अप्रैल पहला सप्ताह

1 अप्रैल/जन्म-दिवस

संघ संस्थापक डा. हेडगेवार

विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आज कौन नहीं जानता ? भारत के कोने-कोने में इसकी शाखाएँ हैं। विश्व में जिस देश में भी हिन्दू रहते हैं, वहाँ किसी न किसी रूप में संघ का काम है। संघ के निर्माता डा. केशवराव हेडगेवार का जन्म एक अपै्रल, 1889 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, वि. सम्वत् 1946) को नागपुर में हुआ था। इनके पिता श्री बलिराम हेडगेवार तथा माता श्रीमती रेवतीवाई थीं।

केशव जन्मजात देशभक्त थे। बचपन से ही उन्हें नगर में घूमते हुए अंग्रेज सैनिक, सीताबर्डी के किले पर फहराता अंग्रेजों का झंडा यूनियन जैक तथा विद्यालय में गाया जाने वाला गीत ‘गाॅड सेव दि किंग’ बहुत बुरा लगता था। उन्होंने एक बार सुरंग बनाकर वह झंडा उतारने की योजना बनाई; पर बालपन की यह योजना सिरे नहीं चढ़ी। वे सोचते थे कि इतने बड़े देश पर बाहर वालों ने अधिकार कैसे कर लिया ? वे अपने अध्यापकों और अन्य बड़े लोगों से बार-बार यह प्रश्न पूछते थे; पर कोई ठीक समाधान नहीं कर सका।

बहुत दिनों बाद उनकी समझ में यह आया कि भारत के रहने वाले हिन्दू असंगठित हैं। वे जाति, प्रान्त, भाषा, वर्ग, वर्ण आदि के नाम पर तो एकत्र हो जाते हैं; पर हिन्दू के नाम पर नहीं। भारत के राजाओं और जमीदारों में अपने वंश तथा राज्य का दुराभिमान तो है; पर देश का अभिमान नहीं। इसी कारण विदेशी आकर भारत को लूटते रहे और हम देखते रहे। यह सब सोचकर केशवराव ने स्वयं इस दिशा में कुछ काम करने का विचार किया।

उन दिनों देश की आजादी के लिए सब लोग संघर्षरत थे। स्वाधीनता के प्रेमी केशवराव भी उसमें कूद पड़े। उन्होंने कोलकाता में मैडिकल की पढ़ाई करते समय क्रान्तिकारियों के साथ और वहाँ से नागपुर लौटकर कांग्रेस के साथ काम किया। इसके बाद भी उनके मन को शान्ति नहीं मिली। 

सब विषयों पर खूब चिन्तन और मनन कर उन्होंने नागपुर में 1925 की विजयादशमी पर हिन्दुओं को संगठित करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। गृहस्थी के बन्धन में न पड़ते हुए उन्होंने पूरा समय इस हेतु ही समर्पित कर दिया। यद्यपि स्वाधीनता आंदोलन में उनकी सक्रियता बनी रही तथा 1930 में जंगल सत्याग्रह में भाग लेकर वे एक वर्ष अकोला जेल में रहे।

उन दिनों प्रायः सभी संगठन धरने, प्रदर्शन, जुलूस, वार्षिकोत्सव जैसे कार्यक्रम करते थे; पर डा. हेडगेवार ने दैनिक शाखा नामक नई पद्धति का आविष्कार किया। शाखा में स्वयंसेवक प्रतिदिन एक घंटे के लिए एकत्र होते हैं। वे अपनी शारीरिक स्थिति के अनुसार कुछ खेलकूद और व्यायाम करते हैं। फिर देशभक्ति के गीत गाकर महापुरुषों की कथाएं सुनते और सुनाते हैं। अन्त में भारतमाता की प्रार्थना के साथ उस दिन की शाखा समाप्त होती है।

प्रारम्भ में लोगों ने इस शाखा पद्धति की हँसी उड़ायी; पर डा. हेडगेवार निर्विकार भाव से अपने काम में लगे रहे। उन्होंने बड़ों की बजाय छोटे बच्चों में काम प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे शाखाओं का विस्तार पहले महाराष्ट्र और फिर पूरे भारत में हो गया। अब डा. जी ने पूरे देश में प्रवास प्रारम्भ कर दिया। हर स्थान पर देशभक्त नागरिक और उत्साही युवक संघ से जुड़ने लगे।

डा. हेडगेवार अथक परिश्रम करते थे। इसका दुष्प्रभाव उनके शरीर पर दिखायी देने लगा। अतः उन्होंने सब कार्यकर्ताओं से परामर्श कर श्री माधवराव गोलवलकर (श्री गुरुजी) को नया सरसंघचालक नियुक्त किया। 20 जून को उनकी रीढ़ की हड्डी का आॅपरेशन (लम्बर पंक्चर) किया गया; पर उससे भी बात नहीं बनी और अगले दिन 21 जून, 1940 को उन्होंने देह त्याग दी।
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अप्रैल/जन्म-दिवस

मौन साधक अरविन्द भट्टाचार्य

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ऐसे सैकड़ों मौन साधकों का निर्माण किया है, जिन्होंने अपनी देह को तिल-तिल गलाकर गहन क्षेत्रों में हिन्दुत्व की जड़ें मजबूत कीं। ऐसे ही एक साधक थे श्री अरविन्द भट्टाचार्य। 

अरविन्द दा का जन्म एक अपै्रल, 1929 को हैलाकांडी (असम) में हुआ। वे विद्यार्थी जीवन में संघ के स्वयंसेवक बने। एम.ए. तथा बी.टी. कर वे एक इंटर कालिज में प्राध्यापक हो गये। उन दिनों श्री मधुकर लिमये असम में प्रचारक थे। उनके सम्पर्क में आकर ‘अरविंद दा’ ने 1966 में नौकरी छोड़कर प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया। प्रारम्भ में उन्हें संघ के काम में लगाया गया। फिर उनकी कार्यक्षमता देखकर उन्हें 1970 में ‘विश्व हिन्दू परिषद’ का सम्पूर्ण उत्तर पूर्वांचल अर्थात सातों राज्यों का संगठन मंत्री बनाया गया।

उन दिनों यहां का वातावरण बहुत भयावह था। एक ओर बंगलादेश से आ रहे मुस्लिम घुसपैठिये, उनके कारण बढ़ते अपराध और बदलता जनसंख्या समीकरण, दूसरी ओर चर्च द्वारा बाइबिल के साथ राइफल का भी वितरण और इससे उत्पन्न आतंकवाद। जनजातियों के आपसी हिंसक संघर्ष और नक्सलियों का उत्पात। ऐसे में अरविंद दा ने शून्य में से ही सृष्टि खड़ी कर दिखाई।

इस क्षेत्र में यातायात के लिए पैदल और बस का ही सहारा है। ऐसे में 50-60 कि.मी. तक पैदल चलना या 20-22 घंटे बस में लगातार यात्रा करना उनके जैसे जीवट वाले व्यक्ति के लिए ही संभव था। उन्होंने नगा नेता रानी मां गाइडिन्ल्यू तथा अनेक जनजातीय प्रमुखों को संघ और परिषद से जोड़ा। 

त्रिपुरा में शांतिकाली महाराज की हत्या के बाद उन्होंने हिन्दू सम्मेलन कर आतंक के माहौल को समाप्त किया। इस क्षेत्र में बंगलाभाषियों से घृणा की जाती है। अरविंद दा की मातृभाषा बंगला थी; पर अपने परिश्रम और मधुर व्यवहार से उन्होंने सबका मन जीत लिया था। हिन्दू सम्मेलनों द्वारा जनजातीय प्रमुखों व सत्राधिकारों को वे एक मंच पर लाए। गोहाटी आदि शहरों में बिहार से आये श्रमिकों को भी उन्होंने संगठित कर परिषद से जोड़ा।

उत्तर पूर्वांचल में चर्च की शह पर सैकड़ों आतंकी गुट अलग न्यू इंग्लैंड बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। बड़ी संख्या में लोग वहां ईसाई बन भी चुके हैं। ऐसे में संघ और विश्व हिन्दू परिषद ने वहां अनेक छात्रावास, विद्यालय, चिकित्सालय आदि स्थापित किये। इन सबमें अरविंद दा की मौन साधना काम कर रही थी। आतंकियों द्वारा लगाये गये 100 से लेकर 500 घंटे तक के कफ्र्यू के बीच भी वे निर्भयतापूर्वक समस्या पीडि़त गांवों में जाते थे। 

