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जुलाई/जन्म-दिवस
भारत रत्न डा. विधानचन्द्र
राय
डा. विधानचन्द्र राय का जन्म बिहार की राजधानी पटना में एक जुलाई 1882 को हुआ था। बचपन से ही
कुशाग्र बुद्धि विधानचन्द्र राय की रुचि चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन में थी। भारत
से इस सम्बन्ध में शिक्षा पूर्ण कर वे उच्च शिक्षा के लिए लन्दन गये।
लन्दन मैडिकल कॉलेज की एक घटना से इनकी धाक सब
छात्रों और प्राध्यापकों पर जम गयी। डा. विधानचन्द्र वहाँ एम.डी. कर रहे थे। एक
बार प्रयोगात्मक शिक्षा के लिए इनके वरिष्ठ चिकित्सक विधानचन्द्र एवं अन्य कुछ
छात्रों को लेकर अस्पताल गये। जैसे ही सब लोग रोगी कक्ष में घुसे, विधानचन्द्र ने हवा में गन्ध
सूँघते हुए कहा कि यहाँ कोई चेचक का मरीज भर्ती है।
इस पर अस्पताल के वरिष्ठ चिकित्सकों ने कहा, यह सम्भव नहीं है; क्योंकि चेचक के मरीजों के
लिए दूसरा अस्पताल है, जो यहाँ से बहुत दूर है। विधानचन्द्र के साथी हँसने लगे; पर वे अपनी बात पर दृढ़ रहे।
उन दिनों चेचक को छूत की भयंकर महामारी माना जाता था। अतः उसके रोगियों को अलग रखा
जाता था।
इस पर विधानचन्द्र अपने साथियों एवं प्राध्यापकों के साथ हर बिस्तर पर
जाकर देखने लगे। अचानक उन्होंने एक बिस्तर के पास जाकर वहाँ लेटे रोगी के शरीर पर
पड़ी चादर को झटके से उठाया। सब लोग यह देखकर दंग रह गये कि उस रोगी के सारे शरीर
पर चेचक के लाल दाने उभर रहे थे।
लन्दन से अपनी शिक्षा पूर्णकर वे भारत आ गये।
यद्यपि लन्दन में ही उन्हें अच्छे वेतन एवं सुविधाओं वाली नौकरी उपलब्ध थी; पर वे अपने निर्धन
देशवासियों की ही सेवा करना चाहते थे। भारत आकर वे कलकत्ता के कैम्पबेल मैडिकल कॉलेज में प्राध्यापक हो गये। व्यापक अनुभव एवं मरीजों के प्रति सम्वेदना होने के
कारण उनकी प्रसिद्धि देश-विदेश में फैल गयी।
मैडिकल कॉलिज की सेवा से मुक्त होकर
उन्होंने सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में पदार्पण किया। इसके बाद भी वे प्रतिदिन
दो घण्टे निर्धन रोगियों को निःशुल्क देखते थे। बहुत निर्धन होने पर वे दवा के लिए
पैसे भी देते थे।
डा. विधानचन्द्र के मन में मानव मात्र के लिए असीम सम्वेदना थी। इसी के चलते
उन्होंने कलकत्ता का वैलिंग्टन स्ट्रीट पर स्थित अपना विशाल मकान निर्धनों को
चिकित्सा सुविधा देने वाली एक संस्था को दान कर दिया। वे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के भी
निजी चिकित्सक थे। 1916 में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय की सीनेट के सदस्य बने। इसके बाद 1923 में वे बंगाल विधान परिषद्
के सदस्य निर्वाचित हुए। देशबन्धु चित्तरंजन दास से प्रभावित होकर स्वतन्त्रता के
संघर्ष में भी वे सक्रिय रहे।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद लोकतान्त्रिक व्यवस्था
के अन्तर्गत राज्यों में विधानसभाओं का गठन हुआ। डा. विधानचन्द्र राय के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के व्यापक
अनुभव एवं निर्विवाद जीवन को देखते हुए जनवरी 1948 में उन्हें बंगाल का पहला मुख्यमन्त्री बनाया गया।
इस पद पर वे जीवन के अन्तिम क्षण (एक जुलाई, 1962) तक बने रहे।
मुख्यमन्त्री रहते हुए भी उनकी
विनम्रता और सादगी में कमी नहीं आयी। नेहरू-नून समझौते के अन्तर्गत बेरूबाड़ी
क्षेत्र पाकिस्तान को देने का विरोध करते हुए उन्होंने बंगाल विधानसभा में
सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कराया।
डा. विधानचन्द्र राय के जीवन का यह भी एक अद्भुत प्रसंग है कि उनका जन्म और
देहान्त एक ही तिथि को हुआ। समाज के प्रति उनकी व्यापक सेवाओं को देखते हुए 1961 में उन्हें देश के सर्वोच्च
अलंकरण ‘भारत
रत्न’ से
सम्मानित किया गया।
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1 जुलाई/बलिदान-दिवस
तिरंगाप्रेमी बीरबल सिंह ढालिया
भारत की स्वाधीनता के आंदोलन में अनेक लोगों ने भाग लिया
है। कुछ लोग बम और गोली के पक्षधर थे, तो कुछ अहिंसा एवं सत्याग्रह के। कुछ ने जेल स्वीकार की, तो कुछ ने फांसी।
बीरबल सिंह ढालिया भी अहिंसाप्रेमी थे; पर तिरंगे झंडे की रक्षा करते हुए उन्होंने अपने प्राण दे
दिये।
बीरबल सिंह का जन्म राजस्थान में श्रीगंगानगर जिले के
रायसिंहनगर में हुआ था। उनके पिताजी का नाम श्री सालगराम था। वे जीनगर समुदाय से
थे, जिसे राजस्थान
में क्षत्रिय बिरादरी माना जाता है। इस समुदाय के लोग समाजसेवा में विशेष रुचि
लेते हैं। रायसिंहनगर में कभी पंवार वंश के लोग बड़ी संख्या में रहते थे। अतः इसका
एक नाम पंवारसर भी था। यह बीकानेर रियासत का भाग था। उन दिनों राजस्थान की अधिकांश
रियासतें अंग्रेजों की समर्थक थीं। बीकानेर के तत्कालीन शासक शार्दूल सिंह भी
उनमें ही थे।
बीरबल सिंह के घर में रुई का पुश्तैनी कारोबार था। वे अपने
पिता के साथ कारोबार में लगे रहते थे; पर इसके साथ ही वे देशसेवा के प्रति भी जागरूक थे। 1942 के ‘भारत छोड़ो
आंदोलन’ में बीरबल सिंह
ने भाग लिया था। उन दिनों वहां ‘बीकानेर प्रजा मंडल’ नामक संस्था कार्यरत थी, जो सामंती अत्याचारों का विरोध तथा नागरिक अधिकारों का
समर्थन करती थी। बीरबल सिंह उसके कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। राजा को
प्रजामंडल की सभा, सम्मेलन और जुलूस
आदि पर तो आपत्ति नहीं थी;
पर अंग्रेज
समर्थक होने के कारण वे तिरंगे झंडे के विरोधी थे। इस पर उनका प्रजामंडल वालों से
टकराव होता रहता था। झंडा फहराने वालों को कठोर सजा दी जाती थी।
30 जून, 1946 को नगर में
तिरंगा झंडा लेकर जुलूस निकाला गया। इसकी जिम्मेदारी बीरबल सिंह पर थी। अतः वे
झंडा लेकर सबसे आगे चल रहे थे। राज्यादेश की अवहेलना होते देख पुलिस ने चेतावनी दी; पर जब आंदोलनकारी
नहीं रुके तो उन्होंने जुलूस को घेर लिया। पहले झंडा छीनने की कोशिश हुई और फिर
लाठीचार्ज। आगे होने के कारण सबसे अधिक लाठियां बीरबल सिंह पर ही पड़ीं। उनका शरीर
बहुत स्वस्थ और सबल था। कुछ देर तक तो वे सहते रहे; पर अंततः उनकी बाईं भुजा लहूलुहान हो गयी।
इसके बावजूद वे आगे बढ़ते रहे। इससे बाकी लोगों का उत्साह
दोगुना हो गया। भारत माता की जय और इंकलाब जिंदाबाद के स्वर और अधिक तेजी से
गूंजने लगे। जब पुलिस की लाठियों से काम नहीं चला तो सेना ने मोर्चा संभाला और
वहां गोली चलने लगी। बीरबल सिंह की जांघ में तीन गोली लगीं। उनका पूरा शरीर खून से
रंग गया, फिर भी वे आगे
बढ़ते रहे।
पर कुछ समय बाद उनके शरीर ने जवाब दे दिया और वे बेहोश होकर
धरती पर गिर पड़े। साथियों ने उन्हें संभाला और एक चारपाई पर लिटाकर तुरंत अस्पताल
ले गये। उस समय भी उनके हाथ में तिरंगा झंडा मौजूद था। अस्पताल में उन्हें थोड़ी
देर के लिए होश आया तो उन्होंने अपने एक साथी को वह झंडा सौंपा और कहा, ‘‘अब इसके सम्मान
की जिम्मेदारी तुम्हारी है।’’
इतना कहकर वे फिर अचेत हो गये। अगले दिन उस वीर ने सदा के
लिए आंखें मूंद लीं। उनकी शवयात्रा में पूरा नगर उमड़ पड़ा। उसमें आजाद हिंद फौज
के कर्नल अमरसिंह वही तिरंगा लेकर सबसे आगे चल रहे थे, जिसकी रक्षा में
उस वीर ने प्राण दिये थे। जहां उन्हें गोली लगी थी, वहां उनकी संगमरमर की प्रतिमा स्थापित है।
प्रतिवर्ष 30 जून और एक जुलाई
को वहां मेला लगता है। श्रीगंगानगर के मुख्य चैक पर भी उनकी मूर्ति लगी है। उसे
शहीद बीरबल चैक कहा जाता है। नगर में उनके नाम से एक उद्यान भी है। इस प्रकार उस
बलिदानी वीर को प्रतिवर्ष लोग श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
(अ.उ. 23.2.22/8)
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जुलाई/जन्म-दिवस
श्रमिक हित को समर्पित राजेश्वर दयाल जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यह महिमा है कि उसके
कार्यकर्त्ता को जिस काम में लगाया जाता है, वह उसमें ही विशेषज्ञता प्राप्त कर लेता है। श्री
राजेश्वर जी ऐसे ही एक प्रचारक थे, जिन्हें भारतीय मजदूर संघ के काम में लगाया गया, तो उसी में रम गये। कार्यकर्त्ताओं में वे ‘दाऊ जी’ के नाम से प्रसिद्ध थे।
राजेश्वर जी का जन्म एक जुलाई, 1933 को ताजगंज (आगरा) में पण्डित नत्थीलाल
शर्मा तथा श्रीमती चमेली देवी के घर में हुआ था। चार भाई बहनों में वे सबसे छोटे
थे। दुर्भाग्यवश राजेश्वर जी के जन्म के दो साल बाद ही पिताजी चल बसे। ऐसे में
परिवार पालने की जिम्मेदारी माताजी पर ही आ गई। वे सब बच्चों को लेकर अपने मायके
फिरोजाबाद आ गयीं।
राजेश्वर जी ने फिरोजाबाद से हाईस्कूल और आगरा से
इण्टर व बी.ए किया। इण्टर करते समय वे स्वयंसेवक बने। आगरा में उन दिनों श्री
ओंकार भावे प्रचारक थे। कला में रुचि के कारण मुम्बई से कला का डिप्लोमा लेकर
राजेश्वर जी मिरहची (एटा, उ.प्र.) के एक इण्टर कॉलिज में कला के अध्यापक हो गये। 1963 में उन्होंने संघ का तृतीय
वर्ष का प्रशिक्षण पूर्ण किया और 1964 में नौकरी छोड़कर संघ के प्रचारक बन गये।
प्रारम्भ में उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के
मुजफ्फरनगर और मेरठ जिलों में भेजा गया। शीघ्र ही वे इस क्षेत्र में समरस हो गये।
उन्हें तैरने का बहुत शौक था। पश्चिम के इस क्षेत्र में नहरों का जाल बिछा है।
प्रायः वे विद्यार्थियों के साथ नहाने चले जाते थे और बहुत ऊँचाई से कूदकर, कलाबाजी खाकर तथा गहराई में
तैरकर दिखाते थे। इस प्रकार उन्होंने कई कार्यकर्त्ताओं को तैरना सिखाया। इसके बाद
वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के बाँदा और हमीरपुर में भी प्रचारक रहे।
1970
में उन्हें भारतीय मजदूर संघ में काम करने के लिए लखनऊ भेजा गया। तब श्री
दत्तोपन्त ठेंगड़ी केन्द्र में तथा उत्तर प्रदेश में बड़े भाई (श्री रामनरेश सिंह)
कार्यरत थे। बड़े भाई ने इनसे कहा कि इस क्षेत्र में काम करने के लिए मजदूर कानूनों
की जानकारी आवश्यक है। इस पर उन्होंने विधि स्नातक की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली।
भारतीय मजदूर संघ, उत्तर प्रदेश के सहमन्त्री के नाते वे आगरा, कानपुर,
प्रयाग, सोनभद्र, मुरादाबाद, मेरठ आदि अनेक स्थानों पर
काम करते रहे। 1975 के आपातकाल में वे लखनऊ जेल में बन्द रहे।
राजेश्वर जी पंजाब तथा हरियाणा के भी प्रभारी रहे।
इन क्षेत्रों में कार्य विस्तार में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा। वे सन्त देवरहा
बाबा, प्रभुदत्त
ब्रह्मचारी, श्री
गुरुजी, ठेंगड़ी
जी तथा बड़े भाई से विशेष प्रभावित थे। उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें ‘उत्तर प्रदेश में भारतीय
मजदूर संघ’ तथा
‘कार्यकर्त्ता
प्रशिक्षण वर्ग में मा. ठेंगड़ी जी के भाषणों का संकलन’ विशेष हैं।
