मार्च दूसरा सप्ताह

8 मार्च/जन्म-दिवस

महान विट्ठलभक्त सन्त तुकाराम

भारत के महान् सन्तों में सन्त तुकाराम का विशिष्ट स्थान है। उनका जन्म 8 मार्च, 1608 को पुणे में हुआ था। उनके पिता श्री वोल्होबा तथा माता कनकाई बहुत सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति थे। अतः तुकाराम को बालपन से ही विट्ठल भक्ति संस्कारों में प्राप्त हुई। 

उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। फिर भी सन्तोषी स्वभाव के तुकाराम कभी विचलित नहीं हुए। आगे चलकर उनके माता-पिता और फिर पत्नी तथा पुत्र की भी मृत्यु हो गयी; पर तुकाराम ने प्रभु भक्ति से मुँह नहीं मोड़ा। 

तुकाराम स्वभाव से ही विरक्त प्रवृत्ति के थे। वे प्रायः भामगिरी तथा भण्डार की पहाडि़यों पर जाकर एकान्त में बैठ जाते थे। वे वहाँ ज्ञानेश्वरी तथा एकनाथी भागवत का अध्ययन भी करते थे। कीर्तन तथा सत्संग में उनका बहुत मन लगता था। जब वे नौ वर्ष के ही थे, तब उन्हें स्वप्न में एक तेजस्वी सन्त ने दर्शन देकर ‘रामकृष्ण हरि’ मन्त्र का उपदेश दिया। इससे उनका जीवन बदल गया और वे दिन-रात प्रभु के ध्यान में डूबे रहने लगे।

एक बार प्रसिद्ध सन्त नामदेव ने तुकाराम जी को स्वप्न में दर्शन देकर भजन लिखने को कहा। इससे पूर्व तुकाराम ने कभी कविता नहीं की थी; पर सन्त नामदेव के आशीर्वाद से उनके मन में काव्यधारा फूट पड़ी। उन्होंने जो रचनाएँ कीं, उन्हें ‘अभंग’ कहा जाता है। ऐसे लगभग 6,000 अभंगों की रचना उन्होंने की। इससे उनकी कीर्ति चारों और फैल गयी। लोग दूर-दूर से उनके दर्शन के लिए आने लगे। उनके आश्रम में हर दिन मेला लगने लगा।

उनकी इस प्रसिद्धि से रामेश्वर भट्ट तथा मुम्बाजी जैसे कुछ लोग जलने लगे। वे तुकाराम को शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान करने लगे। एक बार तो उनके अभंग संग्रह को ही उन्होंने इन्द्रायणी नदी में डुबो दिया। तुकाराम को इससे अपार कष्ट हुआ। वे मन्दिर में भगवान् की मूर्ति के सम्मुख बैठ गये। उन्होंने निश्चय कर लिया कि जब तक उनकी बहियाँ वापस नहीं मिल जातीं, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे।

लेकिन 13 दिन ऐसे ही बीत गये। इस पर तुकाराम ने भावावेश में आकर भगवान को बहुत उलाहना दिया। उन्होंने कहा कि हे नाथ, आप तो मूत्र्ति के पीछे छिपे हो और यहाँ मैं भूखा-प्यासा बैठा हूँ। अब भी यदि आपने मेरी इच्छा पूरी नहीं की, तो मैं आत्महत्या कर लूँगा और इसका पूरा दोष आपका ही होगा। 

ऐसा कहते हैं कि भगवान् ने उसी समय युवक वेश में प्रकट होकर सन्त तुकाराम की सभी पुस्तकें सुरक्षित लौटा दीं। यह देखकर उन सबकी आँखें खुल गयीं, जो उन्हें परेशान कर रहे थे। अब वे भी तुकाराम जी की शरण में आ गये और उनके भक्त बन गये। 

ऐसा कहते हैं कि एक बार शिवाजी महाराज सन्त तुकाराम के पास बैठे थे कि मुगलों ने उनके आश्रम को घेर लिया। तुकाराम की प्रार्थना पर वहाँ शंकर भगवान् प्रकट हुए और वे शिवाजी का छद्म रूप लेकर एक ओर भागने लगे। इस पर मुगल सैनिक उनके पीछे दौड़ पड़े और असली शिवाजी को कुछ नहीं हुआ। इससे प्रभावित होकर शिवाजी ने सन्त तुकाराम को कुछ स्वर्ण मुद्राएँ भेंट कीं; पर तुकाराम जी ने उन्हें यह कहकर लेने से मना कर दिया कि मेरे लिए सोना और मिट्टी बराबर है।

अपने अभंगों द्वारा भगवद्भक्ति का सन्देश बाँटते हुए सन्त तुकाराम 1650 ई. में सदा-सदा के लिए विट्ठल के धाम को चले गये।
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8 मार्च/जन्म-तिथि

संगठन के मर्मज्ञ माधवराव देवड़े
बालपन में ही संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार का पावन संस्पर्श पाकर जिन लोगों का जीवन धन्य हुआ, माधवराव भी उनमें से एक थे। नागपुर के एक अति साधारण परिवार में उनका जन्म 8 मार्च, 1922 को हुआ था। 

एक मन्दिर की पूजा अर्चना से उनके परिजनों की आजीविका चलती थी। मन्दिर में ही उन्हें आवास भी मिला था। इस नाते उनका परिवार पूर्ण धार्मिक था। देवमन्दिर से जुड़े रहने के कारण उनके नाम के साथ ‘देवले’ गोत्र लग गया, जो उत्तर प्रदेश में आकर ‘देवड़े’ हो गया।

माधवराव की सम्पूर्ण शिक्षा नागपुर में हुई। छात्र जीवन में वे कुछ समय कम्युनिस्टों से भी प्रभावित रहे; पर उनकी रुचि खेल और विशेषकर कबड्डी में बहुत थी। गर्मियों की छुट्टियों में जब वे मामा जी के घर गये, तो वहाँ लगने वाली शाखा में हो रही कबड्डी के आकर्षण से वह भी शाखा में शामिल हो गये। कबड्डी के प्रति उनका यह प्रेम सदा बना रहा। प्रचारकों के वर्ग में वे प्रांत प्रचारक होते हुए भी कबड्डी खेलने के लिए के मैदान में उतर आते थे।

मामा जी के घर से लौटकर फिर वे नागपुर की शाखा में जाने लगे। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से बढ़ता गया और वे कब शाखा में तन-मन से रम गये, इसका उन्हें पता ही नहीं लगा। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी, अतः घर वालों ने शिक्षा पूरी होने पर नौकरी करने को कहा। 

यों तो माधवराव संघ के लिए सम्पूर्ण जीवन देने का निश्चय कर चुके थे; पर वे कुछ समय नौकरी कर घर को भी ठीक करना चाहते थे। एक स्थान पर जब वे नौकरी के लिए गये, तो वहाँ लगातार काम करने का अनुबन्ध करने को कहा गया। माधवराव ने इसे स्वीकार नहीं किया और वे नौकरी को लात मार कर घर वापस आ गये।

यह 1942 का काल था। देश में गांधी जी का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ और ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ जोरों पर था। विभाजन की आशंका से भारत भयभीत था। विश्वाकाश पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल भी गरज-बरस रहे थे। ऐसे में जब द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने युवकों से अपना जीवन देश की सेवा में अर्पण करने को कहा, तो युवा माधवराव भी इस पंक्ति में आ खड़े हुए। श्री गुरुजी ने उन्हें उत्तर प्रदेश के जौनपुर में भेजा। 

उत्तर प्रदेश की भाषा, खानपान और परम्पराओं से एकदम अनभिज्ञ माधवराव एक बार इधर आये, तो फिर वापस जाने का कभी सोचा ही नहीं। उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर काम करने के बाद 1968 में वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रान्त प्रचारक बने। आपातकाल में शाहबाद (जिला रामपुर) में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर मीसा में जेल भेज दिया।

आपातकाल के बाद उन्हें उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्रीय प्रचारक की जिम्मेदारी मिली। हर कार्यकर्ता की बात को गम्भीरता से सुनकर उसे टाले बिना उचित निर्णय करना, यह उनकी कार्यशैली की विशेषता थी। इसीलिए जो उनके सम्पर्क में आया, वह सदा के लिए उनका होकर रह गया। 

श्री देवड़े जी मधुमेह से पीडि़त थे। उनका कद छोटा और शरीर हल्का था। फिर भी प्रदेश की हर तहसील का उन्होंने सघन प्रवास किया। वे कम बोलते थे; पर जब बोलते थे, तो कोई उनकी बात टालता नहीं था। प्रवास में कष्ट होने पर 1995-96 में उन्हें विद्या भारती, उत्तर प्रदेश का संरक्षक बनाया गया। इस दौरान उन्होंने अनेक शिक्षा-प्रकल्पों को नव आयाम प्रदान किये। 

77 वर्ष की आयु में निराला नगर, लखनऊ में 23 अगस्त, 1998 को रात में सोते-सोते ही वह चिरनिद्रा में लीन हो गये।
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8 मार्च/इतिहास-स्मृति

चित्तौड़ का दूसरा जौहर

मेवाड़ के कीर्तिपुरुष महाराणा कुम्भा के वंश में पृथ्वीराज, संग्राम सिंह, भोजराज और रतनसिंह जैसे वीर योद्धा हुए। आम्बेर के युद्ध में राणा रतनसिंह ने वीरगति पाई। इसके बाद उनका छोटा भाई विक्रमादित्य राजा बना। 

