फरवरी चौथा सप्ताह


24 फरवरी/बलिदान-दिवस

लोकदेवता कल्ला जी राठौड़

राजस्थान में अनेक वीरों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया, जिससे उनकी छवि लोकदेवता जैसी बन गयी। कल्ला जी राठौड़ ऐसे ही एक महामानव थे। उनका जन्म मेड़ता राजपरिवार में आश्विन शुक्ल 8, विक्रम संवत 1601 को हुआ था। 

इनके पिता मेड़ता के राव जयमल के छोटे भाई आसासिंह थे। भक्तिमती मीराबाई इनकी बुआ थीं। कल्ला जी की रुचि बचपन से सामान्य शिक्षा के साथ ही योगाभ्यास, औषध विज्ञान तथा शस्त्र संचालन में भी थी। प्रसिद्ध योगी भैरवनाथ से इन्होंने योग की शिक्षा पायी।

इसी समय मुगल आक्रमणकारी अकबर ने मेड़ता पर हमला किया। राव जयमल के नेतृत्व में आसासिंह तथा कल्ला जी ने अकबर का डटकर मुकाबला किया; पर सफलता न मिलते देख राव जयमल अपने परिवार सहित घेरेबन्दी से निकल कर चित्तौड़ पहुँच गये। राणा उदयसिंह ने उनका स्वागत कर उन्हें बदनौर की जागीर प्रदान की। कल्ला जी को रणढालपुर की जागीर देकर गुजरात की सीमा से लगे क्षेत्र का रक्षक नियुक्त किया।

कुछ समय बाद कल्ला जी का विवाह शिवगढ़ के राव कृष्णदास की पुत्री कृष्णा से तय हुआ। द्वाराचार के समय जब उनकी सास आरती उतार रही थी, तभी राणा उदयसिंह का सन्देश मिला कि अकबर ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया है, अतः तुरन्त सेना सहित वहाँ पहुँचें। कल्ला जी ने विवाह की औपचारिकता पूरी की तथा पत्नी से शीघ्र लौटने को कहकर चित्तौड़ कूच कर दिया।

महाराणा ने जयमल को सेनापति नियुक्त किया था। अकबर की सेना ने चित्तौड़ को चारों ओर से घेर लिया था। मेवाड़ी वीर किले से निकलकर हमला करते और शत्रुओं को हानि पहुँचाकर फिर किले में आ जाते। कई दिनों के संघर्ष के बाद जब क्षत्रिय वीरों की संख्या बहुत कम रह गयी, तो सेनापति जयमल ने निश्चय किया कि अब अन्तिम संघर्ष का समय आ गया है। उन्होंने सभी सैनिकों को केसरिया बाना पहनने का निर्देश दिया।

इस सन्देश का अर्थ स्पष्ट था। 23 फरवरी, 1568 की रात में चित्तौड़ के किले में उपस्थित सभी क्षत्राणियों ने जौहर किया और अगले दिन 24 फरवरी को मेवाड़ी वीर किले के द्वार खोल कर भूखे सिंह की भाँति मुगल सेना पर टूट पड़े। भीषण युद्ध होने लगा। 

राठौड़ जयमल के पाँव में गोली लगी। उनकी युद्ध करने की तीव्र इच्छा थी; पर उनसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। कल्ला जी ने यह देखकर जयमल के दोनों हाथों में तलवार देकर उन्हें अपने कन्धे पर  बैठा लिया। इसके बाद कल्ला जी ने अपने दोनों हाथों में भी तलवारें ले लीं।

चारों तलवारें बिजली की गति से चलने लगीं। मुगल लाशों से धरती पट गयी। अकबर ने यह देखा, तो उसे लगा कि दो सिर और चार हाथ वाला कोई देवता युद्ध कर रहा है। युद्ध में वे दोनों बुरी तरह घायल हो गये। कल्ला जी ने जयमल को नीचे उतारकर उनकी चिकित्सा करनी चाही; पर इसी समय एक शत्रु सैनिक ने पीछे से हमला कर उनका सिर काट दिया। सिर कटने के बाद के बाद भी उनका धड़ बहुत देर तक युद्ध करता रहा। 

इस युद्ध के बाद कल्ला जी का दो सिर और चार हाथ वाला रूप जन-जन में लोकप्रिय हो गया। आज भी लोकदेवता के रूप में चित्तौड़गढ़ में भैंरोपाल पर उनकी छतरी बनी है।
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25 फरवरी/इतिहास-स्मृति

पालखेड़ का ऐतिहासिक संग्राम

द्वितीय विश्व युद्ध के प्रसिद्ध सेनानायक फील्ड मार्शल मांटगुमरी ने युद्धशास्त्र पर आधारित अपनी पुस्तक ‘ए कन्साइस हिस्ट्री ऑफ़ वारफेयर’ में  विश्व के सात प्रमुख युद्धों की चर्चा की है। इसमें एक युद्ध पालखेड़ (कर्नाटक) का है, जिसमें 27 वर्षीय बाजीराव पेशवा (प्रथम) ने संख्या व शक्ति में अपने से दुगनी से भी अधिक निजाम हैदराबाद की सेना को हराया था।

बाजीराव (प्रथम) शिवाजी के पौत्र छत्रपति शाहूजी के प्रधानमंत्री (पेशवा) थे। उनके पिता श्री बालाजी विश्वनाथ भी पेशवा ही थे। उनकी असामयिक मृत्यु के बाद मात्र 20 वर्ष की अवस्था में ही बाजीराव को पेशवा बना दिया गया। 

बाजीराव का देहांत भी केवल 40 वर्ष की अल्पायु में ही हो गया; पर पेशवा बनने के बाद उन्होंने जितने भी युद्ध लड़े, किसी में भी उन्हें असफलता नहीं मिली। इस कारण हिन्दू सेना व जनता के मनोबल में अतीव वृद्धि हुई। 

औरंगाबाद के पश्चिम तथा वैजापुर के पूर्व में स्थित पालखेड़ गांव में 25 फरवरी, 1728 को यह युद्ध हुआ था। पालखेड़ चारों ओर से छोटी-बड़ी पहाड़ियों से घिरा है। निजाम के पास विशाल तोपखाना था; पर बाजीराव के पास एक ही दिन में 75 कि.मी. तक चलकर धावा बोलने वाली घुड़सवारों की विश्वस्त टोली थी। 

जिस प्रकार शिकारी चतुराई से शिकार को चारों ओर से घेरकर अपने कब्जे में लेता है, उसी प्रकार बाजीराव ने निजाम की सैन्य शक्ति तथा पालखेड़ की भौगोलिक स्थिति का गहन अध्ययन किया। जब उसे निजाम की सेना के प्रस्थान का समाचार मिला, तो वह बेटावद में था। उसने कासारबारी की पहाड़ियों से होकर औरंगाबाद जाने का नाटक किया। इससे निजाम की सेना भ्रम में पड़ गयी; पर अचानक बाजीराव ने रास्ता बदलकर दक्षिण का मार्ग लिया और पालखेड़ की पहाड़ियों में डेरा डाल दिया। 

इसके बाद उसने पहले से रणनीति बनाकर धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की और निजाम की सेना को इस मैदान में आने को मजबूर कर दिया। निजाम के पास तोपों को विशाल बेड़ा था; पर यह घाटी संकरी होने के कारण वे तोपें यहां आ ही नहीं सकीं। परिणाम यह हुआ कि जितनी सेना घाटी में आ गयी, बाजीराव ने उसे चारों ओर से घेरकर उसकी रसद पानी बंद कर दी। सैनिक ही नहीं, तो उनके घोड़े भी भोजन और पानी के अभाव में मरने लगे।

यह हालत देखकर निजाम को दांतों तले पसीना आ गया और उसे घुटनों के बल झुककर संधि करनी पड़ी। छह मार्च, 1728 को हुई यह संधि ‘शेवगांव की संधि’ के नाम से प्रसिद्ध है। इस संधि से पूर्व बाजीराव ने जमानत के तौर पर निजाम के दो प्रमुख कर्मचारियों को अपने पास बंदी रखा। 

