8 अप्रैल/बलिदान-दिवस
मंगल पाण्डे का बलिदान
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चले लम्बे संग्राम का बिगुल बजाने वाले पहले क्रान्तिवीर मंगल पांडे का जन्म 30 जनवरी, 1831 को ग्राम नगवा (बलिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। कुछ लोग इनका जन्म ग्राम सहरपुर (जिला साकेत, उ0प्र0) तथा जन्मतिथि 19 जुलाई, 1927 भी मानते हैं। युवावस्था में ही वे सेना में भर्ती हो गये थे।
उन दिनों सैनिक छावनियों में गुलामी के विरुद्ध आग सुलग रही थी। अंग्रेज जानते थे कि हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं, जबकि मुसलमान सूअर से घृणा करते हैं। फिर भी वे सैनिकों को जो कारतूस देते थे, उनमें गाय और सूअर की चर्बी मिली होती थी। इन्हें सैनिक अपने मुँह से खोलते थे। ऐसा बहुत समय से चल रहा था; पर सैनिकों को इनका सच मालूम नहीं था।
मंगल पांडे उस समय बैरकपुर में 34 वीं हिन्दुस्तानी बटालियन में तैनात थे। वहाँ पानी पिलाने वाले एक हिन्दू ने इसकी जानकारी सैनिकों को दी। इससे सैनिकों में आक्रोश फैल गया। मंगल पांडे से रहा नहीं गया। 29 मार्च, 1857 को उन्होंने विद्रोह कर दिया।
एक भारतीय हवलदार मेजर ने जाकर सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन को यह सब बताया। इस पर मेजर घोड़े पर बैठकर छावनी की ओर चल दिया। वहां मंगल पांडे सैनिकों से कह रहे थे कि अंग्रेज हमारे धर्म को भ्रष्ट कर रहे हैं। हमें उसकी नौकरी छोड़ देनी चाहिए। मैंने प्रतिज्ञा की है कि जो भी अंग्रेज मेरे सामने आयेगा, मैं उसे मार दूँगा।
सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन ने सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने को कहा; पर तब तक मंगल पांडे की गोली ने उसका सीना छलनी कर दिया। उसकी लाश घोड़े से नीचे आ गिरी। गोली की आवाज सुनकर एक अंग्रेज लेफ्टिनेण्ट वहाँ आ पहुँचा। मंगल पांडे ने उस पर भी गोली चलाई; पर वह बचकर घोड़े से कूद गया। इस पर मंगल पांडे उस पर झपट पड़े और तलवार से उसका काम तमाम कर दिया। लेफ्टिनेण्ट की सहायता के लिए एक अन्य सार्जेण्ट मेजर आया; पर वह भी मंगल पांडे के हाथों मारा गया।
तब तक चारों ओर शोर मच गया। 34 वीं पल्टन के कर्नल हीलट ने भारतीय सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने का आदेश दिया; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस पर अंग्रेज सैनिकों को बुलाया गया। अब मंगल पांडे चारों ओर से घिर गये। वे समझ गये कि अब बचना असम्भव है। अतः उन्होंने अपनी बन्दूक से स्वयं को ही गोली मार ली; पर उससे वे मरे नहीं, अपितु घायल होकर गिर पड़े। इस पर अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया।
अब मंगल पांडे पर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। उन्होंने कहा, ‘‘मैं अंग्रेजों को अपने देश का भाग्यविधाता नहीं मानता। देश को आजाद कराना यदि अपराध है, तो मैं हर दण्ड भुगतने को तैयार हूँ।’’
न्यायाधीश ने उन्हें फाँसी की सजा दी और इसके लिए 18 अप्रैल का दिन निर्धारित किया; पर अंग्रेजों ने देश भर में विद्रोह फैलने के डर से घायल अवस्था में ही 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें फाँसी दे दी। बैरकपुर छावनी में कोई उन्हंे फाँसी देने को तैयार नहीं हुआ। अतः कोलकाता से चार जल्लाद जबरन बुलाने पड़े।
मंगल पांडे ने क्रान्ति की जो मशाल जलाई, उसने आगे चलकर 1857 के व्यापक स्वाधीनता संग्राम का रूप लिया। यद्यपि भारत 1947 में स्वतन्त्र हुआ; पर उस प्रथम क्रान्तिकारी मंगल पांडे के बलिदान को सदा श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।
................................
9 अप्रैल/जन्म-दिवस
घुमक्कड़ साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन
महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के ग्राम पन्दहा में नौ अप्रैल, 1893 को हुआ था। बचपन में इनका नाम केदार पांडेय था। माता कुलवन्ती देवी तथा पिता श्री गोवर्धन पांडेय की असमय मृत्यु के कारण इनका पालन ननिहाल में हुआ।
15 वर्ष की अवस्था में आजमगढ़ से उर्दू में मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण कर वे काशी आ गये। वहाँ उन्होंने संस्कृत और दर्शनशास्त्र का तथा फिर अयोध्या में वेदान्त का गहन अध्ययन किया। उन्होंने आगरा में अरबी तथा लाहौर में फारसी की पढ़ाई भी की।
राहुल जी घुमक्कड़ स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने विश्व के अनेक देशों का भ्रमण किया। उन पर आर्य समाज, माक्र्सवाद और बौद्ध मत का बहुत प्रभाव पड़ा। 1917 में वह रूस गये। वहाँ उन्होंने रूसी क्रान्ति का गहन अध्ययन कर उस पर एक पुस्तक लिखी। बौद्ध मत का अध्ययन करने के लिए उन्होंने चीन, जापान, श्रीलंका और तिब्बत आदि का कष्टपूर्ण, पर विस्तृत प्रवास किया।
वहाँ जो भी प्राचीन पुस्तकें एवं पांडुलिपियाँ उन्हें मिलीं, उसे 22 खच्चरों पर लादकर अपने साथ लाये। इसमें से अधिकांश का उन्होंने हिन्दी में अनुवाद किया। इस प्रकार भारत से बाहर बिखरे बौद्ध साहित्य से उन्होंने विश्व का परिचय कराया। बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर उन्होंने उसे अपना लिया। इसके बाद उनका नाम राहुल सांकृत्यायन हो गया।
1927-28 तक श्रीलंका में उन्होंने संस्कृत शिक्षण का कार्य किया। अच्छे लेखक और विचारक होने के बाद भी वे कभी प्रत्यक्ष कार्य से अलग नहीं हुए। भारत आकर वे किसान आन्दोलन में कूद पड़े।
उनका मत था कि अंग्रेजों की शह पर पल रहे सामंतवाद और पूँजीवाद के गठजोड़ को तोड़े बिना किसानों की दशा नहीं सुधरेगी। 1921 में वे गांधी जी के साथ जुड़ गये। 1931 में एक बौद्ध मिशन के साथ वे यूरोप की यात्रा पर गये। 1937 में रूस ने उन्हें प्राचीन साहित्य के अध्ययन के लिए बुलाया। भारत आकर 1942 में वे ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के अन्तर्गत जेल गये।
राहुल जी हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, तमिल, कन्नड़, पाली, अंग्रेजी, जापानी, रूसी, तिब्बती और फ्रान्सीसी भाषाओं के अच्छे जानकार थे। इसके अतिरिक्त भी 20-25 भाषाएँ वे जानते थे; पर हिन्दी के प्रति उनके मन में सर्वाधिक आदर था। हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा के कारण उन्होंने कम्यूनिस्ट पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। 1947 में मुम्बई में आयोजित ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के वे निर्विरोध सभापति चुने गये थे।
उन्होंने कहानी, उपन्यास, यात्रा वर्णन, जीवनी, संस्मरण, विज्ञान, इतिहास, राजनीति, दर्शन जैसे विषयों पर विभिन्न भाषाओं में 130 ग्रन्थ लिखे। ‘वोल्गा से गंगा तक’ उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति है, जिसे वैश्विक ख्याति मिली। उनकी पुस्तकों के अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं।
राहुल जी को ‘महापंडित’ की उपाधि पाठकों ने ही दी। कई देशों ने उन्हें अपने यहाँ बुलाकर अनेक सम्मानांे एवं पुरस्कारों से अलंकृत किया। भारत में उन्हें ‘पद्मभूषण’ और ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
राहुल जी का हृदय बहुत बड़ा था। वे व्यक्ति मंे दोष की बजाय गुण देखने पर बल देते थे। उनका मत था कि कोई भी व्यक्ति दूध का धुला नहीं होता। यदि किसी में पाँच प्रतिशत भी अच्छाई है, तो उसे महत्व देना चाहिए। घुमक्कड़ पन्थ के अनुयायी राहुल जी 1959 में दर्शनशास्त्र के महाचार्य के नाते फिर श्रीलंका गये; पर 1961 में उनकी स्मृति खो गयी। इसी दशा में 14 अप्रैल, 1963 को उनका देहान्त हो गया।
...........................
9 अपै्रल/जन्म-दिवस
सरोद को समर्पित सरोदरानी
सरोद जैसे मरदाने वाद्य को बजाकर ‘सरोदरानी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई शरणरानी बाकलीवाल का जन्म नौ अपै्रल, 1929 को दिल्ली में लाला पन्नूलाल और श्रीमती नंद रानी के घर में हुआ था। घर में ग्रामोफोन पर श्रीकृष्ण भक्ति के गीत बजते तो थे; पर संगीत की विधिवत परम्परा वहां नहीं थी।
एक बार शरणरानी ने अल्मारी में पड़े पुराने सरोद को देखा, तो उसे साफकर तांबे के सिक्के से उस पर सरगम निकालने लगी। इस प्रकार उनका सरोद से जो लगाव हुआ, वह आजीवन बना रहा। एक कार्यक्रम में जब उन्होंने अली अकबर खां को सरोद बजाते सुना, तबसे वे उसे ही समर्पित हो गयीं।
बचपन से ही संगीत के प्रति उन्हें बहुत लगाव था। उन्होंने बिरजू महाराज के पिता अच्छन गुरु से कथक और नभकुमार सिन्हा से मणिपुरी नृत्य भी सीखा। घर में इसका विरोध होता था; पर वे अपने संकल्प से पीछे नहीं हटीं।
एक बार मैहर घराने के उस्ताद अलाउद्दीन खां दिल्ली आये, तो शरणरानी ने उनसे सरोद सिखाने की प्रार्थना की। उस्ताद ने हंसकर कहा कि यह मरदाना वाद्य है, इसे महिलाएं नहीं बजातीं; पर उसकी जिद देखकर वे उसे मैहर ले आये और अपने घर में, अपनी बेटी अन्नपूर्णा के साथ रखकर सरोद सिखाया।
उन दिनों उस्ताद जी के पास रहकर अली अकबर खां, पंडित रविशंकर, निखिल बनर्जी, पन्नालाल घोष जैसे शिष्य संगीत सीख रहे थे। आगे चलकर इन सबने अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। इनके बीच शरणरानी अकेली लड़की थी। फिर भी उसने साहसपूर्वक सरोद की साधना जारी रखी।
उस्ताद अलाउद्दीन खां को सब लोग ‘बाबा’ कहते थे। उनसे सीखना आसान नहीं था। प्रतिदिन आठ-नौ घंटे रियाज करनी पड़ती थी। इसमें ढिलाई होने पर वे नाराज होकर अपनी गुल्लक से पैसे निकालकर शिष्य से कहते थे, ‘‘लो, टिकट लेकर घर चले जाओ। तुम्हारे बस का संगीत सीखना नहीं है।’’ शरणरानी को भी कई बार उनका गुस्सा झेलना पड़ा; पर वे डटी रहीं।
क्रमशः सरोद और शरणरानी एक-दूसरे के पर्याय हो गये। उनसे प्रेरित होकर कई महिलाओं ने सरोद सीखा। संगीतप्रेमी जौहरी सुल्तान सिंह बाकलीवाल से विवाह के बाद घरेलू दायित्व निभाते हुए भी उन्होंने साधना जारी रखी।
कई देशी-विदेशी ग्रामोफोन कंपनियों ने उनके रिकार्ड बनाये। यूनेस्को ने भी उनकी रिकार्डिंग की थी। नेहरू जी उन्हें भारत का ‘सांस्कृतिक राजदूत’ कहते थे। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने उन्हें ‘सरोदरानी’ की उपाधि दी। संगीत में शुद्धता की समर्थक शरणरानी ने कई नये राग और बंदिशों की रचना भी की।
उन दिनों संगीत में महिलाओं को महत्व नहीं दिया जाता था; पर उनके साथ तत्कालीन सभी विख्यात तबलावादकों ने संगत की है। इनमें गुदई महाराज, देवाशीष चक्रवर्ती, अहमद जान थिरकवा, उस्ताद अल्ला रक्खा खां, जाकिर हुसैन, पंडित शिवकुमार शर्मा, उस्ताद शफात अहमद खां आदि प्रमुख हैं।
शरणरानी ने देश-विदेश में घूमते हुए 15 वीं शती के बाद के दुर्लभ भारतीय वाद्य संग्रहकर ऐसे 500 वाद्य राष्ट्रीय संग्रहालय को दे दिये। उनके द्वारा स्थापित ‘शरणरानी बाकलीवाल वीथिका’ में भी 450 शास्त्रीय वाद्य प्रदर्शित हैं। 1998 में इस वीथिका के चार वाद्यों पर डाक टिकट जारी हुए। सरोद के उद्भव, इतिहास और विकास पर लिखी उनकी पुस्तक अधिकृत मानी जाती है।
1968 में पद्मश्री तथा 2000 में पद्मभूषण से अलंकृत शरणरानी को संगीत क्षेत्र के भी प्रायः सभी बड़े पुरस्कार मिले। अपने 81वें जन्मदिवस की पूर्वसंध्या (आठ अपै्रल, 2008) को उन्होंने अपनी संगीत-यात्रा पूर्ण की।
(संदर्भ : जनसत्ता 20.4.08/इंडिया टुडे 30.4.08/विकीपीडिया)
--------------------
10 अप्रैल/स्थापना-दिवस
महर्षि दयानंद एवं आर्य समाज
भारत में एक समय वह भी था, जब लोग कर्मकाण्ड को ही हिन्दू धर्म का पर्याय मानने लगे थे। वे धर्म के सही अर्थ से दूर हट गये थे। यह देखकर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल, 1875 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, नव संवत्सर) के शुभ अवसर पर मुम्बई में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। आर्य समाज ने धर्मान्तरण की गति को रोककर परावर्तन की लहर चलायी। इसके साथ उसने आजादी के लिए जो काम किया, वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा है।
स्वामी दयानन्द का जन्म 12 फरवरी, 1824 को ग्राम टंकारा, काठियावाड़ (गुजरात) में हुआ था। उनके पिता श्री अम्बाशंकर की भगवान भोलेनाथ में बहुत आस्था थी। माता अमृताबाई भी धर्मप्रेमी विदुषी महिला थीं।
दयानन्द जी का बचपन का नाम मूलशंकर था। 14 वर्ष की अवस्था में घटित एक घटना ने उनका जीवन बदल दिया। महाशिवरात्रि के पर्व पर सभी परिवारजन व्रत, उपवास, पूजा और रात्रि जागरण में लगे थे; पर रात के अन्तिम पहर में सब उनींदे हो गये। इसी समय मूलशंकर ने देखा कि एक चूहा भगवान शंकर की पिण्डी पर खेलते हुए प्रसाद खा रहा है।
मूलशंकर के मन पर इस घटना से बड़ी चोट लगी। उसे लगा कि यह कैसा भगवान है, जो अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता ? उन्होंने अपने पिता तथा अन्य परिचितों से इस बारे में पूछा; पर कोई उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर सका। उन्होंने संकल्प किया कि वे असली शिव की खोज कर उसी की पूजा करेंगे। वे घर छोड़कर इस खोज में लग गये।
नर्मदा के तट पर स्वामी पूर्णानन्द से संन्यास की दीक्षा लेकर वे दयानन्द सरस्वती बन गये। कई स्थानों पर भटकने के बाद मथुरा में उनकी भेंट प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द जी से हुई। उन्होंने दयानन्द जी के सब प्रश्नों के समाधानकारक उत्तर दिये। इस प्रकार लम्बी खोज के बाद उन्हें सच्चे गुरु की प्राप्ति हुई।
स्वामी विरजानन्द के पास रहकर उन्होंने वेदों का गहन अध्ययन और फिर उनका भाष्य किया। गुरुजी ने गुरुदक्षिणा के रूप में उनसे यह वचन लिया कि वे वेदों का ज्ञान देश भर में फैलायेंगे। दयानन्द जी पूरी शक्ति से इसमें लग गये। प्रारम्भ में वे गुजराती और संस्कृत में प्रवचन देते थे; पर फिर उन्हें लगा कि भारत भर में अपनी बात फैलाने के लिए हिन्दी अपनानी होगी। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी हिन्दी में ही लिखा।
‘आर्य समाज’ के माध्यम से उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त पाखण्ड और अन्धविश्वासों का विरोध किया। इस बारे में जागरूकता लाने के लिए उन्होंने देश भर का भ्रमण किया। अनेक विद्वानों से उनका शास्त्रार्थ हुआ; पर उनके तर्कों के आगे कोई टिक नहीं पाता था। इससे ‘आर्य समाज’ विख्यात हो गया। स्वामी जी ने बालिका हत्या, बाल विवाह, छुआछूत जैसी कुरीतियों का प्रबल विरोध किया। वे नारी शिक्षा और विधवा विवाह के भी समर्थक थे।
धीरे-धीरे आर्य समाज का विस्तार भारत के साथ ही अन्य अनेक देशों में भी हो गया। शिक्षा के क्षेत्र में आर्य समाज द्वारा संचालित डी.ए.वी. विद्यालयों का बड़ा योगदान है। देश एवं हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए जीवन समर्पित करने वाले स्वामी जी को जोधपुर में एक वेश्या के कहने पर जगन्नाथ नामक रसोइये ने दूध में विष दे दिया। इससे 30 अक्तूबर, 1883 (दीपावली) को उनका देहान्त हो गया।
.....................
