दिसम्बर दूसरा सप्ताह

8 दिसम्बर/जन्म-दिवस

मानवतावादी कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’

कवि बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ का जन्म 8 दिसम्बर, 1897 को ग्राम म्याना (शाजापुर, म.प्र.) में एक धर्मप्रेमी परिवार में हुआ था। इनके जन्म के समय उनके पिता प्रसिद्ध तीर्थस्थल नाथद्वारा में रह रहे थे। शाजापुर से मिडिल और उज्जैन से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर ये उच्च शिक्षा के लिए कानपुर आ गये, जहाँ गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ से इनकी घनिष्ठता हो गयी।

छात्र जीवन में ही नवीन जी देश की स्वतन्त्रता के बारे में सोचने लगे थे। गणेशशंकर विद्यार्थी के साथ इन्होंने ‘प्रताप’ समाचार पत्र में सह सम्पादक का काम किया। लोकमान्य तिलक के आग्रह पर ये राजनीति में सक्रिय हुए। स्वतन्त्रता आन्दोलन की जेल यात्राओं में इनका सम्पर्क जवाहर लाल नेहरू, पुरुषोत्तम दास टंडन, रफी अहमद किदवई जैसे नेताओं से हुआ। गांधी जी और विनोबा भावे के प्रति भी उनके मन में अत्यधिक आदर का भाव था।

नवीन जी ने 1916 में लखनऊ में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में भाग लिया। वहाँ इनका सम्पर्क राजनेताओं के साथ-साथ माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त और रायकृष्ण दास जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों से भी हुआ, जो लगातार बना रहा। 1918 में साहित्यिक अभिरुचि बढ़ने पर इन्होंने ‘नवीन’ उपनाम अपनाया और अपनी रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में भेजने लगे। उस समय की प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका ‘सरस्वती’ में उनकी कहानियाँ और ‘प्रताप’ में क्रान्तिकारी आलेख प्रकाशित होने लगे।

भारत के स्वतन्त्र होने तक नवीन जी नौ बार जेल गये और कुल मिलाकर अपनी युवावस्था के 12 वर्ष उन्होंने कारागृह के सीखचों के पीछे बिताए; पर जेल जीवन का वे साहित्य सृजन में उपयोग करते थे। उनके साहित्य का बड़ा भाग जेल में ही रचा गया है। 1923 में पिताजी के देहांत के बाद से भी इनका मनोबल कम नहीं हुआ और इन्होंने आन्दोलनों में सहभागिता जारी रखी। 1956 में इन्हें सांसद के रूप में राज्यसभा में भेजा गया। हिन्दी के प्रति अनन्य निष्ठा के कारण उन्होंने हिन्दुस्तानी के नाम पर उर्दू को संविधान में नहीं घुसने दिया।

राजनीतिक यात्रा के इन पड़ावों के साथ इनकी साहित्य यात्रा भी चलती रही। रश्मिरेखा (1951), अपलक (1952), विनोबा स्तवन (1953) और उर्मिला 1957 में प्रकाशन हुई। 1953 में वे राजभाषा आयोग के उपाध्यक्ष बने तथा 1960 में उन्हें ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया गया। ‘नवीन’ जी की कृतियों में राष्ट्र, प्रकृति, दर्शन और मानव प्रेम के सर्वत्र दर्शन होते हैं। उन्होंने तत्कालीन परम्पराओं से हटकर साहित्य रचा और अपने ‘नवीन’ उपनाम को सार्थक किया। उन्होंने अल्बर्ट आइन्स्टीन के सापेक्षवाद को भी अपने काव्य का विषय बनाया। वे सदा अपने सहयोगियों को प्रोत्साहन देते थे। 

एक बार ‘उर्मिला’ पुस्तक को 'साहित्य अकादमी' का पुरस्कार मिलने वाला था। अनेक साहित्यकार इस पर सहमत थे; पर नवीन जी ने कहा कि मेरे अनुजों को यह पुरस्कार मिले, तो मुझे अधिक प्रसन्नता होगी। इसी प्रकार एक बार नवीन जी और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ दिल्ली विश्वविद्यालय में भाषण प्रतियोगिता के निर्णायक थे। वरिष्ठ होने के नाते नवीन जी को निर्णय की घोषणा करनी थी; पर उन्होंने इसके लिए दिनकर जी को आगे कर दिया।

लम्बी बीमारी के बाद 29 अपै्रल, 1960 को उनका देहान्त हुआ। उनके देहावसान के बाद भी ‘प्राणार्पण’ खण्ड काव्य और ‘हम विषपायी जनम के’ नामक पुस्तकों का प्रकाशन हुआ।
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9 दिसम्बर/जन्म-दिवस

अप्रतिम रचनाकार लक्ष्मीकान्त महापात्र

महाकवि लक्ष्मीकान्त महापात्र बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे कवि होने के साथ ही स्वतन्त्रता सेनानी भी थे। उन्होंने ओड़िया साहित्य को नया आयाम प्रदान किया तथा हजारों लोगों को स्वतन्त्रता संग्राम से जोड़ा। इनका साहित्य हर आयु एवं वर्ग के लोगों के मन को झकझोर देता था। इसीलिए राज्य की जनता ने उन्हें ‘कान्तकवि’ की उपाधि देकर सम्मानित किया। 

एक अपै्रल, 1936 को भाषाई आधार पर उड़ीसा पहला राज्य बना। इसके निर्माण में भी इनकी लेखनी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इनका जन्म 9 दिसम्बर, 1888 को कटक के धुआँपत्रिया में हुआ था। श्री महापात्र की कविता, कहानियाँ तथा अन्य रचनाएँ ओड़िया साहित्य का अभिन्न अंग हैं। इनके एक गीत ‘बन्दे उत्कल जननी’ को उड़ीसा के राज्यगान का स्थान दिया गया है। यह गीत अत्यन्त हृदयस्पर्शी है। 

श्री महापात्र ने ओड़िया भाषा के साहित्य को तब सँभाला एवं सँवारा, जब उसका अस्तित्व खतरे में था। ऐसे समय में उन्होंने अपनी तेजस्वी और प्रखर लेखनी से ओड़िया भाषा एवं संस्कृति पर हो रहे आक्रमण के विरुद्ध जनता में चेतना जगायी और इस संघर्ष में सफलता प्राप्त की।

श्री महापात्र ने न केवल ओजपूर्ण कविताओं की रचना की, अपितु अनेक प्रकार के हास्य व्यंग्य, कहानियाँ, नाटक एवं उपन्यास भी लिखे। इतना ही नहीं, तो वे एक अच्छे गायक एवं अभिनेता भी थे। अपने गीतों को गाकर तथा अपने नाटकों में अभिनय कर उन्होंने जनता को जाग्रत किया। खराब स्वास्थ्य के बाद भी वे इस काम में सदा सबसे आगे रहते थे। उनके लेख जहाँ राष्ट्रवाद की भावना जगाते हैं, वहाँ एक वृद्ध चूड़ी वाले के जीवन पर लिखी कहानी ‘बुढा शंखारी’ उसके जीवन के हर पहलू का सजीव वित्रण कर पाठक को रोने पर मजबूर कर देती है। 

श्री महापात्र मूलतः ओड़िया भाषा के साहित्यकार थे; पर उन्होंने अंग्रेजी भाषा में भी अपनी लेखनी चलाई। उन्होंने उस समय ख्याति प्राप्त ऑब्जर्वर तथा करेण्ट अफेयर्स नामक पत्रिकाओं में लेख लिखे। उनकी एक रचना ‘म्यूजिक ऑफ विसिल’ से एक फ्रैंच महिला इतनी प्रभावित हुई कि उसने इसका अपनी भाषा में अनुवाद किया, जिससे उसके देश के लोग इसे पढ़ सकें।

श्री महापात्र के पिता श्री भागवत प्रसाद एक राजनेता थे, जबकि उनकी माता श्रीमती राधामणि देवी वेद और उपनिषदों की अच्छी जानकार थीं। उनके दोनों भाई सीताकान्त व कमलाकान्त तथा बहिन कोकिला देवी भी स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय थे। इस कारण स्वाभाविक रूप से घर-परिवार में धर्म, देश, समाज, गुलामी और राजनीति की चर्चा प्रायः होती थी। अतः राजनीति एवं समाज सेवा के संस्कार लक्ष्मीकान्त पर बालपन से ही पड़े। आगे चलकर वे चार बार उड़ीसा-बिहार विधानसभा के सदस्य बने तथा दो बार उन्होंने सदन के उपाध्यक्ष का पद भी सँभाला। 

श्री लक्ष्मीकान्त महापात्र ने दहेज के अभाव में कई कन्याओं के जीवन बिगड़ते हुए देखे। इससे उन्हें बहुत पीड़ा हुई और उन्होंने दहेज प्रथा के उन्मूलन के अथक प्रयास किये। उनकी साहित्य एवं समाज के प्रति सेवाओं को देखकर उत्कलमणि गोपबन्धु दास एवं उत्कल गौरव मधुसूदन दास ने भी उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। 24 फरवरी, 1953 को उनके निधन से न केवल ओड़िया, अपितु सम्पूर्ण भारतीय साहित्य की अपूरणीय क्षति हुई।
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10 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

सोनाखान के हुतात्मा वीर नारायण सिंह

छत्तीसगढ़ भारत का एक वन सम्पदा से भरपूर राज्य है। पहले यह मध्य प्रदेश का ही एक भाग था। अंग्रेजी शासन में जब दत्तक पुत्र को अस्वीकार करने का निर्णय हुआ, तो छत्तीसगढ़ भी अंग्रेजों के अधीन आ गया। 

रायपुर में अंग्रेजों ने एक कमिश्नरी की स्थापना की थी। वहाँ पर ही एक छोटी सी रियासत थी सोनाखान। यहाँ की मिट्टी में सोने के कण मिलते थे, इस कारण इसका नाम सोनाखान पड़ा। यहाँ के जमींदार थे बिंझवार राजपूत घराने के वीर नारायण सिंह। वे बहुत वीर और स्वाभिमानी थे।

नारायण सिंह के पिता रामराय सिंह का देहान्त 1830 में हुआ। इसके बाद जमींदारी की देखरेख नारायण सिंह के जिम्मे आयी। उन्होंने अपने पिता का अनुसरण करते हुए अपने क्षेत्र की जनता के हित के लिए व्यवस्था बनाई। इससे वे बहुत लोकप्रिय हो गये और लोग उन्हें राजा मानने लगे। 

1856 में वर्षा न होने के कारण खेती सूख गयी, तो नारायण सिंह ने अपना निजी अन्न का भंडार खोल दिया। जब उससे भी काम नहीं चला, तो उन्होंने कसड़ोल के एक व्यापारी माखनसिंह से अन्न माँगा। माखनसिंह अंग्रेजों का पिट्ठू था, उसने अन्न देना तो दूर, ऐसे कठिन समय में लोगों से जबरन लगान वसूलना शुरू कर दिया।  इससे नारायण सिंह क्रोध में भर गये। उन्होंने माखनसिंह का अन्न भंडार लूट कर जनता में बाँट दिया। माखनसिंह की शिकायत पर रायपुर के डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स डी इलियट ने नारायण सिंह को बन्दी बनाकर रायपुर के कारागार में डाल दिया।

उधर उत्तर भारत में देशव्यापी स्वतन्त्रता युद्ध की योजना बन रही थी। नाना साहब द्वारा उसकी सूचना रोटी और कमल के माध्यम से देश भर की सैनिक छावनियों में भेजी जा रही थी। यह सूचना जब रायपुर पहुँची, तो सैनिकों ने कुछ देशभक्त जेलकर्मियों के सहयोग से कारागार से बाहर तक एक गुप्त सुरंग बनायी और नारायण सिंह को मुक्त करा लिया।

