अप्रैल चौथा सप्ताह


24 अप्रैल/पुण्य-तिथि

अनशनव्रती महात्मा रामचंद्र वीर 

1966 में दिल्ली में गोरक्षार्थ 166 दिन का अनशन करने वाले महात्मा रामचंद्र वीर का जन्म आश्विन शुक्ल प्रतिपदा, वि.संवत 1966 (1909 ई.) में महाभारतकालीन विराट नगर (राजस्थान) में हुआ था। इनके पूर्वज स्वामी गोपालदास बाणगंगा के तट पर स्थित ग्राम मैड़ के निवासी थे। 

उन्होंने औरंगजेब द्वारा दिल्ली में हिन्दुओं पर थोपे गये श्मशान कर के विरोध में उसके दरबार में ही आत्मघात किया था। उनके पास समर्थ स्वामी रामदास द्वारा प्रदत्त पादुकाएं थीं, जिनकी प्रतिदिन पूजा होती थी। इन्हीं की 11 वीं पीढ़ी में रामचंद्र का जन्म हुआ। इनके पिता श्री भूरामल्ल तथा माता वृद्धिदेवी थीं। 

बालपन से ही उनके मन में मूक पशुओं के प्रति अतिशय करुणा विद्यमान थी। जब कोई पशुबलि को शास्त्र सम्मत बताता, तो वे रो उठते थे। आगे चलकर उन्होंने गोवंश की रक्षा और पशुबलि उन्मूलन को ही अपना ध्येय बना लिया। 

इस प्रयास में जिन महानुभावों का स्नेह उन्हें मिला, उनमें स्वामी श्रद्धानंद, मालवीय जी, वीर सावरकर, भाई परमानंद, गांधी जी, डा. हेडगेवार, नेहरू जी, डा. राजेन्द्र प्रसाद, श्री गोलवलकर, प्रफुल्ल चंद्र राय, रामानंद चट्टोपाध्याय, बालकृष्ण शिवराम मुंजे, करपात्री जी, गाडगे बाबा, विनोबा भावे, प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, जयदयाल गोयन्दका, हनुमान प्रसाद पोद्दार आदि प्रमुख हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने तो उनकी प्रशस्ति में एक कविता भी लिखी थी। वीर जी ने कोलकाता व लाहौर के कांग्रेस अधिवेशनों में भी भाग लिया था। 1932 में अजमेर में दिये गये उग्र भाषण के लिए वे छह माह जेल में भी रहे।

प्रखर वक्ता, कवि व लेखक वीर जी ने गोहत्या के विरोध में 18 वर्ष की अवस्था में अन्न व नमक त्याग का संकल्प लिया और उसे आजीवन निभाया। उन्होंने अपने प्रयासों से 1100 मंदिरों को पशुबलि के कलंक से मुक्त कराया। इसके लिए उन्होंने 28 बार जेलयात्रा की तथा 100 से अधिक अनशन किये। इनमें तीन दिन से लेकर 166 दिन तक के अनशन शामिल हैं। वे एक शंख तथा मोटा डंडा साथ रखते थे और सभा में शंखध्वनि करते रहते थे।

महात्मा वीर जी ने हिन्दू समाज को पाखंडपूर्ण कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति दिलाने के लिए पशुबलि निरोध समिति तथा आदर्श हिन्दू संघ की स्थापना की। उनका पूरा परिवार गोरक्षा को समर्पित है। 1966 के आंदोलन में उनके साथ उनके एकमात्र पुत्र आचार्य धर्मेन्द्र ने भी तिहाड़ जेल में अनशन किया। उनकी पुत्रवधू प्रतिभा देवी ने भी दो पुत्रियों तथा एक वर्षीय पुत्र प्रणवेन्द्र के साथ सत्याग्रह कर कारावास भोगा था। 

वीर जी ने अपने जन्मस्थान के निकट भीमगिरि पर्वत के पंचखंड शिखर पर हनुमान जी की 100 मन वजनी प्रतिमा स्थापित की। यहां हनुमान जी के साथ ही महाबली भीम की भी पूजा होती है। समर्थ स्वामी रामदास की पादुकाएं भी यहां विराजित हैं। महात्मा वीर जी ने जीवन के अंतिम 28 वर्ष इसी स्थान पर व्यतीत किये। 

उन्होंने देश व धर्म के लिए बलिदान देने वाले वीरों का विस्तृत इतिहास लिखा तथा अपनी जीवनी ‘विकट यात्रा’, हमारी गोमाता, श्री वीर रामायण (महाकाव्य), वज्रांग वंदना, हमारा स्वास्थ्य, विनाश का मार्ग आदि पुस्तकों की रचना की। इसके लिए उन्हें कई संस्थाओं ने सम्मानित किया।

हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्थान के लिए समर्पित वीर जी भारत को पुनः अखंड देखना चाहते थे। आचार्य विष्णुकांत शास्त्री द्वारा ‘जीवित हुतात्मा’ की उपाधि से विभूषित वीर जी का 24 अप्रैल, 2009 को जन्मशती वर्ष में देहांत हुआ। उनकी अंतिम यात्रा में दूर-दूर से आये 50,000 नर-नारियों ने भाग लेकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। शवयात्रा में रामधुन तथा वीर जी की जय के साथ ही ‘हिन्दू प्रचंड हो, भारत अखंड हो’ तथा ‘गोमाता की जय’ जैसे नारे लग रहे थे।
................................

24 अप्रैल/जन्म-दिवस

राष्ट्रवादी पत्रकारिता के अग्रदूत के.नरेन्द्र   

श्री के.नरेन्द्र उन राष्ट्रवादी पत्रकारों में अग्रणी थे, जो देश और धर्म पर होने वाले आक्रमणों के विरुद्ध आजीवन अपने पाठकों को जाग्रत करते रहे। उनका जन्म 24 अप्रैल, 1914 को लाहौर में उर्दू के प्रखर पत्रकार महाशय कृष्ण जी के घर में हुआ था। अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए उन्होंने उर्दू के साथ ही हिन्दी पत्रकारिता में भी नये मानदंड स्थापित किये।

श्री के.नरेन्द्र के घर का वातावरण स्वाधीनता आंदोलन से अनुप्राणित था।  कांग्रेस के बड़े नेता तथा क्रांतिकारी वहां आते रहते थे। लाला लाजपत राय तथा भाई परमानंद से प्रेरित होकर इनके बड़े भाई श्री वीरेन्द्र खुलकर क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे। उन्होंने भगतसिंह के साथ अनेक अभियानों में भाग लिया। भगतसिंह की फांसी वाले दिन वे लाहौर जेल में ही थे। 

महाशय जी लाहौर के एक प्रमुख आर्य समाजी नेता थे। हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्थान के प्रबल समर्थक होने के कारण उन्हें जेहादियों की ओर से प्रायः हत्या की धमकियां मिलती रहती थीं; पर वे कभी उनसे भयभीत नहीं हुए। अप्रैल, 1926 में ‘रंगीला रसूल’ के प्रकाशक श्री राजपाल जी की हत्या के बाद उन्होंने सबसे पहले इसकी निंदा में अपने पत्र ‘प्रताप’ में लेख लिखा था।

अपने पिता और बड़े भाई के प्रभाव से श्री नरेन्द्र भी स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय हो गये। पुलिस से लुकाछिपी चलती रहने के कारण उनके विद्यालय के अंग्रेज प्राचार्य ने उन्हें प्रवेश देने से मना कर दिया।विभाजन के बाद महाशय जी को लाहौर छोड़ना पड़ा। उन्होंने दिल्ली आकर हिन्दी में ‘वीर अर्जुन’ तथा उर्दू में ‘प्रताप’ समाचार पत्र निकाले। थोड़े ही समय में ये दोनों पत्र लोकप्रिय हो गये। पिताजी के बाद इनका काम श्री नरेन्द्र ने संभाल लिया।

लाहौर में रहते हुए ही श्री नरेन्द्र का सम्पर्क संघ से हुआ। विभाजन के समय उन्होंने संघ तथा आर्य समाज द्वारा संचालित शिविरों में जाकर सेवा तथा सुरक्षा कार्य में सहयोग दिया। गांधी जी की हत्या के बाद जब शासन ने संघ पर झूठे आरोप लगाये, तो श्री नरेन्द्र ने अपने पत्रों में उनका विरोध किया। 

1952 में जब डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में जनसंघ ने ‘कश्मीर आंदोलन’ चलाया, तब भी श्री नरेन्द्र ने अपने पत्रों द्वारा उनका समर्थन किया। इतना ही नहीं, वे अनेक सभाओं में इसके पक्ष में भाषण देने भी गये।

श्री के.नरेन्द्र पर महर्षि दयानंद सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद, भाई परमानंद और वीर सावरकर का बहुत प्रभाव था। अंग्रेजों ने वीर सावरकर के मुंबई स्थित मकान को जब्त कर लिया था। आजादी के बाद भी शासन ने उन्हें यह नहीं लौटाया। ऐसे में श्री नरेन्द्र ने एक अभियान चलाकर धनसंग्रह किया तथा यह राशि वीर सावरकर को भेंट की, जिससे वे अपना पुश्तैनी मकान फिर से ले सकें।

अनुशासनप्रिय नरेन्द्र जी प्रतिदिन ठीक दस बजे कार्यालय आ जाते थे। जब हाथ से लिखना संभव नहीं रहा, तो वे बोल-बोलकर लिखवाते थे। पंजाब में आतंकवाद, मुस्लिम तुष्टीकरण, कश्मीर में हिन्दुओं की दुर्दशा आदि पर वे बड़ी प्रखरता से सरकार को कटघरे में खड़ा करते थे। जब कांग्रेस शासन ने हिन्दू आतंकवाद का शिगूफा छेड़ा, तब भी उनकी लेखनी इसके विरुद्ध चली। 

शासन ने उन पर अनेक मुकदमे ठोके, उनकी गिरफ्तारी के वारंट निकाले; पर उन्होंने अपनी कलम को झुकने नहीं दिया। ऐसे तेजस्वी पत्रकार का 96 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 27 अक्तूबर, 2010 को दिल्ली में देहांत हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य 14.11.2000/राष्ट्रधर्म अप्रैल 2012)
................................

