मई दूसरा सप्ताह

8 मई/जन्म-दिवस

वेदांत दर्शन के प्रवक्ता स्वामी चिन्मयानंद

भारत में संन्यासियों की एक विराट परम्परा रही है, जो आज भी अनवरत जारी है।  आठ मई, 1916 को केरल के एर्नाकुलम में जन्मे स्वामी चिन्मयानंद सरस्वती इसी परम्परा के एक तेजस्वी नक्षत्र थे। उन्होंने वेदांत के द्वारा धर्म की युगानुकल व्याख्या कर अनेक भ्रांतियों को दूर किया। उनका बचपन का नाम बालकृष्ण मेनन था। उनके पिताजी एक न्यायाधीश थे, अतः घर में पढ़ने लिखने का पर्याप्त वातावरण मौजूद था।
बालकृष्ण ने कक्षा 12 तक विज्ञान पढ़ा। इसके बाद उनके पिताजी का स्थानांतरण त्रिचूर हो गया। वहां उन्होंने कला विषयों का अध्ययन किया। यहां से बी.ए. करने के बाद वे लखनऊ आ गये और एम.ए. तथा कानून की पढ़ाई की। इस दौरान उनका रुझान अंग्रेजी साहित्य की ओर भी हुआ। पढ़ाई पूरी कर कुछ समय मि. टैªम्प के छद्म नाम से उन्होंने पत्रकारिता की। उनके लेखों में समाज के निर्धन और निर्बल लोगों की व्यथा का चित्रण होता था, जो सत्ताधीशों और सम्पन्न लोगों को पंसद नहीं आता था। अतः उन्होंने अध्यात्म की राह ली और ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद के पास आ गये। 
शिवानंद जी भी दक्षिण भारत के ही थे। इस कारण दोनों में अत्यधिक घनिष्टता हो गयी। यद्यपि बालकृष्ण तर्कवादी थे। हिन्दू धर्म की रूढि़यों और कुरीतियों से खिन्नता के बावजूद वे श्रद्धापूर्वक आश्रम के सभी नियम मानते थे। कुछ समय बाद उन्होंने शिवानंद जी से संन्यास की दीक्षा ली। इससे उनका नाम चिन्मयानंद सरस्वती हो गया। अब उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकांनद, ऋषि अरविंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि रमण आदि के साहित्य को पढ़ा। इससे उनके जीवन को नवीन दिशा मिल गयी।
स्वामी शिवानंद के आदेश पर उत्तरकाशी में स्वामी तपोवन के पास रहकर उन्होंने उपनिषद का अध्ययन तथा शांति, विरक्ति और संयम का अभ्यास किया। फिर उनकी आज्ञा से वे जीवन की अगली यात्रा पर चल दिये। उन्होंने एक मास का पहला ज्ञान यज्ञ पुणे तथा दूसरा चेन्नई में किया। फिर इसका समय घटाकर उन्होंने सात दिन कर दिया। उनकी व्याख्या इतनी तर्कपूर्ण, सरल और सहज होती थी कि देश और विदेश से उनके प्रवचनों की मांग होेने लगी। अतः उन्होंने मुंबई में सांदीपनि आश्रम की स्थापना की और वहां युवा ब्रह्मचारियों को प्रशिक्षित करने लगे। आठ अगस्त, 1953 को उनके कुछ शिष्यों ने मिलकर उनकी अनुपस्थिति में ही ‘चिन्मय मिशन’ की स्थापना की।
मिशन का उद्देश्य सनातन धर्म, गीता और उपनिषद के आधार पर दुनिया के किसी भी व्यक्ति को वेदांत का ज्ञान प्रदान करना है। क्रमशः इसकी शाखाएं बढ़ती गयीं। वर्तमान में इसके 200 केन्द्र भारत में और 100 से अधिक केन्द्र विदेश में हैं। मिशन से संबंधित सैकड़ों संस्था, समिति, न्यास आदि का संचालन ‘केन्द्रीय चिन्मय मिशन न्यास’ करता है। विद्यालय, स्वाध्याय मंडल, बाल विहार, युवा केन्द्र, अस्पताल आदि भी चलाये जाते हैं। स्वामी जी के प्रवचन तथा उनकी पुस्तकों का प्रकाशन भी होता है। संस्था के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सभी आधुनिक माध्यमों का प्रयोग किया जाता है।
स्वामी जी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर से बहुत प्रेम था। 1964 में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना सांदीपनी आश्रम में ही हुई थी। वे देश और विदेश में लगातार भ्रमण करते रहते थे। 1893 में शिकागो में धर्म संसद हुई थी, जिसमें स्वामी विवेकानंद गये थे। उसके शताब्दी समारोह में उन्हें जाना था; पर उससे पूर्व तीन अगस्त, 1993 को अमरीका के सेन डियागो में उनका निधन हो गया। उनके जाने के बाद भी चिन्मय मिशन के माध्यम से उनके शिष्य उनके काम को आगे बढ़ा रहे हैं। 
(चा.वा, 16.11.2018, पीयूष जैन/विकी)
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9 मई/जन्म-दिवस

युग प्रणेता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

हिन्दी साहित्य के गौरवशाली नक्षत्र महावीर प्रसाद द्विवेदी को अपने अनूठे लेखन शिल्प के कारण हिन्दी का प्रथम लोकमान्य आचार्य माना जाता है। इनका जन्म ग्राम दौलतपुर (रायबरेली, उ.प्र.) में नौ मई, 1864 को पंडित रामसहाय दुबे के घर में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई, जबकि बाद में वे रायबरेली, रंजीतपुरवा (उन्नाव) और फतेहपुर में भी पढ़े।

शिक्षा प्राप्ति के समय ही इनकी कुशाग्र बुद्धि का परिचय सबको होने लगा था। इन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। शिक्षा प्राप्ति के बाद इन्होंने कुछ समय अजमेर, मुम्बई और झाँसी में रेल विभाग में तार बाबू के नाते काम किया। 

इस राजकीय सेवा में रहते हुए उन्होंने मराठी, गुजराती, बंगला और अंग्रेजी का ज्ञान बढ़ाया। झाँसी में किन्हीं नीतिगत विरोध के कारण इन्होंने त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद इंडियन प्रेस, प्रयाग के स्वामी बाबू चिन्तामणि घोष के प्रस्ताव पर इन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के सम्पादन का दायित्व सँभाला। थोड़े ही समय में सरस्वती पत्रिका लोकप्रियता के उत्कर्ष पर पहुँच गयी। इसका अधिकांश श्रेय आचार्य महावीर प्रसाद जी को ही जाता है। आचार्य जी ने 1903 से 1920 तक इस पत्रिका का सम्पादन किया। 

हिन्दी भाषा के लेखन में उन दिनों उर्दू, अरबी, फारसी और अंग्रेजी के शब्दों की घुसपैठ होने लगी थी। आचार्य जी इससे बहुत व्यथित थे। उन्होंने सरस्वती के माध्यम से हिन्दी के शुद्धिकरण का अभियान चलाया। इससे हिन्दी के सर्वमान्य मानक निश्चित हुए और हिन्दी में गद्य और पद्य का विपुल भंडार निर्माण हुआ। इसी से वह काल हिन्दी भाषा का ‘द्विवेदी युग’ कहा जाता है।

सरस्वती के माध्यम से आचार्य जी ने हिन्दी की हर विधा में रचनाकारों की नयी पीढ़ी भी तैयार की। इनमें मैथिलीशरण गुप्त, वृन्दावन लाल वर्मा, रामचरित उपाध्याय, गिरिधर शर्मा ‘नवरत्न’ लोचन प्रसाद पाण्डेय, नाथूराम शंकर शर्मा, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’, हरिभाऊ उपाध्याय, पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, देवीदत्त शुक्ल आदि प्रमुख हैं। 

उन्होंने स्वयं भी अनेक कालजयी पुस्तकें लिखीं। इनमें हिन्दी भाषा का व्याकरण, भाषा की अनस्थिरता, सम्पत्ति शास्त्र, अयोध्या विलाप आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त उनकी फुटकर रचनाओं की संख्या तो अगणित है। आचार्य जी ने यद्यपि साहित्य रचना तो अधिकांश हिन्दी में ही की; पर उन्हें जिन अन्य भाषाओं की जानकारी थी, उसके श्रेष्ठ साहित्य को हिन्दी पाठकों तक पहुँचाया। 

आचार्य जी को अपने गाँव से बहुत प्रेम था। साहित्य के शिखर पर पहुँचकर भी उन्होंने किसी बड़े शहर या राजधानी की बजाय अपने गाँव में ही रहना पसन्द किया। वे यहाँ भी इतने लोकप्रिय हो गये कि लोगों ने उन्हें दौलतपुर पंचायत का सरपंच बना दिया। जब लोग उनके इस निर्णय पर आश्चर्य करते, तो वे कहते थे कि भारत माता ग्रामवासिनी है। यहाँ मैं अपनी जन्मभूमि का कर्ज चुकाने आया हूँ। उन्हें लेखन और गाँव की समस्याओं को सुलझाने में समान आनन्द आता था।

खड़ी बोली को हिन्दी की सर्वमान्य भाषा के रूप में स्थापित और प्रचारित-प्रसारित कराने वाले युग निर्माता आचार्य जी 21 दिसम्बर, 1938 को रायबरेली में चिरनिद्रा में सो गये। उनके लिए किसी ने ठीक कहा है कि वे सचमुच हिन्दी के ‘महावीर’ ही थे।
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10 मई/इतिहास-स्मृति

दस मई 1857, जब क्रान्ति का बिगुल बज उठा

इतिहास इस बात का साक्षी है कि भारतवासियों ने एक दिन के लिए भी पराधीनता स्वीकार नहीं की। आक्रमणकारी चाहे जो हो; भारतीय वीरों ने संघर्ष की ज्योति को सदा प्रदीप्त रखा। कभी वे सफल हुए, तो कभी अहंकार, अनुशासनहीनता या जातीय दुरभिमान के कारण विफलता हाथ लगी। 

अंग्रेजों को भगाने का पहला संगठित प्रयास 1857 में हुआ। इसके लिए 31 मई को देश की सब छावनियों में एक साथ धावा बोलने की योजना बनी थी; पर दुर्भाग्यवश यह विस्फोट मेरठ में 10 मई को ही हो गया। अतः यह योजना सफल नहीं हो सकी और स्वतन्त्रता 90 साल पीछे खिसक गयी।

1856 के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों को गाय और सुअर की चर्बी लगे कारतूस दिये, जिन्हें मुंह से खोलना पड़ता था। हिन्दू गाय को पूज्य मानते थे और मुसलमान सुअर को घृणित। इस प्रकार अंग्रेज दोनों को ही धर्मभ्रष्ट कर रहे थे। सैनिकों को इसके बारे में कुछ पता नहीं था। 

दिल्ली से 70 कि.मी. दूर स्थित मेरठ उन दिनों सेना का एक प्रमुख केन्द्र था। वहां छावनी में बाबा औघड़नाथ का प्रसिद्ध शिवमन्दिर था। इसका शिवलिंग स्वयंभू है। अर्थात वह स्वाभाविक रूप से धरती से ही प्रकट हुआ है। इस कारण मन्दिर की सैनिकों तथा दूर-दूर तक हिन्दू जनता में बड़ी मान्यता थी।

