लंदन में विजयादशमी पर्व
एक समय दुनिया में अंग्रेजों की तूती बोलती थी। ऐसे में इंग्लैंड में बसे भारतीय बहुत दबकर रहते थे। राजधानी लंदन में तो माहौल बहुत ही खराब था। वहां के हिन्दू केवल नाम के हिन्दू रह गये थे। वे अपने धार्मिक पर्व मनाने की बजाय चर्च जाते थे और क्रिसमस के कार्ड एक-दूसरे को देते थे। ऐसे माहौल में 1906 में विनायक दामोदर सावरकर बैरिस्टर की पढ़ाई करने के लिए लंदन पहुंचे। वे वहां स्वाधीनता सेनानी पंडित श्यामजी कृष्ण वर्मा के ‘इंडिया हाउस’ में रहते थे। उनके प्रयास से लोग स्वयं को हिन्दू कहने में लज्जा की बजाय गर्व का अनुभव करने लगे। इसके साथ ही वहां हिन्दू पर्व भी मनाये जाने लगे।
24 अक्तूबर, 1909 को लंदन के ‘क्वींस हाॅल’ में विजयादशमी पर्व मनाया गया। इसके लिए ‘श्रीरामो विजयते’ नामक एक सुनहरा निमंत्रण पत्र बांटा गया। समारोह में भोज का भी आयोजन था, जिसका शुल्क तीन रुपये रखा गया था। समारोह में सौ से भी अधिक भारतीय पुरुष और महिलाएं शामिल हुईं। इनमें लंदन के बड़े-बड़े व्यापारी, प्रोफेसर, डाॅक्टर और विद्यार्थी भी थे। समारोह की अध्यक्षता बैरिस्टर मोहनदास करमचंद गांधी ने की। केवल भारतीयों के लिए होने के कारण इसमें बाहर के लोग शामिल नहीं किये गये थे।
समारोह के लिए ‘क्वींस हाॅल’ को बहुत अच्छा सजाया गया था। भव्य राष्ट्रीय निशान और उस पर मोटे अक्षरों में ‘वन्दे मातरम्’ लिखा था। सबसे पहले राष्ट्रीय गीत और फिर गांधीजी का भाषण हुआ। उन्होंने कहा कि आज यहां थाली लगाना, पानी देना, रसोई बनाना जैसे कार्य डाॅक्टर, प्रोफेसर आदि ने स्वयंसेवक बनकर किये। यह लोकसेवा का अच्छा उदाहरण है। लंदन में ऐसा समारोह होगा, इसकी मुझे कल्पना भी नहीं थी। यह हिन्दू समारोह है; पर इसमें मुसलमान और पारसी भी आये हैं। यह अच्छी बात है। श्रीराम के सद्गुण यदि अपने राष्ट्र में फिर उत्पन्न हो जाएं, तो देश की उन्नति होने में देर नहीं लगेगी।
इसके बाद हिन्दुस्थान के नाम का जयघोष किया गया। दक्षिण अफ्रीका से गांधीजी के साथ आये अली अजीज ने कहा कि हिन्दुस्थान हिन्दू और मुसलमान दोनों की भूमि है। उसकी उन्नति हो तथा वह शक्तिशाली बने। इसके बाद वीरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय बोले। अब गांधीजी ने सावरकर को बोलने का आग्रह करते हुए कहा कि उनके और मेरे विचारों में कुछ भिन्नता है। फिर भी उनके साथ बैठने का मुझे अभिमान है। उनके स्वार्थ त्याग और और देशभक्ति के मधुर फल अपने देश को चिरकाल तक मिलें, यह मेरी इच्छा है।
सावरकर के खड़े होते ही श्रोताओं ने पांच मिनट तक ताली बजाकर उनका सम्मान किया। सावरकर ने इसके लिए धन्यवाद देते हुए श्रीराम को पुष्पांजलि अर्पित की। अपने पौने घंटे के भाषण में उन्होंने राजनीतिक विषयों को स्पर्श नहीं किया। वह भाषण पूरी तरह श्रीराम के जीवन पर ही केन्द्रित रहा। उन्होंने कहा कि जब श्रीराम अपने पिता के आदेश पर वन गये, तो वह कार्य ‘महत्’ था। जब उन्होंने अत्याचारी रावण को मारा, तो वह कार्य ‘महत्तर’ था; पर जब उन्होंने ‘‘आराधनाय लोकस्य मंुचतो नास्ति मे व्यथा’’ कहकर भगवती सीता को उपवन में भेज दिया, तो वह कार्य ‘महत्तम’ था। श्रीराम ने व्यक्ति और पारिवारिक कर्तव्यों को अपने लोकनायक रूपी राजा के कर्तव्यों पर बलिदान कर दिया। इसलिए उनकी मूर्ति हर हिन्दू को अपने मन में धारण करनी चाहिए। इससे ही भारत की उन्नति होगी।
उन्होंने कहा कि हिन्दू समाज हिन्दुस्थान का हृदय है। फिर भी जैसे इन्द्रधनुष के कई रंगों से उसकी शोभा बढ़ती है, वैसे ही मुसलमान, पारसी, यहूदी आदि विश्व के उत्तमांश मिलाकर हिन्दुस्थान भी काल के आकाश में अधिक ही खिलेगा। सभा के अध्यक्ष गांधीजी ने कहा कि विनायक दामोदर सावरकर के भाषण पर सब लोग ध्यान दें और इनके निवेदन को आत्मसात करें। राष्ट्रगीत के गायन से यह विजयादशमी समारोह सम्पन्न हुआ।
(संदर्भ : सावरकर समग्र, 1/610,11,12/प्रभात प्रकाशन)
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24 अक्तूबर/पुण्य-तिथि
गांधीवादी चिन्तक श्री धर्मपाल
श्री धर्मपाल जी की गणना भारत के महान गांधीवादी चिन्तकों में की जाती है। उनका जन्म 1922 में कांधला (जिला मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में हुआ था। 1942 में वे भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय हुए और उन्हें जेल यात्रा करनी पड़ी। शासन ने उनके दिल्ली प्रवेश पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। अतः गांधी जी की प्रेरणा से वे उनकी एक विदेशी शिष्या मीरा बहन द्वारा ऋषिकेष में किये जा रहे भारतीय खेती के प्रयोगों से जुड़ गये।
1949 तक धर्मपाल जी वहीं काम करते रहे। इसके बाद मीरा बहन ने उन्हें इंग्लैण्ड होते हुए इसराइल जाकर ग्राम विकास के किबुंज प्रयोग का अध्ययन करने को कहा। इंग्लैण्ड में उनकी भेंट एक महिला समाजसेवी फिलिस से हुई। आगे चलकर दोनों ने विवाह कर लिया और भारत आ गये।
अब धर्मपाल जी को परिवार चलाने के लिए भी कुछ उद्यम करना था। उनकी पत्नी मसूरी में अध्यापन कार्य करने लगी। कालान्तर में उन्हें एक पुत्र और दो पुत्रियों की प्राप्ति हुई। 1957 में परिवार सहित दिल्ली आकर वे गांधीवादी संस्थाओं में काम करने लगे। इस दौरान उनका सम्पर्क अनेक लोगों से हुआ। इनमें से सीताराम गोयल, रामस्वरूप तथा धर्मपाल जी ने अपने मित्रधर्म का आजीवन पालन किया।
धर्मपाल जी एक बार मद्रास प्रान्त में पंचायत व्यवस्था के अध्ययन के लिए अभिलेखागारों को खंगाल रहे थे। उनकी दृष्टि वहाँ भारत में अंग्रेजी राज्य से पूर्व की पंचायत व्यवस्था सम्बन्धी अभिलेखों पर पड़ी। उन्होंने पाया कि भारतीय पंचायत व्यवस्था बहुत अच्छी थी, जिसे अंग्रेजों ने जानबूझ कर नष्ट किया। इससे उनकी सोच की दिशा बदल गयी।
अब उन्होंने अपना पूरा समय भारत की प्राचीन न्याय, शिक्षा, कृषि, विज्ञान, उद्योग....आदि प्रणालियों के अध्ययन में लगा दिया। इसके लिए उन्हें भारत तथा विदेशों के अनेक अभिलेखागारों में महीनों बैठना पड़ा। निष्कर्ष यह निकला कि अंग्रेजों का 250 साल का काल भारत की सब आधारभूत व्यवस्थाओं की बर्बादी का काल है। उस पर भी तुर्रा यह कि अंग्रेजों ने शिक्षित भारतीयों के मन मस्तिष्क में यह बात बैठा दी कि अंग्रेजों ने आकर जंगली भारतीयों को सभ्य बनाया।
धर्मपाल जी का निष्कर्ष था कि मुस्लिम काल में ये व्यवस्थाएँ नष्ट नहीं हो पायीं; पर अंग्रेजों ने इनका गहन अध्ययन किया और फिर षड्यन्त्रपूर्वक इन्हें तोड़कर सदा के लिए भारतीय मस्तिष्क को गुलाम बना लिया। उनके अध्ययन पर आधारित पुस्तकें जब प्रकाशित हुईं, तो सर्वत्र हलचल मच गयी। गांधी जी के नाम पर सत्ता भोग रहे राजनीतिक दल और नेता अंग्रेजी शासन को देश के लिए वरदान मानते थे। अतः उन्होंने धर्मपाल जी से दूरी बना ली।
धर्मपाल जी गांधी जी के भक्त थे, कांग्रेस के नहीं। इसीलिए जब सोनिया गांधी ने प्रधानमन्त्री बनने का प्रयास किया, तो उसके विरुद्ध उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शन किया। जीवन के अन्तिम कुछ वर्षों में कांग्रेस और कम्यूनिस्टों से उनका मोहभंग हो गया और वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित हो गये। नागपुर में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग (तृतीय वर्ष) के सार्वजनिक समापन कार्यक्रम में वे अध्यक्षता करने गये। दीनदयाल शोध संस्थान में भी कई बार उनके भाषण हुए। 24 अक्तूबर, 2006 को गांधी जी की तपःस्थली सेवाग्राम में 84 वर्षीय इस मनीषी का देहान्त हो गया।
