जनवरी दूसरा सप्ताह


9 जनवरी/जन्म-दिवस

सरलचित्त प्रचारक तिलकराज कपूर

श्री तिलकराज कपूर का नाम सुनते ही सरलचित्त व्यक्ति का चित्र आँखों में उभर आता है। कन्धे पर कपड़ों और पुस्तकों से भरा झोला। हाथ में अंग्रेजी के समाचारपत्र। किसी हल्के रंग की कमीज, सफेद ढीला पाजामा और टायर सोल की चप्पल। बस ऐसे ही व्यक्तित्व का नाम था तिलकराज कपूर।

9 जनवरी, 1925 को जालन्धर में एक समृद्ध घर में जन्मे तिलक जी 1945 में एम.ए, एल.एल.बी. कर प्रचारक बने। परीक्षा में उनके प्रायः 90 प्रतिशत से अधिक अंक आते थे। एल.एल.बी. में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान पाया था; वे चाहते तो सर्वोच्च न्यायालय में वकील बन सकते थे; पर वे सुख-वैभव को ठुकराकर संघ के जीवनव्रती प्रचारक बन गये। 

1945 में उनकी नियुक्ति उ.प्र. के मुजफ्फरनगर में हुई। 1948 में प्रतिबन्ध के समय वहीं उन्होंने सत्याग्रह किया। 1971 से 1977 तक भी वे मुजफ्फरनगर के ही जिला प्रचारक थे। आपातकाल लगने पर पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और अनेक यातनाएँ दीं। होश में आने पर उन्होंने स्वयं को जेल में पाया; पर मीसा नहीं लगा होने के कारण वे कुछ माह बाद ही छूट गये। पुलिस उन्हें फिर बन्द करना चाहती थी; पर जेल से निकलते ही कार्यकर्ता उन्हें कार में बैठाकर जिले से बाहर ले गये। पुलिस हाथ मलती रह गयी। 

संघ के अनेक दायित्व निभाने के बाद 1980 में उन्हें वनवासी कल्याण आश्रम का पश्चिमी उत्तर प्रदेश का संगठन मन्त्री बनाया गया। यहाँ वनवासी क्षेत्र और सेवा प्रकल्प तो थे नहीं; पर तिलक जी ने लाखों रुपये प्रतिवर्ष एकत्र कर झारखण्ड, उड़ीसा, असम, छत्तीसगढ़ आदि के वनवासी केन्द्रों को भेजे। 

तिलक जी पत्र-व्यवहार बहुत करते थे। सुबह चार बजे उठकर एक-डेढ़ घंटे पत्र लिखना उनका नियम था। इससे ही वे सबसे सम्बन्ध बनाकर रखते थे। वनवासी क्षेत्र की हिन्दू गतिविधियों तथा खतरनाक ईसाई षड्यन्त्रों के समाचार वे सबके पास भेजते थे। फिर उन्हें दीपावली एवं वर्ष प्रतिपदा पर अभिनन्दन पत्र भी भेजते थे। यही लोग उन्हें सेवा कार्यों के लिए धन देते थे।

तिलक जी का दूसरा शौक था पुस्तक पढ़ना और पढ़वाना। उनके बड़े थैले में एक-दो पुस्तकें सदा रहती थीं। वे हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और पंजाबी के अच्छे ज्ञाता थे। जहाँ भी वे रहे, वहाँ बुद्धिजीवी वर्ग से इसी माध्यम से उन्होंने सम्बन्ध बनाये। फिर इसके बाद वे उन्हें संघ के काम में भी जोड़ लेते थे।

प्रचारक को स्वयं पर कम से कम खर्च करना चाहिए, इस सोच के चलते उन्होंने आँखें कमजोर होने पर भी लम्बे समय तक चश्मा नहीं बनवाया। इससे उनकी एक आँख बेकार हो गयी। वे हँसी में कहते थे कि अब मैं राजा रणजीत सिंह बन गया हूँ। इसके बाद भी उनका पढ़ने और लिखने का क्रम चालू रहा।

तिलक जी की नियमित दिनचर्या की दूर-दूर तक चर्चा होती थी। सुबह चार बजे गिलास भर कड़क चाय पीकर निवृत्त होना। फिर पत्र-व्यवहार और प्रभात शाखा के लिए जागरण। प्रातः का अल्पाहार वे नहीं करते थे। दोपहर को भोजन करते ही एक-डेढ़ घंटे सोना भी उनकी आदत थी। उठकर फिर गिलास भर चाय पीकर लोगों से मिलने जाना। यदि किसी व्यस्तता के कारण विश्राम सम्भव न हो, तो वे दोपहर को भोजन ही नहीं करते थे। इस नियमितता के कारण उन्हंे बीमार पड़ते कम ही देखा गया था।

दिल्ली में उनके परिजन शासन-प्रशासन में बहुत ऊंचे पदों पर रहे; पर वे उन्होंने कभी किसी से इसकी चर्चा नहीं की। सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति तिलक जी सक्रिय जीवन बिताते हुए रुद्रपुर (जिला ऊधमसिंह नगर, उत्तराखंड) में सात अक्तूबर, 2007 को अनन्त की यात्रा पर चले गये।
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9 जनवरी/जन्म-दिवस

देशभक्तिपूर्ण गीतों के गायक महेन्द्र कपूर

फिल्म जगत में देशभक्तिपूर्ण गीतों की बात चलने पर महेन्द्र कपूर का धीर-गंभीर स्वर ध्यान में आता है। यों तो उन्होंने लगभग सभी रंग के गीत गाये; पर उन्हें प्रसिद्धि देशप्रेम और धार्मिक गीतों से ही मिली।

महेन्द्र कपूर का जन्म नौ जनवरी, 1934 को अमृतसर में हुआ था। जब वे एक महीने के थे, तब उनके पिता मुंबई आकर कपड़े का कारोबार करने लगे थे। महेन्द्र कपूर घर और विद्यालय में प्रायः गाते रहते थे। 

1953 में उन्हें पहली बार ‘मदमस्त’ नामक फिल्म में गाने का अवसर मिला। इससे उनकी पहचान बनने लगी। एक बार उन्हें एक गायन प्रतियोगिता में भाग लेने का अवसर मिला। उसमें नौशाद जैसे दिग्गज संगीतकार निर्णायक थे। महेन्द्र कपूर ने अपनी प्रतिभा के बल पर वहां प्रथम स्थान पाया। नौशाद ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी एक फिल्म में गाने का अवसर दे दिया।

इसके बाद फिर महेन्द्र कपूर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन दिनों मोहम्मद रफी, तलत महमूद, सी.एच.आत्मा, हेमंत कुमार, मुकेश, किशोर कुमार जैसे बड़े गायकों से ही सब निर्माता अपनी फिल्म में गीत गवाना चाहते थे। नया गायक होने के कारण उनके बीच में स्थान बनाना आसान नहीं था; पर महेन्द्र कपूर ने अपनी साधना और लगन से यह सफलता प्राप्त की। 

प्रसिद्ध गायक मोहम्मद रफी भी मूलतः पंजाब के ही थे। दस वर्ष की अवस्था में महेन्द्र कपूर ने उन्हें गाते हुए सुना था। तब से वे उन्हें अपना गुरु मानने लगे थे। गायकी में सफलता मिलने के बाद भी वे पंडित हुस्नलाल, भगतराम, पंडित जगन्नाथ बुआ, नियाज अहमद खां, अब्दुल रहमान खां, अफजल हुसैन खान, पंडित तुलसीदास शर्मा, नौशाद, सी.रामचंद्र जैसे वरिष्ठ संगीतकारों से लगातार सीखते हुए अपनी कला को परिमार्जित करते रहे। 

निर्माता, निर्देशक और अभिनेता मनोज कुमार के साथ उनकी गहरी मित्रता थी। 1968 में मनोज कुमार ने जब ‘उपकार’ फिल्म बनाई, तो महेन्द्र कपूर का गाया गीत ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ घर-घर में प्रसिद्ध हो गया। 

इसी प्रकार ‘शहीद’ फिल्म का गीत ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ तथा ‘पूरब और पश्चिम’ के गीत ‘है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूं; भारत का रहने वाला हूं, भारत की बात सुनाता हूं’ आदि से उनकी पहचान देशभक्ति के गीत गाने वाले गायक के रूप में हो गयी।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी महेन्द्र कपूर ने मराठी फिल्मों में भी गीत गाये। उन्होंने के.सी.बोकाड़िया की फिल्म ‘मैदान ए जंग’ के लिए भप्पी लहरी के निर्देशन में एक ही दिन (सात सितम्बर, 1993) को सात गीत रिकार्ड कराये। फिल्म जगत का यह अद्भुत कीर्तिमान है। दूरदर्शन के लोकप्रिय धारावाहिक महाभारत का शीर्षक गीत (अथ श्री महाभारत कथा) भी उन्होंने ही गाया था।

