अप्रैल तीसरा सप्ताह


16 अप्रैल/पुण्य-तिथि

प्रकृति के अनुपम चितेरे नन्दलाल बोस

रवीन्द्रनाथ टैगोर और महात्मा गान्धी घनिष्ठ मित्र थे; पर एक बार दोनों में बहस हो गयी। कुछ लोग टैगोर के पक्ष में थे, तो कुछ गान्धी के। वहाँ एक युवा चित्रकार चुप बैठा था। पूछने पर उसने कहा कि चित्रकार को तो सभी रंग पसन्द होते हैं। इस कारण मेरे लिए दोनों में से किसी का महत्त्व कम नहीं है।

यह युवा चित्रकार थे नन्दलाल बोस, जिनके प्राण प्रकृति-चित्रण में बसते थे। उनका जन्म तीन दिसम्बर, 1883 को खड़गपुर, बिहार में पूर्णचन्द्र बोस के घर में हुआ था। वहाँ के नैसर्गिक सौन्दर्य की गहरी छाप उनके बाल हृदय पर पड़ी। 

जब उनकी माँ क्षेत्रमणि देवी रंगोली या गुडि़या बनातीं, या कपड़ों पर कढ़ाई करतीं, तो वह उसे ध्यान से देखते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि वे पढ़ाई से अधिक रुचि चित्रकला में लेने लगे। जब कक्षा में अध्यापक पढ़ाते थे, तो वे कागजों पर चित्र ही बनाते रहते थे।

उन्हें कला सिखाने वाला जो भी मिलता, वे उसके साथ रम जाते थे। उन्होंने गुडि़या बनाने वालों से यह कला सीखी। एक बार एक पागल ने तीन पैसे लेकर केवल कोयले और पानी से सड़क पर उनका चित्र बना दिया। उन्होंने इसे सीखकर शान्ति निकेतन में इसका प्रयोग किया। 15 वर्ष की अवस्था में वे कोलकाता पढ़ने आ गये; पर फीस के लिए मिला धन वे महान् कलाकारों के चित्र खरीदने में लगा देते थे। अतः कई बार वे अनुत्तीर्ण हुए; पर इससे कला के प्रति उनका अनुराग कम नहीं हुआ।

20 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया। उनके ससुर ने उनकी पढ़ाई की उचित व्यवस्था की। इस दौरान उन्होंने यूरोपीय चित्रकला का अध्ययन किया। उन्होंने प्रसिद्ध चित्रकार अवनीन्द्रनाथ ठाकुर को अपना गुरू बनाया। वे रवीन्द्रनाथ टैगोर के भाई और राजकीय कला विद्यालय के उपप्राचार्य थे। विद्यालय के प्राचार्य श्री हावेल थे।इन दोनों ने उन्हें भारतीय शैली के चित्र बनाने के लिए प्रेरित किया। 

यहाँ उन्हांेने अपनी कल्पना से भारतीय देवी, देवताओं तथा प्राचीन ऐतिहासिक घटनाओं के चित्र बनाये, जो बहुत प्रसिद्ध हुए। एक बार भगिनी निवेदिता वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु के साथ उनके चित्र देखने आयीं। उन्होंने नन्दलाल जी को अजन्ता गुफाओं के शिल्प के चित्र बनाने हेतु प्रोत्साहित किया तथा उनका परिचय विवेकानन्द और रामकृष्ण परमहंस से कराया। 

आगे चलकर देश के बड़े चित्रकारों ने उनकी मौलिक शैली को मान्यता दी। जब ‘इण्डियन सोसायटी अ१फ ओरिएण्टल आटर््स’ की स्थापना हुई, तो उसकी पहली प्रदर्शिनी में उन्हें 500 रु0 का पुरस्कार मिला। उन्होंने इसका उपयोग देश भ्रमण में किया। शान्ति निकेतन में कला विभाग का पदभार सँभालने के बाद उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर की अनेक रचनाओं के लिए चित्र बनाये। टैगोर जी उन्हें अपने साथ अनेक देशों की यात्रा पर ले गये। 

नन्दलाल बोस के स्वतन्त्रता आन्दोलन से सम्बन्धित चित्र भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। इनमें गान्धी जी की ‘दाण्डी यात्रा’ तो बहुत प्रसिद्ध है। संविधान की मूल प्रति का चित्रांकन प्रधानमंत्री नेहरू जी के आग्रह पर इन्होंने ही किया था। स्वतन्त्रता के बाद जब नागरिकों को सम्मानित करने के लिए पद्म अलंकरण प्रारम्भ हुए, तो इनके प्रतीक चिन्ह भी नन्दलाल जी ने ही बनाये। 1954 में वे स्वयं भी ‘पद्मविभूषण’ से सम्मानित किये गये। उन्होंने ‘शिल्प-चर्चा’ नामक एक पुस्तक भी लिखी। 

16 अप्रैल  1966 को 83 वर्ष की सुदीर्घ आयु में प्रकृति के अनुपम चितेरे इस कला मनीषी का देहान्त हुआ।
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17 अप्रैल/पुण्य-तिथि

मित्रता-प्रेमी गोविन्दराव कुलकर्णी 

गोविंदराव कुलकर्णी (अन्ना) 1945 में नागपुर से ही प्रचारक बने थे। प्रारम्भ में उन्हें महाराष्ट्र में ही भंडारा और फिर गोंदिया में जिला प्रचारक का काम दिया गया। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद लगे प्रतिबंध के समय वे उ0प्र0 के मुगलसराय में प्रचारक थे। प्रतिबंध समाप्ति के बाद उन्हें फिर महाराष्ट्र बुला लिया गया। 1951 से वे विदर्भ में खामगांव, गोंदिया, भंडारा और नागपुर में नगर, जिला और विभाग प्रचारक जैसी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों पर रहे। 

गोविंदराव की कद-काठी बहुत प्रभावी थी। सोने में सुहागे की तरह वे खूब बड़ी-बड़ी मूंछें भी रखते थे। जब वे खाकी निकर पहन लेते थे, तो लोग उन्हें प्रायः पुलिस वाला समझते थे। इस विशेषता के कारण उनकी पुलिस वालों से दोस्ती भी बहुत जल्दी हो जाती थी। इसका उन्हें कई बार लाभ भी मिला। यात्रा करते समय कई बार बस और ट्रक वाले उनसे पैसे नहीं लेते थे। मार्ग में होटल वाले भी उन्हें बिना पैसे लिये ही खिला-पिला देते थे।

गोविंदराव चाय नहीं पीते थे। गोंदिया का एक युवा पुलिसकर्मी किसी समय उनका मित्र बन गया था। एक बार वह रास्ते में मिल गया और बहुत आग्रह कर उन्हें एक होटल में ले गया। वस्तुतः उस दिन उसकी सगाई हुई थी। इससे वह बहुत प्रसन्न था और उन्हें चाय-नाश्ता करना चाहता था। गोविंदराव भी उसकी प्रसन्नता में सहभागी हुए और चाय के लिए मना नहीं किया। 

संघ के काम में परिचय और मित्रता का बहुत महत्व है। गोविंदराव किसी से भी बहुत जल्दी मित्रता करने में माहिर थे। यात्रा में चलते-चलते वे लोगों से मित्रता कर लेते थे। कार्यालय पर उनसे मिलने सैकड़ों लोग आते थे। 

ऐसे लोग प्रायः संघ को बिल्कुल नहीं जानते थे। वे कार्यालय को उनका घर समझते थे; पर धीरे-धीरे गोविंदराव उन्हें भी स्वयंसेवक और कार्यकर्ता बनाकर उनका उपयोग संघ कार्य की वृद्धि में कर लेते थे। वे परिवारों की बजाय कमरा लेकर रहने वाले छात्रों के साथ भोजन करना पसंद करते थे। ऐसे अनेक छात्र आगे चलकर संघ के अच्छे कार्यकर्ता बने।

जब वे कार्यालय पर रहते थे, तो बालक मस्ती में वहां खेलते-कूदते और शोर करते रहते थे। गोविंदराव भी उनके बीच बच्चे बन जाते थे। एक बार उन्हें निर्धन छात्रों के एक छात्रावास के संचालन का काम दिया गया। उसके लिए उन्होंने घर-घर जाकर अनाज, धन तथा अन्य सामग्री एकत्र की; पर व्यवस्था पूरी होते ही वे फिर संघ शाखा के काम में ही वापस आ गये।

गोविंदराव पत्र-व्यवहार बहुत करते थे। उसमें पत्रांक, दिनांक आदि लाल स्याही से बहुत साफ-साफ अंकित रहता था। अतः कई लोग उनके पत्रों को संभाल कर रखते थे। इस माध्यम से भी उन्होंने अनेक लोगों को संघ कार्य की प्रेरणा दी। वे अपने पास आये हर पत्र का बहुत शीघ्र उत्तर देते थे। 

उनका संपर्क का दायरा बहुत बड़ा था। सिन्धी समाज के लोग उन्हें ‘भैयाजी’ कहकर आदर देते थे। वे कहते थे कि हर कार्यकर्ता को प्रतिदिन एक नये व्यक्ति से परिचय करना चाहिए। वे स्वयं भी इसका प्रयास करते थे। अपने बड़े भाई और भाभी को वे माता-पिता के समान आदर देते थे।

जीवन के संध्याकाल में उनके रहने की व्यवस्था लाखनी में की गयी; पर बीमार होते हुए भी वे आसपास सम्पर्क करने निकल जाते थे। ऐसे में लोगों को उन्हें ढूंढना पड़ता था। अत्यधिक बीमार होने पर उन्हें नागपुर लाया गया, जहां 17 अप्रैल, 2000 को उनका शरीरांत हुआ।

(संदर्भ : साप्ताहिक विवेक, मुंबई द्वारा प्रकाशित संघ गंगोत्री)
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17 अप्रैल/जन्म-दिवस


भारतीय विज्ञान परम्परा के साधक जयंत सहस्रबुद्धे 

भारत में प्राचीन काल से ही विज्ञान की श्रेष्ठ परम्परा रही है; पर हजार साल तक विदेशी और विधर्मियों से हुए संघर्ष के दौरान शोध कार्य रुक गया। जिन ग्रंथों में ज्ञान और विज्ञान का खजाना भरा था, ऐसी लाखों पुस्तकें जला दी गयीं। हजारों मूल्यवान ग्रंथ विदेशी उठाकर ले गये। अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति से भारतीयों के दिमाग में अपनी भाषा, भूषा, परम्परा, ज्ञान और विज्ञान के प्रति हीनता का भाव भर दिया। अतः संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओं में उपलब्ध विज्ञान भी बंद होकर रह गया। ऐसे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं ने इसके पुनर्जीवन का निश्चय किया। इसकी शुरुआत आई.आई.टी. बंगलुरू में स्वदेशी विज्ञान अभियान के रूप में हुई और फिर 1991 में विधिवत ‘विज्ञान भारती’ नामक संस्था का गठन हुआ। वरिष्ठ प्रचारक सुदर्शन जी इसके प्रेरक थे। 