जेल से मुक्त होकर वीर नारायण सिंह ने 500 सैनिकों की एक सेना गठित की और 20 अगस्त, 1857 को सोनाखान में स्वतन्त्रता का बिगुल बजा दिया। इलियट ने स्मिथ नामक सेनापति के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना भेज दी। पर नारायण सिंह ने भी कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। उन्होंने सोनाखान से अचानक बाहर निकल कर ऐसा धावा बोला कि अंग्रेजी सेना को भागते भी नहीं बना; पर दुर्भाग्यवश सोनाखान के आसपास के अनेक जमींदार अंग्रेजों से मिल गये। इस कारण नारायण सिंह को पीछे हटकर एक पहाड़ी की शरण में जाना पड़ा। अंग्रेजों ने सोनाखान में घुसकर पूरे नगर को आग लगा दी।

नारायण सिंह में जब तक शक्ति और सामर्थ्य रही, वे छापामार प्रणाली से अंग्रेजों को परेशान करते रहे। काफी समय तक यह गुरिल्ला युद्ध चलता रहा; पर आसपास के जमींदारों की गद्दारी से नारायण सिंह फिर पकड़े गये और उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। कैसा आश्चर्य कि जनता ने जिसे राजा के रूप में अपने हृदय मन्दिर में बसाया, उस पर राजद्रोह का मुकदमा ? पर अंग्रेजी शासन में न्याय का नाटक ऐसे ही होता था। 

मुकदमे में वीर नारायण सिंह को मृत्युदंड दिया गया। उन्हें 10 दिसम्बर, 1857 को जहाँ फाँसी दी गयी, स्वातंत्र्य प्राप्ति के बाद वहाँ ‘जय स्तम्भ’ बनाया गया, जो आज भी छत्तीसगढ़ के उस वीर सपूत की याद दिलाता है।
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10 दिसम्बर/पुण्य-तिथि

कार्यकर्ताओं के कुशल शिल्पी बाबूलाल जी

श्री बाबूलाल जी का जन्म उ.प्र. के बुलन्दशहर जिले की स्याना तहसील में हुआ था। उनके पिता पुलिस विभाग में थानेदार थे। चार भाइयों में बाबूलाल जी का क्रमांक तीसरा था। प्रारम्भिक शिक्षा अपने गांव और फिर स्याना में पाकर उन्होंने पीलीभीत के शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय से आयुर्वेदाचार्य की डिग्री प्राप्त की। पीलीभीत में पढ़ते समय ही उनका संपर्क संघ से हुआ।

आयुर्वेदाचार्य की डिग्री पाकर वे बड़े आराम से सरकारी नौकरी पा सकते थे या फिर स्वतंत्र चिकित्सक के रूप में धन कमा सकते थे; पर उन्होंने इन सबसे दूर रहते हुए प्रचारक व्रत स्वीकार कर लिया। सर्वप्रथम उन्हें पीलीभीत जिले की बीसलपुर तहसील का ही काम दिया गया। प्रचारक जीवन की इस यात्रा में वे क्रमशः शाहजहांपुर, बरेली, रायबरेली आदि कई स्थानों पर रहे। 

1969 में वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के रायबरेली में जिला प्रचारक बनाये गये। उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। अतः जिले भर में वे अपनी साइकिल से ही प्रवास करते थे। राजनीतिक रूप से भी यह क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ था; पर बाबूलाल जी ने हिम्मत नहीं हारी। 

वे पुराने कार्यकर्ताओं के पास बैठकर धैर्य से उनकी बात सुनते थे। इससे कार्यकर्ता का मन साफ हो जाता था और वह फिर काम में लग जाता था। इसके बाद वे नये कार्यकर्ताओं के निर्माण की ओर ध्यान लगाते थे। इस प्रकार उन्होंने अनेक नये प्रचारक बनाये। संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक श्री कौशल किशोर जी रायबरेली के ही निवासी थे। उनकी वृद्ध माताजी बाबूलाल जी को पुत्रवत स्नेह देती थीं।

आपातकाल के दिनों में वे रायबरेली में ही थे। जब संघ पर लगाये गये प्रतिबंध के विरोध में सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ, तो इंदिरा गांधी का चुनाव क्षेत्र होने के कारण शासन चाहता था कि यहां कोई हलचल न हो; पर बाबूलाल जी के प्रयास से कई सैकड़ों लोगों ने सत्याग्रह किया। इससे पुलिस और प्रशासन को डांट पड़ी और वे इनके सूत्रधार बाबूलाल जी को तेजी से तलाशने लगे। 

उन दिनों प्रचारकों को बाहर रहकर ही सत्याग्रह संचालित करने का आदेश था; पर बाबूलाल जी को वहां काफी लोग पहचानते थे। अतः वे पुलिस की निगाह में आ गये और उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया; परन्तु इसके बाद भी सत्याग्रह का क्रम नहीं रुका। इसका श्रेय निःसंदेह बाबूलाल जी द्वारा निर्मित परिपूर्ण योजना तथा ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ताओं की टोली को जाता है।

आपातकाल में हुए चुनाव में इंदिरा गांधी बुरी तरह पराजित हुई। संघ से प्रतिबंध हटा और शाखाएं फिर से चलने लगीं। अब संघ के शीर्ष नेतृत्व ने विविध क्षेत्र के कार्यों को प्रभावी बनाने के लिए कई अनुभवी कार्यकर्ताओं को उनमें लगाया। बाबूलाल जी भी ‘विश्व हिन्दू परिषद’ में बरेली संभाग के संगठन मंत्री बनाये गये। 

इस क्षेत्र में वे अनेक स्थानों पर प्रचारक रह चुके थे। अतः उन्होंने व्यापक प्रवास कर नये व पुराने कार्यकर्ताओं को सक्रिय किया। सैकड़ों सत्संग तथा सेवा के कार्य प्रारम्भ कराये। उनके परिश्रम से ‘एकात्मता रथ यात्रा’ तथा ‘संस्कृति रक्षा निधि’ के कार्यक्रमों को काफी सफलता मिली। 

जब बाबूलाल जी को ऐसा लगा कि अब अधिक भागदौड़ संभव नहीं है, तो वे लखनऊ में विद्या भारती के निराला नगर परिसर में ही रहने लगे। रायबरेली के लोगों में उनके प्रति बहुत स्नेह व आदर था। अतः सबके आग्रह पर वे रायबरेली चले गये। कार्यालय पर उनसे मिलने कार्यकर्ता सपरिवार आते थे। सब उन्हें अपने परिवार का ही बुजुर्ग एवं संरक्षक मानते थे।

10 दिसम्बर, 2001  को  निराला नगर, लखनऊ में एक शिविर के दौरान अति प्रातः चार बजे उनका निधन हुआ। सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी आदि कई वरिष्ठजन भी वहां उपस्थित थे। उन सबने श्रद्धांजलि देकर उन्हें रायबरेली के लिए विदा किया, जहां उनका अंतिम संस्कार किया गया।


(संदर्भ : श्री मुकेश कक्कड़, जिला संघचालक, रायबरेली)
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11 दिसम्बर/जन्म-दिवस                  

रामभक्त लक्ष्मण माधव देशपांडे 

संघ में कई कार्यकर्ता ऐसे हुए हैं, जिन्होंने मार्ग की बाधाओं को धैर्यपूर्वक पार कर संघ कार्य किया है। श्री लक्ष्मण माधव देशपांडे ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। उनका प्रचलित नाम बाबूराव देशपांडे था। उनका जन्म 11 दिसम्बर, 1913 को ग्राम मंगरूल दस्तगीर (जिला अमरावती, महाराष्ट्र) में हुआ था। कक्षा आठ तक की शिक्षा उन्होंने अपनी बड़ी बहिन के पास आर्वी में रहकर पायी थी। वहीं उनका साक्षात्कार संघ के संस्थापक पूज्य डा0 हेडगेवार से हुआ।

आगे पढ़ने के लिए वे नागपुर आ गये तथा वहां धंतोली शाखा में जाने लगे। वहां श्री मोरोपंत पिंगले से वे बहुत प्रभावित हुए। 1938 में उन्होंने संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूरा किया। उनकी इच्छा प्रचारक बन कर संघ कार्य करने की थी; पर उसी वर्ष उनके पिताजी का देहांत हो गया। घर में सबसे बड़े होने के कारण पूरे परिवार की जिम्मेदारी उन पर आ गयी।

बाबूराव के छोटे भाई नेत्रहीन थे; पर कुछ समय बाद उन्हें नागपुर में एक नौकरी मिल गयी और पूरा परिवार नागपुर आ गया। घर की स्थिति सुधरते ही 1941 में उन्होंने अपने संकल्प के अनुसार प्रचारक बनकर घर छोड़ दिया। 

उन्हें वर्धा जिले का प्रचारक नियुक्त किया गया। 1945 में उन्हें बिहार भेजा गया। वहां छपरा, आरा, छोटा नागपुर आदि में उन्होंने 10 वर्ष तक काम किया। बिहार के बाद उन्हें उड़ीसा में संबलपुर विभाग प्रचारक का दायित्व मिला। श्री गुरुजी के प्रवास के समय वहां बाबूराव ने बहुत सुंदर रेखांकन किया। इस पर श्री गुरुजी ने कहा, लगता है संबलपुर में वर्धा अवतीर्ण हो गया है।

1964 में राउरकेला के जातीय दंगों में वे तीन मास तक जेल में और फिर तड़ीपार रहे। वहां वे अपना भोजन स्वयं बनाते थे। मराठी भोजन का आनंद लेने के लिए कभी-कभी जेल के अधिकारी भी उसमें सहभागी हो जाते थे। आपातकाल में भी वे संबलपुर जेल में रहे। इसके बाद वे पुरी विभाग प्रचारक, प्रांत संपर्क प्रमुख और फिर कटक के प्रांतीय कार्यालय पर भी रहे। उत्कल में उन दिनों संघ का काम प्रारम्भिक स्थिति में था। परिवारों में भोजन की व्यवस्था नहीं हो पाती थी। ऐसे में वे अपने तथा कार्यालय में उपस्थित सभी लोगों के लिए रुचिपूर्वक मराठी शैली का भोजन बनाते थे। 

1967 में उड़ीसा में पहली बार अलग से संघ शिक्षा वर्ग करने की अनुमति मिली; पर केन्द्रीय अधिकारियों की शर्त थी कि संख्या 100 से कम न रहे। बाबूराव के विभाग में स्थित झारसुगड़ा में यह वर्ग हुआ। उनकी देखरेख में व्यवस्था तो अच्छी थी ही; पर संख्या का लक्ष्य भी पूरा हुआ। 

उस वर्ग में एक बार भारी वर्षा से बौद्धिक पंडाल गिर गया; पर बाबूराव ने रात भर परिश्रम कर उसे फिर से खड़ा किया तथा गीली भूमि पर चूना डालकर उसे बैठने लायक बना दिया। इसके बाद भी उन्होंने विश्राम लिये बिना अगले दिन के सब निर्धारित कार्यक्रम पूरे किये।

श्री रामजन्मभूमि के लिए हुई प्रथम कारसेवा में वे काफी वृद्ध होने के बावजूद अपने गांव मंगरूल से अयोध्या तक पैदल गये। पूछने पर वे कहते थे - श्री राम से मिलने के लिए जाना लक्ष्मण का स्वाभाविक कर्तव्य है। 

उड़ीसा के प्रथम प्रांत प्रचारक श्री बाबूराव पालधीकर के देहांत के बाद वे नागपुर के केन्द्रीय कार्यालय, डा0 हेडगेवार भवन में आ गये। 96 वर्ष की आयु में 14 मई, 2009 को नागपुर में ही उनका देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार उनके नेत्र दान कर दिये गये। बाबूराव देशपांडे स्वभाव से व्यवस्था प्रिय तथा स्वावलम्बी थे। वे सदा शुभ्र वेष पहनते थे। उन्होंने जीवन भर स्वदेशी व्रत का पालन किया। उड़ीसा के कार्यकर्ताओं पर उनके व्यवहार और कार्यशैली की अमिट छाप है। 

(संदर्भ  : श्री अरविंद चौथाइवाले)
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11 दिसम्बर/जन्म-दिवस                  