उस समय मेवाड़ पर गुजरात के पठान राजा बहादुरशाह तथा दिल्ली के शासक हुमाऊं की नजर थी। यद्यपि हुमाऊं उस समय शेरशाह सूरी से भी उलझा हुआ था। विक्रमादित्य के राजा बनते ही इन दोनों के मुंह में पानी आ गया, चूंकि विक्रमादित्य एक विलासी और कायर राजा था। वह दिन भर राग-रंग में ही डूबा रहता था। इस कारण कई बड़े सरदार भी उससे नाराज रहने लगे।

1534 में बहादुरशाह ने मेवाड़ पर हमला कर दिया। कायर विक्रमादित्य हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। ऐसे संकट के समय राजमाता कर्मवती ने धैर्य से काम लेते हुए सभी बड़े सरदारों को बुलाया। उन्होंने सिसोदिया कुल के सम्मान की बात कहकर सबको मेवाड़ की रक्षा के लिए तैयार कर लिया।

सबको युद्ध के लिए तत्पर देखकर विक्रमादित्य को भी मैदान में उतरना पड़ा। मेवाड़ी वीरों का शौर्य, उत्साह और बलिदान भावना तो अनुपम थी; पर दूसरी ओर बहादुरशाह के पास पुर्तगाली तोपखाना था। युद्ध प्रारम्भ होते ही तोपों की मार से चित्तौड़ दुर्ग की दीवारें गिरने लगीं तथा बड़ी संख्या में हिन्दू वीर हताहत होने लगे। यह देखकर विक्रमादित्य मैदान से भाग खड़ा हुआ। 

इस युद्ध के बारे में एक भ्रम फैलाया गया है कि रानी कर्मवती ने हुमाऊं को राखी भेजकर सहायता मांगी थी तथा हुमाऊं यह संदेश पाकर मेवाड़ की ओर चल दिया; पर उसके पहुंचने से पहले ही युद्ध समाप्त हो गया। वस्तुतः हुमाऊं स्वयं मेवाड़ पर कब्जा करने आ रहा था; पर जब उसने देखा कि एक मुसलमान शासक बहादुरशाह मेवाड़ से लड़ रहा है, तो वह सारंगपुर में रुक गया।

उधर विक्रमादित्य के भागने के बाद चित्तौड़ में जौहर की तैयारी होने लगी; पर उसकी पत्नी जवाहरबाई सच्ची क्षत्राणी थी। अपने सम्मान के साथ उन्हें देश के सम्मान की भी चिन्ता थी। वह स्वयं युद्धकला में पारंगत थीं तथा उन्होंने शस्त्रों में निपुण वीरांगनाओं की एक सेना भी तैयार कर रखी थी। 

जब राजमाता कर्मवती ने जौहर की बात कही, तो जवाहरबाई ने दुर्ग में एकत्रित वीरांगनाओं को ललकारते हुए कहा कि जौहर से नारीधर्म का पालन तो होगा; पर देश की रक्षा नहीं होगी। इसलिए यदि मरना ही है, तो शत्रुओं को मार कर मरना उचित है। सबने ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष कर इसे स्वीकृति दे दी।

इससे पुरुषों में भी जोश आ गया। सब वीरों और वीरांगनाओं ने केसरिया बाना पहना और किले के फाटक खोलकर जवाहरबाई के नेतृत्व में शत्रुओं पर टूट पड़े। महारानी तोपखाने को अपने कब्जे में करना चाहती थी; पर उनका यह प्रयास सफल नहीं हो सका। युद्धभूमि में सभी हिन्दू सेनानी खेत रहे; पर मरने से पहले उन्होंने बहादुरशाह की अधिकांश सेना को भी धरती सुंघा दी। 

यह आठ मार्च, 1535 का दिन था। हिन्दू सेना के किले से बाहर निकलते ही महारानी कर्मवती के नेतृत्व में 13,000 नारियों ने जौहर कर लिया।  यह चित्तौड़ का दूसरा जौहर था। बहादुरशाह का चित्तौड़ पर अधिकार हो गया; पर वापसी के समय मंदसौर में हुमाऊं ने उसे घेर लिया। बहादुरशाह किसी तरह जान बचाकर मांडू भाग गया। इन दोनों विदेशी हमलावरों के संघर्ष का लाभ उठाकर हिन्दू वीरों ने चित्तौड़ को फिर मुक्त करा लिया। 

(संदर्भ : पाथेय कण, जनवरी प्रथम 2010)
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8 मार्च/जन्म-दिवस

घर वापसी अभियान के सेनानी दिलीप सिंह जूदेव 

भारत में जो भी मुसलमान या ईसाई हैं, उन सबके पूर्वज हिन्दू ही हैं। उन्हें सम्मान सहित अपने पूर्वजों के पवित्र धर्म में शामिल करना ही ‘घर वापसी’ कहलाता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और वनवासी कल्याण आश्रम इसमें सक्रिय हैं। आठ मार्च, 1949 को जशपुर के राज परिवार में जन्मे श्री दिलीप सिंह जूदेव घर वापसी अभियान के एक प्रखर सेनानी थे। 
उन्होंने रांची के सेंट जेवियर काॅलेज से बी.ए. तथा छोटा नागपुर के लाॅ काॅलेज से कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर वे अपने पारिवारिक परम्परा के अनुसार राजनीति तथा सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हो गये। जशपुर इन दिनों घने वनों से आच्छादित छत्तीसगढ़ राज्य में है। हजारों वर्ष से यहां प्रकृति पूजक वनवासी जातियां रहती हैं, जिनकी हिन्दू धर्म के साथ ही अपने राज परिवार पर भी असीम श्रद्धा है। वे अपने धर्म को ‘सरना धर्म’ कहते हैं।
भारत में जब अंग्रेज आये, तो उन्होंने इस क्षेत्र को धर्मान्तरण के लिए बहुत उर्वर समझकर यहां एक विशाल चर्च बनाया। एक ओर सेवा तो दूसरी ओर बंदूक। भोले वनवासियों का शेष भारत से संपर्क भी कम ही था। अतः क्रमशः वे ईसाई होने लगे। 1947 के बाद यद्यपि राजशाही समाप्त हो गयी; पर राजपरिवारों के प्रति लोगों की श्रद्धा बनी रही। 
जूदेव राजपरिवार सदा से ही हिन्दू धर्म का संरक्षक रहा है। जब ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का कार्य प्रारम्भ हुआ, तो इस परिवार ने ही उन्हें छात्रावास तथा अन्य प्रकल्पों के लिए भूमि दी। अपने पिता की मृत्यु के बाद जब श्री दिलीप सिंह राजा बने, तो उन्होंने धर्मान्तरण के इस खतरे को पहचान कर ‘घर वापसी’ अभियान प्रारम्भ किया। इससे वे बहुत शीघ्र ही न केवल छत्तीसगढ़, अपितु निकटवर्ती मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा के वनवासियों में भी लोकप्रिय हो गये। लोग उन्हें ‘कुमार साहब’ कहकर सम्बोधित करते थे। 
विनम्रता की प्रतिमूर्ति दिलीप सिंह जी हिन्दू हृदय सम्राट थे। उनके महल के द्वार निर्धन वनवासियों के लिए सदा खुले रहते थे। राजा होते हुए भी वे घर वापसी करने वाले पुरुष और स्त्रियों के पैर धोकर उन्हें धोती तथा जनेऊ भेंट करते थे। इस प्रकार उन्होंने लाखों लोगों को फिर से परावर्तित किया। इससे विरोधी उनके चरित्रहनन के प्रयास करने लगे। उनके पिता 1970 में जनसंघ की ओर से लोकसभा के सांसद बने थे। उन दिनों देश में इंदिरा गांधी की तूती बोल रही थी। अधिकांश पुराने राजा और रजवाड़े उनके साथ थे; पर श्री जूदेव ने अपना चुनाव लड़ते हुए जनसंघ के कई अन्य प्रत्याशियों को भी आर्थिक सहायता दी। 
श्री दिलीप सिंह ने 1978 में अपनी राजनीतिक यात्रा जशपुर नगरपालिका के अध्यक्ष के नाते प्रारम्भ की। फिर वे भारतीय जनता पार्टी की ओर से दो बार लोकसभा तथा तीन बार राज्यसभा के सदस्य बने। जब केन्द्र में श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार बनी, तो उन्हें पर्यावरण एवं वन राज्यमंत्री बनाया गया। वे प्रायः फौजी वेश पहनते थे। इस पर उनकी रौबीली मूंछें बहुत फबती थीं। इसलिए उन्हें ‘छत्तीसगढ़ का शेर’ भी कहा जाता था।
दिसम्बर, 2012 में उनके बड़े पुत्र प्रबल प्रताप सिंह का आकस्मिक निधन हो गया। उसका विवाह भी कुछ समय पूर्व ही हुआ था। इससे श्री दिलीप सिंह अवसाद और निराशा से घिर गये। वे गुर्दे और यकृत के रोग से भी पीडि़त थे। कुछ समय बाद उनकी मां श्रीमती जयादेवी का आशीर्वाद भी उनके सिर से उठ गया। इससे वे शारीरिक और मानसिक रूप से टूट गये। इलाज के लिए पहले उन्हें रांची और फिर गुड़गांव के एक विख्यात चिकित्सालय में भर्ती कराया गया, जहां 14 अगस्त, 2013 को उनका प्राणांत हो गया। 
(संदर्भ: पांचजन्य/आर्गनाइजर 1.9.2013 एवं तत्कालीन पत्र)
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9 मार्च/जन्म-दिवस


