महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 16 फरवरी, 1896 (वसंत पंचमी) को हुआ था। यह परिवार उत्तर प्रदेश में उन्नाव के बैसवारा क्षेत्र में ग्राम गढ़ाकोला का मूल निवासी था; पर इन दिनों इनके पिता बंगाल में महिषादल के राजा के पास पुलिस अधिकारी और कोषप्रमुख के पद पर कार्यरत थे।
इनकी औपचारिक शिक्षा केवल कक्षा दस तक ही हुई थी; पर इन्हें शाही ग्रन्थालय में बैठकर पढ़ने का भरपूर अवसर मिला। इससे इन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत तथा बंगला भाषाओं का अच्छा ज्ञान हो गया।
सूर्यकान्त को बचपन से ही विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाएँ पढ़ने में बहुत आनन्द आता था। यहीं से उनके मन में काव्य के बीज अंकुरित हुए। केवल 15 वर्ष की छोटी अवस्था में उनका विवाह मनोरमा देवी से हुआ। इनकी पत्नी ने भी इन्हें कविता लिखने के लिए प्रेरित किया। इनके एक पुत्र और एक पुत्री थी; पर केवल 18 वर्ष की आयु में इनकी पुत्री सरोज का देहान्त हो गया। उसकी याद में निराला ने ‘सरोज स्मृति’ नामक शोक गीत लिखा, जो हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर है।
निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने हाथ के पैसे खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे। एक बार किसी कार्यक्रम में उन्हें बहुत कीमती गरम चादर भेंट की गयी; पर जब वे बाहर निकले, तो एक भिखारी ठण्ड में सिकुड़ रहा था। निराला जी ने वह चादर उसे दे दी। उनकी इस विशालहृदयता के कारण लोग उन्हें महाप्राण निराला कहने लगे। निर्धनों के प्रति इस करुणाभाव से ही उनकी ‘वह आता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता...’ नामक विख्यात कविता का जन्म हुआ।
निराला ने हिन्दी साहित्य को कई अमूल्य कविताएँ व पुस्तकें दीं। उन्होंने कविता में मुक्तछन्द जैसे नये प्रयोग किये। कई विद्वानों ने इस व्याकरणहीन काव्य की आलोचना भी की; पर निराला ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उनके कवितापाठ की शैली इतनी मधुर एवं प्रभावी थी कि वे मुक्तछन्द भी समाँ बाँध देते थे। यद्यपि उन्होंने छन्दबद्ध काव्य भी लिखा है; पर काव्य की मुक्तता में उनका अधिक विश्वास था। वे उसे नियमों और सिद्धान्तों के बन्धन में बाँधकर प्राणहीन करने के अधिक पक्षधर नहीं थे।
उस समय हिन्दी साहित्य में शुद्ध व्याकरण की कसौटी पर कसी हुई कविताओं का ही अधिक चलन था। अतः उनकी उन्मुक्तता को समकालीन साहित्यकारों ने आसानी से स्वीकार नहीं किया। कई लोग तो उन्हें कवि ही नहीं मानते थे; पर श्रोता उन्हें बहुत मन से सुनते थे। अतः झक मारकर बड़े और प्रतिष्ठित साहित्यकारों को भी उन्हें मान्यता देनी पड़ी।
काव्य की तरह उनका निजी स्वभाव भी बहुत उन्मुक्त था। कभी वे कोलकाता रहे, तो कभी वाराणसी और कभी अपनी पितृभूमि गढ़ाकोला में। लखनऊ से निकलने वाली ‘सुधा’ नामक पत्रिका से सम्बद्ध रहने के कारण वे कुछ समय लखनऊ भी रहे। यहीं पर उन्होंने ‘गीतिका’ और ‘तुलसीदास’ जैसी कविता तथा ‘अलका’ एवं ‘अप्सरा’ जैसे उपन्यास लिखे। उन्होंने कई लघुकथाएँ भी लिखीं। ‘राम की शक्ति पूजा’ उनकी बहुचर्चित कविता है।
अपने अन्तिम दिनों में निराला जी प्रयाग में बस गये। सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा और निराला के कारण प्रयाग हिन्दी काव्य का गढ़ बन गया। वहीं 15 अक्तूबर, 1961 को उनका देहान्त हुआ।
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16 फरवरी/जन्म-दिवस
इतिहास पुरुष ठाकुर रामसिंह
ऐसा कहा जाता है कि शस्त्र या विष से तो एक-दो लोगों की ही हत्या की जा सकती है; पर यदि किसी देश के इतिहास को बिगाड़ दिया जाये, तो लगातार कई पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं। हमारे इतिहास के साथ दुर्भाग्य से ऐसा ही हुआ। रा.स्व.संघ के कार्यकर्ता इस भूल को सुधारने में लगे हैं।
बाबा साहब आप्टे एवं मोरोपन्त पिंगले के बाद इस काम को बढ़ाने वाले ठाकुर रामसिंह जी का जन्म 16 फरवरी, 1915 को ग्राम झंडवी (जिला हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) में श्री भागसिंह एवं श्रीमती नियातु देवी के घर में हुआ था। उन्होंने लाहौर के सनातन धर्म कॉलिज से बी.ए. और क्रिश्चियन कॉलिज से इतिहास में स्वर्ण पदक के साथ एम.ए. किया। वे हॉकी के भी बहुत अच्छे खिलाड़ी थे। एम.ए. करते समय अपने मित्र बलराज मधोक के आग्रह पर वे शाखा में आये। क्रिश्चियन कॉलिज के प्राचार्य व प्रबन्धकों ने इन्हें अच्छे वेतन पर अपने यहां प्राध्यापक बनने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।
1942 में खण्डवा (म.प्र.) से संघ शिक्षा वर्ग, प्रथम वर्ष कर वे प्रचारक बन गये। उस साल लाहौर से 58 युवक प्रचारक बने थे, जिसमें से 10 ठाकुर जी के प्रयास से निकले। कांगड़ा जिले के बाद वे अमृतसर के विभाग प्रचारक रहे। विभाजन के समय हिन्दुओं की सुरक्षा और मुस्लिम गुंडों को मुंहतोड़ जवाब देने में वे अग्रणी रहे। उनके संगठन कौशल के कारण 1948 के प्रतिबन्ध काल में अमृतसर विभाग से 5,000 स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया।
1949 में श्री गुरुजी ने उन्हें पूर्वाेत्तर भारत भेज दिया। वहां उन्होंने अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में संघ कार्य की नींव डाली। एक दुर्घटना में उनकी एक आंख और घुटने में भारी चोट आयी, जो जीवन भर ठीक नहीं हुई। 1962 में चीन के सैनिकों के असम में घुसने की आशंका से लोगों में भगदड़ मच गयी। ऐसे समय में उन्होंने पूरे प्रान्त और विशेषकर तेजपुर जिले के स्वयंसेवकों को नगर और गांवों में डटे रहकर प्रशासन का सहयोग करने को कहा। इससे जनता का मनोबल बढ़ा, अफवाहें शान्त हुईं और वातावरण ठीक हो गया।
1971 में वे पंजाब के सहप्रान्त प्रचारक, 1974 में प्रांत प्रचारक, 1978 में सहक्षेत्र प्रचारक और फिर क्षेत्र प्रचारक बने। इस दौरान उन्होंने दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर का व्यापक प्रवास किया।
उन्हें अपनी रॉयल एनफील्ड मोटरसाइकिल पर बहुत भरोसा था। सैकड़ों कि.मी. की यात्रा वे इसी से कर लेते थे। बुलन्द आवाज के धनी ठाकुर जी ने इस क्षेत्र से लगभग 100 युवकों को प्रचारक बनाया, जिसमें से कई आज भी कार्यरत हैं।
आपातकाल में ठाकुर रामसिंह का केन्द्र दिल्ली था। उन्होंने भूमिगत रहते हुए आंदोलन के साथ ही जेल गये स्वयंसेवक परिवारों को भी संभाला। इस दौरान उन्होंने न अपना वेष बदला और न मोटरसाइकिल। फिर भी पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी। 1984 से वेे ‘अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना’ के काम में लग गये। 1991 में वे इसके अध्यक्ष बने।
2002 में स्वास्थ्य के कारण उन्होंने जिम्मेदारी छोड़ दी; पर वे नये कार्यकर्ताओं को प्रेरणा देते रहे। उनके प्रयास से सरस्वती नदी, आर्य आक्रमण, सिकंदर की विजय जैसे विषयों पर हुए शोध ने विदेशी और वामपंथी इतिहासकारों को झूठा सिद्ध कर दिया।
2006 में हमीरपुर जिले के ग्राम नेरी में ‘ठाकुर जगदेवचंद स्मृति इतिहास शोध संस्थान’ की स्थापना कर वे भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन की साधना में लग गये। 94 वर्ष की अवस्था तक वे अकेले प्रवास करते थे। कमर झुकने पर भी उन्होंने चलने में कभी छड़ी या किसी व्यक्ति का सहयोग नहीं लिया।
