह शीघ्र ही चल बसा। कुछ समय बाद उनकी पत्नी की भी मृत्यु हो गयी।
 

लखनऊ में पढ़ते समय शिवप्रसाद जी स्वयंसेवक बने थे। उनकी इच्छा भी प्रचारक बनने की थी; पर गृहस्थी की जिम्मेदारी इसमें बाधक था। लेकिन बेटे और पत्नी की मृत्यु से यह बंधन टूट गया। उन्होंने पुनर्विवाह का विचार न करते हुए नौकरी छोड़ दी और 1947 में प्रचारक बन गये।
 

प्रचारक जीवन में वे बस्ती, मेरठ, फरुखाबाद और सीतापुर में जिला प्रचारक और फिर सीतापुर में विभाग प्रचारक रहे। आपातकाल में शिवप्रसाद जी सीतापुर में एक सभा में बोलते समय गिरफ्तार हुए और जेल भेज दिये गये। वहां से वे आपातकाल के बाद ही छूटे। कन्नौज निवासी शरद जी को उन्होंने ही कानपुर में श्री अशोक सिंहल से मिलवाया था। इसके बाद दोनों में घनिष्ठता हो गयी और फिर शरद जी प्रचारक बने। जनवरी, 1993 में मध्यभारत के प्रांत प्रचारक रहते हुए मुख कैंसर से शरद जी का निधन हुआ।
 

शिवप्रसाद जी का कार्यक्षेत्र अब तक उत्तर प्रदेश ही रहा था। रज्जू भैया प्रयाग में प्राध्यापक रहते हुए उ.प्र. का संघ कार्य देखते थे। अतः दोनों में बहुत निकटता थी। आपातकाल के बाद रज्जू भैया पर सहसरकार्यवाह और फिर सरकार्यवाह की जिम्मेदारी आयी। उनका केन्द्र भी दिल्ली हो गया। अतः 1980 में रज्जू भैया ने अपने सहायक के नाते उन्हें दिल्ली बुला लिया। वर्ष 2000 तक वे दिल्ली कार्यालय प्रमुख रहे। रज्जू भैया को वि.वि. से मिलने वाली पेंशन तथा उनके आयकर आदि का हिसाब भी वे ही रखते थे। अत्यधिक श्रद्धा के कारण रज्जू भैया का चित्र वे सदा अपनी मेज पर रखते थे।
 

जब रज्जू भैया सरसंघचालक की जिम्मेदारी से निवृत्त होकर पुणे चले गये, तो शिवप्रसाद जी भी दिल्ली से लखनऊ के ‘भारती भवन’ कार्यालय पर आ गये। यहां उन्होंने कार्यालय सम्बन्धी कई काम भी संभाल लिये। स्वास्थ्य ढीला रहने के बावजूद वे प्रतिदिन भारती भवन की प्रातः शाखा में उपस्थित रहते थे। उनका कमरा भूतल पर था। अतः शाखा का ध्वज भी वहीं रहता था।
 

एक दिन प्रातः जब उनका कमरा नहीं खुला, तो सबको चिन्ता हुई। काफी आवाज देने के बाद धक्का देकर दरवाजा खोला गया, तो देखा कि वे धरती पर गिरे हुए हैं। तुरंत उन्हें अस्पताल ले जाया गया। वहां वे दो-तीन दिन भर्ती रहे; पर कुछ लाभ नहीं हुआ और 18 जुलाई, 2002 को अस्पताल में ही उनका निधन हो गया। 

(संदर्भ : श्री कृष्णानंद शुक्ल, बहराइच एवं पांचजन्य)
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17 जुलाई/पुण्य-तिथि                 

सदा संघर्षरत जे.गौरीशंकर
आंध्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिन्दू संगठनों के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा नक्सलवादी रहे हैं। इन हिंसक और विदेश प्रेरित आतंकियों से उनकी ही भाषा में बात कर उन्हें हटने को मजबूर करने वाले श्री जनमंच गौरीशंकर का जन्म 15 दिसम्बर, 1949 को आंध्र प्रदेश के नेल्लूर जिले के कोवूर ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री लक्ष्मीशंकर शर्मा तथा माता श्रीमती शारदाम्बा थीं। कक्षा 10 तक की शिक्षा गांव में ही पाकर वे नेल्लूर आ गये और वहां से उन्होंने विद्युत अभियन्ता का तीन वर्षीय डिप्लोमा प्राप्त किया। इसी समय उनका सम्पर्क विद्यालय में लगने वाली शाखा से हुआ।

शाखा पर प्रायः एस.एफ.आई. के गुंडे हमला करते रहते थे। स्वयंसेवक भी उन्हें वैसा ही उत्तर देते थे। गौरीशंकर स्वयंसेवकों की इस विनम्रता, सेवा भावना और संघर्षशीलता से प्रभावित होकर नियमित शाखा आने लगे। डिप्लोमा के तीसरे वर्ष में वे विद्यालय शाखा के मुख्यशिक्षक बने। उनके पिताजी उन्हें शाखा से दूर रहने को कहते थे, चूंकि उस सारे क्षेत्र में नक्सलियों का भारी आतंक था; पर निर्भीक गौरीशंकर क्रमशः संघ कार्य में रमते गये।

1970 में शिक्षा पूर्णकर गौरीशंकर जी प्रचारक बन गये। वे क्रमशः गुंटूर में बापटला नगर, तेनाली नगर और फिर पश्चिम गोदावरी जिला प्रचारक रहे। आपातकाल में वे अनंतपुर जिला प्रचारक थे। उनके सम्पर्क का दायरा बहुत बड़ा था। उन्होंने कई प्रतिष्ठित वकीलों, अवकाश प्राप्त अधिकारियों तथा एक बैरिस्टर को भी संघ से जोड़ा। आपातकाल में भी उन्होंने कई प्रचारक बनाये। 

परिवारों में अच्छी पंहुच होने के कारण घर की अनुमति से उन्होंने कई युवकों को सत्याग्रह कराया। पुरानी कांग्रेस के नेता नीलम संजीव रेड्डी से उन्होंने अनंतपुर के सत्याग्रह का नेतृत्व करने को कहा; पर वे डर गये। जनसंघ के एक बन्दी कार्यकर्ता को उन्होंने विधान परिषद का चुनाव लड़ाकर विजयी बनाया।

1977 के चुनाव में जनता पार्टी के पास अनंतपुर से लड़ने के लिए प्रत्याशी ही नहीं था। ऐसे में गौरीशंकर जी ने एक व्यक्ति को तैयार कर चुनाव लड़ाया। आपातकाल में वे 'एक्स-रे' नामक एक गुप्त पत्रक भी निकालते थे। 1979 में उन्हें विद्यार्थी परिषद का प्रांत संगठन मंत्री बनाया गया। वह नक्सलियों से चरम संघर्ष का समय था। उसमें विद्यार्थी परिषद के कई कार्यकर्ता बलिदान हुए, तो कई नक्सली भी मारे गये। संघर्ष के उस कठिन दौर में उन्होंने सबका मनोबल बनाये रखा। परिषद की मासिक पत्रिका सांदीपनीमें बलिदान हुए कार्यकर्ताओं की स्मृति में उनका मार्मिक लेख बहुत चर्चित हुआ।

गौरीशंकर जी पर एक समय उनके विभाग प्रचारक रहे श्री भोगादि दुर्गाप्रसाद का बहुत प्रभाव था। उनके असमय देहांत के बाद उन्होंने उनकी स्मृति में समिति बनाकर छात्रों को छात्रवृत्ति तथा प्रचारक जीवन से लौटे कार्यकर्ताओं को आर्थिक सहयोग दिया, जिससे वे अपना कारोबार खड़ा कर सकें। उनकी पुण्यतिथि पर वे प्रतिवर्ष एक बड़ा परिवार सम्मेलन भी करते थे।

आंध्र में विद्यार्थी परिषद के कार्य को दृढ़ करने के बाद उन्हें क्षेत्र संगठन मंत्री बनाया गया। इस समय आंध्र, उड़ीसा, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु उनके कार्यक्षेत्र में थे। 1998 में वे राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री बनाये गये; पर देशव्यापी प्रवास की व्यस्तता, अनियमित दिनचर्या और खानपान की अव्यवस्था के कारण वे मधुमेह से पीड़ित हो गये। ध्यान न देने के कारण धीरे-धीरे रोग इतना बढ़ गया कि उन्हें बंगलौर के चिकित्सालय में भर्ती करना पड़ा।

संघर्षप्रिय जे.गौरीशंकर ने कभी परिस्थितियों से हार नहीं मानी; पर इस बार विधाता अनुकूल नहीं था। चार महीने तक रोग से संघर्ष करने के बाद 17 जुलाई, 2001 को उन्होंने प्रभु चरणों में समर्पण कर दिया।    

(श्री कोटेश्वर जी से वार्ताधारित)
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18 जुलाई/जन्म-दिवस                  

विश्व हिन्दू परिषद के प्रथम अध्यक्ष जयचामराज वाडियार

विश्व भर के हिन्दुओं को संगठित करने के लिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (29 अगस्त, 1964) को स्वामी चिन्मयानंद जी की अध्यक्षता में, उनके मुंबई स्थित सांदीपनि आश्रम में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई। 