हिन्दू पर कहीं भी कठिनाई हो, तो अरविंद दा वहां पहुंचते अवश्य थे। आगे चलकर उन्हें वि.हि.प. का क्षेत्रीय संगठन मंत्री तथा फिर 2002 में केन्द्रीय सहमंत्री बनाया गया। सेवा कार्य और परावर्तन में उनकी विशेष रुचि थी।

अत्यधिक परिश्रम और खानपान की अव्यवस्था के कारण उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। 2005 में उनके पित्ताशय में पथरी की शल्य चिकित्सा हुई। इसके बाद उनका प्रवास प्रायः बंद हो गया। मार्च 2009 में उनका ‘सहस्रचंद्र दर्शन’ कार्यक्रम मनाया गया। कार्यकर्ताओं ने इसके लिए साढ़े तीन लाख परिवारों से सम्पर्क किया। पूर्वांचल के सब क्षेत्रों से हजारों कार्यकर्ता आये। 

जुलाई में तेज बुखार के कारण उन्हें चिकित्सालय भेजा गया। चिकित्सकों ने मस्तिष्क की जांच कर बताया कि वहां की कोशिकाएं क्रमशः मर रही हैं। दोनों फेफड़ों में पानी भरने से संक्रमण हो गया था। धीरे-धीरे नाड़ी की गति भी कम होने लगी। भरपूर प्रयास के बाद भी 26 जुलाई, 2009 को ब्रह्ममुहूर्त में उन्होंने देह त्याग दी। इस प्रकार एक मौन साधक सदा के लिए मौन हो गया।
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अप्रैल/पुण्य-तिथि

भारतीय क्रिकेट के नायक रणजी

आजकल भारत के हर गली-मुहल्ले में बच्चे क्रिकेट खेलते मिल जाते हैं। यहाँ तक कि क्रिकेट एक बीमारी बन गया है। लोग अपने सारे काम छोड़कर कान से रेडियो लगाये या दूरदर्शन के सामने बैठकर इसी की चर्चा करते रहते हैं। पैसे की अधिकता के कारण इसमें भ्रष्टाचार और राजनीति भी होने लगी है; पर 50-60 साल पहले ऐसा नहीं था। 

भारत में इसे लोकप्रिय करने का जिन्हें श्रेय है, वे थे भारत के गुजरात राज्य की एक छोटी सी रियासत नवानगर के राजकुमार रणजीत सिंह। वे एक महान् खिलाड़ी एवं देशभक्त थे। उनका जन्म 1872 में हुआ था। उनका बचपन सरोदर और फिर राजकोट में बीता। राजकोट में उनका परिचय क्रिकेट से हुआ। थोड़े ही समय में उन्होंने इस खेल में महारत प्राप्त कर ली।

1892 में वे इंग्लैण्ड गये और एक वर्ष अंग्रेजी का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए मेलबोर्न पाठशाला में भर्ती हो गये। इसके बाद उन्हें कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश मिल गया। इंग्लैण्ड में सर्दी अधिक पड़ती है। जून, जुलाई तथा अगस्त के महीने वहाँ गुनगुनी गर्मी के होते हैं। उन दिनों लोग दिन भर क्रिकेट खेलते हुए धूप का आनन्द उठाते थे। रणजी क्रिकेट में अंग्रेजों जैसी श्रेष्ठता पाने के लिए पेशेवर गेंदबाजों के साथ अभ्यास करने लगे।

इंग्लैण्ड में भारतीयों के साथ बहुत भेदभाव होता था; पर रणजी अपनी कुशलता से एक ही साल में वहाँ प्रथम श्रेणी की क्रिकेट खेलने लगे। थोड़े ही समय में वे अपने विश्वविद्यालय की टीम में शामिल कर लिये गये। ऐसा स्थान पाने वाले वे पहले भारतीय थे। रन बनाने की तीव्र गति के कारण उन्हें रणजीत सिंह के बदले रनगेट सिंह कहा जाने लगा। 

1907 में रणजी को उनकी रियासत का राजा बना दिया गया। अब वे नवानगर के जामसाहब कहलाने लगे। इस जिम्मेदारी से उन्हें क्रिकेट के लिए समय कम मिलने लगा। फिर भी वे साल में सात-आठ महीने इंग्लैण्ड जाकर क्रिकेट खेलते थे। 

रणजी राज्य के प्रशासनिक कार्यों में भी बड़ी रुचि लेते थे। 1914 में उन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध में एक सैनिक के नाते भाग लिया। 1920 में लीग अ१फ नेशन्स के सम्मेलन में रणजी ने भारतीय शासकों के प्रतिनिधिमण्डल का नेतृत्व भी किया था।  

रणजी ने भारत में क्रिकेट के विकास के लिए इंग्लैण्ड से अच्छे खिलाडि़यों को बुलाया। इससे भारत में अनेक अच्छे खिलाड़ी विकसित हुए। इनमें उनके भतीजे दिलीपसिंह भी थे। विदेश जाने वाले खिलाडि़यों को वे सदा भारत का नाम ऊँचा करने के लिए प्रेरित करते थे। उन्होंने ही बैकफुट पर जाकर खेलने तथा लैग ग्लान्स जैसी नयी विधियों को क्रिकेट में प्रचलित किया।

रणजी का हृदय बहुत उदार था। उच्च शिक्षा हेतु विदेश जाने वाले को वे प्रोत्साहन तथा सहायता देते थे, चाहे वह राजकुमार हो या राज्य का सामान्य युवक। एक बार वे निशानेबाजी प्रतियोगिता देख रहे थे। अचानक एक गोली उनकी आँख में आ लगी। इससे उनकी वह आँख बेकार हो गयी; पर खेल के प्रेमी रणजी ने कभी उस खिलाड़ी का नाम किसी को नहीं बताया।

आज तो भारत के अनेक क्रिकेट खिलाडि़यों का विश्व में बड़ा  सम्मान है; फिर भी भारतीय क्रिकेट का नायक रणजी को ही माना जाता है। दो अप्रैल  1933 को रणजी का देहान्त हुआ। उनकी याद में भारत में प्रतिवर्ष रणजी ट्राफी खेलों का आयोजन किया जाता है।
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2 अपै्रल/जन्म-दिवस

सुलभ समाजसेवी डा. बिन्देश्वरी पाठक

स्वच्छ समाज और स्वच्छ मानस का मंत्र दुनिया भर में गुंजाने वाले डा. बिंदेश्वरी पाठक का जन्म बिहार में वैशाली जिले के रामपुर बघेल गांव में दो अपै्रल, 1943 को हुआ था। उन्होंने पटना वि.वि. से समाज शास्त्र में एम.ए, पीएच.डी और फिर डी.लिट की उपाधि प्राप्त की। अब उन्हें देश-विदेश में मोटे वेतन की नौकरियों की कमी नहीं थी; पर उन्होंने समाजसेवा का वह मार्ग चुना, जिससे लोग घृणा करते थे। वह था सुलभ शौचालय का निर्माण। उनके शोध का विषय भी भंगी मुक्ति और स्वच्छता के लिए सर्वसुलभ संसाधनथा।

1968 में डा. पाठक बिहार गांधी जन्मशती समारोह में एक कार्यकर्ता के नाते जुड़े। उस दौरान एक प्रकोष्ठ का गठन हुआ, जिसका विषय वाल्मीकि समुदाय को मैला ढोने के अमानवीय कार्य से मुक्त कर उनके खोए सम्मान को लौटाना था। 1969 में शताब्दी वर्ष के कार्यक्रम समाप्त होते ही सरकार और राजनेता अपने काम-धंधे में लग गये; पर डा. पाठक के मन में यह विषय गहराई तक बैठ गया। उन्होंने इस पर आगे काम करने की ठान ली।

1969 में डा. पाठक बेतिया की एक वाल्मीकि बस्ती में गये। वहां की सामाजिक स्थिति देखकर वे मर्माहत हो उठे। उन दिनों फ्लश के शौचालय बड़े शहरों में भी कुछ घरों में ही होते थे। अतः सफाइकर्मी घरों से मानव मल को सिर पर ढोकर लाते थे और उसे नदी, तालाब या नालियों में बहा देते थे। इस गंदे पानी से बीमारियां फैलती थीं। गांव में लोग खेत में या रेल की पटरियों के आसपास शौच जाते थे। इससे महिलाओं को बहुत कष्ट होता था। वे या तो अति सुबह शौच जाती थीं या शाम को अंधेरे में। असुरक्षा के कारण वे समूह में ही जाती थीं। शौच की इच्छा होने पर भी उन्हें निर्धारित समय और साथियों की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। अतः उन्हें अनेक रोग घेर लेते थे।

डा. पाठक ने इसके विकल्प में दो गड्ढे वाले जलप्रवाही शौचालय का आविष्कार किया। उन्होंने पांच मार्च, 1970 को सुलभ शौचालय संस्थानकी स्थापना की, जो अब सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशनकहलाता है। उन्होंने बिहार में आरा नगर निगम परिसर में 500 रु. लागत का पहला सुलभ शौचालयबनाया। आज देश भर में 10,000 से अधिक सुलभ शौचालयों का प्रयोग दो करोड़ से अधिक लोग अल्प राशि देकर करते हैं। यहां एकत्रित मल से बिना दुर्गंध वाली बायोगैस बनती है, जो वैकल्पिक ऊर्जा का एक बड़ा स्रोत है। शेष अपशिष्ट का प्रयोग खाद के रूप में होता है।

डा. पाठक भारत सरकार के स्वच्छ भारत अभियानसे भी जुड़े थे। उन्होंने 16 लाख घरेलू शौचालय बनवाये तथा वाल्मीकि बच्चों की शिक्षा के लिए सुलभ पब्लिक स्कूल, सुलभ आई.टी.आई वोकेशनल टेªनिंग सेंटर आदि खोले। हजारों लोगों को उन्होंने मैला ढोने से मुक्तकर खाद्य सामग्री बनाने तथा सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण दिलाया। उन्होंने वृंदावन और काशी में रहने वाली विधवा तथा परित्यक्त महिलाओं के उत्थान के प्रकल्प भी चलाये। वे युवा विधवाओं के पुनर्विवाह भी करवाते थे। उन्होंने 1992 में दिल्ली में शौचालय एवं शौच क्रिया आधारित संग्रहालय बनवाया, जिसे देखने दुनिया भर से लोग आते हैं। उनकी संस्था से 50,000 समर्पित स्वयंसेवी जुड़े हैं।

उनकी तकनीक देखकर संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद ने उन्हें स्वच्छता के लिए अपना विशेष सलाहकार बनाया। वे एक श्रेष्ठ वक्ता एवं कई पुस्तकों के लेखक थे। भारत सरकार ने भी उन्हें पद्म भूषणऔर गांधी शांति पुरस्कारसे अलंकृत किया। 15 अगस्त, 2023 को दिल्ली स्थित अपने मुख्यालय में ध्वजारोहण के बाद पड़े भीषण दिल के दौरे से वे गिर पड़े। उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया, जहां उनका प्राणांत हो गया।

(विकी/पांचजन्य 27.8.23/43, डा. अशोक कुमार ज्योति/सामयिक अखबार)

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3 अप्रैल/जन्म-दिवस

सांस्कृतिक प्रेरणा पुरुष लालचन्द प्रार्थी 

हिमाचल प्रदेश के गौरव श्री लालचन्द ‘प्रार्थी’ उन साहित्यकारों में थे, जो हिन्दी साहित्याकाश में आज भी ‘चाँद कुल्लुवी’ के नाम से चमक रहे हैं। कुल्लू से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र में उनके दो स्तम्भ ‘लूहरी से लिंघटी तक’ तथा ‘प्रार्थी के खड़प्के’ छपते थे। ये स्तम्भ पाठकों में अत्यधिक लोकप्रिय थे। दुर्भाग्यवश संग्रह न होने के कारण वे खड़प्के आज उपलब्ध नहीं हैं।

प्रार्थी जी का जन्म कुल्लू जिले के नग्गर गाँव में 3 अप्रैल, 1916 को हुआ था। वे उच्च कोटि के साहित्यकार, राजनेता, हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, फारसी और उर्दू के प्रकांड विद्वान थे। उनका व्यक्तित्व आकर्षक था और अपने धाराप्रवाह भाषण से श्रोताओं को घंटों तक बाँधे रखते थे। 

वे एक प्रामाणिक विधायक और मन्त्री रहे। मैट्रिक की शिक्षा अपने क्षेत्र से पाकर वे लाहौर चले गये और वहाँ से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की। लाहौर में रहते हुए वे ‘डोगरा सन्देश’ और ‘कांगड़ा समाचार’ के लिए नियमित रूप से लिखने लगेे। इसके साथ ही उन्होंने अपने विद्यालय के छात्रों का नेतृत्व किया और स्वतन्त्रता संग्राम में कूद गये। 

1940 के दशक में उनका गीत ‘हे भगवान, दो वरदान, काम देश के आऊँ मैं’ बहुत लोकप्रिय था। इसे गाते हुए बच्चे और बड़े गली-कूचों में घूमते थे। इसी समय उन्होंने ग्राम्य सुधार पर एक पुस्तक भी लिखी। यह गीत उस पुस्तक में ही छपा था। लेखन के साथ ही उनकी प्रतिभा नृत्य और संगीत में भी थी। वे पाँव में घुँघरू बाँधकर हारमोनियम बजाते हुए महफिलों में समाँ बाँध देते थे। उन्हें शास्त्रीय गीत, संगीत और नृत्य की बारीकियों का अच्छा ज्ञान था। 

लाहौर में निर्मित फिल्म ‘कारवाँ’ में उन्होंने अभिनय भी किया था। इसके अतिरिक्त भी उनमें अनेक गुण थे, जिनका वर्णन देवप्रस्थ साहित्य संगम, कुल्लू द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘प्रार्थी के बिखरे फूल’ में विस्तार से किया गया है।

लालचन्द प्रार्थी ने हिमाचल प्रदेश की संस्कृति के उत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। एक समय ऐसा भी था, जब हिमाचल के लोगों में अपनी भाषा, बोली और संस्कृति के प्रति हीनता की भावना पैदा हो गयी थी। वे विदेशी और विधर्मी संस्कृति को श्रेष्ठ मानने लगे थे। ऐसे समय में प्रार्थी जी ने सांस्कृतिक रूप से प्रदेश का नेतृत्व किया। इससे युवाओं का पलायन रुका और लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति गर्व की भावना जाग्रत हुई।

हिमाचल प्रदेश में भाषा-संस्कृति विभाग और अकादमी की स्थापना, कुल्लू के प्रसिद्ध दशहरा मेले को अन्तरराष्ट्रीय पटल पर स्थापित करना तथा कुल्लू में मुक्ताकाश कला केन्द्र की स्थापना उनके ही प्रयास से हुई। प्रार्थी जी ने अनेक भाषाओं में साहित्य रचा; पर उनकी पहचान मुख्यतः उर्दू शायरी से बनी। उनके काव्य को ‘वजूद ओ अदम’ नाम से उनके देहान्त के बाद 1983 में भाषा, कला और संस्कृति अकादमी ने प्रकाशित किया। 

उन्होंने एक बार अपनी कविता में कहा था -

खुश्क धरती की दरारों ने किया याद अगर
उनकी आशाओं का बादल हूँ, बरस जाऊँगा।
कौन समझेगा कि फिर शोर में तनहाई के
अपनी आवाज भी सुनने को तरस जाऊँगा।।

11 दिसम्बर, 1982 को हिमाचल का यह चाँद छिप गया और लोग सचमुच उनकी आवाज सुनने को तरस गये।
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अप्रैल/जन्म-दिवस

फील्ड मार्शल मानेकशा

20वीं शती के प्रख्यात सेनापति फील्ड मार्शल सैमजी होरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशा का जन्म 3 अपै्रल 1914 को एक पारसी परिवार में अमृतसर में हुआ था। उनके पिता जी वहां चिकित्सक थे। पारसी परम्परा में अपने नाम के बाद पिता, दादा और परदादा का नाम भी जोड़ा जाता है; पर वे अपने मित्रों में अंत तक सैम बहादुर के नाम से प्रसिद्ध रहे।

सैम मानेकशा का सपना बचपन से ही सेना में जाने का था। 1942 में उन्होंने मेजर के नाते द्वितीय विश्व युद्ध में गोरखा रेजिमेंट के साथ बर्मा के मोर्चे पर जापान के विरुद्ध युद्ध किया। वहां उनके पेट और फेफड़ों में मशीनगन की नौ गोलियां लगीं। शत्रु ने उन्हें मृत समझ लिया; पर अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर वे बच गये। इतना ही नहीं, वह मोर्चा भी उन्होंने जीत लिया। उनकी इस वीरता पर शासन ने उन्हें ‘मिलट्री क्रास’ से सम्मानित किया।