छह सितम्बर, 2010 को लुधियाना में संघ के वयोवृद्ध प्रचारक एवं भारतीय इतिहास के इस पुरोधा का देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार उनका दाह संस्कार उनके गांव में ही किया गया।
(संदर्भ : पांचजन्य 19.9.10)
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16 फरवरी/जन्म-दिवस
परावर्तन के योद्धा राजेश्वर जी
भारतवर्ष के सभी मुसलमानों व ईसाइयों के पूर्वज हिन्दू हैं। उन्हें अपने पूर्वजों के पवित्र धर्म में वापस लाने के महान कार्य को अपने जीवन का लक्ष्य बनाने वाले श्री राजेश्वर जी का जन्म 16 फरवरी, 1916 को दिल्ली में श्री भगवानदास जी के घर में हुआ था। वे कक्षा में सदा प्रथम आते थे।
धनाभाव के कारण पिताजी ने इन्हें कक्षा दस के बाद पढ़ाने से मना कर दिया; पर इनके बड़े भाई श्री लुभाया राम के आग्रह पर पिताजी मान गये और फिर राजेश्वर जी ने ट्यूशन पढ़ाते हुए बी.एस-सी. किया। उन दिनों छुआछूत और जन्मना जातिभेद का जोर था; पर इन्होंने अपनी मां और भाभी को समझाकर रसोई में एक सफाईकर्मी के बेटे को काम पर रखा। इससे पड़ोसियों ने दो वर्ष तक इनके घर से खानपान का बहिष्कार किया।
1934 में इन्होंने पचकुइया मार्ग पर देखा कि एक मुसलमान कुएं से पानी लेकर हरिजन महिलाओं की बाल्टियों में डाल रहा है। साथ ही वह उनसे गन्दे मजाक भी कर रहा था। उन दिनों हरिजन कुएं की मुंडेर पर अपने घड़े नहीं रख सकते थे। यह देखकर राजेश्वर जी प्रतिदिन वहां आकर घड़ों में पानी भरने लगे। इस पर उस मुसलमान से झगड़ा भी हुआ; पर राजेश्वर जी डटे रहे और फिर धीरे-धीरे वे महिलाएं स्वयं ही कुएं से पानी लेने लगीं।
उन दिनों सफाईकर्मी सिर पर मैला ढोकर ले जाते थे। 1939 में राजेश्वर जी शिमला में रहते थे। उन्होंने एक दिन सफाईकमियों के नेता सोहनलाल के साथ खाना बनाकर खाया। उसने बताया कि हिन्दुओं के व्यवहार से दुखी होकर वे सब धर्मान्तरण करने वाले थे; पर अब वे यह नहीं करेंगे। पहाड़गंज (दिल्ली) में अंधविश्वास के कारण कई हिन्दू महिलाएं नमाज से लौटते हुए मुसलमानों से बच्चों के मुंह पर फूंक लगवाती थीं। राजेश्वर जी ने अपने मित्रों के साथ ‘हिन्दू धर्म संघ’ नामक संस्था बनाकर इस कुप्रथा को बन्द कराया।
राजेश्वर जी कालबाह्य हो चुकी रूढ़ियों के विरोधी थे। 1941 में उन्होंने प्रतीकात्मक दहेज लेकर अन्तरजातीय विवाह किया। इसके लिए जानबूझ कर वह तिथि चुनी, जिसमें विवाह वर्जित है। इसके बाद आर्य समाज के माध्यम से उन्होंने बड़ी संख्या में अन्तरजातीय और दहेज रहित विवाह कराये।
1946 में पहाड़गंज में मुसलमानों ने बकरीद पर गाय का जुलूस निकालकर उसे काटने की योजना बनाई। राजेश्वर जी ने अपने भाई बंसीलाल तथा एक स्वयंसेवक पूरनचंद के साथ उस जुलूस पर हमला कर गाय को छुड़ा लिया।
राजेश्वर जी सभी सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं में सक्रिय रहते थे। वे दक्षिण दिल्ली के विभाग संघचालक थे। 1983 में वि.हि.प. की बैठक में एक कार्यकर्ता ने कहा कि सब हिन्दुओं को एक-एक हरिजन महिला को बहिन बनाना चाहिए। राजेश्वर जी उसी दिन राममनोहर लोहिया अस्पताल की एक सफाईकर्मी महिला शान्तिदेवी को अपनी धर्म बहिन बनाकर घर लौटे।
राजेश्वर जी हिन्दुओं की घटती जनसंख्या से बहुत दुखी रहते थे। इसके लिए वे छुआछूत मिटाने और परावर्तन की गति बढ़ाने पर जोर देते थे। उन्होंने चार पूर्णकालिक कार्यकर्ता रखकर सैकड़ों मुसलमानों और ईसाइयों को समझाकर, बिना लालच के हिन्दू बनाया। कई हिन्दू कन्याओं को मुसलमानों के चंगुल में फंसने से भी बचाया।
उन्होंने कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए ‘परावर्तन क्यों और कैसे’ नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने अपनी पूरी सम्पत्ति अपने और पत्नी के नाम पर बनाये ‘राजेश्वर चंद्रकांता धर्मार्थ न्यास’ के नाम कर दी, जिससे उन दोनों के देहांत के बाद भी परावर्तन कार्य में बाधा न आये।
कहने की बजाय करने में अधिक विश्वास रखने वाले परावर्तन के इस महान योद्धा का देहांत 11 फरवरी, 1999 को हुआ।
(संदर्भ : परावर्तन क्यों और कैसे, राजेश्वर जी)
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16 फरवरी/पुण्य-तिथि
सिद्धांतप्रिय राजनेता वसंतभाई गजेन्द्र गडकर
आजकल राजनीति को सिद्धांतप्रियता का विलोम माना जाता है; पर वसंतभाई गजेन्द्र गडकर इस मामले में अपवाद रहे। गुजरात में जनसंघ के कार्य को दृढ़ करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अपने परिचितों में वे ‘राव साहब’ के नाम से प्रसिद्ध थे। वे कर्णावती के लॉ कॉलिज में कानून पढ़ाते थे। उनके संगठन कौशल को देखकर उन्हें राजनीतिक क्षेत्र में काम करने को कहा गया, जिसे उन्होंने निस्पृह भाव से स्वीकार कर लिया।
सत्तर के दशक में गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन के समय जनसंघ द्वारा आयोजित रैली, बंद आदि से वातावरण बहुत गरम हो गया था। ऐसे में एक बार वामपंथी दलों ने गुजरात बंद का आह्नान किया। वामपंथियों की अविश्वसनीयता देखते हुए जनसंघ ने उससे अलग रहने का निश्चय किया। इस पर मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल ने वसंतभाई को बुलाकर कहा कि यदि जनसंघ बंद से अलग रहे, तो वे वामपंथियों से निपट लेंगे। वसंतभाई ने स्पष्ट कर दिया कि जनसंघ यद्यपि इस बंद से अलग है; पर इसका अर्थ भ्रष्ट सरकार का समर्थन नहीं है। इसलिए विपक्षी आंदोलन के दमन का दुःसाहस शासन न करे।
1971 के लोकसभा चुनाव में कर्णावती से वसंतभाई का लोकसभा का टिकट पक्का था। उनके नाम के पोस्टर, बैनर आदि भी लग गये थे; पर तभी दिल्ली से किसी अन्य नाम की सूचना आ गयी। इससे कार्यकर्ता हतोत्साहित हो गये; पर स्थितप्रज्ञ वसंतभाई ने सबके घर जाकर उन्हें फिर से काम के लिए तैयार किया और चुनाव में सफलता पायी।
उस चुनाव में जनसंघ की ओर से धंधुका में शंभू महाराज का नाम निश्चित हुआ। वातावरण काफी अच्छा था। ऐसे में एक बड़े नेता ने किसी अन्य सबल प्रत्याशी का नाम प्रस्तुत किया; पर वसंतभाई ने साफ कह दिया कि हम शंभू महाराज को वचन दे चुके हैं। बड़े नेता ने कहा कि राजनीति में वचन का कोई महत्व नहीं है। इस पर वसंतभाई ने कहा कि हम चुनाव हारना पसंद करेंगे, विश्वास हारना नहीं।
श्री गुरुजी के प्रति वसंतभाई के मन में अत्यधिक श्रद्धा थी। 1973 में श्री गुरुजी के देहांत के बाद ‘साधना प्रकाशन’ ने वसंतभाई को उनके जीवन पर एक पुस्तक लिखने को कहा। उन दिनों नवनिर्माण आंदोलन अपने चरम पर था। जनसंघ के कार्यकर्ताओं को जेल में ठूंसा जा रहा था। कई कार्यकर्ताओं पर ‘मीसा’ लगा दिया गया। ऐसे में वसंतभाई ने भूमिगत रहकर वह पुस्तक लिखी और लगातार कार्यकर्ताओं से संपर्क भी बनाये रखा। संघर्ष के बीच मानसिक एकाग्रता का यह अद्भुत उदाहरण है।
प्राध्यापक होते हुए भी वसंतभाई बहुत हंसमुख और मस्त व्यक्ति थे। वे घर में अपनी पत्नी, भाभी, भतीजों आदि से बहुत शरारत करते थे। वर्षा में भीगने में उन्हें बहुत आनंद आता था। इस प्रकार वे अपनी शारीरिक और मानसिक थकान दूर करते थे। अत्यधिक प्रवास, परिश्रम और अनियमित खानपान के कारण उन्हें मधुमेह तथा अन्य अनेक रोगों ने घेर लिया था।
