नवम्बर पहला सप्ताह

1 नवम्बर/बलिदान-दिवस

सन्त कंवरराम का बलिदान

सिन्ध की भूमि ने अनेक वीर, भक्त एवं विद्वान् भारत को दिये हैं। उनमें से ही एक थे सन्त कँवरराम जी। 13 अप्रैल, 1885 को बैसाखी के पावन पर्व पर ग्राम जरवार, तहसील मीरपुर माथेलो, जिला सक्खर में उनका जन्म हुआ। इनके पिता श्री ताराचन्द्र एवं माता श्रीमती तीर्थबाई थीं। 

श्री ताराचन्द्र एक छोटी दुकान चलाते थे। सिन्ध के परम विरक्त सन्त श्री खोतराम साहिब के आशीर्वाद से उनको पुत्र प्राप्ति हुई थी। सन्त जी ने बताया कि कमल के फूल की तरह यह बालक संसार में रहकर भी संसार से अलिप्त रहेगा।

बाल्यावस्था से ही कँवरराम का मन प्रभुभक्ति में बहुत लगता था। घर में बहुत निर्धनता थी, अतः माता उन्हें कुछ चने उबालकर बेचने को दे देती थी। उनकी आवाज बहुत मधुर थी। एक बार गाँव में सन्त खोतराम साहिब के पुत्र सन्त रामदास जी का कार्यक्रम हो रहा था। उन्होंने कँवरराम को बुलाकर कुछ भजन सुने और सारे चने प्रसादस्वरूप भक्तों में बँटवा दिये। जब उन्होंने उन चनों का मूल्य पूछा, तो कँवरराम ने पैसे लेने से मना कर दिया। इससे सन्त जी ने मन ही मन उसे अपना उत्तराधिकारी मान लिया।

बालक को हर समय भक्ति में डूबा देख पिताजी उसे फिर सन्त रामदास साहिब के पास ले गये कि वे इसे समझाकर घर के कार्यों की ओर उन्मुख करें; पर कँवरराम इनसे ऊपर उठकर गरीबों और प्रभुभक्तों की सेवा का व्रत ले चुके थे। धीरे-धीरे उनकी ख्याति चारों ओर फैल गयी। 

एक बार वे शिकारपुर के शाही बाग में प्रवचन कर रहे थे। एक महिला ने अपने मृत बच्चे को इनकी गोदी में डाल दिया। सन्त जी बच्चे को लोरी सुनाने लगे। इस पर वह रोने लगा। जब उस महिला ने संगत को यह बताया, तो सब सन्त जी की जय-जयकार करने लगे। ऐसे ही चमत्कारों के अनेक प्रसंग कँवरराम जी के साथ जुड़े हैं।

उन दिनों सिन्ध में विधर्मियों का बहुत आतंक था। पाकिस्तान की माँग जोर पकड़ रही थी; पर सन्त कँवरराम जी सतत प्रवास करते हुए अपने सत्संग में सदा मानवता, शान्ति, प्रेम और सद्भाव की बातें करते थे। इससे कट्टरपन्थी उनसे रुष्ट हो रहे थे। एक नवम्बर, 1940 को सन्त जी जिला दादू में मांणदन की दरबार में अपने एक भक्त भाई गोविन्दराम जी की बरसी में गये थे। वहाँ से वे दानू नगर में एक बालक के नामकरण उत्सव में शामिल हुए। वहीं भोजन करते हुए उनके हाथ से अचानक कौर छूट गया। सन्त जी ने इसे प्रभु की माया समझकर थाली एक ओर खिसका दी।

रात में ‘रूक’ नामक स्टेशन से दस बजे सन्त जी को गाड़ी पकड़नी थी। घोर अंधेरी रात थी। तभी दो बन्दूकधारी उनके पास आये और उनसे अपनी कार्यपूर्ति के लिए आशीर्वाद माँगा। सरल हृदय सन्त कँवरराम जी ने उन्हें प्रसादस्वरूप अंगूर देकर कहा कि अपने खुदा में विश्वास रखो, कार्य अवश्य पूरा होगा। यह कह कर वे रेल में बैठ गये। जैसे ही गाड़ी चली, उन्होंने गोलियाँ दाग दीं। सन्त जी के मुँह से ‘हरे राम’ निकला और उन्होंने देह त्याग दी।

थोड़े ही समय में सम्पूर्ण सिन्ध में यह समाचार फैल गया। कुछ दिन बाद ही दीवाली थी; पर लोगों ने सन्त जी की हत्या के विरोध में शोकवश दीपक नहीं जलाये। विभाजन के बाद सन्त कँवरराम जी के भक्त जहाँ भी आकर बसे, वहाँ वे उनकी स्मृति में अनेक विद्यालय, चिकित्सालय, अनाथाश्रम, पौशाला, विधवाश्रम आदि चलाकर समाजसेवा में लगे हैं।
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1 नवम्बर/जन्म-दिवस

आजाद हिन्द फौज के अमर शहीद केसरीचंद

देहरादून के जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर का केन्द्र चकराता है। यहां की भाषा, बोली और रीति रिवाजों पर पड़ोसी हिमाचल प्रदेश का काफी प्रभाव है। एक नवम्बर, 1920 को चकराता के पास क्यावा गांव में जन्मे केसरीचंद पिता शिवदत्त और माता रायबेली की सबसे छोटी संतान थे। जन्म के छह मास पश्चात उनकी मां का देहांत हो गया। पिता की इच्छा थी कि केसरीचंद उच्च सरकारी अधिकारी बने। अतः उन्होंने अपने बेटे को निकटवर्ती विकासनगर के आशाराम वैदिक इंटर काॅलिज में भरती करा दिया।

केसरीचंद ने यहां से कक्षा 10 उत्तीर्ण कर देहरादून के डी.ए.वी. काॅलिज में इंटर (एफ.ए.) में प्रवेश लिया। वे पढ़ाई के साथ ही फुटबाॅल, हाॅकी तथा वाॅलीबाॅल में भी आगे रहते थे। एक बार स्थानीय मेले ‘गनियात’ में आये फौजी ने एक युवती से छेड़छाड़ की। इस पर केसरीचंद ने उसकी खूब पिटाई की। एक बार उनके भाई किसी रिश्तेदार के घर दूध ले जा रहे थे। रास्ते में एक फौजी ने बरतन पर लात मार दी। इस बार भी केसरीचंद के हाथों उसकी ठुकाई हुई। ऐसे कई प्रसंग उनकी वीरवृत्ति और साहस के परिचायक हैं।

पिता के अरमान उन्हें बड़ा अधिकारी बनाने के थे; पर फौजी वरदी के इच्छुक केसरीचंद एफ.ए. की पढ़ाई अधूरी छोड़कर 10 अपै्रल, 1941 को राॅयल इंडियन आर्मी की सर्विस कोर में नायब सूबेदार के पद पर भरती हो गये। इसके साथ ही उन्हें फिरोजपुर भेज दिया गया। वहां से उन्होंने वायसराय कमीशन अधिकारी का कोर्स पूरा किया। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। ब्रिटिश आधिपत्य के कारण भारतीय सेना उनके अन्तर्गत ही थी। अतः केसरीचंद को भी अक्तूबर 1941 में मलाया के मोरचे पर भेज दिया गया।

मलाया में मित्र देशों की ब्रिटिश और भारतीय सेना का मुकाबला जापान से हो रहा था। केसरीचंद की वीरता एवं युद्धकौशल को देखते हुए उन्हें दिसम्बर में ही सूबेदार के पद पर पदोन्नत कर दिया गया; पर इसी दौरान फरवरी 1942 में वे जापानी सेना द्वारा बंदी बना लिये गये। उन दिनों नेताजी सुभाष चंद्र बोस जापान के सहयोग से अंग्रेजों को भारत से बाहर निकालने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन भी किया था।

केसरीचंद के मन में भारत को आजाद कराने की प्रबल इच्छा थी। उन जैसे हजारों भारतीय सैनिक भी यही चाहते थे। अतः जापान ने उन सबको मुक्त कर आजाद हिन्द फौज में भेज दिया। अब वे फिर से युद्ध के मोरचे पर आ गये। इस दौरान उन्होंने अनेक कठिन सैन्य अभियान पूरे किये; पर इम्फाल में एक पुल को उड़ाते समय उन्हें ब्रिटिश सेना ने गिरफ्तार कर दिल्ली भेज दिया।

दिल्ली के लालकिले में उन दिनों सैन्य न्यायालय का संचालन होता था। केसरीचंद को भी युद्ध अपराधी के रूप में वहां पेश किया गया। उन पर सैन्य कानून की धारा 41 तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 121 के अन्तर्गत कार्यवाही की गयी। कोर्ट मार्शल में उन पर गंभीर आरोप लगाये गये और अंततः तीन फरवरी, 1945 को उन्हें मृत्युदंड देने की घोषणा कर दी गयी।

यह समाचार गांव में पहुंचते ही हाहाकार मच गया। परिवारजनों ने दिल्ली पहुंचकर ब्रिटिश सरकार से फांसी माफ करने की अपील की; पर उसका कुछ परिणाम नहीं हुआ। अंतिम भेंट के समय परिवार के लोगों की आंखों में आंसू थ; पर केसरीचंद का मस्तक गर्व से ऊंचा उठा हुआ था। वे किसी गलत काम के लिए नहीं, बल्कि देश की आजादी के लिए मृत्यु का वरण कर रहे थे। उन्होंने अपने कफन में खादी का प्रयोग करने की इच्छा भी व्यक्त की।

तीन मई, 1945 को दिल्ली के केन्द्रीय कारागार में वीर केसरीचंद को फांसी दे दी गयी। उनके गांव के पास रामताल बाग में हर साल तीन मई को होने वाले विशाल मेले में लोकगीत, नाटक और नृत्यों द्वारा हजारों लोग उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

(विकी, उत्तराखंड स्वराज/269, डा. अनिता चौहान)

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1 नवम्बर/जन्म दिवस 

संकटमोचन ठाकुर संकठाप्रसाद सिंह

ठाकुर साहब के नाम से प्रसिद्ध ठाकुर संकठाप्रसाद सिंह का जन्म एक नवम्बर 1923 को ग्राम मई (जिला मिर्जापुर, उ.प्र.) के एक किसान परिवार में में हुआ था। 1943 को वे मिर्जापुर में ही स्वयंसेवक बने। श्री माधव जी देशमुख के प्रयास से वहां शाखा प्रारम्भ हुई थी। संकठा जी उस शाखा के पहले मुख्यशिक्षक और फिर पहले प्रचारक भी बने।

संकठा जी ने 1943, 44 और 45 में संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। 21.2.1943 को सरसंघचालक श्री गुरुजी से हुई भेंट में उन्होंने बताया कि वे पढ़ाई पूरी कर जीवन भर के लिए प्रचारक बनेंगे। इस पर गुरुजी ने उन्हें आशीर्वाद दिया; लेकिन संघ कार्य की लगन इतनी अधिक थी कि इंटर की पढ़ाई अधूरी छोड़कर वे प्रचारक बन गये। इसके बाद से गुरुजी सदा उन्हें प्यार से ‘संकटमोचन’ कहकर बुलाते थे। 