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24 अक्तूबर/इतिहास-स्मृति
पाकिस्तानी षड्यंत्र विफल
हुआ
1947 में स्वाधीनता मिलने के बाद पूरा देश उथल-पुथल के दौर से
गुजर रहा था। इनमें जम्मू-कश्मीर का हाल सबसे खराब था। वहां राजा हिन्दू था, पर अधिकांश प्रजा मुसलमान। शेख अब्दुल्ला अपनी
अलग ढपली बजा रहा था। प्रधानमंत्री नेहरू जी का हाथ उसकी पीठ पर था। पूरे देश के
एकीकरण का भार सरदार पटेल पर था; लेकिन जम्मू-कश्मीर में
नेहरू जी अपनी चला रहे थे।
24 अक्तूबर को विजयादशमी का पर्व था। हर साल इस दिन महाराजा
की शोभायात्रा श्रीनगर में होती थी। हिन्दुओं के साथ मुसलमान भी उत्साह से इसमें
शामिल होते थे। पाकिस्तान समर्थकों ने इस शोभायात्रा पर हमला कर राजा के अपहरण या
हत्या का षड्यंत्र रचा। इससे वे पूरे राज्य में अफरातफरी मचाना चाहते थे। उस दौरान
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सैकड़ों कार्यकर्ता देश की रक्षा के लिए प्रयासरत थे।
उन्हें इस षड्यंत्र का पता लग गया।
इससे एक दिन पूर्व
बारामूला और उड़ी के मार्ग से सैकड़ों पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के वेष में
श्रीनगर की ओर चल दिये थे। उनकी योजना 24 अक्तूबर को
श्रीनगर पर कब्जा करने की थी। शोभायात्रा स्थगित करने से राज्य में गलत संदेश जाने
का भय था। अतः राज्य प्रशासन ने संघ से संपर्क कर एक योजना बनायी। इसके अनुसार 24 अक्तूबर को सुबह छह बजे तक 200 युवा स्वयंसेवक वजीरबाग
के आर्य समाज मंदिर में पहुंच गये।
वहां उन्हें पूरी योजना
समझाई गयी। इसके बाद संघ प्रार्थना हुई। फिर उनमें से 150 युवक सैन्य वाहन से बादामी बाग छावनी भेज दिये गये। वहां अगले कुछ घंटे तक
उन्हें राइफल चलाना सिखाया गया। पहले नकली और फिर असली कारतूसों ने निशानेबाजी का
अभ्यास हुआ। सैन्य अधिकारी उन्हें सीमा पर भेजना चाहते थे। संघ के स्वयंसेवक इसके
लिए तैयार थे; पर गहन विचार विमर्श के बाद उन्हें शोभायात्रा की सुरक्षा
में तैनात कर दिया गया।
शाम को पांच बजे
शोभायात्रा शुरू हुई। सबसे आगे रियासत का प्रमुख बैंड था। उसके पीछे सौ घुड़सवार
सुंदर वेशभूषा में अपने भालों पर रियासत का लाल तथा केसरी ध्वज लिये आठ-आठ की
पंक्तियों में चल रहे थे। उसके पीछे छह घोड़ों की एक संुदर और सुसज्जित बग्घी पर
राजा, युवराज और उनके दो अंगरक्षक बैठे थे। जरी की अचकन और केसरी
पगड़ी में पिता-पुत्र बहुत सुशोभित हो रहे थे। उसके पीछे की बग्घियों में राज्य
मंत्रिमंडल के सदस्य तथा कुछ बड़े जागीरदार थे। उनके पीछे फिर सौ घुड़सवार थे।
शोभायात्रा धीरे-धीरे अपने निर्धारित मार्ग पर बढ़ रही थी।
जहां से भी यह शोभायात्रा
गुजरती, लोग उत्साह से ‘महाराजा बहादुर
की जय’ के नारे लगाते थे। राज्य की पुलिस के साथ ही साधारण वेशभूषा
में 150 स्वयंसेवक भी पूरे रास्ते पर तैनात थे। झेलम नदी के पुल से
होकर शोभायात्रा अमीराकदल के चैक में पहुंची। वहां दर्शकों की अपार भीड़ थी। जैसे
ही महाराजा की सवारी चैक के बीच में पहुंची, दर्शकों में से
किसी ने काले रंग की गेंद जैसी कोई चीज महाराजा पर फेंकनी चाही। वह वस्तुतः एक बम
था; पर तभी दर्शकों में खड़े एक युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया। दो
युवाओं ने उस बमबाज को गले से पकड़ा और भीड़ से बाहर खींच लिया। आम लोग शोभायात्रा
देखने में व्यस्त थे। उन्हें कुछ पता नहीं लगा।
शोभायात्रा अपने
निर्धारित समय पर राजगढ़ के महल में पहुंच गयी। वहां आठ बजे दरबार शुरू हुआ, जिसमें कुछ लोगों को उपहार तथा उपाधियां आदि दी गयीं। नौ बजे महाराजा और उनके
परिजन अपने आवास पर लौट गये। इस प्रकार स्वयंसेवकों ने एक भारी षड्यंत्र को विफल
कर दिया। इसके दो दिन बाद राजा के हस्ताक्षर से जम्मू-कश्मीर भारत का अंग बन गया।
(जीत या हार/165, बलराज मधोक, हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली)
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25 अक्तूबर/जन्म-दिवसक्रान्ति और सद्भाव के समर्थक गणेशशंकर विद्यार्थी
श्री गणेशशंकर विद्यार्थी का जन्म प्रयाग के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद के घर में 25 अक्तूबर, 1890 को हुआ था। इनके नाना सहायक जेलर थे। इनके पुरखे जिला फतेहपुर (उ.प्र.) के हथगाँव के मूल निवासी थे; पर जीवनयापन के लिए इनके पिता श्री जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर जिला गुना, मध्य प्रदेश के गंगवली कस्बे में बस गये। वहीं गणेश को स्थानीय एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल में भर्ती करा दिया गया।
प्रारम्भिक शिक्षा वहाँ से लेने के बाद गणेश ने अपने बड़े भाई के पास कानपुर आकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने प्रयाग में इण्टर में प्रवेश लिया। उसी दौरान उनका विवाह हो गया, जिससे पढ़ाई खण्डित हो गयी; लेकिन तब तक उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता का शौक लग गया था, जो अन्त तक जारी रहा। विवाह के बाद घर चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी, अतः वे फिर कानपुर भाईसाहब के पास आ गये।
1908 यहाँ उन्हें कानपुर में एक बैंक में 30 रु. महीने की नौकरी मिल गयी। एक साल बाद उसे छोड़कर विद्यार्थी जी पी.पी.एन.हाईस्कूल में अध्यापन कार्य करने लगे। यहाँ भी अधिक समय तक उनका मन नहीं लगा। वे इसे छोड़कर प्रयाग आ गये और वहाँ ‘सरस्वती’ एवं ‘अभ्युदय’ नामक पत्रों के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया; पर यहाँ उनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। अतः वे फिर कानपुर लौट गये और 19 नवम्बर, 1918 से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया।
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध सामग्री से भरपूर प्रताप समाचार पत्र के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया। वे उसके संयोजन, छपाई से लेकर वितरण तक के कार्य में स्वयं लगे रहते थे। अतः प्रताप की लोकप्रियता बढ़ने लगी। दूसरी ओर वह अंग्रेज शासकों की निगाह में भी खटकने लगा। 1920 में विद्यार्थी जी ने प्रताप को साप्ताहिक के बदले दैनिक कर दिया। इससे प्रशासन बौखला गया। उसने विद्यार्थी जी को झूठे मुकदमों में फँसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया।
