मई पहला सप्ताह

1 मई/जन्म-दिवस

निष्ठावान स्वयंसेवक बंसीलाल सोनी

संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री बंसीलाल सोनी का जन्म एक मई, 1930 को वर्तमान झारखंड राज्य के सिंहभूम जिले में चाईबासा नामक स्थान पर अपने नाना जी के घर में हुआ था। इनके पिता श्री नारायण सोनी तथा माता श्रीमती मोहिनी देवी थीं। इनके पुरखे मूलतः राजस्थान के थे, जो व्यापार करने के लिए इधर आये और फिर यहीं बस गये। बाल्यावस्था में ही उन्होंने अपने बड़े भाई श्री अनंतलाल सोनी के साथ शाखा जाना प्रारम्भ किया। आगे चलकर दोनों भाई प्रचारक बने और आजीवन संघ कार्य करते रहे।

यों तो बंसीलाल जी बालपन से ही स्वयंसेवक थे; पर कोलकाता के विद्यासागर काॅलिज में पढ़ते समय उनका घनिष्ठ सम्पर्क पूर्वोत्तर के क्षेत्र प्रचारक श्री एकनाथ रानाडे से हुआ। धीरे-धीरे उनका अधिकांश समय संघ कार्यालय पर बीतने लगा। 1949 में बी.काॅम. की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम उन्हें हुगली जिले के श्रीरामपुर नगर में भेजा गया।

एकनाथ जी के साथ उन्होंने हर परिस्थिति में संघ कार्य सफलतापूर्वक करने के गुर सीखे। कोलकाता लम्बे समय तक भारत की राजधानी रहा है। अतः यहां अनेक भाषाओं के बोलने वाले लोग रहते हैं। बंसीलाल जी हिन्दी के साथ ही बंगला, अंग्रेजी, नेपाली, मारवाड़ी आदि अनेक भाषा-बोलियों के जानकार थे। अतः वे सब लोगों में शीघ्र ही घुलमिल जाते थे। श्रीरामपुर नगर के बाद उन्हें क्रमशः माल्दा और फिर उत्तर बंग का विभाग प्रचारक बनाया गया।

पूर्वोत्तर भारत में नदियों की प्रचुरता है। ये नदियां जहां उस क्षेत्र के लिए जीवनदायिनी हैं, वहां वर्षा के दिनों में इनके कारण संकट भी बहुत आते हैं। 1968 में जलपाईगुड़ी में भीषण बाढ़ आई। इससे सारा जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। जो जहां था, वहीं फंस कर रह गया। हजारों नर-नारी और पशु मारे गये। ऐसी स्थिति में स्वयंसेवकों ने ‘उत्तर बंग सेवा समिति’ बनाकर बंसीलाल जी की देखरेख में जनसेवा के अनेक कार्य किये। 

1971 में ‘बंगलादेश मुक्ति संग्राम’ के समय लाखों शरणार्थी भारत में आ गये। उनमें से अधिकांश हिन्दू ही थे। स्वयंसेवकों ने उनके भोजन, आवास और वस्त्रों का समुचित प्रबन्ध किया। पूरे देश से उनके लिए सहायता राशि व सामग्री भेजी गयी, जिसका केन्द्र कोलकाता ही था। यह सब कार्य भी बंसीलाल जी की देखरेख में ही सम्पन्न हुआ। इतना ही नहीं, वे बड़ी संख्या में टैंट और अन्य सहायता सामग्री लेकर बंगलादेश की राजधानी ढाका तक गये। 

1975 में आपातकाल के समय वे कोलकाता में ही प्रचारक थे। संघ के आह्नान पर स्वयंसेवकों के साथ उन्होंने भी सत्याग्रह कर कारावास स्वीकार किया। आपातकाल और संघ से प्रतिबन्ध की समाप्ति के बाद संघ ने अनेक सेवा कार्य प्रारम्भ किये। इनमें प्रौढ़ शिक्षा का कार्य भी था। बंसीलाल जी के नेतृत्व में 1978 में बंगाल में अनेक ‘प्रौढ़ साक्षरता केन्द्र’ चलाये गये।

1980 में ‘भारतीय जनता पार्टी’ बनने पर उसके केन्द्रीय कार्यालय के संचालन के लिए एक अनुभवी और निष्ठावान कार्यकर्ता की आवश्यकता थी। यह जिम्मेदारी लेकर बंसीलाल जी दिल्ली आ गये। इसके साथ ही उन्होंने असम, बंगाल और उड़ीसा में भाजपा का संगठन तंत्र भी खड़ा किया। 

2003 में उन्हें फिर से वापस बंगाल बुलाकर पूर्वी क्षेत्र बौद्धिक प्रमुख और फिर सम्पर्क प्रमुख बनाया गया। शारीरिक शिथिलता के कारण जब प्रवास में उन्हें कठिनाई होने लगी, तो वे दक्षिण बंग की प्रान्त कार्यकारिणी के सदस्य के नाते अपने अनुभव से नयी पीढ़ी को लाभान्वित करते रहे। 

20 अगस्त, 2010 को 80 वर्ष की दीर्घायु में निष्ठावान स्वयंसेवक श्री बंसीलाल सोनी का कोलकाता के विशुद्धानंद अस्पताल में देहांत हुआ।

(संदर्भ : स्वस्तिका, पांचजन्य..आदि)
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2 मई/जन्म-दिवस

पुरातत्ववेत्ता प्रोफेसर ब्रजबासी लाल

श्रीराम मंदिर आंदोलन के समय जनांदोलन और भारतीय संसद के साथ ही एक मोरचा न्यायालय में भी खुला था, जहां यह बहस होती थी कि राम हुए भी हैं या नहीं; उनका जन्मस्थान क्या अयोध्या और अयोध्या में भी वही स्थान है, जिसके लिए आंदोलन हो रहा है। वहां पर पहले मंदिर था, इसका क्या प्रमाण है..? अंततः सब मोरचों पर सत्य की जीत हुई।

पुरातत्व के आधार पर न्यायालय में मंदिर के पक्ष में प्रमाण देने वाले एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे प्रोफेसर ब्रजबासी लाल। उनका जन्म दो मई, 1921 को झांसी में हुआ था। उन्होंने प्रयाग वि.वि. से संस्कृत में एम.ए. किया; पर पुरातत्व में रुचि के कारण प्रसिद्ध ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता मोर्टिमर व्हीलर के निर्देशन में 1943 में तक्षशिला की उत्खनन से जुड़ गये। इसके बाद उन्होंने महाभारतकालीन कई स्थलों का उत्खनन किया। इनमें हस्तिनापुर (उ.प्र.), शिशुपालगढ़ (उड़ीसा), पुराण किला (दिल्ली) तथा कालीबंगन (राजस्थान) आदि प्रमुख थे।

प्रोफेसर लाल ने 1975 में रामायण स्थलों का पुरातत्वपरियोजना के अन्तर्गत अयोध्या, भरद्वाज आश्रम, नंदीग्राम, चित्रकूट और शंृगवेरपुर में उत्खनन किया। उन्होंने बाबरी ढांचे के नीचे 12 भूमिगत स्तंभ आधारों का पता लगाया। यद्यपि तब तक मंदिर आंदोलन शुरू भी नहीं हुआ था; पर इस खोज से हिन्दू विरोधी सरकार के कान खड़े हो गये। अतः उनसे सभी तकनीकी सुविधाएं वापस लेकर परियोजना रोक दी गयी। इसके बावजूद उनकी इस प्रारंभिक रिपोर्ट को भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद ने 1989 में रामायण और महाभारत की ऐतिहासिकतानामक खंड में प्रकाशित किया।

प्रोफेसर लाल ने इसके बाद इस विषय पर गहन अध्ययन और लेखन शुरू किया। उन्होंने बताया कि बाबरी ढांचे के नीचे मंदिर जैसे स्तंभ हैं तथा मस्जिद की नींव वस्तुतः मंदिर के मलबे पर ही रखी गयी है। ये स्तंभ मस्जिद संरचना सिद्धांत के बिल्कुल उलट थे, चूंकि इन पर हिन्दू देव-देवियों की आकृति तथा हिन्दू धार्मिक चिन्ह मौजूद थे। आगे चलकर उनके इन तथ्यों को न्यायालय ने मान्यता दी, जिससे राममंदिर के पक्ष में निर्णय हो सका।

प्रोफेसर ब्रजबासी लाल के तथ्यात्मक काम को मान्य करते हुए संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने उन्हें अपनी कई समितियों में शामिल किया। संस्कृत और भारतीय संस्कृति के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी। अतः उन्होंने रामायण, महाभारत, सिन्धु घाटी की सभ्यता तथा सरस्वती से संबंधित स्थानों के उत्खनन पर विशेष काम किया। इससे विदेशी तथा उनके चाटुकार भारतीय इतिहासकारों द्वारा गढ़े गये भारत पर हुए आर्यों के आक्रमण जैसे झूठे सिद्धांत औंधे मुंह गिर गये। 

