16 अक्तूबर/इतिहास-स्मृति
बंग-भंग के विरोध में अद्भुत रक्षाबन्धन
भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में बंग भंग विरोधी आन्दोलन का बहुत महत्व है। इसमें न केवल बंगाल, अपितु पूरे भारत के देशभक्त नागरिकों ने एकजुट होकर अंग्रेजों को झुकने पर मजबूर कर दिया था।
उन दिनों देश के मुसलमान भी हिन्दुओं के साथ मिलकर स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष कर रहे थे। अंग्रेज शासक प्रारम्भ से ही ‘बाँटों और राज करो’ (divide & rule) की नीति पर काम करते थे। उन्होंने सोचा कि यदि इनमें फूट डाल दें, तो भारत पर लम्बे समय तक राज्य करते रहना सरल हो जाएगा। इसलिए प्रयोग के लिए उन्होंने बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्र को असम के साथ मिलाकर एक नया प्रान्त बनाने का षड्यन्त्र रचा। देश की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला के ‘वायसराय भवन’ से लार्ड कर्जन ने यह आदेश जारी किया कि 16 अक्तूबर, 1905 को यह राज्य अस्तित्व में आ जायेगा।
यह सुनते ही पूरा बंगाल आक्रोश में जल उठा। इसके विरोध में न केवल राजनेता अपितु बच्चे, बूढ़े, महिला, पुरुष सब सड़कों पर उतर आये। उन दिनों बंगाल क्रान्तिकारियों का गढ़ था। उन्होंने इस अप्राकृतिक विभाजन को किसी कीमत पर लागू न होने देने की चेतावनी दे दी। समाचार माध्यम भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने इस बारे में विशेष लेख छापे। राष्ट्रीय नेताओं ने लोगों से विदेशी वस्त्रों एवं वस्तुओं के बहिष्कार की अपील की। जनसभाओं में एक वर्ष तक सभी सार्वजनिक पर्वों पर होने वाले उत्सव स्थगित कर राष्ट्रीय शोक मनाने की अपील की जाने लगीं।
इन अपीलों का व्यापक असर हुआ। पंडितों ने विदेशी वस्त्र पहनने वाले वर-वधुओं के विवाह कराने से हाथ पीछे खींच लिया। नाइयों ने विदेशी वस्तुओं के प्रेमियों के बाल काटने और धोबियों ने उनके कपड़े धोने से मना कर दिया। इससे विदेशी सामान की बिक्री बहुत घट गयी। उसे प्रयोग करने वालों को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा। ‘मारवाड़ी चैम्बर ऑफ कॉमर्स’ ने ‘मेनचेस्टर चैम्बर ऑफ कॉमर्स’ को तार भेजा कि शासन पर दबाव डालकर इस निर्णय को वापस कराइये, अन्यथा यहाँ आपका माल बेचना असंभव हो जाएगा।
योजना के क्रियान्वयन का दिन 16 अक्तूबर, 1905 पूरे बंगाल में शोक पर्व के रूप में मनाया गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर तथा अन्य प्रबुद्ध लोगों ने आग्रह किया कि इस दिन सब नागरिक गंगा या निकट की किसी भी नदी में स्नान कर एक दूसरे के हाथ में राखी बाँधें। इसके साथ वे संकल्प लें कि जब तक यह काला आदेश वापस नहीं लिया जाता, वे चैन से नहीं बैठेंगे।
16 अक्तूबर को बंगाल के सभी लोग सुबह जल्दी ही सड़कों पर आ गये। वे प्रभात फेरी निकालते और कीर्तन करते हुए नदी तटों पर गये। स्नान कर सबने एक दूसरे को पीले सूत की राखी बाँधी और आन्दोलन का मन्त्र गीत वन्दे मातरम् गाया। स्त्रियों ने बंगलक्ष्मी व्रत रखा। छह साल तक आन्दोलन चलता रहा। हजारों लोग जेल गये; पर कदम पीछे नहीं हटाये। लाल, बाल, पाल की जोड़ी ने इस आग को पूरे देश में सुलगा दिया।
इससे लन्दन में बैठे अंग्रेज शासक घबरा गये। ब्रिटिश सम्राट जार्ज पंचम ने 11 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में दरबार कर यह आदेश वापस ले लिया। इतना ही नहीं उन्होंने वायसराय लार्ड कर्जन को वापस बुलाकर उसके बदले लार्ड हार्डिंग को भारत भेज दिया। इस प्रकार राखी के धागों से उत्पन्न एकता ने इस आन्दोलन को सफल बनाया।
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16 अक्तूबर/जन्म-दिवस
बौद्धिक योद्धा सीताराम गोयल
विदेशी विचार और हिंसा पर आधारित वामपंथ को बौद्धिक धरातल पर चुनौती देने वालों में श्री सीताराम गोयल का नाम प्रमुख है। यद्यपि पहले वे स्वयं कम्यूनिस्ट ही थे; पर उसका खोखलापन समझने के बाद उन्होंने उसके विरुद्ध झंडा उठा लिया। इसके साथ ही वे अपनी लेखनी से इस्लाम और ईसाई मंसूबों के विरुद्ध भी सबको जाग्रत करते रहे।
16 अक्तूबर, 1921 को जन्मे श्री सीताराम गोयल मूलतः हरियाणा के निवासी थे। उनकी जीवन-यात्रा नास्तिकता, आर्य समाजी, गांधीवादी और वामंपथी से प्रखर और प्रबुद्ध हिन्दू तक पहुंची। इसमें रामस्वरूप जी की मित्रता ने निर्णायक भूमिका निभायी। इस बारे में उन्होंने एक पुस्तक ‘मैं हिन्दू क्यों बना ?’ भी लिखी। वामपंथ के खोखलेपन को उजागर करने के लिए सीताराम जी ने उसके गढ़ कोलकाता में ‘सोसायटी फाॅर दि डिफेन्स आॅफ फ्रीडम इन एशिया’ नामक मंच तथा ‘प्राची प्रकाशन’ की स्थापना की। 1954 में कोलकाता के पुस्तक मेले में उन्होंने अपने वामपंथ विरोधी प्रकाशनों की एक दुकान लगायी। उसके बैनर पर लिखा था - लाल खटमल मारने की दवा यहां मिलती है।
इससे बौखला कर वामपंथी दुकान पर हमले की तैयारी करने लगे। इस पर उन्होंने कोलकाता में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक श्री एकनाथ रानाडे से सम्पर्क किया। एकनाथ जी ने उन्हें सुरक्षा का आश्वासन देकर समुचित प्रबंध कर दिये। इस प्रकार उनका संघ से जो संबंध बना, वह आजीवन चलता रहा। एकनाथ जी की प्रेरणा से सीताराम जी ने 1957 में खजुराहो से ‘भारतीय जनसंघ’ के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा; पर उन्हें सफलता नहीं मिली। चुनाव के दौरान ही उन्हें ध्यान में आ गया कि जाति, भाषा, परिवार और क्षेत्रवाद पर आधारित इस चुनाव व्यवस्था में बौद्धिकता का कोई स्थान नहीं है। अतः राजनीति को अंतिम नमस्ते कर वे सदा के लिए दिल्ली आ गये।
दिल्ली आकर उन्होंने अपना पूरा ध्यान लेखन और प्रकाशन पर केन्द्रित कर लिया। साप्ताहिक ‘आर्गनाइजर’ में उन्होंने श्री अरविन्द के विचारों पर कई लेख लिखे। प्रधानमंत्री नेहरू तथा उनके मित्र रक्षामंत्री कृष्णामेनन की देशविरोधी गतिविधियों पर लिखित लेखमाला बाद में पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुई। सीताराम जी के चिंतन, मनन और लेखन की गति बहुत तेज थी। वे मानते थे कि युद्ध में विचारों के शस्त्र का भी बहुत महत्व है। उन्होंने हिन्दी और अंग्रेजी में अपनी तथा अन्य लेखकों की सैकड़ों पुस्तकें छापकर ‘वाॅयस आॅफ इंडिया’ के बैनर से उन्हें लागत मूल्य पर पाठकों को उपलब्ध कराया।
तथ्यों के प्रति अत्यधिक जागरूकता उनके लेखन और प्रकाशन की सबसे बड़ी विशेषता थी। वे जो भी लिखते थे, उसके साथ मूल संदर्भ अवश्य देते थे। उनके प्रकाशन से जो पुस्तकें छपती थीं, उसमें भी वे इसका पूरा ध्यान रखते थे। नये लेखकों को प्रोत्साहन देने के लिए वे उनकी पांडुलिपियों को बहुत ध्यान से देखकर आवश्यक सुधार करते थे। सीताराम जी का यों तो संघ से बहुत प्रेम था; पर वे इस बात से कुछ रुष्ट भी रहते थे कि स्वयंसेवक अध्ययन में कम रुचि लेते हैं। वे हर बात तथ्यों की कसौटी पर कसकर ही बोलने और लिखने का आग्रह करते थे। इसके लिए वे इधर-उधर की बजाय सदा मूल और विश्वनीय संदर्भ ग्रन्थों का सहयोग लेने को कहते थे।
सीताराम जी स्वयं तो बौद्धिक योद्धा थे ही; पर घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी निभाते हुए उन्होंने कई नये योद्धा भी तैयार किये। 1998 में अपने मित्र और मार्गदर्शक रामस्वरूप जी के निधन से उनके जीवन में स्थायी अभाव पैदा हो गया और दो दिसम्बर, 2003 को वे भी उसी राह पर चले गये।
(संदर्भ: पांचजन्य 14.12.2003 तथा 4.1.2004)
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16 अक्तूबर/जन्म-दिवस
अयोध्या आंदोलन के साक्षी प्रकाश अवस्थी
कुछ लोगों में संघ कार्य की लगन इतनी अधिक होती है कि वे शिक्षा पूरी किये बिना ही कर्मक्षेत्र में कूद पड़ते हैं। श्री प्रकाश नारायण अवस्थी ऐसे ही एक वरिष्ठ प्रचारक थे। उनका जन्म ग्राम देवमई (तहसील बिंदकी, फतेहपुर हतुआ, उ.प्र.) में 16 अक्तूबर, 1937 (आश्विन शुक्ल 11) को हुआ था। तीन भाई-बहिनों में उनका नंबर बीच का था।
उनके पिता श्री बच्चू लाल जी फतेहपुर में केन्द्र सरकार के खाद्य विभाग में कार्यरत थे; पर जब उनका स्थानांतरण दिल्ली किया गया, तो उन्होंने वहां जाने से मना कर दिया। अतः उन्हें इस नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा। कुछ समय बाद उन्हें कानपुर के हीरालाल खन्ना इंटर काॅलिज में अध्यापन कार्य मिल गया। अतः पूरा परिवार फिर कानपुर आकर रामबाग मौहल्ले में रहने लगा।
प्रकाश जी की प्राथमिक शिक्षा फतेहपुर में ही हुई। इसके बाद इंटर तक की पढ़ाई उन्होंने हीरालाल काॅलिज से की। फतेहपुर में आठ वर्ष की अवस्था से ही वे शाखा जाने लगे थे। कानपुर आकर तो वे रामबाग शाखा में बिल्कुल रम ही गये। उनके चाचा श्री विजय बहादुर अवस्थी भी संघ में सक्रिय थे। अतः उनके प्रारम्भिक संघ जीवन पर चाचा जी का बहुत प्रभाव पड़ा।