इस संस्था के काम को भारत भर में फैलाने में विशिष्ट भूमिका निभाने वाले जयंत सहस्रबुद्धे का जन्म 17 अपै्रल, 1966 को मुंबई के गिरगांव में हुआ था। उनके पिताजी संघ से और माताजी राष्ट्र सेविका समिति के काम से जुड़े थे। अतः वही संस्कार बालक जयंत में भी आये और वे शाखा में जाने लगे। बचपन से ही विज्ञान में रुचि होने के कारण उन्होंने मुंबई वि.वि. से इलेक्ट्रोनिक्स में बी.टेक किया। वे मेधावी छात्र थे और उनका शोध का स्वभाव भी था। अतः शीघ्र ही उन्हें भाभा परमाणु शोध केन्द्र (ठंता) में काम मिल गया। पर उनके मन में संघ कार्य की लगन थी। दूसरों की सहायता करना उन्हें अच्छा लगता था। सरलता, सादगी और परिश्रमशीलता उनके स्वभाव में थी। अतः 1989 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और संघ के प्रचारक बन गये। महाराष्ट्र के अनेक नगरों में संघ कार्य के बाद वे गोवा के विभाग प्रचारक और फिर 2001 से 2009 तक कोंकण के प्रांत प्रचारक रहे। इससे पूर्व वे कुछ वर्ष संघ के सरकार्यवाह हो.वे.शेषाद्रि के साथ उनके निजी सहायक भी रहे।

विज्ञान के प्रति उनकी अभिरुचि देखकर 2009 में उन्हें विज्ञान भारती का राष्ट्रीय संगठन सचिव बनाया गया। अब वे पूरे देश में घूमकर विज्ञान के अध्यापक, शोध छात्र और वैज्ञानिकों से मिलकर उन्हें एक सूत्र में पिरोने लगे। उनकी देखरेख में संस्था ने विद्यार्थी विज्ञान मंथन, टेक्नोलोजी फाॅर सेवा, आई.आई.एस.एफ, विश्व वेद विज्ञान सम्मेलन, भारतीय विज्ञान सम्मेलन, वल्र्ड आयुर्वेद फाउंडेशन, ग्लोबल इंडियन साइंटिस्ट एंड टेक्नोक्रेट फोरम, नेशनल आयुर्वेद स्टूडेंट्स यूथ एसोसिएशन आदि अनेक प्रकल्प शुरू किये। उन्होंने वैदिक गणित, भारतीय विज्ञान की विश्व को देन तथा स्वाधीनता संग्राम में वैज्ञानिकों के योगदान जैसे विषयों पर देश भर में अनेक गोष्ठियां और सेमीनार किये। अब तक इस पर किसी का ध्यान ही नहीं था। अतः लोगों का भारतीय विज्ञान के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगा। इससे विज्ञान भारती का नाम केवल भारत ही नहीं, तो विश्व स्तर पर चर्चित हो गया।

स्वाधीनता के 75 वर्ष पर विज्ञान भारती द्वारा किये जाने वाले अनेक नवोन्मेषी आयोजनों की वे योजना बना रहे थे। इसी सिलसिले में वे देहरादून आये थे। पर तीन सितम्बर, 2022 को रात में सड़क मार्ग से दिल्ली जाते समय मुजफ्फरनगर में उनकी कार दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। इससे उनके सिर में गंभीर चोट आयी। उन्हें तत्काल दिल्ली के एक अच्छे अस्पताल में भरती कराया गया। कुछ समय तक वहां रहने के बाद परिवार के आग्रह पर उन्हें मुंबई स्थानांतरित किया गया। सिर में चोट के कारण वे लगभग कोमा जैसी स्थिति में थे। हालत बार-बार सुधरती और फिर बिगड़ जाती थी। इसी के चलते दो जून, 2023 को मुंबई में ही उनका निधन हो गया।

(संदर्भ: पांचजन्य एवं आर्गनाइजर 18.6.23)
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18 अपै्रल/बलिदान-दिवस

अमर बलिदानी तात्या टोपे

छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी पेशवाओं ने उनकी विरासत को बड़ी सावधानी से सँभाला। अंग्रेजों ने उनका प्रभुत्व समाप्त कर पेशवा बाजीराव द्वितीय को आठ लाख वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठूर में नजरबन्द कर दिया। इनके दरबारी धर्माध्यक्ष रघुनाथ पाण्डुरंग भी इनके साथ बिठूर आ गये। इन्हीं रघुनाथ जी के आठ पुत्रों में से एक का नाम तात्या टोपे था।

1857 में जब स्वाधीनता की ज्वाला धधकी, तो नाना साहब के साथ तात्या भी इस यज्ञ में कूद पड़े। बिठूर, कानपुर, कालपी और ग्वालियर में तात्या ने देशभक्त सैनिकों की अनेक टुकडि़यों को संगठित किया। कानपुर में अंग्रेज अधिकारी विडनहम तैनात था। तात्या ने अचानक हमला कर कानपुर पर कब्जा कर लिया। यह देखकर अंग्रेजों ने नागपुर, महू तथा लखनऊ की छावनियों से सेना बुला ली। अतः तात्या को कानपुर और कालपी से पीछे हटना पड़ा।

इसी बीच रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी में संघर्ष का बिगुल बजा दिया। तात्या ने उनके साथ मिलकर ग्वालियर पर अधिकार कर लिया। तात्या दो वर्ष तक सतत अंग्रेजों से संघर्ष करते रहे। चम्बल से नर्मदा के इस पार तक तथा अलवर से झालावाड़ तक तात्या की तलवार अंग्रेजों से लोहा लेती रही। इस युद्ध में तात्या के विश्वस्त साथी एक-एक कर बलिदान होते गये। अकेले होने के बाद भी वीर तात्या टोपे ने धैर्य और साहस नहीं खोया।

तात्या टोपे केवल सैनिक ही नहीं, एक कुशल योजनाकार भी थे। उन्होंने झालरा पाटन की सारी सेना को अपने पक्ष में कर वहाँ से 15 लाख रुपया तथा 35 तोपें अपने अधिकार में ले लीं। इससे घबराकर अंग्रेजों ने छह सेनापतियों को एक साथ भेजा, पर तात्या उनकी घेरेबन्दी तोड़कर नागपुर पहुँच गये। अब उनके पास सेना बहुत कम रह गयी थी। नागपुर से वापसी में खरगौन में अंग्रेजों से फिर भिड़न्त हुई। 7-8 अपै्रल, 1859 को किसी के बताने पर पाटन के जंगलों में उन्हें शासन ने दबोच लिया। ग्वालियर (म.प्र.) के पास शिवपुरी के न्यायालय में एक नाटक रचा गया, जिसका परिणाम पहले से ही निश्चित था।

सरकारी पक्ष ने जब उन्हें गद्दार कहा, तो तात्या टोपे ने उच्च स्वर में कहा, मैं कभी अंग्रेजों की प्रजा या नौकर नहीं रहा, तो मैं गद्दार कैसे हुआ, मैं पेशवाओं का सेवक रहा हूँ। जब उन्होंने युद्ध छेड़ा, तो मैंने एक पक्के सेवक की तरह उनका साथ दिया। मुझे अंग्रेजों के न्याय में विश्वास नहीं है। या तो मुझे छोड़ दें या फिर युद्ध बन्दी की तरह तोप से उड़ा दें।

अन्ततः 18 अपै्रल, 1859 को उन्हें एक पेड़ पर फाँसी दे दी गयी। कई इतिहासकार कहते हैं कि वे कभी पकड़े ही नहीं गये। जिसे फाँसी दी गयी, वह नारायणराव भागवत थे, जो उन्हें बचाने हेतु स्वयं फांसी चढ़ गये। तात्या संन्यासी वेष में कई बार अपने पूर्वजों के स्थान येवला आये। कुछ इतिहासकारों के अनुसार तात्या के हमशक्ल छह लोगों को फांसी दी गयी।

इतिहासकार श्रीनिवास बालासाहब हर्डीकर की पुस्तक तात्या टोपे के अनुसार तात्या 1861 में काशी के खर्डेकर परिवार में अपनी चचेरी बहिन दुर्गाबाई के विवाह में आये थे तथा 1862 में अपने पिता के काशी में हुए अंतिम संस्कार में भी उपस्थित थे। तात्या के एक वंशज पराग टोपे की पुस्तक तात्या टोपेज आॅपरेशन रेड लोटस के अनुसार कोटा और शिवपुरी के बीच चिप्पा बरोड के युद्ध में एक जनवरी, 1859 को तात्या ने वीरगति प्राप्त की। कुछ के अनुसार उन्होंने स्वामी गोविंद परमहंस महाराज के रूप में 20-6-1920 को समाधि ली। अनेक ब्रिटिश अधिकारियों के पत्रों में लिखा है कि कथित फांसी के बाद भी वे रामसिंह, जीलसिंह, रावसिंह जैसे नामों से घूमते मिले हैं। स्पष्ट है कि इस बारे में अभी बहुत शोध की आवश्यकता है।
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18 अप्रैल/बलिदान-दिवस

अमर बलिदानी दामोदर हरि चाफेकर

दामोदर हरि चाफेकर उस बलिदानी परिवार के अग्रज थे, जिसके तीनों पुष्पों ने स्वयं को भारत माँ की अस्मिता की रक्षा के लिए बलिदान कर दिया। उनका जन्म 25 जून, 1869 को पुणे में प्रख्यात कथावाचक श्री हरि विनायक पन्त के घर में हुआ था। दामोदर के बाद 1873 में बालकृष्ण और 1879 में वासुदेव का जन्म हुआ। तीनों भाई बचपन से ही अपने पिता के साथ भजन कीर्तन में भाग लेते थे।

दामोदर को गायन के साथ काव्यपाठ और व्यायाम का भी बहुत शौक था। उनके घर में लोकमान्य तिलक का ‘केसरी’ नामक समाचार पत्र आता था। उसे पूरे परिवार के साथ-साथ पास पड़ोस के लोग भी पढ़ते थे। तिलक जी को जब गिरफ्तार किया गया, तो दामोदर बहुत रोये। उन्होंने खाना भी नहीं खाया। इस पर उसकी माँ ने कहा कि तिलक जी ने रोना नहीं, लड़ना सिखाया है। दामोदर ने माँ की वह सीख गाँठ बाँध ली।

अब उन्होंने ‘राष्ट्र हितेच्छु मंडल’ के नाम से अपने जैसे युवकों की टोली बना ली। वे सब व्यायाम से स्वयं को सबल बनाने में विश्वास रखते थे। जब उन्हें अदन जेल में वासुदेव बलवन्त फड़के की अमानवीय मृत्यु का समाचार मिला, तो सबने सिंहगढ़ दुर्ग पर जाकर उनके अधूरे काम को पूरा करने का संकल्प लिया। दामोदर ने शस्त्र संचालन सीखने के लिए सेना में भर्ती होने का प्रयास किया; पर उन्हें भर्ती नहीं किया गया। अब वह अपने पिता की तरह कीर्तन-प्रवचन करने लगे।

एक बार वे मुम्बई गये। वहाँ लोग रानी विक्टोरिया की मूर्ति के सामने हो रही सभा में रानी की प्रशंसा कर रहे थे। दामोदर ने रात में मूर्ति पर कालिख पोत दी और गले में जूतों की माला डाल दी। इससे हड़कम्प मच गया। उन्हीं दिनों पुणे में प्लेग फैल गया। शासन ने मिस्टर रैण्ड को प्लेग कमिश्नर बनाकर वहाँ भेजा। वह प्लेग की जाँच के नाम पर घरों में और जूते समेत पूजागृहों में घुस जाता। माँ-बहनों का अपमान करता। दामोदर एवं मित्रों ने इसका बदला लेने का निश्चय किया। तिलक जी ने उन्हें इसके लिए आशीर्वाद दिया।

