मार्च चौथा सप्ताह

24 मार्च/बलिदान-दिवस

पांचाल क्षेत्र में क्रान्ति के संचालक नवाब खान

उत्तर प्रदेश में बरेली और उसका निकटवर्ती क्षेत्र पांचाल क्षेत्र कहलाता है। जन मान्यता यह है कि महाभारत काल में द्रौपदी (पांचाली) का स्वयंवर इसी क्षेत्र में हुआ था। आगे चलकर रुहेलों ने इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया, इससे यह क्षेत्र रुहेलखण्ड भी कहलाया। 

जब 1857 की क्रान्ति का बिगुल बजा, तो यहाँ के नवाब खान बहादुर ने नाना साहब पेशवा की योजना से निर्धारित दिन 31 मई को ही इस क्षेत्र को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त करा लिया। रुहेले सरदार हाफिज रहमत खान के वंशज होने के कारण इनका पूरे क्षेत्र में बहुत दबदबा था। इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें मानद न्यायाधीश (नेटिव जज) बना दिया। रुहेले सरदार के वंशज और जज होने के कारण उन्हें दुगनी पेंशन मिलती थी।

खान बहादुर पर एक ओर अंग्रेजों को पूरा विश्वास था, तो दूसरी ओर वे गुप्त रूप से क्रान्ति की सभी योजनाओं में सहभागी थे।  उस समय बरेली में आठवीं घुड़सवार, 18वीं तथा 68वीं पैदल रेजिमेण्ट के साथ तोपखाने की एक इकाई भी तैनात थी। 

जब 10 मई को मेरठ से विद्रोह प्रारम्भ हुआ, तो खान बहादुर ने सैनिकों को 31 मई तक शान्त रहने को कहा। उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों को यह विश्वास दिला दिया कि ये सैनिक कुछ नहीं करेंगे। 31 मई को रविवार होने के कारण अधिकांश अंगे्रज चर्च गये थे। 

जैसे ही 11 बजे तोप से गोला छोड़ा गया, सैनिकों ने अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। चुन-चुनकर उन्हें मारा जाने लगा। अनेक अंग्रेज जान बचाने के लिए नैनीताल भाग गये। शाम तक पूरा बरेली शहर मुक्त हो गया। इसी दिन शाहजहाँपुर और मुरादाबाद में तैनात 29वीं रेजिमेण्ट ने भी क्रान्ति कर पूरे पांचाल क्षेत्र को एक ही दिन में मुक्त करा लिया। 

खान बहादुर ने स्वदेशी शासन स्थापित करने के लिए सेनापति बख्त खान के नेतृत्व में 16,000 सैनिकों को क्रान्तिकारियों का सहयोग करने के लिए दिल्ली भेजा। राज्य में शान्ति स्थापित करने के लिए 5,000 अश्वारोही तथा 25,000 पैदल सैनिक भी भर्ती किये। 

दस माह तक पांचाल क्षेत्र में शान्ति बनी रही। इनकी शक्ति देखकर अंग्रेजों की इस ओर आने की हिम्मत नहीं पड़ी। फरवरी, 1858 में लखनऊ तथा कानपुर अंग्रेजों के अधीन हो गये। यह देखकर 25 मार्च को नाना साहब बरेली आ गये।

इसके बाद अंग्रेजों ने इस क्षेत्र पर फिर कब्जा करने का प्रयास आरम्भ किया। प्रधान सेनापति कैम्पबेल ने चारों ओर से हमला करने की योजना बनायी। पहले आक्रमण में अंग्रेजों को मुँह की खानी पड़ी। उसका एक प्रमुख नायक जनरल पेनी भी मारा गया।

पर क्रान्तिवीरों की शक्ति बँटी हुई थी। यह देखकर खान बहादुर ने पूरी सेना को बरेली बुला लिया। 5 मई, 1858 को नकटिया नदी के पास इस देशभक्त सेना ने अंगे्रजों पर धावा बोला। दो दिन के संघर्ष में अंग्रेजों की भारी पराजय हुई। दूसरे दिन फिर संघर्ष हुआ; पर उसी समय मुरादाबाद से अंग्रेज सैनिकों की एक टुकड़ी और आ गयी। इससे पासा पलट गया और 6 मई, 1858 को बरेली पर अंग्रेजों का फिर से अधिकार हो गया। 

खान बहादुर और कई प्रमुख क्रान्तिकारी पीलीभीत चले गये। वहाँ से वे लखनऊ आये और फिर बेगम हजरत महल के साथ नेपाल चले गये; पर वहाँ राणा जंगबहादुर ने उन्हें पकड़वा दिया। अंग्रेज शासन ने उन पर बरेली में मुकदमा चलाया और 24 मार्च, 1860 को बरेली कोतवाली के द्वार पर उन्हें फाँसी दे दी गयी।
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24 मार्च/जन्म-दिवस

समन्वय के साधक बालकृष्ण नाईक

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक बालकृष्ण उत्तमराव नाईक का जन्म महाराष्ट्र के पैठण (संभाजीनगर) में हुआ था। वे बचपन से ही मेधावी छात्र थे। गुजरात से स्नातक इंजीनियर तथा फिर अमरीका के स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय से उन्होंने डैडम् की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद उनके लिए ऊंचे वेतन की निजी और सरकारी नौकरियों के दरवाजे खुले थे। देश और विदेश में उनके लिए अपार संभावनाएं थीं; पर वे बचपन से ही संघ के प्रति समर्पित हो चुके थे। अतः 1966 में संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूरा कर वे प्रचारक बन गये।

उनके प्रचारक जीवन की शुरुआत महाराष्ट्र में परभणी से हुई। एक वर्ष वहां रहने के बाद उन्हें कांग्रेस और वामपंथियों के गढ़ बंगाल में भेजा गया।  तब संघ के पास साधनों का अभाव था। ऐसे में काम करना बहुत कठिन था; पर बालकृष्ण जी शुरू से संतोषी एवं आध्यात्मिक स्वभाव के थे। अतः अपनी जरूरतें कम करते हुए उन्होंने वहां काम बढ़ाया। 1967 से 69 तक वे वर्धमान और फिर 1974 तक हावड़ा में जिला प्रचारक रहे।

इसके बाद उनकी जीवन यात्रा विश्व हिन्दू परिषद के साथ आगे बढ़ी। विहिप का काम और नाम उन दिनों बहुत कम था। 1974 में उन्हें मेदिनीपुर विभाग में सेवा प्रमुख बनाया गया। 1976 में वे बंगाल के संगठन मंत्री बने। 1983 में विहिप ने एकात्मता यज्ञ यात्राओं का आयोजन किया। उन दिनों बंगाल में वामपंथी नेता ज्योति बसु मुख्यमंत्री थे। वे धर्म कर्म में विश्वास नहीं करते थे। अतः उनकी शह पर वामपंथियों ने इस यात्रा में बहुत विघ्न डाले।

जिस दिन कोलकाता में बड़ी यात्रा निकलनी थी, उस दिन माहौल बहुत तनावपूर्ण था। कार्यकर्ता भी एकमत नहीं थे। कुछ चाहते थे कि टकराव न लेते हुए छोटे मार्ग से शांतिपूर्वक यात्रा निकाल लें; पर कुछ का मत था कि पूरे जोर शोर से मुख्यमार्गों से यात्रा निकले। बालकृष्ण जी दूसरे पक्ष में थे। अंततः उनकी बात मानी गयी। जैसे ही यात्रा मुख्य मार्ग पर आयी, जनता प्रतिबंध तोड़कर उमड़ पड़ी। इससे बंगाल में विहिप के काम को बहुत बल मिला।

1990 से 95 तक मुंबई में रहते हुए वे पश्चिमांचल संगठन मंत्री रहे। 1995 से उनका केन्द्र दिल्ली हो गया। पहले वे विश्व विभाग में तथा 2002 से विहिप उपाध्यक्ष एवं समन्वय मंच में कार्यरत रहे। विश्व विभाग के काम के लिए उन्होंने कई देशों का प्रवास कर वहां संगठन की नींव रखी। इसके बाद वे विहिप के संयुक्त महामंत्री और फिर उपाध्यक्ष रहे।

विहिप की स्थापना का उद्देश्य भारत में जन्मे, पले और विकसित हुए सभी मत, पंथ, संप्रदाय तथा उपासना पद्धतियों में समन्वय स्थापित कर उन्हें एक मंच पर लाकर संगठित करना है। इनकी संख्या हजारों में है; पर जैन, बौद्ध और सिख बड़े और प्रभावी समुदाय हैं। इन्हें जोड़ने के लिए बालकृष्ण जी ने अथक प्रयास किया। उनके धर्मगुरुओं को वे विहिप के कार्यक्रम में बुलाते थे। वहां उनके भाषण भी होते थे। विहिप में हिन्दू नाम के कारण ये धर्मगुरु कई बार हिचकिचाते थे; पर बालकृष्ण जी ने अपनी विनम्रता और विद्वत्ता से उन्हें संगठन से जोड़ा। अतः उनके आश्रमों में भी विहिप की बैठकें और शिविर होने लगे।

इस दौरान उनका संबंध विपश्यना का भारत में पुनप्र्रसार करने वाले सत्यानारायण गोयनका से हुआ। वे पहले 10 दिन और फिर 40 दिन वाले शिविरों में जाने लगे। प्रायः वे प्रतिवर्ष उनके शिविर में जाते थे। वहां लगातार मौन रहकर आत्मसाधना करनी होती थी। यों तो वे शुरू से ही शांत स्वभाव के थे; पर इसके बाद अध्यात्म साधना में उनका काफी समय लगने लगा।

2020 में भारत में कोरोना महामारी फैली थी। उसी दौरान वे गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर गये। वहीं उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। 18 नवम्बर, 2020 को कुशीनगर से गोरखपुर जाते हुए एंबुलेंस में ही उनका देहांत हो गया।

(देहांत के बाद प्राप्त जानकारी तथा विहिप प्रचारक डायरी)

