मार्च तीसरा सप्ताह

16 मार्च/जन्म-दिवस

संवेदनशील व्यक्तित्व सीताराम अग्रवाल

सेवा के लिए संवेदना आवश्यक है। ऐसे ही एक संवेदनशील व्यक्ति थे विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय मंत्री तथा सेवा प्रमुख श्री सीताराम अग्रवाल, जिनका जन्म 16 मार्च, 1924 को औरैया (इटावा, उ.प्र.) में श्री भजनलाल एवं श्रीमती चंदा देवी के घर में हुआ था। 

1942 में वे ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में सक्रिय हुए। सुभाष चंद्र बोस से वे बहुत प्रभावित थे। आगरा में वीर सावरकर के सामने उन्होंने देश न बंटने देने की प्रतिज्ञा ली थी। वहीं बी.एस-सी. के दौरान श्री दीनदयाल उपाध्याय, नाना जी देशमुख तथा विभाग प्रचारक भाऊजी जुगादे से सम्पर्क के कारण वे संघ में सक्रिय हो गये। इस दौरान उन्होंने विभिन्न दायित्व लेकर काम किया।

छात्र जीवन में सब तरह के विद्यार्थियों से मित्रता होती है। उनके एक मित्र राणाप्रताप सिंह संघ के घोर विरोधी थे; पर जब वे बीमार हुए, तो सीताराम जी ने उनकी भरपूर सेवा की। फलतः वे भी स्वयंसेवक बन गयेे और आगे चलकर उ.प्र. में सरस्वती शिशु मंदिर कार्य के आधार स्तम्भ बने। 

बी.एस-सी. के बाद कानपुर से रसायन अभियन्ता की शिक्षा पूरी कर वे विस्तारक हो गये। परिवार केे आग्रह पर उन्होंने इस शर्त के साथ विवाह किया कि पहले दो वर्ष प्रचारक रहेंगेे। 1947 में वे मैनपुरी में प्रचारक थे। 30 जनवरी, 1948 को गांधी जी की हत्या के बाद वे वहीं छह माह जेल में रहे। बाहर आकर उन्होंने फिर सत्याग्रह कर दिया। प्रतिबंध हटने पर भाऊराव देवरस की आज्ञा पर अलीगढ़ में घर रहकर संघ कार्य करते हुए रसायन शास्त्र में एम.एस-सी. किया। इसके बाद वे बदायूं (उ.प्र.) में अध्यापक हो गये।

1957 में जे.के.रेयन फैक्ट्री, कोटा (राजस्थान) में उन्हें काम मिल गया। 1967 में वहां उन्होंने वि.हि.प. की इकाई स्थापित कर 1970 में हाड़ौती में एक भव्य सम्मेलन कराया। आपातकाल में कोटा की झुग्गियों में कई बाल संस्कार केन्द्र, एक विद्यालय, चिकित्सालय तथा हनुमान मंदिर स्थापित कराये। 1979 में प्रयाग के ‘द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मेलन’ में वे 70 प्रमुख लोगों के साथ आये। 1982-83 में फैक्ट्री में मजदूर आंदोलन के कारण उनकी नौकरी छूट गयी। तब तक उनके दोनों बेटे काम में लग गये थे, अतः उन्होंने पूरा समय वि.हि.प. के कार्य में लगाने का निर्णय किया। 

1983 की ‘एकात्मता यात्रा’ में कोटा की जिम्मेदारी उन्होंने सफलतापूर्वक निभाई। वहीं श्री अशोक सिंघल ने उनसे सेवा कार्य संभालने को कहा, जिसे इन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। इसके बाद उन्होंने महीने में 20 दिन तक प्रवास कर पूरे देश में सेवा कार्यों की एक विशाल शृंखला खड़ी की। वे पूर्वोत्तर भारत में सुदूर गांवों तक गये। उनका अब तक का जीवन बहुत सुविधापूर्ण रहा था; पर सेवाव्रत स्वीकार करने के बाद उन्होंने किसी कष्ट की चर्चा नहीं की। 

उन्होंने कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण वर्ग लगाये तथा सेवा कार्यों के लिए अनेक न्यास बनाकर देश-विदेश से धन जुटाया। 1992 में वे अमरीका में हुए हिन्दू सम्मेलन में भी गये। उनकी देखरेख में 4,200 स्थायी तथा 1,500 अन्य सेवा प्रारम्भ हुए। यह उनकी दूरगामी सोच का ही परिणाम है।

1996 में हृदयाघात के बाद वे दिल्ली में केन्द्रीय कार्यालय पर रहकर ही सब प्रकल्पों की देखभाल करने लगे। उन्होंने परिवार चलाने के लिए 25 साल नौकरी की; पर समाज सेवा में 26 साल लगाये, इसका उन्हें बहुत संतोष था। संतुष्टि और शांति के इस सुखद अहसास के साथ 3 नवम्बर, 2009 को कोटा के एक चिकित्सालय में उनका देहांत हुआ।
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17 मार्च/बलिदान-दिवस

आजाद हिन्द फौज के सेनानी लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट

द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों एवं मित्र देशों की सामरिक शक्ति अधिक होने पर भी आजाद हिन्द फौज के सेनानी उन्हें कड़ी टक्कर दे रहे थे। लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट भी ऐसे ही एक सेनानायक थे, जिन्होंने अपने से छह गुना बड़ी अंग्रेज टुकड़ी को भागने पर मजबूर कर दिया। 

16 मार्च, 1945 को ‘सादे पहाड़ी के युद्ध’ में भारतीय सेना की ए कंपनी ने कैप्टेन खान मोहम्मद के नेतृत्व में अंग्रेजों को पराजित किया था। इससे चिढ़कर अंग्रेजों ने अगले दिन आजाद हिन्द फौज की बी कंपनी पर हमला करने की योजना बनाई। 

सिंगापुर के आॅफिसर्स टेªनिंग स्कूल में प्रशिक्षित लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट इस कंपनी के नायक थे। वे बहुत साहसी तथा अपनी कंपनी में लोकप्रिय थे। वे अपने सैनिकों से प्रायः कहते थे कि मैं सबके साथ युद्ध के मैदान में ही लड़ते-लड़ते मरना चाहता हूं।

यह बी कंपनी सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण स्थान पर तैनात थी।  तीन सड़कों के संगम वाले इस मार्ग के पास एक पहाड़ी थी, जिस पर शत्रुओं की तोपें लगी थीं। बी कंपनी में केवल 98 जवान थे। उनके पास राइफल और कुछ टैंक विध्वंसक बम ही थे; पर लेफ्टिनेंट बिष्ट का आदेश था कि किसी भी कीमत पर शत्रु को इस मार्ग पर कब्जा नहीं करने देना है। 

17 मार्च, 1945 को प्रातः होते ही अंग्रेजों ने अपनी तोपों के मुंह खोल दिये। उसकी आड़ में वे अपनी बख्तरबंद गाडि़यों में बैठकर आगे बढ़ रहे थे। खाइयों में मोर्चा लिये भारतीय सैनिकों को मौत की नींद सुलाने के लिए वे लगातार गोले भी बरसा रहे थे। साढ़े बारह बजे आगे बढ़ती हुई अंग्रेज सेना दो भागों में बंट गयी। 

एक ने ए कंपनी पर हमला बोला और दूसरी ने बी कंपनी पर। बी कंपनी के सैनिक भी गोली चला रहे थे; पर टैंक और बख्तरबंद गाडि़यों पर उनका कोई असर नहीं हो रहा था। लेफ्टिनेंट बिष्ट के पास अपने मुख्यालय पर संदेश भेजने का कोई संचार साधन भी नहीं था।

जब लेफ्टिनेंट बिष्ट ने देखा कि अंग्रेजों के टैंक उन्हें कुचलने पर तुले हैं, तो उन्होंने कुछ बम फेंके; पर दुर्भाग्यवश वे भी नहीं फटे। यह देखकर उन्होंने सब साथियों को आदेश दिया कि वे खाइयों को छोड़कर बाहर निकलें और शत्रुओं को मारते हुए ही मृत्यु का वरण करें। 

सबसे आगे लेफ्टिनेंट बिष्ट को देखकर सब जवानों ने उनका अनुसरण किया। ‘भारत माता की जय’ और ‘नेता जी अमर रहें’ का उद्घोष कर वे समरांगण में कूद पड़े। टैंकों के पीछे अंग्रेज सेना की पैदल टुकडि़यां थीं। भारतीय सैनिक उन्हें घेर कर मारने लगे। कुछ सैनिकों ने टैंकों और बख्तरबंद गाडि़यों पर भी हमला कर दिया। 