अपने जीवन के सांध्यकाल में उनका आकर्षण भक्ति गीतों की ओर हो गया। फिल्मी गीतों में जैसा छिछोरापन आ रहा था, वे उसे अपने स्वभाव के अनुकूल भी नहीं पाते थे। अपने गायन के लिए उन्हें पद्मश्री तथा अन्य अनेक मान-सम्मान मिले। 27 सितम्बर, 2008 को देश की धरती को सर्वस्व मानने वाले महेन्द्र कपूर सदा के लिए धरती की गोद में सो गये।

(संदर्भ : जनसत्ता 12.10.2008, अमर उजाला, विकीपीडिया)
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10 जनवरी/पुण्य-तिथि

साहसी न्यायाधीश डा. राधाविनोद पाल

अनेक भारतीय ऐसे हैं जिन्हें विदेशों में तो सम्मान मिलता है; पर अपने देशवासी उन्हें प्रायः स्मरण नहीं करते। डा. राधाविनोद पाल वैश्विक ख्याति के ऐसे ही विधिवेत्ता तथा न्यायाधीश थे, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान के विरुद्ध चलाये गये अन्तरराष्ट्रीय मुकदमे में मित्र राष्ट्रों के विरुद्ध निर्णय देने का साहस किया था, जबकि उस समय विजयी होने के कारण मित्र राष्ट्रों का दुःसाहस बहुत बढ़ा हुआ था।

मित्र राष्ट्र अर्थात अमरीका, ब्रिटेन, फ्रान्स आदि देश जापान को दण्ड देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने युद्ध की समाप्ति के बाद ‘क्लास ए वार क्राइम्स’ नामक एक नया कानून बनाया, जिसके अन्तर्गत आक्रमण करने वाले को मानवता तथा शान्ति के विरुद्ध अपराधी माना गया था। 

इसके आधार पर जापान के तत्कालीन प्रधानमन्त्री हिदेकी तोजो तथा दो दर्जन अन्य नेता व सैनिक अधिकारियों को युद्ध अपराधी बनाकर कटघरे में खड़ा कर दिया। 11 विजेता देशों द्वारा 1946 में निर्मित इस अन्तरराष्ट्रीय न्यायाधिकरण (इण्टरनेशनल मिलट्री ट्रिब्यूनल फार दि ईस्ट) में डा. राधाविनोद पाल को ब्रिटिश सरकार ने भारत का प्रतिनिधि बनाया था। 

इस मुकदमे में दस न्यायाधीशों ने तोजो को मृत्युदण्ड दिया; पर डा. राधाविनोद पाल ने न केवल इसका विरोध किया, बल्कि इस न्यायाधिकरण को ही अवैध बताया। इसलिए जापान में आज भी उन्हें एक महान् व्यक्ति की तरह सम्मान दिया जाता है। 

द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान के लगभग 20 लाख सैनिक तथा नागरिक मारे गये थे। राजधानी टोक्यो में उनका स्मारक बना है। इसे जापान के लोग मन्दिर की तरह पूजते हैं। यासुकूनी नामक इस समाधि स्थल पर डा. राधाविनोद का स्मारक भी बना है। 

जापान के सर्वोच्च धर्मपुरोहित नानबू तोशियाकी ने डा. राधाविनोद की प्रशस्ति में लिखा है कि - हम यहाँ डा. पाल के जोश और साहस का सम्मान करते हैं, जिन्होंने वैधानिक व्यवस्था और ऐतिहासिक औचित्य की रक्षा की। हम इस स्मारक में उनके महान कृत्यों को अंकित करते हैं, जिससे उनके सत्कार्यों को सदा के लिए जापान की जनता के लिए धरोहर बना सकें। आज जब मित्र राष्ट्रों की बदला लेने की तीव्र लालसा और ऐतिहासिक पूर्वाग्रह ठण्डे हो रहे हैं, सभ्य संसार में डा0 राधाविनोद पाल के निर्णय को सामान्य रूप से अन्तरराष्ट्रीय कानून का आधार मान लिया गया है।

डा. पाल का जन्म 27 जनवरी, 1886 को हुआ था। कोलकाता के प्रेसिडेन्सी कॉलिज तथा कोलकाता विश्वविद्यालय से कानून की शिक्षा पूर्ण कर वे इसी विश्वविद्यालय में 1923 से 1936 तक अध्यापक रहे। 1941 में उन्हें कोलकाता उच्च न्यायालय में न्यायाधीश नियुक्त किया गया। वह तत्कालीन अंग्रेज शासन के सलाहकार भी रहे। 

यद्यपि उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय कानून का औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था, फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब जापान के विरुद्ध ‘टोक्यो ट्रायल्ज’ नामक मुकदमा शुरू किया गया, तो उन्हें इसमें न्यायाधीश बनाया गया।

डा. पाल ने अपने निर्णय में लिखा कि किसी घटना के घटित होने के बाद उसके बारे में कानून बनाना नितान्त अनुचित है। उनके इस निर्णय की सभी ने सराहना की। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में डा. पाल ने निर्धनता के कारण अत्यन्त कष्ट भोगते हुए 10 जनवरी, 1967 को यह संसार छोड़ दिया।
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10 जनवरी/जन्म-दिवस

शतायु प्रचारक धनप्रकाश त्यागी 

सौ साल का जीवन सबको नहीं मिलता। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक के लिए तो यह और भी कठिन है। जब तक वह प्रत्यक्ष कार्य में रहता है, तब तक लगातार प्रवास के कारण उसकी दिनचर्या और खानपान काफी अनियमित रहता है। जवानी की भागदौड़ में तो इसका पता नहीं लगता; पर फिर वह कई गंभीर रोगों से घिर जाता है। इसके अपवाद रहे श्री धनप्रकाश त्यागी, जिन्होंने ‘जीवेत शरदः शतम्’ के वेदवाक्य को पूरा किया।

धनप्रकाशजी का जन्म 10 जनवरी, 1918 को उ.प्र. राज्य के मुजफ्फरनगर जिले में स्थित गांव मेहपुरा में में हुआ था। उन दिनों किसान परिवारों में पढ़ाई का कुछ विशेष माहौल नहीं था। फिर भी उन्होंने विज्ञान विषय के साथ उच्च माध्यमिक शिक्षा पूरी की। इससे उन्हें दिल्ली में केन्द्र सरकार के एक कार्यालय में लिपिक की नौकरी मिल गयी। उन्होंने 1942 में प्राथमिक तथा 43, 44 और 47 में क्रमशः तीनों संघ शिक्षा वर्गों का प्रशिक्षण लिया। स्वाधीनता सेनानियों में विशेषकर लोकमान्य तिलक की जीवनी पढ़कर वे बहुत प्रभावित हुए। 

आजादी से पहले दिल्ली में मुस्लिम गुंडे हिन्दुओं को बहुत परेशान करते थे। संघ के युवा स्वयंसेवक उन्हें जैसे का तैसा जवाब देते थे। इससे प्रभावित होकर धनप्रकाशजी 1942 में मिंटो रोड पर रेलवे क्वार्टस में लगने वाली शाखा पर जाने लगे। उन दिनों उ.प्र. का पश्चिमी भाग दिल्ली के साथ जुड़ा था। श्री वसंतराव ओक वहां प्रांत प्रचारक थे। धनप्रकाशजी की सक्रियता और संघ विचार के प्रति निष्ठा देखकर एक दिन वसंतराव ने उनसे पूछा कि क्या संघ के काम के लिए बाहर जा सकते हो ? धनप्रकाशजी ने हां कह दिया। इस प्रकार उनके प्रचारक जीवन की यात्रा प्रारम्भ हो गयी। इसके बाद उन्होंने अपने दफ्तर जाना बंद कर दिया और सरकारी नौकरी से भी त्यागपत्र दे दिया।

कुछ समय दिल्ली में विस्तारक रहने के बाद वे उ.प्र. में सहारनपुर और अलीगढ़; हरियाणा में अंबाला, हिसार और गुरुग्राम; पंजाब में होशियारपुर; हिमाचल प्रदेश में शिमला आदि स्थानों पर नगर और जिला प्रचारक रहे। अलीगढ़ में मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों की गुंडागर्दी चलती थी। स्वयंसेवकों ने उनके नेतृत्व में कई बार उसका मुंहतोड़ जवाब दिया। धनप्रकाशजी ने 1948 में संघ पर लगे प्रतिबंध के विरुद्ध सत्याग्रह कर जेल यात्रा की। 1962 से 65 तक वे जम्मू और फिर 65 से 71 तक राजस्थान में जयपुर विभाग प्रचारक रहे। इसके बाद 1986 तक उन्होंने राजस्थान में भारतीय मजदूर संघ में काम किया। उन दिनों मजदूरों में कांग्रेस और कम्यूनिस्ट संगठनों का बोलबाला था; पर उनके प्रयास से स्थिति बदलने लगी। शरीर ढलने पर उन्हें विद्या भारती, सेवा भारती तथा फिर जयपुर से प्रकाशित जागरण पत्रक की जिम्मेदारी दी गयी। 

