जनवरी तीसरा सप्ताह

16 जनवरी/जन्म-दिवस

अखंड कर्मयोगी डा. ओमप्रकाश मैंगी

संघ के निष्ठावान कार्यकर्ता डा. ओमप्रकाश मैंगी का जन्म 16 जनवरी 1918 को जम्मू में एक समाजसेवी श्री ईश्वरदास जी के घर में हुआ था। सामाजिक कार्यों में सक्रिय पिताजी के विचारों का प्रभाव ओमप्रकाश जी पर पड़ा। प्रारम्भिक शिक्षा जम्मू, भद्रवाह और श्रीनगर में पूर्णकर उन्होंने मैडिकल कॉलिज अमृतसर से ‘जनरल फिजीशियन एंड सर्जन’ की उपाधि ली। 

इसके बाद वे जम्मू-कश्मीर सरकार में चिकित्सा अधिकारी तथा सतवारी कैंट चिकित्सालय में सेवारत रहे। फिर उन्होंने लाहौर से दंत चिकित्सा की उपाधि बी.डी.एस. लेकर इसे ही अपने जीवनयापन का आधार बनाया।

1940 में दीवान मंदिर, जम्मू में शाखा प्रारम्भ होने पर ओमप्रकाश जी स्वयंसेवक बने। श्री गुरुजी ने 1960 में उन्हें प्रांत संघचालक का दायित्व दिया, जिसे उन्होंने लगभग 40 साल तक निभाया। वे चिकित्सा कार्य के बाद का सारा समय सामाजिक गतिविधियों में लगाते थे। 

1952-53 में जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने के लिए प्रजा परिषद द्वारा किये गये आंदोलन में उन्होंने पंडित प्रेमनाथ डोगरा के साथ सत्याग्रह कर जेल के कष्ट भोगे। 1966-67 के गोरक्षा आंदोलन में भी उन्होंने एक जत्थे के साथ दिल्ली में गिरफ्तारी दी। वे कहने की बजाय करने में अधिक विश्वास रखते थे।

1975 के आपातकाल में सत्याग्रह कर वे एक वर्ष तक 'मीसा' में बंदी रहे। 91 वर्ष की अवस्था में अमरनाथ आंदोलन के समय एक बार फिर उन्होंने गिरफ्तारी दी। वे संघ कार्य के साथ ही अन्य सामाजिक कार्याें में भी सदा आगे रहते थे। जम्मू की गोशाला, वृद्धाश्रम, बाल निकेतन, विवेकानंद अस्पताल, सेवा भारती आदि में उनका सक्रिय सहयोग रहता था।

डा. मैंगी की पत्नी सुशीला जी भी अनेक सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहती थीं। प्रजा परिषद के आंदोलन में वे भी महिलाओं का जत्था लेकर दिल्ली गयी थीं। 2002 में उनका देहांत हुआ। इससे पूर्व 1974 में उनके युवा पुत्र विक्रम मैंगी की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। ऐसे सब आघातों को ‘प्रभु की इच्छा’ मानकर वे सक्रिय बने रहे। संघ क्षेत्र में श्री गुरुजी तथा अध्यात्म क्षेत्र में वे हिमालय के महान संत श्री चंद्रास्वामी को अपना आदर्श मानते थे। आंतरिक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए वे वर्ष में एक-दो बार मौनव्रत करते थे।

1975 में डा. मैंगी रोहतक में लगे संघ शिक्षा वर्ग में सर्वाधिकारी थे। वर्ग समाप्त होने से पूर्व ही देश में आपातकाल लग गया। पुलिस ने वर्ग स्थान को घेर लिया। यह देखकर डा. मैंगी ने स्वयं पुलिस थाने जाकर अधिकारियों से बात की। उनकी बातों से प्रभावित होकर पुलिस ने वर्ग में आये सब शिक्षक और शिक्षार्थियों को घर जाने की अनुमति दे दी। इस प्रकार उनकी सूझबूझ और निर्णय शक्ति से एक संकट टल गया। स्वभाव से अत्यधिक विनम्र होते हुए भी वे संगठन तथा देशहित में कठोर निर्णय लेने से नहीं चूकते थे।

डा. मैंगी तन, मन और धन से पूर्णतः समाज को समर्पित थे। उन्होंने अपने पिताजी व माताजी के नाम से ‘प्रभादेवी ईश्वरदास न्यास’ बनाकर सब पूंजी समाजसेवा के लिए अर्पित कर दी। इससे वे निर्धन परिवारों की सहायता करते थे। जम्मू के लोकप्रिय नेता पंडित प्रेमनाथ डोगरा जब कैंसर के इलाज के लिए मुंबई गये, तो डा. मैंगी ने वहां रहकर उनकी भरपूर सेवा की। 

डा. मैंगी ने व्यक्तिगत सुख के बदले त्याग और समर्पण का मार्ग चुना और आजीवन उस पर चलते रहे। ऐसे अखंड कर्मयोगी का 92 वर्ष की आयु में 14 नवम्बर, 2009 को देहांत हुआ। उनकी परम्परा को निभाते हुए उनके सब परिवारजन संघ तथा अन्य सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हैं।
....................................

17 जनवरी/बलिदान दिवस

रामसिंह कूका और उनके गोभक्त शिष्य

17 जनवरी, 1872 की प्रातः ग्राम जमालपुर (मालेरकोटला, पंजाब) के मैदान में भारी भीड़ एकत्र थी। एक-एक कर 50 गोभक्त सिख वीर वहाँ लाये गये। उनके हाथ पीछे बँधे थे। इन्हें मृत्युदण्ड दिया जाना था। ये सब सद्गुरु रामसिंह कूका के शिष्य थे।

अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने इनके मुह पर काला कपड़ा बाँधकर पीठ पर गोली मारने का आदेश दिया; पर इन वीरों ने साफ कह दिया कि वे न तो कपड़ा बँधवाएंगे और न ही पीठ पर गोली खायेंगे। तब मैदान में एक बड़ी तोप लायी गयी। अनेक समूहों में इन वीरों को तोप के सामने खड़ा कर गोला दाग दिया जाता। गोले के दगते ही गरम मानव खून के छींटे और मांस के लोथड़े हवा में उड़ते। जनता में अंग्रेज शासन की दहशत बैठ रही थी। कोवन का उद्देश्य पूरा हो रहा था। उसकी पत्नी भी इस दृश्य का आनन्द उठा रही थी।

इस प्रकार 49 वीरों ने मृत्यु का वरण किया; पर 50 वें को देखकर जनता चीख पड़ी। वह तो केवल 12 वर्ष का एक छोटा बालक बिशनसिंह था। अभी तो उसके चेहरे पर मूँछें भी नहीं आयी थीं। उसे देखकर कोवन की पत्नी का दिल भी पसीज गया। उसने अपने पति से उसे माफ कर देने को कहा। कोवन ने बिशनसिंह के सामने रामसिंह को गाली देते हुए कहा कि यदि तुम उस धूर्त का साथ छोड़ दो, तो तुम्हें माफ किया जा सकता है।

यह सुनकर बिशनसिंह क्रोध से जल उठा। उसने उछलकर कोवन की दाढ़ी को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसे बुरी तरह खींचने लगा। कोवन ने बहुत प्रयत्न किया; पर वह उस तेजस्वी बालक की पकड़ से अपनी दाढ़ी नहीं छुड़ा सका। इसके बाद बालक ने उसे धरती पर गिरा दिया और उसका गला दबाने लगा। यह देखकर सैनिक दौड़े और उन्होंने तलवार से उसके दोनों हाथ काट दिये। इसके बाद उसे वहीं गोली मार दी गयी। इस प्रकार 50 कूका वीर उस दिन बलिपथ पर चल दिये। 

गुरु रामसिंह कूका का जन्म 1816 ई0 की वसन्त पंचमी को लुधियाना के भैणी ग्राम में जस्सासिंह बढ़ई के घर में हुआ था। वे शुरू से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। कुछ वर्ष वे महाराजा रणजीत सिंह की सेना में रहे। फिर अपने गाँव में खेती करने लगे। वे सबसे अंग्रेजों का विरोध करने तथा समाज की कुरीतियों को मिटाने को कहते थे। उन्होंने सामूहिक, अन्तरजातीय और विधवा विवाह की प्रथा चलाई। उनके शिष्य ही ‘कूका’ कहलाते थे। 

कूका आन्दोलन का प्रारम्भ 1857 में पंजाब के विख्यात बैसाखी पर्व (13 अप्रैल) पर भैणी साहब में हुआ। गुरु रामसिंह जी गोसंरक्षण तथा स्वदेशी के उपयोग पर बहुत बल देते थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतन्त्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी। 

मकर संक्रान्ति मेले में मलेरकोटला से भैणी आ रहे गुरुमुख सिंह नामक एक कूका के सामने कसाइयों ने जानबूझ कर गोहत्या की। यह जानकर कूका वीर बदला लेने को चल पड़े। उन्होंने उन गोहत्यारों पर हमला बोल दिया; पर उनकी शक्ति बहुत कम थी। दूसरी ओर से अंग्रेज पुलिस एवं फौज भी आ गयी। अनेक कूका मारे गये और 68 पकड़े गये। इनमें से 50 को 17 जनवरी को तथा शेष को अगले दिन मृत्युदण्ड दिया गया।

अंग्रेज जानते थे कि इन सबके पीछे गुरु रामसिंह कूका की ही प्रेरणा है। अतः उन्हें भी गिरफ्तार कर बर्मा की जेल में भेज दिया। 14 साल तक वहाँ काल कोठरी में कठोर अत्याचार सहकर 1885 में सदगुरु रामसिंह कूका ने अपना शरीर त्याग दिया।
.................................

17 जनवरी/जन्म-दिवस

हिन्दी साहित्य के अमिट हस्ताक्षर रांगेय राघव

यों तो हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि में अनेक लेखकों ने योगदान दिया है; पर 17 जनवरी, 1923 को जन्मे रांगेय राघव का स्थान उनमें विशिष्ट है। 
वे तमिलभाषी पिता और कन्नड़भाषी माँ की सन्तान थे; पर उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम हिन्दी को बनाया। 15 वर्ष की छोटी अवस्था से ही उनकी कविताएँ देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। उनकी संवेदनशीलता, पैनी भाषा तथा कथ्य की अलग शैली से लोगों को विश्वास ही नहीं होता था कि इन कविताओं का रचनाकार एक बालक है।

रांगेय राघव की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने समाज के उपेक्षित वर्ग को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। यह वर्ग समाज जीवन की तरह साहित्य में भी उपेक्षित ही था। उन्होंने खानाबदोश और घुमन्तु जातियों के जीवन पर ‘कब तक पुकारूँ’ नामक उपन्यास लिखा, जिसका बहुत स्वागत हुआ। दूरदर्शन के विकास के बाद इस पर धारावाहिक भी बनाया गया। उनके काव्य संकलन ‘राह के दीपक’ में भी इन्हीं घुमन्तुओं का वर्णन है।

रांगेय राघव ने वर्तमान के साथ ही इतिहास के विलुप्त अध्यायों पर भी अपनी सशक्त और जीवंत लेखनी चलाई। उनका उपन्यास ‘मुर्दों का टीला’ पाठकों को विश्व इतिहास की उस प्राचीनतम सिन्धु घाटी की सभ्यता की ओर ले जाता है, जो मुउन-जो-दड़ो या ‘मोहनजोदड़ो’ के नाम से प्रसिद्ध है। 

यह रांगेय राघव का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाता है। यद्यपि उपन्यासकार के रूप में 1941 में प्रकाशित ‘घरौंदे’ से ही उनकी पहचान बन गयी थी। इसमें जहाँ एक ओर विश्वविद्यालय के छात्रों के अन्तर्द्वन्द्व को उभारा गया है, वहीं किसानों और जमींदार के संघर्ष की कथा भी साथ-साथ चलती है।