24 अपै्रल/पुनर्जीवन-दिवस

हिन्दुस्थान समाचार का पुनर्जीवन और वेबसाइट निर्माण   

   स्वाधीनता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मीडिया जगत में भी प्रवेश किया। इसके अन्तर्गत राष्ट्रधर्म मासिक, पांचजन्य तथा आर्गनाइजर साप्ताहिक जैसे पत्र शुरू हुए। समाचार संकलन तथा उन्हें देश भर में भेजने के लिए हिन्दुस्थान समाचारनामक समाचार एजेंसी की स्थापना भी की गयी। कुछ ही समय में उसने देश की प्रमुख चार एजेंसियों में स्थान बना लिया।

  पर हिन्दुस्थान समाचारका काम कांग्रेस की आंखों में चुभता था, चूंकि वह उसकी पिछलग्गू नहीं थी। उसका उद्देश्य राष्ट्रवादी, निष्पक्ष और सत्य पत्रकारिता था। इसलिए जब इंदिरा गांधी ने 1975 में देश में आपातकाल लगाया, तो स्वतंत्र मीडिया का गला घोटते हुए चारों समाचार एजेंसियों को मिलाकर एक कर दिया और उसे चलाने के लिए अपने पिट्ठू पत्रकार बैठा दिये।

  आपातकाल के बाद सब एजेंसियां बहाल हो गयीं; पर हिन्दुस्थान समाचारफिर खड़ी नहीं हो सकी। चूंकि उसके सब संसाधन डूब चुके थे। धनाभाव में सब कर्मचारी भी चले गये थे। संस्था ने सरकार पर मुकदमा दायर किया; पर उसके लिए भी पैसे चाहिए थे। अतः जैसे-तैसे कुछ साधन जुटाकर 24 अपै्रल, 2002 को हरियाणा प्रांत संघचालक श्री दर्शन लाल जैन के द्वारा संस्था की हिन्दी और मराठी समाचार सेवा का उद्घाटन किया गया। 

 दिल्ली में इसका केन्द्र लुधियाना के राज्यसभा सांसद श्री लाजपतराय का सरकारी आवास (32, राजेन्द्र प्रसाद रोड) था। मुंबई में नरीमन रोड स्थित भारतीय मजदूर संघ कार्यालय (हाशिम बिल्डिंग) के एक हिस्से में कार्यालय बनाया गया। इस प्रकार हिन्दुस्थान समाचार सहकारी समितिके नाम से संस्था पुनर्जीवित हुई और प्रतिदिन संवाद संकलन तथा प्रेषण शुरू हो गया।

  संस्था की वेबसाइट (www.hindusthansamachar.com) निर्माण का प्रसंग बहुत रोचक है। तब संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्रीकांत जोशी अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख के नाते हिन्दुस्थान समाचारकी देखरेख भी करते थे। एक बार पुणे में गोविंद सोवले नामक कार्यकर्ता से उनकी भेंट हुई। वे साॅफ्टवेयर इंजीनियर थे। वेबसाइट के बारे में बात होने पर उन्होंने अपना कंप्यूटर देखकर बताया कि हिन्दुस्थान समाचारनामक वेबसाइट पहले ही पंजीकृत है, यद्यपि उस पर सामग्री कुछ नहीं है। ऐसे में किसी और नाम से पंजीयन कराना होगा।

 कुछ दिन बाद श्रीकांत जी फिर पुणे गये। इस दौरान गोविंद जी ने कई बार जांच की; पर हिन्दुस्थान समाचारनामक वेबसाइट का पंजीयन बना ही हुआ था। एक रात श्रीकांत जी भोजन के लिए उनके घर गये। वहां जब किसी और नाम से पंजीयन करने के लिए उन्होंने कम्प्यूटर खोला, तो देखा कि हिन्दुस्थान समाचारवेबसाइट का पंजीकरण निरस्त हो गया है। गोविंद जी ने अपने खाते से तुरंत आॅनलाइन 15 डाॅलर की राशि जमा कर इसे पंजीकृत करा लिया। इस प्रकार वेबसाइट अस्तित्व में आ गयी।

 इसके कुछ साल बाद दिसम्बर 2005 में गांधीनगर के प्रेक्षाध्यान संकुल में विश्व संघ शिविर का आयोजन किया गया। 32 देशों से 500 स्वयंसेवक और सेविकाएं वहां आये थे। श्रीकांत जी का परिचय वहां बंगलुरू के भारत माता मंदिर आश्रम के रंगनाथस्वामी से हुआ। हिन्दुस्थान समाचारके बारे में चर्चा होने पर उन्होंने बताया कि वे हिन्दुस्थान समाचारके नागपुर, हैदराबाद, दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई केन्द्र के प्रमुख रह चुके हैं। उन्होंने कई साल तक निजी स्तर पर इस नाम से एक वेबसाइट चलाई थी; पर उसका शुल्क भरने में कुछ देरी होने से किसी और ने उसे पंजीकृत करा लिया।

  श्रीकांत जी ने हंसते हुए कहा कि उसे हमने ही पंजीकृत कराया है और अब पांच भाषा में दस स्थानों से इसका काम चल रहा है। वेबसाइट के अपने मूल स्थान पर पहुंचने की बात जानकर स्वामी जी बहुत प्रसन्न हुए।

    (युगवार्ता 16.4.2022/पृष्ठ 26, 27, 28/श्रीकांत जोशी)

------------------------------------

25 अप्रैल/इतिहास-स्मृति

पचपदरा का नमक आंदोलन   

गांधी जी द्वारा 1930 में किया गया नमक सत्याग्रह बहुत प्रसिद्ध है; पर इसका आधार 1926 में हुआ पचपदरा (राजस्थान) का नमक आंदोलन था।

भारत में समुद्र के किनारे अनेक स्थानों पर नमक बनता है। सौ वर्ष पूर्व तक मारवाड़ में 90 स्थानों पर नमक बनता था। सम्पूर्ण उत्तर भारत में राजस्थान का नमक ही प्रयोग होता था; लेकिन पचपदरा का नमक विशेष था। वहां धरती खोदने पर 5-6 फुट से 13 फुट तक गाढ़ा नमकीन पानी मिलता है। इसे सुखाकर नमक बनाते हैं। विशेष स्वाद व गुण वाले इस नमक की आपूर्ति मुख्यतः मेवाड़, मारवाड़, हाड़ौती, मालवा, सागर आदि में की जाती थी।

1857 के बाद अंग्रेजों ने भारत की अन्य व्यवस्थाओं के साथ अर्थव्यवस्था को भी नष्ट करने का षड्यन्त्र रचा। अंग्रेज व्यापारी भारत से बड़ी मात्रा में कच्चा माल पानी के जहाजों में ढोकर इंग्लैंड ले जाने लगे। वापसी पर उन्हीं जहाजों में तैयार माल लाद दिया जाता था। इससे वे भारतीय श्रमिक और कारीगरों की कमर तोड़ना चाहते थे। 

तैयार माल अपेक्षाकृत हल्का और कम जगह घेरता है। इससे जहाज में काफी जगह खाली रह जाती थी। अतः संतुलन बनाने के लिए वे उनमें पत्थर भर देते थे; पर इससे व्यापारिक रूप से उन्हें हानि होती थी। अतः वे पत्थर की जगह अपने देश का बना नमक भेजने लगे।

पर भारत में पर्याप्त नमक बनता था और वह सस्ता भी होता था। इसलिए लोगों ने महंगा विदेशी नमक खरीदने में कोई रुचि नहीं ली। अतः शासन ने नमक के व्यापार को अपने हाथ में लेकर डेढ़ आने मन वाले नमक पर एक रुपया नौ आने, अर्थात कीमत से लगभग 15 गुना कर लगा दिया। कर चोरी का बहाना बनाकर तथा नमक बनाने की विधि को पुरानी और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताकर नमक निर्माताओं पर अनेक प्रतिबंध थोप दिये गये।

इससे नमक-निर्माता परेशान हो गये। उन दिनों अंग्रेजों ने देसी रियासतों में अपने दलाल नियुक्त कर रखे थे। इनके माध्यम से राजस्थान की रियासतों से कई सन्धियां की गयीं। 1879 की सन्धि के अनुसार पचपदरा, डीडवाना, फलौदी, लूणी, सांचोर व कच्छ में नमक उत्पादन का अधिकार शासन के हाथ में आ गया। इसके लिए रियासतों को मुआवजा भी दिया गया।

अंग्रेजों ने श्रमिकों द्वारा महाजनों से लिया गया कर्ज चुका दिया और उसे वसूलने के लिए नमक के दाम घटा दिये। इससे श्रमिक अंगेजों के चंगुल में फंस गये। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर मंदी का बहाना बनाकर उन्होंने उत्पादन ही बंद कर दिया। इससे लगभग 20,000 लोग बेरोजगार हो गये। 

उन्हीं दिनों गंज वसोदा (म.प्र.) में 1885 में जन्मे गुलाबचंद सालेचा ने पचपदरा में ‘श्री लक्ष्मी साल्ट ट्रेडर्स’ की स्थापना की थी। उन्होंने जब नमक निर्माताओं की दुर्दशा देखी, तो इसके विरुद्ध संघर्ष प्रारम्भ कर दिया।

सर्वप्रथम वे मारवाड़ राज्य के दीवान से मिले और उन्हें नमक संधि की विसंगतियों के बारे में बताया; पर उसने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। फिर उन्होंने दीवान की अनुमति से राज्य पुस्तकालय के दस्तावेजों का अध्ययन कर एक विस्तृत आलेख तैयार किया और 25 अप्रैल, 1926 को जोधपुर राज्य के महाराजा और ब्रिटिश अधिकारियों को दिया। उनका यह प्रयास भी सफल नहीं हुआ। इस पर उन्होंने नमक निर्माण में लगे श्रमिकों और व्यापारियों को संगठित किया तथा नमक की दर बढ़ाने के लिए व्यापक हड़ताल की। 

गुलाबचंद सालेचा यद्यपि अपने प्रयास में सफल नहीं हुए; पर पचपदरा का नमक आंदोलन खूब चर्चित हो गया। आगे चलकर गांधी जी को इसके माध्यम से देशव्यापी जागृति करने में सफलता मिली। 

(संदर्भ : जनसत्ता 4.4.2010)
.............................