इस अवसर पर धार्मिक, और सामाजिक क्षेत्र की अनेक महान विभूतियां उपस्थित थीं। स्थापना के समय महामंत्री का दायित्व संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री शिवराम शंकर (दादासाहब) आप्टे ने संभाला, वहां अध्यक्ष के लिए सबने सर्वसम्मति से मैसूर राज्य के पूर्व और अंतिम महाराज श्री जयचामराज वाडियार का नाम स्वीकृत किया।

श्री जयचामराज वाडियार का जन्म 18 जुलाई, 1919 को मैसूर (वर्तमान कर्नाटक) के राजपरिवार में हुआ था। वे युवराज कान्तिराव नरसिंहराजा वाडियार और युवरानी केम्पु चेलुवाजा अम्मानी के एकमात्र पुत्र थे। 1938 में उन्होंने मैसूर वि.वि. से प्रथम श्रेणी में भी सर्वप्रथम रहकर, पांच स्वर्ण पदकों सहित स्नातक की उपाधि ली। फिर उन्होंने शासन-प्रशासन का व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया। 

1939 में अपने पिता तथा 1940 में अपने चाचा श्री नाल्वदी कृष्णराज वाडियार के निधन के बाद आठ सितम्बर, 1940 को वे राजा बने। भारत के एकीकरण के प्रबल समर्थक श्री वाडियार ने 1947 में स्वाधीनता प्राप्त होते ही अपने राज्य के भारत में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये थे। 

संविधान बनते ही 26 जनवरी, 1950 को मैसूर रियासत भारतीय गणराज्य में विलीन हो गयी। इसके बाद भी वे मैसूर के राजप्रमुख बने रहे। 1956 में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के समय निकटवर्ती मद्रास और हैदराबाद राज्यों के कन्नड़भाषी क्षेत्रों को लेकर मैसूर राज्य बनाया गया, जो अब कर्नाटक कहलाता है। श्री वाडियार 1956 से 1964 तक इसके राज्यपाल रहे। फिर वे दो वर्ष तक तमिलनाडु के भी राज्यपाल बनाये गये।

श्री जयचामराज वाडियार खेल, कला, साहित्य और संस्कृति के बड़े प्रेमी थे। उन्होंने कई नरभक्षी शेरों और पागल हाथियों को मारकर जनता को भयमुक्त किया। टेनिस खिलाड़ी रामनाथ कृष्णन तथा क्रिकेट खिलाड़ी प्रसन्ना उनके आर्थिक सहयोग से ही विश्वप्रसिद्ध खिलाड़ी बने। 

वे अच्छे पियानो वादक तथा गीत-संगीत के जानकार व प्रेमी थे। उन्होंने कई देशी व विदेशी संगीतकारों को संरक्षण दिया। ‘जयचामराज ग्रंथ रत्नमाला’ के अंतर्गत उन्होंने सैकड़ों संस्कृत ग्रंथों का कन्नड़ में अनुवाद कराया। इनमें ऋग्वेद के 35 भाग भी शामिल हैं।

श्री वाडियार गांधी जी के ‘ग्राम स्वराज्य’ से प्रभावित थे। उन्होंने मैसूर राज्य में हस्तकला को प्रोत्साहित कर निर्धन वर्ग को उद्योग धन्धों में लगाया। वे सामाजिक स्तर पर और भी कई सुधार करना चाहते थे; पर इसके लिए उन्हें पर्याप्त समय नहीं मिल सका। जन सेवा को जनार्दन सेवा मानने वाले श्री वाडियार सदा जाति, पंथ और भाषा के भेद से ऊपर उठकर ही सोचते थे।

श्री वाडियार भारतीय वेशभूषा के बहुत आग्रही थे। देश या विदेश, हर जगह मैसूर की पगड़ी सदा उनके सिर पर सुशोभित होती थी। राजशाही समाप्त होेने पर भी मैसूर के विश्वप्रसिद्ध दशहरा महोत्सव में वे पूरा सहयोग देते थे। वाडियार राजवंश सदा से देवी चामुंडी का भक्त रहा है। उसकी पूजा के लिए यह महोत्सव और विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है।

वि.हि.प. की स्थापना के बाद उसके बैनर पर प्रयाग में कुंभ के अवसर पर पहला विश्व हिन्दू सम्मेलन हुआ। इससे पूर्व 27 व 28 मई, 1965 को श्री वाडियार की अध्यक्षता में मैसूर राजमहल में ही परिषद की बैठक हुई थी।  राज्यपाल रहते हुए भी उन्होंने परिषद का प्रथम अध्यक्ष बनना स्वीकार किया। उन दिनों राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व था। अतः यह बड़े साहस की बात थी। 

देश, धर्म और संस्कृति के परम भक्त श्री जयचामराज वाडियार का केवल 55 वर्ष की अल्पायु में 23 सितम्बर, 1974 को निधन हो गया।

(संदर्भ : श्रद्धांजलि स्मारिका तथा विकीपीडिया)
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19 जुलाई/इतिहास-स्मृति

ऊधमसिंह का अस्थि विसर्जन

ऊधमसिंह का जन्म ग्राम सुनाम ( जिला संगरूर, पंजाब) में 26 दिसम्बर, 1899 को सरदार टहलसिंह के घर में हुआ था। मात्र दो वर्ष की अवस्था में ही इनकी माँ का और सात साल का होने पर पिता का देहान्त हो गया। ऐसी अवस्था में किसी परिवारजन ने इनकी सुध नहीं ली। गली-गली भटकने के बाद अन्ततः इन्होंने अपने छोटे भाई के साथ अमृतसर के पुतलीघर में शरण ली। यहाँ एक समाजसेवी ने इनकी सहायता की।

19 वर्ष की तरुण अवस्था में ऊधमसिंह ने 13 अपै्रल, 1919 को बैसाखी के पर्व पर जलियाँवाला बाग, अमृतसर में हुए नरसंहार को अपनी आँखों से देखा। सबके जाने के बाद रात में वे वहाँ गये और रक्तरंजित मिट्टी माथे से लगाकर इस काण्ड के खलनायकों से बदला लेने की प्रतिज्ञा की। कुछ दिन उन्होंने अमृतसर में एक दुकान भी चलायी। उसके फलक पर उन्होंने अपना नाम राम मोहम्मद सिंह आजादलिखवाया था। इससे स्पष्ट है कि वे स्वतन्त्रता के लिए सब धर्म वालों का सहयोग चाहते थे।

ऊधमसिंह को सदा अपना संकल्प याद रहता था। उसे पूरा करने हेतु वे अफ्रीका से अमरीका होते हुए 1923 में इंग्लैंड पहुँच गये। वहाँ क्रान्तिकारियों से उनका सम्पर्क हुआ। 1928 में वे भगतसिंह के कहने पर वापस भारत आ गये; पर लाहौर में उन्हें शस्त्र अधिनियम के उल्लंघन के आरोप में पकड़कर चार साल की सजा दी गयी। इसके बाद वे फिर इंग्लैंड चले गये। तब तक जलियांवाला बाग में गोली चलाने वाला जनरल डायर अनेक शारीरिक व मानसिक रोगों से ग्रस्त होकर 23 जुलाई, 1927 को आत्महत्या कर चुका था; पर पंजाब का तत्कालीन गवर्नर माइकेल ओडवायर अभी जीवित था।

13 मार्च, 1940 को वह शुभ दिन आ गया, जिस दिन ऊधमसिंह को अपना संकल्प पूरा करने का अवसर मिला। इंग्लैंड की राजधानी लन्दन के कैक्स्टन हॉल में एक सभा होने वाली थी। इसमें जलियाँवाला बाग काण्ड के दो खलनायक सर माइकेल ओडवायर तथा भारत के तत्कालीन सेक्रेटरी अ१फ स्टेट लार्ड जेटलैंड आने वाले थे। ऊधमसिंह चुपचाप मंच से कुछ दूरी पर जाकर बैठ गये और उचित समय की प्रतीक्षा करने लगे।

माइकेल ओडवायर ने अपने भाषण में भारत के विरुद्ध बहुत विषवमन किया। भाषण पूरा होते ही ऊधमसिंह ने गोली चला दी। ओडवायर वहीं ढेर हो गया। अब लार्ड जैटलैंड की बारी थी; पर उसका भाग्य अच्छा था। वह घायल होकर ही रह गया। सभा में भगदड़ मच गयी। ऊधमसिंह चाहते, तो भाग सकते थे; पर वे सीना तानकर वहीं खड़े रहे और स्वयं को गिरफ्तार करा दिया।

न्यायालय में वीर ऊधमसिंह ने आरोपों को स्वीकार करते हुए स्पष्ट कहा कि मैं पिछले 21 साल से प्रतिशोध की आग में जल रहा था। माइकेल ओडवायर और जैटलैंड मेरे देश भारत की आत्मा को कुचलना चाहते थे। इसका विरोध करना मेरा कर्त्तव्य था। इससे बढ़कर मेरा सौभाग्य क्या होगा कि मैं अपनी मातृभूमि के लिए मर रहा हूँ।