मन्दिर के शान्त एवं सुरम्य वातावरण को देखकर अंग्रेजों ने यहां सैनिक प्रशिक्षण केन्द्र बनाया। भारतीयों का रंग अपेक्षाकृत सांवला होता है, इसी कारण यहां स्थित पल्टन को ‘काली पल्टन’ और इस मन्दिर को ‘काली पल्टन का मन्दिर’ कहा जाने लगा। मराठों के अभ्युदय काल में अनेक प्रमुख पेशवाओं ने अपनी विजय यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व यहां पूजा-अर्चना की थी। इस मन्दिर में क्रान्तिकारी लोग दर्शन के बहाने आकर सैनिकों से मिलते और योजना बनाते थे। कहते हैं कि नानासाहब पेशवा भी साधु वेश में हाथी पर बैठकर यहां आते थे। इसलिए लोग उन्हें ‘हाथी वाले बाबा’ कहते थे। 

नानासाहब, अजीमुल्ला खाँ, रंगो बापूजी गुप्ते आदि ने 31 मई को क्रान्ति की सम्पूर्ण योजना बनाई थी। छावनियों व गांवों में रोटी और कमल द्वारा सन्देश भेजे जा रहे थे; पर अचानक एक दुर्घटना हो गयी। 29 मार्च को बंगाल की बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे के नेतृत्व में कुछ सैनिकों ने समय से पूर्व ही विद्रोह का बिगुल बजाकर कई अंग्रेज अधिकारियों का वध कर दिया।

इसकी सूचना मेरठ पहुंचते ही अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय सैनिकों से शस्त्र रखवा लिये। सैनिकों को यह बहुत खराब लगा। वे स्वयं को पहले ही अपमानित अनुभव कर रहे थे। क्योंकि मेरठ के बाजार में घूमते समय अनेक वेश्याओं ने उन पर चूडि़यां फेंककर उन्हें कायरता के लिए धिक्कारा था।

बंगाल में हुए विद्रोह से उत्साहित तथा वेश्याओं के व्यवहार से आहत सैनिकों का धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने 31 मई की बजाय 10 मई, 1857 को ही हल्ला बोलकर सैकड़ों अंग्रेजों को मार डाला। उनके नेताओं ने अनुशासनहीनता के दुष्परिणाम बताते हुए उन्हें बहुत समझाया; पर वे नहीं माने। 

मेरठ पर कब्जा कर वे दिल्ली चल दिये। कुछ दिन तक दिल्ली भी उनके कब्जे में रही। इस दल में लगभग 250 सैनिक वहाबी मुस्लिम थे। उन्होंने दिल्ली जाकर बिना किसी योजना के उस बहादुरशाह ‘जफर’ को क्रान्ति का नेता घोषित कर दिया, जिसके पैर कब्र में लटक रहे थे। इस प्रकार समय से पूर्व योजना फूटने से अंगे्रज संभल गये और उन्होंने क्रान्ति को कुचल दिया।

मेरठ छावनी में प्राचीन सिद्धपीठ का गौरव प्राप्त ‘काली पल्टन का मन्दिर’ आज नये और भव्य स्वरूप में खड़ा है। 1996 ई. में जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम जी के हाथों मन्दिर का पुनरुद्धार हुआ।
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10 मई/इतिहास-स्मृति

लंदन में 1857 के स्वाधीनता संग्राम की वर्षगांठ 

1857 का स्वाधीनता संग्राम भले ही सफल नहीं हुआ; पर उसकी स्मृति भारतीयों के मन में बस गयी। वर्षाें बीतने पर भी उसकी गूंज अंग्रेजों की नींद उड़ा देती थी। 1906 में विनायक दामोदर सावरकर बैरिस्टरी पढ़ने के लिए लंदन पहुंचे। वहां वे स्वाधीनता सेनानी श्यामजी कृष्ण वर्मा के ‘इंडिया हाउस’ में रहते थे। यह भवन आजादी के दीवानों की गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र था। उन्होंने 11 मई, 1907 को इस स्वाधीनता संग्राम की 50वीं वर्षगांठ (स्वर्ण जयंती) मनायी। अगले साल 10 मई, 1908 (रविवार) को फिर एक सार्वजनिक समारोह किया गया। ये दोनों ही कार्यक्रम ‘इंडिया हाउस’ में हुए।

10 मई, 1908 के आयोजन की सफलता के लिए एक निमंत्रण पत्र छापकर लंदन के उन मोहल्लों में छोटी-छोटी बैठकें की गयीं, जहां भारतीय लोग रहते थे। समारोह ही अध्यक्षता पेरिस निवासी स्वाधीनता सेनानी बैरिस्टर सरदार सिंह राणा ने की। वे वहां से इसके लिए विशेष रूप से आये थे। सभागार में सामने की ओर टंगा एक रक्तरंजित वस्त्र फूल मालाओं से सुसज्जित था। यह 1857 में भारतीय वीरों द्वारा बहाये गये रक्त का प्रतीक था। उस पर सुनहरे, सफेद, हरे और गुलाबी रंग से बहादुरशाह जफर, नानासाहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई, मौलवी अहमदशाह, वीर कुंवर सिंह आदि योद्धाओं के नाम लिखे थे। कई अन्य वीरों के चित्र भी लगे थे। ताजे फूलों और अगरबत्ती की सुंगध सब ओर फैली थी। लोग समय से पहले ही आकर सभागार में बैठ गये।

ठीक चार बजे देशभक्त वर्मा ने ‘वंदेमातरम्’ गीत गाया। इसके साथ ही अध्यक्ष तथा अन्य विशिष्ट अतिथि सभागार में आ गये। उनके मंचासीन होने पर देशभक्त आयर बी.ए. ने राष्ट्रीय प्रार्थना का गायन किया। केवल लंदन ही नहीं, तो कैंब्रिज, आॅक्सफोर्ड, सारेंस्टर, रेडिंग आदि स्थानों से भी लोग आये थे। इसके बाद पहले वक्ता के रूप में विनायक दामोदर सावरकर ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम की प्रासंगिकता एवं उपलब्धि बताते हुए बहादुरशाह एवं नानासाहब को याद किया। इस पर सबने खड़े होकर ‘वंदे मातरम्’ तथा तीन बार उन वीरों का जयघोष किया। फिर देशभक्त खान, देशभक्त दास, मास्तर (पारसी), देशभक्त येरुलक (यहूदी) आदि वक्ताओं ने राजा कुंवरसिंह, रानी लक्ष्मीबाई आदि स्वाधीनता सेनानियों को स्मरण किया। इसके बाद अध्यक्षजी का प्रेरक भाषण हुआ और फिर सबने स्वार्थ त्याग की शपथ ली।

इस समारोह के लिए बनी ‘स्मृति मुद्रा’ सब श्रोताओं ने अपने सीने पर लगा रखी थी। शपथ लेते समय किसी ने एक माह का भोजन छोड़ा, तो किसी ने शराब, धूम्रपान, थियेटर आदि छोड़कर उस पैसे को 1857 के वीरों की स्मृति में बने कोष में देने का निश्चय किया। पेरिस से मैडम भीखाजी कामा ने एक प्रेरक पत्र तथा कोष के लिए 75 रु. भेजे। अध्यक्षजी ने भी मई मास की पूरी आय इस कोष में अर्पित की। श्रीमती दत्त ने एक बार फिर से राष्ट्रगीत गाया। 

अंत में प्रसाद वितरण के रूप में रोटियां बांटी गयीं। 1857 में ‘रोटी और कमल’ ही क्रांति का प्रतीक चिन्ह बने थे। ऐसी रोटियां गुप्त रूप से भारत की सैन्य छावनियों में बांटी जाती थीं। इन्हें खाकर सैनिक स्वाधीनता के लिए लड़ने और मरने की शपथ लेते थे। इसलिए उस समारोह में भी रोटियों का प्रसाद ही बांटा गया। इससे सबमें विशेष प्रकार का उत्साह छा गया। इसके बाद समारोह विधिवत समाप्त हुआ। जाते समय लोग इतने उत्साहित थे कि वे बार-बार वंदे मातरम् और 1857 के सेनानियों के नाम लेकर जयघोष कर रहे थे।

इस समारोह में धनसंग्रह के लिए कुछ झोले बनाये गये थे। कई लोगों ने उन्हें आयोजकों से लिया और अगले एक सप्ताह तक वे लंदन में रहने वाले भारतीयों के पास जाकर धन संग्रह करते रहे। इस प्रकार लंदन में 1857 के स्वाधीनता संग्राम की वर्षगांठ का यह समारोह अविस्मरणीय बन गया। 


(सावरकर समग्र, भाग 1/556-58, प्रभात प्रकाशन)
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10 मई/पुण्य-तिथि

संगीत की साधक विद्याधरी देवी

भगवान भोले शंकर के त्रिशूल पर बसी काशी का नाम अनेक कारणों से भारत में ही नहीं, तो विश्व भर में प्रसिद्ध है। जहां एक ओर यह धर्मनगरी है, तो दूसरी ओर शिक्षा और तंत्र-मंत्र साधना के लिए भी यह महत्वपूर्ण स्थान है। इसी के साथ काशी ने अनेक कलाकारों को जन्म और आश्रय दिया। गायन और नृत्य के क्षेत्र में ऐसी ही एक कलाकार थीं विद्याधरी देवी।

विद्याधरी देवी का जन्म ग्राम जमुरी (वाराणसी) में 1881 ई0 में हुआ था। बचपन से ही साहित्य, नृत्य और संगीत के प्रति इनका रुझान था। इन्हें संगीत की शिक्षा पंडित दरगाही मिश्र से मिली। पंडित रामसुमेर मिश्र (सुमेरू जी) तथा उस्ताद नसीर-बशीर खां के मार्गदर्शन से इनकी साधना में उत्तरोत्तर निखार आता गया। खयाल, तराना, ठुमरी, दादरा और टप्पा आदि इन्हें सिद्ध थे। इसके साथ ही जयदेव रचित गीत गोविंद को वे इतना भाव विभोर होकर गाती थीं कि लोग समाधि जैसा अनुभव करने लगते थे।

उन दिनों लखनऊ भी ऐसे कलाकारों का गढ़ था। एक बार लखनऊ की प्रसिद्ध गायिका मुनीर बाई के घर हुई एक संगीत गोष्ठी में इन्होंने राग मालकौंस में विलंबित, द्रुत खयाल और तराना गाकर श्रोताओं के साथ ही उस समय की प्रसिद्ध गायिका गौहर जान का दिल जीत लिया। इसके बाद उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैलने लगी। उन्हें गायन समारोहों में बुलाया जाने लगा।