उन दिनों कानपुर में श्री अशोक सिंहल संघ के प्रचारक थे। प्रकाश जी की उनसे बहुत निकटता थी। यह स्नेह संबंध जीवन भर बना रहा। संघ से पहला प्रतिबंध उठने पर काम के विस्तार के लिए युवा प्रचारकों की बहुत जरूरत थी। यद्यपि तब संघ का समाज में बहुत विरोध था। सरकारी दुष्प्रचार के कारण लोग संघ को गांधी जी का हत्यारा मानते थे; पर प्रकाश जी यह चुनौती स्वीकार की और 17-18 वर्ष की आयु में इंटर करते ही प्रचारक बन गये।
प्रकाश जी का विवाह छोटी आयु में ही तय हो गया था। घर वालों के दबाव में ‘वरीच्छा’ की रस्म भी हो गयी थी; पर संघ कार्य को अपने जीवन का लक्ष्य बना चुके प्रकाश जी ने उसी रात में घर छोड़ दिया। प्रचारक जीवन में वे इटावा, फरुखाबाद, उरई, जालौन, आजमगढ़, बहराइच, कालपी आदि स्थानों पर रहे। 1975 में आपातकाल के समय वे उरई में प्रचारक थे। वहीं से उनकी गिरफ्तारी हुई और फिर पूरे समय वे जेल में ही रहे।
इटावा की राजनीति में उन दिनों मुलायम सिंह का प्रभाव बढ़ रहा था। अतः प्रकाश जी का उनसे कई बार टकराव हुआ। मुलायम सिंह ने बातचीत के लिए एक बार उन्हें घर भी बुलाया; पर प्रकाश जी वहां नहीं गये। 1990-91 में उन पर लखनऊ में ‘लोकहित प्रकाशन’ की जिम्मेदारी भी रही।
उन दिनों राममंदिर आंदोलन तेजी पर था। आंदोलन के केन्द्र कारसेवकपुरम् (अयोध्या) में एक वरिष्ठ कार्यकर्ता की जरूरत थी। अतः प्रकाश जी को वहां भेज दिया गया। फिर तो आंदोलन की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं के वे साक्षी बने। इस दौरान कारसेवकपुरम् पर भारी दबाव रहता था। कभी देश-विदेश के पत्रकार आते थे तो कभी पुलिस और प्रशासन। प्रकाश जी को सबसे जूझना पड़ता था। मंदिर के लिए विशाल स्तम्भ एवं शिलाएं भी बन रही थीं। संघ और विश्व हिन्दू परिषद के पदाधिकारी तथा साधु-संत भी आते रहते थे। प्रकाश जी बिना थके सबके भोजन, आवास और यातायात आदि का प्रबंध करते थे।
प्रकाश जी व्यवस्था और हिसाब के मामले में बहुत कठोर थे। जो तय किया, उस पर वे डटे रहते थे। धीरे-धीरे उन पर आयु का प्रभाव होने लगा। उच्च रक्तचाप के कारण 2004 में उन पर फालिज का हमला हुआ, जिससे फिर वे उबर नहीं पाये। 25 अगस्त, 2018 को अपनी कर्मभूमि अयोध्या में ही उनका निधन हुआ। उनकी अंतिम यात्रा में संघ और परिषद के कार्यकर्ताओं के साथ अयोध्या की जनता और साधु-संत भी बड़ी संख्या में शामिल हुए।
(संदर्भ : महेश अवस्थी एवं अजीत जी, कानपुर)
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डोला पालकी आंदोलन के प्रणेता जयानंद भारतीय
उत्तराखंड में लम्बे समय तक डोला-पालकी प्रथा प्रचलित रही है। इसके अनुसार दूल्हे को पालकी में ले जाते हैं तथा वापसी पर वधू को डोली में ससुराल लाते हैं। जातीय भेदभाव के कारण यह प्रथा उच्च वर्ग के हिन्दुओं में प्रचलित थी। उनकी देखादेखी पहाड़ के मुसलमानों ने भी इसे अपना लिया। डोली और पालकी को ढोने वाले तथाकथित छोटी जाति के शिल्पकार हिन्दू होते थे; पर विडम्बना यह थी कि वे स्वयं इसका प्रयोग नहीं कर सकते थे।
इस कुप्रथा के विरोधी स्वाधीनता सेनानी जयानंद भारतीय का जन्म 17 अक्तूबर, 1881 को पौड़ी गढ़वाल के अरकंडाई गांव के जागरी करने वाले शिल्पकार परिवार में हुआ था। इस कुरीति का लाभ उठाकर ईसाई मिशनरी धर्मान्तरण का जाल फैला रहे थे। दूसरी ओर आर्य समाज का प्रचार भी हो रहा था। गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में स्वामी शारदानंद से दीक्षा लेकर 1911 में जयानंद भारती आर्य समाज में शामिल हो गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1914 से 1920 तक वे यूरोप में मोरचे पर रहे। वहां से आकर 1920 में आर्य समाज के प्रचारक बन गये। उन दिनों जनेऊ भी केवल उच्च जाति वाले पहनते थे। आर्य समाज ने सब जातियों में जनेऊ संस्कार कराये।
आर्य समाज के जयानंद भारतीय तथा बल्देव सिंह आर्य आदि का मानना था कि डोला-पालकी में बैठकर गांव के बीच से निकलने का हक सबको है। खुले दिमाग के कुछ बुद्धिजीवी भी इसके पक्ष में थे; पर तथाकथित सवर्ण ऐसी डोली और पालकियों को तोड़कर लूट लेते थे। बारातियों को कई दिन तक जंगल में रोककर भूखा-प्यासा रखते थे। इससे तनाव बढ़ रहा था।
16 जनवरी, 1920 को पहली बार रामगढ़ क्षेत्र में खुशीराम आर्य के नेतृत्व में शिल्पकारों ने डोला-पालकी का प्रयोग किया। कुछ विरोध के बावजूद बीचबचाव हो गया। इसके बाद कई लोगों ने साहस किया; पर अधिकांश जगह मारपीट हुई। इधर शिल्पकार भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे। एक अनुमान के अनुसार 1920 से 1933 तक 300 बारातों को रोका गया। इस संबंध में कई मुकदमे दायर किये गये। 21 फरवरी, 1936 को प्रयागराज उच्च न्यायालय ने शिल्पकारों के पक्ष में निर्णय दिया। फिर भी जमीनी हालत नहीं सुधर पाई, क्योंकि जनमानस इसके पक्ष में नहीं था।
12 फरवरी, 1940 को पौड़ी के भौराड़ गांव में 56 गांवों के हजारों लोगों ने बारात पर हमलाकर पालकी तथा बारातियों के जनेऊ आदि जला दिये। इसकी सब ओर तीव्र निंदा हुई। जयानंद भारतीय के नेतृत्व में सत्याग्रह समिति का गठन हुआ। उन दिनों स्वाधीनता आंदोलन भी चल रहा था। कांग्रेस अधिवेशन में यह विषय उठने पर ठक्कर बापा, वियोगी हरि जैसे नेता पहाड़ में आये। उन्होंने सभाओं में शिल्पकारों का पक्ष लिया तथा राष्ट्रीय पत्रों में इस बारे में लिखा। इससे यह विषय सर्वत्र चर्चित हो गया।
उन दिनों कांग्रेस का व्यक्तिगत सत्याग्रह हो रहा था; पर गांधीजी ने इस भेदभाव की बात सुनकर 25 जनवरी, 1941 को पहाड़ में इसे स्थगित कर दिया। इससे कांग्रेस के नेता बेचैन हो गये। चूंकि वे सत्याग्रह की जोरशोर से तैयारी कर रहे थे। सभी नेता भी उच्च जाति के थे। उन्होंने डोला-पालकी के हक में प्रस्ताव पारित किया। इस पर 140 नेताओं ने हस्ताक्षर कर गांधी जी के पास भेजा। अतः गांधी जी ने सत्याग्रह की अनुमति दे दी।
नौ फरवरी, 1952 को जयानंद भारतीय का क्षयरोग से अपने गांव में ही देहांत हुआ। आज तो यह प्रथा लगभग समाप्त हो चुकी है। पहाड़ के लोग बड़ी संख्या में मैदानी क्षेत्रों में आ गये हैं। सड़कों के कारण बारातें भी कार और बसों में आती-जाती हैं; पर उत्तराखंड के इतिहास में डोला-पालकी आंदोलन तथा इसके प्रणेता जयानंद भारती को सदा याद किया जाता है।
(विकी, उत्तराखंड स्वराज/211, डा. जसपाल खत्री)
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17 अक्तूबर/जन्म-दिवस
मर्मस्पर्शी लेखन की धनी गौरा पंत ‘शिवानी’
बहुत से लेखकों की रचनाओं को पढ़ते समय अपने मन-मस्तिष्क पर जोर देना पड़ता है; पर ‘शिवानी’ के नाम से प्रसिद्ध गौरा पंत का लेखन सहज और स्वाभाविक रूप से पाठकों के हृदय में उतरता चला जाता था। पाठक को लगता था कि वह अपने मन की बात अपनी ही भाषा में पढ़ रहा है।
शिवानी का परिवार यों तो मूलतः अल्मोड़ा (उत्तराखंड) का निवासी था; पर उनके पिता श्री अश्विनी कुमार पांडे राजकोट (गुजरात) के प्रसिद्ध ‘प्रिंसेज काॅलिज’ के प्रधानाचार्य थे। वे अंग्रेजी के सिद्धहस्त लेखक भी थे। उनकी गुजराती पत्नी लीलावती भी विद्वान और गीत-संगीत की प्रेमी थीं। राजकोट में ही 17 अक्तूबर, 1923 (विजयादशमी) को गौरा का जन्म हुआ। अश्विनी कुमार जी आगे चलकर माणबदर और रामपुर रियासतों के दीवान भी रहे।
गौरा के दादा श्री हरिराम पांडे संस्कृत के प्रख्यात विद्वान थे। वे काशी हिन्दू वि0वि0 में धर्मोपेदशक थे। मालवीय जी से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। गौरा का बचपन अपनी बड़ी बहन के साथ दादा जी की छत्रछाया में अल्मोड़ा की सुरम्य पहाडि़यों और बनारस में गंगा की धारा के साथ खेलते हुए बीता।
गौरा में लेखन की प्रतिभा बचपन से ही थी। 12 वर्ष की अवस्था में उनकी पहली रचना अल्मोड़ा से छपने वाली बाल पत्रिका ‘नटखट’ में छपी। कुछ समय बाद मालवीय जी के परामर्श पर गौरा, उसकी दीदी जयंती और भाई त्रिभुवन को पढ़ने के लिए ‘शांति निकेतन’ भेज दिया गया। वहां उन्होंने प्रथम श्रेणी में स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके साथ ही गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के सान्निध्य में उनकी लेखन कला को सुघढ़ता एवं नये आयाम मिले।
कई स्थानों पर रहने से उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, उर्दू तथा बंगला का अच्छा ज्ञान हो गया। शांतिनिकेतन में उन्होंने अपने विद्यालय की पत्रिका के लिए बंगला में कई रचनाएं लिखीं। वहां रहने से उनके मन पर बंगला साहित्य और संस्कृति का काफी प्रभाव पड़ा, जो उनके लेखन में सर्वत्र दिखाई देता है।
एक बार रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा कि सहज लेखन के लिए व्यक्ति को अपनी मातृभाषा में ही लिखना चाहिए। इस पर गौरा ने ‘शिवानी’ उपनाम रखकर स्थायी रूप से हिन्दी को ही अपने लेखन का माध्यम बना लिया। उनके लेखन में जहां एक ओर नारी जीवन को प्रधानता दी गयी है, वहां अल्मोड़ा के सुंदर पहाड़, स्थानीय परम्पराएं और कठिनाइयां भी बार-बार प्रकट होती हैं।
विवाह के बाद उनका अधिकांश समय उत्तर प्रदेश की शासकीय सेवा में कार्यरत अपने शिक्षाविद पति के साथ विभिन्न स्थानों पर बीता। पति के असमय निधन के बाद उन्होंने लखनऊ को स्थायी निवास बना लिया। अब वे बच्चों की देखरेख के साथ ही लेखन की ओर अधिक ध्यान देने लगीं।