इतनी बाधाओं के बावजूद भी विद्यार्थी जी का साहस कम नहीं हुआ। उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता के लिए जो भी कार्यक्रम दिये जाते थे, विद्यार्थी जी उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। इतना ही नहीं, वे क्रान्तिकारियों की भी हर प्रकार से सहायता करते थे। उनके लिए रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के भरणपोषण की भी चिन्ता वे करते थे। क्रान्तिवीर भगतसिंह ने भी कुछ समय तक विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में पहले तो सब साथ दे रहे थे; पर फिर पाकिस्तान की माँग जोर पकड़ने लगी। भगतसिंह आदि की फांसी का समाचार अगले दिन 24 मार्च, 1931 को देश भर में फैल गया। लोगों ने जुलूस निकालकर शासन के विरुद्ध नारे लगाये। इससे कानपुर में साम्प्रदायिक दंगे भड़क गये। विद्यार्थी जी अपने जीवन भर की तपस्या को भंग होते देख बौखला गये। वे सीना खोलकर दंगाइयों के आगे कूद पड़े।
दंगाई तो मरने-मारने पर उतारू ही थे। उन्होंने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उनकी लाश के बदले केवल एक बाँह मिली, जिस पर लिखे नाम से वे पहचाने गये। वह 25 मार्च, 1931 का दिन था, जब धर्मान्धता की बलिवेदी पर भारत माँ के सपूत गणेशशंकर विद्यार्थी का बलिदान हुआ।
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25 अक्तूबर/जन्म-दिवस
नाद योगी मदुरै मणि अय्यर
शास्त्रीय संगीत की अनेक
विधाएं एवं शैलियां हैं। उनमें से एक कर्नाटक शैली भी है। इस शैली के शीर्षस्थ
गायक मदुरै मणि अय्यर का जन्म 25 अक्तूबर, 1912 को तमिलनाडु के प्रसिद्ध नगर मदुरै में हुआ था। उनके पिता श्री
एम.एस.रामास्वामी अय्यर तथा माता श्रीमती सुब्बुलक्ष्मी थीं। उनका बचपन का नाम
सुब्रह्मण्यम था;
पर वे मदुरै मणि अय्यर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
मणि के चाचा पुष्पवनम् भी
एक श्रेष्ठ शास्त्रीय गायक एवं संगीतकार थे। नौ वर्ष की अवस्था से मणि गीत और
संगीत सीखने लगे थे। उनके पहले गुरु राजम भागवतार थे, जो उनके चाचा के भी गुरु थे। फिर वे अति प्रतिष्ठित श्री त्यागराज संगीत
विद्यालय, मदुरै के संस्थापक हरि केसनल्लूर मुथैया भागवतार के संपर्क
में आये। उन्होंने मणि की प्रतिभा को पहचाना और उसे संवारा।
1927 में अवाडी में हुए कांग्रेस अधिवेशन में महा वैद्यनाथ
अय्यर की स्मृति में एक संगीत सम्मेलन हुआ। उसमें मणि के पिता ने ‘मेलरागमलिका’
पर व्याख्यान दिया और मणि ने गायन किया। इसके
लिए पिता और पुत्र दोनों को पुरस्कृत किया गया। मणि की गायकी में स्वरम्, कल्पना, नेरावल, आलाप आदि बहुत सुंदर होते
थे। वे संगीत के चलते फिरते विश्वविद्यालय थे। इसलिए उनकी शैली का अनुसरण कर्नाटक
शैली के गायक आज भी करते हैं।
मणि द्वारा गायी
गोपालकृष्ण भारती की ‘येप्पो वरुवारो’, दीक्षित
नटुस्वरम् की ‘इंग्लिश नोट्स’ तथा संत त्यागराज की ‘मां जानकी’ आदि रचनाएं आज भी बहुत सुनी जाती हैं। उन्होंने संत
त्यागराज तथा महाराजा स्वाति तिरुनल की रचनाएं बहुत मधुरता से गायी हैं। राग
कंबोजी में ‘परिमल रंगपथे’, राग वाचस्पति में ‘परत्परा परमेश्वरम्’, राम शंकराभरणम् में ‘तुकिया तिरुवाडि’ सुनकर श्रोता अभिभूत हो जाते हैं। इसलिए उन्हें
नाद योगी भी कहा जाता है। 1967 के तमिल ईसाई संगम में
उनका गाया ‘सदानंद तांडवम्’ अमरगान है।
तंजावूर के एक समारोह में
उन्हें सुनने 20,000 से अधिक लोग आये थे। वहां उन्होंने राग मध्यामावती में संत
त्यागराज की ‘अनंतरक्षकि श्री कामाक्षी’ तथा ‘विनायकुनि’ का गायन किया था। इस सम्मोहनकारी गायन से प्रभावित होकर आयोजकों
ने उन्हें ‘गान कलाधर’ की उपाधि दी। 1959 में मद्रास संगीत अकादमी ने उन्हें ‘संगीत कलानिधि’ तथा 1960 में राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने संगीत के सर्वोच्च
‘संगीत नाटक अकादमी सम्मान’ से विभूषित किया।
मणि अय्यर गायन में
शुद्धता और भाव पक्ष पर बहुत ध्यान देते थे। वे किसी भी स्वर को जिस विशेषज्ञता से
प्रस्तुत करते थे,
लोग उसे सहर्ष स्वीकार करते थे। उनकी आवाज भी
बहुत बुलंद थी। इस कारण उनकी एक विशेष शैली बन गयी। वे अपने गायन में पांडित्य और
परम्परा के संवाहक थे। उनके गायन से चारों और शांति और अध्यात्म का वातावरण बन
जाता था।
मणि को संगीत के साथ ही
अंग्रेजी साहित्य में भी बहुत रुचि थी। संगीत शिक्षण के कारण उन्होंने स्कूल की
औपचारिक शिक्षा जल्दी ही छोड़ दी; पर अंग्रेजी पुस्तकें
लेने के लिए वे मायलापुर स्थित अपने घर से काफी दूर ‘कोनोमारा पुस्तकालय’ में पैदल ही जाते थे। वे अंग्रेजी साहित्यकार
बर्नार्ड शाॅ और अभिनेता चार्ली चैप्लिन के प्रशंसक थे। तमिल तथा अंग्रेजी में
समाचार सुनने के शौक के चलते वे सामयिक राजनीति के भी अच्छे जानकार थे।
32 वर्ष में वे एक ऐसे रोग से ग्रस्त हो गये कि उनके लिए गाना
कठिन हो गया। यह रोग उनके लिए जीवन मरण का प्रश्न हो गया; पर ईश्वर की कृपा और अच्छी दवाओं से वे फिर मंचों की शोभा बन गये। यद्यपि इससे
उनकी आवाज कुछ प्रभावित जरूर हुई। गायन को अपना जीवन धर्म मानने वाले नाद योगी
मदुरै मणि अय्यर का आठ जून, 1968 को निधन हुआ।
(विकी/दै.जागरण 21.10.24, सप्तरंग, शशिप्रभा तिवारी)
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26 अक्तूबर/जन्म-दिवसगोविन्द भक्त सन्त नामदेव
निर्गुण सन्तों में सन्त नामदेव का नाम अग्रणी है। उनका जन्म 26 अक्तूबर, 1270 ई. को महाराष्ट्र के नरसी बामनी नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री दामाशेट और माता श्रीमती गोणाई थीं। कुछ लोग इनका जन्मस्थान पण्डरपुर मानते हैं। इनके पिताजी दर्जी का काम करते थे; जो आगे चलकर पण्डरपुर आ गये और विट्ठल के उपासक हो गये। वे विट्ठल के श्रीविग्रह की भोग, पूजा, आरती आदि बड़े नियम से करते थे।
जब नामदेव केवल पाँच वर्ष के थे, तो इनके पिता को किसी काम से बाहर जाना पड़ा। उन्होंने विट्ठल के विग्रह को दूध का भोग लगाने का काम नामदेव को सौंप दिया। अबोध नामदेव को पता नहीं था कि मूर्त्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावात्मक भोग ही लगाया जाता है।
नामदेव ने मूर्त्ति के सामने दूध रखा, जब बहुत देर तक दूध वैसा ही रखा रहा, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गये। बोले - जब तक तुम दूध नहीं पियोगे, मैं हटूँगा नहीं। जब तुम पिताजी के हाथ से रोज पीते हो, तो आज क्या बात है ? कहते हैं कि बालक की हठ देखकर विट्ठल भगवान प्रगट हुए और दूध पी लिया।
बड़े होने पर इनका विवाह राजाबाई से हुआ। उससे उन्हें चार पुत्र तथा एक पुत्री की प्राप्ति हुई। पण्ढरपुर से कुछ दूर स्थित औढिया नागनाथ मन्दिर में रहने वाले विसोबा खेचर को इन्होंने अपना अध्यात्म गुरु बनाया। आगे चलकर सन्त ज्ञानदेव और मुक्ताबाई के सान्निध्य में नामदेव सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति में प्रवृत्त हुए और योग मार्ग के पथिक बने।
ज्ञानदेव से इनका प्रेम इतना प्रगाढ़ हुआ कि वे इन्हें अपने साथ लम्बी तीर्थयात्रा पर काशी, अयोध्या, मारवाड़, तिरुपति, रामेश्वरम आदि के दर्शनार्थ ले गये। एक-एक कर सन्त ज्ञानदेव, उनके दोनों भाई एवं बहिन ने भी समाधि ले ली। इससे नामदेव अकेले हो गये। इस शोक एवं बिछोह में उन्होंने समाधि के अभंगों की रचना की।
इसके बाद भ्रमण करते हुए वे पंजाब के भट्टीवाल स्थान पर पहुँचे और वहाँ जिला गुरदासपुर में ‘घुमान’ नगर बसाया। फिर वहीं मन्दिर बनाकर तप किया और विष्णुस्वामी, परिसा भागवते, जनाबाई, चोखामेला, त्रिलोचन आदि को नाम दीक्षा दी।
