फरवरी दूसरा सप्ताह

8 फरवरी/प्रेरक प्रसंग

देशद्रोही मुखबिरों का वध

देश की स्वाधीनता के लिए जिसने भी त्याग और बलिदान दिया, वह धन्य है; पर जिस घर के सब सदस्य फांसी चढ़ गये, वह परिवार सदा के लिए पूज्य है। चाफेकर बन्धुओं का परिवार ऐसा ही था।

1897 में पुणे में भयंकर प्लेग फैल गया। इस बीमारी को नष्ट करने के बहाने से वहां का प्लेग कमिश्नर सर वाल्टर चार्ल्स रैण्ड मनमानी करने लगा। उसके अत्याचारों से पूरा नगर त्रस्त था। वह जूतों समेत रसोई और देवस्थान में घुस जाता था। उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए चाफेकर बन्धु दामोदर एवं बालकृष्ण ने 22 जून, 1897 को उसका वध कर दिया।

इस योजना में उनके दो मित्र गणेश शंकर और रामचंद्र द्रविड़ भी शामिल थे। ये दोनों सगे भाई थे; पर जब पुलिस ने रैण्ड के हत्यारों के लिए 20,000 रु. पुरस्कार की घोषणा की, तो इन दोनों ने मुखबिरी कर दामोदर हरि चाफेकर को पकड़वा दिया, जिसे 18 अपै्रल, 1898 को फांसी दे गयी। बालकृष्ण की तलाश में पुलिस निरपराध लोगों को परेशान करने लगी। यह देखकर उसने आत्मसमर्पण कर दिया। 

इनका एक तीसरा भाई वासुदेव भी था। वह समझ गया कि अब बालकृष्ण को भी फांसी दी जाएगी। ऐसे में उसका मन भी केसरिया बाना पहनने को मचलने लगा। उसने मां से अपने बड़े भाइयों की तरह ही बलिपथ पर जाने की आज्ञा मांगी। वीर माता ने अश्रुपूरित नेत्रों से उसे छाती से लगाया और उसके सिर पर आशीर्वाद का हाथ रख दिया।  

अब वासुदेव और उसके मित्र महादेव रानडे ने दोनों द्रविड़ बंधुओं को उनके पाप की सजा देने का निश्चय किया। द्रविड़ बन्धु पुरस्कार की राशि पाकर खाने-पीने में मस्त थे। आठ फरवरी, 1899 को वासुदेव तथा महादेव पंजाबी वेश पहन कर रात में उनके घर जा पहुंचे। वे दोनों अपने मित्रों के साथ ताश खेल रहे थे। नीचे से ही वासुदेव ने पंजाबी लहजे में उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि तुम दोनों को बु्रइन साहब थाने में बुला रहे हैं।

थाने से प्रायः इन दोनों को बुलावा आता रहता था। अतः उन्हें कोई शक नहीं हुआ और वे खेल समाप्त कर थाने की ओर चल दिये। मार्ग में वासुदेव और महादेव उनकी प्रतीक्षा में थे। निकट आते ही उनकी पिस्तौलें गरज उठीं। गणेश की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गयी और रामचंद्र चिकित्सालय में जाकर मरा। इस प्रकार दोनों को देशद्रोह का समुचित पुरस्कार मिल गया।

पुलिस ने शीघ्रता से जाल बिछाकर दोनों को पकड़ लिया। वासुदेव को तो अपने भाइयों को पकड़वाने वाले गद्दारों से बदला लेना था। अतः उसके मन में कोई भय नहीं था। अब बालकृष्ण के साथ ही इन दोनों पर भी मुकदमा चलाया गया। न्यायालय ने वासुदेव, महादेव और बालकृष्ण की फांसी के लिए क्रमशः आठ, दस और बारह मई, 1899 की तिथियां निश्चित कर दीं।

आठ मई को प्रातः जब वासुदेव फांसी के तख्ते की ओर जा रहा था, तो मार्ग में वह कोठरी भी पड़ती थी, जिसमें उसका बड़ा भाई बालकृष्ण बंद था। वासुदेव ने जोर से आवाज लगाई, ‘‘भैया, अलविदा। मैं जा रहा हूं।’’ बालकृष्ण ने भी उतने ही उत्साह से उत्तर दिया, ‘‘हिम्मत से काम लेना। मैं बहुत शीघ्र ही आकर तुमसे मिलूंगा।’’ 

इस प्रकार तीनों चाफेकर बन्धु मातृभूमि की बलिवेदी पर चढ़ गये। इससे प्रेरित होकर 16 वर्षीय किशोर विनायक दामोदर सावरकर ने एक मार्मिक कविता लिखी और उसे बार-बार पढ़कर सारी रात रोते रहे।

(संदर्भ : क्रांति कोश, स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश..आदि)
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9 फरवरी/पुण्य-तिथि

अखण्ड सेवाव्रती बाबा आम्टे 

सेवा का मार्ग बहुत कठिन है, उसमें भी कुष्ठ रोगियों की सेवा तो अत्यधिक कठिन है। ऐसे लोगों को स्वयं भी रोगी हो जाने का भय रहता है; पर मुरलीधर देवीदास (बाबा) आम्टे ने इस कठिन क्षेत्र को ही अपनाया। इससे उनके परिजन इतने प्रभावित हुए कि उनकी पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू और पौत्र भी इसी कार्य में लगे हैं। ऐसे समाजसेवी परिवार दुर्लभ ही होते हैं।

बाबा का जन्म 26 दिसम्बर, 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के एक जमींदार परिवार में हुआ था। कानून की शिक्षा पाकर उन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में बन्दी सत्याग्रहियों के मुकदमे लड़े; लेकिन झूठ पर आधारित इस काम में उनका मन नहीं लगा। कुष्ठ रोगियों की दुर्दशा देखकर उन्हें बहुत कष्ट होता था। अतः उन्होंने इनकी सेवा करने का निर्णय लिया।

इस विचार का उनकी पत्नी साधना ताई ने केवल स्वागत ही नहीं किया, अपितु पूरा सहयोग भी दिया। दोनों ने कोलकाता जाकर कुष्ठ रोग के उपचार का प्रशिक्षण लिया और फिर दो पुत्रों प्रकाश व विकास तथा छह कुष्ठ रोगियों के साथ महाराष्ट्र के चन्द्रपुर में ‘आनन्दवन’ नामक आश्रम स्थापित किया। 

इसके नाम से ही स्पष्ट है कि बाबा को इस कार्य में आनंद का अनुभव होता था। यद्यपि उनका विरोध भी बहुत हुआ। उस समय धारणा यह थी कि कुष्ठ रोग पूर्वजन्म के पापों का फल है; पर बाबा ने इसकी चिन्ता नहीं की। धीरे-धीरे इस आश्रम की प्रसिद्धि होने लगी। बाबा के मधुर व्यवहार और समर्पण के कारण दूर-दूर से कुष्ठ रोगी इस आश्रम में आकर रहने लगे। 

बाबा ने उन्हें भिक्षावृत्ति से हटाकर छोटे कुटीर उद्योगों में लगाया, जिससे उन्हें आय होने लगी। इससे उन्हें स्वाभिमान एवं सम्मानपूर्वक जीने का नया मार्ग मिला। इस समय वहाँ 3,000 से अधिक कुष्ठ रोगी हैं, जिनकी सेवा में बाबा के दोनों चिकित्सक पुत्र, पुत्रवधुएँ तथा पौत्र भी पूर्ण निष्ठा से लगे हैं।

इसके साथ बाबा सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े रहते थे। सरदार सरोवर बाँध के निर्माण के समय विस्थापितों द्वारा किये जा रहे आन्दोलन को उन्होंने आन्दोलनकारियों के बीच जाकर सक्रिय समर्थन दिया। जिन दिनों पंजाब में उग्रवाद चरम पर था, बाबा ने वहाँ का प्रवास किया। इसी प्रकार जब महाराष्ट्र में क्षेत्रवादी आन्दोलन ने जोर पकड़ा, तो बाबा ने साइकिल से पूरे भारत का भ्रमण किया। इसे उन्होंने ‘भारत जोड़ो’ यात्रा नाम दिया।

बाबा सदा अपनी मौलिकता में जीते थे। गांधी जी से प्रभावित होने के कारण वे अपने आश्रम में बनी खादी के वस्त्र पहनते थे। राष्ट्रपति से सम्मान लेते समय भी वे खादी की साधारण बनियान पहन कर ही गये। 
रक्त कैंसर (ल्यूकेमिया) और रीढ़ की बीमारी से ग्रसित होने के कारण जब उन्हें बैठना सम्भव नहीं रहा, तो वे लेटकर ही प्रवास, बातचीत और भाषण देने लगेे। वे कुष्ठ के किसी खतरे से घबराये नहीं। उन्होंने कुछ दवाओं का परीक्षण रोगियों से पहले स्वयं पर करवाया। यह बड़े साहस की बात है।

उन्हें देश-विदेश की सैकड़ों संस्थाओं ने सम्मानित किया। इनमें पद्मश्री, पद्म विभूषण, डा. अम्बेडकर अन्तरराष्ट्रीय सम्मान, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार सम्मान, रेमन मैगसेसे सम्मान, टेम्पलटन सम्मान आदि प्रमुख हैं। कुष्ठ रोगियों की सेवा को अपना जीवन सर्वस्व मानने वाले इस अखंड सेवाव्रती का नौ फरवरी, 2008 का अपनी कर्मस्थली आनन्दवन में ही देहान्त हुआ।
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फरवरी/जन्म  दिवस 
हिमालय के वरद पुत्र डा. नित्यानन्द

देवतात्मा हिमालय ने पर्यटकों तथा अध्यात्म प्रेमियों को सदा अपनी ओर खींचा है; पर नौ फरवरी, 1926 को आगरा (उ.प्र.) में जन्मे डा. नित्यानन्द ने हिमालय को सेवाकार्य के लिए अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। आगरा में 1940 में विभाग प्रचारक श्री नरहरि नारायण ने उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ा; पर श्री दीनदयाल उपाध्याय से हुई भेंट ने उनका जीवन बदल दिया और उन्होंने संघ के माध्यम से समाज सेवा करने का व्रत ले लिया।

1944 में आगरा से बी.ए. कर वे भाऊराव देवरस की प्रेरणा से प्रचारक बनकर आगरा व फिरोजाबाद में कार्यरत रहे। नौ वर्ष बाद उन्होंने फिर से पढ़ाई प्रारम्भ की और 1954 में भूगोल से प्रथम श्रेणी में एम.ए. किया। एकमात्र पुत्र होने के कारण वे अध्यापक बने; पर विवाह नहीं किया, जिससे अधिकांश समय संघ को दे सकें। 1960 में अलीगढ़ से भूगोल में ही पी-एच.डी. कर वे कई जगह अध्यापक रहे। 1965 से 1985 तक वे देहरादून के डी.बी.एस.कॉलिज में भूगोल के विभागाध्यक्ष रहे।

इस दौरान उन्होंने हिमालय के दुर्गम स्थानों का गहन अध्ययन किया। पहाड़ के लोगों के दुरुह जीवन, निर्धनता, बेरोजगारी, युवकों का पलायन आदि समस्याओं ने उनके संवेदनशील मन को झकझोर दिया। आपातकाल में नौकरी की चिन्ता किये बिना वे सहर्ष कारावास में रहे। उन्होंने कहीं कोई घर नहीं बनाया। सेवानिवृत्त होकर वे पहले आगरा और फिर देहरादून के संघ कार्यालय पर रहने लगे। उन पर जिले से लेकर प्रान्त कार्यवाह तक के दायित्व रहे। दिसम्बर, 1969 में लखनऊ में हुए उ.प्र. के 15,000 स्वयंसेवकों के विशाल शिविर के मुख्यशिक्षक वही थे। उनका विश्वास था कि संघस्थान के शारीरिक कार्यक्रमों की रगड़ से ही अच्छे कार्यकर्ता बनते हैं।