दो घंटे तक हुए आमने-सामने के युद्ध में 40 भारतीय जवानों नेे प्राणाहुति दी; पर उनसे चैगुने शत्रु मारे गये। अपनी सेना को तेजी से घटते देख अंग्रेज भाग खड़े हुए। लेफ्टिनेंट बिष्ट उन्हें पूरी तरह खदेड़ने के लिए अपने शेष सैनिकों को एकत्र करने लगे। वे इस मोर्चे को पूरी तरह जीतना चाहते थे। तभी शत्रु पक्ष की एक गोली उनके माथे में लगी। जयहिंद का नारा लगाते हुए वे वहीं गिर पड़े और तत्काल ही उनका प्राणांत हो गया।

लेफ्टिनेंट बिष्ट के इस बलिदान से उनके सैनिक उत्तेजित होकर गोलियां बरसाते हुए शत्रुओं का पीछा करने लगे। अंग्रेज सैनिक डरकर उस मोर्चे को ही छोड़ गये और फिर लौटकर नहीं आये। लेफ्टिनेंट बिष्ट ने बलिदान देकर जहां उस महत्वपूर्ण सामरिक केन्द्र की रक्षा की, वहीं उन्होंने सैनिकों के साथ लड़ते हुए मरने का अपना संकल्प भी पूरा कर दिखाया।

(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश)
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18 मार्च/प्रकाशन-तिथि

स्वाधीनता का गौरव ग्रन्थ

भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय उन कुछ साहसी लेखकों को भी है, जिन्होंने प्राणों की चिन्ता किये बिना सत्य इतिहास लिखा। ऐसे ही एक लेखक थे पण्डित सुन्दरलाल, जिनकी पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ ने सत्याग्रह या बम-गोली द्वारा अंग्रेजों से लड़ने वालों को सदा प्रेरणा दी।

1857 के स्वतन्त्रता संग्राम को दबाने के बाद अंग्रेजों ने योजनाबद्ध रूप से हिन्दू और मुस्लिमों में मतभेद पैदा किया। ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अन्र्तगत उन्होंने बंगाल का विभाजन कर दिया। 

पंडित सुंदरलाल ने इस विद्वेष की जड़ तक पहुँचने के लिए प्रामाणिक दस्तावेजों तथा इतिहास का गहन अध्ययन किया। उनके सामने अनेक तथ्य खुलते चले गये। इसके बाद वे तीन साल तक क्रान्तिकारी बाबू नित्यानन्द चटर्जी के घर पर शान्त भाव से काम में लगे रहे। इसी साधना के फलस्वरूप 1,000 पृष्ठों का ‘भारत में अंग्रेजी राज’ नामक ग्रन्थ तैयार हुआ। 

इसकी विशेषता यह थी कि इसे सुंदरलाल जी ने स्वयं नहीं लिखा। वे बोलते थे और प्रयाग के श्री विशम्भर पांडे इसे लिखते थे। इस प्रकार इसकी पांडुलिपि तैयार हुई; पर इसका प्रकाशन आसान नहीं था। सुंदरलाल जी जानते थे कि प्रकाशित होते ही शासन इसे जब्त कर लेगा। अतः उन्होंने इसे कई खंडों में बाँटकर अलग-अलग नगरों में छपवाया। तैयार खंडों को प्रयाग में जोड़ा गया और अन्ततः 18 मार्च, 1928 को पुस्तक प्रकाशित हो गयी। 

पहला संस्करण 2,000 प्रतियों का था। 1,700 प्रतियाँ तीन दिन के अन्दर ही ग्राहकों तक पहुँचा दी गयीं। शेष 300 प्रतियाँ डाक या रेल द्वारा भेजी जा रही थीं; पर इसी बीच अंग्रेजों ने 22 मार्च को प्रतिबन्धित घोषित कर इन्हें जब्त कर लिया। जो 1,700 पुस्तकें जा चुकी थीं, शासन ने उन्हें भी ढूँढने का प्रयास किया; पर उसे आंशिक सफलता ही मिली।

इस प्रतिबन्ध के विरुद्ध देश भर के नेताओं और समाचार पत्रों ने आवाज उठायी। गान्धी जी ने भी इसे पढ़कर अपने पत्र ‘यंग इंडिया’ में इसके पक्ष में लेख लिखा। सत्याग्रह करने वाले इसे जेल ले गये। वहाँ हजारों लोगों ने इसे पढ़ा। इस प्रकार पूरे देश में इसकी चर्चा हो गयी। दूसरी ओर सुन्दरलाल जी प्रतिबन्ध के विरुद्ध न्यायालय में चले गये। उनके वकील तेजबहादुर सप्रू ने तर्क दिया कि इसमें एक भी तथ्य असत्य नहीं है। सरकारी वकील ने कहा कि यह इसीलिए अधिक खतरनाक है।

इस पर सुन्दरलाल जी ने संयुक्त प्रान्त की सरकार को लिखा। गर्वनर शुरू में तो राजी नहीं हुए; पर 15 नवम्बर, 1937 को उन्होंने प्रतिबन्ध हटा लिया। इसके बाद अन्य प्रान्तों में भी प्रतिबन्ध हट गया। अब नये संस्करण की तैयारी की गयी। चर्चित पुस्तक होने के कारण अब कई लोग इसे छापना चाहते थे; पर सुन्दरलाल जी ने कहा कि वे इसे वहीं छपवायेंगे, जहाँ से यह कम दाम में छप सके। ओंकार प्रेस, प्रयाग ने इसे केवल सात रु0 मूल्य में छापा। इस संस्करण के छपने से पहले ही 10,000 प्रतियों के आदेश मिल गये थे। प्रकाशन जगत में ऐसे उदाहरण कम ही हैं।

इस गं्रथ का तीसरा संस्करण 1960 में भारत सरकार ने प्रकाशित किया। अब भी इसके नये संस्करण लगातार प्रकाशित हो रहे हैं। पंडित सुंदरलाल का जन्म 26 सितम्बर, 1886 को खतौली (मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में हुआ था। उनके पिता श्री तोताराम श्रीवास्तव उन दिनों वहां गंग नहर विभाग में शासकीय अधिकारी थे। सुंदरलाल जी स्वाधीनता संग्राम में आठ बार जेल गये। स्वाधीनता के बाद भी वे विस्थापितों की समस्याओं के समाधान में लगे रहे। 1962-63 में ‘इंडियन पीस काउंसिल’ के अध्यक्ष के नाते उन्होंने कई देशों की यात्रा की। नौ मई, 1981 को हृदयाघात से दिल्ली में उनका निधन हुआ। 
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19 मार्च/पुण्य-तिथि

विकलांग क्रांतिवीर चारुचंद्र बोस 

बंगाल के क्रांतिकारियों की निगाह में अलीपुर का सरकारी वकील आशुतोष विश्वास बहुत समय से खटक रहा था। देशभक्तों को पकड़वाने, उन पर झूठे मुकदमे लादने तथा फिर उन्हें कड़ी सजा दिलवाने में वह अपनी कानूनी बुद्धि का पूरा उपयोग कर रहा था। ब्रिटिश शासन के लिए वह एक पुष्प था, जबकि क्रांतिकारी उस कांटे को शीघ्र ही अपने मार्ग से हटाना चाहते थेे।

आशुतोष विश्वास यह जानता था कि क्रांतिकारी उसके पीछे पड़े हैं, अतः वह हर समय बहुत सावधान रहता था। वह प्रायः भीड़ से दूर ही रहकर चलता था। उसे उठाकर पटकने में सक्षम कोई हृष्ट-पुष्ट युवक यदि उसके पास से निकलता, तो वह दूर हट जाता था। वह रात में कभी अपने घर से नहीं निकलता था और अपरिचित लोगों से बिल्कुल नहीं मिलता था।

दूसरी ओर चारुचंद्र बोस नामक एक युवक था, जो आशुतोष को मजा चखाना चाहता था। ईश्वर ने चारुचंद्र के साथ बहुत अन्याय किया था। वह जन्म से ही अपंग था। उसके दाहिने हाथ में कलाई से आगे हथेली और उंगलियां नहीं थीं। दुबला-पतला होने के कारण चलते समय लगता था मानो वह अभी गिर पड़ेगा। उसके माता-पिता का भी देहांत हो चुका था।