ऊधमसिंह को 31 जुलाई, 1940 को पेण्टनविला जेल में फाँसी दे दी गयी। मरते समय उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा,"10 साल पहले मेरा प्यारा दोस्त भगतसिंह मुझे अकेला छोड़कर फाँसी चढ़ गया था। अब मैं उससे वहाँ जाकर मिलूँगा। वह मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा।"

स्वतन्त्रता प्राप्ति के 27 साल बाद 19 जुलाई, 1974 को उनके भस्मावशेषों को भारत लाया गया। पाँच दिन उन्हें जनता के दर्शनार्थ रखकर ससम्मान हरिद्वार में प्रवाहित कर दिया गया।
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20 जुलाई/पुण्य-तिथि

एक विस्मृत विप्लवी बटुकेश्वर दत्त

यह इतिहास की विडम्बना है कि अनेक क्रान्तिकारी स्वतन्त्रता के युद्ध में सर्वस्व अर्पण करने के बाद भी अज्ञात या अल्पज्ञात ही रहे। ऐसे ही एक क्रान्तिवीर बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर, 1910 को ग्राम ओएरी खंडा घोष (जिला बर्दमान, बंगाल) में श्री गोष्ठा बिहारी दत्त के घर में हुआ था। वे एक दवा कंपनी में काम करते थे, जो बाद में कानपुर (उ.प्र.) में रहने लगे। इसलिए बटुकेश्वर दत्त की प्रारम्भिक शिक्षा पी.पी.एन हाईस्कूल कानपुर में हुई। उन्होंने अपने मित्रों के साथ कानपुर जिमनास्टिक क्लबकी स्थापना भी की थी।

उन दिनों कानपुर क्रान्तिकारियों का एक बड़ा केन्द्र था। बटुकेश्वर अपने मित्रों में मोहन के नाम से प्रसिद्ध थे। भगतसिंह के साथ आठ अपै्रल, 1929 को दिल्ली के संसद भवन में बम फेंकने के बाद वे चाहते, तो भाग सकते थे; पर क्रान्तिकारी दल के निर्णय के अनुसार दोनों ने गिरफ्तारी दे दी।

छह जून, 1929 को न्यायालय में दोनों ने एक लिखित वक्तव्य दिया, जिसमें क्रान्तिकारी दल की कल्पना, इन्कलाब जिन्दाबाद का अर्थ तथा देश की व्यवस्था में आमूल परिवर्तन की बातें कही गयीं थीं। 25 जुलाई, 1929 को उन्होेंने गृहमन्त्री के नाम एक पत्र भी लिखा, जिसमें जेल में राजनीतिक बन्दियों पर हो रहे अत्याचार एवं उनके अधिकारों की चर्चा की गयी है। उन्होंने अन्य साथियों के साथ इस विषय पर 114 दिन तक भूख हड़ताल भी की।

भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरू को फाँसी घोषित हुई, जबकि दत्त को आजीवन कारावास। इस पर भगतसिंह ने उन्हें एक पत्र लिखा। उसमें कहा गया है कि हम तो मर जायेंगे; पर तुम जीवित रहकर दिखा दो कि क्रान्तिकारी जैसे हँस कर फाँसी चढ़ता है, वैसे ही वह अपने आदर्शों के लिए हँसते हुए जेल की अन्धकारपूर्ण कोठरियों में यातनाएँ और उत्पीड़न भी सह सकता है।

23 मार्च, 1931 को लाहौर जेल में भगतसिंह आदि को फाँसी हुई और बटुकेश्वर दत्त को पहले अंदमान और फिर 1938 में पटना जेल में रखा गया। जेल में वे क्षय रोग तथा पेट दर्द से पीड़ित हो गये। आठ सितम्बर, 1938 को वे कुछ शर्तों के साथ रिहा किये गये; पर 1942 में फिर भारत छोड़ो आंदोलन में जेल चले गये। 1945 में वे पटना में अपने बड़े भाई के घर में नजरबंद किये गये। 

1947 में हजारीबाग जेल से मुक्त होकर वे पटना में ही रहने लगे। इतनी लम्बी जेल के बाद भी उनका उत्साह जीवित था। 36 वर्ष की अवस्था में उन्होंने आसनसोल में सादगीपूर्ण रीति से अंजलि दत्त से विवाह किया। भगतसिंह की माँ विद्यावती जी उन्हें अपना दूसरा बेटा मानती थीं।

पटना में बटुकेश्वर दत्त को बहुत आर्थिक कठिनाई झेलनी पड़ी। उन्होंने एक सिगरेट कंपनी के एजेंट की तथा पत्नी ने एक विद्यालय में 100 रु0 मासिक पर नौकरी की। 1963 में कुछ समय के लिए वे विधान परिषद में मनोनीत किये गये; पर वहाँ उन्हें काफी विरोध सहना पड़ा। उनका मन इस राजनीति के अनुकूल नहीं बना था। 

1964 में स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर पहले पटना के सरकारी अस्पताल और फिर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में उनका इलाज हुआ। उन्होंने बड़ी वेदना से कहा कि जिस दिल्ली की संसद में मैंने बम फेंका था, वहाँ मुझे स्ट्रेचर पर आना पड़ेगा, यह कभी सोचा भी नहीं था।

बीमारी में माँ विद्यावती जी उनकी सेवा में लगी रहीं। राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और उनके कई पुराने साथी उनसे मिले। 20 जुलाई, 1965 की रात में दो बजे इस क्रान्तिवीर ने शरीर छोड़ दिया। उनका अन्तिम संस्कार वहीं हुआ, जहाँ भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव के शव जलाये गये थे। अपने मित्रों और माता विद्यावती के साथ बटुकेश्वर दत्त आज भी वहाँ शान्त सो रहे हैं।
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20 जुलाई/जन्म-दिवस

धर्मरक्षक महाराणा भगवत सिंह मेवाड़   

भारतवर्ष में गत 1,400 वर्ष से मेवाड़ का सूर्यवंशी राजपरिवार हिन्दू धर्म, संस्कृति और सभ्यता का ध्वजवाहक बना हुआ है। 20 जुलाई, 1921 को जन्मे महाराणा भगवत सिंह जी इस गौरवशाली परम्परा के 75वें प्रतिनिधि थे।

महाराणा की शिक्षा राजकुमारों की शिक्षा के लिए प्रसिद्ध मेयो काॅलेज तथा फिर इंग्लैंड में हुई। वे मेधावी छात्र, ओजस्वी वक्ता और शास्त्रीय संगीत के जानकार तो थे ही, साथ ही विभिन्न खेलों और घुड़सवारी में भी सदा आगे रहते थे। भारतीय टीम के सदस्य के रूप में उन्होंने अनेक क्रिकेट मैच खेले। उन्होंने उस समय की अत्यधिक प्रतिष्ठित आई.सी.एस. की प्राथमिक परीक्षा उत्तीर्ण कर फिल्लौर में पुलिस शिक्षण का पाठ्यक्रम पूरा किया। इसके बाद वे उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त के डेरा इस्माइल खां में गाइड रेजिमेंट में भी रहे थे।

महाराणा भूपाल सिंह के निधन के बाद 1955 में वे गद्दी पर बैठे। उनकी रुचि धार्मिक व सामाजिक कामों में बहुत थी। उन्होंने लगभग 60 लाख रु. मूल्य की अपनी निजी सम्पत्ति को महाराणा मेवाड़ फाउंडेशन, शिव शक्ति पीठ, देवराजेश्वर जी आश्रम न्यास, महाराणा कुंभा संगीत कला न्यास, चेतक न्यास आदि में बदल दिया। मेधावी छात्रों के लिए उन्होंने महाराणा मेवाड़ पुरस्कार, महाराणा फतेह सिंह पुरस्कार तथा महाराणा कुंभा पुरस्कार जैसे कई पुरस्कार तथा छात्रवृत्तियों का भी प्रबंध किया। यद्यपि तब तक राजतंत्र समाप्त हो चुका था; पर जनता के मन में उनके प्रति राजा जैसा ही सम्मान था।

अपनी सम्पदा को सामाजिक कार्यों में लगाने के साथ ही महाराणा भगवत सिंह जी ने स्वयं को भी देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। 1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद वे इससे जुड़ गये और 1969 में सर्वसम्मति से परिषद के दूसरे अध्यक्ष बनाये गये। अगले 15 वर्ष तक इस पद पर रहते हुए उन्होंने अपनी सारी शक्ति हिन्दू धर्म के उत्थान में लगा दी। उन्होंने न केवल देश में, अपितु विदेशों में भी प्रवास कर वि.हि.प. के काम को सुदृढ़ किया। उनकी अध्यक्षता में जुलाई 1984 में न्यूयार्क में दसवां विश्व हिन्दू सम्मेलन हुआ, जिसमें 50 देशों के 4,700 प्रतिनिधि आये थे। 

मुगल काल में राजस्थान के अनेक क्षत्रिय कुल भयवश मुसलमान हो गये थे; पर उन्होंने अपनी कई हिन्दू परम्पराएं छोड़ी नहीं थीं। 1947 के बाद उन्हें फिर से स्वधर्म में लाने का प्रयास संघ और वि.हि.प. की ओर से हुआ। महाराणा के आशीर्वाद से इसमें सफलता भी मिली। इसी हेतु वे एक बार दिल्ली के पास धौलाना भी आये थे। यद्यपि यहां सफलता तो नहीं मिली; पर बड़ी संख्या में हिन्दू और मुसलमान क्षत्रियों ने महाराणा का भव्य स्वागत किया था।