प्रचारक बनने के कुछ समय बाद ही गांधी हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबंध लग गया। अधिकांश प्रचारक पकड़े गये। ऐसे में वे जौनपुर, मिर्जापुर और आजमगढ़ में घूमकर जन जागरण करते रहे। प्रतिबंध हटने पर वे 1949 से 55 तक आजमगढ़, फिर दो वर्ष सीतापुर, छह वर्ष बस्ती और पांच वर्ष जौनपुर में जिला प्रचारक रहे। इसके बाद दो वर्ष आजमगढ़, दो वर्ष फरुखाबाद और पांच वर्ष झांसी में विभाग प्रचारक की जिम्मेदारी उन पर रही। शारीरिक कार्यक्रमों के प्रति उनका बहुत रुझान था। संघ शिक्षा वर्ग में उनकी विराट काया तथा कठोर अनुशासन से शिक्षार्थी थर्राते थे।

1977 में देश से आपातकाल हटने पर संघ ने कई संगठनों का निर्माण एवं विस्तार किया। इनमें से एक ‘भारतीय किसान संघ’ भी था। संकठा जी के अनुभव, कार्यशैली एवं ग्राम्य पृष्ठभूमि को देखते हुए उन्हें पहले पूर्वी उ.प्र. और फिर पूरे उ.प्र. में इसके विस्तार की जिम्मेदारी मिली। 1985-86 में जब गुजरात में किसान आंदोलन छिड़ा, तो उन्हें इसका नेतृत्व करने को कहा गया। संकठा जी की योजकता एवं दृढ़ निश्चय से सरकार को झुककर उनकी 30 में से 17 मांगें माननी पड़ी। गुजरात में आगे चलकर भा.ज.पा. को जो राजनीतिक लाभ मिला, उसके पीछे इस आंदोलन का बड़ा हाथ है।

संकठा जी की योग्यता देखकर 1988 में उन्हें भारतीय किसान संघ का राष्ट्रीय संगठन मंत्री तथा 2005 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। जब वृद्धावस्था के कारण प्रवास कठिन हो गया, तो सब जिम्मेदारी छोड़कर वे लखनऊ के मॉडल हाउस स्थित संघ कार्यालय पर रहने लगे। व्यापक संपर्क के कारण वहां उनसे मिलने वालों की भीड़ लगी रहती थी। संघ के सभी वरिष्ठ जनों से उनकी बहुत निकटता रही। दीनदयाल जी को साइकिल के डंडे पर बैठाकर उन्होंने जौनपुर जिले की तीन तहसीलों का प्रवास कराया था। जनसंघ के महामंत्री बनने के बाद भी संकठा जी के आग्रह पर बस्ती, जौनपुर आदि में उन्होंने प्रवास किया। 

प्रचारक जीवन में कई मानसिक समस्याएं भी आती हैं; पर संकठा जी कभी नहीं डिगे। उ.प्र. में संघ कार्य के सूत्रधार भाऊराव देवरस थे। 1952 में किसी कारण वे घर वापस चले गये। उन्होंने प्रदेश के सब प्रचारकों को भी मुक्त कर दिया; पर संकठा जी को अपना वह संकल्प याद था, जो उन्होंने 1943 में श्री गुरुजी को दिया था। इसलिए वे कार्यक्षेत्र में डटे रहे। 1945 में तृतीय वर्ष करते समय श्री बालासाहब देवरस उनके गट की चर्चा लेते थे। उन्होंने एक बार पूछा कि जिन्हें हम आदर्श मानते हैं, यदि उनका व्यवहार ठीक न हो, तो क्या करोगे ? संकठा जी ने कहा कि मैं इसके बाद भी पूरी जिम्मेदारी से काम करता रहूंगा। इस पर बालासाहब ने उनकी पीठ थपथपायी। 

संकल्प के धनी ठाकुर साहब का निधन लखनऊ के संघ कार्यालय (केशव कुंज) पर ही 20 अक्तूबर, 2017 (गोवर्धन पूजा) को हुआ। 

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1 नवम्बर/जन्म-दिवस

कर्मयोगी राजनेता कृष्णलाल शर्मा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ऐसे प्रचारकों की एक विशाल शंृखला निर्मित की है, जिन्होंने अपने कर्तत्व से बंजर भूमि को भी चमन बना दिया। ऐसे ही एक कर्मयोगी थे श्री कृष्णलाल शर्मा। 

कृष्णलाल जी का जन्म एक नवम्बर, 1925 को ग्राम लुधरा (जिला मुल्तान, वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। वे बचपन से ही प्रतिभावान विद्यार्थी थे। छात्र जीवन में ही उनका सम्पर्क संघ से हुआ और वे नियमित रूप से शाखा जाने लगे। पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक होकर वे मिया छन्नू में पंजाब नेशनल बैंक में काम करने लगे। बैंक के अतिरिक्त शेष समय वे संघ कार्य में ही लगाते थे।

1946 में वे संघ का सघन प्रशिक्षण लेने के लिए कर्णावती (अमदाबाद)  संघ शिक्षा वर्ग में गये। वहीं उन्होंने नौकरी छोड़कर प्रचारक बनने का निर्णय लिया। उन्हें मुल्तान जिले की शुजाबाद तहसील का दायित्व दिया गया। उन दिनों पूरे देश में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का जोर था। इसी के साथ देश विभाजन की चर्चाएँ भी चल रही थीं। पंजाब का माहौल पूरी तरह गरम था। ऐसे में कृष्णलाल जी ने शाखा विस्तार में अपनी पूरी शक्ति लगा दी। इसका आगामी समय में हिन्दुओं के संरक्षण में बहुत लाभ हुआ।

1947 में फगवाड़ा में संघ शिक्षा वर्ग लगा था। श्री कृष्णलाल जी ने उसमें भी भाग लिया; पर उसी समय देश की स्वतन्त्रता और विभाजन की घोषणा हो गयी। अतः वर्ग को बीच में ही समाप्त कर सब स्वयंसेवकों को घर जाने तथा वहाँ से हिन्दुओं को सुरक्षित भारत भेजने को कहा गया। कृष्णलाल जी को अपने कार्यक्षेत्र शुजाबाद पहुँचना था; पर वहाँ जाने का कोई साधन नहीं था। तभी उन्हें पता लगा कि अमृतसर से एक गाड़ी मुस्लिम छात्रों को लेकर पाकिस्तान जा रही है। कृष्णलाल जी वेष बदल कर उसमें बैठ गये और 16 अगस्त को शुजाबाद पहुँच गये। 

कृष्णलाल जी तथा अन्य प्रमुख कार्यकर्त्ताओं ने निर्णय लिया कि सिखों की पहचान सरल है, अतः सबसे पहले उनको और फिर शेष हिन्दुओं को सुरक्षित भारत भेजा जाये। यह सब करने के बाद नवम्बर 1947 में कृष्णलाल जी भारत लौटे। इसके बाद वे संघ की योजनानुसार रोहतक, कलानौर, बहादुरगढ़ आदि में विभाजन से पीड़ित हिन्दुओं के पुनर्वास में जुट गये।

इन्हीं दिनों गान्धी जी की हत्या हो गयी। उसके झूठे आरोप में नेहरू जी ने संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया। कृष्णलाल जी को भी दस मास तक जेल में रहना पड़ा। भारतीय जनसंघ की स्थापना के बाद 1964 में उन्हें पहले पंजाब प्रदेश और फिर सम्पूर्ण उत्तर भारत का संगठन मन्त्री बनाया गया। जून 1975 में आपातकाल लगने पर दल की योजनानुसार वे भूमिगत हो गये; पर अगस्त में वे फिरोजपुर में पकड़े गये और आपातकाल के बाद ही जेल से छूटे।

1980 में 'भारतीय जनता पार्टी' की स्थापना के बाद उन्हें उसके सचिव का दायित्व दिया गया। 1990 में वे हिमाचल प्रदेश से राज्यसभा के सदस्य बने। 1991 में उन्हें भाजपा का उपाध्यक्ष बनाया गया। 1996 तथा 1998 में बाहरी दिल्ली से भारी बहुमत से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए।

कृष्णलाल जी का जीवन एक खुली पुस्तक की तरह था। संघ ने उन्हें जो जिम्मेदारी दी, उसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। राजनीति में रहते हुए भी वे सदा निर्विवाद रहे। 17 दिसम्बर, 1999 को अचानक दिल का दौरा पड़ने से उनका देहान्त हो गया।
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2 नवम्बर/जन्म-दिवस

भारत के अन्तिम हिन्दू सम्राट महाराजा रणजीत सिंह

अठारहवीं शती के पंजाब में सिखों की शुकरचकिया मिसल (छोटी रियासत) के उत्तराधिकारी के रूप में दो नवम्बर 1780 को गुजराँवाला मे जन्मे रणजीत सिंह ने अपने शौर्य, पराक्रम, सूझबूझ और कूटनीति से सिख राज्य की सीमाएँ अटक, पेशावर, काबुल और जमरूद तक पहुँचा दी थीं।

रणजीत सिंह के पिता का नाम सरदार महासिंह था। जब रणजीत सिंह केवल 12 वर्ष के थे, तब महासिंह के देहान्त से मिसल की देखभाल की जिम्मेदारी उनकी माता और रियासत की रेजीडेण्ट महोतर कौर पर आ पड़ी; पर असली सत्ता एक अन्य महत्वाकांक्षी महिला रानी सुधा कौर के हाथ में थी।  उसमें प्रशासनिक क्षमता न होने से सर्वत्र अव्यवस्था व्याप्त थी। 

रणजीत सिंह ने होश सँभालते ही 1799 में लाहौर और 1805 में अमृतसर पर कठोर नियन्त्रण स्थापित किया। फिर कसूर, जम्मू, मुल्तान, काँगड़ा, शिमला और कश्मीर को क्रमशः अपने राज्य में मिलाया। जम्मू के डोगरा राजा गुलाब सिंह के पराक्रमी सेनानायक जोरावर सिंह के शौर्य से उन्होंने लद्दाख पर भी अधिकार कर लिया। अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार कर रणजीत सिंह ने सब जगह प्रशासनिक सुव्यवस्था और शान्ति स्थापित की।

रणजीत सिंह ने जो विशाल शक्ति खड़ी की, वह 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सैन्य शक्ति के बराबर थी। इसमें 92,000 पैदल, 31,000 घुड़सवार, 384 भारी और 400 हल्की तोपें थीं। उनकी दूरदर्शी नीति के कारण भारत की पश्चिमी सीमा पर सैकड़ों वर्ष से हो रहे मुस्लिम आक्रमणों पर रोक लग गयी। 