शिवानी ने मुख्यतः उपन्यास, कहानी और संस्मरणों के रूप में साहित्य सृजन किया। साठ और सत्तर के दशक में मुंबई से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ का बहुत बड़ा नाम था। इसमें उनके कई उपन्यास धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए। इससे शिवानी का नाम घर-घर में पहचाना जाने लगा।
‘कृष्णकली’ उनका सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यास है। इसके अतिरिक्त 12 उपन्यास, चार कहानी संग्रह, चार संस्मरण, अनेक व्यक्ति चित्र तथा बाल उपन्यास भी उन्होंने लिखे। लखनऊ के दैनिक स्वतंत्र भारत में वे ‘वातायन’ नामक स्तम्भ लिखती थीं। ‘सुनहु तात यह अकथ कहानी’ तथा ‘सोने दे’ शीर्षक से अपना आत्मवृत्त लिखकर उन्होंने लेखन को विराम दे दिया।
कहानी को साहित्य की मुख्यधारा में पुनस्र्थापित करने वाली, पदम्श्री से अलंकृत गौरा पंत ‘शिवानी’ का 21 मार्च, 2003 को दिल्ली में देहांत हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य 13.4.2003/विकीपीडिया/भारतकोश)
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17 अक्तूबर/इतिहास-स्मृति
श्री गुरुजी और राजा हरिसिंह की ऐतिहासिक भेंट
15 अगस्त, 1947 का दिन स्वतन्त्रता के साथ अनेक समस्याएँ भी लेकर आया। एक ओर देश-विभाजन के कारण अपना सब कुछ लुटाकर पंजाब और बंगाल से हिन्दू आ रहे थे, तो दूसरी ओर कुछ लोग भारत में ही गृहयुद्ध का वातावरण उत्पन्न कर रहे थे। अंग्रेजों ने जाते हुए एक भारी षड्यन्त्र किया। वे सभी रियासतों को यह अधिकार दे गये कि वे अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में मिल सकते हैं या स्वतन्त्र भी रह सकते हैं।
इस सुविधा का लाभ उठाकर भारत की कुछ रियासतों ने पाकिस्तान में मिलने या स्वतन्त्र रहने का विचार बनाया। ऐसी सब रियासतों को सरदार पटेल ने साम, दाम, दण्ड और भेद का सहारा लेकर भारत में विलीन कर लिया; पर जम्मू-कश्मीर के विलीनीकरण का प्रश्न प्रधानमन्त्री नेहरू जी ने अपने हाथ में ले लिया; क्योंकि वे मूलतः कश्मीर के ही निवासी थे। इसके साथ ही उनके शेख अब्दुल्ला से कुछ अत्यन्त निजी व गहरे सम्बन्ध भी थे। वे उसे भी उपकृत करना चाहते थे।
जम्मू-कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह अनिर्णय की स्थिति में थे। वे जानते थे कि पाकिस्तान में मिलने का अर्थ है अपने राज्य के हिन्दुओं की जान और माल की भारी हानि; पर नेहरू जी से कटु सम्बन्धों के कारण वे भारत के साथ आने में भी हिचकिचा रहे थे। स्वतन्त्र रहना भी एक विकल्प था; लेकिन ऐसा होने पर यह निश्चित था कि पाकिस्तान उसे हड़प लेगा।
कश्मीर घाटी के कुछ मुसलमानों को यदि छोड़ दें, तो पूरे राज्य की प्रजा भारत के साथ मिलना चाहती थी। इस राज्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संघचालक पंडित प्रेमनाथ डोगरा ने कश्मीर के अनेक सामाजिक व राजनीतिक संगठनों की ओर से प्रस्ताव पारित कर राजा को भेजे कि वे भारत से मिलने में देर न करें और विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दें। पंजाब के संघचालक बद्रीदास जी स्वयं राजा से मिले; पर राजा असमंजस में ही थे।
उधर पाकिस्तान तथा कश्मीर घाटी के मुसलमानों का साहस बढ़ रहा था। 14 अगस्त, 1947 को श्रीनगर के डाक तार कर्मियों ने डाकघर पर पाकिस्तानी झण्डा फहरा दिया। संघ के स्वयंसेवकों को यह सब षड्यन्त्र पता थे। उन्होंने रात में ही वह झण्डा उतार दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने हजारों तिरंगे झण्डे तैयार कर पूरे नगर में बाँट रखे थे। 15 अगस्त की सुबह जब सब ओर तिरंगा फहराता दिखाई दिया, तो पाक समर्थकों के चेहरे उतर गये।
इधर सरदार पटेल बहुत चिन्तित थे। कश्मीर के विलय का काम नेहरू जी के जिम्मे था, इसलिए वे सीधे रूप से कुछ कर नहीं सकते थे। अन्ततः उन्होंने संघ के सरसंघचालक श्री गुरुजी से आग्रह किया कि वे कश्मीर जाकर राजा हरिसिंह से बात करें और उन्हें विलय के लिए तैयार करें। 17 अक्तूबर, 1947 को श्री गुरुजी विमान से श्रीनगर पहुँचे और महाराजा हरिसिंह से मिले। इस भेंट में राजा ने भारत में विलय के लिए अपनी स्वीकृति दे दी।
श्री गुरुजी दो दिन श्रीनगर में रुक कर 19 अक्तूबर को दिल्ली आ गये। यद्यपि इसके बाद भी कई बाधाएँ आयीं; पर अंततः 26 अक्तूबर, 1947 को महाराजा हरिसिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर जम्मू-कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय स्वीकार कर लिया। इस बीच पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर घाटी के काफी हिस्से पर कब्जा कर लिया। अब मोदी सरकार के प्रयास से अनुच्छेद 370 हटा है। अतः माहौल काफी ठीक हुआ है। ऐसे में जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए श्री गुरुजी का प्रयास सदा अविस्मरणीय रहेगा।
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18 अक्तूबर/जन्म-दिवस
चटगांव कांड के नायक मास्टर सूर्यसेन
चटगांव शस्त्रागार कांड के नायक मास्टर सूर्यसेन का जन्म 18 अक्तूबर, 1893 को चटगांव (वर्तमान बांग्लादेश) के नवपाड़ा ग्राम में हुआ था। शिक्षा पूरी कर वे अध्यापक बने; पर फिर इसे ठुकरा कर स्वाधीनता संग्राम में कूद गये।
‘मास्टर दा’ ने पूर्वोत्तर भारत में अपने क्रांतिकारी संगठन ‘साम्याश्रम’ की स्थापना की। 1924 में पुलिस ने इन्हें पकड़ कर चार साल के लिए जेल में डाल दिया। 1928 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में सुभाष बाबू के नेतृत्व में 7,000 जवानों की सैनिक वेष में परेड से प्रभावित होकर इन्होंने अपने दल को सशस्त्र कर उसका नाम ‘इंडियन रिपब्लिक आर्मी’ रख दिया।
धीरे-धीरे इस सेना में 500 युवक एवं युवतियां भर्ती हो गये। अब इसके लिए शस्त्रों की आवश्यकता थी। अतः 18 अपै्रल, 1930 की रात को चटगांव के दो शस्त्रागारों को लूटने की योजना बनाई गयी। मास्टर सूर्यसेन ने अपने दो प्रतिनिधि दिल्ली भेज कर चंद्रशेखर आजाद से संपर्क किया।
आजाद ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए अपनी शुभकामनाओं के साथ दो पिस्तौल भी उन्हें भेंट की। 18 अपै्रल को सब सैनिक वेश में निजाम पल्टन के अहाते में एकत्र हुए। दल के एक भाग को पुलिस एवं दूसरे को सैनिक शस्त्रागार लूटना था। पौने दस बजे मास्टर दा ने कूच के आदेश दे दिये।
सबने योजनानुसार काम करते हुए टेलिफोन के तार काटे, बंदरगाह जाकर वायरलैस व्यवस्था भंग की तथा रेल की पटरियां उखाड़ दीं। जो दल पुलिस शस्त्रागार पहुंचा, उसे देखकर पहरेदार को लगा कि वे कोई बड़े अधिकारी हैं। अतः उसने दरवाजा खोल दिया। उन्होंने पर्याप्त शस्त्र अपनी गाड़ी में भर लिये। विरोध करने वालों को गोली मार दी तथा शेष शस्त्रों पर तेल डालकर आग लगा दी। मास्टर सूर्यसेन ने यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहरा दिया।
दूसरा दल सैनिक शस्त्रागार पर जा पहुंचा। उसके नेता लोकनाथ बल बहुत गोरे-चिट्टे थे। उनकी वेशभूषा देखकर वहां भी उन्हें सैल्यूट दिया गया। शस्त्रागार के ताले तोड़कर शस्त्र लूट लिये गये। विरोध करते हुए सार्जेंट मेजर कैरल मारा गया; पर क्रांतिकारी पक्ष की कोई जनहानि नहीं हुई। सफल अभियान के बाद सब जलालाबाद की पहाड़ी जा पहुंचे। संचार व्यवस्था भंग होने से अगले चार दिन तक चटगांव का प्रशासन क्रांतिकारियों के हाथ में ही रहा।
22 अपै्रल को संचार व्यवस्था फिर से ठीक कर अंग्रेजों ने पहाड़ी को घेर लिया। इस संघर्ष में 11 क्रांतिकारी मारे गये, जबकि 160 ब्रिटिश सैनिक हताहत हुए। कई क्रांतिवीर पकड़े भी गये। मास्टर सूर्यसेन पर 10,000 रु0 का पुरस्कार घोषित किया गया; पर वे हाथ नहीं आये। अंततः गोइराला गांव के शराबी जमींदार मित्रसेन ने थानेदार माखनलाल दीक्षित द्वारा दिये गये प्रलोभन में फंसकर 16 फरवरी, 1933 को उन्हें अपने घर से पकड़वा दिया। क्रांतिवीरों ने कुछ दिन बाद उस जमींदार तथा थानेदार को यमलोक भेज दिया।
मुकदमे के बाद 12 जनवरी, 1934 उनकी फांसी की तिथि निश्चित हुई। फांसी के लिए ले जाते समय वे ऊंचे स्वर से वन्दे मातरम् का उद्घोष करने लगे। इससे जेल में बंद उनके साथी भी नारे लगाने लगे। इससे खीझकर जेल वार्डन मास्टर दा के सिर पर डंडे मारने लगा; पर इससे उनका स्वर और तेज हो गया। अंततः डंडे की मार से ही मास्टर जी का प्राणांत हो गया। क्रूर जेल प्रशासन ने उनके शव को ही फांसी पर लटकाकर अपना क्रोध शांत किया।
(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश/स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश)
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18 अक्तूबर/जन्म-दिवस
ध्येय मंदिर के पुजारी सोहन सिंह जी
संघ कार्य के लिए जीवन समर्पित करने वाले वरिष्ठ प्रचारक श्री सोहन सिंह जी का जन्म 18 अक्तूबर, 1923 (आश्विन शुक्ल 9, वि.सं. 1980) को ग्राम हर्चना (जिला बुलंदशहर, उ.प्र.) में चैधरी रामसिंह जी के घर में हुआ था। छह भाई-बहिनों में वे सबसे छोटे थे। 16 वर्ष की अवस्था में वे स्वयंसेवक बने। 1942 में बी.एस-सी. करते ही उनका चयन भारतीय वायुसेना में हो गया; पर उन्होंने नौकरी की बजाय प्रचारक कार्य को स्वीकार किया।