कर्मठ कार्यकर्ता बालासाहब देवरस

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कार्यपद्धति के निर्माण एवं विकास में जिनकी प्रमुख भूमिका रही है, उन श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस का जन्म 11 दिसम्बर, 1915 को नागपुर में हुआ था। वे बालासाहब के नाम से अधिक परिचित हैं। वे ही आगे चलकर संघ के तृतीय सरसंघचालक बने। 

बालासाहब ने 1927 में शाखा जाना शुरू किया। धीरे-धीरे उनका सम्पर्क डा0 हेडगेवार से बढ़ता गया। उन्हें मोहिते के बाड़े में लगने वाली सायं शाखा के ‘कुश पथक’ में शामिल किया गया। इसमें विशेष प्रतिभावान छात्रों को ही रखा जाता था। बालासाहब खेल में बहुत निपुण थे। कबड्डी में उन्हें विशेष मजा आता था; पर वे सदा प्रथम श्रेणी पाकर उत्तीर्ण भी होते थे। 

बालासाहब देवरस बचपन से ही खुले विचारों के थे। वे कुरीतियों तथा कालबाह्य हो चुकी परम्पराओं के घोर विरोधी थे। उनके घर पर उनके सभी जातियों के मित्र आते थे। वे सब एक साथ खाते-पीते थे। प्रारम्भ में उनकी माताजी ने इस पर आपत्ति की; पर बालासाहब के आग्रह पर वे मान गयीं। 

कानून की पढ़ाई पूरी कर उन्होंने नागपुर के ‘अनाथ विद्यार्थी वसतिगृह’ में दो वर्ष अध्यापन किया। इन दिनों वे नागपुर के नगर कार्यवाह रहे। 1939 में वे प्रचारक बने, तो उन्हें कोलकाता भेजा गया; पर 1940 में डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद उन्हें वापस नागपुर बुला लिया गया। 1948 में जब गांधी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया, तो उसके विरुद्ध सत्याग्रह के संचालन तथा फिर समाज के अनेक प्रतिष्ठित लोगों से सम्पर्क कर उनके माध्यम से प्रतिबन्ध निरस्त कराने में बालासाहब की प्रमुख भूमिका रही।

1940 के बाद लगभग 30-32 साल तक उनकी गतिविधियों का केन्द्र मुख्यतः नागपुर ही रहा। इस दौरान उन्होंने नागपुर के काम को आदर्श रूप में खड़ा किया। देश भर के संघ शिक्षा वर्गों में नागपुर से शिक्षक जाते थे। नागपुर से निकले प्रचारकों ने देश के हर प्रान्त में जाकर संघ कार्य खड़ा किया। 

1965 में वे सरकार्यवाह बने। शाखा पर होने वाले गणगीत, प्रश्नोत्तर आदि उन्होंने ही शुरू कराये। संघ के कार्यक्रमों में डा0 हेडगेवार तथा श्री गुरुजी के चित्र लगते हैं। बालासाहब के सरसंघचालक बनने पर कुछ लोग उनका चित्र भी लगाने लगे; पर उन्होंने इसे रोक दिया। यह उनकी प्रसिद्धि से दूर रहने की वृत्ति का ज्वलन्त उदाहरण है।

1973 में श्री गुरुजी के देहान्त के बाद वे सरसंघचालक बने। 1975 में संघ पर लगे प्रतिबन्ध का सामना उन्होंने धैर्य से किया। वे आपातकाल के पूरे समय पुणे की जेल में रहे; पर सत्याग्रह और फिर चुनाव के माध्यम से देश को इन्दिरा गांधी की तानाशाही से मुक्त कराने की इस चुनौती में संघ सफल हुआ। मधुमेह रोग के बावजूद 1994 तक उन्होंने यह दायित्व निभाया। 

इस दौरान उन्होंने संघ कार्य में अनेक नये आयाम जोड़े। इनमें सबसे महत्वपूर्ण निर्धन बस्तियों में चलने वाले सेवा के कार्य हैं। इससे वहाँ चल रही धर्मान्तरण की प्रक्रिया पर रोक लगी। स्वयंसेवकों द्वारा प्रान्तीय स्तर पर अनेक संगठनों की स्थापना की गयी थी। बालासाहब ने वरिष्ठ प्रचारक देकर उन सबको अखिल भारतीय रूप दे दिया। मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद एकात्मता यात्रा तथा फिर श्रीराम मंदिर आंदोलन के दौरान हिन्दू शक्ति का जो भव्य रूप प्रकट हुआ, उसमें इन सब संगठनों के काम और प्रभाव की व्यापक भूमिका है।

जब उनका शरीर प्रवास योग्य नहीं रहा, तो उन्होंने प्रमुख कार्यकर्ताओं से परामर्श कर यह दायित्व मा0 रज्जू भैया को सौंप दिया। 17 जून, 1996 को उन्होंने अन्तिम श्वास ली। उनकी इच्छानुसार उनका दाहसंस्कार रेशीमबाग की बजाय नागपुर में सामान्य नागरिकों के शमशान घाट में किया गया।
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11 दिसम्बर/रोचक-प्रसंग

प्रतिबंध के विरुद्ध रोचक सत्याग्रह

1948 में गांधी जी की हत्या का झूठा आरोप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगाकर उसे प्रतिबंधित कर दिया गया। प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू खुद को परम सेक्यूलर मानते थे। अतः हिन्दुओं का संगठन उनकी आंखों में चुभता था। उन्हें लगता था कि आगे चलकर संघ राजनीति में आकर उन्हें सत्ता से हटा देगा। अतः वे संघ को कुचलना चाहते थे। प्रतिबंध का उद्देश्य भी यही था। सरदार पटेल सब जानते हुए भी नेहरू के आगे चुप रहते थे।

संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी ने पहले तो पटेल और नेहरू को पत्र लिखकर समझाने का प्रयास किया; पर जब बात नहीं बनी, तो नौ दिसम्बर, 1948 से पूरे देश में सत्याग्रह शुरू कर दिया गया। सत्याग्रह की सूचना पुलिस प्रशासन और स्थानीय मीडिया को पहले दे दी जाती थी। फिर घोषित संख्या में स्वयंसेवक वहां शाखा लगाते थे। प्रार्थना के बाद कुछ देर जनता के बीच भाषण होते थे। इसके बाद पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर लेती थी।

लखनऊ में सत्याग्रह का केन्द्र अमीनाबाद पार्क को बनाया गया था। सत्याग्रह के दूसरे दिन 10 दिसम्बर, 1948 को प्रार्थना, शाखा विसर्जन और भाषण आदि के बाद पुलिस स्वयंसेवकों को पकड़कर थाने ले गयी; पर एक स्वयंसेवक साधुराम वहीं छूट गया। वह सिन्ध से आये हुए विस्थापित परिवार से था। उसकी आवाज बहुत मधुर थी तथा वह भाषण भी बहुत अच्छा देता था। वह उपस्थित जनसमूह के सामने ‘‘हम मातृभूमि के सेवक हैं...’’ गीत गाने लगा। इससे जाते हुए लोग रुक गये। यह देखकर उसने भाषण शुरू कर दिया।

उसका भाषण इतना प्रभावी था कि लोग नारे लगाते हुए उसके पीछे चलते हुए थाने की ओर जाने लगे। पुलिस को किसी ने बताया तो उसे विश्वास नहीं हुआ। चूंकि सभी सत्याग्रही थाने में ही थे; पर कुछ देर बाद नारों का स्वर थाने तक पहुंचने लगा। इस पर पुलिस ने जाकर साधुराम को भी गिरफ्तार किया। इससे पुलिस की बहुत किरकिरी हुई। अतः उसने आदेश जारी कर दिया कि अमीनाबाद पार्क में अब कोई सत्याग्रह नहीं होगा।

अगले दिन सत्याग्रह का नेतृत्व संघ के प्रचारक शिवप्रसाद जी को करना था। उन्होंने दिन में सत्याग्रह के प्रमुख वलदीप चंद के साथ स्थान का निरीक्षण किया, तो देखा कि वहां पुलिस का कड़ा पहरा है। पार्क के चारों ओर तारबाड़ भी लगी थी। कुछ कार्यकर्ताओं ने स्थान बदलने को कहा; पर इससे जनता में गलत संदेश जाता तथा संघ की विश्वसनीयता पर आंच आती। अतः पुलिस की चुनौती स्वीकार कर हर हाल में वहीं सत्याग्रह का निश्चय किया गया।

शिवप्रसाद जी के जत्थे में 45 लोगों को शाम को पांच बजे सत्याग्रह करना था। उन्होंने सबको कह दिया कि तुम सब पार्क के आसपास ही रहना, मैं समय पर अंदर पहुंच जाऊंगा। पुलिस के प्रतिबंध के कारण जनता में भी बहुत उत्सुकता थी। अतः पहले दो दिन से अधिक लोग पांच बजे से पहले ही पार्क के आसपास आ गये। सत्याग्रही भी उनमें ही शामिल हो गये।

सब लोग चिंतित थे कि क्या होगा; पर शिवप्रसाद जी पांच बजे से एक मिनट पहले ही पार्क में पहुंच गये। उन्होंने वहां पहुंचकर सीटी बजाई। जब तक पुलिस कुछ समझ पाती, सभी 45 स्वयंसेवक नारे लगाते हुए पार्क में घुस गये और सत्याग्रह शुरू हो गया। असल में पार्क के एक तरफ पंजाब और सिंध से आये विस्थापित झोपडि़यों में रह रहे थे। उस ओर पुलिस का पहरा नहीं था। शिवप्रसाद जी उनके नीचे से खिसकते हुए समय पर पार्क में पहुंच गये।

प्रार्थना शुरू होते ही पुलिस ने स्वयंसेवकों को पकड़कर अपने वाहनों में पटकना शुरू कर दिया। सत्याग्रहियों का चोट तो आयी; पर इससे जनता के मन में संघ के प्रेम बढ़ गया, जबकि पुलिस की फिर भारी किरकरी हुई।

(पहली अग्नि परीक्षा/135, अर्चना प्रकाशन, भोपाल)

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12 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

महान सेनानी जनरल जोरावर सिंह

लद्दाख जिस वीर सेनानी के कारण आज भारत में है, उनका नाम है जनरल जोरावर सिंह। 13 अपै्रल, 1786 को इनका जन्म ग्राम अनसरा (जिला हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) में ठाकुर हरजे सिंह के घर में हुआ था। 

हरजे सिंह बिलासपुर की कहलूर रियासत में काम करते थे। अतः गाँव की खेती उनके भाई देखते थे। 16 वर्ष की अवस्था में जोरावर का अपने चाचा से विवाद हो गया। अतः ये घर छोड़कर हरिद्वार, लाहौर और फिर जम्मू पहुँचकर महाराजा गुलाब सिंह की डोगरा सेना में भर्ती हो गये।

राजा ने इनके सैन्य कौशल से प्रभावित होकर कुछ समय में ही इन्हें सेनापति बना दिया। वे अपनी विजय पताका लद्दाख और बाल्टिस्तान तक फहराना चाहते थे। अतः जोरावर सिंह ने सैनिकों को कठिन परिस्थितियों के लिए प्रशिक्षित किया और लेह की ओर कूच कर दिया। किश्तवाड़ के मेहता बस्तीराम के रूप में इन्हें एक अच्छा सलाहकार मिल गया। 

यह समाचार सुनकर सुरू के तट पर वकारसी ने 200 सैनिकों के साथ तथा दोरजी नामग्याल ने 5,000 सैनिकों के साथ सुनकू में मुकाबला किया; पर हारकर वे रूसी दर्रे (जोत) से होकर शोरगुल की ओर भाग गये। डोगरा सेना लेह में घुस गयी। इस प्रकार लद्दाख जम्मू राज्य के अधीन हो गया।

अब जोरावर ने बाल्टिस्तान पर हमला किया। लद्दाखी सैनिक भी अब उनके साथ थे। अहमदशाह ने जब देखा कि उसके सैनिक बुरी तरह कट रहे हैं, तो उसे सन्धि करनी पड़ी। जोरावर ने उसके बेटे को गद्दी पर बैठाकर 7,000 रु. वार्षिक जुर्माने का फैसला कराया। अब उन्होंने तिब्बत की ओर कूच किया। हानले और ताशी गांग को पारकर वे आगे बढ़ गये। 