22 जून, 1897 को रानी विक्टोरिया का 60वाँ राज्यारोहण दिवस था। शासन की ओर से पूरे देश में इस दिन समारोह मनाये गये। पुणे में भी रात के समय एक क्लब में पार्टी थी। रैण्ड जब वहाँ से लौट रहा था, तो दामोदर हरि चाफेकर तथा उसके मित्रों ने उस पर गोली चला दी। इससे आर्यस्ट नामक अधिकारी वहीं मारा गया। रैण्ड भी बुरी तरह घायल हो गया और तीन जुलाई को अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी।

पूरे पुणे शहर में हाहाकार मच गया; पर वे पुलिस के हाथ न आये। कुछ समय बाद दो द्रविड़ भाइयों के विश्वासघात से दामोदर और फिर बालकृष्ण पकडे़ गये। जिन्होंने विश्वासघात कर उन्हें पकड़वाया था, वासुदेव और रानाडे ने उन्हें गोली से उड़ा दिया। रामा पांडू नामक पुलिसकर्मी ने अत्यधिक उत्साह दिखाया था, उस पर थाने में ही गोली चलाई; पर वह बच गया।

न्याय का नाटक हुआ और 18 अप्रैल, 1898 को दामोदर को फाँसी दे दी गयी। अन्तिम समय में उनके हाथ में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा लिखित तथा हस्ताक्षरित ग्रन्थ ‘गीता रहस्य’ था। उन्होंने हँसते हुए स्वयं ही फाँसी का फन्दा गले में डाला। आगे चलकर बालकृष्ण, वासुदेव और रानाडे को भी फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
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18 अप्रैल/जन्म-दिवस

समाजसेवी महर्षि कर्वे

महर्षि कर्वे का जन्म 18 अप्रैल, 1858 को महाराष्ट्र के कांेकण क्षेत्र में हुआ था। उनका पूरा नाम धोण्डो केशव पन्त था और वे अण्णा साहब कर्वे के नाम से भी जाने जाते थे। बचपन से ही उनकी पढ़ाई में बहुत रुचि थी। 

कक्षा छह की परीक्षा देने के लिए वे अपने गाँव मुरुण्ड से 100 मील दूर सतारा गये; पर दुर्भाग्य से वे अनुत्तीर्ण हो गये। इस पर भी वे निराश नहीं हुए। उन्होंने अगली बार कोल्हापुर से यह परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुए। 

इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए वे मुम्बई आ गये। यहाँ उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। खर्च निकालने के लिए उन्हें ट्यूशन पढ़ाने पड़ते थे। उन्होंने 23 वर्ष की अवस्था में मैट्रिक तथा फिर एलफिन्स्टन कालिज से बी.ए. किया।

उनमें छात्र जीवन से ही सेवा एवं परिश्रम की भावना कूट-कूटकर भरी थी। मुम्बई में पढ़ाई पूरी करने के बाद भी वे ट्यूशन एवं छोटे मोटे काम से जीवनयापन करते रहे। उनके पास जैसे ही कुछ पैसा एकत्र होता, वे उसे निर्धन छात्रों एवं अन्य लोगों को दान कर देते थे। इसी बीच उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। इसके बाद उन्होंने अपना सारा जीवन समाजसेवा एवं विशेषतः नारी कल्याण में लगाने का निश्चय किया।

प्रो0 गोखले ने उन्हें पुणे के फग्र्युसन कालिज में गणित पढ़ाने के लिए बुलाया। अपने सेवाभाव एवं पढ़ाने की शैली के कारण वे इस काॅलिज के छात्रों में बहुत लोकप्रिय हुए। अब लोग उन पर दूसरे विवाह के लिए दबाव डालने लगे। प्रतिष्ठित नौकरी के कारण अनेक युवतियों के प्रस्ताव भी उन्हें मिले; पर वे समाज में विधवाओं की दशा सुधारना चाहते थे। अतः उन्होंने निश्चय किया कि वे यदि पुनर्विवाह करेंगे, तो किसी विधवा से ही करेंगे। इस प्रकार समाज के प्रबुद्ध वर्ग में वे एक आदर्श उपस्थित करना चाहते थे।

श्री कर्वे ने अपने मित्र नरहरि पन्त की विधवा बहिन आनन्दीबाई से पुनर्विवाह किया। इससे न केवल पुणे अपितु पूरे महाराष्ट्र में हँगामा खड़ा हो गया। उनके ग्राम मुरुण्ड के लोगों ने तो उनका बहिष्कार ही कर दिया; पर वे बिल्कुल भी विचलित नहीं हुए; क्योंकि समाज के अनेक प्रतिष्ठित लोगों का समर्थन उन्हें प्राप्त था। अब वे गाँव और नगरों में भ्रमण कर महिलाओं एवं विधवाओं की स्थिति सुधारने के प्रयास में लग गये।

इसी प्रयास की एक कड़ी के रूप में उन्होंने पुणे के पास हिंगणे में अनाथ बालिकाओं के लिए एक आश्रम बनाया। यद्यपि उनके कार्यों की आलोचना करने एवं उसमें बाधा डालने वालों की भी कमी नहीं थी; पर वे अविचलित रहकर आश्रम के विकास एवं व्यवस्था के लिए निरन्तर भ्रमण करते थे। यहाँ तक कि वे विदेश भी गये और वहाँ से भी धन जुटाकर लाये। उनकी पत्नी भी हर समय उनकी सहायता में तत्पर रहती थी। आगे चलकर उस आश्रम ने एक विश्वविद्यालय का रूप ले लिया। 

उनके सेवा कार्यों से प्रभावित होकर लोग उन्हें महर्षि कर्वे के नाम से सम्बोधित करने लगे। अब उनकी बात लोग ध्यान से सुनने लगे। अनेक संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद उपाधियों से विभूषित किया। 
श्री कर्वे ने हरिजन महिलाओं की दशा सुधारने के लिए भी अनेक प्रयास किये। 1958 में उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। 9 नवम्बर, 1962 को 105 वर्ष की आयु में इस समाजसेवी का देहान्त हुआ।
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19 अप्रैल/जन्म-दिवस

तपस्वी शिक्षाविद महात्मा हंसराज

भारत के शैक्षिक जगत में डी.ए.वी. विद्यालयों का बहुत बड़ा योगदान है। विद्यालयों की इस शृंखला के संस्थापक हंसराज जी का जन्म महान संगीतकार बैजू बावरा के जन्म से धन्य हुए ग्राम बैजवाड़ा (जिला होशियारपुर, पंजाब) में 19 अप्रैल, 1864 को हुआ था। बचपन से ही शिक्षा के प्रति इनके मन में बहुत अनुराग था; पर विद्यालय न होने के कारण हजारों बच्चे अनपढ़ रह जाते थे। इससे ये बहुत दुःखी रहते थे।

महर्षि दयानन्द सरस्वती के देहावसान के बाद लाहौर के आर्यभक्त उनकी स्मृति में कुछ काम करना चाहते थे, तो अंग्रेजी के साथ-साथ अपनी प्राचीन वैदिक संस्कृति की शिक्षा देने वाले विद्यालय खोलने की चर्चा चली। 22 वर्षीय हंसराज जी ने एक साहसिक निर्णय लेकर इस कार्य हेतु अपनी सेवाएँ निःशुल्क समर्पित कर दीं। इस व्रत को उन्होंने आजीवन निभाया।

हंसराज जी के समर्पण को देखकर उनके बड़े भाई मुलकराज जी ने उन्हें 40 रु0 प्रतिमाह देने का वचन दिया। अगले 25 साल हंसराज जी डी.ए.वी. स्कूल एवं काॅलेज, लाहौर के अवैतनिक प्राचार्य रहे। 

उन्होंने जीवन भर कोई पैसा नहीं कमाया। कोई भूमि उन्होंने अपने लिए नहीं खरीदी, तो मकान बनाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। पैतृक सम्पत्ति के रूप में जो मकान मिला था, धन के अभाव में उसकी वे कभी मरम्मत भी नहीं करा सके। 

उनके इस समर्पण को देखकर यदि कोई व्यक्ति उन्हें कुछ नकद राशि या वस्तु भेंट करता, तो वे उसे विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर देते थे। संस्था के कार्य से यदि वे कहीं बाहर जाते, तो वहाँ केवल भोजन करते थे। शेष व्यय वे अपनी जेब से करते थे। इस प्रकार मात्र 40 रु0 में उन्होंने अपनी माता, पत्नी, दो पुत्र और तीन पुत्रियों के परिवार का खर्च चलाया। आगे चलकर उनके पुत्र बलराज ने उन्हें सहायता देने का क्रम जारी रखा।

इतने कठिन परिश्रम और साधारण भोजन से उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। एक बार तो उन्हें क्षय रोग हो गया। लोगों ने उन्हें अंग्रेजी दवाएँ लेने की सलाह दी; पर उन्होंने आयुर्वेदिक दवाएँ ही लीं तथा उसी से वे ठीक हुए। 

उन्होंने इस दौरान तीन माह तक केवल गुड़, जौ का सत्तू और पानी का ही सेवन किया। धनाभाव के कारण उनकी आँखों की रोशनी बहुत कम हो गयी। एक आँख तो फिर ठीक ही नहीं हुई; पर वे विद्यालयों के प्रचार-प्रसार में लगे रहे। उनकी यह लगन देखकर लोगों ने उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी।

समाज सेवा में अपना जीवन समर्पित करने के बाद भी वे बहुत विनम्र थे। यदि उनसे मिलने कोई धर्मोपदेशक आता, तो वे खड़े होकर उसका स्वागत करते थे। वे सदा राजनीति से दूर रहे। उन्हें बस वेद-प्रचार की ही लगन थी। 

उन्होंने लाहौर में डी.ए.वी. स्कूल, डी.ए.वी. काॅलेज, दयानन्द ब्रह्म विद्यालय, आयुर्वेदिक काॅलेज, महिला महाविद्यालय, औद्योगिक स्कूल, आर्य समाज अनारकली एवं बच्छोवाली, आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा एवं हरिद्वार में वैदिक मोहन आश्रम की स्थापना की।

देश, धर्म और आर्य समाज की सेवा करते हुए 15 नवम्बर, 1938 को महात्मा हंसराज जी ने अन्तिम साँस ली। उनके पढ़ाये छात्रों तथा अन्य प्रेमीजनों ने उनकी स्मृति में लाहौर, दिल्ली, अमृतसर, भटिंडा, मुम्बई, जालन्धर आदि में अनेक भवन एवं संस्थाएँ बनायीं, जो आज भी उस अखंड कर्मयोगी का स्मरण दिला रही हैं।
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19 अप्रैल/बलिदान-दिवस

युवा बलिदानी अनन्त कान्हेरे

भारत माँ की कोख कभी सपूतों से खाली नहीं रही। ऐसा ही एक सपूत थे अनन्त लक्ष्मण कान्हेरे, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए केवल 19 साल की युवावस्था में ही फाँसी के फन्दे को चूम लिया।

महाराष्ट्र के नासिक नगर में उन दिनों जैक्सन नामक अंग्रेज जिलाधीश कार्यरत था। उसने मराठी और संस्कृत सीखकर अनेक लोगों को प्रभावित कर लिया था; पर उसके मन में भारत के प्रति घृणा भरी थी। वह नासिक के पवित्र रामकुंड में घोड़े पर चढ़कर घूमता था; पर भयवश कोई बोलता नहीं था। 