सन्त नामदेव मराठी सन्तों में तो सर्वाधिक पूज्य हैं ही; पर उत्तर भारत की सन्त परम्परा के तो वे प्रवर्तक ही माने जाते हैं। मराठी साहित्य में एक विशेष प्रकार के छन्द ‘अभंग’ के जनक वे ही हैं। पंजाब में उनकी ख्याति इतनी अधिक रही कि 'श्री गुरु ग्रन्थ साहिब' में उनकी वाणी संकलित है। सन्त कबीर, रविदास, दादू, नानकदेव, मलूकदास आदि की ही तरह निर्गुण के उपासक होने के कारण नामदेव ने अपने काव्य में मूर्ति पूजा, कर्मकाण्ड, जातिभेद, चमत्कार आदि से दूर रहने की बात कही है। इसी प्रकार वे परमात्मा की प्राप्ति के लिए सद्गुरु की कृपा को बहुत महत्त्व देते हैं।
पंजाब के बाद अन्य अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए वे फिर अपने प्रिय स्थान पण्ढरपुर आ गये और वहीं 80 वर्ष की अवस्था में आषाढ़ बदी 13, विक्रमी संवत 1407 (3 जुलाई, 1350 ई.) को उन्होंने समाधि ले ली। वे मानते थे आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है। परमात्मा द्वारा निर्मित सभी जीवों की सेवा ही मानव का परम धर्म है। इसी से साधक को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। सन्त नामदेव द्वारा प्रवर्तित ‘वारकरी पन्थ’ के लाखों उपासक विट्ठल और गोविन्द का नाम स्मरण कर अपने जीवन को धन्य बना रहे हैं।
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26 अक्तूबर/बलिदान-दिवस
कश्मीर के रक्षक
ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह
26 अक्तूबर, 1947 को महाराजा
हरिसिंह के हस्ताक्षर से जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ। दो महीने तक वे
असमंजस में रहे कि वे विलय करें या नहीं। पाकिस्तान ने इसका लाभ उठाकर ज/क का काफी
हिस्सा कब्जा लिया। शेष राज्य को बचाने का श्रेय ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को है।
उनका जन्म 14 जून, 1899 को सांबा जिले
के बगूना गांव में एक सैन्य परिवार में हुआ था। इसलिए शिक्षा के बाद वे भी रियासत
की फौज में भरती हो गये।
22 अक्तूबर, 1947 को पाकिस्तान ने
ज/क पर हमला बोल दिया। 24 अक्तूबर को दशहरे पर परम्परागत रूप से महाराजा
की शोभायात्रा श्रीनगर में होती थी। वहां के पाकिस्तान समर्थकों ने उस पर हमला कर
राजा के अपहरण का षड्यंत्र रचा। वे सोचते थे कि राजा दबाव में आकर पाकिस्तान में
विलय के पत्र पर हस्ताक्षर कर देंगे। या उन्हें मारकर बाजी ही उलट देंगे; पर संघ के स्वयंसेवकों की जागरूकता से यह षड्यंत्र विफल हो गया।
पर इधर पाकिस्तानी सैनिक
लगातार आगे बढ़ रहे थे। 24 अक्तूबर को शोभायात्रा
समाप्त होते ही पूरे श्रीनगर की बिजली चली गयी। पूछने पर पता लगा कि उड़ी के पास
महुरा बिजलीघर पर शत्रु का कब्जा हो गया है। उड़ी सामरिक दृष्टि से बहुत
महत्वपूर्ण था। बारामूला वहां से पास ही था। उस पर यदि शत्रु का कब्जा हो जाता, तो फिर श्रीनगर का पतन निश्चित था।
यह बात महाराजा भी जानते
थे। इसलिए उन्होंने 23 अक्तूबर को अपने विश्वस्त ब्रिगेडियर
राजेन्द्र सिंह के नेतृत्व में 200 सैनिक वहां भेज दिये।
वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि शत्रु सैनिक संख्या में बहुत अधिक हैं तथा उन्होंने
आसपास पहाड़ों पर मोरचे बना लिये हैं। जब उन्होंने अपने साथियों से परामर्श किया, तो वे सब निराश थे। ब्रिगे. राजेन्द्र सिंह ने अपने पूर्वजों की वीरता की
कहानियां सुनाकर उनमें जोश भरा, जिससे वे लड़ने को तैयार
हो गये।
उड़ी से बारामूला मार्ग
पर एक पुल था। ब्रिगे. राजेन्द्र सिंह की योजना थी कि यदि उसे तोड़ दें, तो शत्रु आगे नहीं बढ़ सकता; पर मजबूत लोहे और सीमेंट
से बना होने के कारण उसे बिना डायनामाइट के नहीं तोड़ा जा सकता था, जो उनके पास नहीं था। फिर भी रियासती सेना पुल के पास मोरचे बनाने लगी। इस पर
पहाडि़यों पर तैनात शत्रु गोली चलाने लगे। इससे कई रियासती सैनिक मारे गये।
ब्रिगे. राजेन्द्र सिंह ने कुछ सैनिक बारामूला भेज दिये, जिससे यदि उड़ी छोड़ना पड़े, तो बारामूला बच सके। इसके
साथ ही वे विभिन्न मोरचों पर जाकर सैनिकों का उत्साहवर्धन करने लगे। इस लड़ाई में
पूरा दिन बीत गया। इस दौरान उन्हें भी कई गोलियां लगीं। उन्होंने पीछे हटने का
निर्णय लिया; पर शत्रुओं ने उड़ी और बारामूला के बीच पत्थर और पेड़ काटकर
बिछा दिये थे, जिससे कोई रियासती सैनिक बचकर वापस न जा सके।
इस सबके बावजूद रियासती
सैनिक बीच की रुकावट को पैदल पारकर दूसरी ओर खड़े ट्रकों में बैठने लगे; पर ब्रिगे. राजेन्द्र सिंह की जांघों में गोलियां लगने से वे खड़े होने की
स्थिति में भी नहीं थे। एक सैनिक ने उन्हें उठाना चाहा; पर वह भी गोली का शिकार हो गया। तभी शत्रु जीप में सवार सैनिकों ने उन पर भीषण
गोलीवर्षा कर दी। जिससे 26 अक्तूबर, 1947 को वे युद्धभूमि में ही शहीद हो गये। दुर्भाग्यवश गोली चलाने वाला मुसलमान
सैनिक पहले रियासती सैनिक था, जो अपने साथियों सहित
उधर जा मिला था।
यद्यपि उड़ी और फिर
बारामूला भी पाकिस्तान के कब्जे में आ गया; पर इस सबमें एक
दिन बीत जाने से श्रीनगर और शेष कश्मीर बच गया। ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह को
मरणोपरांत भारत के पहले ‘महावीर चक्र’ से अलंकृत किया गया। उनका गांव अब राजेन्द्रपुरा के नाम से जाना जाता है।
(विकी, जीत या हार/170, बलराज मधोक, हिन्दी साहित्य सदन, न.दि)
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27 अक्तूबर/जन्म-दिवसमहान इतिहासकार पंडित भगवद्दत्त
पंडित भगवद्दत्त जी का जन्म 27 अक्तूबर, 1893 को अमृतसर (पंजाब) में श्री चंदनलाल तथा श्रीमती हरदेवी के घर में हुआ था। आर्य समाजी परिवार होने के कारण भगवद्दत्त जी का संस्कृत से बहुत प्रेम था। अतः कक्षा 12 तक विज्ञान के छात्र रहने के बाद उन्होंने 1915 में डी.ए.वी. कालिज, लाहौर से संस्कृत एवं दर्शन शास्त्र में बी.ए किया।
उन्हीं दिनों उनका संपर्क स्वामी लक्ष्मणानंद से हुआ, जिन्होंने ऋषि दयानंद से योग-विधि सीखी थी। उनकी ‘ध्यान योग’ नामक पुस्तक भी उन दिनों बहुत प्रसिद्ध थी। स्वामी जी ने भगवद्दत्त जी को भी वह योग-विधि सिखाई। इससे उन्हें उत्तम स्वास्थ्य तथा एकाग्रता का असीम लाभ जीवन भर मिलता रहा।
बी.ए. करने के बाद भगवद्दत्त जी की इच्छा वेदों के अध्ययन की थी। अतः वे लाहौर के डी.ए.वी. कालिज के अनुसंधान विभाग में काम करने लगे। उनकी लगन देखकर विद्यालय के प्रबंधकों ने छह वर्ष बाद उन्हें वहीं विभागाध्यक्ष बना दिया। अगले 13 वर्ष में उन्होंने लगभग 7,000 हस्तलिखित ग्रंथों का संग्रह तथा अध्ययन कर उनमें से कई उपयोगी ग्रंथों का सम्पादन व पुनर्प्रकाशन किया; पर किसी सैद्धांतिक कारण से उनका तालमेल अनुसंधान विभाग में कार्यरत पंडित विश्वबन्धु से नहीं हो सका। अतः भगवद्दत्त जी डी.ए.वी कालिज की सेवा से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से अध्ययन में लग गये।
अध्ययन, अनुसंधान और लेखन के साथ ही वे आर्य समाज में सक्रिय रहते थे। आर्य समाज के उच्च संस्था ‘परोपकारिणी सभा’ के वे निर्वाचित सदस्य थे। वे उसकी ‘विद्वत् समिति’ के भी सदस्य थे। उनकी ख्याति एक श्रेष्ठ विद्वान व वक्ता की थी। आर्य समाज के कार्यक्रमों में वे देश भर में प्रवास भी करते थे। इसी कारण वे पंडित भगवद्दत्त के नाम से प्रसिद्ध हुए।
