क्रान्ति कथाओं के लेखक वचनेश त्रिपाठी
क्रान्तिकारी इतिहास में रुचि रखने वाला शायद ही कोई व्यक्ति हो, जिसने वचनेश त्रिपाठी का नाम न सुना हो। वे जीवित जाग्रत क्रान्तिकारी थे। उनकी वाणी से सतत आग बरसती थी। उनकी लेखनी सचमुच मशाल ही थी। उनके भाषण का विषय साहित्य, धर्म, संस्कृति हो या कुछ और; पर न जाने कहाँ से भगतसिंह, आजाद, बिस्मिल और सुभाष वहाँ आ जाते थे; फिर उसके बाद वे कितनी देर बोलते रहेंगे, कहना कठिन था।
24 जनवरी, 1914 को संडीला (जिला हरदोई, उत्तर प्रदेश) में श्री महावीर प्रसाद त्रिपाठी के घर में जन्मे वचनेश जी का असली नाम पुष्करनाथ था। सामान्य परिवार के होने के कारण उनकी शिक्षा कक्षा बारह से आगे नहीं हो पायी; पर व्यावहारिक ज्ञान के वे अथाह समुद्र थे।
उन्होंने कई जगह काम किया; पर उग्र स्वभाव और खरी बात के धनी होने के कारण कहीं टिके नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी जब संघ के विस्तारक होकर संडीला भेजे गये, तो वे वचनेश जी के घर पर ही रहते थे। लखनऊ से जब मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पांचजन्य और दैनिक स्वदेश का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, तो इन सबका काम अटल जी पर ही था। उन्होंने वचनेश जी की लेखन प्रतिभा को पहचान कर उन्हें लखनऊ बुला लिया।
1960 में वे तरुण भारत के सम्पादक बने। 1967 से 73 तथा 1975 से 84 तक वे राष्ट्रधर्म के तथा 1973 से 75 तक पांचजन्य के सम्पादक रहे। क्रान्तिकारी इतिहास में अत्यधिक रुचि के कारण वे जिस भी पत्र में रहे, उसके कई ‘क्रान्ति विशेषांक’ निकाले, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुए।
वचनेश जी ने अनेक पुस्तकंे लिखीं। कहानी, कविता, संस्मरण, उपन्यास, इतिहास, निबन्ध, वैचारिक लेख..; अर्थात लेखन की सभी विधाओं में उन्होंने प्रचुर कार्य किया। पत्रकारिता एवं साहित्य में उनके इस योगदान के लिए राष्ट्रपति श्री के.आर. नारायणन् ने 2001 ई0 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया।
वचनेश जी का क्रान्तिकारियों से अच्छा सम्पर्क था। जयदेव कपूर, शिव वर्मा, काशीराम, देवनारायण भारती, नलिनीकिशोर गुह, मन्मथनाथ गुप्त, पंडित परमानन्द, रमेश चन्द्र गुप्ता, रामदुलारे त्रिवेदी, भगवानदास माहौर, वैशम्पायन, भगतसिंह के भाई कुलतार और भतीजी वीरेन्द्र सन्धू, शचीन्द्रनाथ बख्शी, रामकृष्ण खत्री, सुरेन्द्र पांडे, यशपाल आदि से उनकी बहुत मित्रता थी।
वचनेश जी ने स्वतन्त्रता संग्राम में क्रान्तिकारियों के योगदान को लिपिबद्ध करा कर उसे राष्ट्रधर्म, पांचजन्य आदि में प्रकाशित किया। देवनारायण भारती ने उन्हें छद्म नाम ‘बदनेश’ दिया, जो आगे चलकर वचनेश हो गया। वचनेश जी जब क्रान्तिकारी इतिहास पर बोलते थे, तो उसे कोई चुनौती नहीं दे सकता था; क्योंकि अधिकांश तथ्य उन्होंने स्वयं जाकर एकत्र किये थे। 1984 में सम्पादन कार्य से अवकाश लेने के बाद भी उनकी लेखनी चलती रही। पांचजन्य, राष्ट्रधर्म आदि में उनके लेख सदा प्रकाशित होते रहे।
92 वर्ष के सक्रिय जीवन के बाद 30 नवम्बर, 2006 को लखनऊ में उनका देहान्त हुआ। कविवर रामकृष्ण श्रीवास्तव की निम्न पंक्तियां वचनेश जी पर बिल्कुल सही उतरती हैं।
जो कलम सरीखे टूट गये पर झुके नहीं
यह दुनिया उनके आगे शीश झुकाती है।
जो कलम किसी कीमत पर बेची नहीं गयी
वह तो मशाल की तरह उठाई जाती है।।
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24 जनवरी/पुण्य-तिथि
वनवासी कल्याण आश्रम के स्तम्भ भीमसेन चोपड़ा
श्री भीमसेन चोपड़ा वनवासी कल्याण आश्रम के प्रारम्भिक स्तम्भों में से एक थे। 1953 से 1964 तक कल्याण आश्रम की बाल्यावस्था में उन्होंने इसके आर्थिक पक्ष को मजबूती से संभाला। उनका जन्म लाहौर के पास सरगोधा में 1928 में हुआ था। उनका परिवार मूलतः डेरा इस्माइल खां (वर्तमान पाकिस्तान) का निवासी था, जहां उनके पिता एक ठेकेदार के साथ काम करते थे।
1943 में भीमसेन जी ने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। 1946 में उनके बड़े भाई का अपनी नौकरी के चलते जबलपुर (म.प्र.) में स्थानांतरण हो गया। उनके साथ पूरा परिवार भी यहां आ गया।जबलपुर में सरकारी नौकरी करते हुए ही भीमसेन जी संघ के स्वयंसेवक बने। तत्कालीन विभाग प्रचारक श्री यादवराव का उनके मन पर विशेष प्रभाव पड़ा। 1948 में संघ पर लगे प्रतिबंध के विरुद्ध भीमसेन जी ने भी सत्याग्रह किया था। जेल से आकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी इस प्रकार 1949 में वे प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम उन्हें सरगुजा भेजा गया। आजकल यह क्षेत्र छत्तीसगढ़ राज्य में है।
वनवासी बहुल सरगुजा रियासत का विलय 1948 में भारत में हो गया था। यहां ईसाई मिशनरियों का काम बहुत सघन था। भीमसेन जी ने अम्बिकापुर को केन्द्र बनाकर काम प्रारम्भ किया। इस दौरान वनवासियों की समस्याएं तथा ईसाई कुचक्र उनके ध्यान में आये। 1951 में तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद जी के अम्बिकापुर आगमन पर भीमसेन जी ‘पांडो’ वनवासियों के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ उनसे मिले और ईसाई षड्यंत्रों की जानकारी दी।
भीमसेन जी संत स्वभाव के व्यक्ति थे। निर्धन वनवासियों के प्रति उनके मन में बहुत प्रेम था। अतः ‘कल्याण आश्रम’ का काम प्रारम्भ होने पर 1953 में उन्हें जशपुर भेज दिया गया। वहां राजा विजयभूषण सिंह देव द्वारा प्रदत्त भवन में वनवासी बच्चों का एक छात्रावास प्रारम्भ किया गया था। भीमसेन जी और मोरूभाऊ केतकर भी वहीं रहने लगे। मोरूभाऊ ने संस्थान को अंदर से संभाला, तो भीमसेन जी ने व्यापक प्रवास कर आवश्यक संसाधन जुटाये।
म.प्र. शासन ने 1954 में ‘नियोगी आयोग’ का गठन किया। भीमसेन जी ने उसके सम्मुख ईसाई षड्यंत्रों के अनेक तथ्य प्रस्तुत किये। 1956 में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का पंजीकरण होने पर श्री बालासाहब देशपांडे अध्यक्ष, श्री मोरूभाऊ केतकर उपाध्यक्ष तथा भीमसेन जी महासचिव बनाये गये।
आगे चलकर राजा साहब ने एक बड़ा भूखंड संस्था को दिया। यहां बने भवन का 1963 में श्री रामनवमी पर सरसंघचालक श्री गुरुजी ने उद्घाटन किया। इसके लिए भीमसेन जी ने अथक परिश्रम किया। इससे पूर्व उस क्षेत्र में पूज्य प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, स्वामी स्वरूपानंद, गहिरा गुरुजी व रामभिक्षुक जी महाराज ने धर्मयात्राएं निकालीं। इससे 15 गांवों में हनुमान मंदिर बने। 108 रामायण मंडली तथा अनेक भजन मंडलियां गठित हुईं। गीता प्रेस, गोरखपुर के श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने भी श्रीरामचरित मानस की 200 बड़ी प्रतियां भेजीं।