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25 मार्च/बलिदान-दिवस

गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का बलिदान

स्वाधीनता सेनानी, क्रांतिकारी, पत्रकार तथा कई नये लेखक व कवियों के निर्माता श्री गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का जन्म 26 अक्तूबर, 1890 (आश्विन शुक्ल 14, रविवार, संवत 1947) को प्रयाग (उ.प्र.) के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद श्रीवास्तव के घर में हुआ था, जो सहायक जेलर थे। उनके पुरखे हथगांव (जिला फतेहपुर, उ.प्र.) के निवासी थे; पर जीवनयापन के लिए उनके पिता मुंशी जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर अपनी पत्नी गोमती देवी सहित जिला गुना (म.प्र.) के गंगवली कस्बे में बस गये। 
प्रारम्भिक शिक्षा वहां के एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल से लेकर गणेश ने अपने बड़े भाई के पास कानपुर आकर हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर उन्होंने प्रयाग में इण्टर में प्रवेश लिया। उसी दौरान विवाह होने से उनकी पढ़ाई छूट गयी। अब घर चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी, अतः वे फिर कानपुर आ गये। अब तक उन्हें पत्रकारिता का शौक भी लग चुका था।
1908 में उन्हें कानपुर के करेंसी दफ्तर में 30 रु. महीने की नौकरी मिल गयी; पर एक साल बाद अंग्रेज अधिकारी से झगड़ा होने से उसे छोड़कर वे पृथ्वीनाथ हाई स्कूल में पढ़ाने लगे। यहां भी अधिक समय तक उनका मन नहीं लगा। अतः प्रयाग आकर उन्होंने कर्मयोगी, सरस्वती तथा अभ्युदय पत्रों के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया। वे स्वराज्य (उर्दू) तथा हितवार्ता (कोलकाता) में भी लिखते थे; पर स्वास्थ्य खराब होने से वे फिर कानपुर आ गये और नौ नवम्बर, 1913 से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ प्रारम्भ कर दिया।
‘प्रताप’ के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया। सरल भाषा में अंग्रेज शासन, सामंतों, जमीदारों तथा देशी राजाओं के विरुद्ध तथ्यात्मक सामग्री होने से उसकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। विद्यार्थी जी ने ‘प्रभा’ नामक मासिक पत्र भी निकला। 23 नवम्बर, 1920 से उन्होंने ‘प्रताप’ को दैनिक कर दिया। इससे बौखलाकर प्रशासन ने उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाकर कई बार जेल भेजा और भारी जुर्माना लगाया। फिर भी वे डरे नहीं। वे लोकमान्य तिलक और फिर गांधी जी के अनुयायी बनेे। 1925 में वे कानपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन के प्रधानमंत्री तथा 1930 में प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष बनाये गये। 1930 के आंदोलन में वे अपने प्रदेश के प्रथम ‘डिक्टेटर’ नियुक्त किये गये। 
‘प्रताप’ के माध्यम से किसान और मजदूरों की आवाज उठाने के कारण वे कानपुर में मजदूरों के नेता बन गये। वे श्रीमती एनी बेसेंट के ‘होमरूल लीग’ आंदोलन में भी सक्रिय रहे। क्रान्तिकारियों के समर्थक होने के नाते वे रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के योगक्षेम की भी चिन्ता करते थे। क्रान्तिवीर भगतसिंह ने भी कुछ समय तक ‘प्रताप’ में काम किया था। वे ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के गोरखपुर में हुए 19वें अधिवेशन के सभापित चुने गये थे।
स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ ही उन दिनों पाकिस्तान की मांग भी जोर पकड़ रही थी। 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह आदि को फांसी हुई। यह समाचार फैलने पर अगले दिन कानपुर में लोगों ने विरोध जुलूस निकाले; पर न जाने क्यों इससे भड़क कर कुछ मजहबी उन्मादी दंगा करने लगे। सामाजिक सद्भाव के पुजारी विद्यार्थी जी अपने जीवन भर की तपस्या भंग होते देख बौखला गये। वे सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े। 
दंगाई तो मरने-मारने पर उतारू ही थे। उन्होंने कुल्हाडि़यों से विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यहां तक की उनकी साबुत लाश भी नहीं मिली। केवल एक बांह मिली, जिस पर ‘गजेन्द्र’ गुदा था। उसी से वे पहचाने गये। वह 25 मार्च, 1931 का दिन था, जब अन्ध मजहबवाद की बलिवेदी पर भारत मां के सच्चे सपूत गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का बलिदान हुआ। 

(पा.क.1.3.18)(हि. 25.3.17)(सा.अ. जनवरी 20, गांधी विशेषांक /120, विजयदत्त श्रीधर)(दै.जा. 26.10.20)(सा.अ. मई 2018)

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25 मार्च/जन्म-दिवस  

झंडेवाला कार्यालय की पहचान चमनलाल जी

दुनिया भर में फैले स्वयंसेवकों को एक सूत्र में जोड़ने वाले चमनलाल जी का जन्म 25 मार्च, 1920 को ग्राम सल्ली (स्यालकोट, वर्तमान पाकिस्तान) में जमीनों का लेनदेन करने वाले धनी व्यापारी श्री बुलाकीराम गोरोवाड़ा के घर में हुआ था। 

वे मेधावी छात्र और कबड्डी तथा खो-खो के उत्कृष्ट खिलाड़ी थे। गणित में उनकी प्रतिभा का लोहा पूरा शहर मानता था। 1942 में उन्होंने लाहौर से स्वर्ण पदक के साथ वनस्पति शास्त्र में एम.एस-सी. किया। 

संघ शाखा से उनका सम्पर्क 1936 में ही हो चुका था। 1940-41 में वे गांधी जी के वर्धा स्थित सेवाग्राम आश्रम में भी रहे; पर वहां उनका मन नहीं लगा। विभाजन के उस नाजुक वातावरण में 1942 में लाहौर से चमनलाल जी सहित 52 युवक प्रचारक बने। उन्हें सर्वप्रथम मंडी (वर्तमान हिमाचल) में भेजा गया। वहां हजारों कि.मी. पैदल चलकर उन्होंने सैकड़ों शाखाएं खोलीं। 

1946 में उन्हें लाहौर बुला लिया गया। विभाजन के भय से हिन्दू गांव छोड़कर शहरों में आ रहे थे। चमनलाल जी ने वहां सब व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से संभाला। अपनी डायरी में वे हर दिन की घटना लिखते रहते थे।

गांधी हत्या के बाद वे चार माह अंबाला जेल में रहे। 1947 के बाद वे लाहौर से जालंधर और 1950 में दिल्ली आ गये। उस समय कार्यालय के नाम पर वहां एक खपरैल का कमरा ही था। चमनलाल जी झाड़ू लगाने से लेकर आगंतुकों के लिए चाय आदि स्वयं बनाते थे। धीरे-धीरे कार्यालय का स्वरूप सुधरता गया और वे झंडेवाला कार्यालय की पहचान बन गये।

विदेश में बस गये स्वयंसेवक प्रायः दिल्ली आते थे। उनके नाम, पते, फोन नंबर आदि चमनलाल जी के पास सुरक्षित रहते थे। इस प्रकार वे दुनिया में स्वयंसेवकों के बीच संपर्क सेतु बन गये। उन्होंने कई देशों का प्रवासकर इस सूत्र को सबल बनाया। मारीशस के राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने अपने पुत्र के विवाह में उन्हें राजकीय अतिथि के रूप में पोर्ट लुई बुलवाया। 

विदेश जाते समय सब उनसे वहां के पते लेकर जाते थे। वे उनके पहुंचने से पहले ही पत्र एवं फोन द्वारा सब व्यवस्था करा देते थे। विश्व भर से कब, कहां से, किसका फोन आ जाए, कहना कठिन था। इसलिए वे बेतार फोन को सदा पास में रखते थे। लोग हंसी में उसे उनका बेटा कहते थे।

झंडेवाला कार्यालय में पूज्य श्री गुरुजी से मिलने कई प्रमुख लोग आते थे। चमनलाल जी उस वार्ता के बिन्दु लिख लेते थे। इस प्रकार उनकी डायरियां संघ का इतिहास बन गयीं। कश्मीर आंदोलन के समय श्री गुरुजी ने चमनलाल जी के हाथ एक पत्र भेजकर डा. मुखर्जी को सावधान किया था। 

संघ के प्रमुख प्रकाशन, पत्र, पत्रिकाएं, बैठकों में पारित प्रस्ताव आदि वे सुरक्षित रखते थे। इसमें से ही संघ का अभिलेखागार और कई महत्वपूर्ण पुस्तकें बनीं। कपड़े स्वयं धोकर, बिना निचोड़े सुखाने और बिना प्रेस किये पहनने वाले चमनलाल जी का जीवन इतना सादा था कि 1953 और 1975 में जब पुलिस संघ कार्यालय पर आई, तो वे उनके सामने ही बाहर निकल गये। पुलिस वाले उन्हें पहचान ही नहीं सके। 

आपातकाल में स्वयंसेवकों पर हो रहे अत्याचारों का विवरण वे भूमिगत रहते हुए अपनी छोटी टाइप मशीन पर लिखकर विश्व भर में भेजते थे। इससे विश्व जनमत का दबाव इंदिरा गांधी पर पड़ा। जनसंघ के बारे में भी उनकी डायरियों में अनेक टिप्पणियां मिलती हैं।

फरवरी, 2003 में वे मुंबई में विश्व विभाग के एक कार्यक्रम में गये थे। कई दिन से उनका स्वास्थ्य खराब था। आठ फरवरी को स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। दो दिन तक संघर्ष करने के बाद 10 फरवरी को विश्व विभाग का यह पथिक अनंत की यात्रा पर चल दिया।

(संदर्भ : चमनलाल जी, एक स्वयंसेवक की यात्रा - अमरजीव लोचन)
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25 मार्च/जन्म-दिवस

भूमिगत रेडियो की संचालक उषा मेहता

आजकल मोबाइल और अंतरजाल जैसे संचार के तीव्र साधनों के बल पर संपर्क और संबंध ही नहीं, तो विश्व स्तर पर व्यापार और आंदोलन भी हो रहे हैं; पर भारतीय स्वाधीनता के आंदोलन के समय यह सुविधा नहीं थी। तब टेलिफोन, रेडियो और बेतार आदि शासन के पास ही होते थे। ऐसे में आंदोलन के समाचार तथा नेताओं के संदेशों को भूमिगत रेडियो द्वारा जनता तक पहुंचाने में जिस महिला ने बड़े साहस का परिचय दिया, वे थीं उषा मेहता। 