20 अक्तूबर, 1991 को हिमालय में विनाशकारी भूकम्प आया। इससे सर्वाधिक हानि उत्तरकाशी में हुई। डा. नित्यानन्द जी ने संघ की योजना से वहां हुए पुनर्निमाण कार्य का नेतृत्व किया। उत्तरकाशी से गंगोत्री मार्ग पर मनेरी ग्राम में ‘सेवा आश्रम’ के नाम से इसका केन्द्र बनाया गया। अपनी माता जी के नाम से बने न्यास में वे स्वयं तथा उनके परिजन सहयोग करते थे। इस न्यास की ओर से 22 लाख रुपये खर्च कर मनेरी में एक छात्रावास बनाया गया है। वहां गंगोत्री क्षेत्र के दूरस्थ गांवों के छात्र केवल भोजन शुल्क देकर कक्षा 12 तक की शिक्षा पाते हैं। वहां से ग्राम्य विकास, शिक्षा, रोजगार, शराबबन्दी तथा कुरीति उन्मूलन के अनेक प्रकल्प भी चलाये जा रहे हैं। अपनी पेंशन से वे अनेक निर्धन व मेधावी छात्रों को छात्रवृत्ति देते थे। 

जिन दिनों ‘उत्तराखंड आन्दोलन’ अपने चरम पर था, तो उसे वामपन्थियों तथा नक्सलियों के हाथ में जाते देख उन्होंने संघ के वरिष्ठजनों को इसके समर्थन के लिए तैयार किया। संघ के सक्रिय होते ही देशद्रोही भाग खड़े हुए। हिमाचल की तरह इस क्षेत्र को ‘उत्तरांचल’ नाम भी उन्होंने ही दिया, जिसे गठबंधन की मजबूरियों के कारण भा.ज.पा. शासन ने ही ‘उत्तराखंड’ कर दिया। केन्द्र में अटल जी की सरकार बनने पर अलग राज्य बना; पर उन्होंने स्वयं को सेवा कार्य तक ही सीमित रखा। उत्तरकाशी की गंगा घाटी पहले ‘लाल घाटी’ कहलाती थी; पर अब वह ‘भगवा घाटी’ कहलाने लगी है। उत्तरकाशी जिले की दूरस्थ तमसा (टौंस) घाटी में भी उन्होंने एक छात्रावास खोला। 

उत्तराखंड में आयी हर प्राकृतिक आपदा में वे सक्रिय रहे। देश की कई संस्थाओं ने सेवा कार्यों के लिए उन्हें सम्मानित किया। उन्होंने इतिहास और भूगोल से सम्बन्धित कई पुस्तकें लिखीं। वृद्धावस्था में भी वे ‘सेवा आश्रम, मनेरी’ में छात्रों के बीच या फिर देहरादून के संघ कार्यालय पर ही रहते थे। आठ जनवरी, 2016 को देहरादून में उनका निधन हुआ। 

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9 फरवरी/पुण्य-तिथि

वैचारिक योद्धा पी.परमेश्वरन् 

बहुत वर्षों तक लोग मानते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ लाठी-काठी और खाकी निक्कर वाले बुद्धि से पैदल लड़कों का ही संगठन है। वहां वैचारिक बहस या गंभीर विमर्श की गुंजाइश नहीं है; पर बौद्धिक मोर्चे पर आकर जिन लोगों ने ऐसे मूढ़मति लोगों को चुनौती दी और उन्हें पीठ दिखाने को मजबूर कर दिया, उनमें श्री पी.परमेश्वरन् का नाम प्रमुख है। 

पी.परमेश्वरन् का जन्म तीन अक्तूबर, 1927 को केरल में अलप्पुझा जिले के मुलम्मा गांव में हुआ था। उनके पिताजी संस्कृत के विद्वान थे। घर के शैक्षिक वातावरण का प्रभाव उन पर भी पड़ा। हिन्दू दर्शन, संस्कृति और काव्य की ओर उनका झुकाव बचपन से ही था। उन्होंने तिरुअनंतपुरम् से बी.ए. (आॅनर्स) की परीक्षा स्वर्ण पदक लेकर उत्तीर्ण की। वे स्वामी अगमानंद, केरल के गांधी के.केलप्पन मनोहरदेव, श्री गुरुजी, दत्तोपंत ठेंगड़ी और दीनदयालजी के चिंतन से प्रभावित थे। सावरकर सदन में उनकी भेंट वीर सावरकर से भी हुई। 

पी.परमेश्वरन् संघ पर लगे पहले प्रतिबंध के विरुद्ध 1949 में जेल गये। वहां से लौटकर 1950 में वे प्रचारक बने और केरल में कई स्थानों पर संघ शाखा का विस्तार किया। मलयालम में छपने वाले ‘केसरी’ साप्ताहिक के भी वे संपादक रहे। 1958 में केरल राज्य के गठन के बाद वे ‘भारतीय जनसंघ’ के प्रदेश संगठन मंत्री बनाए गये। क्रमशः वे जनसंघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने। आपातकाल में वे 16 महीने जेल में रहे; पर उसके बाद उन्होंने राजनीति छोड़ दी और दिल्ली में ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ के निदेशक बने।

उस दौरान केरल में लोग वामपंथी को प्रगतिशील और हिन्दू को पिछड़ा मानते थे। ऐसे माहौल में पी.परमेश्वरन् ने वैचारिक मोर्चा संभाला। उन्होंने प्रचुर साहित्य निर्माण कर उन्हें चुनौती दी। 1983 में हुए विशाल हिन्दू सम्मेलन का ध्येयगीत था ‘सारे हिन्दू एक हैं।’ इससे जातियों के नाम पर लड़ने वाले नेता और संगठन एक मंच पर आने लगे। अतः केरल के वैचारिक मंचों पर हिन्दु, हिन्दुत्व और हिन्दुस्थान बहस के हिस्से बन गये।

इसके बाद उन्होंने केरल में ‘भारतीय विचार केन्द्रम्’ की स्थापना की। गीता और माक्र्स, विवेकानंद और माक्र्स.. जैसे विषयों पर उनके भाषण सुननेे वामपंथी बुद्धिजीवी भी आते थे। उनकी विनम्रता तथा बौद्धिक ज्ञान का वैचारिक विरोधी भी सम्मान करते थे। उनके द्वारा स्थापित ‘गीता स्वाध्याय केन्द्रों’ तथा ‘संयोगी’ कार्यक्रम से लाखों युवा जुड़े। सं से संस्कृत, यो से योग और गी से गीता। उनके प्रयास से मलयालम कलेंडर के अंतिम मास ‘कर्कटक’ में घर-घर रामायण पाठ की प्रथा पुनर्जीवित हुई। वे विवेकानंद केन्द्र, कन्याकुमारी के अध्यक्ष भी रहे। शासन ने उन्हें ‘पद्म श्री’ और फिर ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया; पर राज्यसभा की सदस्यता उन्होंने स्वीकार नहीं की।

पी.परमेश्वरन् के सभी विचारधारा वालों से अच्छे संबंध थे। वे स्वयं तो लिखते ही थे, अन्यों को भी इसके लिए प्रेरित करते थे। स्वामी विवेकानंद की 150वीं जयंती पर उन्होंने विभिन्न विचारधारा के 108 लोगों के लेख एक पुस्तक रूप में प्रकाशित किये। श्री नारायण गुरु और श्री अरविंद के अलावा अंग्रेजी और मलयालम में उन्होंने लगभग 20 पुस्तकें लिखीं। गंभीर वैचारिक पत्रिकाओं में उनके प्रेरक लेख लगातार छपते रहते थे। विवेकानंद केन्द्र ने इनका संकलन ‘हार्ट बीट्स आॅफ हिन्दू नेशन’ शीर्षक से प्रकाशित किया है। 

विद्वान होते हुए भी वे अपने हर भाषण की अच्छी तैयारी करते थे। उनके भाषण उत्तेजित करने की बजाय दिल और दिमाग को हिलाने वाले होते थे। उनका जीवन बहुत अनुशासित था। वे श्री अरविंद और विवेकानंद के समन्वित रूप थे। इसीलिए उन्हें ‘राष्ट्रऋषि’ कहा जाता था। नौ फरवरी, 2020 को 93 वर्ष की सुदीर्घ आयु में उनका निधन हुआ। 

(पांचजन्य 23.2.20 में जे.नंदकुमार/वि.स.के. भारत पर अलका गौरी जोशी, विवेकानंद केन्द्र/अध्यक्ष भा.म.संघ) विकी 
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10 फरवरी/बलिदान-दिवस

अमर बलिदानी सोहनलाल पाठक

भारत की स्वतन्त्रता के लिए देश ही नहीं विदेशों में भी प्रयत्न करते हुए अनेक वीरों ने बलिदान दिये हैं। सोहनलाल पाठक इन्हीं में से एक थे। उनका जन्म पंजाब के अमृतसर जिले के पट्टी गाँव में सात जनवरी, 1883 को श्री चंदाराम के घर में हुआ था। पढ़ने में तेज होने के कारण उन्हें कक्षा पाँच से मिडिल तक छात्रवृत्ति मिली थी। मिडिल उत्तीर्ण कर उन्होंने नहर विभाग में नौकरी कर ली। फिर और पढ़ने की इच्छा हुई, तो नौकरी छोड़ दी। नार्मल परीक्षा उत्तीर्ण कर वे लाहौर के डी.ए.वी. हाईस्कूल में पढ़ाने लगे।

एक बार विद्यालय में जमालुद्दीन खलीफा नामक निरीक्षक आया। उसने बच्चों से कोई गीत सुनवाने को कहा। देश और धर्म के प्रेमी पाठक जी ने एक छात्र से वीर हकीकत के बलिदान वाला गीत सुनवा दिया। इससे वह बहुत नाराज हुआ। इन्हीं दिनों पाठक जी का सम्पर्क स्वतन्त्रता सेनानी लाला हरदयाल से हुआ। वे उनसे प्रायः मिलने लगे। इस पर विद्यालय के प्रधानाचार्य ने उनसे कहा कि यदि वे हरदयाल जी से सम्पर्क रखेंगे, तो उन्हें निकाल दिया जाएगा। यह वातावरण देखकर उन्होंने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।

जब लाला लाजपतराय जी को यह पता लगा, तो उन्होंने सोहनलाल पाठक को ब्रह्मचारी आश्रम में नियुक्ति दे दी। पाठक जी के एक मित्र सरदार ज्ञानसिंह बैंकाक में थे। उन्होंने किराया भेजकर पाठक जी को भी वहीं बुला लिया। दोनों मिलकर वहाँ भारत की स्वतन्त्रता की अलख जगाने लगे; पर वहाँ की सरकार अंग्रेजों को नाराज नहीं करना चाहती थी, अतः पाठक जी अमरीका जाकर गदर पार्टी में काम करने लगे। इससे पूर्व वे हांगकांग गये तथा वहाँ एक विद्यालय में काम किया। विद्यालय में पढ़ाते हुए भी वे छात्रों के बीच प्रायः देश की स्वतन्त्रता की बातें करते रहते थे।