स्वास्थ्य खराबी के बाद वे संघ कार्यालय, आगरा (माधव भवन) में रहने
लगे। आध्यात्मिक रुचि के कारण वे वहाँ आने वालों को श्रीकृष्ण कथा मस्त होकर
सुनाते थे। 10
जून, 2007
को अति प्रातः सोते हुए ही किसी समय उनकी श्वास योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के चरणों
में लीन हो गयी।
राजेश्वर जी के बड़े भाई श्री रामेश्वर जी भी संघ, मजदूर संघ और फिर विश्व
हिन्दू परिषद में सक्रिय रहे। 1987 में सरकारी सेवा से अवकाश प्राप्त कर वे विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय
कार्यालय, दिल्ली
में अनेक दायित्व निभाते रहे। राजेश्वर जी के परमधाम जाने के ठीक तीन वर्ष बाद उनका
देहांत भी 10
जून, 2010
को आगरा में अपने घर पर ही हुआ।
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जुलाई/जन्म-दिवस
सिद्धयोगी स्वामी राम
त्यागी और तपस्वियों की भूमि भारत में अनेक तरह के
योगी हुए हैं। केवल भारत ही नहीं, तो विश्व के धार्मिक विद्वानों, वैज्ञानिकों एवं चिकित्सकों को अपनी यौगिक क्रियाओं से कई बार चमत्कृत कर देने
वाले सिद्धयोगी स्वामी राम का नाम असहज योग की परम्परा में शीर्ष पर माना जाता है।
स्वामी राम का जन्म देवभूमि उत्तरांचल के गढ़वाल
क्षेत्र में दो जुलाई, 1925 को हुआ था। उत्तरांचल सदा से दिव्य योगियों एवं सन्तों की भूमि रही है।
उन्हें देखकर राम की रुचि बचपन से ही योग की ओर हो गयी। इन्होंने विद्यालयीन
शिक्षा कहाँ तक पायी, इसकी जानकारी नहीं मिलती; पर इतना सत्य है कि लौकिक शिक्षा के बारे में भी इनका ज्ञान अत्यधिक था।
योग में रुचि होने के कारण इन्होंने अनेक
संन्यासियों के पास जाकर योग की कठिन साधना की। व्यक्तिगत प्रयास एवं गुरु कृपा से
इन्हें अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। उन दिनों भारत तथा विश्व में ब्रिटेन एवं
अमरीका आदि यूरोपीय देशों एवं ईसाई धर्म का डंका बज रहा था। वे लोग भारतीय धर्म, अध्यात्म, योग, चिकित्सा शास्त्र तथा अन्य
धार्मिक मान्यताओं की हँसी उड़ाते हुए उसे पाखण्ड एवं अन्धविश्वास बताते थे। अतः
स्वामी राम ने उनके घर में घुसकर ही उनकी मान्यताओं को तोड़ने का निश्चय किया।
जब स्वामी राम ने विदेश की धरती पर योग शिविर लगाये, तो उनके चमत्कारों की चारों
ओर चर्चा होने लगी। जब वैज्ञानिकों एवं चिकित्सा शास्त्र के विशेषज्ञों तक उनकी
ख्याति पहुँची, तो
उन्होंने अपने सामने योग के चमत्कार दिखाने को कहा। स्वामी राम ने इस चुनौती को
स्वीकार किया और वैज्ञानिकों को अपने साथ परीक्षण के लिए आधुनिक यन्त्र लाने को भी
कहा।
प्रख्यात वैज्ञानिकों एवं उनकी आधुनिक मशीनों के
सम्मुख स्वामी राम ने यौगिक क्रियाओं का प्रदर्शन किया। योग द्वारा शरीर का ताप
बढ़ाने एवं घटाने, हृदय की गति घटाने और 20 मिनट तक बिल्कुल रोक देने, दूर बैठे अपने भक्त के स्वास्थ्य को ठीक करना आदि को देखकर विदेशी विशेषज्ञ
अपना सब ज्ञान और विज्ञान भूल गये। स्वामी राम ने बताया कि शरीर ही सब कुछ नहीं है, अपितु चेतन और अचेतन
मस्तिष्क की क्रियाओं का भी मानव जीवन में बहुत महत्व है और इस ज्ञान के क्षेत्र
में पश्चिम बहुत पीछे है।
आगे चलकर स्वामी राम ने विदेश में अनेक
अन्तरराष्ट्रीय योग शिविर लगाये तथा आश्रमों की स्थापना की। उन्होंने योग पर अनेक
पुस्तकें भी लिखीं, जिनका अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसके बाद भी स्वामी जी को अपनी जन्मभूमि
भारत और उत्तरांचल से अतीव प्रेम था। वहाँ की निर्धनता तथा स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव को देखकर उन्हें बहुत कष्ट
होता था। इसलिए उन्होंने देहरादून जिले के जौलीग्राण्ट ग्राम में एक विशाल
चिकित्सालय एवं चिकित्सा विद्यालय की स्थापना की।
इस प्रकल्प के माध्यम से उन्होंने निर्धन जनों को
विश्व स्तरीय सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास किया। विश्व भर में फैले स्वामी जी
के धनी भक्तों के सहयोग से स्थापित यह चिकित्सालय आज भी उस क्षेत्र की अतुलनीय
सेवा कर रहा है। जब स्वामी राम का शरीर थक गया, तो उन्होंने योग साधना द्वारा उसे छोड़ दिया। स्वामी
जी भले ही चले गये; पर उनके द्वारा स्थापित ‘हिमालयन अस्पताल’ से उनकी कीर्ति सदा जीवित है।
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जुलाई/जन्म-दिवस
उन्हें सत्रावसान की तिथि याद रही
सरस्वती शिशु मंदिर योजना का जैसा विस्तार आज देश
भर में हुआ है, उसके
पीछे जिन महानुभावों की तपस्या छिपी है। उनमें से ही एक थे दो जुलाई, 1929 को मैनपुरी (उ.प्र.)
के जागीर गांव में जन्मे श्री राणा प्रताप सिंह। उनके पिता श्री रामगुलाम सक्सेना
मैनपुरी जिला न्यायालय में प्रतिष्ठित वकील थे।
उन्होंने अपने चारों पुत्रों और एक
पुत्री को अच्छी शिक्षा दिलाई। राणा जी ने भी 1947 में आगरा से बी.एस-सी. की शिक्षा पूरी की। उसके बाद
उनका चयन चिकित्सा सेवा (एम.बी.बी.एस.) के लिए हो गया; पर तब तक उन्हें संघ की धुन
सवार हो चुकी थी। अतः वे सब छोड़कर प्रचारक बन गये।
प्रचारक जीवन में वे उत्तर प्रदेश के इटावा, औरैया, फिरोजाबाद आदि में रहे। इसके
बाद गृहस्थ जीवन अपनाकर वे औरैया के इंटर कालिज में पढ़ाने लगे। 1952 में उत्तर प्रदेश में अनेक
स्थानों पर सरस्वती शिशु मंदिर प्रारम्भ हुए। तत्कालीन प्रांत प्रचारक मा. भाऊराव देशमुख तथा नानाजी
देशमुख इस योजना के सूत्रधार थे। 1958 में इन विद्यालयों के व्यवस्थित संचालन के लिए ‘शिशु शिक्षा प्रबंध समिति, उ.प्र.’ का गठन कर राणा जी को उसका
मंत्री बनाया गया। अब तो वे तन-मन से शिुश मंदिर योजना से एकरूप हो गये।
राणा जी ने जहां पूरे प्रदेश में व्यापक प्रवास कर
सैकड़ों नये विद्यालयों की स्थापना कराई, वहीं दूसरी ओर शिशु मंदिर के अनेक प्रशासनिक तथा
शैक्षिक विषयों को एक सुदृढ़ आधार दिया। पाठ्यक्रम एवं पुस्तकों का निर्माण, वेतनक्रम, आचार्य नियमावली, आय-व्यय एवं शुल्क पंजी, आचार्य कल्याण कोष, आचार्य प्रशिक्षण आदि का जो
व्यवस्थित ढांचा आज बना है, उसके पीछे राणा जी का परिश्रम और अनुभव ही छिपा है।
इसी प्रकार शिशु मंदिर योजना का प्रतीक चिन्ह (शेर
के दांत गिनते हुए भरत), वंदना (हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी) तथा वंदना के समय प्राणायाम आदि को भी
उन्होंने एक निश्चित स्वरूप दिया। वे वाणी के धनी तो थे ही; पर एक अच्छे लेखक भी थे। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें इतिहास गा रहा है, स्वामी विवेकानंद: प्रेरक जीवन प्रसंग, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, महर्षि व्यास की कथाएं, भगिनी निवेदिता, क्रांतिकारियों की गौरव गाथा, भारतीय जीवन के आधारभूत तत्व, भारतीयता के आराधक हम, सरस्वती शिशु मंदिर योजना:
एक परिचय, बाल
विकास, बाल
रामायण, बाल
महाभारत आदि प्रमुख हैं।
उनके अनुभव को देखते हुए कुछ समय के लिए उन्हें
बिहार और उड़ीसा को काम दिया गया। इसके बाद लखनऊ में भारतीय शिक्षा शोध संस्थान की
स्थापना होने पर उन्हें उसका सचिव तथा विद्या भारती प्रदीपिका का सम्पादक बनाया
गया। विद्या भारती की सेवा से अवकाश लेने के बाद भी वे संघ तथा विद्या भारती के
कार्यक्रमों से जुड़े रहे; पर दुर्भाग्यवश उन्हें स्मृतिलोप के रोग ने घेर लिया। वे बार-बार एक ही बात को
दोहराते रहते थे। इस कारण धीरे-धीरे वे सबसे दूर अपने घर में ही बंद होकर रह गये।
उनका पुत्र मर्चेंट नेवी में अभियंता था।
दुर्भाग्यवश विदेश में ही एक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी। जब उसका शव घर लाया
गया, तो
राणा जी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। उनकी स्मृति पूरी तरह लोप हो चुकी थी। जब कोई
उनसे मिलने जाता, तो वे उसे पहचानते तक नहीं थे। इसी प्रकार उन्होंने जीवन के अंतिम 10-12 साल बड़े कष्ट में बिताये।
उनकी पत्नी तथा बरेली में विवाहित पुत्री ने उनकी भरपूर सेवा की।
विद्या भारती के विद्यालयों मेें 20 मई को सत्रावसान होता है।
सादा जीवन और उच्च विचार के धनी राणा जी के जीवन का 2008 ई0 में इसी दिन सदा के लिए
सत्रावसान हो गया।
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जुलाई/जन्म-दिवस
कन्नड़ साहित्य के उन्नायक डा. फकीरप्पा हलकट्टी
कन्नड़ साहित्य एवं संस्कृति से अत्यधिक प्रेम करने
वाले डा. फकीरप्पा हलकट्टी का जन्म 2 जुलाई, 1880
को कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी धारवाड़ के एक निर्धन बुनकर परिवार में हुआ। इनके
पिता गुरुबसप्पा अध्यापक एवं साहित्यकार थे। तीन साल में माँ दानम्मा का निधन होने
के कारण उनका पालन दादी ने किया। दादी ने कर्नाटक के वीरों, धर्मात्माओं तथा
साहित्यकारों की कथाएँ सुनाकर फकीरप्पा के मन में कर्नाटक के गौरवशाली इतिहास
व कन्नड़ साहित्य के प्रति उत्सुकता जगा
दी।
शिक्षा के प्रति रुचि के कारण उन्होंने सभी
परीक्षाएँ अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कीं। 1896 में मैट्रिक पास कर वे मुम्बई आ गये। वहाँ
उन्होंने अनेक भाषाओं का अध्ययन किया। मुम्बई में मराठी और गुजराती भाषी लोग
बहुसंख्यक हैं। फकीरप्पा उनके साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में जाने लगे।
उनके मन में यह भाव जाग्रत हुआ कि कन्नड़ भाषा में भी ऐसे कार्यक्रम होने चाहिए।
उन्होंने इसके लिए स्वयं ही प्रयास करने का निश्चय किया।
यों तो मुम्बई में फकीरप्पा विज्ञान पढ़ रहे थे; पर अधिकांश समय वे कन्नड़
साहित्य की चर्चा में ही लगाते थे। छुट्टियों में घर आकर वे पिताजी से इस विषय में
खूब बात करते थे। 1901-02 में उन्होंने बी.एस-सी. की डिग्री ली। इसी समय उनका विवाह भागीरथीबाई से हुआ। 1904 में उन्होंने प्रथम श्रेणी
में कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। अब उनके लिए धन और प्रतिष्ठा से परिपूर्ण
सरकारी नौकरी के द्वार खुले थे; पर उनके मन में तो कन्नड़ साहित्य बसा था। अतः वे बेलगाँव आकर वहाँ के प्रसिद्ध
वकील श्री चौगुले के साथ काम करने लगे। कुछ समय बाद वे बीजापुर आ गये।
डा. हलकट्टी वकालत को जनसेवा का माध्यम मानते थे, इसलिए मुकदमे की फीस के रूप में ग्राहक ने जो दे
दिया, उसी
में सन्तोष मानते थे। वह सब भी वे पत्नी के हाथ में रख देते थे। पत्नी ने बिना
शिकायत किये उससे ही परिवार चलाया। यदि कोई निर्धन उनके पास मुकदमा लेकर आता, तो वे उससे पैसे ही नहीं
लेते थे। इस कारण वे सब ओर प्रसिद्ध हो गये।
कन्नड़ साहित्य के उत्थान में रुचि होने के कारण
वकालत के बाद का समय वे इसी में लगाते थे। 1901 से 1920 तक अनेक नगरों तथा ग्रामों में भ्रमण कर उन्होंने ताड़पत्रों पर हाथ से लिखी