संधि के अनुसार अक्कलकोट, खेड, तलेगांव, बारामती, इंदापुर, नारायणगढ़ तथा पूना आदि जो स्थान किसी समय मराठा साम्राज्य में थे, वे सब फिर से मराठों के अधिकार में आ गये। इसी प्रकार दक्खिन के सरदेशमुखी की सनद व स्वराज्य की सनद भी निजाम ने इस संधि के अनुसार मराठों को सौंप दी।

परन्तु दुर्भाग्यवश छत्रपति शाहू जी कमजोर दिल के प्रशासक थे। वे बाजीराव जैसे अजेय सेनापति के होते हुए भी मुसलमानों से मिलकर ही चलना चाहते थे। उन्होंने बाजीराव को संदेश भेजा कि निजाम को समूल नष्ट न किया जाए और उसका अत्यधिक अपमान भी न करें

इसका परिणाम यह हुआ कि 1818 में पेशवाई तो समाप्त हो गयी; पर अंग्रेजों की सहायता से निजाम फिर शक्तिशाली हो गया और देश की स्वाधीनता के बाद गृहमंत्री सरदार पटेल के साहसी कदम से 1948 में ही उसका पराभव हुआ।

(संदर्भ : अजेय योद्धा, बाजीराव पेशवा, इंदौर से प्रकाशित)
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25 फरवरी/पुण्य-तिथि                                   

काले कपड़ों वाले जनरल केदारनाथ सहगल

भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में लाला केदारनाथ सहगल ‘काले कपड़ों वाले जनरल’ के नाम से जाने जाते थे। 10 अक्तूबर, 1897 को  उनका जन्म लाहौर के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। माता-पिता ने उन्हें एक अच्छे और महँगे विद्यालय में यह सोचकर भर्ती कराया कि इससे उनका भविष्य उज्जवल बनेगा; पर वहाँ के प्रधानाचार्य स्वयं क्रान्तिकारी थे, अतः उनके मन में बचपन से ही देशसेवा की भावना घर कर गयी। 
उस समय पंजाब में सरदार अजीत सिंह तथा सूफी अम्बाप्रसाद ‘भारतमाता संस्था’ के माध्यम से गाँव-गाँव घूमकर अंग्रेजों को भूमिकर न देने का अभियान चला रहे थे। 1907 में 11 वर्ष की अवस्था में ही केदारनाथ जी भी उसमें शामिल हो गये। 1911 में सशस्त्र कानून के अन्तर्गत उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया। जेल जाने से उनकी इनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गयी; पर उन्होंने कुछ चिन्ता नहीं की।
1914 में उन्हें लाहौर में हुए एक कांड में अपराधी ठहराकर फिर गिरफ्तार किया गया। तीन साल तक चले मुकदमे के बाद उन्हें साढ़े चार साल की सजा देकर मुल्तान जेल भेज दिया गया। वहाँ से आते ही वे गांधी जी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। उस समय वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की लाहौर कमेटी के महामन्त्री थे। 1920 में उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि जब तक भारत स्वतन्त्र नहीं होगा, तब तक वे काले कपड़े ही पहनेंगे। तब से ही लोग उन्हें ‘काले कपड़ों वाला जनरल’ कहने लगे।
1921 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तो उसके विरोध में पंजाब में भारी आन्दोलन हुआ। लाहौर में हुए विरोध कार्यक्रम में उन्होंने अपने साथियों सहित साइमन को काले झंडे दिखाये। पुलिस ने भारी लाठीचार्ज किया, जिसमें लाला लाजपतराय बहुत घायल हुए। वह चोट उनके लिए घातक सिद्ध हुई और वे चल बसे। आगे चलकर भगतसिंह और उनके साथियों ने इसका बदला सांडर्स को मौत की नींद सुलाकर लिया।
सांडर्स कांड में केदारनाथ जी को भी तीन साल की सजा हुई। इसके अतिरिक्त मेरठ षड्यन्त्र कांड में भी उन्हें पाँच साल सीखचों के पीछे रहना पड़ा। प्रयाग उच्च न्यायालय में अपील के बाद 1933 में वे रिहा हुए। अपनी आवाज सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए उन्होंने ‘खबरदार’ तथा ‘उर्दू अखबार’ नामक दो समाचार पत्र प्रारम्भ किये। लाला लाजपतराय के अखबार ‘वन्देमातरम’ के प्रकाशक भी वही थे। इन पत्रों में शासन की खूब खिंचाई की जाती थी। आन्दोलन के समाचारों के लिए लोग इनकी प्रतीक्षा करते थे। 
शासन को ये अखबार फूटी आँखों नहीं सुहाते थे। अतः उसने इन्हें बन्द करा दिया। केदारनाथ जी ने अपने पूर्वजों की सारी सम्पत्ति बेचकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में लगा दी। उन्होंने अपने जीवन के कुल 26 साल अंग्रेजों की जेलों में बिताये। वहाँ उन्हें अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक यातनाएँ झेलनी पड़ीं; पर इन्होंने झुकना या पीछे हटना स्वीकार नहीं किया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद पांच साल वे पंजाब विधानसभा के सदस्य और मंत्री भी रहे। उस दौरान भी उनकी प्राथमिकता जन कल्याण ही थी। 25 फरवरी, 1963 को हृदयगति रुक जाने से दिल्ली में उनका देहान्त हो गया। काले कपड़ों वाले जनरल के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए उनके साथियों ने उनके कफन में भी काले कपड़ों का ही प्रयोग किया।
(पं.के. 4.4.2016/7, डा. चंद्र त्रिखा) तथा विकी 
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25 फरवरी/बलिदान-दिवस                                   
गोभक्त अरुण माहौर 
 
भारत में सदा से ही गाय को पूज्य माना जाता है। अनेक लोग गोरक्षा के लिए हर संकट उठाने का तैयार रहते हैं। ऐसे ही एक गोभक्त थे श्री अरुण माहौर, जिन्हें हत्यारों ने गोली मारकर सदा की नींद सुला दिया।
उत्तर प्रदेश में आगरा एक प्रसिद्ध नगर है। ताजमहल को देखने दुनिया भर के लोग वहां आते हैं। वहां पर ही श्री रमेश चंद्र जी के घर में गोभक्त अरुण माहौर का जन्म हुआ था। उनका घर आगरा के मुस्लिम बहुत मोहल्ले मंटोला में था। कई हिन्दू परिवारों ने दूसरी जगह घर बना लिये थे; पर रमेश जी की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। सबके सुख-दुख में सहभागी होने के कारण मोहल्ले में सबसे उनके अच्छे सम्बन्ध थे। अतः वे यहीं रह रहे थे।
अरुण जी बचपन से ही वे साहसी स्वभाव के थे। अतः कोई गलत काम होते देख वे चुप नहीं रह पाते थे।। लड़कियों के अपहरण या हिन्दू उत्पीड़न की कोई घटना होते ही वे पीडि़त परिवार की सहायता तथा पुलिस के माध्यम से अपराधियों को दंडित कराने का प्रयास करते थे। वे अपने मोहल्ले के हिन्दुओं को यहीं डटे रहने के लिए भी प्रेरित करते थे। तीन साल पूर्व उनकी फर्नीचर की दुकान को गुंडों ने जला दिया, जिससे डर कर वे भाग जाएं; पर अरुण जी ने मोहल्ला नहीं छोड़ा।
गोरक्षा में तो अरुण माहौर के प्राण ही बसते थे। सड़क पर यदि कोई घायल गाय मिलती, तो वे उसके इलाज का प्रबन्ध करते थे। उनके पिताजी नगर कांग्रेस कमेटी में पदाधिकारी थे। उनके दादा श्री गणेशीलाल जी भी कांग्रेस में सक्रिय रहे; पर अरुण जी पिछले 15 साल से ‘विश्व हिन्दू परिषद’ से जुड़े थे। इन दिनों वे परिषद में आगरा महानगर के उपाध्यक्ष थे। उन्हें गायों की तस्करी या गोहत्या की सूचना यदि रात में भी मिलती, तो वे उसे रोकने चल देते थे। उनके तथा ‘बजरंग दल’ के युवकों के कारण हजारों गायों की रक्षा हुई तथा आगरा के विभिन्न थानों में लगभग 250 मामले दर्ज हुए। 
आगरा में मुख्यतः ‘नाई की मंडी’ में गोमांस का अवैध कारोबार होता है। अरुण जी के कारण गोतस्करों को बहुत हानि हो रही थी। अतः वे उनकी आंखों में कांटे की तरह खटकने लगे। उन्होंने कई बार उन्हें जान से मारने की धमकी दी गयी; पर वे डरे नहीं। 23 फरवरी को आवारागर्दी करते हुए एक गुंडे शाहरुख से उनकी झड़प हुई थी। वह प्रायः पिस्तौल दिखाकर लड़कियों को छेड़ता था। अगले दिन उसने लोगों को धमकाया कि कल इस बस्ती से एक आदमी कम हो जाएगा। माहौल बिगड़ता देख लोगों ने थाने में कहा; पर कुछ सुनवाई नहीं हुई और अगले ही दिन 25 फरवरी, 2016 को दिनदहाड़े गुंडों ने अरुण जी की हत्या कर दी। 
अरुण जी की आयु केवल 45 वर्ष थी। परिवार में अकेले वे ही कमाने वाले थे। छह महीने पूर्व इसी राज्य के दादरी में गोमांस की अफवाह के कारण मारे गये अखलाक के परिवार को प्रदेश शासन ने 45 लाख रु. नगद, चार मकानों के लिए 36 लाख रु. तथा उसके दो आश्रितों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की थी। जबकि अखलाक का एक बेटा वायुसेना में कार्यरत है; लेकिन जनता के बहुत शोर मचाने पर भी उ.प्र. सरकार ने स्वर्गीय अरुण माहौर के परिवार को केवल 15 लाख रु. की सहायता दी। इतना ही नहीं, तो उनकी श्रद्धांजलि सभा में अनेक रोड़े अटकाये। फिर भी हजारों लोगों ने वहां आकर गोरक्षा का संकल्प लिया। (संदर्भ: पांचजन्य 13.3.2016)

