1 फरवरी/पुण्य-तिथि
इसके साथ ही प्रचारक के नाते संघ का काम भी चलता रहा। जानसठ, खतौली, बुढ़ाना आदि में तहसील प्रचारक रहने के बाद वे फतेहाबाद, मैनपुरी, फिरोजाबाद और फिर बुलंदशहर में जिला प्रचारक रहे। 1948 के प्रतिबंध के समय वे मुजफ्फरनगर की जेल में रहे। 1975 के आपातकाल में बुलंदशहर में बस द्वारा प्रवास करते हुए वे पुलिस की पकड़ में आ गये और फिर ‘मीसा’ के अन्तर्गत उन्हें जेल में ठूंस दिया गया।
[संदर्भ - राजपथ से रामपथ की ओर, लेखक ब्रजगोपाल राय चंचल]
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व्यवस्था के विशेषज्ञ जयप्रकाश जी
श्री जयप्रकाश जी का जन्म 1924 में मवाना (जिला मेरठ, उ.प्र.) में श्रीमती चंद्राकली की गोद में हुआ था। उनके पिता श्री भगवत प्रसाद रस्तोगी सरकारी सेवा में थे। जयप्रकाश जी से तीन बड़े भाई और भी थे। घर में पुश्तैनी रूप से कपड़े का व्यापार होता था। जयप्रकाश जी भी बचपन से दुकान पर बैठते थे। वहीं से उन्हें हिसाब-किताब को ठीक रखने की प्रवृत्ति प्राप्त हुई, जो आगे चलकर उनके प्रचारक जीवन में भी बनी रही।
जयप्रकाश जी की लौकिक पढ़ाई में कोई विशेष रुचि नहीं थी। इस कारण वे कक्षा पांच के बाद अपने घरेलू काम में लग गये। उन दिनों देश का वातावरण गरम था। 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन विफल हो जाने के कारण युवाओं का विश्वास गांधी जी और कांग्रेस से उठ गया था। उन्हीं दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं का विस्तार हो रहा था। 1943 में उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे मवाना में लगने वाली शाखा में जाने लगे।
धीरे-धीरे वे संघ की विचारधारा से इतने एकरूप हो गये कि उन्हें दुकान, मकान, नौकरी, घर, गृहस्थी आदि सब व्यर्थ लगने लगा। 1945 में उन्होंने घर छोड़ दिया और संघ की योजना से विस्तारक होकर परीक्षितगढ़ आ गये। संघ के वरिष्ठ अधिकारियों ने उनसे संघ कार्य के साथ अपनी पढ़ाई भी पूरी करने को कहा। यद्यपि उनकी इच्छा नहीं थी, फिर भी आदेश का पालन करते हुए जयप्रकाश जी ने कक्षा बारह तक की शिक्षा पूर्ण की।
इसके साथ ही प्रचारक के नाते संघ का काम भी चलता रहा। जानसठ, खतौली, बुढ़ाना आदि में तहसील प्रचारक रहने के बाद वे फतेहाबाद, मैनपुरी, फिरोजाबाद और फिर बुलंदशहर में जिला प्रचारक रहे। 1948 के प्रतिबंध के समय वे मुजफ्फरनगर की जेल में रहे। 1975 के आपातकाल में बुलंदशहर में बस द्वारा प्रवास करते हुए वे पुलिस की पकड़ में आ गये और फिर ‘मीसा’ के अन्तर्गत उन्हें जेल में ठूंस दिया गया।
प्रतिबंध के बाद वे सहारनपुर में जिला प्रचारक बने। उन्हीं दिनों आगरा में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नये प्रान्तीय कार्यालय का निर्माण होना था। व्यवस्था और हिसाब-किताब में जयप्रकाश जी की रुचि थी। अतः उन्हें आगरा कार्यालय का प्रमुख बनाया गया। इस दौरान उन्होंने नवीन कार्यालय ‘माधव भवन’ का निर्माण अपनी देखरेख में कराया। संघ द्वारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सामाजिक कार्यों के लिए बनाये गये न्यासों के प्रबंधन को भी उन्होंने व्यवस्थित किया।
इस समय तक वे मधुमेह और हृदय रोग के शिकार हो गये। फिर भी पूरे प्रान्त में घूम कर वे व्यवस्था सम्बन्धी काम करते थे। शरीर ठीक रहने तक वे संघ शिक्षा वर्ग में प्रायः भोजनालय का काम देखते थे। बाद में वृद्धावस्था के कारण वे वर्ग के कार्यालय में बैठकर हिसाब संभालने लगे।
1989 में मेरठ प्रांत अलग होने पर उन्हें वहां बुला लिया गया। उन्होेंने यहां प्रान्तीय कार्यालय ‘शंकर आश्रम’ का पुनर्निमाण तथा प्राचीन शिव मंदिर का जीर्णाेद्धार कराया। वे केवल हिसाब ही नहीं रखते थे, तो धन संग्रह भी कराते थे। इस प्रकार वे व्यवस्था के हर पहलू के विशेषज्ञ थे।
एक फरवरी, 1999 को वे आगरा से मेरठ आने वाले थे। आगरा का एक कार्यकर्ता उन्हंे छोड़ने के लिए रेलवे स्टेशन पर आया था। अचानक वहीं उन्हें तीव्र हृदयाघात हुआ। जब तक कोई सहायता मिलती, तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ गये। इस प्रकार संघ कार्य में अंतिम समय तक सक्रिय रहते हुए उन्होंने अपनी जीवनयात्रा पूर्ण की।
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2 फरवरी/जन्म-तिथि
हिन्दुस्थान समाचार के संस्थापक दादासाहब आप्टे
स्वतन्त्र भारत में जिन महापुरुषों ने हिन्दी और भारतीय भाषाओं के उत्थान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी, उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री शिवराम शंकर (दादासाहब) आप्टे का नाम उल्लेखनीय है।
दो फरवरी, 1905 को बड़ोदरा में जन्मे दादासाहब ने वेदान्त और धर्म में विशेष योग्यता (ऑनर्स) के साथ स्नातक होकर कानून की शिक्षा ली और मुम्बई उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। वे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, फाली नरीमन तथा मुहम्मद अली जिन्ना जैसे वरिष्ठ वकीलों के सहायक रहे।
कुछ समय वे एक अंग्रेजी पत्रिका में सम्पादक भी रहे। दो-ढाई साल वे वीर सावरकर जी के घर पर रहे। उन दिनों अंग्रेजी अखबार भारतीय पक्ष के समाचार प्रायः नहीं छापते थे। सावरकर जी ने उनसे भारतीय मन को समझने वाली समाचार संस्था बनाने को कहा। अतः यह काम सीखने के लिए उन्होंने दो साल तक रात की पारी में यू.पी.आई. नामक समाचार संस्था में काम किया।
दादासाहब बड़े शाही स्वभाव के व्यक्ति थे। सूट, बूट, टाई, हैट तथा सिगार उनके स्थायी साथी थे। न्यायालय के बाद वे शिवाजी पार्क में जाकर बैठते थे। वहाँ संघ की शाखा लगती थी। आबा जी थत्ते, बापूराव लेले, नारायणराव तर्टे आदि उस शाखा पर आते थे। उनके सम्पर्क में आकर दादासाहब 1944 में स्वयंसेवक बने और इसके बाद तो उनका जीवन ही बदल गया।