1975 में देश में आपातकाल लग गया। ऐसे में तानाशाही के विरुद्ध देश भर में चल रहे संघर्ष में वंसतभाई सक्रिय भूमिका निभाना चाहते थे। अतः उन्होंने मुंबई जाकर शल्य क्रिया कराने का निर्णय लिया। जीवन में वसंतभाई के सब निर्णय समय की कसौटी पर खरे उतरे; पर इस बार काल से उन्हें धोखा दे दिया। चिकित्सालय में ही उनकी तबियत बहुत बिगड़ गयी और 16 फरवरी, 1976 को उनका देहांत हो गया।
गुजरात की राजनीति में सक्रिय अनेक बड़े नेता आज भी वसंतभाई गजेन्द्र गडकर को अपना आदर्श मानते हैं।
(संदर्भ : ज्योतिपुंज, नरेन्द्र मोदी)
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17 फरवरी/बलिदान-दिवस
सह्याद्रि का शेर वासुदेव बलवंत फड़के
बात 1870 की है। एक युवक तेजी से अपने गाँव की ओर भागा जा रहा था। उसके मुँह से माँ-माँ....शब्द निकल रहे थे; पर दुर्भाग्य कि उसे माँ के दर्शन नहीं हो सके। उसका मन रो उठा। लानत है ऐसी नौकरी पर, जो उसे अपनी माँ के अन्तिम दर्शन के लिए भी छुट्टी न मिल सकी।
वह युवक था वासुदेव बलवन्त फड़के। लोगों के बहुत समझाने पर वह शान्त हुआ; पर माँ के वार्षिक श्राद्ध के समय फिर यही तमाशा हुआ और उसे अवकाश नहीं मिला। अब तो उनका मन विद्रोह कर उठा। उनका जन्म चार नवम्बर, 1845 को ग्राम शिरढोण (पुणे) में हुआ था। उनके पूर्वज शिवाजी की सेना में किलेदार थे; पर इन दिनों वे सब किले अंग्रेजों के अधीन थे।
छोटी अवस्था में ही वासुदेव का विवाह हो गया। शिक्षा पूर्णकर उन्हें सरकारी नौकरी मिल गयी; पर स्वाभिमानी होने के कारण वे कहीं लम्बे समय तक टिकते नहीं थे। महादेव गोविन्द रानडे तथा गणेश वासुदेव जोशी जैसे देशभक्तों के सम्पर्क में आकर फड़के ने ‘स्वदेशी’ का व्रत लिया और पुणे में जोशीले भाषण देने लगे।
1876-77 में महाराष्ट्र में भीषण अकाल और महामारी का प्रकोप हुआ। शासन की उदासी देखकर उनका मन व्यग्र हो उठा। अब शान्त बैठना असम्भव था। उन्होंने पुणे के युवकों को एकत्र किया और उन्हें सह्याद्रि की पहाड़ियों पर छापामार युद्ध का अभ्यास कराने लगे। हाथ में अन्न लेकर ये युवक दत्तात्रेय भगवान की मूर्ति के सम्मुख स्वतन्त्रता की प्रतिज्ञा लेते थे।
वासुदेव के कार्य की तथाकथित बड़े लोगों ने उपेक्षा की; पर पिछड़ी जाति के युवक उनके साथ समर्पित भाव से जुड़ गये। ये लोग पहले शिवाजी के दुर्गों के रक्षक होते थे; पर अब खाली होने के कारण चोरी-चकारी करने लगे थे। मजबूत टोली बन जाने के बाद फड़के एक दिन अचानक घर पहुँचे और पत्नी को अपने लक्ष्य के बारे में बताकर उससे सदा के लिए विदा ले ली।
स्वराज्य के लिए पहली आवश्यकता शस्त्रों की थी। अतः वासुदेव ने सेठों और जमीदारों के घर पर धावा मारकर धन लूट लिया। वे कहते थे कि हम डाकू नहीं हैं। जैसे ही स्वराज्य प्राप्त होगा, तुम्हें यह धन ब्याज सहित लौटा देंगे। कुछ समय में ही उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। लोग उन्हें शिवाजी का अवतार मानने लगे; पर इन गतिविधियों से शासन चौकन्ना हो गये। उसने मेजर डेनियल को फड़के को पकड़ने का काम सौंपा।
डेनियल ने फड़के को पकड़वाने वाले को 4,000 रु0 का पुरस्कार घोषित किया। अगले दिन फड़के ने उसका सिर काटने वाले को 5,000 रु0 देने की घोषणा की। एक बार पुलिस ने उन्हें जंगल में घेर लिया; पर वे बच निकले। अब वे आन्ध्र की ओर निकल गये। वहा भी उन्होंने लोगों को संगठित किया; पर डेनियल उनका पीछा करता रहा और अन्ततः वे पकड़ लिये गये।
उन्हें आजीवन कारावास की सजा देकर अदन भेज दिया गया। मातृभूमि की कुछ मिट्टी अपने साथ लेकर वे जहाज पर बैठ गये। जेल में अमानवीय उत्पीड़न के बाद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। एक रात में वे दीवार फाँदकर भाग निकले; पर पुलिस ने उन्हेें फिर पकड़ लिया। अब उन पर भीषण अत्याचार होने लगे। उन्हें क्षय रोग हो गया; पर शासन ने दवा का प्रबन्ध नहीं किया।
17 फरवरी, 1883 को इस वीर ने शरीर छोड़ दिया। मृत्यु के समय उनके हाथ में एक पुड़िया मिली, जिसमें भारत भूमि की पावन मिट्टी थी।
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17 फरवरी/पुण्य-तिथि
सशस्त्र क्रान्ति के नायक लहूजी साल्वे
स्वतन्त्रता के संघर्ष में जिन वीरों ने अपनी प्राणाहुति दी, उनमें से अनेक ऐसे हैं, जिनके नाम और काम प्रायः अल्पज्ञात ही हैं। ऐसे ही एक वीर थे लहूजी साल्वे। महात्मा ज्योतिबा फुले, लोकमान्य तिलक तथा महान क्रान्तिवीर वासुदेव बलवन्त फड़के ने भी लहूजी के कार्यों से प्रेरणा ली थी।
लहूजी का जन्म 14 नवम्बर, 1794 को एक स्वराज्यनिष्ठ परिवार में हुआ था। अतः लहूजी को माँ के दूध के साथ ही स्वराज्य का पाठ भी पढ़ने को मिला। उनके पिता का नाम राघोजी और माता का नाम विठाबाई था। वे पुणे के पास पुरन्दर किले की तलहटी में बसे पेठ गाँव के निवासी थे।
यह क्षेत्र शिवाजी और उनके साथियों द्वारा हिन्दू साम्राज्य के लिए किये गये प्रयत्नों का प्रत्यक्ष साक्षी था। लोग रात में चौपालों पर शिवाजी के शौर्य, पराक्रम और विजय की गाथाएँ गाते थे। अतः अपने मित्रों के साथ खेलते हुए लहूजी को पग-पग पर स्वराज्य के लिए मर मिटने की प्रेरणा मिलती थी।
लहूजी के चेहरे पर जन्म के समय से ही एक अद्भुत लालिमा एवं तेज विद्यमान था। इस कारण नामकरण संस्कार के समय उनका नाम लहूजी रखा गया। राघोजी पेशवा की सेना में काम करते थे। उनके घर में भी अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र विद्यमान थे। घर में युद्ध सम्बन्धी कथाओं की चर्चा प्रायः होती रहती थी। इसलिए लहूजी के मन में बचपन से ही शस्त्रों के प्रति प्रेमभाव उत्पन्न हो गया। वे घण्टों उनके सामने बैठे रहते थे।
उनकी इस रुचि को उनके पिता राघोजी ने और बढ़ाया। वे लहूजी को अपने साथ पहाड़ियों में ले जाकर अस्त्र-शस्त्र चलाना सिखाते थे। सबल शरीर के स्वामी लहूजी को पट्टा चलाने में विशेष महारत प्राप्त थी। इसके साथ ही उन्हें शिकार करने का भी शौक था। पशुओं का पीछा करते हुए कभी-कभी वे दूर तक निकल जाते थे; पर खाली हाथ लौटना उन्हें स्वीकार नहीं था। यह देखकर गाँव के अनुभवी बुजुर्ग लोग कहते थे कि यह बालक आगे चलकर निश्चित ही कुछ बड़ा काम करेगा।
1817 में पेशवा और अंग्रेजों में युद्ध हुआ। मराठा सेना ने पूरी शक्ति से युद्ध किया; पर भाग्य उनके विपरीत था। पेशवा ने पराजय के बाद पुणे छोड़ दिया। राघोजी युद्ध में बुरी तरह घायल हुए। फिर भी अंग्रेज सैनिकों ने उनका बहुत उत्पीड़न किया। इससे तड़प-तड़प कर राघोजी की मृत्यु हो गयी। यह सुनकर लहूजी ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का निश्चय कर लिया।
इस समय तक उनकी आयु 24 वर्ष की हो चुकी थी। उन पर विवाह करने का दबाव पड़ रहा था; पर लहूजी ने अपने लिए कुछ और काम ही निर्धारित कर लिया था। उन्होंने सह्याद्रि की पहाड़ियों में बसे गाँवों के युवकों को एकत्र कर उनकी एक मजबूत सेना बनायी। अस्त्र-शस्त्र एकत्र किये और अंग्रेज छावनियों पर धावा बोलना शुरू कर दिया।
उनकी सेना में निर्धन और छोटी कही जाने वाली जातियों के युवक ही अधिक संख्या में थे। 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध जो सशस्त्र संघर्ष का लम्बा दौर प्रारम्भ हुआ, उसमें कानपुर, ग्वालियर और झाँसी के युद्धों में लहूजी के इन वीर सैनिकों ने अप्रतिम शौर्य दिखाया।
जीवन भर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्षरत रहे लहूजी साल्वे ने 17 फरवरी, 1881 को अन्तिम साँस ली।
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18 फरवरी/बलिदान-दिवस