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26 फरवरी/पुण्य-तिथि                                   

हिन्दी और हिन्दुत्व प्रेमी वीर सावरकर

वीर विनायक दामोदर सावरकर दो आजन्म कारावास की सजा पाकर कालेपानी नामक कुख्यात अन्दमान की सेल्युलर जेल में बन्द थे। वहाँ पूरे भारत से तरह-तरह के अपराधों में सजा पाकर आये बन्दी भी थे। सावरकर उनमें सर्वाधिक शिक्षित थे। वे कोल्हू पेरना, नारियल की रस्सी बँटना जैसे सभी कठोर कार्य करते थे। इसके बाद भी उन्हें अमानवीय यातनाएँ दी जाती थीं।

भारत की एकात्मता के लिए हिन्दी की उपयोगिता समझकर उन्होंने खाली समय में बन्दियों को हिन्दी पढ़ाना प्रारम्भ किया। उन्होंने अधिकांश बन्दियों को एक ईश्वर, एक आत्मा, एक देश तथा एक सम्पर्क भाषा के लिए सहमत कर लिया। उनके प्रयास से अधिकांश बन्दियों ने प्राथमिक हिन्दी सीख ली और वे छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ने लगे। 

अब सावरकर जी ने उन्हें रामायण, महाभारत, गीता जैसे बड़े धर्मग्रन्थ पढ़ने को प्रेरित किया। उनके प्रयत्नों से जेल में एक छोटा पुस्तकालय भी स्थापित हो गया। इसके लिए बन्दियों ने ही अपनी जेब से पैसा देकर ‘पुस्तक कोष’ बनाया था।

जेल में बन्दियों द्वारा निकाले गये तेल, उसकी खली-बिनौले तथा नारियल की रस्सी आदि की बिक्री की जाती थी। इसके लिए जेल में एक विक्रय भण्डार बना था। जब सावरकर जी को जेल में रहते काफी समय हो गया, तो उनके अनुभव, शिक्षा और व्यवहार कुशलता को देखकर उन्हें इस भण्डार का प्रमुख बना दिया गया। इससे उनका सम्पर्क अन्दमान के व्यापारियों और सामान खरीदने के लिए आने वाले उनके नौकरों से होने लगा।

वीर सावरकर ने उन सबको भी हिन्दी सीखने की प्रेरणा दी। वे उन्हें पुस्तकालय की हिन्दी पुस्तकें और उनके सरल अनुवाद भी देने लगे। इस प्रकार बन्दियों के साथ-साथ जेल कर्मचारी, स्थानीय व्यापारी तथा उनके परिजन हिन्दी सीख गये। अतः सब ओर हिन्दी का व्यापक प्रचलन हो गया। 

सावरकर जी के छूटने के बाद भी यह क्रम चलता रहा। यही कारण है कि आज भी केन्द्र शासित अन्दमान-निकोबार द्वीपसमूह में हिन्दी बोलने वाले सर्वाधिक हैं और वहाँ की अधिकृत राजभाषा भी हिन्दी ही है।

अन्दमान में हिन्दू बन्दियों की देखरेख के लिए अंग्रेज अधिकारियों की शह पर तीन खूंखार मुसलमान पहरेदार रखे गये थे। वे हिन्दुओं को कई तरह से परेशान करते थे। बिना किसी बात के गाली देना, डंडे मारना तथा देवी-देवताओं को अपमानित करना सामान्य बात थी। वे उनके भोजन को छू लेते थे। इस पर अनेक हिन्दू उसे अपवित्र मानकर नहीं खाते थे। उन्हें भूखा देखकर वे बहुत खुश होते थे तथा उस भोजन को स्वयं खा लेते थे। सावरकर जी ने हिन्दू कैदियों को समझाया कि राम-नाम में सब अपवित्रताओं को समाप्त करने की शक्ति है। इससे हिन्दू बन्दी श्रीराम का नाम लेकर भोजन करने लगे; पर इससे मुसलमान पहरेदार चिढ़ गये।
एक बार एक पहरेदार ने हिन्दू बन्दी को कहा - काफिर, तेरी चोटी उखाड़ लूँगा। हिन्दू बन्दियों का आत्मविश्वास इतना बढ़ चुका था कि वह यह सुनकर पहरेदार की छाती पर चढ़ गया और दोनों हाथों से उसे इतने मुक्के मारे कि पहरेदार बेहोश हो गया। 

इस घटना से भयभीत होकर उन पहरेदारों ने हिन्दू बन्दियों से छेड़छाड़ बन्द कर दी। कारागार में मुसलमान पहरेदार हिन्दू बन्दियों को परेशानकर मुसलमान बना लेते थे। सावरकर जी ने ऐसे सब धर्मान्तरितों  को शुद्ध कर फिर से हिन्दू बनाया।

हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्थान के प्रबल समर्थक वीर विनायक दामोदर सावरकर का देहावसान 26 फरवरी, 1966 को हुआ था।
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27 फरवरी/बलिदान-दिवस                                

चंद्रशेखर आजाद, जो सदा आजाद रहे

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों में चन्द्रशेखर आजाद का नाम सदा अग्रणी रहेगा। उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को ग्राम माबरा (झाबुआ, मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनके पूर्वज गाँव बदरका (जिला उन्नाव, उत्तर प्रदेश) के निवासी थे; पर अकाल के कारण इनके पिता श्री सीताराम तिवारी माबरा में आकर बस गये थे। 

बचपन से ही चन्द्रशेखर का मन अंग्रेजों के अत्याचार देखकर सुलगता रहता था। किशोरावस्था में वे भागकर अपनी बुआ के पास बनारस आ गये और संस्कृत विद्यापीठ में पढ़ने लगे। 

बनारस में ही वे पहली बार विदेशी सामान बेचने वाली एक दुकान के सामने धरना देते हुए पकड़े गये। थाने में हुई पूछताछ में उन्होंने अपना नाम आजाद, पिता का नाम स्वतन्त्रता और घर का पता जेलखाना बताया। इस पर बौखलाकर थानेदार ने इन्हें 15 बेंतों की सजा दी। हर बेंत पर ये ‘भारत माता की जय’ बोलते थे। तब से ही इनका नाम 'आजाद' प्रचलित हो गया।

आगे चलकर आजाद ने सशस्त्र क्रान्ति के माध्यम से देश को आजाद कराने वाले युवकों का एक दल बना लिया। भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, बिस्मिल, अशफाक, मन्मथनाथ गुप्त, शचीन्द्रनाथ सान्याल, जयदेव आदि उनके सहयोगी थे। 