देश स्वतन्त्र होने के बाद अंग्रेजी समाचार पत्र अब सत्ताधारी कांग्रेस की चमचागिरी करने लगे। ऐसे में दादासाहब ने हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में समाचार संकलन व वितरण करने वाली ‘हिन्दुस्थान समाचार’ नामक संस्था का निर्माण किया। उन दिनों विश्व में केवल अंग्रेजी के दूरमुद्रक (टेलीप्रिंटर) ही प्रचलित थे। दादासाहब ने 1954 में हिन्दी का दूरमुद्रक विकसित किया। इससे हिन्दी पत्रकारिता जगत में क्रान्ति आ गयी।
हिन्दुस्थान समाचार के संस्थापक के रूप में दुनिया के अनेक देशों ने उन्हें आमन्त्रित किया। विश्व में भ्रमण के दौरान उन्होंने वहाँ के हिन्दुओं की दशा का अध्ययन किया। इसी आधार पर जब 1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई, तो उन्हें उसका महासचिव बनाया गया। देश-विदेश में प्रवास कर इसके विस्तार के लिए दादासाहब ने अथक प्रवास किया। इस कारण शीघ्र ही विश्व हिन्दू परिषद का काम विश्व भर में फैल गया।
दादासाहब एक अच्छे लेखक, चित्रकार तथा छायाकार भी थे। उन्होंने मराठी और अंग्रेजी में अनेक पुस्तकें लिखीं। इनमें से ‘शकारि विक्रमादित्य’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। ‘राष्ट्रगुरु रामदास’ नामक चित्रकथा के लिए उन्होंने चित्र भी बनाये। इसी से आगे चलकर महापुरुषों के जीवन चरित्र प्रकाशित करने वाली ‘अमर चित्रकथा’ की नींव पड़ी।
दादासाहब प्रतिदिन डायरी लिखते थे। 1942 से 1979 तक की उनकी डायरियाँ भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं। कानून का जानकार होने के कारण 1948 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तथा फिर विश्व हिन्दू परिषद का संविधान बनाने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभायी।
1974 के बाद कई वर्ष उन्होंने महामंडलेश्वर स्वामी गंगेश्वरानन्द उदासीन के साथ विश्व-भ्रमण कर वेदों की पुनर्प्रतिष्ठा का प्रयास किया। जीवन के अन्तिम वर्षों में उन्होंने स्वयं को सब बाहरी कामों से अलग कर लिया। 10 अक्तूबर, 1985 को पुणे के कौशिक आश्रम में उनका देहावसान हुआ।
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2 फरवरी/जन्म-दिवस
हाकी को समर्पित के.डी.सिंह ‘बाबू’
आजकल तो सब ओर क्रिकेट का ही जोर हैै; पर दो-तीन दशक पूर्व ऐसा नहीं था। तब हाकी, फुटबाल, वालीबाल आदि अधिक खेले जाते थे। हाकी में तो लम्बे समय तक भारत विश्व विजेता रहा।भारतीय हाकी की शैली को विश्व भर में विख्यात करने में कुँवर दिग्विजय सिंह ‘बाबू’ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
‘बाबू’ का जन्म 2 फरवरी, 1922 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी नगर में हुआ था। उनके पिता रायबहादुर ठाकुर रघुनाथ सिंह प्रसिद्ध वकील, साहित्यकार एवं समाजसेवी थे। वे टेनिस और बैडमिण्टन के अच्छे खिलाड़ी थे; पर बाबू को हाकी का शौक था। उन्होंने खेल जीवन का प्रारम्भ जिले के प्रसिद्ध महादेवा मेले से किया।
वे प्रायः हाफ लाइन पर खेलते थे; पर उनके प्रशिक्षक चौधरी मुश्फिक साहब ने 1938 में दिल्ली में हुई प्रतियोगिता में उन्हें अगली पंक्ति (फारवर्ड लाइन) में खेलने को कहा। इसमें बाबू ने विपक्षी दल के ओलम्पिक में खेल चुके प्रसिद्ध खिलाड़ी मुहम्मद हुसैन को चकमा देकर अनेक गोल किये। इससे उनकी प्रसिद्धि रातोंरात बढ़ गयी।
बाबू के बड़े भाई भूपेन्द्र सिंह ‘रमेश’, नरेश ‘राजा’ और कुँवर सुखदेव सिंह ‘मोहन’ भी हाकी के अच्छे खिलाड़ी थे, जो राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में खेलते थे। ह१की जगत में ध्यानचन्द और रूपसिंह को लोग जानते हैं। इन दोनों भाइयों ने वैश्विक प्रतियोगिताओं में कई बार भारत का प्रतिनिधित्व किया है। द्वितीय विश्व युद्ध के कारण ओलम्पिक खेल स्थगित हो गये, अन्यथा बाबू और मोहन की जोड़ी भी इसी श्रेणी में थी।
1947 में बाबू श्रीलंका, इंग्लैण्ड, पूर्वी अफ्रीका, केन्या, युगाण्डा, और टांगानिका गये। इस दौरे में मेजर ध्यानचन्द दल के कप्तान थे। दल ने कुल मिलाकर 200 गोल किये, जिसमें से सर्वाधिक 60 गोल बाबू ने ही किये थे। 1948 में वे ओलम्पिक में जाने वाले भारतीय दल के लिए चुने गये। इसके कप्तान किशनलाल तथा बाबू उपकप्तान बनाये गये। दल ने स्वर्ण पदक जीता।
1949 में वे दल के कप्तान बने और अफगानिस्तान गये। 1951 में वे अपने दल के साथ पुनः पूर्वी अफ्रीका आदि देशों के दौरे पर गये। इस बार भारतीय दल के 236 में से 99 गोल बाबू ने किये। 1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक में स्वर्ण पदक जीतने वाले हाकी दल के कप्तान बाबू ही थे। 1953 में अमरीका की ‘हेल्मस फाउण्डेशन’ ने उन्हें एशिया के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी के नाते ‘हेल्मस ट्राफी' प्रदान की।
इसके बाद वे सक्रिय खेल जीवन से हट गये; पर उन्होंने 1960 के ओलम्पिक में जाने वाली टीम को लखनऊ में सघन प्रशिक्षण दिया और उनका चयन भी किया। राष्ट्रपति महोदय ने उनकी खेल सेवाओं को देखते हुए उन्हें ‘पद्मश्री’ से विभूषित किया। उन्हें उत्तर प्रदेश का पहला खेल निदेशक बनाया गया। 1970 में वे हाकी टीम के प्रशिक्षक बनकर हांगकांग भी गये।
1976 में शासन ने बाबू को रेल मन्त्रालय में खेल का अवैतनिक सलाहकार बनाया। उनका जीवन खेल के लिए समर्पित था। उत्तर प्रदेश के हर जिले में स्टेडियम, मण्डल मुख्यालयों पर खेल छात्रावास व विद्यालय उनके ही प्रयास से बने। उनके द्वारा प्रशिक्षित अनेक खिलाड़ियों ने आगे चलकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त की। बाबू खेल में राजनीति, क्षेत्रवाद व पक्षपात के अत्यन्त विरोधी थे। दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है, इसी कारण भारतीय हाकी तथा अन्य खेलों की दुर्दशा है।