1971 में पश्चिमी पाकिस्तान के अत्याचारों के कारण पूर्वी पाकिस्तान के लोग बड़ी संख्या में भारत आ रहे थे। उनके कारण भारत की अर्थव्यवस्था पर बड़ा दबाव पड़ रहा था तथा वातावरण भी खराब हो रहा था। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपै्रल में उनसे कहा कि वे सीमा पार कर चढ़ाई कर दें। मानेकशा ने दो टूक कहा कि कुछ समय बाद उधर वर्षा होने वाली है। ऐसे में हमारी सेनाएं वहां फंस जाएंगी। इसलिए युद्ध करना है, तो सर्दियों की प्रतीक्षा करनी होगी। 

प्रधानमंत्री के सामने ऐसा उत्तर देना आसान नहीं था। मानेकशा ने यह भी कहा कि यदि आप चाहें तो मेरा त्यागपत्र ले लें; पर युद्ध तो पूरी तैयारी के साथ जीतने के लिए होगा। इसमें थल के साथ नभ और वायुसेना की भी भागीदारी होगी। इसलिए इसकी तैयारी के लिए हमें समय चाहिए।

इंदिरा गांधी ने उनकी बात मान ली और फिर इसका परिणाम सारी दुनिया ने देखा कि केवल 14 दिन के युद्ध में पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों ने  अपने सेनापति जनरल नियाजी के नेतृत्व में समर्पण कर दिया। इतना ही नहीं, तो विश्व पटल पर एक नये बांग्लादेश का उदय हुआ। इसके बाद भी जनरल मानेकशा इतने विनम्र थे कि उन्होंने इसका श्रेय जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा को देकर समर्पण कार्यक्रम में उन्हें ही भेजा। 

जनरल मानेकशा बहुत हंसमुख स्वभाव के थे; पर हर काम को वे पूरी निष्ठा से करते थे। देश की स्वतंत्रता के समय वे सेना संचालन निदेशालय में लेफ्टिनेंट कर्नल थे। 1948 में उन्हें इस पद के साथ ही ब्रिगेडियर भी बना दिया गया। 1957 में वे मेजर जनरल और 1962 में लेफ्टिनेंट जनरल बने। 

8 जून 1969 को उन्हें थल सेनाध्यक्ष बनाया गया। 1971 में पाकिस्तान पर अभूतपूर्व विजय पाने के बाद उन्हें फील्ड मार्शल के पद पर विभूषित किया गया। 1973 में उन्होंने सेना के सक्रिय जीवन से अवकाश लिया।

जिन दिनों देश में घोर अव्यवस्था चल रही थी, तो इंदिरा गांधी ने परेशान होकर उन्हें सत्ता संभालने को कहा। जनरल मानेकशा ने हंसकर कहा कि मेरी नाक लम्बी जरूर है; पर मैं उसे ऐसे मामलों में नहीं घुसेड़ता। सेना का काम राजनीति करना नहीं है। इंदिरा गांधी उनका मुंह देखती रह गयीं।

26 जून, 2008 को 94 वर्ष की सुदीर्घ आयु में तमिलनाडु के एक सैनिक अस्पताल में उनका देहांत हुआ। यह कितने शर्म की बात है कि फील्ड मार्शल होते हुए भी श्री मानेकशा के अंतिम संस्कार में भारत सरकार का कोई बड़ा अधिकारी शामिल नहीं हुआ।
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अप्रैल/जन्म-दिवस

श्री स्वामी नारायण

भारत में अनेक महापुरुष ऐसे हुए हैं, जिनकी महानता के कारण लोग उन्हें साक्षात परमेश्वर या परमेश्वर का अवतार मानते हैं। श्री स्वामी नारायण ऐसे ही एक महामानव थे। दिनांक तीन अप्रैल, 1781 (चैत्र शुक्ल 9, वि0संवत 1837) को श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या के पास स्थित ग्राम छपिया में उनका जन्म हुआ। 

रामनवमी होने से सम्पूर्ण क्षेत्र में पर्व का माहौल था। पिता श्री हरिप्रसाद व माता भक्तिदेवी ने उसका नाम घनश्याम रखा। बालक के हाथ में  पद्म और पैर में वज्र, ऊध्र्वरेखा तथा कमल का चिन्ह देखकर ज्योतिषियों ने कह दिया कि यह बालक लाखों लोगों के जीवन को सही दिशा देगा।

पांच वर्ष की अवस्था में बालक को अक्षरज्ञान दिया गया। आठ वर्ष का होने पर उसका जनेऊ संस्कार हुआ। छोटी अवस्था में ही उसने अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। जब वह केवल 11 वर्ष का था, तो माता व पिताजी का देहांत हो गया। कुछ समय बाद अपने भाई से किसी बात पर विवाद होने पर उन्होंने घर छोड़ दिया और अगले सात साल तक पूरे देश की परिक्रमा की। अब लोग उन्हें नीलकंठवर्णी कहने लगे।

इस दौरान उन्होंने गोपालयोगी से अष्टांग योग सीखा। वे उत्तर में हिमालय, दक्षिण में कांची, श्रीरंगपुर, रामेश्वरम् आदि तक गये। इसके बाद पंढरपुर व नासिक होते हुए वे गुजरात आ गये।

एक दिन नीलकंठवर्णी मांगरोल के पास ‘लोज’ गांव में पहुंचे। वहां उनका परिचय स्वामी मुक्तानंद से हुआ, जो स्वामी रामानंद के शिष्य थे। नीलकंठवर्णी स्वामी रामानंद के दर्शन को उत्सुक थे। उधर रामानंद जी भी प्रायः भक्तों से कहते थे कि असली नट तो अब आएगा, मैं तो उसके आगमन से पूर्व डुगडुगी बजा रहा हूं। भेंट के बाद रामानंद जी ने उन्हें स्वामी मुक्तानंद के साथ ही रहने को कहा। नीलकंठवर्णी ने उनका आदेश शिरोधार्य किया।

उन दिनों स्वामी मुक्तानंद कथा करते थे। उसमें स्त्री तथा पुरुष दोनों ही आते थे। नीलकंठवर्णी ने देखा अनेक श्रोताओं और साधुओं का ध्यान कथा की ओर न होकर महिलाओं की ओर होता है। अतः उन्होंने पुरुषों तथा स्त्रियों के लिए अलग कथा की व्यवस्था की तथा प्रयासपूर्वक महिला कथावाचकों को भी तैयार किया। उनका मत था कि संन्यासी को उसके लिए बनाये गये सभी नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करना चाहिए।

कुछ समय बाद स्वामी रामानंद ने नीलकंठवर्णी को पीपलाणा गांव में दीक्षा देकर उनका नाम सहजानंद रख दिया। एक साल बाद जेतपुर में उन्होंने सहजानंद को अपने सम्प्रदाय का आचार्य पद भी दे दिया। इसके कुछ समय बाद स्वामी रामानंद जी का शरीरांत हो गया। अब स्वामी सहजानंद ने गांव-गांव घूमकर सबको स्वामीनारायण मंत्र जपने को कहा। 

उन्होंने निर्धन सेवा को लक्ष्य बनाकर सब वर्गों को अपने साथ जोड़ा। इससे उनकी ख्याति सब ओर फैल गयी। वे अपने शिष्यों को पांच व्रत लेने को कहते थे। इनमें मांस, मदिरा, चोरी, व्यभिचार का त्याग तथा स्वधर्म के पालन की बात होती थी।

स्वामी जी ने जो नियम बनाये, वे स्वयं भी उनका कठोरता से पालन करते थे। उन्होंने यज्ञ में हिंसा, बलिप्रथा, सतीप्रथा, कन्या हत्या, भूत बाधा जैसी कुरीतियों को बंद कराया। उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः गुजरात रहा। प्राकृतिक आपदा आने पर वे बिना भेदभाव के सबकी सहायता करते थे। इस सेवाभाव को देखकर लोग उन्हें भगवान का अवतार मानने लगे। स्वामी जी ने अनेक मंदिरों का निर्माण कराया, इनके निर्माण के समय वे स्वयं सबके साथ श्रमदान करते थे।

