8 जुलाई/इतिहास-स्मृति
वीर सावरकर की ऐतिहासिक छलांग
अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गये भारत के स्वाधीनता
संग्राम में वीर विनायक दामोदर सावरकर का अद्वितीय योगदान है। उन्होंने अपनी जान
जोखिम में डालकर देश ही नहीं, तो विदेश में भी
क्रांतिकारियों को तैयार किया। इससे अंग्रेजों की नाक में दम हो गया। अतः ब्रिटिश
शासन ने उन्हें लंदन में गिरफ्तार कर मोरिया नामक पानी के जहाज से मुंबई भेजा,
जिससे उन पर भारत में मुकदमा चलाकर दंड दिया जा सके।
पर सावरकर बहुत जीवट के व्यक्ति थे। उन्होंने
ब्रिटेन में ही अंतरराष्ट्रीय कानूनों का अध्ययन किया था। 8
जुलाई, 1910 को जब वह जहाज फ्रांस के मार्सेलिस बंदरगाह के पास
लंगर डाले खड़ा था, तो उन्होंने एक साहसिक निर्णय लेकर जहाज के
सुरक्षाकर्मी से शौच जाने की अनुमति मांगी।
अनुमति पाकर वे शौचालय में घुस गये तथा
अपने कपड़ों से दरवाजे के शीशे को ढककर दरवाजा अंदर से अच्छी तरह बंद कर लिया।
शौचालय से एक रोशनदान खुले समुद्र की ओर खुलता था। सावरकर ने रोशनदान और अपने शरीर
के आकार का सटीक अनुमान किया और समुद्र में छलांग लगा दी।
बहुत देर होने पर सुरक्षाकर्मी ने दरवाजा पीटा और
कुछ उत्तर न आने पर दरवाजा तोड़ दिया; पर तब तक तो पंछी उड़
चुका था। सुरक्षाकर्मी ने समुद्र की ओर देखा, तो
पाया कि सावरकर तैरते हुए फ्रांस के तट की ओर बढ़ रहे हैं। उसने शोर मचाकर अपने
साथियों को बुलाया और गोलियां चलानी शुरू कर दीं।
कुछ सैनिक एक छोटी नौका लेकर
उनका पीछा करने लगे; पर सावरकर उनकी चिन्ता न करते हुए तेजी से तैरते
हुए उस बंदरगाह पर पहुंच गये। उन्होंने स्वयं को फ्रांसीसी पुलिस के हवाले कर वहां
राजनीतिक शरण मांगी। अंतरराष्ट्रीय कानून का जानकार होने के कारण उन्हें
मालूम था कि उन्होंने फ्रांस में कोई अपराध नहीं किया है, इसलिए
फ्रांस की पुलिस उन्हें गिरफ्तार तो कर सकती है; पर
किसी अन्य देश की पुलिस को नहीं सौंप सकती। इसलिए उन्होंने यह साहसी पग उठाया था।
उन्होंने फ्रांस के तट पर पहुंच कर स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। तब तक
ब्रिटिश पुलिसकर्मी भी वहां पहुंच गये और उन्होंने अपना बंदी वापस मांगा।
सावरकर ने अंतरराष्ट्रीय कानून की जानकारी
फ्रांसीसी पुलिस को दी। बिना अनुमति किसी दूसरे देश के नागरिकों का फ्रांस की धरती
पर उतरना भी अपराध था; पर दुर्भाग्य से फ्रांस की
पुलिस दबाव में आ गयी। ब्रिटिश पुलिस वालों ने उन्हें कुछ घूस भी खिला दी। अतः
उन्होंने सावरकर को ब्रिटिश पुलिस को सौंप दिया। उन्हें कठोर पहरे में वापस जहाज
पर ले जाकर हथकड़ी और बेड़ियों में कस दिया गया। मुंबई पहुंचकर उन पर मुकदमा चलाया
गया, जिसमें उन्हें 50 वर्ष कालेपानी की
सजा दी गयी।
अपने प्रयास में असफल होने पर भी वीर सावरकर की इस
छलांग का ऐतिहासिक महत्व है। इससे भारत की गुलामी वैश्विक चर्चा का विषय बन गयी।
फ्रांस की इस कार्यवाही की उनकी संसद के साथ ही विश्व भर में निंदा हुई और फ्रांस
के राष्ट्रपति को त्यागपत्र देना पड़ा। हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी
इसकी चर्चा हुई और ब्रिटिश कार्यवाही की निंदा की गयी; पर
सावरकर तो तब तक मुंबई पहुंच चुके थे, इसलिए अब कुछ नहीं हो
सकता था।
स्वाधीन भारत में सावरकर के प्रेमियों ने फ्रांस
शासन से इस ऐतिहासिक घटना की स्मृति में बंदरगाह के पास एक स्मारक बनाने का आग्रह
किया। फ्रांस का शासन तथा मार्सेलिस के महापौर इसके लिए तैयार हैं; पर उनका कहना है कि इसके लिए प्रस्ताव भारत सरकार की ओर से आना चाहिए।
दुर्भाग्य की बात यह है कि अब तक शासन ने यह प्रस्ताव नहीं भेजा है।
(संदर्भ: पांचजन्य 19.7.09)
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8
जुलाई/इतिहास-स्मृति
टाइगर हिल की जीत
पाकिस्तान अपने जन्म के
पहले दिन से ही अन्ध भारत विरोध का मार्ग अपनाये है। जब भी उसने भारत पर हमला किया,
उसे मुँह की खानी पड़ी। ऐसा ही एक प्रयास उसने 1999 में किया, जिसे ‘करगिल युद्ध’ कहा जाता है। टाइगर हिल की जीत इस युद्ध का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है।
सियाचिन भारत की सर्वाधिक ऊँची पर्वत शृंखलाओं में
से एक है। चारों ओर बर्फ ही बर्फ होने के कारण यहाँ भयानक सर्दी पड़ती है। शीतकाल
में तो तापमान पचास डिग्री तक नीचे गिर जाता है। उन चोटियों की सुरक्षा करना कठिन
ही नहीं, बहुत खर्चीला भी है। इसलिए दोनों देशों के बीच यह
सहमति बनी थी कि गर्मियों में सैनिक यहाँ रहेंगे; लेकिन
सर्दी में वे वापस चले जायेंगे। 1971 के बाद से यह
व्यवस्था ठीक से चल रही थी।
पर 1999 की गर्मी में जब
हमारे सैनिक वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि
पाकिस्तानी सैनिकों ने भारतीय क्षेत्र में सामरिक महत्त्व की अनेक चोटियों पर
कब्जा कर बंकर बना लिये हैं। पहले तो बातचीत से उन्हें वहाँ से हटाने का प्रयास
किया; पर जनरल मुशर्रफ कुछ सुनने को तैयार नहीं थे। अतः
जब सीधी उँगली से घी नहीं निकला, तो फिर युद्ध ही एकमात्र
उपाय था।
तीन जुलाई की शाम को खराब मौसम और अंधेरे में 18 ग्रेनेडियर्स के चार दलों ने टाइगर हिल पर चढ़ना प्रारम्भ किया। पीछे से तोप
और मोर्टार से गोले दागकर उनका सहयोग किया जा रहा था। एक दल ने रात को डेढ़ बजे
उसके एक भाग पर कब्जा कर लिया।
कैप्टेन सचिन निम्बालकर के नेतृत्व में दूसरा दल
खड़ी चढ़ाई पर पर्वतारोही उपकरणों का प्रयोग कर अगले दिन सुबह पहुँच पाया। तीसरे दल
का नेतृत्व लेफ्टिनेण्ट बलवान सिंह कर रहे थे। इसमें कमाण्डो सैनिक थे, उन्होंने पाक सैनिकों को पकड़कर भून डाला। चौथे दल के ग्रेनेडियर योगेन्द्र
यादव व उनके साथियों ने भी भीषण दुःसाहस दिखाकर दुश्मनों को खदेड़ दिया। इस प्रकार
पहले चरण का काम पूरा हुआ।
अब आठ माउण्टेन डिवीजन को शत्रु की आपूर्ति रोकने
को कहा गया, क्योंकि इसके बिना पूरी चोटी को खाली कराना सम्भव
नहीं था। मोहिन्दर पुरी और एम.पी.एस.बाजवा के नेतृत्व में सैनिकों ने यह काम कर
दिखाया। सिख बटालियन के मेजर रविन्द्र सिंह, लेफ्टिनेण्ट
सहरावत और सूबेदार निर्मल सिंह के नेतृत्व में सैनिकों ने पश्चिमी भाग पर कब्जा कर
लिया। इससे शत्रु द्वारा दोबारा चोटी पर आने का खतरा टल गया।
इसके बाद भी युद्ध पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ था।
यद्यपि दोनों ओर के कई सैनिक हताहत हो चुके थे। सूबेदार कर्नल सिंह और राइफलमैन
सतपाल सिंह चोटी के दूसरी ओर एक बहुत खतरनाक ढाल पर तैनात थे। उन्होंने कर्नल
शेरखान को मार गिराया। इससे पाकिस्तानी सैनिकों की बची-खुची हिम्मत भी टूट गयी और
वे वहाँ से भागने लगे।
तीन जुलाई को शुरू हुआ यह संघर्ष पाँच दिन तक चला।
अन्ततः 2,200 मीटर लम्बे और 1,000
मीटर चौड़े क्षेत्र में फैले टाइगर हिल पर पूरी तरह भारत का कब्जा हो गया। केवल
भारतीय सैनिक ही नहीं, तो पूरा देश इस समाचार को
सुनकर प्रसन्नता से झूम उठा। आठ जुलाई को सैनिकों ने विधिवत तिरंगा झण्डा वहाँ
फहरा दिया। इस प्रकार करगिल युद्ध की सबसे कठिन चोटी को जीतने का अभियान पूरा हुआ।
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9 जुलाई/जन्म-दिवस
राजनीतिक क्षेत्र में संघ के दूत : रामभाऊ म्हालगी
भारत ने ब्रिटेन जैसी लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली
को स्वीकार किया है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाचित प्रतिनिधियों की है;
पर दुर्भाग्यवश वे अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभा पाते हैं।
इस बारे में शोध एवं प्रशिक्षण देने वाले संस्थान का नाम है रामभाऊ म्हालगी
प्रबोधिनी, मुंबई।
श्री रामचंद्र म्हालगी का जन्म नौ जुलाई,
1921 को ग्राम कडूस (पुणे, महाराष्ट्र)
में श्री काशीनाथ पंत एवं श्रीमती सरस्वतीबाई के घर में हुआ। मेधावी रामभाऊ ने 1939 में पुणे के सरस्वती मंदिर से एक साथ तीन परीक्षा देने की सुविधा का लाभ
उठाते हुए मैट्रिक उत्तीर्ण की। इसी समय वसंतराव देवकुले के माध्यम से वे
स्वयंसेवक बने और प्रचारक बन कर केरल चले गये।
केरल में कोयंबतूर तथा मंगलोर क्षेत्र में काम करते
हुए उन्हें अपनी शिक्षा की अपूर्णता अनुभव हुई। अतः वे वापस पुणे आ गये; पर उसी समय डा. हेडगेवार का निधन हो गया। श्री गुरुजी ने युवकों
से बड़ी संख्या में प्रचारक बनने का आह्नान किया। अतः वे फिर सोलापुर में प्रचारक
होकर चले गये।
पर अब संघ कार्य के साथ ही पढ़ाई करते हुए 1945 में उन्होंने बी.ए. कर लिया। 1948 के प्रतिबंध काल में
वे भूमिगत रहकर काम करते रहे। प्रतिबंध समाप्ति के बाद उन्होंने प्रचारक जीवन को
विराम दिया और क्रमशः एम.ए. तथा कानून की उपाधियां प्राप्त कीं। 1951 में बार कौंसिल की परीक्षा उत्तीर्ण वे वकालत करने लगे। 1955 में उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया।
प्रचारक जीवन छोड़ने के बाद भी वे संघ की योजना से
पहले विद्यार्थी परिषद और फिर नवनिर्मित भारतीय जनसंघ में काम करने लगे। राजनीति
में रुचि न होने पर भी वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के आग्रह पर वे इस क्षेत्र में उतर
गये। 1952 में जनसंघ के मंत्री पद पर रहते हुए उन्होंने
महाराष्ट्र के हर नगर और जिले में युवा कार्यकर्ताओं को ढूंढा और उन्हें
प्रशिक्षित किया। आज उस राज्य में भारतीय जनता पार्टी के प्रायः सभी वरिष्ठ
कार्यकर्ता रामभाऊ की देन हैं।
1957 में वे मावल विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने। वे
विधानसभा में इतने प्रश्न पूछते थे कि सत्तापक्ष परेशान हो जाता था। वे प्रतिवर्ष
अपने काम का लेखा-जोखा जनता के सम्मुख रखते थे, इससे
बाकी विधायक भी ऐसा करने लगे। रामभाऊ कई बार विधायक और सांसद रहे। उनके चुनावी
जीवन में भी जय और पराजय चलती रही; पर वे क्षेत्र में लगातार
सक्रिय बने रहते थे।
आपातकाल में वे यरवदा जेल में बन्दी रहे। वहां से
भी वे विधानसभा में लिखित प्रश्न भेजते रहेे। 1977
में वे ठाणे से सांसद बने। 1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी
की लहर होने के बावजूद वे फिर जीत गये। उनके द्वार झोपड़ी वालों से लेकर
उद्योगपतियों तक के लिए खुले रहते थे। शाखा के प्रति निष्ठा के कारण वे विधायक और
सांसद रहते हुए भी प्रतिदिन शाखा जाते थे।
निरन्तर भागदौड़ करने वालों को छोटे-मोटे रोग तो लगे
ही रहते हैं; पर 1981 में चिकित्सकों ने
रामभाऊ को कैंसर घोषित कर दिया। मुंबई के अस्पताल में जब उनसे मिलने तत्कालीन सरसंघचालक
श्री बालासाहब देवरस आये, तो तेज दवाओं के दुष्प्रभाव
से जर्जर हो चुके रामभाऊ की आंखों में यह सोचकर आंसू आ गये कि कि वे उठकर उनका
अभिवादन नहीं कर पाये।
छह मार्च, 1982
को राजनीति में संघ के दूत रामभाऊ का देहांत हुआ। रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी आज भी
उनके आदर्शों को आगे बढ़ा रही है।
(संदर्भ : अमृतपथ, मुंबई/रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी का पत्रक)
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9 जुलाई/पुण्य-तिथि
विट्ठल भक्त जैतुनबी
कुछ लोगों का जन्म भले ही किसी अन्य मजहब वाले
परिवार में हुआ हो; पर वे अपने पूर्व जन्म के अच्छे कर्म एवं संस्कारों
के कारण हिन्दू मान्यताओं के प्रति आस्थावान होकर जीवन बिताते हैं। पुणे के पास
बारामती जिले में स्थित मालेगांव (महाराष्ट्र) में एक मुसलमान घर में जन्मी
जैतुनबी ऐसी ही एक महिला थी, जिन्होंने विट्ठल भक्ति कर
अपना यह जन्म और जीवन सार्थक किया।
जैतुनबी को बचपन में किसी ने उपहार में श्रीकृष्ण
की एक प्रतिमा भेंट की। तब से ही उनके मन में श्रीकृष्ण बस गये और वे उनकी उपासना
में लीन रहने लगीं। दस वर्ष की अवस्था में उन्होंने श्री हनुमानदास जी दीक्षा ले
ली। उनका अनुग्रह प्राप्त कर वे प्रतिवर्ष आलंदी से पंढरपुर तक पैदल तीर्थयात्रा
करने लगीं। उनके गुरु श्री हनुमानदास जी ने उनकी श्रद्धा एवं भक्ति देखकर उन्हें
जयरामदास महाराज नाम दिया।
जैतुनबी ने अपना सारा जीवन सन्तों के सान्निध्य में
उनके प्रवचन सुनते हुए व्यतीत किया। उनके मन पर संत तुकाराम और संत ज्ञानेश्वर की
वाणी का काफी प्रभाव था। प्रभु भक्ति को ही जीवन का उद्देश्य बना लेने के कारण वे
विवाह के बंधन में नहीं फंसीं। अपने गांव में कथा-कीर्तन करने के साथ ही वे साइकिल
से आसपास के गांवों में जाकर भी कीर्तन कराती थीं। उनकी कीर्तन की शैली इतनी मधुर
थी कि उसमें हजारों पुरुष और महिलाएं भक्तिभाव से शामिल होते थे। लोग उन्हें
आग्रहपूर्वक अपने गांव में बुलाते भी थे।
संत ज्ञानेश्वर की पालकी के साथ प्रतिवर्ष आलंदी से
पंढरपुर तक जाने वाली उनकी टोली उनके नाम से ही जानी जाती थी। अपनी विट्ठल भक्ति
को उन्होंने राष्ट्रभक्ति से भी जोड़ दिया था। उनके मन में देश की गुलामी की पीड़ा