महाराणा ने पंजाब और असम से लेकर बंगलादेश और श्रीलंका तक के हिन्दुओं के कष्ट दूर करने के प्रयास किये। खालिस्तानी वातावरण के दौर में अमृतसर के विशाल हिन्दू सम्मेलन में हिन्दू-सिख एकता पर उनके भाषण की बहुत सराहना हुई। सात करोड़ हिन्दुओं को एकसूत्र में पिरोने वाली एकात्मता यज्ञ यात्रा में आयोजन से लेकर उसके सम्पन्न होने तक वे सक्रिय रहे।

1947 के बाद अधिकांश राजे-रजवाड़ों ने कांग्रेस के साथ जाकर अनेक सुविधाएं तथा सरकारी पद पाए; पर महाराणा इससे दूर ही रहे। उनके यशस्वी पूर्वज महाराणा प्रताप ने दिल्ली के बादशाह की अधीनता स्वीकार न करने की शपथ ली थी। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद नेहरू जी ने ऐसे दृढ़वती वीर के वंशज भगवत सिंह जी का दिल्ली के लालकिले में सार्वजनिक अभिनंदन किया। 

महाराणा ने संस्कृत के उत्थान, मठ-मंदिरों की सुव्यवस्था, हिन्दू पर्वों को समाजोत्सव के रूप में मनाने, हिन्दुओं के सभी मत, पंथ एवं सम्प्रदायों के आचार्यों को एक मंच पर लाने आदि के लिए अथक प्रयत्न किये। तीन नवम्बर, 1984 को उनके आकस्मिक निधन से हिन्दू समाज की अपार क्षति हुई। 

(संदर्भ : श्रद्धांजलि स्मारिका, विश्व हिन्दू परिषद)

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20 जुलाई/जन्म-दिवस

संस्कृत को समर्पित आचार्य रामनाथ सुमन  
विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय मंत्री तथा भारत संस्कृत परिषद के संस्थापक महामंत्री आचार्य रामनाथ सुमन का जन्म 20 जुलाई, 1926 को ग्राम धौलाना (जिला हापुड़, उ.प्र.) में पंडित शिवदत्त शर्मा के घर में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा गांव में पूरी कर उन्होंने हापुड़ तथा गढ़मुक्तेश्वर में संस्कृत व्याकरण का उच्च अध्ययन किया। 

युवावस्था में जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम तथा स्वामी करपात्री जी महाराज के साथ वे सनातन धर्म के प्रचार में सक्रिय रहे। धर्म संघ के तत्वावधान में भारत विभाजन तथा गोहत्या के विरोध में उन्होंने संस्कृत के छात्रों के साथ दिल्ली में गिरफ्तारी भी दी।

प्रख्यात संस्कृत विद्वान, कवि व लेखक सुमन जी राजपूत शिक्षा शिविर इंटर कॉलेज, धौलाना में अध्यापक तथा राणा शिक्षा शिविर डिग्री कॉलेज, पिलखुवा में संस्कृत विभागाध्यक्ष और फिर कार्यवाहक प्राचार्य रहे। प्राचार्य रहते हुए भी वे साइकिल से ही 10 कि.मी दूर स्थित विद्यालय आते थे। पहले वे खानपान में कई पूर्वाग्रह रखते थे; पर संघ में सक्रिय होने पर वे इनसे मुक्त हो गये।

उनकी विद्वता के कारण उन्हें उ.प्र. संस्कृत अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया। वे दिल्ली तथा राजस्थान की संस्कृत अकादमी के सदस्य भी रहे। बाणभट्ट के संस्कृत ग्रंथ कादम्बरीके शुकनाशोपदेशनाम अध्याय पर उनकी टीका की सर्वत्र सराहना हुई। यह टीका तथा संस्कृति सुधा, महाश्वेता वृत्तांत, कादम्बरी मुखामुखम आदि कई पुस्तकें अब मेरठ वि.वि. के पाठ्यक्रम में है। 

उनकी संस्कृत सेवाओं के लिए वर्ष 2000 में राष्ट्रपति श्री नारायणन ने उन्हें 50,000 रु. देकर सम्मानित किया। इसके साथ ही उन्हें 50,000 रु. प्रतिवर्ष मिलने की व्यवस्था भी की। वर्ष 2001 में उन्हें उ.प्र. संस्कृत अकादमी का 51,000 रु. का पुरस्कार मिला। हिन्दी तथा संस्कृत में उनके धाराप्रवाह उद्बोधन से श्रोता सम्मोहित हो जाते थे। अमरीका, ब्रिटेन आदि के विश्व शांति सम्मेलनों में उन्होंने अनेक वरिष्ठ धर्माचार्यों के साथ हिन्दू दर्शन पर व्याख्यान दिये।

संघ में सक्रिय होने के कारण उन्हें आपातकाल में जेल जाना पड़ा; पर वहां का जेलर उनसे इतना प्रभावित था कि उसने रिहा होने पर उन्हें आग्रहपूर्वक अपने घर भोजन कराया। वे कई वर्ष तहसील व जिला संघचालक रहे। इसके अतिरिक्त हिन्दू जागरण मंच, विद्या भारती, अ.भा. साहित्य परिषद आदि में भी सक्रिय रहे। 

एक बार अयोध्या आंदोलन से वापसी पर उनकी बस दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। अनेक लोगों की मृत्यु हुई, सुमन जी को भी भारी चोट लगी; पर वे अपने बजाय शेष यात्रियों की चिन्ता करते रहे। ठीक होने पर उन्होंने अपना जीवन विहिप को समर्पित कर दिया। अवकाश प्राप्त कर वे विहिप के केन्द्रीय कार्यालय, दिल्ली में रहकर संस्कृत के प्रचार-प्रसार में लग गये।

वे काफी समय तक परिषद के केन्द्रीय मार्गदर्शक मंडल के संयोजक रहे। उनकी विनम्रता तथा विद्वत्ता से अनेक संतों ने संघ तथा विश्व हिन्दू परिषद के बारे में अपनी धारणा बदली। वे एक कुशल मंच संचालक थे। कई संत तो अपने द्वारा बोले गये श्लोकों को उनसे शुद्ध कराते थे। वे व्याकरणाचार्य होने के बाद भी अहंकारी नहीं थे। अग्निधर्मी कवि होने के नाते उनका मत था कि जब देश संकट में है, तो कवि को वीरता की कविताएं ही लिखनी चाहिए। 

उनका जीवन इतना सादा था कि उ.प्र. संस्कृत अकादमी का अध्यक्ष होने पर प्रवास के लिए मिली कार का उन्हांेने प्रयोग ही नहीं किया। वेद की विलुप्त शाखाओं को खोजने हेतु उन्होंने अथक प्रयत्न किये। दिल्ली व तीर्थराज प्रयाग में उन्होंने विश्व वेद सम्मेलन आयोजित कर कई वेद विद्यालयों की स्थापना की।

15 अप्रैल, 2009 की देर रात्रि में 82 वर्ष की आयु में अपने आवास पर पिलखुवा में ही उनका देहांत हुआ। अपने अंतिम दिनों में भी संस्कृत के प्रचार-प्रसार की ही चिन्ता करते रहते थे।
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21 जुलाई/प्रेरक-प्रसंग