अध्यात्म प्रेमी होने के कारण भीमसेन जी का लगाव फिर श्री पोद्दार व श्री राधा बाबा के प्रति अधिक हो गया। 1964 से वे गीता वाटिका, गोरखपुर (उ.प्र.) में ही रहने लगे; पर कल्याण आश्रम से उनका प्रेम बना रहा। प्रायः वे जशपुर आकर श्री बालासाहब देशपांडे से मिलते थे। 1975 में संघ पर प्रतिबंध लगा, तो कल्याण आश्रम भी संकट में आ गया। ऐसे में उन्होंने पोद्दार जी के कोलकाता निवासी दामाद श्री परमेश्वरी प्रसाद फोंगला को श्री कृष्णराव सप्रे के हाथ पत्र भेजा। इससे फोंगला जी ने आश्रम को भरपूर आर्थिक सहयोग दिया।
अध्यात्म साधना और प्रभुभक्ति में लीन श्री भीमसेन जी का 24 जनवरी, 2003 को गोरखपुर में ही निधन हुआ।
(संदर्भ : हिन्दी विवेक, फरवरी 2014)
25 जनवरी/जन्म-दिवस
कवि माइकेल मधुसूदन दत्त
भारतीय काव्य-क्षेत्र के तेजस्वी नक्षत्र माइकेल मधुसूदन दत्त का जन्म 25 जनवरी, 1824 को ग्राम सागरदारी (जिला जैसोर, बंगाल) में हुआ था। आजकल यह क्षेत्र बांग्लादेश में है। इन्हें 19 वीं सदी के रचनात्मक पुनर्जागरण का प्रणेता माना जाता है। इनके पिता श्री राजनारायण दत्त एक प्रसिद्ध वकील तथा माता जाõवी देवी एक प्रतिष्ठित जमींदार घराने से थीं।
बालपन से ही मधुसूदन तीव्र बुद्धि के थे। शिक्षा के प्रारम्भिक दौर में इन्होंने संस्कृत, बंगला एवं फारसी का अध्ययन किया। कविता के प्रति इनके मन में आकर्षण प्रारम्भ से ही था। 1837 में इन्होंने कोलकाता के हिन्दू कॉलिज में प्रवेश लिया, जहां शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था।
कुछ समय में इन्होंने अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। इससे वहां भी इनकी प्रतिभा प्रकट होने लगी। कोलकाता के खुले एवं शिक्षित वातावरण में इनकी काव्य कल्पनाएँ अनन्त आकाश में उड़ने को व्याकुल हो उठीं। अब तक मधुसूदन दत्त के मन में सर्जना के अंकुर फूटने लगे थे। अंग्रेजी के प्रख्यात कवि शेक्सपियर, मिल्टन और बॉयरान के ये प्रशंसक थे। उनसे प्रभावित होकर ये अंग्रेजी में कविता लिखने लगे। विद्यालय में अध्यापकों तथा काव्य गोष्ठियों में प्रबुद्ध जनों की प्रशंसा से इनका उत्साह बढ़ता रहा। 1848 में ये मद्रास गये और वहाँ एक विद्यालय में अध्यापन करने लगे। वहीं इन्होंने अपनी सबसे लम्बी कविता ‘दि कैप्टिव लेडी’ लिखी।
मधुसूदन दत्त काव्य की बनी-बनायी लीक पर चलने के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने भारतीय काव्य में पहली बार मुक्तछन्द का प्रयोग किया। इसके लिए उन्हें आलोचना और प्रशंसा दोनों ही मिलीं। मद्रास में ही इन्होंने गीतिकाव्य, त्रिपदी, चतुष्पदी एवं प॰च चरण कविताओं जैसे अनेक प्रयोग किये। नये-नये प्रयोगों के कारण इन्हें कविता का क्रान्तिकारी कहा जाता है।
इन्होंने परिवर्णी काव्य, सम्बोधि गीत, पत्रकाव्य, मुक्तछन्द, चित्रात्मक काव्य आदि में ऐसी नयी शैली प्रस्तुत की, कि सब ओर इनके काव्य की चर्चा होने लगी। वे अपनी कविता में कल्पनाओं का ऐसा भव्य संसार खड़ा करते थे कि उसे पढ़कर लोग दंग रह जाते थे।
1856 में वे कोलकाता वापस आ गये। यहाँ उन्होंने अनेक प्रसिद्ध अंग्रेजी कविताओं का भारतीय भाषाओं में अनुवाद किया। अंग्रेजों जैसी जीवन शैली अपनाने के लिए इन्होंने ईसाई मत स्वीकार कर लिया था; पर इनकी रचनाओं में भारत और भारतीयता का रंग ही प्रमुख रहा।
कोलकाता में मधुसूदन दत्त ने बंगला भाषा में कविताएँ लिखनी प्रारम्भ कीं। 1860 में लिखित ‘तिलोत्मा सम्भव’ इनकी पहली बंगला कविता थी। 1862 में वे कानून पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड गये; पर इससे पूर्व उन्होंने संस्कृत, बंगला, तमिल, तेलगू आदि भारतीय भाषाओं में प्रचुर काव्य साहित्य रचा।
विदेश प्रवास में उन्होंने कानून के साथ-साथ फ्रेंच, जर्मन, हिब्रू आदि भाषाओं की काव्य कृतियों का भी अध्ययन किया। कविता के साथ-साथ उन्होंने अनेक नाटक एवं काव्य नाटक भी लिखे। इनमें शर्मिष्ठा, पद्मावती, कृष्णा कुमारी, मेघनाद वध, व्रजांगना, वीरांगना, तीरांगना आदि प्रमुख हैं।
उन्होंने आम आदमी द्वारा बोली जाने वाली सरल भाषा का प्रयोग किया। इससे इनका साहित्य जन-जन का साहित्य बन गया।
3 जुलाई, 1873 को दुनिया से विदा लेने से पूर्व वे भारतीय साहित्य के क्षेत्र में ऐसी समृद्ध परम्परा निर्माण कर गये, जो लम्बे समय तक लेखकों का मार्गदर्शन करती रही।
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25 जनवरी/प्रेरणा-दिवस
प्रयागराज में दूसरा
विश्व हिन्दू सम्मेलन
दुनिया भर के हिन्दुओं को
धर्म के प्रति जागरूक एवं संगठित करने के लिए 29 अगस्त, 1964 को मुंबई में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई थी। दो साल बाद 1966 में प्रयागराज महाकुंभ पर पहला विश्व हिन्दू सम्मेलन किया गया, जो अत्यधिक सफल रहा। दूसरा सम्मेलन भी प्रयागराज में ही हुआ, जो 25 जनवरी से शुरू होकर 27 जनवरी को
सम्पन्न हुआ। रेल विभाग ने इसके लिए भारत के विभिन्न भागों से 32 विशेष रेलगाडि़यां चलायीं।
इसमें 18 देशों सहित देश-विदेश के एक लाख प्रतिनिधियों ने भाग लिया। विभिन्न सत्रों
एवं खुले अधिवेशन में तीन लाख लोग शामिल हुए। 51,000 प्रतिनिधियों के
रहने के लिए 120 एकड़ क्षेत्र में तम्बुओं के 19 नगर बने थे। ये नगर राज्यों के अनुसार आवंटित किये गये तथा उनका नाम भी वहीं
के किसी महान विभूति पर रखा गया था। वहां खानपान की व्यवस्था भी उस राज्य के
अनुकूल थी। हर नगर में एक चिकित्सालय भी था। संपूर्ण आयोजन स्थल का नाम ‘वेदव्यास महानगर’ था। देश-विदेश से आये लगभग 250 पत्रकारों के लिए भी संपूर्ण सुविधायुक्त एक अलग नगर था।
सम्मेलन का उद्घाटन बौद्ध
धर्मगुरु दलाई लामा ने किया। इस सत्र में डाक विभाग ने एक विशेष लिफाफा जारी किया
तथा इस दौरान आने जाने वाली डाक पर एक विशेष मोहर लगायी। सर्वप्रथम बद्रिकाश्रम के
जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी शांतानंद जी ने आशीर्वाद दिया। इसके बाद जगद्गुरु
स्वामी विश्वेशतीर्थ (उडुपी), जगद्गुरु प्रथमेश जी, रणछोड़ाचार्य जी महाराज (मुंबई), श्री रामानंदाचार्य शिवरामाचार्य
(काशी), रामानंददेव गोस्वामी (असम) तथा देवरहा बाबा ने अपने
आशीर्वचन दिये। सब लोग ऐसे महान संतों के दर्शन से धन्य हो गयेे।
सम्मेलन के लिए
प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, उपप्रधानमंत्री जगजीवन