उस समय इन गायिकाओं को प्रायः अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था; पर धार्मिक विचारों से परिपूर्ण विद्याधरी देवी इसकी अपवाद थीं। गांधी जी के आह्नान पर वे स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़ीं। उन्होंने सदा खादी पहनने का व्रत लिया और इसे आजीवन निभाया। गांधी जी के सुझाव पर अपने कार्यक्रमों में वे एक-दो देशभक्ति के गीत भी गाने लगीं। पंडित दरगाही मिश्र ने इसके लिए दो गीतों की धुन बनाईं, जिसे वे सभी संगीत समारोहों में गाती थीं।

पहली रचना भारतेंदु हरिश्चंद्र की थी - 

अंदर-अंदर सब रस चूसें, बाहर से तन-मन-धन मूसें
जाहिर बातन में अति तेज, क्यों सखि साजन, नहिं अंगरेज।।

इसी प्रकार दूसरे गीत में वे गाती थीं -

चुन-चुन के फूल ले लो, अरमान रह न जाये
ये हिन्द का बगीचा, गुलजार रह न जाये।।

संगीत की साधक विद्याधरी देवी को काशी नरेश सहित अनेक राजाओं का आश्रय प्राप्त था। वे एक धनवान जौहरी की उपपत्नी थीं। उसके अनेक बहुमूल्य आभूषण इनके पास ही रहते थे। जब उस जौहरी का देहांत हुआ, तो विद्याधरी देवी ने उसके पुत्र को बुलाकर वह सब आभूषण उसे सौंप दिये। 

उन्होंने कहा कि इस सम्पत्ति पर तुम्हारी मां का अधिकार है। उस समय उन आभूषणों की कीमत 80,000 रु. थी। जौहरी की मृत्यु के बाद उन्होंने शृंगार करना और समारोहों में गाना भी छोड़ दिया। इस प्रकार विधिवत विवाहित पत्नी न होते हुए भी उन्होंने विधवा जीवन स्वीकार कर लिया।

इसके कुछ समय बाद वे अपने पैतृक गांव जसुरी आ गयीं। वहां उनके भाई और भतीजे रहते थे। अब वे विरक्त भाव से भजन-पूजन में ही लीन रहने लगीं। मृत्यु से एक दिन पूर्व वे घर छोड़कर मिश्र पोखरा स्थित मुक्ति भवन आ गयीं। यहीं 10 मई, 1971 को प्रातः तीन बजे गीत गोविंद का गायन करते हुए उन्होंने अपनी स्वर साधना को सदा के लिए नाद ब्रह्म में लीन कर लिया।
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10 मई/जन्म-दिवस

प्रवासप्रिय यादवराव कालकर

श्री यादवराव कालकर का जन्म 10 मई, 1916 को देऊलघाट (महाराष्ट्र) में श्री जानकीराम एवं श्रीमती सरस्वती बाई के घर में हुआ था। बुलढाणा में उनकी खेती थी। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा बुलढाणा तथा हाई स्कूल अमरावती से किया। अमरावती में ही उनकी भेंट डा. हेडगेवार से हुई। 

1937 में कामठी से मैट्रिक तथा फिर स्टेनोटाइपिंग की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्हें होशंगाबाद में सरकारी नौकरी मिल गयी। नौकरी करते हुए भी उनके मन में संघ कार्य की लगन लगी रहती थी। 1942 में नौकरी छोड़कर वे प्रचारक बन गये। इस निर्णय से पिताजी तथा बड़े भाई बहुत नाराज हुए; पर वे अपने निश्चय पर डटे रहे। क्रमशः वे तहसील, जिला, विभाग और फिर महाकौशल के प्रांत प्रचारक बने।

संघ के प्रारम्भिक प्रचारकों को बड़ा कष्टदायक प्रवास करना पड़ता था। प्रायः उनके पास साइकिल भी नहीं होती थी। पैसे के अभाव में बस से भी नहीं जा सकते थे। ऐसे में यादवराव कई बार शाखा लगाने के लिए 35-40 कि.मी. तक पैदल चले जाते थे। नदी-नाले या कीचड़ भरे रास्तों की चिन्ता न करते हुए वे निश्चित समय पर निर्धारित स्थान पर पहुंच जाते थे। 

1948 के प्रतिबंध काल में यादवराव भी कारावास में गये। जेल में वे स्वयंसेवकों के भोजन से लेकर उनके मान-सम्मान तक की चिन्ता करते थे। सत्याग्रही स्वयंसेवकों को पुलिस वाले प्रायः भूखा-प्यासा रखते थे। जेल में उनके पहुंचने का समय भी निश्चित नहीं था; पर जब वे जेल में पहुंचते थे, तो यादवराव उनके लिए कुछ खाने-पीने का प्रबन्ध कर ही देते थे। जेल अधिकारी प्रायः स्वयंसेवकों से दुव्र्यवहार भी कर बैठते थे। ऐसे में यादवराव डटकर इसका विरोध करते थे और जेल अधिकारी को क्षमा मांगनी पड़ती थी।

प्रतिबंध काल में और उसके बाद संघ कार्य में बहुत कठिन दौर आया। कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का मत था संघ को खुलकर राजनीति में भाग लेना चाहिए। कुछ का विचार था कि कांग्रेस से इतनी दूरी बनाकर रखना ठीक नहीं है। कई प्रचारक भी घर वापस चले गये; पर यादवराव विचलित नहीं हुए। वे कहते थे कि मैं तो सरकारी नौकरी छोड़कर प्रचारक बना हूं। जब तक लक्ष्य पूरा नहीं होता, तब तक मैं केवल और केवल यही कार्य करूंगा।

प्रतिबंध समाप्ति के बाद 1954 तक वे बिलासपुर जिला तथा 1967 तक विभाग प्रचारक रहे। बिलासपुर वनवासी बहुल क्षेत्र है। यादवराव नगर के सम्पन्न तथा निर्धन वनवासी के घर में समान भाव से भोजन करते थे। कई बार यह स्थिति होती थी कि ऊपर से मुर्गे उड़ रहे हैं, सामने से सुअर के बच्चे निकल रहे हैं; पर इसके बीच वे स्थितप्रज्ञ भाव से भोजन करते रहते थे।

1967 में उन्हें जबलपुर विभाग में भेजा गया। 1975 में आपातकाल तथा संघ पर दुबारा प्रतिबंध लग गया। हजारों कार्यकर्ता बन्दी बना लिये गये। हजारों लोगों ने सत्याग्रह किया। ऐसे में उनके परिवारों की देखरेख की जिम्मेदारी यादवराव को दी गयी। एक ओर उन्हें धनसंग्रह करना था, तो दूसरी ओर स्वयं को छिपाकर भी रखना था। वे दोनों कसौटियों पर खरे उतरे।

आपातकाल के बाद वे महाकोशल के प्रांत प्रचारक बने। उन्होंने प्रांत में सघन प्रवास कर शाखाओं का जाल बिछा दिया। विविध क्षेत्रों के काम में भी आशातीत वृद्धि हुई। लगातार प्रवास का उनके शरीर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। छह फरवरी, 1985 को उन्हें भीषण हृदयाघात हुआ। बेहोशी में भी वे चिल्ला रहे थे कि मुझे प्रवास पर जाना है। वहां सब मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। प्रवास की इस आकुलता के बीच अगले दिन ब्रह्ममुहूर्त में उनका देहांत हो गया। 

(संदर्भ : राष्ट्रसाधना भाग दो)
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10 मई/पुण्य-तिथि

कर्मनिष्ठ ऋषि मुनि सिंह

जीवन की अंतिम सांस तक बिहार में संघ का कार्य करने वाले श्री ऋषि मुनि सिंह का जन्म 1927 में बिहार के कैमूर जिले के चांद विकास खंड के एक ग्राम में हुआ था। उनके अभिभावकों ने उनका यह नाम क्यों रखा, यह कहना तो कठिन है; पर उन्होंने अपने कर्ममय जीवन से इसे सार्थक कर दिखाया। 

ऋषि मुनि जी ने 1946 में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद कोई नौकरी या कारोबार न करते हुए वे संघ के प्रचारक बन गये। यद्यपि परिवार वालों ने उनका विवाह निश्चित कर दिया था; पर जिस दिन सगाई के लिए कन्या पक्ष के लोग आने वाले थे, उसी दिन उन्होंने घर छोड़ दिया। प्रचारक जीवन के प्रारम्भ में ही देश विभाजन और संघ पर प्रतिबंध जैसी विभीषिकाओं से उन्हें जूझना पड़ा। प्रतिबंध समाप्ति के बाद कई प्रचारक घर लौट गये; पर वे डटे रहे और अगले 17 वर्ष तक कई स्थानों पर तहसील व जिला प्रचारक रहे। 

ऋषि मुनि जी की रुचि प्रारम्भ से ही पढ़ने में थी। समाचार पत्रों को वे बड़ी गहराई से पढ़कर उनका विश्लेषण करते थे। उनकी यह रुचि देखकर उन्हें पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करने को कहा गया। 1975 में इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगाकर संघ को प्रतिबंधित कर दिया। सभी समाचार पत्रों पर सेंसर लगा दिया गया। जनता को सही समाचार मिलने बंद हो गये। सरकार के चाटुकार लेखक तथा पत्र-पत्रिकाएं एकपक्षीय समाचार छापने लगे। जो ऐसा नहीं करते थे, उन्हें जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया जाता था।

ऐसे में संघ के कार्यकर्ताओं ने पूरे देश में संचार का नया तंत्र स्थापित किया। हर जिले में अंगारा, सौगन्ध, स्वाधीनता, हुंकार, ललकार जैसे नामों से छोटे-छोटे पत्र निकाले गये। निष्पक्ष समाचारों के लिए जनता को इनकी प्रतीक्षा रहती थी। ऋषि मुनि जी ने भी उन दिनों ‘लोकवाणी’ नामक पत्र निकाला। कुछ ही समय में वह लोकप्रिय हो गया। पुलिस-प्रशासन ने लोकवाणी के प्रकाशक को बहुत तलाशा; पर ऋषि मुनि जी उनके हाथ नहीं आये। 

आपातकाल तो समाप्त हो गया; पर जिन लोगों पर इस बीच झूठे मुकदमे लाद दिये गये थे, वे अभी चल रहे थे। इस कारण लोगों को बार-बार तारीख भुगतने के लिए न्यायालय में जाना पड़ता था। संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने ऋषि मुनि जी को यह महत्वपूर्ण काम दिया। डेढ़ वर्ष तक लगातार सचिवालय और न्यायालयों में चक्कर लगाकर उन्होंने सब मुकदमे समाप्त कराये।   

बिहार में ‘इतिहास संकलन योजना’ के काम को प्रारम्भ करने का श्रेय भी ऋषि मुनि जी को ही है। उन्होंने ‘ग्राम गौरव संस्थान’ के नाम से इसमें एक नया और रोचक आयाम जोड़ा। इसके अन्तर्गत गांव का एक सम्मेलन होता था, जिसमें वहां के वयोवृद्ध लोगों के साथ ही अच्छे शिल्पी, कलाकार, पहलवान तथा किसी भी विषय के विशेषज्ञ लोगों को सम्मानित किया जाता था।