आजाद तथा उनके सहयोगियों ने नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ से सहारनपुर जाने वाली रेल को काकोरी स्टेशन के पास रोककर सरकारी खजाना लूट लिया। यह अंग्रेज शासन को खुली चुनौती थी, अतः सरकार ने क्रान्तिकारियों को पकड़ने में पूरी ताकत झोंक दी।

पर आजाद को पकड़ना इतना आसान नहीं था। वे वेष बदलकर क्रान्तिकारियों के संगठन में लगे रहे। ग्वालियर में रहकर इन्होंने गाड़ी चलाना और उसकी मरम्मत करना भी सीखा। 

17 दिसम्बर, 1928 को इनकी प्रेरणा से ही भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि ने लाहौर में पुलिस अधीक्षक कार्यालय के ठीक सामने सांडर्स को यमलोक पहुँचा दिया। अब तो पुलिस बौखला गयी; पर क्रान्तिवीर अपने काम में लगे रहे।

कुछ समय बाद क्रान्तिकारियों ने लाहौर विधानभवन में बम फेंका। यद्यपि उसका उद्देश्य किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं था। बम फेंककर भगतसिंह तथा बटुकेश्वर दत्त ने आत्मसमर्पण कर दिया। उनके वीरतापूर्ण वक्तव्यों सेे जनता में क्रान्तिकारियों के प्रति फैलाये जा रहे भ्रम दूर हुए। दूसरी ओर अनेक क्रान्तिकारी पकड़े भी गये। उनमें से कुछ पुलिस के अत्याचार न सह पाये और मुखबिरी कर बैठे। इससे क्रान्तिकारी आन्दोलन कमजोर पड़ गया। 

वह 27 फरवरी, 1931 का दिन था। पुलिस को किसी मुखबिर से समाचार मिला कि आज प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में चन्द्रशेखर आजाद किसी से मिलने वाले हैं। पुलिस नेे समय गँवाये बिना पार्क को घेर लिया। आजाद एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने साथी की प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही उनकी निगाह पुलिस पर पड़ी, वे पिस्तौल निकालकर पेड़ के पीछे छिप गये। 

कुछ ही देर में दोनों ओर से गोली चलनेे लगी। इधर चन्द्रशेखर आजाद अकेले थे और उधर कई जवान। जब आजाद की पिस्तौल में एक गोली रह गयी, तो उन्होंने देश की मिट्टी अपने माथे से लगायी और उस अन्तिम गोली को अपनी कनपटी में मार लिया। उनका संकल्प था कि वे आजाद ही जन्मे हैं और मरते दम तक आजाद ही रहेंगे। उन्होंने इस प्रकार अपना संकल्प निभाया और जीते जी पुलिस के हाथ नहीं आये।
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27 फरवरी/जन्म-दिवस

संकीर्तन द्वारा धर्म बचाने वाले चैतन्य महाप्रभु

अपने संकीर्तन द्वारा पूर्वोत्तर में धर्म बचाने वाले निमाई (चैतन्य महाप्रभु) का जन्म विक्रमी सम्वत् 1542 की फागुन पूर्णिमा (27 फरवरी, 1486) को बंगाल के प्रसिद्ध शिक्षा-केन्द्र नदिया (नवद्वीप) में हुआ था। इनके पिता पण्डित जगन्नाथ मिश्र तथा माता शची देवी थीं। 

बालपन से ही आँगन में नीम के नीचे वे कृष्णलीला करते रहते थे। इसी से इनका नाम निमाई हुआ। देहान्त के बाद इसी पेड़ की लकड़ी से इनकी मूर्ति बनाकर वहाँ स्थापित की गयी। 

एक बार बाग में खेलते समय इनके सम्मुख एक नाग आ गया। निमाई ने श्रीकृष्ण की तरह उसके मस्तक पर अपना पैर रख दिया। बच्चे शोर करते हुए घर की ओर भागे। माँ ने यह देखा, तो वे घबरा गयीं; पर थोड़ी देर में नाग चला गया। तब से सब लोग इन्हें चमत्कारी बालक मानने लगे। 

16 वर्ष की अवस्था में उन्होंने प्रसिद्ध विद्वान् वासुदेव सार्वभौम के पास जाकर न्यायशास्त्र का अध्ययन कर नदिया में अपनी पाठशाला स्थापित कर ली। कुछ समय में ही उनके शिक्षण की सर्वत्र चर्चा होने लगी।

इनका विवाह सूरदास के गुरु श्री वल्लभाचार्य की पुत्री लक्ष्मी से हुआ; पर कुछ समय बाद ही सर्पदंश से वह चल बसी। सबके आग्रह पर उन्होंने विष्णुप्रिया से पुनर्विवाह किया। पिता के देहान्त के बाद उनका श्राद्ध करने वे गया गये। वहाँ उनकी भेंट स्वामी ईश्वरपुरी से हुई। इससे उनका जीवन बदल गया। अब वे दिन रात श्रीकृष्ण-भक्ति में डूबे रहने लगे। 

उन्होंने पाठशाला बन्द कर दी और 24 वर्ष की अवस्था में मकर संक्रान्ति पर स्वामी केशवानन्द भारती से संन्यास की दीक्षा ले ली। उन्हें श्रीकृष्ण चैतन्य नाम दिया गया। कुछ समय बाद लोग उन्हें चैतन्य महाप्रभु कहने लगे।

अब वे कुछ भक्तों के साथ वृन्दावन की ओर निकल पड़े। वहाँ उनकी भेंट बंगाल के ही एक युवा संन्यासी निताई से हुई। आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आन्दोलन में निताई का विशेष योगदान रहा। निताई के बाद नित्यानन्द, अद्वैत, हरिदास, श्रीधर, मुरारी, मुकुन्द, श्रीवास आदि विविध जाति एवं वंश के भक्त इनके साथ जुड़ गये। इनके संकीर्तन से भक्ति की धूम मच गयी। जहाँ भी वे जाते, लोग कीर्तन करते हुए इनके पीछे चल देते।

उन दिनों बंगाल में मुस्लिम नवाबों का बहुत आतंक था; पर इनके प्रभाव से अनेक का स्वभाव बदल गया। धीरे-धीरे निमाई को लगा कि प्रभुनाम के प्रचार के लिए घर छोड़ना होगा। अतः वे जगन्नाथपुरी जाकर रहने लगे। वहाँ वे कीर्तन एवं भक्ति के आवेश में बेसुध हो जाते थे। 

कुछ समय बाद वे यात्रा पर निकले। सब स्थानों पर इनके कीर्तन से सुप्त और भयभीत हिन्दुओं में चेतना आयी। धर्म छोड़ने जा रहे लोग रुक गये। दो वर्ष तक दक्षिण और पश्चिम के तीर्थों की यात्रा कर वे फिर पुरी आ गये। 

विक्रम सम्वत् 1590 की आषाढ़ सप्तमी वाले दिन ये जगन्नाथ मन्दिर में भक्ति के आवेश में मूर्ति से लिपट गये। कहते हैं कि इनके अन्दर जाते ही मन्दिर के द्वार स्वयमेव बन्द हो गये। बाद में द्वार खोलने पर वहाँ कोई नहीं मिला। इनके भक्तों की मान्यता है कि ये मूर्ति में ही समाहित हो गये। कुछ लोग इनके देहान्त का कारण आवेशवस्था में समुद्र में डूबना बताते हैं।

संकीर्तन के माध्यम से भी धर्म की रक्षा हो सकती है, यह चैतन्य महाप्रभु ने सिद्ध कर दिखाया। आज भी जब वैष्णव भक्त संकीर्तन करते हैं, तो एक अद्भुत दृश्य उत्पन्न हो जाता है।
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27 फरवरी/जन्म-दिवस

केशवकुटी के स्नेहछत्र बालासाहब शिरपुरकर

संघ के वरिष्ठ प्रचारक बालासाहब (दिगंबर श्रीधरराव) शिरपुरकर का जन्म महाल (नागपुर) में 27 फरवरी, 1935 (दासनवमी) को हुआ था। उनके पिता श्रीधर बाजीराव तथा माता श्रीमती वत्सला श्रीधर शिरपुरकर थीं। वे तीन बहिन तथा दो भाई थे। उनकी पढ़ाई नागपुर में ही हुई। वे बालपन से ही मोहिते शाखा पर जाने लगे थे। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। बालासाहब देवरस से भी उनके घरेलू संबंध थे। विजयादशमी पर वहां की परम्परा के अनुसार वे श्री गुरुजी को और फिर अपने कुल पुरोहित आर्वीकर शास्त्री को स्वर्णपत्र देकर आशीर्वाद प्राप्त करते थे।