उन दिनों नासिक में वीर सावरकर की ‘अभिनव भारत’ नामक संस्था सक्रिय थी। लोकमान्य तिलक के प्रभाव के कारण गणेशोत्सव और शिवाजी जयन्ती आदि कार्यक्रम भी पूरे उत्साह से मनाये जाते थे। इन सबमें स्थानीय युवक बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। 

विजयादशमी पर नासिक के लोग नगर की सीमा से बाहर कालिका मन्दिर पर पूजा करने जाते थे। युवकों ने योजना बनायी कि सब लोग इस बार वन्देमातरम् का उद्घोष करते हुए मन्दिर चलेंगे। जब जैक्सन को यह पता लगा, तो उसने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

नासिक के वकील वामन सखाराम खेर स्वतन्त्रता सेनानियों के मुकदमे निःशुल्क लड़ते थे। जैक्सन ने उनकी डिग्री जब्त कर उन्हें जेल में डाल दिया। उसने ताम्बे शास्त्री नामक विद्वान के प्रवचनों पर रोक लगा दी; क्योंकि वे कथा में अंग्रेजों की तुलना रावण और कंस जैसे अत्याचारी शासकों से करते थे। बाबाराव सावरकर ने वीरतापूर्ण गीतों की एक पुस्तक प्रकाशित की थी। इस पर उन्हें कालेपानी की सजा देकर अन्दमान भेज दिया गया।

जैक्सन की इन करतूतों से युवकों का खून खौलने लगा। वे उसे ठिकाने लगाने की सोचने लगे। अनन्त कान्हेरे भी इन्हीं में से एक थे। कोंकण निवासी अनन्त अपने मामा के पास औरंगाबाद में रहकर पढ़ रहे थे। वह और उनका मित्र गंगाराम देश के लिए मरने की बात करते रहते थे। एक बार गंगाराम ने उनकी परीक्षा लेने के लिए लैम्प की गरम चिमनी पकड़ने को कहा। अनन्त की उँगलियाँ जल गयीं; पर उन्होंने चिमनी को नहीं छोड़ा।

यह देखकर गंगाराम ने अनन्त को विनायक देशपांडे, गणू वैद्य, दत्तू जोशी, अण्णा कर्वे आदि से मिलवाया। देशपांडे ने अनन्त को एक पिस्तौल दी। अनन्त ने कई दिन जंगल में जाकर निशानेबाजी का अभ्यास किया। अब उन्हें तलाश थी, तो सही अवसर की। वह जानते थे कि जैक्सन के वध के बाद उन्हें निश्चित ही फाँसी होगी। उन्होंने बलिपथ पर जाने की तैयारी कर ली और एक चित्र खिंचवाकर स्मृति स्वरूप अपने घर भेज दिया।

अन्ततः वह शुभ दिन आ गया। जैक्सन का स्थानान्तरण मुम्बई के लिए हो गया था। उसके समर्थकों ने विजयानन्द नाटकशाला में विदाई कार्यक्रम का आयोजन किया। अनन्त भी वहाँ पहुँच गये। जैसे ही जैक्सन ने प्रवेश किया, अनन्त ने चार गोली उसके सीने में दाग दी। जैक्सन हाय कह कर वहीं ढेर हो गया। उस दिन देशपांडे और कर्वे भी पिस्तौल लेकर वहाँ आये थे, जिससे अनन्त से बच जाने पर वे जैक्सन को ढेर कर सकें।

अनन्त को पकड़ लिया गया। उन्होंने किसी वकील की सहायता लेने से मना कर दिया। इस कांड में अनेक लोग पकड़े गये। अनन्त के साथ ही विनायक देशपांडे और अण्णा कर्वे को 19 अप्रैल, 1910 को प्रातः ठाणे के कारागार में फाँसी दे दी गयी।
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20 अप्रैल/जन्म-दिवस

स्वर यात्री जुथिका राॅय

जो लोग कला जगत में बहुत ऊंचाई पर पहुंच जाते हैं, उनमें से अधिकांश को आचार-व्यवहार की अनेक दुर्बलताएं घेर लेती हैं; पर भजन गायन की दुनिया में अपार प्रसिद्धि प्राप्त जुथिका राॅय का जीवन इसका अपवाद था। इसका एक बहुत बड़ा कारण यह था कि उनका परिवार रामकृष्ण मिशन से जुड़ा हुआ था। अतः बचपन से ही उन्हें अच्छे संस्कार मिले।

जुथिका राॅय का जन्म 20 अपै्रल, 1920 को बंगाल में हावड़ा जिले के  आमता गांव में हुआ था। सात वर्ष की अवस्था से ही वे भजन गाने लगी थीं। 1933 में आकाशवाणी कोलकाता ने काजी नजरुल इस्लाम के निर्देशन में उनके दो गीत रिकार्ड किये, जो प्रसारित नहीं हुए। अगले साल ग्रामोफोन कंपनी के प्रशिक्षक कमल दासगुप्ता ने उन्हें फिर से रिकार्ड कर प्रसारित किया। इस प्रकार जुथिका राॅय के गायन की मधुरता से सबका परिचय हो सका। 

जुथिका ने मुख्यतः मीरा के भजन गाये हैं, जिन्हें गांधी जी, नेहरू और मोरारजी भाई जैसे लोग भी पसंद करते थे। एक बार वे हैदराबाद में थीं, तो सुबह ही सरोजिनी नायडू उनके आवास पर आ गयीं और वहीं उनसे कुछ भजन सुने।  उन्होंने जुथिका को आशीर्वाद देते हुए बताया कि गांधी जी पुणे जेल में रहते हुए प्रतिदिन उनके भजनों के रिकार्ड सुनते थे। जुथिका के लिए यह बड़े सम्मान की बात थी। सरोजिनी नायडू ने उन्हें गांधी जी मिलने को भी कहा।

1946 में मुस्लिम लीग के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के कारण कोलकाता में  हिन्दुओं का व्यापक संहार हुआ। इसकी प्रतिक्रिया में बंगाल और निकटवर्ती क्षेत्रों में हुई। ऐसे में गांधी जी हिन्दू और मुसलमानों में परस्पर सद्भाव की स्थापना के लिए कोलकाता गये और कई दिन वहां बेलियाघाटा में रहे। एक दिन जुथिका प्रातः छह बजे अपनी मां, पिता और चाचा के साथ उनके दर्शन करने उनके आवास पर गयी। भारी वर्षा के बावजूद वहां मिलने वालों की बहुत भीड़ थी। बाहर खड़े कार्यकर्ता किसी को अंदर नहीं जाने दे रहे थे; पर गांधी जी ने जब जुथिका का नाम सुना, तो उन्हें अंदर बुला लिया। 

उस दिन गांधी जी का मौन था। उन्होंने जुथिका को आशीर्वाद दिया तथा कागज पर लिखकर बात की। फिर उन्होंने उसे भजन गाने को कहा और पास के कमरे में नहाने चले गये। जुथिका ने बिना किसी संगतकार के मीरा के कई भजन सुनाये। स्नान के बाद गांधी जी उन्हें अपने साथ प्रार्थना सभा में ले गये और उस दिन की सभा का समापन जुथिका के भजनों से ही हुआ।

प्रधानमंत्री रहते हुए जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें एक बार अपने आवास पर बुलाया और भजन सुनने लगे। काम के बोझ और तनाव से ग्रस्त नेहरू जी को इससे इतना मानसिक आनंद मिला कि वे अपनी टोपी और चप्पल उतारकर धरती पर बैठ गये और दो घंटे तक उनका गायन सुनते रहे।

बंगलाभाषी जुथिका राॅय ने जो लगभग 400 गीत गाये हैं, उनमें से अधिकांश हिन्दी में हैं। इनमें कुछ होली और बरखा गीत भी हैं। फिल्मी गायन में अरुचि होने पर भी उन्होंने निर्देशक देवकी बोस तथा गीतकार पंडित मधुर से व्यक्तिगत सम्बन्धों के कारण ‘रत्नदीप’ और ‘ललकार’ में चार गीत गाये हैं।

जुथिका राॅय का परिवार रामकृष्ण मिशन से जुड़ा हुआ था। जुथिका तथा उनकी दो बहनों ने 12 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। दोनों बहनों ने इसके बाद विवाह कर लिया; पर जुथिका राॅय ने यह व्रत जीवन भर निभाया। 

मीरा और कबीर के गीतों के माध्यम से मां सरस्वती की आराधना करते वाली जुथिका राॅय को 1972 में ‘पद्मश्री’ से अलंकृत किया गया। 2002 में बांग्ला में लिखित उनकी आत्मकथा ‘आज ओ मोने पड़’ प्रकाशित हुई है।  
(संदर्भ : जनसत्ता 2.5.2010)
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20 अप्रैल/जन्म-दिवस

उड़नपरी पी.टी. उषा

पी.टी. उषा पहली महिला खिलाड़ी है, जिन्होंने अन्तरराष्ट्रीय खेल जगत् में भारत का नाम ऊँचा किया। उनका पूरा नाम पायोली थेवरापारम्पिल उषा है। उनका जन्म 20 अप्रैल, 1964 को केरल में कालीकट के निकट पायोली नामक गाँव में हुआ। 

उनका बचपन घोर गरीबी में बीता। खेलना तो बहुत दूर पढ़ने और खाने की भी ठीक व्यवस्था नहीं थी। 1976 में केरल सरकार ने जब महिलाओं के लिए खेल विद्यालय की स्थापना की, तो उषा ने उसमें प्रवेश ले लिया। यहाँ से उनकी प्रतिभा का विकास होने लगा। उस समय उन्हें 250 रु0 प्रतिमाह छात्रवृत्ति मिलती थी। इसी में उन्हें सभी प्रबन्ध करने होते थे।

1977 में केवल 13 साल की अवस्था में उषा ने 100 मीटर की दौड़ में राष्ट्रीय कीर्तिमान बनाया। 1979 में उन्हें राष्ट्रीय खेल विद्यालय में प्रवेश मिल गया। वहाँ उन पर प्रशिक्षक श्री ओ.एम.नाम्बियार की दृष्टि पड़ी। उन्होंने पी.टी.उषा के अन्दर छिपी प्रतिभा को पहचान लिया और कठोर प्रशिक्षण द्वारा उसे निखारने में जुट गये। उन दिनों लड़कियाँ राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कम ही भाग लिया करती थीं; पर उषा ने इस परम्परा को तोड़ा।

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने पहली बार 1982 के एशियाई खेलों में भाग लिया। इन खेलों में उन्हें 100 और 200 मीटर की दौड़ में रजत पदक प्राप्त हुआ। इससे उनका साहस बढ़ा। 1983 में कुवैत में आयोजित फील्ड चैम्पियनशिप में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता और नया एशियाई कीर्तिमान भी बनाया। अब उनकी दृष्टि ओलम्पिक खेलों पर थी। वह ओलम्पिक में पदक जीतकर देश का नाम ऊँचा करना चाहती थी।

1986 का लास एजेंल्स ओलम्पिक उषा के जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु था। वहाँ वह सेकेण्ड के सौवें हिस्से से कांस्य पदक जीतने से रह गयीं। इससे उन्हें दुःख तो बहुत हुआ; पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उसी वर्ष सियोल में हुए एशियाई खेलों में उन्होंने 200 मी0, 400 मी0, 400 मी0 बाधा दौड़ तथा 4 x 400 मीटर रिले दौड़ में स्वर्ण पदक जीता। उनकी इन सफलताओं के कारण लोगों ने उसे ‘पायोली एक्सपे्रस’ कहना शुरू कर दिया।