25 अप्रैल/जन्म-दिवस

एक कार्यकर्ता यशवंत वासुदेव केलकर

‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ की कार्यप्रणाली को जिन्होंने महत्वपूर्ण आधार दिया, वे थे श्री यशवंत वासुदेव केलकर। उनका जन्म 25 अप्रैल, 1925 को पंढरपुर (महाराष्ट्र) में हुआ था। उनके पिता शिक्षा विभाग में नौकरी करते थे। वे रूढि़वादी थे, जबकि माता जानकीबाई जातिभेद से ऊपर उठकर सोचती थीं। यशवंत के मन पर मां के विचारों का अधिक प्रभाव पड़ा।

यशवंत पढ़ाई में सदा प्रथम श्रेणी पाते थे। मराठी तथा अंग्रेजी साहित्य में उनकी बहुत रुचि थी। पुणे में महाविद्यालय में पढ़ते समय वे संघ के स्वयंसेवक बने। शाखा के सभी कार्यक्रमों में भी वे सदा आगे ही रहते थे।

1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की विफलता के बाद वे क्रांतिकारी आंदोलन से प्रभावित हुए। इस दौरान उन्होंने इटली के क्रांतिकारी जोजेफ मैजिनी की जीवनी का सामूहिक पठन-पाठन, डैम्ब्रिन की जीवनी का मराठी अनुवाद कर उसका प्रकाशन तथा फिर बम बनाने का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।

1944 तथा 45 में संघ शिक्षा वर्ग कर वे प्रचारक बने तथा नासिक आये। 1952 में वे सोलापुर के जिला प्रचारक बने। फिर उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी करने का निर्णय लिया और पुणे आकर अंग्रेजी में प्रथम श्रेणी में भी प्रथम रहकर एम.ए. किया। इस प्रकार वे शिक्षा तथा संगठन दोनों में कुशल थे।

उन्हें तुरंत मुंबई के के.सी. महाविद्यालय में प्राध्यापक की नौकरी मिल गयी। अगले साल वे नैशनल कॉलिज में आ गये और फिर 1985 में अवकाश प्राप्ति तक वहीं रहे। 1958 में अंग्रेजी की प्राध्यापक शशिकला जी के साथ उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। उन्हें तीन पुत्रों की प्राप्ति हुई। 

विद्यार्थी परिषद का जन्म 1947-48 में संघ पर लगे प्रतिबंध के समय एक मंच के रूप में हुआ था; पर 1949 में यह पंजीकृत संस्था बन गयी। 1958 तक इसका काम देश के कुछ प्रमुख शिक्षा केन्द्रों तक ही सीमित था। पर यशवंत जी को जब इसमें भेजा गया, तो संगठन ने नये आयाम प्राप्त किये। 

परिषद के विचार तथा कार्यप्रणाली को उन्होंने सुदृढ़ आधार प्रदान किया। प्रांतीय तथा राष्ट्रीय अधिवेशन प्रारम्भ हुए। परिषद का कार्यालय बहुत वर्षों तक उनके घर में रहा। विद्यालय के बाद का पूरा समय वे परिषद को देने लेगे। 1967 में वे परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने; पर एक वर्ष बाद ही उन्होंने यह दायित्व छोड़ दिया। वस्तुतः उनका मन तो पर्दे के पीछे रहकर ही काम करने में लगता था। परिषद की दूसरी और फिर तीसरी टोली भी उन्होंने निर्माण की। 

1975 में आपातकाल लगने पर संघ तथा अन्य कई संगठनों पर प्रतिबंध लगा। यह प्रतिबंध परिषद पर नहीं था; पर लोकतंत्र की हत्या के विरोध में हुए सत्याग्रह में परिषद के कार्यकर्ताओं ने भी भाग लिया। यशवंत जी को भी ‘मीसा’ में बंद कर दिया गया। 

उनके कारण नासिक रोड की वह जेल भी एक शिविर बन गयी। शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रम वहां विधिवत चलते थे। यहां तक कि खाली ड्रमों का उपयोग कर पथसंचलन भी निकाला गया। जेल में अन्य विचार वाले बंदी लोगों से भी यशवंत जी ने मधुर संबंध बनाये।

आपातकाल के बाद यशवंत जी ने अपना पूरा ध्यान फिर से परिषद के काम में लगा दिया। 1984 में उनकी अनिच्छा के बावजूद देश भर में उनकी 60वीं वर्षगांठ मनाई गयी। इन कार्यक्रमों में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,  विद्यार्थी परिषद और हिन्दुत्व के बारे में ही बोलते थे। 

इसी बीच वे पीलिया तथा जलोदर जैसी बीमारियों से पीडि़त हो गये। इलाज के बावजूद यह रोग घातक होता चला गया। यशवंत जी को भी इसका अनुभव हो गया था। इसी रोग से 6 दिसम्बर, 1988 को देर रात डेढ़ बजे उनका देहांत हो गया। उस समय उनका पूरा परिवार वहां उपस्थित था।
.......................

26 अप्रैल/जन्म-दिवस

डी.ए.वी. कॉलिज के सूत्रधार पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी 

आर्य समाज द्वारा संचालित डी.ए.वी. विद्यालयों की स्थापना में महात्मा हंसराज और पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी का विशेष योगदान रहा है। गुरुदत्त जी का जन्म 26 अप्रैल, 1864 को मुल्तान (वर्तमान पाकिस्तान) में लाला रामकृष्ण जी के घर में हुआ था। गुरुदत्त जी ने प्रारम्भिक शिक्षा मुल्तान में पायी और फिर वे लाहौर आ गये। यहाँ हंसराज जी और लाजपत राय जी भी पढ़ रहे थे। तीनों की आपस में बहुत घनिष्ठता हो गयी।

गुरुदत्त जी की विज्ञान में बहुत रुचि थी। वे हर बात को विज्ञान की कसौटी पर कस कर देखते थे। इससे धीरे-धीरे उनका स्वभाव नास्तिक जैसा हो गया; पर जब उनका सम्पर्क आर्य समाज से हुआ, तो वे घोर आस्तिक हो गये। 1883 में जब ऋषि दयानन्द अजमेर में बीमार थे, तो लाहौर से दो लोगों को उनकी सेवा के लिए भेजा गया, उनमें से एक 19 वर्षीय गुरुदत्त जी भी थे। 

स्वामी जी के अन्त समय को उन्होंने बहुत निकट से देखा। उनके मन पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। स्वामी जी के देहान्त के बाद जब लाहौर में शोकसभा हुई, तो उसमें श्रद्धांजलि अर्पण करते हुए वे फूट-फूट कर रोये। उनका भाषण इतना मार्मिक था कि उपस्थित श्रोताओं की भी यही दशा हो गयी।

स्वामी जी के देहान्त से आर्यजनों में घोर निराशा छा गयी थी; पर गुरुदत्त जी ने कुछ दिन बाद सबके सामने स्वामी जी की स्मृति में ‘दयानन्द एंग्लो वैदिक काॅलिज’ की स्थापना का प्रस्ताव रखा। वहाँ उपस्थित सब लोगों ने इसका तालियाँ बजाकर समर्थन किया और उसी समय 8,000.रु0 भी एकत्र हो गये। यह चर्चा कुछ ही समय में पूरे पंजाब में फैल गयी।

इस कार्य के लिए जहाँ भी सभा होती, उसमें गुरुदत्त जी को अवश्य भेजा जाता। उनकी धन की अपील का बहुत असर होता था। वे विद्यालय की योजना बहुत अच्छे ढंग से सबके सामने रखते थे। कुछ लोगों ने अंग्रेजी शिक्षा का विरोध किया; पर गुरुदत्त जी ने बताया कि संस्कृत और वेद शिक्षण के साथ अंग्रेजी भाषा का ज्ञान भी आज की आवश्यकता है। उसके बिना काम नहीं चलेगा। उनके तर्क के आगे लोग चुप रह जाते थे। 

लाला लाजपत राय उन दिनों हिसार में वकालत करते थे। वे भी गुरुदत्त जी के साथ सभाओं में जाने लगे। लाला जी के जोशीले भाषण और गुरुदत्त जी की अपील से तीन साल में 20,000 रु. नकद और 44,000 रु. के आश्वासन उन्हें मिले। अन्ततः एक जून, 1886 को लाहौर में डी.ए.वी. स्कूल की स्थापना हो गयी। हंसराज जी उसके पहले प्राचार्य बने।

1886 में ही पंडित गुरुदत्त ने विज्ञान से एम.ए. किया तथा लाहौर के सरकारी विद्यालय में प्राध्यापक हो गये। यह स्थान पाने वाले वे पहले भारतीय थे। उन्होंने ‘रिजेनरेटर ऑफ आर्यावर्त’ नामक पत्र भी निकाला। इसके विद्वत्तापूर्ण लेखों की देश-विदेश में काफी चर्चा हुई। गुरुदत्त जी के दो अंग्रेजी लेख ‘वैदिक संज्ञा विज्ञान’ तथा ‘वैदिक संज्ञा विज्ञान व यूरोप के विद्वान’ को आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया।

काम का क्षेत्र बहुत विस्तृत होने के कारण गुरुदत्त जी को बहुत प्रवास करना पड़ता था। अत्यधिक परिश्रम के कारण उन्हें क्षय रोग (टी.बी) हो गया। इसके बाद भी वे विश्राम नहीं करते थे। विश्राम के अभाव में दवाएँ भी कैसे असर करतीं ? अन्ततः 19 मार्च, 1890 को केवल 26 वर्ष की अल्पायु में उनका देहान्त हो गया।
...............................