पर उनके जिस उपन्यास ने हिन्दी जगत को हिला दिया, वह था ‘विषाद मठ’। इसमें उन्होंने 1943 के बंगाल के अकाल को केन्द्र बनाया था। उपन्यास लिखने से पहले उन्होंने अकालग्रस्त क्षेत्र का भ्रमण किया। इस प्रकार उन्होंने जो कुछ आँखों से देखा, उसे ही लेखनी द्वारा कागज पर उतार दिया। 

प्रत्यक्ष अनुभव के कारण ही वे अकाल की भयावहता और उसके कारण तिल-तिलकर मरते लाखों लोगों की त्रासदी का सजीव चित्रण कर पाये। इसे पढ़कर लोगों की आंखें भर आती थीं। उनके अन्य प्रसिद्ध उपन्यास हैं - चीवर, महायात्रा, प्रतिदान, पक्षी और आकाश, सीधे सच्चे रास्ते आदि।

उपन्यास के अतिरिक्त रांगेय राघव कहानी लेखन में भी सिद्धहस्त थे। उनकी कहानी तबेले का धुन्धलका, गदल, इन्सान पैदा हुआ... आदि ने साहित्य जगत में बड़ी ख्याति पायी। लेखन के साथ ही उन्होंने अनुवाद कार्य भी किया। विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र आदि विषयों पर उनके लेख भी बहुचर्चित हुए। उनके इस विविध लेखन का आधार था उनका गहन अध्ययन। वे हिन्दी के सम्भवतः पहले ऐसे लेखक थे, जिन्होंने लेखन को ही अपना पूर्णकालिक काम माना और उसी से घर-परिवार का पालन किया। 

दुर्भाग्यवश प्रभु ने उन्हें अपनी प्रतिभा प्रकट करने का बहुत कम समय दिया। उन्होंने लगभग 22 वर्ष तक लेखन किया और इस दौरान 139 पुस्तकें लिखीं। उपन्यास, कविता, कहानी, यात्रा वर्णन, रिपोर्ट, नाटक, समीक्षा....सब विधाओं में उन्होंने प्रचुर कार्य किया। लेखन की शायद ही कोई विधा हो, जिसमें उन्होंने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज न कराई हो। ऐसे प्रतिभाशाली लेखक का केवल 39 वर्ष की अल्पायु में कैंसर से देहावसान हो गया।
..................................
17 जनवरी/पुण्य-तिथि

भारतीय सेना के मार्गदर्शक रणछोड़दास रबारी ‘पागी’

भारत की अपने पड़ोसी चीन और पाकिस्तान से सीमा पर प्रायः मुठभेड़ होती रहती है। इनमें जहां सैनिक आगे बढ़कर मोर्चे पर लड़ते हैं, वहां स्थानीय नागरिक पीछे से सेना का सहयोग करते हैं। ऐसे ही एक पशुपालक रणछोड़दास रबारी ‘पागी’ ने 1965 में सेना की जो सहायता की, उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता। वे गुजरात से लगे पेथापुर गथडो गांव के पशुपालक गडरिये थे; पर 1947 में यह गांव पाकिस्तान में चला गया। इससे वहां हिन्दुओं का उत्पीड़न होने लगा। अतः वे सपरिवार गुजरात के बनासकांठा में बस गये।

राजस्थान और गुजरात के गडरिये अपने ऊंट, भेड़, बकरी आदि के साथ कई-कई दिन तक रेगिस्तानी क्षेत्रों में घूमते रहते हैं। चांद, सूर्य, तारे तथा अन्य नक्षत्रों की सहायता से उन्हें समय, मौसम तथा दिशा का ठीक ज्ञान होता है। रणछोड़दास तो इसके विशेषज्ञ ही थे। इसलिए 58 वर्ष की अवस्था में बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला ने उन्हें रास्ता दिखाने वाले मार्गदर्शक (पागी) के रूप में रख लिया। रणछोड़दास रेत पर पड़े पैरों के निशान देखकर बता देते थे इधर से गये व्यक्ति या पशु कितनी देर पहले गये हैं तथा कितनी दूर पहुंच गये होंगे। वे उनकी उम्र और कितना बोझ लेकर चल रहे हैं, इसका भी ठीक आकलन कर लेते थे। पशुओं की गंध और मल-मूत्र से वे उनके नर या मादा होने का अनुमान लगा लेते थे।

1965 के युद्ध में पाकिस्तानी सेना ने गुजरात में कच्छ सीमा पर स्थित ‘विद्याकोट’ थाने पर कब्जा कर लिया। इस लड़ाई में लगभग 100 भारतीय सैनिक शहीद हुए। अतः दस हजार सैनिकों एक बड़ी टुकड़ी वहां भेजी गयी। उनके मार्गदर्शक थे रणछोड़दास। रेगिस्तान में तेज आंधी से रेत के टीले जगह बदल लेते हैं। इससे लोग भ्रमित हो जाते हैं; पर रणछोड़दास के साथ सेना अनुमान से 12 घंटे पहले ही ‘छारकोट’ के मोर्चे पर पहुंच गयी और पाकिस्तानी सेना को खदेड़ दिया। इतना ही नहीं, भारतीय सीमा में छिपे 1,200 शत्रु सैनिक भी पकड़ लिये गये। इसके लिए उन्हें ‘राष्ट्रपति पुरस्कार’ दिया गया। 

1971 के युद्ध में भी रणछोड़दास ने कच्छ के रण और सीमावर्ती सर क्रीक में कई जगह भारतीय सेना की ऐसी ही सहायता की। ऊंट को रेगिस्तान का जहाज कहते हैं। जहां जीप और ट्रक भी हार जाते हैं, वहां ऊंट ही काम आता है। बिना खाये-पिये वह दिन भर चलता रहता है। रणछोड़दास ने कई बार अपने ऊंटों पर लादकर बम, गोले और अन्य सैन्य सामग्री मोर्चे तक पहुंचायी। पाकिस्तान के पालीनगर को जीतने में उनकी बड़ी भूमिका थी। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल मानेकशा ने इसके लिए उन्हें 300 रु. नकद पुरस्कार दिया।

1965 और 1971 के युद्ध में भारतीय सेना को दिये गये अमूल्य योगदान के लिए उन्हें संग्राम पदक, पुलिस पदक तथा समर सेवा पदक मिले। जनरल मानेकशा तो रणछोड़दास से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने एक बार सैन्य हैलिकाॅप्टर भेजकर उन्हें अपने साथ भोजन के लिए बुलाया। रणछोड़दास के पास कपड़े की एक छोटी सी पोटली थी। उसमें दो मोटी रोटी, प्याज और गुजरात में प्रचलित बेसन से बना गांठिया था। जनरल मानेकशा ने दो में से एक रोटी खुद खाकर रणछोड़दास को अनूठा सम्मान दिया। अपने अंतिम दिनों में भी उन्होंने कई बार इस अनूठे योद्धा रणछोड़दास ‘पागी’ को याद किया।

2009 में 108 वर्ष की अवस्था में रणछोड़दास ने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली। 17 जनवरी, 2013 को 112 वर्ष की भरपूर आयु में उनका निधन हुआ। गुजरात के सीमावर्ती क्षेत्र के लोकगीतों में ‘पागी’ बाबा आज भी जीवित हैं। भारतीय सेना ने उनके सम्मान में उत्तर गुजरात में सुइगांव अंतरराष्ट्रीय सीमा की एक चैकी को ‘रणछोड़दास पोस्ट’ नाम दिया है। उनके जीवन पर एक हिन्दी फिल्म भी बन रही है। 

(अंतरजाल पर उपलब्ध सामग्री)
-------------------------------------------------------------------------------------
18 जनवरी/जन्म-दिवस

अनुशासन प्रिय महादेव गोविन्द रानाडे

सामान्यतः नेता या बड़े लोग दूसरों को तो अनुशासन की शिक्षा देते हैं; पर वे स्वयं इसका पालन नहीं करते। वे सोचते हैं कि अनुशासन का पालन करना दूसरों का काम है और वे इससे ऊपर हैं; पर 18 जनवरी, 1842 को महाराष्ट्र के एक गाँव निफड़ में जन्मे श्री महादेव गोविन्द रानाडे इसके अपवाद थे। उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इसके साथ ही समाज सुधार उनकी चिन्ता का मुख्य विषय था।

एक बार उन्हें पुणे के न्यू इंग्लिश स्कूल के वार्षिकोत्सव समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल होना था। आमन्त्रित अतिथियों को यथास्थान बैठाने के लिए द्वार पर कुछ कार्यकर्त्ता तैनात थे। उन्हें निर्देश था कि बिना निमन्त्रण पत्र के किसी को अन्दर न आने दें। 

श्री रानाडे का नाम तो निमन्त्रण पत्र पर छपा था; पर उनके पास उस समय वह निमन्त्रण पत्र नहीं था। द्वार पर तैनात वह कार्यकर्त्ता उन्हें पहचानता नहीं था। इसलिए उसने श्री रानाडे को नियमानुसार प्रवेश नहीं दिया। श्री रानाडे ने इस बात का बुरा नहीं माना, वे बोले - बेटे, मेरे पास तो निमन्त्रण पत्र नहीं है। इतना कहकर वे सहज भाव से द्वार के पास ही खड़े हो गये।

थोड़ी देर में कार्यक्रम के आयोजकों की दृष्टि उन पर पड़े। वे दौड़कर आये और उस कार्यकर्ता को डाँटने लगे। इस पर वह कार्यकर्त्ता आयोजकों से ही भिड़ गया। उसने कहा कि आप लोगों ने ही मुझे यह काम सौंपा है और आप ही नियम तोड़ रहे हैं, ऐसे में मैं अपना कर्त्तव्य कैसे पूरा करूँगा। कोई भी अतिथि हो; पर नियमानुसार उस पर निमन्त्रण पत्र तो होना ही चाहिए।

आयोजक लोग उसे आवश्यकता से अधिक बोलता देख नाराज होने लगे; पर श्री रानाडे ने उन्हें शान्त कराया और उसकी अनुशासनप्रियता की सार्वजनिक रूप से अपने भाषण में प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि आज ऐसे ही अनुशासनप्रिय लोगों की आवश्यकता है। यदि सभी भारतवासी अनुशासन का पालन करें, तो हमें स्वतन्त्रता भी शीघ्र मिल सकती है और उसके बाद देश की प्रगति भी तेजी से होगी। इतना ही नहीं, कार्यक्रम समाप्ति के बाद उन्होंने उस कार्यकर्ता की पीठ थपथपा कर उसे शाबासी दी। वह कार्यकर्ता आगे चलकर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हुआ। उसका नाम था गोपाल कृष्ण गोखले। 

श्री रानाडे में अनुशासन, देशप्रेम व चारि×य के ऐसे सुसंस्कार उनके परिवार से ही आये थे। उनका परिवार परम्परावादी था; पर श्री रानाडे खुले विचारों के होने के कारण प्रार्थना समाज के सम्पर्क में आये और फिर उसके सक्रिय कार्यकर्ता बन गये। 

इस नाते उन्होंने हिन्दू समाज और विशेषकर महाराष्ट्रीय परिवारों में व्याप्त कुरीतियों पर चोट की और समाज सुधार के प्रयास किये। उनका मत था कि स्वतन्त्र होने के बाद देश का सामाजिक रूप से सबल होना भी उतना ही आवश्यक है, जितना आर्थिक रूप से। इसलिए वे समाज सुधार की प्रक्रिया में लगे रहे।

इस काम में उन्हें समाज के अनेक वर्गों का विरोध सहना पड़ा; पर वे विचलित नहीं हुए। उनका मानना था कि सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ने की पहल जो भी करेगा, उसे घर-परिवार तथा समाज के स्थापित लोगों से संघर्ष मोल लेना ही होगा। इसलिए इस प्रकार की मानसिकता बनाकर ही वे इस काम में लगे। इसीलिए आज भी उन्हें याद किया जाता है।
.................................................