ऋषि मुनि जी पुराने समाचार पत्र, उनकी कतरनें तथा अपने सामान को बहुत संभालकर रखतेे थे। यदि कोई इसे छेड़ता, तो वे नाराज भी हो जाते थे। पटना कार्यालय पर रहते हुए वे प्रायः पास की झुग्गी बस्तियों में जाते थे। वहां के बच्चों को वे कार्यालय पर भी बुला लाते थे। इस प्रकार उन्होंने उन बस्तियों से स्नेह और प्रेम का गहरा पारिवारिक सम्बन्ध बना लिया था। 

जीवन के संध्याकाल में वे स्मृतिलोप के शिकार हो गये। उन्हें पुरानी बातें तो याद रहती थीं; पर नयी बात को वे भूल जाते थे। बिहार का प्रान्तीय कार्यालय पटना में है। वहीं पर रहते हुए 10 मई, 2009 को उनका देहांत हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य/वीरेन्द्र जी, विहिप)
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10 मई/जन्म-दिवस


सेवा को समर्पित डा. रामगोपाल गुप्ता

पूर्वोत्तर भारत के सेवा कार्यों में अपना जीवन लगाने वाले डा. रामगोपाल गुप्ता का जन्म कस्बा शाहबाद (जिला रामपुर, उ.प्र.) में 10 मई, 1954 को हुआ था। उनके पिता श्री महेश चंद्र जी की वहां कपड़े की दुकान थी। रामगोपाल जी आठ भाई-बहिन थे। उनका नंबर भाइयों में दूसरा था। मेधावी छात्र होने के कारण कक्षा बारह तक की शिक्षा शाहबाद में प्राप्त करने के बाद उन्हें बरेली (उ.प्र.) के ‘राजकीय आयुर्वेद कॉलिज’ में प्रवेश मिल गया। वहां से 1979 में बी.ए.एम.एस. की डिग्री पाकर वे प्रशिक्षित चिकित्सक हो गये।

बरेली में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महानगर प्रचारक राधेश्याम जी और प्रांत प्रचारक ओमप्रकाश जी के सम्पर्क में आये। यहां पढ़ते हुए ही उन्होंने प्रथम वर्ष ‘संघ शिक्षा वर्ग’ भी किया। उन दिनों वनवासी क्षेत्र में संघ के काम का विस्तार हो रहा था। वहां शाखा से अधिक सेवा कार्यों की आवश्यकता थी। देश भर से सेवाभावी चिकित्सक वहां भेजे जा रहे थे। रामगोपाल जी ने भी इस चुनौती को स्वीकार कर वहां जाने का निश्चय किया।

इससे उनके घर वालों को बड़ा धक्का लगा। वे सोचते थे कि उनका बेटा कहीं नौकरी या निजी पै्रक्टिस करेगा। वे उसके विवाह के लिए सोच रहे थे; पर इस सूचना से वे हतप्रभ रह गये। उन्हें सर्वप्रथम तलासरी (जिला ठाणे, महाराष्ट्र) तथा फिर 1982 में कोरापुट (उड़ीसा) भेजा गया। उनके परिजन सोचते थे कि वे एक-दो साल में वापस आ जाएंगे; पर महाराष्ट्र के बाद उड़ीसा जाने से वे नाराज हो गये। उनके पिताजी उन्हें वापस ले जाने के लिए वहां गये भी; पर रामगोपाल जी अपने संकल्प पर डटे रहे। उड़ीसा में तत्कालीन सहप्रांत प्रचारक श्याम जी गुप्त से उनकी बहुत निकटता थी। 

कोरापुट में जे.के. मिल वालों का एक भवन था। वि.हि.प. के श्री अशोक सिंहल के प्रयास से वह ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ को मिल गया। रामगोपाल जी वहां बैठकर दवा बांटने लगे। वहां शराब और गोमांस का सेवन आम बात थी। रामगोपाल जी दवा देते समय इन दोनों को रोग का कारण बताते थे। वहां तुलसी को मां मानते हैं। अतः उन्होंने और स्वामी लक्ष्मणानंद जी ने गांवों में ‘तुलसी चौरे’ बनवाये। उसकी सेवा की जिम्मेदारी क्रमशः एक-एक परिवार को दी गयी। जिस दिन जिसकी बारी होती, वह उस दिन शराब नहीं पीता था। इससे शराब और गोमांस का प्रयोग कम होने लगा। अतः वनवासियों की आर्थिक दशा सुधरी और रामगोपाल जी के प्रति विश्वास बहुत बढ़ गया।  

अब उन्हें कोरापुट के साथ मलकानगिरी का काम भी दिया गया। यह पूरा क्षेत्र बहुत गरीब है। उन्होंने कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित कर कई चिकित्सा केन्द्र खोले। इससे उड़ीसा में धर्मान्तरण घटा और ‘घर वापसी’ होने लगी। अतः मिशनरी कई तरह के षड्यन्त्र करने लगे; पर कार्यकर्ता साहसपूर्वक डटे रहे। 14 वर्ष उड़ीसा में काम करने के बाद रामगोपाल जी को असम में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का संगठन मंत्री बनाया गया। 1998 से 2006 तक वे अरुणाचल में रहे। तब उन पर पूर्वोत्तर क्षेत्र के सह संगठन मंत्री की जिम्मेदारी थी। 2008 में पूरे पूर्वोत्तर भारत का काम देकर उनका केन्द्र कोलकाता बनाया गया।

रामगोपाल जी बहुत परिश्रमी और विनम्र व्यक्ति थे। वे प्रायः संकटग्रस्त क्षेत्रों में ही रहे, जहां काम का कोई पुराना आधार नहीं था। वहां मासांहार और शराब का आम प्रचलन है; पर वे इनसे दूर ही रहे। काम करते हुए उन्हें कई बार अपमान भी सहना पड़ा; पर वे धैर्यपूर्वक समस्या को समझकर उसका समाधान निकालते थे। बाहरी के साथ ही संगठन की आन्तरिक जटिलताओं से भी उन्हें जूझना पड़ा; पर चुनौतीपूर्ण काम करने में उन्हें आनंद आता था।

इन विपरीत परिस्थितियों में काम करते हुए वे कैंसर रोग से घिर गये, जिसके चलते 22 जनवरी, 2015 को कोलकाता में ही उनका निधन हुआ।  
(संदर्भ : पांचजन्य 8.2.2015/श्याम जी से वार्ता)
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11 मई/बलिदान-दिवस

प्रेरणा पुरुष मास्टर अमीरचन्द

देशप्रेम की भावना व्यक्ति को कभी काले पानी जैसी भयानक जेल में यंत्रणाओं की भट्टी में झांेक देती है, तो कभी वह उसे फांसी के तख्ते पर खड़ा कर देती है। इस परिणाम को जानते हुए भी स्वाधीनता समर के दीवाने एक के बाद एक बलिवेदी पर अपने मस्तक चढ़ाते रहे।

ऐसे ही पे्ररणा पुरुष थे मास्टर अमीरचंद, जिनके कंधों पर 1908-09 में सम्पूर्ण उत्तर भारत में क्रांतिकारी आंदोलन को सुगठित करने का महत्वपूर्ण भार डाला गया था। मास्टर अमीरचंद की शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में ही हुई थी। इसलिए वे दिल्ली के चप्पे-चप्पे से परिचित थे। वे संस्कृत, हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। दिल्ली से बी.ए करने के बाद वे वहां ईसाइयों द्वारा संचालित कैम्ब्रिज मिशन हाई स्कूल में अध्यापक हो गये।

पर अध्यापन कार्य तो एक बहाना था। उनका मन तो देश की स्वाधीनता के लिए ही तड़पता रहता था। बंग-भंग के समय जब देश में स्वदेशी आंदोलन की लहर चली, तो वे उसमें कूद पड़े। कैम्ब्रिज मिशन स्कूल वालों को उनकी यह सक्रियता अच्छी नहीं लगी। अतः उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। इस पर वे नेशनल हाईस्कूल में अध्यापक हो गये। इसकी स्थापना दिल्ली के एक सम्पन्न व्यापारी लाला हनुमन्त सहाय ने अपने घर में ही की थी।

23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की सवारी पर बम फेंका गया। वायसराय तो बच गया, पर उसके अंगरक्षक मारे गये। इसके बाद ढाका, मैमनसिंह और लाहौर में भी विस्फोट हुए। इससे सरकार के कान खड़े हो गये। कोलकाता, दिल्ली तथा पंजाब के अनेक स्थानों पर मारे गये छापों में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध आग उगलने वाले पत्रक, पिस्तौल व कारतूस आदि पकड़े गये। 

मास्टर अमीरचंद, अवधबिहारी और दीनानाथ इस बम विस्फोट के सूत्रधारों में थे। बरामद कागजों में उनके नाम मिलेे। अतः इन्हें पकड़ लिया गया। दीनानाथ पुलिस की मार नहीं झेल सके और क्षमा मांगकर सरकारी मुखबिर बन गये। उनके बताने पर भाई बालमुकुन्द भी गिरफ्तार कर लिये गये।

मास्टर अमीरचंद पर ‘लिबर्टी’ नामक उग्र पर्चा लिखने का आरोप था, जो वायसराय पर बम फेंकते समय बांटा गया था। उसमें लिखा था - हम संख्या में इतने हैं कि उनकी तोपें छीन सकते हैं। ये सड़ी सुधार योजनाएं किसी काम नहीं आएंगी। एक बार तख्ता पलट दो और फिरंगी को मारकर खत्म कर दो...। यह पर्चा उन पर अभियोग चलाने के लिए पर्याप्त था। यद्यपि दिल्ली के अनेक प्रतिष्ठित नागरिकों ने उन्हें निर्दोष बताया। वकीलों ने उनके पक्ष में जोरदार बहस की; पर बहरा शासन कुछ सुनने को तैयार नहीं था।

मास्टर अमीरचंद तो बलिदानी बाना पहन ही चुके थे। उन्हें मृत्यु से कोई भय नहीं था। उन्हें कष्ट था तो इस बात का कि उनके साथी दीनानाथ ने मुखबिरी की; पर अभी उन्हें और अधिक दुख देखने थे। उनका दत्तक पुत्र सुल्तानचंद जब उनके विरुद्ध गवाही देने के लिए न्यायालय में खड़ा हुआ, तो मास्टर अमीरचंद  का दिल टूट गया। उन्होंने भरी आंखों से अपना मुंह फेर लिया। 

11 मई, 1915 को क्रांतिवीरों के प्रेरणा पुंज मास्टर अमीरचंद को दिल्ली में ही फांसी दे दी गयी। उनके साथ फांसी का फंदा चूमने वाले तीन अन्य क्रांतिकारी थे - अवधबिहारी, भाई बालमुकुन्द और बसंतकुमार विश्वास।

(संदर्भ : मातृवंदना, क्रांतिवीर नमन अंक, मार्च-अपै्रल 2008/क्रांतिकारी कोश)
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11 मई/बलिदान-दिवस

अमर बलिदानी अवधबिहारी

मातृभूमि की सेवा के लिए व्यक्ति की शिक्षा, आर्थिक स्थिति या अवस्था कोई अर्थ नहीं रखती। दिल्लीवासी क्रांतिवीर अवधबिहारी ने केवल 25 वर्ष की अल्पायु में ही अपना शीश मां भारती के चरणों में समर्पित कर दिया। 