मानव मन के पारखी बाबासाहब नातू

मध्य भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य हिन्दू संगठनों के लिए आधार भूमि तैयार करने में श्री अनंत शंकर (बाबासाहब) नातू का विशिष्ट स्थान है। उनका जन्म नौ मार्च, 1923 को धार जिले के सरदारपुर नगर में हुआ था। 

उनके पिताजी उन दिनों वहां तहसीलदार थे। प्रारम्भिक शिक्षा उज्जैन में पूरी कर 1943 में ग्वालियर से उन्होंने स्नातक उपाधि प्राप्त की। कई स्थानों पर काम करते हुए 1946 में लिप्टन चाय कम्पनी में उनकी नौकरी लग गयी। इस काम के लिए उन्हें भोपाल में रहना पड़ा। यहां उन्होंने भोपाल के मुसलमान नवाब द्वारा हिन्दुओं पर किये जाने वाले अत्याचार देखे। इससे उनका मन पीड़ा से भर उठा। इसका उत्तर उन्हें केवल संघ कार्य में दिखाई देता था। 

संघ से उनका संपर्क 1936 में अपने बड़े भाई के साथ शाखा जाने पर हो गया था। 1942 में उन्होंने खंडवा से प्रथम वर्ष और फिर हरदा से द्वितीय वर्ष किया। हरदा में ही उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया और नौकरी को लात मार दी। प्रचारक के नाते उन्हें सर्वप्रथम भोपाल ही भेजा गया।

भोपाल के बाद उज्जैन, इंदौर, रतलाम आदि को केन्द्र बनाकर उन्होंने संघ कार्य को गति दी। श्री कुशाभाऊ ठाकरे, हरिभाऊ वाकणकर, मिश्रीलाल तिवारी, दत्ता जी कस्तूरे, राजाभाऊ महाकाल जैसे जीवट के धनी कार्यकर्ता उनके साथी थे। इन सबने गांव-गांव तक शाखाएं पहुंचा दीं। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध के समय संघ की ओर से यह छूट दी गयी थी कि जो प्रचारक घर जाना चाहें, वे जा सकते हैं; पर दृढ़ निश्चयी बाबा साहब ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

लेकिन उस समय शाखाएं बन्द थीं तथा सब ओर भय व्याप्त था। अतः बाबा साहब ने देवास जिले के सोनकच्छ में एक होटल खोल लिया। इससे कुछ आय होने लगी और यह लोगों से मिलने का एक ठिकाना बन गया। जैसे ही प्रतिबन्ध हटा, वे होटल बन्द कर फिर प्रचारक बन गये। 

जिला, विभाग आदि दायित्वों के बाद 1977 में उन्हें मध्य भारत का प्रान्त प्रचारक बनाया गया। 1983 में सहक्षेत्र प्रचारक तथा 1986 से 92 तक वे क्षेत्र प्रचारक रहे। स्वास्थ्य संबंधी कठिनाइयों से जब प्रवास कठिन हो गया, तो उन्होंने सरकार्यवाह श्री शेषाद्रि जी से आग्रह कर स्वयं को दायित्व मुक्त कर लिया। 

दायित्व मुक्ति के बाद भी वे कार्यक्रमों तथा कार्यकर्ताओं के पारिवारिक आयोजनों में जाते रहे। बाबा साहब मानव मन के अद्भुत पारखी थे। शाखा के साथ ही कार्यकर्ता से मिलना, उसके घर जाना और धैर्यपूर्वक उसके मन की बात सुनना भी उनके प्रवास का महत्वपूर्ण अंग होता था। वे कार्यकर्ता तथा नये व्यक्ति से मिलने एवं कुछ देर की वार्ता से ही उसके मन को समझ लेते थे। इसलिए लोग हंसी में उनकी आंखों को एक्सरे मशीन कहते थे। 

व्यक्तियों को जोड़ने तथा उन्हें उनकी शक्ति एवं योग्यता के अनुसार यथोचित काम देने से ही संघ के सैकड़ों विविध कार्य एवं हजारों प्रकल्प खड़े हुए हैं। मन की परख के कारण बाबा साहब ने जिसे जो कार्य सौंपा, वह अंततः उस काम में यशस्वी हुआ। उनके सम्पर्क का दायरा अति विशाल था। सैकड़ों कार्यकर्ताओं और उनके पुत्र-पुत्रियों के विवाह के लिए उन्होंने सम्पर्क सेतु का काम किया। वे कार्यकर्ता ही नहीं, तो उसके रिश्तेदारों तक से संबंध बनाकर रखते थे और समय आने पर उनसे भी काम ले लेते थे। 

वृद्धावस्था के बावजूद वे तात्कालिक गतिविधियों के प्रति जागरूक रहते थे तथा मिलने आने वालों को समयानुकूल दिशा निर्देश भी करते थे। इसलिए हर आयु वर्ग वाले उनके पास बैठना पसंद करते थे। लम्बी बीमारी के बाद 15 दिसम्बर, 2008 को उनकी आत्मा अनन्त में विलीन हो गयी।

(संदर्भ : पांचजन्य 28.12.08 एवं देवपुत्र जनवरी 2009)
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9 मार्च/पुण्य-तिथि

नारी संगठन को समर्पित सरस्वती ताई आप्टे

1925 में हिन्दू संगठन के लिए डा. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य प्रारम्भ किया। संघ की शाखा में पुरुष वर्ग के लोग ही आते थे। उन स्वयंसेवक परिवारों की महिलाएँ एवं लड़कियाँ डा. हेडगेवार जी से कहती थीं कि हिन्दू संगठन के लिए नारी वर्ग का भी योगदान लिया जाना चाहिए। 

डा. हेडगेवार भी यह चाहते तो थे; पर शाखा में लड़के एवं लड़कियाँ एक साथ खेलें, यह उन्हें व्यावहारिक नहीं लगता था। इसलिए वे चाहते थे कि यदि कोई महिला आगे बढ़कर नारी वर्ग के लिए अलग संगठन चलाये, तभी ठीक होगा। उनकी इच्छा पूरी हुई और 1936 में श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर (मौसी जी) ने ‘राष्ट्र सेविका समिति’ के नाम से अलग संगठन बनाया। 

इस संगठन की कार्यप्रणाली लगभग संघ जैसी ही थी। आगे चलकर श्रीमती लक्ष्मीबाई केलकर समिति की प्रमुख संचालिका बनीं। 1938 में पहली बार ताई आप्टे की भेंट श्रीमती केलकर से हुई थी। इस भेंट में दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया। मौसी जी से मिलकर ताई आप्टे के जीवन का लक्ष्य निश्चित हो गया। दोनों ने मिलकर राष्ट्र सेविका समिति के काम को व्यापकता एवं एक मजबूत आधार प्रदान किया।

अगले 4-5 साल में ही महाराष्ट्र के प्रायः प्रत्येक जिले में समिति की शाखा खुल गयी। 1945 में समिति का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। ताई आप्टे की सादगी, संगठन क्षमता, कार्यशैली एवं वक्तृत्व कौशल को देखकर मौसी जी ने इस सम्मेलन में उन्हें प्रमुख कार्यवाहिका की जिम्मेदारी दी। जब तक शरीर में शक्ति रही, ताई आप्टे ने इसे भरपूर निभाया।

उन दिनों देश की स्थिति बहुत खतरनाक थी। कांग्रेस के नेता विभाजन के लिए मन बना चुके थे। वे जैसे भी हो सत्ता प्राप्त करना चाहते थे। देश में हर ओर मुस्लिम आतंक का नंगा खेल हो रहा था। इनकी शिकार प्रायः हिन्दू युवतियाँ ही होती थीं। देश का पश्चिमी एवं पूर्वी भाग इनसे सर्वाधिक प्रभावित था। आगे चलकर यही भाग पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान बना।

आजादी एवं विभाजन की वेला से कुछ समय पूर्व सिन्ध के हैदराबाद नगर से एक सेविका जेठी देवानी का मार्मिक पत्र मौसी जी को मिला। वह इस कठिन परिस्थिति में उनसे सहयोग चाहती थी। वह समय बहुत खतरनाक था। महिलाओं के लिए प्रवास करना बहुत ही कठिन था; पर सेविका की पुकार पर मौसी जी चुप न रह सकीं। वे सारा कार्य ताई आप्टे को सौंपकर चल दीं। वहाँ उन्होंने सेविकाओं को अन्तिम समय तक डटे रहने और किसी भी कीमत पर अपने सतीत्व की रक्षा का सन्देश दिया।

1948 में गांधी जी की हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। हजारों कार्यकर्ता जेलों में ठूँस दिये गये। ऐसे में उन परिवारों में महिलाओं को धैर्य बँधाने का काम राष्ट्र सेविका समिति ने किया। 1962 में चीन के आक्रमण के समय समिति ने घर-घर जाकर पैसा एकत्र किया और उसे रक्षामन्त्री श्री चह्नाण को भंेट किया। 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण के समय अनेक रेल स्टेशनों पर फौजी जवानों के लिए चाय एवं भोजन की व्यवस्था की।

सरस्वती ताई आप्टे इन सब कार्यों की सूत्रधार थीं। उन्होंने संगठन की लाखों सेविकाओं को यह सिखाया कि गृहस्थी के साथ भी देशसेवा कैसे की जा सकती है। 1909 में जन्मी ताई आप्टे ने सक्रिय जीवन बिताते हुए नौ मार्च, 1994 को प्रातः 4.30 बजे अन्तिम साँस ली।
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10 मार्च/इतिहास-स्मृति