अब तक जोरावर सिंह और उनकी विजयी सेना का नाम इतना फैल चुका था कि रूडोक तथा गाटो ने बिना युद्ध किये हथियार डाल दिये। अब ये लोग मानसरोवर के पार तीर्थपुरी पहुँच गये। 8,000 तिब्बती सैनिकों ने परखा में मुकाबला किया, पर वे पराजित हुए। जोरावर सिंह तिब्बत, भारत तथा नेपाल के संगम स्थल तकलाकोट तक जा पहुँचे। वहाँ का प्रबन्ध उन्होंने मेहता बस्तीराम को सौंपा तथा वापस तीर्थपुरी आ गये।

यह देखकर अंग्रेजों के कान खड़े हो गये। उन्होंने पंजाब के राजा रणजीत सिंह पर उन्हें नियन्त्रित करने का दबाव डाला। निर्णय हुआ कि 10 दिसम्बर, 1841 को तिब्बत को उसका क्षेत्र वापस कर दिया जाये। इसी बीच जनरल छातर की कमान में दस हजार तिब्बती सैनिकों की 300 डोगरा सैनिकों से मुठभेड़ हुई। राक्षसताल के पास वे सब मारे गये। जोरावर सिंह ने गुलामखान तथा नोनो के नेतृत्व में सैनिक भेजे; पर वे सब भी मारे गये।

अब वीर जोरावर सिंह स्वयं आगे बढ़े। वे तकलाकोट को युद्ध का केन्द्र बनाना चाहते थे; पर तिब्बतियों की विशाल सेना ने 10 दिसम्बर, 1841 को टोयो में इन्हें घेर लिया। दिसम्बर की भीषण बर्फीली ठण्ड में तीन दिन तक घमासान युद्ध चला। 

12 दिसम्बर को जोरावर सिंह को गोली लगी और वे घोड़े से गिर पड़े। डोगरा सेना तितर-बितर हो गयी। तिब्बती सैनिकों में जोरावर सिंह का इतना भय था कि उनके शव को स्पर्श करने का भी वे साहस नहीं कर पा रहे थे। बाद में उनके अवशेषों को चुनकर एक स्तूप बना दिया गया।

‘सिंह छोतरन’ नामक यह खंडित स्तूप आज भी टोयो में देखा जा सकता है। तिब्बती इसकी पूजा करते हैं। इस प्रकार जोरावर सिंह ने भारत की विजय पताका भारत से बाहर तिब्बत और बाल्टिस्तान तक फहरायी।
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12 दिसम्बर/बलिदान-दिवस

थोगन संगमा का बलिदान

1857 के स्वाधीनता समर में भारतीयों को अपेक्षित सफलता नहीं मिली; फिर भी संघर्ष लगातार जारी रहा। भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र यद्यपि शिक्षा और आर्थिक स्थिति में दुर्बल था, फिर भी वहाँ के वीरों ने इस संघर्ष की अग्नि को धीमा नहीं पड़ने दिया। 

अंग्रेज मेघालय स्थित गारो पहाड़ को अपने कब्जे में करना चाहते थे; पर स्थानीय वनवासी वीरों ने अपने मुखिया थोगन नेगमेइया संगमा के नेतृत्व में उन्हें नाकों चने चबवा दिये। संगमा ने स्थानीय युवकों को संगठित कर अंग्रेजों से लम्बा संघर्ष किया। 

थोगन संगमा का जन्म ग्राम छिद्दुलिबरा, जिला सिंगसान गिरी (वर्तमान नाम विलियम नगर) में हुआ था। बचपन से ही उनमें नेतृत्व के गुण थे, अतः वह कई गाँवों के मुखिया बन गये। वे एक कुशल प्रशासक थे। उन्होंने उन गाँवों के लोगों को कठोर दण्ड दिया, जिन्होंने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इससे उनकी धाक सब ओर जम गयी। थोगन संगमा ने ने गाँव-गाँव घूमकर युवकों को संघर्ष के लिए तैयार किया। इस कार्य में दालबोट सिरा नामक वनवासी वीर उनका सहयोगी था; पर इससे अंग्रेज संगमा को अपनी आँख का काँटा समझने लगे।

गारो पहाड़ पर अधिकार करने के लिए अंग्रेजों ने एक साथ तीन ओर से हमला किया। पहला वर्तमान बंगलादेश में स्थित जिला मैमनसिंह, दूसरा ग्वालपाड़ा और तीसरा धावा बर्मा की ओर से बोला गया। अंग्रेज आधुनिक हथियारों से लैस थे, जबकि वनवासियों के पास उनके पारम्परिक तीर-कमान आदि ही थे। बांग्लादेश की ओर से आ रहे कैप्टन डली को सबसे कम दूरी तय करनी थी, अतः उसने सोमेश्वरी नदी के तट पर अपनी छावनी बनायी और शेष दोनों टुकड़ियों की प्रतीक्षा करने लगा। 

जब थोगन के साथियों को यह पता लगा कि कैप्टन डली की टुकड़ी अपने अन्य साथियों की प्रतीक्षा कर रही है, तो उन्होंने पहले हमला करने की रणनीति अपनायी और धावा बोलकर छावनी में आग लगा दी; पर अंग्रेजों की बन्दूकों और आधुनिक शस्त्रों के आगे वनवासियों के हथियार बेकार सिद्ध हुए। अतः उनका हमला विफल रहा; पर थोगन और उसके साथियों ने हार नहीं मानी। वे साहस के साथ नये संघर्ष की तैयारी करने लगे। 

अंग्रेजों को भी सब सूचना मिल रही थी। इधर कैप्टन केरी और कैप्टन विलियम की टुकड़ियाँ भी आ पहुँची। इससे अंग्रेजों की शक्ति बढ़ गयी। उन्होंने तूरा पर नया हमला किया। अब थोगन ने लोहे के गरम तवों को केले के तनों से ढाँपकर ढाल और कवच बनाये; पर इससे क्या होने वाला था ? फिर भी संगमा ने अच्छी टक्कर ली। अनेक अंग्रेज सैनिक हताहत हुए। अंग्रेज अधिकारी इससे घबरा गये। अब उन्होंने धोखे का सहारा लिया। उन्होंने सूचना भेजकर 12 दिसम्बर, 1872 को वीर थोगन संगमा को बातचीत के लिए बुलाया। सरल चित्त संगमा उनके शिविर में चला गया। 

पर धूर्त अंग्रेजों ने वहां उसे गोली मार दी। यह समाचार जैसे ही उनके साथियों को मिला, सब अंग्रेजों पर पिल पड़े। केवल बड़े ही नहीं, तो बच्चे भी अपने हथियार लेकर मैदान में आ गये; लेकिन अन्ततः वे सब भी वीरगति को प्राप्त हुए और अंग्रेजों ने सम्पूर्ण गारो पहाड़ पर अधिकार कर लिया। 

आज भी 12 दिसम्बर को वीर थोगन संगमा की स्मृति में गारो क्षेत्र में ‘स्वातंत्र्य सैनिक दिवस’ मनाया जाता है।
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12 दिसम्बर/जन्म-दिवस

सैनिक शिक्षा के पुरोधा धर्मवीर डा. मुंजेे

स्वतत्रता सेनानी डा. बालकृष्ण शिवराम मुंजे भारत के प्रत्येक युवक को सैनिक शिक्षा देने के प्रबल समर्थक थे। उनका जन्म 12 दिसम्बर, 1872 को बिलासपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ था। कुश्ती, व्यायाम एवं घुड़सवारी के शौकीन होने के कारण उनका शरीर बचपन से ही बहुत पुष्ट था। उनके पिता इन्हें वकील बनाना चाहतेे थे; पर वे मुम्बई के मैडिकल काॅलिज में प्रवेश लेकर चिकित्सक बन गये। उन्हें वहीं सरकारी नौकरी भी मिल गयी। 
मुम्बई में उनका सम्पर्क लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक से हुआ। इससे उनके जीवन को नयी दिशा मिली। एक बार वे चिकित्सक दल के साथ अफ्रीका गये। वहाँ उनकी भेंट गांधी जी से हुई। वहाँ से लौटकर वे बिलासपुर में निजी नेत्र चिकित्सक के रूप में काम करने लगे।
पर देश और हिन्दू समाज की दुर्दशा देखकर वे राजनीति में आ गये। वे कांग्रेस में तिलक जी के समर्थक थे। उन्हें गांधी जी की अहिंसा पसन्द नहीं थी। जब गांधी जी ने तुर्की के खलीफा की गद्दी की पुनस्र्थापना के लिए ‘खिलाफत आन्दोलन’ का पक्ष लिया, तो उन्होंने विरोध किया। वे इसे ‘खिला-खिलाकर आफत खड़ी करना’ बताते थे। 
फिर भी कांग्रेस के एक अनुशासित सिपाही की भाँति उन्होंने जंगल सत्याग्रह एवं नमक सत्याग्रह में भाग लिया। हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के नाते वे दो बार लन्दन के गोलमेज सम्मेलन में गये। वहाँ उन्होंने बंगाल, पंजाब और सिन्ध को मुस्लिम बहुल घोषित करने का विरोध किया; पर उनकी बात नहीं मानी गयी। इसका दुष्परिणाम देश विभाजन में हुआ।
डा. मुंजे छात्रों को सैनिक शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने नागपुर में एक राइफल क्लब की स्थापना भी की। इटली प्रवास में उन्होंने संग्रहालय के बदले वहाँ का सैनिक विद्यालय देखना पसन्द किया। मालवीय जी से भेंट के समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में सैन्य विभाग न होने पर उन्होंने आपत्ति की। अब वे स्वयं इस दिशा में प्रयास करने लगे। 
सैनिक विद्यालय की भूमि हेतु वे मुम्बई के गवर्नर से मिले; पर उसने कोई सहयोग नहीं दिया। वह समझ गया कि इसमें अंग्रेजों के विरोधी सैनिक ही निर्माण होंगे। कुछ समय बाद नासिक में स्थान तथा कई लोगों से आर्थिक सहयोग मिल गया। इस प्रकार ‘भांेसला सैनिक विद्यालय’ की स्थापना हुई। 
डा. मुंजे भगवान राम को अपना एवं भारत का आदर्श मानते थे। अतः विद्यालय की भूमि को ‘रामभूमि’ और छात्रों को ‘रामदंडी’ कहा जाता था। इसमें सामान्य शिक्षा के साथ घुड़सवारी और तैराकी से लेकर सैनिकों के लिए अनिवार्य सभी विषयों का प्रशिक्षण दिया जाता है।
डा. मुंजे आजीवन हिन्दू हितों के लिए समर्पित रहे। इसीलिए उन्हें ‘धर्मवीर’ की उपाधि दी गयी। केरल में मोपलाओं द्वारा हिन्दुओं के धर्मान्तरण के बाद उन्होंने परावर्तन के काम में अनेक लोगों को सक्रिय किया। इससे हजारों लोग फिर से हिन्दू धर्म में लौट आये। शुद्धि एवं परावर्तन हेतु बलिदान हुए स्वामी श्रद्धानन्द की स्मृति में उन्होंने नागपुर में अनाथालय की स्थापना की।
धर्मवीर डा. बालकृष्ण शिवराम मुंजे का देहान्त तीन मार्च, 1948 को हुआ। 1972 में उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर नागपुर में उनकी पूर्णाकार प्रतिमा का अनावरण फील्ड मार्शल जनरल करियप्पा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी ने किया।
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12 दिसम्बर/बलिदान-दिवस 

बाबू गेनू का बलिदान : स्वदेशी दिवस

देशप्रेम की भावना के वशीभूत होकर कभी-कभी सामान्य सा दिखायी देने वाला व्यक्ति भी बहुत बड़ा काम कर जाता है। ऐसा ही बाबू गेनू के साथ हुआ। गेनू का जन्म 1908 में पुणे जिले के ग्राम महालुंगे पडवल में हुआ था। इस गाँव से कुछ दूरी पर ही शिवनेरी किला था, जहाँ हिन्दू कुल गौरव छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म हुआ था।