आगामी सियोल ओलम्पिक में भी वह कोई पदक जीतने में सफल नहीं हो सकीं। उसकी भरपाई उसने 1989 में दिल्ली में आयोजित एशियन टैªक फैडरेशन में चार स्वर्ण और दो रजत पदक जीतकर की। 1990 के बीजिंग एशियाई खेलों में उन्होंने रजत पदक जीता। 1991 में उनका विवाह हो गया। इसके बाद वह सात साल तक खेल जगत् से प्रायः दूर ही रहीं।

1998 में जापान में आयोजित एशियन टैªक फैडरेशन में फिर से उन्होंने भाग लिया और दो कांस्य पदक जीते। यद्यपि वह इस समय एक बच्चे की माँ भी थीं। अपने अदम्य साहस एवं इच्छाशक्ति के बल पर उन्होंने भारत को अन्तरराष्ट्रीय खेल जगत में सम्मान दिलाया। भारतीय ओलम्पिक संघ ने उन्हें शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किया। आज भी वह भारत की सर्वाधिक अन्तरराष्ट्रीय पदक जीतने वाली खिलाड़ी हैं।

शासन ने उन्हें 1983 में अर्जुन पुरस्कार तथा 1985 में पद्मश्री से सम्मानित किया। अब वह प्रत्यक्ष प्रतियोगिताओं में तो भाग नहीं लेेतीं; पर लड़कियों के लिए प्रशिक्षण विद्यालय चलाकर भारतीय खेल जगत की नयी प्रतिभाओं को निखारने में लगी हैं।
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20 अप्रैल/इतिहास-स्मृति

विजयनगर साम्राज्य के प्रेरक देवलरानी और खुशरोखान

मध्यकालीन इतिहास में हिन्दू गौरव के अनेक पृष्ठों को कुछ इतिहासकारों ने छिपाने का राष्ट्रीय अपराध किया है। ऐसा ही एक प्रसंग गुजरात की राजनकुमारी देवलरानी और खुशरो खान का है।

अलाउद्दीन खिलजी ने दक्षिण भारत में नरसंहार कर अपार धनराशि लूटी  तथा वहां हिन्दू कला व संस्कृति को भी भरपूर नष्ट किया। उसने गुजरात को भी दो बार लूटा। गुजरात के शासक रायकर्ण की पत्नी कमलादेवी को जबरन अपनी तथा राजकुमारी देवलरानी को अपने बड़े बेटे खिजरखां की बीवी बना लिया। अलाउद्दीन की मृत्यु के कुछ दिन बाद उसके दूसरे पुत्र मुबारकशाह ने खिजरखां को मारकर देवलरानी को अपने हरम में डाल लिया। देवलरानी खून का घूंट पीकर सही समय की प्रतीक्षा करती रही।

इस अराजकता के काल में दिल्ली दरबार में खुशरो खान अत्यन्त प्रभावी व्यक्ति बन गया। वह भी मूलतः गुजराती हिन्दू था, जिसे दिल्ली लाकर जबरन मुसलमान बनाया गया था। वह हिन्दुत्व के दृढ़ भाव को मन में रखकर योजना बनाता रहा और मुबारक शाह का सबसे विश्वस्त तथा प्रभावी दरबारी बन गया। मुबारक शाह ने उसे खुशरो खान नाम देकर अपना वजीर बना लिया।

खुशरो के मन में हिन्दू राज्य का सपना पल रहा था। उसने गुजरात शासन में अपने सगे भाई हिमासुद्दीन को मुख्य अधिकारी बनाया, जो पहले हिन्दू ही था। इसी प्रकार उसने दिल्ली में जबरन मुस्लिम बनाये गये 20,000 सैनिक भरती किये। एक बार वह मुबारक शाह के साथ तथा एक बार अकेले दक्षिण की लूट पर गया। उसने वहां विध्वंस और नरसंहार तो खूब किया; पर गुप्त रूप से कुछ हिन्दू राजाओं से मित्रता व मंत्रणा भी की। कुछ लोगों ने मुबारक शाह से उसकी शिकायत की; पर मुबारक ने उन पर विश्वास नहीं किया।

परिस्थिति पूरी तरह अनुकूल होने पर खुशरो खान तथा देवलरानी ने एक योजना बनाई। 20 अप्रैल, 1320 की रात्रि में खुशरो खान ने 300 हिन्दुओं के साथ राजमहल में प्रवेश किया। उसने कहा कि इन्हें मुसलमान बनाना है, अतः सुल्तान से मिलाना आवश्यक है। सुल्तान से भेंट के समय खुशरो के मामा खडोल तथा भूरिया नामक एक व्यक्ति ने मुबारक शाह का वध कर दिया। बाकी सबने मिलकर राजपरिवार के सब सदस्यों को मार डाला।

इसके बाद खुशरो खान ने स्वयं को सुल्तान घोषितकर देवलरानी से विवाह कर लिया। उसने अपना नाम नहीं बदला; पर महल में मूर्तिपूजा प्रारम्भ हो गयी। इससे हिन्दुओं में उत्साह की लहर दौड़ गयी। खुशरो खान ने घोषणा की - अब तक मुझे जबरन मुसलमान जैसा जीवन जीना पड़ रहा था, जबकि मैं मूल रूप से हिन्दू की संतान हूं। कल तक सुल्ताना कहलाने वाली देवलरानी भी मूलतः हिन्दू राजकन्या है। इसलिए अब हम दोनों धर्मभ्रष्टता की बेड़ी तोड़कर हिन्दू की तरह जीवन बिताएंगे।

यद्यपि यह राज्य लगभग एक वर्ष ही रहा, चूंकि ग्यासुद्दीन तुगलक तथा अन्य अमीरों के विद्रोह से खुशरो खान मारा गया; पर इससे उस विचार का बीज पड़ गया, जिससे 1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। खुशरो खान की यह योजना दक्षिण में ही बनी थी तथा इसे वहां के अनेक हिन्दू तथा धर्मान्तरित मुस्लिम शासकों तथा सेनानायकों का समर्थन प्राप्त था।

(संदर्भ : डा0 सतीश मित्तल, इतिहास दृष्टि, पांचजन्य 28.6.09)
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20 अप्रैल/जन्म-दिवस
सदा आज्ञाकारी विपिन बिहारी पाराशर

वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशानुसार संघ, जनसंघ और वनवासियों के बीच काम करने वाले वरिष्ठ प्रचारक श्री विपिन बिहारी पाराशर का जन्म मैलानी (जिला लखीमपुर खीरी, उ.प्र.) में 20 अपै्रल, 1925 (श्रीरामनवमी) को हुआ था। उनके पिता श्री प्रभुदयाल पाराशर उन दिनों वहां रेलवे स्टेशन पर तारबाबू थे। विपिन जी के अतिरिक्त उनके चार पुत्र और एक कन्या भी थी। वैसे यह परिवार बरेली जिले के आंवला नामक स्थान का निवासी था।

मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर विपिन जी भारत छोड़ो आंदोलन तथा सुभाष चंद्र बोस से प्रभावित होकर स्वाधीनता संग्राम में कूद गये। इससे उनकी पढ़ाई छूट गयी। 1943-44 में स्वयंसेवक बनने के बाद उनकी जीवन यात्रा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ ही आगे बढ़ती रही। 1945 में प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लेकर वे प्रचारक बने। उन्हें नैनीताल जिले में काशीपुर, रामनगर, जसपुर आदि स्थानों पर भेजा गया। 

1947 में उन्होंने फगवाड़ा से द्वितीय वर्ष किया। 1948 में गांधी जी की हत्या तथा संघ पर प्रतिबंध के बाद उन्होंने बदायूं में सत्याग्रह का संचालन किया। कुछ समय बाद वे स्वयं भी बन्दी बना लिये गये। उन्हें मुरादाबाद जेल में रखा गया। वहां उनके साथ वैद्य गुरुदत्त तथा उनके पुत्र योगेन्द्र जी भी थे। पुलिस और जेल प्रशासन ने उनसे क्षमापत्र पर हस्ताक्षर करने को कहा, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया। अतः प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद ही वे जेल से छूटे।

प्रतिबंध समाप्ति के बाद दीनदयाल जी ने उन्हें मुरादाबाद जिले में ही काम करने को कहा। जनसंघ की स्थापना होने पर उन्होंने बरेली और मुरादाबाद जिले में जनसंघ के संगठन को सुदृढ़ किया। 1961 में उन्हें बिहार भेजा गया। वहां उन्होंने जनसंघ के साथ ही राष्ट्रधर्म और पांचजन्य जैसे पत्रों का विस्तार भी किया। वहां उनकी क्रांतिवीर बटुकेश्वर दत्त से घनिष्ठ मित्रता हो गयी। 

1970 में वरिष्ठ प्रचारक श्री सभापति सिंह चिकित्सा हेतु मुंबई गये। उनके साथ सहयोगी के नाते विपिन जी को भी भेजा गया। मुंबई में रहते हुए उन्होंने उत्तर भारतीयों को जनसंघ से जोड़ा। मुंबई से आकर वे उ.प्र. में जनसंघ के काम में लगे। आपातकाल में पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी। आपातकाल के बाद विपिन जी ने बरेली जिले में संघ का काम किया। 

उन दिनों पूर्वोत्तर भारत में बड़ी विकट परिस्थिति थी। देश भर से कई प्रचारकों को वहां भेजा गया। विपिन जी भी उनमें से एक थे। वहां की भाषा, मौसम, भोजन आदि भिन्नताओं से समरस होते हुए वे कारबियांगलांग, डिबू्रगढ़ व तिनसुकिया में जिला व विभाग प्रचारक रहे। फिर उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के संगठन मंत्री तथा ‘आलोक’ साप्ताहिक के प्रबंध संपादक के नाते भी काम किया। उनके परिवार में प्याज-लहसुन का भी प्रयोग नहीं होता था; पर पूर्वोत्तर  में उन्हें सब कुछ खाना पड़ा। यद्यपि विपिन जी के सभी परिजन संघ से जुड़े हैं। फिर भी इससे उनके बड़े भाई बहुत नाराज हुए। 

‘विद्या भारती’ तथा ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ द्वारा पूर्वोत्तर भारत के छात्रों के लिए कई छात्रावास देश के विभिन्न स्थानों पर चलाये जा रहे हैं। पश्चिमी उ.प्र. में भी ऐसे कई छात्रावास हैं। वृद्धावस्था के कारण जब प्रवास कठिन हो गया, तो वर्ष 2004 से विपिन जी उ.प्र. में वृन्दावन के ‘केशवधाम’ में रहते हुए इनकी देखरेख करने लगे। 

हिन्दी, अंग्रेजी तथा पूर्वोत्तर की कई भाषाओं के ज्ञाता विपिन जी ने पूर्वोत्तर भारत के अज्ञात स्वाधीनता सेनानियों के बारे में कई लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कराए। संगठन की आज्ञा को सर्वोपरि मानने वाले विपिन जी का 26 जनवरी, 2014 को केशवधाम में ही निधन हुआ।  

(संदर्भ : विपिन जी का हस्तलिखित पत्र)
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20 अप्रैल/बलिदान-दिवस