एक हजार से भी अधिक प्राचीन पाण्डुलिपियाँ एकत्र कीं। न्यायालय से आते ही वे उनके
अध्ययन, सम्पादन
और वर्गीकरण में जुट जाते थे। 1921 में वे बीजापुर से बेलगाँव चले गये। वहाँ उनकी वकालत तो खूब बढ़ी; पर साहित्य साधना में
व्यवधान आ गया। अतः दो साल बाद वे फिर बीजापुर लौट आये। डा. हलकट्टी के ज्ञान, अनुभव व प्रामाणिकता को
देखकर शासन ने उन्हें सरकारी वकील बना दिया।
उन्होंने अनेक दुर्लभ गद्य व पद्य कृतियों का
सम्पादन किया। इनमें प॰चशतक, रक्षाशतक, गिरिजा
कल्याण महाप्रबन्ध, बसवराज देवर रगले, नम्बियण्णन रगले आदि प्रमुख हैं। उन्होंने भक्त कवि हरिहर का काव्य तथा 12वीं शती की सामाजिक
विभूतियों के जीवन चरित् सरल भाषा में लिखकर प्रकाशित किये। साहित्यिक तथा धार्मिक
विषयों पर उनके हजारों शोधपूर्ण लेख छपे हैं। उन्होंने अनेक शैक्षिक, सहकारी तथा ग्राम विकास
संस्थाएँ भी प्रारम्भ कीं। कन्नड़ साहित्य के इस उन्नायक का 26 जून, 1964 को देहान्त हुआ।
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जुलाई/जन्म-दिवस
स्वदेशी अर्थचेतना की संवाहक डा. कुसुमलता केडिया
स्वदेशी अर्थचेतना की संवाहक डा. कुसुमलता केडिया का जन्म दो
जुलाई, 1954
को पडरौना (उ.प्र.) में हुआ। इनके पिता श्री
राधेश्याम जी संघ के स्वयंसेवक थे। उन्होंने नानाजी देशमुख के साथ गोरखपुर में
पहले 'सरस्वती शिशु मंदिर' की स्थापना में सहयोग किया था। द्वितीय सरसंघचालक श्री
गुरुजी इनके ननिहाल में प्रायः आते थे। घर में संघ विचार की पत्र-पत्रिकाएं भी आती
थीं। अतः इनके मन पर देशप्रेम के संस्कार बचपन से ही पड़ गये।
कुसुमलता जी प्रारम्भ से ही पढ़ाई में आगे रहती थीं।
1975
में उन्होंने स्वर्ण पदक लेकर अर्थशास्त्र में एम.ए. किया। इसके बाद इनका विवाह हो
गया; पर
किसी कारण यह सम्बन्ध चल नहीं सका। 1980 में वे काशी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हो गयीं; पर किताबी ज्ञान के साथ वे
गरीबी का कारण और उसके निवारण का रहस्य भी समझना चाहती थीं। जब वे बड़े
अर्थशास्त्रियों के विचारों की तुलना धरातल के सच से करतीं, तो उन्हें वहां विसंगतियां
दिखाई देती थीं। अतः उन्होंने इसे ही अपने शोध का विषय बना लिया।
1984
में उन्होंनेे काशी विश्वविद्यालय से ‘डॉक्टर’ की
उपाधि प्राप्त की। इस अध्ययन के दौरान उन्होंने देखा कि भारत आदि जिन देशों को
पिछड़ा कहा जाता है, उनके संसाधनों को लूट कर ही पश्चिम के तथाकथित विकसित देश समृद्ध हुए हैं। इस
प्रकार उन्होंने गांधी जी और प्रख्यात अध्येता श्री धर्मपाल के विचारों को एक बार
फिर तथ्यों के आधार पर सिद्ध किया।
अब उन्हें यह जिज्ञासा हुई कि पश्चिमी देशों को इस
लूट और संहार की प्रेरणा कहां से मिली ? इसके लिए उन्होंने यूरोप का इतिहास पढ़ा। उन्हें यह
जानकर आश्चर्य हुआ कि इसके पीछे ईसाई मान्यताएं हैं। प्राचीन यूरोप में भारत जैसी
बहुदेववादी सभ्यताएं अस्तित्व में थीं;
पर हमलावरों ने 400 वर्ष में उस सभ्यता और संस्कृति को पूरी तरह नष्ट
कर दिया।
यह अध्ययन उन्होंने अपनी पुस्तक ‘जेनेटिक एसम्पशन्स ऑफ
डेवलेपमेंट थ्योरी’ में प्रस्तुत किया। उन्होंने प्रो. रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’ के
साथ ‘गांधी
जी और ईसाइयत’ तथा
स्वतन्त्र रूप से स्त्री प्रश्न: हिन्दू समाज में पैठती ईसाई मानसिकता, स्त्रीत्व: धारणाएं एवं
यथार्थ, दृष्टि
दोष तो विकल्प कैसे ?, गांधी दर्शन में स्त्री की छवि, स्त्री सम्बन्धी दृष्टि एवं स्थिति, आर्थिक समृद्धि की अहिंसक अवधारणा, सभ्यागत संदर्भ आदि पुस्तकें
लिखीं। 1997
में श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी ने उनकी पुस्तक ‘डैब्ट ट्रैप और डैथ
ट्रैप ’ का विमोचन किया। इन पुस्तकों की सराहना देश और विदेश के कई अर्थशास्त्रियों ने
की है।
1992
से वे गांधी विद्या संस्थान, वाराणसी में समाजशास्त्र की प्राध्यापक एवं वरिष्ठतम संकाय सदस्य हैं। इसके
साथ ही वे भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद, भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान
(शिमला), ऋत:
हिन्दू विद्या केन्द्र जैसी अनेक संस्थाओं से जुड़ी हैं।
उनके काम के लिए उन्हें देश एवं विदेश से अनेक
सम्मान मिले हैं। वामपंथी पत्रिका ‘सेमिनार’ ने
तो उन्हें ‘लिबरेशन
ऑफ इंडियन माइंड’ कहा है। अपने गुरु श्री रामस्वरूप जी की स्मृति में स्थापित न्यास द्वारा
उन्होंने कई पुस्तकें तथा पत्रिकाएं
प्रकाशित की हैं। डा. कुसुमलता केडिया इसी प्रकार देश, धर्म और समाज की सेवा में लगी रहें, यह शुभकामना है।
(संदर्भ : श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता)
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3
जुलाई/पुण्य-तिथि
विरक्त सन्त स्वामी रामसुखदास जी
धर्मप्राण भारत में एक से बढ़कर एक विरक्त सन्त एवं
महात्माओं ने जन्म लिया है। ऐसे ही सन्तों में शिरोमणि थे परम वीतरागी स्वामी
रामसुखदेव जी महाराज। स्वामी जी के जन्म आदि की ठीक तिथि एवं स्थान का प्रायः पता
नहीं लगता; क्योंकि
इस बारे में उन्होंने पूछने पर भी कभी चर्चा नहीं की। फिर भी जिला बीकानेर
(राजस्थान) के किसी गाँव में उनका जन्म 1902 ई. में हुआ था, ऐसा कहा जाता है।
उनका बचपन का नाम क्या था, यह भी लोगों को नहीं पता; पर इतना सत्य है कि
बाल्यवस्था से ही साधु सन्तों के साथ बैठने में उन्हें बहुत सुख मिलता था। जिस
अवस्था में अन्य बच्चे खेलकूद और खाने-पीने में लगे रहते थे, उस समय वे एकान्त में बैठकर
साधना करना पसन्द करते थे। बीकानेर में ही उनका सम्पर्क श्री गम्भीरचन्द दुजारी से
हुआ। दुजारी जी भाई हनुमानप्रसाद पोद्दार एवं सेठ जयदयाल गोयन्दका के आध्यात्मिक
विचारों से बहुत प्रभावित थे। इस प्रकार रामसुखदास जी भी इन महानुभावों के सम्पर्क
में आ गये।
जब इन महानुभावों ने गोरखपुर में ‘गीता प्रेस’ की स्थापना की, तो रामसुखदास जी भी उनके साथ
इस काम में लग गये। धर्म एवं संस्कृति प्रधान पत्रिका ‘कल्याण’ का उन्होंने काफी समय तक
सम्पादन भी किया। उनके इस प्रयास से ‘कल्याण’ ने
विश्व भर के धर्मप्रेमियों में अपना स्थान बना लिया। इस दौरान स्वामी रामसुखदास जी
ने अनेक आध्यात्मिक ग्रन्थों की रचना भी की। धीरे-धीरे पूरे भारत में उनका एक
विशिष्ट स्थान बन गया।
आगे चलकर भक्तों के आग्रह पर स्वामी जी ने पूरे देश
का भ्रमणकर गीता पर प्रवचन देने प्रारम्भ किये। वे अपने प्रवचनों में कहते थे कि
भारत की पहचान गाय, गंगा, गीता, गोपाल तथा गायत्री से है।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद जब-जब शासन ने हिन्दू कोड बिल और धर्मनिरपेक्षता की आड़
में हिन्दू धर्म तथा संस्कृति पर चोट करने का प्रयास किया, तो रामसुखदास जी ने डटकर
शासन की उस दुर्नीति का विरोध किया।
स्वामी जी की कथनी तथा करनी में कोई भेद नहीं था। सन्त
जीवन स्वीकार करने के बाद उन्होंने जीवन भर पैसे तथा स्त्री को स्पर्श नहीं किया।
यहाँ तक कि अपना फोटो भी उन्होंने कभी नहीं खिंचने दिया। उनके दूरदर्शन पर आने
वाले प्रवचनों में भी केवल उनका स्वर सुनाई देता था; पर चित्र कभी दिखायी नहीं दिया।
स्वामी जी ने अपनी
कथाओं में कभी पैसे नहीं चढ़ने दिये। उनका कोई बैंक खाता भी नहीं था। उन्होंने अपने
लिए आश्रम तो दूर, एक कमरा तक नहीं बनाया। उन्होंने किसी पुरुष या महिला को अपना शिष्य भी नहीं
बनाया। यदि कोई उनसे शिष्य बना लेने की प्रार्थना करता था, तो वे ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम’ कहकर उसे टाल देते थे।
तीन जुलाई, 2005 (आषाढ़ कृष्ण 11) को ऋषिकेश में 103 वर्ष की आयु में उन्होंने अपना शरीर छोड़ा। उनकी
इच्छानुसार देहावसान के बाद गंगा के तट पर दो चिताएँ बनायी गयीं। एक में उनके शरीर
का तथा दूसरी पर उनके वस्त्र, माला, पूजा
सामग्री आदि का दाह संस्कार हुआ। इस प्रकार परम वीतरागी सन्त रामुसखदास जी ने
देहान्त के बाद भी अपना कोई चिन्ह शेष नहीं छोड़ा, जिससे कोई उनका स्मारक न बना सके।
चिताओं की अग्नि शान्त होने पर अचानक गंगा की एक
विशाल लहर आयी और वह समस्त अवशेषों को अपने साथ बहाकर ले गयी। इस प्रकार माँ गंगा
ने अपने प्रेमी पुत्र को बाहों में समेट लिया।
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4
जुलाई/स्थापना-दिवस
आजाद हिन्द फौज की स्थापना
सामान्य धारणा यह है कि आजाद हिन्द फौज और आजाद
हिन्द सरकार की स्थापना नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने जापान में की थी; पर इससे पहले प्रथम विश्व
युद्ध के बाद अफगानिस्तान में महान क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप ने आजाद
हिन्द सरकार और फौज बनायी थी। इसमें 6,000 सैनिक थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इटली में क्रान्तिकारी सरदार अजीत सिंह
ने ‘आजाद
हिन्द लश्कर’ बनाई
तथा ‘आजाद
हिन्द रेडियो’ का
संचालन किया। जापान में रासबिहारी बोस ने भी आजाद हिन्द फौज बनाकर उसका जनरल
कैप्टेन मोहन सिंह को बनाया। भारत को अंग्रेजों के चंगुल से सैन्य बल द्वारा मुक्त
कराना ही इस फौज का उद्देश्य था।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस 5 दिसम्बर, 1940 को जेल से मुक्त हो
गये; पर
उन्हें कोलकाता में अपने घर पर ही नजरबन्द कर दिया गया। 18 जनवरी, 1941 को नेताजी गायब होकर
काबुल होते हुए जर्मनी जा पहुँचे और हिटलर से भेंट की। वहीं सरदार अजीत सिंह ने
उन्हें आजाद हिन्द लश्कर के बारे में बताकर इसे और व्यापक रूप देने को कहा। जर्मनी
में बन्दी ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिकों से सुभाष बाबू ने भेंट की। जब उनके
सामने ऐसी सेना की बात रखी गयी, तो उन सबने इस योजना का स्वागत किया।
जापान में रासबिहारी बसु द्वारा निर्मित 'इण्डिया
इण्डिपेण्डेस लीग' (आजाद हिन्द संघ) का जून 1942 में एक सम्मेलन हुआ, जिसमें अनेक देशों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। इसके
बाद रासबिहारी बसु ने जापान शासन की सहमति से नेताजी को आमन्त्रित किया। मई 1943 में जापान आकर नेताजी ने
प्रधानमन्त्री जनरल तोजो से भेंट कर अंग्रेजों से युद्ध की अपनी योजना पर चर्चा
की। 16
जून को जापानी संसद में नेताजी को सम्मानित किया गया।
नेताजी 4 जुलाई, 1943 को आजाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति बने। जापान में कैद ब्रिटिश सेना के 32,000 भारतीय तथा 50,000 अन्य सैनिक भी इस
फौज में सम्मिलित हो गये। इस सेना की कई टुकड़ियाँ गठित की गयीं। वायुसेना, तोपखाना, अभियन्ता, सिग्नल, चिकित्सा दल के साथ गान्धी
ब्रिगेड, नेहरू
ब्रिगेड, आजाद
ब्रिगेड तथा रानी झाँसी ब्रिगेड बनायी गयी। इसका गुप्तचर विभाग और अपना रेडियो