इस पर भी चारुचंद्र साहसपूर्वक छापेखानों में काम कर पेट भर रहा था। उसने एक ही हाथ से काम करने की कला विकसित कर ली थी। इसके साथ ही उसके मन में देश के लिए कुछ करने की तड़प भी विद्यमान थी। उसे लगा कि आशुतोष विश्वास को यमलोक पहुंचाकर वह देश की सेवा कर सकता है। उसने कहीं से एक पिस्तौल का प्रबंध किया और जंगल में जाकर निशाना लगाने का अभ्यास करने लगा। धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास बढ़ता गया और अंततः उसने अपने संकल्प की पूर्ति का निश्चय कर लिया। 

10 फरवरी, 1909 को चारुचंद्र अलीपुर के न्यायालय में जा पहुंचा। आशुतोष विश्वास हर दिन की तरह आज भी जैसे ही न्यायालय से बाहर निकला, चारुचंद्र की पिस्तौल से निकली गोली उसके शरीर में घुस गयी। उसने मुड़कर देखा, तो पतला-दुबला चारुचंद्र उसके सामने था। 

आशुतोष ‘‘अरे बाप रे’’ कहकर घायल अवस्था में वहां से भागा; पर चारुचंद्र को तो अपना काम पूरा करना था। उसने एक ही छलांग में अपने शिकार को दबोचकर बिल्कुल पास से एक गोली और दाग दी। आशुतोष विश्वास वहीं ढेर हो गया।

चारुचंद्र ने इसके लिए बड़ी बुद्धिमत्ता से काम लिया था। अपने विकलांग हाथ पर रस्सी से पिस्तौल को अच्छी तरह बांधकर वह बायें हाथ से उसका घोड़ा दबा रहा था। जब पुलिस वालों ने उसे पकड़ा, तो उसने झटके से स्वयं को छुड़ाकर उन पर भी गोली चला दी; पर इस बार उसका निशाना चूक गया और कई पुलिसकर्मियों ने मिलकर उसे गिरफ्तार कर लिया।

पुलिसकर्मियों ने लातों, मुक्कों और डंडों से वहीं उसे बहुत मारा-पीटा; पर उसके चेहरे पर लक्ष्यपूर्ति की मुस्कान विद्यमान थी। न्यायालय में उस पर हत्या का मुकदमा चलाया गया। उसने बचने का कोई प्रयास नहीं किया। एक स्थितप्रज्ञ की तरह वह सारी कार्यवाही को देखता था, मानो वह अभियुक्त न होकर कोई दर्शक मात्र था। न्यायालय ने उसे मृत्यु दंड सुना दिया।

19 मार्च, 1909 को अलीपुर केन्द्रीय कारागार में उसने विजयी भाव से फंदा स्वयं गले में डाल लिया। उसके चेहरे पर आज भी वैसी ही मुस्कान तैर रही थी, जैसी देशद्रोही को मृत्युदंड देते समय थी। उसने सिद्ध कर दिया कि विकलांगता शुभ संकल्पों को पूरा करने में कभी बाधक नहीं होती।

(संदर्भ : क्रांतिकोश)
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20 मार्च/बलिदान-दिवस

वीरता की प्रतिमूर्ति अवन्तीबाई लोधी

मण्डला (म.प्र.) के रामगढ़ राज्य की रानी अवन्तीबाई ने एक बार राजा विक्रमजीत सिंह से कहा कि उन्होंने स्वप्न में एक चील को आपका मुकुट ले जाते हुए देखा है। ऐसा लगता है कि कोई संकट आने वाला है। राजा ने कहा, हाँ, वह संकट अंग्रेजों की ओर से आ रहा है; पर मेरी रुचि अब पूजापाठ में अधिक हो गयी है, इसलिए तुम ही राज संभालकर इस संकट से निबटो।

रानी एक बार मन्त्रियों के साथ बैठी कि लार्ड डलहौजी का दूत एक पत्र लेकर आया। उसमें लिखा था कि राजा के विक्षिप्त होने के कारण हम शासन की व्यवस्था के लिए एक अंग्रेज अधिकारी नियुक्त करना चाहते हैं। रानी समझ गयी कि सपने वाली चील आ गयी है। उसने उत्तर दिया कि मेरे पति स्वस्थ हैं। मैं उनकी आज्ञा से तब तक काम देख रही हूँ, जब तक मेरे बेटे अमानसिंह और शेरसिंह बड़े नहीं हो जाते। अतः रामगढ़ को अंग्रेज अधिकारी की कोई आवश्यकता नहीं है।

पर डलहौजी तो राज्य हड़पने का निश्चय कर चुका था। उसने अंग्रेज अधिकारी नियुक्त कर दिया। इसी बीच राजा का देहान्त हो गया। अब रानी ने पूरा काम सँभाल लिया। वह जानती थी कि देर-सबेर अंग्रेजों से मुकाबला होगा ही, अतः उसने आसपास के देशभक्त सामन्तों तथा रजवाड़ों से सम्पर्क किया। अनेक उनका साथ देने को तैयार हो गये। 

यह 1857 का काल था। नाना साहब पेशवा के नेतृत्व में अंग्रेजों को बाहर निकालने के लिए संघर्ष की तैयारी हो रही थी। रामगढ़ में भी क्रान्ति का प्रतीक लाल कमल और रोटी घर-घर घूम रही थी। रानी ने इस यज्ञ में अपनी आहुति देने का निश्चय कर लिया। उनकी तैयारी देखकर अंग्रेज सेनापति वाशिंगटन ने हमला बोल दिया।

रानी ने बिना घबराये खैरी गाँव के पास वाशिंगटन को घेर लिया। रानी के कौशल से अंग्रेजों के पाँव उखड़ने लगे। इसी बीच वाशिंगटन रानी को पकड़ने के लिए अपने घोड़े सहित रानी के पास आ गया। रानी ने तलवार के भरपूर वार से घोड़े की गरदन उड़ा दी। वाशिंगटन नीचे गिर पड़ा और प्राणों की भीख माँगने लगा। रानी ने दयाकर उसे छोड़ दिया।

पर 1858 में वह फिर रामगढ़ आ धमका। इस बार उसके पास पहले से अधिक सेना तथा रसद थी। उसने किले को घेर लिया; पर तीन महीने बीतने पर भी वह किले में प्रवेश नहीं कर सका। इधर किले में रसद समाप्त हो रही थी। अतः रानी कुछ विश्वासपात्र सैनिकों के साथ एक गुप्तद्वार से बाहर निकल पड़ी। इसी बीच किले के द्वार खोलकर भारतीय सैनिक अंग्रेजों पर टूट पड़े; पर वाशिंगटन को रानी के भागने की सूचना मिल गयी। वह एक टुकड़ी लेकर पीछे दौड़ा। देवहारगढ़ के जंगल में दोनों की मुठभेड़ हुई।

वह 20 मार्च, 1858 का दिन था। रानी ने काल का रूप धारण कर लिया; वह रणचण्डी बनकर शत्रुओं पर टूट पड़ी। अचानक एक फिरंगी के वार से रानी का दाहिना हाथ कट गया। तलवार छूट गयी। रानी समझ गयी कि अब मृत्यु निकट है। उसने जेल में सड़ने की अपेक्षा मरना श्रेयस्कर समझा। अतः एक झटके से अपने बायें हाथ से कमर से कटार निकाली और सीने में घोंप ली। अगले ही क्षण रानी का मृत शरीर घोड़े पर झूल गया।

भारतीय स्वतन्त्रता के गौरवशाली इतिहास में आज भी गढ़मण्डल की रानी अवन्तीबाई लोधी का नाम अमर है।
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20 मार्च/जन्म-दिवस

कलाप्रेमी संगठक डा. शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव

लोगों को जोड़ना एक कठिन काम है, उसमें भी कलाकारों को जोड़ना तो और भी कठिन है; क्योंकि हर कलाकार के अपने नखरे और वैचारिक पूर्वाग्रह होते हैं। कई बार तो वे एक साथ मंच पर बैठना भी पंसद नहीं करते। फिर भी ‘संस्कार भारती’ के अध्यक्ष के नाते विविध विधाओं के नये, पुराने और स्थापित कलाकारों को जोड़ने का काम डा. शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव ने पूरी शक्ति से किया। उनकी मान्यता थी कि कला का कोई रूप अछूता न रहे तथा सबके बारे में प्रामाणिक पुस्तकें प्रकाशित हों।

शैलेन्द्र जी का जन्म 20 मार्च, 1936 को हुआ था। बचपन में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आ गये थे। शिक्षा पूर्ण कर वे अध्यापक बने और क्रमशः पटना वि.वि. में आचार्य, हिन्दी विभागाध्यक्ष तथा फिर भागलपुर वि.वि. के कुलपति पद पर काम किया। अध्यापन के साथ उनकी वि.वि. में चलने वाली सामाजिक गतिविधियों में भी काफी रुचि रहती थी। इसलिए वे पटना वि.वि. शिक्षक संघ के भी अध्यक्ष रहे। 