यद्यपि अंग्रेज उस समय भारत पर धीरे-धीरे अधिकार कर रहे थे। रणजीत सिंह ने समयानुकूल कूटनीति अपनाते हुए अंग्रेजों से 1809 में एक सन्धि की, जिससे यह तय हुआ कि ब्रिटिश सेना सतलुज नदी के पश्चिम से आगे भारत में नहीं घुसेगी।

रणजीत सिंह अंग्रेजों के समर्थक नहीं थे; पर वे जानते थे कि उन पर आधुनिक शस्त्रों से सज्जित सेना है। वे अपनी सेना को ऐसा ही बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्हांेने नेपोलियन की सेना के एक अधिकारी बापिस्ते वेंचूरा को पैदल तथा जीन फ्रान्सिस अलार्ड को घुड़सवार सेना के प्रशिक्षण के लिए नियुक्त किया। बन्दूकों के निर्माण के लिए क्लाड आगरस्ट तथा बारूद और अन्य युद्धोपकरणों के लिए हंगरी के होनाइजर की सेवाएँ ली। इस प्रकार अपनी सेना को आधुनिक बनाने वाले वे प्रथम भारतीय शासक थे।

रणजीत सिंह का शासन लोकतान्त्रिक शासन था। वे सब निर्णय अपने प्रमुख सहयोगियों से मिलकर ही लेते थे। महाराजा होते हुए भी उन्होंने सदा स्वयं को खालसा पन्थ का एक विनम्र सैनिक ही माना। यद्यपि उन्होंने औपचारिक शिक्षा नहीं पायी थी; पर उनकी कल्पना शक्ति और योजकता विलक्षण थी। इसके बल पर उन्होंने भारत की यश पताका चहुँ ओर फहराई। 

रणजीत सिंह धर्मप्रेमी शासक थे। अफगानिस्तान विजय से जो सोना उन्हें मिला, उसका आधा स्वर्ण मन्दिर अमृतसर और आधा काशी विश्वनाथ मन्दिर को दिया। उन्होंने कोहिनूर हीरा प्राप्त कर उसे पुरी के जगन्नाथ मन्दिर को भेंट किया; पर दुर्भाग्यवश वहाँ पहुँचने से पहले ही उसे अंग्रेजों ने हड़प लिया।

ऐसे वीर पुरुष का देहान्त 27 जून, 1839 को हुआ। यह दुर्भाग्य ही है कि उन्होंने अपने शौर्य से जो विशाल साम्राज्य बनाया, वह उनके देहावसान के कुछ समय बाद ही बिखर गया।
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2 नवम्बर/जन्म-दिवस

दीर्घकालिक योजनाओं के शिल्पी डा. अविनाश आचार्य

भारत में सहकार आंदोलन अभी नया ही है; पर इसे ठोस आधार देने वालों में डा. अविनाश आचार्य (दादा) का नाम प्रमुख है। उनका जन्म दो नवम्बर, 1933 को जलगांव (महाराष्ट्र) में डा. रामचंद्र एवं श्रीमती लीलाबाई आचार्य के घर में हुआ था। शिशु अवस्था में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और फिर आजीवन उसमें सक्रिय रहे। प्राथमिक शिक्षा जलगांव में ही पाकर उन्होंने मुंबई से एम.बी.बी.एस. और मंगलौर (कर्नाटक) से एम.डी. की उपाधि ली। इस दौरान उन्होंने ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ में भी काम किया। 

शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने पुणे में डा. पूर्णपात्रे के साथ चिकित्सा कार्य प्रारम्भ किया। निर्धनों के प्रति सहानुभूति होने के कारण उन्होंने कुछ समय जलगांव नगर निगम में भी अपनी सेवाएं दीं। अपनी विनम्र भाषा तथा सहृदयता के कारण वे समाज के हर वर्ग में लोकप्रिय हो गये। 1967 से 88 तक वे जलगांव जिला संघचालक रहे। 

1970 के दशक में इंदिरा गांधी ने क्रमशः सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं की हत्या कर दी। श्री जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में इसके विरुद्ध प्रबल आंदोलन हुआ। उत्तर महाराष्ट्र में इस आंदोलन के सर्वमान्य नेता होने के कारण डा. अविनाश आचार्य शासन की काली सूची में आ गये। 1975 में आपातकाल लगते ही उन्हें ‘मीसा’ के अन्तर्गत पुणे की यरवदा जेल में डाल दिया गया, जहां से वे आपातकाल की समाप्ति के बाद ही निकल सके।

डा. आचार्य की सरसंघचालक श्री गुरुजी, नानाजी देशमुख, दत्तोपंत ठेंगड़ी, बापूराव लेले, केशवराव दीक्षित, शेषाद्रि जी, तात्या बापट, यादवराव जोशी, मोरोपंत पिंगले, लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े आदि वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से बहुत निकटता था। जेल से आकर उन्होंने 20 जनवरी, 1979 को ‘जलगांव जनता सहकारी बैंक’ की स्थापना की। शीघ्र ही यह प्रकल्प लोकप्रिय हो गया। 

इसके बाद उन्होंने जनसेवा के लिए क्रमशः कई संस्थाओं का निर्माण और संचालन किया। शिक्षा क्षेत्र में विवेकानंद प्रतिष्ठान, शानभाग विद्यालय, श्रवण विकास केन्द्र तथा विशेष मार्गदर्शन वर्ग; चिकित्सा क्षेत्र में माधवराव गोलवलकर स्वयंसेवी रक्तपेढ़ी, मांगीलाल जी बाफना नेत्रपेढ़ी एवं नेत्र चिकित्सालय, रुग्ण वाहिका; सांस्कृतिक क्षेत्र में ललित कला अकादमी तथा पारंपरिक कलाओं के प्रोत्साहन के लिए भूलाभाई महोत्सव; सामाजिक क्षेत्र में मातोश्री वृद्धाश्रम तथा बहुत कम मूल्य पर भरपेट भोजन कराने हेतु श्री क्षुधा शांति सेवा संस्था आदि प्रमुख हैं। 

महाराष्ट्र के हर गांव और नगर में परम्परागत रूप से गणेशोत्सव मनाया जाता है। डा. आचार्य ने अपनी अनूठी योजकता से जलगांव के गणेशोत्सव को हिन्दुओं के साथ-साथ मुसलमानों में भी लोकप्रिय कर दिया।

डा. आचार्य हर काम की योजना दीर्घकालीन दृष्टि से बनाते थे। इसके लिए उन्हें अनेक मान-सम्मान प्राप्त हुए। इनमें वाई अर्बन काॅपरेटिव बैंक द्वारा सहकार भूषण, रामभाऊ म्हालगी प्रबोधिनी द्वारा अन्त्योदय पुरस्कार तथा दैनिक लोकमत की ओर से खानदेश भूषण पुरस्कार प्रमुख हैं। सहकार क्षेत्र की प्रमुख संस्था ‘सहकार भारती’ के वे 2004 से 2007 तक राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। 

जनता सहकारी बैंक की रजत जयंती पर जलगांव में राष्ट्रीय स्तर का संगीत समारोह आयोजित किया गया। इसमें पंडित जसराज, पंडित शिवकुमार शर्मा तथा जाकिर हुसैन जैसे विख्यात कलाकारों ने एक मंच पर अपना कौशल दिखाया। आचार्य जी के प्रयास से बाबासाहब पुरंदरे ने छत्रपति शिवाजी के जीवन पर आधारित नाटक ‘जाणता राजा’ तैयार किया। जलगांव में इसके प्रदर्शन को डेढ़ लाख से भी अधिक लोगों ने देखा।

डा. आचार्य का सूत्र वाक्य था - समाज को मां की तरह प्रेम करो। इसी आधार पर समाज सेवा के अनेक सफल प्रकल्पों के निर्माता डा. अविनाश आचार्य का 25 मार्च, 2014 को जलगांव में ही निधन हुआ।

(संदर्भ  : पांचजन्य 13.4.14 तथा श्री भारत अमलेकर)
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2 नवम्बर/शौर्य-प्रसंग

अयोध्या में राममंदिर के लिए बलिदान

आजाद भारत में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन स्वर्ण अक्षरों में लिखा है। एक ओर करोड़ों लोग सड़कों पर उतरे, तो दूसरी ओर सैकड़ों लोगों ने प्राण भी दिये। इसमें दो नवम्बर, 1990 का नरसंहार तथा उसमें कोलकाता निवासी दो सगे भाई राम और शरद कोठारी का बलिदान अविस्मरणीय है।

इस आंदोलन का नेतृत्व श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समितितथा वरिष्ठ संत कर रहे थे। 9-10 नवंबर, 1989 को सिंहद्वार स्थल पर शिलान्यास हो चुका था। अब देवोत्थान एकादशी (30 अक्तूबर, 1990) को कारसेवा की तिथि निर्धारित की गयी। लखनऊ में मुलायम सिंह की सरकार थी। उसने कहा कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकेगा। पूरे नगर को पुलिस छावनी बना दिया गया; पर रामभक्तों ने इस चुनौती को स्वीकार कर लिया। देश भर से युवाओं की टोलियां रेल, सड़क, पैदल आदि मार्गों से अयोध्या चल दीं।

निर्धारित तिथि से कई दिन पहले एक लाख से अधिक युवा अयोध्या के विभिन्न मंदिरों में छिप गये। 29 नवम्बर तक नगर सुनसान था; पर 30 अक्तूबर की सुबह अशोक सिंहल आदि के बाहर निकलते ही जय श्रीराम के उद्घोष के साथ कारसेवक सब और फैल गये और पुलिस के प्रतिरोध के बावजूद बाबरी ढांचे के गुम्बदों पर भगवा फहरा दिया। इससे मुलायम सिंह की भारी किरकिरी हुई। उसने बदला लेने की ठान ली। इधर बजरंगी युवाओं ने कार्तिक पूर्णिमा (दो नवम्बर) को फिर कारसेवा का संकल्प लिया।

पर आज का रंग कुछ अलग था। पुलिस वाले ढूंढ-ढूंढकर कारसेवकों को मारने लगे। श्री हीरालाल कोठारी के पुत्र 23 वर्षीय रामकुमार और 20 वर्षीय शरद कोलकाता से आये थे। उनका परिवार मूलतः बीकानेर का निवासी था। दोनों संघ की शाखा में जाते थे। पिताजी ने एक को जाने को कहा; पर दोनों ने कहा कि राम-लखन साथ ही रहेंगे। वे 22 अक्तूबर को चले थे; पर वाराणसी के बाद रेलगाडि़यां बंद थीं। अतः वे टैक्सी से फूलपुर और फिर 200 कि.मी पैदल चले। 30 अक्तूबर को बाबरी ढांचे पर चढ़ने वालों में ये दोनों भी थे। रात को फोन से उन्होंने घर पर यह बताया, तो परिवार ने मिठाई बांटी।