पढ़ाई के बाद श्री गुरुजी और बालासाहब देवरस ने उनके माता-पिता से आग्रह किया कि वे दो में से एक पुत्र को राष्ट्रकार्य के लिए समर्पित करें। बालासाहब तथा दूसरे भाई सुरेश दोनों इसके लिए तैयार थे; पर माताजी ने बड़े पुत्र को अनुमति दी। लेकिन वे घर में सबसे बड़े थे। इसलिए वृद्ध पिता, छोटे भाई तथा दो बहिनों की जिम्मेदारी उन पर ही थी। अतः कुछ वर्ष उन्होंने भारतीय जीवन बीमा निगम तथा फिर रायपुर में कृषि विभाग में काम किया। 1964 में छोटी बहिन के विवाह के बाद उन्होंने प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया।

वे म.प्र. के रायगढ़, जशपुर, सारंगढ़, बिलाई गढ़, छिंदवाड़ा, छतरपुर, शहडोल और रीवां में जिला तथा विभाग प्रचारक रहे। इनमें से कई स्थानों पर ईसाई मिशनरियों का सघन कार्य है। ऐसी कठिन परिस्थितियों में उन्होंने लगातार प्रवास कर संघ की शाखाएं खड़ी कीं। कुछ समय उन पर विश्व हिन्दू परिषद का काम भी रहा। 1995 में प्रांत सह व्यवस्था प्रमुख के नाते उनका केन्द्र जबलपुर बना। तबसे वे संघ कार्यालय (केशव कुटी) में ही रहते थे।

आपातकाल में वे जबलपुर की केन्द्रीय जेल में थे। वहां कई बड़े राजनेता भी थे। पहले तो सब ठीक चला, फिर उनके आपसी अहम् टकराने लगे। कब मुक्त होंगे, इसका कुछ पता नहीं था। इससे उनके मन में निराशा उत्पन्न हो गयी। अतः वातावरण बिगड़ने लगा। कई बार तो झगड़े भी हुए। ऐसे में बालासाहब तथा जनंसघ के नेता सरदार आंग्रे ने माहौल को संभाला। बालासाहब को पोथी-पत्रा तथा ज्योतिष का ज्ञान भी था। उन्होंने सबको जपमाला देकर कुछ पूजा-पाठ तथा मंत्र आदि बताए। इससे माहौल काफी ठीक हो गया।

वे साल में दो बार नवरात्रि में घर आकर पूजा में शामिल होते थे। एक समय उपवास रखते थे। उनके छोटे भाई सुरेश जी उन्हें हर साल अपने हाथ से सिलकर एक कुर्ता देते थे, जिसे वे बहुत आनंद से पहनते थे। बागबानी में भी उनकी काफी रुचि थी। घर आने पर सब पुराने मित्र मिलने आते थे।

जबलपुर कार्यालय पर उनकी दिनचर्या बहुत अनुशासित एवं संयमित थी। सुबह उठना, प्रातः स्मरण, अल्पाहार, भोजन, पूजा, व्यायाम, टहलना, सफाई आदि सब निर्धारित समय पर होता था। कार्यालय के कर्मचारियों का भी वे पूरा ध्यान रखते थे। इस दिनचर्या का पालन न करने वाले कुछ युवा कार्यकर्ताओं को उनकी स्नेहपूर्ण डांट भी खानी पड़ती थी। यद्यपि भोजन समाप्त हो जाने पर वे उनके लिए स्वयं चाय और खाना बना भी देते थे। वरिष्ठ अधिकारियों के आवागमन की भी वे पूरी व्यवस्था करते थे।

बालासाहब जीवन के अंतिम दिन तक सक्रिय रहे। 15 दिसम्बर, 2023 को उन्होंने सुबह सबके साथ चाय पी। 8.30 से 9.30 तक वे पूजा करते थे। पर उस दिन 10 बजे तक जब वे बाहर नहीं आये, तो लोग उनके कमरे में गये। वहां वे नीचे चटाई पर बिस्तर का सहारा लेकर बैठे थे। सामने रामायण खुली थी। इसी अवस्था में उनका जीवन पूर्ण हुआ। सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि केशवकुटी का स्नेहछत्रचला गया।

(पांचजन्य 7.1.24/45, जबलपुर कार्यालय एवं भतीजा वैभव शिरपुरकर)

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28 फरवरी/जन्म-दिवस

भक्ति आंदोलन के उन्नायक सन्त दादू

भारत सदा से सन्तों की भूमि रही है। जब-जब धर्म पर संकट आया, तब-तब सन्तों ने अवतार लेकर भक्ति के माध्यम से समाज को सही दिशा दी। ऐसे ही एक महान् सन्त थे दादू दयाल।

दादू का जन्म गुजरात प्रान्त के कर्णावती (अमदाबाद) नगर में 28 फरवरी, 1601 ई0 (फाल्गुन पूर्णिमा) को हुआ था; पर किसी अज्ञात कारण से इनकी माता ने नवजात शिशु को लकड़ी की एक पेटी में बन्दकर साबरमती नदी में प्रवाहित कर दिया। 

कहते हैं कि लोदीराम नागर नामक एक ब्राह्मण ने उस पेटी को देखा, तो उसे खोलकर बालक को अपने घर ले आया। बालक में बालसुलभ चंचलता के स्थान पर प्राणिमात्र के लिए करुणा और दया भरी थी। इसी से सब लोग इन्हें दादू दयाल कहने लगे।

विवाहोपरान्त इनके घर में दो पुत्र और दो पुत्रियों का जन्म हुआ। इसके बाद इनका मन घर-गृहस्थी से उचट गया और ये जयपुर के पास रहने लगे। यहाँ सत्संग और साधु-सेवा में इनका समय बीतने लगा; पर घर वाले इन्हें वापस बुला ले गये। अब दादू जीवनयापन के लिए रुई धुनने लगे। 

इसी के साथ उनकी भजन साधना भी चलती रहती थी। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि फैलने लगी। केवल हिन्दू ही नहीं, तो अनेक मुस्लिम भी उनके शिष्य बन गये। यह देखकर एक काजी ने इन्हें दण्ड देना चाहा; पर कुछ समय बाद काजी की ही मृत्यु हो गयी। तबसे सब इन्हें अलौकिक पुरुष मानने लगे।

दादू धर्म में व्याप्त पाखण्ड के बहुत विरोधी थी। कबीर की भाँति वे भी पण्डितों और मौलवियों को खरी-खरी सुनाते थे। उनका कहना था कि भगवान की प्राप्ति के लिए कपड़े रंगने या घर छोड़ने की आवश्यकता नहीं है। वे सबसे निराकार भगवान् की पूजा करने तथा सद्गुणों को अपनाने का आग्रह करते थे। 

आगे चलकर उनके विचारों को लोगों ने ‘दादू पन्थ’ का नाम दे दिया। इनके मुस्लिम अनुयायियों को ‘नागी’ कहा जाता था, जबकि हिन्दुओं में वैष्णव, विरक्त, नागा और साधु नामक चार श्रेणियाँ थीं। दादू की शिक्षाओं को वाणी कहा जाता है। वे कहते थे -

दादू कोई दौड़े द्वारका, कोई कासी जाहि
कोई मथुरा को चले, साहिब घर ही माहि।।

जीव हिंसा का विरोध करते हुए दादू कहते हैं -

कोई काहू जीव की, करै आतमा घात
साँच कहूँ सन्सा नहीं, सो प्राणी दोजख जात।।

दादू दयाल जी कबीर, नानक और तुलसी जैसे सन्तों के समकालीन थे। जयपुर से 61 किलोमीटर दूर स्थित ‘नरेना’ उनका प्रमुख तीर्थ है। यहाँ इस पन्थ के स्वर्णिम और गरिमामय इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है। 