भी विद्यमान थी। स्वाधीनता से पूर्व वे क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय थीं। उन
दिनों वे कीर्तन में भजन के साथ देशभक्ति से परिपूर्ण गीत भी जोड़ देती थीं। उनके
इन गीतों की सराहना गांधी जी ने भी की थी।
धार्मिक गतिविधियों के साथ ही वे सामाजिक जीवन में
भी सक्रिय रहती थीं। वे शिक्षा को स्त्रियों के लिए बहुत आवश्यक मानती थीं। स्त्री
शिक्षा के विस्तार के लिए किये गये उनके प्रयास भी उल्लेखनीय हैं। इसके साथ ही वे
कालबाह्य हो चुकी रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों की घोर विरोधी थीं। अपने कीर्तन एवं प्रवचनों में वे इन पर भारी चोट करती थीं। इस प्रकार उन्होंने कथा-कीर्तन का उपयोग
भक्ति जागरण के साथ ही समाज सुधार के लिए भी किया।
यद्यपि जैतुनबी का सारा जीवन एक अच्छी हिन्दू महिला
की तरह बीता; पर उनके मन में इस्लाम के प्रति भी प्रेम था। वे
व्रत और कीर्तन की तरह रोजे भी समान श्रद्धा से रखती थीं। यद्यपि कट्टरपंथी
मुसलमान इससे नाराज रहते थे। उन्हें कई बार धमकियां भी मिलीं; पर जैतुनबी अपने काम में लगी रहीं। उनके कीर्तन और प्रवचन से प्रभावित होकर
लगभग 50,000 लोग उनके शिष्य बने। आलंदी एवं पंढरपुर में उनके
मठ भी हैं।
वृद्धावस्था तथा अनेक रोगों का शिकार होने पर भी वे प्रतिवर्ष
तीर्थयात्रा पर जाती रहीं। वर्ष 2010 में भी उन्होंने
यात्रा पूरी की। संत ज्ञानेश्वर की पालकी के पुणे पहुंचने पर 9 जुलाई, 2010 को अपनी जीवन यात्रा पूरी कर वे अनंत की यात्रा पर
चल दीं।
80 वर्ष की आयु तक विट्ठल भक्ति की अलख जगाने वाली
जैतुनबी उर्फ जयरामदास महाराज का अंतिम संस्कार उनके जन्मस्थान मालेगांव में ही
किया गया, जिसमें हजारों लोगों ने भाग लेकर उन्हें
श्रद्धांजलि दी।
(संदर्भ : पांचजन्य 8.8.2010)
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9 जुलाई/जन्म-दिवस
दुर्लभ चित्रों के संग्राहक सत्यनारायण गोयल
प्रसिद्ध फोटो चित्रकार श्री सत्यनारायण गोयल का
जन्म नौ जुलाई, 1930 को आगरा में हुआ था। 1943
में वे संघ के स्वयंसेवक बने। 1948 के प्रतिबन्ध के समय वे
कक्षा 12 में पढ़ रहे थे। जेल जाने से उनकी पढ़ाई छूट गयी।
अतः उन्होंने फोटो मढ़ने का कार्य प्रारम्भ कर दिया।
कला में रुचि होने के कारण उन्होंने 1956 में ‘कलाकुंज’ की स्थापना की। वे
पुस्तक, पत्र-पत्रिकाओं आदि के मुखपृष्ठों के डिजाइन बनाते
थे। इससे उनकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी। अब उन्होंने फोटोग्राफी भी प्रारम्भ कर दी। 1963 में वे दैनिक समाचार पत्र ‘अमर उजाला’ से जुड़े और उसके संस्थापक श्री डोरीलाल जी के जीवित रहते तक वहां निःशुल्क काम
करते रहे।
1975 के आपातकाल में उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को
सत्याग्रह कर जेल भेजा। आगरा के सरस्वती शिशु मंदिर, गोशाला,
अग्रसेन इंटर कॉलिज तथा अग्रोहा न्यास आदि सामाजिक कार्यों
में वे सदा आगे रहते थे। आगरा के प्रसिद्ध सभागार का नाम ‘सूर
सदन’ रखने के लिए उन्होंने हस्ताक्षर अभियान चलाया।
शिवाजी आगरा
के जिस किले में बन्दी रहे थे, उसके सामने शिवाजी की भव्य
प्रतिमा मुख्यतः उन्हीं के प्रयास से लगी। देश में किसी भी प्राकृतिक आपदा के समय
वे धन संग्रह कर वहां भेजते थे। रंगमंच एवं ललित कलाओं के लिए समर्पित संस्था ‘संस्कार भारती’ के वे केन्द्रीय मंत्री रहे। उसकी मुखपत्रिका आज भी
‘कलाकुंज भारती’ के नाम से ही छप रही
है।
विश्व हिन्दू परिषद द्वारा वनवासी क्षेत्रों में
चलाये जा रहे एकल विद्यालयों की सहायतार्थ उन्होंने आगरा में ‘वनबन्धु परिषद’ की स्थापना की। वे कई बार उद्योगपतियों को वनयात्रा
पर ले गये। 1984 में राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह के साथ सद्भाव
यात्रा में वे सपत्नीक मॉरीशस गये। मुंबई की महिलाओं ने करगिल जैसे कठिन
सीमाक्षेत्र में तैनात वीर सैनिकों का साहस बढ़ाने के लिए उन्हें वहां जाकर राखी
बांधी। सत्यनारायण जी इसमें भी सहभागी हुए।
फोटो चित्रकार होने के नाते उनके पास दुर्लभ
चित्रों का विशाल संग्रह था। द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी अपना चित्र नहीं
खिंचवाते थे। एक बार उनके आगरा प्रवास के समय वे दरवाजे के पीछे खड़े हो गये। श्री
गुरुजी के कमरे में आते ही उन्होंने दरवाजे से निकल कर चित्र खींचा और बाहर चले
गये। यद्यपि बाद में उन्हें डांट खानी पड़ी; पर
चित्र तो उनके पास आ ही गया।
आगरा आने वाले संघ के हर प्रचारक, राजनेता, समाजसेवी और प्रसिद्ध व्यक्ति का चित्र उनके संग्रह
में मिलता है। वे देश की वर्तमान दशा के बारे में उनका आकलन, उनके हस्तलेख में ही लिखवाते थे। इसका संग्रह उन्होंने ‘देश
दशा दर्शन’ के नाम से छपवाया था। ऐसे पांच लोग प्रधानमंत्री भी
बने। उनके पास प्रसिद्ध लोगों के जन्म व देहांत की तिथियों का भी विशाल संग्रह था।
अटल जी के प्रधानमंत्री बनने पर पुणे से प्रकाशित ‘जननायक’ नामक सचित्र स्मारिका के लिए अटल जी के 500 पुराने चित्र सत्यनारायण जी ने अपने संग्रह से दिये। मेरठ के समरसता महाशिविर
(1998) और आगरा में राष्ट्र रक्षा महाशिविर (2000) के चित्र भी उन्होंने ही लिये थे। श्री गुरुजी जन्मशती पर प्रकाशित पत्रिकाओं
में सभी जगह उनके लिये गये चित्र छपे।
कलाकुंज की प्रसिद्धि और काम बढ़ने पर भी उन्होंने
चित्र मढ़ने वाला पुराना काम नहीं छोड़ा। 29 अक्तूबर,
2011 को उनका देहांत हुआ। आगरा में उनकी दुकान वाला चौराहा ‘कलाकुंज चौक’ के नाम से प्रसिद्ध है।
(संदर्भ :
हिन्दुस्थान समाचार, नवोत्थान लेख सेवा.. आदि)
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9 जुलाई/जन्म-दिवस
विद्यार्थी परिषद के शिल्पकार मदनदास देवी
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को वैचाारिक और जमीनी स्तर पर राष्ट्रीय बनाने में प्रोफेसर यशवंतरराव केलकर, प्रोफेसर बाल आप्टे तथा मदनदास देवी का विशेष योगदान रहा है। इनमें से प्रचारक के नाते मदनदास जी की विशिष्ट भूमिका रही। उनका जन्म नौ जुलाई, 1942 को महाराष्ट्र में सोलापुर जिले के करमाला गांव में हुआ था। यद्यपि उनके पूर्वज गुजरात से थे। बचपन में ही वे अपने भाई कुशलदास जी के साथ शाखा जाने लगे। धीरे-धीरे उनका प्रेम संघ के प्रति बढ़ने लगा। मेधावी होने के नाते उन्होंने एम.काॅम, स्वर्ण पदक के साथ एल.एल.बी. तथा फिर सी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वे सुख, सुविधा और वैभव का जीवन जी सकते थे; पर उन्होंने प्रचारक बनकर जीवन देश की सेवा में समर्पित कर दिया।
मदनदास जी 1964 में विद्यार्थी परिषद के काम से जुड़े। पहले मुंबई, 1968 में पश्चिम क्षेत्र और फिर 1970 में वे राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनाये गये। यह जिम्मेदारी उन्होंने 22 साल तक संभाली। 1992 में उन्हें संघ में अ.भा. सह प्रचारक प्रमुख तथा 1993 में सह सरकार्यवाह की जिम्मेदारी दी गयी। विदेश में जहां स्वयंसेवक रहते हैं, वहां के प्रवास में उन्होंने पारिवारिक शाखा का सुझाव दिया। इससे परिवार के सब लोग संघ से जुड़ने लगे। अब तो विश्व विभाग के अन्तर्गत सर्वत्र ऐसी ही साप्ताहिक शाखाएं लगती हैं।
1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनने पर उन्हें संघ और सरकार के बीच समन्वय का कठिन काम दिया गया। इधर संघ और समविचारी संगठनों की प्रबल आंकाक्षाएं थीं, तो उधर गठबंधन की मजबूरियां। दोनों में समन्वय तलवार की धार पर चलने जैसा था; पर मदनदास जी ने उसे भरपूर निभाया। यद्यपि उन्हें दोनों ओर से आलोचना झेलनी पड़ी। इसका दुष्प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर पड़ा, जिससे वे आजीवन उबर नहीं सके। 2009 में उनका बोझ घटाकर उन्हें संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी का सदस्य तथा दीनदयाल शोध संस्थान का संरक्षक बनाया गया।
मदनदास जी मानते थे कि परिषद का गठन छात्र राजनीति के लिए नहीं, अपितु शिक्षा जगत में व्यापक बदल के लिए हुआ है। इसलिए छात्र संघ के चुनाव के साथ देशहित में रचनात्मक काम और आंदोलन भी जरूरी हैं। संघ और परिषद के कार्यकर्ताओं के लिए ‘करणीय और अकरणीय’ क्या है, इसकी चर्चा वे सबसे करते थे। वे कहते थे कि युवाओं की तरह युवतियों में भी नेतृत्व की क्षमता है। इसलिए परिषद में उन्हें हर स्तर पर स्थान दिया गया। वे प्राध्यापक आदि वरिष्ठ बुद्धिजीवियों से गंभीर विमर्श करते थे, तो छात्रावासों में विद्यार्थियों में भी घुलमिल जाते थे। इसके कारण बड़ी संख्या में पूर्णकालिक कार्यकर्ता तथा प्रचारक संगठन को प्राप्त हुए। नये विचार सुनने, समझने और अपनाने को वे सदा उत्सुक रहते थे। आर्थिक विषयों पर उनकी समझ बहुत गहरी थी।
मदनदास जी परिषद के शिल्पी थे। एक समय लोग परिषद को जनसंघ या भा.ज.पा. का युवा विभाग मानते थे; पर मदनदास जी ने स्पष्ट किया कि हम इनके नहीं, संघ के समविचारी संगठन हैं। उनमें व्यक्ति को समझने की अद्भुत क्षमता थी। वे घंटों बातकर मन की तह तक पहुंचते थे। इससे कार्यकर्ताओं के मनभेद समाप्त हुए। वे कार्यकर्ता की एक-दो भूल माफ करते थे; पर फिर नहीं। यद्यपि इसके बाद भी वे उससे संपर्क बनाये रखते थे। 1975 के आपातकाल में परिषद के भी हजारों कार्यकर्ता सत्याग्रह कर जेल में गये।
24 जुलाई, 2023 को बंगलुरू में मदनदास जी का देहांत हुआ। उनके साथ काम करने वाले कई लोग आज राजनीति तथा सामाजिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त हैं। ये सब अपनी कार्यशैली पर उनका प्रभाव स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं। इनमें एक नाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी है।
(पांचजन्य/आर्गनाइजर 6.8.2023 तथा 6.8.23 के अखबारों में नरेन्द्र मोदी)
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10 जुलाई/जन्म-दिवस
संकल्प के धनी :
जयगोपाल जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परम्परा में अनेक
कार्यकर्ता प्रचारक जीवन स्वीकार करते हैं; पर
ऐसे लोग कम ही होते हैं, जो बड़ी से बड़ी व्यक्तिगत या
पारिवारिक बाधा आने पर भी अपने संकल्प पर दृढ़ रहते हैं। श्री जयगोपाल जी ऐसे ही
संकल्प के व्रती थे।
उनका जन्म अविभाजित भारत के पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त स्थित
डेरा इस्माइल खाँ नगर के एक प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न परिवार में 10 जुलाई, 1923 को हुआ था। अब यह क्षेत्र पाकिस्तान में है। वे
चार भाइयों तथा तीन बहनों में सबसे बड़े थे। विभाजन से पूर्व छात्र जीवन में ही वे
संघ के सम्पर्क में आ गये थे।
जयगोपाल जी ने लाहौर से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग
का प्रशिक्षण प्राप्त किया। इसके बाद उन्होंने हीवेट पॉलीटेक्निक कॉलिज, लखनऊ से प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक के साथ अभियन्ता की परीक्षा उत्तीर्ण की।
यहीं उनकी मित्रता भाऊराव देवरस से हुई। उसके बाद तो दोनों 'दो देह एक प्राण' हो
गये।
घर में सबसे बड़े होने के नाते माता-पिता को आशा थी
कि अब वे नौकरी करेंगे; पर जयगोपाल जी तो संघ के
माध्यम से समाज सेवा का व्रत ले चुके थे। अतः शिक्षा पूर्ण कर 1942 में वे संघ के प्रचारक बन गये। भारत विभाजन के समय उस ओर के हिन्दुओं ने बहुत
शारीरिक, मानसिक और आर्थिक संकट झेले। जयगोपाल जी के
परिवारजन भी खाली हाथ बरेली आ गये। ऐसे में एक बार फिर उन पर घर लौटकर कुछ काम
करने का दबाव पड़ा; पर उन्होंने अपने संकल्प को लेशमात्र भी हल्का नहीं
होने दिया और पूर्ववत संघ के प्रचारक के रूप में काम में लगे रहे।
संघ कार्य में नगर, जिला,
विभाग प्रचारक के नाते उन्होंने उत्तर प्रदेश के कई स्थानों
विशेषकर शाहजहाँपुर, बरेली, लखनऊ तथा प्रयाग आदि
में संघ कार्य को प्रभावी बनाया। उन्होंने तीन वर्ष तक काठमाण्डू में भी संघ-कार्य
किया और नेपाल विश्वविद्यालय से उपाधि भी प्राप्त की।
वे 1973 में पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने। 1975
में देश में आपातकाल लागू होने पर उन्होंनेे भूमिगत रहकर अत्यन्त सक्रिय भूमिका
निभाई और अन्त तक पकड़े नहीं गये। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक श्री
माधवराव देवड़े की गिरफ्तारी के बाद वे पूरे उत्तर प्रदेश में भ्रमण कर स्वयंसेवकों
का उत्साहवर्धन करते रहे।
जयगोपाल जी ने 1989
में क्षेत्र प्रचारक के नाते जम्मू-कश्मीर, हिमाचल
प्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा दिल्ली
का कार्य सँभाला। उनका केन्द्र चण्डीगढ़ बनाया गया। उस समय पंजाब में आतंकवाद चरम
पर था और संघ की कई शाखाओं पर आतंकवादी हमले भी हुए थे। इन कठिन परिस्थितियों में
भी वे अडिग रहकर कार्य करते रहे। स्वास्थ्य खराबी के बाद भी वे लेह-लद्दाख जैसे
क्षेत्रों में गये और वहाँ संघ कार्य का बीजारोपण किया।
1994 में उन्हें विद्या भारती (उ.प्र.)