डा. हेडगेवार और जंगल सत्याग्रह 

स्वाधीनता आंदोलन में 1930 के ‘नमक सत्याग्रह’ का बड़ा महत्व है। देश भर में यह आंदोलन हुआ था। जहां समुद्र नहीं थे, वहां किसी भी जनविरोधी कानून को तोड़कर लोगों ने सत्याग्रह किया। मध्यभारत तथा महाराष्ट्र आदि में इसे ‘जंगल सत्याग्रह’ कहा गया। चूंकि वहां सरकार बिना अनुमति किसी को जंगल से घास भी नहीं काटने देती थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. हेडगेवार भी 21 जुलाई, 1930 को इसमें सहभागी हुए।
12 जुलाई को एक गुरुदक्षिणा कार्यक्रम में डा. जी ने सत्याग्रह की बात कही तथा वापसी तक डा. परांजपे को सरसंघचालक की जिम्मेदारी सौंपी। 14 जुलाई को वे साथियों सहित रेलगाड़ी से वर्धा गये। अगले दिन वहां श्रीराम मंदिर में स्वागत समारोह तथा शोभायात्रा हुई। क्रमशः पुलगांव, धामड़गांव होते हुए वे ‘पुसद’ पहुंचे; पर वहां सत्याग्रह पहले ही शुरू हो चुका था। अतः संचालकों ने उनसे 21 जुलाई को यवतमाल में सत्याग्रह का शुभारंभ करने को कहा; पर इसमें कई दिन बाकी थे। अतः खाली बैठने की बजाय डा. जी पुसद और आसपास के क्षेत्र में प्रचार और संपर्क करने लगे।
एक दिन सुबह जब वे नदी से लौट रहे थे, तो उन्होंने देखा कि एक मुस्लिम गाय काटने जा रहा है। उनके विरोध पर अन्य कसाई भी आ गये। डा. जी ने उन्हें गाय की कीमत देनी चाही; पर वे नहीं माने। बात बढ़ने पर लोगों ने बीचबचाव किया। एक ने कहा कि आप जंगल सत्याग्रह के लिए आये हैं, तो इस चक्कर में न पड़ें। डा. जी ने गोरक्षा को भी जंगल सत्याग्रह जैसा ही महत्वपूर्ण कहा। इतने में पुलिस आकर दोनों पक्षों को थाने ले जाने लगी। डा. जी तो तैयार थे; पर कसाई डर गये। उन्होंने 30 रु. में गाय छोड़ दी। डा. जी ने वह गोरक्षा सभा को दे दी। इससे सब ओर उनका नाम चर्चित हो गया। 
शाम की सभा में भारी भीड़ के बीच डा. जी ने कहा कि स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों के जूते पाॅलिश से लेकर उनके सिर पर जूते मारने जैसे सब काम करने को मैं तत्पर हूं। अगले दिन सब यवतमाल आ गये। कई स्वयंसेवक गणवेश पहनकर सत्याग्रह करना चाहते थे; पर डा. जी ने उन्हें स्वयंसेवक की बजाय आम नागरिक की तरह सत्याग्रह करने को कहा।
21 जुलाई को रणसिंघे के घोष के साथ निकली शोभायात्रा में 4,000 लोग शामिल थे। नगर भवन के मैदान में ध्वजवंदन के बाद जत्थे के नेता डा. जी को चांदी का तथा बाकी को सामान्य हंसिए दिये गये। रुई मंडी होते हुए सत्याग्रही पैदल, साइकिल, बैलगाड़ी तथा मोटर आदि से निर्धारित स्थान (यवतमाल से दस कि.मी दूर लोहारा जंगल) में पहुंचे। पहले से सूचना के कारण पुलिस वहां थी ही। लगभग 10,000 लोग भी सत्याग्रह देखने आये थे।
पुलिस वालों ने अनुमति की बात पूछी; पर वे तो सत्याग्रह करने आये थे। अतः वे जंगल में घुसकर घास काटने लगे। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर यवतमाल के न्यायालय में प्रस्तुत किया। डा. जी को धारा 117 में छह तथा धारा 379 में तीन (कुल नौ मास) तथा शेष 11 को चार महीने की सजा हुई। शाम को उन्हें रेलगाड़ी से अकोला ले जाया गया। पूरे रास्ते हर स्टेशन पर लोग फल, फूल और मिष्ठान लेकर आते थे। डा. जी वहां कुछ देर भाषण भी देते थे। इस प्रकार रात में वे अकोला तथा अगले दिन जेल में पहुंच गये।
अगले दिन 22 जुलाई को नागपुर के स्वयंसेवक शाखा पर एकत्र हुए। वहां डा. जी के साथ गये एक स्वयंसेवक ने पूरी जानकारी दी। सरसंघचालक डा. पराजंपे ने डा. जी द्वारा काटी गयी घास ध्वज के सम्मुख अर्पित की। जेल में अच्छे व्यवहार के कारण डा. जी समय से पूर्व 14 फरवरी, 1931 को ही छोड़ दिये गये। 17 फरवरी को वे नागपुर पहुंचे, जहां उनका भव्य स्वागत हुआ। डा. परांजपे ने उन्हें फिर से सरसंघचालक का पदभार सौंप दिया।
(डा. हेडगेवार चरित/222 से 226, ना.ह.पालकर, लोकहित)
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21 जुलाई/जन्म-दिवस

विद्या भारती के स्तम्भ लज्जाराम तोमर
भारत में लाखों सरकारी एवं निजी विद्यालय हैं; पर शासकीय सहायता के बिना स्थानीय हिन्दू जनता के सहयोग एवं विश्वास के बल पर काम करने वाली संस्था विद्या भारतीसबसे बड़ी शिक्षा संस्था है। इसे देशव्यापी बनाने में जिनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा, वे थे 21 जुलाई, 1930 को गांव वघपुरा (मुरैना, म.प्र.) में जन्मे श्री लज्जाराम तोमर।

लज्जाराम जी के परिवार की उस क्षेत्र में अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। मेधावी छात्र होने के कारण सभी परीक्षाएं उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने 1957 में एम.ए तथा बी.एड किया। उनकी अधिकांश शिक्षा आगरा में हुई। 1945 में वे संघ के सम्पर्क में आयेे। उस समय उ.प्र. के प्रांत प्रचारक थे श्री भाउराव देवरस। अपनी पारखी दृष्टि से वे लोगों को तुरंत पहचान जाते थे। लज्जाराम जी पर भी उनकी दृष्टि थी। अब तक वे आगरा में एक इंटर कालिज में प्राध्यापक हो चुके थे। उनकी गृहस्थी भी भली प्रकार चल रही थी।

लज्जाराम जी इंटर कालिज में और उच्च पद पर पहुंच सकते थे; पर भाउराव के आग्रह पर वे सरकारी नौकरी छोड़कर सरस्वती शिशु मंदिर योजना में आ गये। यहां शिक्षा संबंधी उनकी कल्पनाओं के पूरा होने के भरपूर अवसर थे। उन्होंने अनेक नये प्रयोग किये, जिसकी ओर विद्या भारती के साथ ही अन्य सरकारी व निजी विद्यालयों के प्राचार्य तथा प्रबंधक भी आकृष्ट हुए। आपातकाल के विरोध में उन्होंने जेल यात्रा भी की।

इन्हीं दिनों उनके एकमात्र पुत्र के देहांत से उनका मन विचलित हो गया। वे छात्र जीवन से ही योग, प्राणायाम, ध्यान और साधना करते थे। अतः इस मानसिक उथल-पुथल में वे संन्यास लेने पर विचार करने लगे; पर भाउराव देवरस उनकी अन्तर्निहित क्षमताओं को जानते थे। उन्होंने उनके विचारों की दिशा बदल कर उसे समाजोन्मुख कर दिया। उनके आग्रह पर लज्जाराम जी ने संन्यास के बदले अपना शेष जीवन शिक्षा विस्तार के लिए समर्पित कर दिया।

उस समय तक पूरे देश में सरस्वती शिशु मंदिर के नाम से हजारों विद्यालय खुल चुके थे; पर उनका कोई राष्ट्रीय संजाल नहीं था। 1979 में सब विद्यालयों को एक सूत्र में पिरोने के लिए विद्या भारतीका गठन किया गया और लज्जाराम जी को उसका राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनाया गया। उन्हें पढ़ने और पढ़ाने का व्यापक अनुभव तो था ही। इस दायित्व के बाद पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा। जिन प्रदेशों में विद्या भारती का काम नहीं था, उनके प्रवास से वहां भी इस संस्था ने जड़ें जमा लीं।

विद्या भारती की प्रगति को देखकर विदेश के लोग भी इस ओर आकृष्ट हुए। अतः उन्हें अनेक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों में आमन्त्रित किया गया। उन्होंने भारतीय चिंतन के आधार पर अनेक पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें भारतीय शिक्षा के मूल तत्व, प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति, विद्या भारती की चिंतन दिशा, नैतिक शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार आदि प्रमुख हैं।

उनके कार्यों से प्रभावित होकर उन्हें कई संस्थाओं ने सम्मानित किया। कुरुक्षेत्र के गीता विद्यालय परिसर में उन्होंने संस्कृति संग्रहालय की स्थापना कराई; पर इसी बीच वे कैंसर से पीड़ित हो गये। समुचित चिकित्सा के बाद भी उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ। 17 नवम्बर, 2004 को विद्या भारती के निराला नगर, लखनऊ स्थित परिसर में उनका शरीरांत हुआ। उनकी अंतिम इच्छानुसार उनका दाह संस्कार उनके पैतृक गांव में ही किया गया।
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21 जुलाई/पुण्य-तिथि
थार की लता रुकमा मांगणियार

राजस्थान के रेगिस्तानों में बसी मांगणियार जाति को निर्धन एवं अविकसित होने के कारण पिछड़ा एवं दलित माना जाता है। इसके बाद भी वहां के लोक कलाकारों ने अपने गायन से विश्व में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। पुरुषों में तो ऐसे कई गायक हुए हैं; पर विश्व भर में प्रसिद्ध हुई पहली मांगणियार गायिका रुकमा देवी को थार की लताकहा जाता है।

रुकमा देवी का जन्म 1945 में बाड़मेर के पास छोटे से गांव जाणकी में लोकगायक बसरा खान के घर में हुआ था। निर्धन एवं अशिक्षित रुकमादेवी बचपन से ही दोनों पैरों से विकलांग भी थीं; पर उन्होंने इस शारीरिक दुर्बलता को कभी स्वयं पर हावी नहीं होने दिया।