राम, नेपाल नरेश वीर वीरेन्द्र विक्रमशाह, माॅरीशस के प्रधानमंत्री शिवसागर रामगुलाम, महंत अवेद्यनाथ
तथा आचार्य तुलसी ने लिखित संदेश भेजे, जो वहां पढ़े
गये। इसके बाद परिषद के पूर्व महासचिव दादासाहब आप्टे तथा वर्तमान महासचिव
डेग्वेकर जी ने अपने वक्तव्य दिये। वहां उपस्थित अपार जनसागर के सम्मुख हिन्दू
धर्म के अन्तर्गत आने वाले सभी पंथ, मत, सम्प्रदाय आदि के बड़े आचार्य, जगद्गुरु, महामंडलेश्वर,
संत, महंत तथा
अधिष्ठाताओं ने हिन्दू धर्म की महानता और संगठन की आवश्यकता पर अपने विचार रखे।
सम्मेलन के छह सत्रों में
कुल 13 प्रस्ताव पारित हुए। इनमें जातिभेद एवं छुआछूत मिटाने, मठ-मंदिर एवं गोवंश की सुरक्षा, हिन्दुओं के अल्पसंख्या
वाले क्षेत्रों में उनकी सुरक्षा, विदेशस्थ हिन्दुओं के
हितों का संरक्षण आदि विषय प्रमुख थे। इसके साथ विश्व संस्कृत सम्मेलन, मातृ सम्मेलन,
संत सम्मेलन, विदेशस्थ हिन्दू
सम्मेलन, भारत में पढ़ रहे विदेशस्थ छात्र सम्मेलन भी हुए। परिषद के
अन्तर्गत ‘ओवरसीज स्टुडेंट काउंसिल’ नामक संस्था का
गठन किया गया। विश्व भर के हिन्दुओं के लिए न्यूनतम धर्माचरण के कुछ सूत्र
प्रस्तुत किये गये। इनमें सूर्य, तुलसी, ओम, गीता, मंदिर आदि के प्रति
श्रद्धा तथा घर में अपने इष्ट का चित्र या प्रतीक लगाकर प्रतिदिन पूजा का आग्रह
किया गया।
समापन सत्र में श्री
गुरुजी को याद करते हुए संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के नेत्र भीग गये। वे 1966 के पहले सम्मेलन में तो थे; पर इस बार नहीं। चूंकि 1973 में उनका स्वर्गवास हो गया। परिषद के अध्यक्ष भगवत सिंह मेवाड़ ने कहा कि
यहां आकर मुझे ईश्वरीय शक्ति का अनुभव हुआ है। इसी से ये विराट सम्मेलन बिना पुलिस
की सहायता के निर्विघ्न सम्पन्न हो गया।
इस प्रकार कर्म की प्रतीक
गंगा, उत्साह की प्रतीक यमुना और बुद्धि-विवेक की प्रतीक सरस्वती
के त्रिवेणी संगम पर हुआ यह सम्मेलन दुनिया भर के हिन्दुओं में नया उत्साह जगाने
में सफल सिद्ध हुआ।
(विहिप की 42 वर्षीय विकास यात्रा/38, रघुनंदन प्रसाद शर्मा)
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26 जनवरी/जन्म-दिवसस्वतन्त्रता सेनानी रानी मां गाइडिन्ल्यू
देश की स्वतन्त्रता के लिए ब्रिटिश जेल में भीषण यातनाएँ भोगने वाली गाइडिन्ल्यू का जन्म 26 जनवरी, 1915 को नागाओं की रांगमेयी जनजाति में हुआ था। केवल 13 वर्ष की अवस्था में ही वह अपने चचेरे भाई जादोनांग से प्रभावित हो गयीं। जादोनांग प्रथम विश्व युद्ध में लड़ चुके थे।
युद्ध के बाद अपने गाँव आकर उन्होंने तीन नागा कबीलों जेमी, ल्यांगमेयी और रांगमेयी में एकता स्थापित करने हेतु ‘हराका’ पन्थ की स्थापना की। आगे चलकर ये तीनों सामूहिक रूप से जेलियांगरांग कहलाये। इसके बाद वे अपने क्षेत्र से अंग्रेजों को भगाने के प्रयास में लग गयेे।
इससे अंग्रेज नाराज हो गये। उन्होंने जादोनांग को 29 अगस्त 1931 को फाँसी दे दी; पर नागाओं ने गाइडिन्ल्यू के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा। अंग्रेजों ने आन्दोलनरत गाँवों पर सामूहिक जुर्माना लगाकर उनकी बन्दूकें रखवा लीं। 17 वर्षीय गाइडिन्ल्यू ने इसका विरोध किया। वे अपनी नागा संस्कृति को सुरक्षित रखना चाहती थीं। हराका का अर्थ भी शुद्ध एवं पवित्र है। उनके साहस एवं नेतृत्वक्षमता को देखकर लोग उन्हें देवी मानने लगे।
अब अंग्रेज गाइडिन्ल्यू के पीछे पड़ गये। उन्होंने उनके प्रभाव क्षेत्र के गाँवों में उनके चित्र वाले पोस्टर दीवारों पर चिपकाये तथा उन्हें पकड़वाने वाले को 500 रु. पुरस्कार देने की घाषिणा की; पर कोई इस लालच में नहीं आया। अब गाइडिन्ल्यू का प्रभाव उत्तरी मणिपुर, खोनोमा तथा कोहिमा तक फैल गया। नागाओं के अन्य कबीले भी उन्हें अपना नेता मानने लगे।
1932 में गाइडिन्ल्यू ने पोलोमी गाँव में एक विशाल काष्ठदुर्ग का निर्माण शुरू किया, जिसमें 40,000 योद्धा रह सकें। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे अन्य जनजातीय नेताओं से भी सम्पर्क बढ़ाया। गाइडिन्ल्यू ने अपना खुफिया तन्त्र भी स्थापित कर लिया। इससे उनकी शक्ति बहुत बढ़ गयी। यह देखकर अंग्रेजों ने डिप्टी कमिश्नर जे.पी.मिल्स को उन्हें पकड़ने की जिम्मेदारी दी। 17 अक्तूबर, 1932 को मिल्स ने अचानक गाइडिन्ल्यू के शिविर पर हमला कर उन्हें पकड़ लिया।
गाइडिन्ल्यू को पहले कोहिमा और फिर इम्फाल लाकर मुकदमा चलाया गया। उन पर राजद्रोह के भीषण आरोप लगाकर 14 साल के लिए जेल के सीखचों के पीछे भेज दिया गया। 1937 में जब पंडित नेहरू असम के प्रवास पर आये, तो उन्होंने गाइडिन्ल्यू को ‘नागाओं की रानी’ कहकर सम्बोधित किया। तब से यही उनकी उपाधि बन गयी। आजादी के बाद उन्होंने राजनीति के बदले धर्म और समाज की सेवा के मार्ग को चुना।
1958 में कुछ नागा संगठनों ने मिशन की शह पर नागालैण्ड को भारत से अलग करने का हिंसक आन्दोलन चलाया। रानी माँ ने उसका प्रबल विरोध किया। इस पर वे उनके प्राणों के प्यासे हो गये। इस कारण रानी माँ को छह साल तक भूमिगत रहना पड़ा। इसके बाद वे भी शान्ति के प्रयास में लगी रहीं।
1972 में भारत सरकार ने उन्हें ताम्रपत्र और फिर ‘पद्म भूषण’ देकर सम्मानित किया। वे अपने क्षेत्र के ईसाइकरण की विरोधी थीं। अतः वे वनवासी कल्याण आश्रम और विश्व हिन्दू परिषद् के अनेक सम्मेलनों में गयीं। आजीवन अविवाहित रहकर नागा जाति, हिन्दू धर्म और देश की सेवा करने वाली रानी माँ गाइडिन्ल्यू ने 17 फरवरी, 1993 को यह शरीर और संसार छोड़ दिया।
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27 जनवरी/जन्म-दिवस
वनों के रक्षक निर्मल मुण्डा
उत्कल भूमि उत्कृष्टता की भूमि है। यहाँ की प्राकृतिक छटा और वन सम्पदा अपूर्व है। अंग्रेजों ने जब इसे लूटना शुरू किया, तो हर जगह वनवासी वीर इसके विरोध में खड़े हुए। ऐसा ही एक वीर थे निर्मल मुण्डा, जिनका जन्म 27 जनवरी, 1894 को ग्राम बारटोली, गंगापुर स्टेट, उड़ीसा में हुआ था।
निर्मल के पिता मोराह मुण्डा ग्राम प्रधान थे। पूरा गाँव उनका आदर करता था। निर्मल की प्रारम्भिक शिक्षा रायबोगा स्कूल में हुई। इसके बाद उन्हें राजगंगापुर के लूथेरियन मिशन स्कूल और फिर राँची के गोसनर स्कूल में भेज दिया गया। कक्षा दस में पढ़ते समय प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। निर्मल सेना में भर्ती होकर फ्रान्स लड़ने चले गये।