पर दुर्भाग्यवश वे पुलिस की निगाह में आ गये। दो नवंबर को कारसेवा में जाते हुए पुलिस ने उन्हें घेर लिया। दोनों एक घर में छिप गये; पर पुलिस ने शरद को खींचकर गोली मार दी। इस पर बड़ा भाई राम भी कूद पड़ा और अगली गोली से वह भी उत्सर्ग के पथ पर चला गया। इस प्रकार अन्य सैकड़ों कारसेवक भी मारे गये। इनमें संत, गृहस्थ, युवा और बुजुर्ग सब थे।

पर अब कुछ नहीं हो सकता था। श्रीराम कारसेवा समिति के आह्वान पर तीन नवंबर को पूरे देश में धरना एवं उपवास रखा गया। चार नवंबर को सभी शहीद कारसेवकों की अंत्येष्टि अयोध्या में हुई। पांच नवंबर को गोलीकांड के विरोध में देशव्यापी बंद रहा। बलिदानियों की आत्मिक शांति के लिए पांच से सात नवंबर तक अयोध्या में श्रीराम महायज्ञकिया गया। इसके बाद कारसेवकों को वापस जाने को कह दिया गया। आंदोलन की आग पूरे देश में फैल गयी।

सात नवंबर को मृतकों की अस्थियों के 22 कलश सभी राज्यों में भेजे गये। लाखों लोगों ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। यह भस्म देश की पवित्र नदियों में विसर्जित की गयी। मकर संक्रांति (14 जनवरी, 1991) को प्रयागराज के संगम में भी उनका विसर्जन हुआ। इस आंदोलन में दो नवंबर का दिन सदा याद रहेगा। राम और शरद की मां ने दोनों को सदा साथ रहने को कहा था। उन्होंने न केवल जीवित रहते, अपितु मर कर भी इसका पालन किया। ऐसे वीर बलिदानी सदा स्तुत्य हैं। कोलकाता में उनका घर रामभक्तों के लिए एक तीर्थ जैसा है।

(विहिप की 42 वर्षीय विकास यात्रा/208, रघुनंदन प्रसाद शर्मा)

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3 नवम्बर/बलिदान-दिवस 

प्रथम परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा

आज कश्मीर का जो हिस्सा भारत के पास है, उसका श्रेय जिन वीरों को है, उनमें से मेजर सोमनाथ शर्मा का नाम अग्रणी है। 31 जनवरी, 1922 को ग्राम डाढ (जिला धर्मशाला, हिमाचल प्रदेश) में मेजर जनरल अमरनाथ शर्मा के घर में सोमनाथ का जन्म हुआ। इनके गाँव से कुछ दूरी पर ही प्रसिद्ध तीर्थस्थल चामुण्डा नन्दिकेश्वर धाम है। सैनिक परिवार में जन्म लेने के कारण सोमनाथ शर्मा वीरता और बलिदान की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए थे। देशप्रेम की भावना उनके खून की बूँद-बूँद में समायी थी।

इनकी प्रारम्भिक शिक्षा नैनीताल में हुई थी। इसके बाद इन्होंने प्रिन्स अ१फ वेल्स र१यल इण्डियन मिलट्री कॉलेज, देहरादून से सैन्य प्रशिक्षण लिया। 22 फरवरी 1942 को इन्हें कुमाऊँ रेजिमेण्ट की चौथी बटालियन में सेकण्ड लेफ्टिनेण्ट के पद पर नियुक्ति मिली। इसी साल इन्हें डिप्टी असिस्टेण्ट क्वार्टर मास्टर जनरल बनाकर बर्मा के मोर्चे पर भेजा गया। वहाँ इन्होंने बड़े साहस और कुशलता से अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया।

15 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतन्त्र होते ही देश का दुखद विभाजन भी हो गया। जम्मू कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह असमंजस में थे। वे अपने राज्य को स्वतन्त्र रखना चाहते थे। दो महीने इसी कशमकश में बीत गये। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के वेश में कश्मीर हड़पने के लिए टूट पड़े। 

वहाँ सक्रिय शेख अब्दुल्ला कश्मीर को अपनी जागीर बनाकर रखना चाहता था। रियासत के भारत में कानूनी विलय के बिना भारतीय शासन कुछ नहीं कर सकता था। जब राजा हरिसिंह ने जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान के प॰जे में जाते देखा, तब उन्होंने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये। 

इसके साथ ही भारत सरकार के आदेश पर सेना सक्रिय हो गयी। मेजर सोमनाथ शर्मा की कम्पनी को श्रीनगर के पास बड़गाम हवाई अड्डे की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गयी। वे केवल 100 सैनिकों की अपनी टुकड़ी के साथ वहाँ डट गये। दूसरी ओर सात सौ से भी अधिक पाकिस्तानी सैनिक जमा थे। उनके पास शस्त्रास्त्र भी अधिक थे; पर साहस की धनी मेजर सोमनाथ शर्मा ने हिम्मत नहीं हारी। उनका आत्मविश्वास अटूट था। उन्होंने अपने ब्रिगेड मुख्यालय पर समाचार भेजा कि जब तक मेरे शरीर में एक भी बूँद खून और मेरे पास एक भी जवान शेष है, तब तक मैं लड़ता रहूँगा।

दोनों ओर से लगातार गोलाबारी हो रही थी। कम सैनिकों और गोला बारूद के बाद भी मेजर की टुकड़ी हमलावरों पर भारी पड़ रही थी। 3 नवम्बर, 1947 को शत्रुओं का सामना करते हुए एक हथगोला मेजर सोमनाथ के समीप आ गिरा। उनका सारा शरीर छलनी हो गया। खून के फव्वारे छूटने लगे। इस पर भी मेजर ने अपने सैनिकों को सन्देश दिया - इस समय मेरी चिन्ता मत करो। हवाई अड्डे की रक्षा करो। दुश्मनों के कदम आगे नहीं बढ़ने चाहिए....। यह सन्देश देतेे हुए मेजर सोमनाथ शर्मा ने प्राण त्याग दिये।

उनके बलिदान से सैनिकों का खून खौल गया। उन्होंने तेजी से हमला बोलकर शत्रुओं को मार भगाया। यदि वह हवाई अड्डा हाथ से चला जाता, तो पूरा कश्मीर आज पाकिस्तान के कब्जे में होता। मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरान्त ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया। शौर्य और वीरता के इस अलंकरण के वे स्वतन्त्र भारत में प्रथम विजेता हैं। सेवानिवृत्त सेनाध्यक्ष जनरल विश्वनाथ शर्मा इनके छोटे भाई हैं।
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3 नवम्बर/जन्म-दिवस 

अन्तःप्रेरणा से बने प्रचारक नरमोहन दोसी

किसी का जन्म और देहांत एक ही दिन हो; ऐसे संयोग कम ही होते हैं; पर मध्य प्रदेश के क्षेत्र प्रचारक श्री नरमोहन दोसी के साथ ऐसा ही हुआ। नरमोहन जी का जन्म तीन नवम्बर, 1947 को बांसवाड़ा (राजस्थान) में श्री देवीलाल दोसी के घर में हुआ था। उनका संघ जीवन भरपूर युवावस्था में प्रारम्भ हुआ। 

1964 में उदयपुर के महाविद्यालय में पढ़ते समय वे छात्रावास में रहते थे। उनके कक्ष में रहने वाला दूसरा छात्र प्रह्लाद मेड़ात संघ का स्वयंसेवक था तथा नित्य शाखा जाता था। उसके आग्रह पर वे भी शाखा और कार्यालय जाने लगे और फिर धीरे-धीरे उनका जीवन संघमय होता चला गया। 

1968 में उन्होंने संघ का प्रथम वर्ष का शिक्षण लिया। उदयपुर के तत्कालीन विभाग प्रचारक श्री लक्ष्मण सिंह शेखावत के समर्पित जीवन और प्रेमपूर्ण व्यवहार से प्रभावित होकर वे प्रचारक बन गये। इसके बाद 1969 और 70 में उन्होंने द्वितीय और तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया।

नरमोहन जी की मान्यता थी कि किसी कार्यकर्ता को प्रचारक बनाने का माध्यम यद्यपि कोई व्यक्ति ही होता है; पर वास्तव में उसकी अन्तःप्रेरणा ही उसे इस पथ पर आगे ले जाती है। उनके प्रचारक बनने के कुछ समय बाद एक समय उदयपुर में उनके जिला प्रचारक रहे श्री कौशल किशोर जी अपनी पारिवारिक कठिनाइयों के चलते घर वापस चले गये। जाते समय उन्होंने नरमोहन जी से कहा कि मैंने तुम्हें अपनी शिक्षा पूर्ण कर प्रचारक बनने का आग्रह किया था; पर अब मैं ही प्रचारक जीवन को छोड़ रहा हूं। ऐसे में तुम्हारे मन पर कोई विपरीत प्रभाव तो नहीं पड़ेगा ? 

नरमोहन जी ने कहा कि देश की आवश्यकता को देखते हुए मैं प्रचारक बना हूं। यद्यपि जिला प्रचारक होने के नाते आप निमित्त बने हैं; पर मेरी प्रेरक शक्ति तो मेरी अंतरात्मा है। इसलिए आपके प्रचारक रहने या न रहने से मेरे निश्चय पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।

नरमोहन जी पहले उदयपुर तहसील प्रचारक रहे। इसके दो वर्ष बाद उन्हें वहां पर ही जिला प्रचारक का दायित्व दिया गया। 1970 से 1981 तक वे उदयपुर, राजसमुन्द और फिर जयपुर में जिला प्रचारक रहे। 1981 में पाली विभाग तथा 1989 में जोधपुर संभाग का काम उन्हें दिया गया। आगे चलकर जब राजस्थान को तीन प्रान्तों में बांटा गया, तो उन्हें जोधपुर प्रान्त प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। 1997 में उन्हें मध्य प्रदेश का क्षेत्र प्रचारक बनाया गया। इस प्रकार उनका केन्द्र भोपाल तथा कार्यक्षेत्र राजस्थान से मध्य प्रदेश हो गया। 

प्रवास की अधिकता तथा भोजन-विश्राम की अनियमितता से प्रायः वरिष्ठ प्रचारकों को अनेक रोग घेर लेते हैं। नरमोहन जी भी भीषण मधुमेह के शिकार हो गये। इसके बाद भी वे दवा एवं आवश्यक सावधानी के साथ प्रवास करते रहे। संघ की प्रतिवर्ष तीन बार केन्द्रीय बैठकें होती हैं। इनमें देश में चल रहे संघ कार्य की जानकारी लेकर आगामी योजनाएं बनाई जाती हैं। 

इसी क्रम में वर्ष 2004 की केन्द्रीय कार्यकारी मंडल की बैठक नवम्बर मास में हरिद्वार में हुई। वहां तीन नवम्बर को नरमोहन जी को अचानक भीषण हृदयाघात हुआ और तत्काल ही उनका शरीरान्त हो गया। मां गंगा के तट पर सब वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की उपस्थिति में उनका अंतिम संस्कार किया गया।