का संरक्षक बनाकर फिर लखनऊ भेजा गया। यहाँ रह कर भी वे
यथासम्भव प्रवास कर विद्या भारती के काम को गति देते रहे। वृद्धावस्था तथा अन्य
अनेक रोगों से ग्रस्त होने के कारण दो अगस्त, 2005
को दिल्ली में अपने भाई के घर पर उनका देहान्त हुआ।
जयगोपाल जी ने जो तकनीकी शिक्षा और डिग्री पाई थी,
उसका उन्होंने पैसा कमाने में तो कोई उपयोग नहीं किया;
पर लखनऊ में संघ परिवार की अनेक संस्थाओं के भवनों के नक्शे
उन्होंने ही बनाये। इनमें विद्या भारती का मुख्यालय निराला नगर तथा संघ कार्यालय
केशव भवन प्रमुख हैं।
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10 जुलाई/पुण्य-तिथि
पारदर्शी व्यवस्था के प्रेमी मिश्रीलाल तिवारी
श्री मिश्रीलाल तिवारी ने संघ की प्रेरणा से कार्यरत ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के काम को बहुत गहराई तक पहुंचाया। उनका परिवार मूलतः मध्य प्रदेश में मुरैना जिले के ग्राम तवरघार का निवासी था; पर तीन पीढ़ी पहले उनके पूर्वज मध्य प्रदेश के शाजापुर में बस गये। वहीं फागुन शुक्ल 14 (मार्च 1916 ई.) को श्री कुंदनलाल तथा श्रीमती रुक्मणीबाई के घर में उनका जन्म हुआ। श्री दिगम्बर तिजारे के सम्पर्क में आकर 1938 में वे स्वयंसेवक बने। उनका विवाह हो चुका था और वे उज्जैन में जिला शिक्षा अधिकारी के कार्यालय में काम कर रहे थे। संघ के संपर्क से उन्हें हिन्दू संगठन का महत्व पता लगा। अतः वे अपना अधिकाधिक समय इसमें ही लगाने लगे।
उज्जैन में खाराकुआं स्थित उनका घर संघ की गतिविधियों का केन्द्र बन गया। सब लोग हंसी में उसे ‘डिब्बा’ कहते थे। उनकी साइकिल भी शाखा के काम में ही अधिक आती थी। संघ कार्य के लिए जो चाहे उसे ले जाता था। उनके पुत्र की बहुत छोटी आयु में ही मृत्यु हो गयी। इसके कुछ समय बाद पत्नी तथा फिर दस वर्षीय पुत्री भी चल बसी। मिश्रीलाल जी ने इसे प्रभु-इच्छा समझ कर फिर विवाह नहीं किया और 1946 में प्रचारक बन गये। उन दिनों उज्जैन की शाखा में केवल बाल व शिशु स्वयंसेवक ही आते थे; पर मिश्रीलाल जी ने नगर के युवा तथा प्रौढ़ लोगों को भी संघ से जोड़ा।
अपने नाम को सार्थक करते हुए वे सबसे बहुत प्रेम से मिलते थे। उनके सामने कार्यकर्ता अपना दिल खोल देता था। वे भी उसकी समस्या का समुचित समाधान करते थे। कभी-कभी कार्यकर्ताओं में मतभेद हो जाते थे। ऐसे में मिश्रीलाल जी से उनकी भेंट रामबाण दवा सिद्ध होती थी। अतः उनका प्रवास जहां भी होता, वहां उत्साह का वातावरण बन जाता था।
मिश्रीलाल जी उज्जैन नगर, गुना जिला और ग्वालियर विभाग प्रचारक के बाद कुछ वर्ष भोपाल में प्रांतीय कार्यालय प्रमुख रहे। 1967 में स्वामी विवेकानंद शिला स्मारक के धनसंग्रह का हिसाब उन पर था। उन्होंने वह बहुत निपुणता से किया। वह काम हड़बड़ी की बजाय पूरी तैयारी से करते थे। वे काम की सूची बनाते थे तथा जो काम हो जाता, उसे काटते रहते थे। उनके प्रिय वाक्य थे, ‘पूर्वाताप’ कर लो, तो ‘पश्चाताप’ नहीं करना पड़ेगा तथा ‘रहा काम तो रावण से भी पूरा नहीं हो सका।’
गांव में उनके हिस्से की पुश्तैनी जमीन पर खेती होती थी। वे प्रचारक रहते हुए भी गुरुदक्षिणा तथा अपने निजी व्यय उसकी आय से करते थे। 1968 में उन्हें मध्यभारत प्रांत में वनवासी कल्याण आश्रम का काम दिया गया। 1979 में वे कल्याण आश्रम के महामंत्री तथा 1997 में उपाध्यक्ष बने। उनके व्यवस्थित कार्य से धर्मान्तरण पर रोक लगी तथा परावर्तन को बल मिला। आपातकाल में वे पूरे 18 मास तक इंदौर जेल में बंद रहे।
मिश्रीलाल जी का हृदय मातृवत वात्सल्य से परिपूर्ण था। 1979 में जशपुर में प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई तथा कई केन्द्रीय मंत्री आये थे। संघ के भी कई वरिष्ठ पदाधिकारी वहां थे। मिश्रीलाल जी उनके साथ अपने बीमार रसोइये ‘मामा’ की भी चिन्ता कर रहे थे। भोपाल गैस कांड के बाद क्षतिपूर्ति के रूप में प्राप्त 15,000 रु. से उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु खाचरौद (मंदसौर) के स्वामी स्वतंत्रानंद जी की जीवनी छपवाकर निःशुल्क वितरित की।
दाहिने पैर में पक्षाघात के कारण वे विशेष प्रकार का जूता पहनते थे। 1987 में उनकी 71वीं वर्षगांठ पर उन्हें समर्पित सात लाख रु. की श्रद्धानिधि उन्होंने कल्याण आश्रम को ही दे दी। प्रवास में कठिनाई होने पर उन्होंने सब दायित्वों से मुक्ति ले ली। समाज को अपना आराध्य मानने वाले मिश्रीलाल जी का 10 जुलाई, 2001 को कल्याण आश्रम के केन्द्र जसपुर में ही देहांत हुआ।
(संदर्भ : मध्यभारत की संघगाथा/हमारे महान वननायक)
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10 जुलाई/जन्म-दिवस
दृढ़ निश्चय के धनी डा. अमरसिंह
किसी भी काम को करते समय अनेक बाधाएं आती हैं। कुछ लोग इनके आगे घुटने टेक देते हैं, जबकि कुछ उन्हें हंसी में उड़ाकर आगे बढ़ जाते हैं। संघ के वरिष्ठ प्रचारक डा. अमरसिंह दूसरे प्रकार के लोगों में से थे।
उनका जन्म 10 जुलाई, 1940 को जिला सुल्तानपुर (उ.प्र.) के ग्राम सिंहौली (कोइरीपुर) में श्री लक्ष्मणसिंह तथा माता श्रीमती छविराजी देवी के घर में हुआ था। चार बहिन तथा पांच भाइयों वाले बड़े परिवार में उनका नंबर चैथा था। प्रखर मेधा के धनी होने के कारण पूरे परिवार में वे ही सबसे अधिक शिक्षा प्राप्त कर सके।
प्राथमिक शिक्षा गांव में पूरी कर उन्होंने 1958 में राजा हरपाल सिंह इंटर काॅलिज, सिंगरामऊ (जौनपुर) से प्रथम श्रेणी में इंटर; 1960 में तिलकधारी महाविद्यालय, जौनपुर से बी.एस-सी. तथा 1962 में गोरखपुर से भौतिक विज्ञान में प्रथम श्रेणी में एम.एस-सी. की उपाधि प्राप्त की। एम.एस-सी. में उन्हें गोरखपुर वि.वि. की सम्मान सूची (मेरिट लिस्ट) में स्थान मिला था।
जौनपुर में उनका संपर्क संघ से हुआ और फिर वे पढ़ते हुए लगातार सक्रिय बने रहे। इस दौरान भाऊराव देवरस, रज्जू भैया, जयगोपाल जी तथा ठाकुर राजनीति सिंह आदि वरिष्ठ प्रचारकों का उनके जीवन और विचारों पर बहुत प्रभाव पड़ा।
एम.एस-सी. के बाद उन्होंने रज्जू भैया के सहपाठी डा. देवेन्द्र शर्मा के निर्देशन में ‘प्रकाश’ पर शोध कर 1967 में पी.एच-डी. की उपाधि पाई। डा. देवेन्द्र शर्मा भौतिकी के प्रख्यात विद्वान थे। आगे चलकर वे वि.वि. में कुलपति भी बने। उनके निर्देशन में शोध करने वालों को सभी बड़े महाविद्यालय अपने यहां नौकरी दे देते थे। 1969 में डा. अमरसिंह का चयन भी गोरखपुर वि.वि. में प्रवक्ता पद पर हो गया; पर तब तक वे संघ को जीवन देने का निश्चय कर चुके थे। अतः उन्होंने इस मार्ग को सदा के लिए नमस्ते कर दी।
डा. अमरसिंह का प्रचारक जीवन 1972 में कानपुर से प्रारम्भ हुआ। आपातकाल के दौरान उनका कार्यक्षेत्र लखनऊ था। प्रचारकों को उस समय जेल जाने की मनाही थी। अतः वे बाहर रहकर ही आंदोलन और कार्यकर्ताओं की देखभाल करते रहे। कुछ समय बाद उनका केन्द्र प्रयाग बनाकर उन्हें पूर्वी उ.प्र. में अ.भा.विद्यार्थी परिषद का काम दिया गया।
आपातकाल के बाद वे प्रयाग महानगर, कानपुर विभाग और फिर गोरखपुर विभाग प्रचारक रहे। 1989-90 में उन्हें विद्या भारती के काम में लगाया गया। उ.प्र. के चार प्रान्त होने पर वे क्रमशः काशी संभाग प्रचारक, काशी प्रांत के संपर्क प्रमुख तथा फिर पूर्वी उ.प्र. क्षेत्र के प्रचारक प्रमुख बने। 2011 में उन्हें पूर्वी उ.प्र. की क्षेत्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया, जिससे वे ठीक से स्वास्थ्य लाभ कर सकें।
डा. अमरसिंह का स्वभाव बहुत विनोदी, सरल, सादगीपूर्ण, निरभिमानी तथा प्रत्युत्पन्नमति वाला था। वे हर समस्या का समाधान हंसते हुए निकालते थे। सायं शाखा, बाल स्वयंसेवक, वन-विहार, चंदन, सहभोज, शिविर आदि की ओर उनका विशेष ध्यान रहता था। छात्रावासों में व्यापक संपर्क के कारण उन्होंने हर जगह नये और युवा कार्यकर्ताओं की अच्छी टोली खड़ी कर दी।
भाइयों में सबसे बड़े, परिवार में सर्वाधिक शिक्षित तथा पिताजी का देहांत हो जाने के कारण सबकी इच्छा थी कि वे नौकरी और विवाह करें। उनकी शिक्षा पर काफी धन भी लगा था; पर वे प्रचारक बन गये। एक बार उनकी माताजी कानपुर कार्यालय पर उन्हें समझाने आयीं; पर वे अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे। उन्होंने माताजी से कहा कि यदि आप मुझे खुश देखना चाहती हैं, तो मुझे यही काम करने दें। इस पर वे आशीर्वाद देकर लौट गयीं।
हृदयरोग से ग्रस्त होने पर भी मई-जून के संघ शिक्षा वर्गों में अपने लिए निर्धारित प्रवास उन्होंने पूरा किया। वहां की व्यस्तता और थकान के कारण 17 जून, 2013 को हृदयाघात से वाराणसी में ही उनका निधन हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य, वि.सं.केन्द्र, वीरेश्वर जी, रामशीष जी आदि)
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11 जुलाई/जन्म-दिवस
पहाड़ी गांधी :
बाबा काशीराम
बाबा काशीराम का नाम हिमाचल प्रदेश के स्वतन्त्रता
सेनानियों की सूची में शीर्ष पर लिया जाता है। उनका जन्म ग्राम पद्धयाली गुर्नाड़
(जिला कांगड़ा) में 11 जुलाई, 1888
को हुआ था। इनके पिता श्री लखनु शाह तथा माता श्रीमती रेवती थीं। श्री लखनु शाह और
उनके परिवार की सम्पूर्ण क्षेत्र में बहुत प्रतिष्ठा थी।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में अनेक लोकगीतों और कविताओं
ने राष्ट्रभक्ति की ज्वाला को प्रज्वलित करने में घी का काम किया। इन्हें गाकर लोग
सत्याग्रह करते थे और प्रभातफेरी निकालते थे। अनेक क्रान्तिकारी ‘वन्दे मातरम्’ और ‘मेरा रंग दे बसन्ती चोला’
जैसे गीत गाते हुए फाँसी पर झूल गये। उन क्रान्तिवीरों के
साथ वे गीत और उनके रचनाकार भी अमर हो गये।
इसी प्रकार बाबा काशीराम ने अपने गीत और कविताओं
द्वारा हिमाचल प्रदेश की बीहड़ पहाड़ियों में पैदल घूम-घूम कर स्वतन्त्रता की अलख
