उपेक्षित समाज सुधारक श्रीधर पंत तिलक
स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में लोकमान्य बालगंगाधर तिलक का बहुत बड़ा स्थान है; पर कई मामलों में वे घोर पुरातनपंथी भी थे। इस कारण उनके एक पुत्र का जीवन बहुत कष्टमय बीता। एक मार्च, 1896 को जन्मे श्रीधर पंत तिलक बचपन से ही खुले विचारों के थे। वे छुआछूत या ऊंचनीच जैसे भेदभाव को नहीं मानते थे। इस कारण वे डा. अम्बेडकर के समर्थक बन गये।
श्रीधर पंत जातिभेद के खिलाफ लिखते रहते थे। जन्मजात वर्ण व्यवस्था के विरोधी होने के कारण उन्होंने अपने पुश्तैनी घर पर ‘चातुर्वण्य विध्वंसक समिति’ का बोर्ड लगाया। उन दिनों महाराष्ट्र में जातिविरोधी आंदोलन का जोर था। उसके अधिकांश नेता अनुसूचित जाति के थे। श्रीधर पंत की उन सबसे अच्छी मित्रता थी। वे सब एक-दूसरे के घर मुक्तभाव से आते-जाते थे।
डा. अम्बेडकर ने ‘समाज समता संघ’ की स्थापना की थी। आठ अपै्रल, 1928 को श्रीधर पंत ने गायकवाड़ भवन में इसकी शाखा खोली। इसके अध्यक्ष श्री श्रीपतराव शिंदे तथा सचिव श्री पां.ना. राजभोज बनाये गये। इस अवसर पर तिलक जी के दीवानखाने में आकर सबने अल्पाहार किया। डा. अम्बेडकर ने कहा, ‘‘समता संघ के लिए स्थान देकर श्रीधर पंत ने समता तत्व को समर्थन देने का अद्भुत धैर्य दिखाया है।’’ श्रीधर पंत ने कहा, ‘‘हिन्दू समाज की स्थिति कीचड़ में फंसे गजेन्द्र जैसी है। उसे वर्णभेद का मगर ग्रस रहा है। समाज समता संघ रूपी विष्णु का अवतार इस गजेन्द्र को बाहर निकालने के लिए हुआ है।
चातुर्वण्य की असमानता हिन्दू समाज में है। रूस की तरह आर्थिक समानता का प्रचार करने वाला बोल्शेविक आंदोलन चलाने का हमारा विचार नहीं है। इस संघ के द्वारा सहभोज आदि कार्यक्रमों के लिए मेरा दीवानखाना खुला है। किसी अन्य स्थान की व्यवस्था होने तक अंतरजातीय विवाह के लिए भी यह स्थान उपलब्ध रहेगा। इसके लिए मेरे भाई की भी सहमति है।’’
श्रीधर पंत केवल शब्दवीर नहीं थे। वे जातिविरोधी सभी आयोजनों में सक्रिय रहते थे। 1926 में गणेश उत्सव के समय पुलिस के अवरोध एवं धक्का मुक्की के बीच उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर दलितों की शोभा यात्रा को गायकवाड़ भवन तक पहुंचाया। 1927 में ज्योतिबा फुले शताब्दी समारोह में कई जगह उनके भाषण हुए। वे महात्मा फुले की संस्था सत्यशोधक समाज के बड़े प्रशंसक थे। वे डा. अम्बेडकर की पाक्षिक पत्रिका ‘समता’ के संपादक मंडल में भी थे। लोकमान्य तिलक ने गणेश उत्सव शुरू किये थे। ऐसे ही श्रीधर पंत ने सहभोज तथा अस्पृश्य मेले शुरू किये। 11 मई, 1928 को समाज समता संघ की ओर से उनके घर पर सहभोज भी हुआ।
परन्तु यह सब इतना आसान नहीं था। तिलक जी के परिजन तथा शिष्य हर स्तर पर उनका विरोध करने लगे। तिलक जी के देहांत के बाद ‘केसरी’ अखबार पर किसका अधिकार रहे, इसके लिए मारपीट और मुकदमेबाजी हुई। उनके लेख भी छापने बंद कर दिये गये। इससे वे मानसिक रूप से परेशान हो गये। आर्थिक संकट भी लगातार बना हुआ था। इस कारण 25 मई, 1928 को मुंबई में रेलगाड़ी के आगे कूद कर उन्होंने आत्महत्या कर ली। अपने काम के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी अधिक थी कि उन्होंने भविष्य में किसी अछूत के घर पैदा होकर यह संघर्ष जारी रखने की इच्छा व्यक्त की।
आत्महत्या से पूर्व उन्होंने डा. अंबेडकर को पत्र लिखकर समाज समता संघ के लिए शुभकामनाएं दीं। डा. अंबेडकर ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि लोकमान्य उपाधि के असली हकदार बाल गंगाधर तिलक न होकर श्रीधर पंत तिलक थे। ब्राह्मण घर में जन्म लेने के बावजूद वे पुरोहितशाही के प्रभाव में नहीं थे। उनका जाना महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश का दुर्भाग्य है।
(विकी/डा. अम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा/374, दत्तोपंत ठेंगड़ी, अनुवाद श्रीधर पराड़कर, लोकहित प्रका. लखनऊ)
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क्रान्तिवीर गोपीमोहन साहा
पुलिस अधिकारी टेगार्ट ने अपनी रणनीति से बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन को भारी नुकसान पहुँचाया। प्रमुख क्रान्तिकारी या तो फाँसी पर चढ़ा दिये गये थे या जेलों में सड़ रहे थे। उनमें से कई को तो कालेपानी भेज दिया गया था। ऐसे समय में भी बंगाल की वीरभूमि पर 16 दिसम्बर, 1905 को गोपीमोहन साहा नामक एक क्रान्तिवीर का जन्म हुआ, जिसने टेगार्ट से बदला लेने का प्रयास किया। यद्यपि दुर्भाग्यवश उसका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।
टेगार्ट को यमलोक भेजने का निश्चय करते ही गोपीमोहन ने निशाना लगाने का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया। वह चाहता था कि उसकी एक गोली में ही उसका काम तमाम हो जाये। उसने टेगार्ट को कई बार देखा, जिससे मारते समय किसी प्रकार का भ्रम न हो। अब वह मौके की तलाश में रहने लगा।
12 जनवरी, 1924 को प्रातः सात बजे का समय था। सर्दी के कारण कोलकाता में भीषण कोहरा था। दूर से किसी को पहचानना कठिन था। ऐसे में भी गोपीमोहन अपनी धुन में टेगार्ट की तलाश में घूम रहा था। चैरंगी रोड और पार्क स्ट्रीट के चैराहे के पास उसने बिल्कुल टेगार्ट जैसा एक आदमी देखा। उसे लगा कि इतने समय से वह जिस संकल्प को मन में सँजोये है, उसके पूरा होने का समय आ गया है। उसने आव देखा न ताव, उस आदमी पर गोली चला दी; पर यह गोली चूक गयी। वह व्यक्ति मुड़कर गोपीमोहन की ओर झपटा। यह देखकर गोपी ने दूसरी गोली चलायी। यह गोली उस आदमी के सिर पर लगी।
वह वहीं धराशायी हो गया। गोपी ने सावधानीवश तीन गोली और चलायी और वहाँ फिर से भाग निकला। उसने एक टैक्सी को हाथ दिया; पर टैक्सी वाला रुका नहीं। यह देखकर गोपीमोहन ने उस पर भी गोली चला दी। गोलियों की आवाज और एक अंगे्रज को सड़क पर मरा देखकर भीड़ ने गोपीमोहन का पीछा करना शुरू कर दिया। गोपी ने फिर गोलियाँ चलायीं, इससे तीन लोग घायल हो गये; लेकिन अन्ततः वह पकड़ा गया।
पकड़े जाने पर उसे पता लगा कि उसने जिस अंग्रेज को मारा है, वह टेगार्ट नहीं अपितु उसकी शक्ल से मिलता हुआ एक व्यापारिक कम्पनी का प्रतिनिधि है। इससे गोपी को बहुत दुख हुआ कि उसके हाथ से एक निरपराध की हत्या हो गयी; पर अब कुछ नहीं हो सकता था।
न्यायालय में अपना बयान देते समय उसने टेगार्ट को व्यंग्य से कहा कि आप स्वयं को सुरक्षित मान रहे हैं; पर यह न भूलें कि जो काम मैं नहीं कर सका, उसे मेरा कोई भाई शीघ्र ही पूरा करेगा। उस पर अनेक आपराधिक धाराएँ थोपीं गयीं। इस पर उसने न्यायाधीश से कहा कि कंजूसी क्यों करते हैं, दो-चार धाराएँ और लगा दीजिये।
16 फरवरी, 1924 को उसे फाँसी की सजा सुना दी गयी। सजा सुनकर उसने गर्व से कहा, ‘‘मेरी कामना है कि मेरे रक्त की प्रत्येक बूँद भारत के हर घर में आजादी के बीज बोये। जब तक जलियाँवाला बाग और चाँदपुर जैसे काण्ड होंगे, तब तक हमारा संघर्ष भी चलता रहेगा। एक दिन ब्रिटिश शासन को अपने किये का फल अवश्य मिलेगा।’’
एक मार्च, 1924 भारत माँ के अमर सपूत गोपीमोहन साहा ने फाँसी के फन्दे को चूम लिया। मृत्यु का कोई भय न होने के कारण उस समय तक उसका वजन दो किलो बढ़ चुका था। फाँसी के बाद उसके शव को लेने के लिए गोपी के भाई के साथ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी जेल गये थे।
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स्वाभिमान के सूर्य पंडित सूर्यनारायण व्यास
उज्जैन महाकाल की नगरी है। अंग्रेजी साम्राज्य का डंका जब पूरी दुनिया में बजा, तो जी.एम.टी (ग्रीनविच मीन टाइम) को मानक मान लिया गया; पर इससे पूर्व उज्जैन से ही विश्व भर में समय निर्धारित किया जाता था। इसी उज्जैन के प्रख्यात ज्योतिषाचार्य पंडित नारायण व्यास और श्रीमती रेणुदेवी के घर में दो मार्च, 1902 को सूर्यनारायण व्यास का जन्म हुआ। वे ज्योतिष और खगोलशास्त्री के साथ ही लेखक, पत्रकार, स्वाधीनता सेनानी, इतिहासकार, पुरात्ववेत्ता आदि के रूप में भी प्रसिद्ध हुए। जिन महर्षि सांदीपनी के आश्रम में श्रीकृष्ण और बलराम पढ़े थे, यह परिवार उन्हीं का वंशज है।
श्री व्यास ने अपने पिताजी के आश्रम तथा फिर वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। आठ वर्ष की अवस्था से ही उन्होंने लेखन प्रारम्भ कर दिया था। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान 1934 में उन्होंने उज्जैन के जत्थे का नेतृत्व कर अजमेर में गिरफ्तारी दी और 16 मास जेल में रहे।
जेल से आकर जहां एक ओर वे अपने लेखन से जनता को जगाते रहे, तो दूसरी ओर सशस्त्र क्रांति में भी सहयोगी बने। क्रांतिकारियों को उनसे आर्थिक सहायता तथा उनके घर में शरण भी मिलती थी। सुभाष चंद्र बोस के आह्नान पर उन्होंने अजमेर स्थित लार्ड मेयो की मूर्ति तोड़ी और उसका एक हाथ अपने घर ले आये। 1942 में उन्होंने एक गुप्त रेडियो स्टेशन भी चलाया।
प्रख्यात ज्योतिषी होने के कारण देश-विदेश के अधिकांश बड़े नेता तथा धनपति उनसे परामर्श करते रहते थे। स्वाधीनता से पूर्व वे 144 राजघरानों के राज ज्योतिषी थे। चीन से हुए युद्ध के बारे में उनकी बात ठीक निकली। उन्होंने लालबहादुर शास्त्री को भी ताशकंद न जाने को कहा था।
व्यास जी ने फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया, इंग्लैंड, रोम आदि की यात्रा की। हिटलर ने भी उनसे अपने भविष्य के बारे में परामर्श किया था। उन्होंने 1930 में ‘आज’ में प्रकाशित एक लेख में कहा था कि भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र होगा। उन्होंने विवाह भी स्वाधीन होने के बाद 1948 में ही किया।