युद्ध के बाद कुछ समय उन्होंने वीरमित्रतापुर लाइम स्टोन कम्पनी में नौकरी की। एक बार भूल न होते हुए भी अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें डाँटा, तो वे नौकरी छोड़कर अपने क्षेत्र को शिक्षित बनाने का संकल्प लेकर गाँव में रहने लगे।
अंग्रेजों से पूर्व इस वनवासी क्षेत्र पर स्थानीय राजाओं और जमीदारों का अधिकार था। यद्यपि वे भी जंगल से कमाई करते थे; पर वे पर्यावरण सन्तुलन बनाकर रखते थे। अंग्रेजों के आने के बाद यह व्यवस्था बदल गयी। उनका उद्देश्य अधिकाधिक धन कमाकर अपने देश भेजना था। वे इस क्षेत्र पर कब्जा भी करना चाहते थे, ताकि उनकी लूट को कोई रोक न सके। इसी उद्देश्य के लिए अंग्रेजों ने इसके लिए मुखर्जी समिति बनायी, जिसके द्वारा बनाये नियम ‘मुखर्जी सेटलमेण्ट’ कहे गये।
इससे पूर्व 1908 में ब्रिटिश संसद ने जंगल और उसकी उपज पर वनवासियों के अधिकारों के संरक्षण के लिए कानून बनाये थे; पर मुखर्जी सेटलमेण्ट के माध्यम से उन्हें भी छीन लिया गया। यह वनवासियों के अधिकारों पर सीधी चोट थी। इसके विरुद्ध वे निर्मल मुण्डा के नेतृत्व में संगठित होने लगे। निर्मल ने गाँव-गाँव घूमकर वनवासियों को एकत्र कर उन्हें अपने अधिकारों के बारे में जागरूक किया। उन्होंने अंग्रेजों के साथ रहकर काम किया था, इसलिए उनकी धूर्तता वे बहुत अच्छी तरह जानते थे।
मुखर्जी सेटलमेण्ट के अनुसार मालगुजारी की दर पाँच गुनी कर दी गयी। वनवासियों की खेती तो प्रकृति पर आधारित थी। यदि कभी अतिवृष्टि या अनावृष्टि हो जाती, तो भूखों मरने की नौबत आ जाती थी; पर अंग्रेजों को इससे क्या लेना, वे तो उनकी जमीन नीलाम कर मालगुजारी वसूलते थे। वनवासियों में आक्रोश बढ़ता जा रहा था। निर्मल मुण्डा ने इसके विरोध में 25 अपै्रल, 1939 को सुन्दरगढ़ जिले के आमको सिमको ग्राम में एक विशाल सभा का आयोजन किया, जिसमें 10,000 वनवासी एकत्र हुए।
प्रशासन इस सभा एवं आन्दोलन से भयभीत था। अतः लेफ्टिनेण्ट ज्योप्टोन बिफो के नेतृत्व में पुलिसकर्मियों ने मैदान को घेरकर गोली चला दी, जिसमें 300 लोग मारे गये। पुलिस ने निर्मल मुण्डा को गिरफ्तार कर जसपुर जेल में ठूंस दिया, जहाँ से वे 1947 में ही मुक्त हुए।
इस वीर को आजादी के बाद भी समुचित सम्मान नहीं मिला। क्षेत्रीय जनता की बहुत पुकार पर 15 अगस्त, 1972 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने उन्हें ताम्रपत्र दिया। इसके कुछ समय बाद दो जनवरी, 1973 को वनों के रक्षक इस वीर का देहान्त हो गया। प्रतिवर्ष 25 अपै्रल को आमको सिमको गाँव में लगने वाले मेले में निर्मल मुण्डा को लोग श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं।
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27 जनवरी/पुण्य-तिथि
शौर्य एवं पराक्रम के गायक श्याम नारायण पाण्डेय
रण बीच चौकड़ी भर-भर कर, चेतक बन गया निराला था
राणा प्रताप के घोड़े से, पड़ गया हवा का पाला था।।
ओज की ऐसी सैकड़ों कविताओं के लेखक पंडित श्याम नारायण पांडेय का जन्म ग्राम डुमरांव (जिला आजमगढ़, उ0प्र0) में 1910 में हुआ था। उनके पिता श्री रामाज्ञा पांडे अबोध शिशु को अपने अनुज विष्णुदत्त की गोद में डालकर असमय स्वर्ग सिधार गये। श्याम नारायण कई संस्कृत पाठशालाओं में पढ़कर माधव संस्कृत महाविद्यालय, काशी में आचार्य नियुक्त हो गये।
अपनी युवावस्था में वे कवि सम्मेलनों के शीर्षस्थ कवि थे। उनकी शौर्यपूर्ण कविताएं सुनने के लिए श्रोता मीलों पैदल चलकर आते थे। 1939 में रचित उनकी प्रसिद्ध कविता ‘हल्दीघाटी’ तत्कालीन विद्यार्थी और स्वाधीनता सेनानियों की कंठहार थी। जौहर, तुमुल, जय हनुमान, भगवान परशुराम, शिवाजी, माधव, रिमझिम, आरती आदि उनके प्रसिद्ध काव्यग्रन्थ हैं।
पांडे जी में एकमात्र कमी यह थी कि उन्होंने कभी सत्ताधीशों की चाकरी नहीं की। वे खरी बात कहना और सुनना पसंद करते थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा0 हेडगेवार के लिए उन्होंने लिखा था -
केशव तुमको शत-शत प्रणाम।
आदमी की मूर्ति में देवत्व का आभास
देवता की देह में हो आदमी का वास।
तो उसे क्या कह पुकारें, आरती कैसे उतारें ?
पांडे जी नेताओं की समाधि की बजाय वीरों की समाधि तथा बलिदान स्थलों को सच्चा तीर्थ मानते थे। अपने काव्य ‘जौहर’ में वे लिखते हैं -
मुझे न जाना गंगासागर, मुझे न रामेश्वर काशी
तीर्थराज चित्तौड़ देखने को मेरी आंखें प्यासी।।
हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप को घिरा देखकर वीर झाला उनका छत्र एवं मुकुट धारण कर युद्ध क्षेत्र में कूद पड़े। इस पर पांडे जी ने लिखा -
झाला को राणा जान मुगल, फिर टूट पड़े वे झाला पर
मिट गया वीर जैसे मिटता, परवाना दीपक ज्वाला पर।।
स्वतन्त्रता के लिए मरो, राणा ने पाठ पढ़ाया था
इसी वेदिका पर वीरों ने अपना शीश चढ़ाया था।।
पांडेय जी की कलम की धार तलवार की धार से कम नहीं थी। युद्ध का वर्णन उनकी लेखनी से सजीव हो उठता था -
नभ पर चम-चम चपला चमकी, चम-चम चमकी तलवार इधर
भैरव अमन्द घन-नाद उधर, दोनों दल की ललकार इधर।।
वह कड़-कड़ कड़-कड़ कड़क उठी, यह भीम-नाद से तड़क उठी।
भीषण संगर की आग प्रबल, वैरी सेना में भड़क उठी।।
जन-जन के मन में वीरता एवं ओज के भाव जगाने वाले इस अमर कवि का घोर अर्थाभावों में 27 जनवरी, 1989 को देहांत हुआ।
दुर्भाग्यवश हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में से उन कविताओं को निकाल दिया गया है, जिनसे बालकों में देशभक्ति के संस्कार उत्पन्न होते थे। 1947 के बाद हमारे शासकों ने इन्हें साम्प्रदायिक घोषित कर दिया। महाकवि भूषण और उनकी ‘शिवा-बावनी’ को तो गांधी जी ने ही निषिद्ध घोषित कर दिया था। अब पंडित श्यामनारायण पांडे की ‘हल्दीघाटी’ भी निष्कासित कर दी गयी है।
(संदर्भ : राष्ट्रधर्म, जुलाई 2010)
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28 जनवरी/जन्म-दिवस
बाल गोकुलम् के संस्थापक एम.ए कृष्णन
भारत की सबसे बड़ी विशेषता उसकी परिवार प्रणाली है। घर से ही बालक के मन पर संस्कार पड़ते हैं; पर इन दिनों संयुक्त परिवार के विखंडन, शहरीकरण तथा भौतिकता की होड़ के कारण लोग इस ओर ध्यान नहीं दे पाते। केरल में बच्चों को धर्म, संस्कृति और देशप्रेम के संस्कार देने हेतु ‘बाल गोकुलम्’ नामक एक संस्था काम करती है।
इसके संस्थापक श्री एम.ए.कृष्णन का जन्म कोल्लम जिले के एक गांव में 28 जनवरी, 1928 को हुआ था। अध्ययन, अध्यापन और संस्कृत में रुचि होने के कारण संस्कृत की सर्वोच्च परीक्षा ‘महोपाध्याय’ उत्तीर्ण कर वे संस्कृत के अध्यापक बने गये।