‘राष्ट्रीय सेवा योजना’ के अन्तर्गत वे स्वयं झाड़ू लेकर छात्रों के साथ सड़कों और नालियों की सफाई में जुट जाते थे। बिहार में प्रायः प्रतिवर्ष बाढ़ आती है। ऐसे में वे केवल भाषण ही नहीं देते थे, अपितु स्वयं सहायता सामग्री लेकर बाढ़ पीडि़त क्षेत्र में पहुँचकर ग्रामीणों की सेवा करते थे। 1974-75 में बिहार में हुए छात्र आन्दोलन में उन्होंने जयप्रकाश नारायण के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर संघर्ष किया। इस कारण आपातकाल में उन्हें जेल की यातनाएँ भी सहनी पड़ी। डा. शैलेन्द्र नाथ भाजपा के टिकट पर पटना शहर से एक बार विधायक तथा एक बार सांसद भी रहे।

अवकाश प्राप्ति के बाद उन्होंने अपना पूरा समय कलाकारों में राष्ट्रभाव जाग्रत करने वाली संस्था ‘संस्कार भारती’ को समर्पित कर दिया। उसके अध्यक्ष के नाते नौ साल तक उन्होंने देश के कोने-कोने में प्रवास किया। इस चक्कर में प्रायः वे अपने परिवार तक को उपेक्षित कर देते थे।

शैलेन्द्र जी को सभी भारतीय भाषाओं से प्रेम था; पर हिन्दी के प्रति मातृवत अनुराग होने के कारण वे उसे विश्व भाषा बनाना चाहते थे। उन्होंने कई ‘विश्व हिन्दी सम्मेलनों’ में भाग लिया। 1999 के लन्दन सम्मेलन में उन्हें शासन ने प्रतिनिधि नहीं बनाया, तो वे पत्नी सहित निजी खर्च पर वहाँ गये। हिन्दी दुनिया के अनेक देशों में बोली और समझी जाती है। अतः भाजपा शासन में उन्होंने विदेश मन्त्री यशवन्त सिन्हा को 10 जनवरी को ‘विश्व हिन्दी दिवस’ मनाने का सुझाव दिया, चूँकि 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में पहला 'विश्व हिन्दी सम्मेलन' हुआ था। उनका यह सुझाव मान लिया गया। 

हिन्दी भाषा एवं समस्त भारतीय कलाओं के प्रति उनके समर्पण को देखकर शासन ने उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। भाजपा के शासनकाल में कई बार उन्हें राज्यपाल बनाने की चर्चा हुई; पर वे एक मौन साधक की तरह संस्कार भारती के काम में ही लगे रहे। 

उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं, जिनमें लोकनायक जयप्रकाश की जीवनी, लिफाफा देखकर (ललित निबन्ध), शिक्षा के नाम पर, कला संस्कृति और हम (निबन्ध संग्रह), बहुत दिनों के बाद (मुक्तक संग्रह), शब्द पके मन आँच पर, कलम उगलती आग (कविता संग्रह) प्रमुख हैं।

डा. शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव 'चरैवेति-चरैवेति' के जीवन्त प्रतीक थे। 2006 ई. संस्कार भारती का ‘रजत जयन्ती वर्ष’ था। इस वर्ष में संगठनात्मक विस्तार के लिए उन्होंने व्यापक प्रवास का कार्यक्रम बनाया था; पर उसे पूरा करने से पहले ही 12 फरवरी, 2006 को वे अनन्त के प्रवास पर चले गये।
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20 मार्च/जन्म-दिवस

कलम के योद्धा मुजफ्फर हुसेन 

अपने लेखन से सत्य को उजागर करना बहुत कठिन काम है। वो भी एक कट्टर समुदाय के बीच; पर मुजफ्फर हुसेन ने जब कलम उठाई, तो फिर बिना डरे लगातार 50 साल तक इस धर्म का निष्ठा से पालन किया। 

उनका जन्म 20 मार्च, 1940 को म.प्र. के नीमच नगर में हुआ था।  उनके पिताजी वैद्य थे। बचपन से ही उनकी रुचि पढ़ने और लिखने में थी। जब वे 15 वर्ष के थे, तो उनके शहर में सरसंघचालक श्री गुरुजी का एक कार्यक्रम था। संघ विरोधी एक अध्यापक ने कुछ छात्रों से वहां परचे बंटवाएं। मुजफ्फर हुसेन भी उनमें से एक थे। कुछ कार्यकर्ताओं ने उन्हें पकड़ लिया। कार्यक्रम के बाद उन्हें गुरुजी के पास ले जाया गया। मुजफ्फर हुसेन सोचते थे कि उनकी पिटाई होगी; पर गुरुजी ने उन्हें प्यार से बैठाया, खीर खिलाई और कोई कविता सुनाने को कहा। मुजफ्फर हुसेन ने रसखान के दोहे सुनाए। इस पर श्री गुरुजी ने उन्हें आशीर्वाद देकर विदा किया। इस घटना से उनका मन बदल गया।

नीमच से स्नातक होकर वे कानून पढ़ने मुंबई आये और फिर यहीं के होकर रह गये। नीमच के एक अखबार में उनका लेख ‘कितने मुसलमान’ पढ़कर म.प्र. में कार्यरत वरिष्ठ प्रचारक श्री सुदर्शन जी उनसे मिले। सुदर्शन जी के गहन अध्ययन से वे बहुत प्रभावित हुए और उनके लेखन को सही दिशा मिली। अब वे जहां एक ओर हिन्दुत्व और राष्ट्रीयता के पुजारी हो गये, वहां इस्लाम की कुरीतियों और कट्टरता के विरुद्ध उनकी कलम चलने लगी। यद्यपि इससे नाराज मुसलमानों ने उन्हें धमकियां दीं; पर उन्होंने सत्य का पथ नहीं छोड़ा। 

आपातकाल में वे बुलढाणा और मुंबई जेल में रहे। लेखन ही उनकी आजीविका थी। हिन्दी, गुजराती, मराठी, उर्दू, अरबी, पश्तो आदि जानने के कारण उनके लेख इन भाषाओं के 24 पत्रों में नियमित रूप से छपते थे। मुस्लिम जगत की हलचलों की चर्चा वे अपने लेखों में विस्तार से करते थे। प्रखर वक्ता होने के कारण विभिन्न सभा, गोष्ठी तथा विश्वविद्यालयों में उनके व्याख्यान होते रहते थे। उनके भाषण तथ्य तथा तर्कों से भरपूर रहते थे। 

वे इस्लाम के साथ ही गीता और सावरकर साहित्य के भी अध्येता थे। शाकाहार एवं गोरक्षा के पक्ष में वे कुरान एवं हदीस के उद्धरण देते थे। वे मुसलमानों से कहते थे कि कुरान को राजनीतिक ग्रंथ की तरह न पढ़ें तथा भारत में हिन्दुओं से मिलकर चलें। वे देवगिरि समाचार (औरंगाबाद), तरुण भारत, पांचजन्य (दिल्ली) और विश्व संवाद केन्द्र, मुंबई से लगातार जुड़े रहे। वे मजहब के नाम पर लोगों को बांटने वालों की अच्छी खबर लेते थे। कई लोगों को लगता था कि कोई हिन्दू ही छद्म नाम से ये लेख लिखता है।

आगे चलकर सुदर्शन जी एवं इन्द्रेश जी के प्रयास से ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ का गठन हुआ। श्री हुसेन की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे विद्याधर गोखले की संस्था ‘राष्ट्रीय एकजुट’ में भी सक्रिय थे। समाज और देशहित के किसी काम से उन्हें परहेज नहीं था। वर्ष 2002 में उन्हें ‘पद्मश्री’ तथा 2014 में महाराष्ट्र शासन द्वारा ‘लोकमान्य तिलक सम्मान’ से अलंकृत किया गया। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। इनमें इस्लाम एवं शाकाहार, मुस्लिम मानसिकता, मुंबई के दंगे, अल्पसंख्यकवाद के खतरे, लादेन और अफगानिस्तान, समान नागरिक संहिता...आदि प्रमुख हैं। इनका कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है।


‘राष्ट्रीय उर्दू काउंसिल’ के अध्यक्ष के नाते उन्होंने राष्ट्रवादी सोच के कई लेखक तैयार किये। वे मुसलमानों के बोहरा समुदाय से सम्बद्ध थे। वहां भी उन्होंने सुधार के अभियान चलाये। मुस्लिम मानस एवं समस्याओं की उन्हें गहरी समझ थी। वे स्वयं नमाज पढ़ते थे; पर जेहादी सोच के विरुद्ध थे। 13 फरवरी, 2018 को मुंबई में ही कलम के इस योद्धा का निधन हुआ। 