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3 फरवरी/पुण्य-तिथि
स्वाधीनता को समर्पित ऋषिकेश लट्टा
देश की स्वाधीनता के लिए यों तो हर राज्य ने संघर्ष किया; पर इनमें पंजाब और बंगाल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। पंजाब के प्रसिद्ध क्रांतिकारी सरदार अजीत सिंह तथा सूफी अम्बाप्रसाद जब देश से बाहर चले गये, तो वहां क्रांतिकारी दल का काम ऋषिकेश लट्टा नामक युवक ने संभाल लिया। छात्रों पर उसका बहुत प्रभाव था। पूरे राज्य में घूमकर वह नये लोगों को दल से जोड़ रहा था। अतः पुलिस पूरी सरगर्मी से उसे तलाश करने लगी।
ऋषिकेश के पिता चौधरी संगतराम होशियारपुर जिले के धोशारा गांव के एक प्रतिष्ठित और सम्पन्न व्यक्ति थे। वे अपने पुत्र को उच्च शिक्षा दिलाना चाहते थे; पर लाहौर के डी.ए.वी विद्यालय में पढ़ते समय ऋषिकेश का संपर्क सरदार अजीत सिंह से हो गया और फिर वह उनके रंग में ही रंग गया।
उसकी गतिविधियां बढ़ने पर पुलिस उसके पीछे लग गयी। ऐसे में उसके दल ने उसे कुछ समय के लिए विदेश चले जाने को कहा। अतः अपने दल का नेतृत्व प्रेमपाल को सौंपकर वह भूमिगत होकर 1906 में ईरान के तेहरान नगर में पहुंच गये। वहां पहुंचकर वह ईरानी युवकों को अंग्रेजों के विरुद्ध भड़काने लगे। इस पर वहां तैनात अंग्रेज रेजिडेण्ट ने उनकी गिरफ्तारी पर 20,000 रु0 का पुरस्कार घोषित कर दिया। अतः ऋषिकेश को एक बार फिर भूमिगत होना पड़ा; पर तब तक उन्होंने ईरानी क्रांतिकारी युवकों का एक दल बनाकर उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध सक्रिय कर दिया।
ईरानी शासन का ऋषिकेश के प्रति बहुत सद्भाव था। अतः शासन ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर उच्च अध्ययन के लिए यूरोप भेज दिया। ऋषिकेश ने इसका लाभ उठाकर रूस, आस्ट्रिया, हंगरी, फ्रांस, जर्मनी, हालैंड, रूमानिया एवं तुर्की का भ्रमण किया। वे जहां भी गये, वहां भारतीय युवकों को संगठित कर क्रांति की लपटें फैलाते गये। चूंकि वे ईरान शासन के खर्च से घूम रहे थे, अतः सभी जगह ईरानी दूतावासों से उन्हें सहायता मिलती थी। इस्ताम्बूल में ईरान के राजदूत की सहायता से वे अमरीका पहुंच गये।
चुप बैठना ऋषिकेश के स्वभाव में नहीं था। अमरीका के केलीफोर्निया नगर में जब भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे लोगों ने युगान्तर आश्रम और गदर पार्टी स्थापित की, तो वह भी उसके संस्थापकों में थे। प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने पर ऋषिकेश तथा उसके मित्र सक्रिय हो उठे। वे इस समय का लाभ उठाकर ब्रिटेन को अंदर तथा बाहर दोनों ओर से चोट पहुंचाना चाहते थे।
अतः ऋषिकेश और उसके मित्रों ने इस दौरान बड़ी मात्रा में अस्त्र-शस्त्र और धन भारत भेजा। इसके साथ ही वे अमरीका में ब्रिटेन के विरुद्ध तथा भारत के पक्ष में वातावरण बनाने लगे। विदेशों में रह रहे कई क्रांतिकारी एवं स्वाधीनता सेनानी इस समय का लाभ उठाने के लिए भारत लौट आये। ऋषिकेश ने भी वैधानिक रूप से भारत आना चाहा; पर शासन ने उसे अनुमति नहीं दी।
पर ऋषिकेश हार मानने वाले व्यक्तियों में नहीं थे। वह जर्मनी के बर्लिन शहर में पहुंचकर वहां काम कर रहे भारतीय क्रांतिकारियों की टोली में शामिल हो गये। बर्लिन में उन्होंने एक जर्मन युवती से विवाह भी कर लिया; पर इस युद्ध में जर्मनी की पराजय से भारत की स्वाधीनता का स्वप्न टूट गया। अतः ऋषिकेश एक बार फिर ईरान के तेहरान नगर में जा पहुंचे।
जीवन भर संघर्षरत रहने वाले इस क्रांतिवीर का तीन फरवरी, 1930 को तेहरान में ही देहांत हुआ। ऋषिकेश लट्टा के जीवन का प्रत्येक क्षण भारत की स्वाधीनता को समर्पित था।
(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश)
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4 फरवरी/इतिहास-स्मृति
गढ़ आया, पर सिंह गया
सिंहगढ़ का नाम आते ही छत्रपति शिवाजी के वीर सेनानी तानाजी मालसुरे की याद आती है। तानाजी ने उस दुर्गम कोण्डाणा दुर्ग को जीता, जो ‘वसंत पंचमी’ पर उनके बलिदान का अर्घ्य पाकर ‘सिंहगढ़’ कहलाया।
शिवाजी को एक बार सन्धिस्वरूप 23 किले मुगलों को देने पड़े थे। इनमें से कोण्डाणा सामरिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण था। एक बार माँ जीजाबाई ने शिवाजी को कहा कि प्रातःकाल सूर्य भगवान को अर्घ्य देते समय कोण्डाणा पर फहराता हरा झण्डा आँखों को बहुत चुभता है। शिवाजी ने सिर झुकाकर कहा - मां, आपकी इच्छा मैं समझ गया। शीघ्र ही आपका आदेश पूरा होगा।
कोण्डाणा को जीतना आसान न था; पर शिवाजी के शब्दकोष में असम्भव शब्द नहीं था। उनके पास एक से एक साहसी योद्धाओं की भरमार थी। वे इस बारे में सोच ही रहे थे कि उनमें से सिरमौर तानाजी मालसुरे दरबार में आये। शिवाजी ने उन्हें देखते ही कहा - तानाजी, आज सुबह ही मैं आपको याद कर रहा था। माता की इच्छा कोण्डाणा को फिर से अपने अधीन करने की है।
तानाजी ने ‘जो आज्ञा’ कहकर सिर झुका लिया। यद्यपि तानाजी उस समय अपने पुत्र रायबा के विवाह का निमन्त्रण महाराज को देने के लिए आये थे; पर उन्होंने मन में कहा - पहले कोण्डाणा विजय, फिर रायबा का विवाह; पहले देश, फिर घर। वे योजना बनाने में जुट गये। 4 फरवरी, 1670 की रात्रि इसके लिए निश्चित की गयी।
कोण्डाणा पर मुगलों की ओर से राजपूत सेनानी उदयभानु 1,500 सैनिकों के साथ तैनात था। तानाजी ने अपने भाई सूर्याजी और 500 वीर सैनिकों को साथ लिया। दुर्ग के मुख्य द्वार पर कड़ा पहरा रहता था। पीछे बहुत घना जंगल और ऊँची पहाड़ी थी। पहाड़ी से गिरने का अर्थ था निश्चित मृत्यु। अतः इस ओर सुरक्षा बहुत कम रहती थी। तानाजी ने इसी मार्ग को चुना।