जो लोग जीवन भर मां गंगा के दर्शन न कर सकें, उनकी भी इच्छा रहती है कि उनकी अस्थियां गंगा में प्रवाहित की जाएं। यह सुखद आश्चर्य है कि जब नरमोहन जी का देहांत हुआ, तब वे भाग्यवश मां गंगा की गोद में ही थे। एक अन्य आश्चर्यजनक संयोग यह भी है कि उनके पिताजी के जन्म और देहांत का दिनांक भी एक ही था। 
(संदर्भ : मध्यभारत की संघगाथा)
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4 नवम्बर/जन्म-दिवस

महिला वैज्ञानिक जानकी अम्मल

यद्यपि अब महिलाएं भारत के हर क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए नये कीर्तिमान बना रही हैं; पर किसी समय उन्हें केवल चूल्हे और चैके तक की सीमित रखा जाता था। तब घर वाले जल्दी से जल्दी उनकी शादी कर स्वयं को भारमुक्त कर लेना चाहते थे। ऐसे माहौल में जन्मी एडावलेठ कक्कट जानकी अम्मल का जीवन भी इसी परिस्थितियों में से गुजरा था; पर उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता, लगन और परिश्रम से देश ही नहीं, तो दुनिया में ऊंचा स्थान प्राप्त किया।

जानकी अम्मल का जन्म केरल के तेल्लीचेरी में चार नवम्बर, 1897 को एक साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिताजी मद्रास राज्य की सरकारी सेवा में थे; पर घर का माहौल लड़कियों की पढ़ाई के अनुकूल नहीं था। जानकी के परिवार में सात भाई और पांच बहिनें थीं। उनकी सब बहिनें प्राथमिक पढ़ाई कर ससुराल चली गयीं; पर वह इस भेड़चाल में फंसना नहीं चाहती थी। इसलिए उसने अपना मन पढ़ाई पर केन्द्रित कर लिया।

घर वालों ने सोचा कि कुछ दिन में इसका किताबें पलटने का शौक पूरा हो जाएगा; पर जानकी पढ़ने में बहुत तेज थी। अतः तेल्लीचेरी में प्राथमिक पढ़ाई के बाद वे मद्रास चली गयीं। वहां क्वींस मेरी काॅलिज से उन्होंने वनस्पति विज्ञान में स्नातक किया। 1921 में प्रेसीडेन्सी काॅलिज से उन्होंने आॅनर्स डिग्री ली और फिर मद्रास के महिला क्रिश्चियन काॅलिज में पढ़ाने लगीं। घर में कई बार विवाह की चर्चा होती, पर वे उसे टालती रहीं। इससे परिवार और समाज में विरोध तो हुआ, पर उनके जीवन का लक्ष्य कुछ और ही था।

एक दिन छात्रों को पढ़ाते समय उन्हें पता लगा कि प्रतिष्ठित बारबोर छात्रवृत्ति के लिए उसका चयन हुआ है। इसके अंतर्गत अमरीका के मिशिगन विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्हें जाना था। घर वाले विवाह पर जोर दे रहे थे; पर जानकी ने उन्हें इस पर राजी कर लिया कि अमरीका से लौटकर वह विवाह कर लेगी। अमरीका में उन्होेंने 1925 में परास्नातक डिग्री प्राप्त की। फिर वे वहीं शोध करने लगीं। इस दौरान उन्होंने बैंगन की एक नयी प्रजाति विकसित की, जिसे जानकी ब्रिंजलकहा जाता है। वनस्पति विज्ञान में पी-एच.डी करने वाली वे पहली भारतीय महिला हैं।

भारत लौटकर वे फिर मद्रास के उसी काॅलिज में पढ़ाने लगी। कुछ वर्ष बाद वे फिर मिशिगन चली गयीं और वहां 1931 में डी.एस-सी की उपाधि प्राप्त की। वहां से लौटकर उन्होंने त्रिवेन्द्रम के महाराजा काॅलिज आॅफ साइंस में पढ़ाया। उन्होंने गन्ने पर शोध कर अधिक मीठी प्रजाति विकसित की। उनकी प्रतिभा और कार्यनिष्ठा देखकर प्रधानमंत्री नेहरू जी ने उन्हें विदेश से बुलाकर बाॅटनिकल सर्वे आॅफ इंडियाके पुनरुद्धार की जिम्मेदारी दी। वे कमरे में बैठने की बजाय खेत, जंगल, बाग और बगीचों में घूमते हुए शोध और चिंतन करती थीं। उन्होंने कई पौधों और फूलों की प्रजाति में सुधार किया।

जानकी को देश और विदेश में अनेक सम्मान मिले। 1935 में वे भारतीय विज्ञान अकादमी तथा 1957 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी की फेलो बनीं। मिशिगन वि.वि. ने उन्हें एल.एल.डी की मानद उपाधि प्रदान की। 1957 में वे पद्म श्रीसे सम्मानित हुईं। वर्ष 2000 में पर्यावरण मंत्रालय ने उनके नाम पर वर्गीकरण विज्ञानके क्षेत्र में राष्ट्रीय पुरस्कार की स्थापना की।

वे अपने काम में इतनी डूबी रहती थीं कि उन्हें विवाह के बारे में सोचने का अवकाश ही नहीं मिला; पर उन्हें उनके काम से आज भी याद किया जाता है। सात फरवरी, 1984 को डा. जानकी अम्मल का देहांत हुआ। वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में शोध करने वाले युवा वैज्ञानिक उन्हें अपना आदर्श मानते हैं।

(विकी/हिन्दुस्तान 18.2.24/12, ज्ञानेश उपाध्याय)

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4 नवम्बर/पुण्य-तिथि

हिन्दी समय सारिणी के निर्माता मुकुन्ददास ‘प्रभाकर’

भारत में रेल का प्रारम्भ अंग्रेजी शासनकाल में हुआ था। अतः उसकी समय सारिणी भी अंग्रेजी में ही प्रकाशित हुई। हिन्दीप्रेमियों ने शासन और रेल विभाग से बहुत आग्रह किया कि यह हिन्दी में भी प्रकाशित होनी चाहिए; पर उन्हें यह सुनने का अवकाश कहाँ था। अन्ततः हिन्दी के भक्त बाबू मुकुन्ददास गुप्ता ‘प्रभाकर’ ने यह काम अपने कन्धे पर लिया और 15 अगस्त, 1927 को पहली बार हिन्दी समय सारिणी प्रकाशित हो गयी।

प्रभाकर जी का जन्म 1901 में काशी में हुआ था। पिताजी की इच्छा थी कि वे मुनीम बनें, इसलिए उन्हें इसकी शिक्षा लेने के लिए भेजा; पर प्रभाकर जी का मन इसमें नहीं लगा। अतः उन्होंने इसे छोड़ दिया। 1921-22 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इण्टर की पढ़ाई करते समय ‘असहयोग आन्दोलन’ का बिगुल बज गया। ये पढ़ाई छोड़कर आन्दोलन में कूद गये। 

प्रभाकर जी को निज भाषा, भूषा और देश से अत्यधिक प्रेम था। हिन्दी के प्रति मन में अतिशय अनुराग होने के कारण वे साहित्यकारों से मिलते रहते थे। आगे चलकर उन्होंने हिन्दी की सेवा के लिए ‘साहित्य सेवा सदन’ नामक संस्था बनाकर बहुत कम मूल्य पर श्रेष्ठ साहित्य प्रकाशित किया।

जब रेलवे की हिन्दी समय सारिणी की चर्चा हुई, तो बड़ी-बड़ी संस्थाओं ने इस काम को हाथ में लेने से मना कर दिया। यह देखकर प्रभाकर जी ने इस चुनौती को स्वीकार किया। इसकी प्रेरणा उन्हें महामना मदनमोहन मालवीय और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन से मिली। जब इस सारिणी का प्रकाशन होने लगा, तो लोगों ने उनकी प्रशंसा तो खूब की; पर आर्थिक सहयोग के लिए कोई आगे नहीं आया। परिणाम यह हुआ कि चार साल में प्रभाकर जी को 30 हजार रु. का घाटा हुआ। यह राशि आज के 30 लाख रु. के बराबर है।

पर संकल्प के धनी बाबू मुकुन्ददास प्रभाकर जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे यह घाटा उठाते रहे और हिन्दी समय सारिणी का प्रकाशन करते रहे। 1935 में उन्होंने पहली बार हिन्दी में अखिल भारतीय रेलवे समय सारिणी का प्रकाशन किया। जब माँग और काम बढ़ने लगा, तो उन्होंने अपना एक निजी मुद्रण केन्द्र (प्रेस) लगा लिया। अब उन्होंने अन्य साहित्यिक प्रकाशन बन्द कर दिये और एकमात्र रेल की समय सारिणी ही छापते रहे।

इस दौरान उन्हें अत्यन्त शारीरिक और मानसिक कष्ट झेलने पड़े; क्यांेकि समय सारिणी के कारण प्रेस सदा घाटे में ही चलती थी। अनेक वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकारों ने उन्हें प्रोत्साहित किया; पर प्रोत्साहन से पेट तो नहीं भरता। शासन ने भी उन्हें कोई सहयोग नहीं दिया। फिर भी वे सदा प्रसन्न रहते थे, चूँकि हिन्दी समय सारिणी के प्रकाशन से उन्हें आत्मसन्तुष्टि मिलती थी। वे इस काम को राष्ट्र और राष्ट्रभाषा की सेवा मानते थे।

प्रभाकर जी को दक्षिण भारत में भी इस काम से पहचान मिली। 1930 में अनेक हिन्दी संस्थाओं ने उनका अभिनन्दन किया। वे भाषा-विज्ञानी भी थे। उन्होंने एक वर्ष तक मासिक ‘हिन्दी जगत्’ पत्रिका का भी प्रकाशन किया। वे हिन्दी को विश्व भाषा बनाना चाहते थे; पर आर्थिक समस्या ने उनकी कमर तोड़ दी। निरन्तर 50 साल तक घाटा सहने के बाद 4 नवम्बर, 1976 को हिन्दी में रेलवे समय सारिणी के जनक बाबू मुकुन्ददास गुप्ता ‘प्रभाकर’ की जीवन रूपी रेल का पहिया सदा के लिए रुक गया।
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4 नवम्बर/पुण्य-तिथि
 

पूर्वोत्तर भारत के मित्र मधुकर लिमये
 

श्री मधुकर लिमये का जन्म 1927 ई. में ग्राम पूर्णगढ़ (रत्नागिरी, महाराष्ट्र) में अपने ननिहाल में श्रीमती गिरिजा देवी की गोद में हुआ था। उनका अपना घर इसी तहसील के गोलप ग्राम में था। 

उनके पिता श्री विश्वनाथ लिमये मुंबई उच्च न्यायालय में वकील थे। उनका कल्याण में साबुन का बड़ा कारखाना भी था। सात भाई-बहिनों में मधु जी चौथे नंबर पर थे। उनके दोनों बड़े भाई भी स्वयंसेवक थे। एक भाई श्री केशव लिमये पांच वर्ष प्रचारक भी रहे।
 