(संदर्भ: पांचजन्य एवं आर्गनाइजर 25.2.18)
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21 मार्च/जन्म-दिवस

विश्वविख्यात खगोलशास्त्री आर्यभट

खगोलशास्त्र का अर्थ है ग्रह, नक्षत्रों की स्थिति एवं गति के आधार पर प॰चांग का निर्माण, जिससे शुभ कार्यों के लिए उचित मुहूर्त निकाला जा सके। इस क्षेत्र में भारत का लोहा दुनिया को मनवाने वाले वैज्ञानिक आर्यभट के समय में अंग्रेजी तिथियाँ प्रचलित नहीं थीं। 

अपने एक ग्रन्थ में उन्होंने कलियुग के 3,600 वर्ष बाद की मध्यम मेष संक्रान्ति को अपनी आयु 23 वर्ष बतायी है। इस आधार पर विद्वान् उनकी जन्मतिथि 21 मार्च, 476 ई. मानते हैं। उनके जन्मस्थान के बारे में भी विद्वानों एवं इतिहासकारों में मतभेद हैं। उन्होंने स्वयं अपना जन्मस्थान कुसुमपुर बताया है। कुसुमपुर का अर्थ है फूलों का नगर। इसे विद्वान् लोग आजकल पाटलिपुत्र या पटना बताते हैं। 973 ई0 में भारत आये पर्शिया के विद्वान अलबेरूनी ने भी अपने यात्रा वर्णन में ‘कुसुमपुर के आर्यभट’ की चर्चा अनेक स्थानों पर की है। 

कुछ विद्वानों का मत है कि उनके पंचांगों का प्रचलन उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में अधिक है, इसलिए कुसुमपुर कोई दक्षिण भारतीय नगर होगा। कुछ लोग इसे विन्ध्य पर्वत के दक्षिण में बहने वाली नर्मदा और गोदावरी के बीच का कोई स्थान बताते हैं। कुछ विद्वान आर्यभट को केरल निवासी मानते हैं।

यद्यपि आर्यभट गणित, खगोल या ज्योतिष के क्षेत्र में पहले भारतीय वैज्ञानिक नहीं थे; पर उनके समय तक पुरानी अधिकांश गणनाएँ एवं मान्यताएँ विफल हो चुकी थीं। पैतामह सिद्धान्त, सौर सिद्धान्त, वसिष्ठ सिद्धान्त, रोमक सिद्धान्त और पौलिष सिद्धान्त, यह पाँचों सिद्धान्त पुराने पड़ चुके थे। इनके आधार पर बतायी गयी ग्रहों की स्थिति तथा ग्रहण के समय आदि की प्रत्यक्ष स्थिति में काफी अन्तर मिलता था। इस कारण भारतीय ज्योतिष पर से लोगों का विश्वास उठ गया। ऐसे में लोग इन्हें अवैज्ञानिक एवं अपूर्ण मानकर विदेशी एवं विधर्मी पंचांगों की ओर झुकने लगे थे।

आर्यभट ने इस स्थिति का समझकर इस शास्त्र का गहन अध्ययन किया और उसकी कमियों को दूरकर नये प्रकार से जनता के सम्मुख प्रस्तुत किया। उन्होंने पृथ्वी तथा अन्य ग्रहों की अपनी धुरी तथा सूर्य के आसपास घूमने की गति के आधार पर अपनी गणनाएँ कीं। 

इससे लोगों का विश्वास फिर से भारतीय खगोलविद्या एवं ज्योतिष पर जम गया। इसी कारण लोग उन्हें भारतीय खगोलशास्त्र का प्रवर्तक भी मानते हैं। उन्होंने एक स्थान पर स्वयं को 'कुलप आर्यभट' कहा है। इसका अर्थ कुछ विद्वान् यह लगाते हैं कि वे नालन्दा विश्वविद्यालय के कुलपति भी थे। 

उनके ग्रन्थ ‘आर्यभटीयम्’ से हमें उनकी महत्वपूर्ण खोज एवं शोध की जानकारी मिलती है। इसमें कुल 121 श्लोक हैं, जिन्हें गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलापाद नामक चार भागों में बाँटा है। 

वृत्त की परिधि और उसके व्यास के संबंध को ‘पाई’ कहते हैं। आर्यभट द्वारा बताये गये इसके मान को ही आज भी गणित में प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त पृथ्वी, चन्द्रमा आदि ग्रहों के प्रकाश का रहस्य, छाया का मापन, कालगणना, बीजगणित, त्रिकोणमिति, व्यस्तविधि, मूल-ब्याज, सूर्योदय व सूर्यास्त के बारे में भी उन्होंने निश्चित सिद्धान्त बताये।

आर्यभट की इन खोजों से गणित एवं खगोल का परिदृश्य बदल गया। उनके योगदान को सदा स्मरण रखने के लिए 19 अपै्रल, 1975 को अन्तरिक्ष में स्थापित कियेे गये भारत में ही निर्मित प्रथम कृत्रिम उपग्रह का नाम ‘आर्यभट’ रखा गया।
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21 मार्च/जन्म-दिवस

रूसी रामभक्त अकादमिक वरान्निकोव

रूसी नागरिकों को श्रीरामकथा का रसास्वादन कराने वाले श्री अलेक्जैंडर पेत्राविच का जन्म 21 मार्च, 1890 को उक्रोइन के जोलोतोनोशा कस्बे में एक गरीब बढ़ई प्योत्र इवानोविच के घर में हुआ था। वे नौ भाई-बहिन थे। उनकी मां घर में छलनियां बनाती थीं। बच्चे भी उनकी सहायता करते थे। अलेक्से को पढ़ने का बहुत शौक था। पांच वर्ष की अवस्था में वे बड़े भाई के साथ स्कूल जाने लगे; पर एक दिन अध्यापक ने छोटा कहकर उन्हें भगा दिया। इस पर उनके पिता ने उन्हें दूसरे स्कूल में भर्ती करा दिया। अलेक्से को किताबों से बहुत प्रेम था। वे पुस्तक पढ़ने या प्राप्त करने के लिए लोगों के कुछ काम कर देते थे। मेधावी होने से उन्हें छात्रवृत्ति भी मिलती थी। इस प्रकार वे पढ़ते रहे। 

विश्वविद्यालय में श्री श्चेरवात्सकी और श्री ओल्देन बुर्ग के सान्निध्य में उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, उर्दू आदि भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने अध्यापन को अपनी आजीविका बनाया। 1917 में वे पेत्रोशाद वि.वि. में भारतीय भाषा विभाग के अध्यक्ष बने। इसे अब लेनिनग्राद वि.वि. कहते हैं। उन्होंने भारत के प्रमुख गद्य एवं पद्यकारों के साहित्य का अनुवाद किया। इसी दौरान उनका परिचय श्रीरामकथा से हुआ। 1936 में उन्होंने ‘श्रीरामचरितमानस’ का गद्य में अनुवाद किया। इसी वर्ष उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उन्हें सोवियत संघ के सर्वोच्च ‘लेनिन पदक’ से विभूषित किया गया।

इसके बाद दस साल के परिश्रम से उन्होंने मानस का काव्यानुवाद किया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया; पर उनके काम के महत्व को देखते हुए सरकार ने उन्हें कजाकिस्तान में एक सुरक्षित जगह भेज दिया। वहां बीमार पड़ने पर भी वे काम करते रहे। इसके प्रकाशित होते ही हजारों प्रतियां तुरंत बिक गयीं। इसके बाद उन्होंने हिन्दी, उर्दू और रूसी कोष का निर्माण किया। वे फारसी और जर्मन भाषा के भी विद्वान थे। फारसी के प्राचीन धर्मग्रन्थ ‘जेन्दावेस्ता’ का भी उन्होंने गहन अध्ययन किया था। 1939 में उन्हें प्रतिष्ठित ‘रूसी अकादमी’ का सदस्य बनाया गया। इससे वे ‘अकादमी वरान्निकोव’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। 1949 में उनकी कृति ‘प्रेमचंद’ को सोवियत संघ में बहुत प्रसिद्धि एवं सम्मान मिला। श्रीरामचरितमानस की एक प्रति उनकी मेज पर सदा रखी रहती थी। वे तुलसीदास की तरह अपने में मगन रहकर ‘स्वान्तः सुखाय’ काम करने में विश्वास रखते थे।