धर्म के प्रति इसी प्रकार श्रद्धाभाव जगाते हुए स्वामी जी ने 1830 ई0 में देह छोड़ दी। आज उनके अनुयायी विश्व भर में फैले हैं। वे मंदिरों को सेवा व ज्ञान का केन्द्र बनाकर काम करते हैं। गांधीनगर (गुजरात) तथा दिल्ली का अक्षरधाम मंदिर स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है।
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अप्रैल/पुण्य-तिथि

खदान मजदूरों के शुभचिन्तक त्रयम्बकराव जुमड़े

भारत में कोयला तथा अन्य खनिजों का भरपूर भंडार है। इन खदानों के मालिक और ठेकेदार तो मालामाल हो जाते हैं; पर जो मजदूर अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में इन खदानों में काम करते हैं, वे निर्धन ही रहते हैं। ‘भारतीय मजदूर संघ’ के माध्यम से इन खदान मजदूरों का सबल संगठन खड़ा कर, उनके जीवन में सुधार लाने वाले श्री त्रयम्बकराव जुमड़े संघ के वरिष्ठ प्रचारक थे। 

त्रयम्बकराव जुमड़े का जन्म 1915 में सिन्दी (जिला वर्धा, महाराष्ट्र) के एक निर्धन परिवार में हुआ था। सिन्दी का संघ के इतिहास में विशेष स्थान है। यहां डा0 हेडगेवार की उपस्थिति में हुई एक बैठक में संघ की कार्यप्रणाली, प्रार्थना, आज्ञा, गणवेश आदि के बारे में महत्वपूर्ण निर्णय हुए थे।

त्रयम्बकराव ने मिडिल तक की शिक्षा सिन्दी के मिडिल स्कूल में ही पाई। इसके बाद वे वर्धा आ गये। 1932 तक वहां रहकर उन्होंने मैट्रिक की शिक्षा पूर्ण की। 1926 में जब संघ के संस्थापक डा0 हेडगेवार सिन्दी आये, तो वहां शाखा प्रारम्भ हुई। उसमें त्रयम्बकराव भी बाल स्वयंसेवक के रूप में नियमित रूप से आने लगे। इस प्रकार वे शिशु अवस्था से ही संघ से जुड़ गये। 

आगे चलकर अप्पा जी जोशी के सान्निध्य में उन्होंने 1932, 33 और 34 में संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण वर्गों में भाग लिया। इसके बाद संघ के कार्य में उनकी सक्रियता तथा समर्पण क्रमशः बढ़ता चला गया।

आगामी शिक्षा हेतु महाविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद भी उनका अधिकांश समय संघ शाखाओं के विस्तार में ही लगता था। 1939 में उन्हें अमरावती और फिर 1942 में खंडवा जिले में संघ कार्य करने के लिए भेजा गया। उन दिनों यातायात के साधनों का अभाव था। अतः वे पैदल, साइकिल या बैलगाड़ी से प्रवास करते थे। उनके प्रयत्नों से वहां शाखाओं की संख्या में अच्छी वृद्धि हुई। नगरों के साथ ही कई छोटे गांवों में भी शाखाएं खुल गयीं। 

1948 में गांधी जी की हत्या के बाद जब संघ पर प्रतिबंध लगा, तो वे भी कारागृह में रहे। प्रतिबंध समाप्ति के बाद 1963 तक मुख्यतः उन्होंने महाकोशल प्रान्त में संघ के विभिन्न दायित्वों पर कार्य किया। 1967 में उन्हें भारतीय मजदूर संघ में मध्य प्रदेश का संगठन मंत्री बनाया गया। कुछ समय बाद उन्हें खदान मजदूरों के बीच संगठन खड़ा करने की जिम्मेदारी दी गयी।

कोयले की खदानें म0प्र0 के साथ ही छत्तीसगढ़, बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा आदि में भी हैं। यहां काम करते हुए उन्होंने कोयला मजदूरों की समस्याओं का गहन अध्ययन किया तथा फिर उनका सर्वसम्मत समाधान भी निकाला। उनके प्रयास से भारतीय मजदूर संघ की प्रतिष्ठा बढ़ी और देश भर में लाखों लोग इससे जुड़े। उनकी हिसाब-किताब इतना पारदर्शी रहता था कि केवल मजदूर ही नहीं, तो अन्य सब लोग भी उनका सम्मान करते थे।

वृद्धावस्था में उन्हें कई रोगों ने घेर लिया। खदान मालिकों ने कई बार दवा का खर्च और अस्पताल के लिए वाहन की व्यवस्था करने का प्रस्ताव दिया; पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक इसे अस्वीकार कर दिया। 1992 में ‘अखिल भारतीय खदान महासंघ’ के अधिवेशन में उन्हें ‘विश्वकर्मा सम्मान’ दिया गया। 14 मार्च, 1997 को कांगे्रस के मजदूर संगठन ‘इंटक’ ने भी उन्हें सम्मानित किया। 

तीन अप्रैल, 1997 को नागपुर के एक चिकित्सालय में वरिष्ठ प्रचारक तथा खदान मजदूरों के सच्चे मित्र त्रयम्बकराव का देहांत हुआ। भारतीय मजदूर संघ आज भारत का सबसे बड़ा मजदूर संगठन है। इसका श्रेय जिन कार्यकर्ताओं को है, उनमें त्रयम्बकराव का नाम भी आदर से लिया जाता है। 

(संदर्भ : साप्ताहिक विवेक, मुंबई द्वारा प्रकाशित संघ गंगोत्री)
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अप्रैल/जन्म-दिवस

एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी

श्री माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अपै्रल, 1889 को ग्राम बाबई, जिला होशंगाबाद, मध्य प्रदेश में श्री नन्दलाल एवं श्रीमती सुन्दराबाई के घर में हुआ था। उन पर अपनी माँ और घर के वैष्णव वातावरण का बहुत असर था। वे बहुत बुद्धिमान भी थे। एक बार सुनने पर ही कोई पाठ उन्हें याद हो जाता था। चैदह वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया। इस समय तक वे ‘एक भारतीय आत्मा’ के नाम से कविताएँ व नाटक लिखने लगे थे।

1906 में कांग्रेस के कोलकाता में सम्पन्न हुए अधिवेशन में माखनलाल जी ने पहली बार लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के दर्शन किये। अपने तरुण साथियों के साथ उनकी सुरक्षा करते हुए वे प्रयाग तक गये। तिलक जी के माध्यम से वे क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आये। महाराष्ट्र के क्रान्तिवीर सखाराम गणेश देउस्कर से दीक्षा लेकर उन्होंने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किये। फिर उन्होंने पिस्तौल चलाना भी सीखा।

इसके बाद उनका रुझान पत्रकारिता की ओर हो गया। उन्होंने अनेक हिन्दी और मराठी के पत्रों में सम्पादन एवं लेखन का कार्य किया। इनमें कर्मवीर, प्रभा और गणेशशंकर विद्यार्थी द्वारा कानपुर से प्रकाशित समाचार पत्र प्रताप प्रमुख हैं। वे श्रीगोपाल, भारत सन्तान, भारतीय, पशुपति, एक विद्यार्थी, एक भारतीय आत्मा आदि अनेक नामों से लिखते थे। खंडवा से उन्होंने ‘कर्मवीर’ साप्ताहिक निकाला, जिसकी अपनी धाक थी।

1915 में उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। मित्रों एवं रिश्तेदारों के आग्रह पर भी उन्होंने पुनर्विवाह नहीं किया। अब वे सक्रिय रूप से राजनीति में कूद पड़े और गान्धी जी के भक्त बन गये। गांधी जी द्वारा 1920, 1930 और 1940 में किये गये तीन बड़े आन्दोलनों में माखनलाल जी पूरी तरह उनके साथ रहे।

गांधी जी के अतिरिक्त उन पर स्वामी रामतीर्थ, विवेकानन्द, रामकृष्ण परमहंस आदि सामाजिक व आध्यात्मिक महापुरुषों का बहुत प्रभाव था। उनके ग्रन्थालय में अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र, दर्शन, मनोविज्ञान आदि अनेक विषयों की पुस्तकों की भरमार थी। खंडवा (मध्य प्रदेश) में रहकर उन्होंने अपनी पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से समाजसेवा का आलोक चहुँदिश फैलाया।