प्रोफेसर लाल 1968 से 1972 तक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षणके महानिदेशक तथा फिर भारतीय उन्नत अध्ययन संस्थान, शिमलाके निदेशक रहे। उन्होंने 50 से अधिक पुस्तकें लिखीं। 2002 में प्रकाशित द सरस्वती फ्लो आॅन: द कंटिन्यूटी आॅफ इंडियन कल्चरतथा 2008 में प्रकाशित राम, हिज हिस्टोरिसिटी, मंदिर एंड सेतु: एविडेंस आॅफ लिटरेचर, आर्कियोलोजी एंड अदर साइंसेजको वैश्विक स्तर पर ख्याति मिली। यद्यपि भारतीय बौद्धिक संस्थानों में बैठे वामपंथियों ने इन्हें महत्व नहीं दिया। उनके 150 से अधिक शोधपत्र राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। 

भारतीय इतिहास के प्रति उनकी सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 2000 में पद्म भूषणतथा 2021 में पद्म विभूषणसे सम्मानित किया। भारतीय संस्कृति के इस महान साधक ने दिल्ली में 10 सितम्बर, 2021 को 101 वर्ष की परिपूर्ण आयु में अपनी जीवन यात्रा को विराम दिया। उनके नाम पर कानपुर के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में पुरातत्व से संबंधित एक पीठ की स्थापना की गयी है। 

(पांचजन्य 25.9.22/44 तथा विकी)

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2 मई/पुण्य-तिथि

आधुनिक विश्वकर्मा बड़े भाई रामनरेश सिंह

‘भारतीय मजदूर संघ’ के प्राणाधार श्री रामनरेश सिंह का जन्म 1925 ई. की दीपावली के शुभ दिन ग्राम बघई (मिर्जापुर, उ.प्र.) में एक सामान्य किसान श्री दलथम्मन सिंह के घर में हुआ था। 1942 में हाईस्कूल कर चुनार तहसील में नकल नवीस के नाते उनकी नौकरी लग गयी। जब वहां सायं शाखा प्रारम्भ हुई, तो ये तहसील की निर्धारित वेशभूषा में ही वहां आने लगे। शाखा पर आने वालों में सबसे बड़े थे। अतः सब इन्हें ‘बड़े भाई’ कहने लगे। 

उन दिनों माधव जी देशमुख मिर्जापुर में जिला प्रचारक थे। 1944 में ये प्राथमिक शिक्षा वर्ग में गये; पर तब तक उन्होंने नेकर नहीं पहना था। उसके लिए मन में संकोच भी था। कार्यकर्ताओं ने उनके नाप का नेकर बनवाकर एक दिन अंधेरे में आग्रहपूर्वक उन्हें पहना दिया। प्रकाश होने पर जब सबने उन्हें देखा, तो जोरदार ठहाका लगाया। इस प्रकार मन की हिचक समाप्त हुई। 

प्राथमिक वर्ग के बाद उन्हांेने अपने गांव में भी शाखा शुरू कर दी। वे हर शनिवार को वहां जाकर सोमवार को वापस आते थे। उनके पिताजी इससे बहुत नाराज थे। एक बार उन्हें इलाज के लिए मिर्जापुर कार्यालय पर रहना पड़ा। तब स्वयंसेवकों ने उनकी बहुत सेवा की, इससे उनके विचार बदल गये। 1946 में बड़े भाई अपनी स्थायी सरकारी नौकरी छोड़कर प्रचारक बन गये। तहसील में अपना काम समय से करने वाले वे एकमात्र कर्मचारी थे। अतः अधिकारियों ने एक महीने तक त्यागपत्र स्वीकार नहीं किया; पर ये फिर काम पर ही नहीं गये। 

उनका विवाह विद्यार्थी जीवन में ही हो चुका था। प्रचारक बनने पर पिताजी ने कहा कि वनवास काल में रामचंद्र जी सीता को अपने साथ ले गये थे। बड़े भाई ने उत्तर दिया कि मैं तो लक्ष्मण जी की तरह राम का सेवक और भक्त हूं; और लक्ष्मण जी वन में अकेले ही गये थे।

बड़े भाई विंध्याचल, मिर्जापुर आदि में जिला प्रचारक रहे। 1948 और 1975 के प्रतिबन्ध काल में उन्होंने सहर्ष कारावरण किया। 1950 में उन्हें कानपुर में प्रभात शाखाओं का काम दिया गया। अपनी जन्मभूमि चुनार में उन्होंने 1950 में पुरुषोत्तम चिकित्सालय, 1952 में माधव विद्या मंदिर तथा 1953 में पंडा समाज की स्थापना की। एक बार उन्होंने भारतीय जनसंघ के टिकट पर चुनाव भी लड़ा। अत्यधिक भागदौड़ से स्वास्थ्य खराब होने पर 1956 में वे कानपुर में संघ कार्यालय तथा वस्तु भंडार के प्रमुख बनाये गये।

‘भारतीय मजदूर संघ’ की स्थापना होने पर उन्हें कानपुर में ही इसका काम दिया गया। धीरे-धीरे उनका कार्यक्षेत्र बढ़ता गया। उन दिनों संगठन की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। अतः बड़े भाई को जनसंघ की ओर से दो बार विधान परिषद में भेजा गया। विधायकों को मिलने वाली यातायात सुविधा का लाभ उठाकर उन्होंने पूरे प्रदेश में संगठन को सबल बनाया। 

आगे चलकर वे मजदूर संघ के राष्ट्रीय महामंत्री बने। उन्होंने मजदूर हित से सम्बन्धित अनेक लेख तथा ट्रेड यूनियन आंदोलन, यूनियन पथ प्रदर्शक तथा भारत में श्रम संघ जैसी पुस्तकें लिखीं। उन्होंने राज्य तथा राष्ट्र-स्तरीय अनेक संस्थाएं बनाकर मजदूर संघ को सबसे आगे पहुंचा दिया। निःसंदेह वे ‘आधुनिक विश्वकर्मा’ ही थे।

इन्हीं दिनों उनके मस्तिष्क में कैंसर के एक फोड़े का पता लगा। मुंबई में उसकी शल्य क्रिया की गयी। चिकित्सकों ने कह दिया था कि इसका दुष्प्रभाव इनके किसी अंग पर अवश्य पड़ेगा। शल्य क्रिया के बाद इनकी नेत्र ज्योति चली गयी। अब कोई इनसे मिलने आता, तो बात करते हुए इनकी आंखों से आंसू बहने लगते थे। इसी अवस्था में दो मई, 1985 को उनका देहांत हुआ।

(संदर्भ : ठाकुर संकटाप्रसाद जी से वार्ता एवं बड़े भाई स्मृति ग्रंथ)
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2 मई/जन्म-दिवस

रामभक्त राजनेता व साहित्यकार आचार्य विष्णुकांत शास्त्री
दो मई, 1929 को कोलकाता में पंडित गांगेय नरोत्तम शास्त्री तथा रूपेश्वरी देवी के घर में जन्मे आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री साहित्य, संस्कृति और राजनीति के अद्भुत समन्वयक थे। मूलतः इनका परिवार जम्मू का था। केवल भारत ही नहीं, तो सम्पूर्ण विश्व में हिन्दी के श्रेष्ठ विद्वान के नाते वे प्रसिद्ध थे। अपने भाषण में उचित समय और उचित स्थान पर प्रसिद्ध कवियों की कविताओं के अंश उद्धृत करने की उनमें अद्भुत क्षमता थी। 

विष्णुकान्त जी की शिक्षा कोलकाता के सारस्वत विद्यालय, प्रेसीडेन्सी काॅलेज और फिर कोलकाता विश्वविद्यालय में हुई। उन्होंने अपने छात्रजीवन की सभी परीक्षाएँ सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। 1944 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये, तो फिर सदा के लिए उससे जुड़ गये। तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी तथा भारतीय जनसंघ के संस्थापक महामन्त्री श्री दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से वे अत्यधिक प्रभावित थे।

26 जनवरी, 1953 को उनका विवाह इन्दिरा देवी से हुआ। इसी वर्ष वे कोलकाता विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक हो गये। तुलसीदास तथा हिन्दी के भक्तिकालीन काव्य में उनकी विशेष रुचि थी। यहाँ उनकी साहित्य साधना को बहुविध आयाम मिले। उन्होंने काव्य, निबन्ध, आलोचना, संस्मरण, यात्रा वृत्तान्त आदि विविध क्षेत्रों में प्रचुर साहित्य की रचना की। 

1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम के समय धर्मयुग के सम्पादक धर्मवीर भारती के साथ आचार्य जी ने मोर्चे पर जाकर समाचार संकलित किये। बाद में वे धर्मयुग में प्रकाशित भी हुए, जिन्हें देश-विदेश में अत्यधिक प्रशंसा मिली। उनकी अन्य सभी पुस्तकें भी हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।

आचार्य जी को जो दायित्व दिया गया, वे उससे कभी पीछे नहीं हटे। वे इसे राम जी की कृपा मानकर काम में लग जाते थे। 1977 में वे विधायक निर्वाचित हुए। आगे चलकर भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें राज्यसभा में भेजा। वहाँ अपनी विद्वत्ता तथा भाषण शैली से वे अत्यधिक लोकप्रिय हुए। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्थान के प्रति अनुराग उनकी जीवनचर्या में सदा प्रकट होता था।

दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन की सरकार बनने पर उन्हें पहले हिमाचल प्रदेश और फिर उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया। उत्तर प्रदेश के राजभवन में पूरी तरह अंग्रेजी छायी थी। शास्त्री जी ने कमरों के नाम बदलकर नीलकुसुम, अमलतास, तृप्ति, प्रज्ञा, अन्नपूर्णा जैसे शुद्ध साहित्यिक तथा भारतीयता की सुगन्ध से परिपूर्ण नाम रखे। जब केन्द्र में सोनिया गान्धी और मनमोहन सिंह की सरकार आयी, तो उन्हें बहुत अपमानजनक ढंग राज्यपाल पद से हटा दिया गया। इस पर भी वे स्थितप्रज्ञ की भाँति शान्त और निश्चल रहे।

वे सदा मुस्कुराते हुए कोलकाता की प्रायः सभी साहित्यिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहते थे। गीता, भागवत, मानस, पुराणों आदि का उनका अध्ययन बहुत व्यापक था। श्री रामनवमी (18 अपै्रल) को वे पटना में गीता पर व्याख्यान देने जा रहे थे; पर 17 अपै्रल 2005 को रेल में ही हुए भीषण हृदयाघात से उनका देहान्त हो गया। 

इस प्रकार रामभक्त आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री श्रीरामनवमी की पूर्वसन्ध्या पर ही श्रीराम के चरणों मे लीन हो गये।
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3 मई/पुण्य-तिथि

बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रमोद महाजन

प्रमोद महाजन को अनेक गुणों के कारण सदा याद किया जाता रहेगा। भारतीय राजनीति में आधुनिकता और परम्परा के अद्भुत समन्वयक, राष्ट्रवादी विचारधारा के प्रबल आग्रही, प्रभावी वक्ता, कुशल संगठक, प्रबन्धन के विशेषज्ञ, प्रयोगधर्मी, गठबन्धन राजनीति के आधार स्तम्भ और सबसे बड़ी बात एक बड़े मन वाले व्यक्ति। उन्होंने भारतीय राजनीति को एक नयी दिशा दी, यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा।

प्रमोद महाजन का जन्म 30 अक्तूबर, 1949 को महबूबनगर (महाराष्ट्र) में हुआ था। वे बचपन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आ गये थे। राजनीति शास्त्र में एम.ए. करने के बाद वे कुछ वर्ष अध्यापक और फिर संघ के प्रचारक भी रहे। इससे पूर्व उन पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का भी काम रहा। इसके बाद वे जनसंघ से जुड़े और अपने प्रभावी व्यक्तित्व और संघर्षशील छवि के कारण शीघ्र ही जनसंघ में लोकप्रिय हो गये।

1975 में जब इन्दिरा गान्धी ने देश में आपातकाल लगाया, तो प्रमोद जी ने इसके विरोध में हुए आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। चुनाव के बाद जनता पार्टी का गठन हुआ, तो वे महाराष्ट्र प्रदेश जनता पार्टी के महासचिव बनाये गये। जब जनता पार्टी के कुछ नेताओं की जिद पर संघ का नाम लेकर विवाद खड़ा किया गया, तो जनसंघ के लोगों ने भारतीय जनता पार्टी के नाम से नया दल बना लिया। प्रमोद जी भी उनमें से एक थे।

भाजपा में भी उन्होंने अनेक महत्त्वपूर्ण दायित्वों पर काम किया। भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने पूरे देश में प्रवास किया, इससे उन्हें राष्ट्रीय राजनीति को समझने का अवसर मिला। वे 10 साल तक भाजपा के राष्ट्रीय महामन्त्री रहे। इस दौरान उन्होंने कटक से अटक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक समाज के सभी वर्गों को भाजपा से जोड़ा। भाजपा को राष्ट्रीय मान्यता दिलाने में प्रमोद जी का योगदान अविस्मरणीय है।

1986 से 2004 तक वे राज्यसभा के सदस्य रहे। 2004 में अटल जी के नेतृत्व में बनी गठबन्धन सरकार में वे रक्षा मन्त्री बने; पर वह सरकार 13 दिन ही चल सकी। 11 वीं लोकसभा के लिए वे मुम्बई से निर्वाचित हुए। इस बार उन्हें सूचना प्रौद्योगिकी मन्त्री का काम मिला। इस पद पर रहते हुए उन्होंने स॰चार तन्त्र के विस्तार में बड़ी भूमिका निभायी। इसके अतिरिक्त वे प्रधानमन्त्री के राजनीतिक सलाहकार तथा संसदीय कार्यमन्त्री भी रहे।

प्रमोद जी को समाचार जगत के लोग भी खूब पसन्द करते थे; क्योंकि वे साफ और स्पष्ट टिप्पणी करते थे। आडवाणी जी ने जब श्रीराम मन्दिर के लिए सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा निकाली, तो उसके सूत्रधार प्रमोद जी ही थे। चुनाव प्रबन्धन में तो उन्हें महारत प्राप्त थी। जब किसी राज्य में चुनाव के समय उन्हें प्रभारी बनाया जाता था, तो विरोधी दल सचेत हो जाते थे। प्रमोद जी के संगणक (कम्प्यूटर) में ताजा आँकड़े भरे रहते थे और उसके आधार पर किये गये विश्लेषण की धाक समर्थक और विरोधी भी मानते थे।

ऐसे निश्छल हृदय वाले प्रमोद जी को उनके छोटे भाई प्रवीण महाजन ने 22 अपै्रल को उनके घर में ही गोली मार दी। 11 दिन तक जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते हुए तीन मई, 2006 को उन्होंने इस असार संसार को छोड़ दिया। प्रमोद जी के असमय जाने से भारतीय राजनीति में असीम सम्भावनाओं का भी अन्त हो गया।
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4 मई/जन्म-दिवस

भीमबेटका गुफा चित्रों के अन्वेषक हरिभाऊ वाकणकर

भारतीय सभ्यता न केवल लाखों वर्ष प्राचीन है, अपितु वह अत्यन्त समृद्ध भी रही है। इसे विश्व के सम्मुख लाने में जिन लोगों का विशेष योगदान रहा, उनमें श्री विष्णु श्रीधर (हरिभाऊ) वाकणकर का नाम उल्लेखनीय है।

हरिभाऊ का जन्म 4 मई, 1919 को नीमच (जिला मंदसौर, म.प्र.) में हुआ था। इतिहास, पुरातत्व एवं चित्रकला में विशेष रुचि होने के कारण अपनी प्राथमिक शिक्षा पूर्ण कर वे उज्जैन आ गये और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी की। इसके बाद वे वहां पर ही प्राध्यापक हो गये। 

उज्जैन के पास दंतेवाड़ा ग्राम में हुई खुदाई के समय उन्होंने अत्यधिक श्रम किया। 1958 में वे एक बार रेल से यात्रा कर रहे थे कि मार्ग में उन्होंने कुछ गुफाओं और चट्टानों को देखा। साथ के यात्रियों से पूछने पर पता लगा कि यह भीमबेटका (भीम बैठका) नामक क्षेत्र है तथा यहां गुफा की दीवारों पर कुछ चित्र बने हैं; पर जंगली पशुओं के भय से लोग वहां नहीं जाते।

हरिभाऊ की आंखों में यह सुनकर चमक आ गयी। रेल कुछ देर बाद जब धीमी हुई, तो वे चलती गाड़ी से कूद गये और कई घंटे की चढ़ाई चढ़कर उन पहाडि़यों पर जा पहुंचे। वहां गुफाओं पर बने मानव और पशुओं के चित्रों को देखकर वे समझ गये कि ये लाखों वर्ष पूर्व यहां बसने वाले मानवों द्वारा बनाये गये हैं। वे लगातार 15 वर्ष तक यहां आते रहे। इस प्रकार इन गुफा चित्रों से संसार का परिचय हुआ। इससे हरिभाऊ को अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली और भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।

संघ के स्वयंसेवक होने के नाते वे सामाजिक क्षेत्र में भी सक्रिय थे। वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, म.प्र. के अध्यक्ष रहे। विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद 1966 में प्रयाग में जब प्रथम 'विश्व हिन्दू सम्मेलन' हुआ, तो एकनाथ रानाडे ने उन्हें वहां प्रदर्शिनी बनाने तथा सज्जा करने के लिए भेजा। फिर तो ऐसे हर सम्मेलन में हरिभाऊ की उपस्थिति अनिवार्य हो गयी। इसके बाद वे विश्व के अनेक देशों में गये और वहां भारतीय संस्कृति, कला, इतिहास और ज्ञान-विज्ञान आदि पर व्याख्यान दिये। 1981 में ‘संस्कार भारती’ की स्थापना होने पर उन्हें उसका महामंत्री बनाया गया।