जगायी। उनके गीत हिमाचल प्रदेश की स्थानीय लोकभाषा और बोली में होते थे। पर्वतीय
क्षेत्र में ग्राम देवताओं की बहुत प्रतिष्ठा है। बाबा काशीराम ने अपने काव्य में
इन देवी-देवताओं और परम्पराओं की भरपूर चर्चा की। इसलिए वे बहुत शीघ्र ही आम जनता
की जिह्ना पर चढ़ गये।
1937 में गद्दीवाला (होशियारपुर) में सम्पन्न हुए
सम्मेलन में नेहरू जी ने इनकी रचनाएँ सुनकर और स्वतन्त्रता के प्रति इनका समर्पण
देखकर इन्हें ‘पहाड़ी गान्धी’ कहकर
सम्बोधित किया। तब ये इसी नाम से प्रसिद्ध हो गये। जीवन में अनेक विषमताओं से
जूझते हुए बाबा काशीराम ने अपने देश, धर्म और समाज पर अपनी
चुटीली रचनाओं द्वारा गहन टिप्पणियाँ कीं। इनमें कुणाले री कहाणी, बाबा बालकनाथ कनै फरियाद, पहाड़ेया कन्नै चुगहालियाँ
आदि प्रमुख हैं।
उन दिनों अंग्रेजों के अत्याचार चरम पर थे। वे चाहे जिस गाँव में
आकर जिसे चाहे जेल में बन्द कर देते थे। दूसरी ओर स्वतन्त्रता के दीवाने भी
हँस-हँसकर जेल और फाँसी स्वीकार कर रहे थे। ऐसे में बाबा ने लिखा -
भारत माँ जो आजाद कराणे तायीं
मावाँ दे पुत्र चढ़े फाँसियाँ
हँसदे-हँसदे आजादी ने नारे लाई।।
बाबा स्वयं को राष्ट्रीय पुरुष मानते थे। यद्यपि
पर्वतीय क्षेत्र में जाति-बिरादरी को बहुत महत्त्व दिया जाता है; पर जब कोई बाबा से यह पूछता था, तो वे गर्व से कहते
थे -
मैं कुण, कुण घराना मेरा,
सारा हिन्दुस्तान ए मेरा
भारत माँ है मेरी माता, ओ
ज॰जीराँ जकड़ी ए।
ओ अंग्रेजाँ पकड़ी ए, उस
नू आजाद कराणा ए।।
उनकी सभी कविताओं में सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक चेतना के स्वर सुनाई देते
हैं
काशीराम जिन्द जवाणी, जिन्दबाज
नी लाणी
इक्को बार जमणा, देश
बड़ा है कौम बड़ी है।
जिन्द अमानत उस देस दी
कुलजा मत्था टेकी कने, इंकलाब
बुलाणा।।
इसी प्रकार देश, धर्म
और राष्ट्रीयता के स्वर बुलन्द करते हुए बाबा काशीराम 15 अक्तूबर,
1943 को इन दुनिया से विदा हो गये। हिमाचल प्रदेश में आज भी 15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर उनके गीत गाकर
उन्हें याद किया जाता है।
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12 जुलाई/जन्म-दिवस
निर्बल की पीड़ा के फिल्मकार विमल दा
अपनी कला के माध्यम से कलाकार किसी व्यक्ति या समाज
को बदलने की क्षमता रखता है। यह उस कलाकार पर निर्भर है कि वह अपनी कला का उपयोग
समाज को सही दिशा देने में करे या नीचे गिराने में।
सिनेमा इस दृष्टि से एक सशक्त माध्यम है। दुर्भाग्यवश
आज सिनेमा का मुख्य उद्देश्य आधुनिकता के नाम पर केवल नंगेपन और अनुशासनहीनता का
ही प्रचार-प्रसार हो गया है; पर भारत की माटी में ऐसे
अनेक फिल्मकार जन्मे हैं, जिन्होंने निर्धन और निर्बल
जनों की पीड़ा को उजागर किया। ऐसे ही एक अनुपम फिल्मकार थे विमल दा।
विमल दा का जन्म 12
जुलाई, 1909 को वर्त्तमान बांग्लादेश की राजधानी ढाका में हुआ
था। बचपन से ही उनके मन में कला के बीज अंकुरित होने लगे थे। बड़े होने पर उनके
ध्यान में आया कि यदि कला को ही अपने जीवन का आधार बनाना है, तो इसके लिए मुम्बई सर्वश्रेष्ठ स्थान है। अतः वे ढाका से अपना बोरिया-बिस्तर
समेट कर मुम्बई आ गये।
पर मुम्बई में जीवनयापन के लिए व्यक्ति को संघर्ष
की कठिन प्रक्रिया में से गुजरना पड़ता है। विमल दा के मन में एक निर्देशक छिपा था;
पर पैर जमाने के लिए उन्होंने कैमरामैन के नाते काम शुरू
किया। 1935 में प्रदर्शित पी.सी. बरुआ की फिल्म ‘देवदास’ और 1937 में प्रदर्शित ‘मुक्ति’ के लिए उन्होंने फोटोग्राफी की। इनमें उनके काम की
सराहना हुई।
उन दिनों धार्मिक फिल्में अच्छी सफलता प्राप्त करती
थीं। रोमाण्टिक फिल्मों का दौर अपनी प्रारम्भिक अवस्था में था। ऐसे में विमल दा ने
एक नये क्षेत्र में हाथ डाला। वह था सामाजिक विषयों पर फिल्म बनाना। यह बहुत कठिन
काम था। क्योंकि ऐसी फिल्मों में धन लगाने वाले भी आसानी से नहीं मिलते थे;
पर विमल दा ने ग्रामीण क्षेत्र में जमींदारी प्रथा, बाल विवाह, विधवाओं की समस्या, जातिभेद
आदि पर आधारित सामाजिक कहानियों एवं उपन्यासों से विषयों का चयन कर उन पर फिल्में
बनायीं।
1944 में उन्होंने ‘उदयेर
पौथे’ नामक बांग्ला फिल्म का निर्देशन किया। इसका हिन्दी
रूपान्तर ‘हमराही’ नाम से हुआ और उसने
अच्छी सफलता पायी। इससे विमल दा का साहस बढ़ा और उन्हें प्रसिद्धि भी मिली। 1952 में बाम्बे टाकीज के फिल्म ‘माँ’ का
निर्देशन किया; पर अभी उनके जीवन का सर्वश्रेष्ठ काम बाकी था।
फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ से
उन्हें वास्तविक सफलता मिली।
यह एक ऐसे किसान की कहानी है, जो गाँव में जमींदार के पास बन्धक रखी अपनी दो बीघा जमीन को छुड़ाने के लिए शहर
में रिक्शा खींचता है। इस फिल्म ने विमल दा को अन्तरराष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलायी।
उन्हें कान और कार्लोवी वैरी फिल्म समारोहों में सम्मानित किया गया। शरदचन्द्र के
उपन्यास पर उन्होंने ‘बिराज बहू’ और ‘देवदास’ फिल्में बनायीं। 1958
में पुनर्जन्म पर आधारित ‘मधुमती’ और ‘यहूदी’ फिल्मों का निर्देशन
किया।
विमल दा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘बन्दिनी’ थी। इसमें हत्या के आरोप में जेल में बन्द एक महिला
के अन्तर्मन की दशा का सजीव चित्रण है। फिर उन्होंने छुआछूत पर आधारित ‘सुजाता’ फिल्म बनाई। इससे सामाजिक समस्याओं को फिल्मों में
केन्द्रीय स्थान मिलने लगा। विमल दा को सात बार सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्म
फेयर पुरस्कार मिला। 7 जनवरी, 1966
को लम्बी बीमारी के बाद भारतीय सिनेमा का यह रत्न सदा के लिए शान्त हो गया।
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12 जुलाई/पुण्य-तिथि
संघव्रती जुगल किशोर परमार
मध्यभारत प्रांत की प्रथम पीढ़ी के प्रचारकों में से
एक श्री जुगलकिशोर परमार का जन्म इंदौर के एक सामान्य परिवार में 1919 में हुआ था। भाई-बहिनों में सबसे बड़े होने के कारण घर वालों को उनसे कुछ अधिक
ही अपेक्षाएं थीं; पर उन्होंने संघव्रत अपनाकर आजीवन उसका पालन किया।
जुगल जी किशोरावस्था में संघ के सम्पर्क में आकर
शाखा जाने लगे। उन्होंने इंदौर के होल्कर महाविद्यालय से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण
की थी। घर की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण वे ट्यूशन करते हुए अपनी पढ़ाई करते
थे। संघ कार्य की लगन के कारण 1940 में वे पढ़ाई अधूरी छोड़कर
प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम उन्हें मंदसौर भेजा गया। उन दिनों संघ के पास पैसे का
अभाव रहता था। अतः वे ट्यूशन करते हुए संघ कार्य करते रहे।
मंदसौर के बाद वे उज्जैन, देवास
की हाट, पिपल्या व बागली तहसीलों में प्रचारक रहे। इसके बाद
मध्यभारत प्रांत का पश्चिम निमाड़ ही मुख्यतः उनका कार्यक्षेत्र बना रहा। बड़वानी को
अपना केन्द्र बनाकर उन्होंने पूरे खरगौन जिले के दूरस्थ गांवों में संघ कार्य को
फैलाया। उनके कार्यकाल में पहली बार उस जिले में 100
से अधिक शाखाएं हो गयीं।
1950 में संघ पर से प्रतिबन्ध हटने के बाद बड़ी विषम
स्थिति थी। बड़ी संख्या में लोग संघ से विमुख हो गये थे। संघ कार्यालयों का सामान
पुलिस ने जब्त कर लिया था। न कहीं ठहरने का ठिकाना था और न भोजन का। ऐसे में अपनी
कलाई घड़ी बेच कर उन्होंने कार्यालय का किराया चुकाया।
संघ के पास पैसा न होने से
प्रवास करना भी कठिन होता था; पर जुगल जी ने हिम्मत नहीं
हारी। वे पूरे जिले में पैदल प्रवास करने लगे। प्रतिबन्ध काल में उन्होंने कुछ
कर्ज लिया था। उसे चुकाने तक उन्होंने नंगे पैर ही प्रवास किया; लेकिन ऐसी सब कठिनाइयों के बीच भी उनका चेहरा सदा प्रफुल्लित ही रहता था।
जुगल जी का स्वभाव बहुत मिलनसार था; पर इसके साथ ही वे बहुत अनुशासनप्रिय तथा कर्म-कठोर भी थे। वे सबको साथ लेकर
चलने तथा स्वयं नेपथ्य में रहकर काम करना पसंद करते थे। काम पूर्ण होने पर उसका
श्रेय सहयोगी कार्यकर्ताओं को देने की प्रवृत्ति के कारण शीघ्र ही उनके आसपास नये
और समर्थ कार्यकर्ताओं की टोली खड़ी हो जाती थी। कुछ समय तक विदिशा जिला प्रचारक और
फिर 1974 तक वे इंदौर के विभाग प्रचारक रहे।
मध्य भारत में विश्व हिन्दू परिषद का काम शुरू होने
पर उन्हें प्रांत संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी। इसे उन्होंने अंतिम सांस तक
निभाया। आपातकाल में वे भूमिगत हो गये; पर फिर पकड़े जाने से
उन्हें 16 महीने कारावास में रहना पड़ा। जेल में भी वे अनेक धार्मिक
आयोजन करते रहते थे। इससे कई खूंखार अपराधी तथा जेल के अधिकारी भी उनका सम्मान
करने लगे।
जुगल जी स्वदेशी के प्रबल पक्षधर थे। वे सदा खादी
या हथकरघे के बने वस्त्र ही पहनते थे। धोती-कुर्ता तथा कंधे पर लटकता झोला ही उनकी
पहचान थी। प्रवास में किसी कार्यकर्ता के घर नहाते या कपड़े धोते समय यदि विदेशी
कंपनी का साबुन उन्हें दिया जाता, तो वे उसे प्रयोग नहीं करते
थे।
ऐसे कर्मठ कार्यकर्ता का देहांत भी संघ कार्य करते
हुए ही हुआ। 12 जुलाई, 1979
को वे भोपाल में प्रातःकालीन चौक शाखा में जाने के लिए निकर पहन कर निकले। मार्ग
में आजाद बाजार के पास सड़क पर उन्हें भीषण हृदयाघात हुआ और तत्काल ही उनका
प्राणांत हो गया।
कहते हैं कि अंतिम यात्रा पर हर व्यक्ति अकेला ही
जाता है; पर यह भी विधि का विधान ही था कि जीवन भर लोगों से
घिरे रहने वाले जुगल जी उस समय सचमुच अकेले ही थे।
(संदर्भ : मध्यभारत की संघगाथा)
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12 जुलाई/जन्म-दिवस
नींव और आधार स्तम्भ दयाचंद जैन
देहरादून उत्तराखंड राज्य की राजधानी है। यहां संघ
के काम में नींव और फिर आधार स्तम्भ के रूप में प्रमुख भूमिका निभाने वाले श्री
दयाचंद जी का जन्म 12 जुलाई, 1928
को ग्राम तेमला गढ़ी (जिला बागपत, उ.प्र.)