जब भारतीय बन्दी अन्दमान पहुंचे

अन्दमान-निकोबार या काले पानी का नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह वह स्थान है, जहाँ भारत के उन वीर स्वतन्त्रता सेनानियों को रखा जाता था, जिन्हें अंग्रेज शासन अपने लिए बहुत खतरनाक समझता था। इसी प्रकार अति गम्भीर अपराध करने वाले खूँखार अपराधियों को भी आजीवन कारावास की सजा भोगने के लिए यहीं भेजा जाता था।

घने जंगलों से आच्छादित इस क्षेत्र में वनपशु खुलेआम घूमते थे। चारों ओर समुद्र था। नदियों और बड़े-बड़े तालाबों में घडि़याल निद्र्वन्द्व विचरण करते थे। वनों में ऐसी जनजातियाँ रहती थीं, जो अपने विषैले तीरों से मानव को देखते ही मार देती थीं। चारों ओर भीषण डंक वाले साँप और बिच्छू घूमते रहते थे। मच्छरों का तो वहाँ मानो अखण्ड साम्राज्य था। ऐसे में कोई बन्दी जेल से भागता भी, तो उसका मरना निश्चित था। इसीलिए 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने इस स्थान को जेल के लिए चुना।

अब समस्या थी कि इन जंगलों की सफाई कौन करेगा ? शासन ने बन्दियों से ही यह काम कराने का निर्णय किया और 10 मार्च, 1858 को स्थायी अधीक्षक डा0 जे.पी. वाकर के साथ बन्दियों का पहला दल पानी के जहाज से पोर्ट ब्लेयर आ गया। इन बन्दियों में सभी प्रकार के लोग थे। हत्या, लूट, डकैती जैसे घोर दुष्कर्म करने वाले खूँखार अपराधी तो थे ही; पर देशभक्त क्रान्तिकारी भी थे। ये स्वतन्त्रता सेनानी सुशिक्षित और अच्छे घरों के नवयुवक थे; पर वहाँ तो सबको एक ही लाठी से हाँका जाता था। 

सुबह होते ही सबको कुल्हाड़ी, आरे और फावड़े देकर सफाई में लगा दिया जाता था। दोपहर में रूखा-सूखा भोजन और फिर काम। जून के मध्य तक अनेक बन्दी बीमारी से मर गये। कुछ मौका पाकर भाग भी गये, जो कभी अपने घर नहीं पहुँच सके। 87 बन्दियों को भागने के आरोप में फाँसी दे दी गयी।

प्रारम्भ में राॅस द्वीप के जंगल को साफ किया गया। फिर चाथम और फीनिक्स में बन्दियों के निवास के लिए कच्ची बैरकें बनायी गयीं। पोर्ट मोर्ट में इन बन्दियों के रहने और उनसे खेती कराने की योजना बनायी गयी। 1867 में पहाड़ गाँव में चैकी, अबार्डीन में थाना और वाइपर में जेल बनायी गयी। अपने घर-परिवार और जन्मभूमि से दूर रहने वाले इन बन्दियों की शारीरिक और मानसिक दशा की कल्पना की जा सकती है। फिर भी आजादी के मतवाले बन्दी झुकने को तैयार नहीं थे।

प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय युवक इस आश्वासन पर सेना में भर्ती हुए कि युद्ध के बाद भारत को स्वतन्त्र कर दिया जाएगा। दूसरी ओर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भारत से बाहर रहकर आजादी का प्रयास कर रहे थे। आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति के रूप में जब 29 दिसम्बर, 1943 को वे अन्दमान आये, तो उनका भव्य स्वागत किया गया। पोर्ट ब्लेयर के ऐतिहासिक जिमखाना मैदान में उनका भाषण हुआ।

15 अगस्त, 1947 को भारत की स्वतन्त्रता के बाद अन्दमान, निकोबार आदि द्वीपों में भी तिरंगा फहराया गया। सब बन्दियों को छोड़ दिया गया। काले पानी के नाम से कुख्यात वह जेल अब स्वतन्त्रता के लिए यातनाएँ सहने और तिल-तिल कर मरने वाले दीवानों का स्मारक है; पर इसके निर्माण में उन अनाम बन्दियों की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, जो 10 मार्च, 1858 को सबसे पहले वहाँ पहुँचे थे।
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11 मार्च/बलिदान-दिवस

अमर बलिदानी छत्रपति सम्भाजी

भारत में हिन्दू धर्म की रक्षार्थ अनेक वीरों ने अपने प्राणों की आहुति दी है। छत्रपति शिवाजी के बड़े पुत्र सम्भाजी भी इस मणिमाला के एक गौरवपूर्ण मोती हैं। उनका जन्म 14 मई, 1657 को मां सोयराबाई की कोख से  हुआ था। तीन अपै्रल, 1680 को शिवाजी के देहान्त के बाद सम्भाजी ने हिन्दवी साम्राज्य का भार सँभाला; पर दुर्भाग्य से वे अपने पिता की तरह दूरदर्शी नहीं थे। इस कारण उन्हें शिवाजी जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं हुई। दूसरी ओर औरंगजेब सिर कुचले हुए नाग की भाँति अवसर की तलाश में रहता ही था। 

संभाजी अपने वीर सैनिकों के बलपर औरंगजेब को सदा छकाते रहे। कभी उनका पलड़ा भारी रहता, तो कभी औरंगजेब का। घर के अंदर चलने वाली राजनीतिक उठापटक से भी संभाजी दुखी रहते थे। जिन दिनों वे अपने 500 सैनिकों के साथ संगमेश्वर में ठहरे थे, तब किसी मुखबिर की सूचना पर मुकर्रबखान ने 3,000 मुगल सेना के साथ उन्हें घेर लिया। संभाजी ने युद्ध करते हुए रायगढ़ की ओर जाने का निश्चय किया।

इस प्रयास में दोनों ओर के सैकड़ों सैनिक मारे गये। सम्भाजी के कुछ साथी तो निकल गये; पर संभाजी और उनके मित्र कवि कलश मुगलों के हत्थे चढ़ गये। औरंगजेब यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने संभाजी को अपमानित करते हुए अपने सामने लाने को कहा। 

15 फरवरी, 1689 को दोनों को चीथड़े पहनाकर, ऊंट पर उल्टा बैठाकर औरंगजेब के सामने लाया गया। औरंगजेब उनका मनोबल तोड़कर हिन्दू शक्ति को सदा के लिए कुचलना चाहता था। अतः उसने सम्भाजी को कहा कि यदि तुम मुसलमान बन जाओ, तो तुम्हारा राज्य वापस कर दिया जाएगा और वहाँ से कोई कर नहीं लिया जाएगा। 

पर सम्भाजी ने उसका प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि सिंह कभी सियारों की जूठन नहीं खाते। मैं हिन्दू हूँ और हिन्दू ही मरूँगा। औरंगजेब ने तिलमिला कर उन्हें यातनाएँ देना प्रारम्भ किया। उनके शरीर पर 200 किलो भार की जंजीरे बँधी थीं, फिर भी उन्हें पैदल चलाया गया। सम्भाजी कुछ कदम चलकर ही गिर जाते। 

उन्हें कई दिन तक भूखा और प्यासा रखा गया। जंजीरों की रगड़ से सम्भाजी के शरीर पर हुए घावों पर नमक-मिर्च डाला गया। उनके शरीर को गर्म चिमटों से दागा गया। आँखों में गर्म कीलें डालकर उन्हें फोड़ दिया गया; पर उस सिंह पुरुष के मुँह से आह तक न निकली।

इससे चिढ़कर औरंगजेब ने 11 मार्च, 1686 (फागुन कृष्ण अमावस्या) का दिन उनकी हत्या के लिए निर्धारित किया। अगले दिन वर्ष प्रतिपदा (गुडी पड़वा) का पर्व था। औरंगजेब इस दिन पूरे महाराष्ट्र को शोक में डुबो देना चाहता था। 

11 मार्च की प्रातः दोनों को बहूकोरेगांव के बाजार में लाया गया। संभाजी से पूर्व उनके एक साथी कविकलश की जीभ और फिर सिर काटा गया। इसके बाद सम्भाजी के हाथ-पैर तोड़े गये और फिर उनका भी सिर धड़ से अलग कर दिया गया।

मुसलमान सैनिक सिर को भाले की नोक पर लेकर नाचने लगे। उन्होंने उस सिर का भी भरपूर अपमान कर उसे कूड़े में फंेक दिया। अगले दिन खंडोबल्लाल तथा कुछ अन्य वीर वेश बदलकर संभाजी के मस्तक को उठा लाये और उसका यथोचित क्रियाकर्म किया। 

शिवाजी ने अपने जीवन कार्य से हिन्दुओं में जिस जागृति का संचार किया, संभाजी ने अपने बलिदान से उसे आगे बढ़ाया। अतः उनके छोटे भाई छत्रपति राजाराम के नेतृत्व में यह संघर्ष और तीव्र होता गया।

(संदर्भ : धर्मवीर संभाजी - प्र.ग.सहòबुद्धे)
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12 मार्च/पुण्य-तिथि 

चंद्रशेखर आजाद के साथी डा. भगवानदास माहौर

देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व दाँव पर लगाने वाले डा. भगवानदास माहौर का जन्म 27 फरवरी, 1909 को ग्राम बडौनी (दतिया, मध्य प्रदेश) में हआ था। प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में पूरी कर ये झाँसी आ गये। यहाँ चन्द्रशेखर आजाद के सम्पर्क में आकर 17 वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने क्रान्तिपथ स्वीकार कर लिया।