नारी शिक्षा के समर्थक भगवद्दत्त जी ने अपनी पत्नी सत्यवती को पढ़ने के लिए प्रेरित किया और वह शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करने वाली पंजाब की प्रथम महिला बनीं। उनके पुत्र सत्यश्रवा भी संस्कृत विद्वान हैं, उन्होंने अपने पिताजी के अनेक ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद कर प्रकाशित किया है। देश विभाजन के बाद दिल्ली आते समय दुर्भाग्यवश वे अपने विशाल गं्रथ संग्रह का कुछ ही भाग साथ ला सके। दिल्ली में भी वे सामाजिक जीवन में सक्रिय रहे।
अनेक भारतीय तथा विदेशी विद्वानों ने उनकी खोज व विद्वत्ता को सराहा है। उनका परस्पर पत्र-व्यवहार भी चलता था; पर उन्हें इस बात का दुख था कि कई विद्वानों ने अपनी पुस्तकों में बिना नामोल्लेख उन निष्कर्षों को लिखा है, जिनकी खोज भगवद्दत्त जी ने की थी। पंडित राहुल सांकृत्यायन ने लाहौर में उनके साथ रहकर अनेक वर्ष अनुसंधान कार्य किया था। उन्होंने स्वीकार किया है कि ऐतिहासिक अनुसंधान की प्रेरणा उन्हें भगवद्दत्त जी से ही मिली।
भगवद्दत्त जी एक पंजाबी व्यापारी की तरह ढीला पाजामा, कमीज, सफेद पगड़ी, कानों में स्वर्ण कुंडल आदि पहनते थे; पर जब वे संस्कृत में तर्कपूर्ण ढंग से धाराप्रवाह बोलना आरम्भ करते थे, तो सब उनकी विद्वत्ता का लोहा मान जाते थे। 22 नवम्बर, 1968 को दिल्ली में ही उनका देहांत हुआ।
इस समय उपलब्ध उनकी प्रमुख पुस्तकें निम्न हैं - वैदिक वांगमय का इतिहास (तीन भाग), भारतवर्ष का वृहद इतिहास (दो भाग), ऋग्वेद पर व्याख्यान, ऋग्मंत्र व्याख्या, निरुक्त भाषा भाष्य, अथर्ववेदीय पंचपरलिका, वाल्मीकीय रामायण के बालकांड, अयोध्याकांड तथा अरण्यकांड के कश्मीरी (पश्चिमोत्तर) संस्करण का सम्पादन, भारतीय संस्कृति का इतिहास, भाषा का इतिहास, स्वामी दयानंद के पत्र व विज्ञापन, वेद विद्या निदर्शन, Extraordinary Scientific Knowledge in Vedic works, Western Indologists-A study in motives, Story of creation. रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ (सोनीपत, हरियाणा) ने इन्हें प्रकाशित किया है।
(संदर्भ : हिन्दू चेतना, जून प्रथम)
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28 अक्तूबर/जन्म-दिवस
भारत की महान पुत्री भगिनी निवेदिता
स्वामी विवेकानन्द से प्रभावित होकर आयरलैण्ड की युवती मार्गरेट नोबेल ने अपना जीवन भारत माता की सेवा में लगा दिया। प्लेग, बाढ़, अकाल आदि में उन्होंने समर्पण भाव से जनता की सेवा की। 28 अक्तूबर, 1867 को जन्मी मार्गरेट के पिता सैम्युअल नोबल आयरिश चर्च में पादरी थे।
बचपन से ही मार्गरेट नोबेल की रुचि सेवा कार्यों में थी। वह निर्धनों की झुग्गियों में जाकर बच्चों को पढ़ाती थी। एक बार उनके घर भारत में कार्यरत एक पादरी आये। उन्होंने मार्गरेट को कहा कि शायद तुम्हें भी एक दिन भारत जाना पड़े। तब से मार्गरेट के सपनों में भारत बसने लगा।
मार्गरेट के पिता का 34 वर्ष की अल्पायु में ही देहान्त हो गया। मरते समय उन्होंने अपनी पत्नी मेरी से कहा कि यदि मार्गरेट कभी भारत जाना चाहे, तो उसे रोकना नहीं। पति की मृत्यु के बाद मेरी अपने मायके आ गयी। वहीं मार्गरेट की शिक्षा पूर्ण हुई। 17 साल की अवस्था में मार्गरेट एक विद्यालय में बच्चों को पढ़ाने लगी। कुछ समय बाद उसकी सगाई हो गयी; पर विवाह से पूर्व ही उसके मंगेतर की बीमारी से मृत्यु हो गयी। इससे मार्गरेट का मन संसार से उचट गया; पर उसने स्वयं को विद्यालय में व्यस्त कर लिया।
1895 में एक दिन मार्गरेट की सहेली लेडी इजाबेल मारगेसन ने उसे अपने घर बुलाया। वहाँ स्वामी विवेकानन्द आये हुए थे। स्वामी जी 1893 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में भाषण देकर प्रसिद्ध हो चुके थे। उनसे बात कर मार्गरेट के हृदय के तार झंकृत हो उठे। फिर उसकी कई बार स्वामी जी भेंट हुई। जब स्वामी जी ने भारत की दुर्दशा का वर्णन किया, तो वह समझ गयी कि वह जिस बुलावे की प्रतीक्षा में थी, वह आ गया है। वह तैयार हो गयी और 28 जनवरी, 1898 को कोलकाता आ गयी।
यहाँ आकर उन्होंने सबसे पहले बंगला भाषा सीखी; क्योंकि इसके बिना निर्धन और निर्बलों के बीच काम करना सम्भव नहीं था। 25 मार्च, 1898 को विवेकानन्द ने मार्गरेट को भगवान शिव की पूजा विधि सिखायी और उसे ‘निवेदिता’ नाम दिया। इसके बाद उसने स्वामी जी के साथ अनेक स्थानों का प्रवास किया। लौटकर उसने एक कन्या पाठशाला प्रारम्भ की। इसमें बहुत कठिनाई आयी। लोग लड़कियों को पढ़ने भेजना ही नहीं चाहते थे। धन का भी अभाव था; पर वह अपने काम में लगी रही।
1899 में कोलकाता में प्लेग फैल गया। निवेदिता सेवा में जुट गयीं। उन्होंने गलियों से लेकर घरों के शौचालय तक साफ किये। धीरे-धीरे उनके साथ अनेक लोग जुट गये। इससे निबट कर वह विद्यालय के लिए धन जुटाने विदेश गयीं। दो साल के प्रवास में उन्होंने धन तो जुटाया ही, वहाँ पादरियों द्वारा हिन्दू धर्म के विरुद्ध किये जा रहे झूठे प्रचार का भी मुँहतोड़ उत्तर दिया।
वापस आकर वह स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी सक्रिय हुईं। उनका मत था कि भारत की दुर्दशा का एक कारण विदेशी गुलामी भी है। बंग भंग का उन्होंने प्रबल विरोध किया और क्रान्तिगीत ‘वन्दे मातरम्’ को अपने विद्यालय में प्रार्थना गीत बनाया। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं। अथक परिश्रम के कारण वह बीमार हो गयीं। 13 अक्तूबर, 1911 को दार्जिलिंग में उनका देहान्त हुआ।
मृत्यु से पूर्व उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति बेलूर मठ को दान कर दी। उनकी समाधि पर लिखा है - यहाँ भगिनी निवेदिता चिरनिद्रा में सो रही हैं, जिन्होंने भारत के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।
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28 अक्तूबर/जन्म-दिवस
तार्किक व्यक्तित्व बाबू सियाराम जी
वकालत के व्यवसाय में तर्क का बड़ा महत्व हैै। सफल वकील वही है, जो अपनी बात को अधिक तर्कपूर्ण ढंग से रख सके। बाबू सियाराम सक्सेना ऐसे ही एक सफल वकील थे; पर अपनी तर्कशक्ति का उपयोग वे उतनी ही प्रबलता से संघ कार्य के लिए भी करते थे। अतः संघ के विरोधी उनके सामने आने से घबराते थे।
बाबू जी का जन्म 28 अक्तूबर, 1910 को बदायूं (उ.प्र.) के सहसवान कस्बे में श्री दुर्गाप्रसाद जी के घर में हुआ था। यह परिवार इसी जिले के दरयापुर गांव का निवासी था। वहां उनकी बड़ी जमींदारी थी। उन्होंने आगरा वि.वि. से स्वर्ण पदक लेकर बी.एस-सी. और फिर कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर वकालत को व्यवसाय के रूप में अपनाया।
थोड़े ही समय में उनकी ख्याति एक श्रेष्ठ वकील के रूप में हो गयी। उनकी रुचि आर्य समाज, हिन्दू महासभा, कांग्रेस तथा संघ जैसे सभी सामाजिक कार्याें में थी। अपने मकान के मुहूर्त पर उन्होंने भगवा ध्वज लगाकर सामूहिक प्रार्थना की। इस पर कुछ कांग्रेसियों ने आपत्ति की। यह देखकर बाबूजी ने कांग्रेस को ही छोड़ दिया। 1948 के प्रतिबन्ध काल में वे वकालत की चिन्ता न कर जेल गये और वहां से आकर संघ में ही पूरी तरह रम गये।