में श्रीमती अशर्फी देवी तथा श्री धर्मदास जैन के घर में
हुआ था। निकटवर्ती कस्बे दाहा से मिडिल तक की शिक्षा पाकर वे आगे पढ़ाई और कारोबार
के लिए देहरादून आ गये। 1942 में यहां पर ही वे
स्वयंसेवक बने।
1948 में संघ पर प्रतिबंध के समय सत्याग्रह कर वे तीन
माह आगरा जेल में रहे। प्रतिबंध के बाद देहरादून में संघ के प्रायः सभी बड़े
कार्यकर्ता काम से पीछे हट गये। ऐसे में दयाचंद जी ने नये सिरे से काम प्रारम्भ
किया। 1960 में वे संघ के तृतीय वर्ष के प्रशिक्षण के लिए
नागपुर गये। विद्यालयी शिक्षा कम होते हुए भी उन्होंने वहां बौद्धिक परीक्षा में
प्रथम स्थान प्राप्त किया था।
देश, धर्म और समाज पर आने
वाले हर चुनौती में वे अग्रणी भूमिका में रहते थे। 1967
में गोरक्षा आंदोलन में वे दिल्ली की तिहाड़ जेल में रहे। 1975 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर वे प्रारम्भ में भूमिगत हो गये और फिर 15 अगस्त को सत्याग्रह कर छह माह के लिए जेल में रहे। श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन
के समय भी वे हर आंदोलन में वे सदा आगे रहे।
दयाचंद जी बहुत दिलेर प्रकृति के व्यक्ति थे।
इंदिरा गांधी की हत्या होने पर जब कांग्रेस वाले बाजार बंद कराने निकले, तो दयाचंद जी ने दुकान बंद नहीं की। उन्होंने कहा कि जिसने आपातकाल में पूरे
देश को जेल बना दिया था, जिसके कारण मेरी दुकान साल भर बंद रही, उसकी
मृत्यु पर मैं दुकान बंद नहीं करूंगा। कांग्रेसी लोग अपना सा मुंह लेकर चुपचाप आगे
चले गये।
दयाचंद जी ने मुख्यशिक्षक से लेकर जिला कार्यवाह,
जिला संघचालक और प्रान्त व्यवस्था प्रमुख जैसी
जिम्मेदारियां निभाईं। वे किसी सूचना की प्रतीक्षा किये बिना स्वयं योजना बनाकर
उसे क्रियान्वित करते थे। निर्धन कार्यकर्ताओं की बेटियों के सम्मानपूर्वक विवाह
की वे विशेष चिन्ता करते थे।
सामाजिक जीवन में उनका स्थान इतना महत्वपूर्ण था कि
झंडा बाजार में उनकी कपड़े की दुकान पर समाज के सब तरह के लोग उनसे परामर्श करने
आते थे। कई लोग तो हंसी में कहते थे कि ‘झंडे वाले बाबा’
के पास हर समस्या का समाधान है।
देहराूदन में जब सरस्वती शिशु मंदिर खुला, तो मोती बाजार स्थित संघ कार्यालय में ही उसकी कक्षाएं प्रारम्भ कर दी गयीं।
कुछ समय बाद जब तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री भाऊराव देवरस वहां आये, तो उन्होंने शिशु मंदिर को वहां से स्थानांतरित करने को कहा। दयाचंद जी ने
उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और एक स्थान खोजकर नये सत्र में विद्यालय वहां पहुंचा
दिया।
शिक्षा के महत्व को समझते हुए सरस्वती शिशु मंदिरों
के प्रसार का उन्होंने विशेष प्रयास किया। देहरादून में संघ परिवार की हर संस्था
से वे किसी न किसी रूप से जुड़े थे। उनकी सोच सदा सार्थक दिशा में रहती थी। अंतिम
दिनों में वे जब चिकित्सालय में भर्ती थे, तो उनसे मिलने आये
कुछ कार्यकर्ता किसी की आलोचना कर रहे थे। दयाचंद जी ने उन्हें रोकते हुए कहा कि
अच्छा सोचो और अच्छा बोलो, तो परिणाम भी अच्छा ही निकलेगा।
70 वर्ष तक सक्रिय रहे ऐसे श्रेष्ठ कार्यकर्ता का
देहांत 24 मार्च, 2012
को हुआ।
(संदर्भ : राष्ट्रदेव,
देहरादून, 30.4.2012)
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13 जुलाई/बलिदान-दिवस
बाजीप्रभु देशपाण्डे का बलिदान
शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिन्दू पद-पादशाही की
स्थापना में जिन वीरों ने नींव के पत्थर की भांति स्वयं को विसर्जित किया, उनमें बाजीप्रभु देशपाण्डे का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
एक बार शिवाजी 6,000
सैनिकों के साथ पन्हालगढ़ में घिर गये। किले के बाहर सिद्दी जौहर के साथ एक लाख
सेना डटी थी। बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने अफजलखाँ के पुत्र फाजल खाँ के शिवाजी
को पराजित करने में विफल होने पर उसे भेजा था। चार महीने बीत गये। एक दिन तेज आवाज
के साथ किले का एक बुर्ज टूट गया। शिवाजी ने देखा कि अंग्रेजों की एक टुकड़ी भी तोप
लेकर वहाँ आ गयी है। किले में रसद भी समाप्ति पर थी।
साथियों से परामर्श में यह निश्चय हुआ कि जैसे भी
हो, शिवाजी 40 मील दूर स्थित विशालगढ़
पहुँचे। 12 जुलाई, 1660
की बरसाती रात में एक गुप्त द्वार से शिवाजी अपने विश्वस्त 600 सैनिकों के साथ निकल पड़े। भ्रम बनाये रखने के लिए अगले दिन एक दूत यह
सन्धिपत्र लेकर सिद्दी जौहर के पास गया कि शिवाजी बहुत परेशान हैं, अतः वे समर्पण करना चाहते हैं।
यह समाचार पाकर मुगल सैनिक उत्सव मनाने लगे। यद्यपि
एक बार उनके मन में शंका तो हुई; पर फिर सब रागरंग में
डूब गये। समर्पण कार्यक्रम की तैयारी होने लगी। उधर शिवाजी का दल तेजी से आगे बढ़
रहा था। अचानक गश्त पर निकले कुछ शत्रुओं की निगाह में वे आ गये। तुरन्त छावनी में
सन्देश भेजकर घुड़सवारों की एक टोली उनके पीछे लगा दी गयी।
पर इधर भी योजना तैयार थी। एक अन्य पालकी लेकर कुछ
सैनिक दूसरी ओर दौड़ने लगे। घुड़सवार उन्हें पकड़कर छावनी ले आये; पर वहाँ आकर उन्होंने माथा पीट लिया। उसमें से निकला नकली शिवाजी। नये सिरे से
फिर पीछा शुरू हुआ। तब तक महाराज तीस मील पारकर चुके थे; पर
विशालगढ़ अभी दूर था। इधर शत्रुओं के घोड़ों की पदचाप सुनायी देने लगी थी।
इस समय शिवाजी एक संकरी घाटी से गुजर रहे थे। अचानक
बाजीप्रभु ने उनसे निवेदन किया कि मैं यहीं रुकता हूँ। आप तेजी से विशालगढ़ की ओर
बढ़ें। जब तक आप वहाँ नहीं पहुँचेंगे, तब तक मैं शत्रु को
पार नहीं होने दूँगा। शिवाजी के सामने असमंजस की स्थिति थी; पर
सोच-विचार का समय नहीं था। आधे सैनिक बाजीप्रभु के साथ रह गये और आधे शिवाजी के
साथ चले। निश्चय हुआ कि पहुँच की सूचना तोप दागकर दी जाएगी।
घाटी के मुख पर बाजीप्रभु डट गये। कुछ ही देर में
सिद्दी जौहर के दामाद सिद्दी मसूद के नेतृत्व में घुड़सवार वहाँ आ पहंँचे। उन्होंने
दर्रे में घुसना चाहा; पर सिर पर कफन बाँधे हिन्दू
सैनिक उनके सिर काटने लगे। भयानक संग्राम छिड़ गया। सूरज चढ़ आया; पर बाजीप्रभु ने उन्हें घाटी में घुसने नहीं दिया।
एक-एक कर हिन्दू सैनिक
धराशायी हो रहे थे। बाजीप्रभु भी सैकड़ों घाव खा चुके थे; पर
उन्हें मरने का अवकाश नहीं था। उनके कान तोप की आवाज सुनने को आतुर थे। विशालगढ़ के
द्वार पर भी शत्रु सेना का घेरा था। उन्हें काटते मारते शिवाजी किले में पहुँचे और
तोप दागने का आदेश दिया।
इधर तोप की आवाज बाजीप्रभु के कानों ने सुनी,
उधर उनकी घायल देह धरती पर गिरी। शिवाजी विशालगढ़ पहुँचकर
अपने उस प्रिय मित्र की प्रतीक्षा ही करते रह गये; पर
उसके प्राण तो लक्ष्य पूरा करते-करते अनन्त में विलीन हो चुके थे। बाजीप्रभु
देशपाण्डे की साधना सफल हुई। तब से वह बलिदानी घाटी (खिण्ड) पावन खिण्ड कहलाती है।
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13 जुलाई/जन्म-दिवस
वेदों के मर्मज्ञ डा. फतह सिंह
वेदों के मर्मज्ञ डा. फतह सिंह का जन्म ग्राम भदंेग कंजा (पीलीभीत, उ.प्र.) में आषाढ़ पूर्णिमा
13 जुलाई, 1913 को हुआ था। जब वे कक्षा
पांच में थे, तो आर्य समाज के कार्यक्रम
में एक वक्ता ने बड़े दुख से कहा कि ऋषि दयानन्द के देहांत से उनका वेदभाष्य अधूरा रह
गया। बहुत छोटे होने पर भी फतह सिंह ने मन ही मन इस कार्य को पूरा करने का संकल्प ले
लिया।
1932 में हाई स्कूल कर वे
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आ गये। उस समय वहां वेद पढ़ाने वाला कोई अध्यापक नहीं
था; पर कुछ समय बाद विश्वविख्यात
डा. एस.के. वैलवेल्कर वहां आ गये। उनके सान्निध्य में फतह सिंह जी ने जर्मन और फ्रेंच
भाषा सीखी और वेदों पर संस्कृत भाषा में 500 पृष्ठ का एक शोध प्रबन्ध लिखा। 1942 में उन्हें डी.लिट्. की उपाधि मिली। इस विश्वविद्यालय से संस्कृत में डी.लिट्.
लेने वाले वे पहले व्यक्ति थे।
डा. वैलवेल्कर वेदों की व्याख्या में विदेशी विद्वानों को महत्त्व देते थे; पर ऋषि दयानन्द के
विचारों को वे अवैज्ञानिक कहते थे। अतः डा. फतह सिंह ने ऋषि दयानन्द के अभिमत की प्रामाणिकता
के पक्ष में सैकड़ों लेख लिखे, जो प्रतिष्ठित शोध पत्रों में प्रकाशित हुए। इनकी प्रशंसा तत्कालीन विद्वानों डा.
गोपीनाथ कविराज, विधुशेखर भट्टाचार्य
और डा. गंगानाथ झा आदि ने की।
उन्होंने वेदों पर लोकमान्य तिलक के विचारों का भी अध्ययन किया। वेद और बाइबिल
का तुलनात्मक अध्ययन उनकी पुस्तक ‘एशियाई संस्कृतियों को संस्कृत की देन’ में समाहित हैं। हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत में उनकी मौलिक पुस्तकों की संख्या 90 है। इनमें मानवता को
वेदों की देन, भावी वेदभाष्य के संदर्भ
सूत्र, दयानन्द एवं उनका वेदभाष्य, पुरुष सूक्त की व्याख्या, ढाई अक्षर वेद के..