हांगकांग से वे मनीला चले गये और वहाँ बन्दूक चलाना सीखा। अमरीका में वे लाला हरदयाल और भाई परमानन्द के साथ काम करते थे। एक बार दल के निर्णय के अनुसार उन्हें बर्मा होकर भारत लौटने को कहा गया। बैंकाक आकर उन्होंने सरदार बुढ्डा सिंह और बाबू अमरसिंह के साथ सैनिक छावनियों में सम्पर्क किया। वे भारतीय सैनिकों से कहते थे कि जान ही देनी है, तो अपने देश के लिए दो। जिन्होंने हमें गुलाम बनाया है, जो हमारे देश के नागरिकों पर अत्याचार कर रहे हैं, उनके लिए प्राण क्यों देते हो ? इससे छावनियों का वातावरण बदलने लगा।

पाठक जी ने स्याम में पक्कों नामक स्थान पर एक सम्मेलन बुलाया। वहां से एक कार्यकर्ता को उन्होंने चीन के चिपिनटन नामक स्थान पर भेजा, जहाँ जर्मन अधिकारी 200 भारतीय सैनिकों को बर्मा पर आक्रमण के लिए प्रशिक्षित कर रहे थे। पाठक जी वस्तुतः किसी गुप्त एवं लम्बी योजना पर काम कर रहे थे; पर एक मुखबिर ने उन्हें पकड़वा दिया। उस समय उनके पास तीन रिवाल्वर तथा 250 कारतूस थे। उन्हें मांडले जेल भेज दिया गया। स्वाभिमानी पाठक जी जेल में बड़े से बड़े अधिकारी के आने पर भी खड़े नहीं होते थे। 

यद्यपि उन्होंने किसी को मारा नहीं था; पर शासन विरोधी साहित्य छापने तथा विद्रोह भड़काने के आरोप में उन पर मुकदमा चला। उनके साथ पकड़े गये मुस्तफा हुसैन, अमरसिंह, अली अहमद सादिक तथा रामरक्खा को कालेपानी की सजा दी गयी; पर पाठक जी को सबसे खतरनाक समझकर 10 फरवरी, 1916 को मातृभूमि से दूर बर्मा की मांडले जेल में फाँसी दे दी गयी।
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10 फरवरी/बलिदान-दिवस

राजा बख्तावर सिंह का बलिदान

मध्य प्रदेश के धार जिले में विन्ध्य पर्वत की सुरम्य शृंखलाओं के बीच द्वापरकालीन ऐतिहासिक अझमेरा नगर बसा है। 1856 में यहाँ के राजा बख्तावरसिंह ने अंग्रेजों से खुला युद्ध किया; पर उनके आसपास के कुछ राजा अंग्रेजों से मिलकर चलने में ही अपनी भलाई समझते थे।

राजा ने इससे हताश न होते हुए तीन जुलाई, 1857 को भोपावर छावनी पर हमला कर उसे कब्जे में ले लिया। इससे घबराकर कैप्टेन हचिन्सन अपने परिवार सहित वेश बदलकर झाबुआ भाग गया। क्रान्तिकारियों ने उसका पीछा किया; पर झाबुआ के राजा ने उन्हें संरक्षण दे दिया। इससे उनकी जान बच गयी।

भोपावर से बख्तावर सिंह को पर्याप्त युद्ध सामग्री हाथ लगी। छावनी में आग लगाकर वे वापस लौट आये। उनकी वीरता की बात सुनकर धार के 400 युवक भी उनकी सेना में शामिल हो गये; पर अगस्त, 1857 में इन्दौर के राजा तुकोजीराव होल्कर के सहयोग से अंग्रेजों ने फिर भोपावर छावनी को अपने नियन्त्रण में ले लिया।

इससे नाराज होकर बख्तावर सिंह ने 10 अक्तूबर, 1857 को फिर से भोपावर पर हमला बोल दिया। इस बार राजगढ़ की सेना भी उनके साथ थी। तीन घंटे के संघर्ष के बाद सफलता एक बार फिर राजा बख्तावर सिंह को ही मिली। युद्ध सामग्री को कब्जे में कर उन्होंने सैन्य छावनी के सभी भवनों को ध्वस्त कर दिया।

ब्रिटिश सेना ने भोपावर छावनी के पास स्थित सरदारपुर में मोर्चा लगाया। जब राजा की सेना वापस लौट रही थी, तो ब्रिटिश तोपों ने उन पर गोले बरसाये; पर राजा ने अपने सब सैनिकों को एक ओर लगाकर सरदारपुर शहर में प्रवेश पा लिया। इससे घबराकर ब्रिटिश फौज हथियार फेंककर भाग गयी। लूट का सामान लेकर जब राजा अझमेरा पहुँचे, तो धार नरेश के मामा भीमराव भोंसले ने उनका भव्य स्वागत किया।

इसके बाद राजा ने मानपुर गुजरी की छावनी पर तीन ओर से हमलाकर उसे भी अपने अधिकार में ले लिया। 18 अक्तूबर को उन्होंने मंडलेश्वर छावनी पर हमला कर दिया। वहाँ तैनात कैप्टेन केण्टीज व जनरल क्लार्क महू भाग गये। राजा के बढ़ते उत्साह, साहस एवं सफलताओं से घबराकर अंग्रेजों ने एक बड़ी फौज के साथ 31 अक्तूबर, 1857 को धार के किले पर कब्जा कर लिया। नवम्बर में उन्होंने अझमेरा पर भी हमला किया। 

बख्तावर सिंह का इतना आतंक था कि ब्रिटिश सैनिक बड़ी कठिनाई से इसके लिए तैयार हुए; पर इस बार राजा का भाग्य अच्छा नहीं था। तोपों से किले के दरवाजे तोड़कर अंग्रेज सेना नगर में घुस गयी। राजा अपने अंगरक्षकों के साथ धार की ओर निकल गये; पर बीच में ही उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर महू जेल में बन्द कर दिया गया और घोर यातनाएँ दीं। इसके बाद उन्हें इन्दौर लाया गया। राजा के सामने 21 दिसम्बर, 1857 को कामदार गुलाबराज पटवारी, मोहनलाल ठाकुर, भवानीसिंह सन्दला आदि उनके कई साथियों को फाँसी दे दी गयी; पर राजा विचलित नहीं हुए। 

वकील चिमनलाल राम, सेवक मंशाराम तथा नमाजवाचक फकीर को काल कोठरी में बन्द कर दिया गया, जहाँ घोर शारीरिक एवं मानसिक यातनाएँ सहते हुए उन्होंने दम तोड़ा। अन्ततः 10 फरवरी, 1858 को इन्दौर के एम.टी.एच कम्पाउण्ड में देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने वाले राजा बख्तावर सिंह को भी फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
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10 फरवरी/जन्म-दिवस

लोक साहित्य व संस्कृति की अध्येता डा. दुर्गा भागवत

भारतीय लोक साहित्य एवं संस्कृति के अध्ययन, अनुशीलन तथा लेखन में अपना जीवन समर्पित करने वाली विदुषी डा0 दुर्गा नारायण भागवत का जन्म 10 फरवरी, 1910 को इंदौर (म.प्र.) में हुआ था। इनके पिता 1915 में नासिक आ गये, अतः उनकी मैट्रिक तक की शिक्षा नासिक में हुई। इसके बाद बी.ए करने के लिए उन्होंने मुंबई के सेंट जेवियर कॉलिज में प्रवेश लिया। उन्हीं दिनों देश में स्वाधीनता आंदोलन भी तेजी पर था। अतः दुर्गाबाई पढ़ाई बीच में छोड़कर उस आंदोलन में कूद पड़ीं। 

कुछ समय बाद अपनी पढ़ाई फिर प्रारम्भ कर उन्होंने 1932 में बी.ए की डिग्री प्राप्त की। एम.ए में उन्होंने आद्य शंकराचार्य से पूर्व के कालखंड का अध्ययन कर बौद्ध धर्म पर शोध प्रबन्ध लिखा। उन दिनों इस विषय के छात्र प्रायः मैक्समूलर के ग्रन्थों को आधार बनाते थे; पर दुर्गा भागवत ने पाली और अर्धमागधी भाषा सीखकर उनके मूल ग्रन्थों द्वारा अपना शोध पूरा किया। इस शोध प्रबन्ध को परीक्षण के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय भेजा गया। 

1938 में दुर्गाबाई को ‘सिन्थेसिस ऑफ हिन्दू एण्ड ट्राइबल कल्चर ऑफ सेंट्रल प्राविन्सेस ऑफ इंडिया’ विषय पर पी-एच.डी की उपाधि मिली। तीन वर्ष तक मध्यप्रदेश के दुर्गम वनवासी क्षेत्रों में घूमकर उन्होंने वनवासियों की बोली, परम्परा, रीति-रिवाज, खानपान तथा समस्याओं का अध्ययन किया। इससे वे अनेक रोगों की शिकार होकर जीवन भर कष्ट भोगती रहीं। 

दुनिया भर का लोक साहित्य, बाल साहित्य, वनवासी लोकजीवन, परम्परा व संस्कृति उनके अध्ययन तथा लेखन के प्रिय विषय थे। वे भारतीय संस्कृति को टुकड़ों में बांटने के विरुद्ध थीं। उनका मत था कि पूर्व के संस्कारों का अभिसरण ही संस्कृति है। उन्होंने सैकड़ों कहानी, लेख, शोध प्रबंध तथा पुस्तकें लिखी हैं। अनुवाद के क्षेत्र में भी उन्होंने प्रचुर कार्य किया। 

1957 से 1959 तक वे गोखले इंस्टीट्यूट, पुणे में समाज शास्त्र की अध्यक्ष रहीं। 1956 में वे ‘तमाशा परिषद’ की अध्यक्ष बनीं। इस पद पर रहते हुए उन्होंने तमाशा कलाकारों के जीवन का अध्ययन किया। ये कलाकार कैसी निर्धनता और अपमानजनक परिस्थिति में रह रहे हैं, यह देखकर उनका हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने वयोवृद्ध तमाशा साम्राज्ञी विठाबाई नारायण गावकर की सहायतार्थ निधि एकत्र की तथा उनका सार्वजनिक सम्मान किया।

1975 में देश में आपातकाल थोप दिया गया। उसी वर्ष कराड में हुए 51वें मराठी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष पद से उन्होंने आपातकाल का प्रबल विरोध किया। उन्होंने लेखकों से सत्य और न्याय के पक्ष में कलम चलाने का आग्रह किया। वहां केन्द्रीय मंत्री श्री यशवंत राव बलवंत राव चह्नाण भी उपस्थित थे। इस कारण एशियाटिक सोसाइटी के पुस्तकालय में पढ़ते हुए उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया; पर उन्होंने झुकना स्वीकार नहीं किया।

दुर्गाबाई भागवत ने 1977 के चुनाव में कांग्रेस का खुला विरोध किया। उन्होंने पद्मश्री तथा ज्ञानपीठ जैसे साहित्य के प्रतिष्ठित सम्मानों को भी ठुकरा दिया। उनकी ऋतुचक्र, भावमुद्रा, व्याधपर्व, रूपगन्ध जैसी अनेक पुस्तकों को महाराष्ट्र शासन ने तथा पैस को साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया।

दुर्गाबाई ने अविवाहित रहते हुए समाज सेवा और साहित्य साधना को ही जीवन का ध्येय बनाया। सात मई, 2002 को मुंबई में उनका देहांत हुआ। 
(संदर्भ : राष्ट्रधर्म दिसम्बर 2010 तथा विकीपीडिया)
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11 फरवरी/समर्पण-दिवस