उषा मेहता का जन्म 25 मार्च, 1920 को सूरत (गुजरात) के पास एक गांव में हुआ था। गांधी जी को उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में कर्णावती में देखा था। कुछ समय बाद उनके गांव के पास लगे एक शिविर में उन्होंने गांधी जी के विचारों को सुना और उनके कार्यों के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया। वहां पर ही उन्होंने खादी पहनने का व्रत लिया और इसे जीवन भर निभाया। 

आठ वर्ष की अवस्था में वे स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत ‘मांजर सेना’ में शामिल होकर अपने बाल मित्रों के साथ भरूच की गलियों में तिरंगा झंडा लेकर प्रभातफेरी निकालने लगीं। उन्होंने साइमन कमीशन के विरुद्ध जुलूस निकाला तथा विदेशी कपड़ों एवं शराब की दुकानों के आगे विरोध प्रदर्शन भी किये। 

उनके पिता एक जज थे। 1930 में अवकाश पाकर वे मुंबई आ गये। यहां उषा मेहता की सक्रियता और बढ़ गयी। वे जेल में बंदियों से मिलकर उनके संदेश बाहर लाती थीं तथा अपने साथियों के साथ गुप्त पर्चे भी बांटती थीं।

उषा मेहता ने 1939 में दर्शन शास्त्र की स्नातक उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की। इसके बाद वे कानून की पढ़ाई करने लगीं; पर तभी भारत छोड़ो आंदोलन छिड़ गया। ऐसे में वे पढ़ाई अधूरी छोड़कर आंदोलन में कूद गयीं। आंदोलन के समाचार तथा नेताओं के संदेश रेडियो द्वारा जनता तक पहुंचाने के लिए कुछ लोगों ने गुप्त रेडियो प्रणाली की व्यवस्था भी कर ली।

उषा जी ने यह कठिन काम अपने कंधे पर लिया। 14 अगस्त, 1942 को इसका पहला प्रसारण उनकी आवाज में ही हुआ। इस पर नेताओं के पहले से रिकार्ड किये हुए संदेश भी सुनाये जाते थे। इससे सरकार के कान खड़े हो गये। वे इस रेडियो स्टेशन की तलाश करने लगे; पर ‘तुम डाल-डाल, हम पात-पात’ की तरह ये लोग हर दिन इसका स्थान बदल देते थे। श्री राममनोहर लोहिया तथा अच्युत पटवर्धन का भी इस काम में बड़ा सहयोग था; पर तीन माह बाद उषा जी और उनके साथी पुलिस के हत्थे चढ़ ही गये। 

उषा मेहता को चार साल की सजा दी गयी। जेल में उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया; पर वे झुकी नहीं। 1946 में वहां से आकर उन्होंने फिर पढ़ाई प्रारम्भ कर दी। स्वाधीनता के बाद उन्होंने गांधी जी के सामाजिक तथा राजनीतिक विचारों पर शोध कर पी.एच-डी की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद मुंबई विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य को उन्होंने अपनी आजीविका बनाया। 

अंतिम गांधीवादी के रूप में विख्यात उषा जी आजीवन गांधी संग्रहालय, गांधी शांति प्रतिष्ठान, गांधी स्मारक निधि, मणि भवन आदि से जुड़ी रहीं। उन्होंने स्वाधीनता आंदोलन पर कई पुस्तकें लिखीं। वे सामाजिक कार्यों में महिलाओं की सक्रियता की पक्षधर थीं। 11 अगस्त, 2000 को पद्मश्री तथा कई अन्य पुरस्कारों से अलंकृत उषा जी का निधन हुआ।

(संदर्भ : पंजाब केसरी 19.3.2005 तथा अंतरजाल)
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26 मार्च/इतिहास-स्मृति

चिपको आन्दोलन और गौरादेवी 

आज पूरी दुनिया लगातार बढ़ रही वैश्विक गर्मी से चिन्तित है। पर्यावरण असंतुलन, कट रहे पेड़, बढ़ रहे सीमेंट और कंक्रीट के जंगल, बढ़ते वाहन, ए.सी, फ्रिज, सिकुड़ते ग्लेशियर तथा भोगवादी पश्चिमी जीवन शैली इसका प्रमुख कारण है। 

हरे पेड़ों को काटने के विरोध में सबसे पहला आंदोलन पांच सितम्बर, 1730 में अलवर (राजस्थान) में इमरती देवी के नेतृत्व में हुआ था, जिसमें 363 लोगों ने अपना बलिदान दिया था। इसी प्रकार 26 मार्च, 1974 को चमोली गढ़वाल के जंगलों में भी ‘चिपको आंदोलन’ हुआ, जिसका नेतृत्व ग्राम रैणी की एक वीरमाता गौरादेवी ने किया था।

गौरादेवी का जन्म 1925 में ग्राम लाता (जोशीमठ, उत्तरांचल) में हुआ था। विद्यालयीन शिक्षा से विहीन गौरा का विवाह 12 वर्ष की अवस्था में ग्राम रैणी के मेहरबान सिंह से हुआ। 19 वर्ष की अवस्था में उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई और 22 वर्ष में वह विधवा भी हो गयी। गौरा ने इसे विधि का विधान मान लिया। 

पहाड़ पर महिलाओं का जीवन बहुत कठिन होता है। सबका भोजन बनाना, बच्चों, वृद्धों और पशुओं की देखभाल, कपड़े धोना, पानी भरना और जंगल से पशुओं के लिए घास व रसोई के लिए ईंधन लाना उनका नित्य का काम है। इसमें गौरादेवी ने स्वयं को व्यस्त कर लिया।

1973 में शासन ने जंगलों को काटकर अकूत राजस्व बटोरने की नीति बनाई। जंगल कटने का सर्वाधिक असर पहाड़ की महिलाओं पर पड़ा। उनके लिए घास और लकड़ी की कमी होने लगी। हिंसक पशु गांव में आने लगे। धरती खिसकने और धंसने लगी। वर्षा कम हो गयी।हिमानियों के सिकुड़ने से गर्मी बढ़ने लगी और इसका वहां की फसल पर बुरा प्रभाव पड़ा। लखनऊ और दिल्ली में बैठे निर्मम शासकों को इन सबसे क्या लेना था, उन्हें तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त हरे-भरे वन अपने लिए सोने की खान लग रहे थे।

गांव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष गौरादेवी का मन इससे उद्वेलित हो रहा था। वह महिलाओं से इसकी चर्चा करती थी। 26 मार्च, 1974 को गौरा ने देखा कि मजदूर बड़े-बड़े आरे लेकर ऋषिगंगा के पास देवदार के जंगल काटने जा रहे थे। उस दिन गांव के सब पुरुष किसी काम से जिला केन्द्र चमोली गये थे। सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही थी। अतः गौरादेवी ने शोर मचाकर गांव की अन्य महिलाओं को भी बुला लिया। सब महिलाएं पेड़ों से लिपट गयीं। उन्होंने ठेकेदार को बता दिया कि उनके जीवित रहते जंगल नहीं कटेगा।

ठेकेदार ने महिलाओं को समझाने और फिर बंदूक से डराने का प्रयास किया; पर गौरादेवी ने साफ कह दिया कि कुल्हाड़ी का पहला प्रहार उसके शरीर पर होगा, पेड़ पर नहीं। ठेकेदार डर कर पीछे हट गया। यह घटना ही ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुछ ही दिनों में यह आग पूरे पहाड़ में फैल गयी। आगे चलकर चंडीप्रसाद भट्ट तथा सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवियों के जुड़ने से यह आंदोलन विश्व भर में प्रसिद्ध हो गया। 

चार जुलाई, 1991 को इस आंदोलन की प्रणेता गौरादेवी का देहांत हो गया। यद्यपि जंगलों का कटान अब भी जारी है। नदियों पर बन रहे दानवाकार बांध और विद्युत योजनाओं से पहाड़ और वहां के निवासियों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। गंगा-यमुना जैसी नदियां भी सुरक्षित नहीं हैं; पर रैणी के जंगल अपेक्षाकृत आज भी हरे और जीवंत हैं। सबको लगता है कि वीरमाता गौरादेवी आज भी अशरीरी रूप में अपने गांव के जंगलों की रक्षा कर रही हैं।
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26 मार्च/जन्म-दिवस

मनीषी चिन्तक कुबेरनाथ राय

ललित निबन्ध हिन्दी साहित्य की एक अनुपम विधा है। इसमें किसी विषय को लेखक अपनी कल्पना शक्ति के आधार पर आगे बढ़ाता है। इन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो पाठक नदी के प्रवाह में बिना प्रयास स्वयमेव बह रहा हो। गद्य को पढ़ते हुए पद्य जैसे आनन्द की अनुभूति होती है। अच्छे ललित निबन्ध को एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद समाप्त किये बिना उठने की इच्छा नहीं होती। हिन्दी साहित्य में अनेक ललित निबन्धकार हुए हैं। इनमें श्री कुबेरनाथ राय का अप्रतिम स्थान है।

श्री कुबेरनाथ का साहित्यिक व्यक्तित्व एक ऐसा विशाल वट वृक्ष है, जिसकी दूर-दूर तक फैली जड़ें भारत के वैष्णव साहित्य, श्रीराम कथा और गांधी चिन्तन से जीवन रस ग्रहण करती हैं। भारतीयता पर दृढ़तापूर्वक खड़े होकर भी उनका चिन्तन सम्पूर्ण विश्व को ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के प्रेमपूर्ण बन्धन में बाँधने को तत्पर दिखाई देता है। हिन्दी ललित निबन्ध को उन्होंने एक नया आयाम दिया, जिससे पाठक के मन को भी भव्यता प्राप्त होती है।

श्री कुबेरनाथ राय का जन्म 26 मार्च, 1933 को मतसा (गाजीपुर, उत्तर प्रदेश) में एक सुसंस्कृत वैष्णव परिवार में हुआ था। उनके छोटे बाबा पंडित बटुकदेव शर्मा अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान और उच्च कोटि के पत्रकार थे। उनका संकल्प था कि गुलाम भारत में मैं सन्तान उत्पन्न नहीं करूँगा। इसलिए किशोरवस्था में ही उन्होंने घर छोड़ दिया और आजीवन अविवाहित रहकर देशसेवा की। 