स्टेशन भी था।
9
जुलाई को नेताजी ने एक समारोह में 60,000 लोगों को सम्बोधित करते हुए कहा, "यह सेना न केवल भारत को स्वतन्त्रता प्रदान
करेगी, अपितु
स्वतन्त्र भारत की सेना का भी निर्माण करेगी। हमारी विजय तब पूर्ण होगी, जब हम ब्रिटिश साम्राज्य को
दिल्ली के लाल किले में दफना देंगे। आज से हमारा परस्पर अभिवादन ‘जय हिन्द’ और हमारा नारा ‘दिल्ली चलो’ होगा।"
नेताजी ने 4 जुलाई, 1943 को ही ‘तुम
मुझे खून दो, मैं
तुम्हें आजादी दूँगा’ का उद्घोष किया। कैप्टेन शाहनवाज के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने रंगून से
दिल्ली प्रस्थान किया और अनेक महत्वपूर्ण स्थानों पर विजय पाई; पर अमरीका द्वारा जापान के
हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर परमाणु बम डालने से युद्ध का पासा पलट गया और जापान
को आत्मसमर्पण करना पड़ा।
भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में आजाद हिन्द फौज
का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि नेहरू जी के सुभाषचन्द्र बोस से गहरे मतभेद
थे। इसलिए आजाद भारत में नेताजी, आजाद हिन्द फौज और उसके सैनिकों को समुचित सम्मान नहीं मिला। यहाँ तक कि
नेताजी का देहान्त किन परिस्थितियों में हुआ, इस रहस्य से आज पर्दा नहीं उठा।
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4
जुलाई/जन्म-दिवस
सरल व सौम्य शालिगराम तोमर
संघ के वरिष्ठ प्रचारक, सरल व सौम्य व्यवहार के धनी, समयपालन व अनुशासनप्रिय श्री
शालिगराम तोमर का जन्म मध्य प्रदेश के शाजापुर जिले के ग्राम पोलायकलां में चार
जुलाई, 1941
को एक सामान्य किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री उमराव सिंह तथा माता
श्रीमती आशीबाई थीं।
शालिगराम जी की प्राथमिक शिक्षा अपने गांव में हुई।
गांव में शाखा लगने पर अपने बड़े भाई श्री रामप्रसाद तोमर के साथ वे भी शाखा में
जाने लगे। धीरे-धीरे संघ के विचार और शाखा के कार्यक्रमों के प्रति उनका अनुराग
बढ़ता चला गया। कुछ समय बाद उन्हें ही शाखा का मुख्यशिक्षक बना दिया गया। इस काल
में शाखा में भरपूर संख्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि हुई। अतः तहसील और जिले के
अनेक वरिष्ठ कार्यकर्ता उनकी शाखा पर आये।
तत्कालीन व्यवस्था के अनुसार अल्पावस्था में ही
उनका विवाह हो गया। उनकी पत्नी का नाम श्रीमती शांता देवी था। कुछ समय बाद उनके घर
में एक पुत्री ने जन्म लिया, जिसका नाम मानकुंवर रखा गया। अब वे अपनी आगामी शिक्षा पूर्ण करने के लिए जिला
केन्द्र शाजापुर आ गये। यहां पढ़ाई के साथ ही संघ कार्य की गति भी बढ़ने लगी। 1965 में हायर सैकेंड्री कर
उन्होंने स्वयं को संघ कार्य के लिए समर्पित कर दिया।
प्रारम्भ में वे राजगढ़ में
विस्तारक बनाये गये। क्रमशः उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण तथा बी.ए, मनोविज्ञान में एम.ए तथा
कानून की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। गृहस्थ होते हुए भी उनके जीवन में प्राथमिकता
सदा संघ कार्य को रही।
1967
में उन्हें उज्जैन का नगर प्रचारक बनाया गया। क्रमशः वे जिला और फिर उज्जैन के
विभाग प्रचारक बने। आपातकाल में पुलिस उन्हें तलाश ही करती रही। इनके नाम वारंट थे; पर वे भूमिगत रहकर
कार्यकर्ताओं को संगठित कर संघ पर प्रतिबन्ध और इंदिरा गांधी की तानाशाही के
विरुद्ध आंदोलन को तेज करते रहे। जो कार्यकर्ता जेल में थे, उनके परिवारों से जीवंत
सम्पर्क कर उनका उत्साह बनाये रखने में शालिगराम जी की प्रमुख भूमिका रही।
1978
में उन्हें 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद' के काम में लगाया गया। क्रमशः उनका
कार्यक्षेत्र बढ़ता गया और उन्होंने महाकौशल, मध्यप्रदेश, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश में विद्यार्थी परिषद के
कार्य को मजबूत किया। उस दौरान बने कई कार्यकर्ताओं ने भविष्य में राजनीतिक व
सामाजिक क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त की। शालिगराम जी ने संगठन के काम को
स्थायित्व देने के लिए उज्जैन में संघ तथा फिर विद्यार्थी परिषद के कार्यालय
बनवाये। भोपाल में भी उन्होंने शासन से भूमि आवंटित कराई और उस पर परिषद कार्यालय
बनवाया।
1992
में वे ब्रेन ट्यूमर के शिकार हो गये। शल्य चिकित्सा से कुछ लाभ तो हुआ; पर उसके दुष्प्रभाव से उनके
शरीर के निचले भाग पर लकवा मार गया। अतः वे अपने गांव पोलायकलां ही आ गये। यहां
उन्होंने मानव सेवा विकास न्यास, आदर्श श्रीकृष्ण गोशाला, निवेदिता महिला मंडल आदि का गठन किया। इनके द्वारा नेत्र शिविर, अनाज भंडारण आदि करते हुए वे
सेवा एवं ग्राम्य विकास के क्षेत्र में सक्रिय हो गये। उन्होंने विद्यालय खोलने के
लिए ग्राम सभा की आठ बीघा भूमि प्रदेश शासन को भी उपलब्ध कराई।
आगे चलकर तीन बार उनकी शल्यक्रिया और हुई; पर वे पूरी तरह स्वस्थ नहीं
हो पाये। 26
नवम्बर, 2010 को
उज्जैन के संजीवनी चिकित्सालय में उनका देहांत हुआ। उनकी शवयात्रा और श्रद्धांजलि
सभा में हजारों लोग आये। म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने शालिगराम जी को विद्यार्थी परिषद के
कार्य में अपना प्रेरणास्रोत बताया।
(संदर्भ :
पांचजन्य एवं दत्तक पुत्र श्री हंसराज तोमर का पत्र)
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5 जुलाई/जन्म-दिवस
सेवा और समर्पण के पुंज श्री अवधबिहारी जी
संघ के जीवनव्रती प्रचारक श्री अवधबिहारी जी का जन्म पांच जुलाई, 1926 को उ.प्र. के आजमगढ़ जिले और लालगंज तहसील के ग्राम पारा में हुआ था। वे मुंशी लक्ष्मी सहाय और श्रीमती जानकीदेवी की चौथी संतान थे। संघ से उनका संपर्क 1942 में हुआ, जब वे 16 वर्ष के किशोर थे। इसके बाद संघ के प्रति उनका प्रेम व समर्पण बढ़ता गया। 1946 में पढ़ाई को उन्होंने विराम दे दिया और प्रचारक बन कर संघ कार्य के लिए समर्पित हो गये। सरसंघचालक श्री गुरुजी का उनके जीवन पर विशेष प्रभाव था।
1946 से 1960 तक वे जौनपुर तथा वाराणसी तहसीलों में प्रचारक रहे। उन दिनों प्रचारकों को साइकिल और अपने पैरों का ही सहारा होता था। अवध जी ने इनके ही दम पर दूरस्थ क्षेत्रों में शाखाएं खड़ी कीं। 1961 से 1971 तक उन पर सुल्तानपुर और फिर फैजाबाद जिला प्रचारक का काम रहा। इसके बाद एक वर्ष सह विभाग प्रचारक और फिर विभाग प्रचारक के नाते 1977 तक उनका केन्द्र आजमगढ़ रहा। आपातकाल और संघ पर प्रतिबंध के दौरान, 1975 से 77 तक वे पूरे समय कारावास में रहे।
अवध जी की संघ के शारीरिक कार्यक्रमों में बहुत रुचि थी। पहले संघ शिक्षा वर्गों में लाठी, छुरिका, शूल, वेत्रचर्म आदि सिखाये जाते थे। फिर इनमें कुछ परिवर्तन हुआ। अवध जी और काशी वि.वि. के डा. शंकर तत्ववादी ने योगचाप (लेजम) सीख कर उसे संघ शिक्षा वर्गों में लागू कराया।
आपातकाल के बाद संघ की योजना से कई कामों को देशव्यापी बनाया गया। इनमें वनवासी और गिरिवासियों के बीच चलने वाला ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का काम भी था। ईसाई मिशन वाले सेवा के नाम पर उनके बीच घुसकर धर्मान्तरण करा रहे थे। उ.प्र. में इसे शुरू करने की जिम्मेदारी अवध जी को दी गयी। उन्होंने ‘सेवा समर्पण संस्थान’ के नाम से संस्था का पंजीकरण कराया।
पूर्वी उ.प्र. तथा पश्चिमी उ.प्र. के पर्वतीय क्षेत्र में कई जनजातियां रहती हैं। इनकी शैक्षिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। अवध जी ने इनके बीच सेवा के अनेक काम शुरू किये। इसके साथ ही असम, झारखंड, उड़ीसा आदि में चलने वाले वनवासी सेवा केन्द्रों के लिए उत्तर प्रदेश से धन भी एकत्र कर भेजा। 1982 से 1986 तक उनका केन्द्र रांची रहा। अब उन पर उत्तर प्रदेश के साथ बिहार का काम भी था।
1987 से 97 तक उन पर मध्य प्रदेश का काम रहा। वहां भोपाल, जबलपुर, रायपुर और जशपुर काम के बड़े केन्द्र थे। 1997 में कल्याण आश्रम के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री की जिम्मेदारी देकर फिर उनका केन्द्र रांची बनाया गया। 2007 में वृद्धावस्था के कारण ‘अखिल भारतीय कार्यकर्ता प्रमुख’ की जिम्मेदारी देकर उनके काम को कुछ हल्का किया गया; पर झारखंड में उनके सम्पर्कों की उपयोगिता देखते हुए उनका केन्द्र रांची ही रखा गया।
अवध जी एक आदर्श कार्यकर्ता थे। जनता सरकार में उन्हें ‘खादी ग्रामोद्योग बोर्ड’ का उपाध्यक्ष बनाया गया था। इससे उन्हें मानदेय और गाड़ी की सुविधा मिल गयी; पर उन्होंने कार लौटा दी और केवल एक रु. मानदेय लेना स्वीकार किया। कुछ साल बाद उन्होंने यह पद छोड़ दिया और इस दौरान भत्तों के रूप में प्राप्त 5,000 रु. भी कल्याण आश्रम को ही दे दिये।
अवध जी का जीवन बहुत सादगीपूर्ण था। धोती, कुर्ता, अंगोछा और एक झोले में जरूरी चीजें यही उनकी बाहरी पूंजी थी; पर अपने जीवन और व्यवहार से उन्होंने हजारों कार्यकर्ताओं को अनुप्राणित किया। उन्होंने सैकड़ों सेवा केन्द्र खोले, जिससे वनवासियों में धर्मान्तरण रुका और परावर्तन की प्रक्रिया शुरू हुई। ऐसे अधिकांश केन्द्र आज भी चल रहे हैं।
12 जुलाई, 2017 को सेवा और समर्पण के पुंज, श्री अवधबिहारी जी का निधन हुआ।
(संदर्भ : राष्ट्रधर्म जून, 2017 तथा 4.11.12 को प्रदत्त अभिनंदन पत्र)
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5 जुलाई/जन्म-दिवस
कर्मठ कार्यकर्ता रामदौर सिंह
पहले संघ और फिर भारतीय मजदूर संघ में कार्यरत वरिष्ठ प्रचारक श्री रामदौर सिंह का जन्म पांच जुलाई, 1941 को ग्राम अन्नापुर (जिला अम्बेडकर नगर, उ.प्र.) में श्री धर्मराज सिंह तथा श्रीमती धनंजया देवी के घर में हुआ था। 1956 में बाल्यवस्था में ही वे संघ के संपर्क में आकर शाखा जाने लगे। स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद उनकी नौकरी डाक विभाग में लग गयी; पर इस दौरान वे लगातार संघ का काम भी करते रहे। 1965 में वे कानपुर में नियुक्त थे। वहां वे एक खंड में सायं शाखाओं के कार्यवाह थे।
1964 में उन्होंने फैजाबाद से प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा फिर 1965 में लखनऊ से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग किया। इस समय तक वे संघ के विचार और कार्यप्रणाली से पूर्ण समरस हो चुके थे। अतः उन्होंने नौकरी छोड़कर प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया। सरकारी नौकरी छोड़ने का निर्णय आसान नहीं था। परिवार में इसका विरोध भी हुआ; पर उन्होंने एक बार निश्चय किया, तो फिर मुड़कर पीछे नहीं देखा। इसके बाद उन्होंने 1967 में लखनऊ से संघ शिक्षा वर्ग द्वितीय वर्ष तथा 1969 में तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया।
1965 से 70 तक वे मोहमदी, बिसवां व सिंधौली में तहसील प्रचारक रहे। 1971 में उन्हें शाहजहांपुर में जिला प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। इसके बाद आपातकाल तक वे यहां पर ही रहे। आपातकाल में शाहजहांपुर में भूमिगत कार्यों का संचालन करते हुए वे पकड़े गये और फिर उन्हें जेल भेज दिया गया। आपातकाल के बाद 1978 में उन्हें सीतापुर विभाग और फिर 1981 में गढ़वाल विभाग प्रचारक की जिम्मेदारी मिली। शारीरिक विषयों में तज्ञता के कारण वे कई बार संघ शिक्षा वर्ग में मुख्यशिक्षक भी रहे।
संघ के प्रचारक शाखा कार्य के साथ ही अन्य कई क्षेत्रों में भी काम करते हैं। रामदौर जी को 1983 में भारतीय मजदूर संघ में उत्तर प्रदेश के संगठन मंत्री के नाते भेजा गया। 1999 तक उन्होंने यह जिम्मेदारी निभाते हुए मजदूर क्षेत्र में सर्वत्र भगवा ध्वज को प्रतिष्ठा दिलायी। इसके बाद उनका कार्यक्षेत्र क्रमशः बढ़ता गया। भारतीय मजदूर संघ का काम देश के सभी उद्योगों में है। 2001 में उन्हें ‘अखिल भारतीय चीनी मिल मजदूर महासंघ’ की जिम्मेदारी दी गयी।
2005 में वे भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाये गये। अब उनका केन्द्र दिल्ली हो गया। उपाध्यक्ष के साथ ही दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर एवं हिमाचल प्रदेश में संगठन के काम को गति एवं स्थायित्व देने की जिम्मेदारी उन्हें मिली। 2011 में जलगांव में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्हें गुजरात और राजस्थान के संगठन मंत्री का काम दिया गया। 2014 के जयपुर अधिवेशन में उन्हें इनके साथ ही महाराष्ट्र, विदर्भ और गोवा का काम भी मिला।
रामदौर जी को जिस क्षेत्र का काम दिया जाता था, वहां पर काम तेजी से बढ़ता था। अतः सब कार्यकर्ता उन्हें अपने क्षेत्र में प्रवास के लिए बुलाते रहते थे। प्रवास में बार-बार पानी बदलता है तथा खानपान व सोने-जागने का समय भी अनियमित हो जाता है। इस कारण वरिष्ठ प्रचारकों को कई रोग घेर लेते हैं। रामदौर जी भी मधुमेह तथा उक्त रक्तचाप आदि के शिकार हो गये। फिर भी वे स्वास्थ्य की बजाय संगठन के काम को ही प्राथमिकता देते थे।
वे 23 दिसम्बर, 2015 को उदयपुर के प्रवास से लौटकर अपने केन्द्र जयपुर आये। उस समय वे कुछ अस्वस्थता अनुभव कर रहे थे। अतः उन्हें तुरंत डॉक्टर को दिखाया गया; पर इलाज से लाभ नहीं हुआ और अति प्रातः साढ़े तीन बजे उनका निधन हो गया। इस प्रकार एक परिश्रमी, कर्मठ, समर्पित और हंसमुख स्वभाव के प्रचारक ने अंतिम सांस तक सक्रिय रहते हुए चिर विश्रांति स्वीकार की।
(संदर्भ : जयपुर संघ कार्यालय से प्राप्त जानकारी)
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5
जुलाई/पुण्य-तिथि
हंसकर मृत्यु को अपनाने वाले अधीश जी
किसी ने लिखा है - तेरे मन कुछ और है, दाता के कुछ और। संघ के अखिल
भारतीय प्रचार प्रमुख श्री अधीश जी के साथ भी ऐसा ही हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
के लिए उन्होंने जीवन अर्पण किया; पर विधाता ने 52 वर्ष की अल्पायु में ही उन्हें अपने पास बुला लिया।
अधीश जी का जन्म 17 अगस्त,
1955 को आगरा के एक अध्यापक श्री जगदीश भटनागर एवं श्रीमती
उषादेवी के घर में हुआ। बालपन से ही उन्हें पढ़ने और भाषण देने का शौक था। 1968 में विद्या भारती द्वारा संचालित एक इण्टर कालिज के प्राचार्य श्री लज्जाराम तोमर ने उन्हें स्वयंसेवक
बनाया। धीरे-धीरे संघ के प्रति प्रेम बढ़ता गया और बी.एस-सी, एल.एल.बी करने के बाद 1973 में उन्होंने संघ कार्य
हेतु घर छोड़ दिया।
अधीश जी ने सर्वोदय के सम्पर्क में आकर खादी पहनने
का व्रत लिया और उसे आजीवन निभाया। 1975 में आपातकाल लगने पर वे जेल गये और भीषण अत्याचार सहे। आपातकाल के बाद उन्हें
विद्यार्थी परिषद में और 1981 में संघ कार्य हेतु मेरठ भेजा गया। मेरठ महानगर, सहारनपुर जिला, विभाग, मेरठ प्रान्त बौद्धिक प्रमुख, प्रचार प्रमुख आदि दायित्वों
के बाद उन्हें 1996 में लखनऊ भेजकर उत्तर प्रदेश के प्रचार प्रमुख का काम दिया गया।
प्रचार प्रमुख के नाते उन्होंने लखनऊ के 'विश्व
संवाद केन्द्र' के काम में नये आयाम जोड़े। अत्यधिक परिश्रमी, मिलनसार और वक्तृत्व कला के
धनी अधीश जी से जो भी एक बार मिलता, वह उनका होकर रह जाता। इस बहुमुखी प्रतिभा को देखकर संघ नेतृत्व ने उन्हें
अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख और फिर प्रचार प्रमुख का काम दिया। अब पूरे देश में
उनका प्रवास होने लगा।
अधीश जी अपने शरीर के प्रति प्रायः उदासीन रहते थे।
दिन भर में अनेक लोग उनसे मिलने आते थे, अतः बार-बार चाय पीनी पड़ती थी। इससे उन्हें कभी-कभी
शौचमार्ग से रक्त आने लगा। उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। जब यह बहुत बढ़ गया, तो दिल्ली में इसकी जाँच
करायी गयी। चिकित्सकों ने बताया कि यह कैंसर है और काफी बढ़ गया है।
यह जानकारी मिलते ही सब चिन्तित हो गये। अंग्रेजी, पंचगव्य और योग चिकित्सा
जैसे उपायों का सहारा लिया गया; पर रोग बढ़ता ही गया। मार्च 2007 में दिल्ली में जब फिर जाँच हुई, तो चिकित्सकों ने अन्तिम घण्टी बजा दी। उन्होंने साफ कह दिया कि अब दो-तीन
महीने से अधिक का जीवन शेष नहीं है। अधीश जी ने इसे हँसकर सुना और स्वीकार कर
लिया।
इसके बाद उन्होंने एक विरक्त योगी की भाँति अपने मन
को शरीर से अलग कर लिया। अब उन्हें जो कष्ट होता, वे कहते यह शरीर को है, मुझे नहीं। कोई पूछता कैसा
दर्द है, तो
कहते, बहुत
मजे का है। इस प्रकार वे हँसते-हँसते हर दिन मृत्यु की ओर बढ़ते रहे। जून के अन्तिम
सप्ताह में ठोस पदार्थ और फिर तरल पदार्थ भी बन्द हो गये।
चार जुलाई, 2007 को वे बेहोश हो गये। इससे पूर्व उन्होंने अपना सब
सामान दिल्ली संघ कार्यालय में कार्यकर्त्ताओं को दे दिया। बेहोशी में भी वे संघ
की ही बात बोल रहे थे। घर के सब लोग वहाँ उपस्थित थे। उनका कष्ट देखकर पाँच जुलाई
शाम को माता जी ने उनके सिर पर हाथ रखकर कहा - बेटा अधीश, निश्चिन्त होकर जाओ। जल्दी
आना और बाकी बचा संघ का काम करना। इसके कुछ देर बाद ही अधीश जी ने देह त्याग दी।
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जुलाई/जन्म-दिवस
सन्त विज्ञानी प्रो. दौलत सिंह कोठारी
भौतिक विज्ञान के महान शिक्षक डा. कोठारी का जन्म छह जुलाई, 1906 को उदयपुर में एक
अध्यापक श्री फतेहलाल के घर में हुआ था। पाँच भाई-बहिनों में सबसे बड़े दौलत सिंह
जब 12
वर्ष के थे, तब
इनके पिता का देहान्त हो गया। ऐसे में उनके पिता के मित्र सिरेमल बापना ने उन्हें
इन्दौर में अपने घर रखकर पढ़ाया।
दौलत सिंह ने 1924 में इण्टर की परीक्षा में गणित, भौतिकी तथा रसायन में
विशिष्टता के साथ राजपूताना बोर्ड में प्रथम स्थान पाया। फिर प्रयाग विश्वविद्यालय
से 1928
में एम.एस-सी. परीक्षा प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक लेकर उत्तीर्ण की। उन दिनों
प्रो. मेघनाद साहा भौतिक विभाग के अध्यक्ष थे। उनके प्रस्ताव पर वे एम.एस-सी. करते ही
विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे।
1930 में छात्रवृत्ति पाकर वे कैम्ब्रिज में शोध के लिए चले गये, जहाँ उन्होंने नोबुल
पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अर्नस्ट रदरफोर्ड के साथ काम किया। पी-एच.डी. कर वे फिर
प्रयाग आ गये। 1934 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय में भौतिक विभाग के अध्यक्ष बने। वहाँ केवल
बी.एस-सी. तक की कक्षाएँ चलती थीं। प्रयोगशाला में उपकरण भी बहुत कम थे; पर उनके नेतृत्व में
धीरे-धीरे उच्च कक्षाएँ प्रारम्भ हुईं तथा प्रयोगशाला भी सुसज्जित की गयी।
डा. कोठारी सादगी और मितव्ययिता से रहते थे। विदेश में भी वे सदा शाकाहारी ही
रहे। उनके पुत्र के विवाह में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन के साथ
विश्वविद्यालय के माली और चपरासी भी आमन्त्रित थे। डा. कोठारी ने सबको उचित
मान-सम्मान दिया।
1977
में दिल्ली विश्वविद्यालय में राजकृष्ण जैन स्मृति व्याख्यान के समय उन्हें 10,000 रु. मानदेय दिया गया, उन्होंने उससे विश्वविद्यालय
के पुस्तकालय के लिए गीता, श्री अरविन्द एवं गान्धी जी की पुस्तकें खरीदने को कहा। 1989 में उन्होंने ‘अणुव्रत पुरस्कार’ के साथ मिलने वाले एक लाख रु. भी नहीं लिये। 1948 से 1961 तक वे प्राध्यापक के साथ
रक्षा मन्त्रालय के वैज्ञानिक सलाहकार भी रहे; पर उन्होंने वेतन केवल विश्वविद्यालय से ही लिया।
डा. कोठारी ने अपने जीवन में अनेक महत्त्वपूर्ण पदों को विभूषित किया। वैज्ञानिक
व तकनीकी शब्दावली आयोग के अध्यक्ष; विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष; भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के अध्यक्ष; शिक्षा आयोग के अध्यक्ष; भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान
अकादमी के अध्यक्ष, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति आदि अनेक जिम्मेदारियाँ उन्होंने
निभायीं।
रक्षा मन्त्रालय के सलाहकार रहते हुए उन्होंने डी.आर.डी.ओ. का गठन कराया, जिसमें इस समय 25,000 वैज्ञानिक कार्यरत
हैं। भारतीय सेना के लिए आधुनिक अस्त्र-शस्त्र बनाने में इस संस्थान की भूमिका
अतुलनीय है।
डा. कोठारी शाम की चाय अपने सहयोगी प्राध्यापकों के साथ पीते समय नये शोधपत्रों
पर चर्चा करते थे। अनेक प्राध्यापकों को उन्होंने पुस्तक लिखने को प्रेरित किया।
वे उन्हें आगे बढ़ता देख प्रसन्न होते थे। उनका सूत्रवाक्य था - बुद्धिमानी से चुनो
और पूरी तरह विश्वास करो।
वैज्ञानिक होने के बाद भी उनकी रुचि धर्म में बहुत
थी। जब उनका पौत्र रंजन शोधकार्य के लिए अमरीका गया, तो उन्होंने उसे श्रीमद् भगवद्गीता की एक प्रति
भेंट की। 1962
में 'पद्मभूषण' तथा 1973 में 'पद्मविभूषण' से सम्मानित महान अध्यापक, सन्त विज्ञानी प्रो। दौलत सिंह कोठारी का देहान्त चार फरवरी, 1993 को हुआ।
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6
जुलाई/जन्म-दिवस
नारी जागरण की अग्रदूत लक्ष्मीबाई केलकर
बंगाल विभाजन के विरुद्ध हो रहे आन्दोलन के दिनों
में छह जुलाई, 1905 को नागपुर में कमल नामक बालिका का जन्म हुआ। तब किसे पता था कि भविष्य में यह
बालिका नारी जागरण के एक महान संगठन का निर्माण करेगी।
कमल के घर में देशभक्ति का वातावरण था। उसकी माँ जब
लोकमान्य तिलक का अखबार ‘केसरी’ पढ़ती
थीं, तो
कमल भी गौर से उसे सुनती थी। केसरी के तेजस्वी विचारों से प्रभावित होकर उसने
निश्चय किया कि वह दहेज रहित विवाह करेगी। इस जिद के कारण उसका विवाह 14 वर्ष की अवस्था में वर्धा
के एक विधुर वकील पुरुषोत्तमराव केलकर से हुआ, जो दो पुत्रियों के पिता थे। विवाह के बाद उसका नाम