जब सेल्यूलर जेल राष्ट्र को समर्पित हुई

अंग्रेज लोग स्वतन्त्रता आन्दोलन के बड़े नेताओं को सामान्य जेल की बजाय ऐसे स्थान पर भेजना चाहते थे, जहाँ से भागना असम्भव हो तथा वे शारीरिक और मानसिक रूप से टूट जायें। इसके लिए उन्हें समुद्र से घिरा अन्दमान द्वीप समूह ठीक लगा। यहाँ साँप, बिच्छू से लेकर विषैले मक्खी-मच्छरों तक की भरमार थी। जंगलों में खूंखार वनवासी बसे थे। अतः यहाँ से भागने की कल्पना भी कठिन थी। अंग्रेजों ने 10 मार्च, 1858 को राजनीतिक बन्दियों तथा अन्य अपराधियों का पहला दल वहाँ भेजा। इनकी संख्या 200 थी। इसके बाद 441 बन्दियों को और भेजा गया।

राजनीतिक बन्दी अच्छे परिवारों से होते थे। अनेक तो जमींदार, नवाब, लेखक और पत्रकार थे; पर इनसे ही जंगल साफ कराये गये। रात में इन्हें खुले अहाते में रखा जाता था। आगे चलकर वहाबी आन्दोलन, मणिपुर के स्वतन्त्रता सेनानी तथा बर्मा से भी बन्दियों को वहाँ लाया गया। संख्या बढ़ने पर अंग्रेजों ने पोर्ट ब्लेयर में ‘सेल्यूलर जेल’ बनाने का निर्णय किया। 13 सितम्बर, 1896 को शुरू हुआ निर्माण कार्य 1906 में जाकर पूरा हुआ। 

साढ़े तेरह ग सात फुट आकार की 689 कोठरियों वाली तीन मंजिली जेल में साइकिल की तीलियों की तरह फैले सात खण्ड थे। इनमें क्रमशः 105, 102, 150, 53, 93, 60 तथा 126 कोठरियाँ थी। इनकी रचना ऐसी थी, जिससे कैदी एक-दूसरे को देख भी न सकें। एक खण्ड की कोठरियों का मुँह दूसरे खण्ड की पीठ की ओर था। बीच में स्थित केन्द्रीय मीनार पर हर समय सशस्त्र पहरा रहता था। कोठरियों पर मजबूत लोहे का जालीदार दरवाजा होता था। फर्श से नौ फुट ऊपर तीन ग एक फुट का रोशनदान था। सोते समय भी कैदी पर रक्षकों की निगाह बनी रहती थी।

हर खण्ड को अलग से बन्द किया जाता था। सातों के गलियारे केन्द्रीय मीनार पर आकर समाप्त होते थे, वहाँ लोहे का एक भारी दरवाजा था। जेल में आना-जाना इसी से होता था। यों तो उस जेल में एक साथ 21 सन्तरी पहरा देते थे; पर जेल की रचना ऐसी थी कि आवश्यकता पड़ने पर एक सन्तरी ही पूरी जेल पर निगाह रख सकता था।

इस जेल में भारत के अनेक महान् स्वतन्त्रता सेनानी बन्दी रहे, जिनमें सावरकर बन्धु, होतीलाल वर्मा, बाबूराम हरी, पंडित परमानन्द, पृथ्वीसिंह आजाद, पुलिन दास, त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती, गुरुमुख सिंह, भाई परमानन्द, लद्धाराम, उल्हासकर दत्त, बारीन्द्र कुमार घोष आदि प्रमुख थे। बन्दियों को कठिन काम दिया जाता था, जो प्रायः पूरा नहीं हो पाता था। इस पर उन्हें कोड़े मारे जाते थे। हथकड़ी, बेड़ी और डण्डा बेड़ी डालना तो आम बात थी।

यातनाओं से घबराकर अनेक कैदी आत्महत्या कर लेते थे। कई पागल और बीमार होकर मर जाते थे। खाने के लिए रूखा-सूखा भोजन और वह भी अपर्याप्त ही मिलता था। द्वितीय विश्व युद्ध के दिनों में साढ़े तीन साल यहाँ जापान का कब्जा रहा। इस दौरान सुभाषचन्द्र बोस ने 29 दिसम्बर, 1943 को जेल का दौरा किया। उन्होंने अन्दमान में तिरंगा फहराया तथा अन्दमान और निकोबार द्वीपों को क्रमशः स्वराज्य और शहीद द्वीप नाम दिया।

1947 के बाद इसे राष्ट्रीय स्मारक बनाने की प्रबल माँग उठी; जो 32 साल बाद पूरी हुई। 11 फरवरी, 1979 को जनता पार्टी के शासन में प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने यहाँ आकर इस पवित्र सेल्यूलर जेल को प्रणाम किया और इसे ‘राष्ट्रीय स्मारक’ घोषित किया।
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11 फरवरी/जन्म-दिवस

आयुर्वेदाचार्य पंडित रामनारायण शास्त्री

एक सामान्य ग्रामीण परिवार में जन्म लेकर देश के अग्रणी आयुर्वेदाचार्य के नाते प्रसिद्ध हुए पंडित रामनारायण शास्त्री का जन्म वसंत पंचमी (11 फरवरी, 1913) को मध्य प्रदेश में महू के पास डोंगरगांव में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा डोंगरगांव में प्राप्त कर वे ग्वालियर आ गये। यहां उन्होंने आयुर्वेद का अध्ययन कर आयुर्वेद शास्त्री की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। वहां के प्रसिद्ध वैद्य श्री रामेश्वर शास्त्री के पास बैठने से उन्हें पुस्तकीय ज्ञान के साथ प्रत्यक्ष अनुभव भी भरपूर हुआ। इसके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश के हापुड़ से आयुर्वेद विज्ञान शिरोमणि की उपाधि भी सम्मान सहित प्राप्त की।

बचपन से ही सामाजिक प्रवृत्ति के होने के कारण छात्र जीवन में वे ‘महू नवयुवक मनोरंजन केन्द्र’ और ‘प्रताप सेना संघ’ से जुड़ गये। अध्ययन पूरा कर उन्होंने ‘नार्मदीय धर्मार्थ न्यास’ के औषधालय से चिकित्सा सेवा प्रारम्भ की। कुछ ही समय में उनका यश फैल गया और उनकी गिनती देश के प्रमुख वैद्यों में होने लगी। अब वे इंदौर के अपने निवास से कार्य करने लगे। वे अखिल भारतीय आयुर्वेद सम्मेलन के कई बार अध्यक्ष रहे। उनकी सेवाओं के लिए श्रीलंका सरकार ने उन्हें ‘आयुर्वेद मणि’ उपाधि से विभूषित किया।

संघ से उनका परिचय 1943 में हुआ और वे इंदौर की मल्हारगंज शाखा में जाने लगे। इसके बाद संघ से निकटता बढ़ती गयी और वह उनके जीवन की धड़कन बन गया। अनेक दायित्वों के बाद वे मध्य भारत के प्रांत संघचालक बनाये गये। इस दायित्व का निर्वाह उन्होंने अंतिम समय तक किया।

चिकित्सा का अच्छा कारोबार होते हुए भी शास्त्री जी ने देश और संघ पर आने वाली हर चुनौती को स्वीकार किया। वे कश्मीर आंदोलन और फिर गोरक्षा आंदोलन में जेल गये। संघ पर लगे पहले व दूसरे प्रतिबन्ध में पूरे समय वे कारागृह में रहे। आपातकाल में जेल में उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया; पर उन्होंने क्षमा मांगना स्वीकार नहीं किया। बहुत बीमार होने पर भी जेल वालों ने उन्हें अपनी आयुर्वेदिक दवाएं नहीं लेने दीं।

शास्त्री जी की साहित्य के क्षेत्र में भी अच्छी पहचान थी। उन्होंने कई नाटक लिखे, उनका मंचन किया तथा उनमें स्वयं अभिनय भी किया। इंदौर की सभी साहित्यिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में वे सक्रिय रहते थे। जब इंदौर से ‘स्वदेश’ नामक एक दैनिक हिन्दी समाचार पत्र निकालने की योजना बनी, तो उसकी स्थापना से लेकर संचालन तक में उनकी प्रमुख भूमिका रही। इन दिनों वह मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई स्थानों से प्रकाशित होता है। स्वदेश की संचालन संस्था ‘श्री रेवा प्रकाशन लिमिटेड’ के वे आजीवन अध्यक्ष रहे।

भारत और भारतीयता के प्रबल आग्रही शास्त्री जी सदा धोती-कुर्ता ही पहनते थे। पश्चिम के ठंडे देशों की यात्रा के समय भी यही उनका वेश रहा।  वे जीवन भर निष्ठावान स्वयंसेवक रहे। उन्हें जो सूचना मिलती, वे उसका पूरी तरह पालन करते थे। एक कार्यक्रम में सब स्वयंसेवकों को परिवार सहित आने की सूचना दी गयी थी। शास्त्री जी की पत्नी उस समय पुत्र वियोग में अपनी आंखें खो चुकी थीं। फिर भी वे उन्हें अपने साथ लेकर आये।

शास्त्री के मन में तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी के प्रति बहुत श्रद्धा थी। श्री गुरुजी भी अपने व्यस्त प्रवास में से समय निकाल कर प्रतिवर्ष कुछ दिन इंदौर में उनके घर पर विश्राम व स्वास्थ्य लाभ करते थे। दूसरों के भीषण रोगों को ठीक करने वाले शास्त्री जी को आपातकाल में जेल में जिन रोगों ने घेर लिया था, वे उनके शरीर के स्थायी साथी बन गये और उन्हीं के कारण 28 दिसम्बर, 1979 को उनका देहावसान हुआ। 

(संदर्भ : मध्यभारत की संघ गाथा)
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12 फरवरी/बलिदान-दिवस

पूर्वांचल के महान क्रान्तिवीर शम्भुधन फूंगलो

भारत में सब ओर स्वतन्त्रता के लिए प्राण देने वाले वीर हुए हैं। ग्राम लंकर (उत्तर कछार, असम) में शम्भुधन फूंगलो का जन्म फागुन पूर्णिमा, 1850 ई0 में हुआ। डिमासा जाति की कासादीं इनकी माता तथा देप्रेन्दाओ फूंगलो पिता थे। शम्भुधन के पिता काम की तलाश में घूमते रहते थे। अन्ततः वे माहुर के पास सेमदिकर गाँव में बस गये। यहीं शम्भुधन का विवाह नासादी से हुआ। 

शम्भु बचपन से ही शिवभक्त थे। एक बार वह दियूंग नदी के किनारे कई दिन तक ध्यानस्थ रहे। लोगों के शोर मचाने पर उन्होंने आँखें खोलीं और कहा कि मैं भगवान शिव के दर्शन करके ही लौटूँगा। इसके बाद तो दूर-दूर से लोग उनसे मिलने आने लगे। वह उनकी समस्या सुनते और उन्हें जड़ी-बूटियों की दवा भी देते। उन दिनों पूर्वांचल में अंग्रेज अपनी जड़ें जमा रहे थे। शम्भुधन को इनसे बहुत घृणा थी। वह लोगों को दवा देने के साथ-साथ देश और धर्म पर आ रहे संकट से भी सावधान करते रहते थे। धीरे-धीरे उनके विचारों से प्रभावित लोगों की संख्या बढ़ने लगी।