यहाँ के संग्रहालय में दादू महाराज के साथ-साथ गरीबदास जी की वाणी, इसी पन्थ के दूसरे सन्तों के हस्तलिखित ग्रन्थ, चित्रकारी, नक्काशी, रथ, पालकी, बग्घी, हाथियों के हौदे और दादू की खड़ाऊँ आदि संग्रहित हैं। यहाँ मुख्य उत्सव फाल्गुन पूर्णिमा को होता है। इस अवसर पर लाखों लोग जुटते हैं, जो बिना किसी भेदभाव के एक पंगत में भोजन करते हैं।

निर्गुण भक्ति के माध्यम से समाज को दिशा देने वाले श्रेष्ठ समाज सुधारक और परम सन्त दादू दयाल इस जगत में साठ वर्ष बिताकर 1660 ई0 में अपने परमधाम को चले गये।
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28 फरवरी/बलिदान-दिवस

सम्बलपुर का क्रांतिवीर सुरेन्द्र साय

भारत में जब से ब्रिटिश लोगों ने आकर अपनी सत्ता स्थापित की, तब से ही उनका विरोध हर प्रान्त में होने लगा था। 1857 में यह संगठित रूप से प्रकट हुआ; पर इससे पूर्व अनेक ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने अंग्रेजों की नाक में दम किये रखा। वीर सुरेन्द्र साय ऐसे ही एक क्रान्तिवीर थे।

सुरेन्द्र साय का जन्म ग्राम खिण्डा (सम्बलपुर, उड़ीसा) के चौहान राजवंश में 23 जनवरी, 1809 को हुआ था। इनका गाँव सम्बलपुर से 30 कि.मी की दूरी पर था। युवावस्था में उनका विवाह हटीबाड़ी के जमींदार की पुत्री से हुआ, जो उस समय गंगापुर राज्य के प्रमुख थे। आगे चलकर सुरेन्द्र के घर में एक पुत्र मित्रभानु और एक पुत्री ने जन्म लिया। 

1827 में सम्बलपुर के राजा का निःसन्तान अवस्था में देहान्त हो गया। राजवंश का होने के कारण राजगद्दी पर अब सुरेन्द्र साय का हक था; पर अंग्रेज जानते थे कि सुरेन्द्र उनका हस्तक बन कर नहीं रहेगा। इसलिए उन्होंने राजा की पत्नी मोहन कुमारी को ही राज्य का प्रशासक बना दिया। मोहन कुमारी बहुत सरल महिला थीं। उन्हें राजकाज की कुछ जानकारी नहीं थी। अतः अंग्रेज उन्हें कठपुतली की तरह अपनी उँगलियों पर नचाने लगे। 

लेकिन अंग्रेजों की इस धूर्तता से उस राज्य के सब जमींदार नाराज हो गये। उन्होंने मिलकर इसका सशस्त्र विरोध करने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने सुरेन्द्र साय को नेता बनाया। धीरे-धीरे इनके संघर्ष एवं प्रतिरोध की गति बढ़ने लगी। इससे अंग्रेज अधिकारी परेशान हो गये। 

1837 में सुरेन्द्र साय, उदन्त साय, बलराम सिंह तथा लखनपुर के जमींदार बलभद्र देव मिलकर डेब्रीगढ़ में कुछ विचार-विमर्श कर रहे थे कि अंग्रेजों ने वहाँ अचानक धावा बोल दिया। उन्होंने बलभद्र देव की वहीं निर्ममता से हत्या कर दी; पर शेष तीनों लोग बचने में सफल हो गये।

इस हमले के बाद भी इनकी गतिविधियाँ चलती रहीं। अंग्रेज भी इनके पीछे लगे रहे। उन्होंने कुछ जासूस भी इनको पकड़ने के लिए लगा रखे थे। ऐसे ही देशद्रोहियों की सूचना पर 1840 में सुरेन्द्र साय, उदन्त साय तथा बलराम सिंह अंग्रेजों की गिरफ्त में आ गये। तीनों को आजन्म कारावास का दण्ड देकर हजारीबाग जेल में डाल दिया गया। ये तीनों परस्पर रिश्तेदार भी थे।

पर इनके साथी शान्त नहीं बैठे। 30 जुलाई, 1857 को सैकड़ों क्रान्तिवीरों ने हजारीबाग जेल पर धावा बोला और सुरेन्द्र साय को 32 साथियों सहित छुड़ा कर ले गये। सुरेन्द्र साय ने सम्बलपुर पहुँचकर फिर से अपने राज्य को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र संग्राम शुरू कर दिया। 

अंग्रेज पुलिस और सुरेन्द्र साय के सैनिकों में परस्पर झड़प होती ही रहती थी। कभी एक का पलड़ा भारी रहता, तो कभी दूसरे का; पर सुरेन्द्र साय और उनके साथियों ने अंग्रेजों को चैन की नींद नहीं सोने दिया।

23 जनवरी, 1864 को जब सुरेन्द्र साय अपने परिवार के साथ सो रहे थे, तब अंग्रेज पुलिस ने छापा मारकर उन्हें पकड़ लिया। रात में ही उन्हें सपरिवार रायपुर ले जाया गया और फिर अगले दिन नागपुर की असीरगढ़ जेल में बन्द कर दिया। जेल में भरपूर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद भी सुरेन्द्र ने विदेशी शासन के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया।

अपने जीवन के 37 साल जेल में बिताने वाले उस वीर ने 28 फरवरी, 1884 को असीरगढ़ किले की जेल में ही अन्तिम साँस ली।
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28 फरवरी/पुण्य-तिथि

कलाकार अभियन्ता सुजाता रंगराजन

क्या भारत के चुनावों में प्रयोग की जाने वाली मशीन और दक्षिण के प्रसिद्ध अभिनेता रजनीकान्त की फिल्म ‘शिवाजी’ में कोई सम्बन्ध हो सकता है ? सुनने में यह आश्चर्यजनक लग सकता है; पर यह सम्बन्ध था सुजाता रंगराजन के रूप में। शिक्षा और पेशे से अभियन्ता सुजाता हृदय से बहुमुखी प्रतिभा के धनी कलाकार थे। उन्होंने इन दोनों ही क्षेत्रों में अविस्मरणीय कार्य किया।

भारत इलैक्ट्रोनिक्स में अपने कार्यकाल में उन्होंने इन मशीनों का विकास करने वाले दल का नेतृत्व किया था। मद्रास इन्स्टीट्यूट ऑफ टैक्नॉलॉजी से इलैक्ट्रोनिक्स परास्नातक कर सुजाता ने पहले नागरिक उड्डयन विभाग में काम किया। फिर वे भारत इलैक्ट्रोनिक्स  बंगलौर में जनरल मैनेजर (शोध एवं विकास) के पद पर आ गये। 

1952-54 में तिरुचिरापल्ली में स्नातक की पढ़ाई के समय वे प्रसिद्ध वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति डा0 कलाम के सहपाठी थे। वे भी डा0 कलाम की तरह समय से आगे की सोचते थे। वोटिंग मशीन से बहुत पहले उन्होंने कम्प्यूटर में लिखने (टाइपिंग) की सुविधा देने वाले शब्द संसाधक (वर्ड प्रोसेसर) सॉफ्टवेयर के विकास में भी विशिष्ट योगदान दिया। 

तकनीक के क्षेत्र में अपने काम के लिए 1993 में उन्हें राष्ट्रीय विज्ञान और टैक्नॉलॉजी परिषद ने पुरस्कृत किया। पुरस्कार उन्हें साहित्य और फिल्मों के क्षेत्र में भी पर्याप्त मिले। वे तमिल साहित्य में आधुनिकता की धारा बहाने वाले तथा विज्ञान-कथाओं के प्रामाणिक लेखक थे। तमिल सिनेमा में सफलता के कीर्तिमान बनाने वाली ‘शिवाजी’ और ‘दशावतारम्’ जैसी कई फिल्मों की पटकथा सुजाता रंगराजन की लेखनी से ही निकली। 

साहित्यकार के रूप में उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ प्रकाशित करने वाली पत्रिका का नाम भी ‘शिवाजी‘ ही था। विद्यार्थी जीवन में उन्होंने एक कहानी इस पत्रिका को भेजी थी। बाद में प्रसिद्ध ‘कुमुदम्‘ पत्रिका में उनकी पहली लघुकथा छपी। उन्होंने मणिरत्नम की मशहूर फिल्म ‘रोजा‘ के संवाद भी लिखे। 