मधु जी की शिक्षा मुंबई के मराठा मंदिर, विल्सन व रुइया कॉलिज से हुई। 1948 में उन्होंने गणित तथा सांख्यिकी विषय लेकर प्रथम श्रेणी में बी.एस-सी. किया। मुंबई वि.वि. में सर्वोच्च स्थान पाने पर उन्हें स्वर्ण पदक मिला। गणित में तज्ञता के कारण मित्रों में वे ‘रामानुजन् द्वितीय’ कहलाते थे। यद्यपि वे सब विषयों में योग्य थे; पर भौतिक तथा रसायन शास्त्र में प्रयोगशाला में काफी समय लगने से संघ कार्य में बाधा आती थी। अतः उन्होंने ये विषय नहीं लिये। 
 

मधु जी को प्रचारक बनाने में उनके दोनों भाइयों के साथ ही तत्कालीन महाराष्ट्र प्रांत प्रचारक बाबाराव भिड़े तथा श्री गुरुजी की बड़ी भूमिका रही। वे तो 1946 में ही प्रचारक बनना चाहते थे; पर बाबाराव ने उन्हें पहले स्नातक होने को कहा। यद्यपि प्रतिबंध के कारण वे स्नातक होने पर भी प्रचारक नहीं बन सके। दिसम्बर 1948 में कल्याण में सत्याग्रह कर वे चार मास जेल में रहे। वहां से छूटने और फिर प्रतिबंध हटने के बाद 1949 में वे प्रचारक बने।
 

पहले वर्ष उन्होंने ठाणे जिले में पालघर, डहाणू तथा उम्बरगांव तहसीलों में काम किया। 1950 में पुणे के संघ शिक्षा वर्ग से मधु जी सहित दस प्रचारक पूर्वोत्तर भारत भेजे गये। उन दिनों पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं की बड़ी दुर्दशा थी। कोलकाता से असम वहीं होकर जाना था। अतः क्षेत्र प्रचारक एकनाथ जी ने सबके सामान में से नेकर, पेटी, टोपी आदि रखवा लिये। सबसे कहा गया कि वे ‘वास्तुहारा सहायता समिति’ के कार्यकर्ता हैं तथा असम में सेवा कार्य के लिए जा रहे हैं। यात्रा के दौरान उन्हें आपस में बात भी नहीं करनी थी।
 

1949 में प्रतिबंध हटने के बाद संघ की अर्थव्यवस्था बिगड़ गयी थी। अतः सभी प्रचारकों से ट्यूशन या अध्यापन आदि करते हुए अपना खर्च चलाने को कहा गया। अतः मधु जी ने कम्युनिस्ट विरोधी एक साहित्यिक संस्था में काम किया। इसी दौरान उन्होंने पुणे वि.वि. से निजी छात्र के नाते गणित में एम.एस-सी. भी कर ली। इस बार भी उन्हें वि.वि. में प्रथम स्थान मिला।
 

मधु जी का प्रथम और द्वितीय वर्ष का संघ शिक्षा वर्ग तो 1946 और 47 में हो गया था; पर तृतीय वर्ष के लिए वे बारह साल बाद 1959 में ही जा सके। क्योंकि प्रांत प्रचारक ठाकुर रामसिंह जी हर बार यह कहकर उन्हें रोक देते थे कि यहां के वर्गों में तुम्हारा रहना जरूरी है। 

पूर्वोत्तर भारत में कई भाषा तथा बोलियां प्रचलित हैं। मधु जी ने वे सीखकर उनमें कई पुस्तकें लिखीं। वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की कई पुस्तकों का अनुवाद भी किया। 1998 में लखनऊ में श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें इसके लिए सम्मानित भी किया।
 

असम में भाषा विवाद, घुसपैठ, मिशनरियों द्वारा संचालित अलगाववादी हिंसक आंदोलन सदा चलते रहते हैं। ऐसे माहौल में मधु जी ने संघ का काम किया। असम में वे जिला, विभाग, सहप्रांत प्रचारक तथा फिर असम क्षेत्र की कार्यकारिणी के सदस्य रहे।

बचपन में एक बार उनके घुटने में भारी चोट लगी थी, जो उन्हें आजीवन परेशान करती रही। शास्त्रीय संगीत में उनकी बहुत रुचि थी; पर वे कहते थे कि यह शौक अगले जन्म में पूरा करूंगा। प्रचारक रहते हुए भी वे अपने परिजनों से लगातार सम्पर्क बनाये रखते थे। चार नवम्बर, 2015 को पुणे में अपने एक सम्बन्धी के पास रहते हुए ही उनका निधन हुआ। 
 

(संदर्भ : प्रदीप लिमये, ठाणे/ खट्टी मिट्ठी यादें, मधुकर लिमये)
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4 नवम्बर/जन्म-दिवस 
जन्मजात शिक्षक शंतनु रघुनाथ शेण्डे

पूर्वोत्तर भारत में शिक्षा के माध्यम से राष्ट्रीयता के प्रचारक श्री शंतनु शेंडे का जन्म चार नवम्बर, 1934 को मुंबई में हुआ था। 1953 में कक्षा 11 उत्तीर्ण करते ही उन्हें रेलवे में लिपिक की नौकरी मिल गयी। उनकी इच्छा अभी और पढ़ने की थी; पर सात बेटे और एक बेटी वाले परिवार का खर्च उठाने में पिताजी असमर्थ थे। अतः शंतनु जी ने नौकरी और पढ़ाई साथ-साथ जारी रखते हुए समाज शास्त्र और राजनीति विज्ञान में एम.ए. तक पढ़ाई की।

यद्यपि उनका परिवार कांग्रेसी था; पर सब बच्चे शुरू से ही शाखा जाते थे। आगे चलकर शंतनु जी विद्यार्थी परिषद में सक्रिय हुए। सुबह कॉलिज में पढ़ाई, उसके बाद नौकरी और फिर देर रात तक वे परिषद के केन्द्रीय कार्यालय का काम संभालते थे। परिषद के एक प्रकल्प ‘सील’ के अंतर्गत पूर्वोत्तर भारत के छात्र देश के अन्य भागों में घूमने आते हैं। उन्हें संघ परिवारों में ठहराया जाता है। इससे प्रेरित होकर शंतनु जी भी कुछ मित्रों के साथ घूमने के लिए पूर्वोत्तर के सियांग जिले के अलोंग नामक स्थान पर गये; पर वहां की गरीबी देखकर वे बेचैन हो गये और उन्होंने इस क्षेत्र की सेवा करने की ठान ली।

अब उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी और 1964 में शिलांग आ गये।  उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। अतः उन्हें संघ और विद्यार्थी परिषद की योजना से अलोंग में ही रामकृष्ण मिशन के नये विद्यालय में पढ़ाने के लिए भेज दिया गया। यहां रहते हुए उन्होंने जहां एक ओर बच्चों को अच्छे से पढ़ाया, वहां विद्यार्थी परिषद और सेवा के कई काम भी शुरू किये। इससे ईसाइयों के विद्यालय बंद होने लगे। कुछ समय बाद वे शिवसागर में ओ.एन.जी.सी. के विद्यालय में प्राचार्य होकर आ गये। तीन साल बाद यह केन्द्रीय विद्यालय हो गया; पर बी.एड. न होने से उन्हें इसे छोड़ना पड़ा।

शंतनु जी वापस मुंबई जा रहे थे; पर रास्ते में कोलकाता ही रुक गये। उन दिनों पूर्वी पाकिस्तान से लाखों शरणार्थी आ रहे थे। वे उनकी सेवा में लग गये। छह माह बाद भाऊराव देवरस के आग्रह पर वे दीनदयाल विद्यालय, कानपुर के छात्रावास प्रमुख बने। 1971 से 78 तक वे यहीं रहे और इस दौरान बी.एड. भी कर लिया। अगले तीन साल वे ‘आचार्य प्रशिक्षण विद्यालय, लखनऊ’ के प्राचार्य रहे। 1982 में वे फिर से असम भेज दिये गये। अब श्री कृष्ण चंद्र गांधी के साथ उन्हें पूर्वोत्तर भारत, बिहार, बंगाल, उड़ीसा और सिक्किम में ‘विद्या भारती’ के विद्यालयों के विस्तार का काम दिया गया।

इस समय संपूर्ण पूर्वोत्तर भारत में 11 विद्यालय ही थे; पर शंतनुजी एवं विराग पाचपोर, लक्ष्मीनारायण भाला जैसे प्रचारक तथा स्थानीय कार्यकर्ताओं के परिश्रम से इनकी संख्या बढ़ी। 1991-92 में बाबरी ढांचे के पतन से हिन्दुत्व की लहर चली। अतः क्रमशः सभी राज्यों में अलग समितियां बनीं। कई आचार्य प्रशिक्षण हेतु लखनऊ भेजे गये। कई आवासीय विद्यालय भी खोले गये। पूर्वोत्तर के हजारों छात्रों को देश के अन्य स्थानों पर पढ़ने भेजा गया। वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद और संघ विचार के अन्य संगठनों ने भी अपने काम का विस्तार किया। इससे पूर्वोत्तर में भी राष्ट्रीय विचार प्रभावी हो गये।


श्री शेंडे जन्मजात शिक्षक थे। वे कहते थे कि भगवान ने मुझसे पूर्वोत्तर भारत की सेवा करायी, यह मेरा सौभाग्य है। प्रशासनिक कामों के बावजूद समय मिलते ही वे कक्षा में पहुंच जाते थे। गणित और अंग्रेजी उनके प्रिय विषय थे। कार्यकर्ताओं से वे मातृवत स्नेह करते थे। कभी-कभी उन्हें क्रोध भी आता था; पर वह कपूर की तरह थोड़ी देर में उड़ भी जाता था। 22 अपै्रल, 2018 को कल्याण (मुंबई) में ही उनका निधन हुआ। आज पूर्वोत्तर भारत का रंग भी भगवा हो गया है। इसमें विद्या भारती और श्री शंतनु शेंडे का बहुत बड़ा योगदान है। 

(संदर्भ : ल.ना.भाला एवं शेंडे जी का हस्तलिखित आत्मकथ्य)
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5 नवम्बर/बलिदान-दिवस

युवा सत्याग्रही गुलाबसिंह का बलिदान

मध्य प्रदेश का एक बड़ा भाग परम्परा से महाकौशल कहा जाता है। इसका सबसे बड़ा एवं सांस्कृतिक रूप से समृद्ध नगर जबलपुर है। नर्मदा के तट पर बसा यह नगर जाबालि ऋषि के तप की गाथा कहता है। इसका प्राचीन नाम जाबालिपुरम् था, जो कालान्तर में जबलपुर हो गया। भोपाल को मध्य प्रदेश की राजधानी तथा जबलपुर को संस्कारधानी कहलाने का गौरव प्राप्त है। आचार्य विनोबा भावे ने जबलपुर को यह नाम दिया था। 