रात में वे सैनिकों के साथ पहाड़ी के नीचे पहुँच गये। उन्होंने ‘यशवन्त’ नामक गोह को ऊपर फेंका। उसकी सहायता से कुछ सैनिक बुर्ज पर चढ़ गये। उन्होंने अपनी कमर में बँधे रस्से नीचे लटका दिये। इस प्रकार 300 सैनिक ऊपर आ गये। शेष 200 ने मुख्य द्वार पर मोर्चा लगा लिया।
ऊपर पहुँचते ही असावधान अवस्था में खड़े सुरक्षा सैनिकों को यमलोक पहुँचा दिया गया। इस पर शोर मच गया। उदयभानु और उसके साथी भी तलवारें लेकर भिड़ गये। इसी बीच सूर्याजी ने मुख्य द्वार को अन्दर से खोल दिया। इससे शेष सैनिक भी अन्दर आ गये और पूरी ताकत से युद्ध होने लगा।
यद्यपि तानाजी लड़ते-लड़ते बहुत घायल हो गये थे; पर उनकी इच्छा मुगलों के चाकर उदयभानु को अपने हाथों से दण्ड देने की थी। जैसे ही वह दिखायी दिया, तानाजी उस पर कूद पड़े। दोनों में भयानक संग्राम होने लगा। उदयभानु भी कम वीर नहीं था। उसकी तलवार के वार से तानाजी की ढाल कट गयी। इस पर तानाजी हाथ पर कपड़ा लपेट कर लड़ने लगे; पर अन्ततः तानाजी वीरगति को प्राप्त हुए। यह देख मामा शेलार ने अपनी तलवार के भीषण वार से उदयभानु को यमलोक पहुँचा दिया। ताना जी और उदयभानु, दोनों एक साथ धरती माता की गोद में सो गये।
जब शिवाजी को यह समाचार मिला, तो उन्होंने भरे गले से कहा - गढ़ तो आया; पर मेरा सिंह चला गया। तब से इस किले का नाम ‘सिंहगढ़’ हो गया। किले के द्वार पर तानाजी की भव्य मूर्ति तथा समाधि निजी कार्य से देशकार्य को अधिक महत्त्व देने वाले उस वीर की सदा याद दिलाती है।
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4 फरवरी/बलिदान-दिवस
धर्मवीर हकीकतराय
भारत वह वीरभूमि है, जहाँ हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने वालों में छोटे बच्चे भी पीछे नहीं रहे। 1719 में स्यालकोट (वर्त्तमान पाकिस्तान) के निकट एक ग्राम में श्री भागमल खत्री के घर जन्मा हकीकतराय ऐसा ही एक धर्मवीर था।
हकीकतराय के माता-पिता धर्मप्रेमी थे। अतः बालपन से ही उसकी रुचि अपने पवित्र धर्म के प्रति जाग्रत हो गयी। उसने छोटी अवस्था में ही अच्छी संस्कृत सीख ली। उन दिनों भारत में मुस्लिम शासन था। अतः अरबी-फारसी भाषा जानने वालों को महत्त्व मिलता था। इसी से हकीकत के पिता ने 10 वर्ष की अवस्था में फारसी पढ़ने के लिए उसे एक मदरसे में भेज दिया। बुद्धिमान हकीकत वहाँ भी सबसे आगे रहता था। इससे अन्य मुस्लिम छात्र उससे जलने लगे। वे प्रायः उसे नीचा दिखाने का प्रयास करते थे; पर हकीकत सदा अध्ययन में ही लगा रहता था।
एक बार मौलवी को किसी काम से दूसरे गाँव जाना था। उन्होंने बच्चों को पहाड़े याद करने को कहा और स्वयं चले गये। उनके जाते ही सब छात्र खेलने लगे; पर हकीकत एक ओर बैठकर पहाड़े याद करता रहा। यह देखकर मुस्लिम छात्र उसे परेशान करने लगे। इसके बाद भी जब हकीकत विचलित नहीं हुआ, तो एक छात्र ने उसकी पुस्तक छीन ली।
यह देखकर हकीकत बोला - तुम्हें भवानी माँ की कसम है, मेरी पुस्तक लौटा दो। इस पर वह मुस्लिम छात्र बोला - तेरी भवानी माँ की ऐसी की तैसी। हकीकत ने कहा - खबरदार, जो हमारी देवी के प्रति ऐसे शब्द बोले। यदि मैं तुम्हारे पैगम्बर की बेटी फातिमा बी के लिए ऐसा कहूँ, तो तुम्हें कैसा लगेगा ? लेकिन वह तो लड़ने पर उतारू था। अतः हकीकत उसकी छाती पर चढ़ बैठा और मुक्कों से उसके चेहरे का नक्शा बदल दिया। उसका रौद्र रूप देखकर बाकी छात्र डर कर चुपचाप बैठ गये।
थोड़ी देर में मौलवी लौट आये। मुस्लिम छात्रों ने नमक-मिर्च लगाकर सारी घटना उन्हें बतायी। इस पर मौलवी ने हकीकत की पिटाई की और उसे सजा के लिए काजी के पास ले गये। काजी ने इस सारे विवाद को लाहौर के बड़े इमाम के पास भेज दिया। उसने सारी बात सुनकर निर्णय दिया कि हकीकत ने इस्लाम का अपमान किया है। अतः उसे मृत्युदण्ड मिलेगा; पर यदि वह मुसलमान बन जाये, तो उसे क्षमा किया जा सकता है।
बालवीर हकीकत ने सिर ऊँचा कर कहा - मैंने हिन्दू धर्म में जन्म लिया है और हिन्दू धर्म में ही मरूँगा। मौलवियों ने उसे और भी कई तरह के प्रलोभन दिये। हकीकत के माता-पिता और पत्नी भी उसे धर्म बदलने को कहने लगे, जिससे वह उनकी आँखों के सामने तो रहे; पर हकीकत ने स्पष्ट कह दिया कि व्यक्ति का शरीर मरता है, आत्मा नहीं। अतः मृत्यु के भय से मैं अपने पवित्र हिन्दू धर्म का त्याग नहीं करूँगा।
अन्ततः 4 फरवरी, 1734 (वसन्त पंचमी) को उस धर्मप्रेमी बालक का सिर काट दिया गया। जब जल्लाद सिर काटने के लिए बढ़ा, तो हकीकतराय के तेजस्वी मुखमण्डल को देखकर उसके हाथ से तलवार छूट गयी। इस पर हकीकत ने उसे अपना कर्त्तव्य पूरा करने को कहा। कहते हैं कि सिर कटने के बाद धरती पर न गिर कर आकाश मार्ग से सीधा स्वर्ग में चला गया। उसी स्मृति में वसन्त पंचमी को आज भी पतंगें उड़ाई जाती हैं।
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4 फरवरी/जन्म दिवस
राजपथ से रामपथ पर - आचार्य गिरिराज किशोर
विश्व हिन्दू परिषद के मार्गदर्शक आचार्य गिरिराज किशोर का जीवन बहुआयामी था। उनका
जन्म चार फरवरी, 1920 को एटा (उ.प्र.) के
मिसौली गांव में श्री श्यामलाल एवं श्रीमती अयोध्यादेवी के घर में मंझले पुत्र के रूप
में हुआ। हाथरस और अलीगढ़ के बाद उन्होंने आगरा से इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। आगरा
में श्री दीनदयाल उपाध्याय और श्री भव जुगादे के माध्यम से वे स्वयंसेवक बने और फिर
उन्होंने संघ के लिए ही जीवन समर्पित कर दिया।
प्रचारक के नाते आचार्य जी मैनपुरी, आगरा, भरतपुर, धौलपुर आदि में रहे।
1948 में संघ पर प्रतिबंध
लगने पर वे मैनपुरी, आगरा, बरेली तथा बनारस की जेल में 13 महीने तक बंद रहे। वहां से छूटने के बाद संघ कार्य के साथ ही आचार्य जी ने बी.ए.