18 जनवरी/पुण्य-तिथि

आत्मजागरण के पुरोधा दादा लेखराज

इस जगत् में अपने लिए तो सब ही जीते हैं; पर अमर वही होते हैं, जो निजी जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन को अधिक महत्त्व देते हैं। 1876 में सिन्ध प्रान्त (वर्त्तमान पाकिस्तान) के एक सम्भ्रात परिवार में जन्मे श्री लेखराज ऐसे ही एक महामानव थे, जिन्होंने आगे चलकर ब्रह्मकुमारी नामक एक महान आध्यात्मिक आन्दोलन की स्थापना की। 

लेखराज जी का बचपन से ही अध्यात्म की ओर आकर्षण था। इसलिए लोग इन्हें दादा (बड़ा भाई) कहने लगे। बालपन में ही पिताजी का देहान्त हो जाने से इन्हें छोटी अवस्था में ही कारोबार करना पड़ा। इन्होंने हीरे-जवाहरात का व्यापार किया। मधुर स्वभाव और प्रामाणिकता के कारण इनका व्यापार कुछ ही समय में भारत के साथ विदेशों में भी फैल गया।

पर इसके साथ ही इनके मन में यह चिन्तन भी चलता रहता था कि व्यक्ति को कष्ट क्यों होते हैं तथा वह इन कष्टों और निर्धनता से कैसे मुक्त हो सकता है ? इसके लिए उन्होंने अपने जीवन में 12 गुरुओं का आश्रय लिया; पर इन्हें किसी से आत्मिक सन्तुष्टि नहीं मिली। 60 वर्ष की अवस्था में वाराणसी में अपने एक मित्र के घर पर इन्हें कुछ विशिष्ट आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुईं, जिससे इनके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया।

दादा लेखराज ने देखा कि इस कलियुगी दुनिया का महाविनाश होने वाला है और इसमें से ही एक नयी दुनिया का निर्माण होगा। उन्हें ऐसा लगा मानो उनके तन और मन में ईश्वरीय शक्ति का आगमन हुआ है। उस शक्ति ने दादा को उनके अतीत और आदिकाल के संस्मरण सुनाए। इस परमशक्ति ने उन्हें ही नयी दुनिया के निर्माण के लिए केन्द्र बिन्दु बनने को कहा तथा उनका नाम बदल कर प्रजापिता ब्रह्मा रख दिया। उस शक्ति ने इस काम में नारी शक्ति को आगे रखने का भी आदेश दिया।

अब दादा ने उस परमसत्ता का आदेश मानकर काम शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने ‘ओम मण्डली’ का गठन किया। ईश्वरीय शक्ति ने उनकी सभी उलझनों को मिटा दिया था। नारियाँ स्वभाव से कोमल होती हैं। दादा ने उन्हें भौतिक विद्याओं से दूर हटाकर राजयोग की शिक्षा दी। इससे उनमें छिपी शक्तियाँ उजागर होने लगीं। दादा ने किसी धर्म या पन्थ का विरोध न करते हुए सबको अध्यात्म और सत्य का सरल ज्ञान कराया। इससे आसुरी शक्तियों का शमन होकर दैवी शक्तियों का जागरण हुआ।

दादा की मान्यता थी कि स्व परिवर्तन से ही विश्व में परिवर्तन होगा। जब यह काम प्रारम्भ हुआ, तो दादा को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस संस्था में महिलाएँ अधिक सक्रियता से जुड़ीं, अतः दादा पर अनेक ला॰छन लगाये गये; पर वे इन सबकी चिन्ता न करते हुए अपने काम में लगे रहे। वस्तुतः उन्होंने हीरे जवाहरात के व्यापार के बदले मनुष्यों के अन्दर छिपे गुणों को सामने लाने का महत्वपूर्ण कार्य संभाल लिया था।

1947 में देश विभाजन के बाद दादा ने राजस्थान में आबू पर्वत को अपनी गतिविधियोें का केन्द्र बनाया। यहीं ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय जैसी संस्था का जन्म हुआ। श्वेत वस्त्रधारी बाल ब्रह्मचारी बहिनों को आगे रखकर चलने वाली यह संस्था आज विश्व के 130 देशों में काम कर रही है। 18 जनवरी, 1969 को दादा लेखराज ने अपनी देहलीला समेट ली; पर उनके अनुयायी उनकी दैवी उपस्थिति सब जगह अनुभव करते हैं।
......................................

18 जनवरी/जन्म-दिवस

ममतामयी उषा दीदी

मां का हृदय सदा ही ममता से भरा होता है; पर अपने बच्चों के साथ अन्य बच्चों को भी वैसा ही स्नेह प्रेम देने वाली उषा दीदी का जन्म 18 जनवरी, 1930 में आगरा में अत्यधिक सम्पन्न परिवार में हुआ था। सात भाइयों के बीच इकलौती बहिन होने के कारण उन्हें घर में खूब प्रेम मिला। उनके बड़े भाई श्री अशोक सिंहल ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के अध्यक्ष हैं। श्री अशोक जी की ही तरह उषा जी भी एक सुकंठ गायक थीं।

अशोक जी के कारण घर में संघ के विचारों का भी प्रवेश हुआ, जिसका प्रभाव उषा जी पर भी पड़ा। विवाह के बाद 1964 में गृहस्थ जीवन के दायित्वों के बावजूद मा0 रज्जू भैया के आग्रह पर वे विश्व हिन्दू परिषद के महिला विभाग से सक्रियता से जुड़ गयीं। उन्होंने अपने बच्चों को भी हिन्दुत्व के प्रति प्रेम और समाज सेवा के संस्कार दिये। मुंबई में 1968 में जब मारीशस के छात्रों के लिए संस्कार केन्द्र खोला गया, तो उसकी देखभाल उन्होेंने मां की तरह की। 

कुछ समय बाद वे विश्व हिन्दू परिषद के काम के लिए प्रवास भी करने लगीं। प्रवासी जीवन बहुत कठिन है। वे इसकी अभ्यासी नहीं थीं; पर जिम्मेदारी स्वीकार करने के बाद उन्होंने कष्टों की चिन्ता नहीं की। कभी कार से नीचे पैर न रखने वाली उषा दीदी गली-मोहल्लों में कार्यकर्ताओं से मिलने पैदल और रिक्शा पर भी घूमीं। उ0प्र0, म0प्र0, राजस्थान और दिल्ली में उन्होंने महिला संगठन को मजबूत आधार प्रदान किया। महिलाओं को संगठित करने के लिए बने ‘मातृशक्ति सेवा न्यास’ के गठन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। 

1979 में प्रयागराज में हुए द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मेलन तथा 1987 में आगरा में हिन्दीभाषी क्षेत्र की महिलाओं के अभ्यास वर्ग के लिए उन्होेंने घोर परिश्रम किया। 1989 में प्रयागराज में संगम तट पर आयोजित तृतीय धर्म संसद में श्रीराम शिला पूजन कार्यक्रम की घोषणा हुई थी। उसकी तैयारी के लिए उषा दीदी एक महीने तक प्रयाग में रहीं और कार्यक्रम को सफल बनाया। 1984 में श्रीराम जन्मभूमि पर पहली पुस्तक भी उन्होंने ही लिखी।

1994 में दिल्ली में महिला विभाग का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। उसके लिए धन संग्रह की पूरी जिम्मेदारी उन्होेंने निभाई और 45 लाख रु0 एकत्र किये। ‘साध्वी शक्ति परिषद’ के सहòचंडी यज्ञ की पूरी आर्थिक व्यवस्था भी उन्होंने ही की। उनके समृद्ध मायके और ससुराल पक्ष की पूरे देश में पहचान थी। इस नाते वे जिस धनपति से जो मांगती, वह सहर्ष देता था। इसके साथ ही वे यह भी ध्यान रखती थीं कि धन संग्रह, उसका खर्च तथा हिसाब-किताब संगठन की रीति-नीति के अनुकूल समय से पूरा हो।

उषा दीदी तन, मन और धन से पूरी तरह हिन्दुत्व को समर्पित थीं। संघ के प्रचारकों तथा विश्व हिन्दू परिषद के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को वे मां और बहिन जैसा प्यार और सम्मान देती थीं। संगठन के हर आह्नान और चुनौती को उन्होेंने स्वीकार किया। 1990 और फिर 1992 की कारसेवा के लिए उन्होेंने महिलाओं को तैयार किया और स्वयं भी अयोध्या में उपस्थित रहीं। 

अनुशासनप्रिय उषा दीदी परिषद की प्रत्येक बैठक में उपस्थित रहती थीं। चुनौतीपूर्ण कार्य को स्वीकार कर, उसके लिए योजना निर्माण, प्रवास, परिश्रम, सूझबूझ और समन्वय उनकी कार्यशैली के हिस्से थे। इसलिए संगठन ने उन्हें जो काम दिया, उसे उन्होंने शत-प्रतिशत सफल कर दिखाया। 

40 वर्ष तक परिषद के काम में सक्रिय रही उषा दीदी का  19 नवम्बर, 2010 को दिल्ली में 81 वर्ष की आयु में देहांत हुआ।
....................................

18 जनवरी/जन्म-दिवस

हंसमुख व मिलनसार भंवरसिंह शेखावत

श्री भंवरसिंह शेखावत का जन्म 18 जनवरी, 1923 को ग्राम चिराणा (जिला झुंझनू, राजस्थान) में हुआ था। वे 1944 में स्वयंसेवक और 1946 में प्रचारक बने। वे अपने माता-पिता की अकेली संतान थे। उनके पिताजी पहले जयपुर राज्य की सेना में थे। इसके बाद वे सरकारी सेवा में आ गये। 
उनके प्रचारक बनने से अभिभावकों को बहुत कष्ट हुआ। वे अपनी माताजी से कहते थे कि तुम्हारा एक पुत्र देश की सेवा में गया है, तो तुम्हारी सेवा के लिए भगवान तुम्हें दूसरा पुत्र देगा। और सचमुच उनकी वाणी सत्य हुई। उनके जन्म के 23 वर्ष बाद उनके छोटे भाई गुमान सिंह का जन्म हुआ।

भंवरसिंह जी 1946 से 1959 तक राजस्थान में कई स्थानों पर जिला प्रचारक रहे। इस बीच संघ पर प्रतिबन्ध लगने से सभी कार्यकर्ताओं को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। प्रतिबंध समाप्ति के बाद भी उन समस्याओं का अंत नहीं हुआ; पर भंवरसिंह जी धैर्यपूर्वक कार्यक्षेत्र में डटे रहे। वे 1959 से 76 तक बीकानेर, अजमेर तथा एक बार फिर बीकानेर विभाग प्रचारक रहे। 1976 से 1983 तक उन पर प्रांत व्यवस्था प्रमुख का दायित्व रहा। 

व्यवस्था प्रमुख रहते हुए उनकी देखरेख में जयपुर में प्रांत कार्यालय ‘भारती भवन’ का निर्माण हुआ। जब कन्याकुमारी में श्री एकनाथ जी के नेतृत्व में विवेकानंद शिला स्मारक का निर्माण हुआ, तो राजस्थान में भंवरसिंह जी उस अभियान के संगठन मंत्री रहे। उनके नेतृत्व में पूरे प्रान्त से साढ़े छह लाख रु. एकत्र हुए, जिसमें एक लाख से अधिक का योगदान राजस्थान सरकार का था। इसके लिए बनी समिति में उन्होंने अनेक प्रभावी व प्रतिष्ठित लोगों को जोड़ा। राजस्थान विश्वविद्यालय के उपकुलपति डा0 मथुराप्रसाद शर्मा तथा शिक्षा मंत्री श्री शिवचरण लाल माथुर को उन्होंने समिति का अध्यक्ष बनाया। 