उन्होंने देश, तरुण, भारत, प्रताप, लोक संग्रह, प्रणवीर जैसे राष्ट्रव्यापी ख्याति प्राप्त पत्रों का सम्पादन किया। महात्मा गांधी, डा0 राजेन्द्र प्रसाद, गणेश शंकर विद्यार्थी, सहजानन्द सरस्वती, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ आदि से उनके निकट सम्बन्ध थे।

श्री कुबेरनाथ जी पर अपने इन छोटे बाबा के व्यक्तित्व का बहुत प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी का श्रेष्ठ ज्ञान और राष्ट्रीयता के संस्कार उन्हें छोटे बाबा से ही मिले। कक्षा दस में पढ़ते समय ही उनकी रचनाएँ ‘माधुरी’ और ‘विशाल भारत’ जैसे विख्यात पत्रों में छपने लगी थीं। इनमें छपने के लिए तत्कालीन प्रतिष्ठित साहित्यकार भी लालायित रहते थे। स्पष्ट है कि कुबेरनाथ राय के मन में साहित्य का बीज किशोरवस्था में ही पल्लवित और पुष्पित हो चुका था।

प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और फिर कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1958 से 86 तक वे असम के नलबाड़ी कालेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे। 1986 में उनकी नियुक्ति अपने गृह जनपद गाजीपुर में स्वामी सहजानन्द स्नातकोत्तर महाविद्यालय में प्राचार्य के पद पर हुई। इसी पद से वे 1995 में सेवानिवृत्त भी हुए।

उनकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें हैं - प्रिया नीलकण्ठी, रस आखेटक, मेघमादन, निषाद बाँसुरी, विषाद योग, पर्णमुकुट, महाकवि की तर्जनी, पत्र मणिपुतुल के नाम, मन वचन की नौका, किरात नदी में चन्द्रमधु, दृष्टि अभिसार, त्रेता का बृहत साम, कामधेनु मराल आदि। विशेष बात यह है कि श्री कुबेरनाथ ने सदा अंग्रेजी का अध्यापन किया; पर साहित्य द्वारा अपने मन की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को ही श्रेष्ठ माना।

वे भारतीय ज्ञानपीठ के प्रतिष्ठित ‘मूर्तिदेवी पुरस्कार’ सहित अनेक सम्मानों से अलंकृत किये गये। 5 जून, 1996 को हिन्दी के इस रससिद्ध साधक का हृदयगति रुकने से देहान्त हो गया।
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27 मार्च/बलिदान-दिवस

क्रान्तिवीर काशीराम, जिन्हें डाकू समझा गया

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अनेक ऐसे वीरों ने भी बलिदान दिया, जिन्हें गलत समझा गया। 1981 में ग्राम बड़ी मढ़ौली (अम्बाला, पंजाब) में पण्डित गंगाराम के घर में जन्मे काशीराम ऐसे ही क्रान्तिवीर थे, जिन्हें डाकू समझ कर  अपने देशवासियों ने ही मार डाला। 

शिक्षा पूरी कर काशीराम ने भारत में एक-दो छोटी नौकरियाँ कीं और फिर हांगकांग होते हुए अमरीका जाकर बारूद के कारखाने में काम करने लगे। कुछ दिन बाद उन्होंने एक टापू पर सोने की खान का ठेका लिया और बहुत पैसा कमाया। जब उनके मन में छिपे देशप्रेम ने जोर मारा, तो वे भारत आ गये। वे अपने गाँव थोड़ी देर के लिए ही रुके और फिर यह कहकर चल दिये कि लाहौर नेशनल बैंक में मेरे 30,000 रु. जमा हैं, उन्हें लेने जा रहा हूँ। इसके बाद वे अपने गाँव लौट कर नहीं आये।

विदेश में रहते हुए ही उनका सम्पर्क भारत के क्रान्तिकारियों से हो गया था। पंजाब में जिस दल के साथ वे काम करते थे, उसे हथियार खरीदने के लिए पैसे की आवश्यकता थी। सबने निश्चय किया कि मोगा के सरकारी खजाने को लूटा जाये। योजना बन गयी और 27 नवम्बर, 1914 को दिन के एक बजे 15 नवयुवक तीन इक्कों में सवार होकर फिरोजपुर की ओर चल दिये।

रास्ते मे मिश्रीवाला गाँव पड़ता था। वहाँ थानेदार बशारत अली तथा जेलदार ज्वालसिंह कुछ सिपाहियों के साथ पुलिस अधीक्षक की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब उन्होंने तीन इक्कों पर सवार अलमस्त युवकों को देखा, तो उन्हें रुकने को कहा। जब वे नहीं रुके, तो थानेदार ने एक पुलिसकर्मी को इनके पास भेजा। इस पर वे सब लौटे और बताया कि हम सरकारी कर्मचारी हैं और सेना में रंगरूटों की भर्ती के लिए मोगा जा रहे हैं।

थानेदार ने उन्हें रोक लिया और कहा कि पुलिस अधीक्षक महोदय के आने के बाद ही तुम लोग जा सकते हो। इन नवयुवकों को इतना धैर्य कहाँ था। उनमें से एक जगतसिंह ने पिस्तौल निकाल कर थानेदार और जेलदार दोनों को ढेर कर दिया। बाकी पुलिसकर्मी भागकर गाँव में छिप गये और शोर मचा दिया कि गाँव में डाकुओं ने हमला बोल दिया है।

गोलियों और डाकुओं का शोर सुनकर मिश्रीवाला गाँव के लोग बाहर निकल आये। थोड़ी ही देर में सैकड़ों लोग एकत्र हो गये। उनमें से अधिकांश के पास बन्दूकें, फरसे और भाले जैसे हथियार भी थे। अब तो क्रान्तिवीरों की जान पर बन आयी। उन्होंने भागना ही उचित समझा। छह युवक ‘ओगाकी’ गाँव की ओर भागे और शेष नौ वहीं नहर के आसपास सरकण्डों के पीछे छिप गये।

अब गाँव वाले सरकण्डों के झुण्ड में गोलियाँ चलाने लगे। पुलिस वाले भी उनका साथ दे रहे थे। एक युवक मारा गया। यह देखकर सभी क्रान्तिकारी बाहर आ गये। उन्होंने चिल्लाकर अपनी बात कहनी चाही; पर गाँव वालों की सहायता से पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया। फिरोजपुर के सेशन न्यायालय में मुकदमा चला और 13 फरवरी, 1915 के निर्णय के अनुसार सात लोगों को फाँसी का दण्ड दिया गया। वीर काशीराम भी उनमें से एक थे।

उनकी सारी चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली गयी। इन सबको तीन समूहों में 25, 26 और 27 मार्च, 1915 को फाँसी दे दी गयी। काशीराम को फाँसी 27 मार्च को हुई। यह उनका दुर्भाग्य था कि उन्हें डाकू समझा गया, जबकि वे आजादी के लिए ही बलिदान हुए थे।
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28 मार्च/जन्म-दिवस

सिख पन्थ के सेवक सन्त अतरसिंह

संत अतरसिंह जी का जन्म 28 मार्च, 1866 को ग्राम चीमा (संगरूर, पंजाब) में हुआ था। इनके पिता श्री करमसिंह तथा माता श्रीमती भोली जी थीं। छोटी अवस्था में वे फटे-पुराने कपड़ों के टुकड़ों की माला बनाकर उससे जप करते रहते थे। लौकिक शिक्षा की बात चलने पर वे कहते कि हमें तो बस सत्य की ही शिक्षा लेनी है। 

घर वालों के आग्रह पर उन्होंने गांव में स्थित निर्मला सम्प्रदाय के डेरे में संत बूटा सिंह से गुरुमुखी की शिक्षा ली। कुछ बड़े होकर वे घर में खेती, पशु चराना आदि कामों में हाथ बंटाने लगे। एक साधु ने इनके पैर में पद्मरेखा देखकर इनके संत बनने की भविष्यवाणी की। 

1883 में वे सेना में भर्ती हो गये। घर से सगाई का पत्र आने पर उन्होंने जवाब दिया कि अकाल पुरुख की ओर से विवाह का आदेश नहीं है। 54 पल्टन में काम करते हुए उन्होंने अमृत छका और फिर निष्ठापूर्वक सिख मर्यादा का पालन करने लगे। वे सूर्योदय से पूर्व कई घंटे जप और ध्यान करते थे। 

पिताजी के देहांत से उनके मन में वैराग्य जागा और वे पैदल ही हुजूर साहिब चल दिये। माया मोह से मुक्ति के लिए सारा धन उन्होंने नदी में फेंक दिया। हुजूर साहिब में दो साल और फिर हरिद्वार और ऋषिकेश के जंगलों में जाकर कठोर साधना की। इसके बाद वे अमृतसर तथा दमदमा साहिब गये। 

इसी प्रकार भ्रमण करते वे अपने गांव पहुंचे। मां के आग्रह पर वे वहीं रुक गये। उन्होंने मां से कहा कि जिस दिन तुम मेरे विवाह की चर्चा करोगी, मैं यहां से चला जाऊंगा। मां ने आश्वासन तो दिया; पर एक बार उन्होंने फिर यह प्रसंग छेड़ दिया। इससे नाराज होकर वे चल दिये और सियालकोट जा पहंुचे। इसके बाद सेना से भी नाम कटवा कर वे सभी ओर से मुक्त हो गये।

इसके बाद कनोहे गांव के जंगल में रहकर उन्होंने साधना की। इस दौरान वहां अनेक चमत्कार हुए, जिससे उनकी ख्याति चहुंओर फैल गयी। वे पंथ, संगत और गुरुघर की सेवा, कीर्तन और अमृत छककर पंथ की मर्यादानुसार चलने पर बहुत जोर देते थे। वे कीर्तन में राग के बदले भाव पर अधिक ध्यान देते थे। उन्होंने 14 लाख लोगों को अमृतपान कराया। 