10 अप्रैल/जन्म-दिवस
अद्भुत कोशकार डा. श्याम बहादुर वर्मा
बहुमुखी प्रतिभाओं के धनी डा. श्याम बहादुर वर्मा का जन्म 10 अप्रैल, 1932 को आंवला (बरेली, उ.प्र.) में हुआ था। उनकी मां डा. विद्यावती वर्मा होम्योपैथी की सेवाभावी चिकित्सक थीं। बचपन से ही उनमें अधिकतम शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने की भूख थी। 1948 में शाहजहांपुर से बी.एस-सी. करते समय वे संघ पर लगे प्रतिबन्ध के विरोध में सत्याग्रह कर जेल गये।
घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वे पढ़ने के साथ ही ट्यूशन पढ़ाते हुए परिवार को सहारा भी देते थे। 1953 में बरेली काॅलिज से गणित विषय में एम.एस-सी. उत्तीर्ण कर वे अस्कोट (अल्मोड़ा, उत्तराखंड) में पढ़ाने लगे। इसके बाद उनके अध्ययन और अध्यापन की यह यात्रा हल्द्वानी, भोगांव, धामपुर और साहिबाबाद होते हुए दिल्ली तक आ गयी।
उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी तथा भारतीय इतिहास व संस्कृति में एम.ए. तथा दिल्ली वि0वि0 से ‘हिन्दी काव्य में शक्ति तत्व’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वे सदा प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी रहे। बरेली रहते हुए वे ‘साहित्य रत्न’ और ‘आयुर्वेद रत्न’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर चुके थे।
बरेली में उन्होंने ‘भारतीय अनुशीलन परिषद’ का गठन किया था। इसके पुस्तकालय, व्याख्यानमाला तथा अन्य कार्यक्रमों द्वारा उन्होंने सभी आयु-वर्ग के लोगों का परिचय भारतीय इतिहास और संस्कृति से कराया। 1953 में उन्होंने अकेले ही हिमालय को पैदल पारकर तिब्बत की यात्रा भी की थी।
भारत और भारतीयता के पुजारी डा0 वर्मा सदा धोती-कुर्ता ही पहनते थे। संघ के काम और ज्ञान की भूख के कारण उन्होंने विवाह भी नहीं किया। दिल्ली में वे ‘अ.भा.साहित्य परिषद’ और ‘विश्व हिन्दू परिषद’ में भी सक्रिय हुए। ‘विवेकानंद केन्द्र’ की मासिक पत्रिका ‘केन्द्र भारती’ का उन्होंने कई वर्ष सम्पादन किया। इसके साथ ही वे कई पत्र-पत्रिकाओं के नियमित लेखक भी थे। हिन्दी अकादमी, दिल्ली ने उन्हें ‘साहित्यकार सम्मान’ प्रदान किया था।
1972 में महर्षि अरविन्द के जन्मशती वर्ष में उन्होंने क्रांतियोगी श्री अरविन्द, महायोगी श्री अरविन्द, श्री अरविन्द साहित्य दर्शन तथा श्री अरविन्द विचार दर्शन नामक चार पुस्तकों की रचना की। भारत के मेले, हमारे सांस्कृतिक प्रतीक, भारत का संविधान, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, राष्ट्र-निर्माता स्वामी विवेकानंद उनकी अन्य कृतियां हैं। विश्व हिन्दू परिषद के विचारों के प्रचार के लिए उन्होंने अनेक छोटी-छोटी पुस्तिकाएं भी लिखीं।
लेकिन डा. श्याम बहादुर वर्मा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा निर्मित बृहत् कोश हैं। उन्होंने तीन खंड और बड़े आकार के 2,000 पृष्ठों में ‘विश्व सूक्ति कोश’ का निर्माण किया। लेखक, पत्रकार तथा पत्र-पत्रिकाओं के संदर्भ के लिए यह अद्भुत कोश है। इसमें लगभग सभी प्रमुख विषयों पर प्रख्यात लोगों द्वारा कहे हुए वाक्य तथा सूक्तियां मिलती हैं।
इसे पूरा कर वे आधुनिक शैली के ‘बृहत् हिन्दी शब्दकोश’ के निर्माण में जुट गये। 19 वर्ष की साधना के बाद दो खंडों में प्रकाशित बड़े आकार के 3,000 पृष्ठों वाला यह ग्रन्थ हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। इसके बाद वे एक विशाल चरित्रकोश की योजना बना रहे थे; पर विधि ने यह अवसर नहीं दिया और 20 नवम्बर, 2009 को हुए हृदयाघात से उनका निधन हो गया।
बौद्धिक साधना में लीन डा. श्याम बहादुर वर्मा के पास पुस्तकों का विशाल भंडार था। उन्हें बड़ी चिन्ता थी कि उनके बाद इसका क्या होगा ? उन्हें इस बात का भी बहुत कष्ट था कि लोग पुस्तकालयों में अब ज्ञान प्राप्ति के लिए नहीं, अपितु डिग्री दिलाने में सहायक पुस्तकें पढ़ने के लिए ही आते हैं।
(संदर्भ : पांचजन्य 6.12.2009/बृहत् हिन्दी शब्दकोश)
..........................
10 अप्रैल/जन्म-दिवस
घोष को समर्पित सुब्बू श्रीनिवास
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काम में शाखा का और शाखा में शारीरिक कार्यक्रमों का बड़ा महत्व है। शाखा पर खेल के साथ ही पथ संचलन का अभ्यास भी होता है। जब स्वयंसेवक घोष (बैंड) की धुन पर कदम मिलाकर चलते हैं, तो चलने वालों के साथ ही देखने वाले भी झूम उठते हैं।
घोष विभाग के विकास में अपना पूरा जीवन खपा देने वाले श्री सुब्बू श्रीनिवास का जन्म 10 अपै्रल, 1940 को मैसूर (कर्नाटक) में एक सामान्य दुकानदार श्री बी.जी.सुब्रह्मण्यम तथा श्रीमती शुभम्म के घर में हुआ। सात भाई-बहिनों में वे सबसे छोटे थे। अपने बड़े भाई अनंत के साथ 1952 में वे भी शाखा जाने लगे। पढ़ाई में उनका मन बहुत नहीं लगता था। अतः जैसे-तैसे उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा पूर्ण की। उनकी शाखा में ही बड़ी कक्षा में एक मेधावी छात्र श्रीपति शास्त्री भी आते थे, जो आगे चलकर संघ के केन्द्रीय अधिकारी बने। उनके सहयोग से सुब्बू परीक्षा में उत्तीर्ण होते रहे।
1962 में कर्नाटक प्रांत प्रचारक श्री यादवराव जोशी की प्रेरणा से सुब्बू प्रचारक बने। उनके बड़े भाई अनंत ने यह आश्वासन दिया कि घर का सब काम वे संभाल लेंगे। प्रचारक बनने के बाद उन्होंने क्रमशः तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। पुणे में 1932 से एक घोष शाखा लगती थी। घोष में रुचि होने के कारण उन्होंने छह माह तक वहां रहकर इसका सघन प्रशिक्षण लिया और फिर वे कर्नाटक प्रांत के ‘घोष प्रमुख’ बनाये गये।
संघ के घोष की रचनाएं सेना से ली गयी थीं, जो अंग्रेजी ढंग से बजाई जाती थीं। घोष प्रमुख बनने के बाद सुब्बू ने इनके शब्द, स्वर तथा लिपि का भारतीयकरण किया। वे देश भर में घूमकर इस विषय के विशेषज्ञों से मिले। इससे कुछ सालों में ही घोष पूरी तरह बदल गया। उन्होंने अनेक नई रचनाएं बनाकर उन्हें ‘नंदन’ नामक पुस्तक में छपवाया। टेप, सी.डी. तथा अतंरजाल के माध्यम से क्रमशः ये रचनाएं देश भर में लोकप्रिय हो गयीं।
पथ संचलन में घोष दल तथा उसके प्रमुख द्वारा घोष दंड का संचालन आकर्षण का एक प्रमुख केन्द्र होता है। सुब्बू जब तरह-तरह से घोष दंड घुमाते थे, जो दर्शक दंग रह जाते थे। 20-25 फुट की ऊंचाई तक घोष दंड फेंककर उसे फिर पकड़ना उनके लिए सहज था। मुख्यतः शंखवादक होने के बाद भी वे हर वाद्य को पूरी कुशलता से बजा लेते थे।
1962 में श्री गुरुजी के आगमन पर हुए एक कार्यक्रम में ध्वजारोहण के समय उन्होेंने शंख बजाया। उसे सुनकर अध्यक्षता कर रहे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने कहा कि उन्होंने सेना में भी इतना अच्छा स्वर कभी नहीं सुना। सुब्बू ने उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद, अलीगढ़, मेरठ आदि स्थानों पर कारीगरों के पास घंटों बैठकर घोष दंड तथा वाद्यों में आवश्यक सुधार भी कराये।
जब घोष विभाग को एक स्वतन्त्र विभाग बनाया गया, तो उन्हें अखिल भारतीय घोष प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी। इससे उनकी भागदौड़ बहुत बढ़ गयी। उन्होंने देश के हर प्रांत में घोष वादकों के शिविर लगाये, इससे कुछ ही वर्षों में हजारों नये वादक और घोष प्रमुख तैयार हो गये।
पर प्रवास की अव्यवस्था, परिश्रम और भागदौड़ का दुष्प्रभाव उनके शरीर पर हुआ और वे मधुमेह तथा अन्य कई रोगों के शिकार हो गये। इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे; पर अंततः उनके शरीर ने जवाब दे दिया और 18 जनवरी, 2005 को उनका स्वर सदा के लिए घोष-निनाद में विलीन हो गया।
(संदर्भ : घोष तपस्वी, साहित्य संगम, बंगलौर - दु.गु.लक्ष्मण)
...............................
11 अप्रैल/बलिदान-दिवस
वीर खाज्या एवं दौलतसिंह नायक
खाज्या नायक अंग्रेजों की भील पल्टन में एक सामान्य सिपाही थे। उन्हें सेंधवा-जामली चैकी से सिरपुर चैक तक के 24 मील लम्बे मार्ग की निगरानी का काम सौंपा गया था। खाज्या ने 1831 से 1851 तक इस काम को पूर्ण निष्ठा से किया।
एक बार गश्त के दौरान उन्होंने एक व्यक्ति को यात्रियों को लूटते हुए देखा। इससे वह इतने क्रोधित हो गये कि बिना सोचे-समझे उस पर टूट पड़े। इससे उस अपराधी की मृत्यु हो गयी। शासन ने कानून अपने हाथ में लेने पर उन्हें दस साल की सजा सुनायी।
किन्तु कारावास में अनुशासित रहने के कारण उनकी सजा घटा कर पाँच साल कर दी गयी। जेल से छूट कर उन्होंने शासन से फिर अपने लिए नौकरी माँगी; पर उन्हें नौकरी नहीं दी गयी। इससे वह शासन से नाराज हो गये और उनसे बदला लेने का सही समय तलाशने लगे।
इतिहासकार डा. एस.एन.यादव के अनुसार जब 1857 में भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह भड़क उठा, तो अंग्रेज अधिकारियों ने खाज्या और अनेक पूर्व सैनिक व सिपाहियों को फिर से काम पर रख लिया; पर खाज्या के मन में अंग्रेज शासन के प्रति घृणा बीज तो अंकुरित हो ही चुका था।
वह शान्त भाव से फिर काम करने लगे; लेकिन अब उनका मन काम में नहीं लगता था। एक बार एक छोटी सी भूल पर अंग्रेज अधिकारी कैप्टेन बर्च ने उन्हें अपमानित किया। उनके रूप, रंग और जातीय अस्मिता पर बहुत खराब टिप्पणियाँ कीं। अब खाज्या से और सहन नहीं हुआ। उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
उनके मन में प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल थी कि वह बड़वानी (मध्य प्रदेश) क्षेत्र के क्रान्तिकारी नेता भीमा नायक से मिले, जो रिश्ते में उनके बहनोई लगते थे। यहीं से इन दोनों की जोड़ी बनी, जिसने भीलों की सेना बनाकर निमाड़ क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण खड़ा कर दिया।
भील लोग शिक्षा और आर्थिक रूप से तो बहुत पीछे थे; पर उनमें वीरता और महाराणा प्रताप के सैनिक होने का स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था। जब एक बार ये अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गये, तो फिर पीछे हटने का कोई प्रश्न ही नहीं था।
इस सेना ने अंग्रेजों के खजाने लूटे, उनका वध किया और अंग्रेजों के पिट्ठुओं को भी नहीं बख्शा। शासन ने इन्हें गिरफ्तार करने के अनेक प्रयास किये; पर जंगल और घाटियों के गहरे जानकार होने के कारण वीर भील योद्धा मारकाट कर सदा बचकर निकल जाते थे।
अब शासन ने भेद नीति का सहारा लेकर इन दोनों भील नायकों को पकड़वाने वाले को एक हजार रु. का पुरस्कार घोषित कर दिया। तब के एक हजार रु. आज के दस लाख रु. के बराबर होंगे। फिर भी भीमा और खाज्या नायक बिना किसी भय के क्षेत्र में घूम-घूमकर लोगों को संगठित करते रहे।
11 अप्रैल, 1858 को बड़वानी और सिलावद के बीच स्थित आमल्यापानी गाँव में अंग्रेज सेना और इस भील सेना की मुठभेड़ हो गयी। अंग्रेज सेना के पास आधुनिक शस्त्र थे, जबकि भील अपने परम्परागत शस्त्रों से ही मुकाबला कर रहे थे। प्रातः आठ बजे से शाम तीन बजे तक यह युद्ध चला। इसमें खाज्या नायक के वीर पुत्र दौलतसिंह सहित अनेक योद्धा बलिदान हुए।
आज भी सारा निमाड़ क्षेत्र उस वीरों के प्रति श्रद्धा से नत होता है, जिन्होंने अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए प्राणाहुति दी।
..................