एक बार वे लंदन के पुरातत्व संग्रहालय में शोध कर रहे थे। वहां उन्होंने सरस्वती की वह प्राचीन प्रतिमा देखी, जिसे धार की भोजशाला पर हमला कर मुस्लिमों ने तोड़ा था। धार में ही जन्मे हरिभाऊ यह देखकर भावुक हो उठे। अगले दिन वे संग्रहालय में गये और प्रतिमा पर एक पुष्प चढ़ाकर वंदना करने लगे। 

उनकी आंखों में आंसू देखकर संग्रहालय का प्रमुख बहुत प्रभावित हुआ। उसने हरिभाऊ को एक अल्मारी दिखाई, जिसमें अनेक अंग्रेज अधिकारियों की डायरियां रखीं थीं। इनमें वास्कोडिगामा की डायरी भी थी, जिसमें उसने स्पष्ट लिखा है कि वह मसालों के एक व्यापारी ‘चंदन’ के जलयान के पीछे चलकर भारत में कोचीन के तट पर आया। कैसी मूर्खता है कि इस पर भी इतिहासकार उस पुर्तगाली डाकू को भारत की खोज का श्रेय देते हैं।

एक बार हरिभाऊ एक हिन्दू सम्मेलन में भाग लेने के लिए सिंगापुर गये। वहां उनके होटल से समुद्र का मनमोहक दृश्य हर समय दिखाई देता था। चार अप्रैल, 1988 को जब वे निर्धारित समय पर सम्मेलन में नहीं पहुंचे, तो लोगों ने होटल जाकर देखा। हरिभाऊ बालकनी में एक कुर्सी पर बैठे थे। घुटनों पर रखे एक बड़े कागज पर अठखेलियां करते समुद्र का आधा चित्र बना था, हाथ की पंेसिल नीचे गिरी थी। इस प्रकार चित्र बनाते समय हुए भीषण हृदयाघात ने उस कला साधक के जीवन के चित्र को ही सम्पूर्ण कर दिया।
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4 मई/पुण्य-तिथि


सरसेनापति मार्तण्डराव जोग 

नागपुर के डोके मठ में 9-10 नवम्बर, 1929 को हुई एक महत्वपूर्ण बैठक में डा. हेडगेवार को आद्य सरसंघचालक, श्री बालासाहब हुद्दार को सरकार्यवाह तथा श्री मार्तंडराव जोग को सरसेनापति घोषित किया गया था। 1899 में एक उद्योगपति परिवार में जन्मे श्री जोग नागपुर में शुक्रवार पेठ स्थित ‘जोगबाड़ा’ के निवासी थे। उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लिया था। कैंसर जैसे भीषण रोग को उन्होंने अपने मनोबल से परास्त कर दिया था। इस कारण लोग उन्हें ‘डाॅक्टर आॅफ दि कैंसर’ भी कहते थे। यद्यपि वे इसका श्रेय अपने बाड़े के विशाल पीपल के वृक्ष और मारुति मंदिर को देते थे।

श्री जोग की संघ और कांग्रेस के प्रति समान निष्ठा थी। वे नागपुर में कांग्रेस सेवा दल के प्रमुख थे। हिन्दू महासभा तथा कांग्रेस के तत्कालीन सभी प्रमुख नेता उनके पास जाते रहते थे। 1930 में वे कारावास में भी रहे। भगवा पगड़ी बांधने वाले श्री जोग कांग्रेस के कार्यक्रमों में सफेद खादी की गांधी टोपी तथा संघ के कार्यक्रम में सगर्व गणवेश की काली टोपी पहनते थे।

हिन्दुत्वप्रेमी होने के कारण श्री जोग की डा. हेडगेवार से गहरी मित्रता थी। संघ की स्थापना वाली बैठक में वे किसी कारण उपस्थित नहीं हो सके; पर अगले दिन उन्होंने डा. जी से मिलकर इस कार्य को समर्थन और सहयोग का आश्वासन दिया। डा. जी उनसे कुछ अधिक सक्रियता की आशा करते थे; पर वे अपने कारोबार तथा अन्य सामाजिक कामों में व्यस्त रहते थे। 

एक बार शरद पूर्णिमा की रात में साढ़े ग्यारह बजे डा. हेडगेवार ने उन्हें किसी काम से आवाज दी; पर उन्होंने आने से साफ मना कर दिया। डा. जी लौट गये; पर श्री जोग सारी रात पछतावे की आग में जलते रहे। अगले दिन उन्होंने डा. जी से अपनी इस भूल के लिए क्षमा मांगी और फिर वे आजीवन डा. हेडगेवार के अनुगामी बने रहे। वे डा. जी के साथ घर-घर जाकर शाखा के लिए बाल और तरुणों को जुटाते थे। संघ शिक्षा वर्ग की व्यवस्था में भी वे लगातार सक्रिय रहते थे।

यद्यपि वे निष्ठावान कांग्रेसी थे; पर साथ ही गर्वीले हिन्दू भी थे। अतः नागपुर के विजयादशमी पथ संचलन में वे घोड़े पर सवार होकर एक हाथ में तलवार तथा दूसरे में भगवा झंडा लेकर चलते थे। नागपुर के सार्वजनिक गणेशोत्सव में भी उनके परिवार की बड़ी भूमिका रहती थी। श्री गुरुजी तथा श्री बालासाहब देवरस उनके घर जाकर प्रायः उनसे परामर्श करते थे। संघ शिक्षा वर्ग के अंतिम दिन सब शिक्षार्थी उनके बाड़े में भोजन पर आमन्त्रित रहते थे।

1948 में गांधी जी की हत्या के बाद कांग्रेसियों ने उनके गुब्बारे के कारखाने को जला दिया। आग घर तक पहुंचने से पूर्व ही आजाद हिन्द सेना के मेजर जोशी ने यह षड्यन्त्र विफल कर दिया। जब दुबारा यह प्रयास हुआ, तो श्री जोग स्वयं बंदूक लेकर आ गये। इससे डरकर गुंडे भाग गये। 

कृषि विशेषज्ञ श्री जोग के घर में गाय, भैंस और कुत्तों के साथ एक चीते का बच्चा भी पलता था। उनका विशाल पुस्तकालय साहित्यप्रेमियों का मंदिर था। 1975 के प्रतिबंध काल में जब सभी प्रमुख कार्यकर्ता जेल चले गये, तो डा0 हेडगेवार की समाधि की दुर्दशा होने लगी। इस पर श्री जोग ने विनोबा भावे और मुख्यमंत्री श्री चह्नाण से मिलकर उसकी देखभाल की व्यवस्था कराई।

चार मई, 1981 को अनेक प्रतिभाओं के धनी, संघ के पहले और एकमात्र सरसेनापति श्री मार्तंडराव जोग का निधन हुआ।

(संदर्भ : स्वदेश इंदौर तथा संघ गंगोत्री)
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5 मई/जन्म-दिवस

सेवा के धाम विष्णु कुमार जी   

सेवा पथ के साधक श्री विष्णु जी का जन्म कर्नाटक में बंगलौर के पास अक्कीरामपुर नगर में पांच मई, 1933 को हुआ। छह भाई और एक बहिन वाले परिवार में वे सबसे छोटे थे। घर में सेवा व अध्यात्म का वातावरण होने के कारण छह में से दो भाई संघ के प्रचारक बने, जबकि दो रामकृष्ण मिशन के संन्यासी। 

विष्णु जी का मन बचपन से ही निर्धनों के प्रति बहुत संवेदनशील था। छात्रावास में पढ़ते समय घर से मिले धन और वस्त्रों को वे निर्धनों में बांट देते थे। शुगर तकनीक में इंजीनियर बनकर वे नौकरी के लिए कानुपर आये। यहां उनका संपर्क संघ से हुआ और फिर यही उनके जीवन का लक्ष्य बन गया।

प्रचारक के रूप में वे अलीगढ़, मेरठ, पीलीभीत, लखीमपुर, काशी, कानुपर आदि स्थानों पर रहे। हिन्दी न जानने से उन्हें प्रारम्भ में कुछ कठिनाई भी हुई। पश्चिम उत्तर प्रदेश में श्रावण मास में बनने वाली मिठाई ‘घेवर’ को ‘गोबर’ कहना जैसे अनेक रोचक संस्मरण उनके बारे में प्रचलित हैं। आपातकाल में कानपुर में उन्होंने ‘मास्टर जी’ के नाम से काम किया। बाद में स्वयंसेवकों पर चल रहे मुकदमों को समाप्त कराने में भी उन्होंने काफी भागदौड़ की। 1978 में उन्हें दिल्ली में प्रौढ़ शाखाओं का काम दिया गया। 

इसी वर्ष सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने स्वयंसेवकों को निर्धन बस्तियों में काम करने का आह्नान किया। विष्णु जी ने इसे चुनौती मानकर ऐसे स्वयंसेवक तैयार किये, जो इन बस्तियों में पढ़ा सकें। काम बढ़ने पर इसे ‘सेवा भारती’ नाम देकर फिर इसका संविधान भी तैयार किया। 14 अक्तूबर, 1979 को श्री बालासाहब देवरस ने विधिवत इसका उद्घाटन किया। 1989 में संघ संस्थापक पूज्य डा. हेडगेवार की जन्मषती के बाद सेवा भारती के काम को पूरे देष में विधिवत प्रारम्भ किया गया। इसके लिए दिल्ली का काम ही नमूना बना।