माखनलाल जी को सन्तों की कविताएँ बहुत पसन्द थीं। निमाड़ के सन्त सिंगाजी से लेकर निर्गुण और सगुण सभी तरह के भक्त कवियों और सूफियों की रचनाएँ उन्हें प्रिय थीं। वे पृथ्वी को अपनी माता और आकाश को अपने घर की छत मानते थे। विन्ध्याचल की पर्वतशृंखलाएँ एवं नर्मदा का प्रवाह उनके मन में काव्य की उमंग जगा देता था। इसलिए उनके साहित्य में बार-बार पर्वत, जंगल, नदी, वर्षा जैसे प्राकृतिक दृश्य दिखायी देते हैं।

माखनलाल जी के साहित्य में देशप्रेम की भावना की सुगन्ध भी भरपूर मात्रा में दिखायी देती है। ‘एक फूल की चाह’ उनकी प्रसिद्ध कविता है -

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फंेक।
मातृभूमि हित शीश चढ़ाने, जिस पथ जायें वीर अनेेक।।

गांधी जी के अनन्य भक्त होने के कारण उन पर माखनलाल जी ने बहुत सी कविताएँ एवं निबन्ध लिखे हैं। लोकमान्य तिलक एवं जवाहरलाल नेहरु पर भी उन्होंने प्रचुर साहित्य की रचना की है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत में उन्हें राष्ट्रकवि एवं पद्मभूषण के सम्मान से विभूषित किया गया। 

माखनलाल चतुर्वेदी ने हिन्दी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में नये प्रतिमान स्थापित किये। 30 जनवरी, 1968 को उनका देहान्त हुआ।
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अप्रैल/जन्म-दिवस

बाबू जगजीवनराम और सामाजिक समरसता

हिन्दू समाज के निर्धन और वंचित वर्ग के जिन लोगों ने उपेक्षा सहकर भी अपना मनोबल ऊंचा रखा, उनमें ग्राम चन्दवा (बिहार) में पांच अप्रैल, 1906 को जन्मे बाबू जगजीवनराम का नाम उल्लेखनीय है। उनके पिता श्री शोभीराम ने कुछ मतभेदों के कारण सेना छोड़ दी थी। उनकी माता श्रीमती बसन्ती देवी ने आर्थिक अभावों के बीच अपने बच्चों को स्वाभिमान से जीना सिखाया।

उनके विद्यालय में हिन्दू, मुसलमान तथा दलित हिन्दुओं के लिए पानी के अलग घड़े रखे जाते थे। उन्होंने अपने मित्रों के साथ मिलकर दलित घड़ों को फोड़ दिया। प्रबन्ध समिति के पूछने पर उन्होंने कहा कि उन्हें हिन्दुओं में बंटवारा स्वीकार नहीं है। अतः सब हिन्दुओं के लिए एक ही घड़े की व्यवस्था की गयी। 1925 में उनके विद्यालय में मालवीय जी आये। उन्होंने जगजीवनराम द्वारा दिये गये स्वागत भाषण से प्रभावित होकर उन्हें काशी बुला लिया। 

पर छुआछूत यहां भी पीछे पड़ी थी। नाई उनके बाल नहीं काटता था। खाना बनाने वाले उन्हें भोजन नहीं देते थे। मोची जूते पाॅलिश नहीं करता था। ऐसे में मालवीय जी ही उनका सहारा बनते थे। कई बार तो मालवीय जी स्वयं उनके जूते पाॅलिश कर देते थे। ऐसे वातावरण में बाबूजी अपने विद्यालय और काशी नगर में सामाजिक विषमताओं के विरुद्ध जनजागरण करते रहे। 

1935 में बाबूजी ने हिन्दू महासभा के अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कराया, जिसमें मंदिर, तालाब एवं कुओं को सब हिन्दुओं के लिए खोलने की बात कही गयी थी। 1936 में उन्होंने प्रत्यक्ष राजनीति में प्रवेश किया और 1986 तक लगातार एक ही सीट से निर्वाचित होते रहे। 

गांधी जी के आह्वान पर वे कई बार जेल गये। अंग्रेज भारत को हिन्दू, मुसलमान तथा दलित वर्ग के रूप में कई भागों में बांटना चाहते थे; पर बाबूजी ने अपने लोगों को इसके खतरे बताये। इस प्रकार पाकिस्तान तो बना; पर शेष भारत एक ही रहा।

स्वाधीनता के बाद वे लगातार केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य रहे। 1967 से 70 तक खाद्य मंत्री रहते हुए उन्होंने हरित क्रांति का सूत्रपात किया। श्रम मंत्री के नाते वे अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अध्यक्ष भी रहे। रेलमंत्री रहते हुए उन्होंने स्टेशन पर सबको एक लोटे से पानी पिलाने वाले ‘पानी पांडे’ नियुक्त किये तथा इस पर अधिकांश वंचित वर्ग के लोगों को रखा। 

1971 में रक्षामंत्री के नाते पाकिस्तान की पराजय और बंगलादेश के निर्माण में उनकी भी बड़ी भूमिका रही। 1975 के आपातकाल से उनके दिल को बहुत चोट लगी; पर वे शान्त रहे और चुनाव घोषित होते ही ‘कांग्रेस फाॅर डैमोक्रैसी’ बनाकर कांग्रेस के विरुद्ध चुनाव लड़े। जनता पार्टी के शासन में वे उपप्रधानमंत्री रहे। 

1954 में ‘हिन्दुस्थान समाचार न्यूज एजेंसी’ का उद्घाटन तथा देवनागरी लिपि के प्रथम टेलिप्रिंटर का लोकार्पण पटना में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन तथा दिल्ली में उन्होंने एक साथ किया था। 1974 में छत्रपति शिवाजी के राज्यारोहण की 300 वीं वर्षगांठ पर निर्मित भव्य चित्र का लोकार्पण भी रक्षामंत्री के नाते उन्होंने किया था। 1978 में दिल्ली में ‘विद्या भारती’ द्वारा आयोजित बाल संगम में वे सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस के साथ मंचासीन हुए।

वंचित वर्ग में प्रभाव देखकर मुसलमान तथा ईसाइयों ने उन्हें धर्मान्तरित करने का भी प्रयास किया। गुरु दीक्षा लेते समय अपने पिताजी की तरह उन्होंने भी शिवनारायणी पंथ के संत से दीक्षा ली। छह जुलाई, 1986 को समरस भारत बनाने के इच्छुक बाबूजी का देहांत हुआ।

(संदर्भ : नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार 6.6.2012)
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5 अपै्रल/पुण्य-तिथि
         
मानव रत्न हरमोहन लाल जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विद्या भारती तथा फिर विश्व हिन्दू परिषद के काम में सक्रिय रहने वाले श्री हरमोहन लाल जी का हीरे, जवाहरात और रत्नों का पुश्तैनी कारोबार था। भारत में आगरा, जयपुर, मुंबई आदि के साथ ही अमरीका और अफ्रीका में भी उनकी दुकानें थीं। पत्थरों को परखते हुए वे लोगों को परखना भी जान गये और अनेक मानव रत्नों को संगठन में जोड़ा। 

श्री हरमोहन लाल जी के पूर्वज वर्तमान पाकिस्तान में मुल्तान नगर के निवासी थे। इनमें से एक श्री गुरदयाल सिंह शिमला में बस गये। इसके बाद उनके कुछ वंशज जयपुर आ गये। वहां ‘राजामल्ल का तालाब’ उनके पुरखों द्वारा निर्मित है। इस परिवार के एक बालक गणेशीलाल को आगरा में गोद लिया गया। 1917 में जन्मे हरमोहन लाल जी गणेशीलाल जी के ही पौत्र थे।

हरमोहन लाल जी के प्रपितामह ने आगरा में ‘गणेशीलाल एंड सन्स’ के नाम से 1845 में हीरे-जवाहरात की दुकान खोली। हरमोहन लाल जी के पिता श्री ब्रजमोहन लाल जी की इस क्षेत्र में बड़ी प्रतिष्ठा थी। देश के बड़े-बड़े राजे, रजवाड़े, साहूकार और जमींदार आदि उनके ग्राहक थे। वे उन्हें अपने महल और हवेलियों में बुलाकर अपने पुराने गहनों और हीरों आदि का मूल्यांकन कराते थे। आगे चलकर हरमोहन लाल जी भी इसमें निष्णात हो गये।