गेनू बचपन में बहुत आलसी बालक था। देर तक सोना और फिर दिन भर खेलना ही उसे पसन्द था। पढ़ाई में भी उसकी रुचि नहीं थी; पर दुर्भाग्य से उसके पिता शीघ्र ही चल बसे। इसके बाद उनके बड़े भाई भीम उसके संरक्षक बन गये। वे स्वभाव से बहुत कठोर थे। उनकी आज्ञानुसार वह जानवरों को चराने के लिए जाता था। इस प्रकार उसका समय कटने लगा।

एक बार उसका एक बैल पहाड़ी से गिर कर मर गया। इस पर बड़े भाई ने उसे बहुत डांटा। इससे दुखी होकर गेनू मुम्बई आकर एक कपड़ा मिल में काम करने लगा। उसी मिल में उसकी माँ कोंडाबाई भी मजदूरी करती थी। उन दिनों देश में स्वतन्त्रता का संघर्ष छिड़ा था। स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग तथा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन जोरों पर था। 22 वर्षीय बाबू गेनू भी इस आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। मिल के अपने साथियों को एकत्र कर वह आजादी एवं स्वदेशी का महत्व बताया करते थे। 

26 जनवरी, 1930 को ‘सम्पूर्ण स्वराज्य माँग दिवस’ आन्दोलन में बाबू  गेनू की सक्रियता देखकर उन्हें तीन महीने के लिए जेल भेज दिया; पर इससे बाबू के मन में स्वतन्त्रता प्राप्ति की चाह और तीव्र हो गयी। 12 दिसम्बर, 1930 को मिल मालिक मैनचेस्टर से आये कपड़े को मुम्बई शहर में भेजने वाले थे। जब बाबू गेनू को यह पता लगा, तो उसका मन विचलित हो उठा। उसने अपने साथियों को एकत्र कर हर कीमत पर इसका विरोध करने का निश्चय किया। 11 बजे वे कालबादेवी स्थित मिल के द्वार पर आ गये। धीरे-धीरे पूरे शहर में यह खबर फैल गयी। इससे हजारों लोग वहाँ एकत्र हो गये। यह सुनकर पुलिस भी वहाँ आ गयी।

कुछ ही देर में विदेशी कपड़े से लदा ट्रक मिल से बाहर आया। उसे सशस्त्र पुलिस ने घेर रखा था। गेनू के संकेत पर घोण्डू रेवणकर ट्रक के आगे लेट गया। इससे ट्रक रुक गया। जनता ने ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाये। पुलिस ने उसे घसीट कर हटा दिया; पर उसके हटते ही दूसरा कार्यकर्ता वहाँ लेट गया। बहुत देर तक यह क्रम चलता रहा।

यह देखकर अंग्रेज पुलिस सार्जेण्ट ने चिल्ला कर आन्दोलनकारियों पर ट्रक चढ़ाने को कहा; पर ट्रक का भारतीय चालक इसके लिए तैयार नहीं हुआ। इस पर पुलिस सार्जेण्ट उसे हटाकर स्वयं उसके स्थान पर जा बैठा। यह देखकर बाबू गेनू स्वयं ही ट्रक के आगे लेट गया। सार्जेण्ट की आँखों में खून उतर आया। उसने ट्रक चालू किया और बाबू गेनू को रौंद डाला।

सब लोग भौंचक रह गये। सड़क पर खून ही खून फैल गया। गेनू का शरीर धरती पर ऐसे पसरा था, मानो कोई छोटा बच्चा अपनी माँ की छाती से लिपटा हो। उसे तत्क्षण अस्पताल ले जाया गया; पर उसके प्राण पखेरू तो पहले ही उड़ चुके थे। इस प्रकार स्वदेशी के लिए बलिदान देने वालों की माला में पहला नाम लिखाकर बाबू गेनू ने स्वयं को अमर कर लिया। तभी से 12 दिसम्बर को ‘स्वदेशी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
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12 दिसम्बर/जन्म-तिथि

दलिया वाले बाबा भैया जी कस्तूरे

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। इसमें विभिन्न आयु, वर्ग, आर्थिक स्थिति, स्वभाव तथा काम करने वाले कार्यकर्ता हैं। यहां गृहत्यागी प्रचारक हैं, तो गृहस्थ कार्यकर्ता भी; पर हिन्दुत्वनिष्ठा के कारण सब एक दूसरे से अत्यधिक प्रेम करते हुए संघ की योजनानुसार काम करते हैं। 

ऐसे ही एक प्रचारक थे दत्तात्रेय गंगाधर कस्तूरे, जो भैया जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने 40 वर्ष तक दिन में केवल एक बार दलिया खाकर काम किया, इस कारण कई परिवारों में उन्हें ‘दलिया वाले बाबा’ कहा जाता था। 

उनका जन्म 12 दिसम्बर, 1921 (दत्त जयन्ती) को महाकाल की नगरी उज्जैन (म.प्र.) में महाकालेश्वर मंदिर के पास कामले के बाड़े में श्री गंगाधर राव और श्रीमती बारुबाई के घर में हुआ था। दत्त जयन्ती पर जन्म के कारण इनका नाम दत्तात्रेय रखा गया। निर्धनता के कारण वे अपने छोटे भाई के साथ नगर निगम के बिजली के खंभे के नीचे बैठकर पढ़ते थे। 

परिवार में अध्यात्मिक वातावरण था। भैया जी के छोटे भाई विष्णु कस्तूरे पीली कोठी, चित्रकूट के परमहंस स्वामी अखंडानंद जी महाराज के शिष्य बने और संन्यास लेकर स्वामी प्रकाशानंद कहलाये। 1933 में माता जी एवं 1935 में पिताजी के देहांत के बाद भैया जी ने रामनवमी के दिन घर छोड़ दिया।

1936 में भैया जी का सम्पर्क उज्जैन में कार्यरत प्रचारक श्री दिगम्बर राव तिजारे के माध्यम से संघ से हुआ और फिर वे तन-मन से संघ को समर्पित हो गये। अपना अधिकांश समय संघ कार्य हेतु लगाते हुए उन्होंने 1942 में एम.ए. तक की शिक्षा पूर्ण की। उन दिनों ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आंदोलन का जोर था। भैया जी उसमें सहभागी हुए तथा जेल से आकर संघ के प्रचारक बन गये। हिन्दी, अंग्रेजी, मराठी और संस्कृत भाषाओं के वे अच्छे ज्ञाता थे।

अध्यात्म प्रेमी होने के कारण संघ कार्य के साथ ही उनका साधना का क्रम भी चलता रहता था। प्रचारक रहते हुए ही उन्होंने बाबा सीताराम ओंकारनाथ जी से दीक्षा लेकर नर्मदा तट पर 24 लाख जप करते हुए गायत्री पुरश्चरण की अखंड साधना पूर्ण की। उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण बस या रेल से प्रवास करना कठिन था। अतः भैया जी शाखाओं पर प्रवास के लिए एक दिन में 60-70 कि.मी. तक साइकिल चला लेते थे। उनका कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से मध्य प्रदेश ही रहा।

1975 में आपातकाल एवं संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इससे पूर्व ही वे 'विश्व हिन्दू परिषद' के कार्य हेतु दिल्ली आ गये थे। प्रतिबन्ध के विरोध में वे जेल गये। प्रतिबन्ध के बाद उन्होंने प्रान्त संगठन मंत्री, अर्चक प्रमुख आदि दायित्वों पर काम किया। विश्व हिन्दू परिषद के मुखपत्र ‘हिन्दू विश्व’ का प्रकाशन जब दिल्ली की बजाय प्रयाग से होने लगा, तो दिल्ली से ‘हिन्दू चेतना’ पत्रिका निकाली गयी और भैया जी को उसकी जिम्मेदारी दी गयी। अपनी सामग्री की विविधता के कारण पत्रिका शीघ्र ही लोकप्रिय हो गयी।

सम्पादक एवं प्रकाशक होने के बाद भी वे पत्रिका का छोटा-बड़ा हर काम करने को तत्पर रहते थे। पत्रिका की सामग्री के साथ ही वह समय से छपे और डाक में चली जाए, इस पर उनका विशेष आग्रह रहता था। अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने इस जिम्मेदारी को निभाया। 1990-91 में भीषण हृदयाघात के कारण उनके हृदय की शल्य क्रिया की गयी। इसके बाद उन्होंने प्राणायाम, ध्यान एवं योगाभ्यास द्वारा अपने स्वास्थ्य को नियन्त्रण में रखा। 

दो जनवरी, 2006 को पत्रिका डाक से पाठकों को भेजी जा रही थी। उसी दिन उन्होंने अपने पाठकों से सदा के लिए विदा ले ली।

(संदर्भ: हिन्दू चेतना 16.1.2009)
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12 दिसम्बर/जन्म-दिवस

समाजसेवी उद्योगपति दर्शन लाल जैन

सफल उद्योगपति तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से समाजसेवा करने वाले श्री दर्शनलाल जैन का जन्म 12 दिसम्बर, 1927 को हरियाणा के जगाधरी नगर में हुआ था। गांधीजी से प्रेरित होकर उन्होंने खादी अपनायी; पर उनके सरकारी माध्यमिक विद्यालय में इसे पहनने पर दंड दिया जाता था। अतः दर्शनलाल जी ने इसके विरोध में दो अक्तूबर, 1942 को वहां हड़ताल करायी। 1943 में भी उन्होंने स्कूल में आजादी की आवाज बुलंद की। छोटे होने के कारण वे जेल तो नहीं जा सके; पर अपने क्षेत्र में होने वाले सभी प्रदर्शन आदि में वे जरूर शामिल होते थे।

1944 में संघ के स्वयंसेवक बनने पर उनके जीवन और विचारों को एक नयी दिशा प्राप्त हुई। स्नातक तक की पढ़ाई पूरी कर उन्होंने 1952 में पीतल के बर्तन बनाने के लिए स्वस्तिकउद्योग की स्थापना की। यह एक समय अपनी तरह का देश का सबसे बड़ा उद्योग था। 1963 में उन्होंने ब्रास इंडस्ट्रियल शीट्सकी स्थापना की। वह भी तब उत्तर भारत की बड़ी रोलिंग मिलों में से एक थी। हरियाणा में उन्होंने ही पहली जिंक सल्फेट इकाई शुरू की। इस प्रकार उनकी गिनती देश के प्रमुख उद्योगपतियों में होने लगी।

उद्योग के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए भारतीय जनसंघ ने 1954 में उन्हें हरियाणा में एम.एल.सी. बनाने का प्रस्ताव दिया। उनकी जीत सुनिश्चित थी; पर दर्शनलाल जी ने विनम्रता से मना कर दिया। आपातकाल में वे करनाल और फिर अंबाला जेल में 'मीसा' के अन्तर्गत बंद रहे। करनाल के डी.सी श्री कौशल जेल में उनसे मिलने आये। उन्होंने कहा कि यदि वे यह लिख दें कि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है, तो वे रिहा किये जा सकते हैं। दर्शनलाल जी ने कहा कि मेरी राजनीतिक महत्वाकांक्षा न थी और न है; पर यह लिखकर मैं नहीं दूंगा। क्योंकि इसे सरकार मेरी माफी की तरह प्रचारित करेगी। सरकार ने अपनी मरजी से मुझे पकड़ा है, वह अपनी मरजी से ही मुझे छोड़ेगी।

दर्शनलाल जी 40 साल तक हरियाणा के प्रांत संघचालक रहे। 2007 में 80 वर्ष के होने पर उन्होंने इस दायित्व से निवृत्ति ले ली। इस दौरान उन्होंने अनेक सामाजिक संस्थाओं का निर्माण और संचालन किया। विवेकानंद शिला स्मारक समिति, वनवासी कल्याण आश्रम, भारत विकास परिषद, सरस्वती नदी शोध संस्थान, राष्ट्रीय योद्धा स्मारक समिति आदि इनमें प्रमुख हैं। हरियाणा के हर सामाजिक काम में उनका योगदान रहता था। अतः संघ और सामाजिक जीवन में कार्यरत सभी बड़े लोग उनके निवास पर आते रहते थे।