उनकी मां आसीदेवी और दादी अकला देवी अविभाजित भारत के थार क्षेत्र की प्रख्यात लोकगायिका थीं। इस प्रकार लोक संस्कृति और लोक गायिकी की विरासत उन्हें घुट्टी में ही मिली। कुछ बड़े होने पर उन्होंने अपनी मां से इस कला की बारीकियां सीखीं। उन्होंने धीरे-धीरे हजारों लोकगीत याद कर लिये। परम्परागत शैली के साथ ही गीत के बीच-बीच में खटके और मुरके का प्रयोग कर उन्होंने अपनी मौलिक शैली भी विकसित कर ली।

कुछ ही समय में उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी। केसरिया बालम आओ नी, पधारो म्हारे देसराजस्थान का एक प्रसिद्ध लोकगीत है। ढोल की थाप पर जब रुकमा देवी इसे अपने दमदार और सुरीले स्वर में गातीं, तो श्रोता झूमने लगते थे। मांगणियार समाज में महिलाओं पर अनेक प्रतिबंध रहते थे; पर रुकमादेवी ने उनकी चिन्ता न करते हुए अपनी राह स्वयं बनाई।

यों तो रुकमादेवी के परिवार में सभी लोग लोकगायक थे; पर रुकमादेवी थार क्षेत्र की वह पहली महिला गायक थीं, जिन्होंने भारत से बाहर लगभग 40 देशों में जाकर अपनी मांड गायन कला का प्रदर्शन किया। उन्होंने भारत ही नहीं, तो विदेश के कई कलाकारों को भी यह कला सिखाई।

रुकमा को देश और विदेश में मान, सम्मान और पुरस्कार तो खूब मिले; पर सरल स्वभाव की अशिक्षित महिला होने के कारण वे अपनी लोककला से इतना धन नहीं कमा सकीं, जिससे उनका घर-परिवार ठीक से चल सके। उन्होंने महंगी टैक्सी, कार और वायुयानों में यात्रा की, बड़े-बड़े वातानुकूलित होटलों में ठहरीं; पर अपनी कला को ठीक से बेचने की कला नहीं सीख सकीं। इस कारण जीवन के अंतिम दिन उन्होंने बाड़मेर से 65 कि.मी दूर स्थित रामसर गांव में फूस से बनी दरवाजे रहित एक कच्ची झोंपड़ी में बिताये।

आस्टेªलिया निवासी लोकगायिका सेरडा मेजी ने दस दिन तक उनके साथ उसी झोंपड़ी में रहकर यह मांड गायिकी सीखी। इसके बाद दोनों ने जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में इसकी जुगलबंदी का प्रदर्शन किया। वृद्ध होने पर भी रुकमादेवी के उत्साह और गले के माधुर्य में कोई कमी नहीं आयी थी।

गीत और संगीत की पुजारी रुकवा देवी ने अपने जीवन के 50 वर्ष इस साधना में ही गुजारे। 21 जुलाई, 2011 को 66 वर्ष की आयु में उनका देहांत हुआ। जीवन के अंतिम पड़ाव पर उन्हें इस बात का दुख था कि उनकी मृत्यु के बाद यह कला कहीं समाप्त न हो जाए; पर अब इस विरासत को उनकी छोटी बहू हनीफा आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही है।  

(संदर्भ : जनसत्ता 25.7.11/रा.सहारा 23.7.11)
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22 जुलाई/जन्म-तिथि

सिन्धी गजल के जन्मदाता नारायण श्याम
सिन्धी भाषा के प्रसिद्ध कवि नारायण श्यामका जन्म अविभाजित भारत के खाही कासिम गांव में 22 जुलाई, 1922 को हुआ। उन्हें बचपन से ही कविता पढ़ने, सुनने और लिखने में रुचि थी। इस चक्कर में इंटर करते समय वे एक दिन परीक्षा देना ही भूल गये। विभाजन के बाद उनका परिवार दिल्ली आ गया। यहां उन्होंने डाक एवं तार विभाग में लिपिक पद पर काम प्रारम्भ किया। इसी विभाग में मुख्य लिपिक पद से वे सेवा निवृत्त भी हुए।

नारायण श्यामएक गंभीर एवं जिज्ञासु साहित्यकार थे। वे श्रेष्ठ कवियों की रचनाएं सुनकर वैसी ही लय और ताल अपनी कविताओं में लाने का प्रयास करते थे। सिन्धी भाषा के समकालीन कवियों में उनका नाम शाह अब्दुल लतीफ भिटाई के समकक्ष माना जाता है; पर विनम्र श्यामने स्वयं कभी इसे स्वीकार नहीं किया। जब कोई उनकी प्रशंसा करता, तो वे कहते थे -
गुणों की खान हो केवल, गुनाहों से हो बहुत दूर
न अपनी जिंदगी ऐसी, न अपनी शायरी ऐसी।।

प्रकृति प्रेमी होने के कारण उनकी रचनाओं में प्रकृति चित्रण भरपूर मात्रा में मिलता है। इसके साथ ही मानव जीवन के प्रत्येक पहलू पर उन्होंने अपनी कलम चलाई। अपने कोमल विचारों को अभिव्यक्त करने की उनकी शैली अनुपम थी। मन में उमड़ रहे विचारों को कागज पर उतारते समय वे नये-नये प्रयोग करते रहते थे। देश विभाजन की पीड़ा भी उनके काव्य में यत्र-तत्र दिखाई देती है। सिन्धी भाषा की लिपि अरबी से ही निकली है। इस कारण सिन्धी साहित्य पर उर्दू एवं अरबी-फारसी का काफी प्रभाव दिखाई देता है।

उर्दू शायरी में गजल एक प्रमुख विधा है। इसमें शृंगार के साथ ही शराब, शबाब, मिलन और विरह की प्रधानता रहती है; पर श्यामने इसमें नये प्रतीकों को स्थान दिया। उन्होंने दार्शनिकता के साथ ही स्वयं एवं परिजनों द्वारा भोगे गये कष्ट, अपूर्ण इच्छाओं तथा मनोभावनाओं की चर्चा की। इससे न केवल भारत अपितु पाकिस्तान के सिन्धीभाषी भी इनके प्रशंसक बने तथा सिन्धी गजल समृद्ध हुई। इसलिए इन्हें सिन्धी गजल का जन्मदाताभी कहा जाता है।

विभाजन के बाद सिन्धी लोग बड़ी संख्या में गुजरात एवं कच्छ में आकर बसेे थे। इसलिए केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने श्री नारायण श्यामके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर 11 एवं 12 जनवरी, 1989 को आदीपुर (कच्छ) में एक भव्य समारोह आयोजित किया। इसमें देश भर से सिन्धी एवं कच्छी भाषा के विद्वान बुलाए गये थे; पर विधि के विधान में कुछ और ही लिखा था। इसलिए एक दिन पूर्व 10 जनवरी, 1989 को सिन्धी भाषा के साहित्यिक मधुबन में मधुर बांसुरी की धुन गुंजाने वाले श्याम इस दुनिया से ही विदा हो गये।

उनके गीत, गजल, दोहे, सोरठे, रुबाई, खंड काव्य आदि अनेक विधाओं के जो ग्रन्थ प्रकाशित हुए, उनमें माकफुड़ा, पंखिड़ियूं, रंग रती लह, रोशन छांविरो, तराइल माक भिना राबेल, वायूं, तस्वीरें, कतआ वारीअ भरियो पलांदु, आछीदें लज मरा, महिकी वेल सुबुह जी, न सो रंगु न सा सुरिहाण, कतआ बूंदि, लहिर ऐं समुंडु तथा गालिब (अनुवाद), कबीर (अनुवाद) प्रमुख हैं।

इसके अतिरिक्त उनका बहुत सा अप्रकाशित साहित्य है, जिसे पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास उनके प्रशंसक कर रहे हैं।   

(संदर्भ : हिन्दुस्थान समाचार 21.7.2009)
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22 जुलाई/पुण्य-तिथि

वीरेन्द्र मोहन जी का असमय प्रयाण

इसे शायद विधि का क्रूर विधान ही कहेंगे कि वीरेन्द्र मोहन जी ने एक दुर्घटना में बाल-बाल बच जाने पर प्रचारक बनने का संकल्प लिया था; पर प्रचारक बनने के बाद एक दुर्घटना में ही उनकी जीवन-यात्रा पूर्ण हुई।

वीरेन्द्र जी का जन्म 1963 में ग्राम खिजराबाद (जिला यमुना नगर, हरियाणा) में श्री ज्ञानचंद सिंगला एवं श्रीमती शीलादेवी के घर में हुआ था। उनके पिताजी की छोटी सी हलवाई की दुकान थी। बड़े भाई सुरेन्द्र जी ने चिकित्सा की सामान्य पढ़ाई पूर्ण कर गांव में ही दुकान खोल जी। 1979 में कक्षा दस उत्तीर्ण कर वीरेन्द्र जी भी गांव में ही साइकिल मरम्मत का काम करने लगे।

वीरेन्द्र जी के पिताजी भी पुराने स्वयंसेवक थे; पर 1948 के प्रतिबंध के बाद उस क्षेत्र में काम ढीला पड़ गया। 1977 में आपातकाल की समाप्ति पर फिर काम में तेजी आयी। सुरेन्द्र जी ने खंड कार्यवाह तथा वीरेन्द्र जी ने गांव की शाखा की जिम्मेदारी संभाली। वीरेन्द्र जी अपनी शाखा के साथ ही शाखा विस्तार के लिए आसपास के गांवों में जाने को भी सदा तत्पर रहते थे। मधुर आवाज के धनी होने के कारण वे संघ के गीत बड़े मनोयोग से गाते थे।