तथा इतिहास, हिन्दी व राजनीति शास्त्र
में एम.ए. किया। साहित्य रत्न और संस्कृत की प्रथमा परीक्षा भी उन्होंने उत्तीर्ण कर
ली। 1949 से 58 तक वे उन्नाव, आगरा, जालौन तथा उड़ीसा में
प्रचारक रहे।
इसी दौरान उनके छोटे भाई वीरेन्द्र की अचानक मृत्यु हो गयी। ऐसे में परिवार की
आर्थिक दशा संभालने हेतु वे भिण्ड (म.प्र.) के अड़ोखर कॉलेज में सीधे प्राचार्य बना
दिये गये। इस काल में विद्यालय का चहुंमुखी विकास हुआ। एक बार डाकुओं ने छात्रावास
पर धावा बोलकर कुछ छात्रों का अपहरण कर लिया। आचार्य जी ने जान पर खेलकर एक छात्र की
रक्षा की। इससे चारों ओर वे विख्यात हो गये। यहां तक कि डाकू भी उनका सम्मान करने लगे।
आचार्य जी की रुचि सार्वजनिक जीवन में देखकर संघ ने उन्हें अ.भा. विद्यार्थी परिषद
का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और फिर संगठन मंत्री बनाया। नौकरी छोड़कर वे विद्यार्थी परिषद
को सुदृढ़ करने लगे। उनका केन्द्र दिल्ली था। उसी समय दिल्ली वि.वि. में पहली बार विद्यार्थी
परिषद ने अध्यक्ष पद जीता। फिर आचार्य जी को भारतीय जनसंघ का संगठन मंत्री बनाकर राजस्थान
भेजा गया। आपातकाल में वे 15 मास भरतपुर, जोधपुर और जयपुर जेल
में रहे।
1979 में ‘मीनाक्षीपुरम कांड’ ने पूरे देश में हलचल
मचा दी। वहां गांव के सभी 3,000 हिन्दू एक साथ मुसलमान बन गये। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इससे चिंतित होकर
डा. कर्णसिंह को कुछ करने को कहा। उन्होंने संघ से मिलकर ‘विराट हिन्दू समाज’ नामक संस्था बनायी। संघ की ओर से श्री अशोक सिंहल इसमें लगे।
दिल्ली तथा देश के अनेक भागों में विशाल कार्यक्रम हुए। मथुरा के ‘विराट हिन्दू सम्मेलन’ की जिम्मेदारी आचार्य
जी पर थी; पर धीरे-धीरे संघ के
ध्यान में आया कि इंदिरा गांधी इससे अपनी राजनीति साधना चाहती हैं। अतः संघ ने हाथ
खींच लिया। ऐसा होते ही वह संस्था भी ठप्प हो गयी। इसके बाद 1982 में अशोक जी तथा 1983 में आचार्य जी को ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के काम में लगा दिया
गया।
इन दोनों के नेतृत्व में संस्कृति रक्षा योजना, एकात्मता यज्ञ यात्रा, राम जानकी यात्रा, रामशिला पूजन, राम ज्योति अभियान, राममंदिर का शिलान्यास
और फिर बाबरी ढांचे के ध्वंस आदि ने वि.हि.प. को नयी ऊंचाइयां प्रदान कीं। संगठन विस्तार
के लिए आचार्य जी ने इंग्लैंड, हालैंड, बेल्जियम, फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, रूस, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, इटली, मारीशस, मोरक्को, गुयाना, नैरोबी, श्रीलंका, नेपाल, भूटान, सिंगापुर, जापान, थाइलैंड आदि देशों
की यात्रा की।
अपनी बात पर सदा दृढ़ रहने वाले आचार्य जी के मीडिया से बहुत मधुर संबंध रहते थे।
13 जुलाई, 2014 (रविवार) को वृद्धावस्था
के कारण 95 वर्ष की सुदीर्घ आयु
में उनका निधन हुआ। उनकी स्मृति अंत तक बहुत अच्छी थी तथा वे सबसे बात भी करते थे।
उनकी इच्छानुसार उनके नेत्र और फिर ‘दधीचि देहदान समिति’
के माध्यम से पूरी देह दिल्ली के आर्मी मैडिकल कॉलिज को चिकित्सा विज्ञान के छात्रों
के उपयोग हेतु दान कर दी गयी।
[संदर्भ - राजपथ से रामपथ की ओर, लेखक ब्रजगोपाल राय चंचल]
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4 फरवरी/जन्म-दिवस
देश राग का सर्वोत्तम स्वर पंडित भीमसेन जोशी
1985 में दूरदर्शन पर अनेक कलाकारों को मिलाकर बना कार्यक्रम‘देश-राग’ बहुत लोकप्रिय हुआ था। सुरेश माथुर द्वारा लिखित गीत के बोल थे,‘‘मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा।’’ उगते सूर्य की लालिमा, सागर के अनंत विस्तार और झरनों के कलकल निनाद के बीच जो धीर-गंभीर स्वर और चेहरा दूरदर्शन पर प्रकट होता था, वह था पंडित भीमसेन जोशी का। इस गीत की मूल धुन भी उन्होंने ही बनाई थी। राग भैरवी में निबद्ध इस गीत ने शास्त्रीय संगीत एवं भीमसेन जी को पूरे भारत में लोकप्रिय कर दिया।
भीमसेन जी का जन्म कर्नाटक के धारवाड़ जिले में स्थित एक छोटे नगर गडग में चार फरवरी, 1922 को एक अध्यापक श्री गुरुराज जोशी के घर में हुआ था। अपनी माता जी के भजन और दादाजी के कीर्तन सुनकर इनकी रुचि भी गीत और संगीत की ओर हो गयी। एक बार गांव का एक दुकानदार ‘किराना घराने’ के संस्थापक अब्दुल करीम खां के कुछ रिकार्ड लाया। उन्हें सुनकर भीमसेन ने निश्चय कर लिया कि उन्हें ऐसा ही गायक बनना है।
1932 में गडग में अब्दुल करीम खां के शिष्य प्रसिद्ध गायक रामभाऊ कुंदगोलकर (सवाई गंधर्व) के कार्यक्रम से प्रभावित होकर बालक भीमसेन ने घर छोड़ दिया। कई महीने तक खाली जेब, बिना टिकट घूमते हुए उन्होंने जालंधर, लखनऊ, रामपुर, कोलकाता, बीजापुर, ग्वालियर आदि में संगीत सीखा। इसके बाद वे भाग्यवश सवाई गंधर्व के पास ही पहुंच गये। सवाई गंधर्व ने इन्हें शिष्य बनाकर पूरे मनोयोग से गायन सिखाया।
धीरे-धीरे गीत और संगीत भीमसेन जी के जीवन की साधना बन गयी। 1946 में अपने गुरु सवाई गंधर्व के 60वें जन्मदिन पर पुणे में हुए कार्यक्रम से ये प्रसिद्ध हुए। फिर तो देश भर में इन्हें बुलाया जाने लगा। अब लोग इन्हें अब्दुल करीम खां और सवाई गंधर्व से भी बड़ा गायक मानने लगे; पर भीमसेन जी सदा विनम्र बने रहे। किराना घराना भावना प्रधान माना जाता है; पर भीमसेन जी ने उसमें शक्ति का संचार कर नया रूप दे दिया।
बहुभाषी भीमसेन जी मुख्यतः खयाल और भजन गाते थे। अभंग गाते समय वे मराठी, जोगिया राग गाते समय पंजाबी, वचन गाते समय कन्नड़भाषी और मीरा या सूर के पद गाते समय हिन्दीभाषी लगते थे। उन्होंने श्री हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित रविशंकर तथा डा. बाल मुरलीकृष्ण जैसे श्रेष्ठ संगीतकारों के साथ जुगलबंदी की। शुद्ध कल्याण उनका सबसे प्रिय राग था। उन्होंने कई राग मिलाकर कलाश्री और ललित भटियार जैसे कुछ नये राग भी बनाये। उन्होंने कुछ फिल्मों में भी अपने गायन और संगीत विधा का प्रदर्शन किया।
वे पुणे में अपने गुरु की स्मृति में प्रतिवर्ष सवाई गंधर्व महोत्सव करते थे। इसमें विख्यात और नये दोनों ही तरह के कलाकारों को बुलाया जाता था। विश्व पटल पर स्थापित ऐसे कई कलाकार हैं, जो इस समारोह से ही प्रसिद्ध हुए। इसमें पूरे महाराष्ट्र से श्रोता आते हैं। कई बार तो गायक के साथ संगत करने वाले को हल्का पड़ते देख भीमसेन जी स्वयं तानपूरा लेकर बैठ जाते थे।
शास्त्रीय गायन के पर्याय पंडित भीमसेन जी को सैकड़ों पुरस्कार मिले। उन्हें