अत्यधिक सम्पन्न और प्रतिष्ठित परिवार के होने के कारण हरमोहन लाल जी आगरा के अनेक क्लबों और संस्थाओं के सदस्य थे; पर 1945 में आगरा में संघ के प्रचारक श्री न.न.जुगादे के सम्पर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने और फिर धीरे-धीरे संघ के प्रति उनका प्रेम और अनुराग बढ़ता चला गया। वे कई वर्ष आगरा के नगर संघचालक रहे। जब वे अपने कारोबार के लिए जयपुर रहने लगे, तो उन्हें वहां भी नगर संघचालक बनाया गया। शिक्षाप्रेमी होने के कारण जयपुर में उन्होंने ‘आदर्श विद्या मंदिर’ की स्थापना की। 

विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद वे उ.प्र. में इसके काम में सक्रिय हो गये। आपातकाल के बाद वे वानप्रस्थी बनकर पूरा समय परिषद के लिए ही लगाने लगे। 1981 में उन्हें वि.हि.प. में महामंत्री की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी दी गयी। उनके कार्यकाल में ही ‘संस्कृति रक्षा निधि’ एवं ‘एकात्मता यज्ञ यात्रा’ जैसे कार्यक्रम सम्पन्न हुए, जो वि.हि.प. के कार्य विस्तार में मील के पत्थर हैं। 

शाही जीवन के आदी हरमोहन लाल जी ने परिषद में सक्रिय होने पर सादा जीवन अपना लिया। एक बार वे महाराष्ट्र में संभाजीनगर (औरंगाबाद) के प्रवास पर गये। कार्यकर्ताओं ने उनके निवास की व्यवस्था एक सेठ के घर पर की थी; पर वे वहां न जाकर विभाग संगठन मंत्री के घर पर ही रुके। संगठन मंत्री के छोटे से घर में ओढ़ने-बिछाने का भी समुचित प्रबंध नहीं था; पर हरमोहन लाल जी बड़े आनंद से वहां रहे और धरती पर ही सोये। उनके आने की खबर पाकर शहर के कई बड़े जौहरी उनसे मिलने आये। वे यह सब देखकर हैरान रह गये। यद्यपि तब तक हरमोहन लाल जी वहां से जा चुके थे। 

एबट मांउट (जिला चंपावत, उत्तराखंड) में हरमोहन लाल जी की पुश्तैनी जागीर थी। वहां उन्होंने एक सरस्वती शिशु मंदिर और धर्मार्थ चिकित्सालय खोला। उनकी पत्नी श्रीमती हीरोरानी भी इसमें बहुत रुचि लेती थीं। मथुरा के अद्वैत आश्रम के कामों के भी वही सूत्रधार थे। 

मृदुभाषी एवं विनोदप्रिय स्वभाव के धनी हरमोहन लाल जी का अपने व्यापार के कारण विश्व भर में संपर्क था। इनका उपयोग उन्होंने वि.हि.प. के कार्य विस्तार के लिए किया। न्यूयार्क और कोपेनहेगन के ‘विश्व हिन्दू सम्मेलन’ इसका प्रमाण हैं। वे बैंकाक में होने वाले तीसरे सम्मेलन की तैयारी में लगे थे; पर इसी बीच पांच अपै्रल, 1986 को उनका आकस्मिक निधन हो गया। 

(संदर्भ : श्रद्धांजलि स्मारिका, वि.हि.प.)
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6 अपै्रल/इतिहास-स्मृति

तीन उंगली कटाकर भागा

शिवाजी महाराज के किलों में पुणे का लाल महल बहुत महत्त्वपूर्ण था। उन्होंने बचपन का बहुत सा समय वहाँ बिताया था; पर इस समय उस पर औरंगजेब के मामा शाइस्ता खाँ का कब्जा था। उसके एक लाख सैनिक महल में अन्दर और बाहर तैनात थे; पर शिवाजी ने भी संकटों से हार मानना नहीं सीखा था। उन्होंने स्वयं ही इस अपमान का बदला लेनेे का निश्चय किया।
6 अपै्रल 1663 (चैत्र शुक्ल 8) की मध्यरात्रि का मुहूर्त इसके लिए निश्चित किया गया। यह दिन औरंगजेब के शासन की वर्षगाँठ थी। उन दिनों मुसलमानों के रोजे चल रहे थे। इसी समय शिवाजी ने मैदान मारने का निश्चय किया। हर बार की तरह इस बार भी अभियान के लिए सर्वश्रेष्ठ साथियों का चयन किया गया।
तीन टोलियों में सब वीर चले। द्वार पर पहरेदारों ने रोका; पर बताया कि गश्त से लौटते हुए देर हो गयी है। शाइस्ता खाँ की सेना में मराठे हिन्दू भी बहुत थे। अतः पहरेदारों को शक नहीं हुआ। द्वार खोलकर उन्हें अन्दर जाने दिया गया। सब महल के पीछे पहुँच गये। माली के हाथ में कुछ अशर्फियाँ रखकर उसे चुप कर दिया गया। शिवाजी तो महल के चप्पे-चप्पे से परिचित थे ही। अब वे रसोइघर तक पहुँच गये।
रसोई में सुबह के खाने की तैयारी हो रही थी। सैनिकों ने चुपचाप सब रसोइयों को यमलोक पहुँचा दिया। थोड़ी सी आवाज हुई; पर फिर शान्त। दीवार के उस पार जनानखाना था। वहाँ शाइस्ता खाँ बेसुध सो रहा था। शिवाजी के साथियों ने वह दीवार गिरानी शुरू की। दो-चार ईंटों के गिरते ही हड़कम्प मच गया। एक नौकर ने भागकर खाँ साहब को दुश्मनों के आने की खबर की।
यह सुनते ही शाइस्ता खाँ के होश उड़ गये; पर तब तक तो दीवार तोड़कर पूरा दल जनानखाने में आ घुसा। औरतें चीखने-चिल्लाने लगीं। सब ओर हाय-तौबा मच गयी। एक मराठा सैनिक ने नगाड़ा बजा दिया। इससे महल में खलबली मच गयी। चारों ओर ‘शिवाजी आया, शिवाजी आया’ का शोर मच गया। लोग आधे-अधूरे नींद से उठकर आपस में ही मारकाट करने लगे। हर किसी को लगता था कि शिवाजी उसे ही मारने आया है।
पर शिवाजी को तो शाइस्ता खाँ से बदला लेना था। उन्होंने तलवार के वार से पर्दा फाड़ दिया। सामने बैठा खान काँप रहा था। एक बीवी ने समझदारी दिखाते हुए दीपक बुझा दिया। खान को मौत सामने दिखायी दी। उसने आव देखा न ताव, खिड़की से नीचे कूद पड़ा; पर तब तक शिवाजी की तलवार चल चुकी थी। उसकी तीन उँगलियाँ कट गयीं। अंधेरे के कारण शिवाजी समझे कि खान मारा गया। अतः उन्होंने सबको लौटने का संकेत कर दिया।
इसी बीच एक मराठे ने मुख्य द्वार खोल दिया। शिवाजी और उनके साथी भी मारो-काटो का शोर मचाते हुए लौट गये। अब खान की वहाँ एक दिन भी रुकने की हिम्मत नहीं हुई। वह गिरे हुए मनोबल के साथ औरंगजेब के पास गया। औरंगजेब ने उसे सजा देकर बंगाल भेज दिया। 
अगले दिन श्रीरामनवमी थी। माता जीजाबाई को जब शिवाजी ने इस सफल अभियान की सूचना दी, तो उन्होंने हर्ष से पुत्र का माथा चूम लिया।
(संदर्भ: युगावतार - श्री हो.वे.शेषाद्रि)
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अप्रैल/बलिदान-दिवस

सत्य पथ के बलिदानी महाशय राजपाल

पूरे संसार को अपने झंडे तले लाने के इच्छुक कट्टरपंथी प्रायः अन्य धर्मावलंबियों की भावनाओं का अनादर कर अपनी संकीर्णता का परिचय देते रहते हैं। 1920 में लाहौर में कुछ मुसलमानों ने दो पुस्तकें प्रकाशित कीं। ‘कृष्ण तेरी गीता जलानी पड़ेगी’ में श्रीकृष्ण को चरित्रहीन बताते हुए उन पर भद्दी टिप्पणियां की गयीं थीं। इसी प्रकार ‘बीसवीं सदी का महर्षि’ में आर्य समाज के संस्थापक ऋषि दयानंद पर तीखे कटाक्ष किये गये थे। 