जबलपुर के निकट ही त्रिपुरी (वर्तमान तेवर) नामक नगर है। यहीं के क्रूर राक्षस त्रिपुर का वध करने से भगवान शिव त्रिपुरारी कहलाए। यहां पर ही 1939 में कांग्रेस का ऐतिहासिक त्रिपुरी अधिवेशन हुआ था। इसमें नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने गांधी जी द्वारा मैदान में उतारे गये प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया को कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव में हरा कर हलचल मचा दी थी। 

इसी जबलपुर नगर में 1928 में श्री लक्ष्मण सिंह के घर में एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। माता-पिता ने उसके गुलाब के समान खिले मुख को देखकर उसका नाम गुलाब सिंह रख दिया। सब परिजनों को आशा थी कि यह बालक उनके परिवार की यश-सुगंध सब ओर फैलाएगा; पर उस बालक के भाग्य में विधाता ने देशप्रेम की सुगंध के विस्तार का कार्य लिख दिया था।

1939 के त्रिपुरी अधिवेशन के समय गुलाबसिंह की अवस्था केवल 11 वर्ष की थी; पर उन दिनों सब ओर सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व की चर्चा से उसके मन पर सुभाष बाबू की आदर्श छवि अंकित हो गयी। इससे प्रेरित होकर उसने अपने पिताजी से कहकर एक खाकी वेशभूषा सिलवाई। इसे पहनकर वह अपने समवयस्क मित्रों के साथ प्रायः नगर की गलियों में भारत माता की जय और वन्दे मातरम् के नारे लगाता रहता था।

1942 में जब पूरे देश में गांधी जी के आह्नान पर ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आंदोलन का नारा गूंजा, तो उसकी आग से महाकौशल एवं जबलपुर भी जल उठे। चार दिसम्बर, 1942 को जबलपुर में एक विशाल जुलूस निकला। यह जुलूस घंटाघर से प्रारम्भ होकर नगर की ओर बढ़ने लगा।

गुलाबसिंह उस समय केवल कक्षा सात का छात्र था। उसकी लम्बाई भी कम ही थी; पर उसके उत्साह में कोई कमी नहीं थी। उसने हर बार की तरह अपनी खाकी वेशभूषा पहनी और तिरंगा झंडा लेकर जुलूस में सबसे आगे पहुंच गया। इस वेश में वह एक वीर सैनिक जैसा ही लग रहा था। कुछ दूर आगे बढ़ने पर पुलिस ने जुलूस का रोककर सबको बिखर जाने को कहा। कुछ ढीले मन वाले पीछे हटने पर विचार करने लगे; पर गुलाबसिंह ने अपने हाथ के तिरंगे को ऊंचा उठाया और नारे लगाते हुए तेजी से आगे बढ़ चला। उसका यह साहस देखकर बाकी लोग भी जोश में आ गये। 

पर इससे पुलिस बौखला गयी। पुलिस कप्तान के आदेश पर अचानक वहां गोली चलने लगी। पहली गोली सबसे आगे चल रहे गुलाबसिंह के सीने और पेट में लगी। वह वन्दे मातरम् कहता हुआ धरती पर गिर पड़ा। साथ चल रहे अन्य आंदोलनकारियों ने उसे तुरन्त अस्पताल पहुंचाया, जहां अगले दिन पांच नवम्बर, 1942 को उसने प्राण छोड़ दिये। इस प्रकार केवल 14 वर्ष की अल्पायु में ही वह मातृभूमि के ऋण से उऋण हो गया। 

(संदर्भ : स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश/क्रांतिकारी कोश)
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6 नवम्बर/जन्म-दिवस

हिन्दी में विज्ञान लेखक प्रो. महेश चरण सिन्हा

हिन्दी में सर्वप्रथम विज्ञान संबंधी लेख एवं पुस्तकें लिखने वाले प्रो. महेश चरण सिन्हा का जन्म छह नवम्बर, 1882 को लखनऊ (उ.प्र.) में हुआ था। लखनऊ के बाद उन्होंने प्रयाग से बी.ए. और कानून की शिक्षा पाई। 

एक बार जापान के सिन्धी सेठ आसूमल द्वारा जापान में तकनीकी शिक्षा पाने वाले भारतीय छात्रों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति का समाचार छपा। लखनऊ के नगराध्यक्ष बाबू गंगाप्रसाद वर्मा एडवोकेट का पत्र तथा कुछ धन लेकर महेश जी बर्मा, मलाया, चीन आदि घूमते हुए जापान जा पहुंचे; पर वहां पहुंचने पर उस सेठ ने पढ़ाई की पूरी राशि देने से मना कर दिया।

तब तक महेश जी की जेब खाली हो चुकी थी। अतः कई दुकानों तथा उद्योगों में काम करते हुए उन्होंने टोकियो वि.वि. से टेक्नो केमिस्ट की डिग्री ली। अब आगे पढ़ने के लिए वे अमरीका जाना चाहते थे। उनसे प्रभावित होकर जापान के एक मंत्री ने अपने राजदूत को पत्र लिखा कि जब तक इनके आवास का उचित प्रबन्ध न हो, तब तक इन्हें राजदूतावास में रहने दिया जाए। 

महेश जी जिस जहाज से अमरीका गये, उसका कप्तान सभी धर्मों के बारे में इनकी जानकारी से बहुत प्रभावित था। उसने वहां इनके कई व्याख्यान कराये। इससे इन्हें धन तथा प्रतिष्ठा दोनों ही प्राप्त हुईं। एम.एस-सी. करते समय उन्होंने कुछ व्यापारियों द्वारा कॉफी पाउडर में की जा रही मिलावट का सप्रमाण भंडाफोड़ किया। इससे ये प्रसिद्ध हो गये और बड़े-बड़े पत्रों में इनके लेख छपने लगे। इन्होंने भारत के हिन्दी व उर्दू पत्रों में भी कई लेख लिखे।

महेश जी की खूब पढ़ने तथा घूमने की इच्छा थी; पर इसके लिए पैसा चाहिए था। अतः बर्तन साफ करने से लेकर बाग में फल तोड़ने जैसे काम इन्होंने किये। अमरीका से ये इंग्लैंड चले गये। वहां स्वतंत्रता संबंधी इनके विचार पढ़ और सुनकर इनके पीछे जासूस लग गयेे। अतः फ्रांस, जर्मनी, इटली, मिस्र आदि की शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन करते हुए ये मुंबई आ गये। उन्होंने हर जगह वहां रह रहे भारतीयों से स्वाधीनता के लिए सक्रिय होने को कहा।

भारत आकर वे लोकमान्य तिलक और गरम दल वालों के साथ कांग्रेस में काम करने लगे। उच्च शिक्षा के कारण इन्हें कई अच्छी नौकरियों के प्रस्ताव मिले; पर इन्होंने अंग्रेजों की नौकरी स्वीकार नहीं की। वे चाहते थे कि भारत में भी विदेशों जैसे अच्छे विद्यालय और स्वदेशी उद्योग हों, जिनमें युवक अपनी भाषा में तकनीकी ज्ञान प्राप्त कर अपने पैरों पर खड़े हो सकें।

इसके लिए इन्होंने अनेक उद्योगपतियों से संपर्क किया; पर निराशा ही हाथ लगी। इसके बाद वे गुरुकुल कांगड़ी में पढ़ाने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने अयोध्या में अपना एक उद्योग लगाया; पर वहां प्लेग फैलने से इनकी दो पुत्रियों की मृत्यु हो गयी। कर्मचारी भी भाग खड़े हुए और उद्योग बन्द हो गया। 

अब लखनऊ आकर महेश जी ने हिन्दी में विज्ञान संबंधी पुस्तकें लिखनी प्रारम्भ कीं। उनकी सफलता से हिन्दी में विज्ञान लेखन की धारा चल पड़ी। इसके साथ ही उन्होंने अनेक सफल वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों तथा देशभक्तों की जीवनियां भी लिखीं। वे नौ वर्ष तक लगातार नगर पार्षद भी रहे। 

महेश जी ने हिन्दी, अंग्रेजी तथा उर्दू के कई पत्रों का सम्पादन किया। वे लाला हरदयाल, वीर सावरकर, भाई परमानंद जैसे स्वाधीनता सेनानियों के पत्रों में नियमित लिखते थे। लखनऊ की अनेक सामाजिक संस्थाओं में सक्रिय रहते हुए 23 जून, 1940 को उनका देहांत हुआ।  

(संदर्भ : विज्ञान मासिक, अगस्त 2008)
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7 नवम्बर/जन्म-दिवस

संघ समर्पित माधवराव मुले

7 नवम्बर, 1912 (कार्तिक कृष्ण 13, धनतेरस) को ग्राम ओझरखोल (जिला रत्नागिरी, महाराष्ट्र) में जन्मे माधवराव कोण्डोपन्त मुले प्राथमिक शिक्षा पूरी कर आगे पढ़ने के लिए 1923 में बड़ी बहन के पास नागपुर आ गये थे। 

यहाँं उनका सम्पर्क संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुआ। मैट्रिक के बाद इन्होंने डिग्री कालिज में प्रवेश लिया; पर क्रान्तिकारियों से प्रभावित होकर पढ़ाई छोड़ दी। इसी बीच पिताजी का देहान्त होने से घर चलाने की पूरी जिम्मेदारी इन पर आ गयी। अतः इन्होंने टायर ट्यूब मरम्मत का काम सीखकर चिपलूण में यह कार्य किया; पर घाटा होने से उसे बन्द करना पड़ा।

इस बीच डा. हेडगेवार से परामर्श करने ये नागपुर आये। डा. जी इन्हें अपने साथ प्रवास पर ले गये। इस प्रवास के दौरान डा. जी के विचारों ने माधवराव के जीवन की दिशा बदल दी। चिपलूण आकर माधवराव ने दुकान किराये पर उठा दी और स्वयं पूरा समय संघ कार्य में लगाने लगे। 1937 में निजाम हैदराबाद के विरुद्ध हुए सत्याग्रह तथा 1938 में पुणे में सोना मारुति सत्याग्रह के दौरान वे जेल भी गये।

1939 में माधवराव प्रचारक बने। 1940 में उन्हें पंजाब भेजा गया। विभाजन की चर्चाओं के कारण वहाँ का वातावरण उन दिनों बहुत गरम था। ऐसे में हिन्दुओं में हिम्मत बनाये रखने तथा हर स्थिति की तैयारी रखने का कार्य उन्होंने किया। गाँव और नगरों में शाखाओं का जाल बिछ गया। माधवराव ने सरसंघचालक श्री गुरुजी का प्रवास सुदूर क्षेत्रों में कराया। इससे हिन्दुओं का मनोबल बढ़ा और वे हर स्थिति से निबटने की तैयारी करने लगे।

पाकिस्तानी षड्यन्त्रों की जानकारी लेने के लिए अनेक स्वयंसेवक मुस्लिम वेष में मस्जिदों और मुस्लिम लीग की बैठकों में जाने लगे। शस्त्र संग्रह एवं प्रशिक्षण का कार्य भी बहुत प्रभावी ढंग से हुआ। इससे विभाजन के बाद बड़ी संख्या में हिन्दू अपने प्राण बचाकर आ सके। आगे चलकर भारत में इनके पुनर्वास में भी माधवराव की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण रही। 