श्री वरान्निकोव का मानना था कि किसी देश को जानने का सबसे अच्छा साधन वहां की भाषा, साहित्य, संस्कृति और इतिहास को जानना है। भारत को इसी तरह जानने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। उनकी पत्नी तथा सभी बच्चे भारत और भारतीयता के प्रेमी बने। उनके पुत्र पेत्रोविच वरान्निकोव अनुवाद कार्य में अपने पिता का सहयोग करते थे। वे कई बार भारत आये। भारत से कोई भी साहित्यकार रूस जाता था, तो वे उसका हृदय से स्वागत करते थे। यदि संभव हो, तो वे उन्हें अपने घर भी ले जाते थे। वहां उन्होंने भारत से संबंधित पुस्तक, चित्र एवं कलाकृतियों का एक संग्रहालय बना रखा था। उसे वे सबको बड़ी रुचि से दिखाते थे। उन्होंने अपने एक पुत्र का नाम ‘चंद्र’ रखा। 

यद्यपि श्री वरान्निकोव भारतप्रेमी थे; पर दुर्भाग्यवश वे कभी भारतभूमि के दर्शन नहीं कर सके। 1946 में दिल्ली में गांधीजी ने ‘एशियायी सम्मेलन’ के उद्घाटन में कई विदेशी विद्वानों को बुलाया था। वे भी उसमें आना चाहते थे; पर बीमारी के कारण चिकित्सकों ने अनुमति नहीं दी। सात सितम्बर, 1952 को उनका निधन हुआ। उनकी समाधि पर देवनागरी लिपि में तुलसीदास के एक दोहे की अर्धाली ‘भलो भलाइंहि वै लहै’ अंकित है, जो उन्हें बहुत प्रिय थी। इसका अर्थ है कि भला आदमी किसी भी परिस्थिति में भलाई करने से पीछे नहीं हटता। रामभक्त श्री वरान्निकोव ऐसे ही भले आदमी थे। 


(राष्ट्रधर्म, अपै्रल-मई 2020, शंभुनाथ टंडन)
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21 मार्च/जन्म-दिवस

विश्वनाथ के आराधक बिस्मिल्ला खां

भगवान विश्वनाथ के त्रिशूल पर बसी तीन लोक से न्यारी काशी में गंगा के घाट पर सुबह-सवेरे शहनाई के सुर बिखरने वाले उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का जन्म 21 मार्च, 1916 को ग्राम डुमराँव, जिला भोजपुर, बिहार में हुआ था। बचपन में इनका नाम कमरुद्दीन था। इनके पिता पैगम्बर बख्श भी संगीत के साधक थे। वे डुमराँव के रजवाड़ों के खानदानी शहनाईवादक थे। इसलिए कमरुद्दीन का बचपन शहनाई की मधुर तान सुनते हुए ही बीता।

जब कमरुद्दीन केवल चार वर्ष के ही थे, तो इनकी माता मिट्ठन का देहान्त हो गया। इस पर वे अपने मामा अल्लाबख्श के साथ काशी आ गये और फिर सदा-सदा के लिए काशी के ही होकर रह गये। उनके मामा विश्वनाथ मन्दिर में शहनाई बजाते थे। धीरे-धीरे बिस्मिल्ला भी उनका साथ देने लगे। काशी के विशाल घाटों पर मन्द-मन्द बहती हुई गंगा की निर्मल धारा के सम्मुख शहनाई बजाने में युवा बिस्मिल्ला को अतीव सुख मिलता था। वे घण्टों वहां बैठकर संगीत की साधना करते थे। 

बिस्मिल्ला खाँ यों तो शहनाई पर प्रायः सभी प्रसिद्ध राग बजा लेते थे; पर ठुमरी, चैती और कजरी पर उनकी विशेष पकड़ थी। इन रागों को बजाते समय वे ही नहीं, तो सामने उपस्थित सभी श्रोता एक अद्भुत तरंग में डूब जाते थे। जब बिस्मिल्ला खाँ अपना कार्यक्रम समाप्त करते, तो सब होश में आते थे। 15 अगस्त 1947 को जब लालकिले पर स्वतन्त्र भारत का तिरंगा झण्डा फहराया, तो उसका स्वागत बिस्मिल्ला खाँ ने शहनाई बजाकर किया।

धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ने लगी। केवल देश ही नहीं, तो विदेशों से भी उनको निमन्त्रण मिलने लगे। बिस्मिल्ला खाँ के मन में काशी, गंगा और भगवान विश्वनाथ के प्रति अत्यधिक अनुराग था। एक बार अमरीका में बसे धनी भारतीयों ने उन्हें अमरीका में ही सपरिवार बस जाने को कहा। वे उनके लिए सब व्यवस्था करने को तैयार थे; पर बिस्मिल्ला खाँ ने स्पष्ट कहा कि इसके लिए आपको माँ गंगा और भगवान् विश्वनाथ को भी काशी से अमरीका लाना पड़ेगा। वे धनी भारतीय चुप रह गये।

बिस्मिल्ला खाँ संगीत की उन ऊँचाइयों पर पहुँच गये थे, जहाँ हर सम्मान और पुरस्कार उनके लिए छोटा पड़ता था। भारत का शायद ही कोई मान-सम्मान हो, जो उन्हें न दिया गया हो। 11 अपै्रल, 1956 को राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें हिन्दुस्तानी संगीत सम्मान प्रदान किया। 

27 अपै्रल, 1961 को पद्म श्री, 16 अपै्रल, 1968 को पद्म भूषण, 22 मई, 1980 को पद्म विभूषण और फिर 4 मई, 2001 को राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।

इतनी ख्याति एवं प्रतिष्ठा पाकर भी उन्होंने सदा सादा जीवन जिया। काशी की सुहाग गली वाले घर के एक साधारण कमरे में वे सदा चारपाई पर बैठे मिलते थे। बीमार होने पर भी वे अस्पताल नहीं जाते थे। उनकी इच्छा थी कि वे दिल्ली में इण्डिया गेट पर शहनाई बजायें। शासन ने इसके लिए उन्हें आमन्त्रित भी किया; पर तब तक उनकी काया अत्यधिक जर्जर हो चुकी थी।

21 अगस्त, 2006 को भोर होने से पहले ही उनके प्राण पखेरु उड़ गये। देहान्त से कुछ घण्टे पहले उन्होंने अपने पुत्र एवं शिष्य नैयर हुसेन को राग अहीर भैरवी की बारीकियाँ समझायीं। इस प्रकार अन्तिम साँस तक वे संगीत की साधना में रत रहे।
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22 मार्च/पुण्य-तिथि

धर्मग्रन्थों के प्रसारक भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार

भारत ही नहीं, तो विश्व भर में हिन्दू धर्मग्रन्थों को शुद्ध पाठ एवं छपाई में बहुत कम मूल्य पर पहुँचाने का श्रेय जिस विभूति को है, उन श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाई जी) का जन्म शिलांग में 17 सितम्बर, 1892 को हुआ था। उनके पिता श्री भीमराज तथा माता श्रीमती रिखीबाई थीं। दो वर्ष की अवस्था में ही इनकी माता जी का देहान्त हो गया। 

केवल 13 वर्ष की अवस्था में भाई जी ने बंग-भंग से प्रेरित होकर स्वदेशी व्रत लिया और फिर जीवन भर उसका पालन किया। केवल उन्होंने ही नहीं, तो उनकी पत्नी ने भी इस व्रत को निभाया और घर की सब विदेशी वस्तुओं की होली जला दी। भाई जी के तीन विवाह हुए। प्रथम दो पत्नियांे का जीवन अधिक नहीं रहा; पर तीसरी पत्नी ने उनका जीवन भर साथ दिया।

1912 में वे अपना पुश्तैनी कारोबार सँभालने के लिए कोलकाता आ गये। 1914 में उनका सम्पर्क महामना मदनमोहन मालवीय जी से हुआ और वे हिन्दू महासभा में सक्रिय हो गये। 1915 में वे हिन्दू महासभा के मन्त्री बने। 

कोलकाता में उनका सम्पर्क पंडित गोविन्द नारायण मिश्र, बालमुकुन्द गुप्त, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, झाबरमल शर्मा, लक्ष्मण नारायण गर्दे, बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे सम्पादक एवं विद्वान साहित्यकारों से हुआ। अनुशीलन समिति के सदस्य के नाते उनके सम्बन्ध डा. हेडगेवार, अरविन्द घोष, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, विपिनचन्द्र पाल, ब्रह्मबान्धव उपाध्याय आदि स्वन्तत्रता सेनानियों तथा क्रान्तिकारियों से लगातार बना रहता था। जब वे रोडा कम्पनी में कार्यरत थे, तो उन्होंने विदेशों से आयी रिवाल्वरों की एक पूरी खेप क्रान्तिकारियों को सौंप दी। इस पर उन्हें राजद्रोह के आरोप में दो साल के लिए अलीपुर जेल में बन्द कर दिया गया।