पद्म श्री, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, पद्म भूषण, तानसेन सम्मान और 2008 ई. में ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया। एक बार प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें राज्यसभा में भेजना चाहा, तो उन्होंने अपने दोनों तानपूरों की ओर संकेत कर कहा कि मेरे लिए ये दोनों ही लोकसभा और राज्यसभा हैं।
देश-राग का यह सर्वोत्तम स्वर 24 जनवरी, 2011 को सदा के लिए मौन हो गया; पर अपने गायन द्वारा वे सदा अमर रहेंगे ।
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5 फरवरी/जन्म-दिन
देशभक्त अच्युत पटवर्धन
भारत को स्वतन्त्र कराने हेतु अनेक जेलयात्राएँ करने वाले अच्युत पटवर्धन का जन्म 5 फरवरी, 1905 को हुआ था। स्नातकोत्तर उपाधि पाने के बाद इन्होंने 1932 तक अर्थशास्त्र पढ़ाया। अर्थशास्त्र के अध्ययन के दौरान इनके ध्यान में आया कि अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था को किस प्रकार योजनाबद्ध रूप से चौपट किया है। इससे वे गांधी जी के विचारों की ओर आकर्षित हुए। उनका मत था कि देश को स्वतन्त्र कराने के लिए कोई भी मार्ग अनुचित नहीं है। अतः वे क्रान्तिकारियों का भी सहयोग करने लगे।
गांधी जी द्वारा प्रारम्भ किये गये अनेक आन्दोलनों में वे जेल गये। 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के समय जब अधिकांश नेता पकड़े गये, तो श्री पटवर्धन भूमिगत हो गये और स्थान-स्थान पर जाकर आन्दोलन को गति देते रहे। सरकार ने इन पर तीन लाख रु0 का पुरस्कार घोषित किया; पर ये तीन साल तक पुलिस-प्रशासन की पकड़ में नहीं आये।
उन्होंने मुख्यतः महाराष्ट्र में सतारा, नन्दुरवार और महाड़ में ‘लोकशक्ति’ के नाम से आन्दोलन चलाया। एक समय तो यह आन्दोलन इतना प्रबल हो उठा था कि सतारा में समानान्तर सरकार ही गठित हो गयी। इसलिए उस समय उन्हें ‘सतारा के शेर’ और ‘सत्याग्रह के सिंह’ जैसी उपाधियाँ दी गयीं।
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद श्री अच्युत पटवर्धन को कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यसमिति का सदस्य बनाया गया; पर कुछ समय बाद ही उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया। अब वे समाजवादी विचारों की ओर आकर्षित हुए और सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने; पर यहाँ भी उनका मन नहीं लगा और 1950 में उन्होंने राजनीति को सदा के लिए अलविदा कह दिया।
उन दिनों श्री जयप्रकाश नारायण भी सर्वोदय के माध्यम से देश परिवर्तन का प्रयास कर रहे थे। श्री पटवर्धन की उनसे अच्छी मित्रता हो गयी। उन्होंने जयप्रकाश जी को एक पत्र लिखा, जिससे उनकी मनोभावना प्रकट होती है - ‘‘अब तो सत्ता की राजनीति ही हमारा ध्येय हो गयी है। हमारा सामाजिक चिन्तन सत्तावादी चिन्तन हो गया है। दल के अन्दर और बाहर यही भावना जाग रही है। उसके कारण व्यक्ति पूजा पनप रही है और सारा सामाजिक जीवन कलुषित हो गया है। सत्ता पाने के लिए लोकजीवन में निर्दयता और निष्ठुरता पनप रही है। भाईचारा और दूसरों के प्रति उदारता समाप्त सी हो रही है। इसे बदलने का कोई तात्कालिक उपाय भी नहीं दिखता।’’
चन्द्रशेखर धर्माधिकारी की एक पुस्तक की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा, ‘‘हम यह अनदेखा नहीं कर सकते कि समाज में जो निहित स्वार्थ और अन्ध श्रद्धाएँ हैं, उनके दबाव में सारी प्रगति ठिठक रही है। लाखों भारतीय अमानवीय परिस्थितियों में जीते-मरते हैं।’’
उन पर जे.कृष्णमूर्ति और ऐनी बेसेण्ट के विचारों का व्यापक प्रभाव था। एक बार जब किसी ने उनसे कहा कि उन्होंने देश के लिए जो कष्ट सहे हैं, उनकी चर्चा क्यों नहीं करते; उन्हें लिखते क्यों नहीं ? तो उन्होंने हँस कर कहा कि अनेक लोग ऐसे हैं, जिन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए मुझसे भी अधिक कष्ट सहे हैं।
जीवन के अन्तिम दिनों में वे महाराष्ट्र में बन्धुता और समता के आधार पर आदर्श ग्राम निर्माण के प्रयास में लगे थे। निर्धन, निर्बल और सरल चित्त वनवासियों को उन्होंने अपना आराध्य बनाया। 1992 में लखनऊ विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में उन्होंने अपने न्यास का सारा काम श्री नानाजी देशमुख को सौंपने की बात उनसे कही; पर इसे कार्यरूप में परिणत होने से पूर्व ही काशी में उनका देहावसान हो गया।
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5 फरवरी/रोचक-प्रसंग
बूढ़ा-बिया का उत्साह
1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनकी छोड़ी गयी कई समस्याएं बनी रहीं। पूर्वोत्तर भारत भी ऐसी ही एक समस्या से जूझ रहा था। अंग्रेजों ने ठंडा मौसम और उपजाऊ खाली धरती देखकर वहां चाय के बाग लगाये। ये बाग मीलों दूर तक फैले होते थे। उनमें काम के लिए वे बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना आदि से हजारों वनवासी पुरुष और स्त्रियों को पकड़कर ले आये। इन्हें बिना छुट्टी बंधुआ मजदूर जैसे काम करना पड़ता था। इन्हें नशीली चाय दी जाती थी, जिससे ये सदा बीमार बने रहें।
अंग्रेजों ने बागों के बीच बसाये इनके गांवों में चर्च तो बनाये, पर मंदिर और स्कूल नहीं। स्कूलों के अभाव में बच्चे पढ़ नहीं पाते थे। मंदिर न होने से जन्म, विवाह या मृत्यु के क्रियाकर्म कहां हों, ये बड़ी समस्या थी। अंग्रेज उन्हें चर्च में बुलाते थे। कुछ लोग बहकावे में आकर वहां जाने लगे और ईसाई बन गये; पर अधिकांश वनवासी धर्म पर दृढ़ थे। धीरे-धीरे पुरुष और स्त्रियां बिना विवाह के ही साथ रहने लगे। सब जानते थे कि ये पति-पत्नी हैं; पर विधिवत विवाह न होने से महिलाएं सिंदूर या मंगलसूत्र का प्रयोग नहीं करती थीं।
कई पीढि़यां ऐसे ही बीतने से और भी कई समस्याएं पैदा हो गयीं। बच्चे अपने पिता का नाम नहीं लिखते थे। लगभग 60 लाख की जनसंख्या वाले इस वर्ग की सरकारों ने भी उपेक्षा ही की। ये लोग मुख्यतः विश्वनाथ चाराली, कोकराझार, उदालगुडी, शोणितपुर, नौगांव, नार्थ लखीमपुर, गोलाघाट, जोरहाट, शिवसागर, डिब्रूगढ़ और तिनसुखिया जिलों में रहते हैं। इनके गांव बंगलादेश की सीमा पर हैं; उधर से गोली भी चलती रहती है। गो तस्करी और घुसपैठ की जानकारी ये ही पुलिस और सेना को देते हैं। मुख्यतः मंुडा, ओरांव, खारिया, सन्थाल आदि जनजातियों के ये वीर सीमा और धर्म के रक्षक हैं।