उज्जैन महाकवि कालिदास की नगरी है; पर वहां उनकी स्मृति में कोई स्मारक या संस्था नहीं थी। अतः उन्होंने ‘अखिल भारतीय कालिदास परिषद’ तथा ‘कालिदास अकादमी’ जैसी संस्थाएं गठित कीं। इनके माध्यम से प्रतिवर्ष ‘अखिल भारतीय कालिदास महोत्सव’ का आयोजन होता है। उनके प्रयास से सोवियत रूस में और फिर 1958 में भारत में कालिदास पर डाक टिकट जारी हुआ। 1956 में कालिदास पर फीचर फिल्म भी उनके प्रयास से ही बनी।
उज्जैन भारत के पराक्रमी सम्राट विक्रमादित्य की भी राजधानी थी। व्यास जी ने 1942 में ‘विक्रम द्विसहस्राब्दी महोत्सव अभियान’ के अन्तर्गत ‘विक्रम’ नामक पत्र निकाला तथा विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मंदिर आदि कई संस्थाओं की स्थापना की। इस अवसर पर हिन्दी, मराठी तथा अंग्रेजी में ‘विक्रम स्मृति ग्रंथ’ प्रकाशित हुआ। ‘प्रकाश पिक्चर्स’ ने पृथ्वीराज कपूर तथा रत्नमाला को लेकर विक्रमादित्य पर एक फीचर फिल्म भी बनाई।
व्यास जी हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुत्व के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने हजारों लेख, निबन्ध, व्यंग्य, अनुवाद, यात्रा वृतांत आदि लिखे। 1958 में उन्हें राष्ट्रपति की ओर से ‘पद्मभूषण’ अलंकरण प्रदान किया गया; पर अंग्रेजी को लगातार जारी रखने वाले विधेयक के विरोध में उन्होंने 1967 में इसे लौटा दिया।
सैकड़ों संस्थाओं द्वारा सम्मानित श्री व्यास देश के गौरव थे। उज्जैन की हर गतिविधि में उनकी सक्रिय भूमिका रहती थी। कालिदास तथा विक्रमादित्य के नाम पर बनी संस्थाओं के संचालन के लिए उन्होंने पूर्वजों द्वारा संचित निधि भी खुले हाथ से खर्च की। 22 जून, 1976 को ऐसे विद्वान मनीषी का देहांत हुआ।
(संदर्भ : जन्मशती पर प्रकाशित साहित्य)
निर्धनों के वास्तुकार लारी बेकर
दुनिया में ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जिनमें प्रतिभा के साथ-साथ सेवा और समर्पण का भाव भी उतना ही प्रबल हो। इंग्लैंड के बरमिंघम में दो मार्च, 1917 को जन्मे भवन निर्माता एवं वास्तुकार लारेन्स विल्फ्रेड (लारी) बेकर ऐसे ही व्यक्ति थे, जिन्होंने कम खर्च में पर्यावरण के अनुकूल भवन बनाये।
1943 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय जिस पानी के जहाज पर वे तैनात थे, उसे किसी कारण से कुछ दिन के लिए मुम्बई में रुकना पड़ा। तब खाली समय में मुम्बई और उसके आसपास घूमकर उन्होंने भारतीय वास्तुविज्ञान को समझने का प्रयास किया। उन्हीं दिनों उनकी भेंट गांधी जी से हुई। इससे उनके जीवन में भारी परिवर्तन हुआ। दूसरी बार वे कुष्ठ निवारण प्रकल्प के अन्तर्गत भारत आये। तब उन्हें भारत के लोग और वातावरण इतना अच्छा लगा कि वे सदा के लिए यहीं के होकर रह गये।
बेकर ने कुष्ठ रोगियों के बीच काम करते समय भारत में निर्धन लोगों के लिए मकानों के बारे में व्यापक चिन्तन किया। उनकी दृढ़ धारणा थी कि यहाँ अत्यधिक शहरीकरण उचित नहीं है तथा भवन में सीमेंट, लोहा आदि सामग्री 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। भवन को जीवन्त इकाई मानकर इसके निर्माण को वे प्रकृति के साथ तादात्मय निर्माण की कला कहते थे।
बेकर ने भारत में हजारों आवासीय भवन, विद्यालय, चिकित्सालय, पूजा स्थलों आदि के नक्शे बनाये। उनके बनाये भवन खुले हुए और हर मौसम के अनुकूल हैं। उन्होंने भवनों में बिना चैखट के दरवाजे, खिड़की और रोशनदान लगाये। इससे उनमें प्राकृतिक रूप से हवा और रोशनी खूब आती है।
वे लोहे, सीमेंट या कंक्रीट के बदले स्थानीय स्तर पर उपलब्ध मिट्टी, गारा, ईंट, पत्थर, खपरैल, नारियल, जूट आदि का प्रयोग करते थे। अंग्रेजी पढ़े आधुनिक वास्तुकारों ने उनका खूब मजाक बनाया; पर समय की कसौटी पर बेकर की धारणा ही सत्य सिद्ध हुई। अब सबको ध्यान आ रहा है कि कृत्रिम चीजों के प्रयोग से भवन-निर्माण का खर्च लगातार बढ़ रहा है और पर्यावरण गम्भीर संकट मंे है। भूकम्प, बाढ़ या अन्य किसी प्राकृतिक आपदा के समय इन भवनों में रहने वालों को ही अधिक हानि होती है।
आज बढ़ते शहरीकरण के कारण दानवाकार बहुमंजिले भवन बन रहे हैं। उनकी मजबूती के लिए लोहे और सीमेंट का अत्यधिक प्रयोग हो रहा है। इन उद्योगों के बढ़ने से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन भी बहुत हो रहा है, जिससे मौसम में असन्तुलन स्पष्ट दिखाई दे रहा है। निर्धनों के वास्तुकार कहलाने वाले लारी बेकर ने झुग्गी बस्तियों के विकास, कचरा निपटान, जल संग्रह, भूकम्परोधी भवनों के शिल्प पर अनेक पुस्तकें भी लिखीं।
वास्तुशिल्प में योगदान के लिए उन्हें कई राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों तथा सम्मानों से अलंकृत किया गया। अपनी पत्नी डा. ऐलिजाबेथ जेकब के साथ उन्होंने 1970 में केरल के त्रिवेन्द्रम में बसने का निर्णय लिया। उन्होंने भारतीय नागरिकता के लिए भी आवेदन किया, जो उन्हें बड़ी कठिनाई से 1989 में मिली। ईसाई होते हुए भी वे हिन्दू संस्कृति से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने अपने बेटे का नाम तिलक और बेटियों के नाम विद्या और हृदि रखा।
भारत सरकार ने उनकी सेवाओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए 1990 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। विदेश में जन्म लेकर भी भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले लारी बेकर ने 90 वर्ष की सुदीर्घ आयु में एक अपै्रल, 2007 कोे अन्तिम साँस ली।
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2 मार्च/जन्म-दिवस
राष्ट्रवादी इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश ओक
श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक का नाम राष्ट्रवादी इतिहासकारों में बहुत सम्मानित है। यद्यपि डिग्रीधारी इतिहासकार उन्हें मान्यता नहीं देते थे; क्योंकि उन्होंने इतिहास का विधिवत शिक्षण या अध्यापन नहीं किया था; पर उन्हें ऐसी दृष्टि प्राप्त थी, जिससे उन्होंने विश्व के इतिहास में खलबली मचा दी।
उनका जन्म 2 मार्च, 1917 को मध्य प्रदेश के इन्दौर नगर में श्री नागेश ओक एवं श्रीमती जानकी बाई के घर में हुआ था। तीन भाइयों में मंझले पुरुषोत्तम ओक की प्रतिभा के लक्षण बचपन से ही प्रकट होने लगे थे। उन्होंने 1933 में मैट्रिक, 1937 में बी.ए., 1939 में एम.ए. तथा 1940 में कानून की परीक्षा मुम्बई विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण की।
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ होने पर श्री ओक खड़की स्थित सैन्य प्रतिष्ठान में भर्ती हो गये। वहाँ आठ मास के प्रशिक्षण के बाद उन्हें सिंगापुर भेज दिया गया। वहाँ वे जापानियों द्वारा बन्दी बना लिये गये। पर कुछ समय बाद जब भारतीय सैनिकों ने जापान का सहयोग करने का निश्चय किया, तो सभी 60,000 बन्दियों को छोड़ दिया गया। श्री ओक सेगांव (वियतनाम) रेडियो से भारत की स्वतन्त्रता के लिए प्रचार करते रहे। आगे चलकर वे नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के निकट सहयोगी बन गये।
स्वतन्त्रता के बाद श्री ओक पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरे। 1947 से 1953 तक वे हिन्दुस्तान टाइम्स एवं स्टेट्समैन के दिल्ली में संवाददाता रहे। 1954 से 1957 तक उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय में प्रचार अधिकारी के नाते कार्य किया। फिर 1959 से 1974 तक दिल्ली स्थित अमरीकी दूतावास की सूचना सेवा में उप सम्पादक का काम सँभाला। इन सब कामों के बीच श्री ओक अपनी रुचि के अनुकूल इतिहास विषयक लेखन करते रहे।
श्री ओक का मत था कि भारत में जिन भवनों को मुगलकालीन निर्माण बताते हैं, वह सब भारतीय हिन्दू शासकों द्वारा निर्मित हैं। मुस्लिम शासकों ने उन पर कब्जा किया और कुछ फेरबदल कर उसे अपने नाम से प्रचारित कर दिया। स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार ने भी सच को सदा दबा कर रखा; पर श्री ओक ने ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये, जिन्हें आज तक कोई काट नहीं सका है।
श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक ने दो पुस्तकें मराठी में लिखीं। ‘हिन्दुस्थानाचे दुसरे स्वातन्त्रय युद्ध’ तथा ‘नेताजीच्या सहवासाल’। हिन्दी में उनकी पुस्तकें हैं: भारतीय इतिहास की भयंकर भूलें; विश्व इतिहास के विलुप्त अध्याय; कौन कहता है अकबर महान था; दिल्ली का लाल किला हिन्दू कोट है; लखनऊ के इमामबाड़े हिन्दू राजमहल हैं; फतेहपुर सीकरी एक हिन्दू नगर।
आगरा का लाल किला हिन्दू भवन है; भारत में मुस्लिम सुल्तान (भाग 1 व 2); वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास (4 भाग); ताजमहल मंदिर भवन है; ताजमहल तेजो महालय शिव मन्दिर है; ग्रेट ब्रिटेन हिन्दू देश था; आंग्ल भाषा (शब्दकोश) हास्यास्पद है; क्रिश्चियनिटी कृष्ण नीति है। इनमें ताजमहल का सच उजागर करने वाली किताबें सर्वाधिक लोकप्रिय हुईं।
इतिहास श्री ओक का प्रिय विषय था। सरकारी सेवा से अवकाश लेने के बाद उन्होंने ‘इन्स्टीट्यूट फाॅर रिराइटिंग वर्ल्ड हिस्ट्री’ नामक संस्था की स्थापना की और उसके द्वारा नये शोध सामने लाते रहे। उनके निष्कर्ष थे कि ईसा से पूर्व सारी दुनिया में वैदिक संस्कृति और संस्कृत भाषा का ही चलन था।
4 दिसम्बर, 2007 को पुणे में उनका देहान्त हुआ।
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2 मार्च/पुण्य-तिथि
गतिशील व्यक्तित्व केशवराव देशमुख
संघ के कार्य में डा. हेडगेवार एवं श्री गुरुजी की विशेष भूमिका है। गुजरात प्रांत प्रचारक श्री केशवराव देशमुख के जीवन में इन दोनों विभूतियों का एक अद्भुत प्रकार से साक्षात्कार हुआ। उनका जन्म 1921 ई0 में डा. हेडगेवार के जन्म दिवस (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा) पर काशी में हुआ और जब उनका देहांत हुआ, उस दिन श्री गुरुजी का जन्म दिवस (विजया एकादशी) थी।