आदि प्रमुख हैं। इसके साथ ही कामायनी सौंदर्य, साहित्य और सौंदर्य, भारतीय समाजशास्त्र के मूलाधार, भारतीय सौंदर्यशास्त्र की भूमिका, साहित्य और राष्ट्रीय स्व, आभास और सत् आदि साहित्यिक पुस्तकें भी उन्होंने लिखीं।
1965 में डा. फतह सिंह ने
45 अक्षरों को पहचान कर
सिन्धु घाटी के उत्खनन में मिली 1,500 मुद्राओं पर लिखे शब्दों को पढ़ा। उनका निष्कर्ष था कि सिन्धु मुद्राओं की लिपि
पूर्व ब्राह्मी और भाषा वैदिक संस्कृत है तथा इनमें उपनिषदों के कई विचार चित्रित हैं।
इस सभ्यता का विस्तार केवल हड़प्पा और मुअन जो दड़ो तक ही नहीं, अपितु पूरे भारत में
था। सिन्धु लिपि चार तरह से लिखी जाती है। तीन प्रकार में बायें से दायें तथा एक प्रकार
में दायें से बायें। सिन्धु लिपि पर उनके शोध एवं निष्कर्ष आज भी सर्वाधिक मान्य हैं।
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने उन्हें वर्तमान
युग का ऋषि और आधुनिक पाणिनी कहा था। इस विषय पर देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों
में उनके भाषण हुए। विदेश में तो कई चर्चों ने भी उनके व्याख्यान आयोजित किये। उन्होंने
‘विश्व मानव’ की संकल्पना को प्रतिपादित
करते हुए बताया कि वेद ही सभी धर्मों का उद्गम है। भारत पर आर्य आक्रमण को गलत बताते
हुए उन्होंने सिद्ध किया कि आर्य और द्रविड़ दोनों वैदिक मूल के निवासी हैं।
उ.प्र. और राजस्थान के कई विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में उन्होंने 30 वर्ष तक पढ़ाया। ‘विवेकानंद स्मारक’ के पहले सौ जीवनव्रतियों
को उन्होंने ही प्रशिक्षित किया था। राजस्थान प्राच्य शोध संस्थान तथा फिर वेद संस्थान, दिल्ली के निदेशक रहते
हुए उन्होंने कई प्राचीन संस्कृत पांडुलिपियां प्रकाशित करायीं। उन्होंने वैदिक संदर्भों
की व्याख्या कर उस विधि को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, जिसे ईसा से 1000 वर्ष पूर्व यास्क ऋषि
ने आरंभ किया था।
1972 में पीलीभीत में सम्पन्न
हुए संघ शिक्षा वर्ग में वे सर्वाधिकारी थे। फिर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, पीलीभीत के जिला संघचालक
भी रहे। अपने सब बच्चों के विवाह उन्होंने बिना दहेज सम्पन्न किये। पांच फरवरी, 2008 को 95 वर्ष की भरपूर आयु
में वेदों के मर्मज्ञ डा. फतह सिंह का निधन हुआ।
(संदर्भ : राष्ट्रधर्म/साहित्य परिक्रमा का विशेषांक 2014)
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14 जुलाई/पुण्य-तिथि
शिक्षाप्रेमी सन्त :
स्वामी कल्याणदेव जी
स्वामी कल्याणदेव जी महाराज सच्चे अर्थों में सन्त
थे। उनकी जन्मतिथि एवं शिक्षा-दीक्षा के बारे में निश्चित जानकारी किसी को नहीं
है। एक मत के अनुसार जून 1876 में उनका जन्म ग्राम कोताना (जिला बागपत, उ.प्र.) के एक किसान
परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री फेरूदत्त जाँगिड़ तथा माता श्रीमती भोईदेवी थीं।
कुछ लोग जिला मुजफ्फरनगर के मुण्डभर गाँव को उनकी जन्मस्थली मानते हैं। उनके बचपन
का नाम कालूराम था।
धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण दस साल की
अवस्था में उन्होंने घर छोड़ दिया था। 1900 ई0 में ऋषिकेश में स्वामी पूर्णदेव जी से दीक्षा लेकर वे हिमालय में तप एवं
अध्ययन करने चले गये। 1902 में राजस्थान में खेतड़ी
नरेश के बगीचे में स्वामी विवेकानन्द से उनकी भेंट हुई। विवेकानन्द ने उन्हें
पूजा-पाठ के बदले निर्धनों की सेवा हेतु प्रेरित किया। इससे कल्याणदेव जी के जीवन
की दिशा बदल गयी।
1915 में गान्धी जी से भेंट के बाद स्वामी जी स्वाधीनता
संग्राम के साथ ही हिन्दी और खादी के प्रचार तथा अछूतोद्धार में जुट गये। इस दौरान
उन्हें अनुभव आया कि निर्धनों के उद्धार का मार्ग उन्हें भिक्षा या अल्पकालीन
सहायता देना नहीं, अपितु शिक्षा की व्यवस्था करना है। बस, तब से उन्होंने शिक्षा के विस्तार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।
स्वामी जी ने मुजफ्फरनगर जिले में गंगा के तट पर
बसे तीर्थस्थान शुकताल को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। यह वही स्थान है,
जहाँ मुनि शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को वटवृक्ष के नीचे
पहली बार भागवत की कथा सुनायी थी। वह वटवृक्ष आज भी जीवित है। स्वामी जी ने इस
स्थान का जीर्णाेद्धार कर उसे सुन्दर तीर्थ का रूप दिया। इसके बाद तो भक्तजन
स्वामी जी को मुनि शुकदेव का अंशावतार मानने लगे। स्वामी जी ने गंगा तट पर बसे
महाभारतकालीन हस्तिनापुर के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति स्वामी जी का प्रेम
एवं आशीर्वाद जिसे भी मिला, वही धन्य हो गया। इनमें भारत
के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर
पण्डित नेहरू, नीलम स॰जीव रेड्डी, इन्दिरा
गान्धी, डा. शंकरदयाल शर्मा, गुलजारीलाल नन्दा, के.आर. नारायणन, अटल बिहारी वाजपेयी आदि बड़े राजनेताओं से लेकर सामान्य ग्राम प्रधान तक शामिल
हैं। स्वामी कल्याणदेव जी सबसे समान भाव से मिलते थे।
स्वामी जी ने अपने जीवनकाल में 300 से भी अधिक शिक्षा संस्थाओं की स्थापना की। वे सदा खादी के मोटे भगवा वस्त्र
ही पहनते थे। प्रायः उनके वस्त्रों पर थेगली लगी रहती थी। प्रारम्भ में कुछ लोगों
ने इसे उनका पाखण्ड बताया; पर वे निर्विकार भाव से अपने
कार्य में लगे रहे। वे सेठों से भी शिक्षा के लिए पैसा लेते थे; पर भोजन तथा आवास सदा निर्धन की कुटिया में ही करते थे। शाकाहार के प्रचारक इस
सन्त को 1992 में पद्मश्री तथा 2000
ई. में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।
13 जुलाई की अतिरात्रि में उन्होंने अपने शिष्यों से
उन्हें प्राचीन वटवृक्ष एवं शुकदेव मन्दिर की परिक्रमा कराने को कहा। परिक्रमा
पूर्ण होते ही 12.20 पर उन्होंने देहत्याग दी। तीन सदियों के द्रष्टा 129 वर्षीय इस वीतराग सन्त को संन्यासी परम्परा के अनुसार अगले दिन शुकताल में
भूसमाधि दी गयी।
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14 जुलाई/जन्म-दिवस
कुशल सेनापति लेफ्टिनेंट जनरल सगतसिंह
ले.जन. सगतसिंह भारत के महान सेनानायक थे। उन्होंने 1961 में गोवा की मुक्ति, 1967 में नाथू ला दर्रे की रक्षा तथा 1971 में बंगलादेश के युद्ध में अप्रतिम वीरता दिखाई। इसीलिए उन्हें पेशवा बाजीराव, अमरीकी जनरल पेटन, इंग्लैंड के जनरल मांटगोमरी तथा जर्मनी के जनरल रोमेल जैसा सेनापति माना जाता है। उनकी योजना तथा रणनीति सदा सफल रही।
सगतसिंह का जन्म 14 जुलाई, 1919 को बीकानेर में हुआ था। उनके पिता ठाकुर ब्रजपाल सिंह भी सैन्य अधिकारी थे तथा प्रथम विश्व युद्ध में लड़े थे। पहले वे बीकानेर की सेना में भरती हुए। 1941 में भारतीय सैन्य अकादमी से प्रशिक्षण प्राप्त कर वे द्वितीय विश्व युद्ध में ईराक, सीरिया तथा फिलीस्तीन के मोरचे पर गये। 1961 में उन्हें ब्रिगेडियर बनाकर आगरा की पैराशूट ब्रिगेड में भेजा गया। वे छाताधारी सैनिक नहीं थे; पर जिम्मेदारी पाकर 42 वर्ष की अवस्था में उन्होंने इसमें भी दक्षता प्राप्त कर ली।
1961 में गोवा मुक्ति अभियान में मुख्य सेना के पणजी पहुंचने से पहले ही पैराशूट ब्रिगेड की तीन बटालियनों ने वहां पहुंचकर तीन ओर से घेरा डाल दिया। अतः पुर्तगाली सेना ने हथियार डाल दिये। 1965 में उन्हें मेजर जनरल बनाकर नाथू ला दर्रे पर भेजा गया। वहां चीन चैकियां बना रहा था। सगत सिंह ने अधिकारियों की अवज्ञा करते हुए अपनी सीमा में दोहरी तारबाड़ लगाकर क्षेत्र सुरक्षित कर लिया। कहते हैं कि इसीलिए उन्हें सेनाध्यक्ष नहीं बनाया गया। यद्यपि सभी सैन्य अधिकारी मानते हैं कि सगतसिंह की जिद के कारण नाथू ला दर्रा आज भारत में है। अन्यथा नेहरू जी ने उसे चीन को दे ही दिया था। 1965 के युद्ध में इसी कारण चीन वाले वहां से घुसपैठ नहीं कर सके।
मिजोरम क्षेत्र में आजादी के बाद से ही अलगाववादी हिंसक आंदोलन चल रहे थे। 1967 में सगतसिंह को वहां भेजा गया। उन्होंने ‘साम दाम दंड भेद’ की नीति अपनाकर दो साल में स्थिति नियंत्रण में कर ली। उन्होंने वेरेंग्टे में ‘काउंटर इनसर्जेंसी एंड जंगल वारफेयर स्कूल’ बनाया, जहां आज भी सैन्य अधिकारी तथा जवान आतंकरोधी प्रशिक्षण लेते हैं। इसके लिए उन्हें ‘परम विशिष्ट सेवा मेडल’ से सम्मानित किया गया।
बंगलादेश के आंदोलन दिनों में सगतसिंह को लेफ्टिनेंट जनरल बनाकर तेजपुर (असम) भेजा गया। 1971 में युद्ध छिड़ने पर उन्हें पूर्व दिशा से हमला करने को कहा गया। पश्चिम और दक्षिण दिशा से ‘पद्मा’ तथा पूर्व दिशा से ‘मेघना’ नदी ढाका की रक्षक है। मेघना का बहाव बहुत तेज तथा उसकी चैड़ाई लगभग चार कि.मी है। इसे पार करना बहुत कठिन था। फिर इधर स्थित सिल्हट, ब्राह्मणबाड़ा, कोमिल्ला, चटगांव और मौलवी बाजार में पाकिस्तान की मजबूत छावनियां थी। ऐसे में सगतसिंह ने एक अति दुःसाहसी कदम उठाया।
उन्होंने चांदपुर बंदरगाह के सभी स्टीमरों पर हल्की तोपें रखकर उन्हें उस पार भेज दिया। फिर उन्होंने हैलिकाॅप्टरों से अपने सैनिक उधर भेजने शुरू कर दिये। यह बहुत खतरनाक योजना थी। नौ दिसम्बर से 11 दिसम्बर की सुबह तक हैलिकाॅप्टरों के 110 फेरों में पूरी डिवीजन मेघना पार कर गयी। यह सूचना पाकर प्रधानमंत्री से लेकर रक्षामंत्री तक खुशी से झूम उठे। उधर पाकिस्तानी सैनिक यह सुनकर भागने लगे। अब ढाका बिल्कुल सामने था। 14 दिसम्बर को सगतसिंह के आदेश पर बमवर्षा शुरू हुई और 16 दिसम्बर को पाकिस्तान ने हथियार डाल दिये। इस प्रकार थल, जल और नभ तीनों सेनाओं के सहयोग से सगतसिंह ने वह कर दिखाया, जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता।
अवकाश प्राप्ति के बाद वे जयपुर में रहने लगे। उन्होंने अपने फार्म हाउस का नाम ‘मेघना फार्म’ रखा था। 26 सितम्बर, 2001 को भारत के महान सपूत और सेनानी ‘पद्म भूषण’ लेफ्टिनेंट जनरल सगतसिंह का देहांत हुआ।
(पाथेय कण, 1.8.2019)
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15
जुलाई/इतिहास-स्मृति
गोवा में कुंकल्ली की लड़ाई
गोवा के इतिहास में कुंकल्ली की लड़ाई का बड़ा महत्व है। उन
दिनों गोवा और निकटवर्ती क्षेत्रों में पुर्तगालियों का कब्जा था। वे चर्च के साथ
मिलकर सबको ईसाई बनाना चाहते थे। उन पर कोई कानूनी रोक भी नहीं थी। एक मिशनरी जेवियर ‘धर्म समीक्षण सभा’ बनाकर इसका नेतृत्व
कर रहा था। उसके कारनामे इतिहास में ‘गोवा इंक्विीजिशन’ के नाम से प्रसिद्ध हैं।
इन लोगों ने स्थानीय हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार किये।
उन्हें हाथ-पैर तोड़कर, जिंदा जलाकर, पानी में डुबोकर
या फांसी देकर मारा जाता था। इससे डरकर कई परिवार ईसाई बन गये; पर वे अपनी भाषा, बोली और
रीति-रिवाजों का अब भी पालन करते थे। मिशन वाले इन नव ईसाइयों पर भी अत्याचार करते
थे। कुंकल्ली, असोलना, आंबेली, वेल्ली तथा वेरोड
गांव ने इसके विरोध में असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया। उन्होंने रायचुर किला के
न्यायमंडल का बहिष्कार करते हुए कर देने से मना कर दिया।
पुर्तगाली अधिकारी राॅड्रिग्ज बहुत अत्याचारी था। एक बार वह
कुंकल्ली आया तो गांव वालों ने उसे पकड़कर मार दिया। इसके साथ ही उन्होंने पुलिस
चैकी तथा रायचुर किले पर भी हमला बोल दिया। यह समाचार पाकर सेना आ गयी और उसने
गांव में भीषण अत्याचार किये। इससे कुछ समय के लिए शांति छा गयी; पर कुछ समय बाद
इन पांच गांव वालों ने अपनी धार्मिक गतिविधियां फिर शुरू कर दीं। इस पर पुर्तगाली
वायसराय का एक दूत कुंकल्ली आया; पर उसके पास से एक संदिग्ध पत्र पाकर उसे भी मार दिया गया।
इससे भड़ककर पादरी ने वायसराय को कहा। वायसराय ने जनरल दों
गिबान्से तथा रायचुर किले के कप्तान फिवरेंदो को वहां भेजा। इनके नेतृत्व में
पुर्तगाली सेना ने रात में गांव में प्रवेश किया। अनेक मंदिर तथा घर जला दिये गये।
कोलवा के पादरी पेरु बेरनो ने कुंकल्ली का मंदिर स्वयं जलाया। असोलना गांव को भी
पूरा जला दिया गया। लोग गांव छोड़कर भाग गये; पर कुछ समय बाद आकर उन्होंने फिर अपने मंदिर और घर बना
लिये।
इस पर जनरल गिबान्से ने फिर धावा बोला और सेना की एक टुकड़ी
स्थायी रूप से वहां रख दी। पादरियों ने एक गाय मार कर कुंकल्ली के पवित्र तालाब
में डाल दी। इसके बावजूद कुंकल्ली वालों ने सेना को हटने को मजबूर कर दिया। इस पर