धनप्रकाशजी को संगठन ने जो भी काम दिया, वह उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर उसमें संख्यात्मक और गुणात्मक वृद्धि की। वयोवृद्ध होने पर उन्हें सब जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया। फिर भी वे संघ कार्य से उदासीन नहीं रहे। जयपुर कार्यालय पर पूरे राज्य से कार्यकर्ता आते थे। धनप्रकाशजी सबसे बड़ी रुचि से मिलते थे। बुजुर्ग होने पर भी वे खूब स्वाध्याय करते थे। अतः देश के ज्वलंत मुद्दों पर उनकी जानकारी अद्यतन रहती थी। स्वयं लिखे धर्म के दस लक्षण वाले एक पत्रक की फोटो प्रति बनाकर वे लोगों को देते रहते थे। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार को तो उन्होंने नहीं देखा; पर बाकी पांच सरसंघचालकों के दर्शन एवं उनके साथ काम करने को वे अपना सौभाग्य मानते थे।

संयमित खानपान, नियमित व्यायाम और प्राणायाम से वे अंत तक काफी स्वस्थ रहे। प्रातःकाल वे नीम का कड़वा पानी जरूर पीते थे। अपने अधिकांश काम वे स्वयं ही करते थे। आठ जनवरी, 2017 को उनके सौवें वर्ष में जयपुर में संघ कार्यालय पर रुद्राभिषेक यज्ञ कर लोगों ने उन्हें स्वस्थ जीवन एवं दीर्घायु की शुभकामनाएं दीं। 24 जनवरी, 2020 को उन्होंने अंतिम सांस ली।

(पांचजन्य 22.1.17 तथा 18.3.18)

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11 जनवरी/बलिदान-दिवस

देशभक्त सरदार सेवासिंह

भारत की आजादी के लिए भारत में हर ओर लोग प्रयत्न कर ही रहे थे; पर अनेक वीर ऐसे थे, जो विदेशों में आजादी की अलख जगा रहे थे। वे भारत के क्रान्तिकारियों को अस्त्र-शस्त्र भेजते थे। ऐसे ही एक क्रान्तिवीर थे सरदार सेवासिंह, जो कनाडा में रहकर यह काम कर रहे थे।

सेवासिंह थे तो मूलतः पंजाब के, पर वे अपने अनेक मित्र एवं सम्बन्धियों की तरह काम की खोज में कनाडा चले गये थे। उनके दिल में देश को स्वतन्त्र कराने की आग जल रही थी। प्रवासी सिक्खों को अंग्रेज अधिकारी अच्छी निगाह से नहीं देखते थे। 

मिस्टर हॉप्सिन नामक एक अधिकारी ने एक देशद्रोही बेलासिंह को अपने साथ मिलाकर दो सगे भाइयों भागासिंह और वतनसिंह की गुरुद्वारे में हत्या करा दी। इससे सेवासिंह की आँखों में खून उतर आया। उसने सोचा यदि हॉप्सिन को सजा नहीं दी गयी, तो वह इसी तरह अन्य भारतीयों की भी हत्याएँ कराता रहेगा।

सेवासिंह ने सोचा कि हॉप्सिन को दोस्ती के जाल में फँसाकर मारा जाये। इसलिए उसने हॉप्सिन से अच्छे सम्बन्ध बना लिये। हॉप्सिन ने सेवासिंह को लालच दिया कि यदि वह बलवन्तसिंह को मार दे, तो उसे अच्छी नौकरी दिला दी जायेगी। सेवासिंह इसके लिए तैयार हो गया। हॉप्सिन ने उसे इसके लिए एक पिस्तौल और सैकड़ों कारतूस दिये। सेवासिंह ने उसे वचन दिया कि शिकार कर उसे पिस्तौल वापस दे देगा।

अब सेवासिंह ने अपना पैसा खर्च कर सैकड़ों अन्य कारतूस भी खरीदे और निशानेबाजी का खूब अभ्यास किया। जब उनका हाथ सध गया, तो वह हॉप्सिन की कोठी पर जा पहुँचा। उनके वहाँ आने पर कोई रोक नहीं थी। चौकीदार उन्हें पहचानता ही था। सेवासिंह के हाथ में पिस्तौल थी। 

यह देखकर हॉप्सिन ने ओट में होकर उसका हाथ पकड़ लिया। सेवासिंह एक बार तो हतप्रभ रह गया; पर फिर संभल कर बोला, ‘‘ये पिस्तौल आप रख लें। इसके कारण लोग मुझे अंग्रेजों का मुखबिर समझने लगे हैं।’’ इस पर हॉप्सिन ने क्षमा माँगते हुए उसे फिर से पिस्तौल सौंप दी।

अगले दिन न्यायालय में वतनसिंह हत्याकांड में गवाह के रूप में सेवासिंह की पेशी थी। हॉप्सिन भी वहाँ मौजूद था। जज ने सेवासिंह से पूछा, जब वतनसिंह की हत्या हुई, तो क्या तुम वहीं थे। सेवासिंह ने हाँ कहा। जज ने फिर पूछा, हत्या कैसे हुई ? सेवासिंह ने देखा कि हॉप्सिन उसके बिल्कुल पास ही है। उसने जेब से भरी हुई पिस्तौल निकाली और हॉप्सिन पर खाली करते हुए बोला - इस तरह। हॉप्सिन का वहीं प्राणान्त हो गया।

न्यायालय में खलबली मच गयी। सेवासिंह ने पिस्तौल हॉप्सिन के ऊपर फेंकी और कहा, ‘‘ले सँभाल अपनी पिस्तौल। अपने वचन के अनुसार मैं शिकार कर इसे लौटा रहा हूँ।’’ सेवासिंह को पकड़ लिया गया। उन्होंने भागने या बचने का कोई प्रयास नहीं किया; क्योंकि वह तो बलिदानी बाना पहन चुके थे। 

उन्होंने कहा, ‘‘मैंने हॉप्सिन को जानबूझ कर मारा है। यह दो देशभक्तों की हत्या का बदला है। जो गालियाँ भारतीयों को दी जाती है, उनकी कीमत मैंने वसूल ली है। जय हिन्द।’’

उस दिन के बाद पूरे कनाडा में भारतीयों को गाली देेने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। 11 जनवरी, 1915 को इस वीर को बैंकूवर की जेल में फाँसी दे दी गयी।
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11 जनवरी/जन्म-दिवस

वनवासियों के हितैषी राजा विजयभूषण सिंहदेव

भारत में सैकड़ों साल से मिशनरियां काम कर रही हैं। वे सेवा के जाल में भोले वनवासियों को फंसा लेती हैं। यह धर्मान्तरण कभी-कभी राष्ट्रान्तरण जैसी बीमारी भी बन जाता है। वे उन्हें आदिवासी कहकर भारत और शेष हिन्दू समाज से काट देते हैं। छत्तीसगढ़ में इन षड्यंत्रों को रोकने में जशपुर के राजा विजयभूषण सिंहदेव की बड़ी भूमिका रही।

राजा विजयभूषण सिंहदेव का जन्म जशपुर राजपरिवार में 11 जनवरी, 1926 को हुआ था। ब्रिटिश सरकार ने तत्कालीन राजा विष्णुप्रताप सिंहदेव पर दबाव डालकर 1905 में वहां अपना प्रतिनिधि बैठा दिया। उनके साथ रोमन कैथोलिक चर्च भी वहां आ गया। चर्च ने जशपुर के पास ‘घोलेंग’ गांव में पहला केन्द्र बनाया। अगले 15 साल में वहां सैकड़ों स्कूल, अस्पताल और चर्च बने। ब्रिटिश एजेंट के कारण राजा चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे। यद्यपि उन्हें अंग्रेजों से इतनी घृणा थी कि उनसे हाथ मिलाकर वे तुरंत हाथ धोते थे। 
1922 में मिशन ने वनवासियों को भड़काकर विद्रोह करा दिया और राजा को रांची जाने को मजबूर कर दिया। चार साल बाद वे वापस आये और तभी उनका देहांत हो गया। उनके पुत्र देवशरण सिंहदेव राजा बने; पर उनका कार्यकाल केवल छह वर्ष रहा। उनके बाद पांच वर्षीय विजयभूषण सिंहदेव राजा बने। अवयस्क होने के कारण यहां भी ब्रिटिश एजेंट ही सर्वेसर्वा था।
एक जनवरी, 1948 को जशपुर रियासत का भारत में विलय हुआ। राजा का कहना था कि यह राज्य मेरे पूर्वजों ने अपने पराक्रम से बनाया है। मैं अपने हस्ताक्षर से इसे नहीं दे सकता। अतः उनकी सहमति से दीवान टी.सी.आर.मेनन ने हस्ताक्षर किये। उन्होंने अपनी अधिकांश सम्पत्ति भी शासन को दे दी। 1949 में उनका विवाह बीकानेर के राजा गंगाशरण सिंह की पौत्री जया कुमारी से हुआ। मेवाड़ के महाराणा तथा विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष भगवंत सिंह उनके बड़े साढू थे। वे तीन बार विधायक, एक बार लोकसभा और एक बार राज्यसभा सांसद रहे। हिन्दू समर्थक होने से तत्कालीन कांग्रेस सरकार उनकी अधिकांश योजनाएं अस्वीकार कर देती थीं। विकास के अभाव में वहां नक्सलवाद पनपने लगा। अतः वे राजनीति छोड़कर सामाजिक और धार्मिक कामों में लग गये। वे करपात्री जी महाराज के परम भक्त थे तथा उनसे मंत्र दीक्षा भी ली थी।
1948 में बालासाहब देशपांडे एक सरकारी अधिकारी के नाते जशपुर में आये। उनके प्रयास और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना से 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना हुई। उसका केन्द्र जशपुर बनाकर मोरुभाऊ केतकर को वहां भेजा गया। राजा विजयभूषण ने पहले दो कमरे और फिर पूरा महल ही छात्रावास को दे दिया। कल्याण आश्रम को अपनी भावी योजनाओं के लिए महल के पास चार एकड़ तथा फिर बगीचा और करदना गांव की 150 एकड़ भूमि भी दी। वे प्रतिवर्ष पर्याप्त धन और जरूरत पड़ने पर राशन सामग्री भी देते थे। संस्था का नाम ‘कल्याण आश्रम’ उनके सुझाव पर ही रखा गया। 1963 में रामनवमी पर संस्था के नवनिर्मित भवन का उद्घाटन सरसंघचालक श्री गुरुजी ने किया। इससे उन्हें बहुत हर्ष हुआ।
राजा विजयभूषण ने अनेक हिन्दू संस्थाओं को धन और जमीन दी; पर अपनी सक्रियता के कारण कल्याण आश्रम उनके दिल में बसा था। शिक्षाप्रेमी होने के कारण उन्होंने बिहार से अध्यापक बुलाकर अपने क्षेत्र में 24 विद्यालय खोले। वे कल्याण आश्रम के कार्यकर्ता तथा छात्रों के साथ आम आदमी की तरह बस से स्वयं तीर्थों में जाते थे। 17 अगस्त, 1982 को वनवासियों के सच्चे हितैषी राजा का देहांत हो गया। कल्याण आश्रम के गठन और उसके विस्तार में उनका योगदान सदा याद रहेगा। उनके वशंज भी पूर्वजों की परम्परा के अनुसार देश, हिन्दू और वनवासी हित में संलग्न हैं।
(संदर्भ: विकी/हमारे महान वननायक, भाग एक, त्रिलोकी नाथ सिनहा)
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12 जनवरी/जन्म-दिवस

विश्वविजेता स्वामी विवेकानंद

यदि कोई यह पूछे कि वह कौन युवा संन्यासी था, जिसने विश्व पटल पर भारत और हिन्दू धर्म की कीर्ति पताका फहराई, तो सबके मुख से निःसंदेह स्वामी विवेकानन्द का नाम ही निकलेगा। 

विवेकानन्द का बचपन का नाम नरेन्द्र था। उनका जन्म कोलकाता में 12 जनवरी, 1863 को हुआ था। बचपन से ही वे बहुत शरारती, साहसी और प्रतिभावान थे। पूजा-पाठ और ध्यान में उनका मन बहुत लगता था। 

नरेन्द्र के पिता उन्हें अपनी तरह प्रसिद्ध वकील बनाना चाहते थे; पर वे धर्म सम्बन्धी अपनी जिज्ञासाओं के लिए इधर-उधर भटकते रहते थे। किसी ने उन्हें दक्षिणेश्वर के पुजारी श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में बताया कि उन पर माँ भगवती की विशेष कृपा है। यह सुनकर नरेन्द्र उनके पास जा पहुँचे।

वहाँ पहुँचते ही उन्हें लगा, जैसे उनके मन-मस्तिष्क में विद्युत का संचार हो गया है। यही स्थिति रामकृष्ण जी की भी थी; उनके आग्रह पर नरेन्द्र ने कुछ भजन सुनाये। भजन सुनते ही परमहंस जी को समाधि लग गयी। वे रोते हुए बोले, नरेन्द्र मैं कितने दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा में था। तुमने आने में इतनी देर क्यों लगायी ? धीरे-धीरे दोनों में प्रेम बढ़ता गया। वहाँ नरेन्द्र की सभी जिज्ञासाओं का समाधान हुआ। 

उन्होंने परमहंस जी से पूछा - क्या आपने भगवान को देखा है ? उन्होंने उत्तर दिया - हाँ, केवल देखा ही नहीं उससे बात भी की है। तुम चाहो तो तुम्हारी बात भी करा सकता हूँ। यह कहकर उन्होंने नरेन्द्र को स्पर्श किया। इतने से ही नरेन्द्र को भाव समाधि लग गयी। अपनी सुध-बुध खोकर वे मानो दूसरे लोक में पहुँच गये।

अब नरेन्द्र का अधिकांश समय दक्षिणेश्वर में बीतने लगा। आगे चलकर उन्होंने संन्यास ले लिया और उनका नाम विवेकानन्द हो गया। जब रामकृष्ण जी को लगा कि उनका अन्त समय पास आ गया है, तो उन्होंने विवेकानन्द को स्पर्श कर अपनी सारी आध्यात्मिक शक्तियाँ उन्हें दे दीं। अब विवेकानन्द ने देश-भ्रमण प्रारम्भ किया और वेदान्त के बारे में लोगों को जाग्रत करने लगे।

उन्होंने देखा कि ईसाई पादरी निर्धन ग्रामीणों के मन में हिन्दू धर्म के बारे में तरह-तरह की भ्रान्तियाँ फैलाते हैं। उन्होंने अनेक स्थानों पर इन धूर्त मिशनरियों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी; पर कोई सामने नहीं आया। इन्हीं दिनों उन्हें शिकागो में होने जा रहे विश्व धर्म सम्मेलन का पता लगा। उनके कुछ शुभचिन्तकों ने धन का प्रबन्ध कर दिया। स्वामी जी भी ईसाइयों के गढ़ में ही उन्हें ललकारना चाहते थे। अतः वे शिकागो जा पहुँचे।

शिकागो का सम्मेलन वस्तुतः दुनिया में ईसाइयत की जयकार गुँजाने का षड्यन्त्र मात्र था। इसलिए विवेकानन्द को बोलने के लिए सबसे अन्त में कुछ मिनट का ही समय मिला; पर उन्होंने अपने पहले ही वाक्य ‘अमरीकावासियो भाइयो और बहिनो’ कहकर सबका दिल जीत लिया। तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूँज उठा। यह 11 सितम्बर, 1893 का दिन था। उनका भाषण सुनकर लोगों के भ्रम दूर हुए। इसके बाद वे अनेक देशों के प्रवास पर गये। इस प्रकार उन्होंने सर्वत्र हिन्दू धर्म की विजय पताका लहरा दी।

भारत लौटकर उन्होंने श्री रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो आज भी विश्व भर में वेदान्त के प्रचार में लगा है। जब उन्हें लगा कि उनके जीवन का लक्ष्य पूरा हो गया है, तो उन्होंने 4 जुलाई, 1902 को महासमाधि लेकर स्वयं को परमात्म में लीन कर लिया।
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12 जनवरी/जन्म-दिवस

विज्ञान और परम्परा के महर्षि महेश योगी

सम्पूर्ण विश्व में वेद विज्ञान तथा भावातीत ध्यान के माध्यम से भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान को पुनर्स्थापित करने वाले महर्षि महेश योगी का जन्म 12 जनवरी, 1918 को जबलपुर (मध्य प्रदेश) में हुआ था। यह स्वामी विवेकानन्द का भी जन्म दिन है; और इन दोनों ही संन्यासियों ने विश्व भर में हिन्दू धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की पताका को फहराने का पुण्य कार्य किया।

महर्षि का प्रारम्भिक नाम महेश प्रसाद वर्मा था। उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से गणित और भौतिकी की पढ़ाई की थी। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दू धर्म ग्रन्थों का भी गहन अध्ययन किया। अध्यात्म की ओर उनकी रुचि बचपन से ही थी। संन्यास लेने के बाद वे इस पथ पर और तीव्रता से बढ़ते गये। 

हिमालय और ऋषिकेश में उन्होंने लम्बी साधना की। ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द के बाद उन्हें ही इस पीठ पर प्रतिष्ठित किया जाने वाला था; पर किसी कारण से यह हो नहीं पाया। कुछ लोगों का मत है कि उनके जन्म से ब्राह्मण न होने के कारण ऐसा हुआ।

पर इससे महेश योगी की साधना में कोई अन्तर नहीं आया। उन्होंने भारत के साथ ही विदेशों में अपना ध्यान केन्द्रित किया और नीदरलैण्ड में अपना केन्द्र बनाया। यहाँ उन्होंने ध्यान, प्राणायाम और साधना के अपने अनुभवों को ‘भावातीत ध्यान’ के रूप में प्रसारित किया। 

इससे मानव बहुत आसानी से अपनी आन्तरिक चेतना की उच्चतम अवस्था में पहुँच जाता है। यह भौतिकता, भागदौड़ और उन्मुक्त यौनाचार की चकाचौंध में डूबे खण्डित परिवार वाले पश्चिमी जगत के लिए नयी चीज थी। इसलिए उनके पास आने वालों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। 

महर्षि महेश योगी के साथ भावातीत ध्यान करने वाले अनुभव करते थे कि वे हल्के होकर धरती से कुछ ऊपर उठ गये हैं। उनका मत था कि ध्यान का उपयोग केवल अध्यात्म में ही नहीं, तो दैनिक जीवन में भी है। इससे मानव की आन्तरिक शक्तियाँ जाग्रत होती है, जिससे वह हर कार्य को अधिक सक्रियता से करता है। 

इससे जहाँ एक ओर उसका जीवन उत्कृष्ट बनता है, वहाँ उसे अपने निजी कार्य में भी आशातीत सफलता मिलती है। कुछ ही समय में ध्यान की यह विधि अत्यधिक लोकप्रिय हो गयी। 1960-70 के दशक में विश्व प्रसिद्ध बैण्ड वादक बीटल्स, रोलिंग स्टोन्स, मिक जैगर और प्रसिद्ध लेखक दीपक चोपड़ा आदि ने महर्षि के सान्निध्य में इस विधि को सीखा। इससे महर्षि की ख्याति चहुँ ओर फैल गयी। 

उन्होंने विश्व में भारतीय संस्कृति, वेद और अध्यात्म पर आधारित रामराज्य की स्थापना का लक्ष्य लेकर काम किया। उनके अनुयायी भी राम ही कहलाते हैं। उन्होंने ‘राम मुद्रा’ का भी प्रचलन किया। महर्षि ने भारत और शेष दुनिया में हजारों विद्यालय और विश्वविद्यालयों की स्थापना की, जहाँ सामान्य शिक्षा के साथ योग एवं ध्यान की शिक्षा भी दी जाती है।

महर्षि महेश योगी एक सच्चे वेदान्ती थे। वे अतीत को स्वयं पर हावी होने देने की बजाय वर्तमान और भविष्य पर अधिक ध्यान देने को कहते थे। वे लोगों से सदा हँसते हुए मिलते थे। इसलिए उन्हें ‘हँसता हुआ गुरु’ भी कहा जाता था। 6 फरवरी, 2008 को नीदरलैण्ड में ही उनका देहान्त हुआ। उनके पार्थिव शरीर को प्रयाग लाकर उनके अरैल स्थित उसी आश्रम में अन्त्येष्टि की गयी, जहाँ से उन्होंने अपनी अध्यात्म-यात्रा प्रारम्भ की थी।
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12 जनवरी/जन्म-दिवस

शिवाजी की निर्माता माँ जीजाबाई 

यों तो हर माँ अपनी सन्तान की निर्माता होती है; पर माँ जीजा ने अपने पुत्र शिवाजी के केवल शरीर का ही निर्माण नहीं किया, अपितु उनके मन और बुद्धि को भी इस प्रकार गढ़ा कि वे आगे चलकर भारत में मुगल शासन की चूलें हिलाकर हिन्दू साम्राज्य की स्थापना में सफल हुए।

जीजा का जन्म महाराष्ट्र के सिन्दखेड़ ग्राम में 12 जनवरी, 1602 (पौष शुक्ल पूर्णिमा) को हुआ था। उनके पिता लखूजी जाधव अन्य मराठा सरदारों की तरह निजामशाही की सेवा करते थे। इन सरदारों को निजाम से जमींदारी तथा उपाधियाँ प्राप्त थीं; पर ये सब एक-दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करते रहते थे। इनमें परस्पर युद्ध भी होते रहते थे।

एक बार रंगपंचमी पर लखूजी के घर में उत्सव मनाया जा रहा था। अनेक सरदार वहाँ सपरिवार आये थे। लखूजी की पुत्री जीजा तथा उनके अधीन कार्यरत शिलेदार मालोजी के पुत्र शहाजी आपस में खूब खेल रहे थे। लखूजी ने कहा - वाह, इनकी जोड़ी कितनी अच्छी लग रही है। मालोजी ने लखूजी से कहा, इसका अर्थ है कि हम आपस में समधी हो गये। 

इस पर लखूजी बिगड़ गये। उन्होंने कहा कि मैंने तो यह मजाक में कहा था। मेरे जैसे सरदार की बेटी तुम्हारे जैसे सामान्य शिलेदार की बहू कैसे बन सकती है ? इस पर मालोजी नाराज हो गये। उन्होंने कहा, अब मैं यहाँ तभी आऊँगा, जब मेरा स्तर भी तुम जैसा हो जाएगा। मालोजी ने लखूजी की नौकरी भी छोड़ दी।

अब वे अपने गाँव आ गये; पर उनका मन सदा उद्विग्न रहता था। एक रात उनकी कुलदेवी जगदम्बा ने स्वप्न में उन्हें आशीर्वाद दिया। अगले दिन जब वे अपने खेत में खुदाई कर रहे थे, तो उन्हें स्वर्ण मुद्राओं से भरे सात कलश मिले। इससे उन्होंने 2,000 घोड़े खरीदे और 1,000 सैनिक रख लिये। उन्होंने ग्रामवासियों तथा यात्रियों की सुविधा के लिए अनेक मन्दिर, धर्मशाला तथा कुएँ बनवाये। इससे उनकी ख्याति सब ओर फैल गयी।

यह देखकर निजाम ने उन्हें ‘मनसबदार’ का पद देकर शिवनेरी किला तथा निकटवर्ती क्षेत्र दे दिया। अब वे मालोजी राव भोंसले कहलाने लगे। उधर लखूजी की पत्नी अपने पति पर दबाव डाल रही थी कि जीजा का विवाह मालोजी के पुत्र शहाजी से कर दिया जाये। लखूजी ने बड़ी अनिच्छा से यह सम्बन्ध स्वीकार किया। कुछ समय बाद मालोजी का देहान्त हो गया और उनके बदले शहाजी निजाम के अधीन सरदार बनकर काम करने लगे।

जीजाबाई के मन में यह पीड़ा थी कि उसके पिता और पति दोनों मुसलमानों की सेवा कर रहे हैं; पर परिस्थिति ऐसी थी कि वह कुछ नहीं कर सकती थी। जब वह गर्भवती हुई, तो उन्होंने निश्चय किया कि वे अपने पुत्र को ऐसे संस्कार देंगी, जिससे वह इस परिस्थिति को बदल सके। 

शहाजी प्रायः युद्ध में व्यस्त रहते थे, इसलिए उन्होंने जीजाबाई को शिवनेरी दुर्ग में पहुँचा दिया। वहाँ उन्होंने रामायण और महाभारत के युद्धों की कथाएँ सुनीं। इससे गर्भस्थ बालक पर वीरता के संस्कार पड़े।

19 फरवरी,  1630 को शिवाजी का जन्म हुआ। आगे चलकर छत्रपति शिवाजी ने मुगल राजशाही को परास्त कर 6 जून, 1674 को भारत में हिन्दू पद पादशाही की स्थापना की। जीजाबाई मानो इसी दिन के लिए जीवित थीं। शिवाजी को सिंहासन पर विराजमान देखने के बारहवें दिन 17 जून, 1674 (ज्येष्ठ कृष्ण 9) को उन्होंने आँखें मूँद लीं।
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13 जनवरी/जन्म-दिवस

प्रेम कथाओं के फिल्मकार शक्ति सामन्त

हिन्दी फिल्में केवल हिन्दी क्षेत्रों में ही नहीं, तो पूरे भारत में लोकप्रिय हैं। इतना ही नहीं, इन्होंने देश से बाहर भी हिन्दी को लोकप्रिय किया है। फिल्मों को इस स्तर तक लाने में जिन फिल्मकारों का महत्वपूर्ण योगदान है, उनमें शक्ति सामंत का नाम बड़े आदर से लिया जाता है।

13 जनवरी, 1926 को बंगाल के वर्धमान जिले में जन्मे शक्ति दा की शिक्षा देहरादून और कोलकाता में हुई। उनकी इच्छा हीरो बनने की थी, अतः 1948 में वे मुंबई आ गये। कुछ समय तक एक इस्लामी विद्यालय में उन्होंने अध्यापन किया। शुक्रवार के अवकाश में वे स्टूडियो के चक्कर लगाते थे। उन्हीं दिनों उनकी भेंट अशोक कुमार से हुई। उन्होंने शक्ति दा को हीरो की बजाय निर्देशन के क्षेत्र में उतरने का परामर्श दिया।

शक्ति दा उनकी बात मानकर निर्देशक फणि मजूमदार के सहायक बन गये। बहुत परिश्रम से उन्होंने इस विधा की बारीकियां सीखीं। 1955 में उन्होंने फिल्म ‘बहू’ निर्देशित की; पर वह चल नहीं सकी। इसके बाद उन्होंने इंस्पेक्टर, हिल स्टेशन, शेरु और फिल्म डिकेक्टिव का निर्देशन किया। 

इनकी सफलता  से उनका उत्साह बढ़ा और वे अपने बैनर ‘शक्ति फिल्म्स’ की स्थापना कर निर्देशक के साथ ही निर्माता भी बन गये। यद्यपि यह उस समय एक साहसी निर्णय था; पर उन्हें यहां भी सफलता मिली।

इस बैनर पर उनकी पहली फिल्म ‘हावड़ा ब्रिज’ ने खूब सफलता पाई। इसमें अशोक कुमार और मधुबाला की जोड़ी बहुत हिट रही। अगले 20 साल में शक्ति दा ने अनेक अविस्मरणीय प्रेम फिल्मंे बनाईं। उनकी फिल्मों की एक विशेषता यह थी कि वे उसमें संगीत का भरपूर उपयोग करते थे। इससे न केवल संगीत अपितु गायक और संगीतकार को भी महत्व मिला। 

हिन्दी फिल्म जगत में एक समय राजेश खन्ना की तूती बोलती थी।  उनका उत्थान शक्ति दा द्वारा निर्मित फिल्म आराधना, कटी पतंग और अमर प्रेम से हुआ। इन्हीं फिल्मों में गाकर किशोर कुमार भी प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचे। 

शक्ति दा ने शम्मी कपूर, सुनील दत्त, मनोज कुमार, संजीव कुमार, उत्तम कुमार, अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती, शर्मिला टैगोर, मौसमी चटर्जी आदि को भी लेकर फिल्में बनायीं। उन्होंने अनेक प्रतिभाओं को उभारा; पर किसी से बंधे नहीं रहे। उन्होंने बंगला में भी अमानुष, आनंद आश्रम, बरसात की इक रात, देवदास आदि फिल्में बनाईं; पर उनकी हिन्दी फिल्में अविस्मरणीय हैं। 

शक्ति दा फिल्म जगत में विमल राय और ऋषिकेश मुखर्जी की श्रेणी के फिल्मकार थे, जिन्होंने बंगलाभाषी होते हुए भी हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। आज तो सब ओर मारधाड़ और नंगेपन वाली फिल्मों का दौर है; पर उन दिनों संगीतमय फिल्मों का दौर था और उसे प्रचलित करने में शक्ति दा की मुख्य भूमिका थी। उनके द्वारा प्रदर्शित प्रेम वासना के बदले भावनाप्रधान होता था। उनकी फिल्म परिवार के सब लोग एक साथ देख सकते थे। 

वे निर्माता व निर्देशक के रूप में पूर्णतावादी थे। उनकी प्रतिभा बहुमुखी थी; पर दूसरों के काम में वे हस्तक्षेप नहीं करते थे। वे भारतीय फिल्म निर्माता संघ, सेंसर बोर्ड तथा सत्यजित राय फिल्म और टेलिविजन संस्थान के अध्यक्ष रहे। उनकी फिल्में अनेक विदेशी समारोहों में प्रदर्शित की गयीं। उन्हें अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किया गया।  

हिन्दी जगत में लोकप्रिय सिनेमा की अवधारणा को जन्म देने वाले इस कलाकार का देहावसान 9 अपै्रल, 2009 को हुआ।

(संदर्भ : जनसत्ता 19.4.2009)
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14 जनवरी/जन्म-दिवस

साहित्य शिरोमणि विद्यानिवास मिश्र

भारतीय साहित्य और संस्कृति की सुगन्ध भारत ही नहीं, तो विश्व पटल पर फैलाने वाले डा. विद्यानिवास मिश्र का जन्म 14 जनवरी, 1926 को गोरखपुर (उ.प्र.) के ग्राम पकड़डीहा में हुआ था। इनके पिता पंडित प्रसिद्ध नारायण मिश्र की विद्वत्ता की दूर-दूर तक धाक थी। इनकी माता गौरादेवी की भी लोक संस्कृति में अगाध आस्था थी। इस कारण बालपन से ही विद्यानिवास के मन में भारत, भारतीयता और हिन्दुत्व के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया।

प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा गोरखपुर में प्राप्त कर ये उच्च शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र प्रयाग और फिर काशी आ गये। प्रयाग विश्वविद्यालय में हिन्दी के विभागाध्यक्ष वेदमूर्ति क्षेत्रेश चन्द्र चट्टोपाध्याय इनके प्रेरक एवं गुरु थे। इन्होंने अपने शोधकार्य के लिए पाणिनी की अष्टाध्यायी को चुना। यह एक जटिल विषय था; पर विद्यानिवास जी ने इस पर कठोर परिश्रम किया। इसके लिए इन्हें बड़े-बड़े विद्वानों से प्रशंसा और शुभकामनाएँ मिलीं।

1942 में राधिका देवी से विवाह के बाद उन्होंने अध्यापन को अपनी आजीविका का आधार बनाया। इसका प्रारम्भ गोरखपुर से ही हुआ, जो आगे चलकर विश्वप्रसिद्ध कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय तक पहुँचा। 

विद्यानिवास जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। उन्होंने स्वयं को केवल अध्यापन तक ही सीमित नहीं रखा। दस साल तक वे आकाशवाणी मध्य प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के सूचना विभाग में भी कार्यरत रहे। प्रसार भारती के सदस्य के नाते भी उनका योगदान उल्लेखनीय रहा।

लेखन के क्षेत्र में उन्होंने प्रायः सभी विधाओं में काम किया है। उनका मानना था कि साहित्य और संस्कृति में कोई भेद नहीं है। अपने अनुभव में तपकर जब साहित्य का सृजन होगा, तभी उसमें सच्चे जीवन मूल्यों की सुगन्ध आयेगी; पर लेखन में उनका प्रिय विषय ललित निबन्ध था। 

उनकी मान्यता थी कि हृदय में उतरे बिना ललित निबन्ध नहीं लिखा जा सकता। उनके निबन्ध इस कसौटी पर खरे उतरते हैं और इसीलिए वे पाठक के अन्तर्मन को छू जाते हैं। वे काशी विद्यापीठ, हिन्दी विद्यापीठ (देवधर) और सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

डा. विद्यानिवास मिश्र की प्रमुख कृतियों में तुम चन्दन हम पानी, गाँव का मन, आँगन का पंछी, भ्रमरानन्द के पत्र, कँटीले तारों के आर-पार, बंजारा मन, अग्निरथ, मैंने सिल पहुँचाई..आदि हैं। 2003 ई0 में राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। 

यों तो वे विदेश में लम्बे समय तक अध्यापक रहे; पर रामायण सम्मेलन तथा विश्व हिन्दी सम्मेलनों के माध्यम से भी उन्होंने अनेक देशों में हिन्दी और हिन्दुत्व का प्रचार-प्रसार किया।

विद्यानिवास जी सिद्धहस्त लेखक, वक्ता तथा एक कुशल सम्पादक भी थे। वे कुछ समय दैनिक नवभारत टाइम्स के सम्पादक रहे। दिल्ली से प्रकाशित मासिक पत्रिका साहित्य अमृत के वे संस्थापक सम्पादक थे। 1987 में उन्हें पद्मश्री तथा 1999 में पद्मभूषण की उपाधि से अलंकृत किया गया। 

इसके अतिरिक्त साहित्य अकादमी सम्मान, व्यास सम्मान, शंकर सम्मान, भारत भारती और सरस्वती सम्मान भी प्राप्त हुए। महाभारत के काव्यार्थ ग्रन्थ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ ने उन्हें मूर्तिदेवी पुरस्कार से विभूषित किया।

साहित्य शिरोमणि डा. विद्यानिवास मिश्र का 14 फरवरी, 2005 को एक कार दुर्घटना में देहान्त हुआ।
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14 जनवरी/जन्म-दिवस

विकलांग विश्वविद्यालय के निर्माता स्वामी रामभद्राचार्य 

किसी भी व्यक्ति के जीवन में नेत्रों का अत्यधिक महत्व है। नेत्रों के बिना उसका जीवन अधूरा है; पर नेत्र न होते हुए भी अपने जीवन को समाज सेवा का आदर्श बना देना सचमुच किसी दैवी प्रतिभा का ही काम है। जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य जी महाराज ऐसे ही व्यक्तित्व हैं।

स्वामी जी का जन्म ग्राम शादी खुर्द (जौनपुर, उ.प्र.) में 14 जनवरी, 1950 को पं. राजदेव मिश्र एवं शचीदेवी के घर में हुआ था। जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की कि यह बालक अति प्रतिभावान होगा; पर दो माह की अवस्था में इनके नेत्रों में रोहु रोग हो गया। नीम हकीम के इलाज से इनकी नेत्र ज्योति सदा के लिए चली गयी। पूरे घर में शोक छा गया; पर इन्होंने अपने मन में कभी निराशा के अंधकार को स्थान नहीं दिया।

चार वर्ष की अवस्था में ये कविता करने लगे। 15 दिन में गीता और श्रीरामचरित मानस तो सुनने से ही याद हो गये। इसके बाद इन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से नव्य व्याकरणाचार्य, विद्या वारिधि (पी-एच.डी) व विद्या वाचस्पति (डी.लिट) जैसी उपाधियाँ प्राप्त कीं। छात्र जीवन में पढ़े एवं सुने गये सैकड़ों ग्रन्थ उन्हें कण्ठस्थ हैं। हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी सहित 14 भाषाओं के वे ज्ञाता हैं।

अध्ययन के साथ-साथ मौलिक लेखन के क्षेत्र में भी स्वामी जी का काम अद्भुत है। इन्होंने 80 ग्रन्थों की रचना की है। इन ग्रन्थों में जहाँ उत्कृष्ट दर्शन और गहन अध्यात्मिक चिन्तन के दर्शन होते हैं, वहीं करगिल विजय पर लिखा नाटक ‘उत्साह’ इन्हें समकालीन जगत से जोड़ता है। सभी प्रमुख उपनिषदों का आपने भाष्य किया है। ‘प्रस्थानत्रयी’ के इनके द्वारा किये गये भाष्य का विमोचन श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था।

बचपन से ही स्वामी जी को चौपाल पर बैठकर रामकथा सुनाने का शौक था। आगे चलकर वे भागवत, महाभारत आदि ग्रन्थों की भी व्याख्या करने लगे। जब समाजसेवा के लिए घर बाधा बनने लगा, तो इन्होंने 1983 में घर ही नहीं, अपना नाम गिरिधर मिश्र भी छोड़ दिया। 

स्वामी जी ने अब चित्रकूट में डेरा लगाया और श्री रामभद्राचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गये। 1987 में इन्होंने यहाँ तुलसी पीठ की स्थापना की। 1998 के कुम्भ में स्वामी जी को जगद्गुरु तुलसी पीठाधीश्वर घोषित किया गया।

तत्कालीन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा के आग्रह पर स्वामी जी ने इंडोनेशिया में आयोजित अंतरराष्ट्रीय रामायण सम्मेलन में भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व किया। इसके बाद वे मारीशस, सिंगापुर, ब्रिटेन तथा अन्य अनेक देशों के प्रवास पर गये।

स्वयं नेत्रहीन होने के कारण स्वामी जी को नेत्रहीनों एवं विकलांगों के कष्टों का पता है। इसलिए उन्होंने चित्रकूट में विश्व का पहला आवासीय विकलांग विश्विविद्यालय स्थापित किया। इसमें सभी प्रकार के विकलांग शिक्षा पाते हैं। इसके अतिरिक्त विकलांगों के लिए गोशाला व अन्न क्षेत्र भी है। राजकोट (गुजरात) में महाराज जी के प्रयास से सौ बिस्तरों का जयनाथ अस्पताल, बालमन्दिर, ब्लड बैंक आदि का संचालन हो रहा है।

विनम्रता एवं ज्ञान की प्रतिमूर्ति स्वामी रामभद्राचार्य जी अपने जीवन दर्शन को निम्न पंक्तियों में व्यक्त करते हैं।

मानवता है मेरा मन्दिर, मैं हूँ उसका एक पुजारी
हैं विकलांग महेश्वर मेरे, मैं हूँ उनका एक पुजारी।
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15 जनवरी/जन्म-तिथि

स्वतन्त्रता सेनानी पत्रकार वीरेन्द्र वीर

दिल्ली, पंजाब तथा हरियाणा की पत्रकारिता में महाशय कृष्ण एवं उनके समाचार पत्र ‘दैनिक प्रताप’ का विशेष योगदान है। इन्हीं महाशय जी के घर में 15 जनवरी 1911 को वीरेन्द्र वीर का जन्म हुआ। 

आर्य समाज से प्रभावित परिवार होने के कारण उन्हें देश एवं धर्म के प्रति भक्ति के संस्कार मिले। इसी से प्रेरित होकर वे छोटी अवस्था से ही स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने लगे। उन दिनों लाहौर क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र था। उस ओर भी वीरेन्द्र जी का रुझान था। इस कारण पुलिस की सूची में उनका नाम भी लिख लिया गया।

16 वर्ष की अवस्था में वीरेन्द्र वीर को ‘सांडर्स हत्याकांड’ के संदिग्ध अभियुक्त के रूप में पकड़ लिया गया; पर इसमें इनका कोई हाथ नहीं था। शासन को इस कारण इन्हें छोड़ना पड़ा। एक वर्ष बाद ‘वायसराय बम कांड’ में इन्हें फिर गिरफ्तार किया गया; पर इस बार भी शासन इनके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं जुटा सका। अतः ये सम्मान सहित बरी हो गये। फिर भी शासन इन पर सदा सन्देह की दृष्टि रखता था।

1930 में पंजाब के गर्वनर पंजाब विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में भाग लेने के लिए लाहौर आये। वहाँ क्रान्तिकारी हरिकिशन ने गर्वनर पर बम फेंका। उस समय इन्हें भी अनेक युवा मित्रों सहित फिर गिरफ्तार किया गया, क्योंकि हरिकिशन को समारोह के लिए प्रवेश पत्र वीरेन्द्र जी ने ही दिया था; पर इस बार भी अपराध सिद्ध न होने के कारण शासन को इन्हें छोड़ना पड़ा। यद्यपि इस कांड में हरिकिशन जी को फाँसी हुई। 

1931-32 में गांधी जी द्वारा संचालित ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ में सक्रिय रहने के कारण वीरेन्द्र वीर को जेल भेज दिया गया। जेल में रहते हुए ही उन्होंने एम.ए अर्थशास्त्र की परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण की। जेल से आने पर इनके पिता महाशय कृष्ण जी ने इन्हें ‘दैनिक प्रताप’ का कार्यभार सौंप दिया। अब सम्पादक के रूप में इनका एक नया जीवन प्रारम्भ हुआ।

सम्पादक रहते हुए वीरेन्द्र जी प्रायः राष्ट्रीय विषयों पर अपनी कलम चलाया करते थे। अतः उनके समाचार पत्र में प्रकाशित सामग्री को आधार बनाकर ‘भारतीय प्रेस अधिनियम’ के अन्तर्गत इन्हें जेल भेजा गया। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भाग लेने के कारण ये तीन साल शाहपुर तथा स्यालकोट की जेल में रहे। 

इस समय इनके पिता तथा दोनों भाई भी जेल में थे। 1945 में सबको रिहा कर दिया गया। 1947 में समाचार सामग्री के आधार पर इन्हें फिर जेल जाना पड़ा। इनके भाई कुँवर नरेन्द्र ने ‘वीर अर्जुन’ नामक दैनिक हिन्दी समाचार पत्र चलाया। उसे भी भारी लोकप्रियता मिली।

देश स्वाधीन होने पर वीरेन्द्र जी ने राजनीति में प्रवेश किया। वे एक बार पंजाब की विधान सभा और एक बार विधान परिषद के सदस्य रहे। 1954 में उन्होंने हिन्दी में ‘दैनिक वीर प्रताप’ शुरू किया। आर्य समाज के माध्यम से वे धार्मिक गतिविधियों में भी सक्रिय रहते थे। 

शिक्षा प्रसार में भी उनकी भारी रुचि थी। वे डी.एम.कालिज, मोगा; डी.एम.शिक्षा महाविद्यालय, मोगा; दोआबा कालिज, जालन्धर तथा कन्या महाविद्यालय, जालन्धर के अनेक वर्ष तक प्रधान रहे। स्वतन्त्रता सेनानी, राजनेता, पत्रकार तथा शिक्षाप्रेमी वीरेन्द्र वीर जी का 31 दिसम्बर, 1993 को देहान्त हो गया।
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15 जनवरी/जन्म-तिथि

आदर्श ग्राम के निर्माता अन्ना हजारे

15 जनवरी, 1940 को जन्मे किशन बाबूराव (अन्ना) हजारे का नाम इन दिनों भ्र्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के लिए चर्चित है; पर मुख्यतः उनकी पहचान अपने गांव रालेगण सिन्दी (जिला अहमदनगर, महाराष्ट्र) को एक आदर्श गांव बनाने के लिए है, जिसे देखने दूर-दूर से लोग आते हैं। 

घरेलू परिस्थिति के कारण अन्ना ने कक्षा सात के बाद पढ़ाई छोड़ दी। कुछ समय उन्होंने फूलों का व्यापार किया; पर उससे कुछ लाभ नहीं हुआ। फिर वे मुंबई चले गये। वहां धन तो कमाया; पर कुसंग में पड़ गये। अतः उसे भी छोड़कर वे 1960 में एक वाहन चालक के रूप में सेना में भर्ती हो गये। 

सात नवम्बर, 1965 को पाकिस्तान से हो रहे युद्ध में खेमकरण सीमा पर उनकी टुकड़ी के सब साथी मारे गये; पर आश्चर्यजनक रूप से वे बच गये। उन्हें लगा कि भगवान ने उन्हें किसी विशेष उद्देश्य से ही बचाया है। स्वामी विवेकानंद की जीवनी उनके लिए प्रेरणा की òोत थी। अतः उन्होंने अविवाहित रहकर अपना जीवन समाज सेवा में अर्पित करने का निश्चय कर लिया।

पर ऐसा करते हुए स्वयं समाज पर बोझ न बनें, इसके लिए उन्होंने अगले दस साल सेना में ही काम किया। 1975 में 475 रु. मासिक पेंशन तथा बीस हजार रु0 की जमापूंजी के साथ उन्होंने नौकरी छोड़ दी। इससे पूर्व उन्होंने अमरनाथ की यात्रा कर भोलेनाथ के सम्मुख अपने गांव को मंदिर तथा ग्रामवासियों को भगवान समझकर उनकी सेवा करने का संकल्प लिया।

उनके गांव में अकाल और अभाव के कारण निर्धनता तो थी ही, अधिकांश लोग शराब, धूम्रपान और जुए के भी आदी थे। ऐसे में भी उन्होंने धैर्य नहीं छोड़ा। सबसे पहले उन्होंने शराब की भट्टियां बंद कराईं। फिर दुकानदारों से सभी बीड़ी-सिगरेट आदि खरीद कर उनकी होली जलाई। इसके बाद उन्होंने अपनी बीस हजार की कुल पूंजी से गांव के प्राचीन मंदिर का जीर्णोद्धार किया। मंदिर में आरती, भजन आदि होने से गांव का वातावरण बदलने लगा। 

अब श्रमदान तथा बैंक के सहयोग से तालाब तथा कुएं बनाये गये। इससे सिंचित भूमि का क्षेत्रफल 50 से बढ़कर 900 एकड़ हो गया। अतिरिक्त अन्न तथा सब्जी आदि बाजार में जाने से सबकी आर्थिक दशा सुधरने लगी। इसके बाद उन्होंने बरगद, पीपल, नीम, आम, इमली, नीलगिरि आदि के पांच लाख वृक्ष लगवाये। इससे वर्षा का स्तर एक इंच से बढ़कर नौ इंच हो गया। 

1975 तक गांव में केवल कक्षा चार तक की शिक्षा का प्रबन्ध था। अन्ना ने श्रमदान से भवन बनाकर अच्छे शिक्षक नियुक्त किये। इससे विद्यालय कक्षा बारह तक हो गया तथा परीक्षा परिणाम 90 प्रतिशत तक आने लगा। विद्यालय में सब जातियों के बच्चे आयें, इसके लिए विशेष प्रयास किये गये। पुस्तकीय ज्ञान के साथ हाथ के काम सिखाने का भी प्रबन्ध किया गया।

सफाई, नये प्रकार के शौचालय, निर्धूम चूल्हे, गोबर गैस, आरोग्य केन्द्र आदि से क्रमशः सबका स्वास्थ्य सुधरने लगा। लागत मूल्य पर दवा मिलने लगी। कुछ महिलाओं ने नर्सिंग, प्रसूति व परिवार कल्याण कार्यक्रमों का प्रशिक्षण लिया। सौर ऊर्जा संयंत्रों से बिजली की समस्या हल की गयी। धान्य बैंक से गरीबों को फसल के समय बीज उधार दिया जाने लगा।

अन्ना के प्रयास से पूरा गांव एक परिवार की तरह रहता है। वहां चुनाव सर्वसम्मति से होते हैं। महिलाएं पंच, सरपंच आदि बनकर काम संभालती हैं। गांव से कुरीतियां समाप्त हो गयी हैं। अन्ना के काम को देखकर देश-विदेश की सैकड़ों निजी तथा शासकीय संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। असीम ऊर्जा के धनी अन्ना हजारे इन्हें अपनी सेवा-पद्धति का सम्मान मानते हैं।

(संदर्भ : कुमारसभा पत्रक तथा एक कर्मयोगी का गांव)
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15 जनवरी/इतिहास-स्मृति

जम्मू का सफल छात्र आंदोलन

1947 में स्वाधीनता के बाद सभी रियासतें भारत में मिल गयीं; पर जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला के इरादे कुछ और थे। उन दिनों वहां मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहते थे। अलग राज्य, संविधान और झंडे का समर्थक शेख खुद को देश से भी बड़ा समझता था। इसके विरोध में जम्मू में छात्रों ने भारी आंदोलन किया, जिसने सरकार को झुकने को मजबूर कर दिया।
15 जनवरी, 1952 को जम्मू के राजकीय गांधी विज्ञान महाविद्यालय में छात्रों के शारीरिक प्रदर्शन में शेख अब्दुल्ला मुख्य अतिथि थे। शासन ने इसमें उनकी पार्टी ‘नेशनल कांफ्रेंस’ का हल वाला झंडा फहराने का आदेश दिया। मार्च पास्ट में इसे भी सलामी देनी थी। जिन छात्रों ने इसका विरोध किया, उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। छात्र नेता वेद मित्र और यश भसीन को विद्यालय से निकाल दिया गया, जबकि वेद मित्र वहां थे ही नहीं। बाद में उनका निष्कासन तो वापस हो गया; पर दोनों पर 400 रु. जुर्माना कर दिया गया। 
इससे भड़ककर छात्रों ने 28 जनवरी से भूख हड़ताल शुरू कर दी। हर दिन दो नये छात्र इसमें शामिल हो जाते थे। इन्हें जम्मू के केन्द्रीय कारागार में जबरन खिलाने का प्रयास होता था। इनके समर्थन में महाविद्यालय में भी हड़ताल हो गयी। छात्र इन नेताओं के जुर्माने को वापस लेने की मांग कर रहे थे। क्रमशः कई और छात्र भी निकाल दिये गये। महाविद्यालय पुलिस छावनी बन गया। सरकारी कर्मचारी होने के कारण प्रधानाचार्य भी शासन का पक्ष लेते थे।
क्रमशः यह पूरे जम्मू क्षेत्र में आम जनता का आंदोलन बन गया। छह फरवरी को जम्मू में भारी प्रदर्शन हुए। अतः शासन ने सिनेमाघर बंद कर दिये। जिलाधीश ने ‘प्रजा परिषद’ के नेताओं से सहयोग मांगा। उनके प्रयास से समझौता हो गया; पर राज्य के उपप्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद के दुराग्रह से फिर बात बिगड़ गयी। अब शासन ने महाविद्यालय ही बंद कर दिया। आठ फरवरी को वहां पहुंचे छात्रों पर लाठीचार्ज हुआ। इस पर छात्र सचिवालय की ओर बढ़ गये। रास्ते के सब विद्यालयों के छात्र और छात्राएं भी साथ मिलते गये। इस प्रकार दो हजार से भी अधिक युवाओं का समूह एकत्र हो गया।
पुलिस ने इन पर भी लाठी और गोली चलाई; पर छात्र सचिवालय में घुस गये। कुछ उग्र छात्रों ने तोड़फोड़ भी की। सरकार आंदोलन दबाने के लिए मुस्लिम बहुल कश्मीर मिलिशिया को ले आयी। शासन सोचता था कि आंदोलन के पीछे जम्मू क्षेत्र में लोकप्रिय हिन्दूवादी दल ‘प्रजा परिषद’ है। अतः उसने वहां 72 घंटे का कफ्र्यू लगा कर परिषद के अध्यक्ष पंडित प्रेमनाथ डोगरा आदि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। आंदोलन के समाचार पाकर देश के अन्य भागों से हिन्दू नेता जम्मू पहंुचने लगे। सबका एक ही सवाल था कि राजकीय कार्यक्रम में पार्टी का झंडा फहराने और उसे सलामी का क्या औचित्य है ?
नौ फरवरी को सरकार ने कुछ छात्रों को रिहाकर ‘प्रजा परिषद’ से निबटने की घोषणा कर दी। उसके अध्यक्ष पंडित प्रेमनाथ डोगरा को जम्मू से श्रीनगर भेज दिया। रात में छापे मारकर और भी कई नेता पकड़ लिये गये। आंदोलन समर्थक अखबार मिलाप, प्रताप, आर्गनाइजर और कश्मीर मेल आदि पर प्रतिबंध लगा दिया। इधर छात्रों की गिरफ्तारी और रिहाई का क्रम भी जारी था। उन पर जुर्माने भी लगाये जा रहे थे। शेख अब्दुल्ला इन दिनों विदेश दौरे पर थे। वापस आकर वे भी प्रजा परिषद के विरुद्ध आग उगलने लगे। 
इस पर परिषद ने एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली भेजा। इससे आंदोलन की चर्चा संसद में होने लगी। केन्द्रीय मंत्री गोपाल स्वामी अयंगर ने जम्मू आकर शासन को पीछे हटने को कहा। अतः नौ मार्च, 1952 को सभी छात्रों का निष्कासन और जुर्माना वापस ले लिया गया। इस प्रकार सरकार की पराजय के साथ 40 दिन पुराना छात्र आंदोलन समाप्त हुआ। 
(जम्मू-कश्मीर की अनकही कहानी/93, डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री, प्रभात प्रका.)

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