महाराजा संस्कृत विद्यालय, त्रिवेन्द्रम में पढ़ते समय उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ, जो क्रमशः बढ़ता ही गया। कुछ समय तक अध्यापन करने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़कर प्रचारक जीवन अपना लिया। अपने परिश्रम से केरल के अनेक जिलों में उन्होंने संघ का काम खड़ा किया।
श्री कृष्णन की रुचि अध्ययन और अध्यापन के साथ ही लेखन में भी थी। यह देखकर 1964 में उन्हें कोझीकोड से मलयालम भाषा में प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र ‘केसरी’ के मुख्य सम्पादक की जिम्मेदारी दी गयी।
इस दौरान उन्होंने केरल में हो रहे सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन के बारे में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर विविध सामग्री प्रकाशित की। इससे केसरी की लोकप्रियता बढ़ने लगी। उन्होंने केरल के सभी प्रतिष्ठित लेखकों की रचनाएं केसरी में प्रकाशित कर उन्हें भी हिन्दुत्व की मुख्य धारा से जोड़ा।
केसरी का सम्पादन करते हुए उनका ध्यान बच्चों की संस्कारहीनता की ओर गया। दूरदर्शन तथा दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली के कारण नयी पीढ़ी को अपने देश और धर्म से कटता देख 1974 में उन्होंने ‘बाल गोकुलम्’ की स्थापना की। केरल के तत्कालीन प्रांत प्रचारक श्री भास्करराव तथा दक्षिण के क्षेत्र प्रचारक श्री यादवराव जोशी का आशीर्वाद मिलने से इस कार्य ने गति पकड़ ली।
बाल गोकुलम् की कार्यप्रणाली बहुत सरल है। इसमें नगर, गांव या मोहल्ले के 100-150 बच्चों को सप्ताह में एक बार किसी मंदिर, विद्यालय या सार्वजनिक स्थान पर डेढ़ घंटे के लिए एकत्र किया जाता है। यहां उन्हें गीत, कविता, कहानी, खेल, नृत्य आदि के माध्यम से अपने देश और धर्म के बारे में जानकारी दी जाती है।
जन्माष्टमी पर श्रीकृष्ण रूप सज्जा की प्रतियोगिता कर उन सब स्वरूपों की शोभायात्रा निकाली जाती है। कुछ ही वर्ष में केरल के कई नगरों में यह शोभायात्रा इतनी भव्य होने लगी कि प्रशासन को विद्यालयों में छुट्टी घोषित करनी पड़ी। शोभायात्रा में बच्चों के साथ उनके परिवारजन भी चलते हैं। लोग स्वागत द्वार बनाते हैं, जिससे पूरा नगर और गांव श्रीकृष्णमय हो जाता है। 1981 से यह प्रयोग पूरे देश में होने लगा।
इसके बाद श्री कृष्णन ने 1975 में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में ‘तपस्या’ नामक संस्था बनाई। 1984 में ‘बाल साहिति प्रकाशन’ के माध्यम से बच्चों के लिए पुस्तकों का प्रकाशन प्रारम्भ किया। 1986 में ‘अमृत भारती विद्यापीठ’ स्थापित की, जो संस्कृत की परीक्षाएं आयोजित करता है। इसी प्रकार 2007 में ‘अन्तरराष्ट्रीय श्रीकृष्ण केन्द्र’ की स्थापना हुई, जहां श्रीकृष्ण लीलाओं की जीवंत झांकियों का निर्माण हो रहा है।
श्री एम.ए कृष्णन 1980 से 84 तक केरल प्रांत के बौद्धिक प्रमुख तथा 1985 से 92 तक प्रचार प्रमुख भी रहे। इन दिनों बाल गोकुलम् के प्रयोगों को भारत के साथ ही अमरीका, इंग्लैंड तथा अरब देशों में भी लोग अपना रहे हैं। ईश्वर उन्हें स्वस्थ रखे, यही कामना है।
(संदर्भ : कुमारसभा पत्रक)
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29 जनवरी/जन्म-दिवस
भारत सेवाश्रम संघ के संस्थापक स्वामी प्रणवानंद
भारत सेवाश्रम संघ के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द जी का जन्म सन 29 जनवरी, 1896 (माघ पूर्णिमा) को ग्राम बाजिदपुर, जिला फरीदपुर (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था। उनके पिता विष्णुचरण दास एवं माता शारदा देवी शिवभक्त थ्ो। सन्तान न होने पर उन्होंने शिव जी से प्रार्थना की। इस पर भोले शंकर ने उनकी माता को स्वप्न में दर्शन देकर स्वयं उनके पुत्र रूप में आने की बात कही। बुधवार को जन्म लेने के कारण उन्हें बुधो कहा जाने लगा।
जन्म के समय बालक रोया नहीं। वह किसी की गोद में नहीं जाता था, भूख लगने पर भी चुप रहता था। सबको चिन्ता हुई कि लड़का कहीं गूँगा-बहरा तो नहीं है। वे लोग नहीं जानते थ्ो कि इस अवस्था में भी शिशु पाँच छह घण्टे ध्यान करता है। कुछ बड़े होने पर कभी-कभी वे गायब हो जाते थ्ो और खोजने पर बाग में पेड़ के नीचे ध्यानरत मिलते। कभी-कभी वे मिट्टी का शिवलिंग बना कर उसे पूजते थ्ो। आगे चलकर उनका नाम विनोद रखा गया।
जैसे-जैसे वे बड़े होते गये, उनके ध्यान का समय भी बढ़ता गया। माता-पिता ने उन्हें गाँव की पाठशाला में भर्ती कर दिया; पर वहाँ भी वे ध्यानमग्न ही रहते थे। वहाँ की पढ़ाई खत्म होने पर उन्हें एक अंग्रेजी विद्यालय में भर्ती किया गया। वे कक्षा में अन्तिम पंक्ति में बैठते थ्ो और नाम पुकारने पर ऐसे बोलते थ्ो, जैसे नींद से जागे हों। उन्हें शोर और शरारत पसन्द नहीं थी। फिर भी वह सब बच्चों और अध्यापकों के प्रिय थ्ो। बलिष्ठ होने के कारण ख्ोलकूद में हर कोई उन्हें अपने दल में रखना चाहता था।
क्रान्तिकारियों से सम्पर्क के कारण एक बार पुलिस उन्हें पकड़ ले गई। उन्हें कई महीने तक जेल में रहना पड़ा। वे अपने विप्लवी प्राचार्य सन्तोष दत्त से प्रायः संन्यास लेने की बात कहते थे। इस पर प्राचार्य ने उन्हें गोरखपुर के बाबा गम्भीरनाथ के पास भ्ोजा। उन्होंने विनोद को 1913 ई0 में विजयादशमी के दूसरे दिन ब्रह्मचारी की दीक्षा दी। अब तो वे कई-कई घण्टे समाधि में पड़े रहते। उनके गुरुजी ही उन्हें बुलाकर कुछ खिला देते थ्ो।
गोरखपुर में आठ महीने रहकर गुरुजी के आदेश से वे काशी आ गये। यहाँ से वे अपने जन्मस्थान बाजिदपुर लौट गए। उन्हें 1916 ई0 में माघ पूर्णिमा को शिव तत्व की प्राप्ति हुई। इसके एक साल बाद उन्होंने गरीब, भूख्ो, असहाय और पीड़ित लोगों की सहायता के लिए बाजिदपुर में आश्रम की स्थापना की। सन 1919 में बंगाल में भारी चक्रवात आया, जिसमें उन्होंने व्यापक सहायता कार्य चलाया। उनका दूसरा आश्रम मदारीपुर में बना।
उन्होंने 1924 ई0 में पौष पूर्णिमा के दिन स्वामी गोविन्दानन्द गिरि से संन्यास की दीक्षा ली। अब उनका नाम स्वामी प्रणवानन्द हो गया। उसके बाद उन्होंने गया, पुरी, काशी, प्रयाग आदि स्थानों पर संघ के आश्रमों की स्थापना की। तभी से ‘भारत सेवाश्रम संघ’ विपत्ति के समय सेवा कार्यों में जुटा हुआ है। उन्होंने समाजसेवा, तीर्थसंस्कार, धार्मिक और नैतिक आदर्श का प्रचार, गुरु पूजा के प्रति जागरूकता जैसे अनेकों कार्य किये।
स्वामी प्रणवानंद जी जातिभेद को मान्यता नहीं देते थे। उन्होंने अपने आश्रमों में ‘हिन्दू मिलन मंदिर’ बनाये। इनमें जातिगत भेद को छोड़कर सब हिन्दू प्रार्थना करते थे। सबको धर्मशास्त्रों की शिक्षा दी जाती थी। इसके बाद उन्होंने ‘हिन्दू रक्षा दल’ गठित किया। इसका उद्देश्य भी जातिगत भावना से ऊपर उठकर हिन्दू युवकों को व्यायाम और शस्त्र संचालन सिखाकर संगठित करना था।