भगवानदास की परीक्षा लेने के लिए आजाद और शचीन्द्रनाथ बख्शी ने एक नाटक किया। ये दोनों कुछ नये साथियों को पिस्तौल भरना सिखा रहे थे। उसकी नली भगवानदास की ओर थी। बख्शी जी ने कहा - देखो गोली ऐसे चलाते हैं। 

तभी आजाद ने बख्शी जी का हाथ ऊपर उठा दिया। गोली छत पर जा लगी। बख्शी जी ने घबराहट का अभिनय किया। आजाद ने तब भगवानदास के दिल की धड़कन देखी। वह बिल्कुल सामान्य थी। आजाद समझ गये कि दल के लिए ऐसा ही साहसी व्यक्ति चाहिए।

कक्षा 12 की परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने आजाद की सलाह पर ग्वालियर के विक्टोरिया काॅलेज में प्रवेश ले लिया और छात्रावास में रहने लगे; पर जब वहाँ आने वाले क्रान्तिकारियों की संख्या बहुत बढ़ने लगी, तो उन्होंने ‘चन्द्रबदनी का नाका’ मोहल्ले में एक कमरा किराये पर ले लिया। 

जब लाहौर में सांडर्स को मारने का निर्णय हो गया, तो आजाद ने उन्हें भी वहाँ बुला लिया। उन और विजय कुमार सिन्हा पर यह जिम्मेदारी थी कि यदि सांडर्स भगतसिंह आदि के हाथ से बच जाए, तो ये दोनों उसे निबटा देंगे।

एक बार आजाद ने भगवानदास और सदाशिव मलकापुरकर के हाथ एक पेटी हथियार राजगुरु के पास अकोला भेजे। भुसावल पर उन्हें गाड़ी बदलनी थी। वहाँ आबकारी अधिकारी ने वह पेटी खुलवा ली। इस पर दोनों वहाँ से भागे; पर पकड़ लिये गये। जेल में डालकर जलगाँव में उन पर मुकदमा चलने लगा। 

21 फरवरी को उनके विरुद्ध गवाही देने के लिए मुखबिर जयगोपाल और फणीन्द्र घोष आने वाले थे। इन्होंने सोचा कि इन दोनों को यदि वहाँ गोली मार दें, तो फिर कोई मुखबिरी नहीं करेगा। इन्होंने अपने वकील द्वारा चन्द्रशेखर आजाद को सन्देश भेजा। आजाद ने सदाशिव के बड़े भाई शंकरराव के हाथ 20 फरवरी की शाम को भात के कटोरे में एक भरी हुई पिस्तौल भेज दी। यह बड़े खतरे का काम था। 21 फरवरी को उन्हें न्यायालय में गोली चलाने का अवसर नहीं मिला; पर जब भोजनावकाश में दोनों मुखबिर खाना खा रहे थे, तो भगवानदास ने गोली चला दी। 

पहली गोली पुलिस अधिकारी नानकशाह को लगी। दोनों मुखबिर डर कर मेज के नीचे छिप गये। इस कारण वे अगली दो गोलियों से घायल तो हुए; पर मरे नहीं। इधर तीन गोली चलाने के बाद पिस्तौल जाम हो गयी। इस मुकदमे में उन्हें आजीवन कारावास दिया गया। 1938 में जब कांग्रेसी मन्त्रिमंडलों की स्थापना हुई, तो आठ साल की सजा के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। इसके बाद भी वे कई आन्दोलनों में जेल गये। उन्होंने अपनी पढ़ाई भी प्रारम्भ कर दी। ‘1857 के स्वाधीनता संग्राम का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव’ विषय पर उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से पी.एच-डी. की। 

इसके बाद ये प्राध्यापक हो गये। बुन्देलखण्ड के साहित्य पर शोध के लिए झाँसी विश्वविद्यालय ने इन्हें डी.लिट. की उपाधि दी। डा. भगवानदास की इच्छा गीत गाते हुए फाँसी का फन्दा चूमने की थी; पर यह पूरी नहीं हो पायी। 12 मार्च, 1979 को लखनऊ में उनका देहान्त हुआ।
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13 मार्च/जन्म-दिवस

अटल जी को स्वयंसेवक बनाने वाले नारायण राव तर्टे

अपनी शिक्षा-दीक्षा पूर्ण कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बनकर अपना सम्पूर्ण जीवन समाज सेवा हेतु समर्पित करने वाले कार्यकर्ताओं की एक लम्बी मालिका है। 13 मार्च, 1913 को अकोला (महाराष्ट्र) में जन्मे श्री नारायण राव तर्टे इस मालिका के एक सुवासित पुष्प थे।

नारायण राव के पिता श्री विश्वनाथ तर्टे की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इस कारण नारायण राव किसी तरह मैट्रिक तक पढ़ सके। इसी बीच उनका सम्पर्क संघ से हुआ। नारायण राव की इच्छा थी कि वे भी संघ के प्रचारक बनें; पर अकोला के कार्यकर्ताओं ने यह कहकर उन्हें हतोत्साहित किया कि उनकी शिक्षा बहुत कम है। पिताजी के देहान्त के बाद नारायण राव से रहा नहीं गया और वे नागपुर आकर संघ के संस्थापक डा0 हेडगेवार से मिले।

उन दिनों प्रचारक प्रायः उच्च शिक्षा प्राप्त होते थे; पर डा. हेडगेवार ने जब नारायण राव के मन में संघ कार्य की लगन देखी, तो वे उन्हें प्रचारक बनाने के लिए तैयार हो गये। नारायण राव का मन खुशी से झूम उठा। डा. हेडगेवार ने उन्हें ग्वालियर जाकर संघ शाखा खोलने को कहा। 

ग्वालियर के लिए प्रस्थान करते समय डा. जी ने उन्हें अपने हाथ से लिखी संघ की प्रार्थना, चार रुपये, समर्थ स्वामी रामदास कृत ‘दासबोध’ तथा लोकमान्य तिलक द्वारा लिखित ‘गीता रहस्य’ नामक पुस्तक दी। इस अनमोल पूँजी के साथ नारायण राव ग्वालियर आ गये।

ग्वालियर उनके लिए नितान्त अपरिचित नगर था। वहाँ उनके प्रारम्भिक दिन किन कठिनाइयों में बीते, इसकी चर्चा कभी नारायण राव ने नहीं की। कितने दिन वे भूखे रहे और कितनी रात खुले मैदान में या स्टेशन पर सोये, कहना कठिन है; पर अपने परिश्रम से उन्होंने ग्वालियर में संघ का बीज बो दिया, जो कुछ ही समय में विशाल पेड़ बनकर लहलहाने लगा। 

उनके प्रयास से केवल नगर ही नहीं, तो निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्र में भी अनेक शाखाएँ खुल गयीं। इसके बाद उन्होंने भिण्ड, मुरैना, शिवपुरी, गुना जैसे नगरों में प्रवास किया और वहाँ भी शाखाओं की स्थापना की।उन दिनों ग्वालियर की शाखा पर जो स्वयंसेवक आते थे, उनमें से एक थे अटल बिहारी वाजपेयी, जो आगे चलकर सांसद, विदेश मंत्री और फिर भारत के प्रधानमन्त्री बने। उन्होंने अपने सामाजिक जीवन पर नारायण राव तर्टे के प्रभाव को स्पष्ट रूप से कई बार स्वीकार किया है। 

प्रधानमन्त्री बनने के बाद जब वे नागपुर आये, तो संघ कार्यालय आकर उन्होंने नारायण राव से आशीर्वाद लिया। हिन्दुस्थान समाचार के संस्थापक तथा विश्व हिन्दू परिषद के संस्थापक महामन्त्री दादासाहब आप्टे को भी मुम्बई में शाखा पर लाने का श्रेय नारायण राव को ही है।

कुछ समय नारायण राव ने उत्तर प्रदेश के पीलीभीत में भी कार्य किया। जब भारतीय भाषाओं में ‘हिन्दुस्थान समाचार’ नामक समाचार संस्था की स्थापना की गयी, तो नारायण राव को उस काम में लगाया गया। 

उन्हें जो भी काम संगठन की ओर से दिया गया, उसे पूरे मनोयोग से उन्होंने किया। अधिक अवस्था होने पर जब उनका शरीर परिश्रम करने योग्य नहीं रहा, तो वे नागपुर में महाल के संघ कार्यालय में रहने लगे।

महाल में ही वह ‘मोहिते का बाड़ा’ भी है, जहाँ डा. हेडगेवार ने पहली शाखा लगायी थी। अपने अन्तिम समय तक नारायण राव उसी शाखा में जाते रहे। एक अगस्त, 2005 को उस महान कर्मयोगी ने अपने सक्रिय और सार्थक जीवन को विराम दे दिया।
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13 मार्च/जन्म-दिवस

सेवाभावी डा. रामेश्वर दयाल पुरंग

डा. रामेश्वर दयाल पुरंग का जन्म 13 मार्च, 1918 को ग्राम आदमपुर (जिला जालंधर, पंजाब) में हुआ था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.बी.बी.एस. करते समय उन्होंने संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के पहली बार दर्शन किये। वे उन दिनों वहां शाखा विस्तार के लिए आये हुए थे। युवा रामेश्वर दयाल ने जब उनके प्रखर विचार सुने, तो वे सदा के लिए संघ से जुड़ गये। 

1940 में नागपुर के जिस संघ शिक्षा वर्ग में डा. हेडगेवार ने अपने जीवन का अंतिम भाषण दिया था, उसमें रामेश्वर दयाल जी भी उपस्थित थे। संघ कार्य विस्तार के लिए डा. हेडगेवार के मन की तड़प उस भाषण में प्रकट हुई थी। इसका डा. पुरंग के मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने जीवन भर संघ कार्य करने का निश्चय कर लिया।

1941 में शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में चिकित्सा कार्य प्रारम्भ किया। उन दिनों वहां आचार्य गिरिराज किशोर जी संघ के प्रचारक होकर आये थे। समवयस्क होने के कारण दोनों में अच्छी मित्रता हो गयी। डा. पुरंग चिकित्सालय के बाद का अपना पूरा समय शाखा के विस्तार में लगाने लगे। इससे मैनपुरी जिले में सुदूर गांवों तक शाखाओं का विस्तार हो गया। 

डा. पुरंग ने चिकित्सा कार्य को केवल धनोपार्जन का साधन नहीं माना। उनके मन में समाजसेवा की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। इस कारण उनकी ख्याति तेजी से सब ओर फैल गयी। दूर-दूर से लोग उनसे चिकित्सा कराने के लिए आते थे। संघ कार्य में सक्रियता के कारण उन्हें विभिन्न दायित्व दिये गये। लम्बे समय तक वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रान्त संघचालक रहे। 

डा. पुरंग गोसेवा एवं गोरक्षा के प्रबल पक्षधर थे। 1966 में गोहत्या बंद करने की मांग को लेकर चलाये गये हस्ताक्षर अभियान में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। वे रात में गांवों में जाते थे तथा लोगों को जगा-जगाकर हस्ताक्षर कराते थे। 1967 में जब गोरक्षा के लिए सत्याग्रह हुआ, तब वे जेल भी गये। 1975 में जब देश में आपातकाल थोपकर संघ पर प्रतिबंध लगाया गया, तो उन्होंने झुकने की बजाय सहर्ष कारावास में जाना स्वीकार किया। 

डा. पुरंग ने मैनपुरी जिले में पूर्व सैनिकों का एक अच्छा संगठन खड़ा किया। उन्होंने देखा कि इनमें जहां एक ओर देशभक्ति तथा अनुशासन भरपूर होता है, वहां छुआछूत और खानपान में भेदभाव भी नहीं होता। उन्हें लगा कि ऐसे लोग समाज और संगठन के लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं। 

आगे चलकर संघ ने अखिल भारतीय स्तर पर ‘पूर्व सैनिक सेवा परिषद’ नामक संगठन बनाया। इसके पीछे भी प्रेरणा डा. पुरंग की ही थी। आज तो इस संगठन का विस्तार पूरे देश में हो गया है। यह पूर्व सैनिकों को संगठित कर बलिदानी सैनिकों के परिवार तथा गांवों के विकास के लिए काम कर रहा है।

नब्बे के दशक में जब ‘श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन’ ने तेजी पकड़ी, तब वे ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के पश्चिमांचल क्षेत्र के अध्यक्ष थे। अतः उन्होंने सहर्ष एक बार फिर जेल-यात्रा की। इसके बाद विश्व हिन्दू परिषद के उपाध्यक्ष तथा गोसेवा समिति के अध्यक्ष के नाते भी उन्होंने काम किया। 

मैनपुरी की हर सामाजिक गतिविधि में डा. पुरंग की सक्रिय भूमिका रहती थी। वे मैनपुरी के सरस्वती शिशु मंदिर के संस्थापक तथा आचार्य रामरतन पुरंग सरस्वती शिशु मंदिर के संरक्षक थे। 12 मार्च, 2004 को वृद्धावस्था के कारण दिल्ली में अपने पुत्र के निवास पर उनका देहांत हुआ।

(संदर्भ : हिन्दू विश्व, अपै्रल द्वितीय/आर्गनाइजर 4.4.2004)
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14 मार्च/बलिदान-दिवस          

पेशावर पर भगवा लहराया

पेशावर पर बलपूर्वक कब्जा कर अफगानी अजीम खाँ की सेनाएँ नौशेहरा मैदान तक आ चुकी थीं। यह सुनकर महाराजा रणजीत सिंह ने हरिसिंह नलवा एवं दीवान कृपाराम के नेतृत्व में उनका मुकाबला करने को स्वराजी सैनिकों के जत्थे खैराबाद भेज दिये। महाराजा के साथ बाबा फूलासिंह अटक नदी के किनारे डट गये; पर शत्रुओं ने अटक पर बना एकमात्र पुल बारूद से उड़ा दिया। इससे दोनों समूहों का आपसी सम्पर्क कट गया।
रणजीत सिंह ने नदी पर नावों का पुल बनाने का आदेश दिया। तभी एक गुप्तचर ने समाचार दिया कि अटक पार वाले दल शत्रुओं से घिर गये हैं। उन्हें यदि शीघ्र सहायता नहीं मिली, तो सबकी जान जा सकती है। रणजीत सिंह ने चिन्तित नजरों से बाबा फूलासिंह की ओर देखा। बाबा ने संकेत समझकर अपना सिर झुका दिया। फिर घोड़े पर बैठे-बैठे ही उन्होंने हाथ को ऊँचा उठाकर अपने सैनिकों को आगे बढ़ने का आदेश दिया। 
आदेश पाकर 500 निहंग साथियों ने तेज बहती नदी में घोड़े उतार दिये। एक ओर नदी की विकराल धारा थी, तो दूसरी ओर शेर जैसे कलेजे वाले साहसी वीर। पानी के जहाज की तरह धाराओं को चीरकर वे अफगानों पर टूट पड़े। शत्रु सैनिक सिर पर पाँव रखकर भागे। जहाँगीरा का दुर्ग भी सिक्ख सैनिकों के पास आ गया। यह सुनकर अजीम खाँ बहुत आगबबूला हुआ। उसने सैनिकों को बहुत भला-बुरा कहा। कुरान की कसम दिलाकर फिर से लड़ने और इस अपमान का बदला लेने को तैयार किया।
अफगान सेनापति मुहम्मद खान लुण्डा ने तीस हजार सैनिकों के साथ तरकी की पहाडि़यों पर मोर्चा बाँधा। रणजीत सिंह ने फिर से बाबा फूलासिंह के नेतृत्व में 1,500 सैनिक भेज दिये। लेकिन फूलासिंह जरा भी चिन्तित नहीं हुए। उन्होंने सैनिकों को ललकारा, ‘‘गुरू गोविन्द सिंह ने चिडि़यों से बाज लड़ाने की बात कही थी। आज उसी का अवसर आया है। मत भूलो कि एक-एक स्वराजी सैनिक सवा लाख के बराबर होता है। हमें भगवा फहराकर स्वराज्य की सीमाएँ पेशावर तक पहुँचानी हैं।’’
फूलासिंह की घनगर्जना से सैनिकों का खून गरम हो गया और उनमें उत्साह की लहर दौड़ गयी। घनघोर संग्राम शुरू हो गया। तलवारें आपस में टकराने लगीं। निहंगों के जौहर देखते ही बनते थे। शीघ्र ही महाराजा ने एक और बड़ी टुकड़ी इनकी सहायता के लिए भेज दी। इससे सिक्ख सैनिकों का हौसला बढ़ गया। वे ‘बोले सो निहाल, सत् श्री अकाल’ कहकर शत्रुओं पर टूट पड़े। अफगान सैनिक सिर पर पांव रखकर कहकर भागने लगे।
वह 14 मार्च, 1823 का दिन था। बाबा फूलासिंह की तलवार मुसलमानों पर कहर ढा रही थी। इसी बीच उन्हें एक गोली आ लगी। कुछ सैनिक उनकी सहायता को आगे बढ़े; पर बाबा चिल्लाये, ‘‘मेरी चिन्ता मत करो। अपना कर्तव्य निभाओ। याद है न, हमें पेशावर पर भगवा झण्डा फहराना है।’’
इसी समय एक और गोली ने उनके घोड़े को भी गिरा दिया। अब बाबा हाथी पर चढ़ गये। तभी एक अफगान सैनिक ने एक साथ कई गोलियाँ बाबा की ओर चलायीं। इस हमले को वे नहीं झेल पाये। बाबा के बलिदान होते ही सिक्ख सैनिकों ने पूरी ताकत से हमला बोल दिया। अफगान सेना पीछे हटने लगी। कुछ समय बाद अन्ततः पेशावर पर भगवा फहरा ही गया।

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14 मार्च/जन्म-दिवस

वैदिक गणित के संन्यासी प्रवक्ता

संन्यासी को देखकर लोगों के मन में उनके त्याग तथा अध्यात्म के प्रति श्रद्धा जाग्रत होती है। कई बार लोग इन्हें कम पढ़ा-लिखा समझते हैं; पर इनमें से अनेक उच्च शिक्षा विभूषित होते हैं। आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक श्री गोवर्धन पीठ (जगन्नाथ पुरी) के जगद्गुरु शंकराचार्य पूज्य श्री भारती कृष्णतीर्थ जी ऐसी ही विभूति थे।

14 मार्च, 1884 को तिन्निवेलि, मद्रास (तमिलनाडु) में तहसीलदार श्री पी. नृसिंह शास्त्री के घर जन्मे इस बालक का नाम वेंकटरमन रखा गया। यह पूरा परिवार बहुत शिक्षित और प्रतिष्ठित था। वेंकटरमन के चाचा श्री चंद्रशेखर शास्त्री महाराजा कालिज, विजय नगर में प्राचार्य थे। इनके परदादा श्री रंगनाथ शास्त्री मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके थे। 