विष्णु जी काम यद्यपि दिल्ली में करते थे; पर उनके सामने पूरे देश की कल्पना थी। उनकी इच्छा थी कि दिल्ली में एक ऐसा स्थान बने, जहां देश भर के निर्धन छात्र पढ़ सकें। सौभाग्य से उन्हेें मंडोली ग्राम में पांच एकड़ भूमि दान में मिल गयी। इस पर भवन बनाना आसान नहीं था; पर धुन के पक्के विष्णु जी ने इसे भी पूरा कर दिखाया। 

वे धनवानों से आग्रहपूर्वक धन लेते थे। यदि कोई नहीं देता, तो कहते थे कि शायद मैं अपनी बात ठीक से समझा नहीं पाया, मैं फिर आऊंगा। इस प्रकार उन्होंने करोड़ों रुपये एकत्र कर ‘सेवा धाम’ बना दिया। आज वहां के सैकड़ों बच्चे उच्च शिक्षा पाकर देश-विदेश में बहुत अच्छे स्थानों पर काम कर रहे हैं।

विष्णु जी के प्रयास से देखते ही देखते दिल्ली की सैकड़ों बस्तियों में संस्कार केन्द्र, चिकित्सा केन्द्र, सिलाई प्रशिक्षण आदि शुरू हो गये। यहां उन्हें बाबा, काका, भैया आदि नामों से आदर मिलता था। ‘सेवा भारती’ का काम देखकर कांग्रेस शासन ने उसे 50,000 रु. का पुरस्कार दिया। जब कुछ कांग्रेसियों ने इन प्रकल्पों का विरोध किया, तो बस्ती वाले उनके ही पीछे पड़ गये। 

विष्णु जी अनाथ और अवैध बच्चों के केन्द्र ‘मातृछाया’ तथा ‘वनवासी कन्या छात्रावास’ं पर बहुत जोर देते थे। 1995 में उन्हें मध्य प्रदेश भेजा गया। यहां भी उन्होंने सैकड़ों प्रकल्प प्रारम्भ किये। इस भागदौड़ के कारण 2005 में उन्हें भीषण हृदयाघात हुआ; पर प्रबल इच्छाशक्ति के बलपर वे फिर काम में लग गये। इसके बाद हैपिटाइटस बी जैसे भीषण रोग ने उन्हें जर्जर कर दिया। 

इलाज के लिए उन्हें दिल्ली लाया गया, जहां 25 मई, 2009 को उन्होंने अंतिम सांस ली। उनकी स्मृति में म0प्र0 शासन ने सेवा कार्य के लिए एक लाख रुपये के तीन तथा भोपाल नगर निगम ने 51,000 रुपये के एक पुरस्कार की घोषणा की है।
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5 मई/जन्म-दिवस      

बहुमुखी कलाकार इंदिराबाई राजाराम केलकर   

हरिकीर्तन से शास्त्रीय गायिका तक की यात्रा करने वाली संगीत की साधिका इंदिराबाई राजाराम केलकर का जन्म एक संगीतकार परिवार में पांच मई, 1919 को दक्षिण महाराष्ट्र के कुरूंदवाण में हुआ था। पांच वर्ष की अवस्था में ही इनके पिता का निधन हो गया। इसके बाद इनकी मां ने कीर्तन को अपनी आजीविका का साधन बनाया। वे विभिन्न गांव एवं नगरों में कीर्तन के लिए जाती थीं। बालिका इंदु को भी उनके साथ जाना पड़ता था। इस प्रकार इंदु पर गायन और कीर्तन के संस्कार बालपन से ही पड़ गये।

इंदु ने संगीत की शिक्षा हारमोनियम बजाने से प्रारम्भ की। कुछ ही दिन में वह इसमें इतनी पारंगत हो गयी कि मां के साथ संगत करने लगी। जब मां  बीच में कुछ देर विश्राम लेतीं, तो इंदु कीर्तन करने लगती। इससे छह-सात वर्ष की होते तक बाल कीर्तनकार के रूप में उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी और उसके कार्यक्रम स्वतन्त्र रूप से होने लगे।

1927 में इन्दु ने मुंबई में जाकर पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर की शिष्यता ग्रहण की। इसके साथ ही वे अपने घर के आसपास की लड़कियों और महिलाओं को हारमोनियम, नाट्य संगीत तथा भक्ति गायन की शिक्षा भी देती थीं। इससे उन्हें जो आय होती थी, उससे उनके घर का खर्च चलता था।

धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि एक संगीत गुरु के रूप में हो गयी। उन्होंने ‘शारदा संगीत विद्यालय’ की स्थापना कर इस कार्य का और विस्तार किया। सिखाने के साथ उनका सीखने का क्रम भी चलता रहता था। उन्होंने मास्टर कृष्णराव फुलंबरीकर और श्रीपाद नावरेकर से गायन तथा उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खां से सितार की शिक्षा ली। इसके बाद उन्होंने अखिल भारतीय गांधर्व महाविद्यालय से संगीत में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 

इंदिराबाई बहुमुखी प्रतिभा की कलाकार थीं। युवावस्था में उनका रुझान गीत और संगीत के साथ अभिनय की ओर भी हुआ। अनेक नाटकों में उन्होंने पुरुष और महिला पात्रों की भूमिकाएं कीं, जिन्हें लोगों ने बहुत सराहा। 1966 में रंगमंच से विदा लेकर वे अपना पूरा समय शारदा विद्यालय को ही देने लगीं। यद्यपि 1986 में विद्यालय की आर्थिक दशा सुधारने के लिए हुए समारोह में उन्होंने 67 वर्ष की परिपक्व अवस्था में भी अभिनय किया।

गीत, संगीत और अभिनय के साथ इंदिराबाई ने कई कहानियां, नाटक और कविताएं भी लिखीं। 1937 में अपने पहले नाटक ‘आकाची हुकूमत’ का मंचन उन्होंने अपनी शिष्याओं के साथ किया था। 1940 में उनका विवाह श्री राजाराम केलकर से हुआ। उनके पति ने उन्हें हर कदम पर सहयोग दिया। 

कला के साथ वे सामाजिक कार्यों में भी अग्रणी रहती थीं। अंतरराष्ट्रीय बाल वर्ष, अंतरराष्ट्रीय विकलांग वर्ष, अंतरराष्ट्रीय युवा वर्ष, शिवा जयंती, गुरु नानक जयंती, मकर संक्रांति, गुरु पूर्णिमा आदि पर वे संगीत समारोह का आयोजन करती थीं। उनकी समाज सेवा के लिए महाराष्ट्र शासन तथा सामाजिक संस्थाओं ने उन्हें अनेक पुरस्कार और सम्मान प्रदान किये। 

जीवन के संध्याकाल में भीड़ और कोलाहल से दूर रहकर वे अपना पूरा समय स्वरचित और स्वरबद्ध गीत रामायण और गीत सावित्री जैसी भक्ति रचनाओं के गायन में लगाने लगीं। 26 फरवरी, 1990 को उनका देहांत हुआ। 1996 में उनके पुत्र ने नाद ब्रह्म मंदिर का निर्माण कर उसे अपनी मां के गुरु श्री पलुस्कर की स्मृति को समर्पित कर दिया। इसका उद्घाटन करने विख्यात शास्त्रीय गायक श्री भीमसेन जोशी आये थे। 
(संदर्भ : जनसत्ता 14.3.2010)
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5 मई/जन्म-दिवस                  

राष्ट्रभक्त अब्दुल हमीद कैसर ‘लखपति’