मंगल पाण्डे का बलिदान
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध चले लम्बे संग्राम का बिगुल बजाने वाले पहले क्रान्तिवीर मंगल पांडे का जन्म 30 जनवरी, 1831 को ग्राम नगवा (बलिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। कुछ लोग इनका जन्म ग्राम सहरपुर (जिला साकेत, उ0प्र0) तथा जन्मतिथि 19 जुलाई, 1927 भी मानते हैं। युवावस्था में ही वे सेना में भर्ती हो गये थे।
उन दिनों सैनिक छावनियों में गुलामी के विरुद्ध आग सुलग रही थी। अंग्रेज जानते थे कि हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं, जबकि मुसलमान सूअर से घृणा करते हैं। फिर भी वे सैनिकों को जो कारतूस देते थे, उनमें गाय और सूअर की चर्बी मिली होती थी। इन्हें सैनिक अपने मुँह से खोलते थे। ऐसा बहुत समय से चल रहा था; पर सैनिकों को इनका सच मालूम नहीं था।
मंगल पांडे उस समय बैरकपुर में 34 वीं हिन्दुस्तानी बटालियन में तैनात थे। वहाँ पानी पिलाने वाले एक हिन्दू ने इसकी जानकारी सैनिकों को दी। इससे सैनिकों में आक्रोश फैल गया। मंगल पांडे से रहा नहीं गया। 29 मार्च, 1857 को उन्होंने विद्रोह कर दिया।
एक भारतीय हवलदार मेजर ने जाकर सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन को यह सब बताया। इस पर मेजर घोड़े पर बैठकर छावनी की ओर चल दिया। वहां मंगल पांडे सैनिकों से कह रहे थे कि अंग्रेज हमारे धर्म को भ्रष्ट कर रहे हैं। हमें उसकी नौकरी छोड़ देनी चाहिए। मैंने प्रतिज्ञा की है कि जो भी अंग्रेज मेरे सामने आयेगा, मैं उसे मार दूँगा।
सार्जेण्ट मेजर ह्यूसन ने सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने को कहा; पर तब तक मंगल पांडे की गोली ने उसका सीना छलनी कर दिया। उसकी लाश घोड़े से नीचे आ गिरी। गोली की आवाज सुनकर एक अंग्रेज लेफ्टिनेण्ट वहाँ आ पहुँचा। मंगल पांडे ने उस पर भी गोली चलाई; पर वह बचकर घोड़े से कूद गया। इस पर मंगल पांडे उस पर झपट पड़े और तलवार से उसका काम तमाम कर दिया। लेफ्टिनेण्ट की सहायता के लिए एक अन्य सार्जेण्ट मेजर आया; पर वह भी मंगल पांडे के हाथों मारा गया।
तब तक चारों ओर शोर मच गया। 34 वीं पल्टन के कर्नल हीलट ने भारतीय सैनिकों को मंगल पांडे को पकड़ने का आदेश दिया; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। इस पर अंग्रेज सैनिकों को बुलाया गया। अब मंगल पांडे चारों ओर से घिर गये। वे समझ गये कि अब बचना असम्भव है। अतः उन्होंने अपनी बन्दूक से स्वयं को ही गोली मार ली; पर उससे वे मरे नहीं, अपितु घायल होकर गिर पड़े। इस पर अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें पकड़ लिया।
अब मंगल पांडे पर सैनिक न्यायालय में मुकदमा चलाया गया। उन्होंने कहा, ‘‘मैं अंग्रेजों को अपने देश का भाग्यविधाता नहीं मानता। देश को आजाद कराना यदि अपराध है, तो मैं हर दण्ड भुगतने को तैयार हूँ।’’
न्यायाधीश ने उन्हें फाँसी की सजा दी और इसके लिए 18 अप्रैल का दिन निर्धारित किया; पर अंग्रेजों ने देश भर में विद्रोह फैलने के डर से घायल अवस्था में ही 8 अप्रैल, 1857 को उन्हें फाँसी दे दी। बैरकपुर छावनी में कोई उन्हंे फाँसी देने को तैयार नहीं हुआ। अतः कोलकाता से चार जल्लाद जबरन बुलाने पड़े।
मंगल पांडे ने क्रान्ति की जो मशाल जलाई, उसने आगे चलकर 1857 के व्यापक स्वाधीनता संग्राम का रूप लिया। यद्यपि भारत 1947 में स्वतन्त्र हुआ; पर उस प्रथम क्रान्तिकारी मंगल पांडे के बलिदान को सदा श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है।
................................
9 अप्रैल/जन्म-दिवस
घुमक्कड़ साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन
महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के ग्राम पन्दहा में नौ अप्रैल, 1893 को हुआ था। बचपन में इनका नाम केदार पांडेय था। माता कुलवन्ती देवी तथा पिता श्री गोवर्धन पांडेय की असमय मृत्यु के कारण इनका पालन ननिहाल में हुआ।
15 वर्ष की अवस्था में आजमगढ़ से उर्दू में मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण कर वे काशी आ गये। वहाँ उन्होंने संस्कृत और दर्शनशास्त्र का तथा फिर अयोध्या में वेदान्त का गहन अध्ययन किया। उन्होंने आगरा में अरबी तथा लाहौर में फारसी की पढ़ाई भी की।
राहुल जी घुमक्कड़ स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने विश्व के अनेक देशों का भ्रमण किया। उन पर आर्य समाज, माक्र्सवाद और बौद्ध मत का बहुत प्रभाव पड़ा। 1917 में वह रूस गये। वहाँ उन्होंने रूसी क्रान्ति का गहन अध्ययन कर उस पर एक पुस्तक लिखी। बौद्ध मत का अध्ययन करने के लिए उन्होंने चीन, जापान, श्रीलंका और तिब्बत आदि का कष्टपूर्ण, पर विस्तृत प्रवास किया।
वहाँ जो भी प्राचीन पुस्तकें एवं पांडुलिपियाँ उन्हें मिलीं, उसे 22 खच्चरों पर लादकर अपने साथ लाये। इसमें से अधिकांश का उन्होंने हिन्दी में अनुवाद किया। इस प्रकार भारत से बाहर बिखरे बौद्ध साहित्य से उन्होंने विश्व का परिचय कराया। बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर उन्होंने उसे अपना लिया। इसके बाद उनका नाम राहुल सांकृत्यायन हो गया।
1927-28 तक श्रीलंका में उन्होंने संस्कृत शिक्षण का कार्य किया। अच्छे लेखक और विचारक होने के बाद भी वे कभी प्रत्यक्ष कार्य से अलग नहीं हुए। भारत आकर वे किसान आन्दोलन में कूद पड़े।
उनका मत था कि अंग्रेजों की शह पर पल रहे सामंतवाद और पूँजीवाद के गठजोड़ को तोड़े बिना किसानों की दशा नहीं सुधरेगी। 1921 में वे गांधी जी के साथ जुड़ गये। 1931 में एक बौद्ध मिशन के साथ वे यूरोप की यात्रा पर गये। 1937 में रूस ने उन्हें प्राचीन साहित्य के अध्ययन के लिए बुलाया। भारत आकर 1942 में वे ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के अन्तर्गत जेल गये।
राहुल जी हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, तमिल, कन्नड़, पाली, अंग्रेजी, जापानी, रूसी, तिब्बती और फ्रान्सीसी भाषाओं के अच्छे जानकार थे। इसके अतिरिक्त भी 20-25 भाषाएँ वे जानते थे; पर हिन्दी के प्रति उनके मन में सर्वाधिक आदर था। हिन्दी के प्रति अपनी निष्ठा के कारण उन्होंने कम्यूनिस्ट पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। 1947 में मुम्बई में आयोजित ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के वे निर्विरोध सभापति चुने गये थे।
उन्होंने कहानी, उपन्यास, यात्रा वर्णन, जीवनी, संस्मरण, विज्ञान, इतिहास, राजनीति, दर्शन जैसे विषयों पर विभिन्न भाषाओं में 130 ग्रन्थ लिखे। ‘वोल्गा से गंगा तक’ उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति है, जिसे वैश्विक ख्याति मिली। उनकी पुस्तकों के अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं।
राहुल जी को ‘महापंडित’ की उपाधि पाठकों ने ही दी। कई देशों ने उन्हें अपने यहाँ बुलाकर अनेक सम्मानांे एवं पुरस्कारों से अलंकृत किया। भारत में उन्हें ‘पद्मभूषण’ और ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
राहुल जी का हृदय बहुत बड़ा था। वे व्यक्ति मंे दोष की बजाय गुण देखने पर बल देते थे। उनका मत था कि कोई भी व्यक्ति दूध का धुला नहीं होता। यदि किसी में पाँच प्रतिशत भी अच्छाई है, तो उसे महत्व देना चाहिए। घुमक्कड़ पन्थ के अनुयायी राहुल जी 1959 में दर्शनशास्त्र के महाचार्य के नाते फिर श्रीलंका गये; पर 1961 में उनकी स्मृति खो गयी। इसी दशा में 14 अप्रैल, 1963 को उनका देहान्त हो गया।
...........................
9 अपै्रल/जन्म-दिवस
सरोद को समर्पित सरोदरानी
सरोद जैसे मरदाने वाद्य को बजाकर ‘सरोदरानी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई शरणरानी बाकलीवाल का जन्म नौ अपै्रल, 1929 को दिल्ली में लाला पन्नूलाल और श्रीमती नंद रानी के घर में हुआ था। घर में ग्रामोफोन पर श्रीकृष्ण भक्ति के गीत बजते तो थे; पर संगीत की विधिवत परम्परा वहां नहीं थी।
एक बार शरणरानी ने अल्मारी में पड़े पुराने सरोद को देखा, तो उसे साफकर तांबे के सिक्के से उस पर सरगम निकालने लगी। इस प्रकार उनका सरोद से जो लगाव हुआ, वह आजीवन बना रहा। एक कार्यक्रम में जब उन्होंने अली अकबर खां को सरोद बजाते सुना, तबसे वे उसे ही समर्पित हो गयीं।
बचपन से ही संगीत के प्रति उन्हें बहुत लगाव था। उन्होंने बिरजू महाराज के पिता अच्छन गुरु से कथक और नभकुमार सिन्हा से मणिपुरी नृत्य भी सीखा। घर में इसका विरोध होता था; पर वे अपने संकल्प से पीछे नहीं हटीं।
एक बार मैहर घराने के उस्ताद अलाउद्दीन खां दिल्ली आये, तो शरणरानी ने उनसे सरोद सिखाने की प्रार्थना की। उस्ताद ने हंसकर कहा कि यह मरदाना वाद्य है, इसे महिलाएं नहीं बजातीं; पर उसकी जिद देखकर वे उसे मैहर ले आये और अपने घर में, अपनी बेटी अन्नपूर्णा के साथ रखकर सरोद सिखाया।
उन दिनों उस्ताद जी के पास रहकर अली अकबर खां, पंडित रविशंकर, निखिल बनर्जी, पन्नालाल घोष जैसे शिष्य संगीत सीख रहे थे। आगे चलकर इन सबने अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की। इनके बीच शरणरानी अकेली लड़की थी। फिर भी उसने साहसपूर्वक सरोद की साधना जारी रखी।
उस्ताद अलाउद्दीन खां को सब लोग ‘बाबा’ कहते थे। उनसे सीखना आसान नहीं था। प्रतिदिन आठ-नौ घंटे रियाज करनी पड़ती थी। इसमें ढिलाई होने पर वे नाराज होकर अपनी गुल्लक से पैसे निकालकर शिष्य से कहते थे, ‘‘लो, टिकट लेकर घर चले जाओ। तुम्हारे बस का संगीत सीखना नहीं है।’’ शरणरानी को भी कई बार उनका गुस्सा झेलना पड़ा; पर वे डटी रहीं।
क्रमशः सरोद और शरणरानी एक-दूसरे के पर्याय हो गये। उनसे प्रेरित होकर कई महिलाओं ने सरोद सीखा। संगीतप्रेमी जौहरी सुल्तान सिंह बाकलीवाल से विवाह के बाद घरेलू दायित्व निभाते हुए भी उन्होंने साधना जारी रखी।
कई देशी-विदेशी ग्रामोफोन कंपनियों ने उनके रिकार्ड बनाये। यूनेस्को ने भी उनकी रिकार्डिंग की थी। नेहरू जी उन्हें भारत का ‘सांस्कृतिक राजदूत’ कहते थे। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने उन्हें ‘सरोदरानी’ की उपाधि दी। संगीत में शुद्धता की समर्थक शरणरानी ने कई नये राग और बंदिशों की रचना भी की।
उन दिनों संगीत में महिलाओं को महत्व नहीं दिया जाता था; पर उनके साथ तत्कालीन सभी विख्यात तबलावादकों ने संगत की है। इनमें गुदई महाराज, देवाशीष चक्रवर्ती, अहमद जान थिरकवा, उस्ताद अल्ला रक्खा खां, जाकिर हुसैन, पंडित शिवकुमार शर्मा, उस्ताद शफात अहमद खां आदि प्रमुख हैं।
शरणरानी ने देश-विदेश में घूमते हुए 15 वीं शती के बाद के दुर्लभ भारतीय वाद्य संग्रहकर ऐसे 500 वाद्य राष्ट्रीय संग्रहालय को दे दिये। उनके द्वारा स्थापित ‘शरणरानी बाकलीवाल वीथिका’ में भी 450 शास्त्रीय वाद्य प्रदर्शित हैं। 1998 में इस वीथिका के चार वाद्यों पर डाक टिकट जारी हुए। सरोद के उद्भव, इतिहास और विकास पर लिखी उनकी पुस्तक अधिकृत मानी जाती है।
1968 में पद्मश्री तथा 2000 में पद्मभूषण से अलंकृत शरणरानी को संगीत क्षेत्र के भी प्रायः सभी बड़े पुरस्कार मिले। अपने 81वें जन्मदिवस की पूर्वसंध्या (आठ अपै्रल, 2008) को उन्होंने अपनी संगीत-यात्रा पूर्ण की।
(संदर्भ : जनसत्ता 20.4.08/इंडिया टुडे 30.4.08/विकीपीडिया)