1901 में उन्होंने मस्तुआणा के जंगल में डेरा डालकर उसे एक महान तीर्थ बना दिया। संत जी ने स्वयं लौकिक शिक्षा नहीं पायी थी; पर उन्होंने वहां पंथ की शिक्षा के साथ आधुनिक शिक्षा का भी प्रबंध किया। उन्होंने पंजाब में कई शिक्षा संस्थान स्थापित किये, जिससे लाखों छात्र लाभान्वित हो रहे हैं।

1911 में राजधानी कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित हुई। इस अवसर पर सिख राजाओं ने उनके नेतृत्व और श्री गुरुगं्रथ साहिब की हुजूरी में शाही जुलूस में भाग लिया। जार्ज पंचम के सामने से निकलने पर उन्होंने पद गाया - 

कोउ हरि समान नहीं राजा। 
ऐ भूपति सभ दिवस चार के, झूठे करत नवाजा। 

यह सुनकर जार्ज पंचम भी सम्मानपूर्वक खड़ा हो गया। 1914 में मालवीय जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पहले विद्यालय की नींव संतजी के हाथ से रखवाई। 

माताजी के अंत समय में उन्होंने माताजी को जीवन और मृत्यु के बारे में उपदेश दिया, इससे उनके कष्टों का शमन हुआ। जब गुरुद्वारों के प्रबंध को लेकर पंथ में भारी विवाद हुआ, तो उन्होंने सबको साथ लेकर चलने पर जोर दिया। 

इसी प्रकार पंथ और संगत की सेवा करते हुए 31 जनवरी, 1927 को अमृत समय में ही उनका शरीर शांत हुआ। उनके विचारों का प्रचार-प्रसार कलगीधर ट्रस्ट, बड़ू साहिब के माध्यम से उनके प्रियजन कर रहे हैं।

(संदर्भ : विश्व सदीवी शांति का मार्ग, कलगीधर ट्रस्ट)
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28 मार्च/जन्म-दिवस

राष्ट्रधर्म के प्रथम सम्पादक राजीवलोचन अग्निहोत्री

1947 में देश स्वतन्त्र हुआ; पर उससे पूर्व ही उत्तर प्रदेश में संघ के प्रान्त प्रचारक भाऊराव देवरस तथा सहप्रान्त प्रचारक दीनदयालजी के मन में यह विचार दृढ़ हो चुका था कि संघ विचार के अनुरूप कुछ हिन्दी पत्र निकालने चाहिए। इसी के फलस्वरूप लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन लिमिटेड’ की स्थापना हुई और रक्षाबन्धन (31 अगस्त, 1947) से ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक तथा मकर संक्रान्ति (14 जनवरी, 1948) से ‘पांचजन्य’ साप्ताहिक प्रकाशित होनेे लगा। 
राष्ट्रधर्म के प्रकाशन के लिए सम्पादन का दायित्व जिन दो लोगों पर डाला गया, उनमें से एक थे श्री अटल बिहारी वाजपेयी, जो आगे चलकर भारतीय राजनीति के नक्षत्र पुरुष बने, और दूसरे थे श्री राजीवलोचन अग्निहोत्री। राजीवजी प्रयाग में पढ़ते समय अपनी वक्तृत्व कला और साहित्य प्रेम के कारण छात्रों में लोकप्रिय थे। उनके दो गीत ‘हे आर्यभूमि....’ और ‘प्राची के मुख की अरुण ज्योति ..’ स्वयंसेवकों में बहुत प्रचलित थे। जब वे मस्ती में गर्दन को झटका देकर गीत गाते, तो सब मंत्रमुग्ध हो जाते थे।
छात्र जीवन पूरा कर वे प्रचारक बन गये। उन्हें बस्ती (उत्तर प्रदेश) में भेजा गया। राष्ट्रधर्म की योजना बनने पर उनकी साहित्यिक प्रतिभा को देखते हुए उन्हें लखनऊ बुला लिया गया। राजीवजी ने अपनी योग्यता, प्रतिभा एवं नवोन्मेषी कल्पनाओं से राष्ट्रधर्म और पांचजन्य को नयी ऊंचाइयों तक पहुंचाया। इससे वर्षों से स्थापित अनेक पत्र-पत्रिकाओं की चमक फीकी पड़ गयी। अटलजी और राजीवजी में अत्यधिक प्रेम था, यद्यपि दोनों बहस भी खूब करते थे। प्रायः यह बहस रात को सूखी रोटी और लोटे में बनी पतली गोतामार दाल खाते हुए ही समाप्त होती थी। 
आगे चलकर राजीवजी ने गृहस्थ जीवन अपना लिया और 1952 के पहले आम चुनाव में सतना (म.प्र.) से ‘भारतीय जनसंघ’ के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा। उनके विरुद्ध थे नेहरुजी के निजी सचिव श्री उपाध्याय। दो असमान शक्तियों के इस चुनाव का परिणाम तो निश्चित ही था; पर पराजय से राजीवजी को बहुत झटका लगा। उन्होंने कुछ कर्ज लिया था, जिसे चुकाना बड़ी समस्या थी। फिर पत्नी और बच्चों के दैनन्दिन खर्चे भी सिर पर थे। ऐसे में राजीवलोचन जी ने अपने सहपाठी डा. विद्यानिवास मिश्र के आग्रह पर मध्य प्रदेश सूचना विभाग में नौकरी कर ली।
सूचना विभाग से वे शिक्षा विभाग में गये और रीवां, छतरपुर, इन्दौर और फिर रीवां में संस्कृत के प्राध्यापक बने। उन्होंने शक सम्वत् और विक्रम सम्वत् पर शोध किया तथा उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य पर एक उपन्यास लिखा। ‘संस्कृत साहित्य में बान्धव नरेशों की देन’ पर उन्हें 1957 में हिन्दी का उस समय का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था। महाराजा विश्वनाथ सिंह कृत हिन्दी के प्रथम नाटक ‘आनन्द रघुनन्दन’ तथा कालांजर और बान्धवगढ़ दुर्गों पर भी उन्होंने शोध कार्य किया था। 
राजीवजी को राधावल्लभीय भाष्य के अनुवाद पर भी ‘देव पुरस्कार’ मिला था। संस्कृत प्रेमी होने के कारण छात्र जीवन में भी संस्कृत रचनाओं पर वे स्वर्ण पदक पा चुके थे। विक्रम विश्वविद्यालय ने उन्हें पी-एच.डी. की उपाधि दी थी। बलिपथ (कविता संग्रह), सुषमा (कहानी संग्रह) तथा विन्ध्य का साहित्य (निबन्ध संग्रह) उनकी प्रमुख रचनाएं हैं। ग्राम रजवार (सतना, म.प्र.) में 28 मार्च, 1920 (श्रीरामनवमी) को जन्मे डा. राजीवलोचन अग्निहोत्री का 15 अक्तूबर, 1983 (दुर्गाष्टमी) को भीषण हृदयाघात से देहान्त हो गया।
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29 मार्च/पुण्य-तिथि

सेवा और समर्पण के साधक गुरु अंगददेव

सिख पन्थ के दूसरे गुरु अंगददेव का असली नाम ‘लहणा’ था। उनकी वाणी में जीवों पर दया, अहंकार का त्याग, मनुष्य मात्र से प्रेम, रोटी की चिन्ता छोड़कर परमात्मा की सुध लेने की बात कही गयी है। वे उन सब परीक्षाओं में सफल रहे, जिनमें गुरु नानक के पुत्र और अन्य दावेदार विफल ह¨ गये थे।

गुरु नानक ने उनकी पहली परीक्षा कीचड़ से लथपथ घास की गठरी सिर पर रखवा कर ली। फिर गुरु जी ने उन्हें धर्मशाला से मरी हुई चुहिया उठाकर बाहर फेंकने को कहा। उस समय इस प्रकार का काम शूद्रों का माना जाता था। तीसरी बार मैले के ढेर में से कटोरा निकालने को कहा। गुरु नानक के दोनों पुत्र इस कार्य को करने के लिए तैयार नहीं हुए। 

इसी तरह गुरु जी ने लहणा को सर्दी की रात में धर्मशाला की टूटी दीवार बनाने को कहा। वर्षा और तेज हवा के बावजूद उन्होंने दीवार बना दी। गुरु जी ने एक बार उन्हें रात को कपड़े धोने को कहा, तो घोर सर्दी में रावी नदी पर जाकर उन्होंने कपड़े धो डाले। एक बार उन्हें शमशान में मुर्दा खाने को कहा, तो वे तैयार हो गये। इस पर गुरु जी ने उन्हें गले लगा कर कहा - आज से तुम मेरे अंग हुए। तभी से उनका नाम अंगददेव हो गया। 

गुरु अंगददेव का जन्म मुक्तसर, पंजाब में ‘मत्ते दी सराँ’ नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम फेरुमल और माता का दयाकौरि था। फेरुमल फारसी और बही खातों के विद्वान थे। कुछ वर्ष फिरोजपुर के हाकिम के पास नौकरी के बाद उन्होंने अपना व्यवसाय प्रारम्भ किया। 

15 वर्ष की अवस्था में लहणा का विवाह संघर (खडूर) के साहूकार देवीचन्द की पुत्री बीबी खीबी से हुआ। उनके परिवार में दो पुत्र और दो पुत्रियाँ थीं। बाबा फेरुमल हर वर्ष जत्था लेकर वैष्णो देवी जाते थे। कई बार लहणा भी उनके साथ गये। 

सन् 1526 में पिता की मृत्यु के बाद दुकान का भार पूरी तरह लहणा पर आ गया। अध्यात्म के प्रति रुचि होने के कारण एक दिन लहणा ने भाई जोधा के मुख से गुरु नानक की वाणी सुनी। वे इससे बहुत प्रभावित हुए। उनके मन में गुरु नानक के दर्शन की प्यास जाग गयी। वे करतारपुर जाकर गुरु जी से मिले। इस भेंट से उनका जीवन बदल गया। 

सात वर्ष तक गुरु नानक के साथ रहने के बाद उन्होंने गुरु गद्दी सँभाली। वे इस पर सितम्बर, 1539 से मार्च, 1552 तक आसीन रहे। उन्हांेने खडूर साहिब क¨ धर्म प्रचार का केन्द्र बनाया। सिख पन्थ के इतिहास में गुरु अंगददेव का विशिष्ट स्थान है। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती गुरु नानक की वाणी और उनकी जीवनी को लिखा। 