मणिरत्नम से उनका सम्बन्ध काफी घनिष्ठ था। उनकी इरुवर, कन्नाथिल मुथामित्तल, आयिथा एझुत्थु आदि कई फिल्मों के लिए सुजाता ने पटकथा या संवाद लिखे। दो फिल्में ‘ए पेक ऑफ द चीक’ और ‘फ्रॉम दि हार्ट’ पुरस्कृत भी हुईं। फिल्म निर्देशक शंकर की कई फिल्मों को भी उन्होंने अपनी लेखनी से समृद्ध किया, जिनमें बॉय्ज  अन्नियान, इण्डियन, मुधालवन के नाम उल्लेखनीय हैं।  

एक रोचक तथ्य यह भी है कि ‘रंग दे बसन्ती‘ फिल्म से प्रसिद्ध हुए अभिनेता सिद्धार्थ के जीवन में भी सुजाता का विशिष्ट योगदान है। उन्होंने सिद्धार्थ को शंकर की तमिल फिल्म ‘बॉय्ज‘ में काम दिलवाया। 

सुजाता ने अमर तमिल कवि सुब्रह्मण्य भारती के बारे में एक फिल्म भी बनाई, जो काफी सराही गई। 100 से अधिक उपन्यास, 250 से अधिक  लघुकथाएँ, दस विज्ञान-कथा पुस्तकें, दस नाटक और एक कविता संकलन के रचयिता सुजाता रंगराजन को तमिल साहित्य के सर्वोत्कृष्ट लेखकों में गिना जाता है। 

सुजाता रंगराजन की हमारे लोकतन्त्र, साहित्य, तकनीक और सिनेमा जगत को अविस्मरणीय देन है। 72 साल की आयु में 28 फरवरी, 2008 को चेन्नई में उनका निधन हुआ। भले ही वे अब नहीं हैं; पर वोटिंग मशीन के रूप में विश्व के सबसे बड़े और सफल लोकतन्त्र की नींव को सबल बनाने वाला उनका योगदान सदा याद किया जाएगा।
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28 फरवरी/जन्म-तिथि  

कर्मक्षेत्र में प्राणार्पण करने वाले रमेश बाबू

श्री रमेश बाबू एक युवा प्रचारक थे, जिन्होंने श्रीलंका में कार्य करते हुए एक दुर्घटना में अपना प्राण गंवा दिये। उनकी माता श्रीमती अम्बिका तथा पिता श्री नमः शिवाय पिल्लई नागरकोइल (जिला कन्याकुमारी, तमिलनाडु) के निवासी हैं। वहीं 28 फरवरी 1970 को रमेश बाबू का जन्म हुआ। 

उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा के बाद विद्युत उपकरणों का संचालन व मरम्मत सीखी और उसका डिप्लोमा (आई.टी.आई.) भी किया। संघ के प्रचारक बनने पर वे काफी समय तक तमिलनाडु में तहसील प्रचारक रहेे। 

उनकी योग्यता तथा नये क्षेत्रों में सम्पर्क कर शीघ्र काम फैलाने की सामर्थ्य देखकर उन्हें श्रीलंका भेजा गया। वे शांत भाव से काम करना पसंद करते थे। उन्हें चुनौतीपूर्ण काम करने में बहुत आनंद आता था, अतः उन्होंने सहर्ष इस कार्य को स्वीकार किया।

श्रीलंका की स्थिति बहुत कठिन थी। सब ओर लिट्टे का आतंक रहता था। ऐसे में शाखा चलाना कितना जटिल होगा, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है; पर रमेश बाबू ने अपने मधुर स्वभाव तथा परिश्रमशीलता से काम की जड़ें जमा दीं। वे सादगी को पसंद करते थे, अतः मितव्ययी भी थे। 

प्रभावी वक्ता होने के कारण अपने विषय को ठीक से श्रोताओं के सामने रख पाते थे। उनके पांच साल के कार्यकाल में श्रीलंका में 50 नयी शाखाएं खड़ी हुईं। उन शाखाओं के कारण 15 कार्यकर्ता भारत में संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त करने आये। पांच प्रचारक और कई विस्तारक बने। 

वहां काम करने वाले कार्यकर्ता को संघ के साथ ही अनेक अन्य कामों में भी समय लगाना पड़ता है। संघ के साथ ही राष्ट्र सेविका समिति की भी अनेक महिला कार्यकर्ता भारत में प्रशिक्षण के लिए आयीं। समिति की कई विस्तारिका भी बनीं। विश्व संघ शिविर में भी अनेक कार्यकर्ता आये। 

संघ, राष्ट्र सेविका समिति या विश्व हिन्दू परिषद आदि के कार्यकर्ता भारत से जब प्रवास पर आते थे, तो वे उनके साथ जाकर उनके कार्यक्रमों को सफल बनाते थे। इस प्रकार उन्होंने हर क्षेत्र में कार्य के नये आयाम स्थापित किये।

सुनामी आपदा का कहर दक्षिण भारत के साथ ही श्रीलंका पर भी टूटा था। उस समय उनके साथ सैकड़ों कार्यकर्ताओं ने ग्रामीण क्षेत्रों में सहायता सामग्री एकत्र कर बांटी। इसके बाद अनेक पीड़ितों को मकान बनाकर भी दिये गये। 

यह सब तब था, जबकि युद्धग्रस्त श्रीलंका में कोई कार्यालय नहीं था, यातायात का कोई उचित प्रबन्ध नहीं था। भोजन व विश्राम का कोई ठिकाना नहीं रहता था। उस समय उनका अथक परिश्रम देखकर कार्यकर्ता चकित रह जाते थे। वे कब खाते और कब सोते थे, यह पता ही नहीं लगता था।

पांच अपै्रल, 2009 (रविवार) को वे एक शिविर के लिए कुछ सामग्री लेकर एक वाहन से कैंडी जा रहे थे। उनके साथ समिति की एक कार्यकर्ता भी थी; पर वह वाहन दुर्घटनाग्रस्त हो गया। समिति की कार्यकर्ता को अधिक चोट आयी। अतः उन्होंने एक अन्य वाहन का प्रबन्ध कर उन्हें अस्पताल के लिए भेज दिया। वे स्वयं पीछे आ रहे सेना के एक अन्य वाहन में बैठ गये। 

वे जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंचना चाहते थे; पर दुर्भाग्यवश सेना का वह वाहन भी दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस बार दुर्घटना इतनी भीषण थी कि रमेश बाबू तथा उस वाहन में सवार अन्य कई लोगों की वहीं मृत्यु हो गयी। इस प्रकार एक युवा कर्मयोगी अपने कर्मक्षेत्र में असमय ही काल-कवलित हो गया। वे जीवित रहते, तो उनकी अन्य प्रतिभाएं भी प्रकट होतीं; पर विधाता ने उनके लिए शायद इतना ही समय निर्धारित किया था।
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29 फरवरी/जन्म-तिथि  

साइकिल वाले पत्रकार बापूराव लेले
‘साइकिल वाले पत्रकार’ श्री नारायण बालकृष्ण (बापूराव) लेले का जन्म 29 फरवरी, 1920 को जलगांव (महाराष्ट्र) में हुआ था। बचपन में वे स्वयंसेवक बने और 1940 में डा0 हेडगेवार के देहांत के बाद प्रचारक बन गये। इसी वर्ष उन्होंने मुंबई से बी.कॉम. की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली थी। उन्होंने सांगली, सोलापुर और फिर गुजरात के अमदाबाद, बड़ोदरा आदि में शाखा कार्य किया। लेखन में रुचि होने के कारण इस दौरान भी वे अनेक पत्रों में लिखते थे।

1948 में गांधी जी हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लग गया। ऐसे में बापूराव ने अनेक गुप्त पत्रक निकालकर उनके वितरण का सुचारू तन्त्र बनाया। प्रतिबन्ध के बाद संघ योजना से अनेक पत्र-पत्रिकाएं तथा ‘हिन्दुस्थान समाचार’ नामक समाचार संस्था प्रारम्भ की गयी। इसका केन्द्र मुंबई बनाकर दादा साहब आप्टे तथा बापूराव लेले को यह काम दिया गया। 