इन दिनों भारत सेवाश्रम संघ के देश-विदेश में 75 आश्रम कार्यरत हैं। 8 जनवरी, 1941 को अपना जीवन-कार्य पूरा कर उन्होंने देह त्याग दी। अब उनके बताए आदर्शों पर उनके अनुयायी संघ को चला रहे हैं।
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29 जनवरी/जन्म दिवस
सबके रज्जू भैया
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चतुर्थ सरसंघचालक प्रो0 राजेन्द्र सिंह का जन्म 29 जनवरी, 1922 को ग्राम बनैल (जिला बुलन्दशहर, उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न एवं शिक्षित परिवार में हुआ था। उनके पिता कुँवर बलबीर सिंह अंग्रेज शासन में पहली बार बने भारतीय मुख्य अभियन्ता थे। इससे पूर्व इस पद पर सदा अंग्रेज ही नियुक्त होते थे। राजेन्द्र सिंह को घर में सब प्यार से रज्जू कहते थे। आगे चलकर उनका यही नाम सर्वत्र लोकप्रिय हुआ।
रज्जू भैया बचपन से ही बहुत मेधावी थे। उनके पिता की इच्छा थी कि वे प्रशासनिक सेवा में जायें। इसीलिए उन्हें पढ़ने के लिए प्रयाग भेजा गया; पर रज्जू भैया को अंग्रेजों की गुलामी पसन्द नहीं थी। उन्होंने प्रथम श्रेणी में एम-एस.सी. उत्तीर्ण की और फिर वहीं भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक हो गये।
उनकी एम-एस.सी. की प्रयोगात्मक परीक्षा लेने नोबेल पुरस्कार विजेता डा0 सी.वी.रमन आये थे। वे उनकी प्रतिभा से बहुत प्रभावित हुए तथा उन्हें अपने साथ बंगलौर चलकर शोध करने का आग्रह किया; पर रज्जू भैया के जीवन का लक्ष्य तो कुछ और ही था।
प्रयाग में उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे नियमित शाखा जाने लगे। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से वे बहुत प्रभावित थे। 1943 में रज्जू भैया ने काशी से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया। वहाँ श्री गुरुजी का ‘शिवाजी का पत्र, जयसिंह के नाम’ विषय पर जो बौद्धिक हुआ, उससे प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया। अब वे अध्यापन कार्य के अतिरिक्त शेष सारा समय संघ कार्य में लगाने लगे। उन्होंने घर में बता दिया कि वे विवाह के बन्धन में नहीं बधेंगे।
प्राध्यापक रहते हुए रज्जू भैया अब संघ कार्य के लिए अब पूरे उ.प्र.में प्रवास करने लगे। वे अपनी कक्षाओं का तालमेल ऐसे करते थे, जिससे छात्रों का अहित न हो तथा उन्हें सप्ताह में दो-तीन दिन प्रवास के लिए मिल जायें। पढ़ाने की रोचक शैली के कारण छात्र उनकी कक्षा के लिए उत्सुक रहते थे।
रज्जू भैया सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे। वे सदा तृतीय श्रेणी में ही प्रवास करते थे तथा प्रवास का सारा व्यय अपनी जेब से करते थे। इसके बावजूद जो पैसा बचता था, उसे वे चुपचाप निर्धन छात्रों की फीस तथा पुस्तकों पर व्यय कर देते थे। 1966 में उन्होंने विश्वविद्यालय की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूरा समय संघ को ही देने लगे।
अब उन पर उत्तर प्रदेश के साथ बिहार का काम भी आ गया। वे एक अच्छे गायक भी थे। संघ शिक्षा वर्ग की गीत कक्षाओं में आकर गीत सीखने और सिखाने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। सरल उदाहरणों से परिपूर्ण उनके बौद्धिक ऐसे होते थे, मानो कोई अध्यापक कक्षा ले रहा हो।
उनकी योग्यता के कारण उनका कार्यक्षेत्र क्रमशः बढ़ता गया। आपातकाल के समय भूमिगत संघर्ष को चलाये रखने में रज्जू भैया की बहुत बड़ी भूमिका थी। उन्होंने प्रोफेसर गौरव कुमार के छद्म नाम से देश भर में प्रवास किया। जेल में जाकर विपक्षी नेताओं से भेंट की और उन्हें एक मंच पर आकर चुनाव लड़ने को प्रेरित किया। इसी से इन्दिरा गांधी की तानाशाही का अन्त हुआ।
1977 में रज्जू भैया सह सरकार्यवाह, 1978 में सरकार्यवाह और 1994 में सरसंघचालक बने। उन्होंने देश भर में प्रवास कर स्वयंसेवकों को कार्य विस्तार की प्रेरणा दी। बीमारी के कारण उन्होंने 2000 ई0 में श्री सुदर्शन जी को यह दायित्व दे दिया। इसके बाद भी वे सभी कार्यक्रमों में जाते रहे।
अन्तिम समय तक सक्रिय रहते हुए 14 जुलाई, 2003 को कौशिक आश्रम, पुणे में रज्जू भैया का देहान्त हो गया।
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29 जनवरी/जन्म-दिवस
सम्पर्क में तज्ञ दिनेश गोयल
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री दिनेश गोयल का जन्म शनिवार 29 जनवरी, 1944 (वसंत पंचमी) को ग्राम चांग (जिला भिवानी, हरियाणा) में एक सामान्य कृषक श्री लक्खीराम एवं श्रीमती सरबती देवी के घर में हुआ था। यद्यपि विद्यालय में उनकी जन्मतिथि 13 दिसम्बर, 1943 लिखी है। छह भाई-बहिनों में उनका नंबर तीसरा है। गांव में मुसलमानों की संख्या अधिक होने के कारण विभाजन के समय प्रायः सभी हिन्दुओं ने गांव छोड़ दिया। श्री लक्खीराम जी भी भिवानी आकर एक व्यापारी के पास मुनीम हो गये।
दिनेश जी ने कक्षा 12 तक की शिक्षा भिवानी में पायी। 1955 में अपने एक कक्षामित्र के साथ शाखा जाने से उनका संघ जीवन प्रारम्भ हुआ। उन्होंने 1958, 59, 61 और 63 में क्रमशः प्राथमिक और तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। 1967 में हिसार से बी.ए. कर वे प्रचारक बने।
उन पर क्रमशः फरीदाबाद नगर, बल्लभगढ़ तहसील, गुड़गांव जिला, रोपड़ जिला, तरनतारन जिला, फरीदकोट जिला, भटिंडा जिला, फिरोजपुर विभाग और जम्मू विभाग प्रचारक की जिम्मेदारी रही। कुछ समय वे अमृतसर कार्यालय प्रमुख भी रहे। विशेष अभिरुचि के कारण वे शारीरिक और घोष वर्गों में भी जाते रहे। वे दो बार संघ शिक्षा वर्ग में मुख्यशिक्षक बने। 1984 में सरसंघचालक श्री बाला साहब देवरस ने अपने अबोहर प्रवास में घोष की बहुत प्रशंसा की।
आपातकाल में प्रवास के दौरान गीदड़बाहा में वे पकड़े गये। दो माह वहीं जेल में रखकर फिर उन्हें भटिंडा और फरीदकोट भेजा गया। साधारण धाराएं होने के कारण भटिंडा जेल से वे रिहा हो गये थे; पर पुलिस ने उन्हें फिर जेल भेज दिया। 1977 की जनवरी में वे फरीदकोट जेल से रिहा हुए। इस बार कार्यकर्ता तैयार थे। वे उन्हें एक गाड़ी में बैठाकर पुलिस की नजरों से दूर ले गये। दिनेश जी अपनी सायं शाखा के मुख्य शिक्षक अजीत जैन और वरिष्ठ प्रचारक श्री प्रेम गोयल का अपने संघ जीवन में विशेष योगदान मानते हैं।