अखंड भारत के समर्थक अब्दुल हमीद कैसर का जन्म पांच मई, 1929 को राजस्थान में झालावाड़ जिले के एक छोटे कस्बे बकानी में हुआ था। उनके जागीरदार पिता कोटा रियासत में तहसीलदार थे। 1954 में एक लाख रु0 की लाटरी निकलने के कारण वे ‘लखपति’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
तीन वर्ष की अवस्था में पिता की मृत्यु के बाद कुछ दुष्ट सम्बन्धियों ने उनकी सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया। अतः वे बूंदी आ गये। बूंदी और झालावाड़ के बाद उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कोटा के हितकारी विद्यालय से कक्षा दस उत्तीर्ण की। विद्यालय के प्राचार्य श्री शम्भूदयाल सक्सेना भी स्वाधीनता सेनानी तथा प्रजामंडल के नेता थे। यहां पढ़ते समय उनकी मित्रता रामचंद्र सक्सेना से हुई। ये दोनों हर आंदोलन में सदा सक्रिय रहते थे। 
अगस्त 1942 में कोटा में प्रजामंडल की ओर से ‘तिलक जयन्ती’ मनाई गयी। इसमें नौ अगस्त, 1942 को मुंबई में होने वाले अधिवेशन में भाग लेने तथा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ को समर्थन देने का प्रस्ताव पारित किया गया। इस कार्यक्रम में नगर के गण्यमान्य लोगों के साथ रामचंद्र सक्सेना एवं अब्दुल हमीद कैसर के नेतृत्व में छात्रों ने भी भाग लिया था। 
इसी बीच अंग्रेजों ने कांग्रेस के प्रमुख नेताओं को जेल भेज दिया। इस पर प्रजामंडल के कार्यकर्ताओं तथा छात्रों ने कोटा के सब विद्यालयों में हड़ताल करा दी। 13 अगस्त को कोटा रियासत ने प्रजामंडल के नेताओं को भी बंद कर दिया। इस पर सब लोग कोतवाली को घेर कर बैठ गये। यह देखकर शासन ने घुड़सवार पुलिस बुलाकर लाठियां चलवा दीं। इससे कई लोगों को चोट आयी। रामचंद्र सक्सेना तथा अब्दुल हमीद कैसर के सिर भी फट गये।
इस घेराव से कोतवाली में बंद अधिकारी परेशान हो गये। जनता ने शहर में आने के मार्ग बंद कर रखे थे। फिर भी 19 अगस्त को सेना शहर में आ गयी; पर इससे आंदोलनकारियों का मनोबल कम नहीं हुआ। अंततः 20 अगस्त को सब नेताओं की मुक्ति के बाद कोतवाली का घेराव समाप्त हुआ।
1943 में बनारस से मैट्रिक उत्तीर्ण कर श्री कैसर ने कुछ समय बूंदी रियासत में नौकरी की और फिर वे अलीगढ़ पढ़ने चले गये। इससे नाराज होकर बंूदी के अंग्रेज दीवान ने उनसे वह सब राशि वापस ले ली, जो अब तक उन्हें वेतन के रूप में मिली थी। अलीगढ़ उन दिनों पाकिस्तान समर्थकों का गढ़ था; पर श्री कैसर उनके विरोधी थे। 1946 में कुछ लोगों ने भारतप्रेमी नगरपालिका अध्यक्ष श्री रफीक अहमद किदवई पर हमला कर दिया। ऐसे में श्री कैसर ने अपनी जान जोखिम में डालकर उनकी प्राणरक्षा की।
श्री कैसर भारत को अखंड देखना चाहते थे; पर कांग्रेस की ढुलमुल नीति, अंग्रेजों के षड्यन्त्र तथा देश विरोधियों की गुंडागर्दी के कारण उनकी इच्छा पूरी नहीं हो सकी। अतः स्वाधीनता के बाद वे प्रत्यक्ष चुनावी राजनीति से दूर ही रहे। यद्यपि उनके कई साथी राजनीति में बड़े पदों पर पहुंच गये।
अलीगढ़ से शिक्षा पूर्ण कर वे बूंदी में वकालत करने लगे। 1961 में उन्होंने श्री लालबहादुर शास्त्री को वचन दिया था कि वे निर्धनों तथा वनवासियों के मुकदमे निःशुल्क लड़ेंगे। इसे उन्होंने आजीवन निभाया। 18 जुलाई, 1998 को सैयद मोहम्मद अब्दुल हमीद कैसर ‘लखपति’ का निधन हुआ।
(संदर्भ: अंतरजाल पर उपलब्ध भारतकोश)
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5 मई/जन्म-दिवस
  परावर्तन में सक्रिय जुगलकिशोर जी
राजस्थान की वीरभूमि ने जहां अनेक वीरों, वीरांगनाओं, बलिदानियों एवं त्यागियों-तपस्वियों को जन्म दिया है, वहां संघ कार्य के लिए अनेक जीवनव्रती प्रचारक भी दिये हैं। उनमें से ही एक श्री जुगलकिशोर जी का जन्म पांच मई, 1947 को जिला सीकर के लोसल ग्राम में श्री चांदमल अग्रवाल एवं श्रीमती मोहिनी देवी के घर में हुआ था। 

चार भाई और दो बहिनों के बीच सबसे छोटे जुगल जी के घर का वातावरण संघमय था। गांव में शाखा लगती थी। अतः विद्यार्थी जीवन में ही वे अपने बड़े भाई के साथ सायं शाखा जाने लगे। शाखा के रोचक एवं संस्कारप्रद खेल, गीत, वहां सुनाई जाने वाली कहानी एवं वीरगाथाओं से प्रेरित होकर कक्षा दस में पढ़ते हुए ही उन्होंने प्रचारक बनने का निश्चय कर लिया।

अपनी पूर्व विश्वविद्यालयीन शिक्षा पूर्ण कर वे 1966 में प्रचारक बन गये। चिकित्सा विज्ञान में रुचि के कारण उन्होंने प्रचारक रहते हुए पत्राचार से होम्योपैथी का प्रशिक्षण भी लिया। प्रारम्भ में उन्हें रांची (झारखंड) भेजा गया। उन्होंने खूंटी, गुमला आदि वनवासी क्षेत्रों में कई शाखाएं प्रारम्भ कीं। वहां ईसाई गतिविधियां देखकर संघ कार्य करने का उनका निश्चय और दृढ़ हो गया। दो वर्ष वहां रहकर 1968 में उन्हें फिर राजस्थान बुला लिया गया।

इसके बाद जुगलकिशोर जी का कार्यक्षेत्र मुख्यतः राजस्थान ही रहा। वे भरतपुर, सवाई माधोपुर आदि में जिला व फिर विभाग प्रचारक रहे। 1988 से 96 तक जयपुर विभाग प्रचारक रहते हुए उनके पास कई वर्ष तक ‘ज्ञान गंगा प्रकाशन’ का काम भी रहा। यह एक प्रसिद्ध प्रकाशन है, जिसने संघ विचार की सैकड़ों पुस्तकें प्रकाशित की हैं। जुगल जी ने भी उन पुस्तकों के लिए सामग्री संकलन, लेखन एवं सम्पादन में योगदान दिया। 

आपातकाल के दौरान जुगल जी भरतपुर में भूमिगत रहकर कार्य करते रहे। योजनाबद्ध रूप से कुछ ही देर में पूरे नगर में तानाशाही विरोधी पत्रक बंटवाने में उन्हें महारत प्राप्त थी। इससे देशभक्तों को प्रसन्नता होती थी; पर पुलिस एवं कांग्रेसी चमचों के चेहरे काले पड़ जाते थे। अतः पुलिस उनके पीछे पड़ गयी। सितम्बर में उन्हें गिरफ्तार कर पहले डी.आई.आर. और फिर मीसा जैसे काले कानून लगाकर जेल में डाल दिया गया, जहां से उन्हें इंदिरा गांधी के पराभव एवं संघ से प्रतिबन्ध हटने के बाद ही मुक्ति मिली। जेल से आकर अनुकूल माहौल का लाभ उठाते हुए वे दूने उत्साह से संघ कार्य में जुट गये।

1996 में जुगल जी को विश्व हिन्दू परिषद का जयपुर प्रांत का संगठन मंत्री का कार्य दिया गया। राजस्थान में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे मुसलमान रहते हैं, जो स्वयं को पृथ्वीराज चैहान का वंशज मानते हैं। उनके रीति-रिवाज, वेशभूषा तथा खानपान हिन्दुओं से काफी मिलता है। वे वापस हिन्दू धर्म में आना भी चाहते हैं; पर किसी हिन्दू संस्था ने ऐसा प्रयास नहीं किया। इस नाते विश्व हिन्दू परिषद ने ‘धर्म प्रसार’ नामक आयाम का गठन किया। इससे परावर्तन के काम ने गति पकड़ ली। वर्ष 2000 ई. में जुगलकिशोर जी को भी केन्द्रीय सहमंत्री के नाते इसी काम में लगाया गया। 

वर्ष 2005 में उन्हें पूरे राजस्थान का क्षेत्र संगठन मंत्री बनाया गया। 2009 से धर्म प्रसार के केन्द्रीय मंत्री के नाते वे पूरे देश में घूमकर परावर्तन कार्य करा रहे हैं। परावर्तित गांवों में कुछ स्थायी गतिविधियां चलाने के लिए वे गांव में मंदिर की स्थापना कराते हैं। इनसे सत्संग, एकल विद्यालय, बाल संस्कार केन्द्र, साप्ताहिक चिकित्सा केन्द्र आदि का संचालन होता है। 

ईश्वर जुगल जी को स्वस्थ रखे, यही कामना है।
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6 मई/जन्म-दिवस


       सेवाप्रिय राधेश्याम जी

संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो. राजेन्द्र सिंह का प्रयाग से बड़ा गहरा नाता था। उन्होंने वहां से उच्च शिक्षा प्राप्त की तथा फिर वहीं प्राध्यापक भी रहे। उनका वहां एक निजी मकान भी था। उनके निधन के बाद वहां ‘प्रो. राजेन्द्र सिंह स्मृति सेवा न्यास’ का गठन किया गया है। सेवा कार्य को समर्पित इस न्यास के संगठन मंत्री थे, संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री राधेश्याम जी।