नक्सली हिंसा के शिकार वीर माणिक्यम् 

आंध्र प्रदेश और उसमें भी तेलंगाना का क्षेत्र लम्बे समय से नक्सली गतिविधियों का केन्द्र रहा है। रूस और चीन का हाथ उनकी पीठ पर रहता था। वहां से उन्हें हथियार और पैसा भी आता था। अतः गांव और कस्बों में वही होता था, जो नक्सली चाहते थे। यद्यपि अब उनके पैर उखड़ चुके हैं। गांव और जंगलों में ‘लाल सलाम’ की जगह अब ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्दे मातरम्’ के स्वर सुनायी देने लगे हैं; पर यह स्थिति लाने में सैकड़ों युवा देशप्रेमी कार्यकर्ताओं ने अपनी जान दी है। ऐसे ही एक वीर थे तिम्ममपेट गांव के निवासी श्री माणिक्यम्।

माणिक्यम् अपने गांव तिम्ममपेट के मंदिर में पुजारी थे। अतः धर्म और देश के प्रति भक्ति उनके खून में समाहित थी। उनका व्यवहार सभी गांव वालों से बहुत अच्छा था। अतः वे पूरे गांव में बहुत लोकप्रिय थे। संघ का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उनके विचारों में और प्रखरता आ गयी। गांव में युवाओं की शाखा भी लगने लगी। 

नक्सली प्रायः उसके गांव में आकर धनी किसानों और व्यापारियों को लूटते थे। जो उनकी बात नहीं मानते थे, उनकी हत्या या हाथ-पैर काट देना उनके लिए आम बात थी। इसके लिए नक्सलियों की लोक अदालतें काम करती थीं। शासन भी डर के मारे इनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं करता था। कहने को तो वे स्वयं को गरीबों का हितचिंतक कहते थे; पर वास्तव में वे गुंडे, माफिया और लुटेरों का एक संगठित गिरोह बन चुके थे।

माणिक्यम् की लोकप्रियता को देखकर नक्सलियों ने उसे अपना साथी बनने को कहा। वे चाहते थे कि हर महीने गांव वालों से एक निश्चित राशि लेकर माणिक्यम् ही उन तक पहुंचा दिया करे; पर माणिक्यम् ने इसके लिए साफ मना कर दिया। इतना ही नहीं, वह गांव के युवकों को उनके विरुद्ध संगठित करने लगा। इससे वह नक्सलियों की आंखों में खटकने लगा।

माणिक्यम् के मामा नारायण गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे वारंगल जिला पंचायत के अध्यक्ष भी रह चुके थे। 20 अपै्रल, 1965 को नक्सलियों का एक दल गांव में आया। वे नारायण को पकड़कर गांव से बाहर ले गये और उनसे एक बड़ी राशि की मांग की। जैसे ही माणिक्यम् को यह पता लगा वह सब काम छोड़कर उधर ही भागा, जिधर नक्सली उसके मामा जी को ले गये थे। कुछ ही देर में दोनों की मुठभेड़ हो गयी। नक्सलियों ने माणिक्यम् और नारायण दोनों को मारना-पीटना शुरू कर दिया।

नक्सली संख्या में काफी अधिक थे; पर माणिक्यम् ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने ताकत लगाकर उनके नेता के हाथ से कुल्हाड़ी छीन ली और उस पर ही पिल पड़ा। इससे उसका सिर तत्काल ही धड़ से अलग हो गया। कुछ देर में दूसरे की भी यही गति हुई तथा तीसरा बाद में मरा। बाकी नक्सली भी सिर पर पांव रखकर भाग गये; पर इस संघर्ष में माणिक्यम् को भी पचासों घाव लगे। उसका पूरा शरीर लहू-लुहान हो गया। चार-पांच लोगों से अकेले लड़ते हुए वह बहुत थक भी गया था। अतः वह भी धरती पर गिर पड़ा।

इधर नारायण ने गांव में आकर सबको इस लड़ाई की बात बताई। जब गांव के लोग वहां पहुंचे, तो उन्होंने देखा कि माणिक्यम् के प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। माणिक्यम् की वीरता का समाचार राज्य की सीमाओं को पार कर देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंच गया। अतः राष्ट्रपति महोदय की ओर से उसकी विधवा पत्नी को ‘कीर्ति चक्र’ प्रदान किया गया। आंध्र के मुख्यमंत्री ने हैदराबाद में उन्हें सम्मानित किया। सामान्यतः यह सम्मान सैनिकों को ही दिया जाता है। ऐसे नागरिक बहुत कम हैं, जिन्हें यह सम्मान मिला हो।

इस घटना से पूरे गांव तथा आसपास के क्षेत्र में बड़ी जागृति आयी। अतः नक्सलियों ने ही डरकर उधर आना बंद कर दिया। 

(कृ.रू.सं.दर्शन/भाग 1, पृष्ठ 113)
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21 अप्रैल/बलिदान-दिवस

गणपतराय का बलिदान

गणपतराय का जन्म 17 जनवरी, 1808 को ग्राम भौरो (जिला लोहरदगा, झारखंड) में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री किसनराय तथा माता श्रीमती सुमित्रादेवी थीं। बचपन से ही वनों में घूमना, घुड़सवारी, आखेट आदि उनकी रुचि के विषय थे। इस कारण उनके मित्र उन्हें ‘सेनापति’ कहते थे। 

बचपन से ही इनका मन अपने देश और जागीरों पर अंग्रेजों के शासन को देखकर बहुत चिढ़ता था। वे इसकी चर्चा अपने साथियों और माता-पिता से करते थे; पर सब इसे उनका बचपना समझकर टाल देते थे। कुछ बड़े होने पर वे पढ़ने के लिए अपने चाचा सदाशिव पांडेय के पास पालकोट आ गये। उनके चाचा पालकोट रियासत के दीवान थे। गणपतराय की योग्यता देखकर चाचा की मृत्यु के बाद उनको ही रियासत का दीवान बना दिया गया। 

रियासत के शासक जगन्नाथ पांडेय सदा अंग्रेजों की चमचागीरी करते रहते थे। गणपतराय उन्हें अंग्रेजों से डटकर मुकाबला करने का परामर्श देते थे; पर कायर राजा इसके लिए तैयार नहीं हुआ। 1829 में अंग्रेजों ने राजा जगन्नाथ को गद्दी से हटाकर उनकी जागीर पर कब्जा कर लिया।

राजा ने स्वभाववश कोई विरोध नहीं किया। वह चुप होकर बैठ गये। गणपतराय का मन विद्रोह कर उठा; पर वे कुछ कर नहीं सकते थे। अतः दीवान के पद से त्यागपत्र देकर वे गाँव वापस आ गये तथा अपने पुराने मित्र ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव के साथ मिलकर अंग्रेजों का विरोध करने लगे।

दो अगस्त, 1857 को उन्होंने अपने साथियों के साथ राँची जेल तोड़कर 300 वीरों को मुक्त करा लिया और वहाँ तैनात अंग्रेजों को मार डाला। राँची न्यायालय के पास स्थित कुआँ अंग्रेजों की लाशों से भर गया। 21 दिन तक छोटा नागपुर, खूँटी तथा राँची का क्षेत्र स्वतन्त्र रहा। यह सुनकर हजारीबाग के सन्थाल वनवासियों ने भी विद्रोह कर दिया। वे अपने तीर-कमान लेकर सड़कों पर उतर आये। यद्यपि वे पूर्णतः सफल नहीं हो पाये।

गणपतराय की इच्छा थी कि वे जगदीशपुर के क्रान्तिवीर कुँवरसिंह से मिलकर अस्त्र-शस्त्र का संग्रह करें। इसी योजना के अन्तर्गत वे 200 साथियों को लेकर 11 सितम्बर, 1857 को राँची से चल दिये। चतरा नामक स्थान पर मेजर इगलिश की सशस्त्र टुकड़ी से उनकी मुठभेड़ हुई। इसमें 150 क्रान्तिकारी तथा 58 अंग्रेज मारे गये। अंग्रेजों ने लोगों को आतंकित करने के लिए इन सबके शवों को एक तालाब के आसपास लगे वृक्षों पर टाँग दिया। आज भी वह तालाब ‘फाँसी का तालाब’ कहलाता है।

गणपतराय इस युद्ध में बच गये। वे अपने गाँव वापस आकर फिर से साथियों एवं शस्त्रों का संग्रह करने लगे। अंग्रेजों ने उनकी सब सम्पत्ति जब्त कर ली थी। एक रात अंग्रेजों ने उनके गाँव को घेर लिया; पर गणपतराय अपने पुरोहित उदयनाथ पाठक के साथ लोहरदगा की ओर चल दिये। 

दुर्भाग्यवश अंधेरे के कारण वे रास्ता भटक गये और परहेपाट गाँव में जा पहुँचे। वहाँ के देशद्रोही जमींदार महेश शाही ने उन्हें पकड़वा दिया। राँची लाकर उन पर अभियोग चलाया गया। राँची के तत्कालीन हाईस्कूल के पास एक कदम्ब का पेड़ था। उसी पेड़ पर 20 अप्रैल, 1858 को क्रान्तिकारी विश्वनाथ शाहदेव को तथा 21 अप्रैल को गणपतराय को फाँसी दे दी गयी।

राँची का यह स्थान आज ‘शहीदी चौक’ के नाम से जाना जाता है।
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21 अपै्रल/जन्म-दिवस

कुष्ठ रोगियों के आशा केन्द्र दामोदर गणेश बापट

कुष्ठ रोग और उसके रोगियों को समाज में घृणा की नजर से देखा जाता है। इसका लाभ उठाकर ईसाई मिशनरियां उनके बीच सेवा का काम करती हैं और फिर चुपचाप उन्हें ईसाई भी बना लेती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने काम के विस्तार के साथ-साथ सेवा के अनेक क्षेत्रों में भी कदम बढ़ाये। कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए ‘भारतीय कुष्ठ निवारक संघ’ नामक संगठन बनाया गया। छत्तीसगढ़ के चांपा नगर में इसका मुख्यालय है। इसकी स्थापना श्री सदाशिव गोविन्द कात्रे ने की थी। वे स्वयं एक कुष्ठ रोगी थे। उनके बाद जिस महापुरुष ने यह काम संभाला, वे थे श्री दामोदर गणेश बापट।

बापटजी का जन्म 21 अपै्रल, 1935 को ग्राम पथरोट (अमरावती, महाराष्ट्र) में हुआ था। नौ वर्ष की अवस्था में वे संघ के स्वयंसेवक बने। नागपुर से बी.काॅम और समाजशास्त्र में बी.ए. कर वे संघ के प्रचारक बन गये। सेवा के प्रति उनका समर्पण देखकर पहले उन्हें वनवासी कल्याण आश्रम और फिर 1971 में चांपा भेजा गया। 1977 में कात्रेजी के निधन के बाद वे भारतीय कुष्ठ निवारक संघ के सचिव बने। सदा खादी का धोती-कुर्ता पहनने वाले बापटजी की सेवाओं के लिए 1995 में उन्हें कोलकाता में ‘विवेकानंद सेवा सम्मान’ तथा 2017 में राष्ट्रपति महोदय द्वारा ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया गया।