--------------------
10 अप्रैल/स्थापना-दिवस
महर्षि दयानंद एवं आर्य समाज
भारत में एक समय वह भी था, जब लोग कर्मकाण्ड को ही हिन्दू धर्म का पर्याय मानने लगे थे। वे धर्म के सही अर्थ से दूर हट गये थे। यह देखकर स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल, 1875 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, नव संवत्सर) के शुभ अवसर पर मुम्बई में ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। आर्य समाज ने धर्मान्तरण की गति को रोककर परावर्तन की लहर चलायी। इसके साथ उसने आजादी के लिए जो काम किया, वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा है।
स्वामी दयानन्द का जन्म 12 फरवरी, 1824 को ग्राम टंकारा, काठियावाड़ (गुजरात) में हुआ था। उनके पिता श्री अम्बाशंकर की भगवान भोलेनाथ में बहुत आस्था थी। माता अमृताबाई भी धर्मप्रेमी विदुषी महिला थीं।
दयानन्द जी का बचपन का नाम मूलशंकर था। 14 वर्ष की अवस्था में घटित एक घटना ने उनका जीवन बदल दिया। महाशिवरात्रि के पर्व पर सभी परिवारजन व्रत, उपवास, पूजा और रात्रि जागरण में लगे थे; पर रात के अन्तिम पहर में सब उनींदे हो गये। इसी समय मूलशंकर ने देखा कि एक चूहा भगवान शंकर की पिण्डी पर खेलते हुए प्रसाद खा रहा है।
मूलशंकर के मन पर इस घटना से बड़ी चोट लगी। उसे लगा कि यह कैसा भगवान है, जो अपनी रक्षा भी नहीं कर सकता ? उन्होंने अपने पिता तथा अन्य परिचितों से इस बारे में पूछा; पर कोई उन्हें सन्तुष्ट नहीं कर सका। उन्होंने संकल्प किया कि वे असली शिव की खोज कर उसी की पूजा करेंगे। वे घर छोड़कर इस खोज में लग गये।
नर्मदा के तट पर स्वामी पूर्णानन्द से संन्यास की दीक्षा लेकर वे दयानन्द सरस्वती बन गये। कई स्थानों पर भटकने के बाद मथुरा में उनकी भेंट प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द जी से हुई। उन्होंने दयानन्द जी के सब प्रश्नों के समाधानकारक उत्तर दिये। इस प्रकार लम्बी खोज के बाद उन्हें सच्चे गुरु की प्राप्ति हुई।
स्वामी विरजानन्द के पास रहकर उन्होंने वेदों का गहन अध्ययन और फिर उनका भाष्य किया। गुरुजी ने गुरुदक्षिणा के रूप में उनसे यह वचन लिया कि वे वेदों का ज्ञान देश भर में फैलायेंगे। दयानन्द जी पूरी शक्ति से इसमें लग गये। प्रारम्भ में वे गुजराती और संस्कृत में प्रवचन देते थे; पर फिर उन्हें लगा कि भारत भर में अपनी बात फैलाने के लिए हिन्दी अपनानी होगी। उन्होंने अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ भी हिन्दी में ही लिखा।
‘आर्य समाज’ के माध्यम से उन्होंने हिन्दू धर्म में व्याप्त पाखण्ड और अन्धविश्वासों का विरोध किया। इस बारे में जागरूकता लाने के लिए उन्होंने देश भर का भ्रमण किया। अनेक विद्वानों से उनका शास्त्रार्थ हुआ; पर उनके तर्कों के आगे कोई टिक नहीं पाता था। इससे ‘आर्य समाज’ विख्यात हो गया। स्वामी जी ने बालिका हत्या, बाल विवाह, छुआछूत जैसी कुरीतियों का प्रबल विरोध किया। वे नारी शिक्षा और विधवा विवाह के भी समर्थक थे।
धीरे-धीरे आर्य समाज का विस्तार भारत के साथ ही अन्य अनेक देशों में भी हो गया। शिक्षा के क्षेत्र में आर्य समाज द्वारा संचालित डी.ए.वी. विद्यालयों का बड़ा योगदान है। देश एवं हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए जीवन समर्पित करने वाले स्वामी जी को जोधपुर में एक वेश्या के कहने पर जगन्नाथ नामक रसोइये ने दूध में विष दे दिया। इससे 30 अक्तूबर, 1883 (दीपावली) को उनका देहान्त हो गया।
.....................
10 अप्रैल/जन्म-दिवस
अद्भुत कोशकार डा. श्याम बहादुर वर्मा
बहुमुखी प्रतिभाओं के धनी डा. श्याम बहादुर वर्मा का जन्म 10 अप्रैल, 1932 को आंवला (बरेली, उ.प्र.) में हुआ था। उनकी मां डा. विद्यावती वर्मा होम्योपैथी की सेवाभावी चिकित्सक थीं। बचपन से ही उनमें अधिकतम शिक्षा और ज्ञान प्राप्त करने की भूख थी। 1948 में शाहजहांपुर से बी.एस-सी. करते समय वे संघ पर लगे प्रतिबन्ध के विरोध में सत्याग्रह कर जेल गये।
घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण वे पढ़ने के साथ ही ट्यूशन पढ़ाते हुए परिवार को सहारा भी देते थे। 1953 में बरेली काॅलिज से गणित विषय में एम.एस-सी. उत्तीर्ण कर वे अस्कोट (अल्मोड़ा, उत्तराखंड) में पढ़ाने लगे। इसके बाद उनके अध्ययन और अध्यापन की यह यात्रा हल्द्वानी, भोगांव, धामपुर और साहिबाबाद होते हुए दिल्ली तक आ गयी।
उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी तथा भारतीय इतिहास व संस्कृति में एम.ए. तथा दिल्ली वि0वि0 से ‘हिन्दी काव्य में शक्ति तत्व’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। वे सदा प्रथम श्रेणी के विद्यार्थी रहे। बरेली रहते हुए वे ‘साहित्य रत्न’ और ‘आयुर्वेद रत्न’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर चुके थे।
बरेली में उन्होंने ‘भारतीय अनुशीलन परिषद’ का गठन किया था। इसके पुस्तकालय, व्याख्यानमाला तथा अन्य कार्यक्रमों द्वारा उन्होंने सभी आयु-वर्ग के लोगों का परिचय भारतीय इतिहास और संस्कृति से कराया। 1953 में उन्होंने अकेले ही हिमालय को पैदल पारकर तिब्बत की यात्रा भी की थी।
भारत और भारतीयता के पुजारी डा0 वर्मा सदा धोती-कुर्ता ही पहनते थे। संघ के काम और ज्ञान की भूख के कारण उन्होंने विवाह भी नहीं किया। दिल्ली में वे ‘अ.भा.साहित्य परिषद’ और ‘विश्व हिन्दू परिषद’ में भी सक्रिय हुए। ‘विवेकानंद केन्द्र’ की मासिक पत्रिका ‘केन्द्र भारती’ का उन्होंने कई वर्ष सम्पादन किया। इसके साथ ही वे कई पत्र-पत्रिकाओं के नियमित लेखक भी थे। हिन्दी अकादमी, दिल्ली ने उन्हें ‘साहित्यकार सम्मान’ प्रदान किया था।
1972 में महर्षि अरविन्द के जन्मशती वर्ष में उन्होंने क्रांतियोगी श्री अरविन्द, महायोगी श्री अरविन्द, श्री अरविन्द साहित्य दर्शन तथा श्री अरविन्द विचार दर्शन नामक चार पुस्तकों की रचना की। भारत के मेले, हमारे सांस्कृतिक प्रतीक, भारत का संविधान, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, राष्ट्र-निर्माता स्वामी विवेकानंद उनकी अन्य कृतियां हैं। विश्व हिन्दू परिषद के विचारों के प्रचार के लिए उन्होंने अनेक छोटी-छोटी पुस्तिकाएं भी लिखीं।
लेकिन डा. श्याम बहादुर वर्मा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा निर्मित बृहत् कोश हैं। उन्होंने तीन खंड और बड़े आकार के 2,000 पृष्ठों में ‘विश्व सूक्ति कोश’ का निर्माण किया। लेखक, पत्रकार तथा पत्र-पत्रिकाओं के संदर्भ के लिए यह अद्भुत कोश है। इसमें लगभग सभी प्रमुख विषयों पर प्रख्यात लोगों द्वारा कहे हुए वाक्य तथा सूक्तियां मिलती हैं।
इसे पूरा कर वे आधुनिक शैली के ‘बृहत् हिन्दी शब्दकोश’ के निर्माण में जुट गये। 19 वर्ष की साधना के बाद दो खंडों में प्रकाशित बड़े आकार के 3,000 पृष्ठों वाला यह ग्रन्थ हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि है। इसके बाद वे एक विशाल चरित्रकोश की योजना बना रहे थे; पर विधि ने यह अवसर नहीं दिया और 20 नवम्बर, 2009 को हुए हृदयाघात से उनका निधन हो गया।
बौद्धिक साधना में लीन डा. श्याम बहादुर वर्मा के पास पुस्तकों का विशाल भंडार था। उन्हें बड़ी चिन्ता थी कि उनके बाद इसका क्या होगा ? उन्हें इस बात का भी बहुत कष्ट था कि लोग पुस्तकालयों में अब ज्ञान प्राप्ति के लिए नहीं, अपितु डिग्री दिलाने में सहायक पुस्तकें पढ़ने के लिए ही आते हैं।
(संदर्भ : पांचजन्य 6.12.2009/बृहत् हिन्दी शब्दकोश)
..........................
10 अप्रैल/जन्म-दिवस
घोष को समर्पित सुब्बू श्रीनिवास
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के काम में शाखा का और शाखा में शारीरिक कार्यक्रमों का बड़ा महत्व है। शाखा पर खेल के साथ ही पथ संचलन का अभ्यास भी होता है। जब स्वयंसेवक घोष (बैंड) की धुन पर कदम मिलाकर चलते हैं, तो चलने वालों के साथ ही देखने वाले भी झूम उठते हैं।
घोष विभाग के विकास में अपना पूरा जीवन खपा देने वाले श्री सुब्बू श्रीनिवास का जन्म 10 अपै्रल, 1940 को मैसूर (कर्नाटक) में एक सामान्य दुकानदार श्री बी.जी.सुब्रह्मण्यम तथा श्रीमती शुभम्म के घर में हुआ। सात भाई-बहिनों में वे सबसे छोटे थे। अपने बड़े भाई अनंत के साथ 1952 में वे भी शाखा जाने लगे। पढ़ाई में उनका मन बहुत नहीं लगता था। अतः जैसे-तैसे उन्होंने मैट्रिक तक की शिक्षा पूर्ण की। उनकी शाखा में ही बड़ी कक्षा में एक मेधावी छात्र श्रीपति शास्त्री भी आते थे, जो आगे चलकर संघ के केन्द्रीय अधिकारी बने। उनके सहयोग से सुब्बू परीक्षा में उत्तीर्ण होते रहे।
1962 में कर्नाटक प्रांत प्रचारक श्री यादवराव जोशी की प्रेरणा से सुब्बू प्रचारक बने। उनके बड़े भाई अनंत ने यह आश्वासन दिया कि घर का सब काम वे संभाल लेंगे। प्रचारक बनने के बाद उन्होंने क्रमशः तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। पुणे में 1932 से एक घोष शाखा लगती थी। घोष में रुचि होने के कारण उन्होंने छह माह तक वहां रहकर इसका सघन प्रशिक्षण लिया और फिर वे कर्नाटक प्रांत के ‘घोष प्रमुख’ बनाये गये।
संघ के घोष की रचनाएं सेना से ली गयी थीं, जो अंग्रेजी ढंग से बजाई जाती थीं। घोष प्रमुख बनने के बाद सुब्बू ने इनके शब्द, स्वर तथा लिपि का भारतीयकरण किया। वे देश भर में घूमकर इस विषय के विशेषज्ञों से मिले। इससे कुछ सालों में ही घोष पूरी तरह बदल गया। उन्होंने अनेक नई रचनाएं बनाकर उन्हें ‘नंदन’ नामक पुस्तक में छपवाया। टेप, सी.डी. तथा अतंरजाल के माध्यम से क्रमशः ये रचनाएं देश भर में लोकप्रिय हो गयीं।
पथ संचलन में घोष दल तथा उसके प्रमुख द्वारा घोष दंड का संचालन आकर्षण का एक प्रमुख केन्द्र होता है। सुब्बू जब तरह-तरह से घोष दंड घुमाते थे, जो दर्शक दंग रह जाते थे। 20-25 फुट की ऊंचाई तक घोष दंड फेंककर उसे फिर पकड़ना उनके लिए सहज था। मुख्यतः शंखवादक होने के बाद भी वे हर वाद्य को पूरी कुशलता से बजा लेते थे।
1962 में श्री गुरुजी के आगमन पर हुए एक कार्यक्रम में ध्वजारोहण के समय उन्होेंने शंख बजाया। उसे सुनकर अध्यक्षता कर रहे पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने कहा कि उन्होंने सेना में भी इतना अच्छा स्वर कभी नहीं सुना। सुब्बू ने उत्तर प्रदेश में मुरादाबाद, अलीगढ़, मेरठ आदि स्थानों पर कारीगरों के पास घंटों बैठकर घोष दंड तथा वाद्यों में आवश्यक सुधार भी कराये।
जब घोष विभाग को एक स्वतन्त्र विभाग बनाया गया, तो उन्हें अखिल भारतीय घोष प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी। इससे उनकी भागदौड़ बहुत बढ़ गयी। उन्होंने देश के हर प्रांत में घोष वादकों के शिविर लगाये, इससे कुछ ही वर्षों में हजारों नये वादक और घोष प्रमुख तैयार हो गये।
पर प्रवास की अव्यवस्था, परिश्रम और भागदौड़ का दुष्प्रभाव उनके शरीर पर हुआ और वे मधुमेह तथा अन्य कई रोगों के शिकार हो गये। इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे; पर अंततः उनके शरीर ने जवाब दे दिया और 18 जनवरी, 2005 को उनका स्वर सदा के लिए घोष-निनाद में विलीन हो गया।
(संदर्भ : घोष तपस्वी, साहित्य संगम, बंगलौर - दु.गु.लक्ष्मण)
...............................