अवधबिहारी का जन्म चांदनी चैक, दिल्ली के मोहल्ले कच्चा कटरा में 14 नवम्बर, 1889 को हुआ था। इनके पिता श्री गोविन्दलाल श्रीवास्तव जल्दी ही स्वर्ग सिधार गये। अब परिवार में अवधबिहारी, उनकी मां तथा एक बहिन रह गयी। निर्धनता के कारण प्रायः इन्हें भरपेट रोटी भी नहीं मिल पाती थी; पर अवधबिहारी बहुत मेधावी थे। गणित में सदा उनके सौ प्रतिशत नंबर आते थे। उन्होंने सब परीक्षाएं प्रथम श्रेणी और कक्षा में प्रथम आकर उत्तीर्ण कीं।  

छात्रवृत्ति और ट्यूशन के बल पर अवधबिहारी ने सेंट स्टीफेंस काॅलिज से 1908 में प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक लेकर बी.ए किया। उनकी रुचि पढ़ाने में थी, अतः वे लाहौर गये और सेंट्रल टेªनिंग काॅलिज से बी.टी की परीक्षा उत्तीर्ण की। टेªनिंग काॅलिज के एक अंग्रेज अध्यापक ने इनकी प्रतिभा और कार्यक्षमता देखकर कहा था कि ऐसे बुद्धिजीवी युवकों से अंग्रेजी शिक्षा और सभ्यता के प्रसार में बहुत सहायता मिल सकती है; पर उन्हें क्या पता था कि वह युवक आगे चलकर ब्रिटिश शासन की जड़ें हिलाने में ही लग जाएगा।

शिक्षा पूरी कर अवधबिहारी दिल्ली में संस्कृत हाईस्कूल में अध्यापक हो गये; पर वह सरकारी विद्यालय स्वाधीनता के उनके कार्य में बाधक था। अतः उसे छोड़कर वे लाला हनुमन्त सहाय द्वारा स्थापित नेशनल हाई स्कूल में पढ़ाने लगे। दिल्ली में उनकी मित्रता मास्टर अमीरचंद आदि क्रांतिकारियों से हुई, जो बम-गोली के माध्यम से अंग्रेजों को देश से भगाना चाहते थे।

23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की शोभायात्रा  में इन्होंने एक भीषण बम फेंका। वायसराय हाथी पर बैठा था। निशाना चूक जाने से वह मरा तो नहीं; पर बम से उसके कंधे, दायें नितम्ब और गर्दन में भारी घाव हो गये। शासन ने इसकी जानकारी देने वाले को एक लाख रुपये के पुरस्कार की घोषणा की। शासन ने कुछ लोगों को पकड़ा, जिनमें से दीनानाथ के मुखबिर बन जाने से इस विस्फोट में शामिल सभी क्रांतिकारी पकड़े गये।

न्यायालय में अवधबिहारी पर यह आरोप लगाया गया कि बम में प्रयुक्त टोपी उन्होंने ही बसंतकुमार के साथ मिलकर लगायी थी। उन दिनों देश में अनेक विस्फोट हुए थे। अवधबिहारी को उनमें भी शामिल दिखाया गया। सजा सुनाते हुए न्यायाधीश ने लिखा - अवधबिहारी जैसा शिक्षित और मेधावी युवक किसी भी जाति का गौरव हो सकता है। यह साधारण व्यक्ति से हजार दर्जे ऊंचा है। इसे फांसी की सजा देते हुए हमें दुख हो रहा है। 11 मई, 1915 इनकी फांसी की तिथि निर्धारित की गयी।

फांसी से पूर्व इनकी अंतिम इच्छा पूछी गयी, तो इन्होंने कहा कि अंग्रेजी साम्राज्य का नाश हो। जेल अधिकारी ने कहा कि जीवन की इस अंतिम वेला में तो शांति रखो। अवधबिहारी ने कहा, ‘‘कैसी शांति ? मैं तो चाहता हूं भयंकर अशांति फैले, जिसमें यह विदेशी शासन और भारत की गुलामी भस्म हो जाए। क्रांति की आग से भारत कुंदन होकर निकले। हमारे जैसे हजार-दो हजार लोग नष्ट भी हो जाएंगे, तो क्या ?’’ 

यह कहकर उन्होंने फंदा गले में डाला और वन्दे मातरम् कहकर रस्सी पर झूल गये। उस कारागार और फांसीघर के स्थान पर आजकल मौलाना आजाद मैडिकल कॉलिज बना है।

(संदर्भ : मातृवंदना, क्रांतिवीर नमन अंक, मार्च-अपै्रल 2008/क्रांतिकारी कोश)
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11 मई/जन्म-दिवस

वानप्रस्थी सेना के नायक जितेन्द्रवीर गुप्त   

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य विस्तार में प्रचारकों का बड़ा योगदान है। साथ ही उस कार्य को टिकाने तथा समाज के विविध क्षेत्रों में पहुंचाने में वानप्रस्थी कार्यकर्ताओं की बहुत बड़ी भूमिका है। 11 मई, 1929 को नरवाना (हरियाणा) में संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता बाबू दिलीप चंद्र गुप्त के घर जन्मे श्री जितेन्द्रवीर गुप्त वानप्रस्थी कार्यकर्ताओं की मालिका के एक सुगंधित पुष्प थे।

श्री जितेन्द्र जी को संघ के संस्कार घुट्टी में प्राप्त हुए थे। 1947 में बी.ए. कर वे प्रचारक होकर राजस्थान चले गये। प्रथम प्रतिबंध के समय वे बीकानेर जेल में रहे। इसके बाद दिल्ली वि.वि. से कानून की उपाधि लेकर वे पटियाला में वकालत करने लगे। 1963 में वे पंजाब प्रांत कार्यवाह बने। संघ के हिसाब से तत्कालीन पंजाब में वर्तमान पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल तथा जम्मू-कश्मीर आता था। 1974 में वे पंजाब वि.वि. के विधि विभाग में अंशकालीन प्राध्यापक बने। आपातकाल में उन्होंने 16 मास जेल में बिताये।

1979 में वे पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय में न्यायाधीश तथा 1990 में मुख्य न्यायाधीश बनाये गये। उनके कार्य के सब प्रशंसक थे; पर जब उनकी अवहेलना कर एक कनिष्ठ न्यायाधीश को सर्वोच्च न्यायालय में भेजा गया, तो उनके स्वाभिमान पर चोट लगी और उन्होंने त्यागपत्र देकर पूरा समय संघ को समर्पित कर दिया। 

उनके पिता बाबू दिलीप चंद जी अखंड भारत में पंजाब के प्रांत संघचालक थे। उन्होंने श्री गुरुजी की उपस्थिति में वानप्रस्थ दीक्षा ली थी। जितेन्द्र जी ने भी इस परम्परा को आगे बढ़ाया और रज्जू भैया के सान्निध्य में वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार कर लिया।

इसके बाद वे अपना अधिकांश समय प्रवास में लगाने लगे। उन्हें उत्तर क्षेत्र संघचालक के साथ ही संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। वे देश भर में प्रौढ़ स्वयंसेवकों से मिलकर उन्हें वर्तमान परिस्थिति में वानप्रस्थ का महत्व समझाते थे। 

वे कहते थे कि इसका अर्थ वन में जाना नहीं, अपितु घर पर रहकर पूरा समय समाज कार्य में लगाना है। इस दौरान धन कमाने का विचार त्यागकर अपने स्वास्थ्य व पारिवारिक माहौल के अनुसार जिम्मेदारी लेकर काम करना चाहिए। इससे अपना स्वास्थ्य ठीक रहेगा। हमारे अनुभव से समाज को लाभ मिलेगा तथा घर में भी शांति रहेगी। 

उनके प्रयास से देश भर में वानप्रस्थी कार्यकर्ताओं की मालिका तैयार होने लगी। ये कार्यकर्ता बहुत भागदौड़ तो नहीं कर पाते थे; पर सेवा कार्यों की वृद्धि तथा स्थायित्व में इनका बहुत उपयोग हुआ। जितेन्द्र जी ने ‘भारत विकास परिषद’ तथा ‘अधिवक्ता परिषद’ की स्थापना में योगदान दिया तथा इनके माध्यम से समाज के सम्पन्न व प्रबुद्ध वर्ग को हिन्दू विचार से जोड़ा। 

संघ के साथ ही वे अणुव्रत आंदोलन, रामकृष्ण मिशन, सेवा इंटरनेशनल आदि अनेक सामाजिक संगठनों से भी जुड़े थे। जब कभी उनका स्वास्थ्य खराब होता, तो वे हंस कर कहते थे कि सभी यात्राओं की तरह व्यक्ति को अनंत की यात्रा के लिए भी तैयार रहना चाहिए। जब बुलावा आये, चल दें। 

मई 2004 में वे अपने जीवन के 75 तथा उनके पिताजी 100 वर्ष पूर्ण करने वाले थे। जितेन्द्र जी इस अवसर पर संन्यास दीक्षा लेने का मन बना रहे थे; पर विधि का विधान कुछ और ही था। 24 अक्तूबर, 2003 की रात को बारह बजे अचानक उन्होंने कुछ बेचैनी अनुभव की। उनके पारिवारिक चिकित्सक को बुलाया गया। उसकी दवाओं से लाभ न होता देख घर वाले उन्हें पी.जी.आई. ले जाने लगे; पर तभी वे गिर पड़े और उनका शरीर शांत हो गया।

अगले दिन दीपावली थी। सरसंघचालक मा. सुदर्शन जी ने श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि दीपावली के दिन ही एक प्रखर दीपक बुझ गया।
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11 मई/इतिहास-स्मृति