बापटजी ने सोठी ग्राम स्थित कुष्ठ आश्रम को अपना केन्द्र बनाया। इसमें कुष्ठ से पीडि़त लगभग 200 पुरुष, स्त्री तथा बच्चे रहते हैं। इन सबकी समुचित चिकित्सा तथा देखभाल वहां की जाती है। कुष्ठ रोगियों के बच्चों के लिए ‘झूलाघर’ तथा ‘सुशील बालक गृह’ की व्यवस्था हैै। आश्रम तथा पड़ोसी गांवों के बच्चों की शिक्षा के लिए ‘सुशील विद्या मंदिर’ बना है। बालकों को शिक्षा और संस्कार के साथ ही पौष्टिक भोजन भी मिलता है। बालिकाओं के लिए बिलासपुर में अलग से ‘तेजस्विनी’ छात्रावास खोला गया है।

प्रतिदिन आसपास से लगभग 400 कुष्ठरोगी दवा तथा पट्टी आदि के लिए आश्रम में आते हैं। बापटजी स्वयं उनकी पट्टी करते थे। इससे अब तक 25,000 से भी अधिक रोगी लाभान्वित हो चुके हैं। एलोपैथी के साथ ही आयुर्वेद तथा होम्यापैथी चिकित्सा की व्यवस्था भी आश्रम में है। कात्रेजी तथा बापटजी का मत था कि कुष्ठ रोगियों को समाज की दया की बजाय प्रेम और सम्मान की जरूरत है। अतः उन्होंने ऐसे प्रकल्प चलाए, जिससे उनका स्वाभिमान जाग्रत हो तथा वे भिक्षावृत्ति से दूर रह सकें। 

आश्रमवासी अपनी तीन एकड़ भूमि में मिर्च, प्याज, संतरा, हल्दी, केला, आम, बिही, पपीता, सीताफल, नींबू आदि उगाते हैं। आश्रम की गोशाला में 175 देसी गाय हैं। उनका पूरा दूध वहीं काम आता है। रोगियों को मोमबत्ती, दरी, रस्सी, चाॅक आदि बनाना सिखाते हैं। कुछ ने वेल्डिंग भी सीखी है। आश्रम में 20 बिस्तर का अस्पताल, स्कूल, गणेश मंदिर, वृद्धाश्रम तथा कार्यकर्ता निवास के अलावा कम्प्यूटर, सिलाई तथा चालक प्रशिक्षण केन्द्र भी हैं। यद्यपि आश्रम के लिए समाज से सहयोग लिया जाता है; पर आश्रमवासियों के परिश्रम और लगन से भी वहां की कई जरूरतें पूरी हो जाती हैं। 

बहुत से लोग इन रोगियों की सेवा करते हुए उनसे दूरी बनाकर रखते हैं; पर बापटजी कुष्ठरोगियों के बीच रहकर उनके हाथ से बना खाना ही खाते थे। एक बार जर्मनी से आये कुछ लोगों ने दस लाख रु. देने चाहे; पर बापटजी ने नहीं लिये। वे सरकार या विदेशी सहायता की बजाय आम जनता के सहयोग पर अधिक विश्वास करते थे। हजारों कुष्ठ रोगियों के जीवन में प्रकाश फैलाने वाले बापटजी का 17 अगस्त, 2019 को बिलासपुर के एक अस्पताल में निधन हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी देह चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के उपयोग के लिए छत्तीसगढ़ इंस्टीट्यूट आॅफ मैडिकल साइंस को दे दी गयी। 


(पांचजन्य 8.9.19 तथा बिलासपुर से प्रकाशित पत्र आदि)

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22 अप्रैल/पुण्य-तिथि

क्रान्ति और सेवा के राही योगेश चन्द्र चटर्जी

क्रान्तिवीर योगेश चन्द्र चटर्जी का जीवन देश को विदेशी दासता से मुक्त कराने की गौरवमय गाथा है। उनका जन्म अखंड भारत के ढाका जिले के ग्राम गोकाडिया, थाना लोहागंज में तथा लालन-पालन और शिक्षा कोमिल्ला में हुई। 1905 में बंग-भंग से जो आन्दोलन शुरू हुआ, योगेश दा उसमें जुड़ गये। पुलिन दा ने जब 'अनुशीलन पार्टी' बनायी, तो ये उसमें भी शामिल हो गये। उस समय इनकी अवस्था केवल दस वर्ष की थी। 

अनुशीलन पार्टी की सदस्यता बहुत ठोक बजाकर दी जाती थी; पर योगेश दा हर कसौटी पर खरे उतरे। 1916 में उन्हें पार्टी कार्यालय से गिरफ्तार कर कोलकाता के कुख्यात ‘नालन्दा हाउस’ में रखा गया। वहाँ बन्दियों पर अमानुषिक अत्याचार होते थे। योगेश दा ने भी यह सब सहा। 1919 में आम रिहाई के समय वे छूटे और बाहर आकर फिर पार्टी के काम में लग गये। अतः बंगाल शासन ने 1923 में इन्हें राज्य से निष्कासित कर दिया।

1925 में जब क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ सान्याल ने अलग-अलग राज्यों में काम कर रहे क्रान्तिकारियों को एक साथ और एक संस्था के नीचे लाने का प्रयास किया, तो योगेश दा को संयुक्त प्रान्त का संगठक बनाया गया। काकोरी रेल डकैती कांड में कुछ को फाँसी हुई, तो कुछ को आजीवन कारावास। यद्यपि योगेश दा इस कांड के समय हजारीबाग जेल में बन्द थे; पर उन्हें योजनाकार मानकर दस वर्ष के कारावास की सजा दी गयी।

जेल में रहते हुए उन्होंने राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों के लिए कई बार भूख हड़ताल की। फतेहगढ़ जेल में तो उनका अनशन 111 दिन चला। तब प्रशासन को झुकना ही पड़ा। जेल से छूटने के बाद भी उन्हें छह माह के लिए दिल्ली से निर्वासित कर दिया गया। 1940 में संयुक्त प्रान्त की सरकार ने उन्हें फिर पकड़ कर आगरा जेल में बन्द कर दिया। 

वहाँ से उन्हें देवली शिविर जेल में भेजा गया। संघर्षप्रेमी योगेश दा ने देवली में भी भूख हड़ताल की। इससे उनकी हालत खराब हो गयी। उन्हें जबरन कोई तरल पदार्थ देना भी सम्भव नहीं था; क्योंकि उनकी नाक के अन्दर का माँस इतना बढ़ गया था कि पतली से पतली नली भी उसमें नहीं घुसती थी। अन्ततः शासन को उन्हें छोड़ना पड़ा।

पर शांत बैठना उनके स्वभाव में नहीं था। अतः 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में भी फरार अवस्था में व्यापक प्रवास कर वे नवयुवकों को संगठित करते रहे। इस बीच उन्हें कासगंज षड्यन्त्र में फिर जेल भेज दिया गया। 1946 में छूटते ही वे फिर काम में लग गये। इसके बाद वे लखनऊ में ही रहने लगे। 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद वे राजनीति में अधिक सक्रिय हो गये। उन पर मार्क्सवाद और लेनिनवाद का काफी प्रभाव था; पर भारत के कम्युनिस्ट दलों की अवसरवादिता और सिद्धान्तहीनता देखकर उन्हें बहुत निराशा हुई। उन्होंने कई खेमों में बंटे साथियों को एक रखने का बहुत प्रयास किया; पर जब उन्हें सफलता नहीं मिली, तो उनका उत्साह ठंडा हो गया। 1955 में वे चुपचाप कम्युनिस्ट पार्टी और राजनीति से अलग हो गये।

योगेश दा सादगी की प्रतिमूर्ति थे। वे सदा खद्दर ही पहनते थे। 1967 के लोकसभा चुनाव के बाद उनका मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया। 22 अप्रैल, 1969 को 74 वर्ष की अवस्था में दिल्ली में उनका देहान्त हुआ। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘इन सर्च आॅफ फ्रीडम’ नामक पुस्तक में लिखी है।
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22 अपै्रल/जन्म-दिवस


लोकतंत्र-प्रेमी न्यायाधीश नेकश्याम शमशेरी 

आपातकाल में मेरठ की जेल में सैकड़ों लोकतंत्र प्रेमी बन्द थे। शासन चाहता था कि वे वहीं सड़ जाएं; पर उन दिनों मेरठ के कई न्यायाधीशों में एक थे श्री नेकश्याम शमशेरी। उनके पास जो भी वाद जाता था, वे उसे जमानत दे देते थे। यद्यपि इसमें बहुत खतरा था; पर वे सदा न्याय के पथ पर डटे रहे। 

नेकश्याम जी का जन्म उ.प्र. के मुरादाबाद नगर में 22 अपै्रल, 1930 को न्यायालय में कार्यरत श्री राधेशरण भटनागर एवं श्रीमती चमेली देवी के घर में हुआ था। गाजियाबाद के पास ‘शमशेर’ गांव के मूल निवासी होने से ये परिवार ‘शमशेरी’ कहलाया। पांच भाई और तीन बहिनों वाला ये भरापूरा परिवार था। 

मेधावी नेकश्याम जी ने सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में भी प्रथम स्थान पर रहकर उत्तीर्ण कीं। उनका नामपट आज भी राजकीय इंटर कॉलिज, मुरादाबाद में लगा है। आगरा, प्रयाग और फिर मुरादाबाद से उच्च शिक्षा पाकर उन्होंने कुछ वर्ष वकालत की। 1956 में न्यायिक परीक्षा में प्रथम स्थान पाकर वे न्यायाधीश बने। इससे पूर्व वे प्रशासनिक सेवा की लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर चुके थे; पर संघ से सम्पर्क के कारण उन्हें साक्षात्कार में नहीं चुना गया।

नेकश्याम जी मुरादाबाद में 1940 में स्वयंसेवक बने। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के समय वहां एक जुलूस में तिरंगा लिये युवक को पुलिस की गोली लग गयी। ऐसे में बालक होते हुए भी उन्होंने झंडा थाम लिया। 1948 में संघ पर प्रतिबंध के समय वे आगरा में बी.एस-सी. कर रहे थे। कांग्रेसी गुुंडों ने वहां संघ कार्यालय पर हमला कर दिया। नेकश्याम जी तथा अन्य स्वयंसेवकों ने उनका डटकर मुकाबला किया। उस मारपीट की चोट उनके चेहरे पर अंत तक बनी रही। प्रतिबंध के विरोध में वे डेढ़ महीने आगरा जेल में भी रहे। 

1957 में उनका विवाह शारदा जी से हुआ। उनकी पत्नी बहुत धार्मिक एवं सात्विक स्वभाव की थीं। अतः उनके चारों बच्चों पर देश एवं धर्मनिष्ठा के गहरे संस्कार पड़े। न्यायिक सेवा के कारण वे संघ की दैनिक गतिविधियों से दूर रहे; पर संघ के प्रति प्रेम उनके मन में बना रहा, जो आपातकाल में निरपराध स्वयंसेवकों की रिहाई के रूप में प्रकट हुआ। वे कानपुर, बरेली, हरदोई, ललितपुर, बनारस और मेरठ में न्यायाधीश रहे। सभी जगह उन्होंने अपने आचरण से एक आदर्श न्यायाधीश की छाप छोड़ी।