लक्ष्मीबाई हो गया।
अगले 12 वर्ष में लक्ष्मीबाई ने छह पुत्रों को जन्म दिया। वे एक आदर्श व जागरूक
गृहिणी थीं। मायके से प्राप्त संस्कारों का उन्होंने गृहस्थ जीवन में पूर्णतः पालन
किया। उनके घर में स्वदेशी वस्तुएँ ही आती थीं। अपनी कन्याओं के लिए वे घर पर एक
शिक्षक बुलाती थीं। वहीं से उनके मन में कन्या शिक्षा की भावना जन्मी और उन्होंने
एक बालिका विद्यालय खोल दिया।
रूढ़िग्रस्त समाज से टक्कर लेकर उन्होंने घर में
हरिजन नौकर रखे। गान्धी जी की प्रेरणा से उन्होंने घर में चरखा मँगाया। एक बार जब
गान्धी जी ने एक सभा में दान की अपील की, तो लक्ष्मीबाई ने अपनी सोने की ज॰जीर ही दान कर दी।
1932
में उनके पति का देहान्त हो गया। अब अपने बच्चों के साथ बाल विधवा ननद का दायित्व
भी उन पर आ गया। लक्ष्मीबाई ने घर के दो कमरे किराये पर उठा दिये। इससे आर्थिक
समस्या कुछ हल हुई। इन्हीं दिनों उनके बेटों ने संघ की शाखा पर जाना शुरू किया।
उनके विचार और व्यवहार में आये परिवर्तन से लक्ष्मीबाई के मन में संघ के प्रति
आकर्षण जगा और उन्होंने संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से भेंट की।
डा. हेडगेवार ने उन्हें बताया कि संघ में स्त्रियाँ नहीं आतीं। तब उन्होंने 1936 में स्त्रियों के लिए ‘राष्ट्र सेविका समिति’ नामक एक नया संगठन प्रारम्भ
किया। समिति के कार्यविस्तार के साथ ही लक्ष्मीबाई ने नारियों के हृदय में श्रद्धा
का स्थान बना लिया। सब उन्हें ‘वन्दनीया मौसीजी’ कहने लगे। आगामी दस साल के निरन्तर प्रवास से समिति के कार्य का अनेक
प्रान्तों में विस्तार हुआ।
1945
में समिति का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। देश की स्वतन्त्रता एवं विभाजन से एक
दिन पूर्व वे कराची, सिन्ध में थीं। उन्होंने सेविकाओं से हर परिस्थिति का मुकाबला करने और अपनी
पवित्रता बनाये रखने को कहा। उन्होंने हिन्दू परिवारों के सुरक्षित भारत पहुँचने
के प्रबन्ध भी किये।
मौसीजी स्त्रियों के लिए जीजाबाई के मातृत्व, अहल्याबाई के कर्तृत्व तथा
लक्ष्मीबाई के नेतृत्व को आदर्श मानती थीं। उन्होंने अपने जीवनकाल में बाल मन्दिर, भजन मण्डली, योगाभ्यास केन्द्र, बालिका छात्रावास आदि अनेक
प्रकल्प प्रारम्भ किये। वे रामायण पर बहुत सुन्दर प्रवचन देतीं थीं। उनसे होने
वाली आय से उन्होंने अनेक स्थानों पर समिति के कार्यालय बनवाये।
27
नवम्बर, 1978
को नारी जागरण की अग्रदूत वन्दनीय मौसीजी का देहान्त हुआ। उन द्वारा स्थापित
राष्ट्र सेविका समिति आज विश्व के 25 से भी अधिक देशों में सक्रिय है।
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6
जुलाई/जन्म-दिवस
वैचारिक स्तम्भ प्यारेलाल खण्डेलवाल
फिसलन भरे राजनीतिक क्षेत्र में अपनी चादर को साफ
रखना तो कठिन है ही; लेकिन सत्ता और गठबंधन के काल में अपने दल को विचारधारा पर डटे रहने के लिए
बाध्य करना और भी कठिन है। प्यारेलाल खंडेलवाल ऐसे ही एक दृढ़वती कार्यकर्ता थे।
उनका जन्म 6
जुलाई, 1929 को
ग्राम चारमंडली (जिला
सीहोर, म. प्र.) में एक किसान परिवार में हुआ था। 11 वर्ष की किशोरावस्था में वे स्वयंसेवक बने। वे 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में सहभागी हुए। उन्होंने
इंदौर में क्रांतिवीरों और देशभक्तों के समूह प्रजामंडल द्वारा प्रकाशित पत्रकों
का गुप्त रूप से वितरण किया। माहेश्वरी विद्यालय में वंदे मातरम् गाकर छात्र
आंदोलन का नेतृत्व किया और जेल की यातना भोगी।
1948
में जब संघ पर प्रतिबंध लगा, तो अनेक युवाओं ने इस संकट को दूर कर संघ कार्य की वृद्धि के लिए अपना जीवन
समर्पित करने का निश्चय किया। प्यारेलाल जी भी उनमें से एक थे। प्रतिबंध के
विरुद्ध सत्याग्रह कर वे इंदौर और रतलाम की जेल में बंद रहे। उनके प्रचारक जीवन का
प्रारम्भ इंदौर से हुआ। नगर, जिला, विभाग
प्रचारक आदि दायित्व संभालने के बाद 1964 में उन्हें मध्य प्रदेश में जनसंघ का संगठन मंत्री बनाया गया। उन्होंने
कुशाभाऊ ठाकरे के साथ गांव-गांव घूमकर जनसंघ का संगठन खड़ा किया।
इससे पूर्व वे 'कश्मीर बचाओ' आंदोलन के अन्तर्गत 1953 में कठुआ और जम्मू की जेल में भी बंद रहे। आपातकाल में वे पुलिस की पकड़ से
फरार हो गये और फिर पूरे समय म'प्र' में ‘लोक
संघर्ष समिति’ के
सूत्रधार बने रहेे।
संगठन मंत्री प्रायः चुनाव नहीं लड़ते; पर जब संगठन ने उन्हें आदेश
दिया, तो
वे म'प्र' कांग्रेस के स्तम्भ
दिग्विजय सिंह को उनके गृहक्षेत्र राजगढ़ से हराकर लोकसभा के सदस्य बने। 1988 में उनके ‘ग्राम राज अभियान’ के बल पर ही 1990 में भाजपा म'प्र' की सत्ता पा सकी। उन्होंने
प्रदेश के अनुसूचित जाति एवं जनजातीय लोगों के उत्थान के लिए भी विशेष अभियान
चलाया। 1988
में ही उन्होंने किसानों की समस्याओं की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए एक सप्ताह की
भूख हड़ताल की। इससे कारण केन्द्र शासन को प्रदेश को सूखा पीड़ित क्षेत्र घोषित करना
पड़ा।
प्यारेलाल जी नेता कम और धरती से जुड़े कार्यकर्ता
अधिक थे। उनकी उपस्थिति ही कार्यकर्ताओं में उत्साह भर देती थी। चुनाव में वे
हैलिक१प्टर की बजाय कार से प्रवास करते थे। इसीलिए उनके अनुमान सदा ठीक निकलते थे।
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा को सत्ता दिलाने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका है।
जब भाजपा को केन्द्र में सत्ता मिली, तो सत्ता की मलाई खाने के लिए कई लोग भाजपा से जुड़ गयेे। इनके कारण भाजपा कई
बार मूल विचारधारा से विचलित होती दिखी। ऐसे में प्यारेलाल जी सदा वैचारिक आस्था, कोष की शुचिता और अनुशासन की
बात करते थे।
सत्ता के दिनों में कई लोग वैभव के सांचों में ढल
गये; पर
प्यारेलाल जी दिल्ली में भाजपा कार्यालय के अपने पुराने कमरे में ही रहे। उन्हें
सांसद के नाते मिले आवास का सदा संगठन की गतिविधियों के लिए उपयोग हुआ। उन्हें दो
बार राज्यसभा में भेजा गया। दूसरी बार उन्होंने किसी और को भेजने को कहा; पर दल ने आग्रहपूर्वक उन्हें
ही भेजा।
कैंसर तथा वृद्धावस्था संबंधी अनेक रोगों से पीड़ित प्यारेलाल जी का 6 अक्तूबर, 2009 को दिल्ली में ही
देहांत हुआ। उनका अंतिम संस्कार उनकी कर्मस्थली भोपाल में किया गया। वे भाजपा के
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, महासचिव तथा केन्द्रीय चुनाव समिति के सदस्य रहेे।
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7
जुलाई/जन्म-दिवस
शौर्यपूर्ण व्यक्तित्व राव हमीर
भारत के इतिहास में राव हमीर को वीरता के साथ ही उनकी
हठ के लिए भी याद किया जाता है। उनकी हठ के बारे में कहावत प्रसिद्ध है -
सिंह सुवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार
तिरिया तेल हमीर हठ, चढ़ै न दूजी बार।।
अर्थात सिंह एक ही बार संतान को जन्म देता है।
सच्चे लोग बात को एक ही बार कहते हैं। केला एक ही बार फलता है। स्त्री को एक ही
बार तेल एवं उबटन लगाया जाता है अर्थात उसका विवाह एक ही बार होता है। ऐसे ही राव
हमीर की हठ है। वह जो ठानते हैं, उस पर दुबारा विचार नहीं करते।
राव हमीर का जन्म सात जुलाई, 1272 को चौहानवंशी राव
जैत्रसिंह के तीसरे पुत्र के रूप में अरावली पर्वतमालाओं के मध्य बने रणथम्भौर
दुर्ग में हुआ था। बालक हमीर इतना वीर था कि तलवार के एक ही वार से मदमस्त हाथी का
सिर काट देता था। उसके मुक्के के प्रहार से बिलबिला कर ऊंट धरती पर लेट जाता था।
इस वीरता से प्रभावित होकर राजा जैत्रसिंह ने अपने जीवनकाल में ही 16 दिसम्बर, 1282 को उनका राज्याभिषेक
कर दिया।
राव हमीर ने अपने शौर्य एवं पराक्रम से चौहान वंश
की रणथम्भौर तक सिमटी सीमाओं को कोटा, बूंदी, मालवा
तथा ढूंढाढ तक विस्तृत किया। हमीर ने अपने जीवन में 17 युद्ध किये, जिसमें से 16 में उन्हें सफलता मिली। 17 वां युद्ध उनके विजय अभियान
का अंग नहीं था।
उन्होंने अपनी हठ के कारण दिल्ली के तत्कालीन शासक अलाउद्दीन
खिलजी के एक भगोड़े सैनिक मुहम्मदशाह को शरण दे दी। हमीर के शुभचिंतकों ने बहुत
समझाया; पर
उन्होंने किसी की नहीं सुनी। उन्हें रणथम्भौर दुर्ग की अभेद्यता पर भी विश्वास था, जिससे टकराकर जलालुद्दीन
खिलजी आदि वापस लौट चुके थे।
कुछ वर्ष बाद जलालुद्दीन की हत्याकर दिल्ली की
गद्दी पर उसका भतीजा अलाउद्दीन खिलजी बैठ गया। वह अति समृद्ध गुजरात पर हमला करना
चाहता था; पर
रणथम्भौर उसके मार्ग की बाधा बना था। अतः उसने पहले इसे ही जीतने की ठानी; पर हमीर की सुदृढ़ एवं
अनुशासित वीर सेना ने उसे कड़ी टक्कर दी।
11 मास तक रणथम्भौर से सिर टकराने के बाद सेनापतियों
ने उसे लौट चलने की सलाह दी; पर अलाउद्दीन ने कपट नीति अपनाकर किले के रसद वाले मार्ग को रोक लिया तथा कुछ
रक्षकों को भी खरीद लिया; लेकिन हर बार की तरह इस बार भी उसे पराजित होना पड़ा।
कहते हैं कि जब हमीर की सेनाओं ने अलाउद्दीन को हरा
दिया, तो
हिन्दू सैनिक उत्साह में आकर शत्रुओं से छीने गये झंडों को ही ऊंचाकर किले की ओर
बढ़ने लगे। इससे दुर्ग की महिलाओं ने समझा कि शत्रु जीत गया है। अतः उन्होंने जौहर
कर लिया। राव हमीर जब दुर्ग में पहुंचे, तो यह दृश्य देखकर उन्हें राज्य और जीवन से
वितृष्णा हो गयी। उन्होंने अपनी ही तलवार से सिर काटकर अपने आराध्य भगवान शिव को
अर्पित कर दिया। इस प्रकार केवल 29 वर्ष की अल्पायु में 11 जुलाई, 1301
को हमीर का शरीरांत हुआ।
राव हमीर पराक्रमी होने के साथ ही विद्वान, कलाप्रेमी, वास्तुविद एवं प्रजारक्षक
राजा थे। प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य महर्षि शारंगधर की ‘शारंगधर संहिता’ में हमीर द्वारा रचित श्लोक
मिलते हैं। रणथम्भौर के खंडहरों में विद्यमान बाजार, व्यवस्थित नगर, महल, छतरियां आदि इस बात के गवाह हैं कि उनके राज्य में प्रजा सुख से रहती थी। यदि
एक विद्रोही को शरण देने की हठ वे न ठानते, तो शायद भारत का इतिहास कुछ और होता। वीर सावरकर ने
हिन्दू राजाओं के इन गुणों को ही ‘सद्गुण विकृति’ कहा है। (संदर्भ : राष्ट्रधर्म, जुलाई 2010)
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7
जुलाई/जन्म-दिवस
मानवता के हमदर्द गुरु हरिकिशन जी
सिख पन्थ के इतिहास में आठवें गुरु हरिकिशन जी का
बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है। सात जुलाई,
1657 को जन्मे गुरु हरिकिशन जी को बहुत छोटी अवस्था में गुरु
गद्दी प्राप्त हुई तथा छोटी आयु में ही बीमारी के कारण उन्होंने देह त्याग दी; पर इस अल्प जीवन में भी
उन्होंने वह काम किया, जिसके कारण उन्हें मानवता का हमदर्द माना जाता है। प्रतिदिन गुरुद्वारों में
प्रार्थना के समय उनकी चर्चा करते हुए कहा जाता है - श्री हरिकिशन धियाइये, जिन डिट्ठे सब दुख जाये।