26 अप्रैल/पुण्य-तिथि

भारत दर्शन कार्यक्रम के प्रणेता विद्यानंद शेणाय
भारत माता की जय और वन्दे मातरम् तो प्रायः सब लोग बोलते हैं; पर भारतभूमि की गोद में जो हजारों तीर्थ, धाम, पर्यटन स्थल, महामानवों के जन्म और कर्मस्थल हैं, उनके बारे में प्रायः लोगों को मालूम नहीं होता। भारत दर्शन कार्यक्रम के माध्यम से इस बारे में लोगों को जागरूक करने वाले श्री विद्यानंद शेणाय का जन्म कर्नाटक के प्रसिद्ध तीर्थस्थल शृंगेरी में हुआ था। श्रीमती जयम्मा एवं श्री वैकुंठ शेणाय दम्पति को पांच पुत्र और आठ पुत्रियां प्राप्त हुईं। इनमें विद्यानंद सातवें स्थान पर थे। उनके पिताजी केले बेचकर परिवार चलाते थे। सात वर्ष की अवस्था तक वे बहुत कम बोलते थे। 

किसी के सुझाव पर उनकी मां पुराना शहद और बच्च नामक जड़ी पीस कर प्रातःकाल उनके गले पर लगाने लगी। इस दवा और मां शारदा की कृपा से उनका स्वर खुल गया। ‘भारत दर्शन कार्यक्रम’ की लोकप्रियता के बाद उनकी मां ने कहा कि मेरा बेटा इतना बोलेगा, यह तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था।

ज्योतिषियों ने विद्यानंद को पानी से खतरा बताया था; पर उन्हें तुंगभद्रा नदी के तट पर बैठना बहुत अच्छा लगता था। एक बार नहाते समय वे नदी में डूबने से बाल-बाल बचे। बी.काॅम. की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे बैंक में नौकरी करने लगे; पर इसमें उनका मन नहीं लगा। अतः नौकरी छोड़कर वे एक चिकित्सक के पास सहायक के नाते काम करने लगे। इसी बीच उनके बड़े भाई डा0 उपेन्द्र शेणाय संघ के प्रचारक बन गये। 

आपातकाल में भूमिगत कार्य करते समय वे पकड़े गये और 15 मास तक जेल में रहे। इसके बाद उन्होंने सी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनके एक बड़े भाई अपने काम के सिलसिले में हैदराबाद रहने लगे थे। अतः पूरा परिवार वहीं चला गया; पर एक दिन विद्यानंद जी भी घर छोड़कर प्रचारक बन गये।

संघ शिक्षा वर्ग में मानचित्र परिचय का कार्यक्रम होता है। विद्यानंद जी प्रायः वर्ग के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से उसे अधिक रोचक बनाने को कहते थे। वे वरिष्ठ प्रचारक श्री कृष्णप्पा जी की प्रेरणा से प्रचारक बने थे। उन्होंने विद्यानंद जी की रुचि देखकर उन्हें ही इसे विकसित करने को कहा। अब विद्यानंद जी ‘भारत दर्शन’ के नाम से शाखा तथा विद्यालयों में यह कार्यक्रम करने लगे। सांस्कृतिक भारत के मानचित्र में पवित्र नदियां, पर्वत, तीर्थ आदि देखते और उनका महत्व सुनते हुए श्रोता मंत्रमुग्ध हो जातेे थे। 

कुछ समय बाद उन्हंे बंगलौर में ‘राष्ट्रोत्थान परिषद’ का काम सौंपा गया। शीघ्र ही यह कार्यक्रम पूरे कर्नाटक के गांव-गांव में लोकप्रिय हो गया। यहां तक कि पुलिस वाले भी अपने परिजनों के बीच अलग से यह कार्यक्रम कराने लगेे।

जब इस कार्यक्रम की पूरे देश में मांग होने लगी, तो उन्होंने हिन्दी और अंगे्रजी में भी इसे तैयार किया। अपनी मातृभाषा कोंकणी में तो वे बोल ही लेते थे। भारत दर्शन के 50,000 कैसेट भी जल्दी ही बिक गये। इस प्रकार भारत दर्शन ने युवा पीढ़ी में देश-दर्शन के प्रति जागृति निर्माण की। 

परन्तु इसी बीच उनके सिर में दर्द रहने लगा। काम करते हुए अचानक आंखों के आगे अंधेरा छा जाता था। जांच से पता लगा कि मस्तिष्क में एक बड़ा फोड़ा बन गया है। यह एक असाध्य रोग था। चिकित्सकों के परामर्श पर दो बार शल्यक्रिया हुई; पर कुछ सुधार नहीं हुआ और कष्ट बढ़ता गया। 

इसी अवस्था में 26 अप्रैल, 2007 को 55 वर्ष की आयु में बंगलौर के चिकित्सालय में अपने मित्र और परिजनों के बीच उनका प्राणांत हुआ।

(संदर्भ : भारतभक्त विद्यानंद शेणाय - चक्रवर्ती सुलीबेले)
.............................

27 अप्रैल/इतिहास-स्मृति

कांगला दुर्ग का पतन

1857 के स्वाधीनता संग्राम में सफलता के बाद अंग्रेजों ने ऐसे क्षेत्रों को भी अपने अधीन करने का प्रयास किया, जो उनके कब्जे में नहीं थे। पूर्वोत्तर भारत में मणिपुर एक ऐसा ही क्षेत्र था। स्वाधीनता प्रेमी वीर टिकेन्द्रजीत सिंह वहां के युवराज तथा सेनापति थे। उन्हें ‘मणिपुर का शेर’ भी कहते हैं। 

उनका जन्म 29 दिसम्बर, 1856 को हुआ था। वे राजा चन्द्रकीर्ति के चौथे पुत्र थे। राजा की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र सूरचन्द्र राजा बने। दूसरे और तीसरे पुत्रों को क्रमशः पुलिस प्रमुख तथा सेनापति बनाया गया। कुछ समय बाद सेनापति झलकीर्ति की मृत्यु हो जाने से टिकेन्द्रजीत सिंह सेनापति बनाये गये। 

राजवंशों में आपसी द्वेष व अहंकार के कारण सदा से ही गुटबाजी होती रही है। मणिपुर में भी ऐसा ही हुआ। अंग्रेजों ने इस स्थिति का लाभ उठाना चाहा। टिकेन्द्रजीत सिंह ने राजा सूरचन्द्र को कई बार सावधान किया; पर वे उदासीन रहे। इससे नाराज होकर टिकेन्द्रजीत सिंह ने अंगसेन, जिलंगाम्बा आदि कई वीर व स्वदेशप्रेमी साथियों सहित 22 सितम्बर, 1890 को विद्रोह कर दिया।  

इस विद्रोह से डरकर राजा भाग गया। अब कुलचन्द्र को राजा तथा टिकेन्द्रजीत सिंह को युवराज व सेनापति बनाया गया। पूर्व राजा सूरचन्द्र ने टिकेन्द्रजीत सिंह को सूचना दी कि वे राज्य छोड़कर सदा के लिए वृन्दावन जाना चाहते हैं; पर वे वृन्दावन की बजाय कलकत्ता में ब्रिटिश वायसराय लैंसडाउन के पास पहुंच गये और अपना राज्य वापस दिलाने की प्रार्थना की।

इस पर वायसराय ने असम के कमिश्नर जे.डब्ल्यू. क्विंटन को मणिपुर पर हमला करने को कहा। उनकी इच्छा टिकेन्द्रजीत सिंह को पकड़ने की थी। चूंकि इस शासन के निर्माता तथा संरक्षक वही थे। क्विंटन 22 मार्च, 1891 को 400 सैनिकों के साथ मणिपुर जा पहुंचा। इस दल का नेतृत्व कर्नल स्कैन कर रहा था। उसने राजा कुलचंद्र को कहा कि हमें आपसे कोई परेशानी नहीं है। आप स्वतंत्रतापूर्वक राज्य करें; पर युवराज टिकेन्द्रजीत सिंह को हमें सौंप दें।

पर स्वाभिमानी राजा तैयार नहीं हुए। अंततः क्विंटन ने 24 मार्च को राजनिवास ‘कांगला दुर्ग’ पर हमला बोल दिया। उस समय दुर्ग में रासलीला का प्रदर्शन हो रहा था। लोग दत्तचित्त होकर उसे देख रहे थे।इस असावधान अवस्था में ही क्विंटन ने सैकड़ों पुरुषों, महिलाओं तथा बच्चों को मार डाला; पर थोड़ी देर में ही दुर्ग में स्थित सेना ने भी मोर्चा संभाल लिया। इससे अंग्रेजों को पीछे हटना पड़ा। क्रोधित नागरिकों ने पांच अंग्रेज अधिकारियों को पकड़कर फांसी दे दी। इनमें क्विंटन तथा उनका राजनीतिक एजेंट ग्रिमवुड भी था।

अंग्रेज सेना की इस पराजय की सूचना मिलते ही कोहिमा, सिलचर और तामू से तीन बड़ी सैनिक टुकडि़यां भेज दी गयीं। 31 मार्च, 1891 को अंग्रेजों ने मणिपुर शासन से युद्ध घोषित कर दिया। टिकेन्द्रजीत सिंह ने बड़ी वीरता से अंग्रेज सेना का मुकाबला किया; पर उनके साधन सीमित थे। अंततः 27 अप्रैल, 1891 को अंग्रेज सेना ने कांगला दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

अंग्रेजों ने राजवंश के एक बालक चारुचंद्र सिंह को राजा तथा मेजर मैक्सवेल को उनका राजनीतिक सलाहकार बनाकर मणिपुर को अपने अधीन कर लिया। टिकेन्द्रजीत सिंह भूमिगत हो गये; पर अंततः 23 मई को वे भी पकड़ लिये गये। अंग्रेजों ने मुकदमा चलाकर उन्हें और उनके साथी जनरल थंगल को 13 अगस्त, 1891 को इम्फाल के पोलो मैदान (वर्तमान वीर टिकेन्द्रजीत सिंह मैदान) में फांसी दे दी।  

(संदर्भ : विकीपीडिया..आदि)
........................