11 अप्रैल/बलिदान-दिवस
वीर खाज्या एवं दौलतसिंह नायक
खाज्या नायक अंग्रेजों की भील पल्टन में एक सामान्य सिपाही थे। उन्हें सेंधवा-जामली चैकी से सिरपुर चैक तक के 24 मील लम्बे मार्ग की निगरानी का काम सौंपा गया था। खाज्या ने 1831 से 1851 तक इस काम को पूर्ण निष्ठा से किया।
एक बार गश्त के दौरान उन्होंने एक व्यक्ति को यात्रियों को लूटते हुए देखा। इससे वह इतने क्रोधित हो गये कि बिना सोचे-समझे उस पर टूट पड़े। इससे उस अपराधी की मृत्यु हो गयी। शासन ने कानून अपने हाथ में लेने पर उन्हें दस साल की सजा सुनायी।
किन्तु कारावास में अनुशासित रहने के कारण उनकी सजा घटा कर पाँच साल कर दी गयी। जेल से छूट कर उन्होंने शासन से फिर अपने लिए नौकरी माँगी; पर उन्हें नौकरी नहीं दी गयी। इससे वह शासन से नाराज हो गये और उनसे बदला लेने का सही समय तलाशने लगे।
इतिहासकार डा. एस.एन.यादव के अनुसार जब 1857 में भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह भड़क उठा, तो अंग्रेज अधिकारियों ने खाज्या और अनेक पूर्व सैनिक व सिपाहियों को फिर से काम पर रख लिया; पर खाज्या के मन में अंग्रेज शासन के प्रति घृणा बीज तो अंकुरित हो ही चुका था।
वह शान्त भाव से फिर काम करने लगे; लेकिन अब उनका मन काम में नहीं लगता था। एक बार एक छोटी सी भूल पर अंग्रेज अधिकारी कैप्टेन बर्च ने उन्हें अपमानित किया। उनके रूप, रंग और जातीय अस्मिता पर बहुत खराब टिप्पणियाँ कीं। अब खाज्या से और सहन नहीं हुआ। उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
उनके मन में प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल थी कि वह बड़वानी (मध्य प्रदेश) क्षेत्र के क्रान्तिकारी नेता भीमा नायक से मिले, जो रिश्ते में उनके बहनोई लगते थे। यहीं से इन दोनों की जोड़ी बनी, जिसने भीलों की सेना बनाकर निमाड़ क्षेत्र में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण खड़ा कर दिया।
भील लोग शिक्षा और आर्थिक रूप से तो बहुत पीछे थे; पर उनमें वीरता और महाराणा प्रताप के सैनिक होने का स्वाभिमान कूट-कूटकर भरा था। जब एक बार ये अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गये, तो फिर पीछे हटने का कोई प्रश्न ही नहीं था।
इस सेना ने अंग्रेजों के खजाने लूटे, उनका वध किया और अंग्रेजों के पिट्ठुओं को भी नहीं बख्शा। शासन ने इन्हें गिरफ्तार करने के अनेक प्रयास किये; पर जंगल और घाटियों के गहरे जानकार होने के कारण वीर भील योद्धा मारकाट कर सदा बचकर निकल जाते थे।
अब शासन ने भेद नीति का सहारा लेकर इन दोनों भील नायकों को पकड़वाने वाले को एक हजार रु. का पुरस्कार घोषित कर दिया। तब के एक हजार रु. आज के दस लाख रु. के बराबर होंगे। फिर भी भीमा और खाज्या नायक बिना किसी भय के क्षेत्र में घूम-घूमकर लोगों को संगठित करते रहे।
11 अप्रैल, 1858 को बड़वानी और सिलावद के बीच स्थित आमल्यापानी गाँव में अंग्रेज सेना और इस भील सेना की मुठभेड़ हो गयी। अंग्रेज सेना के पास आधुनिक शस्त्र थे, जबकि भील अपने परम्परागत शस्त्रों से ही मुकाबला कर रहे थे। प्रातः आठ बजे से शाम तीन बजे तक यह युद्ध चला। इसमें खाज्या नायक के वीर पुत्र दौलतसिंह सहित अनेक योद्धा बलिदान हुए।
आज भी सारा निमाड़ क्षेत्र उस वीरों के प्रति श्रद्धा से नत होता है, जिन्होंने अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान के लिए प्राणाहुति दी।
..................
11 अप्रैल/जन्म-दिवस
समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले
महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल, 1827 को पुणे (महाराष्ट्र) में हुआ था। इनके पिता श्री गोविन्दराव फूलों की खेती से जीवनयापन करते थे। इस कारण इनका परिवार फुले कहलाता था। महाराष्ट्र में उन दिनों छुआछूत की बीमारी चरम पर थी। अछूत जाति के लोगों को अपने चलने से अपवित्र हुई सड़क की सफाई के लिए कमर में पीछे की ओर लम्बा झाड़ू बाँधकर तथा थूकने के लिए गले में एक लोटा लटकाकर चलना होता था।
एक वर्ष की अवस्था में उनकी माँ का देहान्त हो गया। अछूत बच्चे उन दिनों विद्यालय नहीं जाते थे; पर समाज के विरोध के बावजूद गोविन्दराव ने ज्योति को शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय भेजा। खेत में फूलों की देखभाल करते हुए भी वे पढ़ने का समय निकाल लेते थे। इस प्रकार वे सातवीं तक पढ़े।
14 वर्ष की अवस्था में ज्योति का विवाह आठ वर्षीय सावित्रीबाई से हो गया। पढ़ाई में रुचि देखकर उनके पड़ोसी मुंशी गफ्फार तथा पादरी लेजिट ने उन्हें मिशनरी विद्यालय में भर्ती करा दिया। वहाँ सभी जातियों के छात्रों से उनकी मित्रता हुई। एक बार ज्योति के एक ब्राह्मण मित्र ने उन्हें अपने विवाह में बुलाया। वहाँ कुछ कट्टरपन्थी पंडितों ने उन्हें बुरी तरह अपमानित किया। इससे नवयुवक ज्योति के मन को बहुत चोट लगी और उन्होंने समाज में व्याप्त असमानता तथा कुरीतियों को समाप्त करने का संकल्प ले लिया।
एक बार ज्योति अपने मित्र सदाशिव गोविन्दे से मिलने अहमदनगर गये। वहाँ ईसाइयों द्वारा संचालित स्त्री पाठशालाओं से वे बहुत प्रभावित हुए। पुणे आकर ज्योति ने अपने मित्र भिड़े के घर में स्त्री पाठशाला खोल दी। बड़ी संख्या में निर्धन लड़कियाँ वहाँ आने लगीं। कट्टरपन्थियों ने इसका विरोध किया।
जब सावित्रीबाई पढ़ने जाती, तो वे उस पर कूड़ा और पत्थर फेंकते। उन्होंने गोविन्दराव को मजबूर किया कि वे ज्योति को घर से अलग कर दें। इस पर गोविन्दे ने उन्हें अहमदनगर बुला लिया। वहाँ उनकी पत्नी ने सावित्री को घर पर पढ़ाया। पुणे आकर गोविन्दे व अण्णा साहब आदि समाजसेवियों के सहयोग से उन्होंने कई विद्यालय खोले। सावित्रीबाई ने यह सारा काम सँभाल लिया।
ज्योतिबा फुले ने समाज जागरण और छुआछूत निवारण के लिए 23 सितम्बर, 1873 को पुणे में ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। इनके कार्यकर्ता सिर पर साफा, गले में ढोल तथा कन्धे पर कम्बल रखते थे। ढोल बजाकर वे जनजागरण करते थे। उनका मत था कि पुनर्जन्म, मूर्तिपूजा, खर्चीले विवाह और अन्धविश्वास छोड़ने से ही उनका उद्धार होगा। ज्योतिबा ने 1860 में विधवाओं तथा उनके बच्चों के लिए एक आश्रम भी खोला।
1876 में वे पुणे नगरपालिका के सदस्य मनोनीत हुए। उन्होंने गरीब बस्तियों में शराबखानों के बदले पानी, पुस्तकालय, विद्यालय आदि खुलवाये तथा गरीबों को सस्ते में दुकानें दिलवायीं। नगरपालिका द्वारा ब्राह्मणों व भिखारियों को दी जाने वाली सरकारी सहायता रोककर उससे साहित्यकारों को पुरस्कृत करवाया। पुणे नगर के आसपास उन्होंने अनेक सुन्दर बाग लगवाये।
उन्होंने मराठी में ब्राह्मणांचे कसब, शिवाजी चा पोवाड़ा, शेतक यात्रा आसूड, इशारा, कैफियत... आदि अनेक पुस्तकें लिखीं तथा ‘सतसार’ नामक पत्रिका निकाली। साठ वर्ष का होने पर मुम्बई में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया और उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गयी। 21 नवम्बर, 1890 को इस महान समाज सुधारक का देहान्त हो गया।
------------------
11 अपै्रल/जन्म-दिवस
मनोज कुमार सिंह का दुखद देहावसान
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आकर प्रायः सबके स्वभाव और कार्यशैली में परिवर्तन होता है। कई लोगों के तो जीवन का लक्ष्य ही बदल जाता है। कानपुर के विभाग प्रचारक श्री मनोज कुमार सिंह भी इसके अपवाद नहीं थे। उनका जन्म 11 अपै्रल, 1973 (श्रीराम नवमी) पर ग्राम खखरा (जिला हरदोई, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनके पिता श्री शिवराज सिंह तथा माता श्रीमती रामदेवी थीं। छह भाई-बहिनों में मनोज जी का नंबर पांचवा था। प्राथमिक शिक्षा अपने गांव के निकट प्राथमिक विद्यालय, बौसरा से पूरी कर उन्होंने कक्षा छह से बारह तक की शिक्षा आदर्श कृष्ण इंटर काॅलिज, भदैंचा (हरदोई) से प्राप्त की।
इस दौरान उनका सम्पर्क ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ से हुआ। उनकी नेतृत्व क्षमता, हिन्दुत्व निष्ठा तथा वैचारिक दृढ़ता देखकर उन्हें उस विद्यालय का प्रमुख बनाया गया। विद्यार्थी परिषद के माध्यम से ही फिर उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ। मनोजजी को विद्यार्थी परिषद और फिर संघ से जोड़ने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले रामगोपालजी के अनुसार मनोजजी शुरू में घोर अव्यवस्थित स्वभाव के थे। चाय के कप और झूठे बर्तन कमरे में कई दिन तक पड़े रहते थे; पर जब संघ वाले उनके कमरे पर आने लगे, तो उनका स्वभाव बदल गया।
एक-दो बार तो रामगोपालजी ने ही उनके साथ मिलकर कमरा साफ कराया। इससे उनके मन में संघ के कार्यकर्ताओं के प्रति आदर और श्रद्धा जाग्रत हुई। धीरे-धीरे उनका समर्पण संघ के प्रति बढ़ने लगा और उन्होंने मन ही मन शिक्षा पूर्ण कर संघ के लिए पूरा समय देने का निर्णय कर लिया। 1993 में बी.ए. करने के बाद वे विद्यार्थी विस्तारक होकर लखनऊ के पास मोहनलाल गंज में आये। 1995 में वे ललितपुर में नगर प्रचारक, 1996 में जिला प्रचारक और फिर 1998 में हमीरपुर में जिला प्रचारक बने। इसी दौरान उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण भी पूरे किये। 2004 में वे फर्रुखाबाद में सह विभाग प्रचारक और 2005 में विभाग प्रचारक बने।
अन्तर्मुखी होने के कारण वे बोलते कम ही थे। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। पिताजी का देहांत हो चुका था। दोनों बड़े भाई अपनी गृहस्थी में व्यस्त तथा परिवार के प्रति उदासीन थे। एक बड़ी बहिन 35 वर्ष की हो चुकी थी; पर अधिक आयु तथा आर्थिक दुरावस्था के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। ऐसे में मनोजजी ने ही यह जिम्मेदारी ली और उसका विवाह कराया। संघ के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने भी इसमें सहयोग किया। इस प्रकार वे घर की जिम्मेदारी से पूरी तरह मुक्त हो गये।
2007 में मनोजजी कानपुर में विभाग प्रचारक थे। 12 अगस्त की शाम को जयनारायण विद्यालय में छात्रों का एक कार्यक्रम था। वहां बातचीत करते हुए रात के नौ बज गये। भोजन पहले से कहीं निश्चित नहीं था। भूख काफी तेज थी, अतः वे भोजन के लिए एक ढाबे में चले गये। वहां से वापस कार्यालय लौटते समय अंधकार और वर्षाजनित कीचड़ से भरी सड़क के एक गड्ढे में मोटर साइकिल का अगला पहिया पड़ गया। इससे उनका संतुलन बिगड़ गया और एक ट्रक से टक्कर हो गयी। टक्कर खाकर मनोजजी सड़क पर ऐसे गिरे कि वहीं उनका प्राणांत हो गया।
बहुत समय तक तो किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया। कुछ देर बाद वहां से निकल रहा एक पुलिस अधिकारी यह देखकर रुका। तभी मनोजजी की जेब में रखा मोबाइल फोन बजा। पुलिस अधिकारी ने फोन करने वाले को बताया कि तुमने जिसे फोन किया है, उसकी दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी है। कुछ ही देर में यह बात सब ओर फैल गयी। कार्यकर्ता दौड़कर वहां पहुंचे; पर वहां मनोजजी की बजाय उनका शव ही मिला। इस प्रकार एक नवयुवक प्रचारक असमय काल-कवलित हो गया। शायद प्रभु की यही इच्छा रही होगी।
----------------------------
12 अप्रैल/जन्म-दिवस
स्वधर्म के सेनानी एच.अण्डरसन मावरी
पूर्वोत्तर भारत में धर्मान्तरण के महाराक्षसों से लड़ने वाले स्वधर्म के कर्मठ सेनानी श्री एच.अंडरसन मावरी का जन्म 12 अप्रैल, 1920 को शिलांग (मेघालय) के लेटुमखराह ग्राम में हुआ था। जब वे 10 वर्ष के थे, तब उनके पूरे परिवार को ईसाई बना लिया गया।
इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण कर वे 1943 में सेना में भर्ती हो गये। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद 1946 में सेना से अवकाश लेकर उन्होंने फिर अध्ययन प्रारम्भ किया तथा गोहाटी वि.वि. से बी.ए. कर शिलांग के शासकीय हाईस्कूल में अध्यापक हो गये।
इस दौरान उन्होंने ईसाई मजहब के प्रचार-प्रसार में काफी समय लगाया। कई जगह वे प्रवचन करने जाते थे; पर इससे उन्हें आध्यात्मिक तृप्ति नहीं हुई। अतः 1966 में नौकरी छोड़कर दर्शन एवं धर्मशास्त्र का अध्ययन करने के लिए उन्होंने श्रीरामपुर (कोलकाता) के थियोलाॅजिकल काॅलिज में प्रवेश ले लिया। एक वर्ष बाद वे चेरापूंजी के विद्यालय में प्रधानाचार्य हो गये।
इस दौरान उन्होंने विभिन्न धर्मों की तुलना, आदिधर्म एवं चर्च के इतिहास का गहन अध्ययन किया। इससे उन्हें अनुभव हुआ कि ईसाई पादरी जिस खासी धर्म की आलोचना करते हैं, वह तो एक श्रेष्ठ धर्म है। अतः 1968 में उन्होंने स्वयं को अपने पूर्वजों के पवित्र खासी धर्म की सेवार्थ समर्पित कर दिया। वे अपने गांव लौट आये और वहां पर ही एक हाईस्कूल के प्राचार्य हो गये।
अब उन्होंने समाचार पत्रों में लेखन भी प्रारम्भ कर दिया। खासी जाति की अवस्था पर इनकी पहली पुस्तक ‘का परखात ऊ खासी’ प्रकाशित हुई। इसके बाद तो खासी एवं स्वधर्म, खासी धर्मसार, भविष्य की झलक, पूर्वी बनाम पश्चिमी संस्कृति तथा अन्य कई लघु पुस्तिकाएं छपीं। स्थानीय भाषा-बोली के साथ ही उनका अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ।
उन्होंने स्वामी विवेकानंद की जीवनी भी लिखी। अब वे गांव-गांव में जाकर खासी धर्म का प्रचार करने लगे। इससे जहां एक ओर खासी जाति का खोया हुआ स्वाभिमान वापस आया, वहां पादरियों में हलचल मच गयी।
छह मार्च, 1978 को श्री मावरी मेघालय तथा बांगलादेश की सीमा पर स्थित ग्राम नोंगतालांग में आयोजित ‘सेंग खासी सम्मेलन’ में शामिल हुए। उसके बाद से वे खासी जाति के उत्थान के लिए खासी जयन्तिया पहाडि़यों में घूम-घूम कर ‘स्वधर्मों निधनम् श्रेय, परमधर्मो भयावह’ की अलख जगा रहे हैं।
उनके प्रयासों से खासी जाति संगठित हुई तथा हजारों लोग वापस अपने धर्म में लौट आये। उनकी सक्रियता देखकर लोगों ने उन्हें खासी जाति की प्रमुख संस्था ‘सेंग खी लांग’ का अध्यक्ष बना दिया।
पूर्वोत्तर में सघन प्रवास से उनकी ख्याति भारत के साथ ही विदेशों तक जा पहुंची। 1981 में हालैंड तथा बेल्जियम में आयोजित विश्व धर्म सभाओं में श्री मावरी ने खासी धर्म की महत्ता पर प्रभावी व्याख्यान दिये। मेघालय में हिन्दू धर्म तथा स्थानीय जनजातियों की भाषा, बोली, रीति-रिवाज तथा परम्पराओं की रक्षार्थ काम करने वाली विश्व हिन्दू परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम आदि संस्थाओं के विचारों से प्रभावित होकर उनकी यह धारणा दृढ़ हुई है कि सेंगखासी आंदोलन विराट हिन्दू धर्म के पुनर्जागरण का ही एक प्रयास है।
अब श्री मावरी पूरे देश के वनवासियों के बीच जाकर उन्हें इन षड्यन्त्रों से सावधान करते हैं। यद्यपि मिशनरियों को देश तथा विदेश से भारी सहायता मिलती है, उनके संसाधनों का मुकाबला करना कठिन है। फिर भी श्री मावरी को विश्वास है कि अंतिम विजय सत्य की ही होगी।
(संदर्भ : श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय, कोलकाता)
....................................