1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की विफलता से युवक बहुत उद्विग्न थे। उन दिनों सरसंघचालक श्री गुरुजी युवकों को देश के लिए समय देने का आग्रह कर रहे थे। उनकी प्रेरणा से दिल्ली के 80 युवक प्रचारक बने। उनमें सोहन सिंह जी भी थे। इससे पूर्व वे दिल्ली में सायं शाखाओं के मंडल कार्यवाह थे। 1943, 44 और 45 में उन्होंने तीनों संघ शिक्षा वर्ग पूरे किये।
प्रचारक बनने पर उन पर क्रमशः करनाल, रोहतक, झज्जर और अम्बाला में तहसील; करनाल जिला, हरियाणा संभाग और दिल्ली महानगर का काम रहा। 1973 में उन्हें जयपुर विभाग का काम देकर राजस्थान भेजा गया। आपातकाल में वे वहीं गिरफ्तार हुए। इसके बाद वे 10 वर्ष राजस्थान प्रांत प्रचारक; 1987 से 96 तक दिल्ली में सहक्षेत्र और फिर क्षेत्र प्रचारक; 2000 तक धर्म जागरण विभाग के राष्ट्रीय प्रमुख और फिर 2004 तक उत्तर क्षेत्र के प्रचारक प्रमुख रहे। इसके बाद अस्वस्थता के कारण उन्होंने सब दायित्वों से मुक्ति ले ली।
1948 के प्रतिबंध काल में भी वे जेल गये थे। उन्हें जिस कोठरी में रखा गया, सर्दी में उसमें पानी भर दिया गया। ऐसी यातनाओं के बाद भी वे अडिग रहे। 1965 के युद्ध के समय रात में दस बजे एक सैन्य अधिकारी ने संदेश भेजा कि अतिशीघ्र सौ यूनिट रक्त चाहिए। उन दिनों फोन नहीं थे; पर सोहन सिंह जी ने सुबह से पहले ही 500 लोग सैनिक अस्पताल में भेज दिये।
1973 से पूर्व, हरियाणा में संभाग प्रचारक रहते हुए वे अनिद्रा और स्मृतिलोप से पीडि़त हो गये। इस पर राजस्थान में प्रान्त प्रचारक ब्रह्मदेव जी उन्हें जयपुर ले गये। वहां के आयुर्वेदिक इलाज से वे ठीक तो हुए; पर कमजोरी बहुत अधिक थी। आपातकाल में जब वे जेल गये, तो कार्यकर्ताओं ने उनकी खूब मालिश की। इससे वे पूर्णतः स्वस्थ हुए। जेल में उनके कारण प्रशिक्षण वर्ग जैसा माहौल बना रहता था। इससे अन्य दलों के लोग भी बहुत प्रभावित हुए।
उनकी सबसे बड़ी विशेषता थी कि हर आयु, वर्ग और स्तर के कार्यकर्ता उनसे खुलकर अपनी बात कह सकते थे। किसी भी विषय पर निर्णय करने से पूर्व वे धैर्य से सबकी बात सुनते थे। वे कार्यकर्ताओं को भाषण की बजाय अपने व्यवहार से समयपालन और जिम्मेदारी का अहसास कराते थे। राजस्थान के एक वर्ग में घड़े भरने की जिम्मेदारी जिस कार्यकर्ता पर थी, वह थकान के कारण ऐसे ही सो गया। सोहन सिंह जी ने रात में निरीक्षण के दौरान जब यह देखा, तो उसे जगाने की बजाय, खुद बाल्टी लेकर घड़े भर दिये। वे साहसी भी इतने थे कि लाठी लेकर 10-12 लोगों से अकेले ही भिड़ जाते थे।
सोहन सिंह जी का जीवन बहुत सादा था। राजस्थान और दिल्ली में भा.ज.पा. के राज में भी उन्होंने कभी किसी नेता या शासन का वाहन प्रयोग नहीं किया। वे रेलगाड़ी में प्रायः साधारण श्रेणी में ही चलते थे। वृद्धावस्था में भी जब तक संभव हुआ, वे कमरे की सफाई तथा कपड़े स्वयं धोते थे। कपड़े प्रेस कराने में भी उनकी रुचि नहीं थी। वे सामान बहुत कम रखते थे। यदि कोई उन्हें वस्त्रादि भेंट करता, तो वे उसे दूसरों को दे देते थे। दिल्ली में उन्होंने अपने कमरे में ए.सी. भी नहीं लगने दिया। बीमारी में भी अपने लिए कोई विशेष चीज बने, वे इसके लिए मना करते थे। चार जुलाई, 2015 की रात में दिल्ली कार्यालय पर ही उनका निधन हुआ। मृत्यु के बाद उनके नेत्रदान कर दिये गये।
(संदर्भ : पांचजन्य का ‘स्मृति शेष’ अंक, 18.7.2015)
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19 अक्तूबर/जन्म-दिवस
लोकसन्त पांडुरंग शास्त्री आठवले
हिन्दू समाज की निर्धन और निर्बल जातियों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले दादा के नाम से प्रसिद्ध पांडुरंग शास्त्री आठवले का जन्म 19 अक्तूबर, 1920 को ग्राम रोहा (जिला रायगढ़, महाराष्ट्र) में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा तपोवन पद्धति से हुई। इस कारण बचपन से ही उनके मन में निर्बलों के प्रति अतिशय प्रेम था।
22 वर्ष की अवस्था से पांडुरंग दादा ने समाज जागरण का कार्य प्रारम्भ कर दिया। उनके प्रवचन केवल भाषण नहीं, अपितु कार्यकर्ता निर्माण के माध्यम भी थे। कुछ ही समय में स्वाध्याय केन्द्र, युवा केन्द्र, बाल संस्कार केन्द्र, महिला केन्द्र आदि गाँव-गाँव तक फैल गये।
1954 में वे जापान में आयोजित द्वितीय धर्मसभा में गये। वहाँ उनके विचारों से विश्व भर के धर्माचार्य प्रभावित हुए। लौटकर उन्होंने मुम्बई के पास ठाणे में ‘तत्वज्ञान विद्यापीठ’ स्थापित की। इसके बाद उन्होंने निकटवर्ती गाँवों में ‘भक्तिफेरी’ द्वारा लाखों लोगों में प्रेम और संवेदना का सन्देश प्रसारित किया। शिविर और धर्मयात्राओं से उनका स्वाध्याय परिवार बड़ा होने लगा। जो उनके परिवार से जुड़ा, उसके दुर्गुण स्वयमेव ही दूर होने लगते थे।
ग्रामीणों के सहयोग से दादा ने हजारों गाँवों में ‘अमृतालयम्’ की स्थापना की। इनमें सभी जाति और वर्ग के लोग आकर पूजा तथा गाँव के विकास के लिए विचार करते हैं। भक्ति की शक्ति द्वारा दादा ने कृषि में क्रान्ति का सूत्रपात किया। गाँव-गाँव में सैकड़ों एकड़ जमीन पर ग्रामीणों ने ‘योगेश्वर कृषि’ शुरू की। इस जमीन पर उस गाँव के सब लोग स्वैच्छिक श्रम करते हैं। इसकी उपज पर किसी का निजी अधिकार नहीं होता। इसे प्रभु की सम्पत्ति मानकर निर्धनों को दे दिया जाता है।
1960 से दादा ने मछुआरों के बीच कार्य प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में वहाँ भी कठिनाइयाँ आयीं; पर धीरे-धीरे स्वाध्याय और प्रेम की शक्ति से वातावरण बदल गया। मांसाहार, शराब, जुआ, अपराध आदि रोग छूटने लगे। सागरपुत्रों की बचत से ‘मत्स्यगन्धा’ नामक प्रयोग का जन्म हुआ, जिसके कारण आज ओखा से लेकर गोवा तक कोई भी गाँव भूख से पीड़ित नहीं है।
इसी प्रकार की एक योजना ‘वृक्ष मन्दिर’ है। वृक्ष में भी भगवान है, यह समझकर उसे उगाना और फिर उसकी रक्षा भी करना चाहिए। स्वाध्याय परिवार वालों ने शासन से हजारों एकड़ बंजर जमीन लम्बे समय के लिए पट्टे पर लेकर वृक्ष लगाये। निकटवर्ती गाँवों से स्वाध्यायी समय-समय पर वहाँ जाकर उनकी देखभाल करते हैं। अतः सब पेड़ जीवित रहते हैं। इससे पर्यावरण के संरक्षण में भी पर्याप्त सहायता मिली है।
चिकित्सकों के लिए ‘पतंजलि चिकित्सालय’ का प्रयोग किया गया। इसमें वे भक्तिभाव से दूर-दराज के गाँवों में जाकर निःशुल्क इलाज करते हैं। इन प्रयोगों से महाराष्ट्र और गुजरात के लगभग एक लाख गाँवों और दो करोड़ लोगों के जीवन में परिवर्तन आया है। इनके लिए दादा ने कभी शासन या धनपतियों से सहायता नहीं ली।
भारत सरकार ने दादा को ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया, जबकि रेमन मेग्सेसे तथा टेम्पल्टन अवार्ड जैसे अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार भी उन्हें दिये गये। 25 अक्तूबर, 2003 को पांडुरंग दादा का देहावसान हुआ। उनके द्वारा स्थापित संस्थाएँ आज भी उनके कार्यों को आगे बढ़ा रही हैं।
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19 अक्तूबर/जन्म-दिवस
पिंजरे की मैना चन्द्रकिरण सोनरेक्सा
हिन्दी की प्रख्यात कहानीकार चंद्रकिरण सौनरेक्सा नये विचारों को सदा सम्मान देने वाली लेखिका थीं। इसीलिए अपने लम्बे और अविराम लेखन से उन्होंने हिन्दी साहित्य की अनेक विधाओं को समृद्ध किया। उनका जन्म 19 अक्तूबर, 1920 को नौशहरा छावनी, पेशावर में हुआ था। परिवार में आर्य समाज का प्रभाव होने के कारण वे कुरीतियों और रूढ़ियों की सदा विरोधी रहीं।
यद्यपि उनकी लौकिक शिक्षा बहुत अधिक नहीं हो पायी; पर मुक्त परिवेश मिलने के कारण उन्होंने एक व्यापक अनुभव अवश्य पाया था। उन्होंने घर बैठे ही ‘साहित्य रत्न’ की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा निजी परिश्रम से बंगला, गुजराती, गुरुमुखी, अंग्रेजी, उर्दू आदि भाषाएं सीखीं और इनमें निष्णात हो गयीं।
पढ़ने की अनूठी लगन और कुछ करने की चाह उनमें बचपन से ही थी। इसी कारण छोटी अवस्था में ही उन्होंने कथा साहित्य का गहरा अध्ययन किया। बंकिमचंद्र, शरदचंद्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, सुदर्शन कौशिक जैसे तत्कालीन विख्यात कथाकारों की रचनाओं को पढ़ा। इस अध्ययन और मंथन ने उन्हें लेखक बनने के लिए आधार प्रदान किया।
चंद्रकिरण जी ने छोटी आयु में साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। 11 वर्ष की अवस्था से ही उनकी कहानियां प्रकाशित होने लगीं थीं। वे ‘छाया’ और ‘ज्योत्सना’ उपनाम से लिखतीं थीं। आगे चलकर तो धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, चांद, माया आदि में भी उनकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुईं।
उनकी कहानियों में सामाजिक विसंगति, विकृति, विद्रूप, भयावहता, घुटन, संत्रास आदि का सजीव चित्रण हुआ है। निर्धन और मध्यवर्गीय नारी को कैसे तनाव, घुटन और पारिवारिक दबाव झेलने पड़ते हैं, इसका जीवंत और मर्मस्पर्शी वर्णन उन्होंने किया है। उनका मानना था कि लेखक जो देखता और भोगता है, उस पर लिखना उसका लेखकीय दायित्व है।