1918 में भाई जी व्यापार के लिए मुम्बई आ गये। यहाँ सेठ जयदयाल गोयन्दका के सहयोग से अगस्त, 1926 में धर्मप्रधान विचारों पर आधारित ‘कल्याण’ नामक मासिक पत्रिका प्रारम्भ की। कुछ वर्ष बाद गोरखपुर आकर उन्होंने गीताप्रेस की स्थापना की। इसके बाद ‘कल्याण’ का प्रकाशन गोरखपुर से होने लगा। 1933 में श्री चिम्मनलाल गोस्वामी के सम्पादन में अंग्रेजी में ‘कल्याण कल्पतरू’ मासिक पत्रिका प्रारम्भ हुई।

ये सभी पत्रिकाएँ आज भी बिना विज्ञापन के निकल रही हैं। गीताप्रेस ने बच्चों, युवाओं, महिलाओं, वृद्धों आदि के लिए बहुत कम कीमत पर संस्कारक्षम साहित्य प्रकाशित कर नया उदाहरण प्रस्तुत किया। 

हिन्दू धर्मग्रन्थों में पाठ भेद तथा त्रुटियों से भाई जी को बहुत कष्ट होता था। अतः उन्होंने तुलसीकृत श्री रामचरितमानस की जितनी हस्तलिखित प्रतियाँ मिल सकीं, एकत्र कीं और विद्वानों को बैठाकर ‘मानस पीयूष’ नामक उनका शुद्ध पाठ, भावार्थ एवं टीकाएँ तैयार करायीं। फिर इन्हें कई आकारों में प्रकाशित किया, जिससे हर कोई उससे लाभान्वित हो सके। मुद्रण की भूल को कलम से शुद्ध करने की परम्परा भी उन्होंने गीता प्रेस से प्रारम्भ की।

उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता के भी अनेक संस्करण निकाले। इसके साथ ही 11 उपनिषदों के शंकर भाष्य, वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, महाभारत, विष्णु पुराण आदि धर्मग्रन्थों को लागत मूल्य पर छापकर उन्होंने हिन्दू समाज की अनुपम सेवा की। वे ऐसी व्यवस्था भी कर गये, जिससे उनके बाद भी यह कार्य चलता रहे। 22 मार्च, 1971 को उनका शरीरान्त हुआ।
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23 मार्च/बलिदान-दिवस

इन्कलाब जिन्दाबाद के उद्घोषक भगतसिंह

क्रान्तिवीर भगतसिंह का जन्म 28 सितम्बर, 1907 को ग्राम बंगा, (जिला लायलपुर, पंजाब) में हुआ था। उसके जन्म के कुछ समय पूर्व ही उसके पिता किशनसिंह और चाचा अजीतसिंह जेल से छूटे थे। अतः उसे भागों वाला अर्थात भाग्यवान माना गया। घर में हर समय स्वाधीनता आन्दोलन की चर्चा होती रहती थी। इसका प्रभाव भगतसिंह के मन पर गहराई से पड़ा। 

13 अपै्रल 1919 को जलियाँवाला बाग, अमृतसर में क्रूर पुलिस अधिकारी डायर ने गोली चलाकर हजारों नागरिकों को मार डाला। यह सुनकर बालक भगतसिंह वहाँ गया और खून में सनी मिट्टी को एक बोतल में भर लाया। वह प्रतिदिन उसकी पूजा कर उसे माथे से लगाता था। 

भगतसिंह का विचार था कि धूर्त अंग्रेज अहिंसक आन्दोलन से नहीं भागेंगे। अतः उन्होंने आयरलैण्ड, इटली, रूस आदि के क्रान्तिकारी आन्दोलनों का गहन अध्ययन किया। वे भारत में भी ऐसा ही संगठन खड़ा करना चाहते थे। विवाह का दबाव पड़ने पर उन्होंने घर छोड़ दिया और कानपुर में स्वतन्त्रता सेनानी गणेशशंकर विद्यार्थी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम करने लगे। 

कुछ समय बाद वे लाहौर पहुँच गये और ‘नौजवान भारत सभा’ बनायी। भगतसिंह ने कई स्थानों का प्रवास भी किया। इसमें उनकी भेंट चन्द्रशेखर आजाद जैसे साथियों से हुई। उन्होंने कोलकाता जाकर बम बनाना भी सीखा। 

1928 में ब्रिटेन से लार्ड साइमन के नेतृत्व में एक दल स्वतन्त्रता की स्थिति के अध्ययन के लिए भारत आया। लाहौर में लाला लाजपतराय के नेतृत्व में इसके विरुद्ध बड़ा प्रदर्शन हुआ। इससे बौखलाकर पुलिस अधिकारी स्काॅट तथा सांडर्स ने लाठीचार्ज करा दिया। वयोवृद्ध लाला जी के सिर पर इससे भारी चोट आयी और वे कुछ दिन बाद चल बसे।

इस घटना से क्रान्तिवीरों का खून खौल उठा। उन्होंने कुछ दिन बाद सांडर्स को पुलिस कार्यालय के सामने ही गोलियों से भून दिया। पुलिस ने बहुत प्रयास किया; पर सब क्रान्तिकारी वेश बदलकर लाहौर से बाहर निकल गये। कुछ समय बाद दिल्ली में केन्द्रीय धारासभा का अधिवेशन होने वाला था। क्रान्तिवीरों ने वहाँ धमाका करने का निश्चय किया। इसके लिए भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त चुने गये। 

निर्धारित दिन ये दोनों बम और पर्चे लेकर दर्शक दीर्घा में जा पहुँचे। भारत विरोधी प्रस्तावों पर चर्चा शुरू होते ही दोनों ने खड़े होकर सदन मे बम फंेक दिया। उन्होंने ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए पर्चे फंेके, जिन पर क्रान्तिकारी आन्दोलन का उद्देश्य लिखा था।

पुलिस ने दोनों को पकड़ लिया। न्यायालय में भगतसिंह ने जो बयान दिये, उससे सारे विश्व में उनकी प्रशंसा हुई। भगतसिंह पर सांडर्स की हत्या का भी आरोप था। उस काण्ड में कई अन्य क्रान्तिकारी भी शामिल थे; जिनमें से सुखदेव और राजगुरु को पुलिस पकड़ चुकी थी। इन तीनों को 24 मार्च, 1931 को फाँसी देने का आदेश जारी कर दिया गया।

भगतसिंह की फाँसी का देश भर में व्यापक विरोध हो रहा था। इससे डरकर धूर्त अंग्रेजों ने एक दिन पूर्व 23 मार्च की शाम को इन्हेंे फाँसी दे दी और इनके शवों को परिवारजनों की अनुपस्थिति में जला दिया; पर इस बलिदान ने देश में क्रान्ति की ज्वाला को और धधका दिया। उनका नारा ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ आज भी सभा-सम्मेलनों में ऊर्जा का संचार कर देता है।
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23 मार्च/जन्म-दिवस

कृष्ण प्रेम में दीवानी मीराबाई

भारत का राजस्थान प्रान्त वीरों की खान कहा जाता है; पर इस भूमि को श्रीकृष्ण के प्रेम में अपना तन-मन और राजमहलों के सुखों को ठोकर मारने वाली मीराबाई ने भी अपनी चरण रज से पवित्र किया है। हिन्दी साहित्य में रसपूर्ण भजनों को जन्म देने का श्रेय मीरा को ही है। साधुओं की संगत और एकतारा बजाते हुए भजन गाना ही उनकी साधना थी। मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई..गाकर मीरा ने स्वयं को अमर कर लिया।

मीरा का जन्म मेड़ता के राव रत्नसिंह के घर 23 मार्च, 1498 को हुआ था। जब मीरा तीन साल की थी, तब उनके पिता का और दस साल की होने पर माता का देहान्त हो गया। जब मीरा बहुत छोटी थी, तो एक विवाह के अवसर पर उसने अपनी माँ से पूछा कि मेरा पति कौन है ? माता ने हँसी में श्रीकृष्ण की प्रतिमा की ओर इशारा कर कहा कि यही तेरे पति हैं। भोली मीरा ने इसे ही सच मानकर श्रीकृष्ण को अपने मन-मन्दिर में बैठा लिया।