ऐसा कहते हैं कि सातवें गुरु हरिराय जी को सदा यह
चिन्ता लगी रहती थी कि उनके बाद गुरु गद्दी कौन सँभालेगा। एक बार उन्होंने परीक्षा
लेने के लिए एक भक्त को कहा कि नाम स्मरण के समय बड़े पुत्र रामराय तथा छोटे पुत्र
हरिकिशन को सुई चुभा कर देखे। भक्त ने दोनों को सुई चुभाई, तो रामराय आपे से बाहर हो
गये; पर
हरिकिशन जी को उसका पता ही नहीं लगा। तब से गुरु हरिराय जी ने उन्हें गद्दी सौंपने
का मन बना लिया। रामराय ने मुगल बादशाह औरंगजेब से सम्मान पाने के लिए गुरुवाणी के
शब्द में बदल भी की थी। इससे समस्त सिख जगत उनसे नाराज था।
गुरु हरिकिशन जी बचपन से ही प्रतापी, उदारचित्त एवं सन्त स्वभाव
के थे। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा बालगुरु हुआ हो, जिसने मानवता की भलाई के लिए सर्वस्व न्यौछावर कर
दिया हो। हरिकिशन जी के काल में एक बार दिल्ली में महामारी फैल गयी। दूर-दूर तक
हैजे और चेचक से पीड़ित लोग ही नजर आते थे। ऐसे में हरिकिशन जी ने सबको ‘वाहे गुरु’ नाम जपने का सन्देश दिया।
उन्होंने निर्धन तथा रोग पीड़ित लोगों के लिए लंगर की व्यवस्था कराई तथा तन, मन और धन से उनकी सेवा की। इस
सेवा कार्य में उन्होंने हिन्दू या मुसलमान का भेद नहीं किया। इस कारण हिन्दू इनको
बाला प्रीतम या बाला गुरु तथा मुसलमान बाला पीर कहते थे।
सेवा के बारे मे गुरु हरिकिशन जी ने कहा है - सेवा करते होवे सिंह कामी, तिसको प्रापत होवे स्वामी।।
इस सेवा कार्य में व्यस्त रहने के कारण उन्हें
स्वयं रोगों ने घेर लिया। इसके बाद भी वे अपने से अधिक चिन्ता दूसरों की ही करते
रहे। जब उनका रोग बहुत बढ़ गया, तो उन्हें अनुमान हो गया कि अब यह शरीर जाने वाला है। उन्होंने समस्त संगत तथा
अपनी माता को दुखी देखकर कहा -
अब हम पुरधाम को जावै, तन तजि जोत समावै।।
अब समस्या आयी कि उनके बाद गुरु गद्दी का वारिस कौन
होगा ? तब
तक सिख पन्थ का प्रभाव इतना बढ़ चुका था कि अनेक लोग इस सर्वोच्च स्थान को पाने के
इच्छुक थे। जब संगत ने गुरु हरिकिशन जी इस बारे में कुछ पूछा, तो उनके मुख से निकला - बाबा
बकाला। यह बात फैलते ही बकाला गाँव में कई लोग धर्मात्मा का स्वांग कर बैठ गये; पर अन्ततः श्री तेगबहादुर जी
को यह स्थान प्राप्त हुआ।
मानवता के सच्चे सेवक गुरु हरिकिशन जी की ज्योति 30 मार्च, 1664 को उस परम ज्योति
में समा गयी। उन्होंने संसार को दिखा दिया कि सेवा कार्य या आध्यात्मिक उन्नति के
मार्ग में उम्र कोई बाधा नहीं है। यदि किसी पर ईश्वर और गुरु की कृपा हो, तो वह अल्पावस्था में ही
उच्च पद पा सकता है।
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7 जुलाई/पुण्य-दिवस
डचों को धूल चटाने वाले मार्तंड वर्मा
दुनिया में समय-समय पर कई देशों का उत्थान और फिर पतन हुआ है। इंग्लैंड, चीन, रूस, अमरीका आदि इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। ऐसे ही किसी समय डच/नीदरलैंड का बड़ा प्रभाव था। उसकी नौसेना अजेय मानी जाती थी; पर त्रावणकोर के राजा मार्तंड वर्मा ने उन्हें ऐसा सबक सिखाया कि उनकी साख दुनिया में लगातार घटती ही चली गयी।
अभिझम तिरुनल मार्तंड वर्मा का जन्म 1706 में वेनाड राजपरिवार में हुआ था। उनकी माता रानी कार्तिक तिरुनल तथा पिता राघव वर्मा थे। वेनाड एक छोटा राज्य था, जिसके राजकाज में नायर जमीदारों तथा पद्मनाभस्वामी मंदिर का हस्तक्षेप रहता था। उन दिनों केरल में कई छोटी रियासतें थीं। मार्तंड वर्मा ने राज्य के विस्तार पर ध्यान दिया और कोल्लम, कयमकुलम, कोटाराकारा...आदि को जीतकर त्रावणकोर साम्राज्य की स्थापना की। इससे काली मिर्च उत्पादक अधिकांश क्षेत्र उनके पास आने से अर्थव्यवस्था में भारी तेजी आयी।
उन दिनों केरल की काली मिर्च दुनिया भर में अच्छी कीमत पर बिकती थी। 1605 में बनी ‘डच ईस्ट इंडिया कंपनी’ काली मिर्च, चीनी तथा अन्य मसालों का भी व्यापार करती थी। व्यापार के साथ उसने अपना साम्राज्य बढ़ाया और बंगाल, सूरत, बर्मा तथा सीलोन/श्रीलंका तक फैल गयी। कोच्चि बंदरगाह पर तो उसका एकाधिकार ही था। मार्तंड वर्मा से पराजित कई राजा कंपनी के पास गये। डचों ने चेतावनी देते हुए उनकी रियासत वापस देने को कहा।
सीलोन के गवर्नर गुस्ताफ विलेम को लगता था कि राजा डर जाएगा; पर मार्तंड वर्मा ने उन्हें राज्य के निजी मामलों में दखल न देने को कहा। इस पर डचों ने कोट्टाकारा की सेना के साथ मिलकर हमला बोल दिया। डच सेना ने कोलाचेल (वर्तमान कन्याकुमारी) को अपना केन्द्र बनाया। उनकी सेना में 400 समुद्री जहाज, सैकड़ों तोपें तथा 50,000 सैनिक थे; पर स्थानीय मछुआरों तथा मार्तंड वर्मा के वीरों ने उनके हथियारों के गोदाम में ही आग लगा दी। इससे घबराकर 10 अगस्त, 1741 को डच सेना ने घुटने टेक दिये।
इस युद्ध में डच कमांडर डी लेननोय तथा उपकमांडर डोरदी सहित 11,000 सैनिक बंदी बनाये गये। डच सेना को कोचीन तक खदेड़ कर उनके सब किलों पर कब्जा कर लिया गया। इस जीत के उपलक्ष्य में कोलाचेल में एक विजय स्तम्भ बनाया गया। भारत सरकार ने भी वहां एक शिलापट लगाया है। पराजित डचों और मार्तंड वर्मा में ‘मवेलिक्कारा की संधि’ हुई। इससे डचों को इंडोनेशिया से शक्कर लाने तथा काली मिर्च का व्यापार करने की अनुमति मिली। बदले में उन्हें यूरोप के आधुनिक हथियार और गोला बारूद यहां देने थे। अब मार्तंड वर्मा ने अम्बालपुझा, कोट्टायम, मीनचिल, चंगनसेरी, करपुक्कम, अलंगड आदि को भी अपने साम्राज्य में मिला लिया।
मार्तंड वर्मा ने डच कमांडर को मारा नहीं। इसके बदले उसने त्रावणकोर की सेना को आधुनिक प्रशिक्षण दिया। इससे पूर्व नायर जमीदारों की निजी सेनाएं होती थीं। मार्तंड वर्मा ने उनके सहयोग से 50,000 संख्या की मजबूत नौसेना बनायी। सागर पर निगरानी के लिए आधुनिक तोपों से लैस नये किले तथा लगातार गश्त के लिए अश्वारोही टुकडि़यां बनायी गयीं। शासन में सुधार से शिक्षा, व्यापार, धर्म, पर्यटन, कला आदि का विस्तार हुआ।
तिरुवनंतपुरम के विख्यात पद्मनाभस्वामी मंदिर का पुननिर्माण उन्होंने ही किया था। फिर अपनी सारी सम्पत्ति मंदिर को देकर स्वयं भगवान विष्णु के दास के रूप में राज्य किया। कुछ वर्ष पूर्व जब उसके कुछ तहखाने खोले गये, तो उनमें अकूत संपदा निकली। इससे तत्कालीन त्रावणकोर राज्य की संपन्नता पता लगती है। 29 वर्ष के शासन के बाद सात जुलाई, 1758 को ऐसे वीर, कुशल प्रशासक, धर्मपे्रमी और भविष्यद्रष्टा राजा का देहांत हुआ।
(पाथेय कण, 16.7.2020/विकी)
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7
जुलाई/जन्म-दिवस
अमर कहानीकार चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’
हिन्दी साहित्य में बहुत कम रचनाओं के बावजूद जो
साहित्यकार अमर हुए हैं, उनमें से एक श्री चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का
जन्म 7
जुलाई, 1883
को संस्कृत कॉलिज, जयपुर के प्राचार्य महोपाध्याय पण्डित शिवराम शास्त्री के घर में हुआ था। इनके
पूर्वज हिमाचल प्रदेश के काँगड़ा जिले में स्थित गुलेर गाँव के मूल निवासी थे। इसी
से यह वंश ‘गुलेरी’ कहलाया।
शास्त्री जी प्राचार्य के साथ-साथ जयपुर राजदरबार
के धार्मिक परामर्शदाता भी थे। उनकी पत्नी श्रीमती लक्ष्मीदेवी भी विदुषी तथा
धर्मपरायण महिला थीं। इसका प्रभाव इन पर भी पड़ा। छह वर्ष की अवस्था में ही
इन्होंने अमरकोष के सौ से अधिक श्लोक तथा अष्टाध्यायी के दो अध्याय कण्ठस्थ कर
लिये थे।
11
वर्ष की अवस्था में इन्होंने पण्डित दीनदयाल शर्मा एवं महामना मदनमोहन मालवीय जी
द्वारा स्थापित ‘भारत
धर्म महामण्डल’ के
वार्षिकोत्सव में सबको अपने धाराप्रवाह संस्कृत भाषण से सम्मोहित कर लिया था।
1897
से इनकी विद्यालयीन शिक्षा प्रारम्भ हुई। छात्र जीवन में प्रायः सभी परीक्षाएँ
इन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। इससे इन्हें अनेक पुरस्कार, छात्रवृत्तियाँ तथा सम्मान
मिले। इनका हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषा पर अच्छा अधिकार था। इसके अतिरिक्त ये अनेक भारतीय
तथा विदेशी भाषाओं के भी जानकार थे। 1900 ई. में इन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के सहयोग से जयपुर में ‘नागरी भवन’ की
स्थापना कर उसके पुस्तकालय को दुर्लभ ग्रन्थों एवं पाण्डुलिपियों से समृद्ध किया।
1902
में शासन ने जयपुर के मान मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया, तो अंग्रेज अभियन्ताओं के
साथ इन्हें भी परामर्शदाता बनाया गया। फिर इन्होंने कैप्टन गैरट के साथ ‘जयपुर आब्जरवेटरी बिल्डर्स’ नामक विशाल ग्रन्थ का
निर्माण तथा ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सम्राट सिद्धान्त’ का अंग्रेजी अनुवाद किया। 1904 में वे मेयो कॉलेज, अजमेर में संस्कृत के
अध्यापक बने।
वे हिन्दी तथा संस्कृत की अनेक सभा, समितियों के सदस्य तथा
अध्यक्ष रहे। भाषा-शास्त्रियों में उनकी अच्छी ख्याति थी। उनकी प्रतिभा देखकर 1920 में शारदा पीठाधीश्वर
जगदगुरु शंकराचार्य ने उन्हें ‘इतिहास दिवाकर’ की उपाधि से विभूषित किया था। इसी वर्ष मालवीय जी के अनुरोध पर उन्होंने काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राच्य विभाग के प्राचार्य का पदभार सँभाला।
गुलेरी जी ने 1900 से 1922 तक प्रचुर साहित्य रचा; जो तत्कालीन पत्रों में प्रकाशित भी हुआ; पर वह सब एक स्थान पर संकलित न होने के कारण उनका
सही मूल्यांकन नहीं हो पाया। ऐसी मान्यता है कि उन्होंने केवल तीन कहानियाँ लिखीं; पर उन्हें अमर बनाने का
श्रेय उनकी एक कहानी ‘उसने कहा था’ को है, जिसमें
प्रथम विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में किशोर अवस्था के प्रेम का बहुत मार्मिक वर्णन
है।
गुलेरी जी अपने गाँव वर्ष में एक-दो बार ही आते थे; पर उनके साहित्य में पहाड़ी
शब्दों, कहावतों, परम्पराओं, नदी, पर्वतों आदि की भरपूर चर्चा
है। यह उनके प्रकृति के प्रति अतिशय प्रेम का परिचायक है।
27
अगस्त, 1922
को उनकी भाभी का काशी में देहान्त हुआ। उस
समय उन्हें तेज बुखार था। शवदाह के बाद एक साथी के दुराग्रह पर उन्होंने भी गंगा
जी में स्नान कर लिया। इससे उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और सन्निपात की अवस्था
में केवल 39
वर्ष की अल्पायु में 12 सितम्बर, 1922 को वे चल बसे।
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7
जुलाई/जन्म-दिवस
पखावज के साधक पुरुषोत्तम दास जी
भारतीय शास्त्रीय संगीत अपने प्रारम्भिक चरण में
देवालयों में विकसित हुआ। सन्तों ने भजन, कीर्तन व संगीत के माध्यम से ही ईश्वर की आराधना
की। राजस्थान का श्रीनाथद्वारा भी ऐसा ही एक मंदिर है, जहाँ पखावज वादन की एक