चंद्रकिरण जी ने 1956 से 1979 तक वरिष्ठ लेखक के रूप में आकाशवाणी, लखनऊ में काम किया। इस दौरान उन्होंने आकाशवाणी की विविध विधाओं नाटक, वार्ता, फीचर, नाटक, कविता, कहानी, परिचर्चा, नाट्य रूपांतरण आदि पर आधिकारिक रूप से अपनी लेखनी चलाई। बाल साहित्य भी उन्होंने प्रचुर मात्रा में लिखा।
उनकी कृति ‘दिया जलता रहा’ का धारावाहिक प्रसारण बहुत लोकप्रिय हुआ। उनकी कहानियों का भारतीय भाषाओं के साथ ही चेक, रूसी, अंग्रेजी तथा हंगेरियन भाषाओं में भी अनुवाद हुए। अपनी रचनाओं के लिए उन्हें अनेक सम्मान मिले। इनमें सेक्सरिया पुरस्कार, सारस्वत सम्मान, सुभद्राकुमारी चौहान स्वर्ण पदक तथा हिन्दी अकादमी की ओर से सर्वश्रेष्ठ हिन्दी लेखिका सम्मान प्रमुख हैं।
चंद्रकिरण जी का वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। इसका प्रभाव भी उनके लेखन पर दिखाई देता है। 2008 में उनकी आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ प्रकाशित हुई, जिसका साहित्य जगत में व्यापक स्वागत हुआ। उसका हर पृष्ठ तथा प्रत्येक घटना मन को छू जाती है। उससे पता लगा कि विपरीत पारिवारिक परिस्थितियों के बाद भी उन्होंने अपने भीतर के चिंतन, लेखन व सृजन को मरने नहीं दिया। इस प्रकार उन्होंने न केवल बाह्य अपितु आंतरिक रूप से भी भरपूर संघर्ष किया।
17 मई, 2009 को 89 वर्ष की आयु में लखनऊ में उनका देहांत हुआ। इस प्रकार उन्मुक्त गगनाकाश में विचरने के लिए वह पिंजरे की मैना अपने तन और मन रूपी सभी बंधनों से मुक्त हुई।
(संदर्भ : हिन्दुस्तान, 31.5.09)
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अक्तूबर/जन्म-दिवस
सरल एवं हंसमुख
प्रचारक अशोक बेरी
रा.स्व.संघ के
वरिष्ठ प्रचारक अशोक बेरी का जन्म 19 अक्तूबर, 1948 को अपनी ननिहाल कपूरथला में हुआ था। उनके पिता श्री
लखपतराय बेरी तथा माता श्रीमती सत्यादेवी थीं। उनका परिवार मूलतः लुधियाना का था।
तीन भाई और चार बहिनों में उनका नंबर दूसरा था। पिताजी सी.डी.ए. (कंट्रोलर आॅफ
डिफेंस अकाउंट) में सेवारत होने से श्रीनगर, जम्मू, मेरठ और अंत में
रुड़की आ गये। जम्मू में उनका घर रघुनाथ मंदिर के पास था। वहां लगने वाली सायं
शाखा के मुख्यशिक्षक रोज शिवाजी की एक कहानी सुनाते थे। लगभग एक महीने तक यह क्रम
चला। उससे आकर्षित होकर 1957 में वे और उनके
बड़े भाई शाखा जाने लगे।
1960 में पिताजी के
मेरठ आने से अशोक जी की अधिकांश पढ़ाई वहीं हुई। 1963, 65 और 67 में उन्होंने
तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग पूर्ण किये। उस दौरान वहां विष्णु जी जिला और कौशल
जी विभाग प्रचारक थे। 1969 में मेरठ काॅलिज
से भौतिकी में एम.एस-सी कर वे प्रचारक बने। एक वर्ष बाद उन्होंने एम.फिल में
प्रवेश लेकर रूसी भाषा का अध्ययन किया; पर तीन महीने बाद ही उसे छोड़ दिया और पूरी तरह संघ में रम गये। संघ शिक्षा
वर्ग में वे खड्ग, शूल, छुरिका, वेत्र चर्म तथा घोष के शिक्षक रहते थे। नैनीताल जिला
प्रचारक के साथ वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के घोष प्रमुख भी थे।
प्रचारक जीवन में
वे बागपत, एटा, बरेली, अल्मोड़ा और नैनीताल जिला, कुमाऊं/बरेली और
सीतापुर विभाग, बरेली संभाग,
मेरठ प्रांत, उ.प्र. के सेवा प्रमुख, पूर्वी उ.प्र. के क्षेत्र प्रचारक तथा फिर संघ की केन्द्रीय
कार्यकारिणी के सदस्य रहे। इस दौरान उन पर प्रचार विभाग के जागरण पत्रकों की
देखरेख तथा फिर सामाजिक सद्भाव गतिविधि का काम रहा। एक साल वे विश्व हिन्दू परिषद
के साथ भी सम्बद्ध रहे।
आपातकाल में
नैनीताल जिला प्रचारक रहते हुए वे जन जागरण आदि भूमिगत गतिविधियां चला रहे थे। इस
दौरान वे पूरे कुमाऊं और मुरादाबाद तक जाते थे। जून 1976 में एक परिचित की मुखबिरी पर बस में यात्रा करते हुए
गदरपुर में उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया। जन्म से ही उनके दोनों हाथों की बीच की दो उंगलियां
जुड़ी हुई थीं। सीधे हाथ का आॅपरेशन हो गया था, पर दूसरी वैसी ही थी। ये उनकी पहचान थी। उनके पास रज्जू
भैया का एक पत्र था, जो उन्हें
नैनीताल वि.वि. के उपकुलपति डी.डी.पंत को देना था। पहले डी.आई.आर और फिर मीसा में
वे नौ मास नैनीताल जेल में रहे।
मेरठ प्रांत में मुस्लिम जनसंख्या बहुत अधिक है। जातीय और राजनीतिक आधार पर भी संघ का विरोध होता रहा है। इसके बावजूद नवम्बर 1998 में मेरठ में हुए ‘समरसता महाशिविर’ में लगभग 32,000 स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में शामिल हुए। इससे संघ का काम सुदूर गांवों और पहाड़ों में पहुंच गया। उनके कार्यकाल में अलग राज्य का आंदोलन भी चरम पर था। 1991 में उत्तरकाशी के भूकंप के बाद गंगा घाटी में व्यापक सहायता एवं नवनिर्माण कार्य हुए। आज तो पहाड़ में संघ का काम दूर तक फैला है; पर जब साधन और समर्थन नहीं था, तब पैदल और मोटरसाइकिल से घूमकर उन्होंने वहां काम खड़ा किया।
अशोक जी युवाओं के बीच रहना पसंद करते हैं। बचपन से ही उनकी जीभ में कुछ लड़खड़ाहट है; पर इसे उन्होंने अपने काम में कभी बाधक नहीं बनने दिया। इन दिनों वे संघ की केन्द्रीय कार्यकारिणी के आमंत्रित सदस्य के नाते पूरे देश में प्रवास करते हैं। दधीचि देहदान समिति, देहरादून के माध्यम से उन्होंने देहदान एवं नेत्रदान का संकल्प लिया है। ईश्वर उन्हें स्वस्थ रखे, यही कामना है।
(19.8.23 को हुई वार्ता)
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20 अक्तूबर/जन्म-दिवस
संघ सुगन्ध के विस्तारक शरद मेहरोत्रा
कन्नौज (उ.प्र.) के प्रसिद्ध इत्र निर्माता व नगर संघचालक श्री हरिहर नाथ एवं श्रीमती सरला के घर में 20 अक्तूबर, 1942 को शरद जी का जन्म हुआ। संघचालक होने के कारण संघ के कार्यकर्ताओं का प्रायः उनके घर आगमन होता था; पर वे अपनी किताबों में डूबे रहते थे। इस कारण कन्नौज में वे संघ से नहीं जुड़ पाये। सेठ वासुदेव सहाय इंटर कालिज से इंटर और फिर विक्रमाजीत सिंह सनातन धर्म महाविद्यालय, कानपुर से उन्होंने अर्थशास्त्र में एम.ए किया।
कानपुर में 1962 में उनका सम्पर्क फरुखाबाद जिला प्रचारक श्री शिवप्रसाद जी के माध्यम से विभाग प्रचारक श्री अशोक सिंघल से हुआ। उस समय रज्जू भैया और भाऊराव देवरस भी कानपुर आते रहते थे। इनके सान्निध्य ने शरद जी के जीवन में संघ की लौ जला दी। इसका परिणाम यह हुआ कि 1964 में 22 वर्ष की अवस्था में एम.ए करते ही वे प्रचारक बन गये।
प्रचारक के नाते सर्वप्रथम उन्हें मथुरा भेजा गया। मथुरा की मस्ती उनके स्वभाव के अनुकूल थी, इसलिए वे वहां रम गये। वे अत्यन्त सम्पन्न परिवार के थे, जबकि प्रचारक को सादगी से रहते हुए अपने व्यय का हिसाब प्रति माह व्यवस्था प्रमुख को देना होता है। शाही खर्च के आदी शरद जी को इससे कठिनाई होती थी; पर धीरे-धीरे उन्होंने स्वयं को इस अनुसार ढाल लिया।
वे आगरा, अलीगढ़ और एटा में जिला व विभाग प्रचारक रहे। मथुरा में दीनदयाल जी के पैतृक ग्राम फरह में शरद जी ने उनके जन्मदिवस पर मेला प्रारम्भ कराया। ऐसे कई अभिनव कार्यक्रमों से उन्होंने सैकड़ों नये कार्यकर्ताओं को संघ से जोड़ा।
शरद जी बहुत सिद्धांतनिष्ठ व्यक्ति थे। आपातकाल में वे जब जेल में थे, तो उनके परिवारजन जेलर के माध्यम से प्रायः उनसे मिल लेते थे। शरद जी ने इसके लिए उन्हें डांटा। 1977 में जब प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनी, तो कल्याण सिंह उसमें स्वास्थ्य मंत्री थे। शरद जी के परिजनों ने उनसे मिलकर और शरद जी का नाम लेकर अपने एक संबंधी का स्थानांतरण रुकवा लिया। इससे भी शरद जी बहुत नाराज हुए।
1981 में वे मध्यभारत में सहप्रांत प्रचारक और 1985 में प्रांत प्रचारक बने। वहां उन्होंने अपने परिश्रम से शाखाओं का भरपूर विस्तार किया। श्री रामजन्मभूमि आंदोलन में पूरे भारत की भांति मध्यभारत प्रांत भी सक्रिय रहा। साहित्य निर्माण, विद्यालयों का विस्तार, धर्म जागरण से लेकर सेवा तक सब कामों में उन्होंने नये आयाम स्थापित किये। उन दिनों म.प्र. में भाजपा का शासन था। ऐसे में सिद्धांतों पर दृढ़ रहते हुए संगठन और सत्ता में तालमेल बनाये रखने में भी वे सफल हुए।
बचपन से ही शरद जी का जबड़ा कुछ कम खुलता था। उसे सक्रिय रखने के लिए वे प्रायः कुछ चबाते रहते थे; पर यही आगे चलकर मुख कैंसर में बदल गया। मुंबई में टाटा अस्पताल की जांच से जब यह पता लगा, तब तक बात बहुत आगे बढ़ गयी थी। कई तरह के इलाज किये गये; पर रोग बढ़ता गया।
उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि चार-छह माह का जीवन बढ़ाने के लिए अ१परेशन, रेडियेशन या कीमोथेरेपी आदि का प्रयोग वे नहीं करेंगे। धीरे-धीरे उनका मुंह बिल्कुल बंद हो गया और वे लिखकर बात करने लगे। उन्होंने स्वयं को प्रभु चरणों में समर्पित कर दिया और आयुर्वेदिक दवा लेते रहे।