1947 में अंग्रेज तो चले गये; पर मिशनरी नहीं गये। जब संघ, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, विश्व हिन्दू परिषद, विवेकानंद केन्द्र आदि हिन्दू संस्थाएं वहां पहुंचीं, तो उनका ध्यान इस पर गया। अतः ऐसे बुजुर्गों के सामूहिक विवाह (बूढ़ा-बिया) की योजना बनी। इसमें देश के कई धर्माचार्य और समाजसेवी भी जुड़ गये। पहला कार्यक्रम 2009 में हुआ, जिसमें 12 जोड़ों के विवाह कराये गये। हर जोड़े को वस्त्र, मंगलसूत्र, शृंगार सामग्री, कंबल, चटाई, बर्तन, चंदन का पौधा तथा देव प्रतिमाएं दी गयीं।
पूरे समाज में इसका व्यापक स्वागत हुआ। अतः पांच फरवरी, 2015 को एक विशाल विवाह समारोह का आयोजन हुआ। इसमें 467 जोड़े शामिल हुए। बरसों से साथ रहते हुए वे अघोषित रूप से थे तो पति-पत्नी ही; पर आज अग्नि और समाज के सम्मुख फेरे लेकर विधिवित विवाहित हो गये। अब हर साल ये कार्यक्रम हो रहे हैं। इसके चलते लगभग सात हजार ऐसे विवाह सम्पन्न हो चुके हैं। इससे पूरे समाज में उत्साह का संचार हुआ है। सिंदूर और मंगलसूत्र पहने महिलाओं के चेहरे पर अब विशेष चमक दिखायी देती है।
इन कार्यक्रमों में तीन पीढ़ी के विवाह एक साथ होते हैं। एक ही मंडप में दादा, बेटे और पोते का विवाह होते देखना सचमुच दुर्लभ दृश्य होता है। विवाह की वेदी पर बैठी कई महिलाओं की गोद में दूध पीते बच्चे होते हैं। दादा की शादी में पोते और पोते की शादी में दादा-दादी नाचते हुए आते हैं। असम की परम्परा के अनुसार सात दिन तक चलने वाली हल्दी, टीका, कन्यादान तथा विदाई आदि वैवाहिक रस्में पूरे विधि विधान से की जाती हैं।
इस बूढ़ा-बिया योजना के अन्तर्गत हिन्दू संस्थाएं तथा संत विवाह से पहले और बाद में भी उनके बीच लगातार जा रहे हैं। इससे वहां शराब के बदले बचत को प्रोत्साहन मिल रहा है। सैकड़ों स्कूल और छात्रावास खोले गये हैं। इससे हिन्दुत्व का प्रसार हो रहा है।
(संदर्भ : कृ.रू.सं.दर्शन, भाग छह)
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5 फरवरी/रोचक-प्रसंग
बूढ़ा-बिया का उत्साह
1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनकी छोड़ी गयी कई समस्याएं बनी रहीं। पूर्वोत्तर भारत भी ऐसी ही एक समस्या से जूझ रहा था। अंग्रेजों ने ठंडा मौसम और उपजाऊ खाली धरती देखकर वहां चाय के बाग लगाये। ये बाग मीलों दूर तक फैले होते थे। उनमें काम के लिए वे बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना आदि से हजारों वनवासी पुरुष और स्त्रियों को पकड़कर ले आये। इन्हें बिना छुट्टी बंधुआ मजदूर जैसे काम करना पड़ता था। इन्हें नशीली चाय दी जाती थी, जिससे ये सदा बीमार बने रहें।
अंग्रेजों ने बागों के बीच बसाये इनके गांवों में चर्च तो बनाये, पर मंदिर और स्कूल नहीं। स्कूलों के अभाव में बच्चे पढ़ नहीं पाते थे। मंदिर न होने से जन्म, विवाह या मृत्यु के क्रियाकर्म कहां हों, ये बड़ी समस्या थी। अंग्रेज उन्हें चर्च में बुलाते थे। कुछ लोग बहकावे में आकर वहां जाने लगे और ईसाई बन गये; पर अधिकांश वनवासी धर्म पर दृढ़ थे। धीरे-धीरे पुरुष और स्त्रियां बिना विवाह के ही साथ रहने लगे। सब जानते थे कि ये पति-पत्नी हैं; पर विधिवत विवाह न होने से महिलाएं सिंदूर या मंगलसूत्र का प्रयोग नहीं करती थीं।
कई पीढि़यां ऐसे ही बीतने से और भी कई समस्याएं पैदा हो गयीं। बच्चे अपने पिता का नाम नहीं लिखते थे। लगभग 60 लाख की जनसंख्या वाले इस वर्ग की सरकारों ने भी उपेक्षा ही की। ये लोग मुख्यतः विश्वनाथ चाराली, कोकराझार, उदालगुडी, शोणितपुर, नौगांव, नार्थ लखीमपुर, गोलाघाट, जोरहाट, शिवसागर, डिब्रूगढ़ और तिनसुखिया जिलों में रहते हैं। इनके गांव बंगलादेश की सीमा पर हैं; उधर से गोली भी चलती रहती है। गो तस्करी और घुसपैठ की जानकारी ये ही पुलिस और सेना को देते हैं। मुख्यतः मंुडा, ओरांव, खारिया, सन्थाल आदि जनजातियों के ये वीर सीमा और धर्म के रक्षक हैं।
1947 में अंग्रेज तो चले गये; पर मिशनरी नहीं गये। जब संघ, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती, विश्व हिन्दू परिषद, विवेकानंद केन्द्र आदि हिन्दू संस्थाएं वहां पहुंचीं, तो उनका ध्यान इस पर गया। अतः ऐसे बुजुर्गों के सामूहिक विवाह (बूढ़ा-बिया) की योजना बनी। इसमें देश के कई धर्माचार्य और समाजसेवी भी जुड़ गये। पहला कार्यक्रम 2009 में हुआ, जिसमें 12 जोड़ों के विवाह कराये गये। हर जोड़े को वस्त्र, मंगलसूत्र, शृंगार सामग्री, कंबल, चटाई, बर्तन, चंदन का पौधा तथा देव प्रतिमाएं दी गयीं।
पूरे समाज में इसका व्यापक स्वागत हुआ। अतः पांच फरवरी, 2015 को एक विशाल विवाह समारोह का आयोजन हुआ। इसमें 467 जोड़े शामिल हुए। बरसों से साथ रहते हुए वे अघोषित रूप से थे तो पति-पत्नी ही; पर आज अग्नि और समाज के सम्मुख फेरे लेकर विधिवित विवाहित हो गये। अब हर साल ये कार्यक्रम हो रहे हैं। इसके चलते लगभग सात हजार ऐसे विवाह सम्पन्न हो चुके हैं। इससे पूरे समाज में उत्साह का संचार हुआ है। सिंदूर और मंगलसूत्र पहने महिलाओं के चेहरे पर अब विशेष चमक दिखायी देती है।
इन कार्यक्रमों में तीन पीढ़ी के विवाह एक साथ होते हैं। एक ही मंडप में दादा, बेटे और पोते का विवाह होते देखना सचमुच दुर्लभ दृश्य होता है। विवाह की वेदी पर बैठी कई महिलाओं की गोद में दूध पीते बच्चे होते हैं। दादा की शादी में पोते और पोते की शादी में दादा-दादी नाचते हुए आते हैं। असम की परम्परा के अनुसार सात दिन तक चलने वाली हल्दी, टीका, कन्यादान तथा विदाई आदि वैवाहिक रस्में पूरे विधि विधान से की जाती हैं।
इस बूढ़ा-बिया योजना के अन्तर्गत हिन्दू संस्थाएं तथा संत विवाह से पहले और बाद में भी उनके बीच लगातार जा रहे हैं। इससे वहां शराब के बदले बचत को प्रोत्साहन मिल रहा है। सैकड़ों स्कूल और छात्रावास खोले गये हैं। इससे हिन्दुत्व का प्रसार हो रहा है।
(संदर्भ : कृ.रू.सं.दर्शन, भाग छह)
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6 फरवरी/जन्म-दिवस
धर्म और देशभक्ति के गायक कवि प्रदीप
फिल्म जगत में अनेक गीतकार हुए हैं। कुछ ने दुःख और दर्द को अपने गीतों में उतारा, तो कुछ ने मस्ती और शृंगार को। कुछ ने बच्चों के लिए गीत लिखे, तो कुछ ने बड़ों के लिए; पर कवि प्रदीप के लिखे और गाये अधिकांश गीत देश, धर्म और ईश्वर के प्रति भक्ति की भावना जगाने वाले थे।
प्रदीप के गीत आज भी जब रेडियो या दूरदर्शन पर बजते हैं, तो बच्चे से लेकर बूढ़े तक सब भाव विभोर हो जाते हैं। कवि प्रदीप का असली नाम रामचन्द्र द्विवेदी था। उनका जन्म छह फरवरी, 1915 को बड़नगर (उज्जैन, मध्य प्रदेश) में हुआ था। उनकी रुचि बचपन से ही गीत लेखन और गायन की ओर थी। वे ‘प्रदीप’ उपनाम से कविता लिखते थे।
बड़नगर, रतलाम, इन्दौर, प्रयाग, लखनऊ आदि स्थानों पर उन्होंने शिक्षा पायी। इसके बाद घर वालों की इच्छानुसार वे कहीं अध्यापक बनना चाहते थे। उन्होंने इसके लिए प्रयास भी किया; पर इसी बीच 1939 में वे एक कवि सम्मेलन में भाग लेने मुम्बई गये। इससे उनका जीवन बदल गया।
उस कवि सम्मेलन में ‘बाम्बे टाकीज स्टूडियो’ के मालिक हिमांशु राय भी आये थे। प्रदीप के गीतों से प्रभावित होकर उन्होंने उनसे अपनी आगामी फिल्म ‘कंगन’ के गीत लिखने को कहा। प्रदीप ने उनकी बात मान ली। उन गीतों की लोकप्रियता से प्रदीप की ख्याति सब ओर फैल गयी। इस फिल्म के चार गीतों में से तीन गीत प्रदीप ने स्वयं गाये थे। इससे वे फिल्म जगत के एक स्थापित गीतकार और गायक हो गये।
उन दिनों भारत में स्वतन्त्रता का आन्दोलन तेजी पर था। कवि प्रदीप ने भी अपने गीतों से उसमें आहुति डाली। सरल एवं लयबद्ध होने के कारण उनके गीत बहुत शीघ्र ही आन्दोलनकारियों के मुँह पर चढ़ गये। ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिन्दुस्तान हमारा है’ तथा ‘चल-चल रे नौजवान’ ने अपार लोकप्रियता प्राप्त की। इन गीतों के कारण पुलिस ने उनका गिरफ्तारी का वारंट निकाल दिया। अतः उन्हें कुछ समय के लिए भूमिगत होकर रहना पड़ा।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी उनके गीतों में देशप्रेम की आग कम नहीं हुई। फिल्म जागृति का गीत ‘आओ बच्चो तुम्हें दिखायें झाँकी हिन्दुस्तान की, इस मिट्टी से तिलक करो ये धरती है बलिदान की; वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्’ हर बच्चे को याद हो गया था। ‘जय सन्तोषी माँ’ के गीत भी प्रदीप ने ही लिखे, जो आज भी श्रद्धा से गाये जाते हैं। कुल मिलाकर उन्होंने सौ से भी अधिक फिल्मों में 1,700 से भी अधिक गीत लिखे।
उन्हें सर्वाधिक प्रसिद्धि ‘ऐ मेरे वतन के लोगो, जरा आँख में भर लो पानी; जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी’ से मिली। 1962 में चीन से मिली पराजय से पूरा देश दुखी था। ऐसे में प्रदीप ने सीमाओं की रक्षा के लिए अपना लहू बहाने वाले सैनिकों की याद में यह गीत लिखा। इसे दिल्ली में लालकिले पर प्रधानमन्त्री नेहरु जी की उपस्थिति में लता मंगेशकर ने गाया। गीत सुनकर नेहरु जी की आँखें भर आयीं। तब से यह गीत स्वतन्त्रता दिवस और गणतन्त्र दिवस पर बजाया ही जाता है।
अपने गीतों के लिए उन्हें अनेक सम्मान और पुरस्कार मिले। इनमें फिल्म जगत का सर्वोच्च ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ भी है। अपनी कलम और स्वर से सम्पूर्ण देश में एकता एवं अखंडता की भावनाओं का संचार करने वाले शब्दों के इस चितेरे का 11 दिसम्बर, 1998 को देहान्त हो गया।
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7 फरवरी/जन्म-दिवस
चम्बल के सन्त सुब्बाराव
कोई समय था, जब चम्बल की पहाड़ियांे और घाटियों में डाकुओं का आतंक चरम पर था। ये डाकू स्वयं को बागी कहते थे। हर दिन वहाँ बन्दूकें गरजती रहती थीं। ऐसे में गांधी, विनोबा और जयप्रकाश नारायण से प्रभावित सालिम नंजदुइयाह सुब्बाराव ने स्वयं को इस क्षेत्र में समर्पित कर दिया।
सुब्बाराव का जन्म सात फरवरी, 1929 को बंगलौर में हुआ था। इनके पिता श्री नंजदुइयाह एक वकील थे; पर वे झूठे मुकदमे नहीं लड़ते थे। घर में देशप्रेम एवं अध्यात्म की सुगन्ध व्याप्त थी। इसका प्रभाव बालक सुब्बाराव पर भी पड़ा। 13 वर्ष की अवस्था में जुलूस निकालते हुए ये पकड़े गये; पर छोटे होने के कारण इन्हें छोड़ दिया गया।
इन्हीं दिनों इन्होंने अपने मित्र सुब्रह्मण्यम के घर जाकर सूत कातना और उसी से बने कपड़े पहनना प्रारम्भ कर दिया। कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही उन्हें कांग्रेस सेवा दल के संस्थापक डा0 हर्डीकर का पत्र मिला, जिसमें उनसे दिल्ली में सेवादल का कार्य करने का आग्रह किया गया था।
दिल्ली में सेवा दल का कार्य करते हुए वे कांग्रेस के बड़े नेताओं के सम्पर्क में आये; पर उन्होंने सत्ता की राजनीति से दूर रहकर युवाओं के बीच कार्य करने को प्राथमिकता दी। उन्होंने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेकर ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ को अपने जीवन में स्थान दिया।
वे सदा खादी की खाकी निकर तथा कमीज पहनते हैं। उनके पास निजी सम्पत्ति के नाम पर खादी के दो थैले रहते हैं। एक में कुछ दैनिक उपयोग की वस्तुएँ रहती हैं तथा दूसरे में एक छोटा टाइपराइटर और कागज।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के कुछ समय बाद ही कांग्रेस अपने पथ से भटक गयी और फिर कांग्रेस सेवा दल भी सत्ता की दलदल में फँस गया। इससे सुब्बाराव का मन खिन्न हो गया। उन्हीं दिनों विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण चम्बल के बागियों के बीच घूमकर उन्हें आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित कर रहे थे। सुब्बाराव इस कार्य में उनके साथ लग गये। 14 अपै्रल, 1972 को इनके प्रयास रंग लाये, जब 150 से भी अधिक खूंखार दस्युओं ने गांधी जी के चित्र के सामने अपने शस्त्र रख दिये। इसमें सुब्बाराव की मुख्य भूमिका थी, जो ‘भाई जी’ के नाम से विख्यात हो चुके थे।
सुब्बाराव को युवकों तथा बच्चों के बीच काम करने में आनन्द आता है। वे देश भर में उनके लिए शिविर लगाते हैं। उनका मानना है कि नयी पीढ़ी के सामने यदि आदर्शवादी लोगों की चर्चा हो, तो वे उन जैसे बनने का प्रयास करेंगे; पर दुर्भाग्य से प्रचार माध्यम आज केवल नंगेपन, भ्रष्टाचार और जाति, प्रान्त आदि के भेदों को प्रमुखता देते हैं। इससे उन्हें बहुत कष्ट होता है।
आगे चलकर बागियों के आत्मसमर्पण का अभियान भी राजनीति की भेंट चढ़ गया; पर सुब्बाराव ने इससे निराश न होते हुए 27 सितम्बर, 1970 को चम्बल घाटी के मुरैना जिले में जौरा ग्राम में ‘महात्मा गांधी सेवा आश्रम’ की स्थापना की। आज भी वे उसी को अपना केन्द्र बनाकर सेवाकार्यों में जुटे हैं।
सुब्बाराव ने केवल देश में ही नहीं, तो विदेश में भी युवकों के शिविर लगाये हैं। उन्हें देश-विदेश के सैकड़ों पुरस्कारों तथा सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। इससे प्राप्त राशि वे सेवा कार्य में ही खर्च करते हैं। चरैवेति-चरैवेति के उपासक सुब्बाराव अधिक समय कहीं रुकते भी नहीं है। एक शिविर समाप्त होने पर वे अगले शिविर की तैयारी में लग जाते हैं।
1 फरवरी, जय प्रकाश जी के सम्बन्ध में आपातकाल का वर्ष ठीक (1975) करने की आवश्यकता है
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