समृद्ध परम्परा विकसित हुई। इस परम्परा में यों तो अनेक प्रसिद्ध साधक हुए हैं; जिनमें श्री पुरुषोत्तम दास
जी का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
बीसवीं शती के इस महान कला साधक का जन्म
श्रीनाथद्वारा में सात जुलाई, 1907 को हुआ था। उनके पिता पण्डित घनश्यामदास पखावजी स्वयं बड़े कलाकार थे। इस कारण
पुरुषोत्तमदास जी को यह परम्परा विरासत में मिली। पाँच साल की अवस्था से ही वे
अपने पिता की देखादेखी पखावज पर हाथ चलाने लगे; पर जब वे केवल नौ वर्ष के थे, तभी उनके पिता का देहान्त हो
गया।
ऐसे में गोस्वामी गोवर्धनलाल जी ने उनके भोजन, आवास आदि की व्यवस्था मन्दिर की ओर से कराई, जिससे वे साधना कर सकें।
उन्होंने न केवल अपने पिता द्वारा प्राप्त ज्ञान को साधा, अपितु अनेक नयी रचनाएँ भी
बनायीं। इसमें उनके गुरु की भूमिका ‘मदृंग सागर’ नामक
ग्रन्थ ने निभाई। एकलव्य की तरह उन्होंने इसकी सहायता से पखावज वादन में महारत
प्राप्त की।
पर यह सब इतना सरल नहीं था। दिन में वे केशव भवन की
धर्मशाला में चौकीदारी करते और रात को दस बजे के बाद नायक गोविन्दराम और अन्य कुछ
मित्रों के साथ बस्ती के पास स्थित दयाराम समाधानी की बाड़ी में जाकर साधना करते।
गोविन्दराम गाते और पुरुषोत्तमदास पखावज बजाते। उनकी साधना देखकर 1932 में उन्हें उनके पिता और
गुरु की गद्दी सौंप दी गयी। इससे उनकी रोटी, कपड़ा, मकान की समस्या हल हो गयी।
1953
में पुरुषोत्तम दास जी ने आकाशवाणी से कार्यक्रम देना प्रारम्भ किया। इससे इनकी
कला की जानकारी पूरे देश को हुई। अब उन्हें राजस्थान के अलावा देश भर से संगीत
समारोहों के निमन्त्रण मिलने लगे; पर वे कार्यक्रम के बाद फिर श्रीनाथद्वारा लौट आते। वस्तुतः उनका मन श्रीनाथ
जी चरणों में ही लगता था। इस दौरान उनकी घनिष्ठता देश के अनेक बड़े कलाकारों से
हुई। डागर बन्धुओं ने उनसे कई बार आग्रह किया कि वे दिल्ली में रहें। इससे उनकी
कला का लाभ पूरे विश्व को मिलेगा।
1956
में पुरुषोत्तम दास जी दिल्ली आ गये। यहाँ सर्वप्रथम वे ‘भारतीय कला केन्द्र’ से जुड़े। इसके बाद 1964 में ‘केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी’ द्वारा संचालित ‘कथक केन्द्र’ में उन्हें वरिष्ठ गुरु का
स्थान दिया गया। इस दौरान उन्होंने नेपाल, पाकिस्तान, जापान, रूस, श्रीलंका
आदि अनेक देशों की संगीत यात्रा की। दिल्ली में उन्होंने देशी-विदेशी अनेक साधकों
को पखावज की शिक्षा भी दी। उन्होंने ‘मदृंग वादन’ नामक
एक पुस्तक भी लिखी, जिसे केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से प्रकाशित किया गया।
पद्मश्री सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत पुरुषोत्तम
दास जी ने 1982
में कथक केन्द्र से अवकाश लेकर सीधे श्रीनाथद्वारा की राह पकड़ी। यहाँ आकर उन्होंने
श्रीनाथ संगीत शिक्षण केन्द्र मन्दिर में प्राचार्य का पद ग्रहण किया। इस पर कार्य
करते हुए ही 21
जनवरी, 1991
को पखावज का यह साधक सदा के लिए श्रीनाथ जी के चरणों में लीन हो गया।
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7
जुलाई/जन्म-दिवस
विलक्षण संन्यासी करपात्री जी महाराज
स्वामी करपात्री जी के नाम से प्रसिद्ध संन्यासी का
बचपन का नाम हरनारायण था। इनका जन्म सात जुलाई, 1907 ग्राम भटनी, उत्तर प्रदेश में पण्डित रामनिधि तथा श्रीमती
शिवरानी के घर में हुआ था। सनातन धर्म के अनुयायी इनके पिता श्रीराम एवं भगवान
शंकर के परमभक्त थे। वे प्रतिदिन पार्थिव पूजा एवं रुद्राभिषेक करते थे। यही
संस्कार बालक हरनारायण पर भी पड़े।
बाल्यावस्था में इन्होंने संस्कृत का गहन अध्ययन
किया। एक बार इनके पिता इन्हें एक ज्योतिषी के पास ले गये और पूछा कि ये बड़ा होकर
क्या बनेगा ? ज्योतिषी
से पहले ही ये बोल पड़े, मैं तो बाबा बनूँगा। वास्तव में बचपन से ही इनमें विरक्ति के लक्षण नजर आने
लगे थे। समाज में व्याप्त अनास्था एवं धार्मिक मर्यादा के उल्लंघन को देखकर इन्हें
बहुत कष्ट होता था। ये कई बार घर से चले गये; पर पिता जी इन्हें फिर ले आते थे।
जब ये कुछ बड़े हुए, तो इनके पिता ने इनका विवाह कर दिया। उनका विचार था
कि इससे इनके पैरों में बेड़ियाँ पड़ जायेंगी; पर इनकी रुचि इस ओर नहीं थी। इनके पिता ने कहा कि
एक सन्तान हो जाये, तब तुम घर छोड़ देना। कुछ समय बाद इनके घर में एक पुत्री ने जन्म लिया। अब
इन्होंने संन्यास का मन बना लिया। इनकी पत्नी भी इनके मार्ग की बाधक नहीं बनी। इस
प्रकार 19
वर्ष की अवस्था में इन्होंने घर छोड़ दिया।
गृहत्याग कर उन्होंने अपने गुरु से वेदान्त की
शिक्षा ली और फिर हिमालय के हिमाच्छादित पहाड़ों पर चले गये। वहाँ घोर तप करने के
बाद इन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके बाद इन्होंने अपना शेष जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में
अर्पित कर दिया। ये शरीर पर कौपीन मात्र पहनते थे। भिक्षा के समय जो हाथ में आ
जाये, वही
स्वीकार कर उसमें ही सन्तोष करते थे। इससे ये ‘करपात्री महाराज’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
1930
में मेरठ में इनकी भेंट स्वामी कृष्ण बोधाश्रम जी से हुई। वैचारिक समानता होने के
कारण इसके बाद ये दोनों सन्त ‘एक प्राण दो देह’ के समान आजीवन कार्य करते रहे। करपात्री जी महाराज का मत था कि संन्यासियों को
समाज को दिशा देने के लिए सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लेना चाहिए। अतः
इन्होंने रामराज्य परिषद, धर्मवीर दल, धर्मसंघ, महिला संघ.. आदि संस्थाएँ
स्थापित कीं।
धर्मसंघ महाविद्यालय में छात्रों को प्राचीन एवं परम्परागत परिपाटी
से वेद, व्याकरण, ज्योतिष, न्याय शास्त्र व कर्मकाण्ड
की शिक्षा दी जाती थी। सिद्धान्त, धर्म चर्चा, सनातन
धर्म विजय जैसी पत्रिकाएँ तथा दिल्ली, काशी व कोलकाता से सन्मार्ग दैनिक उनकी प्रेरणा से प्रारम्भ हुए।
1947
से पूर्व स्वामी जी अंग्रेज शासन के विरोधी थे; तो आजादी के बाद कांग्रेस सरकार की हिन्दू धर्म
विरोधी नीतियों का भी उन्होंने सदा विरोध किया। उनके विरोध के कारण शासन को ‘हिन्दू कोड बिल’ टुकड़ों में बाँटकर पारित
करना पड़ा। गोरक्षा के लिए सात नवम्बर,
1966 को दिल्ली में हुए विराट् प्रदर्शन में स्वामी जी ने भी
लाठियाँ खाईं और जेल गये।
स्वामी जी ने शंकर सिद्धान्त समाधान; मार्क्सवाद और रामराज्य; विचार पीयूष; संघर्ष और शान्ति; ईश्वर साध्य और साधन; वेदार्थ पारिजात भाष्य; रामायण मीमाँसा; पूंजीवाद, समाजवाद और रामराज्य आदि
ग्रन्थों की रचना की।
महान गोभक्त, विद्वान, धर्मरक्षक एवं शास्त्रार्थ महारथी स्वामी करपात्री
जी का निधन सात फरवरी, 1982 को हुआ।
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7 जुलाई/जन्म-दिवस
सरल व सहज चन्द्रिका प्रसाद जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम मनुष्यों को जोड़कर, उनकी क्षमता का उपयोग देश, धर्म और समाज के काम में करना है। इस काम में तरह-तरह के स्वभाव और प्रवृत्ति के लोग जुड़ते हैं। सबकी पारिवारिक, शैक्षिक और वैचारिक पृष्ठभूमि भी अलग-अलग होती है। यद्यपि संघ के कार्यक्रमों की रगड़ाई और अनुशासन के कारण व्यक्ति अपने आप को काफी बदलता है, फिर भी उनके स्वभाव की विविधताएं प्रकट होती ही रहती हैं। चंद्रिका प्रसाद जी भी एक ऐसे ही प्रचारक थे। उनके स्वभाव की सरलता, सादगी और सहजता उनके आचरण और व्यवहार से जीवन भर परिलक्षित होती रही।
चंद्रिका प्रसाद जी का जन्म सात जुलाई, 1947 को उत्तर प्रदेश में जौनपुर जिले के एक गांव अखईपुर में हुआ था। श्री खरभान प्रजापति उनके पिताजी एवं श्रीमती नागेश्वरी देवी माताजी थीं। कुछ समय बाद उनका परिवार वहां से 20 कि.मी. दूर ग्राम हनुआडीह में बस गया। चार भाई-बहिन वाले घर में चंद्रिका जी दूसरे नंबर पर थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा मुफ्तीगंज में हुई। इसके बाद उन्होंने राज काॅलेज, जौनपुर से इंटर तथा कर्रा काॅलिज, डोभी से बी.एस-सी. की उपाधि प्राप्त की।
भारत के कई भागों में छोटी आयु में ही विवाह हो जाते हैं। चंद्रिका जी का विवाह भी छात्र जीवन में ही श्रीमती मालती देवी से हुआ। बी.एस-सी. में पढ़ते समय वे तत्कालीन प्रचारक ठाकुर राजनीति सिंह के सम्पर्क में आकर स्वयंसेवक बने। धीरे-धीरे संघ का विचार उनके मन में गहराई से बैठ गया और उन्होंने प्रचारक बनने का संकल्प ले लिया। श्री राजनीति सिंह स्वयं भी गृहस्थ प्रचारक थे। उन्होंने चंद्रिका जी का उत्साह बढ़ाया। इस प्रकार घर और संघ कार्य में संतुलन रखते हुए चंद्रिका जी प्रचारक बन गये।
चंद्रिका प्रसाद जी के प्रचारक जीवन की यात्रा 1972 में बस्ती जिले में बांसगांव के तहसील प्रचारक के नाते प्रारम्भ हुई। इसके बाद वे गोरखपुर और बस्ती में जिला प्रचारक, गोरखपुर में सहविभाग प्रचारक तथा फिर फतेहपुर में विभाग प्रचारक रहे। आपातकाल में वे पुलिस को छकाते हुए भूमिगत रहकर ही काम करते रहे। सर्वाधिक लम्बा समय उन्होंने साकेत में बिताया, जहां वे दस वर्ष तक विभाग प्रचारक रहे। पूर्वी उत्तर प्रदेश को संघ कार्य के लिए पहले दो और फिर चार प्रांतों में बांटा गया। चंद्रिका जी पर कई वर्ष तक अवध प्रांत के सम्पर्क प्रमुख की जिम्मेदारी रही। इस नाते उन्होंने पूरे प्रांत का प्रवास किया।
लखनऊ में ‘विश्व संवाद केन्द्र’ से मीडिया सम्बन्धी गतिविधियां चलती हैं। उसकी देखरेख के लिए एक वरिष्ठ कार्यकर्ता की आवश्यकता अनुभव हो रही थी। अतः चंद्रिका प्रसाद जी को उसकी जिम्मेदारी दे दी गयी; पर वहां रहते हुए उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और 2005 में उन्हें मस्तिष्काघात (बे्रन हेमरेज) हुआ। यद्यपि समय पर चिकित्सा होने से वे काफी ठीक हो गये; पर पहले जैसी स्थिति नहीं हो सकी। उनकी स्मृति और आवाज पर इसका दुष्प्रभाव हुआ। अतः सक्रिय कार्य से मुक्त होकर वे लखनऊ में ‘भारती भवन’ कार्यालय पर रहने लगे। वहां पर उन्हें दिल का दौरा पड़ा। उसकी पूर्ण चिकित्सा के लिए उन्हें काशी हिन्दू वि.वि. के अस्पताल में भर्ती कराया गया। इलाज के दौरान वहां पर ही पांच अगस्त 2014 को हुए दूसरे हृदयाघात से उनका निधन हुआ।
चंद्रिका जी स्वभाव से बहुत सरल, सहज तथा विनम्र व्यक्ति थे। वे सदा खुश रहते थे तथा आसपास वालों को भी खुश रखते थे। वे किसी काम को छोटा नहीं समझते थे। गंदगी देखकर वे निःसंकोच झाड़ू उठा लेते थे। मितव्ययी होने के कारण उनके निजी खर्चे भी बहुत कम थे। वे जहां भी रहे, वहां के कार्यकर्ता उनकी सरलता तथा सादगी को आज भी याद करते हैं।
(संदर्भ : पुत्र अखिलेश प्रजापति से प्राप्त जानकारी)
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