एक बार वे तत्कालीन जिला प्रचारक श्री मनोहर जी के साथ एक गांव की शाखा से लौट रहे थे। भूड़कलां गांव में बिजली विभाग का काम चल रहा था। अतः सड़क और उसके आसपास सामान बिखरा हुआ था। इसी बीच सामने से आते ट्रक की रोशनी से मनोहर जी की आंखें चौंधिया गयीं। उन्होंने तेजी से मोटर साइकिल को नीचे उतार लिया। वस्तुतः यदि एक क्षण की भी देर हो जाती, तो आमने-सामने की टक्कर होना निश्चित थी। 

इस घटना से वीरेन्द्र जी अचानक बहुत गंभीर हो गये। रात में उन्होंने मनोहर जी से कहा कि शायद मुझे ईश्वर ने इसीलिए बचाया है कि मैं शेष जीवन संघ का ही काम करूं। धीरे-धीरे उनके मन का यह विचार क्रमशः दृढ़ संकल्प में बदल गया। अब उन्होंने छोटे भाई नरेन्द्र को भी दुकान पर बैठाना प्रारम्भ कर दिया और अपना अधिकाधिक समय संघ कार्य में लगाने लगे। 

क्रमशः प्रथम और द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण लेकर वे 1986-87 में प्रचारक बने। अपनी दुकान उन्होंने पूरी तरह छोटे भाई को सौंप दी। परिवार में संघ के प्रति समर्थन का भाव था। अतः उन्होंने भी कोई आपत्ति नहीं की। सर्वप्रथम उन्हें घरोंडा तहसील का काम दिया गया। वीरेन्द्र जी बहुत परिश्रमी स्वभाव के थे। नये क्षेत्र में जाकर लोगों से मिलने और शाखा खोलने के प्रति उनके मन में बहुत उत्साह रहता था। वे दो वर्ष तक यहां तहसील प्रचारक रहे। इस दौरान अनेक नये क्षेत्रों में शाखा का विस्तार हुआ। इसके बाद उन्हें सोनीपत और फिर करनाल जिला प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी।

करनाल जिले में इन्द्री नामक एक स्थान है। वहां पर खंड की बैठक के बाद वे मोटर साइकिल से रात में ही लौट रहे थे। एक-दो दिन पूर्व ही भारी आंधी चली थी। उसके कारण एक झुका हुआ पेड़ उनके सामने आ गया। यह सब इतना अचानक हुआ कि वीरेन्द्र जी संभल नहीं सके और उस पेड़ से उनका सिर टकरा गया। तेज गति में होने के कारण उन्हें काफी चोट लगी।

सड़क पर आ-जा रहे अन्य लोगों ने किसी तरह उन्हें करनाल पहुंचाया। वहां से उन्हें दिल्ली के पंत अस्पताल में भर्ती कराया गया; सिर में गंभीर चोट के कारण उनकी बेहोशी क्रमशः सघन होती गयी। 20 दिन तक चिकित्सकों ने भरपूर प्रयास किया; पर उनकी दवाइयां और शुभचिंतकों की प्रार्थनाएं सफल नहीं हो सकीं और 22 जुलाई 1997 को उनका प्राणांत हो गया।

उनकी स्मृति में उनके गांव खिजराबाद (प्रताप नगर) में श्री वीरेन्द्र मोहन गीता मंदिर का निर्माण किया गया है। जिसमें 400 बच्चे पढ़ते हैं।

(संदर्भ : डा. सुरेन्द्र मोहन सिंगला एवं मनोहर लाल जी)

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23 जुलाई/जन्म-दिवस

स्वतन्त्रता आंदोलन में उग्रवाद के प्रणेता लोकमान्य तिलक

बीसवीं सदी के प्रारम्भ में भारतीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन में एक म॰च के रूप में कार्यरत कांग्रेस में स्पष्टतः दो गुट बन गये थे। एक नरम तो दूसरा गरम दल कहलाता था। पहले के नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे, तो दूसरे के लोकमान्य तिलक। इतिहास में आगे चलकर लाल-बाल-पाल नामक जो त्रयी प्रसिद्ध हुई, उसके बाल यही बाल गंगाधर तिलक थे, जो आगे चलकर लोकमान्य तिलक के नाम से प्रसिद्ध हुए।

लोकमान्य तिलक का जन्म 23 जुलाई, 1856 को रत्नागिरी, महाराष्ट्र के एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनकी रुचि सामाजिक कार्यों में थी। वे भारत में अंग्रेजों के शासन को अभिशाप समझते थे तथा इसे उखाड़ फेंकने के लिए किसी भी मार्ग को गलत नहीं मानते थे। इन विचारों के कारण पूना में हजारों युवक उनके सम्पर्क में आये। इनमें चाफेकर बन्धु प्रमुख थे। तिलक जी की प्रेरणा से उन्होंने पूना के कुख्यात प्लेग कमिश्नर रैण्ड का वध किया और तीनों भाई फाँसी चढ़ गये।

सन 1897 में महाराष्ट्र में प्लेग, अकाल और भूकम्प का संकट एक साथ आ गया। लेकिन दुष्ट अंग्रेजों ने ऐसे में भी जबरन लगान की वसूली जारी रखी। इससे तिलक जी का मन उद्वेलित हो उठा। उन्होंने इसके विरुद्ध जनता को संगठित कर आन्दोलन छेड़ दिया। नाराज होकर ब्रिटिश शासन ने उन्हें 18 मास की सजा दी। तिलक जी ने जेल में अध्ययन का क्रम जारी रखा और बाहर आकर फिर से आन्दोलन में कूद गये।

तिलक जी एक अच्छे पत्रकार भी थे। उन्होंने अंग्रेजी में मराठातथा मराठी में केसरीसाप्ताहिक अखबार निकाला। इसमें प्रकाशित होने वाले विचारों से पूरे महाराष्ट्र और फिर देश भर में स्वतन्त्रता और स्वदेशी की ज्वाला भभक उठी। युवक वर्ग तो तिलक जी का दीवाना बन गया। लोगों को हर सप्ताह केसरी की प्रतीक्षा रहती थी। अंग्रेज इसके स्पष्टवादी सम्पादकीय आलखों से तिलमिला उठे। बंग-भंग के विरुद्ध हो रहे आन्दोलन के पक्ष में तिलक जी ने खूब लेख छापे। जब खुदीराम बोस को फाँसी दी गयी, तो तिलक जी ने केसरी में उसे भावपूर्ण श्रद्धा॰जलि दी।

अंग्रेज तो उनसे चिढ़े ही हुए थे। उन्होंने तिलक जी को कैद कर छह साल के लिए बर्मा की माण्डले जेल में भेज दिया। वहाँ उन्होंने गीता रहस्यनामक ग्रन्थ लिखा, जो आज भी गीता पर एक श्रेष्ठ टीका मानी जाती है। इसके माध्यम से उन्होंने देश को कर्मयोग की प्रेरणा दी। 

तिलक जी समाज सुधारक भी थे। वे बाल-विवाह के विरोधी तथा विधवा-विवाह के समर्थक थे। धार्मिक तथा सामाजिक कार्यों में वे सरकारी हस्तक्षेप को पसन्द नहीं करते थे। उन्होंने जनजागृति के लिए महाराष्ट्र में गणेशोत्सव व शिवाजी उत्सव की परम्परा शुरू की, जो आज विराट रूप ले चुकी है।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में उग्रवाद के प्रणेता तिलक जी का मानना था कि स्वतन्त्रता भीख की तरह माँगने से नहीं मिलेगी। अतः उन्होंने नारा दिया - स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर ही रहेंगे। 

वे वृद्ध होने पर भी स्वतन्त्रता के लिए भागदौड़ में लगे रहे। जेल की यातनाओं तथा मधुमेह से उनका शरीर जर्जर हो चुका था। मुम्बई में अचानक वे निमोनिया बुखार से पीड़ित हो गये। अच्छे से अच्छे इलाज के बाद भी वे सँभल नहीं सके और एक अगस्त, 1920 को मुम्बई में ही उन्होंने अन्तिम साँस ली।
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23 जुलाई/जन्म-दिवस
व्यवस्था प्रिय श्रीकृष्णदास माहेश्वरी

संघ के काम में अलग-अलग रुचि और प्रवृत्ति के लोग जुड़ते हैं। किसी की रुचि शारीरिक कार्यक्रमों में होती है, तो किसी की बौद्धिक में। कोई अस्त व्यस्त रहना पसंद करता है, तो कोई घोर व्यवस्थित। कोई मस्ती और शरारत पसंद करता है, तो कोई अनुशासन और गंभीरता। कोई शांतिप्रिय होता है, तो कोई क्रोधी और लड़ाई झगड़े में पैर फंसाने वाला। आगे चलकर उन्हीं में से फिर प्रचारक भी बनते हैं। तब उनके जीवन में कुछ बदल तो आती है; पर मूल स्वभाव प्रायः बना ही रहता है।