देश के स्वतन्त्र होते ही पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया। माधवराव के निर्देश पर स्वयंसेवकों ने भारतीय सैनिकों के कन्धे से कन्धा मिलाकर कार्य किया। जम्मू और श्रीनगर के हवाई अड्डों को स्वयंसेवकों ने ही दिन-रात एक कर ठीक किया। इसी से वहां बड़े वायुयानों द्वारा सेना उतर सकी। अन्यथा आज पूरा कश्मीर पाकिस्तान के कब्जे में होता।

1959 में उन्हें क्षेत्र प्रचारक, 1970 में सहसरकार्यवाह तथा 1973 में सरकार्यवाह बनाया गया। 1975 में इन्दिरा गान्धी ने देश में आपातकाल थोपकर संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया। सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस जेल चले गये। ऐसे में लोकतन्त्र की रक्षार्थ हुए सत्याग्रह का स॰चालन माधवराव ने ही किया। एक लाख स्वयंसेवक जेल गये। इनके परिवारों को कोई कष्ट न हो, इस बात पर माधवराव का जोर बहुत रहता था। 1977 के लोकसभा चुनाव में इन्दिरा गान्धी पराजित हुई। संघ से भी प्रतिबन्ध हट गया।

यद्यपि माधवराव कभी विदेश नहीं गये; पर उन्होंने विदेशस्थ स्वयंसेवकों से सम्पर्क का तन्त्र विकसित किया। आज विश्व के 200 से भी अधिक देशों में संघ कार्य चल रहा है। इस भागदौड़ से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। 1978 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने रज्जू भैया को सरकार्यवाह चुना। मुम्बई में माधवराव की चिकित्सा प्रारम्भ हुई; पर हालत में सुधार नहीं हुआ। 30 सितम्बर 1978 को अस्पताल में ही उनका देहान्त हो गया।
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7 नवम्बर/जन्म-दिवस

नोबेल पुरस्कार विजेता डा. रामन

बात 1903 की है। मद्रास के प्रेसिडेन्सी कालेज में बी.ए. में पढ़ाते समय प्रोफेसर इलियट ने एक छोटे छात्र को देखा। उन्हें लगा कि यह शायद भूल से यहाँ आ गया है। उन्होंने पूछा, तो उस 14 वर्षीय छात्र चन्द्रशेखर वेंकटरामन ने सगर्व बताया कि वह इसी कक्षा का छात्र है। इतना ही नहीं, तो आगे चलकर उसने यह परीक्षा भौतिकी में स्वर्ण पदक लेकर उत्तीर्ण की।

वेंकटरामन का जन्म तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में 7 नवम्बर, 1888 को हुआ था। उसके पिता श्री चन्द्रशेखर अय्यर भौतिक शास्त्र के अध्यापक तथा प्रख्यात ज्योतिषी थे। माता पार्वती अम्मल भी एक धर्मपरायण तथा संगीतप्रेमी महिला थीं। इस प्रकार उनके घर में विज्ञान, संस्कृत और संगीत का मिलाजुला वातावरण था। उनकी बुद्धि की तीव्रता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जिस समय अन्य छात्र खेलकूद में ही व्यस्त होते हैं, उस समय वेंकटरामन का एक शोधपत्र प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका ‘नेचर’ में प्रकाशित हो चुका था।

शिक्षा पूर्ण कर वेंकटरामन ने कोलकाता में लेखाकार की नौकरी कर ली। यह बड़े आराम की नौकरी थी; पर उनका मन तो भौतिक शास्त्र के अध्ययन और शोध में ही लगता था। अतः इस नौकरी को छोड़कर वे कोलकाता विश्वविद्यालय के साइंस कालेज में प्राध्यापक बन गये। इस दौरान उन्हें शोध का पर्याप्त समय मिला और उनके अनेक शोधपत्र विदेशी विज्ञान पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। वे काम के प्रति इतने समर्पित रहते थे कि पढ़ाने के बाद वे प्रयोगशाला में आ जाते थे और कई बार तो वहीं सो भी जाते थे।

किसी भी पुस्तक को पढ़ते समय जो बात समझ में नहीं आती थी, उसे चिन्हित कर वे हाशिये पर क्यों या कैसे लिख देते थे। इसके बाद वे उसकी खोज में जुट जाते थे। इसी जिज्ञासा ने उन्हें महान वैज्ञानिक बना दिया। एक बार इंग्लैण्ड से लौटते समय पानी के जहाज की डेक पर बैठे हुए उन्होंने सोचा कि समुद्र का जल नीला क्यों है ? उस समय यह धारणा थी कि नीले आकाश के प्रतिबिम्ब के कारण ऐसा है; पर उन्हें इससे सन्तुष्टि नहीं हुई। अपने स्वभाव के अनुसार वे इस सम्बन्ध में गहन शोध में लग गये। 

सात वर्ष के लगातार शोध के बाद उन्होंने जो निष्कर्ष निकाले उसेे आगे चलकर प्रकाश और उसके रंगों पर ‘रमन प्रभाव’ कहा गया। 28 फरवरी, 1928 को उन्होंने अपनी इस खोज की घोषणा की। इससे विश्व भर के वैज्ञानिकों में तहलका मच गया। इससे ऊर्जा के भीतर परमाणुओं की स्थिति को समझने में बहुत सहायता मिली। इसके लिए 1930 में उन्हें भौतिकी का विश्व प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।

1954 में भारत सरकार ने देश के प्रति उनकी सेवाओं को देखकर उन्हें ‘भारत रत्न’ प्रदान किया। यह कैसा आश्चर्य है कि जिस उपकरण की सहायता से उन्होंने यह खोज की, उसे बनाने में केवल 300 रु. खर्च हुए थे। नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद भी डा. रामन ने विदेशों की सेवा के बदले बंगलौर स्थित ‘इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ़ साइंस’ में निदेशक के पद पर काम करना पसंद किया। इसके बाद वे ‘रमन रिसर्च इन्स्टीट्यूट’ के निदेशक बने। जीवन भर विज्ञान की सेवा करने वाले डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन ने 

21 नवम्बर, 1970 को जीवन से ही पूर्णावकाश ले लिया। भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 28 फरवरी को ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ घोषित किया है।
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7 नवम्बर/इतिहास-स्मृति

गोवंश रक्षा हेतु महान आन्दोलन

स्वतन्त्र भारत के इतिहास में 7 नवम्बर, 1966 का दिन बड़ा महत्वपूर्ण है। इस दिन राजधानी दिल्ली में संसद भवन के सामने गोवंश की रक्षा की माँग करते हुए 10 लाख से अधिक गोभक्त एकत्र हुए थे। इतना बड़ा प्रदर्शन भारत तो क्या, शायद विश्व के इतिहास में कभी नहीं हुआ था; पर इन गोभक्तों को यह देखकर बड़ी निराशा हुई कि जिस प्रकार कसाई गोमाता पर अत्याचार करता है, उसी प्रकार कांग्रेस सरकार ने इन गोभक्तों पर अत्याचार किये।

जिन दिनों स्वतन्त्रता प्राप्ति का आन्दोलन चल रहा था, तब गान्धी जी प्रायः कहते थे कि मेरे लिए गोरक्षा का महत्व स्वतन्त्रता से भी अधिक है। देश के स्वतन्त्र होते ही पहला आदेश सम्पूर्ण गोवंश की रक्षा का होगा; पर यह सब कागजी बातें सिद्ध हुईं। गोहत्या रोकना तो दूर, शासन ने मशीनी कत्लखाने खुलवाने पर कमर कस ली। इन सबके मूल में थे खुद को परम सेक्यूलर और आधुनिक मानने वाले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू। वे रूस की कम्युनिस्ट पार्टी और व्यवस्था से अत्यधिक प्रभावित थे।

गोवंश की रक्षा के लिए मुगल शासन से लेकर अंग्रेज शासन तक हिन्दू वीरों ने बहुत बलिदान दिये। पंजाब में नामधारी सिखों का तो मुस्लिमों से झगड़ा ही इसी बात को लेकर होता था। वे बूचड़खाने पर हमला बोल कर उसे नष्ट कर देते थे या वहाँ जा रही गायों को कसाइयों से छीन लेते थे; पर जब स्वतन्त्रता मिलने और संविधान में प्रावधान होने के बाद भी गोहत्या पर प्रतिबन्ध नहीं लगा, तो हिन्दुओं को मजबूर होकर आन्दोलन का मार्ग अपनाना पड़ा।

इसके अन्तर्गत ‘सर्वदलीय गोरक्षा महाभियान समिति’ का गठन किया गया। इसमें देश भर के सभी पन्थों, सम्प्रदायों के साधु, सन्त और धार्मिक, सामाजिक नेता एक मंच पर एकत्र हुए। 7 नवम्बर, 1966 को गोमाता की जय, भारत माता की जय, गोहत्या बन्द हो के नारे लगाते हुए दिल्ली की सड़कों पर जनसमुद्र उमड़ पड़ा। इससे इन्दिरा गान्धी के कांग्रेस शासन की नींव हिलने लगी। गृहमन्त्री गुलजारीलाल नन्दा की सहानुभूति आन्दोलनकारियों के साथ थी; पर कुछ कांग्रेसी उनका महत्व कम करना चाहते थे।

ऐसे लोगों ने षड्यन्त्रपूर्वक इस आन्दोलन को बदनाम करने के लिए कुछ गुंडों को भीड़ में घुसा दिया। इनमें निर्धारित वेष पहने बिना कुछ पुलिसकर्मी भी थे। इन्दिरा गान्धी और उनके साथी आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले भारतीय जनसंघ, विश्व हिन्दू परिषद्, रामराज्य परिषद्, हिन्दू महासभा, आर्य समाज आदि संगठनों को बदनाम करना चाहते थे। यहाँ तक कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक और इस आन्दोलन के प्राण श्री गुरुजी की हत्या करना चाहते थे। 

इन लोगों ने आन्दोलनकारियों पर पथराव कर दिया। इससे प्रदर्शन में शामिल युवक भी भड़क गये। इसका लाभ उठाकर पुलिस ने लाठी और फिर गोली चला दी। सड़क पर गिरे साधुओं को उठाकर गोली मारी गयी। फलतः हजारों लोग घायल हुए और सैकड़ों मारे गये। पुलिस ने उन्हें ट्रकों में लादकर विद्युत शवदाह गृहों में फूँक दिया। 

उस दिन जैसा भीषण अत्याचार गोभक्तों पर हुआ, उसने चंगेज खाँ, हलाकू, अहमदशाह अब्दाली, नादिरशाह और जलियाँवाला बाग के अत्याचारों को भी पीछे छोड़ दिया। इसमें सबसे कष्ट की बात यह थी कि यह सब अपने देश के शासन ने ही किया था।

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