दिसम्बर तीसरा सप्ताह

16 दिसम्बर/ जन्म-दिवस                  

इतिहास पुरुष बापूराव बरहाडपांडे
पूरे देश में संघ कार्य को फैलाने का श्रेय नागपुर के प्रचारकों को है; पर नागपुर में संघ कार्य को संभालने, गति देने तथा कार्यकर्ताओं को गढ़ने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले श्री बापू नारायण बरहाडपांडे का जन्म 16 दिसम्बर, 1918 को हुआ था। 1927 में नागपुर की ऊंटखाना शाखा से उनका संघ जीवन प्रारम्भ हुआ और फिर वही उनका तन, मन और प्राण बन गया। गृहस्थी तथा अध्यापन करते हुए भी उनके जीवन में प्राथमिकता सदा संघ कार्य को रहती थी।

एक सामान्य परिवार में जन्मे बापूराव रसायनशास्त्र में एम.एस-सी. कर अध्यापक बने। यह कार्य पूरी जिम्मेदारी से निभाते हुए भी उनकी साइकिल और फिर मोटरसाइकिल सदा शाखाओं की वृद्धि के लिए घूमती रहती थी। प्रथम प्रतिबन्ध के समय उन्होंने भूमिगत रहकर सत्याग्रह का संचालन किया। किसी भी हनुमान मंदिर में आकस्मिक बैठक कर वे सत्याग्रह की सूचना देते थे। 

भूमिगत होने के कारण वे कॉलिज नहीं जा पाते थे। काफी प्रयास के बाद भी पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी। शासन ने उन्हें काम से हटाया तो नहीं; पर प्रतिबन्ध हटने के बाद काम पर रखा भी नहीं। अतः उनका परिवार आर्थिक संकट में आ गया; पर उन्होंने साहसपूर्वक मुकदमा लड़ा और फिर नौकरी प्राप्त की। प्रतिबंध हटने के बाद संघ को अनेक तरह के झंझावातों में से गुजरना पड़ा; पर बापूराव अडिग रहे। 1952 से 64 तक वे नागपुर के सहकार्यवाह और फिर प्रांत संघचालक रहे। कई बार वे नागपुर और पुणे के संघ शिक्षा वर्ग में मुख्यशिक्षक बने। 

नागपुर संघ कार्यालय की देखरेख, डा. हेडगेवार, श्री गुरुजी और फिर बालासाहब के निवास की व्यवस्था, केन्द्रीय कार्यसमिति की बैठकों का आयोजन, स्मृति मंदिर का निर्माण, प्रतिवर्ष होने वाले संघ शिक्षा वर्ग की व्यवस्था, नागपुर के विशिष्ट विजयादशमी उत्सव आदि को बापूराव ने कुशलता से निभाया। 1964 में वे मोहता साइन्स कॉलिज के प्राचार्य बने। इस दौरान उनकी अनुशासनप्रियता से विद्यालय की प्रतिष्ठा में भारी वृद्धि हुई।

स्वस्थ और सबल शरीर वाले बापूराव को बचपन से कुश्ती का शौक था। अखाड़े की यह संघर्षप्रियता उनके जीवन में भी दिखाई देती है। 1975 के आपातकाल और संघबंदी के समय भी उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। पूरे आपातकाल के दौरान उन्हें वेतन नहीं मिला; पर दीनता न दिखाते हुए वे फिर न्यायालय में गये और मुकदमा लड़कर अपना अधिकार प्राप्त किया। 

अध्यापक होने के नाते पढ़ने, पढ़ाने और लिखने में उनकी रुचि थी ही।  उनके द्वारा लिखित, संकलित व सम्पादित चार पुस्तकों में संघ का इतिहास समाया है। पूज्य डा0 जी के जीवन पर ‘संघ निर्माता के आप्तवचन’, श्री गुरुजी के पत्र-व्यवहार के रूप में ‘अक्षर प्रतिमा’, श्री गुरुजी के देहांत के बाद सात खंडों में ‘श्री गुरुजी समग्र दर्शन ग्रन्थ’ तथा ‘हिन्दू जीवन दृष्टि’ उनके विचारों की गहराई की दिग्दर्शक हैं। नागपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक तरुण भारत में भी उनके लेख शृंखलाबद्ध रूप में प्रकाशित होते थे।

बापूराव की लगातार सक्रियता के कारण उन्हें संघ का चलता-फिरता इतिहास पुरुष माना जाता था। उन्हें संघ के प्रारम्भ काल की घटनाएं ठीक से याद थीं। प्रथम प्रतिबन्ध के बाद नागपुर से निकलने वाले प्रायः सभी प्रचारकों को बाहर भेज दिया जाता था। ऐसे में नागपुर के कार्य को संभालने और बढ़ाने का श्रेय बापूराव को ही है। उनकी वाणी और व्यवहार में अंतर नहीं था। इसलिए प्रचारक न होते हुए भी वे प्रचारकों के प्रेरणास्रोत थे। 

अंतिम दिनों में बापूराव संघ के केन्द्रीय कार्यकारी मंडल के सदस्य थे। 13 नवम्बर, 2000 को हुए तीव्र हृदयाघात से उनका निधन हुआ।

(संदर्भ  : राष्ट्रसाधना भाग एक तथा पांचजन्य 26.11.2000)
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16 दिसम्बर/ बलिदान-दिवस                  

बसंतर का सूरमा अरुण खेत्रपाल 

1971 में भारत और पाकिस्तान के युद्ध में पंजाब के शकरगढ़  क्षेत्र में बसंतर नदी के पास हुई लड़ाई में 21 वर्षीय सेंकड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल ने प्राणाहुति दी। अरुण का जन्म 14 अक्तूबर, 1950 को पुणे में हुआ था। उनके दादा पहले विश्वयुद्ध में लड़े थे, तो पिताजी दूसरे विश्वयुद्ध और 1965 की लड़ाई में। अरुण युद्ध के किस्से सुनते हुए ही बड़े हुए थे। इसी परम्परा के अनुसार 1967 में उन्होंने भी फौज में जाने का निर्णय लिया।

जब 1971 का युद्ध छिड़ा, तो अरुण और उसके कई साथी महाराष्ट्र के अहमदनगर में युवा सैन्य अधिकारी कोर्स कर रहे थे; पर उन्हें कोर्स अधूरा छोड़कर अपनी रेजिमेंट में पहुंचने को कहा गया। अरुण के माता-पिता दिल्ली में रहते थे। वे कुछ समय निकालकर वहां गये और उनका आशीर्वाद लिया। सामान बांधते हुए उन्होंने एक गोल्फ स्टिक और एक नीला सूट भी रख लिया। पिताजी के पूछने पर बताया कि जीतने के बाद जो डिनर पार्टी होगी। उसमें मैं ये सूट पहनूंगा और लाहौर के मैदान में गोल्फ भी खेलूंगा।

जब वे मोर्चे पर पहंुचे, तो कमांडर हनूत सिंह ने उन्हें कोर्स के अधूरेपन के कारण आगे नहीं जाने दिया। अरुण ने उनसे निवेदन किया कि यदि मैं इस युद्ध में शामिल नहीं हुआ, तो पता नहीं फिर मुझे मौका मिले या नहीं। इस पर कर्नल हनूत सिंह ने उन्हें एक वरिष्ठ अधिकारी के साथ यह कहकर भेजा कि वह उनका हर आदेश मानेगा। 16 दिसम्बर को पाकिस्तानी टैंकों को आगे बढ़ता देख कर्नल चीमा ने पीछे खबर भेजी, तो कैप्टेन मल्होत्रा, लेफ्टिनेंट अहलावत तथा सेंकड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को टैंकों के साथ वहां भेजा गया। 

उस क्षेत्र में बारूदी सुरंगे बिछी हुई थीं। उनसे बचते हुए कुछ ही देर में उन्होंने सात टैंक ढेर कर दिये। तभी गोला लगने से अहलावत का टैंक लपटों में घिर गया। इसी समय अरुण के टैंक पर भी गोला लगा। इससे उस पर तैनात वरिष्ठ अधिकारी शहीद हो गये। अब टैंक की कमान अरुण के पास आ गयी। टैंक को जलता देखकर कैप्टेन मल्होत्रा ने उन्हें बाहर निकलने को कहा; पर अरुण ने भाग रहे एक पाकिस्तानी टैंक का पीछा कर उसे नष्ट कर दिया। 

तभी वहां कुछ और पाकिस्तानी टैंक आ गये। इससे युद्ध तेज हो गया। कैप्टेन मल्होत्रा ने फिर अरुण से टैंक छोड़ने को कहा। अरुण ने यह कहकर अपना संपर्क रेडियो बंद कर दिया कि मेरे टैंक की गन अभी ठीक है। इसी समय कैप्टेन मल्होत्रा का टैंक भी बेकार हो गया। अब सारी जिम्मेदारी अरुण पर ही थी। उन्होंने घूम-घूमकर शत्रु के चार टैंक नष्ट कर दिये। अब उनका निशाना पांचवें टैंक पर था। तभी दोनों टैंकों ने एक साथ गोले दागे। इससे दोनों में आग लग गयी। पाकिस्तानी टैंक वालों ने कूदकर जान बचा ली। अरुण के साथी गनमैन नत्थूसिंह भी निकल गये; पर अरुण वहीं शहीद हो गये। अरुण को इस वीरता के लिए मरणोपरांत ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया।

2001 में अरुण के पिता अवकाश प्राप्त बिग्रेडियर एम.एल.खेत्रपाल पाकिस्तान स्थित अपनी जन्मभूमि सरगोधा गये। इस यात्रा के दौरान लाहौर में ब्रिगेडियर ख्वाजा मोहम्मद नासेर उनसे मिलने आये और घर ले जाकर उनका भरपूर आतिथ्य किया। चलते समय उन्होंने बड़े संकोच से बताया कि 16 दिसम्बर के युद्ध में मेरे टैंक के गोले से ही अरुण शहीद हुए थे। मेरे मन में उसकी वीरता के लिए बहुत सम्मान है। वह दीवार की तरह वहां डटा रहा। उसके कारण ही वह मोर्चा भारत जीत सका। मैं उसे और आपको भी सेल्यूट करता हूं, क्योंकि आपके पालन-पोषण से ही वह इतना बहादुर बना।

अरुण खेत्रपाल सबसे कम आयु के ‘परमवीर चक्र’ विजेता हैं। उनकी स्मृति में देहरादून के सैन्य प्रशिक्षण केन्द्र आई.एम.ए. में एक भवन एवं परेड मैदान का नाम ‘खेत्रपाल’ रखा गया है। 


(बी.बी.सी. 16.12.2016 तथा अंतरजाल पर उपलब्ध सामग्री)
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17 दिसम्बर/पुण्य-तिथि      

मृणालिनी देवी की साधना

ऋषि अरविन्द को याद करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि उनकी साधना एवं प्रेरक जीवन के पीछे उनकी पत्नी मृणालिनी देवी का बहुत बड़ा योगदान था, जिनकी मूकसाधना ने सदा उनकी सहायता की। मृणालिनी का जन्म प्राकृतिक सुषमा से भरपूर शिलांग में 1888 में हुआ था। उनके पिता श्री भूपालचन्द्र बसु एक वरिष्ठ राजकीय अधिकारी थे, जो कुछ समय पूर्व ही इंग्लैण्ड से भारत वापस लौटे थे।

दूसरी ओर अरविन्द का जन्म भारत में हुआ था। दार्जिलिंग में कुछ समय बिताने के बाद उन्हें छोटी अवस्था में ही शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेज दिया गया। उन्हें शुरू से ही भारतीय संस्कृति और आचार व्यवहार से दूर रखा गया था; पर भारत लौटने पर अरविन्द को असीम शान्ति मिली और आध्यात्मिक अनुभूतियाँ होने लगीं। जब उन्होंने विवाह की इच्छा प्रकट की, तो मृणालिनी के कोलकाता में अभिभावक गिरीशचन्द्र बोस ने उन्हें अपने घर बुलाया। वहाँ 29 वर्षीय अरविन्द ने 13 वर्षीय मृणालिनी को पसन्द कर लिया। कुछ समय बाद दोनों का विवाह हो गया।

विवाह का पहला साल दोनों के लिए सुखद रहा, फिर अरविन्द बड़ोदरा और मृणालिनी पिता के पास शिलांग चली गयी। इसके बाद वे दोनों साथ नहीं रह पाये। मृणालिनी या तो अपने पिता के पास शिलांग रहतीं या अरविन्द के मामा के पास देवघर में। यद्यपि कोलकाता में अरविन्द उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते थे; पर वे अपनी पत्नी को समय नहीं दे पाते थे। फिर भी मृणालिनी ने कभी शिकायत नहीं की।

1908 में एक दिन पुलिस ने उनके घर छापा मारा और दक्षिणेश्वर से लायी गयी रेत को बम का मसाला कहकर अरविन्द को पकड़ लिया। इसका मृणालिनी के मन पर बहुत असर पड़ा। वे मूर्छित हो गयीं। ईश्वर से उनका विश्वास उठ गया; पर उनकी बालसखी सुधीरा उन्हें रामकृष्ण परमहंस की पत्नी सारदा देवी के पास ले गयीं। उनके समझाने से मृणालिनी शान्त हुईं।

मृणालिनी का अंग्रेजी-ज्ञान एवं उच्चारण बहुत अच्छा था। उन्हें फूलों से बहुत प्रेम था। पुष्प वाटिका में बैठकर वे प्रायः ध्यानमग्न हो जातीं थीं। अरविन्द की आध्यात्मिक रुचि को देखकर उन्होंने अपना जीवन भी साध्वी जैसा बना लिया। ध्यान, भक्ति साहित्य का अध्ययन, भजन सुनना एवं गाना, सादा भोजन और सादे वस्त्र ही वे धारण करती थीं। 

रोगियों की सेवा करने में उन्हें विशेष सन्तोष मिलता था। अरविन्द कहते थे कि उनका सम्बन्ध कई जन्मों से है। वे स्वयं को भगवान् श्रीकृष्ण का पुत्र अनिरुद्ध तथा मृणालिनी को उसकी पत्नी (राजा बाणासुर की पुत्री उषा) के रूप में देखते थे।

अरविन्द उन्हें पत्र लिखते रहते थे। 17 साल के दीर्घ वियोग के बाद 1918 में उन्होंने लिखा कि अब मेरी साधना पूर्ण हो गयी है। मुझे अपना उद्देश्य और सिद्धि प्राप्त हो गयी है। अब तुम मेरे साथ आकर रह सकती हो। इससे सबको बहुत प्रसन्नता हुई। मृणालिनी के पिता ने उन्हें पाण्डिचेरी ले जाने के लिए शासन से अनुमति भी ले ली; पर मृणालिनी को मलेरिया हो गया। उस रोग से ही 17 दिसम्बर, 1918 को उनका देहान्त हो गया। अन्तिम समय पर भी उनका ध्यान अरविन्द के स्मरण में ही था।

वस्तुतः मृणालिनी के सहयोग से ही अरविन्द उस आध्यात्मिक ऊँचाई तक पहुँच सके, जिसके लिए उन्हें याद किया जाता है।
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17 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

क्रान्तिवीर राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में काकोरी कांड का बड़ा महत्त्व है। यह पहला अवसर था, जब स्वाधीनता सेनानियों ने सरकारी खजाना लूटकर जनता में यह विचार फैलाने में सफलता पाई कि क्रान्तिकारी आम जनता के नहीं, अपितु शासन के विरोधी है। साथ ही जनता के मन में यह विश्वास भी जाग गया कि अंग्रेज शासन इतना नाकारा है कि वह अपने खजाने की रक्षा भी नहीं कर सकता, तो फिर वह जनता की रक्षा क्या करेगा ?

इस कांड में चार क्रान्तिवीरों को मृत्युदंड दिया गया। इनमें से एक राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को 17 दिसम्बर, 1927 को उत्तर प्रदेश की गोंडा जेल में फाँसी पर लटका दिया। वीर राजेन्द्र लाहिड़ी ने फाँसी चढ़ने से पूर्व वन्दे मातरम् की हुंकार भरी और कहा कि मैं मर नहीं रहा हूँ, बल्कि अंग्रेजों के साम्राज्य की नींव हिलाने के लिए स्वतन्त्र भारत में पुनर्जन्म लेने जा रहा हूँ।

यह हुंकार सुनकर अंग्रेज समझ गये कि वीर प्रसूता भारत माँ के सपूत उन्हें अब चैन से नहीं जीने देंगे। काकोरी कांड में मृत्युदंड पाये चारों वीरों को अलग-अलग स्थानों पर फाँसी दी गयी। राजेन्द्र लाहिड़ी की जेल के निकट परेड सरकार के पास टेढ़ी नदी के तट पर अन्त्येष्टि की गयी। वहाँ उपस्थित उनके साथियों, सम्बन्धियों और स्थानीय समाजसेवी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं मन्मथनाथ गुप्त, लाल बिहारी टंडन एवं ईश्वर शरण आदि ने वहाँ एक बोतल जमीन में गाड़ दी थी; परन्तु बाद में उस स्थान की ठीक से पहचान नहीं हो पायी। 

राजेन्द्र लाहिड़ी का जन्म 23 जून, 1901 को ग्राम मोहनापुर (जिला पावना, वर्तमान बांग्लादेश) में माता बसन्त कुमारी के गर्भ से हुआ था। जन्म के समय उनके पिता क्रान्तिकारी क्षितिमोहन लाहिड़ी और बडे़ भाई बंग-भंग आन्दोलन में कारावास का दंड भोग रहे थे। मात्र नौ वर्ष की अल्पावस्था में वे अपने मामा के पास काशी आ गये। 

काशी में उनका सम्पर्क प्रख्यात क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल से हुआ। लाहिड़ी की फौलादी दृढ़ता, देशप्रेम, तथा निश्चय की अडिगता को पहचान कर उन्हें क्रांतिकारियों ने अपनी अग्रिम टोली में भर्ती कर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिवोल्यूशन आर्मी पार्टी’ का बनारस का प्रभारी बना दिया। वह बलिदानी जत्थों की गुप्त बैठकों में बुलाये जाने लगे। 

उस समय क्रान्तिकारियों के चल रहे आन्दोलन को गति देने के लिए तत्काल धन की आवश्यकता थी। इसके लिए अंग्रेजी सरकार का खजाना लूटने की योजना बनाई। योजना के अनुसार नौ अगस्त, 1925 को सायंकाल छह बजे लखनऊ के पास काकोरी से छूटी आठ डाउन गाड़ी में जा रहे सरकारी खजाने को लूट लिया गया। काम पूरा कर सब तितर-बितर हो गये।

इसमें रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह, ठाकुर रोशनसिंह सहित 19 अन्य क्रान्तिकारियों ने भाग लिया था। पकड़े गये सभी क्रांतिवीरों पर शासन के विरुद्ध सशस्त्र युद्ध छेड़ने एवं खजाना लूटने का अभियोग लगाया गया।

इस कांड में लखनऊ की विशेष अदालत ने छह अप्रैल 1927 को निर्णय सुनाया, जिसके अन्तर्गत राजेन्द्र लाहिड़ी, रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह तथा अशफाक उल्लाह को मृत्यु दंड दिया गया। शेष तीनों को 19 दिसम्बर को फाँसी दी गयी; लेकिन भयवश अंग्रेजी शासन ने राजेन्द्र लाहिड़ी को गोंडा कारागार में 17 दिसम्बर, 1927 को ही फाँसी दे दी।
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17 दिसम्बर/इतिहास-स्मृति

राष्ट्रीय अपमान का बदला : सांडर्स वध

यह बात 1928 की है। भारत माता की परतन्त्रता की बेड़ियाँ काटने के लिए जहाँ एक ओर आजादी के दीवाने जूझ रहे थे, वहीं दूसरी ओर शासन भारतीयों के दमन के लिए कठोर कानून ला रहा था। सरकार ने शिकंजे को और मजबूत करने के लिए जॉन साइमन के नेतृत्व में एक आयोग नियुक्त किया, जो भारत में सब ओर प्रवास कर रहा था।

इस आयोग का सब जगह प्रबल विरोध हुआ। जब साइमन 30 अक्तूबर को लाहौर आया, तो पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के नेतृत्व में हुए शान्तिपूर्ण प्रदर्शन पर पुलिस अधीक्षक स्कॉट और उसके साथियों ने निर्ममता से लाठियाँ बरसायीं। इससे सैकड़ों लोग घायल हो गये। वयोवृद्ध लाला लाजपत राय के सिर पर भी स्कॉट की एक लाठी लगी। इससे उनका सिर फट गया और अन्ततः 17 नवम्बर को उनका देहान्त हो गया।

इससे क्रान्तिकारियों का खून खौल गया। उन्होंने इसका बदला लेने का निश्चय किया। सारी योजना बना ली गयी। स्कॉट को दण्ड देने का काम भगतसिंह को सौंपा गया। आजाद, राजगुरु और जयगोपाल को उसकी सहायता करनी थी। कार्यवाही से पहले और बाद में ठहरने का प्रबन्ध सुखदेव ने किया था। 17 दिसम्बर, 1928 की शाम इसके लिए निश्चित हुई। 

जयगोपाल योजनानुसार पुलिस कार्यालय के बाहर साइकिल लेकर ऐसे खड़े हो गये मानो वे बिगड़ी साइकिल को सुधार रहे हैं। कुछ दूरी पर भगतसिंह और राजगुरु खड़े ऐसे बात कर रहे थे, मानो दो छात्र आपस में पढ़ाई सम्बन्धी चर्चा कर रहे हों। पुलिस कार्यालय के सामने ही डी.ए.वी कॉलिज था। उसके फाटक की आड़ में चन्द्रशेखर आजाद अपना माउजर लिये तैनात थे।

ठीक पाँच बजे पुलिस अधिकारी सांडर्स कार्यालय से बाहर निकलकर अपनी मोटर साइकिल चालू करने लगा। जयगोपाल ने समझा कि यही स्कॉट है। उसने इशारा दिया और अपनी साइकिल सहित खड़ा हो गया। 
सांडर्स जैसे ही कुछ कदम आगे बढ़ा कि भगतसिंह और राजगुरु ने जेब में से भरी पिस्तौल निकाल ली। भगतसिंह की इच्छा थी कि सांडर्स कुछ और निकट आ जाये, तभी गोली मारी जाये, जिससे गोली बेकार न हो; पर राजगुरु ने इस बात की प्रतीक्षा किये बिना गोली दाग दी।

गोली लगते ही सांडर्स मोटर साइकिल सहित गिर पड़ा। यह देखकर भगतसिंह ने पास जाकर अपनी पिस्तौल की सब गोलियाँ उस पर झोंक दीं, जिससे उसके जीवित बचने की कोई सम्भावना न रहे। गोली चलने की आवाज सुनकर एक पुलिस अधिकारी मिस्टर फर्न घटनास्थल की ओर भागा। 

यह देखकर राजगुरु ने उसे उठाकर धरती पर पटक दिया। इसके बाद तीन सिपाही उनके पीछे दौड़े। आजाद ने उन्हें गोली मारने की चेतावनी दी। इससे डरकर दो सिपाही तो लौट गये; पर हवलदार चाननसिंह आगे बढ़ता रहा। इस पर आजाद ने उसके पाँव में गोली मार दी। वह भी धरती पर गिर गया।

यह कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सभी लोग अपने ठहरने के सुरक्षित ठिकानों पर पहुँच गये। बाद में सब पुलिस को झाँसा देकर लाहौर से बाहर भी निकल गये। यद्यपि जिसे मारना चाहते थे, वह पुलिस अधीक्षक स्कॉट तो अपने भाग्य से बच गया; पर अंग्रेजों को यह अनुभव हो गया कि राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने के लिए भारतीय क्रान्तिवीरों की सामर्थ्य कम नहीं है।
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18 दिसम्बर/जन्म-दिवस

भोजपुरी के अमर नाटककार भिखारी ठाकुर

बिहार के एक बड़े क्षेत्र और पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रचलित भोजपुरी भाषा है या बोली, इस विवाद को हम भाषा शास्त्रियों के लिए छोड़ दें; पर यह सत्य है कि इसे विश्व रंगमंच पर स्थापित करने में भिखारी ठाकुर का योगदान सर्वाधिक है। जैसे गोस्वामी तुलसीदास व कबीरदास ने पांडित्यपूर्ण भाषा के बदले लोकभाषा को अपनाकर जन-जन के मन में अपना स्थान बनाया, इसी प्रकार उत्तर भारत में भिखारी ठाकुर की मान्यता है।

भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसम्बर, 1887 को ग्राम कुतुबपुर (जिला छपरा, बिहार) में हुआ था। इनके पिता श्री दलसिंगार ठाकुर और माता श्रीमती शिवकली देवी थीं। इस समय देश में अंग्रेजों का दमन पूरे जोरों पर था। बिहार की दशा तो और भी खराब थी; क्योंकि वहाँ विदेशी दासता के साथ ही जमीदारों और भूस्वामियों के अत्याचार भी निर्धन जनता को सहने पड़ते थे। महिलाएँ अशिक्षा के साथ-साथ बाल विवाह जैसी कुरीतियों से भी ग्रस्त थीं। 

स्वयं भिखारी ठाकुर ने भी विधिवत कोई शिक्षा नहीं पायी; पर जन-जन में प्रचलित लोकभाषा में अपनी कविता एवं नाटक रचकर एक नयी शैली का प्रतिपादन किया, जो ‘बिदेसिया’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। अपने नाटकों में वे अभिनेता, निर्देशक और सूत्रधार की भूमिका भी स्वयं ही सँभालते थे। नौ वर्ष की अवस्था में भिखारी ठाकुर ने अपने भाई के साथ अक्षर ज्ञान पाया। वह बस इतना ही था कि वे रामचरित मानस पढ़ने लगे। वह कैथी लिपि में लिखते थे, जिसे पढ़ना बहुत कठिन था। अब यह लिपि लुप्तप्रायः है। 

किशोरावस्था में ही उनका विवाह मतुरना के साथ हो गया। उन्हें बचपन से नाटक देखने का शौक था। माता-पिता की इच्छा के विपरीत वे चोरी छिपे नाटक देखते और कभी-कभी उसमें अभिनय भी कर लेते थे। एक बार वे घर से भागकर खड्गपुर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने मेदिनीपुर की रामलीला और जगन्नाथपुरी की रथयात्रा देखी। इससे उनके भीतर का कलाकार पूर्णतः जाग गया और वे धार्मिक भावना से परिपूर्ण होकर गाँव लौट आये।

30 वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘बिदेसिया’ की रचना की और अपनी नृत्य मंडली बना ली। घर वालों का विरोध तो था ही; पर जब यह नाटक और नृत्य जनता के बीच गये, तो सबकी जिह्ना पर भिखारी ठाकुर का नाम चढ़ गया। 1939 से 1962 के मध्य भिखारी ठाकुर की लगभग तीन दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हुईं, जिन्हें फुटपाथ पर लगने वाली दुकानों से खरीद कर लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। इनमें से अधिकांश पुस्तकें दूधनाथ प्रेस, सलकिया (हावड़ा) और कचौड़ी गली, वाराणसी से प्रकाशित हुई थीं।

इनमें बिदेसिया, कलियुग प्रेम, गंगा स्नान, बेटी वियोग, भाई विरोध, पुत्रवधू, विधवा विलाप, राधेश्याम बहार, ननद भौजाई, गबरघिंचोर आदि प्रमुख हैं। भिखारी ठाकुर ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की प्रतिमूर्ति थे। खाने के लिए रोटी, भात, सत्तू जो मिलता, उसी से काम चलाते थे। धोती, कुर्ता, मिरजई, सिर पर साफा और पैर में साधारण जूता उनका वेष था। 

बिहार शासन और अनेक संस्थाओं से उन्हें सैकड़ों पुरस्कार और सम्मान मिले; पर वे सदा घर के आगे चटाई बिछाकर आम लोगों से मिलते रहते थे। अहंकार शून्यता इतनी थी कि छोटे-बड़े सबसे वे स्वयं ही राम-राम करते थे। 

अपने नाटकों में रूढ़ियों और कुरीतियों का विरोध करने वाले इस कवि एवं नाटककार का निधन 10 जुलाई, 1971 को हुआ।
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19 दिसम्बर/बलिदान-दिवस                  

अमर बलिदानी अशफाक उल्ला खां

‘काकोरी कांड’ में फाँसी पाने वाले अशफाक उल्ला खाँ का जन्म  1900 ई0 में शाहजहाँपुर (उ.प्र.) में हुआ था। युवावस्था में उनकी मित्रता रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ से हुई, जो फरार अवस्था में शाहजहाँपुर के आर्यसमाज मन्दिर में रह रहे थे। पहले तो बिस्मिल को उन पर संदेह हुआ; पर एक घटना से उनके बीच विश्वास का जो बंधन स्थापित हुआ, वह कभी नहीं टूट पाया। 

शाहजहाँपुर में एक बार दंगाई आर्य समाज मन्दिर को नष्ट करना चाहते थे। अशफाक उस समय वहीं थे। वे दौड़कर घर गये और अपनी दुनाली बन्दूक तथा कारतूसों की पेटी ले आये। इसके बाद उन्होंने आर्यसमाज की छत से दंगाइयों को ललकारा। उनका रौद्र रूप देखकर दंगाई भाग गये। इसके बाद बिस्मिल जी का उनके प्रति विश्वास दृढ़ हो गया। उन्होंने अशफाक को भी अपने क्रान्तिकारी दल में जोड़ लिया।

क्रान्तिकारियों को अपने कार्य के लिए धन की बहुत आवश्यकता रहती थी। बिस्मिल का विचार था कि सेठ और जमीदारों को लूटने से पैसा अधिक नहीं मिलता, साथ ही आम लोगों में क्रान्तिकारियों के प्रति खराब धारणा बनती है। अतः उन्होंने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायी। अशफाक इस योजना से सहमत नहीं थे। उनका विचार था कि अभी हमारी शक्ति कम है; पर जब यह निर्णय ले लिया गया, तो वे सबके साथ हो गये।

नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ-सहारनपुर यात्री गाड़ी को शाम के समय काकोरी स्टेशन के पास रोक लिया गया। चालक तथा गार्ड को पिस्तौल दिखाकर नीचे लिटा दिया। खजाने से भरा लोहे का भारी बक्सा उतारकर सब उसे तोड़ने लगे; पर वह बहुत मजबूत था। अशफाक का शरीर बहुत सबल था। सबके थक जाने पर उन्होंने हथौड़े से कई चोट की, जिससे बक्सा टूट गया। क्रान्तिकारियों ने सारे धन को चादरों में लपेटा और फरार हो गये।

इस अभियान के बाद अशफाक कुछ दिन तो शाहजहाँपुर में ही रहे, फिर वाराणसी होते हुए बिहार के डाल्टनगंज चले गये। वहाँ स्वयं को मथुरा निवासी कायस्थ बताकर छह महीने तक नौकरी की; पर शीघ्र ही उनका मन ऊब गया। 

फिर वे राजस्थान में क्रान्तिकारी अर्जुन लाल सेठी के घर रहे। कहते हैं कि उनकी पुत्री इन पर मुग्ध हो गयी; पर लक्ष्य से विचलित न होते हुए वे विदेश जाने की तैयारी करने लगे। इसी सम्बन्ध में आवश्यक तैयारी के लिए वे दिल्ली आये। यहाँ उनका एक सम्बन्धी मिल गया। उसने गद्दारी कर उन्हें पकड़वा दिया।

उनकी सजा तो पहले से ही तय थी; पर मुकदमे का नाटक पूरा किया गया। जेल में अशफाक सदा मस्त रहकर गजल तथा गीत लिखते रहते थे।  

हे मातृभूमि तेरी सेवा किया करूँगा
फाँसी मिले मुझे या हो जन्मकैद मेरी
बेड़ी बजा-बजाकर तेरा भजन करूँगा।।

तथा - 

वतन हमेशा रहे शादकाम और आजाद
हमारा क्या है हम रहें, न रहें।।

19 दिसम्बर, 1927 को फैजाबाद जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी। फन्दा गले में डालने से पहले उन्होंने कहा - ‘‘मुझ पर जो आरोप लगाये गये हैं, वह गलत हैं। मेरे हाथ किसी इन्सान के खून से नहीं रंगे हैं। मुझे यहाँ इन्साफ नहीं मिला तो क्या, खुदा के यहाँ मुझे इन्साफ जरूर मिलेगा।’’ 

शाहजहाँपुर के दलेल नगर मौहल्ले में उनकी समाधि बनी है।
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19 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

अमर हुतात्मा रोशनसिंह

भारत के स्वाधीनता संग्राम में फाँसी पाकर अपने वंश को अमर कर देने वाले अमर हुतात्मा रोशनसिंह का जन्म शाहजहाँपुर (उ.प्र.) के खेड़ा नवादा ग्राम में 22 जनवरी, 1892 को एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था। कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही दिखायी दे जाते हैं। रोशनसिंह के साथ भी ऐसा ही हुआ। बचपन से ही वे अत्यधिक साहसी थे। भय का लेशमात्र भी उनके जीवन में दिखायी नहीं देता था। 

बालपन में जिस काम को करने में उनके अन्य साथी हिचकते थे, रोशनसिंह आगे बढ़कर उसे अपने सबल कन्धों पर ले लेते थे। अपने इस गुण को विकसित करने के लिए वे खूब व्यायाम करते थे। इसलिए उनका शरीर भी अच्छा बलिष्ठ हो गया। वे साहसी तो थे ही; पर देशभक्ति की भावना भी उनमें कूट-कूट कर भरी थी। 1921 ई. में हुए असहयोग आन्दोलन में शाहजहाँपुर से जो लोग जेल गये, उनमें रोशनसिंह भी थे।

रोशनसिंह को दो साल की जेल हुई थी। इस दौरान बरेली जेल में उनका परिचय मवाना (जिला मेरठ, उ.प्र.) के क्रान्तिकारी विष्णुशरण दुबलिश से हुआ। क्रमशः यह परिचय घनिष्ठता में बदलता गया। उन्होंने रोशनसिंह को समझाया कि अंग्रेजों को भारत से सत्याग्रह द्वारा नहीं भगाया जा सकता। इसके लिए तो बम और गोली के धमाके करने होंगे। 

विष्णु जी के माध्यम से उनका परिचय देश के अन्य क्रांतिवीरों से हुआ। इनमें पंडित रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ प्रमुख थे। धीरे-धीरे उनका रुझान गांधी जी की अहिंसा की बजाय बम-गोली और क्रान्तिकारियों की ओर हो गया। 1923 ई. में प्रख्यात क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल जब संगठन के विस्तार के लिए शाहजहाँपुर आये, तो वे रोशनसिंह से भी मिले। काकोरी कांड से पूर्व बमरौली कांड में रोशनसिंह की महत्वपूर्ण भूमिका थी। 

नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ-सहारनपुर यात्री गाड़ी को लखनऊ के पास काकोरी में रोककर सरकारी खजाना लूट लिया गया। यह शासन के मुँह पर खुला तमाचा था। यद्यपि इसमें रोशनसिंह शामिल नहीं थे; पर युवावस्था से ही क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय होने के कारण उनका नाम पुलिस की फाइलों में बहुचर्चित था। अतः शासन ने उन्हें भी पकड़ लिया।

काकोरी कांड के लिए पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ तथा राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी के साथ रोशनसिंह को भी फाँसी की सजा दी गयी। रोशनसिंह चूँकि इस कांड में शामिल नहीं थे, अतः उनके परिजनों तथा साथियों को विश्वास था कि उन्हें मृत्युदंड नहीं दिया जाएगा; पर निष्ठुर शासन ने उन्हें भी फाँसी की सजा दी। 

सजा मिलने पर रोशनसिंह का चेहरा खिल उठा। वे अपने साथियों की ओर देखकर हँसते हुए बोले, ‘‘क्यों, अकेले ही चले जाना चाहते थे ?’’ वहां  उपस्थित सब लोगों की आँखें भीग गयीं; पर वे अपनी मस्ती में मस्त रहे। रोशनसिंह ने जेल में भी अपनी दिनचर्या खंडित नहीं होने दी। वे प्रतिदिन स्नान, ध्यान और व्यायाम करते थे। 19 दिसम्बर, 1927 का दिन फाँसी के लिए निर्धारित था। उस दिन भी उन्होंने यह सब किया। 

उनकी मानसिक दृढ़ता देखकर जेल अधिकारी हैरान थे। फाँसी के तख्ते पर चढ़कर उन्होंने प्रसन्न मन से वन्दे मातरम् का घोष तथा शान्ति मन्त्र का उच्चारण किया। इसके बाद उन्होंने फन्दा गले में डाल लिया। अगले ही क्षण उनकी आत्मा अनन्त आकाश में विलीन हो गयी।
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20 दिसम्बर/पुण्य-तिथि

राष्ट्रसन्त गाडगे बाबा

गाडगे बाबा का जन्म एक अत्यन्त निर्धन परिवार में 23 फरवरी, 1876 को ग्राम कोतेगाँव (अमरावती, महाराष्ट्र) में हुआ था। उनका बचपन का नाम डेबूजी था। निर्धनता के कारण उन्हें किसी प्रकार की विद्यालयी शिक्षा प्राप्त नहीं हुई थी। कुछ बड़े होने पर उनके मामा चन्द्रभान जी उन्हें अपने साथ ले गये। वहाँ वे उनकी गाय चराने लगे। इस प्रकार उनका समय व्यतीत होने लगा।

प्रभुभक्त होने के कारण डेबूजी ने बहुत पिछड़ी मानी जाने वाली गोवारी जाति के लोगों की एक भजनमंडली बनायी, जो रात में पास के गाँवों में जाकर भजन गाती थी। वे विकलांगों, भिखारियों आदि को नदी किनारे एकत्र कर खाना खिलाते थे। इन सामाजिक कार्यों से उनके मामा बहुत नाराज होते थे।

जब वे 15 साल के हुए, तो मामा उन्हें खेतों में काम के लिए भेजने लगे। वहाँ भी वे अन्य मजदूरों के साथ भजन गाते रहते थे। इससे खेत का काम किसी को बोझ नहीं लगता था। 1892 में कुन्ताबाई से उनका विवाह हो गया; पर उनका मन खेती की बजाय समाजसेवा में ही लगता था। 

उन्हें बार-बार लगता था कि उनका जन्म केवल घर-गृहस्थी की चक्की में पिसने के लिए ही नहीं हुआ है। 1 फरवरी, 1905 को उन्होंने अपनी माँ सखूबाई के चरण छूकर घर छोड़ दिया। घर छोड़ने के कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम गोविन्दा रखा गया। 

घर छोड़ते समय उनके शरीर पर फटी धोती, हाथ में फूटा मटका एवं एक लकड़ी थी। अगले 12 साल उन्होंने भ्रमण में बिताये। इस दौरान उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर रूपी षडरिपुओं को जीतने का अभ्यास भी किया। उनके बाल और दाढ़ी बढ़ गयी। कपड़े भी फट गये; पर उनका ध्यान इस ओर नहीं था। अब लोग उन्हें ‘गाडगे बाबा’ कहने लगे। 

समाज सेवा के लिए समर्पित गाडगे बाबा ने 1908 से 1910 के बीच ऋणमोचन नामक तीर्थ में दो बाँध बनवाये। इससे ग्रामीणों को हर साल आने वाली बाढ़ के कष्टों से राहत मिली। 1908 में ही उन्होंने एक लाख रु0 एकत्रकर मुर्तिजापुर में एक विद्यालय तथा धर्मशाला बनवायी। 

1920 से 1925 के दौरान बाबा ने पंढरपुर तीर्थ में चोखामेला धर्मशाला, मराठा धर्मशाला और धोबी धर्मशाला बनवायी। फिर एक छात्रावास भी बनवाया। इन सबके लिए वे जनता से ही धन एकत्र करते थे। 1930-32 में नासिक जाकर बाबा ने एक धर्मशाला बनवायी। इसमें तीन लाख रुपये व्यय हुआ।

बाबा जहाँ भी जाते, वहाँ पर ही कोई सामाजिक कार्य अवश्य प्रारम्भ करते थे। इसके बाद वे कोई संस्था या न्यास बनाकर उन्हें स्थानीय लोगों को सौंपकर आगे चल देते थे। वे स्वयं किसी स्थान से नहीं बँधे। अपने जीवनकाल में विद्यालय, धर्मशाला, चिकित्सालय जैसे लगभग 50 प्रकल्प उन्होंने प्रारम्भ कराये। इनसे सभी जाति और वर्गों के लोग लाभ उठाते थे। पंढरपुर की हरिजन धर्मशाला बनवाकर उन्होंने उसे डा. अम्बेडकर को सौंप दिया। 

अपने प्रवास के दौरान बाबा गाडगे अन्धश्रद्धा, पाखंड, जातिभेद, अस्पृश्यता जैसी कुरीतियों तथा गरीबी उन्मूलन के प्रयास भी करते थे। चूँकि वे अपने मन, वचन और कर्म से इसी काम में लगे थे, इसलिए लोगों पर उनकी बातों का असर होता था। अपने सक्रिय सामाजिक जीवन के 80 वर्ष पूर्णकर 20 दिसम्बर, 1956 को बाबा ने देहत्याग दी। महाराष्ट्र के विभिन्न तीर्थस्थानों पर उनके द्वारा स्थापित सेवा प्रकल्प आज भी बाबा की याद दिलाते हैं।
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20 दिसम्बर/पुण्य-तिथि

ग्राम्य व्यक्तित्व चौधरी बिशनवीर सिंह

संघ के काम में तरह-तरह के स्वभाव और पारिवारिक पृष्ठभूमि के लोग प्रचारक बनते हैं। काम करते हुए वे अपने कार्यक्षेत्र के साथ समरस हो जाते हैं, फिर भी पुराने संस्कार और काम की शैली प्रायः बनी रहती है। चौधरी बिशनवीर सिंह ग्राम्य पृष्ठभूमि से आये ऐसे ही एक प्रचारक थे।

बिशनवीर सिंह का जन्म 1954-55 में उ.प्र. के अलीगढ़ जिले के खैर नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता चौधरी धर्मवीर सिंह बालियान तथा माता श्रीमती देववती सिंह थीं। उनके परिवार में आढ़त का पुश्तैनी काम होता था। अतः घर की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। पांच भाई और एक बहिन वाले परिवार में वे तीसरे क्रमांक पर थे। अपने गांव में पढ़ते समय वे स्वयंसेवक बने। 

अलीगढ़ जिला मुस्लिम विश्व विद्यालय के कारण मुस्लिम प्रभाव वाला माना जाता है; पर उसी अनुपात में वहां संघ का काम भी बहुत सघन रहा है। अलीगढ़ से बी.काॅम करते समय बिशनवीर जी वहां सायं शाखा में काफी सक्रिय रहे। आगे चलकर उन्होंने हाथरस के बागला डिग्री काॅलिज से एम.काॅम भी किया।

1975-76 में देश में आपातकाल तथा संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बिशनवीर सिंह जी को भी जेल की यात्रा करने का सुअवसर मिला। उन दिनों कुछ पुलिस अधिकारी कांग्रेसी नेताओं की निगाहों में चढ़ने के लिए सत्याग्रहियों तथा अन्य राजनीतिक बंदियों को बुरी तरह पीटते थे। बिशनवीर सिंह को भी थाने में बुरी तरह पीटा गया। जब वे जेल में आये, तो वहां उनके साथियों ने उनकी खूब सेवा की, जिससे वे कुछ ही दिन में फिर से पूर्ववत स्वस्थ हो गये।

आपातकाल के बाद वे अपनी शिक्षा पूर्ण कर प्रचारक बने। वे क्रमशः अलीगढ़ जिले में अतरौली और इगलास, मुजफ्फरनगर जिले में बुढ़ाना तहसील तथा फिर रामपुर और आंवला के जिला प्रचारक रहे। पश्चिमी उ.प्र. के गांवों में जातीय राजनीति के कारण संघ का बहुत विरोध होता रहा है। बिशनवीर सिंह जी स्वयं उसी वर्ग से संबंधित थे। अतः उनके प्रयास से कई शिक्षित और प्रभावी लोग संघ से जुड़ गये। ग्राम्य पृष्ठभूमि के कारण उन्हें नगरों की अपेक्षा गांव में रहना और वहां के काम में ही अधिक आनंद आता था। 

‘एकात्मता यज्ञ यात्रा’ और ‘संस्कृति रक्षा निधि’ के देशव्यापी कार्यक्रमों से हुए हिन्दुत्व के नवजागरण के बाद विश्व हिन्दू परिषद के काम में तेजी आयी। अतः कई अनुभवी और युवा कार्यकर्ताओं को वहां भेजा गया। बिशनवीर जी भी उनमें से एक थे। 1988 में उन्हें वि.हि.प. के अन्तर्गत नवगठित ‘बजरंग दल’ का पहले मेरठ संभाग और फिर पश्चिमी उ.प्र. का काम दिया गया। उन्होंने सघन प्रवास कर सैकड़ों युवकों को बजरंग दल से जोड़ा। ‘श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन’ में संगठन की योजना के अनुसार छह दिसम्बर, 1992 को बाबरी ढांचे के ध्वंस के समय वे अपने युवा साथियों के साथ अयोध्या में उपस्थित रहे।

सरलचित्त होने के कारण वे खरी और सीधी बात कहना पसंद करते थे। एक बार हरिद्वार में समाजवादी पार्टी की रैली थी। बिशनवीर सिंह जी का केन्द्र उन दिनों हरिद्वार ही था। रैली के लिए बड़ी संख्या में लोग बसों में भरकर लाये गये थे। बिशनवीर जी का भतीजा विजय अपने चाचा से मिलने की इच्छा से उस रैली की बस से हरिद्वार आ गया। जब बिशनवीर सिंह जी को यह पता लगा कि किराया बचाने के लालच में वह समाजवादी पार्टी की बस से आया है, तो उन्होंने गुस्से में आकर उसे कार्यालय से बाहर निकाल दिया।

ग्राम्य पृष्ठभूमि के कारण उन्हेें दूध, घी और मिठाई आदि से बहुत प्रेम था। इस सबसे वे मधुमेह तथा रक्त संबंधी कुछ रोगों के शिकार हो गये। 20 दिसम्बर, 1999 को अपने गांव में ही रक्त में अचानक हुई हीमोग्लोबिन की कमी से उनका शरीरांत हुआ। 

(संदर्भ : भतीजे विजय सिंह का पत्र तथा समकालीन प्रचारकों से वार्ता)
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21 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

पंडित गेंदालाल दीक्षित, जिन्हें अपनों ने ही ठुकराया

प्रायः ऐसा कहा जाता है कि मुसीबत में अपनी छाया भी साथ छोड़ देती है। क्रांतिकारियों के साथ तो यह पूरी तरह सत्य था। जब कभी वे संकट में पड़े, तो उन्हें आश्रय देने के लिए सगे-संबंधी ही तैयार नहीं हुए। क्रांतिवीर पंडित गेंदालाल दीक्षित के प्रसंग से यह भली-भांति समझा जा सकता है।

पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर, 1888 को उत्तर प्रदेश में आगरा जिले की बाह तहसील के ग्राम मई में हुआ था। आगरा से हाईस्कूल कर वे डी.ए.वी पाठशाला, औरैया में अध्यापक हो गये। बंग-भंग के दिनों में उन्होंने ‘शिवाजी समिति’ बनाकर नवयुवकों में देशप्रेम जाग्रत किया; पर इस दौरान उन्हें शिक्षित, सम्पन्न और तथाकथित उच्च समुदाय से सहयोग नहीं मिला। अतः उन्होंने कुछ डाकुओं से सम्पर्क कर उनके मन में देशप्रेम की भावना जगाई और उनके माध्यम से कुछ धन एकत्र किया। 

इसके बाद गेंदालाल जी अध्ययन के बहाने मुंबई चले गये। वहां से लौटकर ब्रह्मचारी लक्ष्मणानंद के साथ उन्होंने ‘मातृदेवी’ नामक संगठन बनाया और युवकों को शस्त्र चलाना सिखाने लगे। इस दल ने आगे चलकर जो काम किया, वह ‘मैनपुरी षड्यंत्र’ के नाम से प्रसिद्ध है। 
उस दिन 80 क्रांतिकारियों का दल डाका डालने के लिए गया। दुर्भाग्य से उनके साथ एक मुखबिर भी था। उसने शासन को इनके जंगल में ठहरने की जानकारी पहले ही दे रखी थी। अतः 500 पुलिस वालों ने उस क्षेत्र को घेर रखा था। 

जब ये लोग वहां रुके, तो सब बहुत भूखे थे। वह मुखबिर कहीं से जहरीली पूड़ियां ले आया। उन्हें खाते ही कई लोग धराशायी हो गये। मौका पाकर वह मुखबिर भागने लगा। यह देखकर ब्रह्मचारी जी ने उस पर गोली चला दी। गोली की आवाज सुनते ही पुलिस वाले आ गये और फिर सीधा संघर्ष होने लगा, जिसमें दल के 35 व्यक्ति मारे गये। शेष लोग पकड़े गये। 

मुकदमे में एक सरकारी गवाह सोमदेव ने पंडित गेंदालाल दीक्षित को इस सारी योजना का मुखिया बताया। अतः उन्हें मैनपुरी लाया गया। तब तक उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ चुका था। इसके बाद भी वे एक रात मौका पाकर एक अन्य सरकारी गवाह रामनारायण के साथ फरार हो गये।

पंडित जी अपने एक संबंधी के पास कोटा पहुंचे; पर वहां भी उनकी तलाश जारी थी। इसके बाद वे किसी तरह अपने घर पहुंचे; पर वहां घर वालों ने साफ कह दिया कि या तो आप यहां से चले जाएं, अन्यथा हम पुलिस को बुलाते हैं। अतः उन्हें वहां से भी भागना पड़ा। तब तक वे इतने कमजोर हो चुके थे कि दस कदम चलने मात्र से मूर्छित हो जाते थे। किसी तरह वे दिल्ली आकर पेट भरने के लिए एक प्याऊ पर पानी पिलाने की नौकरी करने लगे।

कुछ समय बाद उन्होंने अपने एक संबंधी को पत्र लिखा, जो उनकी पत्नी को लेकर दिल्ली आ गये। तब तक उनकी दशा और बिगड़ चुकी थी। पत्नी यह देखकर रोने लगी। वह बोली कि मेरा अब इस संसार में कौन है ? पंडित जी ने कहा, ‘‘आज देश की लाखों विधवाओं, अनाथों, किसानों और दासता की बेड़ी में जकड़ी भारत माता का कौन है ? जो इन सबका मालिक है, वह तुम्हारी भी रक्षा करेगा।’’

उन्हें सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दिया। वहीं पर मातृभूमि को स्मरण करते हुए उन नरवीर ने 21 दिसम्बर, 1920 को प्राण त्याग दिये।  

(संदर्भ  : मातृवंदना, क्रांतिवीर नमन अंक, मार्च-अपै्रल 2008)
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21 दिसम्बर/इतिहास-स्मृति      

अनंत कान्हरे द्वारा जैक्सन का वध

अंग्रेज शासन में कुछ अधिकारी छोटी-छोटी बात पर बड़ी सजाएं देकर समाज में आतंक फैला रहे थे। इस प्रकार वे कोलकाता, दिल्ली और लंदन में बैठे अधिकारियों की फाइल में अपने नंबर भी बढ़वाना चाहते थे। 

महाराष्ट्र में नासिक का जिलाधीश जैक्सन एक क्रूर अधिकारी था। उसने देशभक्तों का मुकदमा लड़ने वाले वकील सखाराम की जेल में हत्या करा दी। लोकमान्य तिलक को उनके दो लेखों पर सजा दिलवाकर छह वर्ष के लिए जेल भेजा तथा देशप्रेम की कविताएं लिखने के आरोप में श्री गणेश दामोदर सावरकर को आजीवन कारावास की सजा देकर अंदमान भिजवाया था।

इससे नाराज क्रांतिकारियों ने जैक्सन को मारने का निर्णय लिया। इसके लिए सबसे अधिक उत्साह युवा क्रांतिवीर अनंत कान्हरे दिखा रहा था। उसका जन्म 1891 में ग्राम आयटीमेटे खेड़ (औरंगाबाद) में हुआ था। वह ‘अभिनव भारत’ नामक संस्था का सदस्य था। उसके आदर्श मदनलाल धींगरा थे, जिन्होंने लंदन की भरी सभा में कर्जन वायली का वध किया था।

अनंत एक दिलेर युवक था। एक बार उसने यह दिखाने के लिए कि वह किसी भी शारीरिक यातना से विचलित नहीं होगा, जलती हुई चिमनी पर अपनी हथेली रख दी और फिर दो मिनट तक नहीं हटाई। इसी बीच जैक्सन का स्थानांतरण पुणे हो गया। उसके कार्यालय के साथियों ने 21 दिसम्बर, 1909 को नासिक के ‘विजयानंद सभा भवन’ में रात के समय ‘शारदा’ नामक नाटक का कार्यक्रम रखा। इसी में उसे विदाई दी जाने वाली थी। 

क्रांतिकारियों ने इसी सभा में सार्वजनिक रूप से उसे पुरस्कार देने का निर्णय लिया। इसके लिए अनंत कान्हरे, विनायक नारायण देशपांडे तथा कृष्ण गोपाल कर्वे ने जिम्मेदारी ली। 21 दिसम्बर की शाम को देशपांडे के घर सब योजनाकार मिले और तीनों को लंदन से वीर सावरकर द्वारा भेजी तथा चतुर्भुज अमीन द्वारा लाई गयी ब्राउनिंग पिस्तौलें सौंप दी गयीं। 

पहला वार अनंत कान्हरे को करना था, अतः उसे एक निकेल प्लेटेड रिवाल्वर और दिया गया। योजना यह थी कि यदि अनंत का वार खाली गया, तो देशपांडे हमला करेगा। यदि वह भी असफल हुआ तो कर्वे गोली चलाएगा। समय से पूर्व वहां पहुंचकर तीनों ने अपनी स्थिति ले ली। जिस मार्ग से जैक्सन सभागार में आने वाला था, अनंत वहीं एक कुर्सी पर बैठ गया। 

निश्चित समय पर जैक्सन आया। उसके साथ कई लोग थे। आयोजकों ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया। इससे उसके आसपास कुछ भीड़ एकत्र हो गयी; पर जैसे ही वह कुछ आगे बढ़ा, अनंत ने एक गोली चला दी। वह गोली खाली गई। दूसरी गोली जैक्सन की बांह पर लगी और वह धरती पर गिर गया। उसके गिरते ही अनंत ने पूरी पिस्तौल उस पर खाली कर दी। 

जैक्सन की मृत्यु वहीं घटनास्थल पर हो गयी। नासिक से विदाई समारोह में उसे दुनिया से ही विदाई दे दी गयी। लोग कान्हरे पर टूट पड़े और उसे बहुत मारा। कुछ देर बाद पुलिस ने तीनों को गिरफ्तार कर लिया। इन पर जैक्सन की हत्या का मुकदमा चला तथा 19 अपै्रल, 1910 को ठाणे की जेल में तीनों को फांसी दे दी गयी। फांसी के समय अनंत कान्हरे की आयु केवल 18 वर्ष ही थी।

(संदर्भ  : क्रांतिकारी कोश, स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश)
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21 दिसम्बर/जन्म-दिवस      

हिन्दुस्थान समाचार के उद्धारक श्रीकांत जोशी
असम में संघ कार्य सब जिलों तक पहुंचाने वाले श्रीकांत शंकरराव जोशी का जन्म 21 दिसम्बर, 1936 को ग्राम देवरुख (रत्नागिरि, महाराष्ट्र) में हुआ था। उनसे छोटे तीन भाई और एक बहिन थी। मुंबई में बी.ए. करते समय वे स्वयंसेवक बने। कुछ समय जीवन बीमा निगम में काम करने के बाद 1960 में वे तत्कालीन प्रचारक श्री शिवराय तैलंग की प्रेरणा से प्रचारक बने। सर्वप्रथम उन्हें श्री गुरु गोविन्द सिंह जी की पुण्यस्थली नांदेड़ भेजा गया। 

तीन वर्ष बाद उन्हें असम में तेजपुर विभाग प्रचारक बनाकर भेजा गया। इसके बाद वे लगातार 25 वर्ष असम में ही रहे। 1967 में विश्व हिन्दू परिषद ने गुवाहाटी में पूर्वोत्तर की जनजातियों का विशाल सम्मेलन किया। सरसंघचालक श्री गुरुजी तथा वि.हि.प. के महासचिव श्री दादासाहब आप्टे भी इसमें आये थे। कुछ समय बाद विवेकानंद शिला स्मारक (कन्याकुमारी) के लिए धन संग्रह हुआ। असम में इन दोनों कार्यक्रमों के संयोजक श्रीकांत जी ही थे।

उनकी संगठन क्षमता देखकर 1971 में उन्हें असम का प्रांत प्रचारक बनाया गया। 1987 तक उन्होंने इस जिम्मेदारी को निभाया। इस दौरान उन्होंने जहां एक ओर विद्या भारती के माध्यम से सैकड़ों विद्यालय खुलवाये, वहां सभी प्रमुख स्थानों पर संघ कार्यालयों का भी निर्माण कराया।

आज का पूरा पूर्वोत्तर उस दिनों असम प्रांत ही कहलाता था। वहां सैकड़ों जनजातियां, उनकी अलग-अलग भाषा, बोली और रीति-रिवाजों के बीच समन्वय बनाना आसान नहीं था; पर श्रीकांत जी ने प्रमुख जनजातियों के नेताओं के साथ ही सब दलों के राजनेताओं से भी अच्छे सम्बन्ध बना लिये।

1979 से 85 तक असम में घुसपैठ के विरोध में भारी आंदोलन हुआ। आंदोलन के कई नेता बंगलादेश से लुटपिट कर आये हिन्दुओं तथा भारत के अन्य राज्यों से व्यापार या नौकरी के लिए आये लोगों के भी विरोधी थे। अर्थात क्षेत्रीयता का विचार राष्ट्रीयता पर हावी हो रहा था। ऐसे माहौल में श्रीकांत जी ने उन्हें समझा-बुझाकर आंदोलन को भटकने से रोका। इस दौरान उनकी लिखी पुस्तक ‘घुसपैठ: एक निःशब्द आक्रमण’ भी बहुचर्चित हुई।

1987 से 96 तक वे सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस के निजी सचिव रहे। अंतिम दो-तीन वर्षों में उन्होंने एक पुत्र की तरह रोगग्रस्त बालासाहब की सेवा की। 1996 से 98 तक वे अ.भा.प्रचार प्रमुख श्री माधव गोविंद वैद्य के सहायक तथा फिर 2004 तक अ.भा.प्रचार प्रमुख रहे। 

इस दौरान उन्होंने आपातकाल में सरकारी हस्तक्षेप के कारण मृतप्रायः हो चुकी ‘हिन्दुस्थान समाचार’ संवाद समिति को पुनर्जीवित किया। 2001 में जब उन्होंने यह बीड़ा उठाया, तो न केवल संघ के बाहर, अपितु संघ के अंदर भी इसे समर्थन नहीं मिला; पर श्रीकांत जी ने अपने संकल्प पर डटे रहे। आज ‘हिन्दुस्थान समाचार’ के कार्यालय सभी राज्यों में हैं। अन्य संस्थाएं केवल एक या दो भाषाओं में समाचार देती हैं; पर यह संस्था संस्कृत, सिन्धी और नेपाली सहित भारत की प्रायः सभी भाषाओं में समाचार देती है। 

श्रीकांत जी ने भारतीय भाषाओं के पत्रकार तथा लेखकों के लिए कई पुरस्कारों की व्यवस्था कराई। इसके लिए उन्होंने देश भर में घूमकर धन जुटाया तथा कई न्यासों की स्थापना की। एक बार विदेशस्थ एक व्यक्ति ने कुछ शर्ताें के साथ एक बड़ी राशि देनी चाही; पर सिद्धांतनिष्ठ श्रीकांत जी ने उसे ठुकरा दिया। वे बाजारीकरण के कारण मीडिया के गिरते स्तर से बहुत चिंतित थे।

2004 के बाद वे संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के नाते प्रचार विभाग के साथ ही सहकार भारती, ग्राहक पंचायत, महिला समन्वय आदि को संभाल रहे थे। आठ जनवरी, 2013 की प्रातः मुंबई में हुए भीषण हृदयाघात से उनका निधन हुआ। 

(पांचजन्य 20.1.13/स्वदेश 9.1.13..आदि)
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22 दिसम्बर/जन्म-दिवस

महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन्

श्रीनिवास रामानुजन् का जन्म 22 दिसम्बर, 1887 को तमिलनाडु में इरोड जिले के कुम्भकोणम् नामक प्रसिद्ध तीर्थस्थान पर हुआ था। वहाँ कुम्भ की तरह हर 12 वर्ष बाद विशाल मेला लगता है। इसीलिए उस गाँव का नाम कुम्भकोणम् पड़ा। 

रामानुजन् बचपन में सामान्य छात्र थे; पर कक्षा दस के बाद गणित में उन्होंने तेजी से प्रगति की। जब तक अध्यापक श्यामपट पर प्रश्न लिखते, तब तक वे उसे हल भी कर लेते थे। इसी कारण बड़ी कक्षाओं के छात्र भी उनसे सहायता लेने आते थे।

कालेज के दिनों में उन्होंने ‘प्रोफेसर जार्ज शूब्रिज’ की गणित की एक पुस्तक पढ़ी। इसके बाद वे पूर्णतः गणित को समर्पित हो गये; पर इस दीवानगी के कारण वे अन्य विषयों में अनुत्तीर्ण हो गये। उनकी छात्रवृत्ति भी बन्द हो गयी। वे प्रायः कागजों पर गणित के नये-नये सूत्र लिखते रहते थे। वे हर महीने डेढ़ दो हजार कागज खर्च कर डालते थे। उनके देहान्त के बाद इन्हीं से ‘फ्रेयड नोटबुक्स’ नामक पुस्तक का निर्माण किया गया।

कुछ समय बाद उन्हें मद्रास बन्दरगाह पर क्लर्क की नौकरी मिल गयी। वहाँ भी वे गणित के सूत्रों में ही खोये रहते थे। इसी समय केवल 17 पृष्ठों वाला उनका पहला अध्ययन प्रकाशित हुआ। यह किसी तरह कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में गणित के विख्यात प्रोफेसर हार्डी के पास पहुँच गया। रामानुजन् ने उन्हें अपनी सौ प्रमेयों को लिखकर अलग से भी भेजा था। उसकी प्रतिभा देखकर प्रोफेसर हार्डी ने भारत प्रवास पर जा रहे प्रोफेसर नेविल से कहा कि वे प्रयासपूर्वक रामानुजन् को अपने साथ कैम्ब्रिज ले आयें।

कैम्ब्रिज आने पर प्रोफेसर हार्डी ने देखा कि रामानुजन् में प्रतिभा तो बहुत है; पर विधिवत शिक्षण न होने के कारण वे कई प्राथमिक बातें नहीं जानते थे। अतः उन्होंने रामानुजन् को कैम्ब्रिज में प्रवेश दिला दिया। यहीं से रामानुजन् ने बी.एस-सी उत्तीर्ण की। आगे चलकर उन्हें इसी विश्वविद्यालय से फैलोशिप मिली। यह पाने वाले वे पहले भारतीय थे। 1918 में वे र१यल सोसायटी के सदस्य बने। यह सम्मान पाने वाले वे दूसरे भारतीय थे।

इंग्लैण्ड के मौसम और खानपान के कारण रामानुजन् का स्वास्थ्य बिगड़ गया। अतः वे 1919 में भारत लौट आये। एक वर्ष बाद केवल 32 वर्ष की अल्पायु में 26 अपै्रल, 1920 को चेन्नई में उनका देहान्त हो गया। उनके देहान्त के बाद कैम्ब्रिज में उनके प्राध्यापक रहे प्रोफेसर आर्थर बेरी ने बताया, ‘‘मैं एक बार श्यामपट पर कुछ सूत्रों को हल कर रहा था। मैं बार-बार रामानुजन् को देखता था कि उसे सब समझ में आ रहा है या नहीं ? मैंने देखा कि उसका चेहरा चमक रहा है और वह बहुत उत्तेजित है। वस्तुतः वह मुझसे कुछ कहना चाहता था। 

मेरे संकेत पर वह उठा और उसने श्यामपट पर उन सूत्रों के हल लिख डाले। वास्तव में वह कागज और कलम के बिना मन में ही सूत्रों को हल कर चुका था। संख्याओं के सिद्धान्त पर उसकी पकड़ कमाल की थी। इन्हें हल करने में उसे कोई बौद्धिक प्रयास नहीं करना पड़ता था।’’ अन्य प्राध्यापकों का भी ऐसा ही मत था। 

1936 में हावर्ड विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए प्रोफेसर हार्डी ने रामानुजन् को एक ऐसा योद्धा बताया, जो साधनों के अभाव में भी पूरे योरोप की बौद्धिक शक्ति से लोहा लेने में सक्षम था। आज भी उनके अनेक सूत्रों को हल करने के लिए गणितज्ञ प्रयासरत हैं।
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22 दिसम्बर/जन्म-दिवस

बौद्धिक योद्धा डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त

यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि अंग्रेजों ने जो भ्रामक इतिहास शिक्षा के माध्यम से जन-जन में प्रसारित किया, आजादी के बाद भी उसमें सुधार का प्रयास नहीं हुआ। जवाहर लाल नेहरू का विचार था कि भारत के पुरातन ग्रन्थों में विद्यमान अधिकांश इतिहास मिथक और कोरी कल्पना है। इस सोच का लाभ उठाकर वामपंथियों ने इतिहास की सभी प्रमुख संस्थाओं पर कब्जा कर लिया। इसी कारण आज भी देश की नयी पीढ़ी वही गलत इतिहास पढ़ रही है और श्रीराम, श्रीकृष्ण जैसी विभूतियों के अस्तित्व पर प्रश्नचिõ लगाये जा रहे हैं। 
इस विचार का जिन लोगों ने बौद्धिक मंचों पर हर जगह ठोस तर्क और तथ्यों के साथ मुकाबला किया, उनमें डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनका जन्म 22 दिसम्बर, 1931 को उ.प्र. के पवित्र नगर प्रयागराज में हुआ था। प्रयाग विश्वविद्यालय सदा से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों का केन्द्र रहा है। वहां पढ़ते हुए उनका सम्पर्क संघ से हुआ। इतिहास और पुरातत्व में रुचि होने के कारण उन्होंने इसी क्षेत्र में शिक्षा पूर्ण की। इसके बाद आजीविका के लिए भी उन्होंने इसी क्षेत्र को अपनाया। 
शासकीय सेवा में रहते हुए, इस क्षेत्र में वामपंथियों के प्रभुत्व, शासन के विरोध और उपेक्षा के बावजूद उन्होंने अपनी प्रतिभा से अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विशिष्ट स्थान बनाया। दिल्ली में ‘राष्ट्रीय संग्रहालय’ से काम प्रारम्भ कर उन्होेंने प्रयाग में ‘पुरातत्व संग्रहालय’ के निदेशक तक की जिम्मेदारी निभाई। उन्हें देश तथा विदेश के प्रायः सभी शीर्षस्थ इतिहासकारों का प्रेम और सान्निध्य मिला। आर्याें ने भारत पर आक्रमण कर यहां के मूल निवासियों को वनों और दक्षिण में खदेड़ दिया, इस नितान्त झूठे सिद्धान्त की उन्होंने धज्जियां उड़ा दीं। वे ‘हड़प्पा सभ्यता’ को सिन्धु के बदले ‘सरस्वती सभ्यता’ कहते थे। उनके इस सिद्धान्त को भी व्यापक मान्यता मिली। 
1977 में केन्द्र में सत्ता बदलने पर देश का माहौल भी बदला। शिक्षा जगत में भी भारतीयकरण की आशाएं जाग्रत हुईं। अतः उन्होंने देश के मूर्धन्य इतिहासकारों के साथ ‘भारतीय पुरातत्व परिषद’ का गठन किया। दिल्ली में इसका भवन एवं पत्रिका ‘हिस्ट्री टुडे’ उनके परिश्रम की ही देन है। दक्षिण पूर्व एशिया की सरकारों ने अपने देश के पुराने मन्दिरों के जीर्णोद्धार के समय उनके स्थापत्य तथा काल निर्धारण के बारे में इस संस्था से ही परामर्श किया। 
डा. गुप्त की प्रतिभा ‘श्री रामजन्मभूमि आन्दोलन’ के दौरान खूब प्रकट हुई। जहां एक ओर वामपन्थी श्रीराम को कल्पना बता रहे थे, वहां कांग्रेस मन्दिर के अस्तित्व को ही नकार रही थी। ऐसे में जब हिन्दू तथा मुस्लिम पक्ष में वार्ताओं का दौर चला, तो डा. गुप्त हिन्दू पक्ष की कमान संभालते थे। उनके तर्कों के आगे हर बार दूसरा पक्ष भाग खड़ा होता था। छह दिसम्बर को बाबरी ध्वंस से जो अवशेष मिले, उन्होंने बड़े साहसपूर्वक उनके चित्र लिये और बाबरी राग गाने वालों को केवल देश ही नहीं, तो विदेश में भी बेनकाब किया।
डा. गुप्त इतिहास की पुस्तकों और संस्थाओं के भ्रष्टीकरण के विरुद्ध स्वर उठाने वालों की अग्रिम पंक्ति में रहते थे। उन्होंने समुद्री पुरातत्व के क्षेत्र में भी काम किया और इसकी शोध पत्रिका शुरू की। इसी से ‘श्रीरामसेतु विवाद’ के समय विश्व हिन्दू परिषद को प्रचुर सामग्री पहले ही उपलब्ध हो सकी। ऐसे बौद्धिक योद्धा का तीन अक्तूबर, 2007 को देहान्त हुआ। अन्त समय तक उन्हें इतिहास के शुद्धिकरण की ही चिन्ता थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री सुदर्शनजी ने ठीक ही कहा कि डा. स्वराज्य प्रकाश गुप्त इतिहास खोजते-खोजते स्वयं इतिहास बन गये।
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22 दिसम्बर/जन्म-दिवस

उत्तराखंड में विद्या भारती के स्तम्भ श्यामलाल जी

संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्यामलाल जी का जन्म 22 दिसम्बर, 1947 को कासगंज जिले के सैलई ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री सोनपाल सिंह तथा माता श्रीमती तुलसादेवी थीं। उनकी शिक्षा अपने गांव, गुरुकुल महाविद्यालय सहसवान (बदायूं) और अलीगढ़ में हुई। उन्होंने एम.एस-सी तथा एम.एड तक की शिक्षा प्राप्त की थी।

श्यामलाल जी के बड़े भाई लेखराज सिंह काफी समय तक शिशु मंदिर में प्राचार्य रहे। उनकी प्रेरणा से ही श्यामलाल जी स्वयंसेवक बने। मां के निधन के बाद भाई और भाभी ने उनकी देखभाल की। उनके घर में पढ़ने और पढ़ाने का माहौल था। उच्च शिक्षा प्राप्त कर श्याम जी भी किसी महाविद्यालय में पढ़ा सकते थे; पर 1971 में पीलीभीत में प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग करते समय सरसंघचालक श्री गुरुजी के आह्वान पर उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया था। इस निर्णय का परिवार ने भी समर्थन किया। अलीगढ़ में पढ़ते समय वहां के जिला प्रचारक ज्योति जी का भी उन पर बहुत प्रभाव था।

प्रचारक जीवन में श्यामलाल जी अधिकांश समय पर्वतीय क्षेत्र में ही रहे। उन दिनों पहाड़ों में संघ को बहुत कम लोग जानते थे। विभाजन के बाद इधर आये व्यापारी ही शहरों में शाखा लगाते थे। संघ के कार्यालय और खानपान की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में श्याम जी दुकानों के आगे या बस स्टैंड पर ही रात को सो जाते थे। सुबह उठकर नदी में स्नान आदि कर फिर संपर्क में लग जाते थे। इस प्रकार उन्होंने संघ का नाम और काम स्थापित किया। चोरी के भय से कई बार दुकानदार उन्हें अपने चबूतरे से भी उठा देते थे। परिश्रमी और साधारण जीवन के आदी होने के कारण वे मीलों पैदल चले जाते थे। इससे गांवों में भी विद्यार्थी और किसान संघ से जुड़ने लगे। इनमें से रमेश पोखरियाल निशंकतथा त्रिवेन्द्र सिंह रावत आगे चलकर राज्य के मुख्यमंत्री बने।

आपातकाल में वे टिहरी जेल में बंदी रहे। उस समय वे वहां जिला प्रचारक थे। आपातकाल के बंदियों को कई राज्यों में सम्मान निधिदी जाती है; पर श्यामलाल जी ने वह स्वीकार नहीं की। 1990 में भाउराव देवरस के आग्रह पर तीन प्रचारक विद्या भारती के काम में लगाये गये थे। श्यामलाल जी भी उनमें से एक थे। उस समय वे सहारनपुर के विभाग प्रचारक थे। उन्हें मेरठ प्रांत का संगठन मंत्री बनाया गया। उत्तराखंड भी तब मेरठ प्रांत में था। ऐसे में उन्होंने वहां विद्यालयों के विस्तार एवं दृढ़ीकरण में बड़ी भूमिका निभाई। विद्या भारती आज भी वहां सबसे बड़ा स्वयंसेवी शिक्षा संस्थान है।

इसका सुपरिणाम यह हुआ कि उत्तराखंड आंदोलन गलत हाथों में नहीं गया। इसमें विद्या भारती के विद्यालयों ने बड़ी भूमिका निभाई। अन्यथा विदेशी शक्तियों के कारण वहां दिल्ली दूर और पीकिंग पासजैसे नारे लगने लगे थे। विद्या भारती के प्रभाव के कारण उत्तराखंड में मिशनरी संस्थाओं का काम भी गहराई तक नहीं पहुंच सका। वर्ष 2000 में उत्तराखंड अलग राज्य बन गया। ऐसे में श्यामलाल जी को पश्चिमी उ.प्र. के संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी। 2013 में उन्हें विद्या भारती में अखिल भारतीय सेवा प्रमुख का काम दिया गया। इससे उनका कार्यक्षेत्र पूरा देश हो गया।

स्वास्थ्य की अनियमिता के कारण 2018 में उन्हें सक्रिय जीवन से विराम देकर पश्चिम उ.प्र. की क्षेत्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। इससे उनका सान्निध्य और उनके अनुभव का लाभ सबको मिलता रहा। पिछले कुछ समय से उन्हें कई खाद्य पदार्थों से एलर्जी होने लगी थी। कई तरह की जांच और चिकित्सा के बाद भी पूरा आराम नहीं मिल पाया। इलाज के दौरान ही 13 जनवरी, 2020 को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में उनका निधन हुआ।

(विद्या भारती तथा घर से प्राप्त जानकारी)

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23 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

परावर्तन के अग्रदूत स्वामी श्रद्धानन्द

भारत में आज जो मुसलमान हैं, उन सबके पूर्वज हिन्दू ही थे। उन्हें अपने पूर्वजों के पवित्र धर्म में वापस लाने का सर्वाधिक सफल प्रयास स्वामी श्रद्धानन्द ने किया। संन्यास से पूर्व उनका नाम मुंशीराम था। उनका जन्म 1856 में ग्राम तलबन (जिला जालन्धर, पंजाब) में एक पुलिस अधिकारी नानकचन्द जी के घर में हुआ था। 12 वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह हो गया। 

बरेली में आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द के प्रवचनों से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। उन्होंने अस्पृश्यता तथा जातीय भेदभाव के विरुद्ध प्रबल संघर्ष करते हुए अपनी पुत्री अमृतकला तथा पुत्रों पंडित हरिश्चन्द्र विद्यालंकार व पंडित इन्द्र विद्यावाचस्पति का अंतरजातीय विवाह किया।

1917 में संन्यास लेने पर उनका नाम स्वामी श्रद्धानन्द हो गया। स्वामी जी और गांधी जी एक दूसरे से बहुत प्रभावित थे। गांधी जी को सबसे पहले ‘महात्मा’ सम्बोधन स्वामी जी ने ही दिया था, जो उनके नाम के साथ जुड़ गया। 30 मार्च, 1919 को चाँदनी चौक, दिल्ली में रौलट एक्ट के विरुद्ध हुए सत्याग्रह का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानंद जी ने ही किया। 

वहां सैनिकों ने सत्याग्रहियों पर लाठियाँ बरसायीं। इस पर स्वामी जी उनसे भिड़ गये। सैनिक अधिकारी ने उनका सीना  छलनी कर देने की धमकी दी। इस पर स्वामी जी ने अपना सीना खोल दिया। सेना डर कर पीछे हट गयी।

स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लेने के कारण उन्हें एक वर्ष चार माह की सजा दी गयी। जेल से आकर वे अछूतोद्धार तथा शुद्धिकरण में लग गये। 1924 में शुद्धि सभा की स्थापना कर उन्होंने 30,000 मुस्लिम (मलकाना राजपूतों) को फिर से हिन्दू बनाया। इससे कट्टरपंथी नाराज हो गये; पर स्वामी जी इसमें लगे रहे। 1924 में वे ‘अखिल भारत हिन्दू महासभा’ के भी राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। मुसलमानों में देशप्रेम जगाने के लिए खिलाफत आन्दोलन के समय वे चार अपै्रल, 1919 को दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण देने गये।  

स्वामी जी ने हरिद्वार के पास 21 मार्च, 1902 को होली के शुभ अवसर पर ‘गुरुकुल कांगड़ी’ की स्थापना की। इसके लिए नजीबाबाद (जिला बिजनौर, उ.प्र.) के चौधरी अमनसिंह ने 120 बीघे भूमि और 11,000 रु. दिये। इसकी व्यवस्था के लिए स्वामी श्रद्धानंद जी ने अपना घर बेच दिया और सर्वप्रथम अपने दोनों लड़कों को प्रवेश दिलवाया। उन्होंने जालन्धर और देहरादून में कन्या पाठशाला की भी स्थापना की।

‘जलियाँवाला बाग नरसंहार’ के बाद जब पंजाब में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन करने का निर्णय हुआ, तो भयवश कोई कांग्रेसी उसका स्वागताध्यक्ष बनने को तैयार नहीं था। ऐसे में स्वामी श्रद्धानन्द जी आगे आये और 1920 में अमृतसर में अधिवेशन हो सका। इसमें स्वामी जी ने हिन्दी में भाषण दिया। इससे पूर्व अधिवेशनों में अंग्रेजी में भाषण होते थे। इसी प्रकार भाई परमानन्द और लाला लाजपतराय जी निर्वासन के बाद जब स्वदेश लौटे, तो स्वामी जी ने लाहौर में उनका सम्मान जुलूस निकलवाया।

स्वामी जी द्वारा प्रारम्भ परावर्तन का कार्य क्रमशः पूरे देश में जोर पकड़ रहा था। भारत के मुस्लिमों में अपने देश, धर्म और पूर्वजों का अभिमान जाग्रत होते देख कुछ कट्टरपंथियों ने उनके विरुद्ध फतवा जारी कर दिया। 23 दिसम्बर, 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक कट्टरपन्थी युवक ने उनके सीने में तीन गोलियाँ उतार दीं। स्वामी जी के मुख से ‘ओम्’ की ध्वनि निकली और उन्होंने प्राण त्याग दिये।

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