कैंसर में रोगी को अत्यन्त शारीरिक पीड़ा होती है; पर शरद जी ने किसी को इसका अनुभव नहीं होने दिया। जब तक संभव था, वे बीमारी में भी प्रवास करते रहे। इसी प्रकार समय निकलता गया और 30 जनवरी, 1993 को सुंगध नगरी के इस सुगंधित पुष्प ने स्वयं को भारतमाता के चरणों में विसर्जित कर दिया। देहांत से एक घंटे पूर्व उन्होंने श्री माणिक चंद्र वाजपेयी को स्लेट पर लिखकर एक संदेश दिया, जो सब कार्यकर्ताओं के लिए आज भी पाथेय है।
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20 अक्तूबर/बलिदान-दिवस
गोरक्षक डा. राशिद अली
गाय का भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान है। सभी भारतीय मत-पंथ इसे पूज्य मानते हैं। इस्लाम में भी गोहत्या या गोमांस खाने का आदेश नहीं है; पर हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए मुस्लिम शासकों द्वारा चालू की गयी कुप्रथा आज भी जारी है। इस बारे में कानून भी स्पष्ट और कठोर नहीं है।
लेकिन अनेक समझदार एवं देशभक्त मुसलमान गाय को हितकारी पशु मानकर उसकी सेवा एवं रक्षा का प्रयत्न करते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रयास से ऐसे मुसलमानों को संगठित करने का प्रयास भी हो रहा है। इसके लिए ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ तथा ‘माई हिन्दुस्तान’ जैसे संगठन सक्रिय हैं।
डा. राशिद अली ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ के सक्रिय कार्यकर्ता थे। उनका जन्म ग्राम नगला झंडा (जिला सहारनपुर, उ.प्र.) के एक पठान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री हफीजुर्रहमान था। चिकित्सा का प्रशिक्षण (बी.आई.एम.एस.) प्राप्त कर वे अपने गांव में ही चिकित्सा कार्य करने लगे।
डा. राशिद अली के मन में सम्पूर्ण मानवमात्र के लिए प्रेम और करुणा की भावना थी। अतः मांसाहारी परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्होंने शाकाहार को अपनाया। उनका मत था कि हिन्दू और मुसलमानों की एकता से ही भारत की उन्नति होगी, और इसके लिए गोहत्या बंद होनी बहुत आवश्यक है।
गोप्रेमी होने के कारण उन्होंने इससे सम्बन्धित कानूनों का अध्ययन किया। इससे उन्हें पता लगा कि एक ट्रक में छह से अधिक गायों को नहीं ले जाया जा सकता; पर पशुओं के व्यापारी एक साथ 20-25 गायों को ठूंसकर काटने के लिए उन्हें पशु मंडी में ले जाते थे। पुलिस और प्रशासन भी घूस खाकर अपनी आंख बंद कर लेता है। इससे उनका मन बहुत दुखी होता था।
पश्चिमी उ.प्र. में मुसलमानों की जनसंख्या बहुत अधिक है। उसकी सीमाएं हरियाणा से भी लगती हैं। सहारनपुर जिले में ही ऐसे कई गांव हैं, जहां खुलेआम गोहत्या होती थी। मुसलमान वोटों के लालच में राजनेता भी इस ओर ध्यान नहीं देते थे। ऐसे में डा. राशिद अली ने इसके विरुद्ध कमर कस ली तथा 1998 में अपना चिकित्सालय बंद कर पूरा समय गोरक्षा को समर्पित कर दिया।
जब भी उन्हें यह सूचना मिलती कि गायों को हत्या के लिए ले जाया जा रहा है, वे अपनी मोटर साइकिल लेकर निकल पड़ते। इस प्रकार उन्होंने हजारों गोवंश की प्राणरक्षा की; पर यह काम इतना सरल नहीं था। एक ओर कट्टरपंथी मुल्ला, तो दूसरी ओर गोहत्यारे उनके पीछे पड़ गये। उन्हें धमकियां मिलने लगीं; पर उन्होंने अपने संकल्प से पीछे हटना स्वीकार नहीं किया।
वर्ष 2002 में घर जाते समय कुछ लोगों ने उन्हें घेर कर चाकुओं से हमला कर दिया। पेट में गहरे घाव होने से वे बेहोश हो गये; पर गोमाता के आशीर्वाद तथा समय पर सहायता मिलने से वे शीघ्र ही स्वस्थ हो गये। कुछ दिन बाद हुए एक समारोह में उन्होंने कहा कि ‘‘ये घाव तो कुछ भी नहीं हैं। गोमाता की रक्षा के लिए यदि मुझे प्राण भी देने पड़ें, तो मैं पीछे नहीं हटूंगा।’’
20 अक्तूबर, 2003 को उन्हें दूरभाष से किसी ने सूचना दी कि ग्राम खुजनापुर में कहीं से एक ट्रक भर कर गाय लाई गयी हैं, जिन्हें अगले दिन काटा जाएगा। यह सुनते ही उन्होंने अपने भाई आसिफ अली को मोटर साइकिल पर बिठाया और वहां पहुंच कर सभी 25 गायों को छुड़ा लिया।
पर इससे गोहत्यारे बहुत नाराज हो गये। जब डा. राशिद घर वापस जा रहे थे, तो चार लोगों ने उनका पीछा किया और अपने गांव नगला झंडा पहुंचने से कुछ पहले ही उनके सीने में गोली दाग दी। गोली लगते ही वे गिर गये। जब तक लोग सहायता के लिए आये, तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ गये।
इस प्रकार एक मुसलमान गोरक्षक ने अपने संकल्प को पूरा करते हुए प्राणों की आहुति दे दी।
(संदर्भ : पैगाम ए मादरे वतन, अपै्रल 2008)
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21 अक्तूबर/जन्म-दिवस
प्रथम भारतीय सर्वेक्षक पंडित नैनसिंह रावत
पर्वतीय क्षेत्र में सर्वेक्षण का काम बहुत कठिन है। आज तो इसके लिए अनेक सुविधाएं तथा वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध हैं; पर जब यह नहीं थे, तब सर्वेक्षण करना बहुत साहस एवं सूझबूझ का काम था। पंडित नैनसिंह रावत ऐसे ही एक व्यक्तित्व थे। अतः उनके काम को विश्व भर में मान्यता मिली।
पंडित नैनसिंह का जन्म 21 अक्तूबर, 1830 को ग्राम मिलम (मुनस्यारी, उत्तराखंड) में श्री अमर सिंह के घर में हुआ था। उनके दादा श्री धामसिंह को कुमाऊं के राजा दीपचंद्र ने 1735 में कई गांवों की जागीर दी थी। घर चलाने के लिए वे अध्यापक बने, इसीलिए उनके नाम के साथ पंडित जुड़ गया।
पंडित नैनसिंह भोटिया जनजाति में जन्मे थे। उन्होंने एक डायरी में अपने मिलपवाल गोत्र की उत्पत्ति धारानगर के क्षेत्री पंवार वंशियों से बताई है। अपने पिता के साथ व्यापार के लिए वे कई बार तिब्बत और लद्दाख की लम्बी यात्राओं पर गये। इससे यात्रा और अन्वेषण उनकी रुचि का विषय बन गया। उनकी इस प्रतिभा तथा साहसी स्वभाव का ब्रिटिश शासन ने पूरा उपयोग किया।
कर्नल मांटगुमरी से सर्वेक्षण के नये उपकरणों का प्रशिक्षण लेकर उन्होंने 1865-66 में पहली यात्रा ल्हासा (तिब्बत) की ओर की। वे अल्मोड़ा से काठमांडू और वहां से तिब्बत पहुंचकर ब्रह्मपुत्र नदी के साथ-साथ चलते गये। ऊंचाई की गणना वे पानी उबलने में लगे समय तथा तापमान से करते थे। तारों तथा नक्षत्रों से वे भोगौलिक स्थिति तथा कदमों से दूरी नापते थे। यह आश्चर्य की बात है कि उनकी गणनाएं आज भी लगभग ठीक सिद्ध होती हैं।
उन्होंने इस यात्रा की कठिनाइयों की चर्चा करते हुए लिखा है कि वहां के शासक अंग्रेजों या उनके कर्मचारियों तथा धरती की नाप के उपकरण देखकर भड़क जाते थे। अतः वे कभी व्यापारी तो कभी बौद्ध लामा की तरह ‘ॐ मणि पद्मे हुम्’ का जाप करते हुए वेश बदल-बदल कर यात्रा करते थे।
1867 में वे फिर तिब्बत गये। इस यात्रा में कई बार वे भटक गये और खाना तो दूर पानी तक नहीं मिला। यहां खान से सोना निकालने की विधि उन्होंने लिखी है। उनकी कई डायरियां अप्राप्य हैं। उनकी तीसरी यात्रा 1873-74 में यारकन्द खोतान की हुई। उन्होंने लिखा है कि वहां के बूढ़े मुसलमान 8-10 साल की कन्या से भी निकाह कर लेते हैं। कई बालिकाएं इससे मर जाती हैं। वहां पुरुष कई निकाह करते हैं और इसे प्रतिष्ठा की बात माना जाता है।
पंडित नैनसिंह ने अपनी पांच प्रमुख यात्राओं में हर जगह की भौगोलिक, आर्थिक, सामाजिक स्थिति, भाषा-बोली, खेती, रीति-रिवाज आदि का अध्ययन किया और दुर्गम पुराने व्यापार मार्गों के मानचित्र बनाये। उन्होंने कई नदियों के उद्गम की खोज की। उनकी पुस्तक ‘अक्षांश दर्पण’ का वर्तमान सर्वेक्षक भी उपयोग करते हैं। उन्होंने नये सर्वेक्षकों को प्रशिक्षित भी किया।
1876 में उनका काम ‘राॅयल मैगजीन’ में प्रकाशित हुआ। 1877 में पेरिस के भूगोलशास्त्रियों ने उन्हें सोने की घड़ी देकर सम्मानित किया। ‘राॅयल ज्योग्राफिकल सोसायटी, लंदन’ ने 18 मई, 1877 को उन्हें स्वर्ण पदक देकर मध्य एशिया के क्यून ल्यून पहाड़ की एक अनाम शृंखला को ‘नैनसिंह रेंज’ नाम दिया। 1961 तक की ‘रीडर्स डाइजेस्ट एटलस’ में यह नाम मिलता है; पर फिर न जाने क्यों इसे बदलकर ‘नांगलौंग कांगरी’ कर दिया गया।
1877 में अवकाश प्राप्ति पर ब्रिटिश शासन ने उन्हें एक हजार रु0 तथा रुहेलखंड के तराई क्षेत्र में एक गांव पुरस्कार में दिया। 1895 में वहां पर ही घूमते समय हुए हृदयाघात से उनका देहांत हुआ। 27 जून, 2004 को भारत सरकार ने उनकी स्मृति में एक डाक टिकट जारी किया है।
(संदर्भ : अंतरजाल पर उपलब्ध सामग्री)
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21 अक्तूबर/पुण्य-तिथि
दिल्ली में सत्याग्रह की शान बहिन सत्यवती
1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय दिल्ली में जिस वीर महिला ने अपने साहस, संगठन क्षमता एवं अथक परिश्रम से चूल्हे-चौके तक सीमित रहने वाली घरेलू महिलाओं को सड़क पर लाकर ब्रिटिश शासन को हैरान कर दिया, उनका नाम था बहिन सत्यवती।
सत्यवती का जन्म अपने ननिहाल ग्राम तलवन (जिला जालंधर, पंजाब) में 26 जनवरी, 1906 को हुआ था। स्वाधीनता सेनानी एवं परावर्तन के अग्रदूत स्वामी श्रद्धानंद जी उनके नाना थे। उनकी माता श्रीमती वेदवती धार्मिक एवं सामाजिक कार्याें में सक्रिय थीं। इस प्रकार साहस एवं देशभक्ति के संस्कार उन्हें अपने परिवार से ही मिले। विवाह के बाद वे दिल्ली में रहने लगीं।