माता और पिता की छत्रछाया सिर पर से उठ जाने के बाद मीरा अपने दादा राव दूदाजी के पास रहने लगीं। उनकी आयु की बालिकाएँ जब खेलती थीं, तब मीरा श्रीकृष्ण की प्रतिमा के सम्मुख बैठी उनसे बात करती रहती थी। कुछ समय बाद उसके दादा जी भी स्वर्गवासी हो गये। अब राव वीरमदेव गद्दी पर बैठे। उन्होंने मीरा का विवाह चित्तौड़ के प्रतापी राजा राणा साँगा के बड़े पुत्र भोजराज से कर दिया। इस प्रकार मीरा ससुराल आ गयी; पर अपने साथ वह अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की प्रतिमा लाना नहीं भूली।

मीरा की श्रीकृष्ण भक्ति और वैवाहिक जीवन सुखपूर्वक बीत रहा था। राजा भोज भी प्रसन्न थे; पर दुर्भाग्यवश विवाह के दस साल बाद राजा भोजराज का देहान्त हो गया। अब तो मीरा पूरी तरह श्रीकृष्ण को समर्पित हो गयीं। उनकी भक्ति की चर्चा सर्वत्र फैल गयी। दूर-दूर से लोग उनके दर्शन को आने लगे। पैरों में घुँघरू बाँध कर नाचते हुए मीरा प्रायः अपनी सुधबुध खो देती थीं।

मीरा की सास, ननद और राणा विक्रमाजीत को यह पसन्द नहीं था। राज-परिवार की पुत्रवधू इस प्रकार बेसुध होकर आम लोगों के बीच नाचे और गाये, यह उनकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध था। उन्होंने मीरा को समझाने का प्रयास किया; पर वह तो सांसारिक मान-सम्मान से ऊपर उठ चुकी थीं। उनकी गतिविधियों में कोई अन्तर नहीं आया। अन्ततः राणा ने उनके लिए विष का प्याला श्रीकृष्ण का प्रसाद कह कर भेजा। मीरा ने उसे पी लिया; पर सब हैरान रह गये, जब उसका मीरा पर कुछ असर नहीं हुआ।

राणा का क्रोध और बढ़ गया। उन्होंने एक काला नाग पिटारी में रखकर मीरा के पास भेजा; पर वह नाग भी फूलों की माला बन गया। अब मीरा समझ गयी कि उन्हें मेवाड़ छोड़ देना चाहिए। अतः वह पहले मथुरा-वृन्दावन और फिर द्वारका आ गयीं। इसके बाद चित्तौड़ पर अनेक विपत्तियाँ आयीं। राणा के हाथ से राजपाट निकल गया और युद्ध में उनकी मृत्यु हो गयी।

यह देखकर मेवाड़ के लोग उन्हें वापस लाने के लिए द्वारका गये। मीरा आना तो नहीं चाहती थी; पर जनता का आग्रह वे टाल नहीं सकीं। वे विदा लेने के लिए रणछोड़ मन्दिर में गयीं; पर पूजा में वे इतनी तल्लीन हो गयीं कि वहीं उनका शरीर छूट गया। इस प्रकार 1573 ई0 में द्वारका में ही श्रीकृष्ण की दीवानी मीरा ने अपनी देहलीला समाप्त की।
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23 मार्च/पुण्य-तिथि

सर्वप्रिय प्रचारक रतन भट्टाचार्य
रतन जी के नाम से प्रसिद्ध श्री विश्वरंजन भट्टाचार्य का जन्म 1927 में दिल्ली में हुआ था। उनके पिता श्री सुरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य तथा माता श्रीमती इन्दुबाला देवी थीं। पांच भाइयों वाले परिवार में रतन जी दूसरे नंबर पर थे। वे लोग मुर्शिदाबाद (जिला खागड़ा, बंगाल) के मूल निवासी थे; पर उनके पिताजी केन्द्र सरकार के लेखा विभाग में नौकरी मिलने पर दिल्ली आ गये।  

दिल्ली में उन दिनों संघ का काम मंदिर मार्ग स्थित हिन्दू महासभा भवन से चलता था। श्री सुरेन्द्रनाथ भी वहीं रणजीत प्लेस में रहते थे। संघ को न जानने के कारण माताजी शाखा जाने से रतन जी को रोकती थीं। श्री वसंत राव ओक तथा नारायण जी प्रायः उन्हें बुलाने आते थे। एक बार मां ने गुस्से में कहा कि मेरे पांच लड़के हैं। जाओ, मैं एक लड़का देश और धर्म के लिए देती हूं। इसके कुछ समय बाद 14 वर्ष की अवस्था में रतन जी घर छोड़कर संघ कार्यालय में ही रहने लगे। यहां रहकर उन्होंने मैट्रिक तथा इंटर किया। 

फिर प्रांत प्रचारक वसंतराव ओक ने उन्हें बरेली भेज दिया। उन दिनों सर्वत्र विभाजन की चर्चा चल रही थी। ऐसे माहौल में रतन जी ने बरेली कॉलिज से बी.ए. किया। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लग गया। उन्होंने बरेली में सत्याग्रह का संचालन किया और फिर स्वयं भी जेल गये। प्रतिबंध हटने पर संघ के प्रांतों की पुनर्रचना हुई और रतन जी उत्तर प्रदेश में ही रह गये। इसके बाद उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः उ.प्र. ही रहा। 

साठ के दशक में उन्हें कोलकाता भेजा गया। उन दिनों पूर्वी पाकिस्तान से उत्पीड़ित हिन्दू बड़ी संख्या में भारत आ रहे थे। रतन जी इन शरणार्थियों की सेवा में लग गये। वे कई बार ढाका तक भी गये। 1971 में जब भारत ने युद्ध छेड़ दिया, तो वे ‘मुक्ति वाहिनी’ के साथ काफी अंदर तक गये। पाकिस्तानी सेना द्वारा भारत के सम्मुख समर्पण के समय वे वहीं उपस्थित थे।

कोलकाता में एक बार उन्हें हृदय का भीषण दौरा पड़ा। अतः वे स्वास्थ्य लाभ के लिए नौ मास दिल्ली में छोटे भाई गोपीरंजन के घर रहे। ठीक होकर वे फिर बंगाल चले गये; पर वहां फिर दौरा पड़ गया। अतः उन्हें वापस उ.प्र. में ही बुला लिया गया। लम्बे समय तक वे बरेली के विभाग प्रचारक, संभाग प्रचारक, पश्चिमी उ.प्र.के सम्पर्क प्रमुख और ‘विद्या भारती’ पश्चिमी उ.प्र. के संरक्षक रहे। अटल जी जब पहली बार बलरामपुर से सांसद बने, तब रतन जी वहीं प्रचारक थे। उनकी देखरेख में ही चुनाव लड़ा गया था। अतः अटल जी और उनके सहायक शिवकुमार जी उनका बहुत सम्मान करते थे।

रतन जी प्रवास में जहां ठहरते थे, वहां सबसे हिलमिल जाते थे। महिलाएं और बच्चे रात में उनके पास बैठकर संस्कारप्रद किस्से सुनते थे। सैकड़ों परिवारों में उन्हें बाबा जैसा आदर मिलता था। हंसमुख होने पर भी वे समयपालन, व्यवस्था तथा अनुशासन के मामले में बहुत कठोर थे। संघ शिक्षा वर्ग में यदि कोई शिक्षक संघस्थान पर उचित वेष में नहीं होता था, तो वे उसे वापस भेज देते थे। कार्यकर्ता द्वारा भूल होने पर पहले समझाना, फिर चेतावनी और फिर दंड, यह उनका सिद्धांत था। कार्यकर्ता उनसे दिल खोलकर बात करते थे। वे भी पूरी बात धैर्य से सुनकर पक्का निदान करते थे।

उच्च रक्तचाप के कारण प्रायः उनके पैर सूज जाते थे। कोलकाता में वे अधरंग के भी शिकार हो चुके थे। बोलते हुए उनकी जीभ लड़खड़ा जाती थी। अतः आगरा केन्द्र बनाकर उन्हें प्रवास से विश्राम दे दिया गया। 23 मार्च, 1999 को दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान में हैपिटाइटिस बी के कारण उनका निधन हुआ। अपने छोटे भाई गोपीरंजन से उन्हें बहुत स्नेह था। वे तब रतन जी के पास ही थे। उनकी अंत्यक्रिया में सुदर्शन जी पूरे समय उपस्थित रहे। उनके निधन पर आगरा में संघ कार्यालय के पास के बाजार भी आधे दिन बंद रहे। 

(संदर्भ : श्री गोपीरंजन से वार्ता, 1.12.2015 तथा अन्य सूत्र)
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