एक समय डिमासा काछारी एक सबल राज्य था। इसकी राजधानी डिमापुर थी। पहले अहोम राजाओं ने और फिर अंग्रेजों ने 1832 ई0 में इसे नष्ट कर दिया। उस समय तुलाराम सेनापति राजा थे। वे अंग्रेजों के प्रबल विरोधी थे। 1854 ई0 में उनका देहान्त हो गया। अब अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में फैले विद्रोह को दबाने के लिए राज्य को विभाजित कर दिया। 

शम्भुधन ने इससे नाराज होकर एक क्रान्तिकारी दल बनाया और उसमें उत्साही युवाओं को भर्ती किया। माइबांग के रणचंडी देवी मंदिर में इन्हें शस्त्र संचालन का प्रशिक्षण दिया जाता था। इस प्रकार प्रशिक्षित युवकों को उन्होंने उत्तर काछार जिले में सब ओर नियुक्त किया। इनकी गतिविधियों से अंग्रेजों की नाक में दम हो गया। 

उस समय वहाँ अंग्रेज मेजर बोयाड नियुक्त था। वह बहुत क्रूर था। वह एक बार शम्भुधन को पकड़ने माइबांग गया; पर वहाँ युवकों की तैयारी देखकर डर गया। अब उसने जनवरी 1882 में पूरी तैयारी कर माइबांग शिविर पर हमला बोला; पर इधर क्रान्तिकारी भी तैयार थे। मेजर बोयाड और सैकड़ों सैनिक मारे गये। अब लोग शम्भु को ‘कमाण्डर’ और ‘वीर शम्भुधन’ कहने लगे।

शम्भुधन अब अंग्रेजों के शिविर एवं कार्यालयों पर हमले कर उन्हें नष्ट करने लगे। उनके आतंक से वे भागने लगे। उत्तर काछार जिले की मुक्ति के बाद उन्होंने दक्षिण काछार पर ध्यान लगाया और दारमिखाल ग्राम में शस्त्र निर्माण भी प्रारम्भ किया। कुछ समय बाद उन्होंने भुवन पहाड़ पर अपना मुख्यालय बनाया। यहाँ एक प्रसिद्ध गुफा और शिव मन्दिर भी है। उनकी पत्नी भी आन्दोलन में सहयोग करना चाहती थी। अतः वह इसके निकट ग्राम इग्रालिंग में रहने लगी। शम्भुधन कभी-कभी वहाँ भी जाने लगे।

इधर अंग्रेज उनके पीछे लगे थे। 12 फरवरी, 1883 को वह अपने घर में भोजन कर रहे थे, तो सैकड़ों अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें घेर लिया। उस समय शम्भुधन निःशस्त्र थे। अतः वह जंगल की ओर भागे; पर एक सैनिक द्वारा फेंकी गयी खुखरी से उनका पाँव बुरी तरह घायल हो गया। अत्यधिक रक्तòाव के कारण वह गिर पड़े। उनके गिरते ही सैनिकों ने घेर कर उनका अन्त कर दिया। इस प्रकार केवल 33 वर्ष की छोटी आयु में वीर शम्भुधन ने मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
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12 फरवरी/जन्म-दिवस

सच्चे सर्वोदयी सिद्धराज ढड्ढा

स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान अनेक युवकों को गांधीवाद और आजादी के बाद सर्वोदय ने बहुत प्रभावित किया; पर कुछ समय बाद ही स्वदेशी, स्वभाषा, स्वभूषा तथा राष्ट्रवादी संस्कारों के आधार पर चलने वाले ये आन्दोलन अपने पथ से भटक गये। इससे सम्बद्ध अधिकांश लोग कांग्रेस में शामिल होकर सत्ता और भ्रष्टाचार की राजनीति में उतर गये; पर कुछ लोग ऐसे भी रहे, जिन्होंने आजीवन देशसेवा का वह मार्ग नहीं छोड़ा।

12 फरवरी, 1908 को जयपुर (राजस्थान) के एक अति सम्पन्न परिवार में जन्मे श्री सिद्धराज ढड्ढा ऐसे ही एक कर्मयोगी थे। उनके परिवार में हीरे-जवाहरात का पुश्तैनी काम होता था; पर इस सम्पन्नता के बावजूद उन्होंने स्वयंप्रेरित सादगी को स्वीकार किया था। वे अपने पुरखों की विशाल हवेली के एक कमरे में धरती पर दरी बिछाकर और सामने डेस्क रखकर काम करते थे। उनका आवास, अतिथिगृह, बैठक और कार्यालय सब वही था।

स्वतन्त्रता से पूर्व 1940-41 में वे 10,000 रु. मासिक की शाही नौकरी छोड़कर स्वेच्छा से गांधी जी और स्वाधीनता आन्दोलन के प्रति समर्पित हो गये। तब घर-परिवार ही नहीं, समाज ने भी उन्हें पागल कहा था। ऐसा ही पागलपन उन्होंने एक बार फिर दिखाया। 1947 के बाद जब देश में पहली लोकतान्त्रिक सरकार बनी, तो वे उसमें कैबिनेट मन्त्री बनाये गये; पर कुछ ही दिन बाद प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरु को गांधीवाद से एकदम विमुख होते देख उन्होंने उस मन्त्रीपद को ठोकर मार दी।

सिद्धराज जी का मानना था कि सत्याग्रह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। सच्चे सत्याग्रही को सदा काँटों के पथ पर चलने को तैयार रहना चाहिए। यदि वह भी सो जायेगा, तो शासक वर्ग को भ्रष्ट होने से कोई नहीं रोक सकता। इसलिए स्वाधीनता के बाद भी देश में जहाँ कहीं शासन की जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध कोई आन्दोलन खड़ा होता था, सिद्धराज जी वहाँ पहुँच जाते थे। कोई उन्हें आन्दोलन में भाग लेने के लिए बुलाये, वे इसकी प्रतीक्षा नहीं करते थे। स्वयंस्फूर्त प्रेरणा उन्हें वहाँ खींचकर ले जाती थी। 

सिद्धराज जी को भौतिक सुख-सुविधाओं की जरूरत नहीं थी। अपने खर्चे पर बस या रेल, जो भी मिलता, वे उसमें बैठकर अपना सामान स्वयं उठाकर सत्याग्रहियों के साथ अग्रिम पंक्ति में खड़े हो जाते थे। 98 वर्ष की आयु में जब उनका देहान्त हुआ, उससे कुछ समय पूर्व वे विदेशी कम्पनी कोककोला के विरुद्ध चलाये जा रहे आन्दोलन में सक्रिय थे। वे प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा के रोग से भी दूर थे। शासन द्वारा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को दी जा रही खुली छूट के विरोध में उन्होंने ‘पद्मश्री’ की उपाधि ठुकरा दी।

गांधी जी की ही तरह सर्वोदय के दूसरे बड़े नेता विनोबा भावे से उनके बहुत मधुर सम्बन्ध थे। भूदान आन्दोलन में भी वे सक्रिय रहे; पर जब विनोबा ने 1975 के आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहा, तो सिद्धराज जी ने उनका विरोध किया। वे आपातकाल में जेल में भी रहे। भैरोंसिंह शेखावत के भी वे घनिष्ठ मित्र थे; पर जब भैरोंसिंह जी राजस्थान के मुख्यमन्त्री थे, तो आवश्यकता पड़ने पर उनके विरोध में भी वे निःसंकोच धरने पर बैठ जाते थे।

सिद्धराज जी सर्वोदयी थे; पर कांग्रेसी नहीं। जब तक उनके शरीर में शक्ति रही, तब तक वे अपने हाथ से बुना हुआ कपड़ा ही पहनते थे। ऐसे सच्चे सर्वोदयी कार्यकर्ता का 9 मार्च, 2006 को देहान्त हो गया।
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13 फरवरी/जन्म-दिवस

महाराजा सूरजमल जाट 

मुगलों के आक्रमण का प्रतिकार करने में उत्तर भारत में जिन राजाओं की प्रमुख भूमिका रही है, उनमें भरतपुर (राजस्थान) के महाराजा सूरजमल जाट का नाम बड़ी श्रद्धा एवं गौरव से लिया जाता है। उनका जन्म 13 फरवरी, 1707 में हुआ था। ये राजा बदनसिंह ‘महेन्द्र’ के दत्तक पुत्र थे। उन्हें पिता की ओर से वैर की जागीर मिली थी। वे शरीर से अत्यधिक सुडौल, कुशल प्रशासक, दूरदर्शी व कूटनीतिज्ञ थे। उन्होंने 1733 में खेमकरण सोगरिया की फतहगढ़ी पर हमला कर विजय प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने 1743 में उसी स्थान पर भरतपुर नगर की नींव रखी तथा 1753 में वहां आकर रहने लगे।

महाराजा सूरजमल की जयपुर के महाराजा जयसिंह से अच्छी मित्रता थी। जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके बेटों ईश्वरी सिंह और माधोसिंह में गद्दी के लिए झगड़ा हुआ। सूरजमल बड़े पुत्र ईश्वरी सिंह के, जबकि उदयपुर के महाराणा जगतसिंह छोटे पुत्र माधोसिंह के पक्ष में थे। 

मार्च 1747 में हुए संघर्ष में ईश्वरी सिंह की जीत हुई। आगे चलकर मराठे, सिसौदिया, राठौड़ आदि सात प्रमुख राजा माधोसिंह के पक्ष में हो गये। ऐसे में महाराजा सूरजमल ने 1748 में 10,000 सैनिकों सहित ईश्वरी सिंह का साथ दिया और उसे फिर विजय मिली। इससे महाराजा सूरजमल का डंका सारे भारत में बजने लगा।

मई 1753 में महाराजा सूरजमल ने दिल्ली और फिरोजशाह कोटला पर अधिकार कर लिया। दिल्ली के नवाब गाजीउद्दीन ने फिर मराठों को भड़का दिया। अतः मराठों ने कई माह तक भरतपुर में उनके कुम्हेर किले को घेरे रखा। यद्यपि वे पूरी तरह उस पर कब्जा नहीं कर पाये और इस युद्ध में मल्हारराव का बेटा खांडेराव होल्कर मारा गया। आगे चलकर महारानी किशोरी ने सिंधियाओं की सहायता से मराठों और महाराजा सूरजमल में संधि करा दी।

उन दिनों महाराजा सूरजमल और जाट शक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर थी। कई बार तो मुगलों ने भी सूरजमल की सहायता ली। मराठा सेनाओं के अनेक अभियानों में उन्होंने ने बढ़-चढ़कर भाग लिया; पर किसी कारण से सूरजमल और सदाशिव भाऊ में मतभेद हो गये। इससे नाराज होकर वे वापस भरतपुर चले गये। 

14 जनवरी, 1761 में हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठा शक्तियांे का संघर्ष अहमदशाह अब्दाली से हुआ। इसमें एक लाख में से आधे मराठा सैनिक मारे गये। मराठा सेना के पास न तो पूरा राशन था और न ही इस क्षेत्र की उन्हें विशेष जानकारी थी। यदि सदाशिव भाऊ के महाराजा सूरजमल से मतभेद न होते, तो इस युद्ध का परिणाम भारत और हिन्दुओं के लिए शुभ होता।

इसके बाद भी महाराजा सूरजमल ने अपनी मित्रता निभाई। उन्होंने शेष बचे घायल सैनिकों के अन्न, वस्त्र और चिकित्सा का प्रबंध किया। महारानी किशोरी ने जनता से अपील कर अन्न आदि एकत्र किया। ठीक होने पर वापस जाते हुए हर सैनिक को रास्ते के लिए भी कुछ धन, अनाज तथा वस्त्र दिये। अनेक सैनिक अपने परिवार साथ लाए थे। उनकी मृत्यु के बाद सूरजमल ने उनकी विधवाओं को अपने राज्य में ही बसा लिया। उन दिनों उनके क्षेत्र में भरतपुर के अतिरिक्त आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, मेवात, रेवाड़ी, गुड़गांव और मथुरा सम्मिलित थे। 