उन दिनों हिन्दुओं में ऊँच-नीच, छुआछूत और जाति-पाँति के भेद अत्यधिक थे। गुरु अंगददेव ने लंगर की प्रथा चलाई, जिसमें सब एक साथ पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। पश्चिम से होने वाले मुस्लिम आक्रमणों का पहला वार पंजाब को ही झेलना पड़ता था। इनसे टक्कर लेने के लिए गुरु अंगददेव ने गाँव-गाँव में अखाड़े खोलकर युवकों की टोलियाँ तैयार कीं। उन्होंने गुरुमुखी लिपि का निर्माण कर पंजाबी भाषा को समृद्ध किया। 

बाबा अमरदास को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी बनाया, जिन्होंने उनकी वाणी को भी श्री गुरु ग्रन्थ साहब के लिए लिपिबद्ध किया। सेवा और समर्पण के अनुपम साधक गुरु अंगददेव 29 मार्च, 1552 को इस दुनिया से प्रयाण कर गये।
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29 मार्च/जन्म-दिवस

नयी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर भवानी प्रसाद मिश्र

साहित्य के क्षेत्र में कविता सबसे प्राचीन एवं लोकप्रिय विधा है, चूँकि इसमें कम शब्दों में बड़ी बात कही जा सकती है। काव्य को अनुशासित रखने हेतु व्याकरण के आचार्यों ने छन्द शास्त्र का विधान किया है; पर छन्द की बजाय भावना को प्रमुख मानने वाले अनेक कवि इस छन्दानुशासन से बाहर जाकर कविताएँ लिखते हैं। इस विधा को ‘नयी कविता’ कहा जाता है।

नयी कविता के क्षेत्र में ‘भवानी भाई’ के नाम से प्रसिद्ध श्री भवानी प्रसाद मिश्र का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उनका जन्म 29 मार्च, 1913 को ग्राम टिकोरेया (होशंगाबाद, मध्य प्रदेश) में हुआ था। 

काव्य रचना की ओर उनका रुझान बचपन से था। छात्र जीवन में ही उनकी कविताएं पंडित ईश्वरी प्रसाद वर्मा की पत्रिका ‘हिन्दूपंच’ तथा श्री माखनलाल चतुर्वेदी की पत्रिका ‘कर्मवीर’ में छपने लगी थीं। 1930 से तो वे स्थानीय मंचों पर काव्य पाठ करने लगे; पर उन्हें प्रसिद्धि और उनकी कविता को धार जबलपुर में आकर मिली।

1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के समय वे पौने तीन साल जेल में रहे। वहां उनका सम्पर्क मध्य प्रदेश के स्वाधीनता सेनानियों से हुआ। जेल से छूटकर 1946 में वे वर्धा के महिलाश्रम में शिक्षक हो गये। इसके बाद कुछ समय उन्होंने दक्षिण में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार सभा’ का कार्य किया। फिर वे भाग्यनगर (हैदराबाद) से प्रकाशित प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ में सम्पादक हो गये। वैचारिक स्वतंत्रता के समर्थक होने के नाते 1975 में लगे आपातकाल का उन्होंने प्रतिदिन तीन कविताएं लिखकर विरोध किया। 

काव्य और लेखन में प्रसिद्ध होने के बाद उनका रुझान फिल्म लेखन की ओर हुआ; क्योंकि इससे बहुत जल्दी धन और प्रसिद्धि मिलती है। तीन वर्ष हैदराबाद में रहने के बाद वे मुम्बई और फिर चेन्नई गये, जहाँ उन्होंने फिल्मों में संवाद लेखन का कार्य किया; पर इसमें उन्हें बहुत यश नहीं मिला, अतः वे दिल्ली में आकाशवाणी से जुड़ गये। 1975 से पूर्व हुए आन्दोलन के समय उन्होंने बीमार होते हुए भी जयप्रकाश जी की कई सभाओं में भाग लिया।

दूसरे ‘तार सप्तक’ में प्रकाशित भवानी भाई के काव्य में शब्दों की सरलता और प्रवाह का अद्भुत सामंजस्य मिलता है। उन्होंने कई नये व युवा कवियों को आगे भी बढ़ाया। उनकी एक प्रसिद्ध कविता की पंक्तियाँ हैं -

जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।।

नर्मदा, विन्ध्याचल और सतपुड़ा से उन्हें बहुत स्नेह था। इस कारण प्रकृति की छाया उनकी रचनाओं में सर्वत्र दिखायी देती है। उन्होंने 12 काव्य संग्रहों का सृजन किया; जिसमें गीत फरोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएँ, गांधी पंचशती, खुशबू के शिलालेख, परिवर्तन के लिए, त्रिकाल सन्ध्या, अनाम तुम आते हो...आदि प्रमुख हैं। उन्होंने अनेक निबन्ध, संस्मरण तथा बच्चों के लिए तुकों के खेल जैसी पुस्तकें भी लिखीं। 

‘बुनी हुई रस्सी’ पर उन्हें 1972 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उ.प्र. हिन्दी संस्थान तथा मध्य प्रदेश शासन ने भी उन्हें शिखर सम्मानों से विभूषित किया।

पद्म श्री से सम्मानित भवानी भाई की हृदय रोग से पीडि़त होने के बाद भी सक्रियता कम नहीं हुई। कई वर्ष तक वे ‘पेसमेकर’ के सहारे काम चलाते रहे; पर 20 फरवरी, 1985 को अपने गृहनगर नरसिंहपुर में अपने पैतृक घर में ही भीषण हृदयाघात से उनका देहान्त हो गया।
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30 मार्च/जन्म-दिवस

आदर्श कार्यकर्ता अप्पा जी जोशी

एक बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने कार्यकर्ता  बैठक में कहा कि क्या केवल संघकार्य किसी के जीवन का ध्येय नहीं बन सकता ? यह सुनकर हरिकृष्ण जोशी ने उन 56 संस्थाओं से त्यागपत्र दे दिया, जिनसे वे सम्बद्ध थे। यही बाद में ‘अप्पा जी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

30 मार्च, 1897 को महाराष्ट्र के वर्धा में जन्मे अप्पा जी ने क्रांतिकारियों तथा कांग्रेस के साथ रहकर काम किया। कांग्रेस के कोषाध्यक्ष जमनालाल बजाज के वे निकट सहयोगी थे; पर डा. हेडगेवार के सम्पर्क में आने पर उन्होंने बाकी सबको छोड़ दिया। डा. हेडगेवार, श्री गुरुजी और बालासाहब देवरस, इन तीनों सरसंघचालकों के दायित्वग्रहण के समय वे उपस्थित थे।

उनका बचपन बहुत गरीबी में बीता। उनके पिता एक वकील के पास मुंशी थे। उनके 12 वर्ष की अवस्था में पहुँचते तक पिताजी, चाचाजी और तीन भाई दिवंगत हो गये। ऐसे में बड़ी कठिनाई से उन्होंने कक्षा दस तक पढ़ाई की। 1905 में बंग-भंग आन्दोलन से प्रभावित होकर वे स्वाधीनता समर में कूद गये। 1906 में लोकमान्य तिलक के दर्शन हेतु जब वे विद्यालय छोड़कर रेलवे स्टेशन गये, तो अगले दिन अध्यापक ने उन्हें बहुत मारा; पर इससे उनके अन्तःकरण में देशप्रेम की ज्वाला और धधक उठी।

14 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया और वे भी एक वकील के पास मुंशी बन गये; पर सामाजिक कार्यों के प्रति उनकी सक्रियता बनी रही। वे नियमित अखाड़े में जाते थे। वहीं उनका सम्पर्क संघ के स्वयंसेवक श्री अण्णा सोहनी और उनके माध्यम से डा. हेडगेवार से हुआ। डा. जी बिना किसी को बताये देश भर में क्रान्तिकारियों को विभिन्न प्रकार की सहायता सामग्री भेजते थे, उसमें अप्पा जी उनके विश्वस्त सहयोगी बन गये। कई बार तो उन्होंने स्त्री वेष धारणकर यह कार्य किया।

दिन-रात कांग्रेस के लिए काम करने से उनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी। यह देखकर कांग्रेस के कोषाध्यक्ष जमनालाल बजाज ने इन्हें कांग्रेस के कोष से वेतन देना चाहा; पर इन्होंने मना कर दिया। 1947 के बाद जहाँ अन्य कांग्रेसियों ने ताम्रपत्र और पेंशन ली, वहीं अप्पा जी ने यह स्वीकार नहीं किया। आपातकाल में वे मीसा में बन्द रहे; पर उससे भी उन्होंने कुछ लाभ नहीं लिया। वे देशसेवा की कीमत वसूलने को पाप मानते थे।

एक बार कांग्रेस के काम से अप्पा जी नागपुर आये। तब डा. हेडगेवार के घर में ही बैठक के रूप में शाखा लगती थी। अप्पा जी ने उसे देखा और वापस आकर 18 फरवरी, 1926 को वर्धा में शाखा प्रारम्भ कर दी। यह नागपुर के बाहर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहली शाखा थी। डा. हेडगेवार ने स्वयं उन्हें वर्धा जिला संघचालक का दायित्व दिया था।

नवम्बर, 1929 में नागपुर में प्रमुख कार्यकर्ताओं की एक बैठक में सबसे परामर्श कर अप्पा जी ने निर्णय लिया कि डा. हेडगेवार संघ के सरसंघचालक होने चाहिए। 10 नवम्बर शाम को जब सब संघस्थान पर आये, तो अप्पा जी ने सबको दक्ष देकर ‘सरसंघचालक प्रणाम एक-दो-तीन’ की आज्ञा दी। सबके साथ डा. जी ने भी प्रणाम किया। इसके बाद अप्पा जी ने घोषित किया कि आज से डा. जी सरसंघचालक बन गये हैं।

1934 में गांधी जी को वर्धा के संघ शिविर में अप्पा जी ही लाये थे। 1946 में वे सरकार्यवाह बने। अन्त समय तक सक्रिय रहते हुए 21 दिसम्बर, 1979 को अप्पा जी जोशी का देहान्त हुआ।
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30 मार्च/पुण्य-तिथि      