28 अप्रैल/बलिदान-दिवस

क्रान्ति पुरोधा जोधासिंह अटैया

भारत की स्वतन्त्रता का पावन उद्देश्य और अदम्य उत्साह 1857 की महान क्रान्ति का प्रमुख कारण ही नहीं, आत्माहुति का प्रथम आह्नान भी था। देश के हर क्षेत्र से हर वर्ग और आयु के वीरों और वीरांगनाओं ने इस आह्वान को स्वीकार किया और अपने रक्त से भारत माँ का तर्पण किया। उस मालिका के एक तेजस्वी पुष्प थे क्रान्ति पुरोधा जोधासिंह अटैया।

10 मई, 1857 को जब बैरकपुर छावनी में वीर मंगल पांडे ने क्रान्ति का शंखनाद किया, तो उसकी गूँज पूरे भारत में सुनायी दी। 10 जून, 1857 को फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) में क्रान्तिवीरों ने भी इस दिशा में कदम बढ़ा दिया। इनका नेतृत्व कर रहे थे जोधासिंह अटैया। फतेहपुर के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खाँ भी इनके सहयोगी थे। इन वीरों ने सबसे पहले फतेहपुर कचहरी एवं कोषागार को अपने कब्जे में ले लिया।

जोधासिंह अटैया के मन में स्वतन्त्रता की आग बहुत समय से लगी थी। बस वह अवसर की प्रतीक्षा में थे। उनका सम्बन्ध तात्या टोपे से बना हुआ था। मातृभूमि को मुक्त कराने के लिए इन दोनों ने मिलकर अंगे्रजों से पांडु नदी के तट पर टक्कर ली। आमने-सामने के संग्राम के बाद अंग्रेजी सेना मैदान छोड़कर भाग गयी। इन वीरों ने कानपुर में अपना झंडा गाड़ दिया। 

जोधासिंह के मन की ज्वाला इतने पर भी शान्त नहीं हुई। उन्होंने 27 अक्तूबर, 1857 को महमूदपुर गाँव में एक अंग्रेज दरोगा और सिपाही को उस समय जलाकर मार दिया, जब वे एक घर में ठहरे हुए थे। सात दिसम्बर, 1857 को इन्होंने गंगापार रानीपुर पुलिस चैकी पर हमला कर अंग्रेजों के एक पिट्ठू का वध कर दिया। जोधासिंह ने अवध एवं बुन्देलखंड के क्रान्तिकारियों को संगठित कर फतेहपुर पर भी कब्जा कर लिया।

आवागमन की सुविधा को देखते हुए क्रान्तिकारियों ने खजुहा को अपना केन्द्र बनाया। किसी देशद्रोही मुखबिर की सूचना पर प्रयाग से कानपुर जा रहे कर्नल पावेल ने इस स्थान पर एकत्रित क्रान्ति सेना पर हमला कर दिया। कर्नल पावेल उनके इस गढ़ को तोड़ना चाहता था; पर जोधासिंह की योजना अचूक थी। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का सहारा लिया, जिससे कर्नल पावेल मारा गया। अब अंग्रेजों ने कर्नल नील केे नेतृत्व में सेना की नयी खेप भेज दी। इससे क्रान्तिकारियों को भारी हानि उठानी पड़ी।

लेकिन इसके बाद भी जोधासिंह का मनोबल कम नहीं हुआ। उन्होंने नये सिरे से सेना के संगठन, शस्त्र संग्रह और धन एकत्रीकरण की योजना बनायी। इसके लिए उन्होंने छद्म वेष में प्रवास प्रारम्भ कर दिया; पर देश का यह दुर्भाग्य रहा कि वीरों के साथ-साथ यहाँ देशद्रोही भी पनपते रहे हैं। जब जोधासिंह  अटैया अरगल नरेश से संघर्ष हेतु विचार-विमर्श कर खजुहा लौट रहे थे, तो किसी मुखबिर की सूचना पर ग्राम घोरहा के पास अंग्रेजों की घुड़सवार सेना ने उन्हें घेर लिया। थोड़ी देर के संघर्ष के बाद ही जोधासिंह अपने 51 क्रान्तिकारी साथियों के साथ बन्दी बना लिये गये।

जोधासिंह और उनके देशभक्त साथियों को अपने किये का परिणाम पता ही था। 28 अप्रैल, 1858 को मुगल रोड पर स्थित इमली के पेड़ पर उन्हें अपने 51 साथियों के साथ फाँसी दे दी गयी। बिन्दकी और खजुहा के बीच स्थित वह इमली का पेड़ (बावनी इमली) आज शहीद स्मारक के रूप में स्मरण किया जाता है।
...........................

29 अप्रैल/जन्म-दिवस

अद्भुत चित्रकार राजा रवि वर्मा

आज तो चित्रकला की तकनीक बहुत विकसित हो गयी है। अब पेन्सिल, रबड़, रंग या कूची की आवश्यकता ही समाप्त हो गयी लगती है। संगणक (कम्प्यूटर) द्वारा यह सब काम आज आसानी से हो जाते हैं। एक साथ छह रंगों की छपाई भी अब सम्भव है

पर कुछ समय पूर्व तक ऐसा नहीं होता था। तब एक-एक चित्र को बनाने और उसमें सजीवता लाने के लिए कई दिन और महीने लग जाते थे। चित्र के रंगों में भेद न हो जाये, यह बड़े अनुभव और साधना का काम था। ऐसे युग में भारतीय चित्रकला को पूरे विश्व में प्रसिद्ध करने वाले थे राजा रवि वर्मा।

राजा रवि वर्मा का जन्म केरल के किलिमनूर में 29 अप्रैल, 1848 को हुआ था। इनके घर में प्रारम्भ से ही चित्रकारी का वातावरण था। इसका प्रभाव बालक रवि पर भी पड़ा। वे भी पेन्सिल और कूची लेकर तरह-तरह के चित्र बनाया करते थे। 

इनके चाचा राजा राज वर्मा ने इनकी रुचि देखकर इन्हें विधिवत चित्रकला की शिक्षा दी। इसके बाद तो रवि वर्मा ने मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने आगे चलकर चित्रकला की अपनी स्वतन्त्र शैली भी विकसित की। उनकी चित्रकारी सबका मन मोह लेती थी।

एक बार प्रसिद्ध अंग्रेज चित्रकार थियोडोर जौन्सन त्रावणकोर आये। वे रवि वर्मा की चित्रकारी देखकर दंग रह गये। रवि वर्मा ने अपने चित्रों में पात्रों के चेहरे पर रंगों के जो प्रयोग किये थे, उससे थियोडोर जौन्सन बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने रवि वर्मा को कैनवास पर तैल चित्र बनाने का प्रशिक्षण दिया और इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे रवि वर्मा इस प्रकार के तैल चित्र बनाने में भी निष्णात हो गये।

रवि वर्मा अपने चित्रों में हिन्दू पौराणिक कथाओं से पात्रों का चयन करते थे। 1873 में उन्होंने मद्रास में आयोजित एक प्रतियोगिता में भाग लिया। इसमें उनके द्वारा निर्मित नायर महिला के चित्र को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। फिर उन्होंने अपने चित्रों की प्रदर्शिनी पुणे में लगाई। इससे उनकी प्रसिद्धि देश भर में फैल गयी। उन दिनों कैमरे का चलन नहीं था। अतः उन्हें दूर-दूर से चित्र बनाने के निमन्त्रण मिलने लगे। 

अनेक राजा-महाराजाओं और धनिकों ने उनसे अपने परिजनों के व्यक्तिगत और सामूहिक चित्र बनवाये। 1888 में बड़ौदा नरेश श्री गायकवाड़ ने उन्हें अपने दरबार में बुलाया। वे दो वर्ष तक वहाँ रहे और महल की कला दीर्घा के लिए अनेक चित्र बनाये। उनके चित्रों की इतनी माँग थी कि बड़ौदा नरेश ने उन्हें मुम्बई में तैल चित्रों की छपाई के लिए प्रेस स्थापित करने की सलाह दी, जिससे उनके चित्र सामान्य लोगों को भी उपलब्ध हो सकें।

राजा रवि वर्मा ने चित्रकला में एक नया युग प्रारम्भ किया। उन्होंने अपने कौशल से विश्व भर में भरपूर ख्याति और सम्मान अर्जित किया। उनके चित्र भारत के अनेक महत्वपूर्ण घरानों, राज परिवारों और कला दीर्घाओं में आज भी सुरक्षित हैं। इनमें तिरुअनन्तपुरम् की श्रीचित्र कला दीर्घा प्रमुख है। अब तो उनके चित्रों का मूल्य लाखों-करोड़ों रु. में आँका जाता है।

अपने अन्तिम दिनों में राजा रवि वर्मा अपने जन्मस्थान किलिमनूर ही आ गये और यही कला साधना करते रहे। 2 अक्तूबर, 1906 को त्रिवेन्द्रम के पास अत्तिगल में उनकी कलम और कूची के रंग सदा के लिए मौन हो गये।
......................................