बाबूजी शिक्षा के बहुत प्रेमी थे। वे न्यायालय से लौटकर मोहल्ले के बच्चों को निःशुल्क गणित, अंग्रेजी और विज्ञान पढ़ाते थे। उन्होंने अपनी पत्नी को भी आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया। पढ़ाई पूरी कर वे एक कन्या विद्यालय में अध्यापक और फिर प्रधानाचार्य बनीं। वे बहुत समय तक बदायूं के जिला संघचालक तथा जिला वकील संघ के अध्यक्ष रहे।
1975 में भी संघ पर प्रतिबन्ध के विरोध में उन्होंने जेल यात्रा की। उनकी रुचि जमींदारी में नहीं थी। अतः उन्होंने अपने हिस्से की सारी भूमि गांव के निर्धन भूमिहीनों में बांट दीं। इसलिए गांव के लोग उन्हें अपने परिवार का मुखिया मानते थे और उनके पास आकर अपने दुख-सुख बताया करते थे।
बाबूजी ने अपने पुत्र के विवाह के बाद वानप्रस्थ ले लिया। अपनी सब सम्पत्ति बेचकर वे आगरा के प्रांतीय संघ कार्यालय, माधव भवन में आ गये। उनके घर का कीमती फर्नीचर आज भी वहां प्रयोग हो रहा है। इसके बाद उन्हें पश्चिमी उ.प्र. के बौद्धिक प्रमुख का दायित्व दिया गया। वयोवृद्ध होने के बाद भी वे जिला प्रचारक के साथ मोटर साइकिल पर कष्टपूर्ण प्रवास करते थे। यदि कोई इसकी चर्चा करता, तो वे कहते कि वानप्रस्थ आश्रम समाज की सेवा के लिए है, शरीर के आराम के लिए नहीं।
1980 के दशक में खालिस्तान आंदोलन के कारण देश का वातावरण बहुत खराब हो गया था। ऐसे में बाबूजी साहसपूर्वक सिक्खों की बैठकें लेते थे। उनकी तार्किक बातों के आगे उग्रवादी विचारों के सिक्ख भी कुछ बोल नहीं पाते थे। उन्हें बच्चों को कहानी सुनाने में भी उतना ही रस आता था, जितना बुजुर्गों को देश और धर्म की बात बताने में। गांव में प्रवास में वे गांव की परिक्रमा कर फिर सबको मंदिर में एकत्र करते थे। उनका आग्रह था कि सायंकाल की आरती के समय हर घर से कम से कम एक व्यक्ति मंदिर में अवश्य आए। वे आरती में सबको पंक्तिबद्ध होकर खड़े होने को कहते थे।
बाबू सियाराम जी प्रचारक तथा विस्तारकों से भी अपनी शिक्षा पूरी करने को कहते थे। आगरा के प्रांतीय कार्यालय पर रहने वाले छात्रों को वे पढ़ाते भी थे। इसके लिए उन्होंने इतिहास, राजनीति शास्त्र, वाणिज्य आदि विषयों का स्वयं अध्ययन किया। जब उनका शरीर बहुत जर्जर और रोगग्रस्त हो गया, तो उनके एकमात्र पुत्र ने आग्रहपूर्वक उन्हें अपने पास बड़ोदा बुला लिया। वहीं 18 मई, 1994 को उनका देहांत हुआ।
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29 अक्तूबर/स्थापना-दिवस
आजाद हिन्द सरकार की स्थापना
भारत की स्वाधीनता में सुभाष चंद्र बोस की ‘आजाद हिन्द फौज’ की बड़ी निर्णायक भूमिका है; पर इसकी स्थापना से पहले भारत के ही एक अंग रहे अफगानिस्तान में भी ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना हुई थी।
जहां अनेक क्रांतिकारी देश के अंदर संघर्ष कर रहे थे, वहां विदेश में रहकर उन्हें शस्त्र, धन एवं उन देशों का समर्थन दिलाने में भी अनेक लोग लगे थे। कुछ देशों से ब्रिटेन की सन्धि थी कि वे अपनी भूमि का उपयोग इसके लिए नहीं होने देंगे; पर जहां ऐसी सन्धि नहीं थी, वहां क्रांतिकारी सक्रिय थे।
उन दिनों राजा महेन्द्र प्रताप जर्मनी में रहकर जर्मन सरकार का समर्थन पाने का प्रयास कर रहे थे। वे एक दल अफगानिस्तान भी ले जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मोहम्मद बरकतुल्ला को भी बर्लिन बुला लिया। मो. बरकतुल्ला इससे पूर्व जापान में सक्रिय थे; पर जापान से अंग्रेजों की सन्धि होने के कारण वे अपने एक साथी भगवान सिंह के साथ सेनफ्रांसिस्को आ गये थे।
बर्लिन उन दिनों भारतीय क्रांतिवीरों का एक प्रमुख केन्द्र था। राजा महेन्द्र प्रताप के नेतृत्व में ‘बर्लिन दल’ का गठन किया गया। इसमें मो. बरकतुल्ला के साथ वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय के नेतृत्व में काम कर रही ‘राष्ट्रीय पार्टी’ के कुछ सदस्य भी थे। इस दल ने जर्मनी के सम्राट कैसर विल्हेल्म द्वितीय से भेंटकर उन्हें भारतीय क्रांतिकारियों की सहायता के लिए तैयार कर लिया। इस दल ने जर्मनी के शासन के साथ कुछ अनुबन्ध भी किये।
अब राजा महेन्द्र प्रताप के नेतृत्व में एक दल कुस्तुन्तुनिया गया। इसमें जर्मनी एवं आस्टेªलिया के कुछ सदस्य भी थे। इन्होंने तुर्की के प्रधानमंत्री सुल्तान हिलमी पाशा तथा युद्धमंत्री गाजी अनवर पाशा से भेंट की। तुर्की में सक्रिय भारतीय क्रांतिकारी मौलाना ओबेदुल्ला सिन्धी भी इस दल में शामिल हो गये और ये सब अक्तूबर, 1915 में काबुल जा पहुंचे।
अफगानिस्तान में उन दिनों अमीर हबीबुल्ला खां का शासन था। दल के सदस्यों ने उससे भेंट की। यह भेंट बहुत सार्थक सिद्ध हुई और भारत से दूर अफगानिस्तान की धरती पर 29 अक्तूबर, 1915 को एक अस्थायी ‘आजाद हिन्द सरकार’ की स्थापना हो गयी। इसके राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप, प्रधानमंत्री मौलाना मोहम्मद बरकतुल्ला, गृहमंत्री मौलाना ओबेदुल्ला सिन्धी तथा विदेश मंत्री डा. चम्पक रमण पिल्लई बनाये गये।
इस सरकार ने एक फौज का भी गठन किया, जिसे ‘आजाद हिन्द फौज’ नाम दिया गया। इसमें सीमांत पठानों को सम्मिलित किया गया। धीरे-धीरे इसके सैनिकों की संख्या 6,000 तक पहुंच गयी। इस फौज ने सीमावर्ती क्षेत्रों में अंग्रेज सेना पर हमले किये; पर वे सफल नहीं हो सके। अनेक सैनिक मारे गये तथा जो गिरफ्तार हुए, उन्हें अंग्रेजों ने फांसी दे दी।
इस प्रकार आजाद हिन्द सरकार तथा फौज का यह प्राथमिक प्रयोग किसी ठोस परिणाम तक नहीं पहुंच सका; पर इससे हताश न होते हुए राजा महेन्द्र प्रताप ने सोने की ठोस चादर पर पत्र लिखकर खुशी मोहम्मद तथा डा. मथुरा सिंह को रूस के जार के पास भेजा। जार ने उन्हें गिरफ्तार कर डा. मथुरासिंह को अंग्रेजों को सौंप दिया। अंग्रेजों ने उन्हें लाहौर में फांसी दे दी।
ऐसे अनेक बलिदानों के बाद भी विदेशी धरती से देश की स्वतंत्रता के कष्टसाध्य प्रयास लगातार चलते रहे।
(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश, भाग एक)
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30 अक्तूबर/जन्म-दिवस
परमाणु कार्यक्रमों के प्रणेता डा. होमी भाभा
विश्व में परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों में भारत का भी नाम है। इसका श्रेय प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. होमी जहाँगीर भाभा को जाता है। वे सामरिक और शान्तिपूर्ण कार्यों में इसकी उपयोगिता को समझते थे। उनका जन्म 30 अक्तूबर, 1909 को मुम्बई के एक प्रतिष्ठित पारसी परिवार में हुआ था। बचपन से इनकी बुद्धि बहुत तीव्र थी। यह देखकर इनके अभिभावकों ने घर में ही एक पुस्तकालय बना दिया। इससे इनकी प्रतिभा तेजी से विकसित हुई।
इनके पिता इन्हें अभियन्ता बनाना चाहते थे; पर इनकी रुचि भौतिक विज्ञान में थी। फिर भी भाभा ने उनकी इच्छा का सम्मान कर 1930 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अभियन्ता की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसके बाद वे फिर अपने प्रिय विषय भौतिक शास्त्र में शोध करने लगे।