कुशाग्र बुद्धि के स्वामी वेंकटरमन सदा कक्षा में प्रथम आते थे। गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र तथा भाषा शास्त्र में उनकी विशेष रुचि थी। धाराप्रवाह संस्कृत बोलने के कारण 15 वर्ष की किशोरावस्था में उन्हें मद्रास संस्कृत संस्थान ने ‘सरस्वती’ जैसी उच्च उपाधि से विभूषित किया। 1903 में उन्होंने अमरीकन कालिज ऑफ़ साइन्स, रोचेस्टर के मुम्बई केन्द्र से एम.ए. किया। 

1904 में केवल 20 वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक साथ सात विषयों (संस्कृत, दर्शन, अंग्रेजी, गणित, इतिहास, भौतिकी एवं खगोल) में एम.ए की परीक्षा उच्चतम सम्मान के साथ उत्तीर्ण कीं। यह कीर्तिमान सम्भवतः आज तक अखंडित है।

समाज सेवा की ओर रुचि होने के कारण उन्होंने गोपालकृष्ण गोखले के साथ राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन तथा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की समस्याओं के लिए काम किया। 1908 में वे राजमहेन्द्रि में नवीन कालिज के प्राचार्य बने; पर उनका अधिक रुझान अध्यात्म की ओर था। अतः 1911 में वे शृंगेरी पीठ के पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य श्री नृसिंह भारती के पास मैसूर पहुँच गये और आठ साल तक वेदान्त दर्शन का गहन अध्ययन किया। 

इसके साथ उन्होंने ध्यान, योग एवं ब्रह्म साधना का भी भरपूर अभ्यास किया। इस दौरान वे स्थानीय विद्यालयों और आश्रमों में संस्कृत एवं दर्शनशास्त्र भी पढ़ाते रहेे। अमलनेर के शंकर दर्शन संस्थान में आद्य शंकराचार्य के दर्शन पर दिये गये उनके 16 भाषण बहुत प्रसिद्ध हैं। मुंबई, पुणे और खानदेश के कई महाविद्यालयों में उन्होंने अतिथि प्राध्यापक के नाते भी व्याख्यान दिये।

4 जुलाई, 1919 को शारदा पीठ के शंकराचार्य त्रिविक्रम तीर्थ जी ने उन्हें काशी में संन्यास की दीक्षा देकर उनका नाम भारती कृष्ण तीर्थ रखा। 1921 में उन्हें शारदापीठ के शंकराचार्य पद पर विभूषित किया गया। 1925 में जब गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य श्री मधुसूदन तीर्थ का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया, तो उन्होंने इस पीठ का कार्यभार भी श्री भारती को ही सौंप दिया। 

1953 में उन्होंने नागपुर में ‘विश्व पुनर्निमाण संघ’ की स्थापना की। वे भारत से बाहर जाने वाले पहले शंकराचार्य थे। 1958 में अमरीका, ब्रिटेन कैलिफोर्निया आदि देशों के रेडियो, दूरदर्शन, चर्च एवं महाविद्यालयों में उनके भाषण हुए। 

स्वामी जी ने अथर्ववेद में छिपे गणित के 16 सूत्र खोज निकाले, जिनसे विशाल गणनाएँ संगणक से भी जल्दी हो जाती हैं। उन्होंने इन पर 16 ग्रन्थ लिखे, जो 1956 में हुई एक अग्नि दुर्घटना में जल गये। तब तक उनकी आंखें पूरी तरह खराब हो चुकी थीं; लेकिन उन्होंने स्मृति के आधार पर केवल डेढ़ माह में उन सूत्रों की संक्षिप्त व्याख्या कर नई पुस्तक ‘वैदिक गणित’ लिखी, जो अब उपलब्ध है।

इसके अतिरिक्त उन्होंने धर्म, विज्ञान, विश्व शांति आदि विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखीं। 1959 में उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और 2 फरवरी, 1960 को मुंबई में उन्होंने शरीर छोड़ दिया। 

(संदर्भ : पांचजन्य 1.12.2002 एवं विकीपीडिया)
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14 मार्च/जन्म-तिथि

सर्वस्व समर्पण के प्रतीक बाबू पंढरीराव कृदत्त

राजनीति का मोह छोड़ना आसान नहीं है; पर श्री गुरुजी के संकेत पर उसे छोड़कर फिर से संघ की जिम्मेदारी लेकर काम करने वाले बाबू पंढरीराव कृदत्त का जन्म 14 मार्च 1922 को धमतरी के मराठपारा में गुलाबराव बाबूराव  कृदत्त के घर हुआ था। 1935 में अपनी बाल्यवस्था में ही वे शाखा जाने लगे थे। 1938 में नागपुर संघ शिक्षा वर्ग में उन्होंने पूज्य डा0 हेडगेवार के दर्शन किये और उनकी प्रेरक वाणी सुनी। उसके बाद वे संघ से एकरूप हो गये। 

1939 में गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के बाद भी उनके जीवन की प्राथमिकता संघ कार्य ही थी। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर उन्हें बंदी बनाकर जेल भेज दिया गया। लौटकर वे राजनीति में सक्रिय हो गये। इसकी प्रेरणा उन्हें तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री भाऊसाहब भुस्कुटे से मिली। 

1952 में हुए पहले चुनाव में जनसंघ ने उन्हें धमतरी विधानसभा का प्रत्याशी बनाया। वे भारी मतों से विजयी हुए। इसके बाद 1957 और 1967 के चुनाव में भी उन्होंने कीर्तिमान बनाया। वे विरोधी दल के उपनेता चुने गये। लेकिन 1969 में सरसंघचालक श्री गुरुजी के संकेत पर वे राजनीति छोड़कर फिर से संघ के काम में लग गये। रायपुर में हुए एक संभागीय शिविर में श्री गुरुजी ने उन्हें रायपुर विभाग कार्यवाह का दायित्व दिया। वे रायपुर विभाग के सहसंघचालक और फिर छत्तीसगढ़ प्रांत के संघचालक भी रहे।

पंढरी बाबू का सारा जीवन समाज सेवा को समर्पित था। धमतरी क्षेत्र में शिक्षा के प्रसार में उनका योगदान अविस्मरणीय है। धमतरी जिले में चल रहे सरस्वती शिशु मंदिरों की स्थापना और विस्तार में वे सर्वाधिक सक्रिय रहे।  1947 में धमतरी में सरकारी हाईस्कूल बनवाने में भी उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने श्री गायत्री संस्कृत विद्यालय के लिए तेलिन सक्ति गांव में 55 एकड़ भूमि और एक पक्का भवन दान कर दिया।

दुखी व पीडि़त जनों की सेवा के लिए पंढरी बाबू सदा तत्पर रहा करते थे। धमतरी में कुष्ठ रोगियों को व्यवस्थित रूप से बसाने के लिए उन्होंने रानी बगीचा में दो एकड़ भूमि दान दी। पंढरी बाबू ने अपनी 42 एकड़ भूमि पूज्य श्री गुरुजी को समर्पित कर दी। श्री गुरुजी ने उसे भारतीय कुष्ठ निवारक संघ को देकर बाबू जी को उसका संस्थापक सदस्य बना दिया। 

पंढरी बाबू रामायण को विश्व की अनुपम कृति मानते थे। मानस के जीवन मूल्यों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने अहर्निश साधना की। वे मतान्तरण के विरोधी थे; पर परावर्तन को घर वापसी मानते थे। छत्तीसगढ़ में परावर्तन के काम को भी उन्होंने गति दी। आज तो यह अभियान देश भर में चल रहा है।

अपने देहांत से एक दिन पूर्व अस्पताल के बिस्तर पर से ही देश की संस्कृति और सभ्यता के विनाश और राष्ट्र पर आसन्न संकंटों की चिंता करते हुए 26 जनवरी के अवसर पर प्रकाशनार्थ एक पत्रक को उन्होंने अपने हस्ताक्षर से जारी किया था। यह पत्रक युवकों को सम्बोधित किया गया था। उन्होंने संगठित युवा शक्ति को ही पुराणों में उल्लिखित 'कल्कि अवतार' बताया। 

इस संदेश में अपने त्याग और तपस्या के बल पर उत्थान के मार्ग पर चलकर देश का गौरव बढ़ाने वाली भारत की महान आत्माओं को प्रणाम करते हुए भारत के पूर्व वैभव, वर्तमान समस्याओं और आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद जैसे संकटों के बारे में लिखा था। इस प्रकार अंतिम समय वे सतत सक्रिय व जागरूक थे। 

20 जनवरी, 2009 को 88 वर्ष की सुदीर्घ आयु में बाबू पंढरीराव कृदत्त का शरीरांत हुआ।                        

(संदर्भ : पांचजन्य)
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15 मार्च/जन्म-तिथि

कुश्ती को समर्पित पदम्श्री गुरु हनुमान

भारत में कुश्ती गांव-गांव में प्रचलित है। हर गांव में सुबह और शाम नवयुवक अखाड़े में व्यायाम करते मिल जाते हैं; पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की इसमें कोई पहचान नहीं थी। इस पहचान को दिलाने का श्रेय गुरु हनुमान को है। उनका असली नाम विजय पाल था; पर आगे चलकर यह नाम लुप्त हो गया। 