शिक्षा को वे समाज परिवर्तन का बड़ा माध्यम मानते थे। अतः उन्होंने 1954 में सरस्वती विद्या मंदिर तथा 1957 में डी.ए.वी. कन्या विद्यालय की स्थापना की। वे 30 साल तक हिन्दू शिक्षा समितिके भी सचिव रहे, जो 100 से अधिक विद्यालय संचालित करती है। कुरुक्षेत्र में गीता निकेतन आवासीय विद्यालय तथा तेपला में नंदलाल गीता विद्या मंदिर जैसी विशाल संस्थाओं के निर्माण में भी वे सक्रिय रहे। इन सबसे हरियाणा के गांवों में शिक्षा का विस्तार हुआ। संघ प्रेरित सभी संगठनों को उनके अनुभव का लाभ मिलता था।

सामाजिक कामों में उनके योगदान के लिए 16 मार्च, 2019 को राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने उन्हें पद्म भूषणसम्मान प्रदान किया। आठ फरवरी, 2021 को 94 वर्ष की सुदीर्घ आयु में जगाधरी में ही उनका देहांत हुआ। उनका अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ किया गया और उन्हें गार्ड आॅफ आॅनर दिया गया। वे वेदकालीन ऐतिहासिक सरस्वती नदी की खोज के अभियान से भी जुड़े हुए थे। अतः उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनके अवशेष सरस्वती नदी के उद्गम स्थल आदिबद्री में प्रवाहित किये गये।

(चा.वा. 1.4.2019 तथा 1.3.2021) 

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12 दिसम्बर/जन्म-दिवस

निर्धन कन्याओं के आधार सन्त जसपाल सिंह

भारत में कन्या का विवाह एक कठिन काम समझा जाता है। उचित वर मिल जाए, तो दहेज की समस्या के कारण बहुत सी कन्याएँ लम्बे समय तक कुँवारी रह जाती हैं। अब तो इस समस्या ने इतना भयंकर रूप धारण कर लिया है कि शिक्षित और धनवान लोग भी कन्याओं को गर्भ में ही मार देते हैं। इसके कारण पूरे देश में बालक और बालिकाओं का अनुपात गड़बड़ा रहा है। 

आश्चर्य की बात तो यह है कि देश के सर्वाधिक सम्पन्न पंजाब और हरियाणा राज्य में कन्याओं का प्रतिशत सबसे कम हो गया है। बड़ी संख्या में कन्याएँ आत्महत्या भी कर रही हैं। यह स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है। अनेक लोग तो जुबानी जमा खर्च कर अपना कर्तव्य पूर्ण समझ लेते हैं; पर अनेक राज्यों में शासन इस समस्या को दूर करने के लिए कन्या जन्म पर पुरस्कार, जच्चा-बच्चा के स्वास्थ्य की देखभाल और उनकी शिक्षा का निःशुल्क प्रबन्ध कर रहा है। दूसरी ओर समाजसेवी संस्थाएँ एवं व्यक्ति निर्धन कन्याओं के विवाह के लिए प्रयास कर रहे हैं।

पंजाब में कन्याओं के घटते प्रतिशत और अविवाहित कन्याओं की पीड़ा को सन्त जसपाल सिंह ने समझा। उन्होंने केवल बातें नहीं बनायीं; अपितु निर्धन कन्याओं के विवाह का संकल्प लेकर काम शुरू कर दिया। 

उनका जन्म 12 दिसम्बर, 1954 को हुआ था। देश और समाजसेवा का भाव उनके मन में बचपन से ही था। 1975 में वे भारतीय सेना में भर्ती हो गये; पर किसी कारण से उनका मन वहाँ नहीं लगा। अतः दो साल बाद ही वह फौज की नौकरी छोड़कर अपने गाँव वापस आ गये।

गाँव में आकर वे अपनी खेतीबाड़ी में लग गये; पर उनके मन में समाजसेवा की भावना जोर मार रही थी। जब उन्होंने निर्धन कन्याओं और विधवाओं की दुर्दशा देखी, तो उन्होंने इसे दूर करना ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। उन्होंने अपने परिचितों से इसकी चर्चा की। कुछ ने हतोत्साहित किया, तो कुछ ने साथ देने का आश्वासन। इस प्रकार 1977 में भाई धनैया जी न्यास और पब्लिक सेवा सोसायटी, बन्दोवाल की नींव रखी गयी। 

इन संस्थाओं के मुख्य कर्ताधर्ता जसपाल सिंह जी ही हैं। तब से लेकर आज तक वे इस महान सेवाकार्य में लगे हैं। अब तक वे बीस हजार से भी अधिक निर्धन कन्याओं का विवाह करा चुके हैं। यह विवाह व्यक्तिगत न होकर सामूहिक रूप से होते हैं। अर्थात एक ही मंडप में सैकड़ों जोड़े एक साथ अपनी धार्मिक विधि से विवाह के पवित्र बन्धन में बँधते हैं।

विवाह के समय जसपाल जी समाज के धनी लोगों के सहयोग से घरेलू उपयोग का सामान भी देते हैं। इस सेवा के कारण लोग उन्हें सन्त जी कहते हैं। वे आयुर्वेद के भी जानकार हैं। उनके इलाज से स्वस्थ हुई एक महिला ने उन्हें ग्राम बन्दोवाल में कुछ जमीन दान में दे दी। इसे केन्द्र बनाकर ही जसपाल जी समाज सेवा की गतिविधियाँ चलाते हैं। 

यहाँ बने भाई धनैया जी अस्पताल में निर्धनों की निःशुल्क चिकित्सा की जाती है। इस न्यास की ओर से हर साल आँख, कान, दाँत के रोगों के शिविर तथा नशामुक्ति के कार्यक्रम चलाये जाते हैं। इसके साथ ही सन्त जी प्रतिवर्ष 500 विधवाओं को भी उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ देते हैं। पर्यावरण के प्रति जागरूक संत जी पर्यावरण संरक्षण के अभियान भी चलाते हैं।
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13 दिसम्बर/पुण्य-तिथि

कैलास पीठाधीश्वर स्वामी विद्यानन्द गिरि

उत्तराखण्ड में चार धाम की यात्रा हरिद्वार और ऋषिकेश से प्रारम्भ होती है। प्रायः गंगा जी में स्नान कर ही लोग इस यात्रा पर निकलते हैं। गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और फिर बदरीनाथ भगवान के दर्शन कर यह यात्रा पूर्ण होती है। इसके बाद फिर से गंगा माँ का पूजन-अर्चन कर श्रद्धालु अपने घर की ओर प्रस्थान करते हैं। हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा के तट पर अनेक आश्रम बने हैं, जहाँ तेजस्वी सन्त रहकर साधना करते हैं और देश-विदेश से आने वाले तीर्थयात्रियों को उचित सहयोग प्रदान करते हैं।

ऐसे ही प्रसिद्ध आश्रमों में ऋषिकेश का कैलास आश्रम भी है, जहाँ के अधिष्ठाता पूज्य स्वामी विद्यानन्द जी महाराज 13 दिसम्बर, 2007 को ब्रह्म मुहूर्त में अनन्त की यात्रा पर चले गये। स्वामी जी ने अपने सान्निध्य में कई विद्वान एवं अद्वैत वेदान्त के मर्मज्ञ निर्माण किये। देश और विदेश में प्रवास करते हुए उन्होंने अपने प्रवचनों से प्रस्थान त्रयी (गीता, ब्रह्मसूत्र एवं उपनिषद) को जन-जन तक पहुँचाया।

स्वामी जी का जन्म ग्राम गाजीपुर (पटना, बिहार) में सन 1921 ई. में हुआ था। उनके बचपन का नाम चन्दन शर्मा था। स्वामी जी के समृद्ध एवं पावन परिवार की दूर-दूर तक बहुत ख्याति थी। वे अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। बचपन से ही सन्तों के प्रवचन और सेवा में उन्हंे बहुत आनन्द आता था। संस्कृत के प्रति रुचि होने के कारण उन्होंने स्वामी विज्ञानानन्द और स्वामी नित्यानन्द गिरि जी के सान्निध्य में गीता, ब्रह्मसूत्र तथा उपनिषदों का गहन अध्ययन किया। इसके बाद उन्होंने अवधूत श्री ब्रह्मानन्द जी के पास रहकर पाणिनि की अष्टाध्यायी और इसके महाभाष्यों का अध्ययन किया।

इसके बाद और उच्च अध्ययन करने के लिए स्वामी जी काशी आ गये। यहाँ दक्षिणामूर्ति मठ में रहकर उन्होंने आचार्य, वेदान्त और सर्वदर्शनाचार्य तक की सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। इसके बाद उन्होंने बिना किसी वेतन के वहीं अध्यापन किया। उनकी योग्यता और प्रबन्ध कौशल देखकर मठ के महामंडलेश्वर स्वामी नृसिंह गिरि जी ने उन्हें अपने दिल्ली स्थित विश्वनाथ संस्कृत महाविद्यालय का प्राचार्य बनाकर भेज दिया।

इससे उनकी ख्याति सब ओर फैल गयी। 1968 में उन्होंने आचार्य महेशानन्द गिरि जी से संन्यास की दीक्षा ली। अब उनका नाम विद्यानन्द गिरि हो गया। नृसिंह गिरि जी उन्हें दक्षिणामूर्ति मठ का महामंडलेश्वर बनाना चाहते थे; पर किसी कारण से वह सम्भव नहीं हो पाया। इधर सुयोग्य व्यक्ति के अभाव में कैलास आश्रम की गतिविधियाँ ठप्प थीं। ऐसे में उसके पीठाचार्य स्वामी चैतन्य गिरि जी की दृष्टि विद्यानन्द जी पर गयी। उनका आदेश पाकर स्वामी जी कैलास आश्रम आ गये और 20 जुलाई, 1969 को वैदिक रीति से उनका विधिवत अभिषेक कर दिया गया।

इसके बाद स्वामी जी ने लगातार 39 वर्ष तक आश्रम की गतिविधियों का कुशलता से संचालन किया। उन्होंने अनेक प्राचीन आश्रमों का जीर्णोद्धार और लगभग 125 दुर्लभ ग्रन्थों का प्रकाशन कराया। धर्म एवं राष्ट्र जागरण के लिए किये जाने वाले किसी भी प्रयास को सदा उनका आशीर्वाद एवं सहयोग रहता था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के प्रति उनके मन में अतिशय प्रेम था। स्वामी जी की स्मृति को शत-शत प्रणाम।
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13 दिसम्बर/जन्म-दिवस

परावर्तन के योद्धा मोहन जोशी
भारत के मुसलमान और ईसाई यहीं के मूल निवासी हैं। मार्गशीर्ष शुक्ल आठ (13.12.1934) को ग्राम खैराबाद (कोटा, राजस्थान) में श्री रामगोपाल और श्रीमती रामकन्या बाई के घर में जन्मे श्री मोहन जोशी ने उनकी ‘घर वापसी’का कार्य संगठित रूप से आगे बढ़ाया। खेती तथा पुश्तैनी पूजा-पाठ से उनके घर का खर्च चलता था। 

कक्षा चार तक गांव में, कक्षा आठ तक रामगंज मंडी में और फिर 1957 में कोटा से बी.ए. कर वे संघ के प्रचारक बने। उनके गांव में प्रह्लाद दत्त वैद्य नामक युवक की ननिहाल थी। वह छुट्टियों में वहां शाखा लगाता था। मोहन जी भी यह देखते थे; पर विधिवत संघ प्रवेश तब हुआ, जब कक्षा पांच में पढ़ते समय चाचा जी उन्हें शाखा ले गये। मोहन जी ने तीनों संघ शिक्षा वर्ग प्रचारक बनने के बाद ही किये। उन्होंने एम.ए. (राजनीति शास्त्र) और ‘साहित्य रत्न’ की उपाधि ली तथा रूसी भाषा का अध्ययन भी किया।