केशवराव का परिवार संघमय होने से वे बालपन में ही स्वयंसेवक बन गये। कुछ समय नौकरी के बाद 1945 में उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया और उन्हें गुजरात के प्रसिद्ध नगर सूरत में भेजा गया। केशवराव शीघ्र ही वहां की भाषा, भूषा, भोजन और परम्पराओं से एकरूप हो गये। कुछ वर्षों में सूरत और उसके आसपास कई शाखाएं प्रारम्भ हो गयीं। दक्षिण गुजरात का काम मिलने पर उन्होंने बड़ोदरा को केन्द्र बनाया। रेल और बस द्वारा सघन प्रवास कर उन्होंने वहां भी संघ को सबल आधार दिया।
वे प्रवास में एक-दो कार्यकर्ताओं को साथ रखते थे। रास्ते भर वार्ता और फिर जहां रुकते, वहां शाखा, बैठक आदि के माध्यम से उसका प्रशिक्षण चलता रहता। इस प्रकार उनकी चलती-फिरती पाठशाला में अनेक कार्यकर्ता निर्मित हुए।
1970-71 में वे गुजरात के प्रांत प्रचारक बने। योजनाबद्ध कार्य करना केशवराव की विशेषता थी। उन्होंने संघ तथा संघ विचार पर आधारित विविध कार्यों के संचालन की दूरगामी योजना बनाकर उनके लिए कार्यकर्ता उपलब्ध कराये। वनवासी कल्याण आश्रम, राजनीतिक क्षेत्र, साधना पत्रिका, सहकार आदि कई क्षेत्रों में उनके लगाये कार्यकर्ता आज भी सतत सक्रिय हैं।
1973-74 में गुजरात के भ्रष्ट शासन के विरुद्ध हुआ ‘नवनिर्माण आंदोलन’ कुछ ही समय में देशव्यापी हो गया, जिसकी परिणति 1975 में आपातकाल के रूप में हुई। गुजरात में भी अनेक कार्यकर्ता जेल गये। केशवराव ने उनके परिवारों की भरपूर चिन्ता की, जिससे जेल में बंद कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा बना रहा।
11 अगस्त, 1979 को मोरवी नगर के पास मच्छू बांध टूटने से उस क्षेत्र में भारी विनाश हुआ। केशवराव के निर्देश में स्वयंसेवकों ने जो राहत के कार्य किये, उनके कारण संघ की पूरे विश्व में प्रशंसा हुई। भयानक दुर्गंध के बीच मानव और पशुओं के शव उठाने वाले स्वयंसेवक दल को लोगों ने ‘शव सेना’ कहा। इसके बाद तीन साल तक वहां पुनर्निमाण का काम भी चला। पूरे देश के स्वयंसेवकों तथा संघप्रेमियों ने इसके लिए आर्थिक सहयोग दिया।
दो मार्च, 1981 को श्री गुरुजी के जन्मदिवस पर बड़ोदरा के कलाकार स्वयंसेवकों ने ‘स्वरांजलि’ नामक गीत-संगीतमय कार्यक्रम प्रस्तुत किया। केशवराव उसमें उपस्थित थे। बड़ोदरा लम्बे समय तक उनका केन्द्र रहा था। अतः घर-घर में उनका अच्छा परिचय था। सैकड़ों स्वयंसेवक परिवार सहित वहां आये थे। सबसे मिलकर केशवराव बहुत प्रसन्न थे। कार्यक्रम के बाद एक कार्यकर्ता के घर भोजन करने जाते समय मार्ग में जब जीप ने एक तीव्र मोड़ लिया, तो केशवराव की निश्चल देह चालक की गोद में लुढ़क गयी।
कार्यकर्ता के घर पहुंचकर चिकित्सक को बुलाया गया, तो उसने उन्हें मृत घोषित कर दिया। सैकड़ों कार्यकर्ताओं को गतिशील करने वाले केशवराव का यों अचानक प्र्र्रस्थान आज भी गुजरात के कार्यकर्ताओं के मन में एक टीस पैदा कर देता है।
आगामी वर्ष प्रतिपदा पर वे जीवन के 60 वर्ष पूर्ण करने वाले थे। षष्ठिपूर्ति के इस शुभ अवसर पर काशी में उनके परिजनों ने कुछ विशेष धार्मिक अनुष्ठान भी आयोजित किये थे; पर केशवराव उससे पूर्व ही अपने आराध्य डा. हेडगेवार और श्री गुरुजी के पास पहुंच गयेे।
(संदर्भ : ज्योतिपुंज, नरेन्द्र मोदी)
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3 मार्च/पुण्य-तिथि
स्वतन्त्रता सेनानी लाला हरदयाल
देश को स्वतन्त्र कराने की धुन में जिन्होंने अपनी और अपने परिवार की खुशियों को बलिदान कर दिया, ऐसे ही एक क्रान्तिकारी थे 14 अक्तूबर, 1884 को दिल्ली में जन्मे लाला हरदयाल। इनके पिता श्री गौरादयाल तथा माता श्रीमती भोलीरानी थीं। इन्होंने अपनी सभी परीक्षाएँ सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। बी.ए में तो उन्होंने पूरे प्रदेश में द्वितीय स्थान प्राप्त किया था।
1905 में शासकीय छात्रवृत्ति पाकर ये आॅक्सफोर्ड जाकर पढ़ने लगे। उन दिनों लन्दन में श्यामजी कृष्ण वर्मा का ‘इंडिया हाउस’ भारतीय छात्रों का मिलन केन्द्र था। बंग-भंग के विरोध में हुए आन्दोलन के समय अंग्रेजों ने जो अत्याचार किये, उन्हें सुनकर हरदयाल जी बेचैन हो उठे। उन्होंने पढ़ाई अधूरी छोड़ दी और लन्दन आकर वर्मा जी के ‘सोशियोलोजिस्ट’ नामक मासिक पत्र में स्वतन्त्रता के पक्ष में लेख लिखने लगे।
पर उनका मन तो भारत आने को छटपटा रहा था। वे विवाहित थे और उनकी पत्नी सुन्दररानी भी उनके साथ विदेश गयी थी। भारत लौटकर 23 वर्षीय हरदयाल जी ने अपनी गर्भवती पत्नी से सदा के लिए विदा ले ली और अपना पूरा समय स्वतन्त्रता प्राप्ति के प्रयास में लगाने लगे। वे सरकारी विद्यालयों एवं न्यायालयों के बहिष्कार तथा स्वभाषा और स्वदेशी के प्रचार पर जोर देते थे। इससे पुलिस एवं प्रशासन उन्हें अपनी आँख का काँटा समझने लगे।
जिन दिनों वे पंजाब के अकाल पीडि़तों की सेवा में लगे थे, तब शासन ने उनके विरुद्ध वारण्ट जारी कर दिया। जब लाला लाजपतराय जी को यह पता लगा, तो उन्होंने हरदयाल जी को भारत छोड़ने का आदेश दिया। अतः वे फ्रान्स चले आये।
फ्रान्स में उन दिनों मादाम कामा, श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा सरदार सिंह राणा भारत की क्रान्तिकारी गतिविधियों को हर प्रकार से सहयोग देते थे। उन्होंने हरदयाल जी को सम्पादक बनाकर इटली के जेनेवा शहर से ‘वन्देमातरम्’ नामक अखबार निकाला। इसने विदेशों में बसे भारतीयों के बीच स्वतन्त्रता की अलख जगाने में बड़ी भूमिका निभायी।
1910 में वे सेनफ्रान्सिस्को (कैलिफोर्निया) में अध्यापक बन गये। दो साल बाद वे स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में संस्कृत तथा हिन्दू दर्शन के प्राध्यापक नियुक्त हुए; पर उनका मुख्य ध्येय क्रान्तिकारियों के लिए धन एवं शस्त्र की व्यवस्था करना था।
23 दिसम्बर, 1912 को लार्ड हार्डिंग पर दिल्ली में बम फंेका गया। उस काण्ड में हरदयाल जी को भी पकड़ लिया गया; पर वे जमानत देकर स्विटजरलैंड, जर्मनी और फिर स्वीडर चले गये। 1927 में लन्दन आकर उन्होंने हिन्दुत्व पर एक ग्रन्थ की रचना की।
अंग्रेज जानते थे कि भारत की अनेक क्रान्तिकारी घटनाओं के सूत्र उनसे जुड़ते हैं; पर वे उनके हाथ नहीं आ रहे थे। 1938 में शासन ने उन्हें भारत आने की अनुमति दी; पर हरदयाल जी इस षड्यन्त्र को समझ गये और वापस नहीं आये। अतः अंग्रेजों ने उन्हें वहीं धोखे से जहर दिलवा दिया, जिससे तीन मार्च, 1939 को फिलाडेल्फिया में उनका देहान्त हो गया।
इस प्रकार मातृभूमि को स्वतन्त्र देखने की अधूरी अभिलाषा लिये इस क्रान्तिवीर ने विदेश में ही प्राण त्याग दिये। वे अपनी उस प्रिय पुत्री का मुँह कभी नहीं देख पाये, जिसका जन्म उनके घर छोड़ने के कुछ समय बाद हुआ था।
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3 मार्च/जन्म-दिवस
ग्राहकों के हितैषी जगदीश प्रसाद सर्राफ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक शाखा के साथ ही समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों में काम करते हैं। ऐसा ही एक क्षेत्र है ग्राहकों का। व्यक्ति बड़ा हो या छोटा, वह किसी न किसी रूप में ग्राहक अवश्य होता है। इन ग्राहकों को उनके अधिकारों की जानकारी देकर उनके हितों के बारे में जागरूक करने का काम ‘ग्राहक पंचायत’ करती है। इस संस्था के काम को बिहार में प्रारम्भ करने का श्रेय श्री जगदीश प्रसाद सर्राफ को है।
जगदीशजी का परिवार मूलतः राजस्थान का था; पर उनके पुरखे कारोबार के लिए बिहार आकर हजारीबाग, मधेपुरा आदि में बस गये। तीन मार्च, 1933 को उनकी जीवनयात्रा हजारीबाग से शुरू हुई। छात्र जीवन में ही वे स्वयंसेवक बने तथा तभी उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय ले लिया। जगदीशजी हजारीबाग तथा पलामू में जिला प्रचारक और फिर गया में विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद 1974 में उन्हें ‘ग्राहक पंचायत’ के काम को प्रारम्भ करने को कहा गया।
तब तक यह काम केवल महाराष्ट्र तक ही सीमित था। शाखा के काम से इसका कोई तालमेल भी नहीं था; पर जगदीशजी ने उस काम को ठीक से समझा तथा फिर बिहार में प्रारम्भ किया। आपातकाल के बाद जब इस कार्य को पूरे देश में विस्तार हुआ, तो उत्तर भारत के सब लोग बिहार के काम को देखकर ही प्रेरणा लेते थे। जगदीशजी बहुत परिश्रमी और कठोर जीवन बिताने में विश्वास रखते थे। आपातकाल में सब प्रचारकों को भूमिगत रहकर सत्याग्रह आंदोलन को सफल बनाने के आदेश थे। अतः वे संगठन की योजनानुसार पटना में ही रहे। पुलिस काफी प्रयास के बावजूद उन्हें पकड़ नहीं सकी।
शारीरिक में रुचि होने के कारण संघ शिक्षा वर्ग में कई प्रमुख जिम्मेदारियां उन पर रहती थीं। समता और दंड उनके प्रिय विषय थे। संघ शिक्षा वर्ग की दिनचर्या बहुत कठोर होती है। शिक्षक और व्यवस्था में लगे कार्यकर्ता तो प्रातः चार बजे से लेकर देर रात काम करते हैं; पर जगदीशजी दोपहर में भी विश्राम नहीं करते थे। वे उस समय कुछ स्वयंसेवकों को विशेष अभ्यास कराते थे। ऐसे अधिकांश स्वयंसेवक आगे चलकर फिर अच्छे शिक्षक भी बनते थे।
जब जगदीशजी को ग्राहक पंचायत का काम दिया गया, तो उन्हें शून्य में से सृष्टि खड़ी करनी थी। संस्था की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; पर उन्होंने इसकी चिन्ता न करते हुए अपने अनुभव के आधार पर ग्राहक पंचायत के बारे में कुछ पुस्तकें लिखीं तथा उन्हें बेचकर धन जुटाया। संघ से पैसा लेने की बजाय वे इसी में से प्रवास का व्यय निकालते थे तथा संस्था का भी काम चलाते थे। स्वावलम्बन तथा आत्मनिर्भरता का यह भाव उनमें जीवन भर बना रहा। आगे चलकर वे ग्राहक पंचायत के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे।