डा. भाभा की योग्यता को देखकर उन्हें विश्व के अनेक देशों ने मुँहमाँगे वेतन पर काम के लिए आमन्त्रित किया; पर उनका निश्चय अपने देश के लिए ही काम करने का था। 1940 में उन्होंने भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलौर में कार्य प्रारम्भ किया। 1941 में उन्हें 'रॉयल सोसायटी' का सदस्य बनाया गया। इतनी छोटी अवस्था में बहुत कम लोगों को यह सम्मान मिल पाता है।
डा. भाभा के मन में विकसित और शक्तिशाली भारत का एक सुन्दर सपना था। उस समय यहाँ अणु भौतिकी के अध्ययन की पर्याप्त सुविधाएँ नहीं थीं। अतः उन्होंने 1944 में ‘दोराबजी टाटा न्यास’ से सहयोग की अपील की। इसके फलस्वरूप 1945 में ‘टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ़ फण्डामेण्टल रिसर्च’ की स्थापना हुई। डा. भाभा को इसका प्रथम निर्देशक बनाया गया।
प्रारम्भ में यह संस्थान किराये के भवन में चलता था; पर देश स्वतन्त्र होने पर साधन बढ़ते गये। आज तो ट्राम्बे की पहाड़ियों पर स्थित यह संस्थान उच्च शोध का विश्व स्तरीय केन्द्र बन गया है। प्रधानमन्त्री नेहरू जी का इन पर बहुत विश्वास था। उन्होंने डा. भाभा के नेतृत्व में 1948 में अणुशक्ति आयोग तथा 1954 में सरकार में अणुशक्ति विभाग बनाकर इस कार्य को गति दी।
डा. भाभा के आह्नान पर कई वैज्ञानिक विदेश की आकर्षक वेतन और सुविधापूर्ण नौकरियाँ छोड़कर भारत आ गये। डा. भाभा का मत था कि विज्ञान की प्रगति में ही देश का भविष्य छिपा है। अतः विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में काम करने वाले संस्थान को वे सहयोग देते थे। वे अपने सहयोगियों की गलती को तो क्षमा कर देते थे; पर भूल या मूर्खता को नहीं। उन्हें अपने काम से इतना प्रेम था कि उन्होंने विवाह भी नहीं किया। विज्ञान के साथ ही उन्हें चित्रकला, संगीत तथा पेड़ पौधों से भी अत्यधिक लगाव था।
डा. भाभा को प्रायः विदेश जाना पड़ता था। ऐसे ही एक प्रवास में 24 जनवरी, 1966 को उनका विमान एक बर्फीले तूफान की चपेट में आकर नष्ट हो गया। कुछ लोगों का मत है कि वे भारत की सीमाओं की स्थायी सुरक्षा के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ जैसे एक महत्वपूर्ण प्रकल्प पर काम कर रहे थे। इससे भयभीत देशों ने षड्यन्त्र कर उस विमान को गिरा दिया। इसमें अमरीकी गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. के हाथ होने का सन्देह भी किया जाता है।
डा. भाभा किसी की मृत्यु पर काम बन्द करने के विरोधी थे। इसी कारण जब ट्राम्बे में उनके देहान्त का समाचार मिला, तो उनके सहयोगियों ने काम करते करते ही उन्हें श्रद्धांजलि दी।
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30 अक्तूबर/ जन्म-दिवस
बहुमुखी कल्पनाओं के धनी मोरोपन्त पिंगले
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री मोरोपन्त पिंगले को देखकर सब खिल उठते थे। उनके कार्यक्रम हास्य-प्रसंगों से भरपूर होती थीं; पर इसके साथ वे एक गहन चिन्तक और कुशल योजनाकार भी थे। संघ नेतृत्व द्वारा सौंपे गये हर काम को उन्होंने नई कल्पनाओं के आधार पर सर्वश्रेष्ठ ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
मोरेश्वर नीलकंठ पिंगले का जन्म 30 अक्तूबर, 1919 को हुआ था। वे बचपन में मेधावी होने के साथ ही बहुत चंचल एवं शरारती भी थे। 1930 में वे स्वयंसेवक तथा 1941 में नागपुर के मौरिस कॉलेज से बी.ए. कर प्रचारक बने। प्रारम्भ में उन्हें म.प्र. के खंडवा में सह विभाग प्रचारक बनाया गया। इसके बाद वे मध्यभारत के प्रांत प्रचारक तथा फिर महाराष्ट्र के सह प्रांत प्रचारक बने। क्रमशः पश्चिम क्षेत्र प्रचारक, अ.भा.शारीरिक प्रमुख, बौद्धिक प्रमुख, प्रचारक प्रमुख तथा सह सरकार्यवाह के बाद वे केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहेे।
मोरोपंत जी को समय-समय पर दिये गये विविध प्रवृत्ति के कामों के कारण अधिक याद किया जाता है। छत्रपति शिवाजी की 300वीं पुण्यतिथि पर रायगढ़ में भव्य कार्यक्रम, पूज्य डा. हेडगेवार की समाधि का निर्माण तथा उनके पैतृक गांव कुन्दकुर्ती (आंध्र प्रदेश) में उनके कुलदेवता के मंदिर की प्रतिष्ठापना, बाबासाहब आप्टे स्मारक समिति के अन्तर्गत विस्मृत इतिहास की खोज, वैदिक गणित तथा संस्कृत का प्रचार-प्रसार आदि उल्लेखनीय हैं।
आपातकाल में भूमिगत रहकर तानाशाही के विरुद्ध आंदोलन चलाने में मोरोपंत की बहुत बड़ी भूमिका थी। 1981 में मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद संघ ने हिन्दू जागरण की जो अनेक स्तरीय योजनाएं बनाईं, उसके मुख्य कल्पक और योजनाकार वही थे। इसके अन्तर्गत 'संस्कृति रक्षा निधि' का संग्रह तथा 'एकात्मता रथ यात्राओं' का सफल आयोजन हुआ।
'विश्व हिन्दू परिषद' के मार्गदर्शक होने के नाते उन्होंने 'श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन' को हिन्दू जागरण का मंत्र बना दिया। श्री रामजानकी रथ यात्रा, ताला खुलना, श्रीराम शिला पूजन, शिलान्यास, श्रीराम ज्योति, पादुका पूजन आदि कार्यक्रमों ने देश में धूम मचा दी। छह दिसम्बर, 1992 को बाबरी कलंक का परिमार्जन इसी का सुपरिणाम था।
गोवंश रक्षा के क्षेत्र में भी उनकी सोच बिल्कुल अनूठी थी। उनका मत था गाय की रक्षा किसान के घर में ही हो सकती है, गोशाला या पिंजरापोल में नहीं। गोबर एवं गोमूत्र भी गोदुग्ध जैसा ही उपयोगी पदार्थ है। यदि किसान को इनका मूल्य मिलने लगे, तो फिर कोई गोवंश को नहीं बेचेगा।
उनकी प्रेरणा से गोबर और गोमूत्र से साबुन, तेल, मंजन, कीटनाशक, फिनाइल, शैंपू, टाइल्स, मच्छर क्वाइल, दवाएं आदि सैकड़ों प्रकार के निर्माण प्रारम्भ हुए। येे मानव, पशु और खेती के लिए बहुउपयोगी हैं। अब तो गोबर और गोमूत्र से लगातार 24 घंटे जलने वाले बल्ब का भी सफल प्रयोग हो चुका है।
उनका मत था कि भूतकाल और भविष्य को जोड़ने वाला पुल वर्तमान है। अतः इस पर सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए। उन्होंने हर स्थान पर स्थानीय एवं क्षेत्रीय समस्याओं को समझकर कई संस्थाएं तथा प्रकल्प स्थापित किये। महाराष्ट्र सहकारी बैंक, साप्ताहिक विवेक, लघु उद्योग भारती, नाना पालकर स्मृति समिति, देवबांध (ठाणे) सेवा प्रकल्प, कलवा कुष्ठ रेाग निर्मूलन प्रकल्प, स्वाध्याय मंडल (किला पारडी) की पुनर्स्थापना आदि की नींव में मोरोपंत ही हैं।
मोरोपंत जी के जीवन में निराशा एवं हताशा का कोई स्थान नहीं था। वे सदा हंसते और हंसाते रहते थे। अपने कार्यों से नई पीढ़ी को दिशा देने वाले मोरोपंत पिंगले का 21 सितम्बर, 2003 को नागपुर में ही देहांत हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य)
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30 अक्तूबर/ जन्म-दिवस
बलिदानी परम्परा के वाहक डा. भाई महावीर
नवम्बर 1675 में दिल्ली में औरंगजेब के आदेश पर सिखों के नौवें गुरु श्री तेगबहादुरजी को सिर काट कर शहीद किया गया। गुरुजी को डराने के लिए पहले उनके तीन शिष्यों (मतिदासजी, सतिदासजी तथा दयालाजी) को निर्ममता से मारा गया। मतिदासजी को जिन्दा ही आरे से दो भागों में चीर दिया गया था। सिख इतिहास में इन वीरों को ‘भाई’ कहकर सम्मानित किया जाता है। भाई मतिदास के बलिदानी वंश में 30 अक्तूबर, 1922 को लाहौर में महावीरजी का जन्म हुआ, जो फिर डा. भाई महावीर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