आर्य विद्वान पंडित चमूपति जी को लगा कि यदि इनका उत्तर नहीं दिया, तो जहां एक ओर कट्टरपंथियों का साहस बढ़ेगा, वहीं दूसरी ओर हिन्दुओं का मनोबल भी गिरेगा। उन्होंने भी ‘रंगीला रसूल’ नामक एक पुस्तक लिखी इसे प्रकाशित करना आसान नहीं था; पर ‘आर्य पुस्तकालय’ के महाशय राजपाल ने लेखक के नाम बिना उसे छाप दिया। उन्होंने लेखक को यह आश्वासन भी दिया कि चाहे कैसा भी संकट आये; पर वे उनका नाम प्रकट नहीं करेंगे। पुस्तक के छपते ही मुसलमानों में हलचल मच गयी। वे प्रकाशक को धमकियां देने लगे। उर्दू के समाचार पत्रों में ऐसे धमकी भरे लेख छपने लगे; पर महाशय जी ने सारी जिम्मेदारी स्वयं लेते हुए लेखक का नाम नहीं बताया।

एक दिन महाशय जी अपने प्रकाशन में बैठे थे कि खुदाबख्श नामक पठान वहां आया। उसने महाशय जी पर छुरे से प्रहार शुरू कर दिये। अचानक स्वामी स्वतंत्रानंद जी वहां आ पहुंचे। उन्होंने खुदाबख्श को दबोच कर पुलिस के हवाले कर दिया। महाशय जी को अस्पताल पहुंचाया गया। जहां से ठीक होकर वे फिर अपने काम में लग गये। खुदाबख्श को सात साल की सजा हुई।

कुछ दिन बाद एक अन्य उन्मादी ने प्रकाशन में बैठे स्वामी सत्यानंद जी को महाशय जी समझ कर उनकी हत्या का प्रयास किया; उसे भी लोगों ने पकड़कर पुलिस को सौंप दिया। लाहौर के मुसलमान किसी भी तरह महाशय राजपाल जी को मारना चाहते थे। उन पर इस पुस्तक के लिए लाहौर उच्च न्यायालय में मुकदमा भी चलाया गया; पर पुस्तक पूरी तरह मुस्लिम इतिहास ग्रंथों पर ही आधारित थी। अतः न्यायालय ने महाशय जी को बरी कर दिया। इसके बाद पुनः उनकी हत्या का षड्यन्त्र बुना जाने लगा।

अप्रैल,  1929 को महाशय जी अपने प्रकाशन में बैठे थे कि इलमदीन नामक एक उन्मादी ने हमला कर महाशय जी की हत्या कर डाली। भागते हुए हत्यारे को विद्यारत्न नामक युवक ने पीछा कर पकड़ लिया और पुलिस को सौंप दिया। महाशय जी की हत्या का समाचार आग की तरह फैल गया। उनकी शवयात्रा में हजारों हिन्दू शामिल हुए। 

उनके बच्चे बहुत छोटे थे। अतः डी.ए.वी. संस्थाओं के संचालक महात्मा हंसराज जी ने मुखाग्नि दी। स्वामी स्वतंत्रानंद जी ने अंतिम प्रार्थना कराई। महाशय जी की धर्मपत्नी सरस्वती जी ने कहा कि अपने पति के मारे जाने का मुझे बहुत दुख है; पर यह गर्व भी है कि उन्होंने धर्म और सत्य के लिए बलिदान दिया।

विभाजन के बाद महाशय जी के परिजन दिल्ली आकर प्रकाशन के काम में ही लग गये। जून 1998 में दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने पहले ‘फ्रीडम टु पब्लिश’ पुरस्कार से स्वर्गीय राजपाल जी को सम्मानित किया। पुरस्कार उनके पुत्र विश्वनाथ जी ने ग्रहण किया।

(संदर्भ : पांचजन्य 5.4.2009)
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अप्रैल/पुण्य-तिथि

1857 की अप्रतिम योद्धा बेगम हजरत महल

1857 के स्वाधीनता संग्राम में जो महिलाएं पुरुषों से भी अधिक सक्रिय रहीं, उनमें बेगम हजरत महल का नाम उल्लेखनीय है। मुगलों के कमजोर होने पर कई छोटी रियासतें स्वतन्त्र हो गयीं। अवध भी उनमें से एक थी। श्रीराम के भाई लक्ष्मण के नाम पर बसा लखनऊ नगर अवध की राजधानी था। 

हजरत महल वस्तुतः फैजाबाद की एक नर्तकी थी, जिसे विलासी नवाब अपनी बेगमों की सेवा के लिए लाया था; पर फिर वह उसके प्रति भी अनुरक्त हो गया। हजरत महल ने अपनी योग्यता से धीरे-धीरे सब बेगमों में अग्रणी स्थान प्राप्त कर लिया। वह राजकाज के बारे में नवाब को सदा ठीक सलाह देती थी। पुत्रजन्म के बाद नवाब ने उसे ‘महल’ का सम्मान दिया।  

वाजिदअली शाह संगीत, काव्य, नृत्य और शतरंज का प्रेमी था। 1847 में गद्दी पाकर उसने अपने पूर्वजों द्वारा की गयी सन्धि के अनुसार रियासत का कामकाज अंग्रेजों को दे दिया। अंग्रेजों ने रियासत को पूरी तरह हड़पने के लिए कायर और विलासी नवाब से 1854 में एक नयी सन्धि करनी चाही। हजरत महल के सुझाव पर नवाब ने इसे अस्वीकार कर दिया। 

इससे नाराज होकर अंग्रेजों ने नवाब को बन्दी बनाकर कोलकाता भेज दिया। इससे क्रुद्ध होकर हजरत महल ने अपने 12 वर्षीय पुत्र बिरजिस कद्र को नवाब घोषित कर दिया तथा रियासत के सभी नागरिकों को संगठित कर अंग्रेजों के विरुद्ध खुला युद्ध छेड़ दिया। 

अंग्रेजों ने नवाब की सेना को भंग कर दिया था। वे सब सैनिक भी बेगम से आ मिले। बेगम स्वयं हाथी पर बैठकर युद्धक्षेत्र में जाती थी। अंततः पांच जुलाई, 1857 को अंग्रेजों के चंगुल से लखनऊ को मुक्त करा लिया गया। अब वाजिद अली शाह भी लखनऊ आ गये।

इसके बाद बेगम ने राजा बालकृष्ण राव को अपना महामंत्री घोषित कर शासन के सारे सूत्र अपने हाथ में ले लिये। उन्होंने दिल्ली में बहादुरशाह जफर को यह सब सूचना देते हुए स्वाधीनता संग्राम में पूर्ण सहयोग का वचन दिया। उन्होंने खजाने का मुंह खोलकर सैनिकों को वेतन दिया तथा महिलाओं की ‘मुक्ति सेना’ का गठन कर उसके नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था की।

एक कुशल प्रशासक होने के नाते उनकी ख्याति सब ओर फैल गयी। अवध के आसपास के हिन्दू राजा और मुसलमान नवाब उनके साथ संगठित होने लगे। वे सब मिलकर पूरे क्षेत्र से अंग्रेजों को भगाने के लिए प्रयास करने लगेे; पर दूसरी ओर नवाब की अन्य बेगमें तथा अंग्रेजों के पिट्ठू कर्मचारी मन ही मन जल रहे थे। वे भारतीय पक्ष की योजनाएं अंग्रेजों तक पहुंचाने लगे। 

इससे बेगम तथा उसकी सेनाएं पराजित होने लगीं। प्रधानमंत्री बालकृष्ण राव मारे गये तथा सेनापति अहमदशाह बुरी तरह घायल हो गये। इधर दिल्ली और कानपुर के मोर्चे पर भी अंग्रेजों को सफलता मिली। इससे सैनिक हताश हो गये और अंततः बेगम को लखनऊ छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।

1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद कई राजाओं तथा नवाबों ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली। वे उनसे निश्चित भत्ते पाकर सुख-सुविधा का जीवन जीने लगे; पर बेगम को यह स्वीकार नहीं था। वे अपने पुत्र के साथ नेपाल चली गयीं। वहां पर ही अनाम जीवन जीते हुए सात अप्रैल, 1879 को उनका देहांत हुआ। लखनऊ का मुख्य बाजार हजरत गंज तथा हजरत महल पार्क उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाये है।

(संदर्भ : स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश, विकीपीडिया, भारतीय धरोहर)

1 टिप्पणी:

  1. 🙏विजय जी, ०३ अप्रैल में स्वामी नारायण जी की जन्मतिथि में संवत १८३८ होगा, कृपया ठीक करें, धन्यवाद

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