थोड़े ही समय में इसने पत्र जगत में प्रतिष्ठा बना ली। बापूराव की पत्रकारिता वृत्ति सदा जाग्रत रहती थी। एक बार नागपुर जाते समय मार्ग में रेल दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। चोट के बाद भी बापूराव ने पूरा विवरण लिखकर मुंबई के दैनिक ‘प्रभात’ को भेज दिया।

1953 में बापूराव दिल्ली बुला लिये गये। वे दिन भर साइकिल पर घूमकर समाचार जुटाते और देश भर में भेजते थे। शासकीय कार्यालयों, संसद और मंत्रियों के घर तक उनकी निर्बाध पहुंच थी। वे संघ के बड़े अधिकारियों की भेंट प्रधानमंत्री तक से करवा देते थे। संघ और शासन के बीच वे सेतु बनकर काम करते थे। वे पांच वर्ष तक ‘भारतीय प्रेस परिषद’ के सदस्य भी रहे। 

काम की विशेष प्रवृत्ति के कारण वे अलग कमरा लेकर रहते थे। 1962 में नागपुर और पुणे से प्रकाशित होने वाले ‘तरुण भारत’ के दिल्ली संवाददाता का काम भी उन पर आ गया। एक मित्र ने उन्हें एक पुराना स्कूटर दे दिया। इससे उनकी गति बढ़ गयी। 

वे 1963 में राष्ट्रपति डा0 राधाकृष्णन के साथ ब्रिटेन और 1966 में शास्त्री जी के साथ ताशकंद गये। 1975 के आपातकाल में पत्रकार होने के नाते उन पर पुलिस ने हाथ नहीं डाला। इसका लाभ उठाकर उनके आवास पर संघ के भूमिगत अधिकारी ठहरने लगे। 

आपातकाल में शासन ने सब समाचार संस्थाओं को मिलाकर ‘समाचार’ नामक एक संस्था बना दी। 1977 में यद्यपि इन्हें फिर स्वतन्त्र कर दिया; पर तब तक हिन्दुस्थान समाचार को भारी आर्थिक हानि हो चुकी थी। 

1980 में इंदिरा गांधी ने फिर सत्ता में आने पर योजनाबद्ध रूप से हिन्दुस्थान समाचार के आर्थिक òोत बंद कर दिये। 1982 में इस पर प्रशासक नियुक्त कर दिया और अंततः 1986 में यह संस्था ठप्प हो गयी; पर बापूराव हिन्दी, गुजराती, मराठी और अंग्रेजी के कई पत्रों में नियमित रूप से लिखते रहे।

बापूराव पत्रकार होते हुए भी मूलतः प्रचारक ही थे। उनकी षष्ठिपूर्ति पर सांगली के एक कार्यक्रम में उन्हें 61,000 रु0 भेंट किये गये। बापूराव ने बिना देखे वह थैली ‘तरुण भारत’ के लिए दे दी। धीरे-धीरे उनका शरीर थकने लगा। अतः उनके भतीजे उन्हें जलगांव ले गये। 

1996 में दिल्ली में उनकी 75वीं वर्षगांठ मनाई गयी। अक्तूबर, 2001 में प्रधानमंत्री अटल जी ने अपने निवास पर उन्हें सम्मानित किया। इस अवसर पर संघ, भाजपा तथा हिन्दुस्थान समाचार से जुड़े उनके सब पुराने मित्र उपस्थित थे। प्रसन्नता और उल्लास के वातावरण में सब उनके गिरते हुए स्वास्थ्य को लेकर चिंतित थे।

जलगांव लौटकर भी उन्हें चैन नहीं था। वे दिल्ली जाकर फिर काम प्रारम्भ करना चाहते थे; पर शरीर निढाल हो चुका था। 11 अगस्त, 2002 को मन के उत्साह एवं उमंग के बावजूद इस ऋषि पत्रकार ने संसार से विदा ले ली।

(संदर्भ - बापूराव लेले : व्यक्ति और कार्य, वसंत आप्टे)
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29 फरवरी/जन्म-दिवस

सिद्धान्तप्रिय राजनेता मोरारजी देसाई

इन दिनों राजनीति में सिद्धांतों के पालन की बात सुनकर लोग हंसते हैं; पर 29 फरवरी, 1896 को जन्मे मोरारजी रणछोड़जी देसाई ने कभी सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। गांधी जी के भक्त मोरारजी 1924 में अपनी सरकारी नौकरी को छोड़कर सविनय अवज्ञा आंदोलन में कूद पड़े। स्वाधीनता आंदोलन में सक्रियता के कारण उन्हें पांच वर्ष जेल में बिताने पड़े।

मोरारजी भाई अविभाजित बम्बई राज्य के मुख्यमंत्री रहे। इससे पूर्व वे 1937 में बालासाहब खेर की कैबिनेट में भी मंत्री थे; लेकिन उन्होंने वहां अपना घर नहीं बनाया। वे सदा किराये के मकान में ही रहे। 

जब उनके मकान मालिक ने उन पर मुकदमा किया, तो सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर उन्हें मकान छोड़ना पड़ा। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने उन्हें किराये पर एक मकान आवंटित किया। कैसा आश्चर्य है कि इसके बाद भी उनके विरोधी उन्हें अमरीका और पूंजीपतियों का दलाल कहकर आलोचना करते रहे।

प्रधानमंत्री नेहरू ब्रिटिश प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित अपनी पुस्तकों की बिक्री का धन लंदन के बैंक में जमा करते थे। इस पर वित्तमंत्री मोरारजी ने उन्हें चेतावनी दी कि यह विदेशी मुद्रा कानून का उल्लंघन है, जिससे उन्हें जेल और अर्थदंड हो सकता है। अतः नेहरू जी को वह धन भारत में लाना पड़ा। 

जब इंदिरा गांधी ने अपने दोनों अवयस्क पुत्रों राजीव और संजय को इंग्लैंड में शिक्षा हेतु भेजने के लिए शासन से विदेशी मुद्रा मांगी, तो वित्तमंत्री मोरारजी ने तत्कालीन कानूनों का हवाला देते हुए उनकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी। 

मोरारजी शराब के घोर विरोधी थे। एक बार ब्रिटिश प्रधानमंत्री के स्वागत समारोह में वे इसी शर्त पर शामिल हुए कि वहां शराब नहीं दी जाएगी। उनके मुख्यमंत्री काल में सोवियत नेता निकिता ख्रुश्चेव और बुल्गानिन जब मुंबई आये, तो वे अपने लिए शराब रूस से साथ ही लेकर आये।

1975 में इंदिरा गांधी के प्रयाग उच्च न्यायालय में चुनाव संबंधी मुकदमा हारने पर मोरारजी ने उन्हें त्यागपत्र देने को कहा; पर इंदिरा गांधी ने आपातकाल थोपकर मोरारजी सहित हजारों नेताओं को जेल में ठूंस दिया। 

आपातकाल के बाद 1977 में जो सरकार बनी, उसमें उनके अनुभव को देखकर उन्हें प्रधानमंत्री बनाया गया। यद्यपि उस सरकार में अधिकांश कांग्रेसी ही थे, जो सदा कुर्सी के लिए लड़ते रहते थे। अतः वह सरकार अधिक नहीं चल सकी।

एक बार गृहमंत्री चरणसिंह और स्वास्थ्यमंत्री राजनारायण ने सार्वजनिक रूप से शासन की आलोचना की। यह मंत्रिमंडल के सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के विरुद्ध था। अतः मोरारजी ने उनसे त्यागपत्र ले लिया। यद्यपि इससे जनता सरकार गिर गयी; पर उन्होंने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। 

मोरारजी भय से कोसों दूर थे। प्रधानमंत्री रहते हुए एक बार जोरहाट में उनका विमान धरती पर टकरा कर उलट गया; पर उन्होंने संतुलन नहीं खोया। वे शान्त भाव से विमान से उतरे, अपने कपड़े ठीक किये और आगे चल दिये। गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञता उनके मन, वचन और कर्म में समाई थी। 

विदेशी कम्पनियों के विरोधी, लघु और ग्रामीण उद्योग के समर्थक, ‘भारत रत्न’ तथा पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मान ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ से अलंकृत मोरारजी का 10 अपै्रल, 1995 को 99 वर्ष की आयु में देहांत हुआ। 

(संदर्भ : राष्ट्रधर्म अपै्रल 2012 तथा प्रभासाक्षी)

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