महावीरजी के पिता भाई परमानंदजी लाहौर में आर्य समाज, हिन्दू महासभा और स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रहते थे। इसलिए उन्हें अंदमान में कालेपानी की सजा भी भोगनी पड़ी। महावीरजी की शिक्षा लाहौर के डी.ए.वी. काॅलिज में हुई। उन दिनों नागपुर से आये राजाभाऊ पातुरकर ने वहां संघ की शाखा खोली थी। 1938 में महावीरजी भी वहीं स्वयंसेवक बने। 1942 से 44 तक वे जालंधर में संघ के प्रचारक रहे। एकमात्र पुत्र होने के कारण घर वालों ने सरसंघचालक श्री गुरुजी से आग्रह किया कि उन्हें गृहस्थ जीवन अपनाने की अनुमति दें, जिससे भाई मतिदास का बलिदानी वंश चलता रहे।
कृष्णाजी के साथ विवाह कर महावीरजी डी.ए.वी. काॅलिज में ही पढ़ाने लगे। 1947 में हिन्दुओं को सुरक्षित भारत भेजने में वे संघ की योजनानुसार लगे रहे। अंतिम समय में वे खाली हाथ भारत आकर जालंधर में अर्थशास्त्र पढ़ाने लगे। एक समय वे संघ के अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख थे। संघ का संविधान बनाने में भी उनका योगदान रहा। भारतीय जनसंघ का गठन होने पर वे उसके पहले महासचिव बनाये गये। उन्होंने 27 मई, 1951 को जनसंघ की दिल्ली-पंजाब शाखा का गठन किया था। 1956 में वे दिल्ली में डी.ए.वी (पी.जी) सांध्य काॅलिज में प्राध्यापक हो गये। फिर दिल्ली ही उनकी सामाजिक तथा राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा। आगे चलकर वे इसी काॅलिज में प्राचार्य भी बने। वे अर्थशास्त्र में पी-एच.डी. तथा कानून के भी स्नातक थे।
सिद्धांतप्रिय डा. भाई महावीर पहले भारतीय जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी के नीति निर्धारकों में से एक थेे। भा.ज.पा. की स्थापना के बाद वे उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और फिर अनुशासन समिति के अध्यक्ष बनाये गये। वे अटलजी और आडवाणीजी से बड़े थे। अतः सब उनका सम्मान करते थे तथा उनकी बात ध्यान से सुनते थे। 1968 में वे दिल्ली प्रदेश जनसंघ के अध्यक्ष बने तथा इसी वर्ष उन्हें राज्यसभा में भेजा गया। आपातकाल में वे सहर्ष जेल गये। 1978 में वे एक बार फिर राज्यसभा के सदस्य बने।
सबके विचार ठीक से सुनने के कारण काॅलिज में छात्र, प्रबंधक तथा अध्यापक सब उनका सम्मान करते थे। प्राचार्य रहते हुए एक सहयोगी की सलाह पर उन्होंने छात्रसंघ चुनाव में सब प्रत्याशियों को एक मंच पर आकर अपनी बात रखने को प्रोत्साहित किया। इस दौरान वे स्वयं भी वहां बैठते थे। इससे पोस्टर, बैनर का खर्च घटा तथा काॅलिज की दीवारें गंदी नहीं हुईं। वे युवाओं को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित करते थे। उन्होंने अपने पिताजी के नाम पर दिल्ली में भाई परमानंद विद्या मंदिर स्थापित कर तथा वहां एक क्रिकेट अकादमी भी बनायी।
1998 में अटलजी की सरकार में उन्हें म.प्र. में राज्यपाल बनाया गया। उन दिनों वहां कांग्रेस की सरकार थी। मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला; पर वे शांत भाव से अपनी कर्तव्य पूर्ति में लगे रहे। निर्धन और निर्बलों के लिए उनके द्वार सदा खुले रहते थे। बड़े पदों पर रहने के बावजूद वे अहंकार और आत्मप्रशंसा से दूर रहे। उनकी शैक्षिक, सामाजिक और राजनीतिक यात्रा निष्कलंक रही। सादा जीवन और उच्च विचारों के धनी डा. भाई महावीर का दिल्ली में तीन दिसम्बर, 2016 को निधन हुआ।
(पांचजन्य 18.12.16 तथा सामयिक अखबार)
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31 अक्तूबर/जन्म-दिवस
लौहपुरुष सरदार पटेल
15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों ने भारत को स्वाधीन तो कर दिया; पर जाते हुए वे गृहयुद्ध एवं अव्यवस्था के बीज भी बो गये। उन्होंने भारत के 600 से भी अधिक रजवाड़ों को भारत में मिलने या न मिलने की स्वतन्त्रता दे दी। अधिकांश रजवाड़े तो भारत में स्वेच्छा से मिल गये; पर कुछ आँख दिखाने लगे। ऐसे में जिसने इनका दिमाग सीधाकर उन्हें भारत में मिलाया, उन्हें हम लौहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल के नाम से जानते हैं।
वल्लभभाई का जन्म 31 अक्तूबर, 1875 को हुआ था। इनके पिता श्री झबेरभाई पटेल ग्राम करमसद (गुजरात) के निवासी थे। उन्होंने भी 1857 में रानी झाँसी के पक्ष में युद्ध किया था। इनकी माता लाड़ोबाई थीं।
बचपन से ही ये बहुत साहसी एवं जिद्दी थे। एक बार विद्यालय से आते समय ये पीछे छूट गये। कुछ साथियों ने जाकर देखा, तो ये धरती में गड़े एक नुकीले पत्थर को उखाड़ रहे थे। पूछने पर बोले - इसने मुझे चोट पहुँचायी है, अब मैं इसे उखाड़कर ही मानूँगा। और वे काम पूरा कर ही घर आये।
एक बार उनकी बगल में फोड़ा निकल आया। उन दिनों गाँवों में इसके लिए लोहे की सलाख को लालकर उससे फोड़े को दाग दिया जाता था। नाई ने सलाख को भट्ठी में रखकर गरम तो कर लिया; पर वल्लभभाई जैसे छोटे बालक को दागने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। इस पर वल्लभभाई ने सलाख अपने हाथ में लेकर उसे फोड़े में घुसेड़ दिया। खून और मवाद देखकर पास बैठे लोग चीख पड़े; पर वल्लभभाई ने मुँह से उफ तक नहीं निकाली।
साधारण परिवार होने के कारण वल्लभभाई की शिक्षा निजी प्रयास से कष्टों के बीच पूरी हुई। अपने जिले में वकालत के दौरान अपनी बुद्धिमत्ता, प्रत्युत्पन्नमति तथा परिश्रम के कारण वे बहुत प्रसिद्ध हो गये। इससे उन्हें धन भी प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुआ। इससे पहले उनके बड़े भाई विट्ठलभाई ने और फिर वल्लभभाई ने इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की।
1926 में वल्लभभाई की भेंट गांधी जी से हुई और फिर वे भी स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पड़े। उन्होंने बैरिस्टर वाली अंग्रेजी वेशभूषा त्याग दी और स्वदेशी रंग में रंग गये। बारडोली के किसान आन्दोलन का सफल नेतृत्व करने के कारण गांधी जी ने इन्हें ‘सरदार’ कहा। फिर तो यह उपाधि उनके साथ ही जुड़ गयी। सरदार पटेल स्पष्ट एवं निर्भीक वक्ता थे। यदि वे कभी गांधी जी से असहमत होते, तो उसे भी साफ कह देते थे। वे कई बार जेल गये। 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में उन्हें तीन वर्ष की सजा हुई।
स्वतन्त्रता के बाद उन्हें उपप्रधानमन्त्री तथा गृहमन्त्री बनाया गया। उन्होंने केन्द्रीय सरकारी पदों पर अभारतीयों की नियुक्ति रोक दी। रेडियो तथा सूचना विभाग का उन्होंने कायाकल्प कर डाला। गृहमन्त्री होने के नाते रजवाड़ों के भारत में विलय का विषय उनके पास था। सभी रियासतें स्वेच्छा से भारत में विलीन हो गयीं; पर जम्मू-कश्मीर, जूनागढ़ तथा हैदराबाद ने टेढ़ा रुख दिखाया। सरदार की प्रेरणा से जूनागढ़ में जन विद्रोह हुआ और वह भारत में मिल गयी। हैदराबाद पर पुलिस कार्यवाही कर उसे भारत में मिला लिया गया।
जम्मू कश्मीर का मामला प्रधानमन्त्री नेहरु जी ने अपने हाथ में रखा। इसी से उसका पूर्ण विलय नहीं हो पाया। 15 दिसम्बर, 1950 को भारत के इस महान सपूत का देहान्त हो गया।
भाई साहब आज 30 अक्तूबर को भाई महावीर जी, स्वय सेवक व पूर्व राज्यपाल मध्यप्रदेश के बारे हर दिन पावन मे कोई वर्णन नही है।
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