उनका विवाह दिल्ली क्लॉथ मिल में कार्यरत एक अधिकारी से हुआ, जिससे उन्हें एक पुत्र एवं पुत्री की प्राप्ति हुई। अपने पति से उन्हें दिल्ली के उद्योगों में कार्यरत श्रमिकों की दुर्दशा की जानकारी मिली। इससे उनका मातृत्व जाग उठा। वे श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए मैदान में कूद पड़ीं। इस प्रकार उन्होंने 1936-37 में दिल्ली में श्रमिक आंदोलन को एक नयी दिशा दी।
उनके उग्र भाषणों से घबराकर शासन ने उन पर कई प्रतिबंध लगाये; पर वे पुलिस को चकमा देकर निर्धारित स्थान पर पहुंच जाती थीं। इससे दिल्ली की महिलाओं तथा युवाओं में उनकी विशेष पहचान बन गयी। हिन्दू क१लिज एवं इन्द्रप्रस्थ कन्या विद्यालय के छात्र-छात्राएं तो उनके एक आह्नान पर सड़क पर आ जाते थे। उन्होंने ‘कांग्रेस महिला समाज’ एवं ‘कांग्रेस देश सेविका दल’ की स्थापना की। वे ‘कांग्रेस समाजवादी दल’ की भी संस्थापक सदस्य थीं।
नमक सत्याग्रह के समय उन्होंने शाहदरा के एक खाली मैदान में कई दिन तक नमक बनाकर लोगों को निःशुल्क बांटा। कश्मीरी गेट रजिस्ट्रार कार्यालय पर उन्होंने महिलाओं के साथ विशाल जुलूस निकाला। इस पर शासन ने उन्हें गिरफ्तार कर अच्छे आचरण का लिखित आश्वासन एवं 5,000 रु0 का मुचलका मांगा; पर बहिन सत्यवती ने ऐसा करने से मना कर दिया। परिणाम यह हुआ कि उन्हें छह महीने के लिए कारावास में भेज दिया गया।
उनके नेतृत्व में ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ का भी दिल्ली में बहुत प्रभाव हुआ; पर बार-बार की जेल यात्राओं से जहां एक ओर वे तपेदिक से ग्रस्त हो गयीं, वहां दूसरी ओर वे अपने परिवार और बच्चों की देखभाल भी ठीक से नहीं कर सकीं। उनकी बेटी ने दस वर्ष की अल्पायु में ही प्राण त्याग दिये। शासन ने पुत्री के अंतिम संस्कार के लिए भी उन्हें जेल से नहीं छोड़ा।
1942 के आंदोलन के समय बीमार होते हुए भी उन्होंने चांदनी चौक की गलियों में घूम-घूमकर महिलाओं के जत्थे तैयार किये और उन्हें स्वाधीनता के संघर्ष में कूदने को प्रेरित किया। शासन ने उन्हें गिरफ्तार कर अम्बाला जेल में बंद कर दिया। वहां उनकी देखभाल न होने से उनका रोग बहुत बढ़ गया। इस पर शासन ने उन्हें टी.बी चिकित्सालय में भर्ती करा दिया।
जब वे जेल से छूटीं, तब तक आंदोलन ठंडा पड़ चुका था। लोगों की निराशा दूर करने के लिए उन्होंने महिलाओं एवं सत्याग्रहियों से संपर्क जारी रखा। यह देखकर शासन ने उन्हें घर पर ही नजरबंद कर दिया। रोग बढ़ जाने पर उन्हें दिल्ली के ही एक अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां 21 अक्तूबर, 1945 को उनका देहांत हो गया। उनकी स्मृति को चिरस्थायी रखने के लिए दिल्ली में "सत्यवती कॉलेज" की स्थापना की गयी है।
(संदर्भ : स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश.. आदि)
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22 अक्तूबर/जन्म-दिवस
स्वामी रामतीर्थ एक तरफ हो गयेे
22 अक्तूबर, 1873 ई. को दीपावली वाले दिन जन्मे तीर्थराम गणित के मेधावी छात्र थे। एक बार प्रश्नपत्र में दस में से कोई पाँच प्रश्न हल करने को कहा गया। तीर्थराम को स्वयं पर विश्वास था। उन्होंने सभी प्रश्न हलकर लिख दिया कि कोई पाँच जाँच लें। जाँचने पर सभी प्रश्नों के उत्तर ठीक निकलेे। एक बार एक प्रश्न का उत्तर बहुत देर तक ठीक न आने पर वे छुरी लेकर बैठ गये। निश्चय किया कि एक घण्टे में यदि प्रश्न हल न हुआ, तो आत्मघात कर लेंगे; पर समय से पूर्व ही उन्होंने ठीक उत्तर निकाल लिया।
श्री हीरानंद गोसाईं और श्रीमती तीर्थदेवी के पुत्र तीर्थराम प्रथम श्रेणी में एम.ए. करने के बाद लाहौर के क्रिश्चियन कालिज में गणित पढ़ाने लगे। अपनी योग्यता और पढ़ाने के निराले ढंग के कारण वे छात्रों में बहुत लोकप्रिय थे। उनका मन प्रभुभक्ति में बहुत लगता था। स्वामी विवेकानंद के प्रवचनों का उनके मन पर बहुत प्रभाव था।
उन्हें लगता था कि कोई शक्ति उन्हें अपनी ओर खींच रही है। उनकी इच्छा संन्यास लेकर पूरी तरह अध्यात्म में डूब जाने की थी; पर गृहस्थाश्रम की बेड़ियाँ भी उनके पाँवों में पड़ीं थीं। पत्नी और दो बालकों का दायित्व भी उन पर था। अतः वे अनिर्णय की स्थिति में थे।
एक दिन वे प्रातः कुछ जल्दी ही विद्यालय जा रहे थे। रास्ते में एक सफाईकर्मी महिला सड़क पर झाड़ू लगा रही थी। तीर्थराम जी को सीधे आता देख वह चिल्लाई - प्रोफेसर साहब, एक तरफ हो जाइये। बीच में चलना ठीक नहीं। आप धूल में गन्दे हो जायेंगे। इसलिए कृपया एक तरफ हो जायें।
वह तो उन्हें धूल से बचाने के लिए यह कह रही थी; पर तीर्थराम जी ने उसके शब्दों में छिपे मर्म को पकड़ लिया। वे समझ गये कि गृहस्थ या संन्यास में से एक मार्ग चुनकर उन्हें अब एक तरफ हो जाना चाहिए। उन्होंने उसी क्षण संन्यास का निश्चय कर उस महिला के पाँव पकड़ लिये - माँ, तुमने मेरा संशय मिटा दिया। अब मैं हमेशा के लिए एक तरफ ही हो जाता हूं।
विद्यालय पहुँचकर उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। उनके साथियों ने उन्हें बहुत ऊँच नीच बताने का प्रयत्न किया; पर वे अपने निश्चय से नहीं डिगे। 1899 ई. की दीपावली पर उन्होंने संन्यास ले लिया और उत्तराखण्ड की यात्रा पर चल दियेे। उनकी पत्नी भी जिदपूर्वक उनके साथ चल दी।
हरिद्वार से आगे गंगा के किनारे चलते हुए उन्होंने पत्नी से कहा कि अब हम पूरी तरह प्रभु के आश्रय में हैं। अतः तुम्हारे शरीर पर आभूषण शोभा नहीं देते। इन्हें गंगा जी में फेंक दो। महिलाओं को आभूषण अत्यन्त प्रिय होते हैं। अतः पत्नी एक बार तो सकुचाई; पर फिर उसने आभूषण और सब धन गंगा मां को समर्पित कर दिया।
एक दो दिन और इसी तरह वे चलते रहे। एक दिन उन्होंने कहा कि संन्यासी अपने पिछले जीवन के साथ भावी जीवन के लिए भी कोई आकांक्षा नहीं रखता। मोह और माया का त्याग ही सच्चा संन्यास है। अतः इस बच्चे को भी माँ गंगा की झोली में डाल दो; लेकिन उनकी पत्नी अपनी कोख से उत्पन्न बच्चे को त्यागने को तैयार नहीं हुई। इस पर स्वामी जी ने उसे भी घर लौट जाने को कहा। पत्नी वापस लौट गयी।
संन्यास लेकर वे स्वामी रामतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुए। भक्ति की मस्ती में वे स्वयं को बादशाह राम और अपने शरीर को साक्षात भारत कहते थे। टिहरी के पास भिलंगना नदी के तट पर स्थित ग्राम सिमलासू में उन्होंने लम्बी साधना की। वहीं 17 अक्तूबर, 1907 को दीपावली के दिन उन्होंने जलसमाधि ले ली। इस प्रकार उनका जन्म, संन्यास और देहान्त दीपावली वाले दिन ही हुआ।
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22 अक्तूबर/जन्म-दिवस
दिव्य प्रेम के साधक आशीष गौतम
सेवा धर्म को सदा कठिन माना गया है। उसमें भी कुष्ठ रोगियों की सेवा, और वह भी उनके बीच में ही रहकर करना तो बहुत ही साहस का काम है; पर दिव्य प्रेम के आराधक आशीष गौतम ने हरिद्वार में यह कर दिखाया है।
भैया जी के नाम से प्रसिद्ध आशीष जी का जन्म 22 अक्तूबर, 1962 को हमीरपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ। छात्र जीवन में ही उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हो गया। संघ की दैनिक शाखा ने उनके जीवन में देशभक्ति, अनुशासन और समाज सेवा के संस्कार सुदृढ़ किये। प्रयाग विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में एम.ए. और फिर कानून की उपाधि प्राप्त कर उन्होंने वकालत या कोई नौकरी करने की बजाय आजीवन अविवाहित रहकर संघ के प्रचारक के रूप में अपना जीवन समाज को अर्पित कर दिया।
पर उनके मन में प्रारम्भ से ही स्वामी विवेकानन्द और उनके अध्यात्म के प्रति रुचि थी। प्रचारक काल में वे कुछ समय हरिद्वार और ऋषिकेश भी रहे। यहाँ देवतात्मा हिमालय की छत्रछाया और माँ गंगा के सान्निध्य ने उनकी इस आध्यत्मिक भूख को बढ़ा दिया और एक दिन वे गंगोत्री की ओर चल दिये। लम्बे समय तक वहाँ साधना करने के बाद उन्होंने प्रत्यक्ष सेवा को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। इसके लिए उन्होंने चुना समाज के उस सर्वाधिक उपेक्षित वर्ग को, जिन्हें सब घृणा से देखते हैं।
भिक्षावृत्ति से जीवनयापन करने वाले कुष्ठ रोगी तीर्थक्षेत्रों में पर्याप्त संख्या में मिल जाते हैं। हरिद्वार में तो उनकी बहुत संख्या है। अतः आशीष जी चंडी घाट के पास बसे कुष्ठ रोगियों के बीच काम का निश्चय कर स्वयँ वहाँ एक झोपड़ी में रहने लगे। उन्होंने रोगियों की मरहम पट्टी से काम प्रारम्भ किया। इसके लिए गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार के छात्रों और बी.एच.ई.एल के कर्मचारियों ने उन्हें सहयोग दिया। इस प्रकार विवेकानन्द जयन्ती 12 जनवरी, 1997 को ‘दिव्य प्रेम सेवा मिशन’ नामक संस्था का उदय हुआ।
प्रारम्भ में वहाँ कार्यरत ईसाई संस्थाओं ने उनका विरोध किया। क्योंकि वे इन कुष्ठ रोगियों के स्वस्थ बच्चों को पालकर, पढ़ाकर और फिर पादरी या नन बनाकर भारत में अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं; पर उनका समर्पण भाव देखकर कुष्ठ रोगियों ने मिशनरियों को ही बिस्तर समेटने के लिए बाध्य कर दिया।