जगदीशजी के सभी भाई-भतीजे बड़े कारोबारी हैं। मधेपुरा में संघ तथा संघ परिवार की कई संस्थाओं के कार्यालयों के लिए उन्होंने ही भूमि उपलब्ध करायी। वहां एक ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ भी चलता है। ऐसे सम्पन्न परिवार के होते हुए भी उनका जीवन बहुत सादगीपूर्ण था। समाज से न्यूनतम लेकर उसे अधिकतम देने की प्रवृत्ति के वे जीवंत प्रतीक थे। जगदीशजी बहुत मितव्ययी स्वभाव के थे। वे प्रचारकों को कम खर्च में काम चलाने की विधियां भी बताते थे। सरल चित्त होने के कारण वे नाटकीयता एवं आडम्बर से दूर रहते थे। उनकी इस जीवनशैली से लोग बहुत प्रभावित थे।
30 वर्ष तक ग्राहक पंचायत तथा 50 से भी अधिक वर्ष तक प्रचारक के नाते गौरवपूर्व जीवन बिताने वाले ग्राहकों के हितैषी श्री जगदीशजी का 11 फरवरी, 2009 को पटना के संघ कार्यालय पर ही देहांत हुआ।
(पांचजन्य/जीवेश्वरजी, वि.हि.प)
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3 मार्च/जन्म-दिवसकरगिल युद्ध का सूरमा संजय कुमार
भारत माता वीरों की जननी है। इसकी कोख में एक से बढ़कर एक वीर पले हैं। ऐसा ही एक वीर है संजय कुमार, जिसने करगिल के युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाया। इसके लिए भारत के राष्ट्रपति महोदय ने उसे युद्धकाल में अनुपम शौर्य के प्रदर्शन पर दिया जाने वाला सबसे बड़ा पुरस्कार ‘परमवीर चक्र’ देकर सम्मानित किया।
संजय का जन्म ग्राम बकैण (बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश) में श्री दुर्गाराम व श्रीमती भागदेई के घर में 3 मार्च, 1976 को हुआ था। संजय ने 1998 में 13 जैक रायफल्स में लान्सनायक के रूप में सैनिक जीवन प्रारम्भ किया। कुछ समय बाद जकातखाना ग्राम की प्रमिला से उसकी मँगनी हो गयी।
इधर संजय और प्रमिला विवाह के मधुर सपने सँजो रहे थे, उधर भारत की सीमा पर रणभेरी बजने लगी। धूर्त पाकिस्तान सदा से ही भारत को आँखें दिखाता आया है। उसने अपने जन्म के तुरन्त बाद कश्मीर पर हमला किया और उसके एक बड़े भाग पर कब्जा कर लिया।
प्रधानमन्त्री नेहरू जी की भूल के कारण आज भी वह क्षेत्र उसके कब्जे में ही है। 1965 और 1971 में उसने फिर प्रयास किया; पर भारतीय वीरों ने हर बार उसे धूल चटायी। इससे वह जलभुन उठा और हर समय भारत को नीचा दिखाने का प्रयास करने लगा। ऐसा ही एक प्रयास उसने 1999 में किया।
देश की ऊँची पहाड़ी सीमाओं से भारत और पाकिस्तान के सैनिक भीषण सर्दी के दिनों में पीछे लौट जाते थे। यह प्रथा वर्षों पूर्व हुए एक समझौते के अन्तर्गत चल रही थी; पर 1999 की सर्दी कम होने पर जब भारतीय सैनिक वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि पाकिस्तानियों ने भारतीय क्षेत्र में बंकर बना लिये हैं।
कुछ समय तक तो उन्हें और लाहौर में बैठे उनके आकाओं को शान्ति से समझाने का प्रयास किया गया; पर जब बात नहीं बनी, तो भारत की ओर से भी युद्ध घोषित कर दिया गया।
संजय कुमार के दल को इस युद्ध में मश्कोह घाटी के सबसे कठिन मोर्चे पर तैनात किया गया था। भर्ती होने के एक वर्ष के भीतर ही देश के लिए कुछ करने की जिम्मेदारी मिलने से वह अत्यधिक उत्साहित थे। पाकिस्तानी सैनिक वहाँ भारी गोलाबारी कर रहे थे।
इस पर भी संजय ने हिम्मत नहीं हारी और आमने-सामने के युद्ध में उन्होंने तीन शत्रु सैनिकों को ढेर कर दिया। यद्यपि इसमें संजय स्वयं भी बुरी तरह घायल हो गये; पर घावों से बहते रक्त की चिन्ता किये बिना वह दूसरे मोर्चे पर पहुुँच गये।
दूसरा मोर्चा भी आसान नहीं था; पर संजय कुमार ने वहाँ भी अपनी राइफल से गोली बरसाते हुए सभी पाकिस्तानी सैनिकों को जहन्नुम पहुँचा दिया। जब उनके साथियों ने उस दुर्गम पहाड़ी पर तिरंगा फहराया, तो संजय का मन प्रसन्नता से नाच उठा; पर तब तक बहुत अधिक खून निकलने के कारण उनकी स्थिति खराब हो गयी थी। साथियों ने उन्हें शीघ्रता से आधार शिविर और फिर अस्पताल पहुँचाया, जहाँ वह शीघ्र ही स्वस्थ हो गये।
सामरिक दृष्टि से मश्कोह घाटी का मोर्चा अत्यन्त कठिन एवं महत्त्वपूर्ण था। इस जीत में संजय कुमार की विशिष्ट भूमिका को देखकर सैनिक अधिकारियों की संस्तुति पर राष्ट्रपति श्री के.आर.नारायणन ने 26 जनवरी, 2000 को उन्हें ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया। संजय कुमार आज भी सेना में तैनात हैं। उनकी इच्छा है कि उनका बेटा भी सेना में भर्ती होकर देश की सेवा करे।
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3 मार्च/जन्म-दिवस
पेड़ वाली अम्मा बीरमती देवी
पर्यावरण के बारे में अधिकांश लोग केवल भाषणों में चिन्ता व्यक्त कर अपना काम पूरा समझ लेते हैं; पर कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो शासन और जनता को गाली देने की बजाय धरातल पर ठोस काम कर रहे हैं। इनमें से ही एक हैं श्रीमती बीरमती देवी, जो ‘पेड़ वाली अम्मा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं।
बीरमती देवी का जन्म तीन मार्च, 1942 को ग्राम बुढ़पुर (जिला रिवाड़ी, हरियाणा) में श्री महासिंह एवं सरिया देवी के घर में हुआ। गांव और खेतों के बीच पली होने के कारण उन्हें पेड़, पौधे, जल, जंगल और पशुओं से बहुत प्यार था।
उनसे छोटी चार बहनें और एक भाई भी था। पांच कन्याओं के कारण उनकी मां को परिवार में अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। अतः बीरमती ने महिला उत्थान के लिए काम करने की बात बचपन में ही ठान ली। कक्षा आठ तक की पढ़ाई के बाद बीरमती देवी का विवाह ग्राम कादीपुर, जिला महेन्द्रगढ़ निवासी हरदयाल सिंह से हो गया। पुरुषवादी मानसिकता वाली ससुराल में छोटी-छोटी बात पर कई बार उनकी पिटाई हुई।
वह छोटे परिवार की समर्थक थीं; पर एक पुत्र के लिए परिवार के दबाव में उन्हें पांच बेटियों को जन्म देना पड़ा। उन्होंने योजनापूर्वक अपनी सब बहनों तथा कई रिश्तेदारों की कन्याओं का विवाह कादीपुर में ही करा दिया। इससे समाज सुधार की उनकी बातों केे समर्थन में बोलने वालों की संख्या गांव में बढ़ गयी।
अब बीरमती देवी ने महिलाओं को संगठित करना प्रारम्भ किया। इसका विरोध होना ही था; पर उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया। धीरे-धीरे गांव के पुरुष भी उनके साथ आ गये और 1977 में वे गांव की महिला पंच चुनी गयीं। इसके बाद तो उन्होंने हर सामाजिक कुरीति को मिटाने का संकल्प ले लिया।
बीरमती देवी ने सबसे पहले अपने गांव में परिवार कल्याण कार्यक्रमों के प्रति महिलाओं को जागरूक किया। इस पर जिला प्रशासन ने उन्हें सम्मानित कर पूरे जिले में इसी शैली से काम करने का निश्चय किया। फिर उन्होंने प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम के अन्तर्गत महिलाओं को पढ़ाना प्रारम्भ किया। अल्प बचत एवं स्वयं सहायता समूह के माध्यम से अधिकांश महिलाएं घरेलू कारोबार करने लगीं। उन्होंने महिलाओं को पशुओं के लिए ऋण भी दिलवाये।
धुएं वाले चूल्हे के दुष्प्रभाव देखकर उन्होंने धूम्ररहित चूल्हे लगवाये। बाल विवाह, दहेज की अनुचित मांग, जल संरक्षण, कन्या भू्रण हत्या, एड्स, पर्दा प्रथा, नशा मुक्ति जैसे विषयों पर नुक्कड़ नाटक तथा लोकगीतों द्वारा उन्होंने जन जागरण किया। लोकगीतों के लेखन और गायन के साथ वे अभिनय भी कर लेती हैं। उन्होंने कई बार मानव तथा पशु चिकित्सा शिविर भी लगवाये।
हरियाणा में कन्याओं का अनुपात पूरे देश में सबसे कम है। बीरमती देवी के प्रयास से उनके निजामपुर विकास खंड में यह प्रति 1,000 पर 810 से बढ़कर 907 हो गया। 1988-89 में सरपंच रहते हुए उन्होंने वन विभाग के सहयोग से 35 एकड़ भूमि पर पेड़ लगवाये। उनके कामों के लिए जिला और राज्य स्तर पर शासन की ओर से उन्हें कई बार सम्मानित किया गया है।
हर ग्रामवासी के साथ ही पेड़-पौधे और पशु-पक्षियों को भी मातृवत स्नेह देने वाली बीरमती देवी ने सिद्ध किया है कि शुद्ध मन और दृढ़ संकल्प के साथ किया जाने वाला कार्य अवश्य सफल होता है। आयु के ढलान पर भी उनका उत्साह बना हुआ है। ईश्वर उन्हें स्वस्थ रखे, यही कामना है।
(संदर्भ : दैनिक जागरण, इनसे मिलिए)
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3 मार्च/जन्म-दिवस
सिद्धांतप्रिय प्रचारक कश्मीरी लाल जी
श्री कश्मीरी लाल जी का जन्म तीन मार्च, 1940 को अविभाजित भारत के झंग क्षेत्र के शेरकोट नगर में श्रीमती धर्मबाई की गोद में हुआ था। 1947 में देश की स्वतंत्रता एवं विभाजन के बाद उनके पिता श्री रामलाल सिंधवानी दिल्ली के नजफगढ़ में आकर बस गये। यहां पर वे प्रापर्टी सम्बंधी कारोबार करते थे। चार भाई और चार बहिनों में कश्मीरी लाल जी सबसे छोटे थे। धार्मिक एवं सामाजिक प्रवृत्ति के कारण उनके पिता एवं बड़े भाई सनातन धर्म सभा के प्रधान रहे। इसका प्रभाव कश्मीरी लाल जी पर भी पड़ा।
कक्षा 11 तक की शिक्षा नजफगढ़ में ही पाकर वे रोहतक आ गये। यहां के वैश्य कॉलिज से बी.ए. और 1965 में बी.एड. कर वे रोहतक में ही पढ़ाने लगे। इस दौरान वे रोहतक नगर के सांय कार्यवाह भी रहे। उन्होंने 1960, 64 और फिर 1967 में संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया। इसके बाद उन्होंने अध्यापक की अपनी अच्छी खासी नौकरी पर लात मार दी और संघ के प्रचारक बनकर देश, धर्म और समाज की सेवा में लग गये।