प्रचारक के नाते उन्हें सर्वप्रथम झालावाड़ जिले में भेजा गया। फिर 1960 से 1984 तक उनका केन्द्र जयपुर ही रहा। जनसंघ कार्यालय के प्रबंधक, विद्यार्थी परिषद के प्रांत संगठन मंत्री, आदर्श विद्या मंदिर योजना के उपाध्यक्ष एवं प्रबंधक, विवेकानंद केन्द्र (कन्याकुमारी) हेतु धन संग्रह एवं उसका हिसाब, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मजदूर संघ आदि के काम में उन्होंने योगदान दिया; पर जयपुर संघ कार्यालय प्रमुख और सायं शाखाओं का काम उनके साथ सदा जुड़ा रहा। विद्यार्थी परिषद में उन्होंने त्रैमासिक ‘तरुण शक्ति’ तथा पाक्षिक ‘छात्र हुंकार’ का सम्पादन भी किया। सादा जीवन तथा मधुर वाणी उनकी विशेषता थी।

आपातकाल में मोहन जी ने सत्याग्रही तैयार किये तथा बंदियों के परिजनों से भी सम्पर्क बनाये रखा। 1977 में वे विश्व हिन्दू परिषद, राजस्थान के संगठन मंत्री बनाये गये। यहां उन्होंने ब्यावर में हजारों चौहान मुसलमानों की ‘घर वापसी’ करायी। इस पर कई पत्रों ने उनके साक्षात्कार तथा लेख छापे। 1984 में वि.हि.परिषद में उनके नेतृत्व में ‘परावर्तन विभाग’ शुरू हुआ। इसे अब ‘धर्म जागरण’ कहते हैं। उन्होंने ‘भारत जनसेवा संस्थान’ बनाकर हजारों लोगों को हिन्दू धर्म में आने को प्रेरित किया। राममंदिर आंदोलन में उन्हें बंगाल, असम और उड़ीसा में शिलापूजन की जिम्मेदारी भी दी गयी।

छात्र जीवन में वे स्थानीय कवि सम्मेलनों में जाते थे; पर प्रचारक बनने पर यह छूट गया। 1966 में उनकी काव्य पुस्तक ‘भारत की पुकार’ के लिए काका हाथरसी और रक्षामंत्री जगजीवन राम ने भी संदेश भेजे। दीनदयाल जी के देहांत पर उन्होंने व्यथित होकर एक ही रात में 51 कविताएं लिखीं। वे हर दीवाली और वर्ष प्रतिपदा पर एक नयी कविता अपने परिचितों को भेजते थे। चैतन्य प्रवाह तथा जीवन प्रवाह उनके अन्य काव्य संकलन हैं।

उन्होंने सफल जीवन की कहानियां, धर्म प्रसार एक राष्ट्रीय कर्तव्य, रमण गीतामृत, देवराहा बाबा की अमृतवाणी, परावर्तन राष्ट्र रक्षा का महामंत्र, सफेद चोला काला दिल, संसद में धर्मान्तरण पर बहस, धर्मान्तरण राष्ट्रद्रोह का षड्यंत्र, भारत में ईसाई साम्राज्य हेतु पोप एवं अमरीका का षड्यंत्र, चर्च का चक्रव्यूह, ईसाई मायाजाल से सावधान, मुस्लिम आरक्षण राष्ट्रघाती विषवृक्ष, बारूद के ढेर पर हिन्दुस्थान, उतिष्ठित जाग्रत, हिन्दुओं के सीने पर कानूनी राइफल, जागो जगाओ देश बचाओ, पाप का गढ़ और बच्चों के शिकारी, वेटिकन के भेड़िये, विजयी भव, स्वतंत्र भारत के शूरवीर सेनानी, करगिल के वीरों की गाथा, उपनिषद कथामृत, महाभारत की दिव्य आत्माएं आदि का लेखन, संकलन और सम्पादन किया है। पाक्षिक ‘भारत जागरण बुलेटिन’ भी वे चलाते थे। 

2011 में एर्नाकुलम से दिल्ली आते हुए रेलगाड़ी में ही उन्हें पक्षाघात हुआ। तबसे उनका प्रवास बंद हो गया। फिर भी एक सहायक के साथ वे दिल्ली में परिषद कार्यालय की शाखा पर आते रहेे। लम्बी बीमारी के बाद चार दिसम्बर, 2017 को ब्रह्ममुहूर्त में उनका निधन हुआ। (संदर्भ : वि.हि.प. कार्यालय, दिल्ली)
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13 दिसम्बर/प्रेरणा-दिवस

उडुपी में हिन्दू सम्मेलन और श्री गुरुजी

देश एवं दुनिया के हिन्दुओं को जागरूक एवं संगठित करने के लिए 29 अगस्त, 1964 को विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई। स्थापना के बाद प्रयागराज में कुंभ के अवसर पर 1966 तथा 1979 में पहला और दूसरा विश्व हिन्दू सम्मेलन हुआ। इसके साथ ही अनेक सम्मेलन प्रांत और क्षेत्र के अनुसार भी हुए। इन सबसे हिन्दू समाज में अपार उत्साह का संचार हुआ।

ऐसा ही एक राज्य स्तरीय सम्मेलन 13 और 14 दिसम्बर, 1969 को कर्नाटक के उडुपी नगर में हुआ। किसी समय यहां घना जंगल था। दक्ष के श्राप से कांतिविहीन हुए चंद्रमा ने कांति पाने को यहां घोर तपस्या की थी। इसलिए यह अब्जारण्यअर्थात चंद्रमा का वन कहलाया। चंद्रमा को कन्नड़ में नक्षत्रों का स्वामी (उडु-पा) कहते हैं। यहां चंद्रमा ने चंद्रेश्वर लिंग की स्थापना की थी। उडु-पा को धारण करने से यहां के भगवान उडुप्पी कहलाये। इसीलिए यहां श्रीकृष्ण की पूजा से पूर्व चंद्रेश्वर की पूजा होती है। इसका एक नाम रजतपीठपुरभी है। यहां का कुछ संबंध महाभारत युद्ध से भी है।

एक अन्य लोककथा के अनुसार किसी समय यहां केवल सर्प ही रहते थे; पर एक संत ने उन्हें एक मैदान में रहने के लिए बाध्य कर दिया। लेकिन कालक्रम में नगर फैलते हुए मैदान तक आ गया। इस मैदान में ही हिन्दू सम्मेलन होना था। जब मजदूरों ने काम शुरू किया तो बड़ी संख्या में सर्प आ गये। इस पर कुछ विशेष पूजा आदि की गयी, इससे वे चले गये। बीच में एक-दो बार वे दिखाई तो दिये; पर उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया।

इस सम्मेलन में 2,500 गांवों के 15,000 प्रतिनिधि शामिल हुए। कर्नाटक तथा अन्य दक्षिणी राज्यों के प्रमुख संतों के साथ संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी भी पूरे समय उपस्थित रहे। गुरुजी ने उद्घाटन करते हुए कहा कि यह समय उपदेश का नहीं बल्कि आचरण का है। कहावत है कि जैसा बोएंगे, वैसा ही काटेंगे। अतः पहले हमें अपना आचरण ठीक करना होगा, तब ही हम समाज में एकता स्थापित कर सकेंगे। सम्मेलन में काॅलिज शिक्षक, धर्मगुरु, महिला, काॅफी बागान के मालिक तथा उद्योगपतियों के अलग सत्र भी हुए। श्री गुरुजी इन सभी सत्रों में स्वयं उपस्थित रहे।

इस सम्मेलन में हिन्दू धर्म के अन्तर्गत सभी मत, पंथ और संप्रदायों के प्रमुख संत पधारे। श्री गुरुजी ने कहा कि संत हाथीदांत की तरह शोभा की वस्तु न बनें। यदि वे अपने मठ छोड़कर प्रवास करें, तो हिन्दू समाज की कुरीतियां एवं भेद दूर हो जाएंगे। उन्होंने असम में ब्रह्मपुत्र नदी के एक ही द्वीप के निवासी चार प्रमुख गोस्वामी सत्राधिकारियों का उदाहरण दिया, जिनका विश्व हिन्दू परिषद के सम्मेलन में आने पर ही परस्पर परिचय हुआ।

इस सम्मेलन में एक नयी आचार स्मृति का भी जन्म हुआ। उडुपी पीठाधीश्वर स्वामी विश्वेश्तीर्थ के नेतृत्व में सभी संतों ने सामूहिक रूप से हिन्दवः सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेतका उद्घोष किया। अर्थात सभी हिन्दू सगे सहोदर भाई हैं। कोई भी हिन्दू पतित नहीं है। हिन्दुओं में अस्पृश्यता जैसी कोई चीज नहीं है। यदि वह कहीं है भी, तो वह कुरीति है। हिन्दू धर्म कैसी भी अस्पृश्यता, छुआछूत या ऊंचनीच को मान्यता नहीं देता। रूढि़ को धर्म नहीं कहा जा सकता। इस नवीन आचार स्मृति के पारित होने से श्री गुरुजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने वहां व्यवस्था में लगे वरिष्ठ प्रचारक सूर्यनारायण राव को कहा कि उच्च स्वर में हिन्दू धर्म और संतों की जय-जयकार करें।

इस सम्मेलन के प्रस्ताव और संकल्पों की पूरे देश में चर्चा हुई। श्री गुरुजी ने कार्यकर्ताओं से कहा कि वे पूरे राज्य में ये प्रस्ताव बांटें तथा घर-घर इन पर चर्चा करें, जिससे छुआछूत की कुरीति मिटायी जा सके।

(विहिप की 42 वर्षीय विकास यात्रा/44, रघुनंदन प्रसाद शर्मा)

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14 दिसम्बर/जन्म-दिवस

श्रेष्ठ नाटककार उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’

उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’ का जन्म 14 दिसम्बर, 1910 को जालन्धर(पंजाब) में हुआ था। मुस्लिम प्रभाव के कारण पंजाब में व्यापारिक हिसाब और शिक्षा का माध्यम उर्दू ही थी। उर्दू को साहित्य सृजन के लिए श्रेष्ठ और सम्पन्न भाषा माना जाता था। बोलचाल में भी पर्याप्त उर्दू फारसी शब्दों का प्रयोग लोग करते थे। ऐसे में अश्क जी की प्रारम्भिक शिक्षा साईंदास संस्कृत विद्यालय में हुई। इससे उनके और उनके परिवार के रुझान का पता लगता है।

इसके बाद अश्क जी ने जालन्धर के डी.ए.वी. कॉलिज से बी.ए और फिर कानून की डिग्री प्राप्त की। 1931 में शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने आजीविका के लिए अध्यापन कार्य को अपनाया। उनके मन में बचपन से ही साहित्य के प्रति प्रेम था। अभी तक तो यह केवल अच्छे गद्य और पद्य साहित्य के पढ़ने तक सीमित था; पर 1933 में वे स्वयं इसमें सक्रिय रूप से जुड़ गये। उर्दू माहौल के कारण उन्होंने अपना प्रारम्भिक लेखन उर्दू में ही किया।

पर उर्दू की व्यापकता पूरे भारत में नहीं थी। अतः उन्होंने हिन्दी भाषा को अपने सृजन का आधार बनाया। 1944 में वे ऑल इंडिया रेडियो से जुड़े और हिन्दी सलाहकार के रूप में उनकी नियुक्ति दिल्ली में हो गयी। राजधानी दिल्ली पहुँच कर उनके सम्पर्क का क्षेत्र स्वाभाविक रूप से बढ़ गया। अब उनके साहित्य निर्माण की गति भी दुगनी हो गयी।

उन दिनों देश में मूक फिल्मों के बाद बोलती फिल्में बनने लगी थीं। धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मों के साथ भावनात्मक कहानियों पर भी फिल्में बन रही थीं। अतः हिन्दी और उर्दू में लिखने वाले उत्तर भारत के अनेक साहित्यकार मुम्बई जाने लगे। वहाँ पैसा और प्रसिद्धि दोनों ही भरपूर मिलती थी। 