मराठों की पराजय के बाद भी महाराजा सूरजमल ने गाजियाबाद, रोहतक और झज्जर को जीता। वीर की सेज समरभूमि ही है। 25 दिसम्बर, 1763 को नवाब नजीबुद्दौला के साथ हुए युद्ध में गाजियाबाद और दिल्ली के मध्य हिंडन नदी के तट पर महाराजा सूरजमल ने वीरगति पायी। उनके युद्धों एवं वीरता का वर्णन सूदन कवि ने ‘सुजान चरित्र’ नामक रचना में किया है। 

(संदर्भ : विकीपीडिया)
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13 फरवरी/जन्म-दिवस

परमंहस बाबा राममंगलदास

बाबा राममंगलदास उच्च कोटि के एक सिद्ध महात्मा थे। उनके मन में श्रीराम और श्री अयोध्या जी के प्रति अत्यधिक अनुराग था। उनका जन्म 13 फरवरी, 1893 को ग्राम ईसरबारा, जिला सीतापुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। पुत्र तथा पत्नी के अल्प समय में ही वियोग के कारण इनका मन संसार से विरक्त हो गया। अतः ये घर छोड़कर अयोध्या आ गये।

उन दिनों अयोध्या में एक सिद्ध सन्त बेनीमाधव जी रहते थे। राममंगलदास जी उनसे दीक्षा लेकर उनके बताये मार्ग से साधना करने लगे। कड़ी धूप में या भूसे के ढेर में गले तक बैठकर ये जप करते थे। कहते हैं कि हनुमान् जी ने इन्हें दर्शन दिये थे। इनके गुरुजी ने इनसे कहा कि अयोध्या प्रभु श्रीराम जी का घर है, अतः तुम यहाँ किसी से एक इ॰च भूमि दान में मत लेना। मृत्यु के समय तुम्हारे पास एक पैसा भी नहीं निकलना चाहिए। बाबा राममंगलदास जी ने उनकी आज्ञा का अक्षरशः पालन किया।

बाबा जी ने शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। उन्हें खेचरी विद्या सिद्ध थी। वे निर्धन-धनवान, स्त्री-पुरुष तथा सब धर्म वालों को एक दृष्टि से देखते थे तथा निर्धनों को सदा अन्न-वस्त्र वितरण करते रहते थे। आयुर्वेदिक दवा एवं जड़ी-बूटियों से उन्होंने कई असाध्य रोगियों को ठीक किया। दवा के साथ वे उन्हें श्रीराम नाम का जप करने को कहते थे। उनकी मान्यता थी कि लाभ तो जप से होता है, दवा उसमें कुछ सहायता अवश्य करती है।

एक बार एक महाशय आये और बोले, मैं किसी विद्वान से प्रभु चर्चा करना चाहता हूँ। बाबा जी ने कहा कि अयोध्या में सब विद्वान हैं, आप चाहे जिससे चर्चा कर लें। इसी समय उनका एक सेवक वहाँ आ गया। बाबा जी ने उन सज्जन से कहा कि फिलहाल आप इसी से चर्चा करें। इतना कहकर उन्होंने सेवक के सिर पर हाथ रखा। इसके बाद तो उस सेवक ने उन महाशय की सब शंकाओं का शास्त्रीय समाधान कर दिया। उन विद्वान सज्जन का अहंकार गल गया और वे बाबा जी के चरणों में गिर पड़े।

बाबा जी को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं, पर वे उनका प्रदर्शन नहीं करते थे। उन्होंने निद्रा को जीत लिया था। वे कई वर्ष बिना सोये रहे। उन्हें अदृश्य होने की विद्या भी प्राप्त थी। प्रायः वे कहते थे कि माता-पिता की सेवा ईश्वर-सेवा से भी अधिक फलदायी है। असहाय, दीन-हीन और बीमार प्राणी की निःस्वार्थ सेवा से भगवान की प्राप्ति हो सकती है। 

बाबा जी के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से सन्त, महात्मा तथा गृहस्थ जन आते थे। वे सबको राम-नाम जपने का उपदेश देते थे। उनका जीवन बहुत सादा था। वे सदा बिना बिछौने की चौकी पर बैठते और सोते थे। अपने शरीर की उन्होंने कभी चिन्ता नहीं की। प्रभु को भोग लगाकर वे सूखी रोटी और दाल प्रसाद रूप में ग्रहण करते थे। कितना भी कष्ट हो; पर वे सदा प्रसन्न ही रहते थे। यह उनका स्वभाव बन गया था।

वे कहते थे कि साधु का आचरण मर्यादित और त्यागमय होना चाहिए। वे आचरण की पवित्रता को सबसे बड़ी साधना मानते थे। 31 दिसम्बर, 1984 को परमहंस बाबा राममंगलदास जी ने श्री अयोध्या धाम में ही अपनी लीला समेट ली। बाबा द्वारा रचित ‘भक्त-भगवन्त चरितावली एवं चरितामृत’ नामक ग्रन्थ की गणना अध्यात्म क्षेत्र के महान् ग्रन्थ के रूप में की जाती है।
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13 फरवरी/पुण्य-तिथि

अल्पाहारी व अल्पभाषी वसंतराव केलकर

वसंतराव केलकर कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के निवासी थे। यों तो उनका पूरा नाम दिगम्बर गोपाल केलकर था; पर यह नाम केवल विद्यालय के प्रमाण पत्रों तक ही सीमित रहा। उनके पिताजी कोल्हापुर में पुरोहित थे। उनके साथ वसंतराव भी कभी-कभी जाते थे। संघ से संपर्क होने के बाद ऐसे पोथीवाचन और भोजन से मिलने वाली दक्षिणा राशि को वे गुरुदक्षिणा में अर्पण कर देते थे। 

कोल्हापुर से बी.ए. कर दो-तीन वर्ष तक उन्होंने अपने एक मित्र के टूरिंग टाकीज में काम किया। फिर उन्होंने पुणे से बी.कॉम. की परीक्षा दी और 1955 में प्रचारक बन गये। छात्र जीवन में भी खेलकूद और मौज-मस्ती के बदले पठन-पाठन, चिंतन और रामायण-महाभारत आदि पौराणिक ग्रंथ पढ़ने में उनकी अधिक रुचि थी। प्रचारक जीवन में भी उनका यह स्वभाव बना रहा। इन धर्मग्रन्थों में से टिप्पणियां तैयार कर उन्होंने कई पुस्तकें भी बनाईं।

दो वर्ष चिपलूण तहसील प्रचारक रहने के बाद वे पांच साल रत्नागिरि जिला और फिर अगले पांच साल कोल्हापुर विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद कई वर्ष वे महाराष्ट्र के सहप्रांत प्रचारक रहे। 1990 से 92 तक उनका स्वास्थ्य खराब रहा। ठीक होने पर 1992 से 97 तक वे गुजरात और महाराष्ट्र के क्षेत्र प्रचारक रहे; पर एक बार फिर उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। पहले उंगलियां और फिर पूरा बायां हाथ ही लकवाग्रस्त हो गया। इसका उनके मन और मस्तिष्क पर भी असर पड़ा और वे एक बार फिर दायित्वमुक्त हो गये।

कम बोलने और कम खाने वाले वसंतराव का जीवन बड़ा नियमित था। वे प्रतिदिन योगाभ्यास व ध्यान करते थे। रेल में यात्रा करते समय अपनी बर्थ पर भी वे कुछ आसन कर लेते थे। पढ़ने में रुचि होने के कारण उन्होंने आयुर्वेद, होम्योपैथी, एक्यूप्रेशर, एक्यूपंक्चर और प्राकृतिक चिकित्सा की कई पुस्तकें पढ़ीं और उनके प्रयोग स्वयं पर किये। 

उनकी वाणी बहुत मधुर थी; पर हस्तलेख खराब होने के कारण वे पत्र-व्यवहार बहुत कम करते थे। कहीं भी बौद्धिक देने से पूर्व वे उसकी अच्छी तैयारी करते थे। उनके बौद्धिक में अंग्रेजी और संस्कृत के उद्धरणों के साथ ही गीत की कुछ पंक्तियां भी शामिल रहती थीं। 

आपातकाल में पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी। भूमिगत रहकर सत्याग्रह का उन्होंने सफल संचालन किया। आपातकाल के बाद वे पूर्ववत संघ के काम में लग गये। शाखा के लिए उनके मन में अतीव श्रद्धा थी। छात्र जीवन में एक प्रतिज्ञा कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि जब इसे आजीवन निभाने की मानसिकता होगी, तब ही प्रतिज्ञा लूंगा, और उन्होंने कुछ समय बाद ही प्रतिज्ञा ली। 

प्रवास संघ कार्य का प्राण है। अतः वे किसी भी परिस्थिति में इसे स्थगित नहीं करते थे। 1974 में महाराष्ट्र के सभी गांव और घरों तक शिवसंदेश पत्रिका पहुंचाने तथा 1983 में पुणे के पास तलजाई में सम्पन्न हुए अति भव्य प्रांतीय शिविर के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया।

स्वास्थ्य लाभ के लिए वे पुणे, दापोली, डोंबिवली, लातूर आदि में रहे; पर ईश्वर की इच्छानुसार 13 फरवरी, 2001 को उनका देहांत हो गया। जिन दिनों वे रत्नागिरि में जिला प्रचारक थे, तब वहां के कार्यकर्ताओं ने उनसे कहा कि प्रचारक जीवन से निवृत्त होकर आप यहीं रहें। वसंतराव की स्वीकृति होने पर उन्होंने दापोली में एक मैडिकल स्टोर खोलकर उसे चलाने की जिम्मेदारी एक कार्यकर्ता को दे दी। यह स्टोर बहुत सफल हुआ। वसंतराव की इच्छानुसार उनके देहांत के बाद उससे प्राप्त 11 लाख रु. का लाभांश प्रांत संघचालक, कार्यवाह और प्रचारक के सुझाव पर डा. हेडगेवार स्मारक निधि में दे दिया गया।

(संदर्भ : राष्ट्रसाधना भाग दो)
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13 फरवरी/जन्म-दिवस

भारत कोकिला सरोजिनी नायडू

1917 से 1947 तक स्वाधीनता समर के हर कार्यक्रम में सक्रिय रहने सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी, 1879 को भाग्यनगर (हैदराबाद, आंध्र प्रदेश) में हुआ था। वे आठ भाई-बहिनों में सबसे बड़ी थीं। उनके पिता श्री अघोरनाथ चट्टोपाध्याय वहां के निजाम कॉलेज में रसायन वैज्ञानिक तथा माता श्रीमती वरदा सुन्दरी बंगला में कविता लिखती थीं। इसका प्रभाव सरोजिनी पर बालपन से ही पड़ा और वह भी कविता लिखने लगी।

उनके पिता चाहते थे कि वह गणित में प्रवीण बने; पर उनका मन कविता में लगता था। बुद्धिमान होने के कारण उन्होंने 12 वर्ष में ही कक्षा 12 की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। मद्रास विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में उन्हें जितने अंक मिले, उतने तब तक किसी ने नहीं पाये थे। 13 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अंग्रेजी में 1,300 पंक्तियों की कविता ‘झील की रानी’ तथा एक नाटक लिखा। उनके पिता ने इन कविताओं को पुस्तक रूप में प्रकाशित कराया। 