प्रचारक के नाते वे रिवाड़ी, सोनीपत, गुरुग्राम, कुरुक्षेत्र, रोहतक आदि में तहसील प्रचारक से लेकर विभाग प्रचारक तक रहे। इसके बाद लम्बे समय तक वे हरियाणा के सेवा प्रमुख और फिर प्रचारक प्रमुख भी रहे। उनके कार्यकाल में सेवा कार्यों का सघन जाल पूरे राज्य में फैला। वे स्वयं निर्धन बस्तियों में जाकर प्रेमपूर्वक लोगों से मिलते थे। वहीं चाय, नाश्ता और भोजन भी करते थे। अतः हरियाणा में सैकड़ों सेवा केन्द्र और प्रकल्प शुरू हो गये। इनमें घुमन्तु जनजातियों के गाड़िया लुहारों के बीच हुए काम विशेष उल्लेखनीय हैं। इससे उनके बच्चे शिक्षित हुए और वे सब लोग समाज की मुख्य धारा में शामिल हुए।
कश्मीरी लाल जी का जीवन बहुत सादगीपूर्ण था। उनकी बातचीत में हास्य का पुट रहता था। वे अपने प्रति कठोर, पर दूसरों के प्रति नरम रहते थे। सब उन्हें ‘ताऊ जी’ कहते थे। अन्य कई कामों के साथ उन पर ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की देखभाल का काम भी था। समिति में मुख्यत बालिकाएं काम करती हैं; पर विवाह के बाद ससुराल चले जाने से उनकी शाखा बंद हो जाती है। अतः उन्होंने लड़कियों के साथ ही विवाह के बाद संघ परिवार में आयी बहुओं पर ध्यान केन्द्रित किया। इससे समिति की सैकड़ों शाखाएं स्थायी हो गयीं।
व्यावहारिक होने के बावजूद कश्मीरी लाल जी बहुत सिद्धांतवादी व्यक्ति भी थे। जब उनके भतीजे के पुत्र का दिल्ली में विवाह हुआ, तो वे इस बात पर अड़ गये कि विवाह में शराब का सेवन नहीं होगा। परिवार वाले इससे सहमत नहीं थे। अतः सामान उठाकर वे वापस रोहतक आ गये। उन्होंने रोहतक में भी कई कार्यकर्ताओं को विवाह के लिए निमंत्रण दिया था। वे लोग जब कार्यालय पर एकत्र हुए, तो उन्हें वहां पाकर हैरान हो गये।कश्मीरी लाल जी ने पूरी बात बताकर उन्हें मिठाई खिलायी और विदा कर दिया।
लम्बे समय तक उनका केन्द्र रोहतक रहा। वृद्धावस्था में वे वहीं के संघ कार्यालय पर ही रहने लगे। इस दौरान भी उन पर सेवा भारती के संरक्षक एवं प्रांतीय कार्यकारिणी के सदस्य की जिम्मेदारी रही। दोनों फेफड़े खराब होने के कारण उन्हें सांस लेने में कष्ट होता था। फिर भी वे कार्यालय पर आने वाले कार्यकर्ताओं से उनके सुख-दुख पूछते थे। इससे लोग स्वयं को हल्का अनुभव करते थे। प्रचारकों से भी उनके कार्यक्षेत्र की जानकारी लेते रहते थे। बिस्तर पर लेटे हुए भी फोन से वे सैकड़ों लोगों से संपर्क रखते थे। इस प्रकार बीमारी में भी वे कार्यकर्ताओं की संभाल का महत्वपूर्ण कार्य करते रहे।
30 अपै्रल, 2018 को रोहतक में लोगों से बात करते हुए अचानक वे शांत हो गये। उनकी इच्छानुसार उनके नेत्रदान कर दिये गये। इस प्रकार उन्होंने 51 वर्ष प्रचारक जीवन में और जीवन के बाद भी एक आदर्श सेवाभावी कार्यकर्ता का उदाहरण प्रस्तुत किया।
(संदर्भ : सुभाष जी रोहतक, पवन जी मजूदर संघ तथा महेश जी दिल्ली )
क्रान्तिकारी की मानव कवच तोसिको बोस
तोसिको बोस का नाम भारतीय क्रान्तिकारी इतिहास में अल्पज्ञात है। अपनी जन्मभूमि जापान में वे केवल 28 वर्ष तक ही जीवित रहीं। फिर भी सावित्री तुल्य इस सती नारी का भारतीय स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाने में अनुपम योगदान रहा।
रासबिहारी बोस महान क्रान्तिकारी थे। 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में तत्कालीन वायसराय के जुलूस पर बम फंेक कर उसे यमलोक पहुँचाने का प्रयास तो हुआ; पर वह पूर्णतः सफल नहीं हो पाया। उस योजना में रासबिहारी बोस की बड़ी भूमिका थी।
अतः अंग्रेज शासन ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए दूर-दूर तक जाल बिछा दिया। उन्हें पकड़वाने वाले के लिए एक लाख रु0 का पुरस्कार भी घोषित किया गया। यदि वे पकड़े जाते, तो मृत्युदण्ड मिलना निश्चित था। अतः सब साथियों के परामर्श से वे 1915 के मई मास में नाम और वेष बदलकर जापान चले गये।
उन दिनों जापान और ब्रिटेन में एक सन्धि थी, जिसके अन्तर्गत भारत का कोई अपराधी यदि जापान में छिपा हो, तो उसे लाकर भारत में मुकदमा चलाया जा सकता है; पर यदि वह जापान का नागरिक है, तो उसे नहीं लाया जा सकता था।
एक अन्य कानून के अनुसार पति-पत्नी में से कोई एक यदि जापानी है, तो दूसरे को स्वतः नागरिकता मिल जाती थी। इसलिए रासबिहारी के मित्रों ने विचार किया कि यदि उनका विवाह किसी जापानी कन्या से करा दिया जाये, तो प्रत्यार्पण का यह संकट टल जाएगा।
रासबिहारी बोस के एक जापानी मित्र आइजो सोमा और उनकी पत्नी कोक्को सोमा ने उन्हें अपने होटल से लगे घर में छिपाकर रखा। इस दौरान उनका परिचय सोमा दम्पति की 20 वर्षीय बेटी तोसिको से हुआ। उसे जब भारतीयों पर ब्रिटिष शासन द्वारा किये जा रहे अत्याचारों का पता लगा, तो उसका हृदय आन्दोलित हो उठा।
रासबिहारी ने उसे क्रान्तिकारियों द्वारा जान पर खेलकर किये जा रहे कार्यों की जानकारी दी। इससे उसके मन में आजादी के इन दीवानों के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। अन्ततः उसने स्वयं ही रासबिहारी बोस से विवाह कर उनकी मानव कवच बनने का निर्णय ले लिया। इतना ही नहीं, उसने अज्ञातवास में भी रासबिहारी का साथ देने का वचन दिया।
तोसिको के माता-पिता के लिए यह निर्णय स्तब्धकारी था, फिर भी उन्होंने बेटी की इच्छा का सम्मान किया। नौ जुलाई, 1918 को रासबिहारी बोस एवं तोसिको का विवाह गुपचुप रूप से सम्पन्न हो गया। इससे रासबिहारी को जापान की नागरिकता मिल गयी। अब वे खुलकर काम कर सकते थे।
उन्होंने इस अवसर का लाभ उठाकर दक्षिण पूर्व एषिया में रह रहे भारतीयों को संगठित किया और वहाँ से साधन जुटाकर भारत में क्रान्तिकारियों के पास भेजे। उन्होंने आसन्न द्वितीय विष्व युद्ध के वातावरण का लाभ उठाकर आजाद हिन्द फौज के गठन में बड़ी भूमिका निभायी।
दो जुलाई, 1923 को रासबिहारी को जापान में रहते हुए सात वर्ष पूरे हो गये। इससे उन्हें स्वतन्त्र रूप से वहाँ की नागरिकता मिल गयी; पर इस गुप्त और अज्ञातवास के कष्टपूर्ण जीवन ने तोसिको को तपेदिक (टी.बी) का रोगी बना दिया। उन दिनों यह असाध्य रोग था। तोसिको मुक्त वातावरण में दो साल भी पति के साथ ठीक से नहीं बिता सकी। चार मार्च, 1925 को मात्र 28 वर्ष की अल्पायु में वे इस संसार से विदा हो गयीं।
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4 मार्च/जन्म-दिवस
राष्ट्रीय चेतना के अमर गायक रामनरेश त्रिपाठी
उत्तर भारत के अधिकांश प्राथमिक विद्यालयों में एक प्रार्थना बोली जाती है -
हे प्रभो आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिये,
शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिये।
लीजिये हमको शरण में हम सदाचारी बनें,
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रतधारी बनें।।
यह प्रार्थना एक समय इतनी लोकप्रिय थी कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के बाद जब शाखाएँ प्रारम्भ हुईं, तो उस समय जो प्रार्थना बोली जाती थी, उसमें भी इसके अंश लिये गये थे।
हे गुरो श्री रामदूता शील हमको दीजिये,
शीघ्र सारे सद्गुणों से पूर्ण हिन्दू कीजिये।
लीजिये हमको शरण में रामपंथी हम बनें,
ब्रह्मचारी धर्मरक्षक वीरव्रतधारी बनें।।
यह प्रार्थना संघ की शाखाओं पर 1940 तक चलती रही। 1940 में सिन्दी बैठक में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय हुए। उनके अनुसार इसके बदले संस्कृत की प्रार्थना नमस्ते सदा वत्सले... को स्थान मिला, जो आज भी बोली जाती है।
इस प्रार्थना के लेखक श्री रामनरेश त्रिपाठी का जन्म 4 मार्च, 1889 को ग्राम कोइरीपुर (जौनपुर, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। वे कुछ समय पट्टी (प्रतापगढ़) तथा फिर कक्षा नौ तक जौनपुर में पढ़े। इसके बाद वे हिन्दी के प्रचार-प्रसार तथा समाज सेवा में लग गये। उन दिनों स्वतन्त्रता का आन्दोलन चल रहा था, वे उसमें कूद पड़े और आगरा जेल में बन्दी बना लिये गये।
इस किसान आन्दोलन के समय सिगरामऊ के राजा हरपाल सिंह ने उन पर मानहानि का मुकदमा ठोक दिया। इससे उनका मन टूट गया और वे अपना गृह जनपद छोड़कर दियरा राज्य (जिला सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश) में चले आये। वहाँ के प्रबन्धक कुँवर कौशलेन्द्र प्रताप ने उनको रेलवे स्टेशन के पास जगह दिलवा दी। इस प्रकार 1930 ई0 में उनका निवास ‘आनन्द निकेतन’ निर्मित हुआ।
यहाँ उन्होंने भरपूर साहित्य साधना की तथा ग्राम्य लोकगीतों का संग्रह ‘कविता कौमुदी’ कई भागों में प्रकाशित कराया। उनकी रचनाओं में देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी थी। इससे जनजागरण में उनका भरपूर उपयोग हुआ। उनके द्वारा निकाला गया ‘वानर’ अपने समय का सर्वश्रेष्ठ बाल मासिक था।
मधुमेह से पीडि़त हो जाने से वे अधिक समय तक यहाँ नहीं रह पाये। साहित्यकारों की गुटबाजी ने भी उनको बहुत मानसिक कष्ट दिये। अतः 1950 में वे यह स्थान छोड़कर प्रयाग चले गये। इसके बाद का उनका समय वहीं बीता। प्रयाग उस समय हिन्दी साहित्यकारों का गढ़ था। श्री रामनरेश त्रिपाठी के सभी से प्रेम सम्बन्ध बन गये। ‘हिन्दी समिति, प्रयाग’ के वे संस्थापक थे।
जनवरी, 1962 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की स्वर्ण जयन्ती मनायी गयी। घोर शीत, कोहरे एवं वर्षा के बीच काफी अस्वस्थ होते हुए भी वे उसमें गये। इससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और 16 जनवरी, 1962 को पड़े दिल के दौरे से उनका प्राणान्त हो गया।
उनकी शव यात्रा में प्रयाग के सभी बड़े साहित्यकार सम्मिलित हुए। श्री रामनरेश त्रिपाठी भले ही अब न हों; पर कविता विनोद, बाल भारती, चयनिका, हनुमान चरित, मिलन, पथिक, स्वप्न आदि काव्य रचनाओं द्वारा वे हिन्दी साहित्याकाश में सदा चमकते रहेंगे।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री श्रीपति मिश्र ने अपने काल में सुल्तानपुर में त्रिपाठी जी के नाम पर एक भव्य सभागार का निर्माण कराया।