धीरे-धीरे काम के आयाम बढ़ते गये। बच्चों के लिए छात्रावास बनाये गये। जो रोगी स्वस्थ हो गये, उन्हें हाथ के कुछ काम सिखाये गये, जिससे उनकी भिक्षावृत्ति छूट गयी। 2002 ई0 उनके स्वस्थ बच्चों की शिक्षा के लिए हरिद्वार से कुछ दूरी पर एक नया प्रकल्प ‘वन्दे मातरम् कुंज’ के नाम से स्थापित किया गया। भविष्य में उनकी स्वस्थ बालिकाओं के लिए भी छात्रावास तथा विद्यालय बनाने की योजना है। ये सभी प्रकल्प पूर्णतः जनसहयोग पर आश्रित हैं।
हरिद्वार के पास बड़ी संख्या में वनगूजर रहते हैं। दूध का कारोबार करने वाले इन घुमन्तु लोगों के बच्चों के लिए भी एकल विद्यालय खोले गये हैं। आशीष जी की योजना एक बड़ा चिकित्सालय बनाने की है, जहाँ कुष्ठ रोगियों का पूरा इलाज हो सके। रामकथा के प्रसिद्ध गायक श्री विजय कौशल अपनी कथा से उनके लिए धन जुटाते हैं।
इस सेवाकार्य को देखकर बड़ी संख्या में युवक, समाजसेवी एवं पत्रकार उनके प्रकल्प से जुड़ रहे हैं। अनेक स्वयंसेवी और शासकीय संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया है। ईश्वर आशीष जी को यशस्वी करे, यह शुभकामना है।
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23 अक्तूबर/जन्म-दिवस
अजातशत्रु पंडित प्रेमनाथ डोगरा
जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के पक्षधर पंडित प्रेमनाथ डोगरा का जन्म 23 अक्तूबर, 1894 को ग्राम समेलपुर (जम्मू) में पं. अनंत राय के घर में हुआ था। जम्मू-कश्मीर के महाराजा रणवीर सिंह के समय में पं. अनंत राय "रणवीर गवर्नमेंट प्रेस" के और फिर लाहौर में "कश्मीर प्रापर्टी" के अधीक्षक रहे। उनका महत्व इसी से समझा जा सकता है कि लाहौर में वे राजा ध्यान सिंह की हवेली में रहते थे। इसलिए प्रेमनाथ जी की शिक्षा लाहौर में ही हुई।
प्रेमनाथ जी पढ़ाई और खेल में सदा आगे रहते थे। एफ.सी कॉलेज, लाहौर में हुई प्रतियोगिता में उन्होंने 100 गज, 400 गज, आधा मील और एक मील दौड़ की प्रतियोगिताएं जीतीं। इस पर पंजाब के तत्कालीन गर्वनर ने उन्हें विशेष रूप से सम्मानित किया। उन्हें एक जेब घड़ी पुरस्कार में मिली, जो उनके परिवार में आज भी सुरक्षित है। वे फुटबॉल के भी अच्छे खिलाड़ी थे।
शिक्षा के बाद शासन में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए वे 1931 में मुजफ्फराबाद के वजीरे वजारत (जिला मंत्री) बने। उस समय शेख अब्दुल्ला का ‘कश्मीर छोड़ो’ आंदोलन जोरों पर था। पंडित जी ने उस आंदोलन को बिना बल प्रयोग किये अपनी कूटनीति से शांत कर दिया; पर शासन बल प्रयोग चाहता था। अतः उन्हें नौकरी से अलग कर दिया गया।
इसके बाद पंडित जी जनसेवा में जुट गये। 1940 में वे पहली बार प्रजा सभा के सदस्य चुने गये। 1947 में जम्मू-कश्मीर का माहौल बहुत गरम था। महाराजा हरिसिंह को रियासत छोड़नी पड़ी। शेख अब्दुल्ला इस रियासत को अपने अधीन रखना चाहता था। उसने नये कश्मीर का नारा दिया और ‘अलग प्रधान, अलग विधान, अलग निशान’ की बात कही।अतः कश्मीर घाटी में भारतीय तिरंगे के स्थान पर शेख के लाल रंग और हल निशान वाले झंडे फहराने लगे।
यह सब बातें देशहित में नहीं थीं। अतः पंडित प्रेमनाथ डोगरा के नेतृत्व में प्रजा परिषद का गठन हुआ और ‘एक देश में एक प्रधान, एक विधान, एक निशान’ के नारे के साथ आंदोलन छेड़ दिया गया। आंदोलन के दौरान पंडित जी तीन बार जेल गये। उन्हें जेल में बहुत कष्ट दिये गये। उनकी सरकारी पेंशन भी बंद कर दी गयी; पर पंडित जी झुके नहीं।
आगे चलकर भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में कश्मीर आंदोलन शुरू हुआ। 23 जून, 1953 को श्रीनगर की जेल में डा. मुखर्जी की संदेहास्पद हत्या कर दी गयी। उस समय पंडित जी भी जेल में ही थे। डा. मुखर्जी के शव को दिल्ली होते हुए कोलकाता ले जाया गया। पंडित जी भी उसी वायुयान में थे; पर उन्हें दिल्ली ही उतार दिया गया। पंडित जी जवाहरलाल नेहरू से मिले और उन्हें पूरी स्थिति की जानकारी दी।
कुछ समय बाद प्रजा परिषद का जनसंघ में विलय हो गया और पंडित जी एक वर्ष तक जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। 1957 में वे जम्मू नगर से प्रदेश की विधानसभा के सदस्य चुने गये। 1972 तक उन्होंने हर चुनाव जीता। जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह के बारे में उनका कहना था कि विलय पत्र में इसका उल्लेख नहीं है, इसलिए उसका भारत में विलय निर्विवाद है।
पंडित जी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति बहुत प्रेम था। तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी सदा उनके घर पर ही ठहरते थे। ऐसे अजातशत्रु, श्रेष्ठ सामाजिक व राजनीतिक कार्यकर्ता पंडित प्रेमनाथ डोगरा का 21 मार्च, 1972 को कच्ची छावनी स्थित अपने घर पर देहांत हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य 23.11.2008)
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23 अक्तूबर/जन्म-दिवस
सबके मित्र भैरोंसिंह शेखावत
राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति के सैकड़ों मित्र होते हैं, तो हजारों शत्रु भी होते हैं। सत्ता के साथ ही मित्र और शत्रुओं की संख्या भी बढ़ती और घटती रहती है; पर श्री भैरोंसिंह शेखावत एक ऐसे राजनेता थे, जिनका कोई शत्रु नहीं था। वे सत्ता में रहे या विपक्ष में, उनके द्वार सबके लिए खुले रहते थे। इसलिए लोग उन्हें ‘सर्वमित्र’ या ‘अजातशत्रु’ भी कहते थे।
भैरोंसिह शेखावत का जन्म 23 अक्तूबर, 1903 को राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र के एक छोटे से गांव खाचरियावास में हुआ था। निर्धनता के कारण वे 18 कि.मी पैदल चलकर पढ़ने जाते थे। अपने पिता श्री देवीसिंह के देहांत के कारण उनकी लौकिक शिक्षा कक्षा दस से आगे नहीं हो सकी। उन्होंने परिवार के पालन के लिए खेती और पुलिस में नौकरी भी की। 1952 में उन्होंने सक्रिय राजनीति में प्रवेश कर मुख्यमंत्री से लेकर उपराष्ट्रपति तक की यात्रा की। वे दस बार विधायक रहे और केवल एक बार विधानसभा चुनाव हारे।
1952 में श्री भैरोंसिंह भारतीय जनसंघ के टिकट पर विधायक बने। जनसंघ ने अपने घोषणापत्र में जमींदारी प्रथा का विरोध किया था; पर जीतने वाले विधायक जमींदार परिवारों से ही थे। विधानसभा में प्रस्ताव आने पर जनसंघ के अधिकांश विधायकों ने इसका विरोध किया; पर भैरोंसिंह इसके समर्थन में डटे रहे और प्रस्ताव को पारित कराया। इसी प्रकार दिवराला कांड के बाद जब राजस्थान के क्षत्रिय सती प्रथा के समर्थन में खड़े थे, तो भैरोंसिंह ने अपनी बिरादरी की नाराजगी की चिन्ता न करते हुए इसका खुला विरोध किया।
श्री शेखावत 1977, 1990 तथा 1993 में राजस्थान के मुख्यमंत्री बने। तीन बार मुख्यमंत्री, कई बार विपक्ष के नेता, एक बार राज्यसभा सदस्य और फिर उपराष्ट्रपति रहने के बाद भी उनका जीवन सादगी से भरपूर था। सायरन बजाती गाड़ियों के लम्बे काफिले उन्हें पसंद नहीं थे। वे सामान्य व्यक्ति की तरह लालबत्ती पर रुक कर प्रतीक्षा कर लेते थे। समय मिलने पर उपराष्ट्रपति रहते हुए भी वे अपनी गाय को स्वयं दुह लेते थे।
श्री शेखावत संसदीय परम्पराओं का बहुत सम्मान करते थे। राज्यसभा के उपसभापति रहते हुए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि सभी तारांकित प्रश्नों के उत्तर शासन दे तथा प्रश्नकाल बाधित न हो। सदन की कार्यवाही के बारे में उनकी समझ बहुत गहन थी। भारतीय भाषाओं के प्रति उनके मन में अत्यधिक प्रेम था। विदेश प्रवास में भी वे सदा हिन्दी ही बोलते थे।
प्रबल इच्छाशक्ति के धनी श्री शेखावत के हृदय की दो बार शल्यक्रिया हुई। फिर भी 83 वर्ष की अवस्था में उन्होंने राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा। यद्यपि इसमें वे पराजय हुए। इस पर उन्होंने उपराष्ट्रपति पद से भी त्यागपत्र दे दिया। आज तो भ्रष्टाचार और शिष्टाचार पर्याय बन गये हैं; पर वे राजनीति में वे शुचिता के प्रतीक थे। यह जानकर लोग आश्चर्य करते थे कि विदेश प्रवास से लौटकर वे पूरा हिसाब तथा बचा हुआ धन भी शासन को लौटा देते थे।
श्री शेखावत राजनीति के कुशल खिलाड़ी थे। वे अपने समर्थकों तथा विरोधियों की कमजोरियों की फाइल बनाकर रखते थे। जब कभी कोई आंख दिखाता, वे उसकी फाइल दिखाकर उसका मुंह बंद कर देते थे। इसी बल पर वे राजस्थान में अपराजेय बने रहे। वे सत्ता में हों या विपक्ष में, प्रदेश की राजनीति उनके इशारों पर ही चलती थी। उपराष्ट्रपति का पद छोड़ने के बाद उन्होंने दिल्ली की बजाय अपनी कर्मभूमि जयपुर में रहना पसंद किया।
87 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 14 मई, 2010 को जयपुर में उनका देहांत हुआ। उनकी शवयात्रा में उमड़े लाखों लोग नारे लगा रहे थे - राजस्थान का एक ही सिंह, भैरोंसिंह भैरोंसिंह।
भैरोंसिंह शेखावत जी का जन्म का वर्ष गलत लिखा है , 1903 नहीं 23 अक्टूबर 1923 है सही तिथि ।
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