12 अप्रैल/पुण्य-तिथि
भोजनालय के साधक मंगल प्रसाद जी
संघ के प्रचारक प्रायः स्वयंसेवक परिवारों में ही भोजन करते हैं; पर अब सभी बड़े कार्यालयों पर कई वृद्ध प्रचारक रहते हैं तथा प्रतिदिन बाहर से भी कार्यकर्ता आते रहते हैं। अतः स्थायी भोजनालय की व्यवस्था आवश्यक हो गयी है। इनका संचालन प्रायः वेतनभोगी लोग ही करते हैं; पर सब कार्यकर्ताओं के बीच वे परिवार के सदस्य की ही तरह रहते हैं।
नागपुर के केन्द्रीय कार्यालय पर भी 1952-53 तक यही स्थिति थी। श्री गुरुजी नागोबा गली में अपने माता-पिता के पास, जबकि शेष लोग एक छात्रावास में भोजन करते थे। ऐसे में कार्यालय प्रमुख श्री पांडुरंग पंत क्षीरसागर ने भोजनालय चलाने के लिए एक युवक मंगलप्रसाद को खोज निकाला। श्री गुरुजी की सहमति से समुचित मानदेय पर वे कार्यालय में आ गये।
मंगलप्रसाद जी म.प्र. में रीवा जिले में बंधुआ गांव के निवासी थे। उन दिनों नागपुर के होटल तथा छात्रावासों में रीवा के कई लोग काम करते थे। ऐसे लोग प्रायः मंगलप्रसाद जी से मिलने कार्यालय आते थे। विशाल हृदय वाले मंगलप्रसाद जी दुख-सुख में उनकी भली प्रकार चिन्ता करते थे। इस प्रकार धीरे-धीरे वे विशाल संघ परिवार के अभिन्न अंग बन गये।
कार्यालय के साथ ही संघ की विभिन्न बैठकों तथा शिविरों की व्यवस्था भी उनके जिम्मे ही रहती थी। संघ के किस वरिष्ठ कार्यकर्ता को कैसा भोजन चाहिए; किसे मधुमेह, रक्तचाप या हृदय रोग है और कौन मिर्च नहीं खाता, यह सब उन्हें याद रहता था। अतः वे उसी अनुसार व्यवस्था कर देते थे।
उन दिनों सभी केन्द्रीय बैठकें कार्यालय पर ही होती थीं। एक बार नागपुर के एक बाल शिविर में भीषण आंधी और वर्षा से तम्बू उखड़ गये, चारों ओर कीचड़ हो गया। ऐसे में भी उन्होंने समय से भोजन तैयार कर दिया।
मंगलप्रसाद जी कभी शाखा पर नहीं गये; पर एक निष्ठावान स्वयंसेवक जैसे सब गुण उनमें विद्यमान थे। भोजनालय ही उनकी साधनास्थली थी। 1975 के आपातकाल में अनेक प्रमुख कार्यकर्ता पकड़े गये, जबकि बाकी भूमिगत हो गये। संघ कार्यालय को भी पुलिस ने सील कर दिया। यद्यपि इससे पूर्व ही कार्यालय के महत्वपूर्ण कागज तथा सामान वहां से हटा दिया गया था।
भालचंद्र गोखले नामक कार्यकर्ता कार्यालय के पास वाले भूखंड पर रहने लगे। मंगलप्रसाद जी भी एक अन्य घर में काम करने लगे; पर वे प्रतिदिन दोपहर में वहां आते थे। इस प्रकार इन दोनों ने भूमिगत कार्यकर्ताओं के बीच सेतु बनकर संदेशों के आदान-प्रदान का क्रम बनाये रखा।
आपातकाल के बाद जब रेशीम बाग का आवासीय परिसर बन गया, तो ‘अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा’ तथा ‘केन्द्रीय कार्यकारी मंडल’ की बैठकें वहीं होने लगीं। वहां भोजनालय की व्यवस्था के लिए अलग टोली लगती थी, फिर भी सरकार्यवाह श्री शेषाद्रि जी उन्हें वहां अवश्य भेजते थे। उनके निर्देशन में ही सब काम होता था। इस प्रकार वे भोजनालय की पहचान बन गये।
अपने मधुर स्वभाव के कारण वे वयोवृद्ध से लेकर बाल और किशोर तक, सभी स्वयंसेवकों के प्रिय थे। उनकी कार्यनिष्ठा को देखकर नागपुर की एक सेवाभावी संस्था ने उन्हें ‘जीवननिष्ठा पुरस्कार’ से सम्मानित किया।
अधिक अवस्था होने पर वे अपने गांव चले गये। वे हृदयरोगी थे ही। संघ के कार्यकर्ताओं की देखरेख में प्रयाग में उनका इलाज चलता रहा। 12 अप्रैल, 2008 को अपने गांव बंधुआ में अपने परिजनों के बीच उनका देहांत हुआ। उनके अंतिम संस्कार में अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख श्री लक्ष्मण राव पार्डीकर ने उपस्थित होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी।
(संदर्भ : पांचजन्य)
..........................................
12 अप्रैल/जन्म-दिवस
कुशल संगठक सुन्दर सिंह भण्डारी
श्री सुन्दर सिंह भंडारी का जन्म 12 अप्रैल, 1921 को उदयपुर (राजस्थान) में प्रसिद्ध चिकित्सक डा. सुजानसिंह के घर में हुआ था। 1937-38 में कानपुर में बी.ए. करते समय वे अपने सहपाठी दीनदयाल उपाध्याय के साथ नवाबगंज शाखा पर जाने लगे। भाऊराव देवरस से भी इनकी घनिष्ठता थी।
1940 में नागपुर से प्रथम वर्ष का संघ शिक्षा वर्ग करते समय इन्हें डा0 हेडगेवार के दर्शन का सौभाग्य मिला। 1946 में तृतीय वर्ष कर भंडारी जी प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम इन्हें जोधपुर विभाग का काम दिया गया। 1948 के प्रतिबंध काल में भूमिगत रहकर इन्होंने सत्याग्रह का संचालन किया।
1951 में डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने ‘भारतीय जनसंघ’ की स्थापना कर श्री गुरुजी से कुछ कार्यकर्ताओं की मांग की। उनके आग्रह पर दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख के साथ भंडारी जी को भी इसमें भेज दिया गया।
प्रारम्भ में वे राजस्थान में ही जनसंघ के संगठन मन्त्री रहे। उनके प्रयास से 1952 के चुनाव में राजस्थान से जनसंघ के आठ विधायक जीते। बहुत शीघ्र ही जनसंघ का काम गांव-गांव में फैल गया। वे अति साहसी एवं स्थिरमति के व्यक्ति थे। कश्मीर सत्याग्रह के दौरान 23 जून, 1953 को डा0 मुखर्जी की जेल में ही षड्यन्त्रपूर्वक हत्या कर दी गयी; पर भंडारी जी ने उसी दिन स्वयं को एक सत्याग्रही जत्थे के साथ गिरफ्तारी के लिए प्रस्तुत कर दिया।
1954 में जनसंघ के केन्द्रीय मंत्री के नाते उन्होंने राजस्थान, गुजरात, हिमाचल तथा उ.प्र. में सघन कार्य किया। 1967 में दीनदयाल जी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर वे महामंत्री बनाये गये। 1968 में दीनदयाल जी की हत्या के बाद उन्हें जनसंघ का राष्ट्रीय संगठन मन्त्री बनाया गया।
वे संगठन के अनुशासन तथा रीति-नीति का कठोरता से पालन करते थे। निर्णय से पूर्व वे विचार-विमर्श का खुले मन से स्वागत करते थे; पर बाद में बोलने को अक्षम्य मानते थे। कई वर्ष संगठन मन्त्री रहने के बाद वे दल के उपाध्यक्ष बने। आपातकाल के विरुद्ध हुए संघर्ष में वे भूमिगत रहकर काम करते रहे; पर कुछ समय बाद वे पकड़े गये। जेल में उन्होंने अपनी सादगी और वैचारिक स्पष्टता से विरोधियों का मन भी जीत लिया। जेल से ही वे राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए।
1977 में जनता पार्टी में जनसंघ का विलय हुआ; पर यह मित्रता स्थायी नहीं रही। भंडारी जी को इसका अनुमान था। अतः उन्होंने पहले ही ‘युवा मोर्चा’ तथा ‘जनता विद्यार्थी मोर्चा’ का गठन कर लिया था। 1980 में ‘भारतीय जनता पार्टी’ का गठन होने पर नये दल का संविधान उन्हीं की देखरेख में बना।
दो बार उन्हें राजस्थान से राज्यसभा में भेजा गया। तीसरी बार उन्होंने यह कहकर मनाकर दिया कि अब किसी अन्य कार्यकर्ता को अवसर मिलना चाहिए; पर मा0 रज्जू भैया एवं शेषाद्रि जी के आग्रह पर वे उत्तर प्रदेश से राज्यसभा में जाने को तैयार हुए। केन्द्र में अटल जी के नेतृत्व में बनी सरकार में वे बिहार और गुजरात के राज्यपाल तथा ‘मानवाधिकार आयोग’ के अध्यक्ष रहे।
भंडारी जी ने आजीवन प्रचारक की मर्यादा को निभाया। वैचारिक संभ्रम की स्थिति में उनका परामर्श सदा काम आता था। वे बहुत कम बोलते थे; पर उनकी बात गोली की तरह अचूक होती थी। अटल जी तथा आडवाणी जी उनसे छोटे थे। अतः आवश्यकता होने पर वे उन्हें भी खरी-खरी सुना देते थे।
संघ, जनसंघ और भा.ज.पा. को अपने संगठन कौशल से सींचने वाले श्री सुंदर सिंह भंडारी का 84 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 22 जून, 2005 को अति प्रातः नींद में हुए तीव्र हृदयाघात से देहान्त हो गया।
(संदर्भ : अभिलेखागार, भारती भवन, जयपुर/पांचजन्य/आर्गनाइजर)
...................................
13 अप्रैल/जन्म-दिवस
कृषि वैज्ञानिक सर गंगाराम
श्री गंगाराम का जन्म 13 अप्रैल, 1851 को मंगटानवाला (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। वे बचपन से ही होनहार विद्यार्थी थे। अपनी सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर वे पंजाब के सार्वजनिक निर्माण विभाग (पी.डब्ल्यू.डी.) में अभियन्ता के रूप में काम करने लगे।
इस दौरान पूर्ण निष्ठा एवं परिश्रम से काम करते हुए उन्होंने शासन-प्रशासन के कार्यों में अच्छी दक्षता प्राप्त की। नगर और ग्रामीण क्षेत्र में लागू की गयी उनकी योजनाएं पूरे देश में आदर्श मानी जाती थीं। उनकी देखरेख और नेतृत्व में निर्मित रेनाला जल विद्युतगृह आज भी पाकिस्तान की सेवा कर रहा है।
एक अभियन्ता होते हुए भी उनका सर्वाधिक योगदान कृषि क्षेत्र के लिए है। उनकी मान्यता थी कि भारत मूलतः कृषि प्रधान देश है, अतः खेती की उन्नति से ही भारत उन्नति कर सकता है। उन्होंने अपनी योजना एवं प्रयोगों को अविभाजित पंजाब में लागू किया। जिस प्रयोग के लिए शासन-प्रशासन ने उन्हें अनुमति नहीं दी, उसमें उन्होंने व्यक्तिगत रूप से रुचि ली और उसे सफल करके दिखाया। इससे शासन भी उनकी बातें मानने को विवश हुआ।
पंजाब के सूखे क्षेत्रों में श्री गंगाराम ने नहरों का जाल बिछाकर सिंचाई का समुचित प्रबन्ध किया। उन्होंने शासन से मिंटगुमरी जिले में 50,000 एकड़ (200 वर्ग कि.मी.) बंजर एवं असिंचित भूमि पट्टे पर लेकर उसमें अथक परिश्रम किया।
खेती एवं सिंचाई की आधुनिक विधियों के प्रयोग से वहां तीन वर्ष में फसल लहलहाने लगी। आज देश में सर्वाधिक औसत आय पंजाब की ही है। इसका श्रेय बहुत मात्रा में श्री गंगाराम जी को ही है। उनकी उपलब्धियों को देखते हुए अंग्रेज शासन ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से सम्मानित किया।
आर्थिक क्षेत्र में सफल होने के बाद सर गंगाराम ने सामाजिक क्षेत्रों में सुधार के प्रयास किये। उन्होंने भारत और विशेषकर पंजाब में फैली हर कुरीति एवं सामाजिक रूढ़ी का प्रखर विरोध किया। कोढ़ की तरह समाज को खा रही दहेज प्रथा और बाल-विवाह के विरुद्ध उन्होंने आवाज उठाई। वह विधवा विवाह के प्रबल समर्थक थे। साक्षरता के लिए भी उनके प्रयास सराहनीय हैं।
श्री गंगाराम किसी एक क्षेत्र, धर्म या जाति की बजाय संपूर्ण मानवता के प्रेमी थे। खेती से प्राप्त प्रचुर धन उन्होंने समाजहित में खर्च किया। वे अपने वेतन का अधिकांश भाग धर्मार्थ और सामाजिक संस्थाओं को दे देते थे। इसीलिए जनता उन्हें ‘दानवीर’ कहती थी।
लाहौर का गंगाराम अस्पताल जनता की सेवा में अग्रणी है। उन्होंने लाहौर में माॅडल टाउन का विकास किया, जहां रहने में लोग गर्व का अनुभव करते हैं। पठानकोट और अमृतसर के बीच रेल लाइन, लाहौर का मुख्य डाकघर, संग्रहालय तथा कई अन्य महत्वपूर्ण भवनों का निर्माण उन्होंने ही किया। लाहौर के माल रोड पर उनकी मूर्ति स्थापित की गयी थी।
उन्होंने सेवा कार्यों के लिए ‘गंगाराम न्यास’ स्थापित कर इसके माध्यम से छात्र एवं छात्राओं के लिए अनेक विद्यालय तथा अनाथ बच्चों के लिए आवास बनवाये। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सर मेल्कम हेली ने कहा था कि उन्होंने एक नायक की तरह धन कमाया और संत की तरह उसे दान कर किया। 1947 में देश विभाजन के बाद उनके परिजनों ने दिल्ली में उनकी स्मृति में गंगाराम न्यास बनाया, जो सर गंगाराम अस्पताल का संचालन करता है।
इस महान विद्वान वैज्ञानिक एवं समाजसेवी का लन्दन में 10 जुलाई, 1927 को देहान्त हुआ। अंतिम संस्कार के बाद उनके भस्मावशेष गंगा और उनकी कर्मभूमि लाहौर के पास रावी नदी में विसर्जित कर दिये गये।
.................................