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5 मार्च/जन्म-तिथि
क्रान्तिकारी सुशीला दीदी
सुशीला दीदी का जन्म पांच मार्च, 1905 को ग्राम दत्तोचूहड़ (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। जालंधर कन्या महाविद्यालय में पढ़ते हुए वे कुमारी लज्जावती और शन्नोदेवी के सम्पर्क में आयीं। इन दोनों ने सुशीला के मन में देशभक्ति की आग भर दी। शिक्षा पूर्ण कर वे कोलकाता में नौकरी करने लगीं; पर क्रांतिकार्य में उनका सक्रिय योगदान जीवन भर बना रहा।
काकोरी कांड के क्रांतिवीरों पर चल रहे मुकदमे के दौरान क्रांतिकारी दल के पास पैसे का बहुत अभाव हो गया था। ऐसे में सुशीला दीदी ने अपने विवाह के लिए रखा दस तोले सोना देकर मुकदमे की पैरवी को आगे बढ़ाया। इससे कई क्रांतिकारियों की प्राण-रक्षा हो सकी।
लाहौर में साइमन कमीशन विरोधी जुलूस का नेतृत्व कर रहे पंजाब केसरी वयोवृद्ध लाला लाजपतराय पर निर्मम लाठी प्रहार करने वाले पुलिस अधीक्षक सांडर्स के वध के बाद जब भगतसिंह छद्म वेश में लाहौर से दुर्गा भाभी के साथ कोलकाता पहुंचे, तो स्टेशन पर उन्हें लेने भगवतीचरण के साथ सुशीला दीदी भी पहुंची थीं।
दिल्ली में वायसराय की गाड़ी उड़ाने के काम में भी सुशीला दीदी ने भगवतीचरण को सहयोग दिया और फिर वापस कोलकाता आ गयीं। लाहौर षड्यन्त्र केस में राजनीतिक बन्दियों के अधिकारों के लिए 63 दिन की भूख हड़ताल कर मृत्यु का वरण करने वाले क्रांतिकारी यतीन्द्रनाथ दास का शव जब कोलकाता पहुंचा, तब भी सुशीला दीदी ने उनकी आरती उतारी थी।
क्रांतिवीरों पर अंग्रेज शासन तरह-तरह के सच्चे और झूठे मुकदमे लाद देता था। इसके लिए बहुत धन की आवश्यकता पड़ती थी। एक बार सुशीला दीदी ने अपनी महिला टोली के साथ कोलकाता में कई जगह ‘मेवाड़ पतन’ नाटक खेला और उसके बाद झोली फैलाकर धन एकत्र किया।
नौकरी करने वाली एक अविवाहित युवती के लिए इस प्रकार खुलेआम धन मांगना बड़े साहस का काम था। इसमें उनकी गिरफ्तारी का भी खतरा था; पर सुशीला दीदी क्रांतिकारियों के सहयोग के लिए कभी किसी काम से पीछे नहीं हटीं।
दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली (वर्तमान संसद) में बम फेंकने के बाद जब लाहौर की बहावलपुर कोठी में बन्द भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त को छुड़ाने की बात चली, तो सुशीला दीदी ने इसकी योजना और व्यवस्था बनाने के लिए कोलकाता की अपनी नौकरी छोड़ दी।
इस अभियान के लिए चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में जब दल ने प्रस्थान किया, तो सुशीला दीदी ने अपनी उंगली चीरकर उसके रक्त से सबको तिलक किया। इस कार्य के लिए जिस फैक्ट्री में बम बनाये गये, वहां भी उन्होंने एक सिख युवक के वेश में काम किया। पंजाबीभाषी होने के कारण किसी को उन पर शक भी नहीं हुआ।
इन कामों में सक्रिय रहने के कारण सुशीला दीदी भी पुलिस की निगाहों में आ गयीं और उनके विरुद्ध दो वारंट जारी हो गये; पर चतुराई का परिचय देते हुए वे 1932 में दिल्ली में कांग्रेस के प्रतिबन्धित अधिवेशन में इन्दु के नाम से शामिल हुईं और छह महीने की जेल काटकर बाहर आ गयीं।
सभी प्रमुख क्रांतिकारियों के बलिदान या जेल में पहुंच जाने के कारण आगे चलकर यह क्रांति अभियान धीमा पड़ गया। सुशीला दीदी ने दिल्ली के अपने एक सहयोगी श्याममोहन से विवाह कर लिया और फिर उनका नाम सुशीला मोहन हो गया। इसके बाद वे पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान मोहल्ले में एक विद्यालय का संचालन करने लगीं। कुछ समय वे दिल्ली नगर निगम की सदस्य और दिल्ली कांग्रेस की अध्यक्ष भी रहीं।
सुशीला दीदी ने दिखा दिया कि नारी हो या पुरुष, यदि उसके मन में देशभक्ति की ज्वाला विद्यमान हो, तो वह हर बाधा को पार कर सकता है।
(संदर्भ : जनसत्ता 1.8.2010)
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5 मार्च/जन्म-दिवस
शास्त्रीय स्वर की साधिका गंगूबाई हंगल
भारतीय शास्त्रीय संगीत को नये आयाम देने वाली स्वर साधिका गंगूबाई हंगल का जन्म पांच मार्च, 1913 को कर्नाटक के धारवाड़ जिले में एक केवट परिवार में हुआ था। इस परिवार में एक कुप्रथा के रूप में कई कन्याओं को छोटी अवस्था में ही मंदिर में देवदासी के रूप में भेंट कर दिया जाता था। वहां गीत, संगीत और नृत्य द्वारा वे अपना जीवनयापन करती थीं।
गंगूबाई की मां अम्बाबाई भी कर्नाटक संगीत की गायिका थीं। बचपन में गंगूबाई ग्रामोफोन की आवाज सुनकर सड़क पर दौड़ जाती थी। फिर वह उस गीत को दोहराने का प्रयास भी करती थी। हर समय गाते और गुनगुनाते देखकर मां ने गंगूबाई को शास्त्रीय गायन की शिक्षा दिलाने का निश्चय किया।
पर गंगूबाई के परिवार में भूख और निर्धनता का साम्राज्य था। उन पर भद्दी जातीय टिप्पणियां भी की जाती थीं। उन दिनों केवल पुरुष ही गाते-बजातेे थे तथा उन्हें भी अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। अतः आते-जाते समय गांव और आसपास के लोग उन्हें ‘गानेवाली’ कहकर लांछित करते थे।
कहीं से भोजन का निमन्त्रण मिलने पर उनके सहपाठियों को घर के अन्दर, पर गंगूबाई को बरामदे में बैठाकर भोजन कराया जाता था; लेकिन गंगूबाई ने अपनी लगन से सबका मुंह बंद कर दिया। बेलगांव में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्होंने स्वागत गीत और राष्ट्रगान गाकर गांधी जी तथा अन्य बड़े नेताओं से प्रशंसा पाई थी। तब वे केवल 12 वर्ष की थीं।
गंगूबाई की मां ने अपनी बेटी को तत्कालीन दिग्गज संगीतज्ञ श्री के.एच.कृष्णाचार्य तथा फिर किराना घराने के उस्ताद सवाई गंधर्व से शिक्षा दिलाई। गंगूबाई ने गुरु-शिष्य परम्परा के अनुसार पूरी निष्ठा से संगीत सीखा।
वे अपने घर से 30 कि.मी. रेल से और फिर पैदल चलकर अपने गुरु सवाई गंधर्व के घर कंदमोल तक जाती थीं। ‘भारत रत्न’ से सम्मानित पंडित भीमसेन जोशी उनके गुरुभाई थे। वहां वे प्रतिदिन आठ घंटे अभ्यास करती थीं।
गंगूबाई शास्त्रीय गायन में मिलावट की घोर विरोधी थीं। उन्होंने आजीवन किराना घराने की शुद्धता का पालन किया। यद्यपि वे सैकड़ों राग अधिकारपूर्वक गाती थीं; पर उन्हें भैरव, असावरी, तोड़ी, भीमपलासी, पुरिया, धनश्री, मारवा, केदार और चंद्रकौंस रागों के कारण सर्वाधिक प्रशंसा और प्रसिद्धि मिली।
अपने काम के प्रति उनका समर्पण इतना अधिक था कि कई बार कार्यक्रम के समय उनका बच्चा रोने लगता था; पर वे बलपूर्वक उधर से ध्यान हटा लेती थीं। उन्होंने कई कलाकारों के साथ मिलकर आकाशवाणी की चयन पद्धति का प्रबल विरोध किया। इस कारण आकाशवाणी ने कई वर्ष तक उनके कार्यक्रमों का बहिष्कार किया; पर उन्होंने झुकना स्वीकार नहीं किया।
पद्मभूषण, पद्मविभूषण, तानसेन पुरस्कार, कर्नाटक संगीत नृत्य अकादमी सम्मान तथा संगीत नाटक अकादमी जैसे सम्मानों से अलंकृत गंगूबाई हंगल को महानगरीय जीवन की चकाचैंध के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। वे चाहतीं तो दिल्ली, मुंबई, बंगलौर या पुणे आदि में रह सकती थीं; पर जीवन के संध्याकाल में उन्होंने हुबली में रहकर नये कलाकारों को शिक्षा देना पसंद किया।
2002 में हुए हड्डी के कैंसर से तो वे अपनी इच्छाशक्ति के बल पर जीत गयी थीं; पर 21 जुलाई, 2009 को यह शास्त्रीय स्वर सदा को शांत हो गया। उनकी इच्छानुसार मृत्यु के बाद उनके नेत्र दान कर दिये गये।
(संदर्भ : देहावसान के बाद की पत्र-पत्रिकाएं)
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5 मार्च/जन्म-दिवस
गीता निकेतन कुरुक्षेत्र, विद्या भारती,
शिक्षा बचाओ आंदोलन तथा शिक्षा संस्कृति उत्थान
न्यास की चर्चा होने पर दीनानाथ बत्रा का नाम स्वतः सामने आता है। उनका जन्म पांच
मार्च, 1930 को अखंड भारत के डेरा गाजीखान में श्री टाकनदास एवं
श्रीमती लक्ष्मी देवी के घर में हुआ था। वे बालपन से ही संघ के स्वयंसेवक बन गये
थे। 1946 में फगवाड़ा के संघ शिक्षा वर्ग में जाने के लिए उन्होंने
भूख हड़ताल की, तब जाकर उनके पिताजी सहमत हुए।
1947 में विभाजन के बाद उनका परिवार पूर्वी पंजाब में आ गया। उन
दिनों स्वयंसेवक हिन्दुओं को सुरक्षित इधर ला रहे थे। दीनानाथ जी ने अपने हाथ पर
मुस्लिम नाम लिखाया और वापस पाकिस्तान जाकर सेवा में लग गये। लाहौर वि.वि. से
पढ़ाई पूरी कर वे 1955 में डेरा बस्सी (पंजाब) के डी.ए.वी हाई स्कूल
में पढ़ाने लगे। 1946 में संघ की योजना से कुरुक्षेत्र में एक आवासीय विद्यालय ‘गीता निकेतन’
शुरू हुआ था। इसका शिलान्यास सरसंघचालक श्री
गुरुजी ने किया था। विभाजन और फिर संघ के प्रतिबंध से विद्यालय की हालत बिगड़ गयी।
1963 में प्रबंध समिति ने इसे बंद करने का निर्णय लिया। ऐसे में
दीनानाथ जी ने इसे संभाला और अपनी नौकरी छोड़कर यहां आ गये।
यह एक कठिन निर्णय था। एक
बार तो आचार्यों के वेतन के लिए उन्हें अपनी पत्नी के गहने तक गिरवी रखने पड़े; पर वे पीछे नहीं हटे। आपातकाल में दीनानाथ जी सहित अधिकांश आचार्य जेल में डाल
दिये गये; पर कुछ दिन बाद साक्ष्य के अभाव में वे न्यायालय से ही छूट
गये। इसके बाद वे भूमिगत हो गये तथा इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध एक
पत्रिका का संपादन करने लगे। इस दौरान उनके परिवार को भी बहुत प्रताडि़त किया गया।
दीनानाथ जी ने हरियाणा
शिक्षा बोर्ड की पाठ्य योजना, दिल्ली शिक्षा बोर्ड, दिल्ली शिक्षा कोड समिति, दिल्ली नैतिक शिक्षा
समिति आदि के सदस्य के रूप में महत्वपूर्ण सुझाव दिये, जिससे बच्चों में देश, धर्म और समाज की सेवा के
भाव पैदा हों। वे हरियाणा अध्यापक संघ के महामंत्री, अ.भा.
हिन्दुस्तान स्काउट्स गाइड के कार्यकारी अध्यक्ष, पंचनद शोध
संस्थान के निदेशक, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण
परिषद (एन.सी.ई.आर.टी) के कार्यकारिणी सदस्य थे। वे विद्या भारती के महासचिव तथा
फिर उपाध्यक्ष भी रहे।
2004 में उन्होंने ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ शुरू किया। छात्रों को कई ऐसे पाठ पढ़ाये जाते
थे, जो भारत, भारतीयता, स्वाधीनता आंदोलन और हिन्दू धर्म पर चोट करते थे। दीनानाथ जी ने इनके विरुद्ध
अभियान चलाया। कई बार वे न्यायालय में भी गये; जहां हर बार उनकी
जीत हुई। एक बार तो मानव संसाधन मंत्री ने संसद में ही ऐसी विवादित सामग्री वापस
लेने की घोषणा की।
दीनानाथ जी न्यायालय में
दिन का खाना घर से ही लेकर जाते थे, जिससे संस्था का धन उस पर
व्यय न हो। उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बेटी प्रोफेसर उपेन्द्र कौर
द्वारा संपादित,
दिल्ली वि.वि. में पढ़ाई जा रही पुस्तक ‘थ्री हंड्रड रामायण’ को भी चुनौती दी। इसके विरुद्ध उन्होंने सड़कों
पर प्रदर्शन किया। कई लोग लाठीचार्ज में घायल हुए। उन पर मुकदमे ठोके गये; पर दीनानाथ जी पीछे नहीं हटे। सरकार जब यौन शिक्षा को स्कूली पाठ्यक्रम में
लाने लगी, तो इसका भारी विरोध हुआ। दीनानाथ जी ने लोकसभा और राज्यसभा
की याचिका समिति में अपील की। इससे लोग मुखर हो उठे। सरकार को लाखों लोगों के
हस्ताक्षर तथा 40,000 से अधिक लिखित सुझाव मिले, जिसमें 90 प्रतिशत इसके विरोध में थे। अतः उसेे पीछे हटना पड़ा।
दीनानाथ जी को अनेक
पुरस्कारों के साथ राष्ट्रीय शिक्षक सम्मान भी मिला था। उन्होंने शिक्षा संबंधी कई
पुस्तकें लिखीं। वे एक प्रभावी वक्ता भी थे। सात नवम्बर, 2024 को 94 वर्ष की आयु में उनका देहांत हुआ।
(पांचजन्य एवं आर्गनाइजर 24.11.24) विकी
5 मार्च/जन्म-दिवस
सिद्धांत एवं व्यवस्थाप्रिय ‘बालजी’
संघ के कार्यकर्ताओं में ‘बालजी’ के नाम से प्रसिद्ध बालकृष्ण त्रिपाठी का जन्म पांच मार्च, 1937 को कानपुर के पास कंठीपुर ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री मन्नूलाल एवं माता श्रीमती शांतिदेवी त्रिपाठी थीं। उन्होंने कानपुर के डी.ए.वी. काॅलिज से एम.काॅम की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। इसके बाद उन्हें कानपुर की एल्गिन मिल में लेखा अधिकारी की नौकरी मिल गयी।
उन दिनों अशोक सिंहल
कानपुर में रा.स्व.संघ के विभाग प्रचारक थे। उनकी मधुर आवाज और कार्यशैली से
प्रभावित होकर अनेक युवक प्रचारक बने। ‘बालजी’ भी उनमें से एक थे। यद्यपि यह निर्णय आसान नहीं था। घर पर विरोध भी बहुत हुआ; पर वे अपने निश्चय से पीछे नहीं हटे। इस प्रकार 1962 में उनका प्रचारक जीवन प्रारंभ हुआ। श्याम बाबू गुप्त, माधवराव देवड़े, रज्जू भैया और श्री गुरुजी का उनके जीवन पर
विशेष प्रभाव रहा।
प्रचारक जीवन में वे
पूर्वी उत्तर प्रदेश में तहसील, नगर, जिला, विभाग प्रचारक, प्रांत शारीरिक प्रमुख और
फिर अवध के प्रांत प्रचारक रहे। संघ के घोष में भी उनकी बहुत रुचि थी। कुछ समय वे
उ.प्र. एवं उत्तराखंड के संपर्क प्रमुख भी रहे। हिसाब-किताब और व्यवस्था के प्रति
वे सदा सजग रहते थे। उनकी शिक्षा भी इसके ही अनुरूप थी। अतः वर्ष 2000 में उन्हें अ.भा. सहव्यवस्था प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी और उनका केन्द्र
नागपुर बनाया गया।
आपातकाल के दौरान वे
कानपुर में प्रचारक थे। वहां उनका विद्यार्थी जीवन बीता था। वहां की हर गली से
उनका परिचय था। पुलिस उन्हें ढूंढती रही; पर वे पकड़ में
नहीं आये और भूमिगत रहकर सत्याग्रह आदि का संचालन करते रहे। वे सिद्धांतप्रिय
व्यक्ति थे। परिवार की नाराजगी के बावजूद उन्होंने सरकारी सेवा में कार्यरत अपनी
भतीजी के स्थानांतरण की सिफारिश नहीं की। गलती होने पर वे प्रचारक को भी
दायित्वमुक्त करने में नहीं हिचकिचाते थे।
बालजी स्वयं तो मितव्ययी
थे ही; पर कार्यालय का खर्च कम हो, इसकी भी चिंता
करते थे। छात्र जीवन में और फिर नौकरी करते हुए वे कार्यालय पर चाय आदि नहीं पीते
थे। यदि कभी ऐसा करना ही पड़े, तो जाते समय कप के नीचे
एक चवन्नी रख देते थे। एक बार किसी ने कहा कि सरकार की जीवन बीमा आदि कई योजनाएं
ऐसी हैं, जिनमें यदि कुछ धन लगा दें, तो परिवार न
बसाने वाले प्रचारक को वृद्धावस्था में कुछ सुविधा मिल सकती है। बालजी ने उत्तर
दिया कि हमारा सबसे बड़ा आधार संगठन और स्वयंसेवक है, सरकार नहीं। वही हमारा परिवार है। अतः हमें उन पर विश्वास बनाए रखना चाहिए।
अ.भा. सहव्यवस्था प्रमुख
के नाते उन्होंने व्यापक प्रवास किया। आजकल संघ की प्रेरणा से अनेक न्यास, समिति, स्कूल, सेवा कार्य, कार्यालय आदि का संचालन होता है। इनका हिसाब-किताब ठीक रहना बहुत जरूरी है।
बालजी ने लम्बे समय तक इस जिम्मेदारी को निभाया। कहीं कोई कमी या गलती होने पर वे
उसे तुरंत ठीक कराते थे। दैनिक शाखा के प्रति वे बहुत आग्रही थे। सुबह जल्दी उठकर
नहा धोकर ही वे शाखा के लिए निकलते थे। बीमारी में वे बिस्तर पर लेटे-लेटे ही
प्रार्थना कर लेते थे। प्रवास में अपने सहयोगी कार्यकर्ता तथा चालक आदि के खानपान
का भी वे पूरा ध्यान रखते थे।
प्रवासी कार्यकर्ता के
अस्त-व्यस्त खानपान और दिनचर्या का विपरीत असर स्वास्थ्य पर पड़ता है। बालजी के
साथ भी यही हुआ। वृद्धावस्था में उन्हें संघ के प्रत्यक्ष कार्य से अवकाश दिया
गया। लम्बे समय तक लखनऊ और कानपुर उनका कार्यक्षेत्र रहा था। सैकड़ों स्वयंसेवक
उन्हें अपने परिवार का बुजुर्ग मानते थे। अतः लखनऊ के ‘भारती भवन’ संघ कार्यालय पर उनके रहने की व्यवस्था की गयी। 20 अगस्त,
2024 को लखनऊ में ही उनका देहांत हुआ।
(देहांत के बाद पत्र-पत्रिकाओं और परिवार से प्राप्त
जानकारी)
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6 मार्च/बलिदान-दिवस
धर्मवीर पण्डित लेखराम
हिन्दू धर्म के प्रति अनन्य निष्ठा रखकर धर्म प्रचार में अपना जीवन समर्पण करने वाले धर्मवीर पंडित लेखराम का जन्म अविभाजित भारत के ग्राम सैयदपुर (तहसील चकवाल, जिला झेलम, पंजाब) में मेहता तारासिंह के घर आठ चैत्र, वि0सं0 1915 को हुआ था। बाल्यकाल में उनका अध्ययन उर्दू एवं फारसी में हुआ; क्योंकि उस समय राजकाज एवं शिक्षा की भाषा यही थी।
17 वर्ष की अवस्था में वे पुलिस में भर्ती हो गये; पर कुछ समय बाद उनका झुकाव आर्य समाज की ओर हो गया। वे एक माह का अवकाश लेकर ऋषि दयानन्द जी से मिलने अजमेर चले गये। वहाँ उनकी सभी जिज्ञासाएँ शान्त हुईं। लौटकर उन्होंने पेशावर में आर्य समाज की स्थापना की और धर्म-प्रचार में लग गये। धीरे-धीरे वे ‘आर्य मुसाफिर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
पंडित लेखराम ने ‘धर्मोपदेश’ नामक एक उर्दू मासिक पत्र निकाला। उच्च कोटि की सामग्री के कारण कुछ समय में ही वह प्रसिद्ध हो गया। उन दिनों पंजाब में अहमदिया नामक एक नया मुस्लिम सम्प्रदाय फैल रहा था। इसके संस्थापक मिर्जा गुलाम अहमद स्वयं को पैगम्बर बताते थे। पण्डित लेखराम ने अपने पत्र में इनकी वास्तविकता जनता के सम्मुख रखी। इस बारे में उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं। इससे मुसलमान उनके विरुद्ध हो गये।
महर्षि दयानन्द जी के देहान्त के बाद पंडित लेखराम को लगा कि सरकारी नौकरी और धर्म प्रचार साथ-साथ नहीं चल सकता। अतः उन्होंने नौकरी छोड़ दी। जब पंजाब में आर्य प्रतिनिधि सभा का गठन हुआ, तो वे उसके उपदेशक बन गये। इस नाते उन्हें अनेक स्थानों पर प्रवास करने तथा पूरे पंजाब को अपने शिकंजे में जकड़ रहे इस्लाम को समझने का अवसर मिला।
लेखराम जी एक श्रेष्ठ लेखक थे। आर्य प्रतिनिधि सभा ने ऋषि दयानन्द के जीवन पर एक विस्तृत एवं प्रामाणिक ग्रन्थ तैयार करने की योजना बनायी। यह दायित्व उन्हें ही दिया गया। उन्होंने देश भर में भ्रमण कर अनेक भाषाओं में प्रकाशित सामग्री एकत्रित की। इसके बाद वे लाहौर में बैठकर इस ग्रन्थ को लिखना चाहते थे; पर दुर्भाग्यवश यह कार्य पूरा नहीं हो सका।
पंडित लेखराम की यह विशेषता थी कि जहाँ उनकी आवश्यकता लोग अनुभव करते, वे कठिनाई की चिन्ता किये बिना वहाँ पहुँच जाते थे। एक बार उन्हें पता लगा कि पटियाला जिले के पायल गाँव का एक व्यक्ति हिन्दू धर्म छोड़ रहा है। वे तुरन्त रेल में बैठकर उधर चल दिये; पर जिस गाड़ी में वह बैठे, वह पायल नहीं रुकती थी। इसलिए जैसे ही पायल स्टेशन आया, लेखराम जी गाड़ी से कूद पड़े। उन्हें बहुत चोट आयी। जब उस व्यक्ति ने पंडित लेखराम जी का यह समर्पण देखा, तो उसने धर्मत्याग का विचार ही त्याग दिया।