1987 में उन्हें जम्मू-कश्मीर प्रांत का विश्व हिन्दू परिषद का संगठन मंत्री बनाया गया। 1988 में उन्हें महाकौशल प्रांत का काम दिया गया। वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य तब उस प्रांत में ही था। 1991 से 99 तक वे अंदमान-निकोबार में संगठन मंत्री रहे। इस दौरान वहां सर्वप्रथम ‘श्रीराम पादुका पूजन’ कार्यक्रम हुए। इसके बाद कई मंदिरों में साप्ताहिक सत्संग तथा बस्तियों में संस्कार केन्द्र प्रारम्भ हुए। इससे वहां ईसाइयों का आना बंद हो गया।
2000 से 2003 तक पटना केन्द्र बनाकर वे पहले मध्य बिहार और फिर बिहार क्षेत्र संगठन मंत्री रहे। फिर एक वर्ष वे नेपाल भी रहे। 2004 में सुनामी आपदा के बाद उन्हें फिर अंदमान बुला लिया गया। उन्होंने अपने व्यापक सम्पर्क के कारण वहां सेवा व पुनर्वास कार्यों में विशेष योगदान दिया। 2009 में कोलकाता आकर उन्होंने दक्षिण बंगाल प्रांत का विशेष सम्पर्क विभाग का काम संभाला।
दिनेश जी 1989 में जबलपुर में थे। उस दौरान अयोध्या में कारसेवा के आह्नान पर अपेक्षा से बहुत अधिक लोग गये। 1992 की कारसेवा में अंदमान से श्री विष्णु पद राय (सम्प्रति भा.ज.पा. सांसद) के नेतृत्व में 21 लोग गये। जाने से पूर्व ‘तिरंगा पार्क’ में उनका सार्वजनिक सम्मान हुआ। बाबरी ढांचे के ध्वंस के बाद वि.हि.प. पर प्रतिबंध लग गया। कांग्रेसियों के दबाव पर पुलिस ने उन्हें एक रात थाने में रखा; पर अगले ही दिन न्यायालय ने छोड़ दिया। रामसेतु रक्षा आंदोलन के समय अंदमान में तैरती हुई ‘रामशिला’ को रथ पर सजाकर 125 स्थानों पर ले जाया गया। कई विरोधियों ने उसे जांचने के लिए दूसरे पानी में डाला; पर उसे पूर्ववत तैरते देख वे भी श्रद्धालु बन गये।
(संदर्भ : 7.10.2014 को हुआ वार्तालाप)
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30 जनवरी/जन्म-दिवस
नींव के पत्थर लक्ष्मणराव तराणेकर
मध्य प्रदेश में संघ की नींव को मजबूत करने वाले श्री लक्ष्मण मार्तण्ड तराणेकर का जन्म 30 जनवरी, 1926 को इंदौर के पास सांवेर में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा सांवेर तथा इंदौर के शिवाजीराव हाईस्कूल में हुई। इंदौर में वे जिस घर में कमरा लेकर रहते थे, वहां रहने वाले एक अन्य युवक के साथ वे रामबाग शाखा में जाने लगे। इस प्रकार उनका संघ जीवन प्रारम्भ हुआ। इसके बाद वे हरसिद्धि शाखा के गटनायक तथा मुख्यशिक्षक बने।
लक्ष्मणराव की रुचि बचपन से ही संगीत में थी। वे शाम को संगीत की कक्षा में भी जाते थे। इस कारण कुछ समय के लिए उनकी शाखा छूट गयी; पर संघ वालों ने उनसे सम्पर्क बनाये रखा। इसका परिणाम यह हुआ कि वे फिर से शाखा आने लगे। उन्होंने 1943 में इंदौर से प्रथम वर्ष तथा 1947 में द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। 1952 में एम.ए. की उपाधि लेकर वे प्रचारक बन गये। उन्हें सर्वप्रथम मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल नगर में भेजा गया।
क्रमशः भोपाल, विदिशा, ग्वालियर, शिवपुरी, मुरैना आदि में काम करते हुए 1968 में उन्हें ग्वालियर का विभाग प्रचारक बनाया गया। 1980 से 86 तक वे इंदौर के विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद वे प्रांत के बौद्धिक तथा संपर्क प्रमुख भी रहे। जब स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण प्रवास कठिन होने लगा, तो उन्होंने प्रत्यक्ष दायित्वों से मुक्ति ले ली।
लक्ष्मणराव सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति थे। संघ का विचार और अनुशासन उनके रक्त के कण-कण में बसा था। उनसे छोटी अवस्था वाले कार्यकर्ता को भी जब बड़़ा दायित्व मिलता था, तो उनके आने पर वे उठकर स्वागत करते थे तथा द्वार तक छोड़ने जाते थे। स्वदेशी के आग्रही होने के कारण वे कार्यालय पर कभी विदेशी कम्पनियों का सामान नहीं आने देते थे।
ऊपर से देखने पर वे सदा धीर-गंभीर और कठोर रहते थे; पर एक बार जो उनके निकट आया, वह सदा के लिए उनसे जुड़ गया। वे किसी भी काम के लिए सदा तत्पर रहते थे; पर प्रयासपूर्वक इसकी जिम्मेदारी किसी और को दिलवा कर, फिर उसके साथ लगकर काम पूरा करा देते थे।
कम से कम सामान में जीवन का निर्वाह कैसे हो सकता है, लक्ष्मणराव इसके श्रेष्ठ उदाहरण थे। आधी बांह का स्वेटर तथा एक गरम चादर में वे पूरी सर्दी काट देते थे। गर्मी में कूलर तो दूर, प्रायः वे पंखा भी नहीं चलाते थे। अपने भोजन-जलपान के प्रति उदासीन; पर दूसरों की आवश्यकता के प्रति वे सदा सजग रहते थे। किसी को सिखाने की सर्वश्रेष्ठ विधि भाषण नहीं आचरण है। इस ओर उनका पूरा ध्यान रहता था। डाकघर की लापरवाही के से कई पत्रों के टिकट पर मोहर लगनी रह जाती थी। प्रायः लोग उन्हें फिर प्रयोग कर लेते हैं; पर लक्ष्मणराव उन्हें कलम से काट देते थे।
कार्यकर्ता सक्रिय हो निष्क्रिय, लक्ष्मणराव सबसे संपर्क बनाये रखते थे। जब ग्वालियर में संघ कार्यालय का भवन बना, तो उन्होंने सैकड़ों पुराने और ग्वालियर से बाहर रह रहे कार्यकर्ताओं को पत्र लिखे। अतः सम्पूर्ण राशि का दो तिहाई ऐसे लोगों से ही मिल गया।
बड़े कार्यक्रम की बजाय छोटे कार्यक्रमों की ओर उनका अधिक रुझान था। वे कार्यकर्ता को ठोक बजाकर जिम्मेदारी देते थे। अतः उन्होंने जिसे जो काम दिया, उसने वह पूरा किया। सामूहिक चिंतन एवं निर्णय की संघ पद्धति का उन्होंने सदा पालन किया।
नींव के पत्थर की तरह प्रचार, प्रसिद्धि, माला और मंच से दूर रहने वाले लक्ष्मणराव का 27 अक्तूबर, 2006 को ग्वालियर में ही देहांत हुआ।
(संदर्भ : मध्यभारत की संघ गाथा)
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31 जनवरी/जन्म-दिवस
वनबन्धु मदनलाल अग्रवाला
अपना काम करते हुए समाज सेवा बहुत लोग करते हैं; पर 31 जनवरी, 1923 को झरिया (जिला धनबाद, झारखंड) में जन्मे श्री मदनलाल अग्रवाला सामाजिक कार्य को व्यापार एवं परिवार से भी अधिक महत्व देते थे। उन्होंने अनेक संस्थाएं बनाकर अपने रिश्तेदारों व परिचितों को भी इस हेतु प्रेरित किया।
यह परिवार जिला झुंझुनु (राजस्थान) के लोयल ग्राम का मूल निवासी था। इनके दादा श्री हरदेव दास 1876 में झरिया आये थे। प्रथम विश्व युद्ध के बाद 1913-14 में कोयला खानों के ठेकों से इन्हें बहुत लाभ हुआ। समाज सेवा और स्वाधीनता आंदोलन में सक्रियता के कारण इन्हें खूब प्रसिद्धि मिली। दादा जी द्वारा स्थापित डी.ए.वी. विद्यालय में ही मदनबाबू की शिक्षा हुई।