1895 में उच्च शिक्षा के लिए वे इंग्लैंड गयीं। वहां भी पढ़ाई और काव्य साधना साथ-साथ चलती रही। 1898 में सेना में कार्यरत चिकित्सक डा. गोविंद राजुलु नायडू से उनका विवाह हुआ। वे अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला, गुजराती एवं तमिल की प्रखर वक्ता थीं। 1902 में कोलकाता में उनका ओजस्वी भाषण सुनकर श्री गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें घर के एकान्त और काव्य जगत की कल्पनाओं से निकलकर सार्वजनिक जीवन में आने का सुझाव दिया।

1914 में इंग्लैंड में उनकी भेंट गांधी जी से हुई। वे उनके विचारों से प्रभावित होकर स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय हो गयीं। एक कुशल सेनापति की भांति उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय सत्याग्रह तथा संगठन दोनों क्षेत्रों में दिया।  उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा संचालित आंदोलन में भी काम किया। भारत में भी उन्होंने कई आंदोलनों का नेतृत्व किया तथा जेल गयीं। गांव हो या नगर, वे हर जगह जाकर जनता को जाग्रत करती थीं।  

उन्हें युवाओं तथा महिलाओं के बीच भाषण देना बहुत अच्छा लगता था। अब तक महिलाएं अपने घर और परिवार तक सीमित रहने के कारण स्वाधीनता आंदोलन से दूर ही रहती थीं; पर सरोजिनी नायडू के सक्रिय होने से वातावरण बदलने लगा। वे अपने मधुर कंठ से सभाओं में देशभक्ति से पूर्ण कविताएं पढ़ती थीं। इस कारण लोग उन्हें ‘भारत कोकिला’ कहने लगे। जलियांवाला बाग कांड के बाद उन्होंने ‘कैसर-ए-हिन्द’ की उपाधि वापस कर दी। 

राजनीति में सक्रियता से उनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर बन गयी। 1925 में कानपुर के कांग्रेस अधिवेशन में उन्हें अध्यक्ष बनाया गया। इस प्रकार वे कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनीं। साबरमती में एक स्वयंसेवक के नाते उन्होंने स्वाधीनता के प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किये थे। अतः गांधी जी उन पर बहुत विश्वास करते थे। 

1931 में लंदन में हुए दूसरे गोलमेज सम्मेलन में वे उन्हें भी प्रतिनिधि के नाते साथ ले गये थे। 1932 में जेल जाते समय आंदोलन को चलाते रहने का दायित्व उन्होंने सरोजिनी नायडू को ही दिया। ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय वे गांधी जी के साथ आगा खां महल में बन्दी रहीं।

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद नेहरू जी के आग्रह पर वे उत्तर प्रदेश की पहली राज्यपाल बनीं। इसी पद पर रहते हुए दो मार्च, 1949 को उनका देहांत हुआ। उन्होंने नारियों को जीवन के हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए प्रेरित किया। इस नाते उनका योगदान भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है। 

(संदर्भ : विकीपीडिया एवं अंतरजाल पर उपलब्ध सामग्री)
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13 फरवरी    बलिदान-दिवस
    हिन्दुत्व-प्रेमी रिक्शाचालक 
तमिलनाडु राज्य में एक समय हिन्दू धर्म विरोध की लहर बहुत प्रबल थी। वहां राजनीति ने समाज में भरपूर जातीय विभाजन पैदा किया है। अतः बड़ी संख्या में लोग हिन्दुत्व के प्रसार का अर्थ उत्तर भारत, हिन्दी तथा ब्राह्मणों के प्रभाव का प्रसार समझते थे। वहां अहिन्दू शक्तियां राजनीति में काफी प्रभाव रखती थीं। पैसे की उनके पास कोई कमी नहीं थी। उनका हित भी इसी में था कि हिन्दू शक्तियां प्रभावी न हों।
लेकिन इस सबसे दूर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद और हिन्दू मुन्नानी जैसे संगठन समाज के हर वर्ग को संगठित कर रहे थे। धीरे-धीरे उनका प्रभाव और काम बढ़ रहा था। मीनाक्षीपुरम् में हुए सामूहिक इस्लामीकरण से सभी जाति और वर्ग के हिन्दुओं के मन उद्वेलित हो उठे। वे इस माहौल को बदलना चाहते थे। ऐसे समय में हिन्दू संगठनों ने पूरे राज्य में बड़े स्तर पर हिन्दू सम्मेलन आयोजित किये। इनमें जातिभेद से ऊपर उठकर हजारों हिन्दू एकता और धर्मरक्षा की शपथ लेते थे। इससे हिन्दू विरोधी राजनेताओं के साथ ही इस्लामी और ईसाई शक्तियों के पेट में दर्द होने लगा।
इसी क्रम में 13 फरवरी, 1983 को कन्याकुमारी जिले के नागरकोइल में एक विशाल हिन्दू सम्मेलन रखा गया। इसका व्यापक प्रचार-प्रसार देखकर आठ फरवरी को ‘क्रिश्चियन डैमोक्रेटिक फ्रंट’ के नेता जिलाधिकारी से मिले और इस सम्मेलन पर प्रतिबंध लगाने को कहा; पर जिलाधिकारी नहीं माने। उन्होंने सावधानी के लिए सम्मेलन के नेताओं को बुलाकर नारे, शोभायात्रा तथा अन्य व्यवस्थाओं पर चर्चा की, जिससे वातावरण ठीक रहे। आयोजकों ने उन्हें हर तरह के सहयोग का आश्वासन दिया। 
लेकिन ईसाई नेताओं ने हार नहीं मानी। उन्होंने ऊपर से राज्य शासन का दबाव जिलाधिकारी पर डलवाया। अतः अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के 11 फरवरी की आधी रात में पूरे जिले में धारा 144 लगाकर हिन्दू नेताओं की धरपकड़ शुरू कर दी गयी। 12 फरवरी को हिन्दू मुन्नानी के अध्यक्ष श्री थानुलिंग नाडार सहित 56 नेता पकड़ लिये गये। नागरकोइल में आने वाले हर व्यक्ति की तलाशी होने लगी। सम्मेलन में आ रहे वाहनों को 10 कि.मी. दूर ही रोक दिया गया। फिर भी हजारों लोग प्रतिबंध तोड़कर शहर में आ गये। 
13 फरवरी को 1,500 लोगों ने गिरफ्तारी दी। फिर भी लगातार लोग आ रहे थे। सम्मेलन में 30,000 लोगों के आने की संभावना थी। इतने लोगों को गिरफ्तार करना असंभव था। अतः शासन ने सम्मेलन के नेताओं से आग्रह किया कि वे ही लोगों को वापस जाने को कहें; पर उनकी अपील से पहले ही पुलिस ने लाठी और गोली बरसानी प्रारम्भ कर दी। सैकड़ों लोगों ने सम्मेलन स्थल के पास नागराज मंदिर में शरण ली। पुलिस ने वहां भी घुसकर उन्हें पीटा। कई लोगों के हाथ-पैर टूट गये; पर पुलिस को दया नहीं आयी। 
कुमार नामक एक युवा रिक्शाचालक से यह सब अत्याचार नहीं देखा गया। उसने पुलिस को खुली चुनौती दी कि या तो उसे गिरफ्तार कर लें या गोली मार दें। पुलिस के सिर पर खून सवार था। उसने उस निर्धन रिक्शाचालक को बहुत पास से ही गोली मार दी। वह ‘ओम काली जय काली’ का उद्घोष करता हुआ वहीं गिर गया और प्राण त्याग दिये। 
शीघ्र ही यह समाचार पूरे राज्य में फैल गया। लोग राज्य सरकार पर थू-थू करने लगे। इस घटना से हिन्दुओं में नयी चेतना जाग्रत हुई। उन्होंने निश्चय किया कि अब वे अपमान नहीं सहेंगे और अपने अधिकारों का दमन नहीं होने देंगे। अतः इसके बाद होने वाले सभी हिन्दू सम्मेलन और अधिक उत्साह से सम्पन्न हुए। इस प्रकार नागरकोइल के उस निर्धन रिक्शाचालक का बलिदान तमिलनाडु के हिन्दू जागरण के इतिहास में निर्णायक सिद्ध हुआ।
(संदर्भ: कृ.रू.सं.दर्शन, भाग छह)
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14 फरवरी/जन्म-दिवस

स्वतंत्रता के साधक बाबा गंगादास

1857 के भारत के स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाने वाले बाबा गंगादास का जन्म 14 फरवरी, 1823 (वसंत पंचमी) को गंगा के तट पर बसे प्राचीन तीर्थ गढ़मुक्तेश्वर (उ.प्र.) के पास रसूलपुर ग्राम में हुआ था। इनके पिता चौधरी सुखीराम तथा माता श्रीमती दाखादेई थीं। बड़े जमींदार होने के कारण उनका परिवार बहुत प्रतिष्ठित था। जन्म के कुछ दिन बाद पूरे विधि-विधान और हर्षोल्लास के साथ उनका नाम गंगाबख्श रखा गया।

चौधरी सुखीराम के परिवार में धार्मिक वातावरण था। इसका प्रभाव बालक गंगाबख्श पर भी पड़ा। जिस समय सब बालक खेलते या पढ़ते थे, उस समय गंगाबख्श भगवान के ध्यान में लीन रहते थे। जब वे आंखें बंदकर प्रभुनाम का कीर्तन करते, तो सब परिजन भाव-विभोर हो उठते थे। जब गंगाबख्श की अवस्था दस वर्ष की थी, तब उनके माता-पिता का देहांत हो गया। अब तो वे अपना अधिकांश समय साधना में लगाने लगे। परिजनों के आग्रह पर वे कभी-कभी खेत में जाने लगे; पर 11 वर्ष की अवस्था में वे एक दिन अपने हल और बैल खेत में ही छोड़कर गायब हो गये।

उन दिनों उनका सम्पर्क उदासीन सम्प्रदाय के संत विष्णु दास से हो गया था। उनके आदेश से गंगाबख्श ने अपना पूरा जीवन काव्य साधना तथा श्रीमद् भगवद्गीता के प्रचार-प्रसार में लगाने का निश्चय कर लिया। संत विष्णु दास ने उनकी निश्छल भक्ति भावना तथा प्रतिभा को देखकर उन्हें दीक्षा दी। इस प्रकार उनका नाम गंगाबख्श से गंगादास हो गया।

संत विष्णु दास के आदेश पर वे काशी आ गये। यहां लगभग 20 वर्ष उन्होंने संस्कृत के अध्ययन और साधना में व्यतीत किये। उन दिनों देश में सब ओर स्वाधीनता संग्राम की आग धधक रही थी। बाबा गंगादास इससे प्रभावित होकर ग्वालियर चले गये और वहां एक कुटिया बना ली। वहां गुप्त रूप से अनेक क्रांतिकारी उनसे मिलने तथा परामर्श के लिए आने लगे।

ऐतिहासिक नाटकों के लेखक श्री वृन्दावन लाल वर्मा ने ने अपने नाटक ‘झांसी की रानी’ में लिखा है कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सखी मुन्दर के साथ गुप्त रूप से बाबा की कुटिया में आती थीं। आगे चलकर जब रानी लक्ष्मीबाई का युद्ध में प्राणांत हुआ, तो विदेशी व विधर्मियों के स्पर्श से बचाने के लिए उनके शरीर को बाबा गंगादास अपनी कुटिया में ले आये। इसके बाद उन्होंने अपनी कुटिया को आग लगाकर रानी का दाह संस्कार कर दिया। 