1988 में मेरठ में विशेष न्यायाधीश के पद से वे सेवानिवृत्त हुए। लम्बे समय तक संघ के काम से अलग रहने के कारण उन्होंने वृद्धावस्था में तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया और फिर संघ के काम में जुट गये। पहले उन्हें मेरठ प्रांत में ‘सेवा भारती’ की जिम्मेेदारी दी गयी। इसके बाद वे मेरठ प्रांत कार्यवाह, प्रांत संघचालक, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र संघचालक तथा फिर संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे। वे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय क्षेत्रों में भी गये। सेवा कार्य में रुचि होने के कारण वे प्रवास में इन कामों पर विशेष ध्यान देते थे। 2007 में वे नागपुर में प्रौढ़ स्वयंसेवकों के तृतीय वर्ष के वर्ग में सर्वाधिकारी थे।

इतनी ऊंचे और प्रतिष्ठित पद पर रहकर भी उनका जीवन सादगी से परिपूर्ण था। अवकाश प्राप्ति के बाद वे निःसंकोच खाकी नेकर पहन कर सायं शाखा में जाते थे। बच्चों से मिलना, खेलना और हंसी-मजाक करना उन्हें अच्छा लगता था। देहरादून में एक कार्यकर्ता ने अज्ञानवश रेलगाड़ी में आरक्षण के लिए उनकी आयु अधिक लिखा दी; लेकिन उन्होंने उस टिकट पर जाना स्वीकार नहीं किया। उनके तीनों पुत्र अच्छे काम और स्थानों पर हैं। वे जब उनके पास जाते थे, तो पड़ोस के सभी लोगों और परिवारों में घुलमिल जाते थे।


25 नवम्बर, 2015 को अपने बड़े पुत्र के मुम्बई स्थित निवास पर उनका निधन हुआ। 
(संदर्भ : मंझले पुत्र सलिल जी से प्राप्त जानकारी) 
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23 अप्रैल/जन्म-दिवस

विद्वत्ता की प्रतिमूर्ति पण्डिता रमाबाई

रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल, 1858 को ग्राम गंगामूल (जिला मंगलोर, कर्नाटक) में हुआ था। उस समय वहाँ लड़कियांे की उच्च शिक्षा को ठीक नहीं माना जाता था। बाल एवं अनमेल विवाह प्रचलित थे। रमा के विधुर पिता का नौ वर्षीय बालिका से पुनर्विवाह हुआ। उससे ही एक पुत्र एवं दो पुत्रियाँ हुईं। 

रमा के पिता ने अपनी पत्नी को भी संस्कृत पढ़ाकर विद्वान बनाया। इस पर स्थानीय पंडित उनसे नाराज हो गये। वे उन्हें जाति बहिष्कृत करने पर तुल गये। तब उन्होंने उडुपि में 400 विद्वानों के साथ दो महीने तक लिखित शास्त्रार्थ में सिद्ध किया कि महिलाओं को वेद पढ़ाना शास्त्रसम्मत है। इससे वे जाति बहिष्कार से तो बच गये; पर लोगों का द्वेष कम नहीं हुआ। 

उन्होंने अपने सब बच्चों को पढ़ाया। रमा जब नौ साल की थी, तो उनके पिता तीर्थयात्रा पर चले गये। रमा की माँ ने शिक्षा के महत्व को समझते हुए उसकी पढ़ाई जारी रखी। जब छह साल बाद रमा के पिता लौटकर आये, तब तक रमा हिन्दी, मराठी, कन्नड़, बंगला तथा संस्कृत भाषाएँ जान गयी थी।

जब रमा 15 साल की ही थी, तो उसके पिता की मृत्यु हो गयी। लोगों में द्वेष इतना था कि उनकी अंत्येष्टि के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। इस पर रमा के भाई ने उनके शव को धोती में बाँधकर गाँव से बाहर गाड़ दिया। 

कुछ समय बाद माँ की मृत्यु होने पर रमा एवं उसके भाई ने बड़ी कठिनाई से दो लोगों को तैयार किया, तब जाकर माँ का अन्तिम संस्कार हो सका।
इसके बाद रमा अपने छोटे भाई को लेकर कोलकाता आ गयी। वहाँ विद्वानों ने उसकी विद्वत्ता देखकर उन्हें ‘पंडिता रमाबाई’ की उपाधि दी। ब्रह्मसमाज के केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से रमा ने वेदों का और गहन अध्ययन किया। 

इसी दौरान उनके भाई की भी मृत्यु हो गयी। रमाबाई का पत्र व्यवहार एवं भेंट आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती से भी हुई। महर्षि दयानन्द जी चाहते थे कि रमाबाई पूरी तरह वेद और धर्म प्रचार का कार्य करंे; पर वह इससे सहमत नहीं हुई। वे अभी और पढ़ना चाहती थीं।

22 वर्ष की अवस्था में विपिनबिहारी दास से उनका अन्तरजातीय विवाह हुआ। एक साल बाद पुत्री मनोरमा के जन्म तथा उससे अगले साल पति के निधन से पुत्री की पूरी जिम्मेदारी रमाबाई पर आ गयी। आर्य समाज से निकटता के कारण ब्रह्मसमाज वाले भी अब उनकी आलोचना करने लगे।

इसके बाद भी रमाबाई नहीं घबराईं। वे पुत्री को लेकर पुणे आ गयीं और आर्य समाज की स्थापना कर समाजसेवा में लग गयीं। उन्होंने महाराष्ट्र के कई नगरों में आर्य समाज की स्थापना की। सामाजिक कार्यों के लिए उन्हें बहुत लोगों से मिलना पड़ता था। कुछ रूढि़वादियों ने इसका विरोधकर उनके चरित्र पर लांछन लगाये। इससे रमाबाई का मन बहुत दुखी हुआ।

1883 में वे चिकित्साशास्त्र का अध्ययन करने इंग्लैंड गयीं। वहाँ उनका सम्पर्क ईसाइयों से हुआ। रमा का मन अपने सम्बन्धियों और विद्वानों द्वारा किये गये दुव्र्यवहार से दुखी था। अतः उन्होंने ईसाई मजहब स्वीकार कर लिया।

अब उन्होंने हिब्रू और ग्रीक भाषा सीखकर बाइबल का इन भाषाओं तथा मराठी में अनुवाद किया। इसके बाद वे अमरीका भी गयीं। वहाँ उन्होंने महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे बढ़ते देखा। इससे वे बहुत प्रभावित हुईं। 

ईसाई बनने के बाद भी हिन्दुत्व और भारतीयता के प्रति उनका प्रेम कम नहीं हुआ। 1889 में भारत लौटकर उन्होंने पुणे में ‘शारदा सदन’ नामक विधवाश्रम बनाया। पांच अप्रैल, 1922 को पंडिता रमाबाई का देहान्त हो गया।
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23 अप्रैल/इतिहास-स्मृति      

पेशावर कांड के नायक चन्द्रसिंह गढ़वाली

चन्द्रसिंह का जन्म ग्राम रौणसेरा, (जिला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड) में 25 दिसम्बर, 1891 को हुआ था। वह बचपन से ही बहुत हृष्ट-पुष्ट था। ऐसे लोगों को वहाँ ‘भड़’ कहा जाता है। 14 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया। 

उन दिनों प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो जाने के कारण सेना में भर्ती चल रही थी। चन्द्रसिंह गढ़वाली की इच्छा भी सेना में जाने की थी; पर घर वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। अतः चन्द्रसिंह घर से भागकर लैंसडाउन छावनी पहुँचे और सेना में भर्ती हो गये। उस समय वे केवल 15 वर्ष के थे।

इसके बाद राइफलमैन चन्द्रसिंह ने फ्रान्स, मैसोपोटामिया, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त, खैबर तथा अन्य अनेक स्थानों पर युद्ध में भाग लिया। अब उन्हें पदोन्नत कर हवलदार बना दिया गया। छुट्टियांे में घर आने पर उन्हें भारत में हो रहे स्वतन्त्रता आन्दोलन की जानकारी मिली। उनका सम्पर्क आर्यसमाज से भी हुआ। 1920 में कांग्रेस के जगाधरी (पंजाब) में हुए सम्मेलन में भी वे गये; पर फिर उन्हें युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया गया।

युद्ध के बाद वे फिर घर आ गये। उन्हीं दिनों रानीखेत (उत्तराखंड) में हुए कांग्रेस के एक कार्यक्रम में गांधी जी भी आये थे। वहाँ चन्द्रसिंह अपनी फौजी टोपी पहनकर आगे जाकर बैठ गये। गांधी जी ने यह देखकर कहा कि मैं इस फौजी टोपी से नहीं डरता। चन्द्रसिंह ने कहा यदि आप अपने हाथ से मुझे टोपी दें, तो मैं इसे बदल भी सकता हूँ। इस पर गांधी जी ने उसे खादी की टोपी दी। तब से चन्द्रसिंह का जीवन आमूल चूल बदल गया।

1930 में गढ़वाल राइफल्स को पेशावर भेजा गया। वहाँ नमक कानून के विरोध में आन्दोलन चल रहा था। चन्द्रसिंह ने अपने साथियों के साथ यह निश्चय किया कि वे निहत्थे सत्याग्रहियांे को हटाने में तो सहयोग करेंगे; पर गोली नहीं चलायेंगे। सबने उसके नेतृत्व में काम करने का निश्चय किया। 

23 अप्रैल, 1930 को सत्याग्रह के समय पेशावर में बड़ी संख्या में लोग जमा थे। तिरंगा झंडा फहरा रहा था। बड़े-बड़े कड़ाहों में लोग नमक बना रहे थे। एक अंग्रेज अधिकारी ने अपनी मोटरसाइकिल उस भीड़ में घुसा दी। इससे अनेक सत्याग्रही और दर्शक घायल हो गये। सब ओर उत्तेजना फैल गयी। लोगों ने गुस्से में आकर मोटरसाइकिल में आग लगा दी। 

गुस्से में पुलिस कप्तान ने आदेश दिया - गढ़वाली थ्री राउंड फायर। पर उधर से हवलदार मेजर चन्द्रसिंह गढ़वाली की आवाज आयी - गढ़वाली सीज फायर। सिपाहियों ने अपनी राइफलें नीचे रख दीं। पुलिस कप्तान बौखला गया; पर अब कुछ नहीं हो सकता था। 

चन्द्रसिंह ने कप्तान को कहा कि आप चाहे हमें गोली मार दें; पर हम अपने निहत्थे देशवासियांे पर गोली नहीं चलायेंगे। कुछ अंग्रेज पुलिसकर्मियों तथा अन्य पल्टनों ने गोली चलायी, जिससे अनेक सत्याग्रही तथा सामान्य नागरिक मारे गये।

तुरन्त ही गढ़वाली पल्टन को बैरक में भेजकर उनसे हथियार ले लिये गये। चन्द्रसिंह को गिरफ्तार कर 11 वर्ष के लिए जेल में ठूँस दिया गया। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी। जेल से छूटकर वे फिर स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हो गये। स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने राजनीति से दूर रहकर अपने क्षेत्र में ही समाजसेवा करना पसन्द किया। 

एक अक्तूबर, 1979 को पेशावर कांड के इस महान सेनानी की मृत्यु हुई। शासन ने 1994 में उन पर डाक टिकट जारी किया।

1 टिप्पणी:

  1. हर दिन पावन का नित्य वाचन ही नही अपितु मोबाइल के द्वारा हजारो लोगों तक पहुंच्या जाता है ।आज पंडिता रामाभई के संदर्भ में कुछ तल्ख टिपानिया प्राप्त हुई हैं ।इनके विषय में और जानकारी एकत्रित करने की आवश्यकता है ।
    राजेंद्र कुमार लालवानी
    अजमेरू महानगर
    09829070055
    lalwaniprp@ymail.com

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