राधेश्याम जी का जन्म छह मई, 1955 को उ.प्र. के महोबा जिले में स्थित ग्राम ‘अतरपठा’ में हुआ था। उनके पिता श्री रामनारायण त्रिपाठी की गांव के मुखिया होने के नाते अत्यधिक प्रतिष्ठा थी। जमींदारी के काल में इस परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी; पर धीरे-धीरे समय बदल गया। चार भाइयों में राधेश्याम जी का दूसरा नंबर था। बचपन से वे पढ़ने में अच्छे थे। घर वालों की भी इच्छा थी कि वे खूब पढ़ें। अतः उन्हें उस क्षेत्र के प्रतिष्ठित ‘त्यागमूर्ति खैर इंटर कॉलिज, गौसराय (झांसी)’ में प्रवेश दिला दिया गया।

पढ़ाई में अच्छे होने के कारण सभी शिक्षक राधेश्याम जी से स्नेह करते थे। एक अध्यापक श्री रुद्रमाल परसारिया ने उनका परिचय संघ की शाखा से कराया। धीरे-धीरे उनका रुझान शाखा के प्रति बढ़ने लगा। जब इसका पता उनकी दादी को लगा, तो उन्होंने इसका विरोध किया; पर तब तक संघ का विचार राधेश्याम जी के मन में गहराई तक पैठ चुका था।

इंटर के बाद पं. रामसहाय शर्मा डिग्री कॉलिज नेवाड़ी (म.प्र.) से बी.ए. तथा झांसी से बी.पी.एड. कर वे महोबा के इंटर कॉलिज में शारीरिक विषय के अध्यापक हो गये। 1975 में उनका विवाह पुष्पादेवी से हुआ, जो उस समय एम.बी.बी.एस. की छात्रा थीं। विवाह के बाद जीवन सामान्य गति से चलने लगा; पर विधि का विधान कुछ और ही था। इस दाम्पत्य से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जो अल्पकाल में ही चल बसा। यह दुख उनकी पत्नी अधिक समय तक नहीं झेल सकी और वह भी असमय ही काल कवलित हो गयीं।

इन गंभीर झटकों ने राधेश्याम जी का जीवन बदल दिया। अब उनकी रुचि सांसारिक कार्यों से हट गयी। अतः झांसी के तत्कालीन विभाग प्रचारक ठाकुर संकठाप्रसाद की प्रेरणा से वे पूरा समय संघ और अन्य सामाजिक कामों में लगाने लगे। कुछ समय वे महोबा के सरस्वती शिशु मंदिर में प्राचार्य रहे। फिर यह सब छोड़कर वे प्रचारक बन गये। 

प्रचारक के नाते उन पर क्रमशः फरुखाबाद तहसील, हरदोई जिला, उरई जिला, लखनऊ विभाग, गोंडा विभाग तथा बहराइच विभाग का काम रहा। फिर वे गोरक्ष प्रांत के बौद्धिक प्रमुख बनाये गये। उरई जिले में उनका काम विशेष उल्लेखनीय रहा। उन्होंने एक बार योजनाबद्ध रूप से 40 विस्तारक निकाले तथा दस दिन के प्रशिक्षण के बाद सबको दो-दो मंडलों का काम दिया। इस प्रकार जिले के सभी 82 मंडल शाखायुक्त हो गये।

सादगीप्रिय राधेश्याम जी इस बीच हृदय रोग से पीड़ित हो गये। वर्ष 2002 में लखनऊ में उनकी बाइपास सर्जरी हुई। अब चिकित्सकों ने उन्हें ठीक से भोजन, विश्राम तथा दवा लेने का आग्रह किया। अतः उनका केन्द्र प्रयाग बनाकर उन्हें ‘प्रो. राजेन्द्र सिंह स्मृति सेवा न्यास’ का संगठन मंत्री बना दिया गया। 

सेवा कार्य में रुचि होने के कारण वे न्यास के काम को बढ़ाने में लग गये। दिल्ली, लखनऊ, प्रयाग तथा पुणे में इस संबंध में कई कार्यक्रम हुए; पर काम के साथ हृदय रोग भी बढ़ता जा रहा था। दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान से भी उनकी चिकित्सा होती रही। अंततः एक समय ऐसा आया कि उन्हें ‘पेसमेकर’ लगाना पड़ा; पर काम की धुन में वे इसके बाद की आवश्यक सावधानियां भी भूल जाते थे। उसका दुष्परिणाम होना ही था और एक जुलाई, 2014 को प्रयाग संघ कार्यालय पर ही उनका निधन हो गया।

(संदर्भ : हरिमंगल जी, प्रयाग तथा डा. प्रयाग नारायण, उरई)
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6 मई/पुण्य-तिथि

वाचन शिरोमणि पंडित नारायण प्रसाद पोखरेल   

भगवान की कथा हिन्दुत्व एवं धर्म के जागरण का एक प्रभावी माध्यम है। भारत में शायद ही कोई गांव या नगर हो, जहां प्रतिवर्ष भागवत और श्रीराम की कथा न होती हो। हजारों लोग इससे पुण्य प्राप्त कर अपना परिवार भी चला रहे हैं। प्रायः सभी कथावाचक अपने क्षेत्र में कोई सेवा कार्य भी करते हैं। 

भारत का पड़ोसी नेपाल सदा से हिन्दू राष्ट्र रहा है; पर पिछले कुछ वर्षों से वहां माओवादी प्रभावी हो गये हैं। वस्तुतः पड़ोस में बसा दुष्ट चीन उस पवित्र भूमि को हड़पना चाहता है। इन्होंने नेपाल की हिन्दू राष्ट्र की मान्यता भी समाप्त कर दी है। इससे न केवल नेपाल अपितु विश्व भर के हिन्दू दुखी हैं।

नेपाल में भी भारत की तरह धार्मिक कथा कहने और सुनने की व्यापक परम्परा है। 1958 में जन्मे पंडित नारायण प्रसाद पोखरेल वहां ‘वाचन शिरोमणि’ के नाते विख्यात थे। उनका कथा कहने और उसकी व्याख्या करने का ढंग निराला था। वे कथा में स्थानीय लोकजीवन के संदर्भों का व्यापक प्रयोग करते थे। इस कारण हजारों लोग मंत्रमुग्ध होकर घंटो तक उनकी कथा सुनते थे; पर इसी से वे माओवादियों की आंख में कांटे की तरह चुभने लगे। 

श्री पोखरेल का जन्म गोरखा जिले में एक धर्मप्रेमी कृषक परिवार में हुआ था। पारिवारिक संस्कारों के कारण वे बचपन में ही संस्कृत पढ़ने के लिए काशी आ गये। कथा में रुचि होने के कारण शिक्षा पूर्ण कर वे वृन्दावन आकर कथा बोलने का अभ्यास करने लगे। इसके बाद वापस नेपाल जाकर उन्होंने इसे ही अपना  जीवन-कार्य बना लिया। कुछ ही समय में वे सब ओर प्रसिद्ध हो गये।

1999 में श्री पोखरेल का संपर्क विश्व भर में हिन्दुओं को संगठित करने वाली संस्था ‘विश्व हिन्दू महासंघ’ से हुआ। उस साल महासंघ की नेपाल इकाई का अधिवेशन पोखरा में हुआ था। इसमें उन्हें नेपाल इकाई का अध्यक्ष चुना गया। उनके नेतृत्व में महासंघ का कार्य बहुत तेजी से आगे बढ़ा। इसके 3,000 आजीवन सदस्य तथा आठ जिलों में स्थायी कार्यालय बन गये।

श्री पोखरेल कथा के माध्यम से आने वाले धन का समाज हित में ही उपयोग करते थे। उन्होंने नेपाल के 65 जिलों में 525 स्थानों पर भागवत कथा के द्वारा दो अरब रुपया एकत्र किया। इससे उन्होंने सैकड़ों प्राथमिक, माध्यमिक एवं महिला विद्यालय, महाविद्यालय, चिकित्सालय, धर्मशाला, महिला उत्थान केन्द्र, बाल कल्याण केन्द्र, मंदिर तथा सड़कों आदि का निर्माण कराया। 

नेपाल के सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में यह पहला उदाहरण था कि किसी ने शासन या विदेशी सहयोग के बिना, केवल भागवत कथा द्वारा समाज की इतनी सेवा की। इससे पूरे समाज और धनपतियों को एक नयी दिशा प्राप्त हुई। वेस्ट इंडीज के हिन्दू सम्मेलन में श्री पोखरेल नेपाल के प्रतिनिधि के नाते गये थे। वहां उनकी भेंट श्री अशोक सिंहल से हुई। प्रथम भेंट में ही वे अशोक जी से प्रभावित होकर ‘विश्व हिन्दू परिषद’ से भी जुड़ गये। 

उनके ध्यान में आया कि हिन्दू धर्म को मिटाने का षड्यन्त्र पूरे विश्व में चल रहा है। चर्च, इस्लाम और वामपंथी सब मिलकर यह कार्य कर रहे हैं। इससे उनके कार्य की गति और बढ़ गयी; पर हिन्दू धर्म के विरोधी माओवादी इससे रुष्ट हो गये। जिला रुपन्देही के रामापुर ग्राम में कथा के दौरान छह मई, 2006 को मोटर साइकिल पर सवार दो आतंकियों ने उन पर कई गोलियां दाग दीं। इस प्रकार नेपाल के एक प्रखर हिन्दू नेता और प्रख्यात कथावाचक का असामयिक निधन हो गया। 2009 में नेपाल शासन ने उन्हें ‘धर्म बलिदानी’ की उपाधि दी।