उनके इन कार्यों से मुसलमान बहुत नाराज हो रहे थे। छह मार्च, 1897 की एक शाम जब वे लाहौर में लेखन से निवृत्त होकर उठे, तो एक मुसलमान ने उन्हें छुरे से बुरी तरह घायल कर दिया। उन्हें तुरन्त अस्पताल पहुँचाया गया; पर उन्हंे बचाया नहीं जा सका।
मृत्यु से पूर्व उन्होंने कार्यकत्र्ताओं को सन्देश दिया कि आर्य समाज में तहरीर (लेखन) और तकरीर (प्रवचन) का काम बन्द नहीं होना चाहिए। धर्म और सत्य के लिए बलिदान होने वाले पण्डित लेखराम ‘आर्य मुसाफिर’ जैसे महापुरुष मानवता के प्रकाश स्तम्भ हैं।
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6 मार्च/इतिहास-स्मृति
नीमड़ा का नरसंहार
अंग्रेजी शासन में देशवासी अंग्रेजों के साथ-साथ उनकी शह पर पलने वाले सामंतों के शोषण से भी त्रस्त थे। वनों और पर्वतों में रहने वाले सरल स्वभाव के निर्धन किसान, श्रमिक, वनवासी तथा गिरिवासी इस शोषण के सबसे अधिक शिकार होते थे।
राजस्थान में गोविन्द गुरु ने धार्मिक कार्यक्रमों के माध्यम से इन्हें जाग्रत करने का सफल आंदोलन चलाया। उनके प्रयास से भील, मीणा तथा गरासिया जैसी वनवासी जातियां सामाजिक रूप से जागरूक हुईं। उनके बाद इस चिन्गारी को श्री मोतीलाल तेजावत ने ज्वाला बना दिया ।
कोल्यारी गांव में जन्मे श्री मोतीलाल तेजावत झाडोल ठिकाने के कामदार थे। उन्होंने वनवासियों पर हो रहे अत्याचारों को निकट से देखा। जमींदारों द्वारा इनकी पकी फसल को कटवा लेना, बेगार लेना, दुधारू पशुओं को उठा लेना तथा छोटी सी भूल पर कोड़ों से पिटवाना आदि उन दिनों सामान्य सी बात थी। कोढ़ में खाज की तरह वनवासी समाज अनेक सामाजिक कुरीतियों से भी ग्रस्त था। यह देखकर श्री तेजावत का मन विचलित हो उठा।
1907 में श्री मोतीलाल तेजावत ने झाडोल के राव साहब की नौकरी छोड़कर वनवासियों में जागृति का अभियान छेड़ दिया। उनके गांवों में जाकर वे उन्हें आपस में मिलकर रहने तथा अत्याचारों का विरोध करने की बात समझाने लगे।
धीरे-धीरे यह अभियान ‘एका आंदोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। मगरा के भीलों से प्रारम्भ होकर यह अभियान क्रमशः भोभट, अलसीगढ़, पांडोली, कपासन, उपरला व निचला गिरवा, डूंगरपुर, दांता, पालनपुर, ईडर, सिरोही, बांसवाड़ा, विजयनगर आदि क्षेत्रों में जोर पकड़ने लगा।
1921 ई. में देश भर में हुए असहयोग आंदोलन में भी श्री तेजावत तथा उनके साथियों ने भाग लिया। उनका नियमित सम्पर्क देश के अन्य भागों में चल रही स्वाधीनता की गतिविधियों से भी बना हुआ था। श्री तेजावत के प्रयासों से स्थान-स्थान पर वनवासियों के विशाल सम्मेलन होने लगे। उन्होंने बेगार तथा लगान न देने की घोषणा कर दी। इससे अंग्रेजों की नींद हराम हो गयी।
छह मार्च, 1922 को विजयनगर राज्य के नीमड़ा गांव में भीलों का एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया गया। अंग्रेजों ने लोगों को डराने के लिए अपनी सेनाएं भेज दीं; पर महाराणा प्रताप के मतवाले सहयोगी भला किससे डरने वाले थे ? वे बड़ी संख्या में नीमड़ा पहुंचने लगे। नीमड़ा गांव पहाडि़यों से घिरा हुआ था। अंग्रेजों ने वहां अपनी मशीनगनें तैनात कर दीं।
एकलिंग नाथ की जय तथा मोती बाबा की जय के साथ सम्मेलन प्रारम्भ हो गया। अंग्रेज अधिकारियों ने वनवासियों के कुछ प्रमुखों को एक ओर बुलाकर वार्ता में उलझा लिया। इसी बीच गोलीवर्षा होने लगी। देखते ही देखते 1,200 निहत्थे वनवासी मारे गये।
श्री तेजावत के पैर में भी गोली लगी; पर उनके साथी उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर ले गये। अगले आठ वर्ष वे भूमिगत रहकर काम करते रहे। 1929 में गांधी जी के कहने पर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। 1929 से 1936 तथा 1944 से 1946 तक वे कारावास में रहे।
1947 के बाद भी वे वनवासियों में व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन के काम में ही लगे रहे। पांच दिसम्बर, 1963 को उनका निधन हुआ। जलियांवाला बाग कांड से भी बड़े इस कांड की चर्चा प्रायः राष्ट्रीय स्तर पर नहीं होती, क्योंकि इसमें मरने वाले अधिकांश निर्धन वनवासी थे। वहां के पेड़ों पर गोलियों के निशान आज भी इस नरसंहार की कहानी कहते हैं।
(संदर्भ : पाथेय कण, 1.3.2008)(रा.धर्म अगस्त 2012/15, डा. गणेश प्रसाद बरनवाल)
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7 मार्च/जन्म-दिवस
कलम और बम-गोली के धनी अज्ञेय
प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सयायन ‘अज्ञेय’ कलम के साथ ही बम और गोली के भी धनी थे। युवावस्था में उन्होंने भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद, भगवतीचरण बोहरा, सुखदेव आदि के साथ काम किया था। क्रांतिकारी जीवन में एक बार रावी नदी में काफी ऊंचाई से छलांग लगाने से उनके घुटने की टोपी उतर गयी, जिससे वे जीवन भर कष्ट भोगते रहे।
अज्ञेय का जन्म सात मार्च, 1911 को कसया (कुशीनगर, उ0प्र0) के एक उत्खनन शिविर में पुरातत्ववेत्ता श्री हीरानंद शास्त्री एवं श्रीमती कांतिदेवी के घर में हुआ था। बचपन में लोग उन्हें प्यार से ‘सच्चा’ कहते थे। उन्होंने ‘कुट्टिचातन’ उपनाम से ललित निबंध लिखे। प्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्र एवं प्रेमचंद ने उन्हें ‘अज्ञेय’ नाम दिया, जो उनकी स्थायी पहचान बन गया।
अज्ञेय की औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा लखनऊ, श्रीनगर, जम्मू, मद्रास, लाहौर, नालंदा, पटना आदि स्थानों पर हुई। उन्होंने संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी, बांग्ला आदि भाषाएं सीखीं। 1921 में मां के साथ पंजाब यात्रा में जलियांवाला बाग के दर्शन से उनके मन में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह की चिंगारी जल उठी। लाहौर में पढ़ते समय उनका संपर्क क्रांतिकारियों से हुआ और वे ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ के सदस्य बन गये।
1930 में क्रांतिकारियों ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना बनाई। ऐसे में दल की योजनानुसार अज्ञेय ने दिल्ली में ‘हिमालयन खादलेंटीन’ नामक उद्योग स्थापित किया। इसकी आड़ में वे बम बनाते थे; पर बम-परीक्षण में भगवती चरण बोहरा की मृत्यु होने से यह योजना छोड़नी पड़ी। वे अमृतसर में भी बम बनाना चाहते थे; पर वहां वे कुछ अन्य साथियों के साथ पकड़े गये। उन सब पर ‘दिल्ली षड्यंत्र’ के नाम से मुकदमा चला।
पहले लाहौर और फिर दिल्ली जेल में यातनाएं भोगते हुए उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। जेल के बाद उन्हें घर में ही नजरबंद रखा गया। इसके बाद उन्होंने लेखन और पत्रकारिता को आजीविका का साधन बनाया। इस दौरान वे किसान आंदोलन में भी सक्रिय हुए। उन्होंने अ१ल इंडिया रेडियो तथा 1943 से 46 तक सेना में नौकरी की और असम-बर्मा सीमा पर तैनात रहे।
अज्ञेय ने सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, दिनमान, नया प्रतीक, नवभारत टाइम्स, थ१ट, व१क, ऐवरी मेन्स वीकली आदि हिन्दी तथा अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन व प्रकाशन किया। अपनी शर्तों पर काम करने के कारण वे लम्बे समय तक किसी एक पत्र से बंधे नहीं रहे। 1975 में आपातकाल, सेंसरशिप तथा इंदिरा गांधी की तानाशाही का उन्होंने विरोध किया।
घुमक्कड़ी उनके स्वभाव में थी। उन्होंने यूनेस्को की ओर से भारत भ्रमण किया। वे यूरोप, चीन, आस्ट्रेलिया, कैलिफोर्निया, हालैंड, जर्मनी तथा सोवियत संघ के देशों में भी गये। जापान में उन्होंने जेन तथा बौद्ध मत का अध्ययन तथा यूरोप में ‘पिएर द क्विर’ मठ में एकांतवास किया। वे भारत तथा विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में अतिथि प्रवक्ता के नाते जाते रहते थे।
अज्ञेय ने हिन्दी एवं अंग्रेजी में कविता, उपन्यास, यात्रा वर्णन, डायरी, निबंध, नाटक, अनुवाद आदि की सौ से भी अधिक पुस्तकें लिखीं। साहित्य क्षेत्र के सभी बड़े पुरस्कार उन्हें मिले। उन्होंने ‘वत्सल निधि’ की स्थापना कर उसके द्वारा लेखन शिविर, हीरानंद शास्त्री एवं रायकृष्णदास व्याख्यान, जय जानकी यात्रा तथा भागवत भूमि यात्राओं का आयोजन किया। चार अपै्रल, 1987 को दिल्ली में उनका देहांत हुआ।
(संदर्भ : साहित्य अमृत, अक्तूबर 2010)
🙏 श्रीमान विजयजी कृपया ५ मार्च में भारत की पहली जासूस, नेताजी सुभाषचंद्रबसु की मुँहबोली बहन, आज़दहिन्द फौज की सिपाही सुश्री नीरा आर्य की जीवनगाथा सम्मिलित करे, धन्यवाद
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