13 अप्रैल/इतिहास-स्मृति
अनुपम क्रान्तितीर्थ जलियांवाला बाग
भारतीय स्वतन्त्रता के लिए हुए संघर्ष के गौरवशाली इतिहास में अमृतसर के जलियाँवाला बाग का अप्रतिम स्थान है। इस आधुनिक तीर्थ पर हर देशवासी का मस्तक उन वीरों की याद में स्वयं ही झुक जाता है, जिन्होंने अपने रक्त से भारत की स्वतन्त्रता के पेड़ को सींचा।
13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी का पर्व था। यों तो इसे पूरे देश में ही मनाया जाता है; पर खालसा पन्थ की स्थापना का दिन होने के कारण पंजाब में इसका उत्साह देखते ही बनता है। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं, लोग पवित्र नदियों में स्नान कर पूजा करते हैं; पर 1919 में इस पर्व पर वातावरण दूसरा ही था। इससे पूर्व अंग्रेज सरकार ने भारतीयों के दमन के लिए ‘रौलट एक्ट’ का उपहार दिया था। इसी के विरोध में एक विशाल सभा अमृतसर के जलियाँवाला बाग में आयोजित की गयी थी।
यह बाग तीन ओर से दीवार से घिरा था और केवल एक ओर से ही आने-जाने का बहुत छोटा सा मार्ग था। सभा की सूचना मिलते ही जनरल डायर अपने 90 सशस्त्र सैनिकों के साथ वहाँ आया और उसने उस एकमात्र मार्ग को घेर लिया। इसके बाद उसने बिना चेतावनी दिये निहत्थे स्त्री, पुरुष, बच्चों और वृद्धों पर गोली चला दी। यह गोलीवर्षा 10 मिनट तक होती रही।
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार इसमें 379 लोग मरे तथा 1,208 घायल हुए; पर सही संख्या 1,200 और 3,600 है। सैकड़ों लोग भगदड़ में दब कर कुचले गये और बड़ी संख्या में लोग बाग में स्थित कुएँ में गिर कर मारे गये।
इस नरसंहार के विरोध में पूरे देश का वातावरण गरम हो गया। इसके विरोध में पूरे देश में धरने और प्रदर्शन हुए। सरकारी जाँच समिति ‘हंटर कमेटी’ के सामने इस कांड के खलनायक जनरल डायर ने स्वयं स्वीकार किया कि ऐसी दुर्घटना इतिहास में दुर्लभ है। जब उससे पूछा गया कि उसने ऐसा क्यों किया ? तो उसने कहा कि उसे शक्ति प्रदर्शन का यह समय उचित लगा।
उसने यह भी कहा कि यदि उसके पास गोलियाँ समाप्त न हो गयी होतीं, तो वह कुछ देर और गोली चलाता। वह चाहता था कि इतनी मजबूती से गोली चलाए, जिससे भारतीयों को फिर शासन का विरोध करने की हिम्मत न हो। उसने इसके लिए डिप्टी कमिश्नर की आज्ञा भी नहीं ली।
जब उससे पूछा गया कि उसने गोलीवर्षा के बाद घायलों को अस्पताल क्यों नहीं पहुँचाया, तो उसने लापरवाही से कहा कि यह उसका काम नहीं था। विश्वकवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने इस नरसंहार के विरोध में अंग्रेजों द्वारा प्रदत्त ‘सर’ की उपाधि लौटा दी।
भारी विरोध से घबराकर शासन ने 23 मार्च, 1920 को जनरल डायर को बर्खास्त कर इंग्लैंड भेज दिया, जहां अनेक शारीरिक व मानसिक व्याधियों से पीडि़त होकर 23 जुलाई, 1927 को उसने आत्महत्या कर ली।
इस कांड के समय पंजाब में माइकेल ओडवायर गवर्नर था। जनरल डायर के सिर पर उसका वरदहस्त रहता था। 28 मई, 1919 को गवर्नर पद से मुक्त होकर वह भी इंग्लैंड चला गया। वहाँ उसके प्रशंसकों ने उसे सम्मानित कर एक अच्छी धनराशि भेंट की। उसने भारत के विरोध में एक पुस्तक भी लिखी।
पर भारत माँ वीर प्रसूता है। क्रान्तिवीर ऊधमसिंह ने लन्दन के कैक्सटन हाॅल में 13 मार्च, 1940 को माइकेल ओडवायर के सीने में गोलियां उतार कर इस राष्ट्रीय अपमान का बदला लिया। इस बाग में दीवारों पर लगे गोलियों के निशान आज भी उस क्रूर जनरल डायर की याद दिलाते हैं, जबकि वहाँ स्थित अमर शहीद ज्योति हमें देश के लिए मर मिटने को प्रेरित करती है।
............................
14 अप्रैल/जन्म-दिवस
संविधान के निर्माता डा. अम्बेडकर
भारतीय संविधान के निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अपै्रल, 1891 को महू, मध्य प्रदेश में हुआ था। उनके पिता श्री रामजी सकपाल तथा माता भीमाबाई धर्मप्रेमी दम्पति थे। उनका जन्म महार जाति में हुआ था, जो उस समय अस्पृश्य मानी जाती थी। इस कारण भीमराव को कदम-कदम पर असमानता और अपमान सहना पड़ा। इससे उनके मन का संकल्प क्रमशः दृढ़ होता गया कि उन्हें इस बीमारी को भारत से दूर करना है।
विद्यालय मे उन्हें सबसे अलग बैठना पड़ता था। प्यास लगने पर अलग रखे घड़े से पानी पीना पड़ता था। एक बार वे बैलगाड़ी में बैठ गये, तो उन्हें धक्का देकर उतार दिया गया। वह संस्कृत पढ़ना चाहते थे, पर कोई पढ़ाने को तैयार नहीं हुआ। एक बार वर्षा में वह एक घर की दीवार से लगकर बौछार से स्वयं को बचाने लगे, तो मकान मालकिन ने उन्हें कीचड़ में धकेल दिया।
इतने भेदभाव सहकर भी भीमराव ने उच्च शिक्षा प्राप्त की। गरीबी के कारण उनकी अधिकांश पढ़ाई मिट्टी के तेल की ढिबरी के प्रकाश में हुई। यद्यपि सतारा के उनके अध्यापक श्री अम्बा वाडेकर, श्री पेंडसे तथा मुम्बई के कृष्णाजी केलुस्कर ने उन्हें भरपूर सहयोग भी दिया। जब वे महाराजा बड़ोदरा के सैनिक सचिव के नाते काम करते थे, तो चपरासी उन्हें फाइलें फंेक कर देता था।
यह देखकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी तथा मुम्बई में प्राध्यापक हो गये। 1923 में वे लन्दन से बैरिस्टर की उपाधि लेकर भारत वापस आये और वकालत करने लगे। इसी साल वे मुम्बई विधानसभा के लिए भी निर्वाचित हुए; पर छुआछूत की बीमारी ने यहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा।
1924 में भीमराव ने निर्धन और निर्बलों के उत्थान हेतु ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ बनायी और संघर्ष का रास्ता अपनाया। 1926 में महाड़ के चावदार तालाब से यह संघर्ष प्रारम्भ हुआ। जिस तालाब से पशु भी पानी पी सकते थे, उससे पानी लेने की अछूत वर्गाें को मनाही थी। डा. अम्बेडकर ने इसके लिए संघर्ष किया और उन्हें सफलता मिली। उन्होंने अनेक पुस्तकंे लिखीं तथा ‘मूकनायक’ नामक पाक्षिक पत्र भी निकाला।
इसी प्रकार 1930 में नासिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश को लेकर उन्होंने सत्याग्रह एवं संघर्ष किया। उन्होंने पूछा कि यदि भगवान सबके हैं, तो उनके मन्दिर में कुछ लोगों को प्रवेश क्यों नहीं दिया जाता ? अछूत वर्गों के
अधिकारों के लिए उन्होंने कई बार कांग्रेस तथा ब्रिटिश शासन से संघर्ष किया। भारत के स्वतन्त्र होने पर उन्हें केन्द्रीय मन्त्रिमंडल में विधि-मन्त्री की जिम्मेदारी दी गयी। भारत का नया संविधान बनाने के लिए गठित समिति के वे अध्यक्ष थे। इस नाते उन्हें आधुनिक मनु कहना उचित ही है।
संविधान में छुआछूत को दंडनीय अपराध बनाने के बाद भी वह समाज में बहुत गहराई से जमी थी। इससे वे बहुत दुखी रहते थे। अन्ततः उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़ने का निश्चय किया। यह जानकारी होते ही ईसाई और मुसलमान
नेता उनके पास तरह-तरह के प्रलोभन लेकर पहुँच गये; पर डा. अम्बेडकर ने इनमें जाना उचित नहीं समझा। विजयादशमी (14 अक्तूबर, 1956) को नागपुर में अपनी पत्नी तथा हजारों अनुयायियों के साथ उन्होंने भारत में जन्मे बौद्ध मत को अंगीकार किया। यह भारत तथा हिन्दू समाज पर उनका बहुत बड़ा उपकार है।
छह दिसम्बर, 1956 को इस महान देशभक्त का देहान्त हुआ।
14 अप्रैल/इतिहास-स्मृति
मोइरांग, जहां नेताजी ने तिरंगा फहराया
सुन्दर पर्वतमालाओं से घिरे मणिपुर की राजधानी इम्फाल से 45 कि.मी दक्षिण में लोकताक झील के किनारे मोइरांग नामक छोटा सा नगर बसा है। भारतीय स्वाधीनता समर में इसका विशेष महत्व है। यहीं पर 14 अप्रैल, 1944 को आजाद हिन्द फौज के संस्थापक नेता जी सुभाषचन्द्र बोस ने सर्वप्रथम तिरंगा झण्डा फहराया था। उन्होंने मोइरांग पर कब्जा कर यहाँ के डाक बंगले को आजाद हिन्द फौज का मुख्यालय बना लिया था।
इस घटना की स्मृति में मोइरांग में ‘आई.एन.ए. युद्ध संग्रहालय’ बनाया गया है। इसमें प्रवेश करते ही बायीं ओर सैन्य वेश में नेता जी भव्य मूर्ति स्थापित है। इसे देखकर लगता है कि वे स्वाधीनता संघर्ष के मुख्य सेनापति थे। यह बात दूसरी है कि गांधी जी व प्रधानमन्त्री नेहरु से वैचारिक मतभेद होने के कारण भारतीय इतिहास में उन्हें समुचित स्थान नहीं मिल सका।
संग्रहालय में दायीं ओर संगमरमर पत्थर से निर्मित एक चबूतरा है। उस पर अंग्रेजी में लिखा है - वह स्थल, जहाँ सुभाषचन्द्र बोस ने सर्वप्रथम तिरंगा फहराया था। उससे कुछ दूरी पर संगमरमर से ही बना एक स्मृति स्तम्भ और है, जिस पर आजाद हिन्द फौज के तीन आदर्श - अवसर, विश्वास और बलिदान उत्कीर्ण हैं। यह उस स्तम्भ की प्रतिकृति है, जिसे नेताजी ने 8 जुलाई, 1945 को आजाद हिन्द सरकार की स्मृति में सिंगापुर में बनाया था।
सिंगापुर जब फिर से अंग्रेजों के कब्जे में आया, तो उन्होंने उस स्मारक को तोड़ दिया; पर नेताजी के वीर सैनिकों के मन में बसे स्मारक को वे नहीं तोड़ सके। अतः सैनिकों ने वैसा ही स्मारक मोइरांग में फिर से बना लिया। उस पर लिखा है - आजाद हिन्द फौज के बलिदानियों की स्मृति में इस स्मारक की नींव नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने 8 जुलाई, 1945 को रखी।
इसका उद्घाटन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 23 सितम्बर, 1969 को किया था। बंगाल शासन द्वारा प्रदत्त नेताजी की प्रतिमा का विधिवत अनावरण 21 अक्तूबर, 1970 को किया गया था।
संग्रहालय की अलमारियों में नेताजी द्वारा मोइरांग के लिए लड़े गये निर्णायक युद्ध के अनेक दुर्लभ चित्र लगाये गये हैं। समय-समय पर उनके द्वारा कहे गये प्रेरक वाक्य तथा आजादी का घोषणा पत्र भी वहाँ सुसज्जित है। यहाँ आजाद हिन्द फौज के अन्तर्गत काम करने वाली ‘रानी झाँसी रेजिमेण्ट’ के भी अनेक चित्र हैं।
कुछ चित्रों में नेताजी सलामी ले रहे हैं, तो कहीं वे टैंक ब्रिगेड का निरीक्षण कर रहे हैं। आग उगलते युद्धक्षेत्र के अग्रिम मोर्चे पर उन्हें सैनिकों का उत्साह बढ़ाते देखकर रक्त का संचार तेज हो जाता है। एक चित्र में वे स्वयं कार्बाइन हाथ में लिये युद्ध की मुद्रा में खड़े हैं।
इन चित्रों और युद्ध के नक्शों को देखकर स्पष्ट होता है कि स्वाधीनता संग्राम में जहाँ तथाकथित बड़े कांग्रेसी नेता सुविधा सम्पन्न बंगलों में नजरबन्दी का सुख भोग रहे थे, वहाँ नेताजी जंगलों और पहाड़ों में ठोकरें खाकर लोगों को संगठित कर रहे थे। वे जनता को खून के बदले आजादी देने का आश्वासन भी दे रहे थे।
मोइरांग से 30 कि.मी. की दूरी पर ‘खूनी पर्वत’ है। यहाँ द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान और ब्रिटिश सेनाओं में घमासान हुआ था, जिसमें बड़ी संख्या में दोनों ओर के सैनिक मारे गये थे। मोइरांग हमारी स्वाधीनता के सशस्त्र संग्राम का एक तीर्थस्थल है, जिसकी ओर न जाने क्यों शासन का ध्यान कम ही है।
....................................