‘अश्क’ जी पर उनके मित्रों ने इसके लिए दबाव डाला, तो उन्होंने भी एक दिन मुम्बई की राह पकड़ ली। 1945 से उन्होंने फिल्मों में पटकथा लिखना प्रारम्भ किया; पर उनका मन मायानगरी मुम्बई के बनावटीपन में अधिक समय तक नहीं लग सका। अतः फिल्मी दुनिया छोड़कर उन्होंने फिर से कहानी, कविता, नाटक और उपन्यास लिखने प्रारम्भ किये।

धीरे-धीरे इस क्षेत्र में उनकी पहचान बनने लगी। यों तो साहित्य की प्रायः हर विधा में उन्हें सफलता मिली; पर उनके नाटकों को लोगों ने अधिक पसन्द किया। उन्होंने लगभग 50 एकांकी लिखे, जिन्हें लोग आज भी बड़े चाव से देखते हैं। देवताओं की छाया में, पर्दा गिराओ, चरवाहे, अन्धी गली, साहब को जुकाम है.. आदि उनके एकांकी संग्रह हैं।

छठा बेटा, अंजो दीदी और कैद उनके सर्वश्रेष्ठ एकांकी हैं। उनके नाटकों की विशेषता यह थी कि वे पात्रों से छोटे और जन सामान्य की भाषा में संवाद बुलवाते थे। इससे वे श्रोताओं के मन में शीघ्रता से उतर जाते थे। उनके उपन्यासों में गिरती दीवारें, गर्म राख, शहर में घूमता आइना, एक नन्हीं कन्दील आदि उल्लेखनीय हैं। उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी ‘डाची’ मानी जाती है। 

अश्क जी को प्रेमचन्द की परम्परा का उपन्यासकार माना जाता है। उनके साहित्य में आदर्श और यथार्थ दोनों के उचित समन्वय के दर्शन होते हैं। वे अपने उपन्यासों में मध्यमवर्गीय परिवारों के जीवन का सजीव चित्रण करते थे, जिससे पाठक को यह अपने जीवन की ही कथा लगती थी। 

उन्होंने आलोचना, संस्मरण, निबन्ध, समीक्षा, अनुवाद आदि विधाओं में भी काम किया। 1963 में ललित कला अकादमी ने इन्हें श्रेष्ठ नाटककार का सम्मान दिया। 19 जनवरी, 1996 को ‘अश्क’ जी का देहांत हुआ।
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14 दिसम्बर/इतिहास-स्मृति

वीर बालिका शान्ति घोष व सुनीति चौधरी

आजकल त्रिपुरा भारत का एक अलग राज्य है; पर उन दिनों वह बंगाल का एक जिला तथा उसका मुख्यालय कोमिल्ला था। वहां के क्रूर जिलाधीश स्टीवेंस के अत्याचारों से पूरा जिला थर्रा रहा था। वह क्रांतिवीरों को बहुत कड़ी सजा देता था। अतः क्रांतिकारियों ने उसे ही मजा चखाने का निश्चय किया। पर यह काम आसान नहीं था, चूंकि वह बहुत कड़ी दो स्तरीय सुरक्षा में रहता था। कार्यालय का अधिकांश काम वह घर पर ही करता था। उससे मिलने आने वाले हर व्यक्ति की बहुत सावधानी से तलाशी ली जाती थी।

उन दिनों कोमिल्ला के फैजन्नुसा गर्ल्स हाइस्कूल की प्रधानाचार्य श्रीमती कल्याणी देवी थीं। वे सुभाषचंद्र बोस के गुरु वेणीमाधव दास की पुत्री थीं। उनकी छोटी बहिन वीणा दास बंगाल के गर्वनर स्टेनली जैक्सन के वध के अपराध में 13 वर्ष का कारावास भोग रही थीं। श्रीमती कल्याणी देवी बड़े प्रखर विचारों की थीं तथा छात्राओं के मन में भी स्वाधीनता की आग जलाती रहती थीं।

श्रीमती कल्याणी देवी ने एक दिन कक्षा आठ की छात्रा शांति घोष एवं सुनीति चौधरी को अपने पास बुलाया। ये दोनों बहुत साहसी तथा बुद्धिमान थीं। इन तीनों ने मिलकर स्टीवेंस को मारने की पूरी योजना बनाई। 14 दिसम्बर, 1931 को शांति और सुनीति अपने विद्यालय की वेशभूषा में स्टीफेंस के घर पहुंच गयीं। दोनों ने अपने कपड़ों में भरी हुई पिस्तौल छिपा रखी थी। 

द्वार पर तैनात संतरी के पूछने पर उन्होंने कहा कि हमारे विद्यालय की ओर से तीन मील की तैराकी प्रतियोगिता हो रही है, इसमें हमें जिलाधीश महोदय का सहयोग चाहिए। उन्होंने जिलाधीश महोदय के लिए एक प्रार्थना पत्र भी उसे दिया। संतरी ने उन्हें रोका और अंदर जाकर वह पत्र स्टीवेंस को दे दिया। स्टीवेंस ने उन्हें मिलने की अनुमति दे दी। उनके बस्तों की तो ठीक से तलाशी हुई; पर लड़की होने के कारण उनके शरीर की तलाशी नहीं ली गयी।

अंदर जाकर दोनों ने जिलाधीश का अभिवादन कर उनसे यह आदेश करने को कहा कि तैराकी प्रतियोगिता के समय नाव, स्टीमर, मोटरबोट आदि नदी से न निकलें, जिससे प्रतियोगिता ठीक से सम्पन्न हो जाए। स्टीवेंस ने कहा कि इस प्रार्थना पत्र पर तुम्हारे विद्यालय की प्रधानाचार्य जी के हस्ताक्षर नहीं हैं। पहले उनसे अग्रसारित करा लाओ, फिर मैं अनुमति दे दूंगा।

शांति और सुनीति मौका देख रही थीं। उन्होंने कहा कि आप यह बात कृपया इस पर लिख दें। स्टीवेंस ने कलम उठाई और लिखने लगा। इसी समय दोनों ने अपने कपड़ों में छिपी पिस्तौल निकाली और स्टीवेंस पर गोलियां दाग दीं। गोली की आवाज सुनते ही बाहर खड़े संतरी और कार्यालय में बैठे लिपिक आदि अंदर दौड़े; पर तब तक तो स्टीवेंस का काम तमाम हो चुका था।

सबने मिलकर दोनों बालिकाओं को पकड़ लिया। सब लोग डर से कांप रहे थे; पर शांति और सुनीति अपने लक्ष्य की सफलता पर प्रसन्न थीं। दोनों को न्यायालय में प्रस्तुत किया गया। शांति उस समय चौदह तथा सुनीति साढ़े चौदह वर्ष की थी। अवयस्क होने के कारण उन्हें फांसी नहीं दी जा सकती थी। अतः उन्हें आजीवन कालेपानी की सजा देकर अंदमान भेज दिया गया। 

इस प्रकार इन दोनों वीर बालिकाओं ने अपनी युवावस्था के सपनों की बलि देकर क्रांतिवीरों से हो रहे अपमान का बदला लिया। 

(संदर्भ: राष्ट्रधर्म दिसम्बर 2010 तथा क्रांतिकारी कोश)
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15 दिसम्बर/ जन्म-दिवस                  

विवेकानंद केन्द्र और स्वामी रंगनाथानंद

स्वामी रंगनाथानन्द का जन्म केरल के त्रिकूर ग्राम में 15 दिसम्बर, 1908 को हुआ था। उनका नाम शंकरम् रखा गया। आगे चलकर उन्होंने न केवल भारत अपितु विश्व के अनेक देशों में भ्रमण कर हिन्दू चेतना एवं वेदान्त के प्रति सार्थक दृष्टिकोण निर्माण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इससे उन्होंने अपने बचपन के शंकरम् नाम को सार्थक कर दिया।

1926 में वे मैसूर के रामकृष्ण मिशन से जुड़े। इसके बाद तो मिशन की गतिविधियों को ही उन्होंने अपने जीवन का एकमात्र कार्य बना लिया। रामकृष्ण परमहंस के प्रिय शिष्य, विवेकानन्द के गुरुभाई तथा मिशन के द्वितीय अध्यक्ष स्वामी शिवानन्द ने उन्हें 1933 मे संन्यास की दीक्षा दी। उन्होंने प्रारम्भ में मैसूर और फिर बंगलौर में सफलतापूर्वक सेवाकार्य किये। इससे रामकृष्ण मिशन के काम में लगे संन्यासियों के मन में उनके प्रति प्रेम, आदर एवं श्रद्धा का भाव क्रमशः बढ़ने लगा। 

1939 से 42 तक वे रामकृष्ण मिशन, रंगून (बर्मा) के अध्यक्ष और पुस्तकालय प्रमुख रहे। इसके बाद 1948 तक वे कराची में अध्यक्ष के नाते कार्यरत रहे। भा.ज.पा के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपने जीवन पर उनके उपदेशों के प्रभाव को स्पष्टतः स्वीकार किया है। देश विभाजन के बाद 1962 तक उन्होंने दिल्ली और फिर 1967 तक कोलकाता में रामकृष्ण मिशन की गतिविधियों का स॰चालन किया। इसके बाद वे हैदराबाद भेज दिये गये। 

1989 में उन्हें रामकृष्ण मिशन का उपाध्यक्ष तथा 1998 में अध्यक्ष चुना गया। भारत के सांस्कृतिक दूत के नाते वे विश्व के अनेक देशों में गये। सब स्थानों पर उन्होंने अपनी विद्वत्ता तथा भाषण शैली से वेदान्त का प्रचार किया। उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। उनके भाषणों के कैसेट भी बहुत लोकप्रिय थे।

कन्याकुमारी में विवेकानन्द शिला स्मारक के निर्माण के समय वे प्रारम्भ से ही उसकी गतिविधियों से जुड़े रहे। शिला स्मारक के संस्थापक श्री एकनाथ रानडे से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। 15 सितम्बर, 1970 को प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी विवेकानन्द शिला स्मारक समिति द्वारा आयोजित एक समारोह में आयीं। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वामी रंगनाथानन्द ने ही की। अपने अध्यक्षीय भाषण में स्वामी जी ने कन्याकुमारी और विवेकानन्द शिला स्मारक को भारत के नये प्रतीक की संज्ञा दी।

जब विवेकानन्द केन्द्र ने अपने कार्य के द्वितीय चरण में पूर्वोत्तर भारत में शैक्षिक एवं सेवा की गतिविधियाँ प्रारम्भ कीं, तो स्वामी रंगनाथानन्द ने सुदीर्घ अनुभव से प्राप्त अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिये। उन्होंने विवेकानन्द केन्द्र को समय की माँग बताया। एकनाथ जी एवं विवेकानन्द केन्द्र के साथ जुड़े समर्पित युवक एवं युवतियों को देखकर उन्हें बहुत प्रसन्नता होती थी।

स्वामी रंगनाथानन्द जी सदा आशावादी दृष्टिकोण अपनाते थे। एक निराश कार्यकर्त्ता को लिखे पत्र में उन्होंने कहा - यह एक दिन का कार्य नहीं है। पथ कण्टकाकीर्ण है; पर पार्थसारथी हमारे भी सारथी बनने को तैयार हैं। उनके नाम पर और उनमें नित्य विश्वास रखकर हम भारत पर सदियों से पड़े दीनता के पर्वतों को भस्म कर देंगे। सैकड़ों लोग संघर्ष के इस पथ पर गिरेंगे और सैकड़ों नये आरूढ़ होंगे। बढ़े चलो, पीछे मुड़कर मत देखो कि कौन गिर गया। ईश्वर ही हमारा सेनाध्यक्ष है। हम निश्चित ही सफल होंगे।

अपने शब्दों के अनुरूप कभी पीछे न देखने वाले इस संन्यासी योद्धा का देहान्त 26 अपै्रल, 2005 को हृदयाघात से हो गया।

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