29 अप्रैल/स्थापना दिवस

धार्मिक साहित्य के प्रचार में अग्रणी गीता प्रेस

धार्मिक विचारों के प्रसार में साहित्य का बहुत बड़ी भूमिका है। इस नाते हिन्दू साहित्य के प्रचार व प्रसार में गीता प्रेस, गोरखपुर का योगदान विश्व इतिहास में अतुलनीय है। 

पूर्वी उत्तर प्रदेश का गोरखपुर नगर महायोगी गुरु गोरखनाथ, गौतम बुद्ध और महात्मा कबीर की तपस्थली व कर्मस्थली रहा है। नेपाल से लगा होने के कारण यह दैनन्दिन व्यापार का भी बहुत बड़ा केन्द्र है। इसी नगर में सेठ जयदयाल जी गोयन्दका ने 29 अप्रैल, 1923 को धार्मिक साहित्य के प्रचार के लिए गीता प्रेस की स्थापना की थी। 

गोयन्दका जी के मन में इस बात की बहुत पीड़ा थी कि ईसाइयों का साहित्य तो विपुल मात्रा में प्रकाशित हो रहा है, पर हिन्दू साहित्य प्रायः दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार जो साहित्य प्रकाशित होता है, उसमें इतनी गलतियां होती थीं कि प्रायः अर्थ का अनर्थ हो जाता है। हर प्रकाशक अपनी ओर से इनमें कुछ जोड़ या छोड़ देता था। इस कारण गीता, रामायण, श्रीरामचरितमानस, श्रीमद्भागवत, पुराण, उपनिषद आदि की प्रामाणिक व्याख्या नहीं की जा सकती थी। इसी को लेकर विधर्मी लोग हिन्दू धर्म की हंसी उड़ाते थे।

इस कमी को पूरा करने के लिए ही गोयन्दका जी ने गीताप्रेस की स्थापना की। उन्होंने तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस की सभी प्रकार की उपलब्ध प्रतियां मंगायी। विद्वानों को एकत्र कर उसका शुद्ध पाठ तैयार कराया और फिर उसे प्रकाशित किया। 

वर्ष 2007-08 तक 85 वर्षों की यात्रा में प्रेस से प्रकाशित पुस्तकों की संख्या 42 करोड़ तक पहुंच चुकी है। सस्ती और ‘विज्ञापन रहित‘ पुस्तकों की रिकार्ड बिक्री करने वाला विश्व का सबसे बड़ा प्रकाशन संस्थान श्रद्धालु ग्राहकों की मांग को पूरा नहीं कर पा रहा है। गत वित्तीय वर्ष में गीता प्रेस ने 29.50 करोड़ रुपये की पुस्तकें बेची। संस्थान में लगभग 1,000 कर्मचारी हैं, जिनके माध्यम से यह कार्य सम्पन्न हो रहा है। 

नई तकनीक, आधुनिक मशीनों एवं आवश्यक सुविधाओं से युक्त गीताप्रेस हिन्दी, बांग्ला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगू, कन्नड़, उडि़या, मलयालम, पंजाबी, असमिया तथा उर्दू भाषियों के लिए, उन्हीं की भाषा में ‘हिन्दू धर्म ग्रन्थ‘ उपलब्ध करा रहा है। 

2006 में नेपाली भाषा में ‘रामचरितमानस‘ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। अध्यात्म प्रधान ‘कल्याण‘ मासिक पत्रिका का नियमित प्रकाशन संस्थान की एक विशेष उपलब्धि है। धर्मप्रेमी पाठकों में यह अत्यधिक लोकप्रिय है। वर्तमान में इसके लगभग ढाई लाख ग्राहक हैं। इसके अब तक 80 विशेषांक प्रकाशित हो चुके हैं। भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार, स्वामी रामसुख दास जैसे मनीषी इसके सम्पादक रह चुके हैं।

यों तो संस्थान की सभी पुस्तकें अति लोकप्रिय हैं; पर अकेले ‘तुलसीकृत रामचरितमानस‘ की सात करोड़ तथा हिन्दी और संस्कृत गीता की 7.50 करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं। पुराण दो करोड़, नारी व बालोपयोगी साहित्य 9.50 करोड़ तथा भक्त-चरित्र 5.25 करोड़ की संख्या में बिक चुके हैं। इस प्रकार समस्त विश्व को ‘हिन्दू धर्म‘ की श्रेष्ठता व विशिष्टता से परिचित कराने के उद्देश्य से यह संस्थान अपनी साधना में लगा है। 

इस पुनीत प्रकाशन ने विश्व के हर हिन्दू तथा भारतीय संस्कृति व अध्यात्म प्रेमी लोगों के घरों में भी गीता, रामचरितमानस के साथ काफी श्रेष्ठ साहित्य पहुंचा दिया है। कम मूल्य के साथ ही इसकी एक विशेषता यह भी है कि मुद्रण एकदम शुद्ध होता है। यदि किसी कारण से कोई भूल रह भी जाए, तो उसे हाथ से ठीक कर ही ग्राहक को दिया जाता है। 

(संदर्भ : प्रभासाक्षी 25.10.08)
............................
29 अपै्रल/जन्म-दिवस

कुष्ठ रोगियों के आशा केन्द्र दामोदर गणेश बापट

कुष्ठ रोगियों को लोग घृणा से देखते हैं। इसका लाभ उठाकर कुछ संस्थाएं उनकी सेवा करते हुए चुपचाप उन्हें धर्मांतरित कर लेती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कुष्ठपीडि़त कार्यकर्ता सदाशिव गोविंद कात्रे ने ‘भारतीय कुष्ठ निवारक संघ’ नामक संस्था बनायी। इसका मुख्यालय छत्तीसगढ़ के चांपा नगर में है। उनके बाद यह काम श्री दामोदर गणेश बापट ने संभाला। 
बापटजी का जन्म 29 अपै्रल, 1935 को ग्राम पथरोट (अमरावती, महाराष्ट्र) में श्रीमती लक्ष्मीबाई की गोद में हुआ था। उनके पिता श्री गणेश विनायक बापट रेलवे में कर्मचारी थे। अतः बच्चों की शिक्षा कई जगह हुई। नौ वर्ष की अवस्था में वे स्वयंसेवक बने। नागपुर से बी.काॅम और समाजशास्त्र में बी.ए. कर उन्होंने नौकरी और कारोबार किया। कोलकाता जाकर घुड़दौड़ और फिल्मों में भी पैसा लगाया; पर विवेकानंद साहित्य पढ़कर तथा वनवासी कल्याण आश्रम के प्रमुख बालासाहब देशपांडे का रेडियो पर साक्षात्कार सुनकर उनके मन में सेवा के प्रति रुचि जाग्रत हुई और वे संघ के प्रचारक बन गये। 
सर्वप्रथम उन्हें वनवासी कल्याण आश्रम में भेजा गया। एक बार वे चांपा का प्रकल्प देखने गये। कात्रेजी ने कहा कि लोग यहां आकर बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं; पर लौटकर कोई नहीं आता। बापटजी के मन को बात लग गयी। उन्होंने संघ में बात की और 1972 में वे पूरी तरह से चांपा आ गये। 1977 में कात्रेजी के निधन के बाद वे संस्था के सचिव बने। सदा खादी का धोती-कुर्ता पहनने वाले बापटजी को 1995 में कोलकाता में ‘विवेकानंद सेवा सम्मान’ तथा 2017 में राष्ट्रपति महोदय द्वारा ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया गया। इसके अलावा भी उन्हें कई शासकीय तथा अन्य सम्मान मिले।
बापटजी ने सोठी ग्राम स्थित कुष्ठ आश्रम को अपना केन्द्र बनाया। यहां  रहने वाले लगभग 200 पुरुष, स्त्री तथा बच्चों की समुचित चिकित्सा तथा देखभाल की जाती है। बच्चों के लिए झूलाघर, सुशील बालक गृह तथा सुशील विद्या मंदिर बना है। उन्हें शिक्षा और संस्कार के साथ ही पौष्टिक भोजन भी मिलता है। बालिकाओं के लिए बिलासपुर में अलग से ‘तेजस्विनी’ छात्रावास खोला गया है। प्रतिदिन लगभग 400 कुष्ठरोगी दवा तथा पट्टी आदि के लिए आश्रम में आते हैं। बापटजी स्वयं उनकी पट्टी करते थे। कात्रेजी तथा बापटजी का विचार था कि कुष्ठ रोगियों को समाज की दया की बजाय प्रेम और सम्मान की जरूरत है। अतः उन्होंने ऐसे प्रकल्प चलाए, जिससे उनका स्वाभिमान जाग्रत हो तथा वे भिक्षावृत्ति से दूर रह सकें। 
आश्रमवासी अपनी तीन एकड़ भूमि में मिर्च, प्याज, संतरा, हल्दी, केला, आम, बिही, पपीता, सीताफल, नींबू आदि उगाते हैं। आश्रम की गोशाला में 175 देसी गाय हैं। रोगियों को मोमबत्ती, दरी, रस्सी, चाॅक आदि बनाना सिखाते हैं। कुछ ने वेल्डिंग भी सीखी है। वहां 20 बिस्तर का अस्पताल, स्कूल, गणेश मंदिर, वृद्धाश्रम तथा कार्यकर्ता निवास के अलावा कम्प्यूटर, सिलाई तथा चालक प्रशिक्षण केन्द्र भी हैं। इससे आश्रम की कई जरूरतें पूरी हो जाती हैं। 
बहुत से लोग इन रोगियों की सेवा करते हुए उनसे दूरी बनाकर रखते हैं; पर बापटजी रोगियों के बीच रहकर उनके हाथ से बना खाना ही खाते थे। एक बार जर्मनी से आये कुछ लोगों ने दस लाख रु. देने चाहे; पर बापटजी ने नहीं लिये। वे सरकार या विदेशी सहायता की बजाय आम जनता के सहयोग पर अधिक विश्वास करते थे। हजारों कुष्ठ रोगियों के जीवन में प्रकाश फैलाने वाले बापटजी का 17 अगस्त, 2019 को बिलासपुर के एक अस्पताल में निधन हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी देह चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के उपयोग के लिए छत्तीसगढ़ इंस्टीट्यूट आॅफ मैडिकल साइंस को दे दी गयी।
(पांचजन्य 8.9.19, बिलासपुर के अखबार, वि.सं.के, छ.गढ़)
(बड़ाबाजार कुमारसभा कोलकाता का पत्रक 1995)
                    --------------------------------------------------
30 अप्रैल/जन्म-दिवस

भारतीय फिल्मों के पितामह दादासाहब फाल्के

नासिक के पास प्रसिद्ध तीर्थस्थल त्रयम्बकेश्वर में 30 अप्रैल, 1870 को धुण्डराज गोविन्द फाल्के का जन्म हुआ। उनके पिता श्री गोविन्द फाल्के संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे चाहते थे कि उनका पुत्र भी उनकी तरह विद्वान् पुरोहित बने। इसलिए उन्होंने बचपन से ही उसे गीता, रामायण, शास्त्र, पुराण, वेद, उपनिषद आदि का अध्ययन कराया; पर धुण्डराज का मन तो संस्कृत से अधिक कला, फोटोग्राफी, जादू आदि में लगता था।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वे मुम्बई के विल्सन कालेज में संस्कृत कालेज में प्राध्यापक बन गये। वहाँ वे छात्रों को पढ़ाते तो थे ही, पर साथ ही अपना शौक पूरा करने के लिए उन्होंने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स में भी प्रवेश ले लिया। 

इससे उनके अन्दर के कलाकार को पूरी तरह विकसित होने का अवसर मिला। यहाँ उन्होंने नाटक, चित्रकला, फोटोग्राफी तथा कलाक्षेत्र के अन्य तकनीकी विषयों की पूरी जानकारी लेकर इनमें महारत प्राप्त की। बाद में वे बड़ौदा के कलाभवन से भी जुड़ गये। 

एक दिन मुम्बई में उन्होंने ‘लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नामक फिल्म देखी। उसमें ईसा मसीह के जीवन को दर्शाया गया था। इसके द्वारा ईसाइयत का प्रचार होता देख उन्हें बहुत पीड़ा हुई। उन्होंने संकल्प लिया कि वे भी हिन्दू धर्म से सम्बन्धित कथाओं, अवतारों आदि के बारे में फिल्म बनायेंगे। अतः अब वे फिल्म निर्माण की हर विधा के गहन अध्ययन में जुट गये। 

उनके सम्मुख आर्थिक समस्या भी बहुत प्रबल थी। अपने एक मित्र से कुछ धन उधार लेकर वे इंग्लैण्ड चले गये तथा वहाँ जाकर इस विधा के हर पहलू को निकट से देखा। इंग्लैण्ड से लौटते समय वे अपने साथ एक कैमरा और पर्याप्त मात्रा में फिल्म की रील भी लेकर आये। भारत आकर वे फिल्म निर्माण में जुट गये।

उन दिनों फिल्म बनाना आज की तरह आसान नहीं था। कोई इसमें पैसा लगाने का तैयार नहीं था। नारी पात्रों के लिए कोई महिला कलाकार नहीं मिलती थी; पर दादासाहब ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने पुरुषों से ही महिलाओं का अभिनय भी कराया। इस प्रकार 1913 में भारत की पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ बनी। 

इस फिल्म के बनते ही चारों ओर धूम मच गयी। हर आयु और वर्ग की जनता यह फिल्म देखने के लिए थियेटरों पर टूट पड़ी। इसके बाद उन्होंने मोहिनी भस्मासुर और सत्यवान-सावित्री नामक फिल्में बनायीं। हर फिल्म ने सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये। 

दादा साहब भारत के पौराणिक कथानकों को लेकर ही फिल्म बनाते थे। इस प्रकार उन्होंने ईसाइयत के प्रभाव में आ रही नयी पीढ़ी के मन में धर्म के प्रति प्रेम एवं आदर की भावना जाग्रत की। उन्होंने छोटी-बड़ी कुल मिलाकर 103 फिल्में बनायीं। इस सफलता को देखकर कई उद्योगपति पैसा लगाने को तैयार हो गये। अतः उन्होंने ‘हिन्दुस्तान फिल्म कम्पनी’ की स्थापना की।

जब बोलती फिल्मों का दौर आया, तो लोगों का ध्यान मूक फिल्मों से हट गया। यह देखकर उन्होंने एक बोलती फिल्म भी बनायी; पर वह चल न सकी। तब तक उनका स्वास्थ्य भी बिगड़ गया था। 16 फरवरी, 1944 को उनका देहान्त हो गया।

दादासाहब फाल्के ने भारतीय फिल्म जगत की नींव रखी। इसलिए उन्हें फिल्म जगत का पितामह माना जाता है। फिल्म क्षेत्र का सबसे बड़ा पुरस्कार उनके नाम पर ही दिया जाता है।
...................................

30 अप्रैल/बलिदान-दिवस

अद्भुत योद्धा हरिसिंह नलवा

भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों की मार सर्वप्रथम सिन्ध और पंजाब को ही झेलनी पड़ी। 1802 में रणजीत सिंह विधिवत महाराजा बन गये। 40 साल के शासन में उन्हें लगातार अफगानों और पठानों से जूझना पड़ा। इसमें मुख्य भूमिका उनके सेनापति हरिसिंह नलवा की रही। 1802 में उन्होंने कसूर के पठान शासक निजामुद्दीन तथा 1803 में झंग के पठानों को हराया। 1807 में मुल्तान के शासक मुजफ्फर खान को हराकर उससे वार्षिक कर लेना शुरू किया। 
इस युद्ध के बाद वीरवर हरिसिंह नलवा का नाम पेशावर से काबुल तक शत्रुओं के लिए भय का पर्याय बन गया। वहाँ की माताएँ अपने बच्चों को यह कहती थीं कि यदि तू नहीं सोएगा, तो नलवा आ जाएगा। मुल्तान और अटक जीतकर रणजीत सिंह ने पेशावर और कश्मीर पर ध्यान दिया। 
काबुल के वजीर शेर मोहम्मद खान का बेटा अता मोहम्मद कश्मीर में शासन कर रहा था। 1819 में उसे जीतकर पहले दीवान मोतीराम को और फिर 1820 में हरिसिंह नलवा को वहाँ का सूबेदार बनाया गया। इससे कश्मीर पूरी तरह काबू में आ गया। 1822 में हरिसिंह को अफगानों के गढ़ हजारा का शासक बनाया गया। 
पठान और अफगानी सेना में प्रशिक्षित सैनिकों के साथ मजहब के नाम पर एकत्र ‘मुल्की सेना’ भी रहती थी। 1823 में अटक के पार नोशहरा में दोनों सेनाओं में भारी युद्ध हुआ। 10,000 अफगान सैनिक मारे गये, इधर भी भारी क्षति हुई। अकाली फूलासिंह और हजारों सिख बलिदान हुए; पर जीत हरिसिंह नलवा की हुई। उन्होंने अफगानों का गोला बारूद और तोपें छीन लीं। इससे उनकी धाक काबुल और कन्धार तक जम गयी। उन्होंने वहाँ का सूबेदार बुधसिंह सन्धावालिया को बना दिया। 
पर पठान और अफगानों ने संघर्ष जारी रखा। 1826 से 1831 के बीच सिख राज्य के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने का कार्य मुख्यतः रायबरेली (उत्तर प्रदेश) के रहने वाले सैयद अहमद खान ने किया। पठान उसे ‘सैयद बादशाह’ कहते थे। 1827 में 50,000 अपने तथा पेशावर के बरकजाई कबीले के 20,000 सैनिकों के साथ उसने हमला किया। पेशावर से 32 कि.मी दूर पीरपाई में घमासान युद्ध हुआ। बुधसिंह के पास 10,000 सैनिक और 12 तोपें थीं। कुछ ही घण्टों में 6,000 शत्रु सैनिक मारे गये, अतः उनके पाँव उखड़ गये। सैयद अहमद भागकर स्वात की पहाडि़यों में छिप गया।
पर यह संघर्ष रुका नहीं। 8 मई, 1831 को बालाकोट के युद्ध में शत्रु सेना बुरी तरह पराजित हुई। सैयद बादशाह भी मारा गया। सिख सेना का नेतृत्व रणजीत सिंह का बेटा शेरसिंह कर रहा था। नलवा इस समय सम्पूर्ण पेशावर क्षेत्र के शासक थे। 1837 में काबुल का अमीर मोहम्मद खान एक बड़ी फौज और 40 तोपें लेकर नलवा के किले जमरूद पर चढ़ आया। महीनों तक संघर्ष चलता रहा। हरिसिंह नलवा उन दिनों बुरी तरह बीमार थे, फिर भी 30 अप्रैल, 1837 को वे युद्ध के मैदान में आ गये। उनका नाम सुनते ही अफगानी सेना भागने लगी। उसी समय एक चट्टान के पीछे छिपे कुछ शत्रु सैनिकों ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी। वे घोड़े से गिर पड़े।
इस प्रकार भारत की विजय पताका काबुल, कन्धार और पेशावर तक फहराने वाले वीर ने युद्धभूमि में ही वीरगति प्राप्त की।
..................................