इसके बाद बाबा फिर से अपने क्षेत्र में मां गंगा के सान्निध्य में आ गये। वे जीवन भर निकटवर्ती गांवों में घूमकर ज्ञान, भक्ति और राष्ट्रप्रेम की अलख जलाते रहे। उन्होंने छोटी-बड़ी 50 से भी अधिक पुस्तकें लिखीं। उन्होंने अपने काव्य में खड़ी बोली का प्रयोग किया है। उन्होंने संत कबीर की तरह समाज में व्याप्त कुरीतियों और अंधविश्वासों पर भरपूर चोट की।  

लगभग 20 वर्ष तक वे गढ़मुक्तेश्वर में राजा नृग के प्राचीन ऐतिहासिक कुएं के पास कुटिया बनाकर निवास करते रहे। यहां सन्त प्यारेलाल, माधोराम, फकीर इनायत अली आदि उनके सत्संग के लिए आते रहते थे। 1913 की जन्माष्टमी के पावन दिन ब्रह्ममुहूर्त में में गंगातट पर ही उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। 

(संदर्भ : शिवकुमार गोयल, पिलखुवा)
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14 फरवरी/प्रेरक-प्रसंग

तवांग के हीरो मेजर खातिंग का सम्मान

देश की रक्षा करने वाले अनेक गुमनाम हीरो हैं। फरवरी 1912 में मणिपुर के उखरुल में जन्मे मेजर रालेंगनाओ बाॅब खातिंग नगा समुदाय के ऐसे ही एक वीर थे, जिन्हें तवांग को भारत में मिलाने का श्रेय है। शिलांग से हाई स्कूल और गुवाहाटी से स्नातक होकर उन्होंने असम के दर्राम स्थित बारासिंघा में स्कूल खोल लिया। मणिपुर से स्नातक होने वाले वे पहले छात्र थे।
उनका काम देखकर एक ब्रिटिश अधिकारी ने उन्हें उखरुल के हाई स्कूल में प्राचार्य बना दिया। द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने पर वे 1939 में फौज में भरती हो गये। किंग्स कमीशन पाने वाले वे पहले मणिपुरी थे। आजादी के बाद मणिपुर के राजा के आग्रह पर प्रशासन में शामिल होकर उन्होंने पहाड़ी क्षेत्र का प्रभार संभाला। 1950 में वे ‘असम राइफल्स’ में एक बटालियन के प्रमुख बने। 
मणिपुर के राजा ने बर्मा के हमले को ध्यान में रखते हुए भारत में विलय कर लिया; पर तवांग में कुछ बाधाएं बाकी थीं। एक ओर बर्मा वहां कब्जा करना चाहता था, तो दूसरी ओर तिब्बत के मार्ग से चीन की उस पर कुदृष्टि थी। असम के राज्यपाल जयरामदास दौलतराम तथा गृहमंत्री सरदार पटेल की इस खतरे पर निगाह थी। उन्होंने मेजर खातिंग को तत्कालीन नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी (नेफा) के राजनीतिक अधिकारी के नाते तवांग भेजा। उन दिनों तिब्बत प्रशासन वहां टैक्स वसूल करता था। मेजर खातिंग ने उन्हें वहां से हटा दिया। इससे स्थानीय लोग खुश हुए, चूंकि वे चीन में मिलना नहीं चाहते थे। 
अब मेजर खातिंग ने असम राइफल्स के 200 जवानों के साथ 17 जनवरी, 1951 को बिना रक्तपात उसे भारत में मिला लिया। इससे नेहरू जी भड़क गये। उन्होंने अपने विदेश सचिव को लिखा, ‘‘मैं लगातार रक्षा समिति द्वारा उत्तर पूर्व की सीमाओं पर हो रही गतिविधियों के बारे में सुन रहा हूं। इससे तिब्बत और नेपाल की सीमा पर हलचल है। ये मामले कभी मेरे सामने नहीं लाये गये। असम के राज्यपाल और अन्य लोग निर्णय ले रहे हैं। हमारे तवांग में जाकर वहां का नियंत्रण लेने से अंतरराष्ट्रीय समस्याएं आ सकती हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि बिना मेरी जानकारी के ये सब कैसे हो रहा है ?’’
असल में सरदार पटेल और असम के राज्यपाल जयरामदास दौलतराम ने जानबूझ कर नेहरू को अंधेरे में रखा था। वे जानते थे कि नेहरू को पता लगने पर मामला अधर में लटक जाएगा, जिससे भविष्य में बहुत समस्याएं आएंगी।  वे पूर्वोत्तर सीमा पर एक नया कश्मीर बनाना नहीं चाहते थे। मेजर खातिंग इन दोनों की सहमति से ही काम कर रहे थे। उन्होंने बर्मा से लगी 800 कि.मी. लंबी सीमा को भी समस्या नहीं बनने दिया।
मेजर खातिंग बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने जनरल थिमैया के नेतृत्व में प्रशिक्षण लिया था। आगे चलकर वे इंडियन फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (आई.ए.एफ.एस) के पहले अधिकारी, नगालैंड के मुख्य सचिव और विदेश में वनवासी समुदाय के पहले भारतीय राजदूत भी बने। ब्रिटिश शासन ने उन्हें ‘मेंबर आॅफ ब्रिटिश एंपायर’ तथा भारत सरकार ने ‘पद्म श्री’ सम्मान दिया।
लेकिन तवांग के भारत में विलय जैसे महत्वपूर्ण काम के लिए उन्हें आजीवन उचित सम्मान नहीं मिला। इस कमी को मोदी सरकार ने पूरा किया और 14 फरवरी, 2021 को इम्फाल में उनके सम्मान में एक स्मारक का उद्घाटन किया गया। इस समारोह में आकर जनरल बिपिन रावत, अरुणाचल के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा, केन्द्रीय मंत्री किरण रिजिजू तथा अरुणाचल के राज्यपाल ब्रिगेडियर बी.डी.मिश्रा ने भारत माता के उस महान सपूत को नमन किया। 12 जनवरी, 1990 को इम्फाल में मेजर खातिंग का देहांत हुआ। ऐसे वीर पर पूरे देश को गर्व है।
(हिमालय हुंकार, 1.3.2021 तथा विकी)
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15 फरवरी/जन्म-दिवस

कूर्मांचल केसरी बद्रीदत्त पाण्डेय

उत्तरांचल राज्य मुख्यतः दो पर्वतीय क्षेत्रों, गढ़वाल और कुमाऊं से मिल कर बना है। कुमाऊं को प्राचीन समय से कूर्मांचल कहा जाता है। यहां के प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी श्री बद्रीदत्त पांडेय का जन्म 15 फरवरी, 1882 को हरिद्वार के प्रसिद्ध वैद्य श्री विनायक दत्त पांडेय के घर में हुआ था। अल्पावस्था में माता और पिता के देहांत के बाद इनका लालन-पालन बड़े भाई ने किया।

अल्मोड़ा में पढ़ते समय इन्होंने स्वामी विवेकानंद, महामना मदनमोहन मालवीय तथा ऐनी बेसेंट जैसे महान लोगों के भाषण सुने। बड़े भाई की मृत्यु हो जाने से इन्हें शिक्षा अधूरी छोड़कर 1902 में सरगुजा राज्य में नौकरी करनी पड़ी। इसके बाद उन्होंने नैनीताल में अध्यापन तथा चकराता (देहरादून) की सैनिक कार्यशाला में भी काम किया। 1908 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी। 

पत्रकारिता में रुचि होने से प्रयाग के ‘लीडर’ तथा देहरादून के ‘कॉस्मोपोलिटिन’ पत्रों में काम करने के बाद 1913 में उन्होंने ‘अल्मोड़ा अखबार’ निकाला। जनता की कठिनाई तथा शासन के अत्याचारों के बारे में विस्तार से छापने के कारण कुछ ही दिन में यह पत्र लोकप्रिय हो गया। इससे सरकारी अधिकारी बौखला उठे। उन्होंने इनसे जमानत के नाम पर एक बड़ी राशि जमा करने को कहा। बद्रीदत्त जी ने वह राशि नहीं दी और समाचार पत्र बन्द हो गया।

1918 की विजयादशमी से बद्रीदत्त जी ने ‘शक्ति’ नामक एक नया पत्र प्रारम्भ कर दिया। कुमाऊं के स्वाधीनता तथा समाज सुधार आंदोलनों में इस पत्र तथा बद्रीदत्त जी का बहुत बड़ा योगदान है। 1916 में उन्होंने ‘कुमाऊं परिषद’ नामक संस्था बनाई, जिसे गांधी जी का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ। 1920 में इसके काशीपुर अधिवेशन में पहाड़ में प्रचलित कुली और बेगार जैसी कुप्रथाओं को समाप्त करने के प्रस्ताव पारित किये गये। 

‘कुली बेगार प्रथा’ के विरोध में 1921 की मकर संक्रांति पर 40,000 लोग बागेश्वर में एकत्र हुए। बद्रीदत्त जी, हरगोविन्द पंत, मोहन जोशी आदि नेता काफी दिनों से प्रवास कर इसकी तैयारी कर रहे थे। सभा के बीच अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर डाइविल ने सैकड़ों सिपाहियों के साथ वहां आकर सबको तुरन्त चले जाने को कहा; पर बद्रीदत्त जी ने यह आदेश ठुकरा दिया। उनकी प्रेरणा से सब लोगों ने सरयू का जल हाथ में लेकर बाघनाथ भगवान के सम्मुख इस कुप्रथा को न मानने की शपथ ली और इसकी बहियां फाड़कर नदी में फेंक दीं।

इस अहिंसक क्रांति ने बद्रीदत्त जी को जनता की आंखों का तारा बना दिया। लोगों ने उन्हें ‘कूर्मांचल केसरी’ की उपाधि तथा दो स्वर्ण पदक प्रदान किये। 1962 में चीन से युद्ध के समय उन्होंने वे पदक राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दे दिये। स्वाधीनता आंदोलन में वे पांच बार जेल गये। स्वाधीनता से पूर्व तथा बाद में वे उत्तर प्रदेश विधानसभा तथा 1955 में संसद के सदस्य बने।

बद्रीदत्त जी के जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आये। बरेली कारावास के समय इनका पुत्र तारकनाथ जन्माष्टमी के दिन वाराणसी में नहाते समय नदी में डूब गया। वह प्रयाग से से बी.एस-सी कर रहा था। यह सुनकर मुंबई में रह रही इनकी पुत्री जयन्ती ने आत्मदाह कर लिया। इनकी धर्मपत्नी भी बेहोश हो गयीं; पर बद्रीदत्त जी ने संयम नहीं खोया। उन दिनों वे ‘कुमाऊं का इतिहास’ लिख रहे थे। उन्होंने अपने दुख को इस पुस्तक के लेखन में विसर्जित कर दिया। यह शोधार्थियों के लिए आज भी एक महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रन्थ है।

13 जनवरी, 1965 को बद्रीदत्त जी का देहांत हुआ। उनका दाह संस्कार बागेश्वर में सरयू के तट पर किया गया, जहां से उन्होंने देश की स्वाधीनता और कुली बेगार प्रथा के विरोध में अहिंसक क्रांति का शंखनाद किया था।

(संदर्भ : शिशु मंदिर संदेश, देवभूमि उत्तराखंड अंक, जनवरी 2009)

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