सागरपार भारतीय क्रान्ति के दूत श्यामजी कृष्ण वर्मा

भारत के स्वाधीनता संग्राम में जिन महापुरुषों ने विदेश में रहकर क्रान्ति की मशाल जलाये रखी, उनमें श्यामजी कृष्ण वर्मा का नाम अग्रणी है। चार अक्तूबर, 1857 को कच्छ (गुजरात) के मांडवी नगर में जन्मे श्यामजी पढ़ने में बहुत तेज थे।

इनके पिता श्रीकृष्ण वर्मा की आर्थिक स्थिति अच्छी न थी; पर मुम्बई के सेठ मथुरादास ने इन्हें छात्रवृत्ति देकर विल्सन हाईस्कूल में भर्ती करा दिया। वहाँ वे नियमित अध्ययन के साथ पंडित विश्वनाथ शास्त्री की वेदशाला में संस्कृत का अध्ययन भी करने लगे।

मुम्बई में एक बार महर्षि दयानन्द सरस्वती आये। उनके विचारों से प्रभावित होकर श्यामजी ने भारत में संस्कृत भाषा एवं वैदिक विचारों के प्रचार का संकल्प लिया। ब्रिटिश विद्वान प्रोफेसर विलियम्स उन दिनों संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोष बना रहे थे। श्यामजी ने उनकी बहुत सहायता की। इससे प्रभावित होकर प्रोफेसर विलियम्स ने उन्हें ब्रिटेन आने का निमन्त्रण दिया। वहाँ श्यामजी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक नियुक्त हुए; पर स्वतन्त्र रूप से उन्होंने वेदों का प्रचार भी जारी रखा।

कुछ समय बाद वे भारत लौट आये। उन्होंने मुम्बई में वकालत की तथा रतलाम, उदयपुर व जूनागढ़ राज्यों में काम किया। वे भारत की गुलामी से बहुत दुखी थे। लोकमान्य तिलक ने उन्हें विदेशों में स्वतन्त्रता हेतु काम करने का परामर्श दिया। इंग्लैण्ड जाकर उन्होंने भारतीय छात्रों के लिए एक मकान खरीदकर उसका नाम इंडिया हाउस (भारत भवन) रखा। शीघ्र ही यह भवन क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बन गया। उन्होंने राणा प्रताप और शिवाजी के नाम पर छात्रवृत्तियाँ प्रारम्भ कीं।

1857 के स्वातंत्र्य समर का अर्धशताब्दी उत्सव ‘भारत भवन’ में धूमधाम से मनाया गया। उन्होंने ‘इंडियन सोशियोलोजिस्ट’ नामक समाचार पत्र भी निकाला। उसके पहले अंक में उन्होंने लिखा - मनुष्य की स्वतन्त्रता सबसे बड़ी बात है, बाकी सब बाद में। उनके विचारों से प्रभावित होकर वीर सावरकर, सरदार सिंह राणा और मादाम भीकाजी कामा उनके साथ सक्रिय हो गये। लाला लाजपत राय, विपिनचन्द्र पाल आदि भी वहाँ आने लगे।

विजयादशमी पर्व पर ‘भारत भवन’ मंे वीर सावरकर और गांधी जी दोनों ही उपस्थित हुए। जलियाँवाला बाग हत्याकाण्ड के अपराधी माइकेल ओ डायर का वध करने वाले ऊधमसिंह के प्रेरणास्रोत श्यामजी ही थे। अब वे शासन की निगाहों में आ गये, अतः वे पेरिस चले गये। वहाँ उन्होंने ‘तलवार’ नामक अखबार निकाला तथा छात्रों के लिए ‘धींगरा छात्रवृत्ति’ प्रारम्भ की।

भारतीय क्रान्तिकारियों के लिए शस्त्रों का प्रबन्ध मुख्यतः वे ही करते थे। भारत में होने वाले बमकांडों के तार उनसे ही जुड़े थे। अतः पेरिस की पुलिस भी उनके पीछे पड़ गयी। उनके अनेक साथी पकड़े गये। उन पर भी ब्रिटेन में राजद्रोह का मुकदमा चलाया जाने लगा। अतः वे जेनेवा चले गये। 30 मार्च, 1930 को श्यामजी ने और 22 अगस्त, 1933 को उनकी धर्मपत्नी भानुमति ने मातृभूमि से बहुत दूर जेनेवा में ही अन्तिम साँस ली। 

श्यामजी की इच्छा थी कि स्वतन्त्र होने के बाद ही उनकी अस्थियाँ भारत में लायी जायें। उनकी यह इच्छा 73 वर्ष तक अपूर्ण रही। अगस्त, 2003 में गुजरात के मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी उनके अस्थिकलश लेकर भारत आये।
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30 मार्च/जन्म-दिवस
बौद्धिक योद्धा देवेन्द्र स्वरूपजी

बौद्धिक जगत में संघ और हिन्दुत्व के विचार को प्रखरता से रखने वाले देवेन्द्र स्वरूपजी का जन्म 30 मार्च, 1926 को उ.प्र. में मुरादाबाद के पास कांठ नामक कस्बे में हुआ था। कांठ और चंदौसी के बाद उन्होंने काशी हिन्दू वि.वि. से बी.एस-सी. किया। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागी होने के कारण वे दो बार विद्यालय से निष्कासित किये गये। 1947 से 1960 तक वे संघ के प्रचारक तथा 1948 के प्रतिबंध काल में छह माह जेल में रहे।

बौद्धिक प्राणी होने के कारण संघ की योजना से 1958 में वे लखनऊ से प्रकाशित साप्ताहिक पांचजन्य के संपादक बने। लखनऊ वि.वि. से इतिहास में एम.ए. कर 1964 में वे डी.ए.वी (पी.जी) काॅलिज, दिल्ली में इतिहास के प्राध्यापक हो गये। 1966-67 में वे अ.भा.विद्यार्थी परिषद के प्रदेश अध्यक्ष तथा 1968 से 72 तक अध्यापक के साथ पांचजन्य के अवैतनिक संपादक भी रहे। आपातकाल में वे एक बार फिर जेल गये। 1980 से 94 तक वे दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक तथा फिर उपाध्यक्ष रहे। वहां से हिन्दी और अंग्रेजी में प्रकाशित त्रैमासिक शोध पत्रिका मंथनका भी उन्होंने संपादन किया। इतिहासज्ञ होने के नाते वे भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद से भी जुड़े रहे।

संघ साहित्य के निर्माण में देवेन्द्रजी ने बहुत समय लगाया। हमारे रज्जू भैया, राष्ट्र ऋषि नानाजी देशमुख, सभ्यताओं के संघर्ष में भारत कहां, अखंड भारत, गांधीजी: हिन्द स्वराज से नेहरू तक, संस्कृति एक: नाम-रूप अनेक, अयोध्या का सच, संघ: बीज से वृक्ष, संघ: राजनीति और मीडिया, जातिविहीन समाज का सपना, राष्ट्रीय शिक्षा आंदोलन का इतिहास, भारतीय संविधान की औपनिवेशिक पृष्ठभूमि आदि उनकी प्रसिद्ध पुस्तकें हैं। इसके साथ ही सैकड़ों पत्र-पत्रिकाओं तथा स्मारिकाओं में प्रकाशित हजारों लेख तो हैं ही।

राममंदिर आंदोलन के दौरान मुस्लिम पक्ष की ओर से वामपंथी खड़े होते थे। उनके सामने तथ्य और तर्कों से लैस देवेन्द्रजी की टीम होती थी। अतः हर बार विपक्षी भाग खड़े होते थे। शासकीय वार्ताओं से लेकर न्यायालय तक में मंदिर पक्ष को ऐतिहासिक तथ्य उन्होंने ही उपलब्ध कराये। 1991 में अध्यापन कार्य से सेवानिवृत्त होकर वे पूरी तरह लिखने-पढ़ने में ही लग गये।

देवेन्द्रजी ने आजीवन सदा सत्य ही लिखा। इसीलिए पांचजन्य में पाठक सबसे पहले उनका मंथननामक स्तम्भ ही पढ़ते थे। सुदर्शनजी ने 1990 में बुद्धिजीवियों को एकत्र करने का प्रज्ञा प्रवाहनामक कार्य शुरू किया। अब यह काम पूरे देश में चल रहा है। दिल्ली में देवेन्द्रजी इसके सूत्रधार थे। सीताराम गोयल, रामस्वरूपजी तथा गिरिलाल जैन आदि इसी से संपर्क में आये।

बौद्धिक योद्धा होते हुए भी सादगी एवं विनम्रता उनकी बड़ी विशेषता थी। वे पद, प्रतिष्ठा और मान-सम्मान से सदा दूर रहते थे। लखनऊ में वे पहला वचनेश त्रिपाठी स्मृति व्याख्यानदेने आये। वहां वे इस बात से नाराज हुए कि उन्हें संघ कार्यालय की बजाय होटल में क्यों ठहराया गया ? आयोजकों के बहुत आग्रह पर उन्होंने केवल मार्गव्यय स्वीकार किया, मानदेय नहीं।

दिल्ली में वे मयूर विहार के सहयोग अपार्टमेंट में सबसे ऊंची मंजिल वाले घर में रहते थे। वहां छत पर उनके निजी पुस्तकालय में हजारों पुस्तकें थीं। किसी भी नयी महत्वपूर्ण पुस्तक के आते ही वे उसे खरीद लेते थे। उनका हर कमरा, यहां तक की सीढि़यां भी किताबों और पत्र-पत्रिकाओं से भरी रहती थी। ताजा खबरों के लिए वे प्रतिदिन 12-15 अखबार भी पढ़ते थे।

वयोवृद्ध होने पर वे अपने बेटे के पास भिवाड़ी (राजस्थान) चले गये। मकर संक्रांति (14 जनवरी, 2019) को दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में उनका निधन हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी देहदान कर दी गयी। शासन ने उनके बौद्धिक अवदान के लिए उन्हें मृत्योपरांत पद्म श्रीसे सम्मानित किया।
 (संदर्भ : पांचजन्य 27.1.19, साहित्य अमृत अपै्रल 2019)
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31 मार्च/पुण्य-तिथि      