सोमनाथ में ज्योतिर्लिंग स्थापना

गुजरात के जूनागढ़ में समुद्रतट पर स्थित सोमनाथ का पावन मंदिर हमलावरों ने कई बार तोड़ा; पर यह हर बार, पहले से भी अधिक गौरव के साथ फिर सिर उठाकर खड़ा हो गया। 11 मई, 1951 का प्रसंग भी ऐसा ही है। इसमें जहां एक ओर राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने अपने धर्मप्रेम और दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दिया, वहीं प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने हर काम में बाधा डाली।
जूनागढ़ रियासत की प्रजा हिन्दू थी; पर शासक महावत खां (तृतीय) आजादी के बाद उसे पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। इस पर गृहमंत्री सरदार पटेल और केन्द्रीय मंत्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने वहां जनविद्रोह करा दिया। अतः वह अपनी बेगमों, कुत्तों और सम्पत्ति के साथ कराची भाग गया। इस प्रकार नौ नवम्बर, 1947 को जूनागढ़ भारत में मिल गया। चार दिन बाद 13 नवम्बर को सरदार पटेल और मुंशी जी वहां गये। उन्होंने सागर का जल हाथ में लेकर ‘जय सोमनाथ’ कहा और मंदिर के पुनर्निर्माण की घोषणा कर दी। 
इसके बाद काम तेजी से आगे बढ़ने लगा। सरदार पटेल के सामने तो नेहरू जी चुप रहे; पर 15 दिसम्बर, 1950 को उनके देहांत के बाद वे विरोध पर उतर आये। गांधी जी की इच्छा थी कि इसमें सरकार का पैसा न लगे। अतः मंदिर निर्माण के लिए जामसाहब नवानगर श्री दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता में एक न्यास बना। जनता तथा धनपतियों  ने दिल खोलकर दान दिया। न्यास की इच्छा थी कि ज्योतिर्लिंग की स्थापना राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद के हाथों से हो। इसके लिए श्री मंुशी ने उनसे भेंट की।
डा. राजेन्द्र प्रसाद जानते थे कि नेहरू जी इसके विरोधी हैं; पर वे धर्मप्रेमी थे। अतः उन्होंने स्वीकृति दे दी। उन्होंने कहा कि चाहे इसके लिए उन्हें राष्ट्रपति का पद छोड़ना पड़े; पर वे पीछे नहीं हटेंगे। क्योंकि वे राष्ट्रपति बाद में हैं और सनातनी हिन्दू पहले। उन्होंने प्रधानमंत्री को इसकी विधिवत सूचना भी दे दी। इस पर नेहरू जी बौखला गये। उन्होंने कहा सेक्यूलर देश होने के नाते राष्ट्रपति का इसमें शामिल होना ठीक नहीं है। इसके लिए उन्होंने पूर्व गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से आग्रह किया कि वे राष्ट्रपति से कहें; पर श्री राजगोपालाचारी ने हस्तक्षेप से इन्कार कर दिया।
अब नेहरू जी के सामने कोई विकल्प नहीं था। अतः उन्होंने राष्ट्रपति से आग्रह किया कि वे इसमें व्यक्तिगत हैसियत से शामिल हों। यह डा. राजेन्द्र प्रसाद की जीत और नेहरू की हार थी। इधर न्यास के अध्यक्ष ने सभी राज्य सरकारों से आग्रह किया कि वे स्थापना समारोह में पूजा के लिए अपने राज्य की पवित्र नदियों का जल, मिट्टी और कुशा घास भेजें। यह वैश्विक एकता का प्रतीक बने, इसके लिए यही आग्रह उन्होंने विदेशस्थ भारतीय राजदूतों से भी किया। 
इस पर नेहरू जी फिर भड़क गये। चीन में स्थित राजदूत सरदार के.एम.पणिक्कर चीन समर्थक और नेहरू के भक्त थे। उन्होंने सरकार से पूछा कि यह क्या हो रहा है तथा इसका खर्चा किस मद में डाला जाएगा; चीन की सरकार हमारे बारे में क्या सोचेगी ? यद्यपि अधिकांश देशों ने सौजन्यपूर्वक यह सामग्री भेजी तथा इसका समाचार भी प्रकाशित किया। उस दौरान होने वाली मंत्रिमंडल की बैठकों में नेहरू जी प्रायः के.एम. मुुुंशी पर बरसते रहते थे।
एक बार नेहरू जी ने न्यास के अध्यक्ष और श्री मुंशी को धमकी भरा पत्र लिखा। मुंशी जी ने भी उसका मुंहतोड़ उत्तर दिया। न्यास के अध्यक्ष ने विचलित हुए बिना उन्हें भी समारोह में आने का निमंत्रण भेज दिया। नेहरू जी ने इसे पुनरुत्थानवादी कहकर ठुकरा दिया। इन परिस्थितियों में 11 मई, 1951 को राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने भव्य ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। ‘जय सोमनाथ’ का संकल्प पूरा हुआ और जवाहर लाल नेहरू हाथ मलते रहे गये।
(अयोध्या का सच/182 से 192, देवेन्द्र स्वरूप, गं्रथ अकादमी, दिल्ली)
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11 मई/इतिहास स्मृति

        जब बुद्ध फिर मुस्कुराए   

भारत की वैज्ञानिक प्रगति के इतिहास में 11 मई, 1998 का बड़ा महत्व है। उस दिन पोखरण में दूसरी बार परमाणु विस्फोट किया गया था। इससे पहले 18 मई, 1974 को जैसलमेर के पास एक सूखे कुंए में पहला विस्फोट हुआ था। बुद्ध पूर्णिमा होने से इसका कूट नाम बुद्ध मुस्कुराएथा। तब इंदिरा गांधी की सरकार थी; पर उसके बाद अमरीका तथा अन्य परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों के दबाव में चाह कर भी भारत दूसरा परीक्षण नहीं कर सका।

भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी का शुरू से यह मत था कि भारत को परमाणु शस्त्रों से सम्पन्न देश बनना चाहिए। 1996 में भा.ज.पा. नेता अटल जी जब प्रधानमंत्री बने, तो शपथ ग्रहण समारोह में पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने उन्हें एक कागज का टुकड़ा दिया। उस पर लिखा था, ‘कलाम से मिलो।वास्तव में भारत के परमाणु कार्यक्रमों की देखरेख वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. अब्दुल कलाम कर रहे थे। नरसिंहराव भी विस्फोट करना चाहते थे; पर अमरीकी खुफिया उपग्रह यह तैयारी देख लेते थे और दबाव डालकर उसे रुकवा देते थे।

अटल जी की वह सरकार केवल 13 दिन चली। संसद में विश्वासमत न होने से कोई बड़ा निर्णय लेना संभव नहीं था; पर 1998 में दूसरी बार प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने डा.कलाम को बुलाकर इसकी अनुमति दे दी। इस बार सारा काम इतनी चतुराई से हुआ कि अमरीकी उपग्रहों को खबर तक नहीं हुई। 11 मई, 1998 को जब विस्फोट हुआ, तब ही सारी दुनिया को इसका पता लगा। इसका कूट नाम आॅपरेशन शक्तिरखा गया था।

उस दिन सुबह ही आवश्यक पूजा के बाद प्रधानमंत्री अटल जी अपने आधिकारिक आवास (सात, रेसकोर्स मार्ग) में रहने आये थे। उसके बाद सात लोग वहां बैठकर एक विशेष सूचना की प्रतीक्षा करने लगे। वे थे - अटल जी, लालकृष्ण आडवाणी, रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीज, योजना आयोग के उपाध्यक्ष मेजर जसवंत सिंह, वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा, प्रधानमंत्री के राजनीतिक सलाहकार प्रमोद महाजन तथा प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव ब्रजेश मिश्रा।

शाम को चार बजे से कुछ पहले रैक्स लाइन पर संदेश आया, ‘परीक्षण सफल।सब लोग प्रफुल्लित हो उठे। कुछ देर बाद प्रधानमंत्री निवास पर आयोजित प्रेस वार्ता में अटल बिहारी वाजपेयी ने पूरे देश और दुनिया को यह सूचना दी। उन्होंने रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डी.आर.डी.ओ.) के प्रमुख डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, आर.चिदम्बरम्, डा. अनिल काकोडकर, डा. के.संथानम आदि वैज्ञानिकों तथा अभियंताओं को बधाई दी।

उस दिन तीन नियंत्रित विस्फोट किये गये थे। एक फिशन डिवाइस, दूसरा लो यील्ड डिवाइस और तीसरा थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस से हुआ। प्रधानमंत्री ने यह भी बताया कि ये भूमिगत विस्फोट अपनी सुरक्षा तथा शांतिपूर्ण उद्देश्य से किये गये हैं। वातावरण में कैसी भी रेडियोएक्टिविटी नहीं फैली। इस समाचार से देशभक्तों के सीने गर्वित हो गये, तो दूसरी ओर दुनिया में हड़कम्प मच गया। अमरीका की तो मानो नाक ही कट गयी। उसके जासूसी उपग्रह धरे रह गये। परमाणु शक्ति सम्पन्न देश भारत की आलोचना करने लगे। कई देशों ने अनेक प्रकार के आर्थिक और सामरिक प्रतिबंध थोप दिये।

पर इसके बावजूद दो दिन बाद 13 मई को दो विस्फोट और किये गये। इससे सब आवश्यक आंकड़े प्राप्त हो गये। भारत ने दिखा दिया कि यदि राजनीतिक इच्छाशक्ति हो, तो सब संभव है। संयोगवश उस दिन भी बुद्ध पूर्णिमा ही थी। भगवान बुद्ध एक बार फिर मुस्कुराए और भारत परमाणुशक्ति सम्पन्न देश बन गया। 1999 से इसकी स्मृति में 11 मई को राष्ट्रीय प्रोद्यौगिकी दिवसके रूप में मनाते हैं। 2002 में इस विस्फोट के योजनाकार भारत रत्नडा. कलाम ने राष्ट्रपति पद को सुशोभित किया। 

(मेरा देश मेरा जीवन/438) विकी

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12 मई/रोचक संस्मरण

परमवीर धनसिंह थापा का पुनर्विवाह

एक ओर चीनी नेता हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नारे लगा रहे थे, तो दूसरी ओर 20 अक्तूबर, 1962 को उनकी सेना ने अचानक भारत पर हमला कर दिया। उस समय लद्दाख के चुशूल हवाई अड्डे के पास स्थित चैकी पर मेजर धनसिंह थापा के नेतृत्व में गोरखा राइफल्स के 33 जवान तैनात थे।

मेजर थापा खाई में मोर्चा लगाये दुश्मनों पर गोलियों की बौछार कर रहे थे। इस कारण शत्रु आगे नहीं बढ़ पा रहा था। चीन की तैयारी बहुत अच्छी थी, जबकि हमारी सेना के पास ढंग के शस्त्र नहीं थे। यहाँ तक कि जवानों के पास ऊँची पहाडि़यों पर चढ़ने के लिए अच्छे जूते तक नहीं थे। फिर भी मेजर थापा और उनके साथियों के हौसले बुलन्द थे।

जब मेजर थापा ने देखा कि शत्रु अब उनकी चैकी पर कब्जा करने ही वाला है, तो वे हर-हर महादेव का नारा लगाते हुए क्रुद्ध शेर की तरह अपनी मशीनगन लेकर खाई से बाहर कूद गये। पलक झपकते ही उन्होंने दर्जनों चीनियों को मौत की नींद सुला दिया; लेकिन गोलियाँ समाप्त होने पर चीनी सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया और चैकी पर चीन का कब्जा हो गया।

चुशूल चैकी पर कब्जे का समाचार जब सेना मुख्यालय में पहुँचा, तो सबने मान लिया कि वहाँ तैनात मेजर थापा और शेष सब सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गये होंगे। देश भर में मेजर थापा और उनके सैनिकों की वीरता के किस्से सुनाये जाने लगे। 28 अक्तूबर को जनरल पी.एन. थापर ने मेजर थापा की पत्नी को पत्र लिखकर उनके पति के दिवंगत होने की सूचना दी। परिवार में दुःख और शोक की लहर दौड़ गयी; पर उनके परिवार में परम्परागत रूप से सैन्यकर्म होता था, अतः सीने पर पत्थर रखकर परिवारजनों ने उनके अन्तिम संस्कार की औपचारिकताएँ पूरी कर दीं।