23 जुलाई, 1926 को हरदोई (उ.प्र.) जिले के छोटे से कस्बे माधोगंज के एक व्यवसायी परिवार में जन्मे श्रीकृष्णदास माहेश्वरी प्रारम्भ से ही धीर, गंभीर एवं व्यवस्था प्रिय स्वभाव के व्यक्ति थे। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर वे कानपुर आ गये और वहां से बी.एस-सी किया। श्रीकृष्णदास जी के परिवार में संघ का माहौल नहीं था। उनके पिताजी व बड़े भाई कांग्रेसी थे; पर वे संघ के सम्पर्क में आकर उसी वातावरण में एकरस हो गये और 1947 में उन्होंने प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया।

प्रचारक जीवन में वे देहरादून, पीलीभीत, झांसी, फतेहपुर, जालौन, इटावा आदि अनेक स्थानों पर जिला व विभाग प्रचारक रहे। 1948 के प्रतिबंध के समय वे भी जेल में रहे। उनके स्वभाव की व्यवस्थाप्रियता देखकर उन्हें 1977 में 'राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड' का निदेशक बनाया गया। 1984 तक उन्होंने इस जिम्मेदारी को निभाया। उन दिनों प्रकाशन अनेक समस्याओं से ग्रस्त था। 

श्रीकृष्णदास जी स्वभाव से बहुत कड़े व अनुशासनप्रिय थे। वे हिसाब-किताब में छोटी सी भी कमी सहन नहीं करते थे। उन्होेंने संस्थान की हर समस्या का गहन अध्ययन कर जहां एक ओर कड़ाई की, तो दूसरी ओर कर्मचारियों के वेतन व भत्तों में वृद्धि भी की। इससे कुछ ही समय में वातावरण बदल गया और घाटे में चलने वाला प्रकाशन लाभ देने लगा।

प्रकाशन को ठीक करने के बाद वे फिर से संघ के प्रवासी काम में लग गये। अब उन्हें प्रयाग में संभाग प्रचारक का दायित्व मिला। 1988-89 में पूज्य डा' हेडगेवार की जन्म शती मनायी गयी। उसके बाद उत्तर प्रदेश का चार प्रान्तों में विभाजन हुआ और उन्हें ब्रज में प्रांत प्रचारक बनाया गया। यद्यपि इस समय तक मधुमेह, गठिया आदि अनेक रोग उन्हें घेर चुके थे। फिर भी उन्होंने व्यवस्थित प्रवास कर ब्रज प्रान्त में शाखाओं को सुदृढ़ किया।

डा. जी की जन्मशती के बाद संघ के काम में सेवा का नया आयाम जोड़ा गया। यह अत्यन्त कठिन व धैर्य का काम था। श्रीकृष्णदास जी को उ.प्र. में इसे खड़ा करने की जिम्मेदारी दी गयी। वे प्रदेश के हर जिले में गये। प्रमुख केन्द्रों पर दो-तीन दिन रुक कर उन्होेंने सेवा कार्याें का पंजीकरण, साधन व कार्यकर्ताओं की व्यवस्था कराई। इससे कुछ ही समय में पूरे प्रदेश में सेवा कार्याें का संजाल स्थापित हो गया। उन्होंने कार्यकर्ताओं के दिशा निर्देश के लिए कुछ पुस्तकें भी लिखीं।

इस लगातार प्रवास के कारण उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा था। हरदोई में उनके भतीजे प्रतिष्ठित चिकित्सक हैं। उन्होंने श्रीकृष्णदास जी को अपने पास बुला लिया; पर जैसे ही वे कुछ ठीक होते, फिर लखनऊ आ जाते। वस्तुतः उनका तन, मन और जीवन तो संघ के लिए ही समर्पित था। अंततः विधि के विधान की जीत हुई और 28 सितम्बर, 2002 को 76 वर्ष की आयु में अपने पैतृक स्थान माधोगंज में ही उनका देहांत हुआ।
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23 जुलाई/बलिदान-दिवस

बर्फानी बाबा और कुलदीप डोगरा

जम्मू-कश्मीर में अमरनाथ यात्रा का बड़ा महत्व है। यह रक्षाबंधन से शुरू होकर एक महीने तक चलती है। बर्फानी हिमलिंग के दर्शन को पूरे देश से लाखों भक्त वहां आते हैं। इसकी सुव्यवस्था के लिए राज्य सरकार ने वर्ष 2000 में ‘श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड’ का गठन किया। बोर्ड ने यात्राकाल के लिए कुछ जमीन मांगी; पर ज/क की सरकार में हिन्दू विरोधी लोग भी थे। अतः कई बार के प्रयास के बाद वर्ष 2008 में शासन ने 800 कनाल वनभूमि भारी किराये पर देने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
पर राज्य में पाकिस्तान समर्थक आतंकी और उनके समर्थक इसका विरोध करने लगे। कश्मीर घाटी में तिरंगे झंडे जलाकर देश विरोधी प्रदर्शन होने लगे। पी.डी.पी. के सहयोग से बने कांग्रेसी मुख्यमंत्री गुलाब नबी आजाद ने दबाव में आकर त्यागपत्र दे दिया। नवनियुक्त राज्यपाल एन.एन.वोहरा और कार्यवाहक मुख्यमंत्री ने अलगाववादियों के दबाव में श्राइन बोर्ड से जमीन वापस ले ली।
पर इस असंवैधानिक निर्णय से हिन्दू बहुल जम्मू क्षेत्र उबलने लगा। विश्व हिन्दू परिषद के आह्वान पर 40 हिन्दू संस्थाओं ने उच्च न्यायालय के वकील श्री लीलाकरण शर्मा की अध्यक्षता में ‘श्री अमरनाथ यात्रा संघर्ष समिति’ का गठन किया। समिति ने राष्ट्रपति से हस्तक्षेप का आग्रह करते हुए कांग्रेस एजेंट की तरह काम कर रहे राज्यपाल को वापस बुलाने तथा कार्यवाहक मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद को बर्खास्त करने की मांग की। समिति ने पूरे देश के संतों और हिन्दुओं से इस धर्मयज्ञ को समर्थन देने की अपील की।
समिति के आह्वान पर धरने, प्रदर्शन और सत्याग्रह शुरू हो गये। पूरा हिन्दू समाज सड़कों पर आ गया। पुलिस ने गिरफ्तारी और मारपीट शुरू कर दी। जम्मू में बाजार अनिश्चित काल के लिए बंद हो गये। तीन जुलाई को पूरा भारत बंद रहा। शासन ने कई जगह कफ्र्यू लगाया; पर जनता ने इसे तोड़कर और भी बड़े जुलूस निकाले। ग्राम स्तर तक संघर्ष समितियां बन गयीं। बाजार बंदी से परेशान लोगों के लिए लंगर शुरू हो गये। इस शांतिपूर्ण आंदोलन में जम्मू क्षेत्र के सभी मत, पंथ और सम्प्रदायों के साथ गुज्जर और बकरवाल मुसलमान भी शामिल थे। बर्फानी बाबा की जय से पूरा क्षेत्र गूंज उठा।
इस दौरान कई हिन्दू शहीद हुए। इनमें मंजीत सिंह (भद्रवाह, दो जुलाई), रमेश कुमार (जम्मू, तीन जुलाई), संजीव सिंह और सन्नी पाधा (साम्बा, चार अगस्त), नरेन्द्र शर्मा (कठुआ, छह अगस्त), बोधराज (कोटली माखी, 18 अगस्त), दीपक शर्मा (रियाल, 20 अगस्त) आदि उल्लेखनीय हैं। हीरानगर के डा. बलवंत खजूरिया ने धरने के दौरान जहर निगल कर प्राण दे दिये।
यहां जम्मू निवासी 38 वर्षीय कुलदीप डोगरा का स्मरण जरूरी है। समिति के आह्वान पर 20 से 23 जुलाई तक सभी जिला केन्द्रों पर धरने, प्रदर्शन तथा अनशन हुए। 23 जुलाई को जम्मू के परेड मैदान की सभा में कुलदीप ने मंच पर आकर ‘‘जागो तुमको हिन्दू की जागीर की रक्षा करनी है’’ नामक प्रेरक कविता सुनाई। फिर उसने कहा कि भोले बाबा की जमीन वापस लेने के लिए हर गांव में अलख जगानी होगी। इसके लिए जरूरी है कि कोई अपना बलिदान दे। सबसे पहले मैं इसके लिए बलिदान दे रहा हूं।
इतना कहकर वह गिर पड़ा। वास्तव में वह जहर की पुडि़या निगलकर आया था। उसके बलिदान ने आंदोलन में नये प्राण फूंक दिये। 16 अगस्त को रक्षाबंधन पर सबने आपस में राखी बांधकर आंदोलन सफल बनाने की प्रतिज्ञा ली। 18 से 21 अगस्त तक पूरे देश में सत्याग्रह हुआ। इससे घबराकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हस्तक्षेप किया और समझौते के अनुसार 31 अगस्त को फिर से वह जमीन श्राइन बोर्ड को मिल गयी। 
(व्यथित जम्मू कश्मीर/158, नरेन्द्र सहगल, सूर्यभारती प्रकाशन)

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