राजस्थान में शेखावटी के व्यापारियों ने देश भर में अपनी कारोबार क्षमता की धाक जमाई है। बिड़ला, डालमिया, सिंघानिया आदि यहीं के मूल निवासी हैं। जब ये सेठ अपने गांव आते थे, तो भंवरसिंह जी उन्हें अपने गांव का विकास करने तथा उनकी आर्थिक सामर्थ्य को देशहित में मोड़ने का प्रयास करते थे। वे उन सेठों की सम्पत्ति की देखभाल करने वालों से भी संपर्क रखते थे।

उन दिनों सेठ बिड़ला द्वारा पिलानी में स्थापित तकनीकी कॉलिज (बिट्स) में पूरे देश से छात्र आते थे। भंवरसिंह जी ने वहां शाखा चलाकर उनमें से कई को प्रचारक बनाया, जो राजस्थान के साथ ही अन्य प्रान्तों में भी गये। उनके समय के कई कार्यकर्ता आगे चलकर सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े प्रसिद्ध हुए। 

शेखावटी क्षेत्र में नाथ सम्प्रदाय के सन्तों का बड़ा प्रभाव है। इनसे वे नियमित संपर्क रखते थे। राजस्थान के अनेक बड़े राजपूत सरदारों को भी उन्होंने संघ से जोड़ा। खाचरियावास के ठाकुर सुरेन्द्र सिंह आगे चलकर प्रांत संघचालक बने। भूस्वामी आंदोलन के नेताओं को भी उन्होंने राष्ट्रीय दृष्टि दी। उनमें से एक ठाकुर मदनसिंह दाता राजस्थान जनसंघ के अध्यक्ष बने। 

श्री भंवरसिंह जी 1984 से 86 तक उदयपुर संभाग प्रचारक रहे; पर इस बीच वे आंत के कैंसर से पीड़ित हो गये। जानकारी मिलने पर उन्होंने हंसते हुए इस रोग का सामना किया। चिकित्सा के सभी प्रयासों के बावजूद 21 अगस्त, 1986 को उन्होंने सदा के लिए सबसे विदा ले ली। 

(संदर्भ : अभिलेखागार, भारती भवन, जयुपर/श्री मोहन जोशी)
..........................................

18 जनवरी/जन्म-दिवस

विद्यार्थी परिषद के शिल्पी बाल आप्टे

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संगठन में रीढ़ की भूमिका निभाने वाले बलवंत परशुराम (बाल) आप्टे का जन्म 18 जनवरी, 1939 को पुणे के पास क्रांतिवीर राजगुरु के जन्म से धन्य होने वाले राजगुरुनगर में हुआ था। 

उनके पिता श्री परशुराम आप्टे एक स्वाधीनता सेनानी तथा समाजसेवी थे। वहां पर ग्राम पंचायत, सहकारी बैंक आदि उनके प्रयास से ही प्रारम्भ हुए। यह गुण उनके पुत्र बलवंत में भी आये। बालपन से ही संघ के स्वयंसेवक रहे बलवंत आप्टे प्रारम्भिक शिक्षा गांव में पूरी कर उच्च शिक्षा के लिए मुंबई आये और एल.एल.एम कर मुंबई के विधि विद्यालय में ही प्राध्यापक हो गये। 

1960 के दशक में विद्यार्थी परिषद से जुड़ने के बाद लगभग 40 वर्ष तक उन्होंने यशवंतराव केलकर के साथ परिषद को दृढ़ संगठनात्मक और वैचारिक आधार दिया। विद्यार्थी परिषद ने न केवल अपने, अपितु संघ परिवार की कई बड़ी संस्थाओं तथा संगठनों के लिए भी कार्यकर्ता तैयार किये हैं। इसमें आप्टे जी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। 

1974 में विद्यार्थी परिषद के रजत जयंती वर्ष में वे राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये। इस समय महंगाई और भ्रष्टाचार के विरुद्ध देश में युवा शक्ति सड़कों पर उतर रही थी। इस आंदोलन को विद्यार्थी परिषद ने राष्ट्रव्यापी बनाया। जयप्रकाश नारायण द्वारा इस आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार करने से यह आंदोलन और अधिक शक्तिशाली हो गया। 

इससे बौखलाकर इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया। आप्टे जी भूमिगत होकर आंदोलन का संचालन करने लगेे। दिसम्बर 1975 में वे पकड़े गये और मीसा नामक काले कानून के अन्तर्गत जेल में ठूंस दिये गये, जहां से फिर 1977 में चुनाव की घोषणा के बाद ही वे बाहर आये। जेल जीवन के कारण उनकी नौकरी छूट गयी। अतः वे वकालत करने लगे। अगले 20 साल तक वे गृहस्थ जीवन, वकालत और विद्यार्थी परिषद के काम में संतुलन बनाकर चलते रहे। उन्होंने संगठन के बारे में केवल भाषण नहीं दिये। वे इसके जीवंत स्वरूप थे। 

उनकी एकमात्र पुत्री चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई पूरी कर दो वर्ष विद्यार्थी परिषद की पूर्णकालिक रही। फिर उसका अन्तरजातीय विवाह परिषद के एक कार्यकर्ता से ही हुआ। इस प्रकार विचार, व्यवहार और परिवार, तीनों स्तर पर वे संगठन से एकरूप हुए।

1996 से 98 तक वे महाराष्ट्र शासन के अतिरिक्त महाधिवक्ता रहे। जब उन्हें भाजपा में जिम्मेदारी देकर राज्यसभा में भेजने की चर्चा चली, तो उन्होंने पहले संघ के वरिष्ठजनों से बात करने को कहा। इसके बाद वे आठ वर्ष तक भाजपा के उपाध्यक्ष तथा 12 वर्ष तक महाराष्ट्र से राज्यसभा के सदस्य रहे। 

सांसदों को अपने क्षेत्र में काम के लिए बड़ी राशि मिलती है। उसकी दलाली का धंधा अनेक सांसद करते हैं। प्रारम्भ में कई लोग आप्टे जी के पास भी इस हेतु से आये; पर निराश होकर लौट गये। लोग अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद वर्षों तक दिल्ली में मिले भवनों में अवैध रूप से डटे रहते हैं; पर आप्टे जी ने कार्यकाल पूरा होने के दूसरे दिन ही मकान छोड़ दिया।

नियमित आसन, प्राणायाम, व्यायाम और ध्यान के बल पर आप्टे जी का स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता था; पर जीवन में अंतिम एक-दो वर्ष में वे अचानक कई रोगों से एक साथ घिर गये, जिसमें श्वांस रोग प्रमुख था। समुचित इलाज के बाद भी 17 जुलाई, 2012 को उनका मुंबई में ही देहांत हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य, आर्गनाइजर, छात्रशक्ति आदि)
.............................

19 जनवरी/प्रेरक प्रसंग

क्रांतिवीर निर्मलकांत राय

देश की स्वाधीनता के लिए गांधी जी के नेतृत्व में जहां हजारों लोग अहिंसक मार्ग से सत्याग्रह कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर क्रांतिवीर हिंसक मार्ग से अंग्रेजों को हटाने के लिए प्रयासरत थे। वे अंग्रेज अधिकारियों के साथ ही उन भारतीय अधिकारियों को भी दंड देते थे, जो अंग्रेजों की चापलूसी कर भारतीयों को प्रताड़ित करने में गौरव का अनुभव करते थे। कोलकाता में तैनात ऐसे ही एक हेड कांस्टेबल हरिपद डे के वध के बाद क्रांतिकारियों ने अब इंस्पेक्टर नृपेन्द्रनाथ घोष को अपने निशाने पर ले लिया। 

नृपेन्द्रनाथ को यह पता लग गया था कि क्रांतिकारी अब उसके पीछे पड़ गये हैं। अतः वह इतना अधिक भयभीत हो गया कि सोते हुए भी कई बार चौंक कर उठ बैठता और चिल्लाने लगता, ‘‘वे मेरा पीछा कर रहे हैं। देखो, वह पिस्तौल तान रहा है, मुझे बचाओ..।’’ अपने कार्यालय में भी वह प्रायः चारों ओर ऐसे देखने लगता मानो किसी को ढूंढ रहा हो। वह दिन-रात अपने साथ एक अंगरक्षक रखने लगा। उसने उत्सवों में भी जाना बंद कर दिया।

क्रांतिकारियों ने इस बारे में एक गुप्त बैठक की। इसमें प्रतुल गांगुली, रवि सेन, निर्मल राय तथा निर्मलकांत राय शामिल हुए। बैठक में यह विचार हुआ कि चूंकि आजकल नृपेन्द्रनाथ बहुत सावधान रहता है, इसलिए कुछ दिन शान्त रहना उचित होगा। कुछ समय बीतने पर जब वह असावधान हो जाएगा, तब उसका शिकार करना ठीक रहेगा। यह भी निर्णय हुआ कि हम सामूहिक रूप से उसका पीछा न करें और जिसे मौका मिले, वह तभी उसका वध कर दे।

निर्णय होने के बाद बैठक समाप्त हो गयी। जैसे-जैसे समय व्यतीत होता गया, नृपेन्द्रनाथ असावधान होने लगा। उसके मन से क्रांतिकारियों का भय भी निकल गया। अब वह पुलिस विभाग की गाड़ी के बदले ट्राम से ही अपने कार्यालय आने-जाने लगा। क्रांतिकारी इसी अवसर की तलाश में थे।

19 जनवरी, 1944 को हर दिन की तरह इंस्पेक्टर नृपेन्द्रनाथ ने अपना काम निबटाया और एलीसियम रोड वाले कार्यालय से निकलकर अपने घर जाने के लिए उसने ट्राम पकड़ ली। ट्राम रात के पौने आठ बजे ग्रे स्ट्रीट और शोभा बाजार के चौराहे पर रुकी। नृपेन्द्रनाथ आराम से उतरकर अपने घर की ओर चल दिया। उस स्थान से कुमारतूली पुलिस स्टेशन निकट ही था।

क्रांतिवीर निर्मलकांत राय उस दिन उसका पीछा कर रहा था। वह अचानक नृपेन्द्रनाथ के सामने कूदा और रिवाल्वर की एक गोली उसके सिर में दाग दी। गोली इतने पास से मारी गयी थी कि वह सिर को फोड़ती हुई बाहर निकल गयी। नृपेन्द्रनाथ चीखकर धरती पर गिर पड़ा; पर निर्मलराय ने तभी एक दूसरी गोली उसके हृदय पर मारी। नृपेन्द्रनाथ की वहीं मृत्यु हो गयी।

शाम के समय बाजार में भीड़ रहती ही है। गोली चलने से और लोग भी आ गये और वहां शोर मच गया। निर्मलकांत ने इसका लाभ उठाकर रिवाल्वर जेब में डाली और शोर मचाने लगा, ‘‘कोई हमारे साहब को बचाओ, हत्यारे का पकड़ो, देखो भागने न पाये..।’’ फिर वह इस शोर और भीड़ में से स्वयं चुपचाप निकल गया। लोग समझे कि वह इंस्पेक्टर साहब का चपरासी है।

पुलिस विभाग में हड़कम्प मच गया। उन्होंने हत्यारे की बहुत तलाश की; पर वह हाथ नहीं आया। आगे चलकर पुलिस ने संदेह में एक निर्दोष युवक को पकड़ा, उसे मारा-पीटा; पर उसे कुछ पता ही नहीं था। उस पर उच्च न्यायालय में मुकदमा भी चलाया गया; पर न्यायालय ने उसे छोड़ दिया।

इस प्रकार क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के एक पिट्ठू को यमलोक पहंुचाकर कोलकाता में अपनी धाक जमा ली। 

(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश)
........................................

20 जनवरी/बलिदान-दिवस

छत्तीसगढ़ के अमर बलिदानी गेंदसिंह

छत्तीसगढ़ राज्य का एक प्रमुख क्षेत्र है बस्तर। अंग्रेजों ने अपनी कुटिल चालों से बस्तर को अपने शिकंजे में जकड़ लिया था। वे बस्तर के वनवासियों का नैतिक, आर्थिक और सामाजिक शोषण कर रहे थे। इससे वनवासी संस्कृति के समाप्त होने का खतरा बढ़ रहा था। अतः बस्तर के जंगल आक्रोश से गरमाने लगे।

उन दिनों परलकोट के जमींदार थे श्री गेंदसिंह। वे पराक्रमी, बुद्धिमान, चतुर और न्यायप्रिय व्यक्ति थे। उनकी इच्छा थी कि उनके क्षेत्र की प्रजा प्रसन्न रहे। उनका किसी प्रकार से शोषण न हो। इसके लिए वे हर सम्भव प्रयास करते थे; पर इस इच्छा में अंग्रेजों के पिट्ठू कुछ जमींदार, व्यापारी और राजकर्मचारी बाधक थे। वे सब उन्हें परेशान करने का प्रयास करते रहते थे।

जब अत्याचारों की पराकाष्ठा होने लगी, तो श्री गंेदसिंह ने 24 दिसम्बर, 1824 को अबूझमाड़ में एक विशाल सभा का आयोजन किया। सभा के बाद गाँव-गाँव में धावड़ा वृक्ष की टहनी भेजकर विद्रोह के लिए तैयार रहने का सन्देश भेजा। 

वृक्ष की टहनी के पीछे यह भाव था कि इस टहनी के पत्ते सूखने से पहले ही सब लोग विद्रोह स्थल पर पहुँच जायें। 4 जनवरी, 1825 को ग्राम, गुफाओं और पर्वत शृंखलाओं से निकल कर वनवासी वीर परलकोट में एकत्र हो गये। सब अपने पारम्परिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस थे।

वीर गेंदसिंह ने सबको अपने-अपने क्षेत्र में विद्रोह करने को प्रेरित किया। इससे थोड़े ही समय में पूरा बस्तर सुलग उठा। सरल और शान्त प्रवृत्ति के वनवासी वीर मरने-मारने को तत्पर हो गये। इस विद्रोह का उद्देश्य बस्तर को अंग्रेजी चंगुल से मुक्त कराना था। 

स्थान-स्थान पर खजाना लूटा जाने लगा। अंग्रेज अधिकारियों तथा राज कर्मचारियों को पकड़कर पीटा और मारा जाने लगा। सरकारी भवनों में आग लगा दी गयी। शोषण करने वाले व्यापारियों के गोदाम लूट लिये गये। कुछ समय के लिए तो ऐसा लगा मानो बस्तर से अंग्रेजी शासन समाप्त हो गया है।

इससे घबराकर अंग्रेज प्रशासक एग्न्यू ने अधिकारियों की एक बैठक में यह चुनौती रखी कि इस विद्रोह को कौन कुचल सकता है ? काफी देर तक बैठक में सन्नाटा पसरा रहा। गेंदसिंह और उनके वीर वनवासियों से भिड़ने का अर्थ मौत को बुलाना था। अतः सब अधिकारी सिर नीचे कर बैठ गये। एग्न्यू ने सबको कायरता के लिए फटकारा। अन्ततः चाँदा के पुलिस अधीक्षक कैप्टन पेबे ने साहस कर इस विद्रोह को दबाने की जिम्मेदारी ली और एक बड़ी सेना लेकर परलकोट की ओर प्रस्थान कर दिया।

वनवासियों और ब्रिटिश सेना के बीच घमासान युद्ध हुआ। एक ओर आग उगलती अंग्रेज सैनिकों की बन्दूकें थीं, तो दूसरी ओर अपने धनुषों से तीरों की वर्षा करते वनवासी। बेचारे वनवासी इन आधुनिक शस्त्रों के सम्मुख कितनी देर टिक सकते थे ? फिर भी संघर्ष जारी रहा। 20 जनवरी, 1825 को इस विद्रोह के नेता और परलकोट के जमींदार गेंदसिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 

अब तो कैप्टन पेबे की खुशी का ठिकाना न रहा; पर वह इतना आतंकित था कि उसने उन्हें बड़े अधिकारियों के सामने प्रस्तुत करने या न्यायालय में ले जाने का जोखिम उठाना भी उचित नहीं समझा। उसने उसी दिन श्री गेंदसिंह को उनके महल के सामने ही फाँसी पर चढ़ा दिया। वीर गेंदसिंह का यह बलिदान छत्तीसगढ़ की ओर से स्वतन्त्रता के लिए होने वाला प्रथम बलिदान था।
...............................

20 जनवरी/पुण्य-तिथि

ईरंकि सुब्रह्मण्यम का असमय अवसान


यों तो जो भी प्राणी इस धरा पर जन्मा है, उसे एक दिन जाना ही होता है; पर भरपूर युवावस्था में यदि कोई चला जाए, तो उसका कष्ट मन को सदा बना रहता है। श्री ईरंकि सुब्रह्मण्यम ऐसे ही प्रचारक थे।

श्री सुब्रह्मण्यम का जन्म आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले में स्थित अमलापरुम् नगर में हुआ था। उनके पिता श्री माधव शास्त्री संघ कार्य में सक्रिय थे। सहकारी बैंक में नौकरी करते हुए वे अनेक वर्ष राजमुंदरी के नगर कार्यवाह रहे। अतः संघ के संस्कार श्री सुब्रह्मण्यम को घर में ही प्राप्त हुए। 

अमलापुरम् से बी.एस-सी. कर वे विशाखापट्टनम् आ गये। इसी बीच उन्होंने द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण भी पूरा कर लिया। 1977 में रसायन शास्त्र में एम.एस-सी. कर उन्होंने प्रचारक के रूप में काम करने का निर्णय लिया। प्रारम्भ में उन्हें अनकापल्ली तथा एलमंचेली तहसीलों का काम दिया गया। अगले ही वर्ष वे वारंगल महानगर प्रचारक बनाये गये। पांच वर्ष यहां काम करने के बाद अगले तीन साल वे पूर्व गोदावरी जिले के प्रचारक रहे। इसके बाद वे गुंटूर जिला और फिर गुंटूर विभाग प्रचारक रहे। 1999 में प्रांत बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी मिलने पर पूरे प्रांत में उनका प्रवास होने लगा।

श्री सुब्रह्मण्यम की शारीरिक और बौद्धिक दोनों विभागों में समान रुचि थे। योगचाप शिक्षण उनका प्रिय विषय था। वे छह वर्ष तक अपने प्रांत में प्रथम वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग में मुख्य शिक्षक रहे। वे आग्रहपूर्वक संस्कृत बोलते, लिखते और सिखाते थे। उन्हें देखकर कई स्वयंसेवकों ने भी संस्कृत का अच्छा अभ्यास कर लिया। बौद्धिक कार्यक्रमों की योजना बनाने में भी वे बहुत निपुण थे।

श्री सोमैया जी 30 वर्ष तक आंध्र के प्रांत प्रचारक रहे। श्री सुब्रह्मण्यम पर उनका सर्वाधिक प्रभाव था। वे नियमपालन में बहुत कठोर थे। व्यवस्थित जीवन तथा व्यवस्थित कार्य उनकी विशेषता थी। शाखा, संख्या तथा कार्यक्रमों का वृत्त देने में वे शत-प्रतिशत सत्य बोलने में विश्वास रखते थे।

9 जनवरी, 2000 को वे विजयवाड़ा में स्कूटर से कहीं जा रहे थे कि सामने आते एक ट्रक से उनकी भीषण टक्कर हो गयी। इससे उनके दोनों टांगें बुरी तरह कुचल गयीं। तुरंत उनको अस्पताल ले जाया गया। वहां उनकी हालत देखकर चिकित्सक भी आश्चर्यचकित रह गये। 

बुरी तरह घायल होने पर भी वे सबसे बातचीत कर रहे थे। उनका मनोबल तब भी बहुत ऊंचा था। वे स्वस्थ होने के बाद प्रान्त में प्रवास की योजना बना रहे थे। साथ ही प्रचारकों को अपने कार्यक्षेत्र में क्या सावधानियां रखनी चाहिए, इसकी चर्चा भी कर रहे थे।

परन्तु धीरे-धीरे उनके शरीर में जहर फैलने लगा। इससे उनके सब अंग बेकार हो जाने का डर था। अतः चिकित्सकों ने उनकी दोनों टांग काटने का निर्णय लिया। वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने दिल पर पत्थर रखकर इसकी अनुमति दे दी। श्री सुब्रह्मण्यम अत्यधिक साहसी थे। उन्होंने पूरी तरह बेहोश होने के बदले केवल निचले हिस्से को सुन्न कर ही यह शल्य क्रिया पूरी कराई।

लेकिन इसके बाद भी उनकी हालत बिगड़ती गयी। अतः उन्हें भाग्यनगर (हैदराबाद) के निजाम आयुर्विज्ञान संस्थान में ले जाने का निर्णय किया गया; पर विधि को कुछ और ही स्वीकार था। 20 जनवरी, 2000 को विजयवाड़ा से भाग्यनगर की ओर जाते हुए मार्ग में ही उनका शरीरांत हो गया। 

स्वर्गीय श्री सुब्रह्मण्यम की स्मृति में शासकीय विद्यालय, अमलापुरम् के अनुसूचित जाति छात्रावास में एक विशाल कक्ष का निर्माण किया गया है।

(संदर्भ : श्री नागेश्वर जी एवं पांचजन्य 13.2.2000)
..................................

21 जनवरी/जन्म-तिथि

संघमय उड़ीसा के मंत्रदाता बाबूराव पालधीकर

आज संघ का काम भारत के हर जिले और तहसील में है। इसकी नींव में वे लोग हैं, जिन्होंने विरोध और अभावों में संघ कार्य की फसल उगाई। उड़ीसा में संघ कार्य के सूत्रधार थे श्री दत्तात्रेय भीकाजी (बाबूराव) पालधीकर।

बाबूराव का जन्म 21 जनवरी, 1921 में ग्राम बेढ़ोेना (वर्धा, महाराष्ट्र) में हुआ था। उनके पिताजी और चाचा जी भी स्वयंसेवक थे, इसलिए वे बालपन में ही डा0 हेडगेवार के सम्पर्क में आ गयेे। दत्तोपंत ठेंगड़ी आर्वी में इनके सहपाठी थे और इन्होंने ही उन्हें स्वयंसेवक बनाया था। मेधावी छात्र होने के साथ ही इनकी साहित्यिक तथा सांस्कृतिक गतिविधियों में भरपूर रुचि थी। 

1940 में बाबूराव ने तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूरा किया। उसी वर्ष नागपुर से बी.ए. कर वे प्रचारक बने और उन्हें फिरोजपुर (पंजाब) में जिला प्रचारक बनाकर भेजा गया। बाबूराव को मराठी, संस्कृत तथा अंग्रेजी आती थीं; पर एक वर्ष में ही उन्होंने हिन्दी, उर्दू तथा पंजाबी भी सीख ली। 1944 में वे विभाग प्रचारक तथा 1947 में सहप्रांत प्रचारक बने। विभाजन के समय हिन्दुओं की रक्षा तथा उन्हें बचाकर लाने में बाबूराव की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही।

1948 मेें गांधी हत्या के आरोप में संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस दौरान उनके पिताजी को गांव में संघ विरोधियों ने खम्भे से बांध कर जलाना चाहा। वे तेल छिड़क चुके थे; पर तभी पुलिस के आने से वे बच गये। प्रतिबंध के बाद 1949 में उन्हें उड़ीसा में प्रांत प्रचारक बनाकर भेजा गया। उड़ीसा में तब केवल चार शाखाएं थीं। उस स्थिति में काम करना एक बड़ी चुनौती थी। उड़ीसा में आज भी घोर निर्धनता है। समुद्र तटीय क्षेत्र में तूफान, चक्रवात आदि से प्रायः तबाही होती रहती है। ऐसे में बाबूराव ने वहां काम खड़ा किया और धीरे-धीरे उड़ीसा में 200 शाखा हो गयीं। वे कार्यकर्ताओं को सदा ‘संघमय उड़ीसा’ बनाने का संकल्प दिलाते रहते थे।

कटक के पास महानदी की सहायक नदी काठजोड़ी बहती है। निराशा के क्षणों में बाबूराव उसके तट पर जा बैठते थे। नदी की उत्ताल तरंगों को देखकर उनकी हताशा दूर हो जाती। शारीरिक विषयों में दंड तथा घोष में शंख के वे लम्बे समय तक शिक्षक रहेे। 

उनका सम्पर्क सब तरह के लोगों से था। उनके प्रयास से कटक के बैरिस्टर नीलकंठ दास ने एक बार नागपुर के विजयादशमी उत्सव में अध्यक्षता की। इसके बाद वे संघ कार्य में बड़े सहायक हुए। श्री हरेकृष्ण महताब से भी उनके निकट संबंध थे, जो आगे चलकर मुख्यमंत्री बने। 

बाबूराव बड़े साहसी तथा प्रत्युत्पन्नमति व्यक्ति थे। पंजाब तथा उड़ीसा में कई बार वे पुलिस के हत्थे चढ़े; पर हर बार बच निकले। विभाजन के बाद बंगाल से आ रहे हिन्दुओं की रेलों पर मुसलमानों द्वारा किये गये पथराव से भड़क कर हिन्दुओं ने उन्हें अच्छा मजा चखाया। राउरकेला में इससे दंगा भड़क उठा। इस कारण बाबूराव को चार माह तक कटक जेल में रहना पड़ा। 1975 के आपातकाल में बाबूराव को पुलिस पकड़ नहीं पायी।

1980 में उन्हें पूर्वी क्षेत्र का प्रचारक बनाया गया। इससे उनके अनुभव का लाभ उड़ीसा के साथ ही बंगाल, असम, सिक्किम तथा अंदमान को भी मिलने लगा। वृद्धावस्था जन्य अनेक रोगों के कारण 1992 में उन्हें दायित्व से विश्राम दे दिया गया और वे कटक कार्यालय पर ही रहने लगे। 

वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से अच्छे समाचार, लेख आदि का ओड़िया में अनुवाद कर ‘राष्ट्रदीप’ साप्ताहिक में प्रकाशनार्थ देते रहते थे। उनकी स्मृति अंत तक बहुत तीव्र थी। 12 अक्तूबर, 2003 को कटक में ही उनका देहांत हुआ।
....................................

21 जनवरी/पुण्य-तिथि

सतत सक्रिय मोती सिंह राठौड़

संघ कार्य को एक बार मन और बुद्धि से स्वीकार करने के बाद आजीवन उसे निभाने वाले कार्यकर्ताओं की एक लम्बी शृंखला है। राजस्थान में श्री मोती सिंह राठौड़ ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे।

मोती सिंह जी का जन्म 40 घरों वाले एक छोटे से ग्राम ठिठावता (जिला सीकर) में चैत्र शुक्ल 13, वि0संवत 1985 (अपै्रल 1928) में हुआ था। यहां के शिक्षाप्रेमी बुजुर्गों ने बच्चों को पढ़ाने के लिए अपनी ओर से दस रु0 मासिक पर एक अध्यापक को नियुक्त किया। उसके भोजन व आवास की व्यवस्था भी गांव में ही कर दी गयी। इस प्रकार गांव में अनौपचारिक शिक्षा एवं विद्यालय की स्थापना हो गयी। आगे चलकर सीकर राजघराने ने विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी ले ली। इससे शैक्षिक वातावरण में और सुधार हुआ।

इसी विद्यालय से कक्षा चार की परीक्षा उत्तीर्ण कर मोती सिंह जी और उनके बड़े भाई सीकर के माधव विद्यालय में भर्ती हो गये। दोनों भाई पढ़ने में तेज थे। अतः उन्हें पांच रु0 मासिक छात्रवृत्ति मिलने लगी तथा वे विद्यालय के छात्रावास में रहने लगे। पढ़ाई के साथ ही वे खेल, नाटक तथा अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भी आगे रहते थे। 

उन्हें कविता लिखने का भी शौक था। कल्याण हाईस्कूल के एक कार्यक्रम में उन्होंने छात्रावास की दुर्दशा पर राजस्थानी बोली में एक कविता सुनाई। इसके लिए उन्हें पुरस्कार तो मिला ही, साथ में छात्रावास की हालत भी सुधर गयी। इंटर करने के बाद वे अध्यापक हो गये तथा क्रमशः एम.एड. तक की शिक्षा पायी।

कक्षा नौ में पढ़ते समय सीकर में वे संघ के सम्पर्क में आये। जयपुर में हाई स्कूल की परीक्षा देते समय वहां पान के दरीबे में लगने वाली शाखा के शारीरिक कार्यक्रमों एवं देशभक्तिपूर्ण गीतों से वे बहुत प्रभावित हुए। 

नवलगढ़ से इंटर करते समय अजमेर से पढ़ने और शाखा का काम करने आये श्री संतोष मेहता के सान्निध्य में रहते हुए संघ से उनके संबंध और प्रगाढ़ हो गये। 1947 में प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग करने केे बाद वे प्रचारक बन गये।

पर जनवरी 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लग गया। संघ की योजना से वे सीकर के ‘श्री हिन्दी विद्या भवन’ में अध्यापक बन गये। वहां रहते हुए उन्होंने सत्याग्रह का सफल संचालन किया। प्रतिबन्ध के बाद 1950 में उन्होंने द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। 1953 में बिसाऊ में सरकारी अध्यापक के नाते उनकी नियुक्ति हो गयी। 

1982 में सेवा निवृत्ति के 30 वर्ष में उन्होंने प्राचार्य से लेकर जिला शिक्षाधिकारी तक अनेक जिम्मेदारियां निभाईं। वे जहां भी रहे, संघ को भी भरपूर समय देते रहे। अध्यापक जीवन में उन्होंने कठोरता व पूर्ण निष्ठा से अपने कर्तव्य का पालन किया। इस कारण कांग्रेस की सत्ता होने पर किसी ने उनकी ओर उंगली नहीं उठाई। 

सेवा निवृत्ति के बाद वे पूरा समय संघ को ही देने लगे। सीकर विभाग कार्यवाह रहते हुए वे इतना प्रवास करते थे कि वरिष्ठ अधिकारियों को वहां प्रचारक देने की आवश्यकता ही नहीं हुई। इसके बाद वे जयपुर प्रांत कार्यवाह और फिर राजस्थान क्षेत्र के कार्यवाह रहे। उनके समय में दूरस्थ क्षेत्रों में भी संघ शाखाओं में वृद्धि हुई। सभी आयु वर्ग के स्वयंसेवकों में वे लोकप्रिय थे। 

आयु संबंधी अनेक समस्याओं के कारण जब उन्हें प्रवास में कठिनाई होने लगी, तो उन्होंने क्षेत्र कार्यवाह के दायित्व से मुक्ति ले ली; पर कार्यकर्ता उन्हें छोड़ना नहीं चाहते थे। अतः सबके आग्रह पर उन्होंने सीकर विभाग संघचालक का दायित्व स्वीकार किया। एक बार वे सीकर संघ कार्यालय में गिर गये। इससे उनके मस्तिष्क में चोट आ गयी। जयपुर के चिकित्सालय में उनका इलाज हो रहा था। 21 जनवरी, 2009 को वहीं उनका देहांत हो गया।

(संदर्भ : पाथेय कण 1.2.2009)
.................................

21 जनवरी/जन्म-दिवस

चलते-फिरते संघकोश ज्योतिस्वरूप जी

श्री ज्योतिस्वरूप जी का जन्म मवाना (जिला मेरठ, उ.प्र.) के पास ग्राम नगला हरेरू में 21 जनवरी, 1922 को हुआ था। सेना की अभियन्त्रण इकाई (एम.ई.एस.) में कार्यरत श्री रामगोपाल कंसल तथा माता श्रीमती इमरती देवी की नौ संतानों में ज्योति जी सबसे बड़े थे। 

पिताजी के साथ बैरकपुर छावनी में रहते हुए वे एक मिशनरी विद्यालय में पढ़ते थे। कक्षा चार में ईसाई अध्यापक ने बताया कि ईश्वर ने सृष्टि निर्माण के चौथे दिन सूरज और चांद बनाये। प्रखर मेधा के धनी बालक ज्योति ने पूछा कि बिना सूरज और चांद के ईश्वर को पता कैसे लगा कि आज चौथा दिन है ? अध्यापक निरुत्तर हो गया। 

आगे चलकर उच्च शिक्षा के लिए जब वे मेरठ आये, तो उनका संघ से सम्पर्क हुआ। मेरठ में रहते हुए वीर सावरकर तथा सुभाष चंद्र बोस जैसे महान नेताओं को देखने और सुनने का भी अवसर मिला। 1940 में रक्षाबंधन वाले दिन बाबासाहब आप्टे की उपस्थिति में उन्होंने संघ की प्रतिज्ञा ग्रहण की।

1943 में स्नातक की पढ़ाई पूर्ण कर वे संघ के प्रचारक बन गये। तब तक उन्होंने तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण भी पूर्ण कर लिया था। प्रारम्भ में उन्होंने एक वर्ष का समय देने का निश्चय किया था। एक वर्ष पूरा होने पर उन्होंने तत्कालीन प्रान्त प्रचारक श्री वसंतराव ओक से वापस जाने के लिए पूछा। श्री ओक ने कहा कि यदि सब वापस चले जाएंगे, तो संघ का काम कौन करेगा ? यह सुनकर ज्योति जी ने वापस जाने का विचार सदा के लिए छोड़ दिया।

सर्वप्रथम उन्हें मेरठ के निकटवर्ती मुजफ्फरनगर जिले का काम दिया गया। इसके बाद उन्हें राजस्थान, जम्मू-कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश में जिला, विभाग प्रचारक आदि जिम्मेदारियां दी गयीं। 1965 में उन्हें दिल्ली कार्यालय पर चमनलाल जी का सहायक और 1975 में पंजाब में प्रान्तीय कार्यालय प्रमुख बनाया गया। 1979 में रज्जू भैया ने उन्हें दिल्ली बुला लिया और फिर अंत तक वे झंडेवाला कार्यालय पर ही रहे। इस दौरान उन पर प्रांत व्यवस्था प्रमुख, कार्यालय प्रमुख, पुस्तकालय व अभिलेखागार जैसे अनेक काम रहे। 

दुबले-पतले ज्योति जी का व्यक्तित्व बहुत साधारण था। इस कारण 1948 तथा 1975 के प्रतिबंध में वे भूमिगत रहकर काम करते रहे। वे प्रायः एक धोती के दो टुकड़े कर उसे ही आधा-आधा कर पहनते थे। बिजली और पानी के अपव्यय से उन्हें बहुत कष्ट होता था। पानी बचाने के लिए वे कई बार स्नान के समय गीले तौलिये से ही शरीर पोंछ लेते थे। कहीं भी बिजली या पंखा व्यर्थ चलता दिखता, तो वे उसे बंद कर देते थे। सफाई के प्रति आग्रह इतना था कि वृद्धावस्था में भी कई बार वे स्वयं झाड़ू उठा लेते थे।

अध्ययन के अनुरागी ज्योति जी पत्र-पत्रिकाओं को ध्यान से पढ़कर उसमें से काम की चीज निकाल कर उसे संभाल कर रखते थे। संघ परिवार के किसी पत्र में यदि कोई बात तथ्य के विपरीत छपी हो, तो वे तुरन्त पत्र लिखकर भूल को ठीक कराते थे। इस प्रकार वे चलते-फिरते संघकोश थे।

कठोर जीवन तथा कम संसाधनों में जीवन यापन करने के अभ्यासी होने के कारण वे दूसरों से भी ऐसे ही व्यवहार की अपेक्षा करते थे। इस कारण उन्हें गुस्सा बहुत जल्दी आता था; पर कपूर की तरह वह उतनी ही जल्दी गायब भी हो जाता था। हृदय एवं मधुमेह रोग से ग्रस्त होने के कारण 90 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 28 मई, 2012 की प्रातः दिल्ली कार्यालय पर ही उनका देहांत हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य 22.10.2006 तथा 10.6.2012)
....................................

22 जनवरी/पुण्य-तिथि

जय-जय श्री रघुवीर समर्थ

हिन्दू पद पादशाही के संस्थापक छत्रपति शिवाजी के गुरु, समर्थ स्वामी रामदास का नाम भारत के साधु-सन्तों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत में तो प्रत्यक्ष हनुमान् जी के अवतार के रूप में उनकी पूजा की जाती है। उनके जन्मस्थान जाम्बगाँव में उनकी मूर्ति मन्दिर में स्थापित की गयी है। 

यद्यपि मूर्ति स्थापना के समय अनेक विद्वानों ने कहा कि मनुष्यों की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा देवताओं के समान नहीं की जा सकती; पर हनुमान् जी के अवतार वाली जन मान्यता के सम्मुख उन्हें झुकना पड़ा।

स्वामी रामदास का जन्म चैत्र शुक्ल 9, विक्रम सम्वत् 1665 (1608 ई0) को दोपहर में हुआ था। यही समय श्रीराम के जन्म का भी है। सूर्याजी पन्त तथा राणूबाई के घर में जन्मे इस बालक का नाम नारायण रखा गया। नारायण बचपन में बहुत शरारती थे। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने हनुमान् जी को अपना गुरु मान लिया। इसके बाद तो उनका अधिकांश समय हनुमान् मन्दिर में पूजा में बीतने लगा। 

एक बार उन्होंने निश्चय किया कि जब तक मुझे हनुमान् जी दर्शन नहीं देंगे, तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। यह संकल्प देखकर हनुमान् जी प्रकट हुए और उन्हें श्रीराम के दर्शन भी कराये। रामचन्द्र जी ने उनका नाम नारायण से बदलकर रामदास कर दिया।

जब घर वाले उनका विवाह करने लगे, तो वे मण्डप से भागकर गोदावरी के पास टाकली गाँव में एक गुफा में रहकर तप करने लगे। भिक्षा से जो सामग्री मिलती, उसी से वे अपना जीवनयापन करते थे। बारह साल तक कठोर तप करने के बाद वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। यात्रा में उन्होंने हिन्दुओं की दुर्दशा तथा उन पर हो रहे मुसलमानों के भीषण अत्याचार देखे। वे समझ गये कि हिन्दुओं के संगठन के बिना भारत का उद्धार नहीं हो सकता।

इस प्रवास में उन्होंने देश भर में 700 मठ बनाये। इनमें श्रीराम और हनुमान् जी की पूजा के साथ ही युवक कुश्ती तथा शस्त्र स॰चालन का अभ्यास करते थे। इस प्रकार उन्होंने युवकों की एक अच्छी टोली खड़ी कर दी। चाफल केन्द्र से वे इनका संचालन करते थे। ‘जय-जय श्री रघुवीर समर्थ’ उनका उद्घोष था। इसी से लोग उन्हें ‘समर्थ स्वामी’ कहने लगे। जब शिवाजी ने आदर्श हिन्दू राज्य स्थापित करने के प्रयास प्रारम्भ किये, तो उन्होंने समर्थ स्वामी को अपना गुरु और मार्गदर्शक बनाया।

समर्थ स्वामी की जीवन यात्रा के अनुभव मुख्यतः ‘दासबोध’ नामक ग्रन्थ में संकलित हैं। ऐसी मान्यता है यह उन्होंने शिवाजी के मार्गदर्शन के लिए लिखा था। उनके शिष्य उनके प्रवचनों को लिखते रहते थे। यह सब अन्य अनेक ग्रन्थों में संकलित हैं। 1680 में शिवाजी के देहान्त के बाद उनके पुत्र शम्भाजी का अनुचित व्यवहार देखकर स्वामी जी को बहुत दुख हुआ। उन्होंने पत्र लिखकर उसे समझाया; पर उसने ध्यान नहीं दिया। 

स्वामी जी को लगा कि जिस काम के लिए प्रभु ने उन्हें शरीर दिया था, वह उसे यथाशक्ति पूरा कर चुके हैं। अतः उन्होंने स्वयं को समेटना शुरू किया। जब अश्रुपूरित शिष्यों ने उनसे पूछा कि आपके बाद हमें मार्गदर्शन कौन देगा, तो उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘दासबोध’ की ओर संकेत किया। माघ कृष्ण 9, विक्रम सम्वत् 1739 (22 जनवरी, 1682 ई0) को राम-नाम लेते हुए समर्थ स्वामी रामदास ने अपना शरीर त्याग दिया।
.................................

22 जनवरी/जन्म-दिवस

क्रांतिकारी नृत्यांगना अजीजन बाई

यों तो नृत्यांगना के पेशे को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता; पर अजीजन बाई ने सिद्ध कर दिया कि यदि दिल में आग हो, तो किसी भी माध्यम से देश-सेवा की जा सकती है। अजीजन का जन्म 22 जनवरी, 1824 को मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र में राजगढ़ नगर में हुआ था। उसके पिता शमशेर सिंह बड़े जागीरदार थे। उसका नाम अंजुला रखा गया। 
एक बार सखियों के साथ हरादेवी मेले में घूमते समय अंग्रेज सिपाहियों ने उसका अपहरण कर लिया। इस दुख में शमशेर सिंह का प्राणान्त हो गया। अंग्रेजों ने उनकी जागीर भी कब्जे में कर ली। कुछ समय तक सिपाही उसके यौवन से खेलते रहे, फिर उसे कानपुर के लाठी मुहाल चकले में 500 रु. में बेच दिया। चकले की मालकिन ने उसका नाम अजीजन बाई रखा। मजबूर अजीजन ने समय के साथ समझौता कर पूरे मनोयोग से गीत-संगीत सीखा। इससे उसकी प्रसिद्धि चहुँ ओर फैल गयी। 
उन दिनों सब ओर 1857 की क्रान्ति की तैयारी हो रही थी। 10 मई, 1857 को मेरठ की घटना का समाचार पाकर अजीजन ने 400 वेश्याओं की ‘मस्तानी टोली’ बनाकर उन्हें अस्त्र-शस्त्र चलाना सिखाकर युद्ध में घायल क्रान्तिकारियों की सेवा में लगा दिया। यह जानकारी नानासाहब, तात्या टोपे आदि तक पहुँची, तो उनके सिर श्रद्धा से नत हो गये।
कहते हैं कि अजीजन बाई तात्या टोपे के प्रति आकर्षित थी; पर जब उसने तात्या का देशप्रेम देखा, तो उसके जीवन की दिशा बदल गयी और वह भी युद्ध के मैदान में उतर गयी। दिन में वह शस्त्र चलाना सीखती और रात में अंग्रेज छावनियों में जाकर उनका दिल बहलाती; पर इसी दौरान वह कई ऐसे रहस्य भी ले आती थी, जो क्रान्तिकारियों के लिए सहायक होते थे। 
अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किये जा रहे अत्याचारों को देखकर उसका खून खौल उठता था। 15 जुलाई को कानपुर के बीबीघर में अंग्रेज स्त्री एवं बच्चों को मारकर एक कुएँ में भर दिया गया। अजीजन ने भी इसमें प्रमुख भूमिका निभायी। एक बार महाराजपुर के युद्ध में वह तात्या टोपे के साथ थी और उसने उनकी जान भी बचाई। जब 1857 के युद्ध में पराजित होकर सब प्रमुख सेनानी भूमिगत हो गये, तो अजीजन भी जंगल में जा छिपी।
भूमिगत अवस्था में एक बार अजीजन पुरुष वेश में कुएँ के पास छिपी थी, तभी छह अंग्रेज सैनिक उधर आये। अजीजन ने अपनी पिस्तौल से चार को धराशाई कर दिया। शेष दो छिपकर अजीजन के पीछे आ गये और उसे पकड़ लिया। इस संघर्ष में अजीजन के हाथ से पिस्तौल गिर गयी और उसके बाल खुल गये। एक सैनिक ने उसे पहचान लिया। वह उसे मारना चाहता था; पर दूसरे ने उसे कमांडर के सामने प्रस्तुत करने का निर्णय लिया।
जाने से पहले जब वे कुएँ से पानी पी रहे थे, तो अजीजन ने गिरने का अभिनय किया। वह उधर गिरी, जिधर उसकी पिस्तौल पड़ी थी। पिस्तौल उठाकर शेष दो गोलियों से उसने उन दोनों का भी काम तमाम कर दिया। तब तक गोली की आवाज सुनकर कुछ और सैनिक आ गये और उन्होंने अजीजन को पकड़ लिया। उसे कर्नल हैवलाक के सामने प्रस्तुत किया गया, जिसने तोप के मुँह पर बाँधकर उस क्रान्तिकारी नृत्यांगना को मौत के घाट उतार दिया।
................................

22 जनवरी/प्रेरणा दिवस

पहला विश्व हिन्दू सम्मेलन

हिन्दू धर्म का स्वरूप बहुत विराट है। इसके अन्तर्गत सैकड़ों पंथ, मत, संप्रदाय आदि आते हैं। दुनिया के प्रायः सभी देशों में हिन्दू रहते हैं। उनमें समन्वय बनाने तथा उन्हें संगठित करने के लिए विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना 29 जनवरी, 1964 को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ पर्व पर मुंबई में हुई थी। संगठन की स्थापना के बाद पहला विश्व हिन्दू सम्मेलन प्रयागराज में महाकुंभ के शुभ अवसर पर करने का निर्णय हुआ। यह सम्मेलन 22 जनवरी, 1966 को शुरू होकर 24 जनवरी को सम्पन्न हुआ।

ऐसे सम्मेलन पहले भी होते थे, जिनमें देश, धर्म और समाज संबंधी विषयों पर मंथन होता था। इनमें आते और फिर वापस जाते समय साधु संतों का लाखों गांव और करोड़ों लोगों से संपर्क होता था। इस प्रकार थोड़े ही समय में वे विचार सर्वत्र फैल जाते थे; पर विदेशी और विधर्मी हमलावरों के काल में इन सम्मेलनों का स्वरूप बहुत छोटा हो गया। इसी परम्परा को फिर से स्थापित करने के लिए यह आयोजन किया गया था। प्रयागराज में ऐसा अंतिम सम्मेलन लगभग 1,400 वर्ष पूर्व सम्राट हर्षवर्धन के काल में हुआ था।

इस सम्मेलन में चारों प्रमुख शंकराचार्यों के साथ ही सभी प्रमुख पंथ और संप्रदायों के धर्माचार्य आये। समाज जीवन के अनेक प्रमुख लोगों ने विभिन्न सत्रों में अपने विचार रखे। इनमें उ.प्र. के राज्यपाल विश्वनाथ दास, बिहार के राज्यपाल अनंत शयनम अयंगर, बंगाल के राज्यपाल डा. कैलाशनाथ काटजू, बंगाल उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश रमाप्रसाद मुकर्जी, नेपाल के प्रधानमंत्री तुलसीगिरि, एफ.सी.सोंधी (लंदन), आचार्य रामनरेश (फिजी), भिक्षु शासन रश्मि एवं भिक्षु यू.महेन्द्र (नेपाल), संत तुकड़ो जी महाराज, स्वामी चिन्मयानंद, स्वामी विश्वेशतीर्थ आदि के नाम उल्लेखीय हैं।

सम्मेलन की सफलता के लिए भारत के राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन, नेपाल नरेश तथा तिब्बत के धर्मगुरु एवं राजप्रमुख दलाई लामा ने लिखित संदेश भेजे, जो वहां पढ़े गये। आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, पोलैंड, स्विटजरलैंड, फिनलैंड, जापान, दक्षिण पूर्व एशियायी देशों के विद्वानों ने भी शुभकामना संदेश भेजे। उद्घाटन सत्र में अनेक सम्प्रदायों के धर्मगुरुओं ने अपनी परम्परा से पूजा एवं प्रार्थना की। वैदिक विद्वानों ने चारों वेदों के सूक्तों का पाठ किया। विहिप के मुखपत्र हिन्दू विश्वके विशेषांक का लोकार्पण भी किया गया।

भारत के सभी राज्यों के साथ ही दक्षिण पूर्व एशिया के देश एवं द्वीप, अफ्रीका, अदन, श्रीलंका, माॅरीशस, त्रिनीदाद, फिजी, इंग्लैंड, अमरीका, थाइलैंड आदि से भी प्रतिनिधि आये थे। शामियाने, टैंट, पटकुटी आदि से बने नगरों में 12,000 प्रतिनिधि रहते थे। हर सत्र में 25,000 तक लोग शामिल होते थे। खुले अधिवेशन में यह संख्या 75,000 तक पहुंच जाती थी।

सम्मेलन के पहले दिन विश्व हिन्दू परिषद के महासचिव दादासाहब आप्टे ने स्थापना के बाद गत दो साल की गतिविधियों की जानकारी सबको दी। विभिन्न सत्रों में हिन्दुओं के लिए एक नयी और युगानुकूल आचार संहिता की बात कही गयी। इस्लाम एवं ईसाइयों द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण एवं गोहत्या पर चर्चा हुई। मंदिरों के उद्धार एवं संस्कृत के उत्थान पर सबने सहमति दी। तीन दिन में कुल 11 प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किये गये।

सम्मेलन के लिए विश्व हिन्दू परिषद के महासचिव दादासाहब आप्टे ने अथक परिश्रम किया। संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी तो इस सम्मेलन की आत्मा ही थे। कई बार बड़े संतों में बहस हो जाती थी, ऐसे में वे अपनी विनम्रता और विद्वत्ता से सबको शांत कर सर्वसहमति बनाते थे। इस सम्मेलन से जहां भारत के हिन्दुओं में नवचेतना जाग्रत हुई, वहां यह पूरी दुनिया के हिन्दुओं को सार्थक संदेश देेने में भी सफल सिद्ध हुआ।

(वि.हि.प की 42 वर्षीय विकास यात्रा/35, रघुनदंन प्रसाद शर्मा)

----------------------------------------------------------------

23 जनवरी/जन्म-तिथि

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस

स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिनों में जिनकी एक पुकार पर हजारों महिलाओं ने अपने कीमती गहने अर्पित कर दिये, जिनके आह्नान पर हजारों युवक और युवतियाँ आजाद हिन्द फौज में भर्ती हो गये, उन नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म उड़ीसा की राजधानी कटक के एक मध्यमवर्गीय परिवार में 23 जनवरी, 1897 को हुआ था।

सुभाष के अंग्रेजभक्त पिता रायबहादुर जानकीनाथ चाहते थे कि वह अंग्रेजी आचार-विचार और शिक्षा को अपनाएँ। विदेश में जाकर पढ़ें तथा आई.सी.एस. बनकर अपने कुल का नाम रोशन करें; पर सुभाष की माता श्रीमती प्रभावती हिन्दुत्व और देश से प्रेम करने वाली महिला थीं। वे उन्हें 1857 के संग्राम तथा विवेकानन्द जैसे महापुरुषों की कहानियाँ सुनाती थीं। इससे सुभाष के मन में भी देश के लिए कुछ करने की भावना प्रबल हो उठी।

सुभाष ने कटक और कोलकाता से विभिन्न परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। फिर पिताजी के आग्रह पर वे आई.सी.एस की पढ़ाई करने के लिए इंग्लैंड चले गये। अपनी योग्यता और परिश्रम से उन्होंने लिखित परीक्षा में पूरे विश्वविद्यालय में चतुर्थ स्थान प्राप्त किया; पर उनके मन में ब्रिटिश शासन की सेवा करने की इच्छा नहीं थी। वे अध्यापक या पत्रकार बनना चाहते थे। बंगाल के स्वतन्त्रता सेनानी देशबन्धु चितरंजन दास से उनका पत्र-व्यवहार होता रहता था। उनके आग्रह पर वे भारत आकर कांग्रेस में शामिल हो गये।

कांग्रेस में उन दिनों गांधी जी और नेहरू की तूती बोल रही थी। उनके निर्देश पर सुभाष बाबू ने अनेक आन्दोलनों में भाग लिया और 12 बार जेल-यात्रा की। 1938 में गुजरात के हरिपुरा में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये; पर फिर उनके गांधी जी से कुछ मतभेद हो गये। गांधी जी चाहते थे कि प्रेम और अहिंसा से आजादी का आन्दोलन चलाया जाये; पर सुभाष बाबू उग्र साधनों को अपनाना चाहते थे। कांग्रेस के अधिकांश लोग सुभाष बाबू का समर्थन करते थे। युवक वर्ग तो उनका दीवाना ही था।

सुभाष बाबू ने अगले साल मध्य प्रदेश के त्रिपुरी में हुए अधिवेशन में फिर से अध्यक्ष बनना चाहा; पर गांधी जी ने पट्टाभि सीतारमैया को खड़ा कर दिया। सुभाष बाबू भारी बहुमत से चुनाव जीत गये। इससे गांधी जी के दिल को बहुत चोट लगी। आगे चलकर सुभाष बाबू ने जो भी कार्यक्रम हाथ में लेना चाहा, गांधी जी और नेहरू के गुट ने उसमें सहयोग नहीं दिया। इससे खिन्न होकर सुभाष बाबू ने अध्यक्ष पद के साथ ही कांग्रेस भी छोड़ दी। 

अब उन्होंने ‘फारवर्ड ब्लाक’ की स्थापना की। कुछ ही समय में कांग्रेस की चमक इसके आगे फीकी पड़ गयी। इस पर अंग्रेज शासन ने सुभाष बाबू को पहले जेल में और फिर घर में नजरबन्द कर दिया; पर सुभाष बाबू वहाँ से निकल भागे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। सुभाष बाबू ने अंग्रेजों के विरोधी देशों के सहयोग से भारत की स्वतन्त्रता का प्रयास किया। उन्होंने आजाद हिन्द फौज के सेनापति पद से जय हिन्द, चलो दिल्ली तथा तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा का नारा दिया; पर दुर्भाग्य से उनका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया।

सुभाष बाबू का अन्त कैसे, कब और कहाँ हुआ, यह रहस्य ही है। कहा जाता है कि 18 अगस्त, 1945 को जापान में हुई एक विमान दुर्घटना में उनका देहान्त हो गया। यद्यपि अधिकांश तथ्य इसे झूठ सिद्ध करते हैं; पर उनकी मृत्यु के रहस्य से पूरा पर्दा उठना अभी बाकी है।
....................................

23 जनवरी/बलिदान-दिवस

सिन्ध का क्रांतिवीर हेमू कालाणी 

अंग्रेजों के शासनकाल में भारत का कोई प्रान्त सुरक्षित नहीं था। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम सब ओर उनके अत्याचारों से लोग त्रस्त थे; पर जेल और फाँसी के भय से उनके विरुद्ध खड़े होने का साहस कम ही लोग दिखा पाते थे। ऐसे ही एक क्रान्तिवीर थे हेमू कालाणी, जिनका जन्म अविभाजित भारत के सिन्ध प्रान्त के सक्खर नगर में 11 मार्च, 1924 को हुआ था।

जहाँ एक ओर शासन के अत्याचार चरम पर थे, तो दूसरी ओर गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसक सत्याग्रह आन्दोलन भी चल रहा था। सत्याग्रहियों पर अंग्रेज पुलिस डण्डे बरसाती और गोली चलाती थी। फिर भी वे शान्त रहते थे। शासन से असहयोग और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार ही इनका एकमात्र शस्त्र था। वन्दे मातरम् और भारत माता की जय उनका प्रमुख नारा था।

दूसरी ओर एक धारा क्रान्तिकारियों की थी, जो शस्त्रों के बल पर अंग्रेजों को जबरन अपनी मातृभूमि से खदेड़ना चाहते थे। उनकी मान्यता थी कि हथियारों के बल पर राज करने वालों को हथियारों की ताकत से ही भगाया जा सकता है। यों तो पूरे देश में इस विचार को मानने वाले युवक थे; पर बंगाल और पंजाब इनके गढ़ थे। हेमू भी इसी विचार का समर्थक था। इन वीर क्रान्तिकारियों की कहानियाँ वह अपने मित्रों को सुनाता रहता था।

एक बार हेमू को पता लगा कि गोरे सैनिकों की एक पल्टन विशेष रेल से सक्खर की ओर से गुजरने वाली है। यह पल्टन ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के सत्याग्रहियों के दमन के लिए भेजी जा रही थी। हर दिन ऐसे समाचार प्रकाशित होते ही थे। हेमू गांधीवादी सत्याग्रह में विश्वास नहीं रखते थे। 

उनसे यह नहीं सहा गया कि विदेशी सैनिक भारतीयों पर अत्याचार करें।
उन्होंने अपने कुछ मित्रों को एकत्र किया। उन्होंने सोचा कि यदि हम रेल की पटरियाँ उखाड़ दें, तो रेल दुर्घटनाग्रस्त हो जाएगी। सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे जायेंगे और अपने देशवासियों की रक्षा होगी। 

इस योजना को सुनकर कुछ साथी डर गये; पर नन्द और किशन नामक दो युवक तैयार हो गये। तीनों हथौड़े, गंेती, सब्बल आदि लेकर सक्खर की बिस्कुट फैक्ट्री के पास एकत्र हुए। रेल लाइन उसके पास में ही थी।

उस समय चाँदनी रात थी। तीनों युवक तेजी से अपने काम में जुट गये। वे मस्ती में गीत गाते हुए निर्भयतापूर्वक अपने काम में लगे थे; पर दूसरी ओर प्रशासन भी सावधान था। उसने उस रेलगाड़ी की सुरक्षा के लिए विशेष रूप से कुछ सिपाही तैनात कर रखे थे। उन सिपाहियों ने जब कुछ आवाज सुनी, तो वे दौड़ पड़े और तीनों को पटरी उखाड़ते हुए रंगे हाथ पकड़ लिया।

न्यायालय में उन पर मुकदमा चलाया गया। हेमू तो आत्मबलिदान के लिए तत्पर ही थे। उन्होंने अपने दोनों साथियों को बचाने के लिए इस कांड की पूरी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। न्यायालय ने उसे फाँसी की सजा सुनायी। 23 जनवरी, 1943 को 19 वर्ष की सुकुमार अवस्था में यह क्रान्तिकारी हँसते हुए फाँसी पर चढ़ गया। उस समय उनके चेहरे का तेज देखते ही बनता था।

हेमू कालाणी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। वह आजादी के दीवानों के लिए चिंगारी बन गये। सिन्ध के घर-घर में उसकी कथाएँ कही जाने लगीं। आज तो सिन्ध प्रान्त भारत में ही नहीं है; पर वहाँ से भारत आये लोग हेमू का स्मरण सदा करते हैं।

(संदर्भ : स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश - रविचंद्र गुप्ता)

(कई जगह जन्म 23.3.1923 तथा फांसी 21.1.1943 लिखा है।)

2 टिप्‍पणियां:

  1. हेमू कालानी का जन्म दिवस 23 मार्च है तथा बलिदान दिवस 21 जनवरी ।संशोधन की अवह्य्कता

    जवाब देंहटाएं
  2. 🙏 २३ जनवरी डॉक्टर राममनोहर लोहिया जी के जन्मदिवस को भी सम्मिलित करें, धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं