साहित्यप्रेमी राजनेता डा. सम्पूर्णानन्द
साहित्य और राजनीति दो अलग प्रकार के क्षेत्र हैं। राजनीति में उठापटक और गुटबाजी के बिना काम नहीं चलता, जबकि साहित्य की साधना शान्ति और एकान्त चाहती है। इसीलिए ऐसे लोग बहुत कम ही हुए हैं, जिन्होंने दोनों क्षेत्रों में समान अधिकार से काम किया है। ऐसी ही एक विभूति थे डा. सम्पूर्णानन्द।
सम्पूर्णानन्द जी का जन्म काशी के एक विद्वान् श्री विजयानन्द के घर में एक जनवरी, 1890 को हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। कुछ बड़े होने पर उन्हें काशी के विख्यात हरिश्चन्द्र स्कूल और फिर क्वीन्स कॉलिज में पढ़ने भेजा गया। उन दिनों प्रयाग शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र था। अतः ये प्रयाग आ गये। यहाँ से बी.एस-सी और फिर एल.टी की परीक्षा अच्छे अंकों में उत्तीर्ण की। इनकी रुचि पढ़ने के साथ पढ़ाने में भी थी। अतः ये वृन्दावन के प्रेम महाविद्यालय में अध्यापक के नाते कार्य करने लगे।
अध्यापन के साथ-साथ स्वाध्याय की ओर भी उनका पूरा ध्यान था। मूलतः विज्ञान के छात्र होते हुए भी उन्होंने शिक्षा, साहित्य, धर्म, दर्शन, ज्योतिष और वेदान्त आदि का गहन अध्ययन किया। हिन्दी में वैज्ञानिक विषयों पर निबन्धों का अभाव था। अतः उन्होंने इस क्षेत्र में काफी काम किया।
उनके निबन्धों के विषय यद्यपि जटिल होते थे; पर लेखन की शैली सरल एवं प्रवाहमयी होने के कारण छात्र उन्हें आसानी से समझ लेते थे। इन उपलब्धियों के लिए वे ‘विद्या वाचस्पति’ की उपाधि से विभूषित किये गये।
उन दिनों देश में ब्रिटिश शासन होने के कारण लोगों का रुझान अंग्रेजी की ओर बढ़ रहा था। सम्पन्न घरों के लोग अंग्रेजी बोलने और पढ़ने में गौरव अनुभव करते थे। अंग्रेजी विद्यालयों की संख्या भी लगातार बढ़ रही थी; पर अंग्रेजी के विद्वान होते हुए भी डा0 सम्पूर्णानन्द सदा हिन्दी के पक्षधर रहे।
उन्हंे हिन्दी की श्रीवृद्धि के लिए ‘समाजवाद’ नामक पुस्तक पर ‘मंगला प्रसाद पुरस्कार’ भी मिला। 1940 में वे ‘अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के सभापति निर्वाचित हुए। लम्बे समय तक वे ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के भी अध्यक्ष और फिर संरक्षक रहे।
देश की सेवा के लिए डा. सम्पूर्णानन्द ने राजनीति को माध्यम बनाया। उन दिनों राजनीति आज की तरह कलुषित नहीं थी। स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान उन्हें कई बार जेल की यातनाएँ सहनी पड़ीं; पर वे इस पथ पर डटे रहे।
1936 में जब संयुक्त प्रान्त की अन्तरिम विधान सभा का गठन हुआ, तो वे विधान सभा के सदस्य चुने गये। शिक्षा के प्रति उनके रुझान, अनुभव और प्रेम को देखकर उन्हें शिक्षा मन्त्री का कार्य दिया गया।
इस पद पर रहकर शिक्षा में सुधार के लिए उन्होंने सराहनीय काम किया। वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना उनके प्रयत्नों से ही हुई। 1955 में वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री बने। राजनेता होते हुए भी डा. सम्पूर्णानन्द ने चिद्विलास, जीवन और दर्शन, समाजवाद, महात्मा गांधी, चितरंजन दास, सम्राट हर्षवर्धन, अन्तरिक्ष यात्रा, गणेश आदि पुस्तकों की रचना की। वे हिन्दी की ‘मर्यादा’ एवं अंग्रेजी की ‘टुडे’ नामक पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे।
भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी धर्मनगरी काशी से अपने जीवन की यात्रा प्रारम्भ करने वाले प्रख्यात साहित्यकार, विचारक, लेखक, पत्रकार, सम्पादक, स्वतन्त्रता सेनानी व राजनेता डा. सम्पूर्णानन्द का काशी की पुण्यभूमि पर ही 10 जनवरी, 1969 को निधन हुआ।
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1 जनवरी/जन्म-दिवस
अजातशत्रु श्री बद्रीलाल दवे
श्री बद्रीलाल दवे का जन्म एक जनवरी, 1901 को बड़नगर (उज्जैन, म.प्र.) में हुआ था। वे सब ओर ‘दा साहब’ के नाम से प्रसिद्ध थे। अपनी शिक्षा पूर्ण कर कुछ समय तक वे अध्यापक और फिर विद्यालयों के निरीक्षक रहे; पर सामाजिक कार्य में रुचि होने के कारण बंधन वाली नौकरी में उनका मन नहीं लगा और उन्होंने खेती को अपनी आजीविका का साधन बना लिया।
दा साहब बिर्गोदा के जमींदार थे; पर वे अपने क्षेत्र के लोगों को पुत्र की तरह स्नेह करते थे। उन्होंने कभी जबरन लगान वसूल नहीं किया। प्रायः लगान और अन्न इतना कम आता था कि उससे उनके परिवार का भी काम नहीं चल पाता था। फिर भी वे सदा संतुष्ट ही रहते थे। 1946 में गेरुआ नामक बीमारी लगने से गेहूं की फसल नष्ट हो गयी। ऐसे में दा साहब ने गांव वालों को अपने परिवार की तरह पाला। यद्यपि इससे उनकी अपनी आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गयी; पर उन्होंने इसकी चिन्ता नहीं की।
1947 में देश को स्वाधीनता मिली और जमींदारी प्रथा समाप्त हो गयी। इससे दा साहब की सभी जमीनें भी उनके हाथ से चली गयीं। उनका सम्पर्क का क्षेत्र बहुत विस्तृत था; पर उन्होंने कभी उससे लाभ नहीं उठाया। घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने पर भी उन्होंने अपने पुत्रों की नौकरी के लिए कभी कहीं सिफारिश नहीं की और न ही अपने कष्टों की बात किसी से कही।
सामाजिक कार्यकर्ता होने के नाते 1946 में वे कांग्रेस के माध्यम से बड़नगर पालिका के प्रथम अध्यक्ष बने। 1947 में ग्वालियर राज्य में स्वायत्त शासन स्थापित होने पर उन्होंने धारा सभा का चुनाव लड़ा और विजयी हुए; पर कुछ समय बाद वे समझ गये कि कांग्रेस की नीतियां उनके स्वभाव के अनुकूल नहीं है। तब तक उनका सम्पर्क संघ से हो गया था। अतः वे कांग्रेस छोड़कर संघ के काम में रम गये।
पहले उन्हें नगर कार्यवाह और फिर विभाग संघचालक का दायित्व दिया गया। भैया जी दाणी, एकनाथ रानाडे, बाबा साहब आप्टे आदि वरिष्ठ प्रचारक उनकी योग्यता एवं जनसम्पर्क से बहुत प्रभावित थे।
आर्थिक स्थिति बिगड़ने पर उन्होंने अपने घरेलू खर्च कम कर दिये; पर संघ कार्य के लिए प्रवास करते रहे। रेल से उतर कर वे अपना सामान उठापर पैदल ही कार्यालय या कार्यकर्ता के घर चले जाते थे। 1948 में प्रतिबंध लगने पर बड़नगर में 44 साथियों के साथ सत्याग्रह कर वे जेल गये। 1975 में भी वे पूरे समय तक मीसा के अन्तर्गत भैरोंगढ़ जेल में निरुद्ध रहे।
दा साहब अजातशत्रु थे। किसी को भी कष्ट होने पर वे उसकी सहायता को तत्पर हो जाते थे। अतः हिन्दू ही नहीं, मुसलमान भी उन्हें अपना अभिभावक समझते थे। जब भी मुस्लिम बहुल अड़ान मुहल्ले या नुरिया नदी के तटवर्ती क्षेत्र में बाढ़ आयी, सब लोग निःसंकोच भाव से उनके घर में शरण लेते थे।
1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना होने पर उन्हें उसका प्रांतीय अध्यक्ष तथा राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। जब डा. मुखर्जी के नेतृत्व में कश्मीर आंदोलन हुआ, तो उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तारी दी।
राजनीतिक दायित्व होते हुए भी दा साहब का मन संघ के कार्य में ही अधिक लगता था। अतः वहां की उपयुक्त व्यवस्था होते ही वे फिर संघ कार्य में जुट गये। 1954 में उन्हें प्रांत संघचालक का दायित्व दिया गया। यद्यपि वे स्वयंसेवक होने को ही सबसे बड़ा दायित्व मानते थे। अतः उन्होंने इंदौर के पंडित रामनारायण शास्त्री को इस जिम्मेदारी के लिए तैयार किया और स्वयं उज्जैन विभाग संघचालक के नाते काम करने लगे। ऐसे कर्मठ, अहंकारशून्य एवं सर्वप्रिय दा साहब का 26 जनवरी, 1993 को देहांत हुआ।
(संदर्भ : मध्यभारत की संघगाथा)
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1 जनवरी/जन्म-तिथि
आधुनिक भामाशाह जी.पुल्लारेड्डी
पैसा तो बहुत लोग कमाते
हैं; पर उसे समाज हित में खुले हाथ से बांटने वाले कम ही होते
हैं। लम्बे समय तक ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के कोषाध्यक्ष रहे भाग्यनगर (हैदराबाद) निवासी श्री गुड़मपल्ली पुल्लारेड्डी
ऐसे ही आधुनिक भामाशाह थे, जिन्होंने दो हाथों से धन
कमाकर उसे सौ हाथों से बांटा।
उनका जन्म एक जनवरी, 1921 को आंध्रप्रदेश के करनूल जिले के गोकवरम नामक गांव के एक निर्धन परिवार में
हुआ था। उनके पिता श्री हुसैन रेड्डी तथा माता श्रीमती पुलम्मा थीं। पढ़ाई में
रुचि न होने के कारण जैसे-तैसे कक्षा पांच तक की शिक्षा पाकर अपने चाचा की आभूषणों
की दुकान पर आठ रुपये मासिक पर काम करने लगे। दुकान के बाद और पैसा कमाने के लिए
उन्होंने चाय, मट्ठा और कपड़ा भी बेचा।
आगे चलकर उन्होंने मिठाई
का काम शुरू किया। वे मिठाई की गुणवत्ता और पैकिंग पर विशेष ध्यान देते थे। इससे
व्यापार इतना बढ़ा कि उन्होंने अपनी पत्नी, बेटों, दामादों आदि को भी इसी में लगा लिया। अपनी 10 दुकानों के लगभग
1,000 कर्मचारियों को वे परिवार का सदस्य ही मानते थे। उनके मन
में निर्धन और निर्बल वर्ग के प्रति बहुत प्रेम था। एक बार तो दिन भर की बिक्री का
पैसा उन्होंने दुकान बंद करते समय एक अनाथालय को दे दिया। आगे चलकर उन्होंने ‘जी. पुल्लारेड्डी धर्मार्थ न्यास’ बनाया, जिसके द्वारा इस समय 18 विद्यालय, महाविद्यालय, तकनीकी व मैडिकल काॅलिज, चिकित्सालय, विकलांग सेवा संस्थान, छात्रावास आदि चल रहे
हैं।
श्री रेड्डी ने विश्व
हिन्दू परिषद को तो पर्याप्त धन दिया ही; पर धन संग्रह
करने वाले लोग भी तैयार किये। मधुर व्यवहार के कारण वे विरोधियों से भी धन ले आते
थे। ई.टी.वी. के मालिक रामोजी राव नास्तिक थे; पर वे उनसे सवा
लाख रु. और 72 वर्षीय एक उद्योगपति से 72,000 रु. ले आये। वे
अन्य सब सामाजिक कामों में भी सहयोग करते थे। श्री सत्यसाईं बाबा के 70 वें जन्मदिन पर वे 70,000 लड्डू बनवाकर ले
गये। एक बार सूखा पड़ने पर वामपंथियों को अच्छा काम करता देख उन्होंने वहां भी 50,000 रु. दिये। हैदराबाद नगर के मध्य में उनकी एक एकड़ बहुत मूल्यवान भूमि थी। वह
उन्होंने इस्काॅन वालों को मंदिर बनाने के लिए निःशुल्क दे दी। हैदराबाद में दंगे
के समय कफ्र्यू लगने पर वे निर्धन बस्तियों में भोजन सामग्री बांटकर आते थे।
हैदराबाद में गणेशोत्सव
के समय प्रायः दंगे होते थे। श्री रेड्डी ने 1972 में ‘भाग्यनगर गणेशोत्सव समिति’ बनाकर इसे भव्य रूप दे
दिया। आज तो मूर्ति विसर्जन के समय 25,000 मूर्तियों की
शोभायात्रा निकलती है तथा 30 लाख लोग उसमें भाग लेते
हैं। सभी राजनेता इसका स्वागत करते हैं। इससे हिन्दुओं के सभी जाति, मत तथा पंथ वाले एक मंच पर आ गये।
श्री पुल्लारेड्डी ‘राममंदिर जन्मभूमि आंदोलन’ में बहुत सक्रिय थे। उनका
जन्मस्थान करनूल मुस्लिम बहुल है। शिलान्यास तथा बाबरी ढांचे के विध्वंस के समय वे
अयोध्या में ही थे। यह देखकर दंगाइयों ने करनूल की उनकी दुकान जला दी। इससे उन्हें
लाखों रुपये की हानि हुई; पर वे पीछे नहीं हटे।
वर्ष 2006 में विश्व हिन्दू परिषद को मुकदमों के लिए बहुत धन चाहिए
था। उन्होंने श्री अशोक सिंहल को स्पष्ट कह दिया कि चाहे मुझे अपना मकान और दुकान
बेचनी पड़े; पर परिषद को धन की कमी नहीं होने दूंगा।
इसी प्रकार सक्रिय रहते
हुए श्री रेड्डी ने नौ मई, 2007 को अंतिम सांस
ली। उनके पुत्र श्री राघव रेड्डी अपने पिता के आदर्श का अनुसरण करते हुए कई वर्ष
तक विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष रहे।
(संदर्भ : जी.पुल्लारेड्डी, एक प्रेरणास्पद
व्यक्तित्व - रघुनंदन प्रसाद शर्मा)
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1 जनवरी/जन्म-दिवसइतिहास के संशोधक डा. सतीश मित्तल
अंग्रेजों ने भारतीयों को मानसिक गुलाम बनाये रखने के लिए यहां के गौरवपूर्ण इतिहास को विकृत कर दिया। आजादी के बाद भी यह स्थिति नहीं बदली। ऐसे में कई देशप्रेमी विद्वान इसके विरुद्ध खड़े हुए। एक जनवरी, 1938 को कांधला (जिला मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में श्रीमती केसरदेवी की गोद में जन्मे डा. सतीश मित्तल भी उनमें से एक थे।
उनके पिता चतरसेनजी पुराने जमींदार, किसान तथा अनाज के थोक व्यापारी थे। 1932 में वे सहारनपुर आकर व्यापार करने लगे। पांच भाई और तीन बहिनों वाला यह बड़ा परिवार था। 1946-47 से सतीशजी अपने बड़े भाई मदनमोहनजी के साथ सहारनपुर में शाखा जाने लगे। उनकी पढ़ाई सहारनपुर और मुजफ्फरनगर में हुई।
कक्षा दस तक विज्ञान पढ़ने के बाद वे इतिहास की ओर आकृष्ट हुए। पढ़ने, लिखने और भाषण देने में उनकी काफी रुचि थी। उन्होंने रोहतक के वैश्य काॅलिज से बी.एड. और 1959 में आगरा वि.वि. में प्रथम स्थान लेकर एम.ए. किया। फिर वे आर.के.एस.डी. डिग्री काॅलिज, कैथल (हरियाणा) में पढ़ाने लगे। वहां वे संघ के नगर कार्यवाह थे।
उस दौरान वहां आयी बाढ़ में स्वयंसेवकों का सेवा कार्य प्रशंनीय रहा। 1957, 61 और 63 में उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण लिये। एक बार वे तृतीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग में शिक्षक रहे। वहां वे बाबासाहब आप्टे के इतिहास संबंधी दृष्टिकोण से बहुत प्रभावित हुए।
1962 में उन्होंने पंजाब वि.वि. से भी राजनीति शास्त्र में एम.ए. में तथा 1971 में कुरुक्षेत्र वि.वि. से ‘पंजाब में स्वाधीनता संग्राम (1905 से 1929)’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि ली। वे 1973 में प्रारम्भ हुई ‘इतिहास संकलन योजना’ के संस्थापक सदस्य थे। 2010 से वे लगातार इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे।
1982 में उनके संयोजन में आदिब्रदी (हरियाणा) से सोमनाथ (गुजरात) तक ‘सरस्वती नदी शोध यात्रा’ सम्पन्न हुई। उसमें श्री मोरोपंत पिंगले, ठाकुर रामसिंह तथा डा. विष्णु हरि वाकणकर जैसे इतिहास के मूर्धन्य विद्वान शामिल हुए। इसके साथ वे विद्या भारती, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद तथा भारतीय इतिहास कांग्रेस से भी सम्बद्ध थे।
1974 में वे कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में आ गये। 1975 के आपातकाल में वे चार महीने जेल में भी रहे। कुरुक्षेत्र वि.वि. में रहते हुए उनका समय शिक्षण, अनुसंधान और लेखन में ही लगता था। इसमें बाधा न पड़े, इसलिए उन्होंने वि.वि. के कुलपति का पद ठुकरा दिया। उनकी ख्याति भारतीय इतिहास के अधिकारी विद्वान के रूप में थी। कांग्रेस के इतिहास और भारतीय संविधान का भी उन्हें गहरा अध्ययन था।
उन्होंने अंग्रेजी तथा हिन्दी में लगभग 50 पुस्तकें लिखीं। उनमें से अधिकांश ब्रिटिश भारत के कालखंड पर हैं। उनके 500 से अधिक शोध पत्र भी देश-विदेश की प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में छपे। अटलजी जब प्रधानमंत्री थे, तो उन्होंने ने एन.सी.ई.आर.टी. के लिए इतिहास की पुस्तकें तैयार की थीं। कई राज्य सरकारें भी उनसे इस बारे में परामर्श लेती थीं।
श्रीराम जन्मभूमि मुकदमे में न्यायाधीश उनकी विलक्षण स्मृति देखकर दंग रह जाते थे। हजारों ऐतिहासिक तथ्य उन्हें कंठस्थ थे। उन्हें कई बड़ी संस्थाओं से सम्मान प्राप्त हुए। इनमें डा. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान (कोलकाता), हरिभाऊ वाकणकर सम्मान, बाबासाहब आप्टे सम्मान, शिक्षा उत्कर्ष सम्मान, राती घाटी सम्मान (बीकानेर) आदि प्रमुख हैं।
13 सितम्बर, 2019 को गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में आयोजित कार्यक्रम में वे व्याख्यान देने गये थे। मंदिर के महंत और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी मंच पर उपस्थित थे। कार्यक्रम से लौटकर वे अपने आवास में आये; पर वहां हुए भीषण हृदयाघात ने उनके प्राण ले लिये। इस प्रकार राष्ट्रीय इतिहास को अपनी लेखनी और वाणी से समृद्ध करने वाले एक बौद्धिक कर्मयोद्धा के सक्रिय जीवन का अंत हुआ।
(पांचजन्य 29.9.19 तथा उनके दामाद सुरेन्द्र जैन से प्राप्त सामग्री)
अविश्रांत कार्यकर्ता लक्ष्मणराव पार्डीकर
संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता श्री लक्ष्मण शामराव पार्डिकर का जन्म एक जनवरी, 1946 को नागपुर के एक जनजातीय बुनकर परिवार में हुआ था। उनके पिता हथकरघे पर साड़ी बनाते थे। उनसे छोटे दो भाई और एक बहिन हैं। तीसरे भाई गंगाधर जी 1983 से प्रचारक हैं। गरीबी के कारण लक्ष्मणराव की पढ़ाई मैट्रिक तक ही हुई। इसी बीच उन्हें बिजली विभाग में नौकरी मिल गयी।
लक्ष्मणराव 12 वर्ष की अवस्था में स्वयंसेवक बने। उनके मोहल्ले और बिरादरी में संघ का घोर विरोध था; पर वे इससे कभी विचलित नहीं हुए। बचपन से ही व्यायाम में रुचि के कारण वे कभी बीमार नहीं पड़े। एक बार उनके अध्यापक ने छात्रों से व्यायाम के बारे में पूछा। केवल लक्ष्मणराव ने कहा कि वे प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करते हैं। 1962, 63 और 64 में तीनों संघ शिक्षा वर्ग करने के बाद वे प्रतिवर्ष वर्ग में शिक्षक रहे। 1981 और 82 में वे तृतीय वर्ष में मुख्यशिक्षक थे। खड्ग और योगचाप उनके प्रिय विषय थे। 1977 में योगचाप के नये पाठ्यक्रम निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
लक्ष्मणराव के जीवन में प्राथमिकता सदा संघ के काम को ही रही। श्री गुरुजी, बालासाहब, रज्जू भैया.. आदि वरिष्ठ कार्यकर्ता उनके घर आते रहते थे। नागपुर प्रांत संघचालक बाबासाहब घटाटे ने उन्हें प्रतिज्ञा दिलाई थी। 1981 में वे तृतीय वर्ष के वर्ग में मुख्यशिक्षक थे। तभी उनका नया मकान भी बनना था; पर मकान की जिम्मेदारी छोटे भाई को देकर वे पूरे समय वर्ग में रहे।
वे आग्रह करते थे कि कार्यकर्ता नये क्षेत्र में कार्य विस्तार के लिए जाएं। नागपुर के पास बड़ोदा में एक बार वे स्वयं महीने भर विस्तारक रहे। काम के प्रति कठोर रहते हुए भी उन्हें गुस्सा करते हुए कभी किसी ने नहीं देखा। 1966 में उनकी सगाई वाले दिन ताशकंद में प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का निधन हो गया। ऐसे में उन्होंने बैंड-बाजे के बिना सब काम सादगी से पूरे कराये।
आपातकाल में उन्हें भूमिगत रहने का निर्देश था। अतः उन्होंने छोटे भाई सुदाम से सत्याग्रह कराया। उन पर शाखा के मुख्यशिक्षक, कार्यवाह, नगर कार्यवाह, विभाग कार्यवाह, प्रांत सहकार्यवाह, महानगर सहसंघचालक, प्रांत, क्षेत्र और फिर अ.भा.शारीरिक प्रमुख जैसी जिम्मेदारियां रहीं। जिम्मेदारी चाहे जो हो, पर नित्य शाखा का संकल्प उन्होंने सदा निभाया। विदर्भ प्रांत सहकार्यवाह रहते हुए वे हर तहसील में गये। शनिवार, रविवार और अन्य छुट्टियों का उपयोग वे संघ के लिए ही करते थे। वे एक अच्छे गीत गायक भी थे। कार्यक्रम प्रभावी के साथ ही सादगी से भी हो, इस पर उनका विशेष जोर रहता था।
1992 में पुणे में कुछ खिलाड़ी स्वयंसेवकों ने ‘क्रीड़ा भारती’ का गठन किया। इसका लक्ष्य युवाओं में खेल द्वारा अनुशासन, देशप्रेम और समूह भावना का निर्माण करना तथा स्वदेशी एवं परम्परागत खेलों के प्रति जागृति लाना है, जिससे ग्रामीण प्रतिभाएं भी उभर सकें। वर्ष 2009 में क्रिकेट खिलाड़ी श्री चेतन चौहान को अध्यक्ष तथा लक्ष्मणराव को कार्याध्यक्ष बनाकर इसे राष्ट्रीय स्वरूप दिया गया।
उनके प्रयास से सभी प्रान्तों में समिति या संयोजक बने तथा 800 क्रीड़ा केन्द्र स्थापित हुए। दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के बाद पदक विजेताओं के माता, पिता तथा गुरुओं को भी सम्मानित किया गया। 2012 में ‘राष्ट्रीय खेल संगम’ तथा अपै्रल 2015 में दिल्ली में महिला खिलाड़ियों के प्रशिक्षण का सफल आयोजन हुआ। हर योजना उनकी डायरी में रहने से सब उन्हें ‘क्रीड़ा भारती’ का चलता-फिरता कार्यालय कहते थे।
25 अक्तूबर, 2015 को लक्ष्मणराव ‘क्रीड़ा भारती’ की प्रांत बैठक के लिए छिंदवाड़ा जा रहे थे। जिस गाड़ी में वे थे, बोरगांव में उसकी सामने से आती एक जीप से सीधी टक्कर हो गयी। इससे उनका दुखद निधन हो गया। अंतिम सांस तक संगठन के काम में लगे रहने वाले ऐसे कर्मयोगी प्रणम्य हैं।
(संदर्भ : छोटे भाई गंगाधर जी से प्राप्त जानकारी)
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2 जनवरी/जन्म-दिवस
अखंड कर्मयोगी माधवराव देशमुख
संसार में करोड़ों लोग जन्म लेते हैं और नियति के शाश्वत नियमानुसार अनन्त में विलीन हो जाते हैं। उनमें से कुछ ही ऐसे भाग्यवान होते हैं, जो देहान्त के बाद भी अपने व्यक्तित्व, कृतित्व और निष्ठा की छाप छोड़कर सदा के लिए अमर हो जाते हैं। कबीर दास जी ने ऐसे लोगों के लिए लिखा है -
कबीरा जब तुम आये थे, जग हँसे तुम रोये
ऐसी करनी कर चलो, तुम हँसो जग रोये।।
2 जनवरी, 1918 को काशी में जन्मे माधवराव ने इन पंक्तियों को सार्थक कर दिखाया। उनकी ननिहाल नागपुर के पास रामटेक में थी। माधव की रुचि शिक्षा में तो थी, पर विद्यालय में नहीं। उनके बड़े भाई अध्यापक थे। उन्होंने माधव को कई बार साथ ले जाना चाहा; पर असफल रहे। फिर इन्हें काशी के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य जागेश्वर पाठक के पास भेजा गया। यहाँ माधवराव ने शिक्षा के अनेक पड़ाव पार किये; पर कभी प्रमाण पत्र नहीं लिये।
1937 में माधवराव ने अपने घर के पास लगने वाली ‘जंगमबाड़ी’ शाखा पर जाना प्रारम्भ किया। संघ कार्य धीरे-धीरे उनके मन में बस गया। उनके प्रयास से वाराणसी और उसके आसपास अनेक नयी शाखाएँ प्रारम्भ हुईं। संघ शिक्षा वर्गों में प्रशिक्षण लेकर वे संघ के प्रचारक बन गये।
वार्तालाप की उनकी रोचक शैली के कारण उनके बौद्धिक, बैठकों आदि में उल्लास छाया रहता था। वे जौनपुर, गोरखपुर, प्रयाग, कानपुर, लखनऊ, मेरठ, आगरा, आदि अनेक स्थानों पर प्रचारक रहे। हर स्थान पर उन्होंने समाज के प्रतिष्ठित लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जोड़ा।
1956 में उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। इसके बाद भी उनके जीवन की प्राथमिकता संघ ही था। इसका श्रेय उनकी पत्नी को है, जिन्होंने बहुत कम खर्च में घर चलाया। वे उनके प्रवास में कभी बाधक नहीं बनीं। जब माधवराव हृदयरोग से पीड़ित थे, तो कई बार वे स्वयं ही उनके साथ चली जाती थीं; पर उनका प्रवास न छूटे, इसका वे पूरा ध्यान रखती थीं।
देश विभाजन के बाद जब विस्थापित हिन्दू भारत में आये, तो उनकी सेवा के लिए संघ ने कई शिविर लगाये। इसमें बहुत पैसा खर्च हो रहा था। माधवराव अपनी प्रभावी वक्तृत्व शैली से ऐसे सम्पन्न लोगों से भी धन ले आये, जिनके पास जाने का कोई साहस नहीं करता था। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध के समय उन्होंने भूमिगत रहकर अपने क्षेत्र में सत्याग्रह का संचालन किया।
1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद उन्हें इसके संगठन का काम सौंपा गया। माधवराव पूरे परिश्रम से इसमें लग गये। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। अनेक विद्वान धर्माचार्यों की उपस्थिति में 1973 में उनके स्वास्थ्य लाभ के लिए काशी में माधवराव के घर पर ‘महारुद्राभिषेक’ का आयोजन किया गया।
1975 में संघ पर प्रतिबन्ध लगने पर वे डेढ़ साल तक वाराणसी, नैनी आदि कई जेलों में बन्द रहे। उनके रहने से जेल का वातावरण भी उत्साह एवं संस्कार से भर उठता था। इस समय तक वे अनेक रोगों से पीड़ित हो चुके थे।
प्रतिबन्ध हटने के बाद वे फिर उत्साह से काम में लग गये और यथासम्भव प्रवास भी करने लगे; पर अब शरीर साथ नहीं दे रहा था। उनकी इच्छा संघ शिक्षा वर्गों में जाने की थी; पर विधि के विधान के अनुसार 15 मई, 1982 को वे सदा-सदा के लिए अनन्त की यात्रा पर चले गये।
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2 जनवरी/पुण्य-तिथि
प्रदर्शनियों के विशेषज्ञ राजाभाऊ पातुरकर
संघ के प्रथम पीढ़ी के प्रचारकों में से एक श्री राजाभाऊ पातुरकर का जन्म 1915 में नागपुर में हुआ था। गहरा रंग, स्वस्थ व सुदृढ़ शरीर, कठोर मन, कलाप्रेम, अनुशासनप्रियता, किसी भी कठिनाई का साहस से सामना करना तथा सामाजिक कार्य के प्रति समर्पण के गुण उन्हें अपने पिताजी से मिले थे।
खेलों में अत्यधिक रुचि के कारण वे अपने साथी छात्रों में बहुत लोकप्रिय थे। महाल के सीताबर्डी विद्यालय में पढ़ते समय उनकी मित्रता श्री बापूराव बराड़पांडे, बालासाहब व भाऊराव देवरस, कृष्णराव मोहरील आदि से हुई। इनके माध्यम से उनका परिचय संघ शाखा और डा. हेडगेवार से हुआ।
मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद डा. जी ने उन्हें पढ़ने तथा शाखा खोलने के लिए पंजाब की राजधानी लाहौर भेज दिया। आत्मविश्वास के धनी राजाभाऊ उनका आदेश मानकर लाहौर पहुंच गये। हॉकी के अच्छे खिलाड़ी होने के कारण उनके कई मित्र बन गये; पर जिस काम से वे आये थे, उसमें अभी सफलता नहीं मिल रही थी। वे अकेले ही संघस्थान पर खड़े रहते और प्रार्थना कर लौट आते थे।
एक बार कुछ मुस्लिम गुंडों ने विद्यालय के हिन्दू छात्रों से छेड़खानी की। राजाभाऊ ने अकेले ही उनकी खूब पिटाई की। इससे छात्रों और अध्यापकों के साथ पूरे नगर में उनकी धाक जम गयी। परिणाम यह हुआ कि जिस शाखा पर वे अकेले खड़े रहते थे, उस पर संख्या बढ़ने लगी।
संघ कार्य के लिए राजाभाऊ ने पंजाब में खूब प्रवास कर चप्पे-चप्पे की जानकारी प्राप्त की। वे पंजाबी भाषा भी अच्छी बोलने लगे। सैकड़ों परिवारों में उन्होंने घरेलू सम्बन्ध बना लिये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस को अंग्रेजों की नजरबंदी से मुक्त कराते समय उनके भतीजे ने कोलकाता से लखनऊ पहुंचाया था। वहां से दिल्ली तक भाऊराव देवरस ने, दिल्ली से लाहौर तक बापूराव मोघे ने और लाहौर के बाद सीमा पार कराने में राजाभाऊ का विशेष योगदान रहा।
लाहौर में काम की नींव मजबूत करने के बाद श्री गुरुजी ने उन्हें नागपुर बुला लिया। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध के समय उन्होंने भूमिगत रहकर वहां सत्याग्रह का संचालन किया। प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद उन्हें विदर्भ भेजा गया। 1952 से 57 तक वे मध्यभारत के प्रांत प्रचारक रहे। इसके बाद श्री बालासाहब देवरस की प्रेरणा से उन्होंने ‘भारती मंगलम्’ नामक संस्था बनाकर युवकों को देश के महापुरुषों के जीवन से परिचित कराने का काम प्रारम्भ किया।
सबसे पहले उन्होंने सिख गुरुओं की चित्र प्रदर्शनी बनायी। प्रदर्शनी के साथ ही राजाभाऊ का प्रेरक भाषण भी होता था। अपने प्रभावी भाषण से पंजाब के इतिहास और गुरुओं के बलिदान को वे सजीव कर देते थे। इस प्रदर्शनी की सर्वाधिक मांग गुरुद्वारों में ही होती थी। इसके बाद उन्होंने राजस्थान के गौरवपूर्ण इतिहास तथा छत्रपति शिवाजी के राष्ट्र जागरण कार्य को प्रदर्शनियों के माध्यम से देश के सम्मुख रखा। प्रदर्शनी देखकर लोग उत्साहित हो जाते थे। इन्हें बनवाने और प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने देश भर में प्रवास किया।
इसके बाद उन्होंने संघ के संस्थापक पूज्य डा. हेडगेवार का स्वाधीनता आंदोलन में योगदान तथा उन्होंने संघ कार्य को देश भर में कैसे फैलाया, इसकी जानकारी एकत्र करने का बीड़ा उठाया। डा. जी जहां-जहां गये थे, राजाभाऊ ने वहां जाकर सामग्री एकत्र की। उन्होंने वहां के चित्र आदि लेकर एक चित्रमय झांकी तैयार की। इसके प्रदर्शन के समय उनका ओजस्वी भाषण डा0 हेडगेवार तथा संघ के प्रारम्भिक काल का जीवंत वातावरण प्रस्तुत कर देता था।
दो जनवरी, 1988 को अपनी प्रदर्शनियों के माध्यम से जनजागरण करने वाले राजाभाऊ पातुरकर का नागपुर में ही देहांत हुआ।
(संदर्भ : मध्यभारत की संघ गाथा)
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3 जनवरी/जन्म-दिवस
वीरता की प्रतिमूर्ति
रानी वेलु नचियार
रानी वेलु नचियार का जन्म
तीन जनवरी, 1730 को तमिलनाडु के रामनाथपुरम में हुआ था। उनके पिता
चेल्लमुत्थु विजयरघुनाथ सेतुपति रामनाड के राजा थे। वेलु अपने पिता की एकमात्र
संतान थीं। इसलिए उनका लालन-पालन राजकुमार की तरह हुआ और उसे शस्त्र संचालन, तीरंदाजी, मार्शल आर्ट एवं घुड़सवारी का अच्छा प्रशिक्षण दिया गया।
अपनी मातृभाषा तमिल के साथ ही उसे अंग्रेजी, फ्रेंच और उर्दू
भाषा का भी अच्छा ज्ञान था।
16 वर्ष की अवस्था में वेलु नचियार का विवाह शिवगंगा के राजा
शशिवर्मा के पुत्र मुत्तु वेदुुंगानाथ थेवर से हुआ। कुछ साल बाद शशिवर्मा का
देहांत होने से मुत्तु वेदंुगानाथ राजा बन गये। इस दौरान रानी वेलु ने राज्य के
संचालन में अपने पति का पूरा सहयोग किया। अतः उन्हें राज्य का मुख्य सलाहकार बना
दिया गया। कुछ समय बाद उनके घर में एक पुत्री का आगमन हुआ, जिसका नाम वेल्लारी नचियार रखा गया।
उन दिनों ईस्ट इंडिया
कंपनी दक्षिण भारत में अपने पैर पसार रही थी। तमिलनाडु में आरकोट के नवाब उनका
आधिपत्य स्वीकार कर चुके थे। वे अब आसपास के क्षेत्र से कर वसूल कर अंग्रेजों को
भेजते थे। शिवगंगा सहित अनेक छोटे शासक उन्हें कर नहीं देते थे। इससे कंपनी वाले नाराज
हो गये। सबसे पहले उन्होंने शिवगंगा को निशाना बनाया तथा नवाब के सहयोग से वहां
हमला कर दिया। अंग्रेजों की सेना ने पूरब एवं पश्चिम दोनों दिशाओं से हमला बोला।
राजा मुत्तु ने वीरतापूर्वक मुकाबला किया, पर अंग्रेज सेना
बड़ी और आधुनिक शस्त्रों से लैस थी। अतः राजा मुत्तु ने वीरगति प्राप्त की।
यह अति भीषण युद्ध
तमिलनाडु के इतिहास में ‘कलैयार कोली’ कहा जाता है। राजा की मृत्यु के बाद अंग्रेज और नवाब की सेना ने भारी नरसंहार
किया तथा बस्तियों में आग लगा दी। रानी वेलु को जब यह समाचार मिला, तो वह अपनी पुत्री वेल्लाची को लेकर किले से सुरक्षित बाहर निकल गयी। इसके बाद
आरकोट के नवाब ने किले पर अधिकार कर लिया तथा नगर का नाम हुसेन नगर कर दिया। उधर
रानी ने अंग्रेजों और नवाब की सेना को चकमा दिया और डिंडिगुल के राजा गोपाल
नायक्कर के पास शरण ली।
वहां रहते हुए रानी ने
अपने शिवगंगा क्षेत्र को फिर से पाने के प्रयास शुरू कर दिये। उसने आसपास के
राजाओं के साथ ही हैदर अली से भी संपर्क किया। हैदर अली पहले तो राजी नहीं हुआ, पर फिर उसने 5,000 सैनिकों के साथ कुछ धन तथा अस्त्र-शस्त्र भेजे। इससे रानी
ने सेना को पुनर्गठित किया। एक अलग ‘उदायल नारी सेना’ भी बनायी गयी। इसकी प्रमुख महिला सेनानी कुयिली थी, जो बहुत वीर तथा रानी की विश्वासपात्र थीं।
वर्ष 1760 में रानी वेलु नचियार और अंग्रेजों के बीच फिर युद्ध हुआ। रानी के गुप्तचरों
ने अंग्रेजों के बारूद भंडार का पता लगा लिया। उसे नष्ट करने के लिए नारी सेना की
प्रमुख कुयिली ने स्वयं पर घी का लेप किया तथा फिर आग लगाकर बारूद भंडार में घुस
गयी। इससे बारूद नष्ट हो गया। इस प्रकार कुयिली ने पहली आत्मबलिदानी वीरांगना होने
का गौरव प्राप्त किया।
इसके बाद रानी ने किले पर
हमला कर दिया। अंग्रेजों का बारूद नष्ट हो चुका था। ऐसे में उन्हें हार माननी
पड़ी। इसके बाद रानी ने दस साल तक शिवगंगा क्षेत्र पर शासन किया। 25 दिसम्बर,
1796 को रानी का देहांत हुआ। 31 दिसम्बर,
2008 को उनके सम्मान में पांच रु. का डाक टिकट जारी
किया गया। तमिलनाडु में उन्हें वीरमंगई (वीर महिला) कहा जाता है। उनके जीवन पर
अनेक नाटक तथा नृत्य नाटिकाओं का मंचन होता है। तीन जनवरी, 2022 को उनकी जयंती पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि रानी का अदम्य साहस
आगामी पीढि़यों को सदा प्रेरित करता रहेगा।
(दै.जा. 26.3.2022/15, विवेक मिश्रा तथा
विकी)
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3 जनवरी/जन्म-दिवसपांड्य नरेश कट्टबोमन का संकल्प
17 वीं शताब्दी के अन्त में दक्षिण भारत का अधिकांश भाग अर्काट के नवाब के अधीन था। वह कायर लगान भी ठीक से वसूल नहीं कर पाता था। अतः उसने यह काम ईस्ट इंडिया कम्पनी को दे दिया। फिर क्या था; अंग्रेज छल, बल से लगान वसूलने लगे। उनकी शक्ति से अधिकांश राजा डर गये; पर तमिलनाडु के पांड्य नरेश कट्टबोमन ने झुकने से मना कर दिया। उसने अपने जीते जी धूर्त अंग्रेजों को एक पैसा नहीं दिया।
कट्टबोमन (बोम्मु) का जन्म तीन जनवरी, 1760 को हुआ था। कुमारस्वामी और दोरेसिंह नामक उनके दो भाई और थे। दोरेसिंह जन्म से ही गूँगा-बहरा था; पर उसने कई बार अपने भाई को संकट से बचाया।
बोम्मु पांड्य नरेश जगवीर के सेनापति थे। उनकी योग्यता एवं वीरता देखकर राजा ने अपनी मृत्यु से पूर्व उन्हें ही राजा बना दिया। राज्य का भार सँभालते ही बोम्मु ने नगर के चारों ओर सुरक्षा हेतु मजबूत परकोटे बनवाये और सेना में नयी भर्ती की। उन्होंने जनता का पालन अपनी सन्तान की तरह किया। इससे उनकी लोकप्रियता सब ओर फैल गयी।
दूसरी ओर उनके राज्य के आसपास अंग्रेजों का आधिपत्य बढ़ रहा था। कम्पनी का प्रतिनिधि मैक्सवेल वहाँ तैनात था। उसने बहुत प्रयास किया; पर बोम्मु दबे नहीं। छह वर्ष तक दोनों की सेनाओं में संघर्ष होता रहा; पर अंग्रेज सफल नहीं हुए।
अब मेक्सवेल ने अपने दूत एलन को एक पत्र देकर बोम्मु के पास भेजा। उसका कहना था कि चूँकि सब राजा कर दे रहे हैं, इसलिए चाहे थोड़ा ही हो; पर वह कुछ कर अवश्य दे। लेकिन बोम्मु ने एलन को सबके सामने अपमानित कर अपने दरबार से निकाल दिया।
अब अंग्रेजों ने जैक्सन नामक अधिकारी की नियुक्ति की। उसने बोम्मु को अकेले मिलने के लिए बुलाया; पर अपने गूँगे भाई के कहने पर वे अनेक विश्वस्त वीरों को साथ लेकर गये। वहाँ जैक्सन ने अपने साथी क्लार्क को बोम्मु को पकड़ने का आदेश दिया; पर बोम्मु ने इससे पहले ही क्लार्क का सिर कलम कर दिया। अब जैक्सन के बदले लूशिंगटन को भेजा गया। उसने फिर बोम्मु को बुलाया; पर बोम्मु ने मना कर दिया। इस पर कम्पनी ने मेजर जॉन बैनरमैन के नेतृत्व में सेना भेजकर बोम्मु पर चढ़ाई कर दी।
इस समय बोम्मु के भाई तथा सेनापति आदि जक्कम्मा देवी के मेले में गये हुए थे। बोम्मु ने उन्हें सन्देश भेजकर वापस बुलवा लिया और सेना एकत्र कर मुकाबला करने लगे। शुरू में तो उन्हें सफलता मिली; पर अन्ततः पीछे हटना पड़ा। वह अपने कुछ साथियों के साथ कोलारपट्टी के राजगोपाल नायक के पास पहुँचे; पर एक देशद्रोही एट्टप्पा ने इसकी सूचना शासन को दे दी। अतः उन्हें फिर जंगलों की शरण लेनी पड़ी।
कुछ दिन बाद पुदुकोट्टै के राजा तौण्डेमान ने उन्हें बुला लिया; पर वहां भी धोखा हुआ और वे भाइयों सहित गिरफ्तार कर लिये गये। 16 अक्तूबर, 1799 को कायात्तरु में उन्हें फाँसी दी गयी। फाँसी के लिए जब उन्हें वहाँ लाया गया, तो उन्होंने कहा कि मैं स्वयं फन्दा गले में डालूँगा।
इस पर उनके हाथ खोल दिये गये। बोम्मु ने नीचे झुककर हाथ में मातृभूमि की मिट्टी ली। उसे माथे से लगाकर बोले - हे माँ, मैं फिर यहीं जन्म लूँगा और तुम्हें गुलामी से मुक्त कराऊँगा। यह कहकर उन्होंने फाँसी का फन्दा गले में डाला और नीचे रखी मेज पर लात मार दी।
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3 जनवरी/जन्म-दिवस
दिव्यांग प्रचारक रघुनंदन प्रसादजी
दिव्यांगता किसी भी व्यक्ति के जीवन का अभिशाप होती है; पर कुछ लोग उसके बावजूद हिम्मत नहीं हारते। अतः उनका जीवन दूसरों के लिए प्रेरक बन जाता है। रघुनंदन प्रसादजी ऐसे ही प्रचारक थे। उनका जन्म तीन जनवरी, 1932 को उ.प्र. में हरदोई जिले के थमरवां गांव में श्री होरीलालजी एवं श्रीमती ज्ञानवती देवी के घर में हुआ था। चार भाई तथा दो छोटी बहनों के बीच वे तीसरे नंबर के भाई थे। परिवार में घोर गरीबी का साम्राज्य था।
रघुनंदनजी के जीवन में कठिनाइयों का दौर बचपन से ही शुरू हो गया, चूंकि उनके दोनों पैर जन्म से ही अजीब ढंग से मुड़े हुए थे। अतः उन्हें चलने में कुछ कठिनाई होती थी। उनकी एक आंख भी बचपन में ही खराब हो गयी थी। गरीबी और ऊपर से शारीरिक समस्या, अतः उनकी पढ़ाई कुछ खास नहीं हो सकी। टेढ़े पैरों के कारण स्कूल और गांव में वे सबके साथ ठीक से खेलकूद नहीं सकते थे। ऐसी मान्यता है कि भूत-प्रेतों के पैर उल्टे होते हैं। अतः शरारती लड़के उन्हें परेशान भी करते थे। ऐसे माहौल में वे जैसे-तैसे कछप गांव से प्राइमरी और गोपामऊ से जूनियर तक की पढ़ाई कर सके।
इसके बाद वे अपनी बुआ के घर पीलीभीत जिले में बीसलपुर आ गये; पर समस्या थी कि अब क्या करें ? गरीबी वहां भी अपने घर जैसी ही थी। कुछ समय बाद उन्होंने मिठाई बनाने का काम शुरू करने का विचार किया। यद्यपि इसका उन्हें कोई अनुभव नहीं था; पर एक दिन वे कुछ सामान लाये और पांच किलो रेवड़ी बनायी। उसकी बिक्री से हिम्मत बढ़ी और इस प्रकार यह काम प्रारम्भ हो गया। रघुनंदनजी के मधुर स्वभाव और अच्छी मिठाई के कारण काम ने गति पकड़ ली। इस प्रकार उनके जीवन में स्थिरता आने लगी।
बीसलपुर में उनकी बुआजी के घर के सामने ही संघ का कार्यालय था। पास में ही सुबह की शाखा भी लगती थी। वे उसे प्रतिदिन देखते थे। शाखा के कार्यक्रम और जोशीले गीत भी उन्हें अच्छे लगते थे; पर टेढ़े पैरों के कारण वे उनमें शामिल नहीं होते थे। एक दिन जिला प्रचारक महोदय शाखा पर आये। उन्होंने रघुनंदनजी को पीछे चुपचाप बैठे देखा, तो उनसे परिचय किया और घर दिखाने को कहा। इस प्रकार 1946 में उनका संघ जीवन शुरू हो गया।
उन दिनों श्री विश्वनाथ लिमये उ.प्र. के प्रांत प्रचारक थे। उनकी प्रेरणा से 1962 में दुकान को बंदकर वे प्रचारक बन गये। खटीमा, नवाबगंज, आंवला, बरेली, बहेड़ी, हरदोई, बिलग्राम, भोजीपुरा आदि में वे तहसील प्रचारक और फिर शाहबाद में सह जिला प्रचारक रहे। साइकिल चलाने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती थी। अतः वे उससे खूब प्रवास करते थे। 1958, 68 और 1981 में उन्होंने तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग पूरे किये। 1948 और फिर 1975 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर दोनों बार उन्होंने जेल यात्रा भी की।
रज्जू भैया और जयगोपालजी से उनके बहुत स्नेह संबंध थे। 1992 से 2002 तक वे बरेली और फिर आगरा कार्यालय प्रमुख रहे। वृद्ध होने पर उनके रहने की व्यवस्था वृंदावन के ‘केशव धाम’ में की गयी। लोकतंत्र सेनानी होने के कारण उन्हें उ.प्र. सरकार से ‘सम्मान निधि’ मिलती थी। विकलांगता के कारण भी कुछ सरकारी धन मिलता था। इससे उन्होंने अपना गांव का मकान ठीक कराया। धर्म-कर्म में आस्था होने के कारण 2014 में उन्होंने अपने व्यय से केशव धाम में भागवत कथा का आयोजन किया।
सांस की समस्या होने के कारण उनका स्वास्थ्य ढीला रहता था। गांव में अपनी भाभी के निधन होने पर वे वहां गये थे; पर वहां जाकर उनका अपना स्वास्थ्य बिगड़ गया। इसी से 88 वर्ष की आयु में मकर संक्रांति (14 जनवरी, 2020) को प्रातः उनका निधन हो गया। लोकतंत्र सेनानी होने के कारण शासकीय सम्मान के साथ उनका दाह संस्कार गांव में ही किया गया।
(रघुनंदनजी एवं ललितजी से वार्तालाप पर आधारित)
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3 जनवरी/जन्म-दिवस
‘हिन्दू चेतना’ के संपादक जगदीश चंद्र त्रिपाठी
4 जनवरी/पुण्य-तिथि
संकीर्तन से बांध निर्माण
किसी भी नदी पर बाँध बनाना सरल काम नहीं है। उसमें आधुनिक तकनीक के साथ करोड़ों रुपये और अपार मानव श्रम लगता है; पर श्री हरिबाबा ने केवल हरिनाम-संकीर्तन के बल पर गंगा जी पर बाँध बनाकर लाखों ग्रामवासियों के जन-धन की रक्षा की।
श्री हरिबाबा का जन्म ग्राम मेंगखाला (होशियारपुर, पंजाब) में फाल्गुन शुक्ल 14, वि0सम्वत् 1941 को श्री प्रतापसिंह जी के घर में हुआ था। उनका बचपन का नाम दीवान सिंह था। प्राथमिक शिक्षा के बाद उनके पिता ने उन्हें लाहौर के मैडिकल क१लिज में भर्ती करा दिया; पर तब तक वे सांसारिक बन्धन से मुक्त होने का मन बना चुके थे। अतः वे घर छोड़कर भ्रमण में लग गये।
उनके गुरु ने उन्हें दीक्षा देकर स्वतःप्रकाश नाम दिया; पर हर समय हरिनाम का संकीर्तन करते रहने के कारण वे ‘हरिबाबा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। हरिबाबा को गंगा माँ से बहुत प्रेम था। उत्तर प्रदेश के अनूपशहर में वे लम्बे समय तक गंगा के तट पर रहे और वेद-वेदान्तों का गहन अध्ययन किया। उनकी ख्याति सुनकर दूर-दूर से भक्त और सन्त-महात्मा वहाँ आने लगे।
श्री हरिबाबा चैतन्य महाप्रभु की तरह कीर्तन प्रेमी थे। वे गंगातट पर भ्रमण करते हुए भी कीर्तन करते रहते थे। घड़ियाल बजाते हुए जब वे नृत्य करते थे, तो सबके पाँव थिरकने लगते थे। एक बार वर्षाकाल में वे ग्राम गँवा (बदायूँ, उ0प्र0) के पास गंगा तट पर पहुँचे। उस समय गंगा जी का जल समुद्र की तरह दूर-दूर तक फैला हुआ था। किसानों की हजारों एकड़ फसल डूब गयी थी। हजारों पशु भी बाढ़ में बह गये थे। श्री हरिबाबा से लोगों का यह दुख नहीं देखा गया। उन्होंने वहाँ बाँध बनाकर उनकी विपत्ति दूर करने का निश्चय किया।
बाबा ने इसके लिए शासन से प्रार्थना की; पर उसने भारी खर्च का बहाना बना दिया। इस पर बाबा ने हरिबोल का उद्घोष किया और स्वयं टोकरी-फावड़ा लेकर जुट गये। यह देखकर गाँव के हजारों नर-नारी भी आ गये। बाबा हरिबोल के कीर्तन से सबका उत्साह बढ़ाने लगे। दूर-दूर तक इस बाँध की चर्चा फैल गयी। बड़े-बड़े सरकारी अधिकारी भी वहाँ आकर श्रमदान करने लगे। अगली वर्षा से पहले 20 कि.मी. लम्बा मोलनपुर बाँध बन कर तैयार हो गया।
इस बाँध की विशेषता थी कि इसमें लूले, लंगड़े, कुष्ठरोगी, निर्धन, धनवान, स्वस्थ, बीमार सबने अपना योगदान दिया। धीरे-धीरे बाँध का नाम ही ‘हरिबाबा बाँध’ हो गया। बाँध बनने पर बाबा ने वहाँ विशाल संकीर्तन भवन, मन्दिर और साधु-सन्तों के लिए कुटिया बनवायीं। इससे वहाँ स्थायी रूप से धार्मिक आयोजन होने लगे। बाँध बनने के बाद भी उस क्षेत्र के लोग नशा तथा माँसाहार करते थे। बहुत कहने पर भी जब लोग इससे विरत नहीं हुए, तो बाबा अनशन पर बैठ गये। मजबूर होकर लोगों को इन कुरीतियों को छोड़ना पड़ा।
बाबा जी की सब देवी-देवताओं में आस्था थी। उन्होंने अपने गुरुस्थान होशियारपुर में एक सुन्दर मन्दिर बनवाकर श्री गुरु ग्रन्थ साहब की स्थापना करवायी। अपने अन्तिम समय में वे काफी बीमार हो गये। सब चिकित्सकों ने जवाब दे दिया। यह देखकर आनन्दमयी माँ उन्हें अपने साथ काशी ले गयीं। वहीं श्री हरिबाबा ने चार जनवरी, 1970 को भोर होने से पूर्व 1.40 बजे अपनी नश्वर देह त्याग दी। उस समय भी वहाँ भक्तजन कीर्तन कर रहे थे।
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5 जनवरी/पुण्य-तिथि
वीर रस के प्रसारक स्वामी शिवचरण लाल जी
प्रायः हर व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण एवं प्रतिभा होती है। संघ की शाखा में आने से ये गुण और अधिक विकसित एवं प्रस्फुटित होते हैं। शाखा एवं अन्य कार्यक्रमों में गीत एवं कविता के माध्यम से भी संस्कार दिये जाते हैं। शिवचरण लाल जी ऐसे ही एक प्रचारक थे, जो विभिन्न कार्यक्रमों में वीर रस की कविताओं का इतने मनोयोग से पाठ करते थे कि श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। कविता समाप्त होने पर ऐसा लगता था मानो श्रोता सम्मोहन से छूटे हों।
शिवचरण लाल जी का जन्म नगीना (बिजनौर, उत्तर प्रदेश) में 1913 ई0 में एक व्यापारी परिवार में हुआ था। 1929 ई0 में उन्होंने हिन्दी तथा उर्दू से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद हिन्दी में प्रभाकर (बी.ए.) तथा फिर कनखल से संस्कृत में प्रथम श्रेणी में प्रथमा परीक्षा उत्तीर्ण की। हिन्दी व संस्कृत के प्रति अनुराग होने के कारण उन्होंने धर्मग्रन्थों का भी अध्ययन किया। इससे उनके मन में अध्यात्म के बीज अंकुरित हो गये।
1936 में नगीना में अल्मोड़ा से लामा योगियों की परम्परा में दीक्षित एक संन्यासी आये। वे योग व प्राणायाम की क्रियाओं में बहुत प्रवीण थे। शिवचरण लाल जी उनसे प्रभावित होकर घर पर ही योगाभ्यास करने लगे। जब इस दिशा में रुचि कुछ अधिक बढ़ी, तो वे हर साल एक-दो महीने के लिए उनके पास अल्मोड़ा जाने लगे। 1944 तक वे उस संन्यासी के सम्पर्क में रहे। अध्यात्म के प्रति रुचि के कारण लोग उन्हें भी ‘स्वामी जी’ कहने लगे।
1944 में पिताजी के देहान्त के बाद दो साल तक उन्हें दुकान संभालनी पड़ी। इस दौरान वे संघ के सम्पर्क में आये और अनेक प्रशिक्षण वर्गों में भाग लिया। उस समय देश विभाजन की विभीषिका झेल रहा था। सब ओर हिन्दुओं की दुर्दशा थी। इसके बाद भी गांधी जी, नेहरू और उनके अनुयायी कांग्रेस वाले मुस्लिम तुष्टीकरण की दुर्नीति छोड़ने को तैयार नहीं थे। यह देखकर उनका हृदय पीड़ा से रो उठता था। अन्ततः उन्होंने देश, धर्म एवं समाज की सेवा के लिए 1947 में घर छोड़ दिया और प्रचारक बन गये।
प्रचारक के नाते उन्होंने उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों पर काम किया। 1948 में गांधी जी हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबन्ध के समय सत्याग्रह कर वे जेल भी गये। वीर रस की लम्बी-लम्बी कविताएँ याद कर उन्हें उच्च स्वर में सुनाना उनका शौक था। संघ के शिविरों में रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। वहाँ उनकी कविताएँ बहुत रुचि से सुनी जाती थीं। जब वे हाथ उठाकर कविता बोलते थे, तो एक अद्भुत समाँ बँध जाता था।
1971 तक संघ के विभिन्न दायित्व निभाने के बाद उन्हें विश्व हिन्दू परिषद में भेजा गया। आठ वर्ष तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और फिर पूर्वी उ0प्र0 में उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के संगठन का गहन विस्तार किया। संगठन ने उन्हें जो काम दिया, समर्पित भाव से उन्होंने उसे पूरा किया। एकात्मता यात्रा तथा श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में वे बहुत सक्रिय रहे।
जब उनकी अवस्था अधिक हो गयी, तो उन्हें अनेक रोगों ने घेर लिया। इस कारण उन्हें प्रवास में कष्ट होने लगा। अतः 1997 में प्रवास से विश्राम देकर पहले हरिद्वार और फिर श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के केन्द्र अयोध्या के कारसेवकपुरम् में उनके निवास की व्यवस्था की गयी। अयोध्या में ही पाँच जनवरी 2007 को ब्राह्ममुहूर्त में उनका शरीरान्त हुआ।
शिवचरण लाल जी ने श्री गुरुजी, दीनदयाल जी, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ, लोकमान्य तिलक, आद्य शंकराचार्य, स्वामी विद्यारण्य आदि के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था। अपने भाषण में वे इनके उद्धरण भी देते थे। उनके भाषणों का संग्रह ‘हिन्दू धर्म दर्शन’ के नाम से प्रकाशित हुआ है।
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5 जनवरी/पुण्य-तिथि
पर्वत पुत्र रमेश चंद्र गार्ग्य
महाकवि कालिदास ने हिमालय को देवभूमि कहा है। उत्तराखंड भी हिमालय की सुरम्य शृंखलाओं में बसा एक शान्त और सुंदर प्रदेश है। गंगोत्री, यमनोत्री, केदारनाथ और बदरीनाथ नामक चारों प्रसिद्ध धाम यहीं हैं, जिनके दर्शन कर लाखों यात्री प्रतिवर्ष अपना जीवन धन्य करते हैं।
इसी उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित ग्राम चाका फलाटी, जनपद रुद्रप्रयाग में 1958 ई. (27 प्रविष्ठे ज्येष्ठ, वि.संवत 2014) में रमेश चंद्र गार्ग्य का जन्म हुआ। इनके पिता श्री वासवानंद जी गांव में खेती एवं पुरोहिताई करते थे तथा माता श्रीमती बचीदेवी धर्मपरायण महिला थीं। जब रमेश जी की अवस्था मात्र दो वर्ष की ही थी, तब उनकी माताजी का देहांत हो गया। ऐसे में उनका पालन भाभी जी ने किया।
प्रारम्भिक शिक्षा गांव में पूरी कर राजकीय इंटर कॉलिज, अगस्त्य मुनि से इन्होंने कक्षा 12 की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद की शिक्षा के लिए ये उत्तरकाशी में नौकरी कर रहे अपने बड़े भाई के पास आ गये। यहां उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे पढ़ाई के साथ शाखा कार्य में भी रुचि लेने लगे। कुछ समय वे यमुना घाटी के बड़कोट नगर में विस्तारक भी रहे।
इसके बाद संस्कृत से पी-एच.डी करने के लिए वे मोदीनगर आ गये। तब तक संघ के प्रति उनका प्रेम और समर्पण बहुत बढ़ चुका था। अतः पढ़ाई छोड़कर वे प्रचारक बन गये। प्रारम्भ में उन्हें वहीं गाजियाबाद तहसील प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी।
पहाड़ और मैदान की कार्यशैली में काफी अंतर होता है। पहाड़ में साइकिल नहीं चलती। अतः उन्होंने पहले साइकिल और फिर मोटर साइकिल चलाना सीखा। धीरे-धीरे उन्होंने कार्यकर्ताओं के हृदय में स्थान बना लिया। इससे शाखाओं का विस्तार हुआ और उनकी गुणवत्ता भी बढ़ने लगी।
इसके चार वर्ष बाद उन्हें मेरठ का जिला प्रचारक बनाया गया। मेरठ जिले में संघ का राजनीतिक रूप से बहुत विरोध होता रहा है। नये व्यक्ति को यहां की खड़ी बोली भी आसानी से समझ में नहीं आती; लेकिन सब परिस्थितियों पर विजय पाते हुए रमेश जी बहुत शीघ्र ही यहां समरस हो गये।
पर विधाता को तो कुछ और मंजूर था। पांच जनवरी, 1988 को वे मोटर साइकिल से सरधना से बड़ौत की ओर जा रहे थे। ग्राम बिनोली में सामने से एक ट्रैक्टर आ रहा था, जिसके पीछे ट्राली लगी थी। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर धक्के खाकर अचानक टैªक्टर और ट्राली को जोड़ने वाली कील निकल गयी।
कील निकलते ही ट्राली ने अपनी दिशा बदल ली और वह सीधे रमेश जी से आ टकराई। यह सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि उन्हें संभलने और मोटर साइकिल को किनारे करने का अवसर ही नहीं मिला। आमने-सामने की यह टक्कर इतनी भीषण थी कि रमेश जी का वहीं प्राणान्त हो गया।
दुर्घटना होते ही आसपास लोग जुट गये; पर वहां कोई उन्हें पहचानता नहीं था। लोगों ने उनका थैला टटोला, तो उसमें दैनिक उपयोग के सामान के साथ शाखा की खाकी निक्कर, सीटी और डायरी आदि मिली। इसके आधार पर बड़ौत और मेरठ में कुछ स्वयंसेवको को समाचार दिया गया।
रमेश जी का स्वर बहुत मधुर था। वे जितनी मस्ती से गढ़वाली गीत गाते थे, उतने ही आनंद से मेरठ की रागनी भी। वे हंसी मजाक करते हुए वातावरण को बोझिल नहीं होने देते थे। गढ़वाल से बहुत वर्ष बाद पर्वतीय मूल का कोई कार्यकर्ता प्रचारक बना था। उनसे संघ को बहुत आशाएं थीं; पर पांच जनवरी, 1988 को हुई दुर्घटना ने उन्हें सदा के लिए हमसे छीन लिया।
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6 जनवरी/जन्म-दिवस
भारतीय भावनाओं के चितेरे गीतकार भरत व्यास
फिल्मी दुनिया में अनेक गीतकार हुए हैं; पर पंडित भरत
व्यास को उनके भावना प्रधान गीतों के लिए याद किया जाता है। उनके 60-70 साल पुराने गीत
आज भी सब आयुवर्ग वालों के मन झंकृत कर देते हैं। उनका जन्म छह जनवरी, 1917 को चुरू
(राजस्थान) में हुआ था। कुछ वर्ष बाद माता-पिता के देहांत के कारण उनके दादा
घनश्याम व्यास ने उनका पालन किया।
चुरू, बीकानेर एवं श्रीनाथद्वारा के बाद वे आगे पढ़ने के लिए
कोलकाता चले गये। कोलकाता में राजस्थान के व्यापारी बड़ी संख्या में रहते हैं।
वहां पढ़ाई तथा अन्य खर्चे पूरे करने के लिए वे नाटकों के लिए कथा, संवाद, गीत आदि लिखने
तथा कवि सम्मेलनों में जाने लगे। कुछ नाटकों में उन्होंने अभिनय तथा निर्देशन भी
किया। उस दौरान उन्होंने वीरतापूर्ण कविता ‘केसरिया पगड़ी’ लिखी। इससे वे कोलकाता के जन-मन में छा गये।
उनके लिखे नाटक ‘रंगीला मारवाड़’ ने भी भरपूर ख्याति प्राप्त की। यह कोलकाता के सबसे पुराने
अल्फ्रेड थियेटर नाट्य भारती के मंच पर प्रदर्शित हुआ। इसके बाद देश में कई जगह
इसके प्रदर्शन हुए। फिर उन्होंने ‘रामू-चानणा तथा ‘ढोला मारू’ नाटकों की पटकथा और संवाद लिखे। इन पर आगे चलकर फिल्में भी
बनीं। धीरे-धीरे उनकी ख्याति मुंबई तक जा पहुंची। अतः वे स्वयं भी वहां चले गये।
यद्यपि वे निर्देशक बनना चाहते थे; पर नियति ने उन्हें गीतकार बना दिया। वहां 1943 में उन्होंने
अपना पहला गीत बी.एम.व्यास की फिल्म ‘दुहाई’ के लिए लिखा था, जिसके लिए उन्हें 10 रु. पारिश्रमिक मिला।
‘रंगीला मारवाड़’ से प्रभावित होकर
राजस्थान निवासी फिल्मकार ताराचंद बड़जात्या ने उन्हें अपनी फिल्म ‘चंद्रलेखा’ के गीत लिखने को
कहा। इसकी सफलता ने उन्हें गीतकार के रूप में स्थापित कर दिया। वी.शांताराम जैसे
कालजयी फिल्मकार ने अपनी सब फिल्मों के गीत उनसे लिखवाये। विमल राय तथा विक्रम
भट्ट की अधिकांश फिल्मों के गीत भी उन्होंने ही लिखे। उन दिनों फिल्मों में उर्दू
और फारसी के शब्द बहुत होते थे; पर व्यास जी ने हिन्दी शब्दों को प्रमुखता दी। उन्होंने
गीतों में कई साहित्यिक प्रयोग किये, जो सफल रहे।
व्यास जी ने लगभग 125 फिल्मों में 1,200 गीत लिखे। इनमें रामराज्य, परिणीता, जनम जनम के फेरे, गंूज उठी शहनाई, दिया और तूफान, रानी रूपमती, नवरंग, दो आंखें बारह हाथ, स्त्री, संत ज्ञानेश्वर, बालक, संपूर्ण रामायण, सारंगा, प्यार की कसम, राम लक्ष्मण, नवरात्रि, बालयोगी उपमन्यु, मन की जीत, जय चित्तौड़, अंगुलीमाल, बेदर्द जमाना क्या जाने.. आदि प्रमुख हैं।
उनके अधिकांश गीतों को उस समय के सर्वश्रेष्ठ गायकों लता
मंगेशकर, मन्ना डे तथा
मुकेश ने स्वर दिया। उनके अमर गीतों में प्रमुख हैं - निर्बल से लड़ाई बलवान की
(दिया और तूफान), ओ पवन वेग से
उड़ने वाले घोड़े (जय चित्तौड़), आधा है चंद्रमा रात आधी (नवरंग), जरा सामने तो आओ
छलिए (जनम जनम के फेरे), नैना हैं जादू
भरे (बेदर्द जमाना क्या जाने), आ लौट के आ जा मेरे मीत (रानी रूपमती), बुद्धम् शरणम्
गच्छामि (अंगुलीमाल) .. आदि। फिल्म दो आंखें बारह हाथ का गीत ‘‘ऐ मालिक तेरे
बंदे हम..’’ कई स्कूलों की
प्रार्थना में बोला जाता है। इसकी स्वरलिपि भी उन्होंने ही बनायी थी।
फिल्म जगत में प्रसिद्धि से लोगों का दिमाग बिगड़ जाता है; पर बहुमुखी
प्रतिभा के धनी व्यास जी यथार्थ की धरती छोड़कर दम्भ के आकाश में नहीं पहुंचे। वे
कहते थे कि मेरे गीत मेरे संस्कार और भावनाओं से उपजे हैं। उनकी अंतिम फिल्म ‘कृष्णा कृष्णा’ थी, जो 1986 में प्रदर्शित
हुई। यद्यपि उससे पहले चार जुलाई, 1983 को मुंबई में वे चिरनिद्रा में लीन हो गये। ‘तुम गगन के
चंद्रमा हो’ उनका एक प्रसिद्ध
गीत है। निःसंदेह वे फिल्म जगत के चंद्रमा ही थे।
(संदर्भ : दि कोर, जुलाई 2017/74, ललित शर्मा तथा सा.अमृत मई 2015)
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6 जनवरी/पुण्य-तिथि
जयुपर फुट के निर्माता डा. प्रमोदकरण सेठी
यदि किसी व्यक्ति का कोई अंग जन्म से न हो, या किसी दुर्घटना में वह अपंग हो जाए, तो उसकी पीड़ा समझना बहुत कठिन है। अपने आसपास हँसते-खेलते, दौड़ते-भागते लोगों को देखकर उसका मन में भी यह सब करने की उमंग उठती है; पर शारीरिक विकलांगता के कारण वह यह कर नहीं सकता।
पैर से विकलांग हुए ऐसे लोगों के जीवन में आशा की तेजस्वी किरण बन कर आये डा. प्रमोद करण सेठी, जिन्होंने ‘जयपुर फुट’ का निर्माण कर हजारों विकलांगों को चलने योग्य बनाया तथा वैश्विक ख्याति प्राप्त की।
डा. सेठी का जन्म 28 नवम्बर, 1927 को वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। उनके पिता काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भौतिक शास्त्र के प्राध्यापक थे। अतः पढ़ने-लिखने का वातावरण उन्हें बचपन से ही मिला। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्णकर उन्होंने सरोजिनी नायडू चिकित्सा महाविद्यालय, आगरा से 1949 में चिकित्सा स्नातक और फिर 1952 में परास्नातक की उपाधि प्राप्त की।
यों तो एक चिकित्सक के लिए यह डिग्रियाँ बहुत होती हैं; पर डा. सेठी की शिक्षा की भूख समाप्त नहीं हुई। उनकी रुचि शल्य चिकित्सा में थी, अतः उन्होंने विदेश का रुख किया और एडिनबर्ग के रॉयल मैडिकल कॉलिज ऑफ सर्जन्स में प्रवेश ले लिया। 1954 में यहाँ से एफ.आर.सी.एस. की उपाधि लेकर वे भारत लौटे और राजस्थान में जयपुर के सवाई मानसिंह चिकित्सा महाविद्यालय में शल्य क्रिया विभाग में प्राध्यापक बन गये।
1982 तक डा. सेठी इसी महाविद्यालय में काम करते रहे। इसके साथ ही उन्होंने सन्तोखबा दुरलाभजी स्मृति चिकित्सालय में अस्थियों पर विस्तृत शोध किया। इससे दूर-दूर तक उनकी ख्याति एक अस्थि विशेषज्ञ के रूप में हो गयी। जब डा. सेठी किसी पैर से अपंग व्यक्ति को देखते थे, तो उनके मन में बड़ी पीड़ा होती थी। अतः वे ऐसे कृत्रिम पैर के निर्माण में जुट गये, जिससे अपंग व्यक्ति भी स्वाभाविक रूप से चल सके।
धीरे-धीरे उनकी साधना रंग लाई और वे ऐसे पैर के निर्माण में सफल हो गये। उन्होंने इसेे ‘जयपुर फुट’ नाम दिया। कुछ ही समय में पूरी दुनिया में यह पैर और इसके निर्माता डा. सेठी का नाम विख्यात हो गया। इससे पूर्व लकड़ी की टाँग का प्रचलन था। इससे व्यक्ति पैर को मोड़ नहीं सकता था; पर जयपुर फुट में रबड़ का ऐसा घुटना भी बनाया गया, जिससे पैर मुड़ सकता था। थोड़े अभ्यास के बाद व्यक्ति इससे स्वाभाविक रूप से चलने लगता था और देखने वाले को उसकी विकलांगता का पता ही नहीं लगता था। इससे उसके आत्मविश्वास में बहुत वृद्धि होती थी।
जयपुर फुट का प्रयोग दुनिया के कई प्रमुख लोगों ने किया। इनमें भारत की प्रसिद्ध नृत्यांगना सुधा चन्द्रन भी है। एक फिल्म निर्माता ने उसकी अपंगता और फिर से कुशल नर्तकी बनने की कहानी को फिल्म ‘नाचे मयूरी’ के माध्यम से पर्दे पर उतारा। इससे डा. सेठी का नाम घर-घर में पहचाना जाने लगा।
इसके बाद भी उन्होंने विश्राम नहीं लिया। वे विकालांगों के जीवन को और सुविधाजनक बनाने के लिए इसमें संशोधन करते रहे। डा0 सेठी की इन उपलब्धियों के कारण उन्हें डा. बी.सी.राय पुरस्कार, रेमन मैगसेसे पुरस्कार, गिनीज पुरस्कार आदि अनेक विश्वविख्यात सम्मानों से अलंकृत किया गया।
लाखों विकलांगों के जीवन में नया उजाला भरने वाले डा. प्रमोद करण सेठी का निधन 6 जनवरी, 2008 को हुआ।
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7 जनवरी/बलिदान-दिवस
महिदपुर के सेनानी अमीन सदाशिवराव
1857 का स्वाधीनता संग्राम भले ही सफल न हुआ हो; पर उसने सिद्ध कर दिया कि देश का कोई भाग ऐसा नहीं है, जहां स्वतन्त्रता की अभिलाषा न हो तथा लोग स्वाधीनता के लिए मर मिटने का तैयार न हों।
मध्य प्रदेश में इंदौर और उसके आसपास का क्षेत्र मालवा कहलाता है। 1857 में यह पूरा क्षेत्र अंग्रेजों के विरुद्ध दहक रहा था। यहां का महिदपुर सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र था। इसलिए अंग्रेजों ने यहां छावनी की स्थापना की थी, जिसे ‘यूनाइटेड मालवा कांटिनजेंट, महिदपुर हेडक्वार्टर’ कहा जाता था।
इंदौर में नागरिकों ने जुलाई 1857 में जैसा उत्साह दिखाया था, उसका प्रभाव महिदपुर छावनी के सैनिकों पर भी साफ दिखाई देता था। वे एकांत में इस बारे में उग्र बातें करते रहते थे। यह देखकर अंग्रेजों ने बड़े अधिकारियों तथा अपने खास चमचों को सावधान कर दिया था।
छावनी में भारतीय सैनिकों के कमांडर शेख रहमत उल्ला तथा उज्जैन स्थित सिंधिया के सरसूबा आपतिया की सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। महिदपुर के अमीन सदाशिवराव की भूमिका भी इस बारे में उल्लेखनीय है। उन्होंने क्रांति के लिए बड़ी संख्या में सैनिकों की भर्ती की तथा उन्हें हर प्रकार का सहयोग दिया। अंग्रेज चौकन्ने तो थे; पर उन्हें यह अनुमान नहीं था कि अंदर ही अंदर इतना भीषण लावा खौल रहा है।
8 नवम्बर, 1857 को निर्धारित योजनानुसार प्रातः 7.30 बजे दो हजार क्रांतिकारियों ने ऐरा सिंह के नेतृत्व में मारो-काटो का उद्घोष करते हुए महिदपुर छावनी पर हमला बोल दिया। इन सशस्त्र क्रांतिवीरों में उज्जैन व खाचरोद की ओर से आये मेवाती सैनिकों के साथ ही महिदपुर के नागरिक भी शामिल थे। यह देखकर छावनी में तैनात देशप्रेमी सैनिक भी इनके साथ मिल गये।
अंग्रेज अधिकारी सावधान तो थे ही, अतः भीषण युद्ध छिड़ गया; पर भारतीय सैनिकों का उत्साह अंग्रेजों पर भारी पड़ रहा था। कई घंटे के संग्राम में डा0 कैरी, लेफ्टिनेंट मिल्स, सार्जेण्ट मेजर ओ कॉनेल तथा मानसन मार डाले गये। मेजर टिमनिस की पत्नी को उसके दर्जी ने अपनी झोंपड़ी में छिपा लिया, इससे उसकी जान बच गयी। इस युद्ध में भारतीय वीरों का पलड़ा भारी रहा। जो अंग्रेज अधिकारी बच गये, उन्हें इंदौर के महाराजा तुकोजीराव होल्कर ने शरण देकर उनके भोजन तथा कपड़ों का प्रबन्ध किया।
परन्तु संगठन एवं कुशल नेतृत्व के अभाव, अधूरी योजना तथा समय से पूर्व ही विस्फोट हो जाने के कारण 1857 का यह स्वाधीनता संग्राम सफल नहीं हो सका। धीरे-धीरे अंग्रेजों ने फिर से सभी छावनियों पर कब्जा कर लिया। जिन सैनिकों ने अत्यधिक उत्साह दिखाया था, उन्हें नौकरी से हटा दिया। कुछ को जेलों में ठूंस दिया तथा बहुतों को फांसी पर लटकाकर पूरे देश में एक बार फिर से आतंक एवं भय का वातावरण बना दिया।
महिदपुर के इस संघर्ष में यद्यपि जीत भारतीय पक्ष की हुई और अंग्रेजों को मैदान छोड़कर भागना पड़ा; पर अंग्रेजो की तरह ही बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक भी वीरगति को प्राप्त हुए। आगे चलकर इस युद्ध के लिए वातावरण बनाने में मुख्य भूमिका निभाने वाले अमीन सयाजीराव भी गिरफ्तार कर लिये गये। अंग्रेजों ने उन्हें देशभक्ति का श्रेष्ठतम पुरस्कार देते हुए सात जनवरी, 1858 को तोप के सामने खड़ाकर गोला दाग दिया।
वीर अमीन सयाजीराव की देह एवं रक्त का कण-कण उस पावन मातृभूमि पर छितरा गया, जिसकी पूजा करने का उन्होंने व्रत लिया था।
(संदर्भ : हिन्दू गर्जना 20.3.2008)
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7 जनवरी/जन्म-दिवस
कलाकारों के कलाकार योगेन्द्र बाबा
कला की साधना अत्यन्त कठिन है। वर्षों के अभ्यास एवं परिश्रम से कोई कला सिद्ध होती है; पर कलाकारों को बटोरना उससे भी अधिक कठिन है, क्योंकि हर कलाकार के अपने नखरे रहते हैं। ‘संस्कार भारती’ के संस्थापक बाबा योगेन्द्रजी ऐसे ही कलाकार थे, जिन्होंने हजारों कला साधकों को एक माला में पिरोने का कठिन काम कर दिखाया।
सात जनवरी, 1924 को बस्ती (उत्तर प्रदेश) के प्रसिद्ध वकील बाबू विजय बहादुर श्रीवास्तव के घर जन्मे योगेन्द्र जी के सिर से दो वर्ष की अवस्था में ही मां का साया उठ गया। फिर उन्हें पड़ोस के एक परिवार में बेच दिया गया। इसके पीछे यह मान्यता थी कि इससे बच्चा दीर्घायु होगा। उस पड़ोसी चाची मां ने ही अपने सब बच्चों के साथ अगले दस साल तक उन्हें पाला।
वकील साहब कांग्रेस और आर्यसमाज से जुड़े थे। जब मोहल्ले में संघ की शाखा लगने लगी, तो उन्होंने योगेन्द्र को भी वहां जाने के लिए कहा। छात्र जीवन में उनका सम्पर्क गोरखपुर में संघ के प्रचारक नानाजी देशमुख से हुआ। योगेन्द्र जी यद्यपि सायं शाखा में जाते थे; पर नानाजी प्रतिदिन प्रातः उन्हें जगाने आते थे, जिससे वे पढ़ सकें। एक बार तो तेज बुखार की स्थिति में नानाजी उन्हें कन्धे पर लादकर डेढ़ कि.मी. दूर पडरौना ले गये और उनका इलाज कराया। इसका प्रभाव योगेन्द्र जी पर इतना पड़ा कि उन्होंने शिक्षा पूर्ण कर स्वयं को संघ कार्य के लिए ही समर्पित करने का निश्चय कर लिया।
योगेन्द्र जी ने 1942 में लखनऊ में प्रथम वर्ष ‘संघ शिक्षा वर्ग’ का प्रशिक्षण लिया। 1945 में वे प्रचारक बने और गोरखपुर, प्रयाग, बरेली, बदायूं, सीतापुर आदि स्थानों पर संघ कार्य किया; पर उनके मन में एक सुप्त कलाकार सदा मचलता रहता था। देश-विभाजन के समय उन्होंने एक प्रदर्शिनी बनायी। जिसने भी इसे देखा, वह अपनी आंखें पोेंछने को मजबूर हो गया। फिर तो ऐसी प्रदर्शिनियों का सिलसिला चल पड़ा। शिवाजी, धर्म गंगा, जनता की पुकार, जलता कश्मीर, संकट में गोमाता, 1857 के स्वाधीनता संग्राम की अमर गाथा, विदेशी षड्यन्त्र, मां की पुकार...आदि ने संवेदनशील मनों को झकझोर दिया। ‘भारत की विश्व को देन’ प्रदर्शिनी को विदेशों में भी प्रशंसा मिली।
संघ नेतृत्व ने योगेन्द्र जी की इस प्रतिभा को देखकर 1981 ई. में ‘संस्कार भारती’ नामक संगठन का निर्माण कर उसका कार्यभार उन्हें सौंप दिया। योगेन्द्र जी के अथक परिश्रम से कुछ ही वर्ष में यह कलाकारों की अग्रणी संस्था बन गयी। अब तो इसकी शाखाएं विश्व के कई देशों में स्थापित हो चुकी हैं। योगेन्द्र जी शुरू से ही बड़े कलाकारों के चक्कर में नहीं पड़े। उन्होंने नये लोगों को मंच दिया और धीरे-धीरे वे ही बड़े कलाकार बन गये। इस प्रकार उन्होंने कलाकारों की नयी सेना तैयार कर दी। आज तो बड़े-बड़े स्थापित कलाकार संस्कार भारती के मंच पर आकर स्वयं गौरवान्वित होते हैं। ऐसे हजारों कलाकारों ने ही उन्हें ‘बाबा’ नाम दे दिया, जो फिर उनकी पहचान बन गया।
सरलता एवं अहंकारशून्यता योगेन्द्र जी की बड़ी विशेषता थी। किसी प्रदर्शिनी के निर्माण में वे साधारण मजदूर की तरह काम में जुट जाते थे। जब अपनी खनकदार आवाज में वे किसी कार्यक्रम का ‘आंखों देखा हाल’ सुनाते थे, तो लगता था मानो आकाशवाणी से कोई बोल रहा हो। उनका हस्तलेख मोतियों जैसा था। इसीलिए उनके पत्रों को लोग संभालकर रखते थे। वयोवृद्ध होने के बावजूद वे दो अपै्रल, 2021 को संस्कार भारती के दिल्ली में नवनिर्मित कार्यालय ‘कला संकुल’ के उद्घाटन में सरसंघचालक श्री मोहन भागवत एवं सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होस्बाले के साथ उपस्थित हुए।
उनकी कला साधना के लिए राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने वर्ष 2018 में उन्हें ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया। 10 जून, 2022 (निर्जला एकादशी) को लखनऊ में उनकी जीवन यात्रा पूर्ण हुई।
...................................7 जनवरी/पुण्य-तिथि
सादगी की प्रतिमूर्ति लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य को विश्वव्यापी रूप देने में अप्रतिम भूमिका निभाने वाले श्री लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े का जन्म अकोला (महाराष्ट्र) में 1918 में हुआ था। उनके पिता श्री श्रीकृष्ण भिड़े सार्वजनिक निर्माण विभाग में कार्यरत थे। छात्र जीवन से ही उनमें सेवाभाव कूट-कूट कर भरा था।
1932-33 में जब चन्द्रपुर में भयानक बाढ़ आयी, तो अपनी जान पर खेलकर उन्होंने अनेक परिवारों की रक्षा की। एक बार माँ को बिच्छू के काटने पर उन्होंने तुरन्त अपना जनेऊ माँ के पैर में बाँध दिया। इससे रक्त का प्रवाह बन्द हो गया और माँ की जान बच गयी।
चन्द्रपुर में उनका सम्पर्क संघ से हुआ। वे बाबासाहब आप्टे से बहुत प्रभावित थे। 1941 में वे प्रचारक बने तथा 1942 में उन्हें लखनऊ भेज दिया गया। 1942 से 57 तक उन्होंने उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों एवं दायित्वों पर रहते हुए कार्य किया। 1957 में उन्हें कीनिया भेजा गया। 1961 में वे फिर उत्तर प्रदेश में आ गये। 1973 में उन्हें विश्व विभाग का कार्य दिया गया। इसके बाद बीस साल तक उन्होंने उन देशों का भ्रमण किया, जहाँ हिन्दू रहते हैं।
विदेशों में हिन्दू हित एवं भारत हित में उन्होंने अनेक संस्थाएँ बनायीं। इनमें 1978 में स्थापित ‘फ्रेंडस ऑफ इंडिया सोसायटी इंटरनेशनल’ प्रमुख है। 1990 में जब भारतीय दूतावास ही विदेशों में भारतीय जनता पार्टी की छवि धूमिल कर रहा था, तो उन्होंने ‘ओवरसीज फ्रेंडस ऑफ बी.जे.पी.’ का गठन कर कांग्रेसी षड्यन्त्र को विफल किया। जब मॉरीशस के चुनाव में गुटबाजी के कारण हिन्दुओं की दुर्दशा होने लगी, तो उन्होंने सबको बैठाकर समझौता कराया। इससे फिर से हिन्दू वहाँ विजयी हुए।
शरीर से बहुत दुबले भिड़े जी सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति थे। आवश्यकताएं कम होने के कारण उनका खर्चा भी बहुत कम होता था। विदेश प्रवास में कार्यकर्ता जबरन उनकी जेब में कुछ डॉलर डाल देते थे; पर लौटने पर वह वैसे ही रखे मिलते थे। वैश्विक प्रवास में ठण्डे देशों में वे कोट-पैंट पहन लेते थे; पर भारत में सदा वे धोती-कुर्ते में ही नजर आते थे।
1992 में वे दीनदयाल शोध संस्थान के अध्यक्ष बने। दिल्ली में उसका केन्द्रीय कार्यालय है। वहाँ अपने कक्ष में लगे वातानुकूलन यन्त्र (ए.सी.) को उन्होंने कभी नहीं खोला। उस कक्ष की आल्मारियाँ सदा खाली रहीं, उनमें ताला भी नहीं लगता था। क्योंकि उन पर निजी सामान कुछ विशेष था ही नहीं।
अलग-अलग जलवायु और खानपान वाले देशों में निरन्तर प्रवास के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया था। अंतिम कुछ महीनों में उन्हें गले सम्बन्धी अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयीं। इस कारण उनकी वाणी चली गयी। बहुत कठिनाई से कुछ तरल पदार्थ उनके गले से नीचे उतरते थे। फिर भी वे सबसे प्रसन्नता से मिलते थे तथा स्लेट पर लिखकर वार्तालाप करते थे।
दिसम्बर 2000 में मुम्बई में ‘विश्व संघ शिविर’ हुआ। खराब स्वास्थ्य के बावजूद वे वहाँ गये। विश्व भर के हजारों परिवारों में उन्हें बाबा, नाना, काका जैसा प्रेम और आदर मिलता था। यद्यपि वे बोल नहीं सकते थे; पर सबसे मिलकर वे बहुत प्रसन्न हुए। वहाँ सबके नाम लिखा उनका एक मार्मिक पत्र पढ़ा गया, जिसमें उन्होंने सबसे विदा माँगी थी।
उन्होंने सन्त तुकाराम के शब्दों को दोहराया - आमी जातो आपुल्या गावा, आमुचा राम-राम ध्यावा। पत्र पढ़ और सुनकर सबकी आँखें भीग गयीं। शिविर समाप्ति के एक सप्ताह बाद सात जनवरी, 2001 को उन्होंने सचमुच ही सबसे विदा ले ली।
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8 जनवरी/पुण्य-तिथि
राष्ट्र आराधन के स्वर चन्द्रकांत भारद्वाज
1920 ई. में चन्द्रकान्त जी का जन्म ग्राम किरठल (जिला बागपत, उ.प्र.) में वसंत पंचमी वाले दिन हुआ था। उनके पिता श्री देव शर्मा कोटा रियासत में अध्यापक थे। माता श्रीमती मंगला देवी भी धर्मप्रेमी महिला थीं। चन्द्रकान्त जी चार भाइयों में सबसे बड़े थे। दिल्ली में बी.एस-सी में पढ़ते समय वे स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़े। 1942 में पुरानी दिल्ली के किंग्जवे कैंप स्थित पीली कोठी को आग लगाने गयी स्वाधीनता सेनानियों की टोली में चन्द्रकान्त जी भी शामिल थे। वहाँ उन्हें गोली भी लगी थी।
1942 का आन्दोलन विफल होने के बाद चन्द्रकान्त जी संघ की ओर आकर्षित हुए। धीरे-धीरे चारों भाई शाखा में जाने लगे। यहाँ तक कि 1945 में मेरठ में लगे संघ शिक्षा वर्ग में चारों भाई प्रशिक्षण लेने आये थे।
1947 से 1952 तक चन्द्रकान्त जी उ.प्र. के अलीगढ़ और मैनपुरी में जिला प्रचारक रहे। प्रचारक जीवन से लौटकर उन्होंने बी.एड. किया और अध्यापक बन गये। 1954 में उन्होंने विमला देवी के साथ गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। शिक्षा में रुचि के कारण 1942 में गणित में एम.एस-सी करने के बाद उन्होंने 1962 में हिन्दी में एम.ए. और फिर 1966 में छन्दशास्त्र में पी-एच.डी की उपाधि ली।
चन्द्रकान्त जी को शुरू से ही साहित्य और विशेषकर काव्य के क्षेत्र में रुचि थी। देश में कोई भी घटना घटित होती, उनका कवि हृदय उसके अनुकूल कोई गीत लिख देता था। 1964-65 में दिल्ली में सरसंघचालक पूज्य श्री गुरुजी का भव्य सार्वजनिक कार्यक्रम में भाषण होना था। चन्द्रकान्त जी ने गीत लिखा - खड़ा हिमालय बता रहा है, डरो न आँधी पानी से।
निरंजन आप्टे ने यह गीत पूरे मनोयोग से गाया। गीत के शब्द, स्वर और लय से वातावरण भावुक हो गया। श्री गुरुजी ने कहा कि अब मुझे भाषण देने की आवश्यकता नहीं है। जो मैं कहना चाहता हूँ, वह इस गीत में कह दिया गया है। चन्द्रकान्त जी के छोटे भाई डा. श्रीकान्त जी भी अच्छे कवि हैं।
यह तो केवल एक उदाहरण है। ऐसे सैकड़ों गीत स्वयंसेवकों की जिह्ना पर चढ़कर अमर हुए हैं। ओ भगीरथ चरण चिन्हों पर उमड़ते आ रहे हम, बढ़ते जाना-बढ़ते जाना, विश्व मंगल साधना के हम हैं मौन पुजारी, राष्ट्र में नवतेज जागा, पुरानी नींव नया निर्माण.. आदि उनके प्रसिद्ध गीत हैं।
ऐसे ही अरुणोदय हो चुका वीर अब, ले चले हम राष्ट्र नौका को भंवर से पार कर, युग-युग से स्वप्न सँजोये जो, नया युग करना है निर्माण, हिन्दू जगे तो विश्व जगेगा, लोकमन संस्कार करना, मानवता के लिए उषा की, पथ का अंतिम लक्ष्य नहीं है....आदि गीतों की भी एक विराट मालिका है।
श्री चंद्रकांत भारद्वाज नाटक, उपन्यास, कहानी, निबन्ध लेखन, अनुवाद तथा सम्पादन में भी सिद्धहस्त थे। चरण कमल, खून पसीना और गीत तथा जागरण गीत नामक पुस्तक में उनके कुछ गीत संकलित हैं। हर्षवर्धन (नाटक) और शरच्चन्द्रिका (उपन्यास) भी प्रकाशित हुए हैं। इसके बाद भी उनका बहुत सा साहित्य अप्रकाशित है।
3 जनवरी को जगदीश चंद्र त्रिपाठी जी का प्रथम वर्ष का वर्ष ठीक करने की आवश्यकता है।
जवाब देंहटाएं🙏 श्री विजय जी, नमस्कार, कृपया ०६ जनवरी को भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की पुण्यतिथि को सम्मिलित करें।
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