साष्टी काॅलेज के रेक्टर फादर रोडाल्फ आक्वाविवा के नेतृत्व में 11 जुलाई, 1583 को वेणे गांव के
सांताक्रूज में तहसील के सभी पादरियों की बैठक हुई और गांव में एक चर्च बनाने का
निर्णय लिया गया।
15 जुलाई, 1583 को लगभग 50 पादरियों ने
गांव में प्रवेश कर साल नदी के तट पर एक मंडप बनाया; पर गांव वाले आज बहुत उग्र थे। उन्होंने इस दल
पर हमला बोलकर सभी पादरियों को मार दिया। जहां यह कांड हुआ, वह ‘तलयेभाट’ कहलाता है। इसके
बाद पादरियों की हिम्मत फिर गांव में आने की नहीं हुई; पर उनका उद्देश्य
तो धर्मान्तरण था। अतः उन्होंने गोवा में आदिलशाही के दूत जेबेरक्यू को
इसकी जिम्मेदारी दी।
जेबेरक्यू ने कंुकल्ली गांव के नेताओं से संपर्क किया और
परस्पर सुलह के लिए पादरियों के साथ एक बैठक का आयोजन किया। इसमें कुंकल्ली गांव
के 16 प्रमुख लोग
शामिल हुए। बैठक साल नदी पर असोलना किले में रखी गयी थी; पर वार्ता के बीच
में ही पादरियों ने दरवाजे बंद कर दिये और मारकाट करने लगे। उनमें से एक कल्गो
नाइक ‘कालू’ नदी में कूद गया
और इस प्रकार उसकी जान बच गयी। बाकी 15 लोग वहीं मारे गये।
कंुकल्ली का यह संघर्ष गोवा के हिन्दुओं को सदा प्रेरणा देता
है। वहां बने स्मारक पर आकर सब उन हुतात्माओं को श्रद्धांजलि देते हैं।
(हिन्दी विवेक, दिसम्बर 2023/11, सूर्यकांत आयरे)
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15 जुलाई /जन्म-दिवस
प्रखर पत्रकार प्रभाष जोशी
स्वाधीन भारत में जिन पत्रकारों ने विशिष्ट पहचान
बनाई, उनमें प्रभाष जोशी भी एक हैं। उनका जन्म 15 जुलाई 1937 को म.प्र. के मालवा क्षेत्र में हुआ था। छात्र जीवन से ही वे गांधी, सर्वोदय और विनोबा से जुड़ गये। उन्होंने विनोबा के साथ रहकर भूदान आंदोलन के
समाचार जुटाये। फिर उन्होंने इंदौर से प्रकाशित ‘नई
दुनिया’ में बाबा राहुल बारपुते की देखरेख में पत्रकारिता
के गुर सीखे और भोपाल के ‘मध्य देश’ से जुड़े।
जयप्रकाश नारायण ने जब 1972 में दस्यु माधोसिंह
का आत्मसमर्पण कराया, तो प्रभाष जी भी साथ थे। सर्वोदय जगत, प्रजानीति, आसपास, इंडियन एक्सप्रेस आदि
में वे अनेक दायित्वों पर रहे। हिन्दी और अंग्रेजी पर उनका समान अधिकार था। लेखन
में वे स्थानीय लोकभाषा के शब्दों का खूब प्रयोग करते थे।
1983 में एक्सप्रेस समूह ने प्रभाष जोशी के संपादकत्व
में दिल्ली से ‘जनसत्ता’ प्रकाशित किया।
प्रभाष जी ने युवा पत्रकारों की टोली बनाकर उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक काम करने
दिया। शुद्ध और साहित्यिक, पर सरल हिन्दी जनसत्ता की
विशेषता थी। उसमें साहित्य, कला व संस्कृति के साथ ही
सामयिक विषयों पर मौलिक हिन्दी लेख छपते थे, अंग्रेजी
लेखकों की जूठन नहीं।
उन्होेंने हिन्दी अखबारों की भेड़चाल से अलग रहकर नागरी
अंकावली का ही प्रयोग किया। सम्पादकीय विचार अलग होने पर भी समाचार वे निष्पक्ष
रूप से देते थे। इससे शीघ्र ही जनसत्ता लोकप्रिय हो गया। धीरे-धीरे प्रभाष जोशी और
जनसत्ता एक-दूसरे के पर्याय बन गये।
कबीर, क्रिकेट और कुमार
गंधर्व के शास्त्रीय गायन के प्रेमी होने के कारण वे इन पर खूब लिखते थे। एक
दिवसीय कोे 'फटाफट क्रिकेट' और 20 ओवर वाले मैच को उन्होंने 'बीसम बीस' की उपमा दी। जन समस्याओं को वे गोष्ठियों से लेकर सड़क तक उठाते थे। उनका
प्रायः सभी बड़े राजनेताओें से संबंध थे। वे प्रशंसा के साथ ही उनकी खुली आलोचना भी
करते थे।
उन्होंने आपातकाल का तीव्र विरोध किया। राजीव गांधी के भ्रष्टाचार के
विरोध में वी.पी. सिंह के बोफोर्स आंदोलन तथा फिर राममंदिर आंदोलन का उन्होंने साथ
दिया। चुटीले एवं मार्मिक शीर्षक के कारण उनके लेख सदा पठनीय होते थे। जनसत्ता में
हर रविवार को छपने वाला ‘कागद कारे’ उनका लोकप्रिय स्तम्भ था। वे हंसी में स्वयं को ‘ढिंढोरची’
कहते थे, जो सब तक खबर पहुंचाता है।
राममंदिर आंदोलन में एक समय वे वि.हि.प. और सरकार के
बीच कड़ी बन गये थे; पर 6 दिसम्बर, 1992 को अचानक हिन्दू युवाओं के आक्रोश से बाबरी ढांचा ध्वस्त हो गया। उन्हें लगा
कि यह सब योजनाबद्ध था। इससे उन्होंने स्वयं को अपमानित अनुभव किया और फिर उनकी
कलम और वाणी सदा संघ विचार के विरोध में ही चलती रही। धीरे-धीरे जनसत्ता वामपंथी
स्वभाव का पत्र बन गया और उसकी लोकप्रियता घटती गयी। कुछ के मतानुसार भा.ज.पा. ने
उन्हें राज्यसभा में नहीं भेजा, इससे वे नाराज थे। 2009 के लोकसभा चुनाव में कई अखबारों ने प्रत्याशियों सेे पैसे लेकर विज्ञापन के
रूप में समाचार छापे, इसके विरुद्ध उग्र लेख लिखकर उन्होंने पत्रकारों और
जनता को जाग्रत किया।
प्रभाष जी का शरीर अनेक रोगों का घर था। उनकी
बाइपास सर्जरी हो चुकी थी। 5 नवम्बर, 2009 को हैदराबाद में भारत और ऑस्ट्रेलिया का क्रिकेट मैच
हुआ। प्रभाष जी उसे दूरदर्शन पर देख रहे थे। सचिन तेंदुलकर ने 175 रन बनाये, इससे वे बहुत प्रफुल्लित हुए; पर अचानक उसके आउट होने और तीन रन से भारत की हार का झटका उनका दिल नहीं सह
सका और अस्पताल पहुंचने से पूर्व ही उनका प्राणांत हो गया। इस प्रकार एक प्रखर
पत्रकार की वाणी और लेखनी सदा के लिए शांत हो गयी।
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15 जुलाई/जन्म-दिवस
संघ समर्पित रामलखन सिंह
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री रामलखन सिंह का जन्म 15 जुलाई, 1939 को ग्राम धंधापार (जिला सिद्धार्थ नगर, उ.प्र.) के एक सामान्य कृषक श्री रामनारायण सिंह के घर में हुआ था। जब वे छोटे ही थे, तब इनकी माता जी तथा फिर पिता जी का भी निधन हो गया। इससे रामलखन जी तथा उनके बड़े भाई वासुदेव सिंह पर भारी संकट आ गया। ऐसे में ग्राम अपार, पो. छरहटा निवासी उनकी मौसी श्रीमती आंचल देवी उन्हें अपने साथ ले गयीं।
रामलखन जी की प्राथमिक शिक्षा ग्राम अपार में ही हुई। इसके बाद उन्होंने तिलक इंटर कॉलिज, बांसी से हाई स्कूल और इंटर किया। इसी दौरान 1950 में उनका संपर्क संघ से हुआ। इसमें मुख्य भूमिका श्री केसरीधर जी तथा ठाकुर संकठाप्रसाद जी की थी। इसके बाद पढ़ाई और संघ का काम साथ-साथ चलता रहा। क्रमशः उन्होंने गटनायक से लेकर मुख्य शिक्षक, कार्यवाह, सायं कार्यवाह और नगर कार्यवाह जैसी जिम्मेदारियां निभाईं। 1962 में एम.ए. की पढ़ाई पूर्ण कर उन्होंने प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया।
रामलखन जी ने 1958, 1962 और फिर 1966 में संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण लिये। प्रचारक जीवन में वे मेहदावल, बस्ती, राबर्ट्सगंज, मिर्जापुर के बाद 1974 में सुल्तानपुर के जिला प्रचारक बनाये गये। अगले ही साल देश में आपातकाल लग गया। इस दौरान वे सुल्तानपुर, फैजाबाद तथा प्रतापगढ़ में भूमिगत रहकर काम करते रहे। आपातकाल के बाद वे बांदा, बाराबंकी तथा उन्नाव में जिला प्रचारक तथा फिर गोंडा और झांसी में विभाग प्रचारक रहे। बीच में कुछ वर्ष वे लखनऊ में ‘भारती भवन’ के कार्यालय प्रमुख भी रहे।
संघ के चहुंदिश विस्तार के साथ ही शाखा के अलावा और भी कई तरह के काम बढ़ने लगे। इनमें से एक काम धर्म जागरण का भी है। जो लोग किसी लालच, भय या अपमान के कारण हिन्दू धर्म छोड़कर दूसरे मजहबों में चले गये थे, उनसे सम्पर्क कर उन्हें फिर से अपने पूर्वजों के पवित्र धर्म में लाना धर्म जागरण का काम है। जिन बस्तियों और गांवों में मुसलमान तबलीगी या ईसाई मिशनरी धर्मान्तरण कराने के लिए घूमते रहते हैं, वहां लोगों को अपने धर्म, पूर्वजों और संस्कृति के प्रति जागरूक करना भी महत्वपूर्ण होता है।
वर्ष 2004 में रामलखन जी को धर्म जागरण विभाग (पूर्वी उ.प्र.) का काम दिया गया। अगले 12 साल तक पूरे क्षेत्र में प्रवास कर वे इसे गति देते रहे। 2016 में स्वास्थ्य की समस्याओं को देखते हुए उन्हें सक्रिय काम से विश्राम दे दिया गया। वे मॉडल हाउस, लखनऊ में ‘केशव भवन’ कार्यालय पर रहने लगे। पांच फरवरी, 2018 को उनका स्वास्थ्य अचानक बहुत बिगड़ गया। अतः उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। जांच से जलोदर और तपेदिक के साथ ही आंत, फेफड़े और यकृत में अनेक समस्याएं मिलीं। इन्हीं के कारण 20 फरवरी को संघ कार्यालय (केशव भवन) पर उनका निधन हुआ।
वरिष्ठ प्रचारक ठाकुर संकठाप्रसाद जी का रामलखन जी पर बहुत प्रेम था। इसके साथ ही उन्होंने जब संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार की जीवनी पढ़ी, तो उससे वे बहुत प्रभावित हुए। इस प्रकार उनके प्रचारक बनने की भूमिका बनी, जो फिर जीवन की अंतिम सांस तक चलती रही। माता-पिता के अभाव में रामलखन जी ने अपने मौसेरे भाई श्री महावीर सिंह जी को अपना अभिभावक माना। वे भी उन्हें अपने पुत्र की तरह ही मानते थे। महावीर जी के निधन के बाद उनके दोनों पुत्रों को रामलखन जी ने भी पुत्रवत स्नेह दिया।
शाखा के शारीरिक कार्यक्रम, उत्तम गणवेश तथा साफ-सफाई के प्रति वे बहुत आग्रही थे। इसके साथ ही मधुरता, सरलता, कम खर्च, अनुशासन, समय पालन, शाखाप्रिय, अपने प्रति कठोर पर दूसरों के प्रति उदार, हिसाब-किताब में प्रामाणिकता आदि उनके स्वभाव की अन्य विशेषताएं थीं।
(संदर्भ : केशव भवन, लखनऊ से प्राप्त जानकारी)
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15 जुलाई/इतिहास-स्मृति
48 वर्ष बाद अन्तिम संस्कार
जो भी व्यक्ति इस संसार में आया है, उसकी मृत्यु होती ही है। मृत्यु के बाद अपने-अपने धर्म एवं परम्परा के अनुसार
उसकी अंतिम क्रिया भी होती ही है; पर मृत्यु के 48 साल बाद अपनी जन्मभूमि में किसी की अंत्येष्टि हो, यह
सुनकर कुछ अजीब सा लगता है; पर हिमाचल प्रदेश के एक वीर
सैनिक कर्मचंद कटोच के साथ ऐसा ही हुआ।
1962 में भारत और चीन के मध्य हुए युद्ध के समय हिमाचल
प्रदेश में पालमपुर के पास अगोजर गांव का 21
वर्षीय नवयुवक कर्मचंद सेना में कार्यरत था। हिमाचल हो या उत्तरांचल या फिर
पूर्वोत्तर भारत का पहाड़ी क्षेत्र, वहां के हर घर से प्रायः कोई
न कोई व्यक्ति सेना में होता ही है। इसी परम्परा का पालन करते हुए 19 वर्ष की अवस्था में कर्मचंद थलसेना में भर्ती हो गया। प्रशिक्षण के बाद उसे
चौथी डोगरा रेजिमेण्ट में नियुक्ति मिल गयी।
कुछ ही समय बाद धूर्त चीन ने भारत पर हमला कर दिया।
हिन्दी-चीनी भाई-भाई की खुमारी में डूबे प्रधानमंत्री नेहरू के होश आक्रमण का
समाचार सुनकर उड़ गये। उस समय भारतीय जवानों के पास न समुचित हथियार थे और न ही
सर्दियों में पहनने लायक कपड़े और जूते। फिर भी मातृभूमि के मतवाले सैनिक सीमाओं पर
जाकर चीनी सैनिकों से दो-दो हाथ करने लगे।
उस समय कर्मचंद के विवाह की बात चल रही थी।
मातृभूमि के आह्नान को सुनकर उसने अपनी भाभी को कहा कि मैं तो युद्ध में जा रहा
हूं। पता नहीं वापस लौटूंगा या नहीं। तुम लड़की देख लो; पर
जल्दबाजी नहीं करना।
उसे डोगरा रेजिमेण्ट के साथ अरुणाचल की पहाड़ी सीमा पर भेजा
गया। युद्ध के दौरान 16 नवम्बर, 1962 को कर्मचंद कहीं खो गया। काफी ढूंढ़ने पर भी न वह जीवित अवस्था में मिला और न
ही उसका शव। ऐसा मान लिया गया कि या तो वह बलिदान हो गया है या चीन में युद्धबन्दी
है। युद्ध समाप्ति के बाद भी काफी समय तक जब उसका कुछ पता नहीं लगा, तो उसके घर वालों ने उसे मृतक मानकर गांव में उसकी याद में एक मंदिर बना दिया।
लेकिन पांच जुलाई, 2010
को अरुणाचल की सीमा पर एक ग्लेशियर के पास सीमा सड़क संगठन के सैन्यकर्मियों को एक
शव दिखाई दिया। पास जाने पर वहां सेना का बैज, 303
राइफल, 47 कारतूस, एक पेन और वेतन
पुस्तिका भी मिले। साथ की चीजों के आधार पर जांच करने पर पता लगा कि वह भारत-चीन
युद्ध में बलिदान हुए कर्मचंद कटोच का शव है। गांव में उसके चित्र और अन्य
दस्तावेजों से इसकी पुष्टि भी हो गयी।
इस समय तक गांव में कर्मचंद की मां गायत्री देवी,
पिता कश्मीर चंद कटोच और बड़े भाई जनकचंद भी मर चुके थे।
उसकी बड़ी भाभी और भतीजे जसवंत सिंह को जब यह पता लगा, तो
उन्होंने कर्मचंद की अंत्येष्टि गांव में करने की इच्छा व्यक्त की। सेना वालों को
इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। सेना ने पूरे सम्मान के साथ शहीद का शव पहले पालमपुर की
होल्टा छावनी में रखा। वहां वरिष्ठ सैनिक अधिकारियों ने उसे श्रद्धासुमन अर्पित
किये। इसके बाद 15 जुलाई, 2010
को उस शव को अगोजर गांव में लाया गया।
तब तक यह समाचार चारों ओर फैल चुका था। अतः हजारों
लोगों ने वहां आकर अपने क्षेत्र के लाड़ले सपूत के दर्शन किये। इसके बाद गांव के
श्मशान घाट में कर्मचंद के भतीजे जसवंत सिंह ने उन्हें मुखाग्नि दी। सेना के
जवानों ने गोलियां दागकर तथा हथियार उलटकर उसे सलामी दी। बड़ी संख्या में सैन्य
अधिकारी तथा शासन-प्रशासन के लोग वहां उपस्थित हुए। इस प्रकार 48 वर्ष बाद भारत मां का वीर पुत्र अपनी जन्मभूमि में ही सदा के लिए सो
गया।
(संदर्भ : दै.भास्कर, दै.जागरण 15 एवं 16.7.2010)
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15 जुलाई/जन्म-दिवस
सेवा पथ के अनुयायी
स्वामी अमरानंद
अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा को
वनवासियों की सेवा में लगाने वाले संत अमरानंद जी का जन्म पुणे के पास मोरगांव में
श्री भालचंद बापू इनामदार तथा श्रीमती सरस्वती बाई के घर में 15 जुलाई,
1918 को हुआ था। उनका बचपन का नाम सीताराम था।
गरीबी के कारण सीताराम आदि सब भाई बहिनों ने अपने चचेरे भाई धुंडीराज बापू के साथ
रहकर पढ़ाई की, जो रेलवे में गार्ड थे।
नागपुर में वे इतवारी
मोहल्ले की संघ शाखा पर जाते थे। उसके मुख्य शिक्षक बालासाहब देवरस थे। 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने पर सेना में भरती होने लगी। सीताराम को भी
वाहन कार्यशाला में काम मिल गया। उन दिनों आजादी का आंदोलन भी जोरों पर था। वे वीर
सावरकर, लोकमान्य तिलक आदि से प्रभावित थे। अतः जबलपुर के वाहन
भंडार से कई बार उन्होंने जरूरी सामान क्रांतिकारियों तक पहुंचाया। युद्ध समाप्ति
के बाद लोगों को कार्यमुक्त किया गया, तो सीताराम ने भी काम
छोड़ दिया।
नागपुर में वे धंतोली
स्थित रामकृष्ण आश्रम में भी जाते थे। 1946-47 में कोलकाता में
बेलूड़ मठ से मंत्र दीक्षा और 1956 में विधिवत संन्यास लेकर
वे स्वामी अमरानंद हो गये। वे होम्योपैथी के जानकार थे, अतः नागपुर मठ में डाॅक्टर स्वामी के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसके बाद उन्हें
चंडीगढ़ मठ में भेजा गया। वहां काम करते हुए उनकी इच्छा एकांत साधना की हुई और वे
म.प्र. में महेश्वर तीर्थ के पास रेवड़ीघाट में एक कुटिया बनाकर रहने लगे।
संघ के सरसंघचालक श्री
गुरुजी भी रामकृष्ण मिशन से दीक्षित थे। उनके आग्रह पर वे 1972 में वनवासी कल्याण आश्रम के जशपुर मुख्यालय में आ गये और वनवासी क्षेत्र में
कीर्तन, सत्संग और धर्मकथा से हिन्दुत्व के प्रति श्रद्धा जागरण का
काम शुरू कर दिया। वे पूजा, व्यायाम, अल्पाहार आदि करके गांवों में निकल जाते थे। वे कहीं भी भोजन विश्राम कर लेते
थे। अतः हजारों निर्धन वनवासी उन्हें अपने परिवार का सदस्य मानते थे। वहां मुख्यतः
कोरबा और पहाड़ी जनजाति के लोग रहते हैं। स्वामी जी उनकी समस्याएं शासन-प्रशासन तक
पहुंचा कर उसका समाधान भी कराते थे।
स्वामी जी को धर्मग्रंथों
का अच्छा ज्ञान था। उन्होंने सैकड़ों गांवों में भजन मंडली, ग्राम समिति तथा हनुमान जी के छोटे मंदिर बनवाये। इससे सब ओर मजबूत संगठन खड़ा
हो गया तथा मिशनरियों के षड्यंत्रों पर रोक लगी। शुरू में वे पैदल ही घूमते थे।
फिर उनके लिए मोटर साइकिल और जीप की व्यवस्था की गयी। वे अनुशासन के बहुत पक्के
थे। बिना तय किये किसी कार्यक्रम में नहीं जाते थे तथा तय होने के बाद हर हाल में
जाते थे। इससे कई बार लोग उनसे नाराज भी हो जाते थे; पर वे साफ बोलना
पसंद करते थे।
जशपुर के पास सरना जनजाति
के भी सैकड़ों गांव हैं। अब उनमें से अधिकांश झारखंड में आते हैं। हर चार-छह गांव
के बीच एक बड़ा पूजा स्थल होता है। ऐसे एक ‘सरना स्थल’ पर मिशन ने कब्जा कर लिया। स्वामी जी ने न्यायालय से उसे मुक्त कराया। उनके एक
भक्त ने पत्थलगांव में उन्हें एक बड़ा भूखंड दिया। 1990 में कोलकाता से
विवेकानंद सम्मान के साथ 21,000 रु. मिले। ये
दोनों उन्होंने कल्याण आश्रम को दे दिये। 33 साल तक जशपुर
में रहते हुए भी उन्होंने कोई निजी आश्रम नहीं बनाया। कभी-कभी वे तीर्थयात्रा पर
जरूर जाते थे। एक बार तो ऋषिकेश से बद्रीनाथ तक वे पैदल ही गये।
जीवन के अंतिम कुछ वर्ष
में वे हृदयरोग एवं मधुमेह से पीडि़त हो गये। इलाज के बावजूद तीन दिसम्बर, 2005 को रात में अचानक शर्करा का स्तर गिरने से उनका देहांत हुआ। दो दिन बाद हुई
श्रद्धांजलि सभा में जशपुर के साथ छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा
के निकटवर्ती स्थानों के 10,000 लोगों ने उन्हें
श्रद्धासुमन अर्पित किये। यह उनके व्यापक संपर्क का ही परिणाम था।
(हमारे महान वननायक, भाग 3, त्रिलोकीनाथ सिनहा)
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15 जुलाई/पुण्य-तिथि
उत्कट स्वाभिमानी :
जयदेव पाठक
संघ के वरिष्ठ जीवनव्रती प्रचारक श्री जयदेव पाठक
का जन्म 1924 ई. की जन्माष्टमी वाले दिन हिण्डौन (राजस्थान) के ग्राम फाजिलाबाद में श्रीमती गुलाबोदेवी की गोद में हुआ था।
उनके पिता का श्री जगनलाल शर्मा अध्यापक थे। जब वे केवल सात वर्ष के थे, तो उनकी माताजी का देहांत हो गया।
हिण्डौन से कक्षा सात उत्तीर्ण कर वे जयपुर
आ गये और 1942 में प्रथम श्रेणी में मैट्रिक किया। उन दिनों भारत
छोड़ो आंदोलन का जोर था। अतः वे उसमें शामिल हो गये। इससे घर वाले बहुत नाराज हुए।
इस पर जयदेव जी ने घर ही छोड़ दिया। वे इतने उत्कट स्वाभिमानी थे कि उसके बाद फिर
घर गये ही नहीं।
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान वे निकटवर्ती गांव और
नगरों में प्रचार के लिए जाते थे। उस समय उन्हें न भोजन की चिन्ता रहती थी,
न विश्राम की। कई बार तो रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर ही
सोकर वे रात बिता देते थे। जब वह आंदोलन समाप्त हुआ, तो
देशभक्ति की वह आग उन्हें संघ की ओर खींच लाई और फिर वे तन-मन से संघ के लिए
समर्पित हो गये।
1942 में जयपुर में संघ का काम ‘सत्संग’
के नाम से चलता था। चार अपै्रल, 1944
को जयदेव जी ने पहली बार इसमें भाग लिया। उन दिनों श्री बच्छराज व्यास नागपुर से
प्रान्त प्रचारक होकर राजस्थान आये थे। जयदेव जी उनसे बहुत प्रभावित हुए और अति
उत्साह के साथ संघ शाखाओं के विस्तार में उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चल दिये।
उनके अत्यधिक उत्साह से कई लोगों को शक हुआ कि वे खुफिया विभाग के व्यक्ति हैं;
पर क्रमशः शंका के बादल छंट गये और 1946 में वे प्रचारक बन कर कार्यक्षेत्र में कूद गये।
प्रथम प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद संघ भीषण आर्थिक
संकट में आ गया। ऐसे में प्रचारकों को यह कहा गया कि यदि वे चाहें, तो वापस लौटकर कोई नौकरी या काम धंधा कर सकते हैं। अतः जयदेव जी भी 1950 में अध्यापक बन गये; पर उनके मन में तो संघ बसा
था। अतः सरकारी नौकरी के अतिरिक्त शेष सारा समय वे शाखा विस्तार में ही लगाते थे।
बारह वर्ष तक अध्यापन करने के बाद उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और फिर से प्रचारक
बन गये।
प्रचारक जीवन में वे उदयपुर व डूंगरपुर में जिला
प्रचारक तथा उदयपुर, जयपुर, सीकर व भरतपुर में
विभाग प्रचारक रहे। इस बीच दो वर्ष उन पर राजस्थान प्रान्त के बौद्धिक प्रमुख की
जिम्मेदारी भी रही। खूब प्रवास करने के बावजूद वे स्वभाव से बहुत मितव्ययी थे।
अपने ऊपर संगठन का एक पैसा भी अधिक खर्च न हो, इसकी
ओर उनका बहुत आग्रह एवं ध्यान रहता था।
1974 से 2002 तक उन पर राजस्थान
में विद्या भारती और शिक्षक संघ के संगठन मंत्री का काम रहा। 28 वर्ष के इस कालखंड में उन्होंने राजस्थान शिक्षक संघ को राज्य का सबसे बड़ा और
प्रभावी संगठन बना दिया। आदर्श विद्या मंदिरों की एक बड़ी श्रृंखला के निर्माण का
श्रेय भी उन्हें ही है। जब स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण प्रवास में कठिनाई
होने लगी, तब भी वे राजस्थान में विद्या भारती के मार्गदर्शक
के नाते संस्था की देखभाल करते रहे।
जयदेव जी के मन में एक घंटे की शाखा के प्रति
अत्यधिक श्रद्धा थी। प्रतिदिन शाखा जाने का जो व्रत उन्होंने 1944 में लिया था, उसे आजीवन निभाया। परम पवित्र भगवा ध्वज को वे
ईश्वर का साकार रूप मानते थे। अतः शाखा से लौटकर ही वे अन्न-जल ग्रहण करते थे। ऐसे
कर्मठ एवं स्वाभिमानी प्रचारक का 15 जुलाई, 2006 को निधन हुआ।
(संदर्भ : अभिलेखागार,
भारती भवन, जयपुर)
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15 जुलाई/जन्म-दिवस
नारी उत्थान को समर्पित दुर्गाबाई देशमुख
आंध्र प्रदेश से स्वाधीनता समर में सर्वप्रथम कूदने
वाली महिला दुर्गाबाई का जन्म 15 जुलाई, 1909 को राजमुंदरी जिले के काकीनाडा नामक स्थान पर हुआ था। इनकी माता श्रीमती
कृष्णवेनम्मा तथा पिता श्री रामाराव थे। पिताजी का देहांत तो जल्दी ही हो गया था;
पर माता जी की कांग्रेस में सक्रियता से दुर्गाबाई के मन पर
बचपन से ही देशप्रेम एवं समाजसेवा के संस्कार पड़े।
उन दिनों गांधी जी के आग्रह के कारण दक्षिण भारत
में हिन्दी का प्रचार हो रहा था। दुर्गाबाई ने पड़ोस के एक अध्यापक से हिन्दी सीखकर
महिलाओं के लिए एक पाठशाला खोल दी। इसमें उनकी मां भी पढ़ने आती थीं। इससे लगभग 500 महिलाओं ने हिन्दी सीखी। इसे देखकर गांधी जी ने दुर्गाबाई को स्वर्ण पदक
दिया। गांधी जी के सामने दुर्गाबाई ने विदेशी वस्त्रों की होली भी जलाई। इसके बाद
वे अपनी मां के साथ खादी के प्रचार में जुट गयीं।
नमक सत्याग्रह में श्री टी.प्रकाशम के साथ
सत्याग्रह कर वे एक वर्ष तक जेल में रहीं। बाहर आकर वे फिर आंदोलन में सक्रिय हो
गयीं। इससे उन्हें फिर तीन वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया। कारावास का उपयोग
उन्होंने अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ाने में किया।
दुर्गाबाई बहुत अनुशासनप्रिय थीं। 1923 में काकीनाड़ा में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में वे स्वयंसेविका के
नाते कार्यरत थी। वहां खादी वस्त्रों की प्रदर्शनी में उन्होंने नेहरू जी को भी
बिना टिकट नहीं घुसने दिया। आयोजक नाराज हुए; पर
अंततः उन्हें टिकट खरीदना ही पड़ा।
जेल से आकर उन्होंने बनारस मैट्रिक की परीक्षा
उत्तीर्ण की तथा आंध्र विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में बी.ए किया। मद्रास वि. वि. से एम.ए की परीक्षा में उन्हें पांच पदक मिले।
इसके बाद इंग्लैंड जाकर उन्होंने अर्थशास्त्र तथा कानून की पढ़ाई की। इंग्लैंड में
वकालत कर उन्होंने पर्याप्त धन भी कमाया। स्वाधीनता के बाद उन्होंने आंध्र प्रदेश
उच्च न्यायालय में वकालत की।
1946 में दुर्गाबाई लोकसभा और संविधान सभा की सदस्य
निर्वाचित हुईं। 1953 में ही उन्होंने भारत के प्रथम वित्तमंत्री श्री
चिन्तामणि देशमुख से नेहरू जी की उपस्थिति में न्यायालय में विवाह किया। इसी वर्ष
नेहरू जी ने इन्हें केन्द्रीय समाज कल्याण विभाग का अध्यक्ष बनाया। इसके अन्तर्गत
उन्होंने महिला एवं बाल कल्याण के अनेक उपयोगी कार्यक्रम प्रारम्भ किये। इन विषयों
के अध्ययन एवं अनुभव के लिए उन्होंने इंग्लैंड, अमरीका,
सोवियत रूस, चीन, जापान
आदि देशों की यात्रा भी की।
दुर्गाबाई देशमुख ने आन्ध्र महिला सभा, विश्वविद्यालय महिला संघ, नारी निकेतन जैसी कई
संस्थाओं के माध्यम से महिलाओं के उत्थान के लिए अथक प्रयत्न किये। योजना आयोग
द्वारा प्रकाशित ‘भारत में समाज सेवा का विश्वकोश’ उन्हीं के निर्देशन में तैयार हुआ। आंध्र के गांवों में शिक्षा के प्रसार हेतु
उन्हें नेहरू साक्षरता पुरस्कार दिया गया। उन्होंने अनेक विद्यालय, चिकित्सालय, नर्सिंग विद्यालय तथा तकनीकी विद्यालय स्थापित
किये। उन्होंने नेत्रहीनों के लिए भी विद्यालय, छात्रावास
तथा तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्र खोले।
दुर्गाबाई देशमुख का जीवन देश और समाज के लिए
समर्पित था। लम्बी बीमारी के बाद नौ मई, 1981
को उनका देहांत हुआ। उनके द्वारा स्थापित अनेक संस्थाएं आज भी आंध्र और तमिलनाडु
में सेवा कार्यों में संलग्न हैं।
(संदर्भ : राष्ट्रधर्म दिसम्बर 2010 तथा अतंरजाल सेवा)
उपरोक्त से सम्बन्धित वीडियो हम https://youtube.com/playlist?list=PLjru_OuiqqMKDlrQtU7y1MNkSYfRZWLFd इस लिंक पर देख सकते हैं |
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