सेना के अनुरोध पर भारत सरकार ने मेजर धनसिंह थापा को मरणोपरान्त ‘परमवीर चक्र’ देने की घोषणा कर दी; लेकिन युद्ध समाप्त होने के बाद जब चीन ने भारत को उसके युद्धबन्दियों की सूची दी, तो उसमें मेजर थापा का भी नाम था। इस समाचार से पूरे देश में प्रसन्नता फैल गयी। उनके घर देहरादून में उनकी माँ, बहिन और पत्नी की खुशी की कोई सीमा न थी। इसी बीच उनकी पत्नी ने एक बालक को जन्म दिया था।

10 मई, 1963 को भारत लौटने पर सेना मुख्यालय में उनका भव्य स्वागत किया गया। दो दिन बाद 12 मई को वे अपने घर देहरादून पहुँच गये; पर वहाँ उनका अन्तिम संस्कार हो चुका था और उनकी पत्नी विधवा की तरह रह रही थी। अतः गोरखों की धार्मिक परम्पराओं के अनुसार उनके कुल पुरोहित ने उनका मुण्डन कर फिर से नामकरण किया। इसके बाद उन्हें विवाह की वेदी पर खड़े होकर अग्नि के सात फेरे लेने पड़े। इस प्रकार अपनी पत्नी के साथ उनका वैवाहिक जीवन फिर से प्रारम्भ हुआ।

26 जनवरी, 1964 को गणतन्त्र दिवस पर मेजर धनसिंह थापा को राष्ट्रपति महोदय ने वीरता के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान ‘परमवीर चक्र’ प्रदान किया। इस प्रकार इस वीर ने एक इतिहास रच दिया। 1980 तक सेना में सेवारत रहकर उन्होंने लेफ्टिनेण्ट कर्नल के पद से अवकाश लिया। 1928 में शिमला में जन्मे इस महान मृत्युंजयी योद्धा का 77 वर्ष की आयु में पांच सितम्बर, 2005 को पुणे में देहान्त हुआ। 
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13 मई/जन्म-दिवस

दिल्ली के राजा वसंतराव ओक

संघ की प्रारम्भिक प्रचारकों में एक श्री वसंतराव कृष्णराव ओक का जन्म 13 मई, 1914 को नाचणगांव (वर्धा, महाराष्ट्र) में हुआ था। जब वे पढ़ने के लिए अपने बड़े भाई मनोहरराव के साथ नागपुर आये, तो बाबासाहब आप्टे द्वारा संचालित टाइपिंग केन्द्र के माध्यम से दोनों का सम्पर्क संघ से हुआ। 

डा. हेडगेवार के सुझाव पर वसंतराव 1936 में कक्षा 12 उत्तीर्ण कर शाखा खोलने के लिए दिल्ली आ गये। उनके रहने की व्यवस्था 'हिन्दू महासभा भवन' में थी। यहां रहकर वसंतराव ने एम.ए. तक की पढ़ाई की और दिल्ली प्रांत में शाखाओं का जाल भी फैलाया। आज का दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, अलवर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश उस समय दिल्ली प्रांत में ही था। वसंतराव के परिश्रम से इस क्षेत्र में शाखाओं का अच्छा तंत्र खड़ा हो गया।

वसंतराव के संपर्क का दायरा बहुत विशाल था। 1942 के आंदोलन में उनकी सक्रिय भूमिका रही। गांधी जी, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री, पुरुषोत्तमदास टंडन से लेकर हिन्दू महासभा, सनातन धर्म और आर्य समाज के बड़े नेताओं से उनके मधुर संबंध थे। कांग्रेस वालों को भी उन पर इतना विश्वास था कि मंदिर मार्ग पर स्थित वाल्मीकि मंदिर में होने वाली गांधी जी की प्रार्थना सभा की सुरक्षा स्वयंसेवकों को ही दी गयी थी। 

10 सितम्बर, 1947 को कांग्रेस के सब बड़े नेताओं की हत्याकर लालकिले पर पाकिस्तानी झंडा फहराने का षड्यन्त्र मुस्लिम लीग ने किया था; पर दिल्ली के स्वयंसेवकों ने इसकी सूचना शासन तक पहुंचा दी, जिससे यह षड्यन्त्र विफल हो गया। 

आगे चलकर वसंतराव ने श्री गुरुजी और गांधी जी की भेंट कराई। उन दिनों वसंतराव का दिल्ली में इतना प्रभाव था कि उनके मित्र उन्हें ‘दिल्लीश्वर’ कहने लगे। संघ पर लगे पहले प्रतिबंध की समाप्ति के बाद उनके कुछ विषयों पर संघ के वरिष्ठ लोगों से मतभेद हो गये। अतः गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर वे दिल्ली में ही व्यापार करने लगे; पर संघ से उनका प्रेम सदा बना रहा और उन्हें जो भी कार्य दिया गया, उसे उन्होंने पूर्ण मनोयोग से किया।

गोवा आंदोलन में एक जत्थे का नेतृत्व करते हुए उनके पैर में एक गोली लगी, जो जीवन भर वहीं फंसी रही। 1857 के स्वाधीनता संग्राम की शताब्दी पर दिल्ली के विशाल कार्यक्रम में वीर सावरकर का प्रेरक उद्बोधन हुआ। उन्होंने वसंतराव के संगठन कौशल की प्रशंसा कर उन्हें ‘वसंतराय’ की उपाधि दी। 1946 में उन्होंने ‘भारत प्रकाशन’ की स्थापना कर उसके द्वारा ‘भारतवर्ष’ और ‘आर्गनाइजर’ समाचार पत्र प्रारम्भ किये। विभाजन के बाद पंजाब से आये विस्थापितों की सहायतार्थ ‘हिन्दू सहायता समिति’ का गठन किया था।

वसंतराव के भाषण काफी प्रभावी होते थे। मराठीभाषी होते हुए भी उन्हें हिन्दी से बहुत प्रेम था। 1955 में ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ उन्हीं की प्रेरणा से प्रारम्भ हुआ। इसके लिए शास्त्री जी और टंडन जी ने भी सहयोग दिया। इसकी ओर से प्रतिवर्ष लालकिले पर एक राष्ट्रीय कवि सम्मेलन कराया जाता था, जो अब शासकीय कार्यक्रम बन गया है। 

1957 में उन्होंने दिल्ली में चांदनी चौक से लोकसभा का चुनाव जनसंघ के टिकट पर लड़ा; पर कुछ मतों के अंतर से वे हार गये। 1966 के गोरक्षा आंदोलन में भी उन्होंने काफी सक्रियता से भाग लिया। बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद कांग्रेस और साम्यवादियों ने संघ के विरुद्ध बहुत बावेला मचाया। ऐसे में वसंतराव ने दिल्ली के प्रतिष्ठित लोगों से मिलकर उनके सामने पूरा विषय ठीक से रखा। इससे वातावरण बदल गया। 

अप्रतिम संगठन क्षमता के धनी और साहस की प्रतिमूर्ति वसंतराव का नौ अगस्त, 2000 को 86 वर्ष की आयु में देहांत हुआ।

(संदर्भ : राष्ट्रसाधना भाग दो तथा पांचजन्य 27.8.2000)
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13 मई/इतिहास-स्मृति
 
सोन्या मारुति सत्याग्रह और डा. हेडगेवार

भारत में मुस्लिम समाज सदा अपनी जिद सब पर थोपना चाहता है। इनमें मस्जिद के सामने बाजा बजाना हो या फिर नमाज के समय मंदिर में पूजा, आरती या घंटी की आवाज। आजादी से पूर्व यह समस्या कुछ अधिक ही थी, चूंकि अंग्रेज अधिकारी इसे शह देते थे। वे चाहते थे इससे दोनों समुदायों में फूट पड़े और आजादी का आंदोलन कमजोर हो जाए। इसी प्रकार का एक रोचक प्रसंग पुणे के सोन्या मारुति मंदिर का है।
पुणे में सैकड़ों साल पुराना ऐतिहासिक सोन्या मारुति मंदिर है। इसमें हनुमान जी की मूर्ति काले पत्थर से बनी है। पश्चिममुखी यह मूर्ति पांच फुट ऊंची और ढाई फुट चैड़ी है। इसे ‘डुल्या मारुति’ भी कहते हैं। जन मान्यता है कि मंदिर की स्थापना समर्थ स्वामी रामदास ने की थी। समर्थ स्वामी ने पूरे महाराष्ट्र के सैकड़ों गांवों में हनुमान मंदिर बनवाये थे, जहां एकत्रित होकर हिन्दू युवक बलसाधना करते थे। यहां से निर्मित युवा ही आगे चलकर छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित हिन्दू साम्राज्य के आधार बने।
इस मंदिर के पास एक मस्जिद भी थी। दोनों जगह अपनी-अपनी पद्धति से पूजा और नमाज होती थी; पर कुछ मुसलमान घंटी के स्वर को नमाज में खलल मानते थे। इस कारण 1936 में उपद्रव भी हुआ। प्रशासन मुसलमानों के पक्ष में रहता ही था। अतः जब 1937 में मुसलमानों का पर्व आया, तो उसने 24 अपै्रल से 14 मई तक यह प्रतिबंध लगा दिया कि सोन्या मारुति मंदिर के पश्चिम, दक्षिण तथा उत्तर में 90 फुट की दूरी तक रास्ते या किसी सार्वजनिक स्थान पर कोई बाजा नहीं बजाएगा।। यह प्रतिबंध लक्ष्मीपथ पर ताम्बोली मस्जिद तक लागू रहेगा।
इस अपमान से संपूर्ण हिन्दू समाज उद्वेलित हो उठा। अतः 25 अपै्रल (हनुमान जयंती) से मंदिर में पूजा और घंटीवादन से सत्याग्रह शुरू हो गया। कुछ ही दिन में लगभग एक हजार लोगों ने सत्याग्रह किया। इनमें पुणे के छोटे और बड़े, स्त्री और पुरुष, गण्यमान्य और सामान्य, सब प्रकार के नागरिक थे। प्रसिद्ध साहित्यकार श्री तात्या केलकर ने सत्याग्रह करते हुए एक पत्रक बांटा। उसमें लिखा था, ‘‘हे छोटे से घंटे, तेरी ध्वनि से नौकरशाही की नींव हिल गयी है।’’ इस सत्याग्रह से पुणे के वातावरण में काफी उत्तेजना फैल गयी।
उन दिनों पुणे में चल रहे संघ शिक्षा वर्ग में महाराष्ट्र के सैकड़ों युवक भाग ले रहे थे। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार भी वहां आये हुए थे। कई लोग सोचते थे कि डा. हेडगेवार आदेश करें, तो पुणे के स्वयंसेवक और ये सब प्रशिक्षार्थी भी सत्याग्रह कर देंगे; पर डा. हेडगेवार का कहना था कि स्वयंसेवक को संघ के नहीं, बल्कि हिन्दू के नाते सोचना चाहिए। अतः उसे स्वयंस्फूर्त रूप से, बिना किसी आदेश के सत्याग्रह में जाना चाहिए। संघ भी संस्था के नाते ऐसे काम नहीं करता। स्वयंसेवक भी आम नागरिक लगे, अतः उनके लिए कोई अलग वेश या पहचान भी नहीं होनी चाहिए। 
डा. हेडगेवार स्वयं सत्याग्रह करना चाहते थे; पर इसके लिए उन्होंने वर्ग के समाप्त होने की प्रतीक्षा की। सब शिक्षार्थी जब अपने घर लौट गये, तो 13 मई, 1937 को शाम चार बजे उन्होंने कई प्रतिष्ठित लोगों के साथ ढोल बजाकर सत्याग्रह किया। सबको गिरफ्तार कर थाने ले जाया गया, जहां उन्हें चालान के बाद छोड़ दिया गया। दूसरे दिन से शुरू हुए मुकदमे का निर्णय 17 मई को हुआ। इसके अनुसार डा. हेडगेवार पर 25 रु. जुर्माना किया गया। इस अवसर पर उन्होंने एक लिखित वक्तव्य में अपने कार्य को न्यायोचित बताया।
इस घटना से पुणे और आसपास के हिन्दू समाज में भरपूर जागृति पैदा हुई, जिसका लाभ संघ कार्य की वृद्धि के रूप में हुआ।
(विकी/डा. हेडगेवार चरित/313, ना.ह.पालकर, लोकहित प्रका)
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14 मई/पुण्य-तिथि