उन दिनों शासन षड्यन्त्रपूर्वक मुस्लिम अलगाववादियों को शह दे रहा था। मदनबाबू के ताऊ श्री अर्जुन अग्रवाला ने हिन्दु युवकों को लाठी, भाला आदि सिखाने के लिए एक शिक्षक रखा। मदनबाबू भी वहां जाते थे। 1940 में मैट्रिक उत्तीर्ण कर वे डेढ़ माह के प्रशिक्षण हेतु डा. मुंजे द्वारा स्थापित भोंसले मिलट्री स्कूल, नासिक में गये और वहां से आकर 1941 में नवयुवक संघ की स्थापना की। 1944 में संघ के एक कार्यकर्ता झरिया आये और इस प्रकार नवयुवक संघ का कार्य शाखा में बदल गया। 1945 में वे जिला कार्यवाह बने। श्री गुरुजी प्रवास के समय इनके घर पर ही ठहरते थे।
मदनबाबू मारवाड़ी समाज की गतिविधियों में भी सक्रिय थे। इनका मानना था कि सम्पन्न वर्ग को उस क्षेत्र की सेवा अवश्य करनी चाहिए, जहां से उन्होंने धन कमाया है। शिक्षा को वे सेवा का सर्वोत्तम साधन मानते थे। अतः मारवाड़ी व्यापारियों को प्रेरित कर इन्होंने अनेक शिक्षण संस्थाएं प्रारम्भ कीं।
वे सामाजिक रूढ़ियों के घोर विरोधी थे। 1947 में उन्होंने एक मारवाड़ी सम्मेलन में पर्दा व दहेज प्रथा का विरोध किया। उनकी मां और पत्नी के नेतृत्व में अनेक महिलाओं ने पर्दा त्याग दिया। मदनबाबू ने समाज में आदर्श स्थापित करते हुए अपने भाइयों और पुत्रों के विवाह बिना दहेज लिये सादगी से किये।
1948-49 में उनके पिताजी बहुत बीमार हुए। मदनबाबू सामाजिक कामों में अधिक समय लगाते थे। इससे व्यापार प्रभावित हो रहा था। यह देखकर मृत्यु शैया पर पड़े पिताजी ने इनसे कहा कि केवल पांच साल तक पूरा समय व्यापार को दो। यदि व्यापार ठीक चला, तो सामाजिक कार्य भी कर सकोगे, अन्यथा हाथ से सब कुछ चला जाएगा।
मदनबाबू ने तुरंत 26 सामाजिक संस्थाओं की जिम्मेदारियों से त्यागपत्र दे दिया। धीरे-धीरे व्यापार पटरी पर आ गया और 1970 में सब कारोबार भाइयों को सौंपकर वे फिर से संघ और अन्य सामाजिक कार्यों में लग गये। संघ कार्य में मदनबाबू दक्षिण बिहार प्रांत संघचालक और फिर केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे। 1948 और 1975 के प्रतिबंध काल में वे जेल भी गये।
उनके मन में वनवासियों के प्रति अत्यधिक करुणा थी। उनके बच्चों के लिए उन्होंने कई विद्यालय व छात्रावास बनवाये। उनका सबसे विशिष्ट कार्य ‘वनबंधु परिषद’ और ‘एकल विद्यालय योजना’ है। इसमें एक युवा अध्यापक अपने ही गांव के बच्चों को पढ़ाता है। उसके मानदेय का प्रबन्ध सम्पन्न लोगों के सहयोग से किया जाता है। आज ऐसे विद्यालयों की संख्या देश में 35,000 तक पहुंच गयी है। मदनबाबू की देश भ्रमण में बहुत रुचि थी। वे प्रतिवर्ष मा0 रज्जू भैया आदि के साथ 8-10 दिन के लिए घूमने जाते थे।
निष्ठावान स्वयंसेवक, सक्रिय समाजसेवी तथा वनबन्धुओं के सच्चे मित्र मदनबाबू अग्रवाला का निधन 28 मार्च, 2000 को कोलकाता में हुआ।
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जनवरी/देहावसान
फक्कड़ एवं मस्त गोपीचंद अरोड़ा
राजस्थान में अपना प्रचारक जीवन बिताने वाले श्री गोपीचंद अरोड़ा का जन्म 1923 में अविभाजित पंजाब में हुआ था। वे स्वयंसेवक भी वहीं बने। विभाजन के दौर की कठिनाइयों के कारण उनकी लौकिक शिक्षा बहुत अधिक नहीं हो सकी। भारत में आकर जब परिवार कुछ स्थिर हो गया, तो वे प्रचारक बन गये। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर प्रचारकों को वापस जाने को कह दिया गया था। गोपीचंद जी ने अपने बड़े भाई के पास अलवर में रहते हुए एक नौकरी कर ली; पर प्रतिबंध समाप्त होते ही वे फिर प्रचारक बन गये।
प्रचारक जीवन में वे चित्तौड़, बाड़मेर, श्री गंगानगर, अलवर, सिरोही, झुंझनू आदि में विभिन्न दायित्वों पर रहे। 1978 में वे पाली के सह विभाग प्रचारक तथा 1979 में विभाग प्रचारक बने। उनकी सबसे बड़ी विशेषता उनका फक्कड़ तथा मस्त स्वभाव था। विभिन्न शिविरों तथा संघ शिक्षा वर्ग आदि में रात में होने वाली विनोद सभा में उनका यह कौशल पूरी तरह प्रकट होता था; पर वे हंसी मजाक करते हुए श्रोताओं को सही दिशा भी दे देते थे।
वे मानते थे कि तत्वज्ञान की बजाय मित्रता से लोगों को जोड़ना आसान है। वे झुंझनू जिले में बिड़ला परिवार द्वारा संचालित तकनीकी विद्यालय (बिट्स) के छात्रों से लेकर विभिन्न जाति-बिरादरियों के मुखियाओं तक गहरे संबंध बनाकर रखते थे। उन्हें खाना बनाने तथा दूसरों को खिलाने का भी शौक था।
साहसी और जुझारू स्वभाव वाले गोपीचंद का शरीर नाटा और भारी होने पर भी बहुत गठीला और फुर्तीला था। दंडयुद्ध तथा वेत्रचर्म उनके प्रिय विषय थे। एक के विरुद्ध अनेक के संघर्ष में उनका दंड संचालन देखते ही बनता था। इसके साथ ही उनकी घोष विभाग में भी बहुत रुचि थी। राजस्थान में घोष को स्थापित करने का श्रेय उन्हें ही है। सुकंठ गायक होने के कारण पंजाबी और राजस्थानी गीत वे बहुत झूमकर गाते थे। 1975 के प्रतिबंध के समय बाहर ही रहते हुए उन्होंने सत्याग्रह तथा जन जागरण की गतिविधियों का संचालन किया।।
गोपीचंद जी एक कुशल प्रबंधक भी थे। उनकी हर योजना परिपूर्ण होती थी। झुंझनु के संघ शिक्षा वर्ग में रात में आये भीषण अंधड़ के कारण पंडाल ध्वस्त हो गया; पर सुबह जब लोग उठे, तो वह पंडाल फिर से सिर उठाकर खड़ा था। ऐसा ही एक बार किशनगढ़ में भी हुआ।
राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर में वे कई वर्ष प्रचारक रहे। 1965 में चोहटन स्टेशन के पास स्थित पैट्रोल पम्प में पाकिस्तानी विमानों के हमले से आग लग गयी। उस समय स्टेशन पर शस्त्रों से लदी गाड़ी भी खड़ी थी। ऐसे में गोपीचंद जी ने सैनिकों के साथ मिलकर आग को काबू किया तथा नागरिकों की प्राणरक्षा की। उनकी जागरूकता से कई घुसपैठिये भी पकड़े गये।
युद्ध के समय घायल सैनिकों को खून की आवश्यकता होने पर उनके नेतृत्व में स्वयंसेवक तथा नागरिक सैनिक अस्पताल में उमड़ पड़ते थे। उन दिनों युद्ध सामग्री ले जाने वाली रेलगाडि़यां शत्रुओं के निशाने पर रहती थीं। एक बार ऐसे एक चालक ने भयवश गाड़ी ले जाने से मना कर दिया। पता लगने पर गोपीचंद जी ने तुरंत एक पुराने चालक को तैयार कर लिया। यद्यपि बमवर्षा होने से वह चालक मारा गया; पर तब तक शस्त्र सीमा पर पहुंच गये थे।
जनवरी 1981 में सिरोही में संघ के सह सरकार्यवाह श्री यादवराव जोशी का प्रवास था। दिन भर वे उसके लिए भागदौड़ करते रहे। शाम को सार्वजनिक कार्यक्रम और फिर कार्यकर्ता बैठक के बाद रात में उन्हें हृदयाघात हुआ। यह इतना भीषण था कि चिकित्सकीय सहायता के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। इस प्रकार संघ कार्य करते हुए ही उनकी जीवन यात्रा पूरी हुई।
(संदर्भ : अभिलेखागार, भा.भवन, जयपुर/श्री मोहन जोशी, धर्मनारायण जी)
🙏 विजय जी, २८ जनवरी को लाला लाजपतराय जी का जन्मदिन होता है, कृपया सम्मिलित करें।
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