उनका जन्म राजस्थान के चिड़ावा गांव में 15 मार्च, 1901 को एक निर्धन परिवार में हुआ था। निर्धनता और परिवार में शिक्षा के प्रति जागरूकता के अभाव में उनकी विद्यालयीन शिक्षा बिल्कुल नहीं हुई; पर गांव के अखाड़े में कुश्ती के लिए वे नियमित रूप से जाते थे। 

1920 में रोजगार की तलाश में दिल्ली आकर उन्होंने सब्जी मंडी में बिड़ला मिल के पास दुकान खोली। उनके कसरती शरीर को देखकर 1925 में मिल के मालिक श्री कृष्ण कुमार बिड़ला ने उन्हें एक भूखंड देकर कुश्ती के लिए नवयुवकों को तैयार करने को कहा। इस प्रकार स्थापित ‘बिड़ला मिल व्यायामशाला’ ही फिर ‘गुरु हनुमान अखाड़ा’ के नाम से लोकप्रिय हुई। 

कुश्ती को समर्पित गुरु हनुमान अविवाहित रहे। अपने शिष्यों को ही वे पुत्रवत स्नेह करते थे। वे पूर्ण शाकाहारी थे तथा इस मान्यता के विरोधी थे कि मांसाहार से ही शक्ति प्राप्त होती है। वे प्रातः तीन बजे उठ कर शिष्यों के प्रशिक्षण में लग जाते थे। उनके अखाड़े के छात्र अपना भोजन स्वयं बनाते थे। अनुशासनप्रिय गुरु जी दिनचर्या में जरा भी ढिलाई पसंद नहीं करते थे।

गुरु जी स्वाधीनता संग्राम में भी सक्रिय थे। अनेक फरार क्रांतिकारी उनके पास आश्रय पाते थे। 1940 में एक क्रांतिकारी की तलाश में पुलिस ने अखाड़े में छापा मारा; पर गुरु जी ने उसे पुलिस को नहीं सौंपा। इससे चिढ़कर पुलिस उन्हें ही पकड़कर ले गयी। उन्हें अमानवीय यातनाएं दी गयीं। कई घंटे तक कुएं में उल्टा लटका कर रखा गया; पर गुरु जी विचलित नहीं हुए।

1947 के बाद उनका अखाड़ा उत्तर भारत के पहलवानों का तीर्थ बन गया; पर गुरु जी ने उसे कभी व्यावसायिक नहीं होने दिया। धीरे-धीरे उनके शिष्य खेल प्रतियोगिताएं जीतने लगे; पर अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के नियम अलग थे। वहां कुश्ती भी रबड़ के गद्दों पर होती थी। गुरु हनुमान ने उन नियमों को समझकर अपने पहलवानों को वैसा ही प्रशिक्षण दिया। इससे उनके शिष्य उन प्रतियोगिताओं में भी स्थान पाने लगे। 

गुरु जी ने कलाई पकड़ जैसे अनेक नये दांव भी विकसित किये। विपक्षी काफी प्रयास के बाद भी जब कलाई नहीं छुड़ा पाता था, तो वह मानसिक रूप से कमजोर पड़ जाता था। इसी समय वे उसे चित कर देते थे। उनका यह दांव बहुत लोकप्रिय हुआ।

उनके अखाड़े को विशेष प्रसिद्धि तब मिली, जब 1972 के राष्ट्रमंडल खेलों में उनके शिष्य वेदप्रकाश, प्रेमनाथ और सुदेश कुमार ने स्वर्ण पदक जीता। इसी प्रकार 1982 के एशियायी खेलों में उनके शिष्य सतपाल एवं करतार सिंह ने स्वर्ण पदक जीता। 1986 में भी उनके शिष्य दो स्वर्ण पदक लाये। सात शिष्यों ने भारत की सर्वश्रेष्ठ कुश्ती प्रतियोगिताएं जीतीं। 

उनके आठ शिष्यों को भारत में खेल के लिए दिया जाने वाला सर्वश्रेष्ठ ‘अर्जुन पुरस्कार’ मिला। 1988 में भारत सरकार ने उन्हें खेल प्रशिक्षकों को दिये जाने वाले ‘द्रोणाचार्य पुरस्कार’ से तथा 1980 में ‘पदम्श्री’ से सम्मानित किया।

24 मई, 1999 को गुरु जी गंगा स्नान के लिए हरिद्वार जा रहे थे। मार्ग में मेरठ के निकट उनकी कार का टायर फटने से वह एक पेड़ से टकरा गयी। इस दुर्घटना में ही उनका देहांत हो गया। उनके शिष्य तथा नये पहलवान आज भी उस अखाड़े की मिट्टी को पवित्र मानकर माथे से लगाते हैं।
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15 मार्च/जन्म-दिवस

समर्पित व्यक्तित्व सुनील उपाध्याय

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों से प्रेरित सैकड़ों संगठनों मंे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् का विशेष स्थान है। अन्य संगठनों में जहाँ सभी आयु वर्ग के लोग होते हैं, वहाँ विद्यार्थी परिषद् शुद्ध युवाओं का संगठन है। परिषद के काम को हिमाचल प्रदेश में सुदृढ़ आधार देने वाले सुनील उपाध्याय का जन्म 15 मार्च, 1959 को जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में हुआ था। 

वे श्री विद्या प्रकाश एवं श्रीमती पद्मावती देवी की छठी सन्तान थे। बचपन से ही उनमें नेतृत्व करने की अपार क्षमता थी। 1975 में जब देश में आपातकाल लगा, तो वे कक्षा दस के छात्र थे। कुछ ही दिनों बाद उनके बड़े भाई का विवाह भी होने वाला था। इसके बावजूद उन्होंने संगठन की योजना से सत्याग्रह किया और नौ माह तक जेल में रहे।

बी.ए. में पढ़ते समय कठुआ स्थित बिड़ला समूह की एक कपड़ा मिल में मजदूरों ने हड़ताल की। मालिकों ने जब मजदूरों का दमन शुरू किया, तो सुनील अपने साथियों के साथ उस हड़ताल में कूद गये और मालिकों को झुकने के लिए मजबूर कर दिया। उस समय उन पर जम्मू-कश्मीर का विद्यार्थी परिषद् का काम था। उन्होंने वहाँ भी अनेक छात्र आन्दोलनों का नेतृत्व किया।  

सुनील उपाध्याय के मन में इस बात को लेकर बहुत बेचैनी थी कि पावन देवभूमि हिमालय में कम्युनिस्ट अपने पैर फैला रहे हैं। उन्होंने अपनी पीड़ा वरिष्ठ अधिकारियों के सम्मुख रखी। उन्होंने सुनील जी को हिमाचल प्रदेश जाकर विद्यार्थी परिषद के काम को मजबूत करने को कहा।

सुनील जी को चुनौतीपूर्ण काम करना पसंद था। अतः वे तुरन्त तैयार हो गये और इसके बाद वे अन्तिम साँस तक हिमाचल में ही काम करते रहे। 1979-80 में हिमाचल प्रदेश में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सर्वाधिक शक्तिशाली संगठन बन कर उभरा। इसका श्रेय निःसन्देह सुनील उपाध्याय के परिश्रम, समर्पण और कार्य कुशलता को जाता है। 

1981 में हिमाचल विश्वविद्यालय के प्रबन्धकों ने वामपन्थियों से मिलकर एम.बी.ए. की परीक्षा में धाँधली की। विद्यार्थी परिषद ने इसका कड़ा विरोध किया। जब प्रशासन के कान पर जूँ नहीं रेंगी, तो सुनील उपाध्याय अपने कुछ साथियों के साथ आमरण अनशन पर बैठ गये। आठ दिन बाद प्रशासन को झुकना पड़ा। इसी प्रकार छात्रावासों की कमी के विरुद्ध हुए आन्दोलन में भी उन्हें सफलता मिली। इससे विद्यार्थी परिषद का डंका पूरे विश्वविद्यालय में बजने लगा और 1982 के चुनावों में परिषद को अच्छी सफलता मिली।

पर इस धुआँधार परिश्रम का सुनील जी के स्वास्थ्य पर बहुत खराब असर हुआ। रात में सफर, दिन में काम, भोजन की भी कोई उचित व्यवस्था नहीं। ऐसे में परिषद के 1985 में पटना में हुए अधिवेशन में उनके मुँह से खून निकलने लगा। जाँच से पता लगा कि उनके फेफड़े खराब हो चुके हैं। उन्हें तुरन्त दिल्ली और फिर वहाँ से मुम्बई भेजा गया। आठ महीने तक मुम्बई के अस्पताल में जीवन और मृत्यु से वे संघर्ष करते रहे।

बीमारी में भी उनके मन में केवल यही विचार था कि हिमाचल प्रदेश में विद्यार्थी परिषद के काम को सबल कैसे बनाया जा सकता है। वे अपनी सेवा में लगे कार्यकर्ताओं से इसी बारे में बोलते रहते थे। मृत्यु के इतने निकट आकर भी उन्हें मृत्यु से भय नहीं था। 

12 नवम्बर, 1985 (दीपावली) की प्रातः चार बजे उनका जीवन दीप सदा के लिए बुझ गया; पर हिमाचल प्रदेश में विद्यार्थी परिषद के दीप को वे सदा के लिए आलोकित कर गये।

1 टिप्पणी:

  1. 11 मार्च/बलिदान-दिवस

    अमर बलिदानी छत्रपति सम्भाजी
    उनका जन्म 14 मई, 1657 को मां सोयराबाई की कोख से हुआ था। saibai का नाम उनकी माता के लिए लिखा जाता है ।
    कृपया स्पष्ट करें ।

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