उत्कृष्ट लेखक भैया जी सहस्रबुद्धे

प्रभावी वक्ता, उत्कृष्ट लेखक, कुशल संगठक, व्यवहार में विनम्रता व मिठास के धनी प्रभाकर गजानन सहस्रबुद्धे का जन्म खण्डवा (मध्य प्रदेश) में 18 सितम्बर, 1917 को हुआ था। उनके पिताजी वहाँ अधिवक्ता थे। वैसे यह परिवार मूलतः ग्राम टिटवी (जलगाँव, मध्य प्रदेश) का निवासी था।

भैया जी जब नौ वर्ष के ही थे, तब उनकी माताजी का देहान्त हो गया। इस कारण तीनों भाई-बहिनों का पालन बदल-बदलकर किसी सम्बन्धी के यहाँ होता रहा। मैट्रिक तक की शिक्षा इन्दौर में पूर्णकर वे अपनी बुआ के पास नागपुर आ गये और वहीं 1935 में संघ के स्वयंसेवक बने।

1940 में उन्होंने मराठी में एम.ए. और फिर वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। कुछ समय उन्होंने नागपुर के जोशी विद्यालय में अध्यापन भी किया। भैया जी का संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के घर आना-जाना होता रहता था। 1942 में बाबा साहब आप्टे की प्रेरणा से भैया जी प्रचारक बन गये। प्रारम्भ में वे उत्तर प्रदेश के देवरिया, आजमगढ़, जौनपुर, गाजीपुर आदि में जिला व विभाग प्रचारक और फिर ग्वालियर नगर व विभाग प्रचारक रहे। 

1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो उन्हें लखनऊ केन्द्र बनाकर सहप्रान्त प्रचारक के नाते कार्य करने को कहा गया। उस समय भूमिगत रहकर भैया जी ने सभी गतिविधियों का स॰चालन किया। इन्हीं दिनों कांग्रेसी उपद्रवियों ने उनके घर मंे आग लगा दी। कुछ भले लोगों के सहयोग से उनके पिताजी जीवित बच गये, अन्यथा षड्यन्त्र तो उन्हें भी जलाकर मारने का था। 

प्रतिबन्ध हटने पर 1950 में वे मध्यभारत प्रान्त प्रचारक बनाये गये। 1952 में घरेलू स्थिति अत्यन्त बिगड़ने पर श्री गुरुजी की अनुमति से वे घर लौट आये। उन्होंने अब गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर इन्दौर में वकालत प्रारम्भ की। 1954 तक इन्दौर में रहकर वे खामगाँव (बुलढाणा, महाराष्ट्र) के एक विद्यालय में प्राध्यापक हो गये। 

इस दौरान उन्होंने सदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दायित्व लेकर काम किया। 1975 में देश में आपातकाल लगने पर वे नागपुर जेल में बन्द रहे। वहाँ से आकर उन्होंने नौकरी से अवकाश ले लिया और पूरा समय अध्ययन और लेखन में लगा दिया।

भैया जी से जब कोई उनसे सहस्रबुद्धे गोत्र की चर्चा करता, तो वे कहते कि हमारे पूर्वजों में कोई अति बुद्धिमान व्यक्ति हुआ होगा; पर मैं तो सामान्य बुद्धि का व्यक्ति हूँ। 1981 में वे संघ शिक्षा वर्ग (तृतीय वर्ष) के सर्वाधिकारी थे। वर्ग के पूरे 30 दिन वे दोनों समय संघस्थान पर सदा समय से पहले ही पहुँचते रहे। भैया जी अपने भाषण से श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। तथ्य, तर्क और सही जगह पर सही उदाहरण देना उनकी विशेषता थी।

भैया जी एक सिद्धहस्त लेखक भी थे। संघ कार्य के साथ-साथ उन्होंने पर्याप्त लेखन भी किया। उन्होेंने बच्चों से लेकर वृद्धों तक के लिए मराठी में 125 पुस्तकों की रचना की। इनमें ‘जीवन मूल्य’ बहुत लोकप्रिय हुई। उनकी अनेक पुस्तकों का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। लखनऊ के लोकहित प्रकाशन ने उनकी 25 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। उन्होंने प्रख्यात इतिहासकार हरिभाऊ वाकणकर के साथ वैदिक सरस्वती नदी के शोध पर कार्य किया और फिर एक पुस्तक भी लिखी।

माँ सरस्वती के इस विनम्र साधक का देहान्त यवतमाल (वर्धा, महाराष्ट्र) में 14 मई, 2007 को 90 वर्ष की सुदीर्घ आयु में हुआ।
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15 मई/जन्म-दिवस

क्रांतिवीर सुखदेव 

स्वतन्त्रता संग्राम के समय उत्तर भारत में क्रान्तिकारियों की दो त्रिमूर्तियाँ बहुत प्रसिद्ध हुईं। पहली चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल तथा अशफाक उल्ला खाँ की थी, जबकि दूसरी भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की थी। इनमें से सुखदेव का जन्म ग्राम नौघरा (जिला लायलपुर, पंजाब, वर्तमान पाकिस्तान) में 15 मई, 1907 को हुआ था। इनके पिता प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता श्री रामलाल थापर तथा माता श्रीमती रल्ली देई थीं।

सुखदेव के जन्म के दो साल बाद ही पिता का देहान्त हो गया। अतः इनका लालन-पालन चाचा श्री अचिन्तराम थापर ने किया। सुखदेव के जन्म के समय वे जेल में मार्शल लाॅ की सजा भुगत रहे थे। ऐसे क्रान्तिकारी वातावरण में सुखदेव बड़ा हुए। 

जब वह तीसरी कक्षा में थे, तो गवर्नर उनके विद्यालय में आये। प्रधानाचार्य के आदेश पर सब छात्रों ने गवर्नर को सैल्यूट दिया; पर सुखदेव ने ऐसा नहीं किया। जब उनसे पूछताछ हुई, तो उन्होंने साफ कह दिया कि मैं किसी अंग्रेज को प्रणाम नहीं करूँगा।

आगे चलकर सुखदेव और भगतसिंह मिलकर लाहौर में क्रान्ति का तानाबाना बुनने लगे। उन्होंने एक कमरा किराये पर ले लिया। वे प्रायः रात में बाहर रहते थे या देर से आते थे। इससे मकान मालिक और पड़ोसियों को सन्देह होता था। इस समस्या के समाधान के लिए सुखदेव अपनी माता जी को वहाँ ले आये। अब यदि कोई पूछता, तो वे कहतीं कि दोनों पी.डब्ल्यू.डी. में काम करते हैं। नगर से बहुत दूर एक सड़क बन रही है। वहाँ दिन-रात काम चल रहा है, इसलिए इन्हें आने में प्रायः देर हो जाती है। 

सुखदेव बहुत साहसी थे। लाहौर में जब बम बनाने का काम प्रारम्भ हुआ, तो उसके लिए कच्चा माल फिरोजपुर से वही लाते थे। एक बार माल लाते समय वे सिपाहियों के डिब्बे में चढ़ गये। उन्होंने सुखदेव को बहुत मारा। सुखदेव चुपचाप पिटते रहे; पर कुछ बोले नहीं; क्योंकि उनके थैले में पिस्तौल, कारतूस तथा बम बनाने का सामान था। एक सिपाही ने पूछा कि इस थैले में क्या है ? सुखदेव ने त्वरित बुद्धि का प्रयोग करते हुए हँसकर कहा - दीवान जी, पिस्तौल और कारतूस हैं। सिपाही भी हँस पड़े और बात टल गयी। 

जब साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शन के समय लाठी प्रहार से घायल होकर लाला लाजपतराय की मृत्यु हुई, तो सांडर्स को मारने वालों में सुखदेव भी थे। उनके हाथ पर ॐ गुदा हुआ था। फरारी के दिनों में एक दिन उन्होंने वहाँ खूब सारा तेजाब लगा लिया। इससे वहाँ गहरे जख्म हो गये; पर फिर भी ॐ पूरी तरह साफ नहीं हुआ। इस पर उन्होंने मोमबत्ती से उस भाग को जला दिया। 

पूछने पर उन्होंने मस्ती से कहा कि इससे मेरी पहचान मिट गयी और पकड़े जाने पर यातनाओं से मैं डर तो नहीं जाऊँगा, इसकी परीक्षा भी हो गयी। उन्हें पता लगा कि भेद उगलवाने के लिए पुलिस वाले कई दिन तक खड़ा रखते हैं। अतः उन्होंने खड़े-खड़े सोने का अभ्यास भी कर लिया।

जब भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी घोषित हो गयी, तो जनता ने इसके विरोध में आन्दोलन किया। लोगों की इच्छा थी कि इन्हें फाँसी के बदले कुछ कम सजा दी जाये। जब सुखदेव को यह पता लगा, तो उन्होंने लिखा, ‘‘हमारी सजा को बदल देने से देश का उतना कल्याण नहीं होगा, जितना फाँसी पर चढ़ने से।’’ स्पष्ट है कि उन्होंने बलिदानी बाना पहन लिया था।

23 मार्च, 1931 को भगतसिंह और राजगुरु के साथ सुखदेव भी हँसते हुए फाँसी के फन्दे पर झूल गये।

1 टिप्पणी:

  1. भाई साब प्रणाम
    हकर दिन पावन अब नए स्वरुप में बहुत ही अच्छा व् सुन्दर लग रहा हकी ।चित्र भी आने लगे हैं ।क्या चित्रों के निचे उनके नाम लिखे हों क्या ऐसा संबव है ? इस से हमे कादी सुविधा हो जाएगी ।कई बार चित्र गूगल पर भी मिल जाते हैं पर नाम नहीं होने से दिकत होती है ।उपयोगता बढेगी ।
    आप हमारी बातें धैर्य से सुनते हैं उसके लिए धन्यवाद ।
    राजेंद्र कुमार लालवानी
    अजयमेरु महानगर ।

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