(संदर्भ : हिन्दू विश्व, जून प्रथम, 2006)
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7 मई/जन्म-दिवस

विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर

बंगला और अंग्रेजी साहित्य के माध्यम से भारत को विश्व रंगमंच पर अमिट स्थान दिलाने वाले रवीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म सात मई, 1861 को कोलकाता में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री देवेन्द्रनाथ तथा माता का नाम शारदादेवी था। बचपन से ही काव्य में रुचि रखने वाले इस प्रतिभाशाली बालक को देखकर कौन कह सकता था कि एक दिन विश्वविख्यात नोबेल पुरस्कार जीतकर यह कवि भारत का नाम दुनिया में उज्जवल करेगा।

रवीन्द्रनाथ के परिवार में प्रायः सभी लोग विद्वान थे। इसका प्रभाव उन पर भी पड़ा। उन्होंने लेखन की प्रायः सभी विधाओं में साहित्य की रचना की। एक ओर वे कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि में सिद्धहस्त थे, तो दूसरी ओर वे उच्च कोटि के चित्रकार, संगीतकार, दार्शनिक व शिक्षाशास्त्री भी थे। उन्होंने अपनी सभी कविताओं को शास्त्रीय संगीत में निबद्ध भी किया है। सोनार तरी, पुरवी, दि साइकिल आॅफ स्प्रिंग, दि ईवनिंग सांग्स और मार्निंग सांग्स उनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। उनके लेखन का विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ है तथा आज भी लगातार उन पर काम हो रहा है।

1913 में गीतों की पुस्तक ‘गीतांजलि’ पर उन्हें नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। आज भी ज्ञान, विज्ञान, चिकित्सा, कला, साहित्य आदि क्षेत्रों में यह विश्व का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार माना जाता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले भारतीय थे, जिन्हें इस सम्मान से अलंकृत किया गया। उन्होंने गोरा, राजरानी, घरे-बाहिरे, विनोदिनी जैसे प्रसिद्ध उपन्यास भी लिखे। चित्रा उनका प्रसिद्ध गीतनाट्य है। उनकी कहानी काबुलीवाला पर इसी नाम से एक फिल्म भी बनी, जिसे देखकर आज भी दर्शकों की आँखें भीग जाती हैं।

रवीन्द्रनाथ शिक्षा को देश के विकास का एक प्रमुख साधन मानते थे। इस हेतु उन्होंने 1901 में बोलपुर में ‘शान्ति निकेतन’ की नींव रखी। यहाँ प्राचीन भारतीय परम्पराओं के साथ ही पश्चिमी शिक्षा का तालमेल किया गया है। नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद 1921 में उन्होंने शान्ति निकेतन में ही ‘विश्व भारती विश्वविद्यालय’ की स्थापना की। इसमें विश्व भर के छात्र पढ़ने आते थे। आज भी यहाँ के प्राकृतिक और शान्त वातावरण में पढ़ने वाले छात्रों में सहज ही कला के संस्कार विकसित हो जाते हंै।

विश्व भारती की स्थापना के बाद उन्होंने देश-विदेश का सघन प्रवास किया। वे चाहते थे कि इस विद्यालय मंे न केवल विश्व भर के छात्र अपितु विद्वान् अध्यापक भी आयें, जिससे उनके ज्ञान का सबको लाभ मिल सके। उनका यह प्रयास सफल रहा और आज भी वहाँ यह परम्परा विद्यमान है। उनके जीवनकाल में ही वहाँ कला भवन, संगीत भवन, शिक्षा भवन, श्रीनिकेतन, चीन भवन, शिल्प भवन और हिन्दी भवन की स्थापना हो गयी थी। 1915 में अंग्रेजी शासन ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया; पर 1919 में जलियाँवाला बाग कांड के विरोध में उन्होंने इसे वापस कर दिया। 

भारत का वर्तमान राष्ट्रगान ‘जन गण मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता..’ उनका ही रचा हुआ है। यद्यपि कुछ लोगों का कहना है कि यह जार्ज पंचम की स्तुति में रचा गया था। गांधी जी उन्हें सम्मानपूर्वक ‘गुरुदेव’ कहकर पुकारते थे। जीवन भर साहित्य की सेवा और साधना करते हुए 1941 में कोलकाता में ही रवीन्द्रनाथ टैगोर का देहान्त हो गया।
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7 मई/बलिदान-दिवस

अल्लूरि सीताराम राजू का बलिदान

अल्लूरि सीताराम राजू आन्ध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के मोगल्लु ग्राम में 4 जुलाई, 1897 को जन्मे थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा राजमुंन्दरी व राजचन्द्रपुरम् में हुई। छात्र जीवन में ही उनका सम्पर्क निकट के वनवासियों से होने लगा था। उनका मन पढ़ाई में विशेष नहीं लगता था। कुछ समय के लिए उनका मन अध्यात्म की ओर झुका। उन्होंने आयुर्वेद और ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन किया; पर उनका मन वहाँ भी नहीं लगा। अतः निर्धन वनवासियों की सेवा के लिए उन्होंने संन्यास ले लिया और भारत भ्रमण पर निकल पड़े।

भारत भ्रमण के दौरान उन्हें गुलामी की पीड़ा का अनुभव हुआ। अब उन्होंने निर्धन सेवा के साथ स्वतन्त्रता प्राप्ति को भी अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। कृष्णादेवी पेठ के नीलकंठेश्वर मंदिर में उन्होंने अपना डेरा बनाकर साधना प्रारम्भ कर दी। जातिगत भेदों से ऊपर उठकर थोड़े ही समय में उन्होंने आसपास की कोया व चेन्चु जनजातियों में अच्छा सम्पर्क बना लिया। अल्लूरि राजू ने उनके बीच संगठन खड़ा किया तथा नरबलि, शराब, अन्धविश्वास आदि कुरीतियों को दूर करने में सफल हुए। 

इस प्रारम्भिक सफलता के बाद राजू ने उनके मन में गुलामी के विरुद्ध संघर्ष का बीजारोपण किया। लोग अंग्रेजों के अत्याचार से दुःखी तो थे ही, अतः सबने अंग्रेजी शासन के विरुद्ध शंखनाद कर दिया। वनवासी युवक तीर कमान, भाले, फरसे जैसे अपने परम्परागत शस्त्रों को लेकर अंग्रेज सेना का मुकाबला करने लगे। अगस्त, 1922 में राजू एवं उनके वनवासी क्रान्तिवीरों ने चितापल्ली थाने पर हमलाकर उसे लूट लिया। भारी मात्रा में आधुनिक शस्त्र उनके हाथ लगे। अनेक पुलिस अधिकारी भी हताहत हुए। 

अब तो राजू की हिम्मत बढ़ गयी। उन्होंने दिनदहाड़े थानों पर हमले प्रारम्भ कर दिये। वे अपने साथियों को छुड़ाकर शस्त्र लूट लेते थे। यद्यपि यह लड़ाई दीपक और तूफान जैसी थी, फिर भी कई अंग्रेज अधिकारी तथा सैनिक इसमें मारे गये। आन्ध्र के कई क्षेत्रों से अंग्रेज शासन समाप्त होकर राजू का अधिकार हो गया। उन्होंने ग्राम पंचायतों का गठन किया, इससे स्थानीय मुकदमे शासन के पास जाने बन्द हो गये। लोगों ने शासन को कर देना भी बन्द कर दिया। अनेक उत्साही युवकों ने तो सेना के शस्त्रागारों को ही लूट लिया।

अंग्रेज अधिकारियों को लगा कि यदि राजू की गतिविधियों पर नियन्त्रण नहीं किया गया, तो बाजी हाथ से बिल्कुल ही निकल जाएगी। उन्होंने राजू का मुकाबला करने के लिए गोदावरी जिले में असम से सेना बुला ली। राजू के साथियों के पास तो परम्परागत शस्त्र थे, जिनसे आमने-सामने का मुकाबला हो सकता था; पर अंग्रेजों के पास आधुनिक हथियार थे। फिर भी राजू ने मुकाबला जारी रखा। पेड्डावलसा के संघर्ष में उनकी भारी क्षति हुई; पर राजू बच निकले। अंग्रेज फिर हाथ मलते रह गये।

जब बहुत समय तक राजू हाथ नहीं आये, तो अंग्रेज उनके समर्थकों और निरपराध ग्रामीणों पर अत्याचार करने लगेे। यह देखकर राजू से न रहा गया और उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेज तो यही चाहते थे। उन्होंने 7 मई, 1924 को राजू को पेड़ से बाँधकर गोली मार दी। इस प्रकार एक क्रान्तिकारी, संन्यासी, प्रभुभक्त और समाज-सुधारक का अन्त हुआ।

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