14 अप्रैल/जन्म-दिवस
सरोद के साधक अली अकबर खान
भारतीय संगीत को विश्व में ख्याति दिलाने का जिन संगीतकारों को श्रेय है, उनमें सरोद के साधक अली अकबर खान का नाम विशेष है। उनका जन्म 14 अप्रैल, 1922 को शिवपुर (कोमिल्ला, त्रिपुरा) में हुआ था। इनके पिता प्रख्यात संगीतकार उस्ताद अलाउद्दीन खां थे।
मूलतः यह परिवार हिन्दू था; पर किसी समय उस्ताद सूफी मोहम्मद गौस ने इनके एक पूर्वज सदानंद देवशर्मा को संगीत सिखाना प्रारम्भ करते समय अपना झूठा पान खिलाकर उनका नाम अताह अली खान रख दिया। हिन्दू परम्पराओं और नामों के बाद भी तब से यह परिवार मुसलमान माना जाने लगा। अली अकबर के संगीतकार बेटे आशीष ने फिर से हिन्दू धर्म अपनाकर नाम आशीष देवशर्मा रखा है।
अली अकबर के पिता उस्ताद अलाउद्दीन खान (प्रसन्न बाबा) ने मेहर घराने की नींव रखी, जहां सरस्वती व काली की पूजा होती है। अली अकबर अपने पिता के ही शिष्य थे। उनका मानना था कि दस साल के रियाज (अभ्यास) से खुद को, बीस साल के रियाज से श्रोताओं को और तीस साल के रियाज से अपने गुरु को प्रसन्न कर सकते हैं। इस नाते अली अकबर ने सरोद में वैश्विक ख्याति पा लेने पर भी रियाज करना नहीं छोड़ा। वे दो घंटे से लेकर 18 घंटे तक प्रतिदिन रियाज करते थे।
संगीत सीखने का प्रारम्भ उन्होंने खेलने की अवस्था में ही तबले से किया; पर फिर सरोद की ओर मुड़ गये। बाबा ने उन्हें 200 बंदिशों का घोटा लगवाया। इसी के साथ धु्रपद, धमार, खयाल, तराना, टप्पा आदि को गहराई से सिखाया गया।
संगीत को जीवनयापन का साधन बनाने पर वे आर्थिक रूप से परेशान रहे। उन्होंने 1956 में कोलकाता संगीत महाविद्यालय शुरू किया; पर फिर वे अमरीका में बस गये। वहां भी लम्बे संघर्ष के बाद सान राफेल नगर में संगीत की एक संस्था खोली। इन दिनों वहां 5,000 छात्र भारतीय संगीत सीखते हैं। इसकी शाखा कैलिफोर्निया और स्विटजरलैंड में भी है।
उनके जीवन में कई उतार-चढ़ाव आये। एक समय उन्होंने जोधपुर के महाराजा हिम्मत सिंह के दरबार में नौकरी की। महाराज की इच्छा वहां एक संगीत विद्यालय चलाने की थी; पर उनकी अचानक मृत्यु से यह योजना पूरी न हो सकी।
अली अकबर रहते भले ही अमरीका में थे; पर मन से वे भारतीय थे। जब भी उन्हें भारत आने का न्यौता मिलता, वे प्रयासपूर्वक यहां आकर कुछ दिन अपनी साधना स्थली मैहर में अवश्य बिताते। 13 साल की अवस्था में उन्होंने अपना पहला कार्यक्रम प्रयाग में प्रस्तुत किया था। 1953 में उन्होंने फिल्म ‘आंधियां’ के लिए संगीत भी दिया था।
उस्ताद अली अकबर खान ने संगीत में अनेक नये प्रयोग किये। प्रख्यात वायलिनवादक यहूदी मेनुइन ने उन्हें भारतीय संगीत का बेताज बादशाह कहा था। उन्होंने 1955 में अली अकबर का पहला कार्यक्रम न्यू याॅर्क के आधुनिक कला संग्रहालय में आयोजित किया था। अमरीका के मैकआर्थर फाउंडेशन की ओर से सम्मानित होने वाले वे पहले भारतीय संगीतकार थे।
1997 में उन्हें पारम्परिक कला की सेवा एवं विकास के लिए अमरीका का सर्वोच्च सम्मान ‘नैशनल हैरिटेज फैलोशिप’ दिया गया। पांच बार उनका नामांकन गे्रमी अवार्ड के लिए भी हुआ; पर वे अपने पिता और गुरु उस्ताद अलाउद्दीन खान द्वारा दी गयी ‘स्वर सम्राट’ की उपाधि को सर्वश्रेष्ठ मानते थे।
‘पद्म विभूषण’ और ‘पद्म भूषण’ से सम्मानित अली अकबर का 19 जून, 2009 को सैन फ्रांसिस्को में यकृत की बीमारी से निधन हुआ।
(संदर्भ : रा.सहारा 21.6.09/जनसत्ता 22.6.09/अन्य)..................................
14 अप्रैल/जन्म-दिवस
विचार, वाणी और कलम के धनी रामशंकर अग्निहोत्री
श्री रामशंकर अग्निहोत्री का जन्म मध्य प्रदेश के सिवनी-मालवा क्षेत्र के होशंगाबाद जिले में 14 अपै्रल, 1926 को हुआ था। बचपन से ही शाखा और लेखन के प्रति रुझान के कारण वे प्रचारक तथा पत्रकार बने।
कांग्रेस द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण तथा विभाजन की बन रही परिस्थिति के बीच शिक्षा अधूरी छोड़कर 1944 में वे प्रचारक बन गये। प्रारम्भ में उन्हें मंडला जिला प्रचारक बनाया गया। 1949 में वे अ0भा0विद्यार्थी परिषद की महाकौशल इकाई के संगठन मंत्री तथा 1951 में विंध्य प्रदेश जनसंघ के संगठन मंत्री रहे।
इसी बीच उन्होंने सागर वि.वि. से स्नातक एवं नागपुर वि.वि. से पत्रकारिता में डिप्लोमा प्राप्त कर लिया। 1956 से 1964 तक वे महाकौशल प्रांत प्रचारक रहे। इस दौरान उन्होंने बड़ी संख्या में मेधावी युवकों को संघ कार्य में जोड़ा। इनमें से एक श्री सुदर्शन जी आगे चलकर सरसंघचालक बने।
1964 में उन्हें लखनऊ भेजा गया। वहां उन्होंने ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका को पुनर्जीवित किया और 1968 तक उसके सम्पादक रहे। इसके बाद उन्होंने पांचजन्य, युगवार्ता, दैनिक युगधर्म, हिन्दुस्थान समाचार, सांध्य दैनिक आकाशवाणी आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया।
इस बीच वे ‘कश्मीर सत्याग्रह’ में भी सक्रिय रहे। आपातकाल में बनी एकीकृत समाचार संस्था के भी वे उप सम्पादक थे। 1971 में भारत-पाक युद्ध के समय वे पश्चिमी क्षेत्र के युद्ध संवाददाता रहे। 1981 से 83 तक वे नेपाल में भी विशेष संवाददाता रहे। इस प्रकार पत्रकारिता के हर क्षेत्र में उन्होंने विशेषज्ञता सिद्ध की।
1990 में जब ‘श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन’ ने जोर पकड़ा, तो उन्हें इसके समाचार दुनिया भर में तेजी से प्रसारित करने की जिम्मेदारी दी गयी। प्रारम्भ में वे दिल्ली में ‘श्रीराम कारसेवा समिति, सूचना केन्द्र’ के निदेशक रहे। इसके बाद वे अयोध्या के ‘श्रीराम जन्मभूमि मीडिया केन्द्र’ के निदेशक तथा फिर लखनऊ में ‘मीडिया फोरम फीचर्स’ के सम्पादक रहे। इन सब स्थानों पर उन्होंने पत्रकार जगत को सही एवं अद्यतन सूचनाएं देने का व्यापक तंत्र खड़ा किया।
रामशंकर जी की संघ, जनसंघ और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से अच्छी मित्रता थी। अतः जहां उनकी आवश्यकता होती, उन्हें बुला लिया जाता था। 1999 से 2002 तक वे दिल्ली में भाजपा के केन्द्रीय मीडिया प्रकोष्ठ से सम्बद्ध रहे। फिर उन्होंने ‘मीडिया वाॅच’ का सम्पादन और प्रकाशन भी किया।
पत्रकार के नाते उन्होंने तंजानिया, कोरिया, युगांडा, इथोपिया, नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तान और इंग्लैंड की यात्राएं कीं। रामशंकर जी को उनकी उपलब्धियों के लिए कई मान-सम्मान दिये गये। इनमें डा. नगेन्द्र पुरस्कार, स्व. बापूराव लेले स्मृति सम्मान, लाला बल्देव सिंह सम्मान तथा म.प्र. शासन द्वारा माणिकचंद वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार प्रमुख हैं।
रामशंकर जी प्रवास और भागदौड़ के बीच भी लिखने का समय निकाल लेते थे। उनके काव्य संग्रह ‘सत्यम् एकमेव’ के साथ ही कश्मीर के मोर्चे पर, राष्ट्र जीवन की दिशा, बाजीप्रभु देशपांडे, सुरक्षा के मोर्चे पर, अविस्मरणीय बाबासाहब आप्टे, कम्युनिस्ट विश्वासघात की कहानी, डा0 हेडगेवार: एक चमत्कार और नया मसीहा जैसी पुस्तकें भी बहुत लोकप्रिय हुईं।
विचार, वाणी और लेखनी के धनी श्री रामशंकर जी एक ध्येयनिष्ठ स्वयंसेवक थे। 1947 के बाद कांग्रेस और वामपंथ की चाटुकार पत्रकारिता के दौर में भी उन्होंने आचरण की शुद्धता और राष्ट्रवादी तेवर बनाये रखे। सात जुलाई, 2010 को छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में हृदयगति रुकने से उनका देहांत हुआ। 85 वर्ष की इस आयु में भी वे कुशाभाऊ ठाकरे वि.वि. के ‘मानव अध्ययन शोधपीठ’ के निदेशक और अध्यक्ष की जिम्मेदारी निभा रहे थे।
(संदर्भ : पांचजन्य एवं आर्गनाइजर, 18.7.10)
.................................
15 अप्रैल/पुण्य-तिथि
जयप्रकाश नारायण की धर्मपत्नी प्रभावती जी
जयप्रकाश नारायण के नाम से तो प्रायः सभी परिचित हैं, क्योंकि 1975 में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाये गये आपातकाल के विरोध में उनके द्वारा किया गया संघर्ष अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है। इससे पूर्व उन्होंने गांधी जी और बाद में विनोबा भावे के साथ सर्वोदय आन्दोलन में भी काफी काम किया था; पर उनकी पत्नी प्रभावती जी का नाम प्रायः अल्पज्ञात ही है, जबकि जयप्रकाश जी को पीछे से सहारा देने में उनका योगदान भी कम नहीं है।
1906 में जन्मी प्रभावती जी के पिता जी का नाम ब्रजकिशोर बाबू था। प्रभा जी उनकी जीवित चार सन्तानों में सबसे बड़ी थीं। उनका जन्म जानकी नवमी को हुआ था। माँ फुलझड़ी देवी घरेलू महिला थीं; पर पिता जी राजनीति और स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय थे।
प्रभावती जी पर अपने पिता जी के विचारों का भरपूर प्रभाव पड़ा। प्रभावती जी 12 साल की अवस्था तक लड़कों जैसे कपड़े पहनती थीं। बाद में दादी जी के कहने पर उन्होंने साड़ी बाँधी। प्रभावती जी गहनों, कपड़ों आदि के बदले घरेलू कार्य, पेड़-पौधों की देखभाल आदि में अधिक रुचि लेती थीं।
ब्रजकिशोर जी स्त्री शिक्षा के प्रबल पक्षधर थे। अतः उन्होंने प्रभावती जी को हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत की उच्च शिक्षा दिलायी। 1920 में प्रभावती जी का विवाह बिना तिलक और दहेज के सादगीपूर्ण रीति से जयप्रकाश जी के साथ हो गया। उस समय जयप्रकाश जी 18 और प्रभावती जी 14 वर्ष की थीं। उनका गौना पाँच साल बाद हुआ।
विवाह के बाद जयप्रकाश जी उच्च शिक्षा के लिए अमरीका चले गये, जबकि प्रभावती जी गांधी जी और कस्तूरबा के सान्निध्य में साबरमती आश्रम आ गयीं। यहाँ रह कर उन पर स्वदेशी, स्वभाषा, स्वभूषा आदि के संस्कार पड़े। उन्होंने बीमार कस्तूरबा की खूब सेवा की। बाद में इन्हीं से प्रेरित होकर उन्होंने स्वतन्त्रता आन्दोलन के साथ ही अशिक्षा, बाल-विवाह और पर्दा प्रथा का विरोध कर नारियों को जाग्रत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
प्रभावती जी की कोई सन्तान नहीं थी; क्योंकि पति-पत्नी दोनों ने परस्पर सहमति से समाज सेवा को जीवन में सर्वाधिक महत्व देते हुए कोई सन्तान उत्पन्न न करने का निर्णय लिया था; पर प्रभावती जी समाज-सेवी संस्थाओं को ही अपनी सन्तान की तरह प्यार करती थीं।
उन्होंने अनेक बाल विद्यालयों की स्थापना की, जिनमें से कुछ कन्याओं के लिए भी थे। प्रभावती जी दहेज व्यवस्था की विरोधी थीं। उनका अपना विवाह भी ऐसे ही हुआ था। आगे चलकर उन्होंने लगभग 600 विवाह बिना दहेज के सम्पन्न कराये।
प्रभावती जी ने जयप्रकाश जी के साथ दुनिया के अनेक देशों का भ्रमण किया और वहाँ महिलाओं की उन्नत स्थिति देखी। इसका उनके मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे कहती थीं कि नारी का जीवन प्रेम और सेवा की आधारशिला है। महिलाओं में ईश्वरीय शक्ति विद्यमान है। वे प्रेम से परिवार, समाज और राष्ट्र की अनीति को नीति में बदल सकती हैं। समाज में स्त्रियों की भागीदारी जितनी बढ़ेगी, उतना ही पुराना पाखंड टूटेगा।
प्रभावती जी को कैंसर का रोग था; पर उन्होंने अपना दुःख कभी दूसरों के सामने व्यक्त नहीं किया। वे सदा प्रसन्न और सक्रिय रहती थीं। जब तक सम्भव हुआ, उन्होंने अपने पति जयप्रकाश जी का ध्यान रखा; पर 15 अप्रैल, 1973 को प्राण पंछी उनकी देह को छोड़कर अनन्त आकाश में उड़ गया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें