दिसम्बर चौथा सप्ताह

23 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

अग्निपथी अशोक वडेरा

तुलसीदास जी ने कहा है - धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपतकाल परखिये चारी। 

अर्थात धैर्य, धर्म, मित्र और पति या पत्नी की पहचान संकट के समय में ही होती है। अशोक वडेरा ऐसे ही एक पत्रकार स्वयंसेवक थे, जिन्होंने अपने धैर्य और धर्म का परिचय देते हुए आग में फंसे अनेक लोगों को बचाया। यद्यपि इस कारण उन्हें अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी।

अशोक वडेरा का जन्म 23 फरवरी, 1959 को मंडी डबवाली (जिला सिरसा, हरियाणा) में श्री पुन्नूलाल तथा श्रीमती तारावन्ती के घर में हुआ था। पिताजी दुकान पर समाचार पत्र-पत्रिकाएं बेच कर घर चलाते थे। माताजी का स्वभाव अत्यन्त धार्मिक होने के कारण सब बच्चों पर अच्छे संस्कार पड़े। 

अशोक जी ने मगध विश्वविद्यालय से स्नातक तक की शिक्षा पाई थी। छात्र जीवन में ही मंडी डबवाली की शाखा में वे स्वयंसेवक बने थे। क्रमशः उन्होंने संघ के तीनों वर्ष का प्रशिक्षण लिया और फिर तीन वर्ष तक प्रचारक भी रहे। इसके बाद घर आकर वे पैतृक कारोबार में लग गये। अखबार बेचते-बेचते उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता में रुचि उत्पन्न हो गयी। अतः वे दिल्ली से प्रकाशित होने वाले जनसत्ता समाचार पत्र के संवाददाता बन गये। इसी दौरान उनका विवाह हुआ और उन्हें दो पुत्रों की प्राप्ति हुई। 

23 दिसम्बर, 1995 को दोपहर में डी.ए.वी. स्कूल, मंडी डबवाली का वार्षिकोत्सव हो रहा था। एक विशाल पंडाल बनाया गया था, जिसमें विद्यालय के बच्चे, उनके अभिभावक तथा नगर के लोग भारी संख्या में बैठे थे। जिला अधिकारी सहित शासन-प्रशासन के अन्य कई वरिष्ठ अधिकारी भी वहां आये थे। अशोक वडेरा भी पत्रकारों के साथ सामने की कुर्सियों पर बैठे थे।

मंच पर आकर्षक कार्यक्रम हो रहे थे कि अचानक कुर्सियों के पीछे लगे एक परदे में आग जैसी हलचल हुई। इसे सामान्य धुआं समझ कर कुछ लोग उधर दौड़े। मंच संचालक ने सबको बैठे रहने को कहा; पर तभी आग बढ़ने लगी और इस कारण पंडाल में पीछे की ओर भगदड़ मच गयी।
ऐसे में अशोक वडेरा ने मंच पर आकर माइक संभाला और सबसे शान्त रहने का आग्रह करते रहे; पर तब तक पंडाल में सब ओर लगी प्लास्टिक की रस्सियां जलने लगीं और देखते ही देखते आग ने विकराल रूप ले लिया। 

कार्यक्रम स्थल पर मंच की ओर एक द्वार था। अधिकांश लोग बचने के लिए उधर भागे; पर पुलिस वाले सबसे पहले जिला अधिकारी को निकालना चाहते थे। अतः उन्होंने इस द्वार पर लोगों को नहीं आने दिया। इसका भीषण दुष्परिणाम हुआ और सब लोग धधकते हुए पंडाल में घिर गये। 

अशोक वडेरा जहां बैठे थे, उसके पीछे की दीवार पर कांटों वाली तारें लगी थीं। बहुत से पत्रकार, नागरिक तथा प्रशासनिक अधिकारी उस दीवार पर चढ़ कर दूसरी ओर कूद गये। इससे उन्हें चोट तो खूब आई, पर उनके प्राण बच गये। अशोक वडेरा भी चाहते, तो ऐसा कर सकते थे; पर उनकी प्राथमिकता अपने से अधिक वहां उपस्थित बच्चों के प्राण बचाना था।

अशोक जी लगातार सबको बचने के लिए दिशा बताते रहे। इस कारण सैकड़ों लोगों के प्राण बचे; पर वे स्वयं नहीं बच सके। उनका शरीर इतना अधिक जल गया था कि उन्हें उंगली की अंगूठी से ही पहचाना जा सका। इस कांड  में सैकड़ों बच्चे और बड़े मारे गये। सारे नगर में हाहाकार मच गया।

अशोक वडेरा की स्मृति को स्थायी रखने के लिए स्थानीय नागरिकों ने मंडी डबवाली में एक सरस्वती विद्या मंदिर की स्थापना की है। इसकी नींव संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह श्री हो.वे.शेषाद्रि ने रखी थी तथा भवन का उद्घाटन विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष श्री अशोक सिंहल ने किया था।

(संदर्भ  : प्रो. कैलाश भसीन, पूर्व सहप्रान्त कार्यवाह, हरियाणा)
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24 दिसम्बर/जन्म-दिवस

भारत रत्न सीमान्त गांधी

आज जैसा कटा-फटा भारत हमें दिखाई देता है, किसी समय वह ऐसा नहीं था। तब हिमालय के नीचे का सारा भाग भारत ही कहलाता था; पर विदेशी हमले और धर्मान्तरण के कारण इनमें से पूर्व और पश्चिम के अनेक भाग भारत से कट गये। अफगानिस्तान से लगे ऐसे ही एक भाग पख्तूनिस्तान के उतमानजई गाँव में 24 दिसम्बर, 1880 को अब्दुल गफ्फार खाँ का जन्म हुआ। उन दिनों इसे भारत का नार्थ वेस्ट या फ्रण्टियर क्षेत्र कहा जाता था। 

इस क्षेत्र के लोग स्वभाव से विद्रोही एवं लड़ाकू थे। अंग्रेज शासकों ने इन्हें बर्बर और अपराधी कहकर यहाँ ‘फ्रंटियर क्राइम्स रेगुलेशन ऐक्ट’ लगा दिया और इसके अन्तर्गत यहाँ के निवासियों का दमन किया। अब्दुल गफ्फार खाँ का मत था कि शिक्षा के अभाव में यह क्षेत्र पिछड़ा है और लोग मजबूरी में अपराधी बन रहे हैं। इसलिए 17 वर्ष की अवस्था में इन्होंने मौलवी अब्दुल अजीज के साथ मिलकर अपने गाँव में एक विद्यालय स्थापित किया, जहाँ उनकी मातृभाषा में ही शिक्षा दी जाती थी।

थोड़े समय में ही इनके विद्यालय की ख्याति हो गयी। इससे प्रेरित होकर और लोगों ने भी ऐसे ही मदरसे खोले। 1921 में इन्होंने अंजुमन इस्लाह अल् अफशाना आजाद हाई स्कूल की स्थापना की। इस प्रकार इनकी छवि शिक्षा के माध्यम से समाज सेवा करने वाले व्यक्ति की बन गयी। हाई स्कूल करने के बाद ये अलीगढ़ आ गये, जहाँ इनकी भेंट अनेक स्वतन्त्रता सेनानियों से हुई। वहाँ ये गांधी जी के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए।

पेशावर की खिलाफत समिति के अध्यक्ष पद पर रहकर इन्होंने सीमा प्रान्त में शिक्षा का पर्याप्त विस्तार किया। इसके बाद ये सेना में भर्ती हो गये। एक बार ये अपने एक सैनिक मित्र के साथ अंग्रेज अधिकारी से मिलने गये। वहाँ एक छोटी सी भूल पर इनके मित्र को उस अधिकारी ने बहुत डाँटा। अब्दुल गफ्फार खां के मन को इससे भारी चोट लगी और इन्होंने सेना छोड़ दी। अब इन्होंने एक संस्था ‘खुदाई खिदमतगार’ तथा उसके अन्तर्गत ‘लाल कुर्ती वालंटियर फोर्स’ बनाई। इसके सदस्य लाल रंग के कुर्ते पहनते थे।

खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने सदा अहिंसात्मक तरीके से अंग्रेजों का विरोध किया। प्रतिबन्ध के बावजूद ये जनसभाओं का नेतृत्व करते रहे। इस कारण इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। एक बार जब इन्हें पकड़कर न्यायालय में प्रस्तुत किया गया, तो न्यायाधीश ने व्यंग्य से पूछा, "क्या तुम पठानों के बादशाह हो ?" तब से ये ‘बादशाह खान’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। गांधीवादी रीति के समर्थक होने के कारण इन्हें ‘सीमान्त गांधी’ भी कहा जाता है।

इन्होंने 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में उत्साहपूर्वक भाग लिया और जेल गये। देश विभाजन की चर्चा होने पर इन्हें बहुत कष्ट होता था। पाकिस्तान कैसा मजहबी, असहिष्णु और अलोकतान्त्रिक देश होगा, इसकी इन्हें कल्पना थी। इसलिए ये बार-बार कांग्रेस के नेताओं और अंग्रेजों से प्रार्थना करते थे उन्हें भूखे पाकिस्तानी भेड़ियों के सामने न फेंके। उनके क्षेत्र को या तो भारत में रखें या फिर स्वतन्त्र देश बना दें; पर यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी। 15 अगस्त, 1947 को पख्तूनिस्तान पाकिस्तान का अंग बन गया।

बादशाह खान भारत में भी अत्यधिक लोकप्रिय थे। शासन ने 1987 में उन्हें ‘भारत रत्न’ देकर सम्मानित किया। 20 जनवरी, 1988 को 98 वर्ष की आयु में भारत के इस घनिष्ठ मित्र का देहान्त हुआ।
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24 दिसम्बर/जन्म-दिवस

कर्तव्यनिष्ठ व सेवाभावी श्रीकृष्णचंद्र भारद्वाज

संघ के प्रचारक का अपने घर से मोह प्रायः छूट जाता है; पर 24 दिसम्बर, 1920 को पंजाब में जन्मे श्रीकृष्णचंद्र भारद्वाज के एक बड़े भाई नेत्रहीन थे। जब वे वृद्धावस्था में बिल्कुल अशक्त हो गये, तो श्रीकृष्णचंद्र जी ने अंतिम समय तक एक पुत्र की तरह लगन से उनकी सेवा की। इस प्रकार उन्होंने संघ और परिवार दोनों के कर्तव्य का समुचित निर्वहन किया।

श्री कृष्णचंद्र जी अपनी शिक्षा पूर्ण कर 1942 में प्रचारक बने। प्रारम्भ में उन्होंने पंजाब, दिल्ली और फिर उत्तर प्रदेश के उन्नाव में संघ कार्य किया। 1963 में उ.प्र. और बिहार के प्रचारकों की एक बैठक काशी में हुई थी। वहां से जिन कई प्रचारकों को बिहार भेजा गया, उनमें श्रीकृष्णचंद्र जी भी थे। बिहार में भोजपुर और फिर भागलपुर में वे जिला प्रचारक रहे। आपातकाल  में भूमिगत रहकर वे जन-जागरण एवं सत्याग्रह के संचालन में लगे रहे। पुलिस  और कांग्रेसी मुखबिरों के भरपूर प्रयास के बाद भी वे पकड़ में नहीं आये। 

1977 में आपातकाल समाप्त होने पर जब ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के कार्य का पूरे देश में विस्तार किया गया, तो उन्हें बिहार में इसका संगठन मंत्री बनाया गया। उनके लिए यह काम बिल्कुल अपरिचित और नया था; पर उन्होंने इस दायित्व पर रहते हुए वर्तमान झारखंड तथा बिहार के अन्य वनवासी क्षेत्रों में सघन संपर्क कर संगठन की सुदृढ़ नींव रखी।

कुछ वर्ष बाद उन्हें बिहार क्षेत्र का बौद्धिक प्रमुख बनाया गया। व्यवस्थित काम के प्रेमी होने के कारण बौद्धिक पुस्तिका तथा अन्य बौद्धिक पत्रक ठीक से छपकर निर्धारित समय से पूर्व सब शाखाओं तक पहुंच जाएं, इसकी ओर उनका विशेष ध्यान रहता था। सेवाभावी होने के कारण बीमार प्रचारक तथा अन्य कार्यकर्ताओं की देखभाल में वे बहुत रुचि लेते थे। समय से दवा देने से लेकर कपड़े और कमरे को धोने तक में वे कभी संकोच नहीं करते थे।

नित्य शाखा को श्रद्धा का विषय मानकर वे इसके प्रति अत्यधिक आग्रही  रहते थे। निर्णय करने के बाद उसे निभाना उनके स्वभाव में था। नब्बे के दशक में जब श्रीराम मंदिर आंदोलन ने गति पकड़ी, तो उन्हें बिहार में विश्व हिन्दू परिषद का संगठन मंत्री बनाया गया। इस दौरान हुए सब कार्यक्रमों में बिहार की भरपूर सहभागिता में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। 

हिन्दी भाषा से उन्हें बहुत प्रेम था। यदि कोई उनसे बात करते समय अनावश्यक रूप से अंग्रेजी का शब्द बोलता, तो वे उसे तुरन्त सुधार कर उसका हिन्दी अनुवाद बोल देते थे। इससे सामने वाला व्यक्ति समझ जाता था और फिर सदा हिन्दी बोलने का ही निश्चय कर लेता था।

श्रीकृष्णचंद्र जी पाइल्स के मरीज थे। अतः वे मिर्च और मसाले वाले भोजन से परहेज करते थे; पर प्रवास में सब तरह के परिवारों में भोजन के लिए जाना पड़ता है। अतः कई बार मिर्च वाला भोजन सामने आ जाता था। ऐसे में वे दूसरी बार बनवाने की बजाय उसी सब्जी को अच्छी तरह धोकर खा लेते थे। उनके कारण किसी को कष्ट हो, यह उन्हें अच्छा नहीं लगता था।

जालंधर में रहने वाले उनके बड़े भाई भी अविवाहित थे। एक दुर्घटना में वे काफी घायल हो गये। ऐसे में श्रीकृष्णचंद्र जी उनकी सेवा के लिए वहीं आ गये। उनके देहांत के बाद वे कई वर्ष लुधियाना कार्यालय पर रहे। जब वृद्धावस्था के कारण उनका अपना स्वास्थ्य खराब रहने लगा, तो वे जालंधर कार्यालय पर ही रहने लगे। वहां पर ही 16 फरवरी, 2012 को उनका देहांत हुआ।

(संदर्भ  : पांचजन्य 26.2.2012/वीरेन्द्र जी एवं ओमप्रकाश जी)
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25 दिसम्बर/जन्म-दिवस

हिन्दुत्व के आराधक महामना मदनमोहन मालवीय

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का नाम आते ही हिन्दुत्व के आराधक पंडित मदनमोहन मालवीय जी की तेजस्वी मूर्ति आँखों के सम्मुख आ जाती है। 25 दिसम्बर, 1861 को प्रयाग (उ.प्र.) में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता पंडित ब्रजनाथ कथा, प्रवचन और पूजाकर्म से अपने परिवार का पालन करते थे। 

प्राथमिक शिक्षा पूर्णकर मालवीय जी ने संस्कृत तथा अंग्रेजी पढ़ी। निर्धनता के कारण उनकी माताजी ने अपने कंगन गिरवी रखकर इन्हें पढ़ाया। उन्हें यह बात बहुत कष्ट देती थी कि मुसलमान और ईसाई विद्यार्थी तो अपने धर्म के बारे में खूब जानते हैं; पर हिन्दू इस दिशा में कोरे रहते हैं।

मालवीय जी संस्कृत में एम.ए. करना चाहते थे; पर आर्थिक विपन्नता के कारण उन्हें अध्यापन करना पड़ा। उ.प्र. में कालाकांकर रियासत के नरेश उनसे बहुत प्रभावित थे। वे ‘हिन्दुस्थान’ नामक समाचार पत्र निकालते थे। उन्होंने मालवीय जी को बुलाकर इसका सम्पादक बना दिया। मालवीय जी इस शर्त पर तैयार हुए कि राजा साहब कभी शराब पीकर उनसे बात नहीं करेंगे। मालवीय जी के सम्पादन में पत्र की सारे भारत में ख्याति हो गयी। 

पर एक दिन राजासाहब ने अपनी शर्त तोड़ दी। अतः सिद्धान्तनिष्ठ मालवीय जी ने त्यागपत्र दे दिया। राजासाहब ने उनसे क्षमा माँगी; पर मालवीय जी अडिग रहे। विदा के समय राजासाहब ने यह आग्रह किया कि वे कानून की पढ़ाई करें और इसका खर्च वे उठायेंगे। मालवीय जी ने यह मान लिया।

दैनिक हिन्दुस्थान छोड़ने के बाद भी उनकी पत्रकारिता में रुचि बनी रही। वे स्वतन्त्र रूप से कई पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे। इंडियन यूनियन, भारत, अभ्युदय, सनातन धर्म, लीडर, हिन्दुस्तान टाइम्स....आदि हिन्दी व अंग्रेजी के कई समाचार पत्रों का सम्पादन भी उन्होंने किया। 

उन्होंने कई समाचार पत्रों की स्थापना भी की। कानून की पढ़ाई पूरी कर वे वकालत करने लगे। इससे उन्होंने प्रचुर धन अर्जित किया। वे झूठे मुकदमे नहीं लेते थे तथा निर्धनों के मुकदमे निःशुल्क लड़ते थे। इससे थोड़े ही समय में ही उनकी ख्याति सर्वत्र फैल गयी। वे कांग्रेस में भी बहुत सक्रिय थे।

हिन्दू धर्म पर जब भी कोई संकट आता, मालवीय जी तुरन्त वहाँ पहुँचते थे। हरिद्वार में जब अंग्रेजों ने हर की पौड़ी पर मुख्य धारा के बदले बाँध का जल छोड़ने का षड्यन्त्र रचा, तो मालवीय जी ने भारी आन्दोलन कर अंग्रेजों को झुका दिया। हर हिन्दू के प्रति प्रेम होने के कारण उन्होंने हजारों हरिजन बन्धुओं को ॐ नमः शिवाय और गायत्री मन्त्र की दीक्षा दी। हिन्दी की सेवा और गोरक्षा में उनके प्राण बसते थे। उन्होंने लाला लाजपतराय और स्वामी श्रद्धानन्द के साथ मिलकर ‘अखिल भारतीय हिन्दू महासभा’ की स्थापना भी की।

मालवीय जी के मन में लम्बे समय से एक हिन्दू विश्वविद्यालय बनाने की इच्छा थी। काशी नरेश से भूमि मिलते ही वे पूरे देश में घूमकर धन संग्रह करने लगे। उन्होंने हैदराबाद और रामपुर जैसी मुस्लिम रियासतों के नवाबों को भी नहीं छोड़ा। इसी से लोग उन्हें विश्व का अनुपम भिखारी कहते थेे। 

अगस्त 1946 में जब मुस्लिम लीग ने सीधी कार्यवाही के नाम पर पूर्वोत्तर भारत में कत्लेआम किया, तो मालवीय जी रोग शय्या पर पड़े थे। वहाँ हिन्दू नारियों पर हुए अत्याचारों की बात सुनकर वे रो उठे। इसी अवस्था में 12 नवम्बर, 1946 को उनका देहान्त हुआ। शरीर छोड़ने से पूर्व उन्होंने अन्तिम संदेश के रूप में हिन्दुओं के नाम बहुत मार्मिक वक्तव्य दिया था।
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25 दिसम्बर/जन्म-दिवस

हिन्दुत्व के प्रचारक महानामव्रत जी

श्री महानामव्रत जी का जन्म ग्राम खालिसकोटा (जिला बारीसाल, वर्तमान बांग्लादेश) में 25 दिसम्बर, 1904 को हुआ था। उनका बचपन का नाम बंकिम था। वे अपने धर्मप्रेमी माता-पिता की तीसरी सन्तान थे। बंकिम को उनसे बाल्यावस्था में ही रामायण, महाभारत और अन्य धर्मग्रन्थों का ज्ञान मिल गया था। लगातार अध्ययन से पिता कालीदास जी की आँखों की ज्योति चली गयी। ऐसे में बंकिम उन्हें धर्मग्रन्थ पढ़कर सुनाने लगेे।

वे एक प्रतिभावान छात्र थे। उन्होंने कक्षा आठ तक पढ़ाई की और फिर गांधी जी की अपील पर असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। इसके तीन साल बाद वे श्रीजगद्बन्धु प्रभू के अनुयायी बने। श्रीजगद्बन्धु प्रभू एक अंधेरी कोठरी में सात साल एकान्त साधना कर बाहर आये थे। तब हजारों लोग उनकी एक झलक देखने के लिए एकत्र हुए थे। बंकिम पैदल ही घर से 125 कि.मी. दूर वहाँ गये। उनके दर्शन से वे अभिभूत हो उठे।

जगद्बन्धु प्रभू के देहान्त के बाद बंकिम ने संन्यासी बनने का निश्चय किया। उनके बीमार पिता ने यह सुनकर उसी समय देह त्याग दी। इसके बाद वे श्री जगद्बन्धु के अनुयायी और महानाम सम्प्रदाय के संस्थापक अध्यक्ष श्रीपाद महेन्द्र जी के चरणों में गयेे। महेन्द्र जी ने उन्हें घर जाकर हाईस्कूल की परीक्षा देने को कहा। 

यद्यपि उन्होंने तीन साल से पढ़ाई छोड़ दी थी। फिर भी कठोर परिश्रम कर उन्होंने परीक्षा दी और छात्रवृत्ति प्राप्त की। वह तब केवल 17 साल के थे। इसके बाद वे विधिवत महानाम सम्प्रदाय के संन्यासी बन गये। उनका संन्यास का नाम श्रीमहानामव्रत ब्रह्मचारी हुआ।

महेन्द्र जी की प्रेरणा से उन्होंने बी.ए. और एम.ए. की परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। 1932 में उन्होंने दर्शनशास्त्र से विशेष योग्यता लेकर एम.ए. किया। परिणाम आने से पूर्व ही एक सम्मेलन में भाग लेने वे शिकागो चले गये। वहाँ उनके भाषणों से सब बहुत प्रभावित हुए। लोगों ने उन्हें अमरीका में ही रहने का आग्रह किया; पर उनका वीसा केवल तीन मास का ही था। कुछ प्रभावी लोगों ने उनको शिकागो विश्वविद्यालय में पी-एच.डी. हेतु प्रवेश दिलवा दिया। इससे उनका वीसा छात्र-वीसा में बदल गया।

1936 में वे एक वैश्विक सम्मेलन हेतु लन्दन गये। वहाँ भी उनके भाषणों की धूम मच गयी। 1937 मंे उन्हें चैतन्य महाप्रभु के शिष्य श्री जीव गोस्वामी के दर्शन पर शोध के लिए पी-एच.डी दी गयी। इसी वर्ष उन्हें विश्व अनुयायी संघ का सचिव पद दिया गया।  नाते अमरीका, यूरोप और कनाडा में उन्होंने हिन्दू धर्म का प्रचार किया। उन्होंने अमरीका के 29 विश्वविद्यालयों में अतिथि प्राध्यापक के नाते भाषण दिये। वे निःसंकोच क्लब और चर्च में जाकर भी हिन्दू धर्म के बारे में लोगों को बताते थे।

श्री महानामव्रत जी सदा संन्यासी वेष में रहते थे।1939 में भारत लौटकर उन्होंने अपना जीवन वेद, गीता, श्रीमद्भागवत, श्री जगद्बन्धु प्रभु व श्री चैतन्य देव की शिक्षा के प्रचार में समर्पित कर दिया। 

पूर्वी पाकिस्तान बनने पर अधिकांश हिन्दू संस्थाओं ने वह देश छोड़ दिया; पर श्री महानामव्रत जी वहीं रहकर धर्म का प्रचार करते रहे। बांग्लादेश मुक्ति संघर्ष में उनके आठ युवा शिष्य बलिदान हुए। उनकी पुस्तकें गौर कथा, चण्डी चिन्तन, उद्धव सन्देश तथा गीता, उपनिषद और श्रीमद्भागवत की व्याख्याएँ असाधारण हैं।
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25 दिसम्बर/पुण्य-तिथि      

वैश्विक स्वयंसेवक जगदीश शास्त्री 

वर्ष 1946 के सितम्बर मास में एक यात्री जहाज ‘एस.एस.वसना’ मुंबई से केन्या की ओर चला। इसमें गांव छारिक (मोगा, पंजाब) निवासी स्वयंसेवक 24 वर्षीय जगदीश चंद्र शारदा भी थे। पांचवें दिन डेक पर घूमते हुए उन्होंने संघ की खाकी निक्कर पहने एक युवक को देखा। वे थे गुजरात के 19 वर्षीय माणिक लाल रूघाणी। फिर क्या था; दोनों हर्ष से गले लिपट गये। अस्त हो रहे सूर्य को साक्षी मानकर दोनों ने ‘‘नमस्ते सदा वत्सले’’ प्रार्थना की। इस प्रकार सितम्बर 1946 में समुद्र की लहरों पर पहली सागरपारीय शाखा लगी।  

इसके बाद तो फिर रोज शाखा लगने लगी। मोम्बासा पहुंचते तक शाखा की संख्या 17 हो गयी। वहां जाकर उन्होंने अन्य हिन्दुओं से संपर्क किया और मकर संक्रांति 1947 को विधिवत शाखा और ‘भारतीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना की। इसके मूलाधार जगदीश चन्द्र शारदा ने 1938 में संस्कृत में ‘शास्त्री’ की उपाधि ली थी। वे नैरोबी के सनातन धर्म गर्ल्स स्कूल में हिन्दी तथा संस्कृत पढ़ाने जा रहे थे। कुछ साल बाद उन्हें केन्या के शिक्षा विभाग में पक्की नौकरी मिल गयी। 1977 में उन्होंने वहां से अवकाश लिया।

केन्या में हिन्दू काफी समय से रह रहे थे। भाषा, राज्य, जाति और रोजगार पर आधारित उनकी 147 संस्थाएं वहां थीं; पर कोई उनकी सुनता नहीं था। शास्त्री जी ने सबसे मिलकर ‘हिन्दू काउंसिल ऑफ केन्या’ का गठन किया। कुछ साल में ये हिन्दुओं की प्रमुख संस्था बन गयी और उनकी बात सुनी जाने लगी। संकट में उन्हें इससे सहारा मिलने लगा। आगे चलकर नैरोबी में ‘दीनदयाल भवन’ बना, जो सभी हिन्दू गतिविधियों का केन्द्र बन गया।

धीरे-धीरे केन्या के कई नगरों में शाखा खुल गयीं। उसमें सब तरह के लोग आने लगे। इससे संघ की प्रतिष्ठा और शासन में प्रभाव बढ़ा। दीवाली को राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया। ¬ का डाक टिकट जारी हुआ और स्कूलों में हिन्दू धर्म पर एक पाठ पढ़ाया जाने लगा। पहले स्थानीय गुंडों के कारण कई हिन्दू व्यापारी देश छोड़ जाते थे; पर अब ऐसी चर्चा होने पर शासक ही उन्हें रोक लेते थे। इसमें सबसे प्रमुख भूमिका शास्त्री जी की ही थी। 

केन्या के बाद मॉरीशस, इंग्लैंड और कनाडा में विभिन्न नामों से संघ का काम शुरू हुआ। अवकाश लेकर शास्त्री जी अपने बेटे के पास कनाडा में रहने लगे। संघ में विश्व विभाग के गठन के बाद उनके संपर्कों का खूब लाभ मिला। वे कनाडा में इसका केन्द्रीय कार्यालय संभालते थे। वे विश्व विभाग के जीवंत कोश थे। 1987 में केन्या में भारतीय स्वयंसेवक संघ की 40 वीं वर्षगांठ पर हुए शिविर में शास्त्री जी और रूघाणी जी, दोनों उपस्थित थे। 1989 में डा. हेडगेवार की जन्मशती पर संघ का काम युवाओं को सौंपकर शास्त्री जी ‘हिन्दू विद्या मंदिर’ (हिन्दू इंस्टीट्यूट ऑफ लर्निंग) के काम में लग गये।

शास्त्री जी विदेशस्थ स्वयंसेवकों एवं भारतीयों को भारत की यात्रा के लिए प्रेरित करते थे, जिससे वे अपने धर्म, संस्कृति और पूर्वजों से जुड़े रहें। विश्व विभाग के हर शिविर में वे आते थे। 2010 के पुणे शिविर में तो वे पहिया कुर्सी पर ही घूमकर सबसे मिले। वहां हर कोई उनके साथ एक फोटो जरूर खिंचवाना चाहता था। उन्होंने भी किसी को मना नहीं किया। कोई उनके गिरते स्वास्थ्य की चिंता करता, तो वे ‘प्रभु इच्छा’ कहकर हंस देते थे।

शास्त्री जी 1940 में अमृतसर में स्वयंसेवक बने और 1942 में संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। वे प्रसिद्धि से दूर रहकर दूसरों को श्रेय देते थे। अतः हर जगह नये और युवा कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी हो गयी। 96 वर्ष की भरपूर आयु में 25 दिसम्बर, 2017 को कनाडा में उनका निधन हुआ। संघ के वैश्विक विस्तार में उनका योगदान अविस्मरणीय है। 


(आर्गनाइजर 7.1.18, मैमोरीज ऑफ ए ग्लोबल हिन्दू, कृ.रू.सं.द/6)
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25 दिसम्बर/जन्म-दिवस

गुनाहों का देवता डा. धर्मवीर भारती 

सत्तर और अस्सी के दशक में हिन्दी साहित्याकाश में साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ सूर्य की तरह पूरे तेज से प्रकाशित होती थी। उसमें रचना छपते ही लेखक का कद रातोंरात बढ़ जाता था। उस समय के सैकड़ों ऐसे लेखक हैं, जिन्होंने धर्मयुग से पहचान और प्रसिद्धि पाई। छपाई की पुरानी तकनीक के दौर में भी धर्मयुग की प्रसार संख्या पांच लाख के लगभग थी। इसका अधिकांश श्रेय यदि किसी को देना हो, तो वे थे उसके यशस्वी सम्पादक धर्मवीर भारती।

धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसम्बर, 1926 को प्रयाग (उ.प्र.) में हुआ था। भारती को पढ़ने का बहुत शौक था। वे विद्यालय से सीधे पुस्तकालय जाते थे; पर अर्थाभाव के कारण वे किसी पुस्तकालय के सदस्य नहीं बन सके। उनकी यह लगन देखकर एक पुस्तकालय के प्रबन्धक उन्हें पांच दिन के लिए निःशुल्क पुस्तकें देने लगे। इस प्रकार भारती ने हजारों पुस्तकें पढ़ डालीं।

प्रयाग वि.वि. से प्रथम श्रेणी में एम.ए. करने के बाद उन्होंने 1946 में डा. धीरेन्द्र वर्मा के निर्देशन में सिद्ध साहित्य पर शोध प्रबन्ध लिखकर पी-एच.डी. की उपाधि ली तथा पहले हिन्दुस्तानी अकादमी में और फिर वि.वि. में ही प्राध्यापक हो गये। उन दिनों हिन्दी साहित्य की राजधानी प्रयाग ही थी। वहां की साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहते हुए वे अभ्युदय, संगम, निकष, आलोचना आदि पत्रिकाओं तथा हिन्दी साहित्य कोश के सम्पादन से सम्बद्ध रहे। 

1960 से 1987 तक वे धर्मयुग’ के सम्पादक रहे। 'टाइम्स आॅफ इंडिया' समूह की यह पत्रिका उन दिनों मुंबई से प्रकाशित होती थी। प्रबन्धकों ने उनसे आश्वासन चाहा कि सम्पादक रहते हुए वे निजी लेखन नहीं करेंगे; पर धर्मवीर भारती ने इस ठुकरा दिया और अपनी शर्तों पर ही काम किया। 

धर्मवीर भारती को सम्पादन में प्रबन्धकों का हस्तक्षेप पसंद नहीं था। उनके सम्पादन में पत्रिका ने नये कीर्तिमान स्थापित किये। उसमें साहित्य और समाचारों का सुंदर समन्वय होता था। बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की रिपोर्टिंग के लिए कोलकाता से विष्णुकांत शास्त्री को साथ लेकर वे स्वयं गये थे। 1971 में हुए युद्ध में भी सीमा पर जाकर उन्होंने वहां से जीवंत समाचार भेजे। 

धर्मवीर भारती सिद्धांतवादी व्यक्ति थे। 1974-75 में बिहार में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान जब जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार किया गया, तो इसके विरोध में लिखी गयी उनकी कविता ‘मुनादी’ बहुत चर्चित हुई। बिहार आंदोलन को वे भारतीय राजनीति का महत्वपूर्ण मोड़ मानते थे। अतः अपने संस्थान के दबाव के बावजूद उन्होंने इसके बारे में लिखने के लिए एक संवाददाता गणेश मंत्री को बिहार भेजा। बिनोबा द्वारा आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहने पर भी उन्होंने कविता लिखकर विरोध किया।

ऐसा कहते हैं कि भारती की बढ़ती लोकप्रियता से उनके प्रकाशन समूह को असुविधा होने लगी। अतः 1987 में भारती ने यह पदभार छोड़ दिया।
धर्मवीर भारती ने साहित्य की हर विधा में प्रचुर लेखन किया। महाभारत तथा द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका पर आधारित पद्य नाटक ‘अंधा युग’ का मंचन अलग-अलग निर्देशकों द्वारा आज भी किया जाता है। ‘गुनाहों का देवता’ उनका सार्वकालिक उपन्यास है, जिसके नये संस्करण लगातार छप रहे हैं। 

इसके अतिरिक्त कनुप्रिया, सूरज का सातवां घोड़ा, मुर्दों का गांव, स्वर्ग और पृथ्वी, चांद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान, ग्यारह सपनों का देश, ठेले पर हिमालय, पश्यंती.. आदि उनकी चर्चित पुस्तकें हैं।

साहित्य और कला जगत के अनेक सम्मानों के साथ ही ‘पद्म श्री’ से विभूषित डा. धर्मवीर भारती का चार सितम्बर, 1997 को देहांत हुआ।

(संदर्भ : प्रभासाक्षी 25.12.2009/दैनिक जागरण 27.12.2007)
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25 दिसम्बर/प्रेरक-प्रसंग

संघ शिविर में गांधी जी

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और गांधी जी के बारे में लोग तरह-तरह की बात करते हैं, जबकि गांधी जी संघ के बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने संघ का काम एक शिविर में जाकर प्रत्यक्ष रूप से देखा था। यह प्रसंग तब ही का है।

संघ में कार्यकताओं के प्रशिक्षण के लिए दो से लेकर 25 दिन तक के शिविर और वर्ग होते हैं। 1,500 स्वयंसेवकों का ऐसा ही एक शीत-शिविर 1934 में 22 से 26 दिसम्बर तक वर्धा के एक मैदान में हुआ था, जो कांग्रेस के बड़े नेता सेठ जमनालाल बजाज का था। उन दिनों में सेठ जी के बंगले की दूसरी मंजिल पर गांधी जी भी ठहरे हुए थे। शिविर में बिगुल बजने के साथ ही दिनचर्या शुरू हो जाती थी। गांधी जी अपने आवास से तथा सुबह घूमने जाते समय अनुशासित स्वयंसेवकों के कार्यक्रम देखते थे।

इस सबसे गांधी जी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपने सहयोगी महादेव देसाई से शिविर देखने की इच्छा व्यक्त की। इस पर महादेव भाई ने वर्धा के जिला संघचालक अप्पा जी को संदेश भेजा। अप्पा जी संघ के साथ कांग्रेस से भी जुड़े हुए थे। संदेश पाकर वे गांधी जी के पास गये और उनसे कहा कि आप अपनी सुविधा का समय बता दें। हम तभी आपका स्वागत करेंगे।

गांधी जी ने बताया कि वे कल सुबह छह बजे आकर डेढ़ घंटा वहां रुकेंगे। अगले दिन गांधी जी के आते ही स्वयंसेवकों ने उनकी मानवंदना की। उनके साथ महादेव देसाई, मीराबेन तथा अन्य कुछ लोग भी थे। यह देखकर गांधी जी ने अप्पा जी के कंधे पर हाथ रखकर कहा, ‘‘मैं सचमुच प्रसन्न हो गया हूं। संपूर्ण देश में इतना प्रभावी दृश्य मैंने अभी तक कहीं नहीं देखा।’’

इसके बाद वे भोजनालय, चिकित्सालय तथा स्वयंसेवकों के आवास में गये। उन्हें यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि सबका भोजन एक घंटे में बिना किसी बाधा के हो जाता है। इसके लिए सबसे एक रु. तथा थोड़ा अनाज लिया गया था। सब स्वयंसेवक जाति का विचार किये बिना एक साथ खाना खाते हैं। उन्हें बड़ा आश्चर्य लगा। उन्होंने कुछ स्वयंसेवकों से खोद-खोदकर जाति पूछी। प्रायः सबने यही कहा कि हम किसी से जाति नहीं पूछते। हिन्दू के नाते हम आपस में भाई हैं। अतः ऊंच-नीच की बात हमें समझ में नहीं आती।

गांधी जी ने अप्पा जी पूछा कि जातिभेद मिटाने के लिए हम तथा कई संस्थाएं काम करती हैं; पर सफलता नहीं मिलती। तो फिर आपने यह सब कैसे किया ? अप्पा जी ने कहा कि जाति की बजाय हिन्दुत्व का भाव जाग्रत करने से ऐसा हुआ है। हम शब्दों की बजाय आचरण पर जोर देते हैं। इसका संपूर्ण श्रेय संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार को है। तभी बिगुल बजा और सब स्वयंसेवक दक्ष में खड़े हो गये। ध्वजारोहण होने पर सभी के साथ गांधी जी ने संघ की पद्धति से भगवा ध्वज को प्रणाम किया।

इसके बाद गांधी जी संघ वस्तु भंडार में गये। वहां बिक्री के आवश्यक सामान के साथ ही छायाचित्र, सूक्तिपट, घोषवाद्य तथा अस्त्र-शस्त्र आदि की प्रदर्शनी लगी थी। उनमें एक चित्र डा. हेडगेवार का भी था। गांधी जी के पूछने पर अप्पा ने बताया कि यही संघ के संस्थापक हैं। हम उन्हें सरसंघचालककहते हैं। उनके नेतृत्व में ही संघ का पूरा काम चल रहा है। गांधी जी ने उनसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। इस पर अप्पा जी ने कहा कि वे कल आने वाले हैं। आप चाहें, तो वे आपके दर्शन करने जरूर आएंगे।

अपने आवास पर जाते हुए उन्होंने कहा कि इसमें यदि सब धर्म वालों को आने की छूट हो, तो अधिक अच्छा रहता। अप्पा जी ने उत्तर दिया कि किसी के प्रति द्वेष न रखकर केवल हिन्दुओं का संगठन करना देश विरोधी नहीं है। गांधी जी ने भी इसे मान्य किया। अगले दिन डा. हेडगेवार आये और शिविर समाप्ति के बाद गांधी जी से मिलने उनके आवास पर गये।

(डा. हेडगेवार चरित/284, ना.ह.पालकर, लोकहित)

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25 दिसम्बर/जन्म-दिवस

गोवा मुक्ति सेनानी मोहन रानाडे

15 अगस्त 1947 को हम स्वाधीनता दिवस मनाते हैं। यद्यपि उस दिन पूरा भारत आजाद नहीं हुआ था। गोवा, दमन, दीव आदि तब भी पुर्तगाल के अधीन थे। प्रधानमंत्री नेहरू जी पुर्तगाल सरकार से बातचीत कर इनकी मुक्ति चाहते थे; पर वह कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। ऐसे में अनेक देशप्रेमी युवाओं ने स्वयं प्रेरणा से इनकी मुक्ति का प्रयास किया।

सशस्त्र माध्यम से ऐसा प्रयास करने वालों में से एक मोहन रानाडे का जन्म 25.12.1930 को महाराष्ट्र के सांगली में हुआ था। उन्होंने कानून का अध्ययन किया था। उनका असली नाम मनोहर आप्टे था; पर मराठी अध्यापक के नाते छद्म रूप से 1949/50 में वे गोवा पहुंचे और नाम मोहन रानाडे रख लिया। अब वे आजाद गोमांतक दलमें शामिल होकर युवाओं को संगठित करने लगे। उन्होंने दो अगस्त, 1954 को दादरा और नगर हवेली को मुक्त कराया। अब अगला लक्ष्य गोवा था। पुर्तगाल की क्रूर सरकार ने किसी भी तरह के आंदोलन आदि पर प्रतिबंध लगा रखा था।

मोहन रानाडे ने कई बार सीमा शुल्क चैकियों और थानों को लूटा। 18 अगस्त, 1955 को उन्होंने तिरंगे झंडे का अपमान करने वाले कस्टोडियो फर्नांडीस नामक पुलिसकर्मी को उसके घर के बाहर गोली मार दी। अक्तूबर 1955 में मोहन रानाडे, बालकृष्ण भोसले, मनोहर पेडनेकर, शिवलिंग भोसले, सुखा शिरोडकर, रघुनाथ शिरोडकर आदि युवाओं ने बनस्तारीम पुलिस चौकी पर हमला किया। सबके अलग-अलग काम तय थे; पर किसी कारण अपनी स्टेनगन मोहन रानाडे को देकर बालकृष्ण बाहर चले गये। इस चक्कर में निर्धारित समय से पूर्व ही वह स्टेनगन चल गयी। इससे पुलिस वाले सावधान होकर मोहन रानाडे पर टूट पड़े। उनके पेट में एक गोली भी लगी।

जो आंदोलनकारी पकड़े गये, उनमें से 16 को लम्बा सश्रम कारावास दिया गया। मोहन रानाडे को शुरू के छह साल एकांतवास सहित कुल 26 साल का कारावास हुआ। उन्हें पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन के पास कैक्सियस के किले में भेज दिया गया। इसके बाद भी आंदोलन चलता रहा। अंततः भारत सरकार दबाव में आयी और उसने आॅपरेशन विजयके अंतर्गत सशस्त्र कार्यवाही कर 19 दिसम्बर, 1961 को गोवा को मुक्ति दिलाई।

गोवा तो मुक्त हो गया; पर मोहन रानाडे पुर्तगाल की जेल में शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न सह रहे थे। अतः प्रख्यात गायक एवं संगीतकार सुधीर फड़के के नेतृत्व में मोहन रानाडे मुक्ति समितिबनायी गयी। पुर्तगाल में एक वकील की सेवा भी ली गयी। वह वकील भारत भी आये। वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलना चाहते थे; पर भेंट नहीं हो सकी। कई बड़े नेताओं ने भी उनकी मुक्ति की मांग की। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री सी.एन.अन्नादुराई के आग्रह पर पोप ने हस्तक्षेप किया। इस प्रकार 14 साल बाद मोहन रानाडे 23 जनवरी, 1969 को मुक्त होकर दो दिन बाद भारत पहुंचे।

भारत में उनका भरपूर स्वागत हुआ। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने देश भर में उनके सम्मान के कार्यक्रम किये तथा 1970 के राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्हें मुख्य अतिथि बनाया। मोहन रानाडे फिर पुणे में रहने लगे। वे प्रतिवर्ष 18 जून (क्रांति दिवस) तथा 19 दिसम्बर (मुक्ति दिवस) को गोवा जरूर जाते थे। 25 जून, 2019 को पुणे में ही इस महान स्वाधीनता सेनानी का देहांत हुआ।

कैसा आश्चर्य है कि आजादी के बाद सत्ता सुख भोगने वाली कांग्रेस सरकार ने गोवा मुक्ति सेनानियों की सदा उपेक्षा की। मोहन रानाडे को भी 2001 में वाजपेयी सरकार ने ‘पद्म श्री’ सम्मान दिया। इस सरकार ने ही गोवा मुक्ति सेनानियों को स्वाधीनता सेनानी की मान्यता तथा आवश्यक सुविधाएं दीं।

(विकी, न्यू इंडिया समाचार 16.6.22/55, चा.वा.1.4.2019/28 ल.ना.भाला)

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25 दिसम्बर/पुण्य-तिथि      

भीमसेन राव देशपांडे  : पांडन्ना

आंध्र प्रदेश के संघ कार्य में अपना जीवन लगाने वाले श्री भीमसेन राव देशपांडे (पांडन्ना) का जन्म 1951 में ग्राम मोगीली गिद्दा (महबूब नगर) में हुआ था। इनके बड़े भाई स्वयंसेवक थे। अतः उनके साथ ये भी शाखा जाने लगे। महबूब नगर से सिविल अभियन्ता का तीन वर्षीय डिप्लोमा लेकर 1972 में भीमसेन जी व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए विजयवाड़ा आये। यहां संघ से उनकी निकटता बढ़ी और वे प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग में गये। वर्ग के बाद उन्होंने प्रचारक बनकर संघ कार्य करने का निश्चय किया। 

प्रारम्भ में इन्हें श्रीकाकुलम जिले में बोब्बीली नगर का कार्य दिया गया। 1973 और 74 में द्वितीय तथा तृतीय वर्ष का संघ प्रशिक्षण करने के बाद इन्हें श्रीकाकुलम जिले का प्रचारक बनाया गया। आपातकाल में ये ‘मीसा’ के अन्तर्गत केन्द्रीय कारागार, हैदराबाद में बंद रहे। पांडन्ना की पढ़ने और लिखने में भरपूर रुचि थी। इसके साथ ही उनका हस्तलेख भी बहुत सुंदर था। जेल की गतिविधियों का एक हस्तलिखित पत्रक बनाकर ये गुप्त रूप से बाहर भेजते थे, जहां साइक्लोस्टाइल यंत्र पर उसकी हजारों प्रतियां बनाकर वितरित की जाती थीं। 

प्रतिबंध समाप्ति के बाद वे नेल्लूर और अनंतपुर में जिला प्रचारक रहने के बाद 1981 से 89 तक मुस्लिम बहुल पुराने हैदराबाद में प्रचारक रहे। यहीं इनका नाम पांडन्ना (पांडे + अन्ना) प्रचलित हुआ। तेलुगु में अन्ना का अर्थ बड़ा भाई होता है। गायन और योगासन में इनकी विशेष रुचि थी। 1989 में पांडन्ना राजमुन्द्री विभाग प्रचारक तथा 1997 में पूर्व आंध्र प्रांत के प्रचार प्रमुख बनाये गये। करगिल युद्ध के समय पूर्व आंध्र के जो सैनिक सीमा पर लड़े थे, वे उनके गांवों में गये। उनके परिजनों से वार्ता की, चित्र लिये और विजयवाड़ा से प्रकाशित होने वाले ‘जागृति’ साप्ताहिक में छपवाये। 

युद्ध के बाद वहां बलिदान हुए पद्मपणि आचार्य की माता जी का कई स्थानों पर सम्मान करवाया तथा करगिल युद्ध की चित्र प्रदर्शनी लगाई। इस प्रकार उन्होंने सैनिकों और शेष समाज को जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया। उड़ीसा में तूफान आने पर वहां सेवा हेतु आंध्र से गये स्वयंसेवकों के साथ जाकर पांडन्ना ने वहां के चित्र और जानकारी समाचार पत्रों को भेजी। 

2000 ई. में जागृति साप्ताहिक का प्रकाशन विजयवाड़ा के बदले हैदराबाद से होने पर उन्हें उसके सम्पादकीय मंडल में शामिल किया गया। पांडन्ना अंग्रेजी व हिन्दी से तेलुगू में बहुत सुंदर अनुवाद करते थे। प्रांत के सभी प्रमुख कार्यक्रमों की जानकारी इनकी कलम से सबको मिलती थी। ये ‘सीता’ उपनाम से लिखते थे, जो इनकी माता जी का नाम था। श्री गुरुजी जन्मशती के समय ‘जन्मशती उत्सव: प्रगति पथ में मील का पत्थर’ शीर्षक से उनके 24 लेख छपे। इसमें उन्होंने डा. हेडगेवार जन्मशती कार्यक्रमों द्वारा संघ कार्य में हुई वृद्धि को दर्शाया था। ‘श्री गुरुजी दर्शनम्’ शीर्षक से भी 11 लेख छपे। 

2005 ई. में उन्हें पश्चिम आंध्र में धर्म जागरण का कार्य दिया गया। उन्होंने सन्तों का ग्रामीण क्षेत्र में प्रवास कराया। सैकड़ों हनुमान मंदिर बनवाये तथा बच्चों को हनुमान के लाकेट बंटवाये। इससे धर्मान्तरण पर रोक लगी। 

25 दिसम्बर, 2009 को मोटरसाइकिल से जाते हुए अचानक उन्होंने सीने में दर्द तथा ठंड का अनुभव किया। इन्हें तुरंत अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां हुए तेज हृदयाघात से उनके प्राण पखेरू उड़ गये। इस प्रकार हंसमुख, परिश्रमी, मित्र तथा सात्विक स्वभाव के एक प्रचारक का जीवन पूर्ण हुआ।

(संदर्भ : कोटेश्वर जी, विहिप)
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26 दिसम्बर/जन्म-दिवस      

ध्येयवादी पत्रकार बाबूराव ठाकुर

पत्रकारिता स्वयं में एक बहुत ही सम्मानजनक काम है; पर अन्य सब क्षेत्रों की तरह उसमें भी भारी गिरावट आई है। किसी समय ध्येयवादी लोग ही इस काम को अपनाते थे; पर अब भौतिकता की होड़ के कारण यह क्षेत्र भी सनसनी, दलाली और भ्रष्टाचार का खुला मैदान बन गया है। 

बेलगांव (कर्नाटक) से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्र ‘तरुण भारत’ के संस्थापक सम्पादक बाबूराव धोंडोपंत ठाकुर एक ऐसे सत्यान्वेषी व विद्वान पत्रकार थे, जिन्होंने हर तरह के कष्ट सहे; पर अपना ध्येय नहीं छोड़ा। उनका जन्म 26 दिसम्बर, 1899 को बेलगांव के एक सामान्य परिवार में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा वहां से ही पाकर वे आगे पढ़ने के लिए सांगली आ गये। 

यहां आकर वे लोकमान्य तिलक, गांधी जी तथा वीर सावरकर के विचारों से प्रभावित हुए। गांधी जी के आह्नान पर महाविद्यालय की पढ़ाई अधूरी छोड़कर वे आंदोलन में कूद गये। अतः उन्हें दो महीने जेल में रहना पड़ा। उन्होंने एक निःशुल्क वाचनालय और स्वदेशी वस्तुओं की दुकान भी चलाई। 

बाबूराव के मन में बचपन से ही समाज-सेवा की भावना विद्यमान थी। 19 वर्ष की युवावस्था में उन्होंने कुछ मित्रों के साथ ‘भारत वैभव समाज’ नामक संस्था की स्थापना की। शिक्षा का प्रसार इस संस्था का उद्देश्य था। इसके द्वारा उन्होंने बेलगांव के आसपास कई गांवो में साक्षरता की ज्योति जलाई। प्रौढ़ों के लिए रात्रिकालीन पाठशालाएं चलाने के साथ ही निर्धन, निर्बल व वंचित वर्ग के उत्थान के लिए भी उन्होंने अनेक कार्यक्रम हाथ में लिये। इससे वे युवकों के साथ-साथ प्रबुद्ध वर्ग में भी लोकप्रिय हो गये। 

वर्ष 1924 में बेलगांव में गांधी जी की अध्यक्षता में कांग्रेस का ‘राष्ट्रीय महाधिवेशन’ हुआ। इसमें बाबूराव ने ‘कांग्रेस सेवा दल’ के अध्यक्ष डा. हर्डीकर के नेतृत्व में एक स्वयंसेवक के नाते उत्कृष्ट कार्य किया। बाबूराव के मन में पत्रकारिता के बीज भी विद्यमान थे। अतः 1919 में उन्होंने बेलगांव से ‘तरुण भारत’ नामक मासिक पत्र प्रारम्भ किया। इसका उद्देश्य भी साक्षरता का प्रचार-प्रसार तथा इस हेतु गठित संस्था ‘भारत वैभव समाज’ की गतिविधियों की जानकारी समाज तक पहुंचाना था। इसके सम्पादक के नाते बाबूराव ने शासन द्वारा किये जा रहे अन्याय और अत्याचारों को जन-जन तक पहुंचाया। अतः थोड़े समय में ही यह पत्र लोकप्रिय हो गया। 

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद देश में भाषायी आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हुआ। इसके अन्तर्गत बेलगांव, निपाणी, कारवार आदि मराठीभाषी क्षेत्र कर्नाटक में जोड़ दिये गये। बाबूराव भाषा के आधार पर लोगों का बांटने के विरोधी थे। अतः ‘महाराष्ट्र एकीकरण समिति’ में सक्रिय होकर उन्होंने एक लम्बी लड़ाई लड़ी। उनका तन, मन, वाणी और लेखनी सदा इसके लिए चलती रही।

बाबूराव ठाकुर मानते थे कि पत्रकारिता सुख, सुविधा और वैभव पाने का धन्धा नहीं है। इसलिए वे देश, धर्म और समाज पर दुष्प्रभाव डालने वाले हर मुद्दे पर सक्रिय रहते थे। गोवा मुक्ति के लिए हुए ‘गोमांतक आंदोलन’ में भी उनकी यही भूमिका रही। एक बड़ी छलांग लगाते हुए पांच जुलाई, 1966 से ‘तरुण भारत’ एक दैनिक पत्र बन गया। आज यह महाराष्ट्र का एक लोकप्रिय पत्र है तथा इसके कई संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं।  

बाबूराव ठाकुर समाचार पत्र को केवल आजीविका का साधन न मानकर संघर्ष का सबल माध्यम तथा समाज की आशा-आकांक्षा का सच्चा दर्पण मानते थे। 23 अपै्रल, 1979 को कर्क रोग के कारण ऐसे जुझारू सामाजिक कार्यकर्ता, समाजसेवी तथा स्वाधीनता सेनानी पत्रकार का निधन हुआ।

(संदर्भ : पांचजन्य 16.1.2000 - ग.गो.राजाध्यक्ष)
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26 दिसम्बर/जन्म-दिवस      

वनयोगी बालासाहब देशपाण्डे
श्री रमाकान्त केशव (बालासाहब) देशपांडे का जन्म अमरावती (महाराष्ट्र) में श्री केशव देशपांडे के घर में 26 दिसम्बर, 1913 को  हुआ। 

अमरावती, अकोला, सागर, नरसिंहपुर तथा नागपुर में पढ़ाई कर 1938 में वे राशन अधिकारी बन गये। एक बार उन्होंने एक व्यापारी को गलत काम करते हुए पकड़ लिया; पर बड़े अफसरों से मिलीभगत के कारण वह छूट गया। इससे बालासाहब का मन खट्टा हो गया और उन्होंने नौकरी छोड़कर अपने मामा श्री गंगाधरराव देवरस के साथ रामटेक में वकालत प्रारम्भ कर दी। 

1926 में नागपुर की पन्त व्यायामशाला में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार के सम्पर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने। द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी से भी उनकी बहुत निकटता थी। उनकी ही तरह बालासाहब ने भी रामकृष्ण आश्रम से दीक्षा लेकर ‘नर सेवा, नारायण सेवा’ का व्रत धारण किया था। 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में उन्होंने सक्रिय भाग लिया और जेल भी गये। 1943 में उनका विवाह प्रभावती जी से हुआ।

स्वाधीनता मिलने के बाद बालासाहब फिर से राज्य सरकार की नौकरी में आ गये। 1948 में उनकी नियुक्ति प्रसिद्ध समाजसेवी ठक्कर बापा की योजनानुसार मध्य प्रदेश के वनवासी बहुल जशपुर क्षेत्र में हुई। इस क्षेत्र में रहते हुए उन्होंने एक वर्ष में 123 विद्यालय तथा वनवासियों की आर्थिक उन्नति के अनेक प्रकल्प प्रारम्भ कराये। वहाँ उन्होंने भोले वनवासियों की अशिक्षा तथा निर्धनता का लाभ उठाकर मिशनरियों द्वारा किये जा रहे धर्मान्तरण को देखा। इससे वे व्यथित हो उठे। 

नागपुर लौटकर उन्होंने सरसंघचालक श्री गुरुजी से इसकी चर्चा की। उनके परामर्श पर बालासाहब ने नौकरी से त्यागपत्र देकर जशपुर में वकालत प्रारम्भ की। पर वह तो एक माध्यम मात्र था, उनका उद्देश्य तो निर्धन व अशिक्षित वनवासियों की सेवा करना था। अतः 26 दिसम्बर, 1952 में उन्होंने जशपुर महाराजा श्री विजय सिंह जूदेव से प्राप्त भवन में एक विद्यालय एवं छात्रावास खोला। इस प्रकार ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ का कार्य प्रारम्भ हुआ। 

1954 में मुख्यमन्त्री श्री रविशंकर शुक्ल ने मिशनरियों की देशघातक गतिविधियों की जाँच के लिए नियोगी आयोग का गठन किया। इस आयोग के सम्मुख बालासाहब ने 500 पृष्ठों में लिखित जानकारी प्रस्तुत की। उनके योजनाबद्ध प्रयास तथा अथक परिश्रम से वनवासी क्षेत्र में शिक्षा, चिकित्सा, सेवा, संस्कार, खेलकूद के प्रकल्प बढ़ने लगे। उन्होंने कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए अनेक केन्द्र बनाये। इससे सैकड़ों वनवासी युवक और युवतियां ही पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन कर काम करने लगे।

इस कार्य की ख्याति सुनकर 1977 में प्रधानमन्त्री श्री मोरारजी देसाई ने जशपुर आकर इस कार्य को देखा और इस काम से प्रभावित होकर सरकारी सहायता लेने का आग्रह किया; पर बालासाहब ने विनम्रता से मना दिया। वे जनसहयोग से ही कार्य करने के पक्षधर थे। 

1975 में आपातकाल लगने पर उन्हें 19 महीने के लिए 'मीसा' के अन्तर्गत रायपुर जेल में बन्द कर दिया गया; पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।आपातकाल की समाप्ति पर 1978 में ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के कार्य को राष्ट्रीय स्वरूप दिया गया। आज पूरे देश में कल्याण आश्रम के हजारों प्रकल्प चल रहे हैं। बालासाहब ने 1993 में स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से सब दायित्वों से मुक्ति ले ली। उन्हें देश भर में अनेक सम्मानों से अलंकृत किया गया। 

21 अपै्रल, 1995 को उनका देहान्त हुआ। एक वनयोगी एवं कर्मवीर के रूप में उन्हें सदैव याद किया जाता रहेगा।
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26 दिसम्बर/जन्म-दिवस      

सुभाष बाबू की सहधर्मिणी एमिली शैंकल बोस

सुभाष चंद्र बोस को विदेश में हर प्रकार का सहयोग देने वाली एमिली शैंकल का जन्म आस्ट्रिया की राजधानी विएना में 26 दिसम्बर, 1910 को हुआ था। उसके पिता डा. ऑस्कर शैंकल एक पशु चिकित्सक थे। एमिली जर्मन भाषा के साथ ही टाइपिंग व स्टेनोग्राफी की अच्छी जानकार थी।

1933 में नेता जी को अंग्रेजों ने इलाज के बहाने निर्वासित कर यूरोप भेज दिया। कांग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व भी यही चाहता था। सुभाष बाबू ने दो माह तक स्वास्थ्य लाभ किया तथा फिर एक वर्ष तक यूरोपीय देशों का भ्रमण कर वहां हुई क्रांतियों का अध्ययन किया। लौटकर वे ‘दि इंडियन स्ट्रगल’ नामक पुस्तक लिखने लगे। इंग्लैंड के एक प्रकाशक ने उन्हें इस शर्त पर कुछ धन अग्रिम दिया कि वे एक साल में पुस्तक लिख देंगे। सुभाष बाबू ने अनुबन्ध समय से पूरा करने के लिए एमिली को सहयोगी नियुक्त कर लिया।

एमिली पढ़ने-लिखने के साथ ही नेता जी के लिए भोजन आदि भी बना देती थी। सुभाष बाबू उसके स्वभाव और कार्यकुशलता से तथा एमिली उनके देशप्रेम से बहुत प्रभावित हुई। इस प्रकार दोनों के बीच आकर्षण बढ़ने लगा; पर सुभाष बाबू का लक्ष्य तो देश को मुक्त कराना था। अतः यह संबंध मित्रता तक ही सीमित रहा। दोनों के परिश्रम से वह पुस्तक समय से पूरी होकर बहुचर्चित हुई। यद्यपि अंग्रेजों ने भारत में उसे प्रतिबंधित कर दिया।

1936 में जब सुभाष बाबू भारत आये, तो शासन ने उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया। जब देश में इसका विरोध हुआ, तो उन्हें कुर्सियंाग स्थित उनके बड़े भाई के घर में नजरबंद कर दिया गया। इस दौरान सुभाष बाबू और एमिली में हुआ पत्र-व्यवहार उनके निश्छल प्रेम का परिचायक है। 

नजरबंदी से मुक्त होकर सुभाष बाबू स्वास्थ्य लाभ के लिए पहले डलहौजी और फिर आस्ट्रिया चले गये। एमिली के सहयोग से वहां सुभाष बाबू ने अपनी जीवनी ‘ऐन इंडियन पिल्ग्रिम’ लिखी। वहीं दोनों का गंधर्व विवाह हुआ और जनवरी 1938 में सुभाष बाबू भारत आ गये। एमिली भी वापस विएना चली गयी।

1941 में जब सुभाष बाबू अचानक गायब होकर बर्लिन पहुंचे, तो दो वर्ष तक एमिली अपनी डाकघर की नौकरी छोड़कर उनके साथ रही। उस दौरान वह अपना परिचय कुमारी एमिली के रूप में देती थीं, चूंकि वैवाहिक संबंध प्रकट करना दोनों के लिए खतरनाक था। बीच में कुछ समय के लिए वह फिर विएना गयी। वहां 29 नवम्बर, 1942 को उसने एक पुत्री अनीता को जन्म दिया और उसे अपनी मां के पास छोड़कर वापस बर्लिन आ गयी।

जापान के लिए प्रस्थान करते समय नेताजी ने अपने बड़े भाई शरद बाबू को संबोधित करते हुए एक पत्र लिखकर एमिली को दिया। इसमें उन्होंने इस विवाह संबंध की पूरी बात लिखी थी, जिससे एमिली और अनीता को उनके परिवार तथा समाज में उचित स्थान प्राप्त हो सके। इसके बाद हुए घटनाक्रम के कारण एमिली और सुभाष बाबू की कभी भेंट नहीं हो सकी। 1948 में एमिली ने वह पत्र शरद बाबू को भेजा। उसे पाकर वे विएना गये और मां-पुत्री को भारत आने को कहा; पर एमिली अपनी वृद्ध मां को छोड़कर नहीं आयीं। 

अपनी डाकघर की नौकरी से जीवनयापन करते हुए मार्च 1996 में नेता जी की सहयोगी एवं सहधर्मिणी एमिली शैंकल बोस का निधन हुआ।

(संदर्भ : उत्तर प्रदेश मजदूर दर्पण साप्ताहिक, 17.3.2008)
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26 दिसम्बर/प्रेरक-प्रसंग

डा. हेडगेवार और गांधी जी की भेंट

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यपद्धति में दो से लेकर 25-30 दिन तक के शिविर एवं वर्ग होते हैं। ऐसा ही एक शीत-शिविर 1934 में 22 से 26 दिसम्बर तक वर्धा में हुआ था। शिविर का मैदान सेठ जमनालाल बजाज का था। पास में उनका बंगला था, जहां उन दिनों गांधी जी रुके हुए थे। वे भी इस देखने 25 दिसम्बर को शिविर में आये थे।

पर संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार उस दिन वहां नहीं थे। वे अगले दिन शिविर में आये। तब उन्हें यह पता लगा। तभी गांधी जी के एक सहायक आनंद स्वामी ने उनसे मिलकर रात में साढ़े आठ बजे का समय दोनों की भेंट के लिए तय किया। उस दिन शाम को पुणे के धर्मवीर अन्ना जी भोपटकर की अध्यक्षता में शिविर का सार्वजनिक समापन था। अतः डा. हेडगेवार, अप्पा जी जोशी के साथ वे भी गांधी जी से मिलने गये। गांधी जी का आवास दुमंजिले पर था। पहले उनके सहायक महादेव देसाई ने और ऊपर जाने पर गांधी जी ने सबका स्वागत कर उन्हें अपने पास बैठाया। इसके बाद वार्तालाप शुरू हुआ।

गांधी जी ने संघ के अनुशासन, शिविर की संख्या, स्वयंसेवकों के गुण, स्वच्छता के साथ ही घोष की बहुत प्रशंसा की। फिर उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि आप इतने कम खर्च में भोजन तथा अन्य सब व्यवस्था कैसे करते हैं; हमारा खर्च तो इससे काफी अधिक आता है ? डा. जी के साथ गये अन्ना जी भोपटकर पहले से ही गांधी जी को जानते थे। उन्होंने व्यंग्य में कहा कि इसका कारण आपका व्यवहार है। नाम रखते हैं पर्णकुटीऔर अंदर राजशाही ठाठ होते हैं; पर संघ में ऐसा नहीं होता। मैं प्रत्यक्ष यह देखकर आया हूं।

इसके बाद गांधी जी ने संघ के विधान, अखबार, प्रचार आदि के बारे में पूछा। उन्हें पता था कि डा. हेडगेवार पहले कांग्रेस में थे। फिर उन्होंने कांग्रेस के अंदर ही संघ जैसा संगठन क्यों नहीं बनाया ? डा. जी ने बताया कि वे 1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन में डा. परांजपे के सहयोगी थे। अधिवेशन के बाद हमने ऐसा संगठन बनाने का प्रयास किया; पर सफलता नहीं मिली।

गांधी जी ने पूछा कि क्या कांग्रेस में अच्छे लोग नहीं हैं या आपको कांग्रेस से इसके लिए पर्याप्त धन नहीं मिला ? डा. जी ने कहा कि पैसे से संसार के सब काम नहीं होते। कांग्रेस में अच्छे लोग भी हैं; पर उसकी स्थापना एक राजनीतिक उद्देश्य के लिए हुई है। उनके सब कार्यक्रम इसीलिए होते हैं। वहां स्वयंसेवक भी इसी हेतु बनाये जाते हैं; पर उनके पीछे कोई स्वयंप्रेरणा नहीं होते। वे अपना काम केवल कुर्सी, मेज या दरी उठाना ही मानते हैं।

फिर डा. जी ने बताया कि स्वयंसेवक का अर्थ है देश की सर्वांगीण उन्नति को जीवन का लक्ष्य मानने वाला नागरिक। संघ ऐसे स्वयंसेवक ही तैयार कर रहा है। यहां स्वयंसेवक और नेता का भेद नहीं है। हम सब समान हैं। इसीलिए कम संसाधन के बावजूद संघ प्रगति कर रहा है। 

गांधी जी ने वर्धा में अच्छे काम के लिए सेठ जमनालाल बजाज के आर्थिक सहयोग के बारे में पूछा, तो डा. जी ने बताया कि हम किसी से आर्थिक सहयोग नहीं लेते। संघ का काम स्वावलंबी है। सभी स्वयंसेवक गुरुदक्षिणाकरते हैं। उसी से संघ का काम चलता है। गांधी जी यह जानकर आश्चर्यचकित हो गये। घर-परिवार और काम-धंधे के बारे में पूछने पर डा. जी ने बताया कि उन्होंने विवाह नहीं किया और पूरा समय संघ के काम में ही लगाते हैं।

गांधी जी नौ बजे सो जाते थे; पर उस दिन बातचीत में साढ़े नौ बज गये। उनकी सहायक मीराबेन उन्हें घड़ी भी दिखा चुकी थी। अतः डा. जी ने उनसे आशीर्वाद और आज्ञा मांगी। गांधी जी बाहर तक आये और कहा, ‘‘डाॅक्टर जी, अपने चरित्र तथा कार्य पर अटल निष्ठा के बल पर आप अपने लक्ष्य में निश्चित सफल होंगे।’’ डा. जी ने नमस्कार कर उनसे विदा ली।

(डा. हेडगेवार चरित/286, ना.ह.पालकर, लोकहित प्रकाशन)

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27 दिसम्बर/जन्म-दिवस

क्रान्तिवीर शचीन्द्रनाथ बख्शी

भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के योद्धा क्रान्तिवीर शचीन्द्रनाथ बख्शी का जन्म 27 दिसम्बर, 1900 को वाराणसी के एक सम्पन्न बंगाली परिवार में हुआ था। प्रतिभाशाली एवं कुशाग्र बुद्धि से सम्पन्न छात्र होने के कारण उनकी विद्यालय एवं मोहल्ले में धाक थी। राष्ट्रीय आन्दोलन का उन पर इतना प्रभाव पड़ा कि 1921 में इंटर की परीक्षा देकर ही वे क्रान्तिकारी आन्दोलन में कूद गये।
1922 में जब वाराणसी में ‘अनुशीलन समिति’ की शाखा खुली तो ये उससे जुड़ गये और उसके माध्यम से नये क्रान्तिकारियों की भर्ती और प्रशिक्षण केन्द्रों का प्रबन्ध करने लगे। इससे थोड़े समय में ही अनुशीलन समिति का कार्य विस्तृत एवं सबल होने लगा; पर इससे गुप्तचर विभाग के कान खड़े हो गये और ब्रिटिश पुलिस उनके पीछे लग गयी। इसलिए उन्होंने बनारस छोड़कर लखनऊ को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बना लिया।
1924 में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का गठन होने पर बख्शी जी ने इस संस्था का कार्य लखनऊ में खड़ा करने का बीड़ा उठाया। बनारस और लखनऊ में उनके संगठन कौशल को देखकर उन्हें झाँसी में भी कार्य विस्तार की जिम्मेदारी दी गयी। उन्होंने वहां भी कई युवकों को जोड़ा।
9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के पास काकोरी में रेल रोककर ब्रिटिश खजाना लूटा गया। इस अभियान के समय बख्शी जी, अशफाक और राजेन्द्र लाहिड़ी द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में बैठे थे। अशफाक और लाहिड़ी के जिम्मे रेल रोकने तथा बख्शी जी पर काम पूरा होने तक गार्ड को अपने कब्जे में रखने की जिम्मेदारी थी। सबने अपना काम ठीक से किया, जिससे यह अभियान पूरी तरह सफल हुआ और क्रांतिवीरों को भरपूर धन मिला।
जनता में इस समाचार से प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी; पर इससे ब्रिटिश शासन बौखला गया। यह उनके मुंँह पर क्रान्तिवीरों द्वारा मारा गया करारा तमाचा था। अगले ही दिन से लखनऊ और आसपास के जंगलों में सघन छानबीन शुरू हो गयी। सूत्रों को जोड़ते हुए पुलिस ने चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खाँ और बख्शी जी को छोड़कर शेष सबको पकड़ लिया। इन सब पर काकोरी षड्यन्त्र का ऐतिहासिक मुकदमा चलाया गया।
ये तीनों क्रान्तिकारी फरार हो गये। पुलिस इसके बाद भी इन्हें तलाश करती रही। इसमें से आजाद कभी पुलिस के हाथ नहीं आये और 27 फरवरी, 1931 को प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस के साथ संघर्ष करते हुए बलिदान हो गये। अशफाक दिल्ली एवं बख्शी जी 1927 में भागलपुर में बन्दी बना लिये गये। उन पर भी काकोरी कांड का दूसरा मुकदमा चला। इसमें अशफाक को फाँसी तथा बख्शी जी को आजीवन कारावास की सजा मिली।
जेल में भी उनकी संघर्ष क्षमता कम नहीं हुई। बन्दियों के अधिकार एवं उन्हें दी जाने वाली सुविधाओं के लिए हुए संघर्षों में ये सदा आगे रहते थे। इसके लिए उ.प्र. की बरेली जेल में उन्होंने 53 दिन का ऐतिहासिक अनशन किया। इस अनशन में मन्मथनाथ गुप्त और राजकुमार सिन्हा भी इनके साथ थे।
स्वतन्त्र भारत में बख्शी जी ने 1969 में बनारस दक्षिण से कम्यूनिस्ट नेता रुस्तम सैटिन को हराकर विधानसभा का चुनाव जीता। 1975 में उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़ दी और अपने संस्मरण लिखने लगे। उनकी पुस्तक ‘क्रान्ति के पथ पर’ में अनेक दुर्लभ क्रान्तिकारी घटनाओं की जानकारी है। सुल्तानपुर में रहते हुए 23 नवम्बर, 1984 को उनका निधन हुआ।
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27 दिसम्बर/प्रेरक-प्रसंग

किशनसिंह परदेसी द्वारा झंडारोहण

कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज अधिकारी ए.ओ.ह्यूम ने 1885 में की थी। शुरू में कई साल तक तो यह ब्रिटिश महारानी के गुणगान का ही मंच था। पर धीरे-धीरे समय ने करवट बदली और कांग्रेस आजादी की मांग करने लगी। आजादी से पूर्व कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन नियमित रूप से होते थे। इनमें पिछले वर्ष के काम की समीक्षा, अगले साल के अध्यक्ष का चुनाव तथा आगामी कार्यक्रमों पर विचार होता था। सभी बड़े नेताओं के साथ अन्य हजारों लोग भी उसमें उपस्थित रहते थे। ये अधिवेशन प्रायः दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में होते थे। आम नागरिकों के साथ ही ब्रिटिश प्रशासन भी इन पर निगाह रखता था। देश और विदेश के पत्रकार भी वहां रिपोर्टिंग के लिए आते थे।

ऐसा ही एक अधिवेशन 27, 28 दिसम्बर, 1936 को महाराष्ट्र के जलगांव में फैजपुर नामक स्थान पर हुआ। यह ग्रामीण क्षेत्र में होने वाल पहला अधिवेशन था। 50वां अधिवेशन होने के नाते इसे स्वर्ण जयंती अधिवेशनकहा गया था। अधिवेशन के उद्घाटन में परम्परागत रूप से झंडा फहराया जाता था। इसके लिए 80 फुट ऊंचे स्तम्भ पर झंडा लगाया गया था। उन दिनों स्तम्भ के शीर्ष पर एक गोल चकरी होती थी, जिसमें लगी डोरी से झंडा बंधा रहता था। झंडा फहराने वाला व्यक्ति नीचे से डोरी खींचता था, तो झंडा ऊपर चढ़ते हुए शीर्ष तक पहुंच जाता था; पर उस दिन एक समस्या आ गयी।

उस अधिवेशन के अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू को झंडा फहराना था। जब वे झंडा ऊपर चढ़ा रहे थे, तो डोरी आधे रास्ते में चकरी से उतरकर उसमें फंस गयी। इससे झंडा बीच में ही अटक गया। कई लोगों ने स्तम्भ पर चढ़ने की कोशिश की; पर वे कुछ फुट चढ़कर उतर आते थे। बड़ी असमंजस की स्थिति हो गयी। बीच में अटका झंडा उचित नहीं माना जाता। अचानक एक दुबला पतला युवक वहां आया और संतुलित गति से स्तम्भ पर चढ़ने लगा। जब वह 50 फुट से भी ऊपर पहुंचा, तो सबकी सांसें अटक गयीं। इस ऊंचाई से नीचे गिरने का अर्थ निश्चित मृत्यु थी; पर वह सावधानी से चढ़ता रहा और शीर्ष पर पहुंच कर उसने चकरी में फंसी डोरी को सुलझा दिया। फिर लोगों की हर्षध्वनि के बीच उतनी ही सावधानी से नीचे उतर आया।

वह युवक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शिरपुर शाखा का स्वयंसेवक किशनसिंह परदेसी था। नीचे उतरते ही लोगों ने उसे कंधे पर उठा लिया। उसकी जय-जयकार हुई और कई लोगों ने उसे नकद धनराशि उपहार में दी। पहले ही ग्रास में मक्खी निकलने वाली दुर्घटना टल गयी और झंडा पूरी शान से फहराने लगा। सबने निर्णय लिया कि उसे खुले अधिवेशन में सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जाएगा; पर यह पता लगते ही कि वह संघ का स्वयंसेवक है, जवाहर लाल नेहरू को मानो सांप सूंघ गया। कांग्रेस वालों का भी सारा उत्साह ठंडा पड़ गया और उसके अभिनंदन का विचार त्याग दिया गया।

जब संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार को यह पता लगा, तो उन्होंने स्वयं किशनसिंह के सम्मान का निर्णय लिया। कुछ दिन बाद धुले नामक स्थान पर उनका प्रवास था। वहां की देवपुरा शाखा के कार्यक्रम में उन्होंने आग्रहपूर्वक किशनसिंह परदेसी को बुलाकर अपने साथ वाली कुर्सी पर बैठाया तथा उसे एक चांदी का कप पुरस्कार में दिया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि कांग्रेस देश की आजादी के लिए काम करने वाली संस्था है। देश का काम कहीं भी अटक रहा हो और उसे आगे बढ़ा सकने का विश्वास हममें हो, तो दल का विचार न करते हुए अवश्य आगे आना चाहिए।

इस घटना से उस स्वयंसेवक का नाम किशनसिंह परदेसी झंडेवालाही पड़ गया। 

(डा. हेड.चरित/310, ना.ह.पालकर, लोकहित.. संघ वृक्ष के बीज/26, च.प.भिशीकर, सुरुचि तथा अं.फा)

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27 दिसम्बर/जन्म-दिवस

सीमाओं के जागरूक प्रहरी राकेश जी

देश की सीमाओं की रक्षा का काम यों तो सेना का है; पर सीमावर्ती क्षेत्र के नागरिकों की भी इसमें बड़ी भूमिका होती है। शत्रुओं की हलचल की सूचना सेना को सबसे पहले वही देते हैं। अतः उनका हर परिस्थिति में वहां डटे रहना जरूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस विषय के महत्व को देखते हुए ‘सीमा जागरण मंच’ का गठन किया है। इसके राष्ट्रीय संगठन मंत्री थे श्री राकेश जी, जिनका एक कार दुर्घटना में असामयिक निधन हो गया।

राकेश जी का जन्म 27 दिसम्बर, 1954 को मंडी अहमदगढ़ (जिला संगरूर, पंजाब) में हुआ था। उनके पिता श्री रामेश्वर दास जी तथा माता श्रीमती सुशीला देवी थीं। परिवार में सब लोग संघ से जुड़े थे। राकेश जी भी शाखा कार्य में बहुत सक्रिय थे। 1973 में अबोहर से उन्होंने प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग किया। 

आपातकाल में चंडीगढ़ के पास सोहाना में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। उसमें बोलने के लिए इंदिरा गांधी जैसे ही खड़ी हुईं, पूर्व विधायक श्री ओमप्रकाश भारद्वाज तथा राकेश जी के नेतृत्व में स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह कर दिया। पूरा पंडाल भारत माता की जय, तानाशाही खत्म करो..आदि नारों से गंूज उठा। पुलिस वाले भौचक रह गये। प्रधानमंत्री के सामने उनकी नाक कट गयी। अतः वे लाठी बरसाने लगे। घुड़सवार पुलिस ने सत्याग्रहियों पर घोड़े दौड़ा दिये। पंडाल में खून ही खून फैल गया तथा सभा समाप्त हो गयी।  

पुलिस ने सत्याग्रहियों को गिरफ्तार कर लिया। थाने में राकेश जी की खूब पिटाई हुई और फिर उन्हें 19 महीने के लिए पटियाला जेल भेज दिया गया। राकेश जी ने जेल में रहते हुए ही अर्थशास्त्र में एम.ए. किया तथा फिर प्र्रचारक बन गये। क्रमशः वे पठानकोट तहसील, गुरदासपुर जिला, अमृतसर विभाग, संभाग और फिर पंजाब के सहप्रांत प्रचारक बने। उन दिनों वहां आतंक से डर कर हिन्दू भाग रहे थे। ऐसे में वे लगातार प्रवास कर सबका मनोबल बढ़ाते रहे तथा हिन्दू-सिख एकता के सूत्र सर्वत्र गुंजाते रहे। पंजाब में ‘राष्ट्रीय सुरक्षा समिति’ का संचालन तथा युवाओं के प्रशिक्षण का कार्य भी उन्हीं पर था।

इसके बाद जम्मू-कश्मीर के प्रांत प्रचारक रहते हुए भी उन्होंने आतंक, हत्या और पलायन के दौर में विस्थापितों की सेवा और व्यवस्था का उल्लेखनीय काम किया। इस दौरान उन्होंने सीमावर्ती क्षेत्र में होने वाली विदेशी और विधर्मी गतिविधियों का गहन अध्ययन किया। जब यह बात संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के सामने रखी गयी, तो उन्होंने इसके लिए एक अलग संगठन ‘सीमा जागरण मंच’ बनाकर इसकी जिम्मेदारी राकेश जी को ही दे दी। 

अब राकेश जी ने उन राज्यों का सघन प्रवास किया, जिनकी सीमा दूसरे देशों से लगती हैं। उन्होंने स्थानीय समितियां बनाकर सीमांत गांवों में सेवा और संस्कार के केन्द्र खोले। उन्होंने ग्रामीणों को सेना के पीछे दूसरी सुरक्षापंक्ति के रूप में डट कर खड़े रहने के लिए तैयार किया। इसके लिए ‘सीमा सुरक्षा जनचेतना यात्रा’ तथा फिर ‘सरहद को प्रणाम’ जैसे रोचक व रोमांचक कार्यक्रम किये गये। हर राज्य से 10 उत्साही युवक इसमें शामिल हुए। इसमें ‘सीमा सुरक्षा बल’ के साथ ‘फिन्स’ जैसी स्वयंसेवी संस्था ने भी सहयोग दिया।

सादगी के प्रेमी राकेश जी प्रायः रेल में साधारण श्रेणी में ही यात्रा करते थे। फौजी टोपी तथा बड़ी-बड़ी मूंछें उन पर खूब फबती थीं। इससे लोग उन्हें कोई पूर्व सैन्य अधिकारी ही समझते थे।  12 जून, 2014 को राजस्थान में जैसलमेर से जोधपुर के बीच सोडाकोर गांव के पास उस कार का पिछला टायर फट गया, जिसमें वे यात्रा कर रहे थे। इससे गाड़ी कई बार पलट गयी। इस दुघर्टना में राकेश जी तथा कार चला रहे जैसलमेर जिले के संगठन मंत्री श्री भीकसिंह जी का वहीं निधन हो गया। एक अन्य कार्यकर्ता श्री नीम्ब सिंह बुरी तरह घायल हुए, जबकि श्री अशोक प्रभाकर को भी काफी चोट आयी।

(संदर्भ : पांचजन्य 22/29.6.14 तथा पथिक संदेश जुलाई 2014)
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28 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

राव रामबख्श सिंह का बलिदान

श्रीराम की जन्मभूमि अयोध्या और लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) का निकटवर्ती क्षेत्र सदा से अवध कहलाता है। इसी अवध में उन्नाव जनपद का कुछ क्षेत्र बैसवारा कहा जाता है। इसी बैसवारा की वीरभूमि में राव रामबख्श सिंह का जन्म हुआ, जिन्होंने मातृभूमि को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अन्तिम दम तक संघर्ष किया और फिर हँसते हुए फाँसी का फन्दा चूम लिया।

राव रामबख्श सिंह बैसवारा के संस्थापक राजा त्रिलोक चन्द्र की 16वीं पीढ़ी में जन्मे थे। रामबख्श सिंह ने 1840 में बैसवारा क्षेत्र की ही एक रियासत डौडियाखेड़ा का राज्य सँभाला। यह वह समय था, जब अंग्रेज छल-बल से अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। इसी के साथ स्वाधीनता संग्राम के लिए रानी लक्ष्मीबाई, बहादुरशाह जफर, नाना साहब, तात्या टोपे आदि के नेतृत्व में लोग संगठित भी हो रहे थे। राव साहब भी इस अभियान में जुड़ गये।

31 मई, 1857 को एक साथ अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक छावनियों में हल्ला बोलना था; पर दुर्भाग्यवश समय से पहले ही विस्फोट हो गया, जिससे अंग्रेज सतर्क हो गये। कानपुर पर नानासाहब के अधिकार के बाद वहाँ से भागे 13 अंग्रेज बक्सर में गंगा के किनारे स्थित एक शिव मन्दिर में छिप गये। 

वहाँ के ठाकुर यदुनाथ सिंह ने अंग्रेजों से कहा कि वे बाहर आ जायें, तो उन्हें सुरक्षा दी जाएगी; पर अंग्रेज छल से बाज नहीं आये। उन्होंने गोली चला दी, जिससे यदुनाथ सिंह वहीं मारे गये। क्रोधित होकर लोगों ने मन्दिर को सूखी घास से ढककर आग लगा दी। इसमें दस अंग्रेज जल मरे; पर तीन गंगा में कूद गये और किसी तरह गहरौली, मौरावाँ होते हुए लखनऊ आ गये।

लखनऊ में अंग्रेज अधिकारियों को जब यह वृत्तान्त पता लगा, तो उन्होंने मई 1858 में सर होप ग्राण्ट के नेतृत्व में एक बड़ी फौज बैसवारा के दमन के लिए भेज दी। इस फौज ने पुरवा, पश्चिम गाँव, निहस्था, बिहार और सेमरी को रौंदते हुए दिसम्बर 1858 में राव रामबख्श सिंह के डौडियाखेड़ा दुर्ग को घेर लिया। राव साहब ने सम्पूर्ण क्षमता के साथ युद्ध किया; पर अंग्रेजों की सामरिक शक्ति अधिक होने के कारण उन्हें पीछे हटना पड़ा।

इसके बाद भी राव साहब गुरिल्ला पद्धति से अंग्रेजों को छकाते रहे; पर उनके कुछ परिचितों ने अंग्रेजों द्वारा दिये गये चाँदी के टुकड़ों के बदले अपनी देशनिष्ठा गिरवी रख दी। इनमें एक था उनका नौकर चन्दी केवट। उसकी सूचना पर अंग्रेजों ने राव साहब को काशी में गिरफ्तार कर लिया।

रायबरेली के तत्कालीन जज डब्ल्यू. ग्लाइन के सामने न्याय का नाटक खेला गया। मौरावाँ के देशद्रोही चन्दनलाल खत्री व दिग्विजय सिंह की गवाही पर राव साहब को मृत्युदंड दिया गया। अंग्रेज अधिकारी बैसवारा तथा सम्पूर्ण अवध में अपना आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने बक्सर के उसी मन्दिर में स्थित वटवृक्ष पर 28 दिसम्बर, 1861 को राव रामबख्श सिंह को फाँसी दी, जहाँ दस अंग्रेजों को जलाया गया था। राव साहब डौडियाखेड़ा के कामेश्वर महादेव तथा बक्सर की माँ चन्द्रिका देवी के उपासक थे। इन दोनों का ही प्रताप था कि फाँसी की रस्सी दो बार टूट गयी। 

राव रामबख्श सिंह भले ही चले गये; पर डौडियाखेड़ा दुर्ग एक तीर्थ बन गया, जहाँ भरने वाले मेले में अवध के लोकगायक आज भी गाते हैं - 

अवध मा राव भये मरदाना।
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29 दिसम्बर/बलिदान-दिवस      

धौलाना के अमर बलिदानी

भारत के स्वाधीनता संग्राम में मेरठ की 10 मई, 1857 की घटना का बड़ा महत्व है। इस दिन गाय और सूअर की चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से खोलने से मना करने वाले भारतीय सैनिकों को हथकड़ी-बेड़ियों में कसकर जेल में बंद कर दिया गया। जहां-जहां यह समाचार पहुंचा, वहां की देशभक्त जनता तथा भारतीय सैनिकों में आक्रोश फैल गया।

मेरठ पुलिस कोतवाली में उन दिनों धनसिंह गुर्जर कोतवाल थे। वे परम देशभक्त तथा गोभक्त थे। अपने संपर्क के गांवों में उन्होंने यह समाचार भेज दिया। उनकी योजनानुसार हजारों लोगों ने मेरठ आकर जेल पर धावा बोलकर उन सैनिकों को छुड़ा लिया। इसके बाद सबने दूसरी जेल पर हमला कर वहां के भी सब 804 बंदी छुड़ा लिये। इससे देशभक्तों का उत्साह बढ़ गया।

इसके बाद सबने अधिकारियों के घरों पर धावा बोलकर लगभग 25 अंग्रेजों को मार डाला। इनमें लेफ्टिनेंट रिचर्ड बेलेसली चेम्बर्स की पत्नी शारलैंट चेम्बर्स भी थी। रात तक पूरे मेरठ पर देशभक्तों का कब्जा हो गया। अगले दिन यह समाचार मेरठ के दूरस्थ गांवों तक पहुंच गया। हर स्थान पर देशभक्तों ने सड़कों पर आकर अंग्रेजों का विरोध किया; पर ग्राम धौलाना (जिला हापुड़, उ.प्र.) में यह चिंगारी ज्वाला बन गयी। 

इस क्षेत्र में मेवाड़ से आकर बसे राजपूतों का बाहुल्य है। महाराणा प्रताप के वंशज होने के नाते वे सब विदेशी व विधर्मी अंग्रेजों के विरुद्ध थे। मेरठ का समाचार सुनते ही उनके धैर्य का बांध टूट गया। उन्होंने धौलाना के थाने में आग लगा दी। थानेदार मुबारक अली वहां से भाग गया। उसने रात जंगल में छिपकर बिताई तथा अगले दिन मेरठ जाकर अधिकारियों को सारा समाचार दिया।

मेरठ तब तक पुनः अंग्रेजों के कब्जे में आ चुका था। जिलाधिकारी ने सेना की एक बड़ी टुकड़ी यह कहकर धौलाना भेजी कि अधिकतम लोगों को फांसी देकर आतंक फैला दिया जाए, जिससे भविष्य में कोई राजद्रोह का साहस न करे। वह इन क्रांतिवीरों को मजा चखाना चाहता था। 

थाने में आग लगाने वालों में अग्रणी रहे लोगों की सूची बनाई गई। यह सूची निम्न थी - सर्वश्री सुमेरसिंह, किड्ढासिंह, साहब सिंह, वजीर सिंह, दौलत सिंह, दुर्गासिंह, महाराज सिंह, दलेल सिंह, जीरा सिंह, चंदन सिंह, मक्खन सिंह, जिया सिंह, मसाइब सिंह तथा लाला झनकूमल सिंहल। 

अंग्रेज अधिकारी ने देखा कि इनमें एक व्यक्ति वैश्य समाज का भी है। उसने श्री झनकूमल को कहा कि अंग्रेज तो व्यापारियों का बहुत सम्मान करते हैं, तुम इस चक्कर में कैसे आ गये ? इस पर श्री झनकूमल ने गर्वपूर्वक कहा कि यह देश मेरा है और मैं इसे विदेशी व विधर्मियों से मुक्त देखना चाहता हूं।

अंग्रेज अधिकारी ने बौखलाकर सभी क्रांतिवीरों को 29 दिसम्बर, 1857 को पीपल के पेड़ पर फांसी लगवा दी। इसके बाद गांव के 14 कुत्तों को मारकर हर शव के साथ एक कुत्ते को दफना दिया। यह इस बात का संकेत था कि भविष्य में राजद्रोह करने वाले की यही गति होगी। 

इतिहास इस बात का साक्षी है कि ऐसी धमकियों से बलिदान की यह अग्नि बुझने की बजाय और भड़क उठी और अंततः अंग्रेजों को अपना बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। 1857 की क्रांति के शताब्दी वर्ष में 11 मई, 1957 को धौलाना में शहीद स्मारक का उद्घाटन भगतसिंह के सहयोगी पत्रकार रणवीर सिंह द्वारा किया गया। प्रतिवर्ष 29 दिसम्बर को हजारों लोग वहां एकत्र होकर उन क्रांतिवीरों को श्रद्धांजलि देते हैं। 

(संदर्भ : गोधन मासिक, मई 2007)
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29 दिसम्बर/इतिहास-स्मृति      

लंदन में गुरु गोविंद सिंहजी का जन्मोत्सव

जो लोग काम-धंधे या अन्य किसी कारण से विदेश में बस जाते हैं, वे लम्बा समय बीतने पर प्रायः अपनी भाषा-बोली, रीति-रिवाज खान-पान और धर्म-कर्म आदि भूल जाते हैं। गुलामी के काल में इंग्लैंड निवासी अधिकांश भारतीय और हिन्दुओं की यही हालत थी। ऐसे माहौल में जुलाई 1906 में वीर विनायक दामोदर सावरकर बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के लिए लंदन पहुंचे। वे वहां स्वाधीनता सेनानी पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा के ‘इंडिया हाउस’ में रहते थे। वहां रहकर उन्होंने जहां स्वाधीनता संग्राम में कई तरह से योगदान किया, वहां देश और धर्म के लिए बलिदान होने वाले वीरों की जयंती और पुण्य-तिथि आदि मनाकर भारत से गये हिन्दुओं में भी जागृति लाने का प्रयास किया।

इसी क्रम में 29 दिसम्बर, 1908 को लंदन के प्रसिद्ध ‘कैक्स्टन हाॅल’ में खालसा पंथ के संस्थापक श्री गुरु गोविंद सिंहजी का जन्मोत्सव मनाया गया। खराब मौसम के बावजूद इसमें हिन्दुओं और सिखों के अलावा कई अंग्रेज, मुसलमान और पारसी भी शामिल हुए। सभा स्थल पर गुलाबी रंग के एक भव्य झंडे पर ‘देग तेग फतह’ लिखा था। गुलाबी पृष्ठभूमि पर ये शब्द बहुत अच्छे लग रहे थे। एक बैनर पर Honour to the secred memory of Shree Guru Govind Singh के नीचे Prophet, Poet and warrior लिखा था। सभागार धूपबत्ती और ताजे पुष्पों की सुगंध से महक रहा था। श्वेत राष्ट्रीय झंडियों से वातावरण में पवित्रता व्याप्त हो गयी।

समारोह की अध्यक्षता स्वाधीनता सेनानी श्री विपिनचंद्र पाल ने की। उनके मंचासीन होने पर ‘राष्ट्रगीत’ हुआ। फिर ‘बंगाली आमार देश’ तथा ‘मराठी प्रियकर हिन्दुस्थान’ गीत गाये गये। इसी क्रम में दो सिख युवाओं ने धार्मिक प्रार्थना बोली। पहले वक्ता प्रोफेसर गोकुलचंद नारंग एम.ए. (दयानंद काॅलेज) ने अपने आवेशयुक्त भाषण में कहा कि गुरु गोविंद सिंहजी का स्मरण हिन्दुओं के मन में अभिमान, प्रेम, आत्मनिष्ठा और पूज्यता का भाव भर देता है। ईसाई लोगों के मन में ईसा मसीह का नाम लेने से जो मनोभावना उत्पन्न होती है, केवल उसी से इसकी तुलना हो सकती है।

दूसरे वक्ता स्वाधीनता सेनानी लाला लाजपतराय थे। उन्होंने कहा कि गुरु गोविंद सिंहजी हिन्दुस्थान की महान विभूति थे। पंजाब में तो वे अनन्य थे ही। उनके चार छोटे बच्चे शत्रु के रोष की बलि चढ़ गये। गुरुजी वास्तव में सिंह थे। अध्यक्ष विपिन चंद्र पाल ने गुरुजी को याद करते हुए कि उन्होंने मानव की दैवी शक्ति का विकास करने का प्रयास किया। आज भारत में जिसे नयी जागृति या नया पक्ष आदि कहा जा रहा है, वह कुछ नया नहीं है।

विनायक दामोदर सावरकर इस समारोह के वक्ताओं में शामिल नहीं थे। यद्यपि इसके आयोजन में उनकी भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण थी; पर श्रोता उन्हें सुनना चाहते थे। अतः विपिन बाबू ने उन्हें भी बोलने को कहा। सावरकर ने ‘देग तेग फतह’ की व्याख्या करते हुए कहा कि ये तीन शब्द तीन पंखुडि़यों वाला फूल है, जिससे गुरुजी के सम्पूर्ण जीवन और सिख धर्म को समझा जा सकता है। इसका उच्चारण गुरुजी ने ही किया था। देग का अर्थ तत्व, तेग का तलवार और फतह का अर्थ जीत है। तलवार के बिना तत्व लंगड़ा रहता है। इसीलिए गुरुजी ने तलवार उठायी और अंततः हिन्दू पक्ष की जीत हुई।

समारोह के अंत में सिख परम्परा के अनुसार ‘कढ़ाह प्रसाद’ बांटा गया। गुरु गोविंद सिंह के जयकारे और ‘वंदे मातरम्’ के उद्घोष के साथ सभा विसर्जित हुई। प्रायः लंदन का मीडिया भारतीय और विशेषकर हिन्दुओं के समारोह को महत्व नहीं देता था; पर इसका समाचार टाइम्स, डेली टेलीग्राफ, मिरर, डेली एक्सप्रेस जैसे बड़े पत्रों ने दिया। डेली मिरर ने तो एक चित्र भी प्रकाशित किया। इससे यह कार्यक्रम पूरे नगर में चर्चा का विषय बन गया। 

(सावरकर समग्र, 1/580, प्रभात प्रकाशन)
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29 दिसम्बर/पुण्य-तिथि     

सम्पर्क के विशेषज्ञ लक्ष्मण सिंह शेखावत
श्री लक्ष्मण सिंह शेखावत का जन्म 1926 में ग्राम टांई (जिला झुंझनू, राजस्थान) में हुआ था। इनके बड़े भाई श्री नारायण सिंह एक विद्यालय में प्राचार्य तथा संघ के सक्रिय कार्यकर्ता थेे। वे छात्रों से पितृतुल्य स्नेह करते थे तथा कई छात्रों को अपने साथ रखकर पढ़ाते भी थे। उनमें से कई छात्र आगे चलकर प्रचारक भी बने। कई वर्ष तक उन पर सीकर विभाग कार्यवाह का दायित्व रहा। उनकी प्रेरणा से ही 1944 में लक्ष्मण सिंह जी स्वयंसेवक बने।

1947 में देश स्वाधीन होने को था; पर विभाजन की तलवार भी सिर पर मंडरा रही थी। जाते-जाते अंग्रेजों ने सभी राजे-रजवाड़ों को यह छूट दे दी कि वे अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में मिल सकते हैं। अराजकता के इस माहौल में ही लक्ष्मण सिंह जी ने प्रचारक बनने का निश्चय किया। सीकर, चुरू और श्रीगंगानगर में जिला प्रचारक; उदयपुर और पाली में विभाग प्रचारक; जोधपुर में संभाग प्रचारक तथा 1987 से 92 तक वे राजस्थान के सहप्रांत प्रचारक रहे। इसके बाद दो वर्ष तक उन्होंने जोधपुर प्रांत प्रचारक का दायित्व निभाया। 

राजस्थान में बांसवाड़ा तथा डूंगरपुर में पानी की अस्वच्छता के कारण नारू रोग बहुत होता है। वहां जाने में प्रचारक भी संकोच करते थे; पर लक्ष्मण सिंह जी सहर्ष वहां रहे। इन स्थानों पर कांग्रेस के राजनीतिक प्रभाव के कारण लोग शाखा में आने से डरते थे; पर लक्ष्मण सिंह जी के मधुर स्वभाव तथा कार्यकुशलता से सब ओर शाखा प्रारम्भ हो गयीं। 

लक्ष्मण सिंह जी की औपचारिक शिक्षा बहुत कम हुई; पर जीवन के अनुभवों से जो ज्ञान और विचार उन्होंने पाये थे, वे उनकी कार्यशैली में सदा दिखाई देते थे। वे हिन्दी की ही तरह अंग्रेजी में भी धाराप्रवाह बोलते थे। नये और पुराने सभी स्वयंसेवकों के साथ आत्मीय संबंधों के कारण वे जहां भी रहे, वहां कार्यकर्ताओं की टोली खड़ी हो जाती थी। आपातकाल में वे उदयपुर में विभाग प्रचारक थे। पुलिस ने उन्हें बहुत ढूंढा; पर वे भूमिगत रहकर सत्याग्रह आंदोलन को गति देते रहे तथा अंत तक पुलिस के हाथ नहीं आये।

लक्ष्मण सिंह जी की सबसे बड़ी विशेषता उनका संपर्क का कौशल था। वे हर क्षेत्र के प्रभावी लोगों से संपर्क साध लेते थे। उदयपुर के संघ शिक्षा वर्ग में कबड्डी खेलते हुए एक प्रचारक श्री विद्याधर जी का गुर्दा फट गया। लक्ष्मण सिंह जी के संपर्क के कारण वहां के वरिष्ठ चिकित्सक तुरन्त उनके उपचार में जुट गये। इसके साथ ही रक्त देने वालों का भी तांता लगा रहा।

1947-48 में कश्मीर सीमा पर अप्रतिम साहस दिखाने वाले जनरल नाथूसिंह को वे श्री गुरुजी के कार्यक्रम में लाये तथा दोनों की भेंट कराई। अवकाश प्राप्त सेनाधिकारियों की तरह संत-महात्माओं से भी उनका अच्छा संपर्क था। इनमें निम्बार्क सम्प्रदाय के महंत मुरली मनोहर जी, नाथ सम्प्रदाय के अनेक वरिष्ठ संत तथा भीलवाड़ा के दाता महाराज जैसे सिद्ध संत भी थे। 

1977 में राजस्थान में भैरोंसिंह शेखावत के नेतृत्व में बनी जनता सरकार में कई तरह की पृष्ठभूमि के मंत्री शामिल थे। लक्ष्मण सिंह जी इन सबको भी संघ के निकट लाये। उनके प्रयास से ही मेवाड़ के महाराणा भगवत सिंह तथा गढ़ी के राव इन्द्रजीत सिंह जैसे लोग विश्व हिन्दू परिषद में सक्रिय हुए।

1994 के बाद राजस्थान के संपर्क प्रमुख के नाते वे संघ कार्य के साथ ही राजनीतिक क्षेत्र के कार्यकर्ताओं को भी संभालते रहे। वे भारतीय किसान संघ के अखिल भारतीय मंत्री भी रहे। 29 दिसम्बर, 2000 को हुए भीषण हृदयाघात से उनका प्राणांत हुआ। उनकी कर्मठता और जुझारूपन के प्रसंग आज भी राजस्थान के कार्यकर्ताओं को प्रेरणा देते हैं।

(अभिलेखागार, भारती भवन, जयपुर एवं श्री मोहन जोशी)
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29 दिसम्बर/जन्म-दिवस

रामायण के प्रचारक रामानन्द सागर

फिल्मी दुनिया में अनेक निर्माता-निर्देशकों ने यश और धन कमाया है; पर रामानन्द सागर ऐसे फिल्मकार हुए, जिन्हें जनता ने साधु सन्तों जैसा सम्मान दिया। उनके द्वारा निर्मित ‘रामायण’ धारावाहिक के प्रसारण के समय घरों में पूजा जैसा वातावरण बन जाता था। लोग नहा-धोकर शान्त होकर धूप-अगरबत्ती जलाकर बैठते थे। उस समय सड़कें खाली हो जाती थीं। बस के यात्री रामायण देखने के लिए सड़कों के किनारे बने ढाबों में बसें रुकवा देते थे। लाखों लोगों ने रामायण धारावाहिक देखने के लिए ही दूरदर्शन खरीदे। 

रामानन्द सागर का जन्म लाहौर के पास असलगुरु गाँव में 29 दिसम्बर, 1927 को एक धनाढ्य घर में हुआ था। उनका बचपन का नाम चन्द्रमौलि था; पर उनके पिता की मामी ने उन्हें गोद ले लिया और उन्हें रामानन्द नाम दिया। दहेज के लालच में किशोरावस्था में ही घर वालों ने उनका विवाह करना चाहा; पर इन्होंने इसका विरोध किया। फलतः उन्हें घर छोड़ना पड़ा। इन्होंने चौकीदारी और ट्रक पर परिचालक जैसे काम किये; पर कदम पीछे नहीं हटाया।

रामानन्द सागर की रुचि बचपन से ही पढ़ने में थी। पंजाब विश्वविद्यालय ने उन्हें स्वर्ण पदक दिया था। इस कारण उन्हें उर्दू दैनिक ‘प्रताप’ और फिर दैनिक ‘मिलाप’ के सम्पादकीय विभाग में काम मिल गया। देश विभाजन के समय वे भारत आ गये। उस समय उनकी जेब में मात्र पाँच आने थे; पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। विभाजन के समय उन्होंने विधर्मी अत्याचारों का जो वीभत्स रूप देखा, उसे ‘और इन्सान मर गया’ नामक पुस्तक में लिपिबद्ध किया है।

1948 में वे मुम्बई आ गये। वहाँ उनकी भेंट राज कपूर से हुई। राज कपूर ने उनकी कहानी पर ‘बरसात’ नामक फिल्म बनायी, जो अत्यधिक सफल हुई। इससे रामानन्द सागर के लेखन की धाक जम गयी। इसके बाद उन्होंने स्वयं भी अनेक फिल्में बनायीं। उनमें से अधिकांश सफल हुईं; पर इसी बीच फिल्मी दुनिया में हिंसा और नग्नता का जो दौर चला, उसमें उन्होंने स्वयं को फिट नहीं समझा और शान्त होकर बैठ गये।

जीवन के संध्याकाल में रामानन्द सागर के मन में धार्मिक भावनाओं ने जोर पकड़ा। उनके मन में श्रीराम के प्रति अतीव श्रद्धा थी। वे दूरदर्शन के माध्यम से उनके जीवन चरित्र को जन-जन तक पहुँचाने के लिए धारावाहिक बनाना चाहते थे। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि एक रात स्वप्न में उन्हें हनुमान जी ने दर्शन देकर यह कार्य शीघ्र करने को कहा। बस फिर क्या था ? रामानन्द सागर प्रभु श्रीराम का नाम लेकर इस काम में जुट गये।

उन्होंने सर्वप्रथम श्रीराम से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थ और पुस्तकों का अध्ययन किया और फिर संवाद लिखने लगे। वे लेखन कार्य रात में करते थे। सुबह उठकर जब वे उन संवादों को दुबारा पढ़ते थे, तो उन्हें स्वयं ही आश्चर्य होता था। उनका मानना था कि स्वयं हनुमान जी रात में आकर उनसे संवाद लिखवाते थे। रामायण के बाद उन्होंने श्रीकृष्ण, जय गंगा मैया, जय महालक्ष्मी जैसे धार्मिक धारावाहिकों का भी निर्माण किया।

इन सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हें 2001 ई. में ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया। 12 दिसम्बर, 2005 को मुम्बई में वे सदा के लिए श्रीराम के धाम को महाप्रयाण कर गये।
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30 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

मेघालय के क्रांतिवीर उक्यांग नागवा

उक्यांग नागवा मेघालय के एक क्रान्तिकारी वीर थे। 18 वीं शती में मेघालय की पहाड़ियों पर अंग्रेजों का शासन नहीं था। वहाँ खासी और जयन्तियाँ जनजातियाँ स्वतन्त्र रूप से रहती थीं। इस क्षेत्र में आज के बांग्लादेश और सिल्चर के 30 छोटे-छोटे राज्य थे। इनमें से एक जयन्तियापुर था। 

अंग्रेजों ने जब यहाँ हमला किया, तो उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के अन्तर्गत जयन्तियापुर को पहाड़ी और मैदानी भागों में बाँट दिया। इसी के साथ उन्होंने निर्धन वनवासियों को धर्मान्तरित करना भी प्रारम्भ किया। राज्य के शासक ने भयवश इस विभाजन को मान लिया; पर जनता और मन्त्रिपरिषद ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने राजा के बदले उक्यांग नागवा को अपना नेता चुन लिया। उक्यांग ने जनजातीय वीरों की सेना बनाकर जोनोई की ओर बढ़ रहे अंग्रेजों का मुकाबला किया और उन्हें पराजित कर दिया। 

पर अंग्रेजों की शक्ति असीम थी। उन्होंने 1860 में सारे क्षेत्र पर दो रुपये गृहकर ठोक दिया। जयन्तिया समाज ने इस कर का विरोध किया। उक्यांग नागवा एक श्रेष्ठ बाँसुरीवादक भी थे। वह वंशी की धुन के साथ लोकगीत गाते थे। इस प्रकार वह अपने समाज को तीर और तलवार उठाने का आह्नान करते थे। अंग्रेज इसे नहीं समझते थे; पर स्थानीय लोग इस कारण संगठित हो गये और वेे हर स्थान पर अंग्रेजों को चुनौती देने लगे।

अब अंग्रेजों ने कर वसूली के लिए कठोर उपाय अपनाने प्रारम्भ किये; पर उक्यांग के आह्नान पर किसी ने कर नहीं दिया।  इस पर अंग्रेजों ने उन भोले वनवासियों को जेलों में ठूँस दिया। इतने पर भी उक्यांग नागवा उनके हाथ नहीं लगे। वह गाँवों और पर्वतों में घूमकर देश के लिए मर मिटने को समर्पित युवकों को संगठित कर रहे थे। धीरे-धीरे उनके पास अच्छी सेना हो गयी। 

उक्यांग ने योजना बनाकर एक साथ सात स्थानों पर अंग्रेज टुकड़ियों पर हमला बोला। सभी जगह उन्हें अच्छी सफलता मिली। यद्यपि वनवासी वीरों के पास उनके परम्परागत शस्त्र ही थे; पर गुरिल्ला युद्ध प्रणाली के कारण वे लाभ में रहे। वे अचानक आकर हमला करते और फिर पर्वतों में जाकर छिप जाते थे। इस प्रकार 20 माह तक लगातार युद्ध चलता रहा।

अंग्रेज इन हमलों और पराजयों से परेशान हो गये। वे किसी भी कीमत पर उक्यांग को जिन्दा या मुर्दा पकड़ना चाहते थे। उन्होंने पैसे का लालच देकर उसके साथी उदोलोई तेरकर को अपनी ओर मिला लिया। उन दिनों उक्यांग बहुत घायल थे। उसके साथियों ने इलाज के लिए उन्हें मुंशी गाँव में रखा हुआ था। उदोलोई ने अंग्रेजों को यह सूचना दे दी।

फिर क्या था ? सैनिकों ने साइमन के नेतृत्व में मुंशी गाँव को चारों ओर से घेर लिया। उक्यांग की स्थिति लड़ने की बिल्कुल नहीं थी। इस कारण उसके साथी नेता के अभाव में टिक नहीं सके। फिर भी उन्होंने समर्पण नहीं किया और युद्ध जारी रखा। अंग्रेजों ने घायल उक्यांग को पकड़ लिया। 

उन्होंने प्रस्ताव रखा कि यदि तुम्हारे सब सैनिक आत्मसमर्पण कर दें, तो हम तुम्हें छोड़ देंगे; पर वीर उक्यांग नागवा ने इसे स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों के अमानवीय अत्याचार भी उनका मस्तक झुका नहीं पाये। अन्ततः 30 दिसम्बर, 1862 को उन्होंने मेघालय के उस वनवासी वीर को सार्वजनिक रूप से जोनोई में ही फाँसी दे दी।
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30 दिसम्बर/जन्म-दिवस

प्रेम के उपासक रमण महर्षि

प्रौढ़ावस्था में तो प्रायः सभी लोग प्रभु स्मरण करने लगते हैं; पर कुछ लोग अपने पूर्व जन्म के संस्कारवश बाल्यवस्था में ही प्रभु को समर्पित हो जाते हैं। महर्षि रमण के नाम से प्रसिद्ध हुए वेंकटरमण ऐसी ही एक विभूति थे। उनका जन्म तमिलनाडु के एक छोटे से गाँव तिरुचली में 30 दिसम्बर, 1879 को हुआ था। बचपन में वे बहुत सुन्दर और स्वस्थ थे; पर पढ़ने में उनकी रुचि बहुत कम थी। उन्हें विद्यालय भेजने में माँ को पसीने छूट जाते थे। बहुत अधिक सोने के कारण लोग उन्हें कुम्भकर्ण कहते थे।

जब वे 16 वर्ष के थे, तब उनके घर तमिलनाडु के अरुणाचल पर्वत (तिरुवन्नमलाई) से एक संन्यासी पधारे। उनकी वार्त्ता से वेंकटरमण के मन में अरुणाचल दर्शन की जिज्ञासा उत्पन्न हो गयी। उन्होंने ठान लिया कि वे एक बार अरुणाचल अवश्य जायेंगे। उन्हीं दिनों उन्होंने शैव सन्तों की कथाएँ एवं कविताएँ पढ़ी। इससे उनके मन में अध्यात्म के प्रति प्रेम जाग गया।

अब रमण अधिक से अधिक समय एकान्त में बैठकर चिन्तन-मनन करने लगे। कभी-कभी तो वे समाधि में घण्टों बैठे रहते थे। उन्हें हर समय अरुणाचल की याद आती थी। रेल से वहाँ के निकटवर्ती स्टेशन तक जाने के लिए भी तीन रु. का टिकट लगता था। एक दिन माँ ने उन्हें बड़े भाई की फीस जमा कराने के लिए पाँच रु. दिये। रमण ने माँ को एक पत्र लिखा कि मैं भगवान् को खोजने जा रहा हूँ। आप लोग मेरी तलाश न करें। पत्र के साथ ही उन्होंने शेष दो रु. भी रख दिये।

इसके बाद उनकी यात्रा बहुत कठिन थी। रेल से उतरकर भी बहुत दूर जाना था। धन के अभाव में उन्हें पैदल ही चलना पड़ा। मार्ग में लोग दयावश उन्हें भोजन करा देते थे। रात में वे किसी मन्दिर में रुक जाते थे। अन्ततः वे तिरुवन्नमलाई पहुँच गये। सामने ही अरुणाचल पर्वत पर स्थित मन्दिर था। रमण अपनी सुध-बुध खो बैठे। उन्होंने वहाँ कठिन साधना प्रारम्भ कर दी।

धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैलने लगी। लोग उन्हें महर्षि रमण कहने लगे। मन्दिर में आने वालों के कारण उनकी साधना में व्यवधान आता था। अतः थम्बी रंगास्वामी नामक भक्त के आग्रह पर वे उसके बाग में रहने लगे। जब उनके परिवारजनों को यह पता लगा, तो वे वहाँ आये और उनसे वापस घर चलने का आग्रह किया; पर रमण ने सबको समझाकर लौटा दिया।

कुछ समय बाद वे फिर अरुणाचल मन्दिर आ गये। उनके शिष्यों ने वहीं एक आश्रम तथा मन्दिर बना लिया। वहाँ गोशाला, वेद पाठशाला, प्रकाशन विभाग आदि खोले गये। सब आश्रमवासी अपने लिए निर्धारित काम स्वयं करते थे। महर्षि रमण भी सबके साथ सहयोग करते थे। आश्रम सब धर्म, जाति और सम्प्रदायों के लिए खुला था। पशु-पक्षी भी वहाँ स्वतन्त्रता से विचरते थे। रमण के मन में सबके लिए समान प्रेम था।

1947 में उन्हें कैन्सर ने घेर लिया। इससे उन्हें बहुत शारीरिक कष्ट होता था; पर वे सदा मुस्कुराते रहते थे। उनके शिष्य एवं आगंतुक यह देखकर दंग रह जाते थे। चिकित्सकों ने शल्य क्रिया कर उनकी बाँह से वह गाँठ निकाल दी; पर रोग शान्त नहीं हुआ। अब बाँह को काटना ही विकल्प था; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए और प्रभुधाम जाने की तैयारी प्रारम्भ कर दी। 24 अपै्रल, 1950 को प्रेमावतार महर्षि रमण ने शरीर छोड़ दिया।
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30 दिसम्बर/जन्म-दिवस

सम्पादकाचार्य पंडित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी

हिन्दी पत्रकारिता के शिखर पुरुष पंडित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने न केवल एक गौरवशाली परम्परा का निर्माण किया, अपितु युवा पत्रकारों की नयी पीढ़ी भी तैयार की। इसीलिए उन्हें ‘सम्पादकाचार्य’ कहकर आदर और श्रद्धा से याद किया जाता है। वाजपेयी जी का जन्म 30 दिसम्बर, 1880 को कानपुर (उ.प्र.) में हुआ था। उनके दादा श्री रामचन्द्र जी अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के मन्त्रिमंडल में धर्माध्यक्ष थे। उनके देहांत के बाद आर्थिक संकट के कारण उनके पिता श्री कन्दर्पनारायण को कोलकाता में गल्ले का व्यापार करना पड़ा। इससे धनलाभ होने पर वे पहले बनारस और फिर लखनऊ आ गये।

पंडित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी ने अनेक पत्रों में काम किया। वे अपने विचारों को खुलकर व्यक्त करते थे। इससे शासन उनसे नाराज रहता था; पर जनता उन्हें पढ़ने को लालायित रहती थी। इसलिए जिस पत्र के साथ वे जुड़े, उसकी प्रसार संख्या स्वयमेव बढ़ जाती थी। दैनिक ‘आज’ (काशी) से लेकर साप्ताहिक ‘भारतमित्र’ तक इसके प्रबल उदाहरण हैं। 

भारतमित्र से पूर्व अनेक दैनिक हिन्दी पत्र निकले; पर वे सब अल्पजीवी सिद्ध हुए। 1911 में भारत की राजधानी कोलकाता से दिल्ली बदली जा रही थी। परिवर्तन के ऐसे समय में लोगों की समाचारों की भूख दैनिक पत्र ही पूरा कर सकता था। अतः उन्होंने भारतमित्र को दैनिक बनाने का निर्णय लिया। साप्ताहिक भारतमित्र का अन्तिम संस्करण 17 जनवरी, 1911 को इस सूचना के साथ प्रकाशित हुआ कि मार्च 1912 से यह दैनिक प्रकाशित होगा। इस बीच दिल्ली तथा अन्य प्रमुख स्थानों पर सम्वाददाता नियुक्त किये गये। 

यह पत्र 1935 तक चलता रहा। इसकी लोकप्रियता को देखकर 1914 से 1917 के बीच चार नये पत्र कलकत्ता समाचार, भारत जीवन (काशी), अभ्युदय दैनिक (प्रयाग) और विश्वमित्र दैनिक (कोलकाता) प्रकाशित हुए। इन पर भारतमित्र और वाजपेयी जी का स्पष्ट प्रभाव दिखता था। 
1919 में वाजपेयी जी ने भारतमित्र को छोड़ दिया। अत्यधिक परिश्रम से उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था। फिर उनके शासन विरोधी उग्र लेखों से मालिक, प्रकाशक और मुद्रक पर संकट के बादल मँडराने लगे थे। ऐसी परिस्थिति तब भी आयी थी, जब वे मासिक ‘नृसिंह’ निकालते थे। वह पत्रिका एक साल में ही बन्द हो गयी; पर इस बीच उसने खूब प्रतिष्ठा पायी। 

उस समय के श्रेष्ठ पत्रकारों में बाबूराव विष्णु पराड़कर और लक्ष्मण नारायण गर्दे के साथ वाजपेयी जी का नाम लिया जाता है। भारतमित्र छोड़ने के बाद उन्होंने ‘इंडियन नेशनल पब्लिशर्स लिमिटेड’ बनाकर ‘स्वतन्त्र’ नामक पत्र निकाला। वे कांग्रेस महासमिति के सदस्य और कोलकाता कांग्रेस अधिवेशन की स्वागत समिति के उपाध्यक्ष बने।

वाजपेयी जी द्वारा लिखित पुस्तकों में हिन्दुओं की राज कल्पना, हिन्दू राज्य शास्त्र, भारतीय शासन पद्धति, हिन्दी पर फारसी का प्रभाव, हिन्दी कौमुदी, अभिनव हिन्दी व्याकरण, हिन्दुस्तानी मुहावरे, अंग्रेजी की वर्तनी और उच्चारण, श्राद्ध प्रकाश, अमरीका और अमरीकन... आदि प्रमुख हैं। उनकी पुस्तक ‘समाचार पत्र कला’ अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में है। 1939 में काशी में हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वे अध्यक्ष निर्वाचित हुए। यहाँ उन्हें ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि दी गयी।

21 मार्च, 1968 को लखनऊ में वाजपेयी जी का देहान्त हुआ।
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30 दिसम्बर/जन्म-दिवस

ऐतिहासिक उपन्यासकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी

30 दिसम्बर, 1887 को भरूच (गुजरात) के डिप्टी कलेक्टर श्री माणिक लाल मुंशी के घर में जन्मे श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उनकी कुशलता राजनीति, साहित्य, शिक्षा व धर्मप्रेम के साथ ही प्रकृति संरक्षण के लिए किये गये उनके प्रयासों से भी प्रकट हुई। मुंशी जी बड़ौदा से स्नातक एवं मुंबई से कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर 1913 में मुंबई उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। बड़ौदा विश्वविद्यालय में पढ़ते समय उनकी भेंट ऋषि अरविंद से हुई। आगे चलकर अरविंद, सरदार पटेल व गांधी जी से प्रभावित होकर वे स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। 

1927 में सरदार पटेल के साथ उन्होंने बारदोली सत्याग्रह में भाग लिया। 1930 और 1932 में वे फिर जेल गये। 1940 में उन्होंने नमक सत्याग्रह में भाग लिया। स्वतंत्रता के बाद सरदार पटेल के साथ शासन के प्रतिनिधि के रूप में हैदराबाद रियासत को मुक्त कराने में उन्होंने भरपूर सहयोग दिया। महमूद गजनवी द्वारा तोड़े गये सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में भी उनकी बड़ी भूमिका रही। जब सरदार पटेल ने हाथ में समुद्र का जल लेकर मंदिर निर्माण का संकल्प लिया, तो कन्हैयालाल जी भी उनके साथ थे।

स्वतंत्र भारत में उन्हें कृषि एवं खाद्य मंत्री बनाया गया। इस दौरान उन्होंने जुलाई के प्रथम सप्ताह में ‘वन महोत्सव’ मनाने की कल्पना सबके सामने रखी। इस समय वर्षाकाल होने के कारण धरती खूब उर्वरा रहती है। जब तक वे कृषि मंत्री रहे, तब तक यह योजना कुछ चली; पर सरदार पटेल के दिवंगत होते ही नेहरू जी ने उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल से हटाकर उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाकर लखनऊ भेज दिया। इस प्रकार वन महोत्सव की योजना असमय मार दी गयी। यदि आज भी इस योजना पर ठीक से काम हो, तो न केवल भारत अपितु विश्व पर्यावरण प्रदूषण के अभिशाप से मुक्त हो सकता है।

मुंशी जी गुजराती भाषा के श्रेष्ठ साहित्यकार थे। ऐतिहासिक उपन्यासकार के नाते उनकी बड़ी ख्याति है। लोपामुद्रा, लोमहर्षिणी, पाटन का प्रभुत्व, गुजरात के नाथ, जय सोमनाथ, पृथ्वीवल्लभ, भगवान परशुराम, भग्न पादुका, कृष्णावतार (सात खंड) आदि इनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं। उन्होंने सैकड़ों लेख, निबंध, नाटक और कहानियां लिखीं, जिनमें भारत और भारतीयता की सुगंध सर्वत्र व्याप्त है। 

गांधी जी द्वारा सम्पादित ‘यंग इंडिया’ के वे सह सम्पादक थे। इसके साथ ही गुजराती, आर्यप्रकाश, नवजीवन, सत्य आदि पत्रों के वे सम्पादक रहे। गुजराती के अतिरिक्त हिन्दी, तमिल, कन्नड़, तेलुगु, मराठी तथा अंग्रेजी पर भी इनका अधिकार था। इनकी पुस्तकों के अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं।

श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भारत की स्वतंत्रता के साथ ही उसके पुनर्निर्माण के बारे में भी विचार किया। हिन्दू धर्म एवं संस्कृति उनके मन, वचन और कर्म में बसी थी। कालान्तर में इसी चिंतन से 1932 में ‘साहित्य संसद’ तथा 1938 में ‘भारतीय विद्या भवन’ जैसी श्रेष्ठ संस्था का जन्म हुआ। भारतीय विद्या भवन की देश भर में 22 शाखाएं हैं। इस संस्था ने देश-विदेश में वेद, उपनिषद, गीता, रामायण जैसे हिन्दू धर्मग्रंथों तथा भारतीय भाषा व संस्कृति के विकास में अप्रतिम योगदान दिया।

मुंशी जी अपने जीवन के अंतिम समय तक देश, धर्म, शिक्षा, साहित्य, विज्ञान एवं कला की सेवा करते रहे। हिन्दू हितैषी होने के कारण वे विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना में भी सहयोगी बने। 8 फरवरी, 1971 को उनकी श्वास भगवान सोमनाथ के श्रीचरणों में सदा के लिए विसर्जित हो गयी।
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30 दिसम्बर/जन्म-दिवस

भाषा विज्ञानी आचार्य रघुवीर

संस्कृत भारत की ही नहीं, तो विश्व की सब भाषाओं की जननी है, इसे सप्रमाण सिद्ध करने वाले आचार्य रघुवीर का जन्म 30 दिसम्बर, 1902 को रावलपिंडी (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। इनके पिता श्री मंुशीराम जी एक विद्यालय में प्राचार्य तथा माता श्रीमती जयावती एक धर्मप्रेमी गृहणी थीं। 

बालपन से ही वे संस्कृत एवं अंग्रेजी में कविता लिखने लगे। रघुवीर जी छात्र जीवन में हर भाषा के व्याकरण को गहराई से समझने का प्रयत्न करते थे। व्याकरण के महान आचार्य पाणिनी का जन्म रावलपिंडी के निकट शालापुर ग्राम में हुआ था। रघुवीर जी का व्याकरण के प्रति अतिशय प्रेम देखकर इनके गुरुजन समझ गये कि यह बालक पाणिनी के कार्यों को ही आगे बढ़ाएगा।

प्राथमिक शिक्षा के बाद रघुवीर जी ने लाहौर के डी.ए.वी विद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया। अब तक वे अंग्रेजी, हिन्दी, अरबी, फारसी, मराठी, बंगला, तमिल, तेलुगु, पंजाबी, रूसी तथा जापानी भाषा में तज्ञ हो चुके थे। अब अजमेर आकर उन्होंने महर्षि दयानंद की अष्टाध्यायी का संपादन किया।

1925 में आचार्य रघुवीर का विवाह हुआ। 1928 में लंदन विश्वविद्यालय से पी-एच.डी कर वे लाहौर में ही संस्कृत के प्राध्यापक हो गये। अध्यापन के साथ ही वे स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय हुए और ‘हिन्दू रक्षक संघ’ की स्थापना की। 1942 में वे सी.पी एंड बरार से संविधान सभा के सदस्य बने तथा 1949-50 तक इस पद पर रहे। उनकी योग्यता देखकर कांग्रेस ने 1952 से 62 तक उन्हें राज्यसभा में सांसद बनाया।

आचार्य जी ने अंतरराष्ट्रीय भाषा सम्मेलन में सप्रमाण सिद्ध किया कि भारतीय संस्कृति अति प्राचीन तथा संस्कृत विश्व की सब भाषाओं की जननी है। हिन्दी भारत की प्राचीनतम ब्राह्मी लिपि तथा ध्वनि के आधार पर बोली जाने वाली भाषा है। उन्होंने विश्व भर से अनेक भाषाओं में उपलब्ध महाभारत तथा रामायण ग्रंथों की पांडुलिपियों को एकत्र कर बृहत् शोध किया। 

उन्होंने इंडोनेशिया के जावा द्वीप में जोग्या नगर के पास स्थित मंदिरों पर उत्कीर्ण रामकथा के चित्रों को भी संकलित किया। विलुप्त हो चुके संस्कृत एवं भारतीय साहित्य को एकत्र करने के लिए उन्होंने 1934, 46 और 56 में क्रमशः लाहौर, नागपुर और दिल्ली में ‘सरस्वती विहार’ की स्थापना की।

आचार्य जी ने हिन्दी भाषा में दो लाख नये शब्द गढ़े। उनकी योजना 20 लाख नये शब्द बनाने की थी; पर उनके असमय निधन से यह काम रुक गया।इसके बाद भी आचार्य जी के प्रयास से हिन्दी निदेशालय की स्थापना हुई, वैज्ञानिक शब्दावली आयोग बना तथा हिन्दी राजभाषा घोषित हुई। आचार्य जी द्वारा चलाया गया ‘राष्ट्रभाषा आंदोलन’ काफी सफल हुआ। उन्होंने जो शब्दकोश बनाया, वह आज भी हिन्दी में मानक कोश माना जाता है।

1962 में चीन के आक्रमण के समय शासन की शतुरमुर्गी नीति से नाराज होकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। इसके बाद वे भारतीय जनसंघ से जुड़े और उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 1963 में उपचुनाव के समय जब वे डा. राममनोहर लोहिया के पक्ष में एक जनसभा को संबोधित कर लौट रहे थे, तो 14 मई को कानपुर के पास हुई वाहन दुर्घटना में उनका प्राणांत हो गया। 

आचार्य जी ने हिन्दी, संस्कृत एवं भारतीय भाषाओं की सेवा के लिए जो कार्य किया, उसके लिए उन्हें आधुनिक पाणिनी कहना अत्यन्त समीचीन है।
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31 दिसम्बर/जन्म-तिथि

श्रमिक हित को समर्पित रमण भाई शाह

श्रमिकों के हित के लिए प्रदर्शन और आन्दोलन तो कई लोग करते हैं; पर ऐसे व्यक्तित्व कम ही हैं, जिन्होंने इस हेतु अच्छे वेतन और सुख सुविधाओं वाली नौकरी ही छोड़ दी। रमण भाई शाह ऐसी ही एक महान विभूति थे। रमण भाई का जन्म पुणे के पास ग्राम तलेगाँव दाभाड़े में श्री गिरधर शाह के घर में 31 दिसम्बर, 1926 को हुआ था। पुणे में पढ़ते समय ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये और तृतीय वर्ष तक का शिक्षण लिया।

बी.एस-सी. कर वे दो वर्ष तक संघ के प्रचारक रहे। फिर उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया और मुम्बई के एक प्रसिद्ध रबड़ उद्योग में नौकरी कर ली। यहाँ उन्होंने एक राष्ट्रवादी मजदूर यूनियन की स्थापना की। मजूदरों को अपने परिवार का सदस्य मानने के कारण यह यूनियन शीघ्र ही लोकप्रिय हो गयी।  

1953 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना से भोपाल (मध्य प्रदेश) में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना हुई। श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी को इस काम में लगाया गया। ठेंगड़ी जी ने उनकी रुचि और योग्यता देखकर उन्हें अपने साथ जोड़ लिया। इस प्रकार प्रारम्भ से ही उन्हें श्री ठेंगड़ी का सान्निध्य मिला। 

जब मजदूर संघ का काम बढ़ने लगा, तो इसके लिए पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता हुई। ऐसे में रमण भाई ने सहर्ष अपनी नौकरी छोड़ दी और भारतीय मजदूर संघ के लिए समर्पित हो गये। इसके बाद उन्हें जब जैसा दायित्व दिया गया, उसके अनुसार वे पूरे मनोयोग से काम में लगे रहे। इस प्रकार वे दत्तोपन्त जी के दाहिने हाथ बन गये।

मजदूर संघ के काम के लिए रमण भाई को पूरे देश में प्रवास करना होता था। उनके कोई सन्तान भी नहीं थी। अतः उन्होंने अपने साले विपिन को अपने घर रखा, जिससे उनकी पत्नी पन्ना बेन को कष्ट न हो। 1960 में घरेलू सम्पत्ति के बँटवारे से रमण भाई को एक बड़ी राशि मिली; पर उन्होंने वह सब मजदूर संघ को दे दी। उन्होंने रेल में कभी प्रथम श्रेणी में यात्रा नहीं की। उनका मत था कि साधारण श्रेणी में ही यात्रा करने से ही देश के आम आदमी के जीवन को निकट से देखा और समझा जा सकता है।

रमण भाई यों तो मजदूर हित के लिए सदा संघर्षरत रहते थे; पर उन्हें प्रसिद्धि तब मिली, जब 20 अगस्त, 1963 को उन्होंने मुम्बई बन्द का नेतृत्व किया। 1972 में वे मजदूर संघ के तृतीय अखिल भारतीय अधिवेशन में हजारों कामगार महिलाओं को लेकर पहुँचे थे। मुम्बई में असंगठित रूप से घरेलू काम करने वाली महिलाएँ पहली बार इतनी बड़ी संख्या में एकत्र हुईं थीं। रमण भाई के इस प्रयास की सराहना अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुई।

रमण भाई ने मजदूर संघ में छोटे से लेकर बड़े तक अनेक दायित्व निभाये। वे अखिल भारतीय कोषाध्यक्ष और फिर 1993 से 2002 तक अखिल भारतीय अध्यक्ष भी रहे। उनके अध्यक्ष काल में ही भारतीय मजदूर संघ भारत का सबसे बड़ा श्रमिक संगठन घोषित हुआ। 

दत्तोपन्त ठेंगड़ी के देहावसान के बाद रमण भाई ही मजदूर संघ के मार्गदर्शक रहे। उनकी सादगी, सरलता और मधुर स्वभाव के कारण विरोधी विचारों वाले मजदूर संगठनों के नेता भी उनसे विभिन्न विषयों पर परामर्श करने आते थे। श्रमिक क्षेत्र में उनकी भूमिका अजातशत्रु जैसी थी।

रमण भाई ने श्रमिकों के हित के लिए सैकड़ों प्रतिनिधि मंडलों में सहभागिता कर उचित निर्णय कराये। यह उनके लिए व्यक्तिगत हित से बढ़कर था। स्वास्थ्य ढीला होने पर उन्होंने भारतीय मजदूर संघ में अध्यक्ष का दायित्व छोड़ दिया और कार्यकारिणी के सदस्य के नाते काम करते रहे। एक अगस्त, 2007 को पुणे में ही उन्होंने अन्तिम साँस ली।

2 टिप्‍पणियां:

  1. 25 दिसम्बर आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की जीवनी जोड़ने का कष्ट करें ।

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  2. 🙏कृपया श्री अशोक वढेरा जी का जीवनवृत दिसम्बर तीसरे सप्ताह में ले जाएँ, धन्यवाद !!

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