अग्निधर्मी पत्रकार रामदहिन ओझा
रामदहिन ओझा का जन्म श्री सूचित ओझा के घर 1901 की महाशिवरात्रि को ग्राम बाँसडीह (जिला बलिया, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं हुई। इसके बाद इनके पिता ने इन्हें उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता भेज दिया। वहाँ इनका सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हुआ। इन्होंने स्वाधीनता संग्राम में कूदना शिक्षा से अधिक जरूरी समझा।
1921 में जब गांधी जी ने सत्याग्रह का आह्नान किया, तो जो सात सत्याग्रही सर्वप्रथम जेल गये, उनमें ये भी थे। गांधी जी ने अपने पत्र ‘हरिजन’ में इनके साहस की प्रशंसा करते हुए इन्हें ‘सप्तर्षिमंडल’ की संज्ञा दी थी। इनकी गतिविधियों से चिंतित होकर 11 मार्च 1921 को बलिया के जिलाधीश ने इन्हें तुरन्त जिला छोड़ने का आदेश दिया। अतः ये गाजीपुर आकर स्वतन्त्रता के लिए अलख जगाने लगे। इस पर 15 अप्रैल को गाजीपुर के जिलाधीश ने भी इन्हें जिला छोड़ने को कह दिया। 16 मई, 1921 को इन्हें गिरफ्तार कर छह महीने का कठोर कारावास दिया गया। 30 जनवरी, 1922 को फिर इन्हें पकड़कर एक साल के लिए जेल में डाल दिया।
सजा पूरी कर वे कोलकाता चले गये और वहाँ ‘विश्वमित्र’ नामक दैनिक समाचार पत्र से जुड़ गये। कुछ समय बाद वे ‘युगान्तर’ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र के सम्पादक बने। इसके मुखपृष्ठ पर यह पंक्ति छपती थी - मुक्त हों हाथ, हथकड़ी टूटे, राष्ट्र का सिंहनाद घर-घर हो। इसी से पता लगता है कि समाचार पत्र में क्या होता होगा। इसके बाद वे ‘शेखावाटी’ समाचार पत्र के सम्पादक भी बने। वे जिस पत्र में भी रहे, उनकी कलम सदा अंग्रेजों के विरुद्ध आग ही उगलती रही।
युगान्तर में 4 अगस्त, 1924 को उन्होंने लिखा, ‘‘मालूम पड़ता है भारतीय सदा गुलाम ही रहना चाहते हैं। वह भी मामूली गुलाम नहीं। संसार के इतिहास में ऐसी गुलामी खोजे नहीं मिलेगी। पशु भी पिंजरे में बन्द रहने पर दो बूँद आँसू बहा सकते हैं; पर गुलाम भारतीय दिल खोलकर रो भी नहीं सकते।’’
इस पर शासन ने उन्हें कोलकाता छोड़ने का भी आदेश दे दिया। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। 1930 के नमक आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया। शासन ने उन्हें बलिया से 27 अक्तूबर को गिरफ्तार कर छह माह के कठोर कारावास का दण्ड दिया। यह स्वाधीनता संग्राम में इनकी चौथी गिरफ्तारी थी; पर इससे भी झुकने या टूटने की बजाय इनका उत्साह और बढ़ गया।
शासन ने इन्हें रास्ते से हटाने का एक सरल मार्ग ढूँढा। इन्हें खाने में हल्का जहर दिया जाने लगा। इसके कारण 17 फरवरी, 1931 को इनकी तबियत बहुत खराब हो गयी। बलिया जेल के अधिकारियों ने बिना किसी पूर्व सूचना के उन्हें स्थानीय जमींदार महावीर प्रसाद के निवास पर पहुँचा दिया।
महादेव प्रसाद अपनी गाड़ी से उन्हें बलिया चिकित्सालय ले गये। वहाँ पर भी उन्हें उचित चिकित्सा नहीं मिली। इस पर उन्हें जानकी प्रसाद जी के आवास पर लाया गया। वहाँ रात भर तड़पने के बाद 18 फरवरी, 1931 की प्रातः उनका निधन हो गया। इस प्रकार उन्होंने केवल 30 साल की अल्पायु में ही बलिदानी चोला पहन लिया।
रामदहिन जी जैसे पत्रकारों के बारे में ही प्रख्यात पत्रकार बाबूराव विष्णु पराड़कर ने लिखा है, ‘‘वे ही सम्पादक थे, जिनसे धनी घृणा करते थे। शासक क्रुद्ध रहा करते थे। जो हमारे ही जैसा एक पैर जेल में रखकर धर्मबुद्धि से पत्र का सम्पादन किया करते थे।’’
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19 फरवरी/जन्म-दिवस
तपस्वी जीवन श्री गुरुजी
संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने अपने देहान्त से पूर्व जिनके समर्थ कन्धों पर संघ का भार सौंपा, वे थे श्री माधवराव गोलवलकर, जिन्हें सब प्रेम से श्री गुरुजी कहकर पुकारते हैं। माधव का जन्म 19 फरवरी, 1906 (विजया एकादशी) को नागपुर में अपने मामा के घर हुआ था। उनके पिता श्री सदाशिव गोलवलकर उन दिनों नागपुर से 70 कि.मी. दूर रामटेक में अध्यापक थे।
माधव बचपन से ही अत्यधिक मेधावी छात्र थे। उन्होंने सभी परीक्षाएँ सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। कक्षा में हर प्रश्न का उत्तर वे सबसे पहले दे देते थे। अतः उन पर यह प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि जब कोई अन्य छात्र उत्तर नहीं दे पायेगा, तब ही वह बोलंेगे। एक बार उनके पास की कक्षा में गणित के एक प्रश्न का उत्तर जब किसी छात्र और अध्यापक को भी नहीं सूझा, तब माधव को बुलाकर वह प्रश्न हल किया गया।
वे अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त अन्य पुस्तकंे भी खूब पढ़ते थे। नागपुर के हिस्लाप क्रिश्चियन कॉलिज में प्रधानाचार्य श्री गार्डिनर बाइबिल पढ़ाते थे। एक बार माधव ने उन्हें ही गलत अध्याय का उद्धरण देने पर टोक दिया। जब बाइबिल मँगाकर देखी गयी, तो माधव की बात ठीक थी। इसके अतिरिक्त हॉकी व टेनिस का खेल तथा सितार एवं बाँसुरीवादन भी माधव के प्रिय विषय थे।
उच्च शिक्षा के लिए काशी जाने पर उनका सम्पर्क संघ से हुआ। वे नियमित रूप से शाखा पर जाने लगे। जब डा. हेडगेवार काशी आये, तो उनसे वार्तालाप में माधव का संघ के प्रति विश्वास और दृढ़ हो गया। एम-एस.सी. करने के बाद वे शोधकार्य के लिए मद्रास गये; पर वहाँ का मौसम अनुकूल न आने के कारण वे काशी विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक बन गये।
उनके मधुर व्यवहार तथा पढ़ाने की अद्भुत शैली के कारण सब उन्हें ‘गुरुजी’ कहने लगे और फिर तो यही नाम उनकी पहचान बन गया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक मालवीय जी भी उनसे बहुत प्रेम करते थे। कुछ समय काशी रहकर वे नागपुर आ गये और कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन दिनों उनका सम्पर्क रामकृष्ण मिशन से भी हुआ और वे एक दिन चुपचाप बंगाल के सारगाछी आश्रम चले गये। वहाँ उन्होंने विवेकानन्द के गुरुभाई स्वामी अखंडानन्द जी से दीक्षा ली।
स्वामी जी के देहान्त के बाद वे नागपुर लौट आये तथा फिर पूरी शक्ति से संघ कार्य में लग गये। उनकी योग्यता देखकर डा0 हेडगेवार ने उन्हें 1939 में सरकार्यवाह का दायित्व दिया। अब पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा। 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद श्री गुरुजी सरसंघचालक बने। उन्होंने संघ कार्य को गति देने के लिए अपनी पूरी शक्ति झांेक दी।
1947 में देश आजाद हुआ; पर उसे विभाजन का दंश भी झेलना पड़ा। 1948 में गांधी जी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। श्री गुरुजी को जेल में डाल दिया गया; पर उन्होंने धैर्य से सब समस्याओं को झेला और संघ तथा देश को सही दिशा दी। इससे सब ओर उनकी ख्याति फैल गयी। संघ-कार्य भी देश के हर जिले में पहुँच गया।
श्री गुरुजी का धर्मग्रन्थों एवं हिन्दू दर्शन पर इतना अधिकार था कि एक बार शंकराचार्य पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया गया था; पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया। 1970 में वे कैंसर से पीड़ित हो गये। शल्य चिकित्सा से कुछ लाभ तो हुआ; पर पूरी तरह नहीं। इसके बाद भी वे प्रवास करते रहे; पर शरीर का अपना कुछ धर्म होता है। उसे निभाते हुए श्री गुरुजी ने 5 जून, 1973 को रात्रि में शरीर छोड़ दिया।
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19 फरवरी/जन्म-दिवस
वैश्विक समन्वयक माधवराव बनहट्टी
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री माधवराव बनहट्टी का जन्म 19 फरवरी, 1927 को नागपुर में हुआ था। उनके पिताजी नागपुर विद्यापीठ में मराठी साहित्य के प्राध्यापक थे। माधवराव सब संतानों में बड़े थे। 1945 में बी.एस-सी. करने के बाद उन्होंने एक वर्ष डाक-तार विभाग में नौकरी की। फिर उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया। इससे नाराज होकर उनके पिताजी ने श्री गुरुजी को बहुत कड़ी बातें कहीं। उस समय माधव की अवस्था 19 वर्ष थी।
माधवराव को सर्वप्रथम बंगाल के बांकुड़ा जिले में भेजा गया। वहां वे कार्यकर्ताओं में ‘माधव दा’ के नाम से लोकप्रिय हो गये। तीन साल में उन्होंने स्थानीय भाषा, भूषा और खानपान अपना लिया। उन्हें देखकर कोई नहीं कह सकता था कि वे बंगाल के मूल निवासी नहीं हैं।
एक बार उनके माता-पिता तीर्थयात्रा हेतु बंगाल गये। जिस दिन वे कोलकाता में थे, उस दिन वहां ‘शहीद मीनार’ पर श्री गुरुजी का कार्यक्रम हो रहा था। उसमें 10,000 गणवेशधारी स्वयंसेवक तथा हजारों नागरिक उपस्थित थे। इससे उन्हें बहुत संतोष हुआ कि उनके पुत्र ने एक श्रेष्ठ कार्य के लिए अपना जीवन लगाया है।
1947 में पूर्वी पाकिस्तान से आये हिन्दू विस्थापितों की सेवार्थ ‘वास्तुहारा सहायता समिति’ बनाई गयी। माधव दा 1949 से 52 तक उसके कार्यालय सचिव रहे। कोलकाता से संघ की ओर से ‘स्वस्तिका’ नामक साप्ताहिक बंगला पत्र प्रकाशित होता है। 1953 से 58 तक वे ‘स्वस्तिका प्रकाशन न्यास’ के सचिव रहे। 1959-60 में उन्हें चौबीस परगना विभाग का काम दिया गया। 1975 तक उन्होंने विभाग और संभाग प्रचारक की जिम्मेदारी संभाली।
1977 में माधव दा को मॉरीशस भेजा गया। 12 वर्ष वहां रहकर उन्होंने मॉरीशस तथा दक्षिण अफ्रीका में संघ कार्य की नींव मजबूत की। 1989-90 में वे छह माह तक बंगाल के सह प्रांत प्रचारक रहे। इसके बाद उन्हें विश्व हिन्दू परिषद में पूर्वांचल क्षेत्र (बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा असम आदि) के संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी। 1997 में वे विश्व हिन्दू परिषद के संयुक्त मंत्री के नाते दिल्ली आ गये। इस समय उन पर विदेश विभाग का काम था।
कुछ समय बाद उन्हें केन्द्रीय मंत्री की जिम्मेदारी तथा वैश्विक समन्वय का काम दिया गया। विश्व भर में संघ तथा विश्व हिन्दू परिषद के काम के कई आयाम हैं। कार्यकर्ता भी सब ओर हैं; पर दूरी और व्यस्तता अधिक होने से भारत जैसी दैनिक शाखाएं नहीं हैं। ऐसे में दुनिया भर के काम और कार्यकर्ताओं के बीच समन्वय बनाना बहुत कठिन काम था।
रात में जागकर विदेश से आने वाले कार्यकर्ताओं के फोन सुनना, उनके पत्रों के समय से उत्तर देना, भारत आने पर उनका सहयोग तथा विदेश जाने वाले कार्यकर्ताओं को उचित मार्गदर्शन दिलाना आदि काम उन्होंने दो वर्ष तक बहुत कुशलता से निभाये। इस बीच उन्हें गुर्दे का कष्ट प्रारम्भ हो गया। पहले दिल्ली और फिर मुंबई के इलाज से विशेष लाभ नहीं हुआ। अतः वे अपने भाई के पास पुणे में रहकर प्राकृतिक इलाज कराने लगे। एक अपै्रल, 2000 की प्रातः शाखा से लौटकर उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और थोड़ी ही देर में वे चल बसे।
प्रसिद्धि से सदा दूर रहने वाले माधव दा के देहांत के बाद बहुत ढूंढने पर भी उनका चित्र कहीं नहीं मिला। अंततः मॉरीशस से मंगाकर उनका एक चित्र कोलकाता कार्यालय में लगाया गया।
(संदर्भ : पांचजन्य 16.4.2000 तथा संघ गंगोत्री)
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अमर बलिदानी वीरेन्द्रनाथ दत्त
क्रान्तिकारी वीरेन्द्रनाथ दत्त गुप्त का जन्म 20 जून, 1889 को बालीगाँव हाट (साहीगंज, बंगाल) में हुआ था। उनके पिता श्री उमाचरण का देहान्त तब ही हो गया था, जब वे केवल नौ वर्ष के थे। माता वसन्त कुमारी की गोद में पले वीरेन्द्र ने बालीगाँव हाट, साहीगंज और कोलकाता में शिक्षा पायी। स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण वे कक्षा दस की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पाये।
उन दिनों विप्लवी दल ‘सुहृद समिति’ के कार्यकर्ता सतीश चन्द्र सेन राधानाथ हाईस्कूल में पढ़ाते थे। उन्होंने वीरेन्द्र को समिति में भर्ती कर प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया। वे उसी गाँव में तरुणों को व्यायाम के साथ ही लाठी व छुरेबाजी का अभ्यास कराते थे।
इससे वहाँ के मुस्लिम बहुत नाराज होते थे। उन्होंने कई बार उस व्यायामशाला में उपद्रव करने का प्रयास किया; पर वीरेन्द्र तथा उसके साथियों की उग्र तैयारी देखकर वे पीछे हट गये। यद्यपि ‘आत्मोन्नति समिति’ के चाँदपुर, हमालपुर आदि स्थानों पर चल रहे व्यायाम केन्द्रों पर वे हमला करने में सफल रहे। उन दिनों इसी प्रकार के नामों से क्रान्तिकारी युवक एकत्र होते थे।
उन दिनों पुलिस उपाधीक्षक मौलवी शम्सुल आलम अलीपुर बम काण्ड की जाँच कर रहा था। वह अंग्रेज भक्त तथा लीगी मानसिकता का व्यक्ति था। उसकी इच्छा थी कि अधिकाधिक क्रान्तिकारियों को फाँसी के फन्दे तक पहुँचाया जाये। हावड़ा षड्यन्त्र केस में भी इसके प्रयास से अनेक क्रान्तिकारियों को लम्बी सजा हुई थी।
इसने अलीपुर काण्ड में 40 हिन्दू युवकों को आरोपी बनाकर 206 झूठे गवाह न्यायालय में खड़े किये। इस पर ‘विवेकानन्द समिति’ के नाम से काम कर रहे विप्लवियों ने शम्सुल आलम को उसके पापों का दण्ड देकर जहन्नुम भेजने का निर्णय ले लिया।
यह काम सतीश सरकार, यतीश मजूमदार और वीरेन्द्रनाथ दत्त को सौंपा गया। सुरेश मजूमदार ने वीरेन्द्र को रिवाल्वर दिया और वे सब 24 जनवरी, 1910 को न्यायालय पहुँच गये। उस दिन वहाँ अलीपुर बम काण्ड की सुनवाई शुरू हुई।
मौलवी शम्सुल आलम बड़ी तत्परता से अपने काम में लगा था। क्रान्तिकारी भी ताक में थे। अचानक शम्सुल किसी काम से न्यायालय से बाहर आया, बस वीरेन्द्र दत्त ने निशाना साधकर गोली दाग दी। शम्सुल के मुँह से ‘या खुदा’ निकला और उसने वहीं दम तोड़ दिया।
सतीश मजूमदार तो वहाँ से फरार होने में सफल हो गये; पर वीरेन्द्र ने बचने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया। अतः वे पुलिस की शिकंजे में फँस गये। इसके कुछ समय बाद इस काण्ड से जुड़े कुछ अन्य क्रान्तिकारी भी पुलिस की गिरफ्त में आ गये; पर शम्सुल के वध से इतना लाभ अवश्य हुआ कि गवाहों के मन में भय बैठ गया। पुलिस केवल छह युवकों पर ही आरोप सिद्ध कर सकी। इसका श्रेय निःसन्देह वीरेन्द्र दत्त को ही है।
पुलिस ने वीरेन्द्र पर अनेक अत्याचार किये; पर वे उससे कोई रहस्य नहीं उगलवा सके। अन्ततः न्यायाधीश लारेन्स जेकिन्स ने वीरेन्द्र को फाँसी की सजा सुना दी। फाँसी से एक दिन पूर्व वीरेन्द्र के बड़े भाई धीरेन्द्र दत्त मिलने आये, तो वीरेन्द्र ने कहा, ‘‘दादा, यह गर्व करने की बात है कि कल मैं मातृभूमि की सेवा में फाँसी पर चढ़ रहा हूँ। यह समय आनन्द का है, शोक का नहीं।’’
21 फरवरी, 1910 को वन्दे मातरम् का उद्घोष करते हुए वीर वीरेन्द्रनाथ दत्त फाँसी पर झूल गये।
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21 फरवरी/पुण्य-तिथि
गांधी जी के जीवन में कस्तूरबा का योगदान
मोहनदास करमचन्द गांधी को सारा भारत ही क्या, सारा विश्व जानता है; पर उन्हें गोधी जी के रूप में आगे बढ़ाने के लिए जिस महिला ने अन्तिम समय तक सहारा और उत्साह प्रदान किया, वह थीं उनकी धर्मपत्नी कस्तूरबा गांधी, जो ‘बा’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं। यह बात गांधी जी ने कई बार स्वयं स्वीकार की है कि उन्हें महान बनाने का श्रेय उनकी पत्नी को है। बा के बिना गांधी जी स्वयं को अपूर्ण मानते थे।
कस्तूरबा का जन्म पोरबन्दर, गुजरात के कापड़िया परिवार में अपै्रल, 1869 में हुआ था। उनके पिता पोरबन्दर के नगराध्यक्ष रह चुके थे। इस प्रकार कस्तूरबा को राजनीतिक और सामाजिक जीवन विरासत में मिला। उस समय की सामाजिक परम्पराओं के अनुसार उन्हें विद्यालय की शिक्षा कम और घरेलू कामकाज की शिक्षा अधिक दी गयी। 13 साल की छोटी अवस्था में उनका विवाह अपने से पाँच महीने छोटे मोहनदास करमचन्द गांधी से हो गया।
वे गांधी परिवार की सबसे छोटी पुत्रवधू थीं। विवाह के बाद एक सामान्य हिन्दू नारी की तरह बा ने अपनी इच्छा और आकांक्षाओं को अपने पति और उनके परिवार के प्रति समर्पित कर दिया। फिर तो गांधी जी ने जिस मार्ग की ओर संकेत किया, बा ना-नुकुर किये बिना उस पर चलती रहीं।
दक्षिण अफ्रीका के प्रवास में जब गांधी जी ने सत्याग्रह के शस्त्र को अपनाया, तो कस्तूरबा उनके साथ ही थीं। भारत में भी जितने कार्यक्रम गांधी जी ने हाथ में लिये, सबमें उनकी पत्नी की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही। मार्च, 1930 में नमक कानून के उल्लंघन के लिए दाण्डी यात्रा का निर्णय हुआ। यद्यपि उस यात्रा में बा साथ नहीं चलीं; पर उसकी पूर्व तैयारी में उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। यात्रा के बाद जब गांधी जी को यरवदा जेल ले जाया गया, तो उन्होंने बा को एक बहादुर स्त्री की तरह आचरण करने का सन्देश दिया।
बा ने इसे जीवन में उतार कर अपना मनोबल कम नहीं होने दिया। जेल से गांधी जी ने उनके लिए एक साड़ी भेजी, जो उन्होंने स्वयं सूत कातकर तैयार की थी। यह इस बात का प्रतीक था कि गांधी जी के हृदय में बा के लिए कितना प्रेम एवं आदर था।
गांधी जी प्रायः आन्दोलन की तैयारी के लिए देश भर में प्रवास करते रहते थे; पर पीछे से बा शान्त नहीं बैठती थीं। वे भी महिलाओं से मिलकर उन्हें सत्याग्रह, शराब बन्दी, स्वदेशी का प्रयोग तथा विदेशी कपड़ों की होली जैसे कार्यक्रमों के लिए तैयार करती रहती थीं। जब गांधी जी यरवदा जेल से छूटकर वायसराय से मिलने शिमला गये, तो बा भी उनके साथ गयीं और वायसराय की पत्नी को देश की जनता की भावनाओं से अवगत कराया।
कांग्रेस ने दो अगस्त, 1942 को ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ करने का प्रस्ताव पास किया। गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया। 9 अगस्त की शाम को मुम्बई के शिवाजी पार्क में एक विशाल रैली होने वाली थी; पर दिन में ही गंाधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस पर बा ने घोषणा कर दी कि रैली अवश्य होगी और वे उसे सम्बोधित करेंगी। इस पर शासन ने उन्हें भी गिरफ्तार कर आगा खाँ महल में बन्द कर दिया।
जेल में बा का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था; पर उन्होंने किसी भी कीमत पर झुकना स्वीकार नहीं किया। 21 फरवरी, 1944 को बा ने अन्तिम साँस ली और वहीं आगा खाँ महल में उनका अन्तिम संस्कार कर दिया गया।
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21 फरवरी/पुण्य-तिथि
कित्तूर की वीर रानी चेन्नम्मा
कर्नाटक में चेन्नम्मा नामक दो वीर रानियां हुई हैं। केलाड़ी की चेन्नम्मा ने औरंगजेब से, जबकि कित्त्ूार की चेन्नम्मा ने अंग्रेजों से संघर्ष किया था।
कित्तूर के शासक मल्लसर्ज की रुद्रम्मा तथा चेन्नम्मा नामक दो रानियां थीं। काकतीय राजवंश की कन्या चेन्नम्मा को बचपन से ही वीरतापूर्ण कार्य करने में आनंद आता था। वह पुरुष वेश में शिकार करने जाती थी। ऐसे ही एक प्रसंग में मल्लसर्ज की उससे भेंट हुई। उसने चेन्नम्मा की वीरता से प्रभावित होकर उसे अपनी दूसरी पत्नी बना लिया।
कित्तूर पर एक ओर टीपू सुल्तान तो दूसरी ओर अंग्रेज नजरें गड़ाये थे। दुर्भाग्यवश चेन्नम्मा के पुत्र शिव बसवराज और फिर कुछ समय बाद पति का भी देहांत हो गया। ऐसे में बड़ी रानी के पुत्र शिवरुद्र सर्ज ने शासन संभाला; पर वह पिता की भांति वीर तथा कुशल शासक नहीं था। स्वार्थी दरबारियों की सलाह पर उसने मराठों और अंग्रेजों के संघर्ष में अंग्रेजों का साथ दिया।
अंग्रेजों ने जीतने के बाद सन्धि के अनुसार कित्तूर को भी अपने अधीन कर लिया। कुछ समय बाद बीमारी से राजा शिवरुद्र सर्ज का देहांत हो गया। चेन्नम्मा ने शिवरुद्र के दत्तक पुत्र गुरुलिंग मल्लसर्ज को युवराज बना दिया।
पर अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को नहीं माना तथा राज्य की देखभाल के लिए धारवाड़ के कलैक्टर थैकरे को अपना राजनीतिक दूत बनाकर वहां बैठा दिया। कित्तूर राज्य के दोनों प्रमुख दीवान मल्लप्पा शेट्टी तथा वेंकटराव भी रानी से नाराज थे। वे अंदर ही अंदर अंग्रेजों से मिले थे।
थैकरे ने रानी को संदेश भेजा कि वह सारे अधिकार तुरंत मल्लप्पा शेट्टी को सौंप दे। रानी ने यह आदेश ठुकरा दिया। वे समझ गयीं कि अब देश और धर्म की रक्षा के लिए लड़ने-मरने का समय आ गया है। रानी अपनी प्रजा को मातृवत प्रेम करती थीं। अतः उनके आह्नान पर प्रजा भी तैयार हो गयी। गुरु सिद्दप्पा जैसे दीवान तथा बालण्णा, रायण्णा, जगवीर एवं चेन्नवासप्पा जैसे देशभक्त योद्धा रानी के साथ थे।
23 अक्तूबर, 1824 को अंग्रेज सेना ने थैकरे के नेतृत्व में किले को घेर लिया। रानी ने वीर वेश धारण कर अपनी सेना के साथ विरोधियों को मुंहतोड़ उत्तर दिया। थैकरे वहीं मारा गया और उसकी सेना भाग खड़ी हुई। कई अंग्रेज सैनिक तथा अधिकारी पकड़े गये, जिन्हें रानी ने बाद में छोड़ दिया; पर देशद्रोही दीवान मल्लप्पा शेट्टी तथा वेंकटराव को फांसी पर चढ़ा दिया गया।
स्वाधीनता की आग अब कित्तूर के आसपास भी फैलने लगी थी। अतः अंग्रेजों ने मुंबई तथा मद्रास से कुमुक मंगाकर फिर धावा बोला। उन्हें इस बार भी मुंह की खानी पड़ी; पर तीसरे युद्ध में उन्होंने एक किलेदार शिव बासप्पा को अपने साथ मिला लिया। उसने बारूद में सूखा गोबर मिलवा दिया तथा किले के कई भेद शत्रुओं को दे दिये। अतः रानी को पराजित होना पड़ा।
अंग्रेजों ने गुरु सिद्दप्पा को फांसी पर चढ़ाकर रानी को धारवाड़ की जेल में बंद कर दिया। देशभक्त जनता ने रानी को मुक्त कराने का प्रयास किया; पर वे असफल रहे। पांच वर्ष के कठोर कारावास के बाद 21 फरवरी, 1929 को धारवाड़ की जेल में ही वीर रानी चेन्नम्मा का देहांत हुआ।
रानी ने 23 अक्तूबर को अंग्रेजों को ललकारा था। उनकी याद में इस दिन को दक्षिण भारत में ‘महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश, स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश, राष्ट्रधर्म अपै्रल 2011)
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21 फरवरी/जन्म-दिवस
विदेशी शरीर में भारतीय आत्मा श्रीमां
21 फरवरी, 1878 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में जन्मी श्रीमां का पूर्व नाम मीरा अल्फांसा था। उनके पिता श्री मोरिस एक बैंकर तथा माता श्रीमती मातिल्डा अल्फांसा थीं। उनके मिस्र के राजघराने से रक्त संबंध थे। अभिभावकों ने उनका नाम परम कृष्णभक्त मीराबाई के नाम पर क्यों रखा, यह कहना कठिन है; पर इससे उनके भावी जीवन का मार्ग अवश्य प्रशस्त हो गया। चार वर्ष की अवस्था से ही वे कुर्सी पर बैठकर ध्यान करने लगी थी। उन्हें लगता कि एक ज्योति शिरोमंडल में प्रवेश कर असीम शांति प्रदान करती है। सामान्य बच्चों की तरह खेलकूद में मीरा की कोई रुचि नहीं थी।
12-13 वर्ष की अवस्था तक वे कई घंटे ध्यान में डूबने लगीं। इधर पढ़ाई में वे सामान्य पाठ्यक्रम के साथ ही गीत, संगीत, नृत्य, साहित्य, चित्रकला आदि में भी खूब रुचि लेती थीं। उन्हें लगता था कि उनका सूक्ष्म शरीर रात में भौतिक शरीर से बाहर निकल जाता है। उन्हें लगता कि उनका विशाल सुनहरा परिधान पूरे पेरिस नगर के ऊपर छाया हुआ है, जिसके नीचे आकर और उसे छूकर दुनिया के हजारों लोग अपने दुखों से मुक्ति पा रहे हैं।
मीरा को नींद में ही कई ऋषियों से अनेक अलौकिक शिक्षाएं मिलीं। एक प्रभावी व्यक्तित्व उन्हें प्रायः दिखाई देता था, जिसे वे कृष्ण कहती थीं। उन्हें लगता था कि वे इस धरा पर हैं और उनके साथ रहकर ही उन्हें कार्य करना है। आगे चलकर उन्होंने अल्जीरिया के ‘तेमसेम’ नामक स्थान पर गुह्य विद्या के गुरु ‘तेओ’ दम्पति से इसकी विधिवत शिक्षा ली। इससे उनमें कहीं भी प्रकट होने तथा सूक्ष्म जगत की घटनाओं के बारे में जानने की क्षमता आ गयी।
1904 में एक योगी ने उन्हें गीता का फ्रेंच अनुवाद दिया। इसे पढ़कर मीरा के मन में भारत और हिन्दू धर्म को जानने की जिज्ञासा बढ़ गयी। उन्हें किसी ने एक गुह्य चक्र यह कहकर दिया था कि जो इसका रहस्य बताएगा, वही उनका पथ प्रदर्शक होगा। उन दिनों पांडिचेरी फ्रांस के अधीन था तथा एक सांसद वहां से चुना जाता था। मीरा के पति पॉल रिशार इसके लिए पांडिचेरी आये।
आते समय मीरा ने वह गुह्य चक्र उन्हें देकर किसी योगी से उसका रहस्य पूछने को कहा था। श्री अरविंद ने यह रहस्य उन्हें बता दिया। जब पति ने वापस जाकर मीरा को यह कहा, तो मीरा तुरन्त पांडिचेरी के लिए चल दीं। 29 मार्च, 1914 को उन दोनों की भेंट हुई। श्री अरविंद उनका स्वागत करने के लिए आश्रम के द्वार पर खड़े थे। मीरा ने देखा कि वे ध्यान के समय जिस महामानव के दर्शन करती थीं, वह श्रीकृष्ण वस्तुतः श्री अरविन्द ही हैं।
मीरा एक वर्ष वहां रहकर फिर फ्रांस, जापान आदि गयीं। इसके बाद वे 24 अपै्रल, 1920 को सदा के लिए पांडिचेरी आ गयीं। नवम्बर 1926 में श्री अरविंद ने आश्रम का पूरा कार्यभार उन्हें सौंप दिया। उनके नेतृत्व में हजारों लोग आश्रम से जुडे़ तथा ओरोविल में ‘श्री अरविंद अंतरराष्ट्रीय शिक्षा केन्द्र’ जैसी कई नयी गतिविधियां प्रारम्भ हुईं, जो आज भी चल रही हैं।
श्रीमां का शरीर भले ही विदेशी था; पर उनकी आत्मा भारतीय थी। वे भारत को अपना असली देश तथा श्री अरविंद की महान शिक्षाओं को मूर्त रूप देना ही अपने जीवन का लक्ष्य मानती थीं। वे कहती थीं कि जगत का गुरु बनना ही भारत की नियति है। 17 नवम्बर, 1973 को अपनी देह त्यागकर वे सदा के लिए अपने पथ प्रदर्शक श्रीकृष्ण के चरणों में लीन हो गयीं।
(संदर्भ : हिन्दू विश्व तथा पांचजन्य)
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22 फरवरी/जन्म-दिवस
राष्ट्रकवि सोहनलाल
द्विवेदी
हिन्दी कविता का क्षेत्र
बहुत बड़ा है। कुछ लोग छंदबद्ध काव्य के समर्थक हैं, तो कुछ
मुक्तकाव्य के। बेहूदी तुकबंदी से भी बहुत से लोग मंचों की तालियां और पैसा बटोर
रहे हैं। दूरदर्शन और सोशल मीडिया के दौर में ऐसे कवि लगातार बढ़ रहे हैं। बहुत से
लोग पैसे देकर फरजी सम्मान और उपाधियों का भी जुगाड़ कर लेते हैं; पर सोहनलाल द्विवेदी ऐसे श्रेष्ठ कवि थे, जिन्हें जनता से
ही ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि एवं सम्मान
मिला।
सोहनलाल द्विवेदी का जन्म
उ.प्र. के फतेहपुर जिले की बिंदकी तहसील में स्थित ग्राम सिजौली में 22 फरवरी,
1906 को हुआ था। उन्होंने काशी हिन्दू वि.वि. से
एम.ए तथा फिर एलएल.बी की डिग्री प्राप्त की। इसके साथ उन्होंने संस्कृत का अध्ययन
भी किया। आजीविका के लिए वे जमींदारी और बैंकिग का काम करते रहे। 1938 से 1942 तक वे ‘दैनिक अधिकार’ नामक पत्र के संपादक भी रहे। कुछ वर्ष उन्होंने अवैतनिक रूप से ‘बालसखा’ नामक पत्रिका का संपादन भी किया। ऐसे लोग बहुत कम हैं, जो बच्चों और बड़ों दोनों के लिए साहित्य का सृजन करें; पर सोहनलाल द्विवेदी में यह प्रतिभा थी।
श्री द्विवेदी को देश, धर्म और समाज के प्रति प्रेम का वातावरण परिवार में ही मिला। इसका प्रभाव उनकी
रचनाओं पर सर्वत्र दिखता है। यों तो वे छुटपन से ही तुकबंदी करते थे; पर 1921 से विधिवत कविता लिखने लगे। देशप्रेम से परिपूरित उनका
पहला संकलन ‘भैरवी’ 1941 में प्रकाशित
हुआ। इससे उन्हें काव्यजगत में क्रमशः पहचान मिलने लगी। उनकी अन्य प्रकाशित कृतियां
हैं - वासवदत्ता,
कुणाल, पूजागीत, विषपान, युगाधार, वासंती, चित्रा..आदि।
वे गांधी जी से बहुत
प्रभावित थे। उनके विचारों को प्रसारित करने के लिए उन्होंने कई रचनाएं लिखीं।
इनमें प्रमुख हैं - जय गांधी, युगावतार गांधी, खादी गीत, गांवों में किसान, दांडी यात्रा, त्रिपुरी कांग्रेस, बढ़ो अभय जय जय जय, राष्ट्रीय निशान, सेवाग्राम आदि। गांधीजी की 75वीं वर्षगांठ पर उन्होंने अभिनंदन ग्रंथ का संपादन कर उन्हें भेंट किया। एक
गीत में उन्होंने लिखा था -
चल पड़े जिधर दो डग मग
में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर
पड़ गयी जिधर भी एक
दृष्टि, गड़ गये कोटि दृग उसी ओर।
उनका खादी गीत भी बहुत
लोकप्रिय हुआ -
खादी के धागे धागे में, अपनेपन का अभिमान भरा
माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा।
इन गीतों से स्वाधीनता
संग्राम के जुलूसों में चेतना भर जाती थी। उनके अभियान गीत और प्रयाण गीतों के साथ
सत्याग्रही आगे बढ़ते जाते थे। उनकी कविताएं आसानी से हर किसी की जुबान पर चढ़
जाती थीं। द्विवेदी जी ने प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य भी लिखा। उनमें प्रमुख
हैं - बांसुरी, झरना, बिगुल, बच्चों के बापू, चेतना, दूध बताशा, बाल भारती, शिशु भारती, नेहरू चाचा, सुजाता, प्रभाती... आदि। उनका साहित्य जहां अतीत के प्रति गौरव का
भाव जगाता है, वहां वह वर्तमान के प्रति सचेत करते हुए भविष्य के लिए मन
में ऊर्जा का भी संचार करता है। इसलिए उन्हें आज भी याद किया जाता है।
द्विवेदी जी मनमौजी
स्वभाव के थे। मन हुआ तो वे किसी भी स्कूल, काॅलेज या
ग्रामीण कवि सम्मेलन में निःशुल्क चले जाते थे; पर मन न होने पर
बड़ी धनराशि भी ठुकरा देते थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी ऐसे श्रेष्ठ रचनाकार को
भारत सरकार ने 1969 में ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया। एक मार्च, 1988 को उनका देहांत
हुआ। भैरवी काव्य में संग्रहीत उनका प्रसिद्ध गीत, ‘‘वंदना के इन
स्वरों में, एक स्वर मेरा मिला लो..’’ आज भी अनिवार्य
रूप से विद्यालयों के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाता है।
(विकी, हिन्दू विश्व 16.2.2018/21, भारतीय चरित कोश/957, लीलाधर शर्मा
पर्वतीय)
22 फरवरी/पुण्य-तिथि
सेवा का अक्षय वट माधवराव परलकर
सेवा का क्षेत्र बहुत व्यापक है। जिस व्यक्ति पर कष्ट पड़ता है, उसकी सेवा तो पुण्य है ही; पर उनके सम्बन्धियों के कष्ट भी कम नहीं होते।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता जनजीवन से जुड़े होते हैं। उन्होंने ऐसे रोगियों और उनके परिचारकों के लिए अनेक सेवा केन्द्रों की स्थापना की है। इनमें मुम्बई का ‘नाना पालकर रुग्ण सेवा केन्द्र’ भी एक है। इसके प्राण थे संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री माधवराव परलकर।
माधवराव अपने बाल्यकाल से ही संघ की शाखा से जुड़ गये थे। उन्होंने 1947 में ‘आयुर्वेद प्रवीण’ की उपाधि ली। तब वे चाहते तो कहीं नौकरी या चिकित्सालय खोल सकते थे; पर वे संघ के प्रचारक के नाते अपना जीवन बिताने का निश्चय कर चुके थे। उन्हें मुम्बई में बान्द्रा से विरार और फिर चेम्बूर तक का क्षेत्र शाखाओं के विस्तार के लिए सौंपा गया। माधवराव ने अपनी साइकिल के बल पर अनेक नयी शाखाएँ खोलीं। उनके मधुर व्यवहार और परिश्रम से प्रभावित होकर सैकड़ों नये कार्यकर्ता संघ से जुड़े।
उनकी संगठन क्षमता, वार्तालाप की सुमधुर शैली और युवाओं के बीच लोकप्रियता देखकर 1961 में उन्हें मुम्बई नगर का अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का संगठन मन्त्री बनाया गया। उस समय यह संगठन नया था; पर माधवराव ने अपने परिश्रम से इसमें जान डाल दी। इसके बाद सम्पूर्ण महाराष्ट्र प्रदेश का काम उन्हें सौंपा गया। 1962-63 में वे विद्यार्थी परिषद के अखिल भारतीय महामन्त्री बनाये गये।
माधवराव की रुचि चिकित्सा सेवा की ओर भी थी। उन दिनों मुम्बई में ‘नाना पालकर स्मृति समिति’ स्थापित हुई थी। संघ के प्रचारक नाना पालकर का 1967 में पीलिया से देहान्त हुआ था। मुम्बई में बाहर से अनेक स्वयंसेवक इलाज के लिए आते थे। उनके निवास की व्यवस्था, उचित अस्पताल और खर्च में उनका इलाज हो जाए, यह कार्य समिति करती थी। माधवराव की सेवा में रुचि देखते हुए उन्हें इस समिति का काम सौंपा गया।
प्रारम्भ में इनके पास बहुत छोटा स्थान था। वहाँ चार-पाँच लोग ही रह सकते थे। अतः माधवराव ने नया और विशाल भवन बनवाने की योजना सबके सामने रखी। अनेक कार्यकर्ता उनके साथ जुट गये। इन सबकी प्रामाणिकता और लगन देखकर मुम्बई महानगर पालिका के अधिकारियों ने परेल में एक बड़ा भूखण्ड इन्हें दे दिया। थोड़े ही समय में वहाँ एक सात मंजिला भवन बन गया।
भवन का उद्घाटन तत्कालीन सरसंघचालक मा. रज्जू भैया, पूज्य स्वामी सत्यमित्रानन्द जी और स्वाध्याय परिवार के पांडुरंग शास्त्री आठवले जी महाराज की उपस्थिति में हुआ। इस भवन का निर्माण कार्य सरल नहीं था; पर माधवराव ने हर समस्या को शान्ति एवं धैर्य के साथ हल किया। उनकी प्रेरणा के केन्द्र संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी थे, जो उन्हें पुत्रवत स्नेह करते थे।
माधवराव परलकर योग के भी अच्छे जानकार थे। आपातकाल में जब उन्हें नासिक जेल में बन्दी बनाकर रखा गया, तो उन्होंने वहाँ भी योग की कक्षाएँ लगायीं। इससे राजनीतिक तथा अन्य बन्दी भी लाभान्वित हुए। नाना पालकर स्मृति संस्थान में भी उनके दिशा-निर्देशन में योगाभ्यास होता था। स्वयं चिकित्सक होने के कारण वे भी रोगियों का निःशुल्क उपचार करते थे।
सेवा की सचल प्रतिमूर्ति माधवराव का 81 वर्ष की अवस्था में 22 फरवरी, 2008 को मुम्बई में ही निधन हुआ। उनकी लगन और निष्ठा से आज भी वहाँ के कार्यकर्ता प्रेरणा पा रहे हैं।
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23 फरवरी/जन्म-दिवस
साहित्यकार सांसद डा. रघुवीर सिंह
ऐसा प्रायः कम ही होता है कि राजपरिवार में जन्मे व्यक्ति को सत्तामद न हो; पर 23 फरवरी, 1908 को सीतामऊ (मध्य प्रदेश) रियासत के महाराजा श्री रामसिंह के घर में जन्मे महाराज कुमार रघुवीर सिंह इसके अपवाद थे। प्रारम्भिक शिक्षा घर पर होने के बाद ये इन्दौर के डेली कॉलेज और होल्कर कॉलेज में पढ़े। इतिहास इनकी सर्वाधिक रुचि का विषय था। 1936 में आगरा विश्वविद्यालय से ‘ट्रांजिट इन मालवा’ विषय पर इन्हें डी.लिट की उपाधि दी गयी। इस विश्वविद्यालय से यह उपाधि लेने वाले वे पहले छात्र थे।
कुँवर रघुवीर सिंह को घर में साहित्यिक वातावरण मिला। उनके पूर्वज महाराज कुमार रतनसिंह ‘नटनागर’ डिंगल के कवि थे। पिता रामसिंह भी सुकवि तथा आधुनिक विचारों के थे। देश में अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन हो रहे थे। 1917 में रूसी क्रान्ति की चर्चा विश्व भर में फैली। घर में भी श्री रामसिंह इसका विश्लेषण सबके सामने ठीक प्रकार से करते थे। इस प्रकार बालक रघुवीर सिंह का राजनीतिक प्रशिक्षण भी पढ़ाई के साथ-साथ चलता रहा।
जब तक रघुवीर सिंह युवा हुए, मालवा क्षेत्र में स्वतन्त्रता संग्राम की गतिविधियाँ तेज हो गयीं। इन्दौर इनका केन्द्र था। वहाँ कांग्रेस के आन्दोलन के साथ ही मजदूर आन्दोलन, प्रजामण्डल आन्दोलन और समाजवादी आन्दोलन भी चल रहे थे। इन सबका प्रभाव युवक रघुवीर सिंह पर भी पड़ा। 1929-30 में उनके लिखे निबन्ध और कविताओं पर इसका प्रभाव स्पष्ट दिखायी देता है। 1933 में यह सब रचनाएँ ‘बिखरे फूल’ में प्रकाशित हुईं।
रघुवीर सिंह जहाँ एक ओर गांधीवादी आन्दोलन से जुड़े थे, तो दूसरी ओर क्रान्तिकारियों द्वारा जान हथेली पर लेकर घूमना भी उनके अन्तर्मन को झकझोर देता था। 1928 में प्रकाशित और बहुचर्चित ‘चाँद’ पत्रिका के फाँसी अंक में उन्होंने ‘फ्रान्स की क्रान्ति के कुछ रक्तरंजित पृष्ठ’ लेख लिखा था। इस अंक को ब्रिटिश शासन ने जब्त कर लिया था।
तत्कालीन लेखक प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद एवं सुमित्रानन्दन पन्त से भी वे बहुत प्रभावित थे। इनके प्रभाव की छाप उनके विचारों और लेखन में दिखायी देती है। उनका लेखकीय स्वरूप पूर्णतः उनकी सामन्ती छवि से भिन्न है। स्वतन्त्र भारत के पहले प्रधानमन्त्री नेहरु जी से उनकी मित्रता थी। उनके आग्रह पर 1952 से 1962 तक डा. रघुवीर सिंह राज्यसभा में सांसद रहे। सदन में भी वे अत्यधिक सक्रिय रहे। संयुक्त राष्ट्र संघ के 11वें अधिवेशन में उन्होंने भारत का पक्ष बहुत मजबूती से रखा। तभी उन्हें कोलम्बिया विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग ने भी भाषण के लिए आमन्त्रित किया।
डा. रघुवीर सिंह की एक विशेषता यह थी कि वे उन्हें मिलने वाले हर पत्र का उत्तर देते थे। अपनी जन्मभूमि मालवा से उन्हें अत्यधिक प्रेम था। मालवा के गौरवशाली इतिहास को प्रकाश में लाने का उन्होंने सफल प्रयास किया। उनका साहित्य यद्यपि हिन्दी में है; पर अपने क्षेत्र के लोगों से वे स्थानीय बोली में ही बात करते थे। 1975 में जब आपातकाल की घोषणा कर इंदिरा गांधी ने देश में तानाशाही थोप दी, तो डा0 रघुवीर सिंह ने इसे देश की जनता के लोकतान्त्रिक हितों पर कुठाराघात बताते हुए कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया।
सादे जीवन और उच्च विचारों वाले डा. रघुवीर सिंह को प्रख्यात साहित्यकार डा0 वृन्दावनलाल वर्मा ने सीतामऊ का तपस्वी, यशस्वी और प्रतिभा सम्पन्न समर्पित साहित्यकार कहा है।
1--महात्मा ज्योतबा पहले जन्मदिवस 11 अप्रैल बताते हैं जबकि अपने 20 फरवरी दिया है ।
जवाब देंहटाएं2-- सूर्यकांत जी त्रिपाठी "निराला" का जन्मदिवस 20 फरवरी बताते हैं जबकि अपने 16 फ़रवरी दिया है ।
रानी चेन्नम्मा की पुण्यतिथि 1829 है 1929 नही कृपया ठीक कर लें
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