संघनिष्ठ नानासाहब भागवत

श्री नारायण पांडुरंग (नानासाहब) भागवत मूलतः महाराष्ट्र में चंद्रपुर जिले के वीरमाल गांव के निवासी थे। वहां पर ही उनका जन्म 1884 में हुआ था। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वे अपने मामा जी के घर नागपुर काटोल पढ़ने आ गये। आगे चलकर उन्होंने प्रयाग (उ.प्र.) से कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा चंद्रपुर के पास वरोरा में कारोबार करने लगे। इसी दौरान उनका संपर्क संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुआ।

वरोरा उन दिनों कांग्रेस की गतिविधियों का एक बड़ा केन्द्र था। नानासाहब कांग्रेस की प्रांतीय समिति के सदस्य थे। 1930 में सारा परिवार चंद्रपुर आकर रहने लगा। चंद्रपुर के जिला न्यायालय में वकालत करते हुए नानासाहब की घनिष्ठता तिलक जी के अनुयायी बलवंतराव देशमुख से हुई। अतः उनके मन में भी देश, धर्म और संस्कृति के प्रति अतीव निष्ठा जाग्रत हो गयी। 

जब डा. हेडगेवार ने चंद्रपुर में शाखा प्रारम्भ की, तब तक नानासाहब की ख्याति एक अच्छे वकील के रूप में हो चुकी थी; पर डा. जी से भेंट होते ही अपने सब बड़प्पन छोड़कर नानासाहब उनके अनुयायी बन गये। 

नानासाहब बहुत जल्दी गुस्सा हो जाते थे। लोग उनके पास मुकदमे लेकर आते थे। यदि उस मुकदमे में जीतने की संभावना नहीं दिखाई देती थी, तो नाना साहब साफ बता देते थे। फिर भी उनके प्रति विश्वास अत्यधिक था। अतः लोग यह कहकर उन्हें ही कागज सौंपते थे कि यदि हमारे भाग्य में पराजय ही है, तो वही स्वीकार कर लेंगे; पर हमारा मुकदमा आप ही लड़ेंगे।

संघ में सक्रिय होने के बावजूद चंद्रपुर के मुसलमान तथा ईसाइयों का उन पर बहुत विश्वास था। वे अपने मुकदमे उन्हें ही देते थे। उनके घर से नानासाहब के लिए मिठाई के डिब्बे भी आते थे; पर ऐसे शीघ्रकोपी स्वभाव के नानासाहब संघ की शाखा में बाल और शिशु स्वयंसेवकों से बहुत प्यार से बोलते थे। डा. हेडगेवार के साथ उनका लगातार संपर्क बना रहता था। उनकी ही तरह नानासाहब ने भी अपने स्वभाव में काफी परिवर्तन किया।

एक वरिष्ठ वकील होते हुए भी वे घर-घर से बालकों को बुलाकर शाखा में लाते थे। उनके बनाये हुए अनेक स्वयंसेवक आगे चलकर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता बने। 1935 में उन्हें चंद्रपुर का संघचालक बनाया गया। संघ के सब प्रचारक तथा कार्यकर्ता उनके घर पर आते थे। संघ की बैठकें भी वहीं होती थीं। 1950 से 60 तक वहां संघ का कार्यालय भी नहीं था। ऐसे में पूरे जिले से आने वाले कार्यकर्ता उनके घर पर ही ठहरते और भोजन आदि करते थे। 

नानासाहब ने संघ के संस्कार अपने घर में भी प्रतिरोपित किये। उनके एक पुत्र मधुकरराव गुजरात में प्रचारक थे। इस दौरान उनके दूसरे पुत्र मनोहर का देहांत हो गया। सबकी इच्छा थी कि ऐसे में मधुकरराव को घर वापस आ जाना चाहिए; पर नानासाहब ने इसके लिए कोई आग्रह नहीं किया। 

मधुकरराव इसके बाद भी अनेक वर्ष प्रचारक रहे और गुजरात के प्रांत प्रचारक बने। युवावस्था का काफी समय प्रचारक के रूप में बिताकर वे घर आये और गृहस्थ जीवन स्वीकार किया। घर पर रहते हुए भी उनकी सक्रियता लगातार बनी रही। उनके पुत्र श्री मोहन भागवत आजकल हमारे सरसंघचालक हैं।

नानासाहब ने आजीवन संघ कार्य किया। इसके साथ ही अपने पुत्र एवं पौत्र को भी इसकी प्रेरणा दी। ऐसे श्रेष्ठ एवं आदर्श गृहस्थ कार्यकर्ता नारायण पांडुरंग भागवत का 31 मार्च, 1971 को देहांत हुआ। 

(संदर्भ : साप्ताहिक विवेक, मुंबई द्वारा प्रकाशित संघ गंगोत्री)
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31 मार्च/जन्म-दिवस      

शिक्षाप्रेमी जयगोपाल गाडोदिया

अभाव और कठिनाइयों में अपने जीवन का प्रारम्भ करने वाले जयगोपाल गाडोदिया का जन्म 31 मार्च, 1931 को सुजानगढ़ (जिला चुरू, राजस्थान) में हुआ था। गरीबी के कारण उन्हें विद्यालय में पढ़ने का अवसर नहीं मिला। इतना ही नहीं, तो प्रायः उन्हें दोनों समय पेट भर भोजन भी नहीं मिलता था। 

इन अभावों से उनके मन में समाज के निर्धन वर्ग के प्रति संवेदना का जन्म हुआ। स्वामी विवेकानंद के विचारों का उनके मन पर बहुत प्रभाव था। आगे चलकर जब अपने परिश्रम और प्रभु की कृपा से उन्होंने धन कमाया, तो उसे इन अभावग्रस्त बच्चों की शिक्षा में ही लगा दिया।

दस साल की अवस्था में वे पैसा कमाने के लिए कोलकाता आ गये। यहां काम करते हुए उन्होंने कुछ लिखना व पढ़ना सीखा। काम के लिए देश भर में घूमने से उन्हें निर्धन और निर्बल वर्ग की जमीनी सच्चाइयों का पता लगा। अतः उन्होंने ‘जयगोपाल गाडोदिया फाउंडेशन’ की स्थापना की तथा उसके माध्यम से चेन्नई में रहकर अनेक सामाजिक गतिविधियों का संचालन करने लगे।

उनका विचार था कि बच्चा चाहे निर्धन हो या धनवान, उसमें कुछ प्रतिभा अवश्य होती है, जिसे उचित प्रशिक्षण से संवारा और बढ़ाया जा सकता है। अतः उन्होंने कॉमर्स, अर्थशास्त्र, गणित, खेल, युवा वैज्ञानिक, संस्कृति, संगीत, खगोल विज्ञान, फोटो पत्रकारिता, शतरंज जैसे विषयों के लिए अकादमियों की स्थापना की। इनमें बच्चों को उनकी रुचि के अनुसार प्रशिक्षण दिया जाता था। 

1973 में उन्होंने ‘जयगोपाल गाडोदिया विवेकानंद विद्यालय न्यास’ की स्थापना कर चेन्नई, बंगलौर तथा मैसूर के आसपास 23 विद्यालय प्रारम्भ किये। इनमें 60,000 छात्रों को निःशुल्क शिक्षा व पुस्तकें दी जाती हैं। प्रतिवर्ष वे 18 लाख रु. की छात्रवृत्ति भी वितरित करते थे। अतः उनके सम्पर्क में आये किसी छात्र को धनाभाव के कारण बीच में ही पढ़ाई छोड़ने की नौबत नहीं आती थी। लड़कियों की शिक्षा पर भी उनका विशेष ध्यान रहता था।

श्री गाडोदिया का प्रत्येक विद्यालय आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण रहता है। उन्होंने संस्थान के प्रत्येक छात्र के लिए एक निजी कम्प्यूटर की व्यवस्था की। हर विद्यालय में एक ‘बुक बैंक’ रहता है, जिससे किसी छात्र को पुस्तक का अभाव न हो। इस बैंक से 35,000 छात्र लाभ उठाते हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में उनकी सफल योजनाओं को देखकर तमिलनाडु सरकार ने अपने कुछ विद्यालयों की दशा सुधारने के लिए उन्हें आमन्त्रित किया। श्री गाडोदिया ने इसे सहर्ष स्वीकार कर 11 विद्यालयों का कायाकल्प किया। विशेष बात यह भी थी कि ये सब विद्यालय बालिकाओं के थे। 

श्री गाडोदिया ने बालिका शिक्षा के साथ ही विधवा व बेसहारा महिलाओं के उत्थान के भी अनेक प्रकल्प प्रारम्भ किये। उनके कुछ केन्द्रों पर गूंगे, बहरे तथा शारीरिक रूप से अशक्त युवाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाता था। सैनिकों के प्रति आदरभाव के कारण उन्होंने करगिल युद्ध के समय प्रधानमंत्री द्वारा गठित सहायता कोष में भरपूर योगदान दिया।

उनके उल्लेखनीय काम के लिए उन्हें अनेक मान-सम्मानों से अलंकृत किया गया। वे शिक्षा के दान को सबसे बड़ा दान मानते थे। अतः उन्होंने अपने परिश्रम और योग्यता से अर्जित धन को इसी क्षेत्र में खर्च किया। इसके साथ ही वे अपने धनी मित्रों को भी इसके लिए प्रेरित करते रहते थे। 

श्री गाडोदिया निःसंतान थे। 1986 में अपनी पत्नी श्रीमती सीतादेवी के देहांत के बाद उन्होंने सम्पूर्ण सम्पत्ति अपने न्यास को सौंप दी, जिससे उनके देहांत के बाद भी इन योजनाओं को धन की कमी न हो। ऐसे समाजसेवी व शिक्षाप्रेमी का दो अपै्रल, 2010 को चेन्नई में ही निधन हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य 25.4.2010)

3 टिप्‍पणियां:

  1. भाईसाहब इसको पीडीएफ फाइल में भी बनवा दीजिए।

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  2. 🙏 27 मार्च के क्रांतिवीर काशीराम के जीवनवृत्त में जन्मवर्ष 1881 की बजाय 1981 लिखा है, कृपया सुधार करें, धन्यवाद

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