30 अपै्रल/जन्म-दिवस

करुणा की देवी श्री श्री मां आनंदमयी

भक्ति, प्रेम और करुणा की त्रिवेणी श्री श्री मां आनंदमयी एक महान आध्यात्मिक विभूति थीं। उनका जन्म 30 अपै्रल, 1896 (वैशाख पूर्णिमा) को त्रिपुरा के खेड़ा ग्राम में अपनी ननिहाल में हुआ था। अब यह गांव बांग्लादेश में है। 

उनका बचपन का नाम निर्मला सुंदरी था। उनके पिता श्री विपिन बिहारी भट्टाचार्य एक प्रसिद्ध वैष्णव भजन गायक थे। माता श्रीमती मोक्षदा सुंदरी ने आगे चलकर संन्यास ले लिया और उनका नाम मुक्तानंद गिरि हो गया। यद्यपि भक्त लोग उन्हें दीदी मां कहते थे। ऐसे धार्मिक परिवार में निर्मला का बचपन बीता।

निर्मला के मन में बचपन से ही श्रीकृष्ण के प्रति बहुत प्रेम था। वे प्रायः समाधि अवस्था में आ जाती थीं। ऐसे में उनका सम्बन्ध बाहरी जगत से टूट जाता था। उनकी लौकिक शिक्षा कुछ नहीं हुई तथा 12 वर्ष की छोटी अवस्था में ही उनका विवाह पुलिसकर्मी रमणी मोहन चक्रवर्ती (भोलानाथ) से हो गया। 

निर्मला ने गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों को सामान्य रूप से निभाया; पर भक्ति में भाव-विभोर होकर समाधिस्थ हो जाने का क्रम बना रहा। इससे वे जो काम कर रही होती थीं, वह अधूरा रह जाता। धीरे-धीरे परिवार और आसपास के लोग उनकी इस अध्यात्म चेतना को पहचान गये। 

1925 में 'अंबूवाची पर्व' पर वे पति सहित रमणा के सिद्धेश्वरी काली मंदिर में पूजा करने गयीं। वहां वे भाव समाधि में डूब गयीं। उनके हाथों से अपने आप बन रही तांत्रिक मुद्राओं तथा चेहरे की दिव्यता देखकर उनके पति समझ गये कि वह पूर्वजन्म की कोई देवी है। उन्होंने तभी उनसे दीक्षा ले ली।

धीरे-धीरे उनकी ख्याति सर्वत्र फैल गयी। उनके कीर्तन चैतन्य महाप्रभु की याद दिला देते थे। 26 वर्ष की अवस्था में उन्होंने पहला प्रवचन दिया। वे कुछ समय अपने पति के साथ शाहबाग (ढाका) में भी रहीं। नवाब की बेगम प्यारीबानो उनसे बहुत प्रभावित थी। भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.सी.एस.) के अधिकारी ज्योतिष चंद्र (भाई जी) भी वहीं उनके शिष्य बने। ज्योतिष बाबू ने ही उन्हें ‘श्री श्री मां आनंदमयी’ नाम दिया, जो फिर उनकी स्थायी पहचान बन गया। पति के निधन के बाद वे पूरे देश में भ्रमण करने लगीं।  

1932-33 में जवाहर लाल नेहरू देहरादून जेल में थे। मां भी उन दिनों देहरादून में थीं। वहीं नेहरू जी की पत्नी कमला और बेटी इंदिरा मां के संपर्क में आकर उनकी भक्त बनीं। क्रमशः प्रसिद्ध खिलाड़ी पटियाला नरेश भूपेन्द्र सिंह, कुमार नृपेन्द्र नाथ शाहदेव (रांची), संगीतकार एम.एस.सुबुलक्ष्मी, बांसुरीवादक हरिप्रसाद चैरसिया आदि अनेक विद्वान एवं विख्यात लोग उनके भक्त बने।

मां का राजनीति से कुछ सम्बन्ध न होने पर भी गांधी जी, जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, महाराजा (सोलन), महाराजा चिंतामणि शरणनाथ शाहदेव (रातू), रानी साहिब (बामड़ा), फ्रांस के राष्ट्रपति, कनाडा के प्रधानमंत्री तथा भारत के अनेक उद्योगपति, वैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता उनके दर्शन को आते रहते थे।

तत्कालीन सभी आध्यात्मिक विभूतियों से मां का संपर्क बना रहता था। इनमें देवरहा बाबा, उडि़या बाबा, हरिबाबा, नीमकरौली बाबा, श्रीराम ठाकुर, पगला बाबा, स्वामी अखंडानंद, स्वामी शरणानंद, परमहंस योगानंद, गोपीनाथ कविराज, संत छोटे महाराज, हरिगुण गायक आदि प्रमुख हैं। 

असंख्य लोगों में प्रेम, भक्ति और करुणा का संदेश बांटते हुए मां ने 27 अगस्त, 1982 को देहरादून (उत्तराखंड) में अपनी देहलीला पूर्ण की। दो दिन बाद उन्हें कनखल (हरिद्वार) स्थित उनके आश्रम में समाधि दी गयी। समाधि पर जाकर उनके भक्तों को आज भी उनकी जीवंत उपस्थिति का अनुभव होता है। 

(संदर्भ : अमर उजाला 20.5.2008 एवं विकीपीडिया आदि)
----------------------------

30 अप्रैल/जन्म-दिवस

राष्ट्रसन्त तुकड़ो जी महाराज

23 जुलाई, 1955 को जापान के विश्व धर्म सम्मेलन में एक संन्यासी जब बोलने खड़े हुए, तो भाषा न समझते हुए भी उनके चेहरे के भाव और कीर्तन के मधुर स्वर ने वह समां बांधा कि श्रोता मन्त्रमुग्ध हो उठे। लोगों को भावरस में डुबोने वाले वे महानुभाव थे राष्ट्रसंत श्री तुकड़ो जी महाराज।

तुकड़ो जी का जन्म 30 अप्रैल, 1909 को अमरावती (महाराष्ट्र) के ‘यावली’ गांव में हुआ था। इनके पिता श्री बंडो जी इंगले तथा माता श्रीमती मंजुला देवी थीं। माता-पिता ने बहुत मनौतियों से प्राप्त पुत्र का नाम ‘माणिक’ रखा। 

इनके पिता चारण थे। सेठ, जमीदारों, राजाओं आदि के यहां जाकर उनकी परिवार परम्परा का झूठा-सच्चा गुणगान करना उनका काम था। माणिक के जन्म के बाद उन्होंने इसे छोड़कर दर्जी का काम किया। इसमें सफलता न मिलने पर गुड़ बेचा; पर हर बार निराशा और गरीबी ही हाथ लगी।

मणि जब कुछ बड़ा हुआ, तो उसे चांदा की पाठशाला में भेजा गया; पर वह विद्यालय के बगल में स्थित मारुति मंदिर के ढपली बजाकर भजन गाने वाले गायक ‘भारती’ के पास प्रायः बैठे मिलते थे। इधर पिता का कर्जा जब बहुत बढ़ गया, तो वे लौटकर फिर अपने गांव पहुंच गये। अब वहां का शिवालय ही मणि की ध्यान साधना का केन्द्र बन गया। मां ने यह देखकर उसे अपने मायके बरखेड़ भेज दिया। वहां पर ही कक्षा चार तक की शिक्षा मणि ने पायी।

बरखेड़ में मां के गुरु आड्कु जी महाराज का पे्रम मणि को मिला। भजन गाने पर उसे रोटी के टुकड़े मिलते थे। इससे उसका नाम ‘तुकड़या’ और फिर तुकड़ो जी हो गया। जब वे 12 वर्ष के थे, तब उनके गुरु समाधिस्थ हो गये। 

भगवान विट्ठल के दर्शन की प्रबल चाह तुकड़ो जी को पंढरपुर ले गयी; पर पुजारियों ने उन्हें भगा दिया। अब वे पुंडलीक मंदिर गये। इसके बाद मां की याद आने पर गांव आकर मजदूरी से पेट पालने लगे। 14 वर्ष की अवस्था में वे घर छोड़कर जंगल चले आये। 

वहां उनकी भेंट एक योगी से हुई, जिसने एक गुफा में उन्हें योग, प्राणायाम, ध्यान आदि सिखाया। वे रात को आते और प्रातः न जाने कहां गायब हो जाते थे। दो माह बाद एक दिन जब तुकड़ो जी की समाधि टूटी, तो वहां न कोई योगी थे और न कोई गुफा। 

अब तुकड़ो जी स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। उनकी भेंट गांधी जी से भी हुई; पर उनका मार्ग गांधी जी से अलग था। वे गाते थे - झाड़ झड़ूले शस्त्र बनेंगे, पत्थर सारे बम्ब बनेंगे, भक्त बनेगी सेना। ऐसे शब्दों से अंग्रेज शासन को नाराज होना ही था। 

28 अगस्त, 1942 को उन्हें बंदी बना लिया गया। जेल से आने पर वे सेवा कार्य के माध्यम से समाज जागरण में जुट गये। उन्होंने ‘गुरुदेव सेवा मंडल’ स्थापित कर गांव-गांव में उसकी शाखाएं स्थापित कीं। एक समय उनकी संख्या 75,000 तक पहुंच गयी।

इसी समय उनकी भेंट संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी से हुई। दोनों ने एक दूसरे को समझा और फिर शाखाओं पर भी उनके प्रवचन होने लगे। गुरुदेव सेवा मंडल ने गोरक्षा, ग्रामोद्योग, समरसता, कुष्ठ सेवा, व्यसन मुक्ति आदि रचनात्मक काम हाथ में लिये। 

इनके व्यापक प्रभाव को देखकर राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें ‘राष्ट्रसंत’ की उपाधि दी। 1953 में तुकड़ो जी ने ग्राम विकास के सूत्रों की व्याख्या करने वाली ‘ग्राम गीता’ लिखी। 1964 में जब ‘विश्व हिन्दू परिषद’ की स्थापना हुई, तो वे वहां उपस्थित थे।

सूर्य उगता है, तो ढलता भी है। अब चलने का समय हो रहा था। तुकड़ो जी ने क्रमशः सभी कार्य अपने सहयोगियों को सौंप दिये और 11 अक्तूबर, 1966 को अपनी देहलीला को भी समेट लिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें