लोकनायक जयप्रकाश नारायण
लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने जहां एक ओर स्वाधीनता संग्राम में योगदान दिया, वहां 1947 के बाद भूदान आंदोलन और खूंखार डकैतों के आत्मसमर्पण में भी प्रमुख भूमिका निभाई। 1970 के दशक में तानाशाही के विरुद्ध हुए आंदोलन का उन्होंने नेतृत्व किया। इन विशिष्ट कार्यों के लिए शासन ने 1998 में उन्हें मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।
जयप्रकाश जी का जन्म 11 अक्तूबर, 1902 को उ.प्र. के बलिया जिले में हुआ था। पटना में पढ़ते समय उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया। 1920 में उनका विवाह बिहार के प्रसिद्ध गांधीवादी ब्रजकिशोर प्रसाद की पुत्री प्रभावती से हुआ। 1922 में वे उच्च शिक्षा के लिए विदेश गये। शिक्षा का खर्च निकालने के लिए उन्होंने खेत और होटल आदि में काम किया। अपनी माताजी का स्वास्थ्य खराब होने पर वे पी-एच.डी. अधूरी छोड़कर भारत आ गये।
1929 में भारत आकर नौकरी करने की बजाय वे स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। उन्हें राजद्रोह में गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में रखा गया। दीपावली की रात में वे कुछ मित्रों के साथ दीवार कूदकर भाग गये। इसके बाद नेपाल जाकर उन्होंने सशस्त्र संघर्ष हेतु ‘आजाद दस्ता’ बनाया। उन्होंने गांधी जी और सुभाष चंद्र बोस के मतभेद मिटाने का भी प्रयास किया। 1943 में वे फिर पकड़े गये। इस बार उन्हें लाहौर के किले में रखकर अमानवीय यातनाएं दी गयीं।
1947 के बाद नेहरु जी ने उन्हें सक्रिय राजनीति में आने को कहा; पर वे ब्रिटेन की नकल पर आधारित संसदीय प्रणाली के खोखलेपन को समझ चुके थे, इसलिए वे प्रत्यक्ष राजनीति से दूर ही रहे। 19 अपै्रल, 1954 को उन्होंने गया (बिहार) में विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन के लिए जीवन समर्पित करने की घोषणा की। यद्यपि जनता की कठिनाइयों को लेकर वे आंदोलन करते रहे। 1974 में बिहार का किसान आंदोलन इसका प्रमाण है।
1969 में कांग्रेस का विभाजन, 1970 में लोकसभा चुनावों में विजय तथा 1971 में पाकिस्तान की पराजय और बांग्लादेश के निर्माण जैसे विषयों से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का दिमाग चढ़ गया। उनकी तानाशाही वृत्ति जाग उठी। कांग्रेस की अनेक राज्य सरकारें भ्रष्टाचार में डूबी थीं। जनता उन्हें हटाने के लिए आंदोलन कर रही थी; पर इंदिरा गांधी टस से मस नहीं हुई। इस पर जयप्रकाश जी भी आंदोलन में कूद पड़े। लोग उन्हें ‘लोकनायक’ कहने लगे।
जयप्रकाश जी के नेतृत्व में छात्रों द्वारा संचालित आंदोलन देशव्यापी हो गया। पटना की सभा में हुए लाठीचार्ज के समय वहां उपस्थित नानाजी देशमुख ने उनकी जान बचाई। 25 जून, 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में हुई विशाल सभा में जयप्रकाश जी ने पुलिस और सेना से शासन के गलत आदेशों को न मानने का आग्रह किया। इससे इंदिरा गांधी बौखला गयी।
26 जून को देश में आपातकाल थोपकर जयप्रकाश जी तथा हजारों विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया। इसके विरुद्ध संघ के नेतृत्व में हुए आंदोलन से लोकतंत्र की पुनर्स्थापना हो सकी। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी। यदि जयप्रकाश जी चाहते, तो वे राष्ट्रपति बन सकते थे; पर उन्होंने कोई पद नहीं लिया।
जयप्रकाश जी की इच्छा देश में व्यापक परिवर्तन करने की थी। इसे वे ‘संपूर्ण क्रांति’ कहते थे; पर जाति, भाषा, प्रांत, मजहब आदि के चंगुल में फंसी राजनीति के कारण उनकी इच्छा पूरी नहीं हो सकी। आठ अक्तूबर, 1979 को दूसरे स्वाधीनता संग्राम के इस सेनानायक का देहांत हो गया।
(संदर्भ : स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश/विकीपीडिया)
..............................
गृहस्थ प्रचारक भैया जी दाणी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परम्परा में प्रचारक अविवाहित रहकर काम करते हैं; पर कुछ अपवाद भी होते हैं। ऐसे गृहस्थ प्रचारकों की परम्परा के जनक प्रभाकर बलवन्त दाणी का जन्म नौ अक्तूबर, 1907 को उमरेड, नागपुर में हुआ था। आगे चलकर ये भैया जी दाणी के नाम से प्रसिद्ध हुए। ये अत्यन्त सम्पन्न पिता के इकलौते पुत्र थे। उनके पिता श्री बापू जी लोकमान्य तिलक के भक्त थे। अतः घर से ही देशप्रेम के बीज उनके मन में पड़ गये थे, जो आगे चलकर डा0 हेडगेवार के सम्पर्क में आकर पल्लवित पुष्पित हुए।
भैया जी ने मैट्रिक तक पढ़ाई नागपुर में की। इसके बाद डा0 हेडगेवार ने उन्हें पढ़ने के लिए काशी भिजवा दिया। वहाँ उन्होंने शाखा की स्थापना की। नागपुर के बाहर किसी अन्य प्रान्त में खुलने वाली यह पहली शाखा थी। इसी शाखा में काशी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर (श्री गुरुजी) भी आये, जो डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद सरसंघचालक बने।
काशी से लौटकर भैया जी ने नागपुर में वकालत की पढ़ाई की; पर संघ कार्य तथा घरेलू खेतीबाड़ी की देखभाल में ही सारा समय निकल जाने के कारण वे वकालत नहीं कर सके। विवाह के बाद भी उनका अधिकांश समय सामाजिक कामों में ही लगता था। कांग्रेस, कम्युनिस्ट, हिन्दू महासभा आदि सभी दलों में उनके अच्छे सम्पर्क थे। वे काम में आने वाली बाधाओं को दूर करने तथा रूठे हुए कार्यकर्ताओं को मनाने में बड़े कुशल थे। इसलिए कुछ लोग उन्हें ‘मनों को जोड़ने वाला सेतु’ कहते थे। साण्डर्स वध के बाद क्रान्तिकारी राजगुरू भी काफी समय तक उनके फार्म हाउस में छिप कर रहे थे।
1942 में श्री गुरुजी ने सभी कार्यकर्ताओं से समय देने का आह्नान किया। इस पर भैया जी गृहस्थ होते हुए भी प्रचारक बने। उन्हें मध्यभारत भेजा गया। वहाँ वे 1945 तक रहे। इसके बाद उनकी कार्यकुशलता देखकर उन्हें सरकार्यवाह जैसा महत्वपूर्ण दायित्व दिया गया। 1945 से 1956 तक इस दायित्व का उन्होंने भली प्रकार निर्वाह किया।
संघ कार्य तथा देश के लिए यह समय बहुत महत्वपूर्ण था। इसी काल में स्वतन्त्रता मिली और मातृभूमि का विभाजन हुआ। गान्धी जी की हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। स्वयंसेवकों ने सत्याग्रह किया। प्रतिबन्ध हटने के बाद अनेक प्रमुख कार्यकर्ताओं ने संघ पर राजनीति में सक्रिय होने का दबाव डाला। देश में प्रथम आम चुनाव हुए। ऐसी अनेक समस्याओं और जटिलताओं को सरकार्यवाह भैया जी दाणी ने झेला।
गान्धी जी हत्या के बाद कांग्रेसी गुण्डों ने उमरेड स्थित उनके घर को लूट लिया। इस पर भी भैया जी स्थितप्रज्ञ की भाँति शान्त रहे। उन्हें अपने परिवार से अधिक श्री गुरुजी और संघ कार्य की चिन्ता थी। 1956 में पिताजी के देहान्त के बाद उन्हें घर की देखभाल के लिए कुछ अधिक समय देना पड़ा। अतः श्री एकनाथ रानाडे को सरकार्यवाह का दायित्व दिया गया। तब भी नागपुर के नरकेसरी प्रकाशन का काम उन पर ही रहा। 1962 से 1965 तक वे एक बार फिर सरकार्यवाह रहे; पर उनके खराब स्वास्थ्य को देखकर 1965 में अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने श्री बालासाहब देवरस को सरकार्यवाह चुना।
इसके बाद भी उनका प्रवास चलता रहा। 1965 में इन्दौर के संघ शिक्षा वर्ग में उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और 25 मई, 1965 को कार्यक्षेत्र में ही उस कर्मयोगी का देहान्त हो गया।
............................
9 अक्तूबर/जन्म-दिवस
उत्कलमणि गोपबन्धु दास
उत्कलमणि गोपबन्धु दास का जन्म ग्राम सुवान्दो (जिला पुरी) में नौ अक्तूबर, 1877 को हुआ था। इनके परदादा को उत्कल के गंग शासकों ने जयपुर से बुलाकर अपने यहाँ बसाया था। इनके पिता श्री दैत्यारि तथा माता श्रीमती स्वर्णमयी देवी थीं। जन्म के कुछ दिन बाद ही इनकी माता का देहान्त हो गया। अतः इनका पालन ताई जी ने किया। इनके परिवार में परम्परा से पुरोहिताई होती थी। अतः बचपन से ही इन्हें पूजा-पाठ के संस्कार मिले।
इनके पिताजी यों तो एक कर्मकांडी ब्राह्मण थे; पर उनकी इच्छा थी कि गोपबन्धु अंग्रेजी पढ़ें। अतः उन्होंने अपने गाँव में ही अंग्रेजी पढ़ाने वाले एक विद्यालय की स्थापना कराई। 12 वर्ष की अवस्था में गोपबन्धु का विवाह हो गया। पढ़ाई में उनकी रुचि थी ही, अतः उन्होंने कटक से बी.ए और फिर कोलकाता से एम.ए तथा काूनन की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं।
कोलकाता में रहते हुए भी उनका मन अपने प्रदेश की सेवा के लिए छटपटाता रहता था। उन दिनों बंगाल में उड़ीसा के लोग रसोइये और कुली का काम करते थे, अतः उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता था। यह देखकर गोपबन्धु दास रात्रिकालीन कक्षाएँ लगाकर उन्हें पढ़ाने लगे। एक बार जब उड़ीसा में बाढ़ आयी, तो उन्होंने कोलकाता से धन संग्रह कर वहाँ भेजा।
उनके तीन पुत्र थे; पर तीनों छोटी आयु में ही चल बसे। जब उनका तीसरा पुत्र मृत्युशय्या पर था, तो वे उसे छोड़कर बाढ़-पीड़ितों की सेवा करने चले गये। पत्नी ने जब रोका, तो वे बोले, "जो प्रभु की इच्छा है, वही होगा। यहाँ तो एक पुत्र है, मैं तो हजारों पुत्रों की रक्षा के लिए जा रहा हूँ।" कुछ समय बाद उनकी पत्नी का भी देहान्त हो गया। उस समय गोपबन्धु की अवस्था केवल 28 वर्ष की थी। लोगों ने उनसे दूसरा विवाह करने का बहुत आग्रह किया; पर उन्होंने स्वयं को समाज-सेवा में झोंक दिया।
गोपबन्धु दास कटक में वकालत करते थे; पर उनका मन समाज सेवा में ही लगा रहता था। उड़ीसा में प्रायः हर साल बाढ़ आती थी। ऐसे में सेवा कार्य करने वाली हर संस्था तथा व्यक्ति के लिए उनके द्वार खुले रहते थे। उन्हें कई बार अपनी जाति के कट्टर लोगों का विरोध सहना पड़ता था; पर उन्होंने इसकी चिन्ता नहीं की। वे राजनीतिक रूप से भी बहुत जागरूक थे। देश को गुलाम देखकर उनका मन पीड़ा से भर उठता था। अतः वे कांग्रेस में शामिल होकर आजादी के लिए भी प्रयत्न करने लगे।
गोपबन्धु दास ने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए ‘सत्यवादी विद्यालय’ की स्थापना की। इसके बाद वे पत्रकारिता में भी सक्रिय हुए। उन्होंने ‘उत्कल दीपिका’ ‘समाज’ तथा ‘आशा’ नामक समाचार पत्र प्रकाशित किये। इनके सुचारु संचालन के लिए लिए उन्होंने मदनमोहन प्रेस खरीदा।
एक बार ग्रामीणों पर पुलिस अत्याचार का समाचार छापने पर इन्हें जेल भेज दिया गया। मुकदमे की सुनवाई के समय न्यायालय में हजारों लोग आते थे। अतः न्यायाधीश को खुले में सुनवाई करनी पड़ी। अन्ततः गोपबन्धु दास निर्दोष सिद्ध हुए। इसके बाद भी कई बार प्रकाशित समाचारों को लेकर उनका शासन से टकराव हुआ; पर उन्होंने कभी झुकना स्वीकार नहीं किया।
17 जून, 1928 को प्रख्यात समाजसेवी, पत्रकार, अधिवक्ता, शिक्षाविद उत्कलमणि श्री गोपबन्धुदास का निधन हो गया।
........................
9 अक्तूबर/इतिहास-स्मृति
जंगल रक्षा को समर्पित टुरिया सत्याग्रह
भारत में आजादी का आंदोलन बहुआयामी था। वहां देश को स्वाधीन
करने की मांग तो थी ही; पर जल, जंगल, जमीन, धर्म, भाषा, भूषा, संस्कृति और
परिवार बचाने के लिए भी भारी आंदोलन हुए। मध्य प्रदेश के जनजातीय क्षेत्र सिवनी के
टुरिया गांव में जंगल बचाने के लिए हुआ सत्याग्रह भी ऐसा ही एक आंदोलन था। यह घटना
9 अक्तूबर, 1930 की है।
असहयोग आंदोलन की असफलता के बाद गांधी जी ने देश में फिर से
चेतना जगाने के लिए दांडी मार्च और नमक सत्याग्रह किया; लेकिन जहां
समुद्र नहीं था, वहां लोगों ने
इसे ‘जंगल सत्याग्रह’ का रूप दे दिया।
भारत में परम्परा से जंगल और उसकी उपज पर निकटवर्ती गांव वालों का अधिकार होता है।
वे वहां से पशुओं का चारा तथा खाना पकाने के लिए सूखी लकड़ी लाते थे। इसके साथ ही
वे वनों की रक्षा भी करते थे; पर शासन ने बिना अनुमति के इन्हें लेने पर प्रतिबंध लगा
दिया। इससे जनता में आक्रोश फैल गया।
कांग्रेस नेतृत्व से इस जंगल सत्याग्रह की अनुमति लेने
कांग्रेस के वरिष्ठ नेता द्वारका प्रसाद मिश्र प्रयागराज गये। वहां कुछ नेताओं ने
वन काटने को हिंसा बताया;
पर लोगों का
उद्देश्य वन काटना नहीं, बल्कि नियम
तोड़कर विरोध करना था। अंततः इसकी अनुमति मिली और इस प्रकार म.प्र. के महाकौशल
क्षेत्र में यह आंदोलन शुरू हो गया। इसमें लोग नारे लगाते और ढोल नगाड़े बजाते हुए
जंगल में जाते थे और घास आदि काटकर शासन के नियम तोड़ते थे।
धीरे-धीरे इस आंदोलन में जनजातीय समाज भी जुड़ गया। चूंकि
जंगलों से सर्वाधिक लगाव उनका ही होता है। यह देखकर शासन ने बल प्रयोग शुरू कर
दिया। बैतूल और सिवनी जिलों में पुलिस और फौज ने वन सत्याग्रहियों पर गोली चलाई।
बंजारी ढाल में 500 जनजातीय
सत्याग्रहियों पर गोली चलाई गयी। इससे अनेक लोग घायल हो गये। जबलपुर, कटनी और सिहोरा
में पुलिस ने सत्याग्रहियों को पीटा और गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया।
टुरिया का वन सत्याग्रह स्वाधीनता सेनानी मूका लुहार, बिरजू भोई और
रामप्रसाद के नेतृत्व में शुरू हुआ; पर फिर इसमें महिलाएं भी जुड़ती चली गयीं। 9 अक्तूबर, 1930 को सत्याग्रह की
खबर जब सिवनी के डिप्टी कलेक्टर सीमेन को मिली, तो उसने पुलिस इंस्पेक्टर सदरुद्दीन के साथ 100 पुलिसकर्मी भेज
दिये। उसने सदरुद्दीन को एक चिट भी दी, जिस पर लिखा था, ‘टीच देम लेसन’ अर्थात ’उन्हें अच्छा सबक सिखाओ।’
पुलिस ने आंदोलन के नेता मूका लुहार को गिरफ्तार कर लिया।
इससे नाराज 500 से अधिक लोगों
ने अपने हंसिए लेकर पुलिस कैंप को घेर लिया। उन्होंने कोई हिंसा नहीं की। वे अपने
नेता को छोड़ने की मांग कर रहे थे; पर सदरुद्दीन ने बिना चेतावनी दिये गोली चलवा दी। इससे
बिरजू भोई (ग्राम मुरझोड़),
श्रीमती
मुड्डेबाई (ग्राम खामरीठ-अमरीठ), श्रीमती रेनोबाई (ग्राम खंबा) तथा श्रीमती देभोबाई (ग्राम
भिलसा) वहीं मारी गयीं। सैकड़ों सत्याग्रहियों को पेड़ से बांध कर कोड़े लगाये
गये। 18 लोगों पर मुकदमा
ठोक दिया गया।
इन सत्याग्रहियों के पक्ष में पैरवी करने सिवनी के दो वकील
पी.डी.जटार तथा एन.एन.सील खड़े हो गये। जांच के दौरान वह चिट भी मिल गयी, जिस पर ‘टीच देम लेसन’ लिखा था। इसे
प्रमाण मानते हुए न्यायालय ने डिप्टी कलेक्टर का सिवनी से स्थानांतरण कर दिया।
इससे उत्साहित होकर संपूर्ण महाकौशल क्षेत्र में वन सत्याग्रह शुरू हो गया।
इस आंदोलन को राष्ट्रीय स्तर पर कोई विशेष मान्यता नहीं
मिली, चूंकि यह
स्वयंस्फूर्त था। स्थानीय लोगों ने वहां एक शहीद स्मारक बनाया है, जहां हर 9 अक्तूबर को
हजारों लोग जाकर श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
(पांचजन्य, 17.11.24/22, डा. आनंद सिंह
राणा)
--------------------------------------
लोकप्रिय लेखक आर.के.नारायण
अंग्रेजी भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री राशिपुरम कृष्णास्वामी नारायणस्वामी अय्यर अर्थात आर.के.नारायण का जन्म 10 अक्टूबर, 1906 को मद्रास में हुआ था। उनके पिता एक विद्यालय में प्रधानाचार्य थे। इसलिए पढ़ने और पढ़ाने का वातावरण उन्हें बचपन से ही मिला। भारत में अत्यधिक लोकप्रिय व्यंग्य चित्र (कार्टून) निर्माता श्री आर.के.लक्ष्मण उनके बड़े भाई थे। अनेक बड़े अंग्रेजी पत्रों में पहले पृष्ठ पर प्रकाशित लक्ष्मण के व्यंग्य चित्र राजनीति और व्यवस्था पर कड़ी चोट करते हैं। इस प्रकार दोनों भाइयों ने साहित्य एवं पत्रकारिता में उच्च स्थान प्राप्त किया। ऐसे उदाहरण प्रायः कम ही देखने में आते हैं।
श्री नारायण ने लेखन तो बचपन से प्रारम्भ कर दिया था; पर 1935 में उनका पहला उपन्यास ‘स्वामी एण्ड फ्रेंड’ प्रकाशित हुआ। इससे उन्हें लेखन के क्षेत्र में राष्ट्रीय पहचान मिली। उनके 50 साल से अधिक के लेखनकाल में अधिकांश कहानियों की विषयवस्तु स्वामी नामक मुख्य चरित्र के चारों ओर घूमती है। सामान्य जीवन की गाथा और मानवता की पृष्ठभूमि पर आधारित उनके साहित्यिक चरित्र साधारण ग्रामीण या कस्बाई पृष्ठभूमि के भारतीय होते थे। वे अपनी रचनाओं में आधुनिकता को कुछ इस तरह से पिरोते थे कि उससे त्रासद हास्य पैदा होता था, जो पाठकों को गुदगुदाता और कोई सन्देश देकर जाता था।
श्री नारायण का नाम कई बार साहित्य के नोबल पुरस्कार के लिए नामित और चर्चित हुआ; पर वे इसे कभी प्राप्त नहीं कर पाये। सच तो यह है कि नोबेल पुरस्कार के पीछे भी सम्पन्न पश्चिमी देशों की राजनीति हावी रहती है। प्रायः वे ऐसे लेखक को पुरस्कृत करते हैं, जिसके लेखन से उनके हितों की पूर्ति होती हो। अपनी बात को खरी भाषा में कहने वाले श्री नारायण इस कसौटी पर कभी खरे नहीं उतरे। उन्हें विश्व में अंग्रेजी का सर्वाधिक पसन्द किया जाने वाला लेखक माना जाता है। उनकी रचनाओं का दुनिया की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
श्री नारायण को 1968 में उनके उपन्यास ‘द गाइड’ के लिए साहित्य अकादमी के राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत किया गया। भारत सरकार ने भी उन्हें ‘पद्म भूषण’ और ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया। 1989 में साहित्य में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें राज्यसभा का मानद सदस्य चुना गया। इसके अतिरिक्त उन्हें मैसूर विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और यूनिवर्सिटी आफ लीड्स ने डॉक्टरेट की मानद उपाधियाँ प्रदान कीं।
उनके उपन्यास द गाइड पर देवानन्द ने हिन्दी और अंग्रेजी में ‘गाइड’ नाम से फिल्म बनायी, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुई। उनकी लघुकथाओं पर अभिनेता शंकर नाग ने कविता लंकेश के निर्देशन में ‘मालगुडी डेज’ नामक धारावाहिक बनाया, जो दूरदर्शन के अत्यधिक सफल कार्यक्रमों में से एक माना जाता है। इस पर टिप्पणी करते हुए श्री नारायण ने एक बार कहा था कि इन कहानियों के सभी पात्र कालजयी हैं, जो दुनिया के किसी भी भाग में आसानी से मिल सकते हैं।
धारदार कलम और मधुर मुस्कान के धनी श्री आर.के.नारायण की लेखन यात्रा का प्रारम्भ ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित लघुकथाओं से हुआ था। जीवन के विभिन्न पड़ावों से गुजरती हुई यह यात्रा 94 वर्ष की आयु में 13 मई, 2001 को सदा के लिए थम गयी।
..................................
10 अक्तूबर/जन्म-दिवस
पूर्वोत्तर के भगीरथ वसंतराव भट्ट
बंगाल में संघ के कार्य को दृढ़ आधार देने वाले श्री वसंतराव भट्ट का जन्म 10 अक्तूबर, 1926 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर नगर में हुआ था। वसंतराव पर उनके पिता श्री विनायक राव भट्ट की छत्रछाया लम्बे समय नहीं रही। अतः बड़े भाई ने ही पिता के समान इनका पालन-पोषण किया।
विद्यालयी शिक्षा ग्वालियर में पूर्ण कर वसंतराव ने नागपुर विश्वविद्यालय से मराठी भाषा में विशेषज्ञता के साथ एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। फिर कुछ समय उन्होंने नौकरी भी की। वे बचपन से ही संघ की शाखा में जाते थे। नागपुर में वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की प्रेरणा से 1947 में उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया और नौकरी को सदा के लिए राम-राम कह दिया।
प्रारम्भ में उन्हें महाकौशल तथा फिर जबलपुर विभाग का काम दिया गया। उनके प्रचारक बनने के अगले ही वर्ष संघ पर प्रतिबंध लग गया; पर वे श्री एकनाथ रानाडे के स्नेेहिल मार्गदर्शन में बिना विचलित हुए काम करते रहे।
1956 में उन्हें बंगाल के हुगली विभाग का काम दिया गया। उन्होंने शीघ्र ही बंगला सीख ली तथा वहां के रीति-रिवाजों से समरस होकर ‘वसंत दा’ हो गये। एकनाथ जी ने उन्हें कुछ लोगों से मिलवा दिया था; पर आगे का मार्ग अब उन्हें ही बनाना था। कार्यालय न होने के कारण वे रात में रेलवे स्टेशन पर सोते थे। 1958 में उन्हें प्रांत प्रचारक श्री अमलकुमार बसु का सहयोगी तथा 1960 में बंगाल के प्रांत प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी।
बंगाल में उन दिनों संघ का काम मुख्यतः नगर के व्यापारी वर्ग में था। वसंत दा ने वामपंथ प्रभावित होने पर भी गांवों में सघन प्रवास किया। 1975 में आपातकाल लगने पर वे भूमिगत होकर काम करते रहे और पुलिस की पकड़ में नहीं आये। इस दौरान बंगाल में 3,000 लोगों ने जेल-यात्रा की।
आपातकाल के बाद अन्य अनेक संगठनों की तरह ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के काम को भी देश भर में फैलाने का निर्णय हुआ। अतः 1977 में वसंत दा को सम्पूर्ण पूर्वोत्तर भारत का काम दिया गया। 1980 में उन्हें अ.भा. सह संगठन मंत्री तथा फिर अ.भा.संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी।
वनवासी कल्याण आश्रम के काम की दृष्टि से वसंत दा को पूर्वोत्तर के काम का भगीरथ कहा जाता था। क्योंकि उन्होंने वहां शून्य से काम प्रारम्भ कर अगले 25 वर्ष में उसे प्रभावी स्थिति में पहुंचा दिया। कोलकाता में उन्होंने ‘कल्याण भवन’ बनवाया, जो पूर्वोत्तर की गतिविधियों का केन्द्र बना है।
बंगाल में मछली बहुत खाई जाती है; पर वसंत दा निरामिष थे। जिन लोगों को यह पता था, वहां तो व्यवस्था हो जाती थी; पर बाकी जगह वे ‘माछेर झोल’ में से मछली निकाल कर उसकी तरी से चावल खा लेते थे। अति प्रातः जागरण, दो समय की पूजा और व्यायाम के प्रति वे अत्यधिक आग्रही थे। अंतिम दिनों में बिस्तर पर रहते हुए भी वे हाथ-पैर हिला लेते थे।
क्रोध और अहंभाव से मुक्त वसंत दा की आवश्यकताएं बहुत कम थीं। बंगाल में चटाई की सामग्री से थैले बनते हैं। ऐसे एक थैले में उनके कपड़े तथा दूसरे में साहित्य रहता था। अर्थाभाव के कारण मीलों पैदल चलना उनके लिए सामान्य बात थी। सारी रात रेल या बस में खड़े हुए यात्रा करने पर भी, बिना विश्राम किये वे अगले दिन के निर्धारित कार्यक्रम मुस्कुराते हुए पूरे करते थे।
वृद्धावस्था में वे कोलकाता के संघ कार्यालय (केशव भवन) पर रहते हुए वहां आने वालों से संघ तथा वनवासी कल्याण आश्रम के काम के बारे में पूछताछ करते रहते थे। 87 वर्ष की आयु में 26 अपै्रल, 2013 को प्रातः पांच बजे कोलकाता के संघ कार्यालय पर ही वसंत दा का निधन हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य 5.5.13/स्वस्तिका 6.5.13 तथा 27.5.13)
---------------------
आधुनिक चाणक्य नानाजी देशमुख
ग्राम कडोली (जिला परभणी, महाराष्ट्र) में 11 अक्तूबर, 1916 (शरद पूर्णिमा) को श्रीमती राजाबाई की गोद में जन्मे चंडिकादास अमृतराव (नानाजी) देशमुख ने भारतीय राजनीति पर अमिट छाप छोड़ी।
1967 में उन्होंने विभिन्न विचार और स्वभाव वाले नेताओं को साथ लाकर उ0प्र0 में सत्तारूढ़ कांग्रेस का घमंड तोड़ दिया। इस कारण कांग्रेस वाले उन्हें नाना फड़नवीस कहते थे। छात्र जीवन में निर्धनता के कारण किताबों के लिए वे सब्जी बेचकर पैसे जुटाते थे। 1934 में डा. हेडगेवार द्वारा निर्मित और प्रतिज्ञित स्वयंसेवक नानाजी ने 1940 में उनकी चिता के सम्मुख प्रचारक बनने का निर्णय लेकर घर छोड़ दिया।
उन्हें उत्तर प्रदेश में पहले आगरा और फिर गोरखपुर भेजा गया। उन दिनों संघ की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। नानाजी जिस धर्मशाला में रहते थे, वहाँ हर तीसरे दिन कमरा बदलना पड़ता था। अन्ततः एक कांग्रेसी नेता ने उन्हें इस शर्त पर स्थायी कमरा दिलाया कि वे उसका खाना बना दिया करेंगे। नानाजी के प्रयासों से तीन साल में गोरखपुर जिले में 250 शाखाएं खुल गयीं। विद्यालयों की पढ़ाई तथा संस्कारहीन वातावरण देखकर उन्होंने गोरखपुर में 1950 में पहला 'सरस्वती शिशु मन्दिर' स्थापित किया। आज तो ‘विद्या भारती’ संस्था के अन्तर्गत ऐसे विद्यालयों की संख्या 50,000 से भी अधिक है।
1947 में रक्षाबन्धन के शुभ अवसर पर लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ की स्थापना हुई, तो नानाजी इसके प्रबन्ध निदेशक बनाये गये। वहां से मासिक राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक पा॰चजन्य तथा दैनिक स्वदेश अखबार निकाले गये। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगने से प्रकाशन संकट में पड़ गया। ऐसे में नानाजी ने छद्म नामों से कई पत्र निकाले।
1952 में जनसंघ की स्थापना होने पर उत्तर प्रदेश में उसका कार्य नानाजी को सौंपा गया। 1957 तक प्रदेश के सभी जिलों में जनसंघ का काम पहुँच गया। 1967 में वे जनसंघ के राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनकर दिल्ली आ गये। दीनदयाल जी की हत्या के बाद 1968 में उन्होंने दिल्ली में 'दीनदयाल शोध संस्थान' की स्थापना की।
विनोबा भावे के 'भूदान यज्ञ' तथा 1974 में इन्दिरा गांधी के कुशासन के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आन्दोलन में नानाजी खूब सक्रिय रहे। पटना में जब पुलिस ने जयप्रकाश जी पर लाठी बरसायीं, तो नानाजी ने उन्हें अपनी बांह पर झेल लिया। इससे उनकी बांह टूट गयी; पर जयप्रकाश जी बच गये।
1975 में आपातकाल के विरुद्ध बनी ‘लोक संघर्ष समिति’ के वे पहले महासचिव थे। 1977 के चुनाव में इन्दिरा गांधी हार गयीं और जनता पार्टी की सरकार बनी। नानाजी भी बलरामपुर से सांसद बने। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई उन्हें मंत्री बनाना चाहते थे; पर नानाजी ने सत्ता के बदले संगठन को महत्व दिया। अतः उन्हें जनता पार्टी का महामन्त्री बनाया गया।
1978 में नानाजी ने सक्रिय राजनीति छोड़कर ‘दीनदयाल शोध संस्थान’ के माध्यम से गोंडा, नागपुर, बीड़ और अमदाबाद में ग्राम विकास के कार्य किये। 1991 में उन्होंने चित्रकूट में देश का पहला 'ग्रामोदय विश्वविद्यालय' स्थापित कर आसपास के 500 गांवों का जन भागीदारी द्वारा सर्वांगीण विकास किया। इसी प्रकार मराठवाड़ा, बिहार आदि में भी कई गांवों का पुननिर्माण किया। 1999 में वे राज्यसभा में मनोनीत किये गये। इस दौरान मिली सांसद निधि का उपयोग उन्होंने इन सेवा प्रकल्पों के लिए ही किया।
‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित नानाजी ने 27 फरवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में अंतिम सांस ली। उन्होंने अपने 81 वें जन्मदिन पर देहदान का संकल्प पत्र भर दिया था। अतः देहांत के बाद उनका शरीर चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के शोध हेतु दिल्ली के आयुर्विज्ञान संस्थान को दे दिया गया।
...............................
12 अक्तूबर/जन्म-दिवस
प्रज्ञा पुरुष श्री रामस्वरूप
आज शिक्षा, कला, संस्कृति, पत्रकारिता आदि में वामपंथी हावी हैं। इस खतरे को भांप कर आजादी के समय से ही हिन्दू विचार के पक्ष में बौद्धिक जनमत जगाने में अग्रणी प्रज्ञा पुरुष श्री रामस्वरूप जी का जन्म 12 अक्तूबर 1920 को हुआ था। उन्होंने गृहस्थी के बंधन में न बंधते हुए वैचारिक संघर्ष को ही अपना जीवन-लक्ष्य बनाया। सीताराम गोयल और कोलकाता के उद्योगपति लोहिया जी से उनकी अभिन्नता थी। इन दोनों को रामस्वरूप जी ने कम्युनिस्टों के वैचारिक चंगुल से निकाला था।
इन तीनों ने मिलकर खोखले वामपंथ के विरुद्ध वैचारिक आंदोलन छेड़ दिया। इसमें लोहिया जी ने आर्थिक सहयोग दिया, तो बाकी दोनों ने वैचारिक। 1948 में रामस्वरूप जी की अंग्रेजी में एक लघु पुस्तिका ‘कम्युनिस्ट खतरे से हमें लड़ना होगा’ प्रकाशित हुई। इससे इस संघर्ष का शंखनाद हुआ।
रामस्वरूप जी और सीताराम जी ने मिलकर 1949 में ‘प्राची प्रकाशन’ स्थापित किया। इससे प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘रूसी साम्राज्यवाद को कैसे रोकें’ को ऋषि अरविन्द का आशीर्वाद मिला। बर्टेंड रसेल, फिलिप स्पै्रट और आर्थर कोएस्लर जैसे पूर्व कम्युनिस्ट चिन्तकों ने भी इसे बहुत सराहा। सरदार पटेल ने इसे पढ़कर उन्हें इस दिशा में संगठित प्रयास करने को कहा।
21 फरवरी, 1951 को रामस्वरूप जी का लेख ‘भारतीय विदेश नीति का आलोचनात्मक विश्लेषण’ मुंबई के श्री अरविंद सर्किल की पाक्षिक पत्रिका ‘मदर इंडिया’ में प्रकाशित हुआ। इस लेख से रामस्वरूप जी की दूरदृष्टि का पता लगता है। उन दिनों जब भारतीय राजनीति, प्रचार माध्यमों और शिक्षित जगत पर वामपंथ का नशा चढ़ा था, रामस्वरूप जी और सीताराम गोयल ने विपुल साहित्य का सृजन कर उन्हें जबरदस्त बौद्धिक चुनौती दी। उन्होेंने ‘सोसायटी फॉर डिफेंस ऑफ़ फ्रीडम इन एशिया’ नामक मंच की स्थापना भी की।
उनके इस अभियान से कम्युनिस्ट तिलमिला उठे। चूंकि वैचारिक संघर्ष में वे उनके सामने कमजोर पड़ते थे। मास्को में ‘प्रावदा’ और ‘इजवेस्तिया’ जैसे पत्रों ने, तो भारत में स्वाधीनता जैसे वामपंथी पत्रों ने उनके विरुद्ध जेहाद छेड़कर उन्हें सी.आई.ए. का एजेंट घोषित कर दिया। रूस, चीन आदि में वामपंथ की वैचारिक पराजय की बात वे प्रायः बोलते थे।
1954 में उन्होंने कोलकाता में पुस्तक प्रदर्शनी में अपनी पुस्तकों का स्ट१ल लगाया। उसकी रक्षा संघ के कार्यकर्ताओं ने श्री एकनाथ रानाडे के नेतृत्व में की। इस प्रकार संघ से उनका परिचय हुआ, जो फिर बढ़ता ही गया। सर्वश्री दत्तोपंत ठेंगड़ी, रज्जू भैया, शेषाद्रि जी, सुदर्शन जी आदि वरिष्ठजनों से उनकी कई बार भेंट हुई।
रामस्वरूप जी का हिन्दू धर्म के साथ ही इस्लाम और ईसाइयत पर भी गहरा अध्ययन था। ‘हदीस के माध्यम से इस्लाम का अध्ययन’ तथा ‘हिन्दू व्यू ऑफ़ क्रिश्चियनिटी एंड इस्लाम’ का कई भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसके प्रकाशन से कट्टरपंथियों में हलचल मच गयी; पर तथ्यों पर आधारित होने के कारण उसे चुनौती नहीं दी जा सकी।
1957 में सार्वजनिक जीवन से विरत होकर वे अध्यात्म की ओर उन्मुख हो गये; पर अध्ययन और लेखन का उनका क्रम जारी रहा। हिन्दू समाज पर हो रहे बाहरी हमलों की तरह ही वे हिन्दू समाज की आंतरिक दुर्बलताओं से भी बहुत दुखी थे। उन्होंने इस दिशा में भी चिंतन और मनन किया।
कोलकाता की 'बड़ा बाजार कुमार सभा' द्वारा 'डा. हेडगेवार प्रज्ञा पुरस्कार' से सम्मानित ऐसे भविष्यद्रष्टा, वैचारिक योद्धा और गांधीवादी ऋषि रामस्वरूप जी का 26 दिसम्बर, 1998 को शरीरांत हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य 10.1.99)
...................................
12 अक्तूबर/जन्म-दिवस
पत्रयात्री शरद लघाटे
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री शरद लघाटे का जन्म 12 अक्तूबर, 1940 को इगतपुरी (महाराष्ट्र) में श्री दत्तात्रेय एवं श्रीमती सुशीला देवी के घर में हुआ था। उनके पिताजी उन दिनों इगतपुरी से भुसावल के बीच चलने वाली रेलगाड़ी के चालक थे। मूलतः कोंकण निवासी यह परिवार फिर ग्वालियर आ गया। शरद जी की ननिहाल भी वहीं थी।
तीन भाइयों में शरद जी दूसरे नंबर पर थे। श्री दत्तात्रेय निष्ठावान स्वयंसेवक थे। 1948 के प्रतिबंध के समय उनके घर पर संघ की गुप्त बैठकें होती थीं। दस दिवसीय गणेशोत्सव के दौरान तो लगातार इसका सिलसिला चलता रहता था। शरद जी के मामा श्री भालचंद्र खानवलकर भी दो वर्ष प्रचारक रहे थे। इस प्रकार पूरा परिवार संघ विचार से अनुप्राणित था।
शरद जी ने इगतपुरी से मिडिल, नागपुर से इंटर (साइंस) तथा ग्वालियर से बी.ए. और अंग्रेजी में एम.ए. किया। जिन दिनों उनके पिताजी नागपुर में थे, तब उनके सरकारी घर के पास स्थित पुलिस चैकी के पीछे शाखा लगती थी। बड़े भाई रामचंद्र जी वहां जाते थे। स्थानीय प्रचारक श्री गोविन्दराव कुलकर्णी प्रायः घर पर आते रहते थे। उनके प्रयास से शरद जी भी शाखा जाने लगे। तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी भी दो-तीन बार उनके घर आये थे।
1958 में शरद जी ने नागपुर से संघ शिक्षा वर्ग (प्रथम वर्ष) का प्रशिक्षण लिया। उनकी माता जी इसके लिए तैयार नहीं थीं। उन्हें डर था कि अपने मामा की तरह ये भी प्रचारक बन जाएगा। अंततः तीन दिन के अनशन के बाद शरद जी को अनुमति मिली। फिर उन्होंने द्वितीय और तृतीय वर्ष भी किया। संघ शिक्षा वर्ग में वे दंड, योगचाप और व्यायाम योग के शिक्षक रहते थे।
इसके बाद श्री गोविन्दराव और अपने पिताजी की प्रेरणा से शरद जी प्रचारक बने। सर्वप्रथम उन्हें मुरैना नगर और दो वर्ष बाद वहीं जिला प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। इसके बाद उन्हें मंदसौर जिले का काम दिया गया। पूरे जिले में वे साइकिल से घूमते थे। मंदसौर में वे कई वर्ष रहे। 1975 में आपातकाल लगने पर वे वहीं थे। फिर उन्हें भोपाल बुला लिया गया। वहां नया कार्यालय ‘समिधा’ बन चुका था; पर पुलिस ने उसे सीलबंद नहीं किया था। पुराना कार्यालय श्री उत्तमचंद इसराणी के घर में था। शरद जी दोनों जगह आते-जाते थे। इस प्रकार वे सबसे सम्पर्क बनाकर आवश्यक सूचनाएं देते रहते थे। आपातकाल के बाद वे भोपाल में ही रहकर प्रांत कार्यवाह इसराणी जी के सहायक के नाते उनका पत्र-व्यवहार देखने लगे।
आपातकाल के बाद उन्हें ‘विश्व हिन्दू परिषद’ के काम में मुंबई भेजा गया। ‘संस्कृति रक्षा निधि’ के संग्रह के बाद उसका हिसाब काफी जटिल तथा फैला हुआ था। बाद में उसमें कुछ समस्याएं भी खड़ी हो गयीं। उन दिनों श्री हुपरीकर जी निधि-विधि प्रमुख थे। उनके साथ शरद जी को भी इस काम में लगा दिया गया। दोनों ने मिलकर सारा हिसाब ठीक किया। इसके बाद आचार्य गिरिराज किशोर जी उन्हें दिल्ली में केन्द्रीय कार्यालय पर ले आये। धीरे-धीरे उन्होंने यहां का सब हिसाब-किताब संभाल लिया।
अध्ययनशील होने के कारण शरद जी को ‘सम्पादक के नाम पत्र’ लिखने का शौक था। इसकी प्रेरणा उन्हें नागपुर में श्री पांडुरंग पंत क्षीरसागर ने दी थी। वे हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी के पत्रों में चिट्ठियां लिखते थे। तथ्यात्मक होने के कारण अधिकांश पत्र छपते भी थे। प्रकाशित पत्रों की फाइल बनाकर वे प्रतिवर्ष संघ तथा वि.हि.प. के प्रमुख कार्यकर्ताओं को देते थे। धीरे-धीरे उन्होंने इसे एक विधा का रूप दे दिया और ‘मेरी पत्र-यात्रा’ नामक पुस्तक बना दी, जो सभी नये पत्र लेखकों के लिए मार्गदर्शक है।
पिछले कई वर्ष से वे तीव्र मधुमेह के शिकार थे। इसका दुष्प्रभाव उनकी आंखों तथा टांगों पर भी था। 30 मई, 2015 को रात्रि में दिल्ली के सफदरजंग चिकित्सालय में उनका निधन हुआ।
(संदर्भ: 1.12.2014 को हुआ वार्तालाप)
क्रांति और भक्ति के साधक राधा बाबा
राधा बाबा के नाम से विख्यात श्री चक्रधर मिश्र का जन्म ग्राम फखरपुर (गया, बिहार) में 1913 ई. की पौष शुक्ल नवमी को एक राजपुरोहित परिवार में हुआ था। 1928 में गांधी जी के आह्वान पर गया के सरकारी विद्यालय में उन्होंने यूनियन जैक उतार कर तिरंगा फहरा दिया था। शासन विरोधी भाषण के आरोप में उन्हें छह माह के लिए कारावास में रहना पड़ा।
गया में जेल अधीक्षक एक अंग्रेज था। सब उसे झुककर ‘सलाम साहब’ कहते थे; पर इन्होंने ऐसा नहीं किया। अतः इन्हें बुरी तरह पीटा गया। जेल से आकर ये क्रांतिकारी गतिविधियों में जुट गये। गया में राजा साहब की हवेली में इनका गुप्त ठिकाना था। एक बार पुलिस ने वहां से इन्हें कई साथियों के साथ पकड़ कर ‘गया षड्यन्त्र केस’ में कारागार में बंद कर दिया। जेल में बंदियों को रामायण और महाभारत की कथा सुनाकर वे सबमें देशभक्ति का भाव भरने लगे। अतः इन्हें तनहाई में डालकर अमानवीय यातनाएं दी गयीं; पर ये झुके नहीं। जेल से छूटकर इन्होंने कथाओं के माध्यम से धन संग्रह कर स्वाधीनता सेनानियों के परिवारों की सहायता की।
जेल में कई बार हुई दिव्य अनुभूतियों से प्रेरित होकर उन्होंने 1936 में शरद पूर्णिमा पर संन्यास ले लिया। कोलकाता में उनकी भेंट स्वामी रामसुखदास जी एवं सेठ जयदयाल गोयन्दका जी से हुई। उनके आग्रह पर वे गीता वाटिका, गोरखपुर में रहकर गीता पर टीका लिखने लगे। वहां भाई श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी से हुई भेंट से उनके मन की अनेक शंकाओं का समाधान हुआ। इसके बाद तो वे भाई जी के परम भक्त बन गये।
गीता पर टीका पूर्ण होने के बाद वे वृन्दावन जाना चाहते थे; पर सेठ गोयन्दका जी एवं भाई जी की इच्छा थी कि वे उनके साथ हिन्दू धर्मग्रन्थों के प्रचार-प्रसार में योगदान दें। भाई जी के प्रति अनन्य श्रद्धा होने के कारण उन्होंने यह बात मान ली। 1939 में उन्होेंने शेष जीवन भाई जी के सान्निध्य में बिताने तथा आजीवन उनके चितास्थान के समीप रहने का संकल्प लिया।
बाबा का श्रीराधा माधव के प्रति अत्यधिक अनुराग था। समाधि अवस्था में वे नित्य श्रीकृष्ण के साथ लीला विहार करते थे। हर समय श्री राधा जी के नामाश्रय में रहने से उनका नाम ‘राधा बाबा’ पड़ गया। 1951 की अक्षय तृतीया को भगवती त्रिपुर सुंदरी ने उन्हें दर्शन देकर निज मंत्र प्रदान किया। 1956 की शरद पूर्णिमा पर उन्होंने काष्ठ मौन का कठोर व्रत लिया।
बाबा का ध्यान अध्यात्म साधना के साथ ही समाज सेवा की ओर भी था। उनकी प्रेरणा से निर्मित हनुमान प्रसाद पोद्दार कैंसर अस्पताल से हर दिन सैंकड़ों रोगी लाभ उठा रहे हैं। 26 अगस्त, 1976 को भाई जी के स्मारक का निर्माण कार्य पूरा हुआ। गीता वाटिका में श्री राधाकृष्ण साधना मंदिर भक्तों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। इसके अतिरिक्त भक्ति साहित्य का प्रचुर मात्रा में निर्माण, अनाथों को आश्रय, अभावग्रस्तों की सहायता, साधकों का मार्गदर्शन, गोसंरक्षण आदि अनेक सेवा कार्य बाबा की प्रेरणा से सम्पन्न हुए।
1971 में भाई जी के देहांत के बाद बाबा उनकी चितास्थली के पास एक वृक्ष के नीचे रहने लगे। 13 अक्तूबर, 1992 को इसी स्थान पर उनकी आत्मा सदा के लिए श्री राधा जी के चरणों में लीन हो गयी। यहां बाबा का एक सुंदर श्रीविग्रह विराजित है, जिसकी प्रतिदिन विधिपूर्वक पूजा होती है।
(संदर्भ : पांचजन्य 23.1.2011/स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश)
.................................................
14 अक्तूबर/जन्म-दिवस
आतंकवाद में दृढ़ चट्टान विश्वनाथजी
अस्सी के दशक में पंजाब
में आतंकवाद चरम पर था। स्वार्थी राजनेता हिन्दुओं और सिखों के बीच दरारें डाल रहे
थे। अतः बड़ी संख्या में लोग पंजाब छोड़कर बाहर जाने लगे। ऐसे माहौल में पंजाब
प्रान्त प्रचारक श्री विश्वनाथजी ने सबको हिम्मत से वहीं डटे रहने का आग्रह किया।
वे स्वयं गांव-गांव घूमे और स्वयंसेवकों तथा सामान्य नागरिकों का उत्साह बढ़ाया।
विश्वनाथजी का जन्म 14 अक्तूबर,
1926 को तीसरे सिख गुरु श्री अमरदासजी द्वारा
स्थापित नगर ‘श्री गोइन्दवाल साहिब’ में हुआ था।
यद्यपि विद्यालय में तारीख एक फरवरी, 1927 लिखी है।
उन्होंने अमृतसर के खालसा कालिज में शिक्षा पाई। छात्र जीवन में ही वे संघ के
सम्पर्क में आ गये थे। उन दिनों देश विभाजन की चर्चा सर्वत्र होती रहती थी। पंजाब
पर संकट प्रत्यक्ष मंडरा रहा था। लोगों की आशा का केन्द्र केवल संघ शाखा पर आने
वाले नवयुवक ही थे। विश्वनाथजी अपनी पूरी शक्ति से संघ कार्य के विस्तार में लग
गये।
ऐसे में घर वालों का
नाराज होना स्वाभाविक ही था। वे प्रायः रात को देर से लौटते थे। एक बार बहुत देर
होने पर घर वालों ने दरवाजा नहीं खोला। बस, उसी दिन
विश्वनाथजी ने केवल और केवल संघ कार्य करने का निर्णय ले लिया और 1945 में बी.ए. की पढ़ाई पूरी कर प्रचारक बन गये। उन्होंने 1944, 45 और फिर 46 में प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय वर्ष का संघ प्रशिक्षण लिया।
सर्वप्रथम उन्हें
मिण्टगुमरी जिले की बोसपत्तन तहसील (वर्तमान पाकिस्तान) में काम करने भेजा गया।
वहो का माहौल तो और भी खराब था। गुंडे खुलेआम ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद’ के नारे लगाकर हिन्दुओं
को लूट रहे थे। ऐसे में विश्वनाथजी ने हिन्दू युवकों की टोली बनाकर उन्हें
मुंहतोड़ जवाब दिया। 1947 में देश का विभाजन होने पर उधर से हिन्दुओं को
सुरक्षित निकालने तथा उन्हें पुनस्र्थापित करने के काम में विश्वनाथजी जुट गये।
1948 में गांधीजी की हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबन्ध
लगा। पूरे देश में इसके विरुद्ध सत्याग्रह हुआ; पर पंजाब में
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति समर्थन इतना अधिक था कि शासन सत्याग्रहियों को
गिरफ्तार ही नहीं करता था। अतः विश्वनाथजी ने वहां के स्वयंसेवकों को दिल्ली भेजा
और स्वयं भी दिल्ली में गिरफ्तारी दी। प्रतिबन्ध उठने पर वे लुधियाना, फिरोजपुर और हिसार में जिला प्रचारक तथा फिर अमृतसर में विभाग प्रचारक रहे। 1971 में उन्हें दिल्ली तथा 1978 में पंजाब का प्रान्त
प्रचारक बनाया गया।
पंजाब में उन्होंने
स्वयंसेवकों तथा अन्य हिन्दू नागरिकों को विदेश प्रेरित आतंक के विरुद्ध बलिदान के
लिए तैयार रहने को प्रेरित किया। उन दिनों शाखाओं पर भी हमले हुए; पर विश्वनाथजी ने धैर्य रखा और कार्यकर्ताओं को उत्तेजित नहीं होने दिया। इस
कारण पंजाब में गृहयुद्ध नहीं हो सका। इससे आतंकियों को संचालित करने वाले उनके
विदेशी आका बहुत निराश हुए।
पंजाब में संघ को हिन्दी
समर्थक माना जाता है। लम्बे समय तक संघ के विरोध का यह भी एक प्रमुख कारण रहा; पर विश्वनाथजी वार्तालाप, बैठक, बौद्धिक आदि में पंजाबी भाषा का ही प्रयोग करते थे। इससे बड़ी संख्या में
सिक्ख भी संघ से जुड़े। 1990 में उन्हें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल तथा जम्मू-कश्मीर
(उत्तर क्षेत्र) का काम दिया गया। वर्ष 2001 से 2006 तक ‘धर्म जागरण विभाग’ के प्रमुख के
नाते उन्होंने देश भर में प्रवास किया।
अनेक रोगों के कारण जब
उन्हें प्रवास में कठिनाई होने लगी, तो उन्होंने सब
जिम्मेदारियों से मुक्त होकर अमृतसर कार्यालय पर रहना पसन्द किया। जीवन भर दैनिक
शाखा के प्रति आग्रही रहे श्री विश्वनाथजी का 24 मई, 2007 की प्रातः अमृतसर कार्यालय पर ही देहान्त हुआ।
(पांचजन्य 29.10.2006/16 तथा देहांत के
बाद पत्र/पत्रिकाएं)(विश्वनाथ जी, एक अनथक कर्मयोगी, डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री, सुरुचि)
------------- -------- ---------
14 अक्तूबर/इतिहास-स्मृतिबुद्धम् शरणम् गच्छामि
हिन्दू धर्म विश्व का सर्वश्रेष्ठ धर्म है। जैसे गंगाजल स्वयं को शुद्ध करता चलता है, इसी प्रकार इसमें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार स्वयं को बदलने की प्रक्रिया चलती रहती है। यद्यपि विदेशी और विधर्मी शासकों के काल में इसमें समय-समय पर अनेक कुरीतियाँ भी आयीं, जिससे इसकी हानि हुई। इनमें से ही एक भयानक कुरीति है जातिभेद।
हमारे पूर्वजों ने किसी काल में धर्म की रक्षार्थ कार्य के अनुसार जातियाँ बनाई थीं; पर आगे चलकर वह जन्म के अनुसार मान ली गयीं। इतना ही नहीं, तो उसमें से कई को नीच और अछूत माना गया। भले ही उसमें जन्मे व्यक्ति ने कितना ही ऊँचा स्थान क्यों न पा लिया हो।
ऐसे ही एक महामानव थे बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर, जिन्होंने विदेश में बैरिस्टर की उच्च शिक्षा पायी थी। स्वतन्त्रता के बाद भारत के प्रथम विधि मन्त्री के नाते संविधान निर्माण में उनकी भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रही; पर महाराष्ट्र की महार जाति में जन्म लेने के कारण उन्हें हिन्दू समाज के तथाकथित उच्च वर्ग के लोग सदा हीन दृष्टि से देखते थे। इसी से दुखी होकर उन्होंने विजयादशमी (14 अक्तूबर, 1956) को अपने 56,000 समर्थकों के साथ नागपुर में बौद्ध धर्म ग्रहण किया।
बाबा साहब के मन पर अपने पिता श्री रामजी सकपाल के धार्मिक विचारों का बहुत प्रभाव था। इसलिए दीक्षा से पूर्व सबने दो मिनट मौन खड़े होकर उन्हें श्रद्धांजलि दी। फिर बाबा साहब और उनकी पत्नी डा. सविता अम्बेडकर (माई साहब) ने मत परिवर्तन किया।
हिन्दू धर्म से अत्यधिक प्रेम होने के कारण जब उन्होंने कहा कि आज से मैं इसे छोड़ रहा हूँ, तो उनकी आँखों में आंसू आ गये। उन्होंने वयोवृद्ध भन्ते चन्द्रमणि से बौद्ध मत का अनुग्रह पाली भाषा में लिया। इसके बाद महाबोधि सोयायटी ऑफ इंडिया के सचिव श्री वली सिन्हा ने उन दोनों को भगवान बुद्ध की धर्मचक्र प्रवर्तक की मुद्रा भेंट की, जो सारनाथ की मूर्त्ति की प्रतिकृति थी।
इसके बाद बाबा साहब ने जनता से कहा कि जो भी बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहें, वे हाथ जोड़कर खड़े हो जायें। जो लोग खड़े हुए, बाबा साहब ने उन्हें 22 शपथ दिलाईं, जो उन्होंने स्वयं तैयार की थीं। बाबा साहब को आशा थी कि केवल हिन्दू ही उनके साथ आयेंगेे; पर कुछ मुसलमान और ईसाई भी बौद्ध बने।
इस पर उन्होंने कहा कि हमें अपनी प्रतिज्ञाओं को कुछ बदलना होगा, क्योंकि उनमें हिन्दू देवी-देवताओं और अवतारों को न मानने की ही बात कही गयी थी। यदि मुस्लिम और ईसाई बौद्ध बनना चाहते हैं, तो उन्हें मोहम्मद और ईसा को अवतार मानने की धारणा छोड़नी होगी। यद्यपि यह काम नहीं हो पाया, क्योंकि डेढ़ माह बाद छह दिसम्बर, 1956 को बाबा साहब का देहान्त हो गया।
डा. अम्बेडकर ने जब धर्म परिवर्तन की बात कही, तो उनसे अनेक धार्मिक नेताओं ने सम्पर्क किया। निजाम हैदराबाद ने पत्र लिखकर उन्हें प्रचुर धन सम्पदा का प्रलोभन तथा मुसलमान बनने वालों की शैक्षिक व आर्थिक आवश्यकताओं की यथासम्भव पूर्ति की बात कही। ईसाई पादरियों ने भी ऐसे ही आश्वासन दिये; पर डा. अम्बेडकर ने इसे स्वीकार नहीं किया और भारत की मिट्टी से जन्मे बौद्ध मत को अपने अनुकूल पाया, जिसमें जातिभेद नहीं है।
14 अक्तूबर/जन्म-दिवस
नर्मदा प्रेमी अनिल माधव दवे
बहुमुखी प्रतिभा के धनी अनिल माधव दवे का जन्म 14 अक्तूबर, 1956 (विजयादशमी) को बड़नगर (जिला उज्जैन, मध्य प्रदेश) में श्री माधव दवे एवं श्रीमती पुष्पादेवी के घर में हुआ था। यद्यपि सरकारी कागजों में छह जुलाई, 1956 लिखा है। उन पर अपने दादा श्री बद्रीलाल दवे (दा साहब) का विशेष प्रभाव था। दा साहब कांग्रेस, जनसंघ और फिर संघ में सक्रिय रहे। वे मध्यभारत प्रांत के संघचालक तथा इससे पूर्व म.प्र. में जनसंघ के पहले अध्यक्ष भी रहे थे। संघ और जनसंघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता उनके घर आते रहते थे। अतः बचपन से ही अनिलजी को ऐसे महान लोगों का प्रेम और आशीर्वाद मिला।
श्री माधव दवे रेलवे विभाग में थे। अतः अनिलजी की प्रारम्भिक शिक्षा पिताजी के साथ गुजरात के विभिन्न भागों में हुई। वे एन.सी.सी. में भी रुचि लेते थे। 1964 में वे स्वयंसेवक बने। इंदौर के गुजराती काॅलेज से ग्राम्य विकास एवं प्रबंधन में एम.काॅम करते हुए वे वहां छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे। 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आंदोलन में भी वे सक्रिय थे। कुछ समय नौकरी व उद्योग धंधों में हाथ आजमाने के बाद 1989 में वे संघ के प्रचारक बने और म.प्र. में जिला और विभाग प्रचारक के नाते काम किया।
अनिलजी काम के योजना पक्ष पर बहुत ध्यान देते थे। उनका यह गुण संघ के वरिष्ठ जनों के ध्यान में आया। उन दिनों म.प्र. में कांग्रेस सरकार थी। मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह संघ के घोर विरोधी थे। वहां भा.ज.पा. की सरकार बने, इसके लिए एक योग्य एवं जुझारू नेता की जरूरत थी। सबका ध्यान साध्वी उमा भारती पर गया। उन्होंने जनसंपर्क शुरू कर दिया; पर चुनाव में योजना पक्ष का भी बहुत महत्व होता है। अतः अनिलजी को उनके साथ लगा दिया गया। इस प्रकार 2004 में कांग्रेस का दस साल का शासन धराशायी हो गया।
पर कुछ आंतरिक झंझटों के चलते उमाजी को पद छोड़ना पड़ा। अतः अनिलजी मुख्यतः केन्द्र की राजनीति में सक्रिय हो गये। यद्यपि उपाध्यक्ष के नाते म.प्र. में भी उनकी सक्रिय भूमिका बनी रही। उन्होंने गांव की चैपालों में संपर्क कर नर्मदा परिक्रमा, नर्मदा समग्र, नर्मदा महोत्सव जैसे प्रकल्प शुरू किये। भोपाल में उनके निवास का नाम ‘नदी का घर’ था। 2016 में केन्द्र में उन्हें पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का काम मिला। इससे पहले भी वे पर्यावरण संबंधी कई संसदीय समितियों के सदस्य रहे। वे विदेशी बीज, खाद, कीटनाशक आदि के बदले जैविक खेती तथा पर्यावरण संरक्षण में भारतीय परम्पराओं के समर्थक थे। वे बड़े दानवाकार बांधों का भी विरोध करते थे।
अनिलजी शौकिया पायलट तो थे ही, एक मौलिक लेखक और चिंतक भी थे। कुछ निबंध, कविताएं तथा सृजन से विसर्जन तक, नर्मदा समग्र, शताब्दी के पांच काले पन्ने, संभल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, शिवाजी एवं सुराज, यस आई कैन: सो कैन वी उनकी लिखित पुस्तकें हैं। कोपेनहेगन के विश्व पर्यावरण सम्मेलन से लौटकर उन्होंने बियांड कोपेनेहेगन भी लिखी। नवरात्र में वे प्रतिवर्ष उपवास एवं मौन रखते थे। भीषण हृदयरोग होने पर वे चुपचाप मंुबई गये और फिर बड़े आॅपरेशन के बाद ही सबको बताया। यद्यपि इसके बाद वे काम में लग गये; पर रोग ने पीछा नहीं छोड़ा।
वे म.प्र. से दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे; पर राजनीति में होते हुए भी वे मन से प्रचारक ही थे। उन्होंने 2012 में ही अपनी वसीयत में लिख दिया था कि उनकी स्मृति में कोई स्मारक बनाने की बजाय वृक्ष, नदी और तालाबों का संरक्षण करें। 18 मई, 2017 को दिल्ली में हृदयाघात से हुए देहांत के बाद उनकी इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार नर्मदा और तवी के संगम पर बांद्राभान में किया गया।
(संदर्भ : सृजन से विसर्जन तक, शिवाजी एवं सुराज, पांचजन्य 28.5.17 तथा अन्य अखबार)
14 अक्तूबर/पुण्य-तिथि
हठयोगी स्वतन्त्रता सेनानी प्रो. जयकृष्ण प्रभुदास भन्साली
1897 में गुजरात के एक सम्पन्न परिवार में जन्मे प्रोफेसर जयकृष्ण प्रभुदास भन्साली उन लोगों में से थे, जो अपने संकल्प की पूर्ति के लिए शरीर को कैसा भी कष्ट देने को तैयार रहते थे। मुम्बई विश्वविद्यालय से एम.ए. कर वे वहीं प्राध्यापक हो गये। 1920 में गांधी जी से सम्पर्क के बाद वे साबरमती आश्रम में ही रहने लगे। गांधी जी के प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्र ‘हरिजन’ के भी वे सम्पादक रहे, जो आगे चलकर ‘यंग इंडिया’ में बदल गया।
गांधी जी से अत्यधिक प्रभावित होने के बाद भी वे आश्रम की गतिविधियों से सन्तुष्ट नहीं थे। इसलिए उन्होंने संन्यास लेने का मन बनाया। इसके लिए स्वयं को तैयार करने के लिए उन्होंने 55 दिन का उपवास किया; पर इससे उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और उनकी स्मृति लुप्त हो गयी।
ठीक होने पर गांधी जी की अनुमति से वे 1925 में केवल एक वस्त्र लेकर नंगे पैर हिमालय की यात्रा पर निकल गये। इस दौरान उन्होंने केवल नीम की पत्तियाँ खायीं। उन्होंने कुछ दिन मौन रखा; पर एक बार मौन टूटने पर उन्होंने पीतल के तार से मुँह सिलवा लिया। अब वे केवल आटे को पानी में घोलकर पीने लगे। उत्तर भारत की यात्रा कर वे 1932 में सेवाग्राम लौट आये।
1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय कई स्थानों पर अंग्रेजों ने भारी दमन किया। इनमें महाराष्ट्र का आष्टी चिमूर भी था। 16 अगस्त को क्रान्तिकारियों ने थाने पर हमलाकर छह पुलिस वालों को मार दिया। अगले दिन आयी कुर्ग रेजिमेण्ट ने दस लोगों को मौत के घाट उतार दिया। पाँच सैनिक भी मारे गये। 16 से 19 अगस्त तक चिमूर स्वतन्त्र रहा।
इस बीच 1,000 सैनिकों ने चिमूर को घेर लिया। 19 से 21 अगस्त तक उन्होंने दमन का जो नंगा नाच वहाँ दिखाया, वह अवर्णनीय है। सैनिकों को लूटपाट से लेकर हर तरह का कुकर्म करने की पूरी छूट थी। प्रोफेसर भन्साली ने जब यह सुना, तो उन्होंने वायसराय की कौंसिल के सदस्य श्री एम.एस.अणे से त्यागपत्र देने को कहा; पर वे तैयार नहीं हुए। इस पर प्रोफेसर भन्साली दिल्ली में उनके घर के बाहर उपवास पर बैठ गये। उन्हें गिरफ्तार कर सेवाग्राम लाया गया, तो वे चिमूर जाकर उपवास करने लगे।
पुलिस उन्हें पकड़कर वर्धा लायी; पर वे बिना कुछ खाये पिये पैदल ही चिमूर की ओर चल दिये। इस प्रकार उन्होंने 63 दिन का उपवास किया, जो 12 जनवरी, 1943 को समाप्त हुआ। अन्ततः सेंट्रल प्रोविन्स के मुख्यमन्त्री डा. खरे तथा श्री अणे को चिमूर जाना पड़ा।
आष्टी चिमूर कांड में सात क्रान्तिकारियों को फाँसी तथा 27 को आजीवन कारावास हुआ। स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी प्रोफेसर भन्साली चैन से नहीं बैठे। हैदराबाद में रजाकारों की गतिविधियों के विरुद्ध उन्होंने 19 दिन का उपवास किया। 1950 में वे नागपुर के पास टिकली गाँव में बस गये और ग्रामीणों की सेवा करने लगे। राजनीति में उनकी कोई रुचि नहीं थी।
1958 में विश्व की बड़ी शक्तियों को अणु विस्फोट से विरत करने के लिए उन्होंने 66 दिन का उपवास किया। नक्सली हिंसा के विरुद्ध आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में भी उन्होंने यात्रा की। शरीर दमन के प्रति अत्यधिक आग्रही प्रोफेसर भन्साली ने 14 अक्तूबर, 1982 को नागपुर में अपना शरीर त्याग दिया। इनकी स्मृति को स्थायी करने के लिए मेरठ (उत्तर प्रदेश) में एक बड़े मैदान का नाम ‘भन्साली मैदान’ रखा गया है।
..............................
14 अक्तूबर/पुण्य-तिथि
चिर युवा दत्ता जी डिडोलकर
दत्ता जी डिडोलकर संघ परिवार की अनेक संस्थाओं के संस्थापक तथा आधार स्तम्भ थे। उन्होंने काफी समय तक केरल तथा तमिलनाडु में प्रचारक के नाते प्रत्यक्ष शाखा विस्तार का कार्य किया। उस जीवन से वापस आकर भी वे घर-गृहस्थी के बंधन में नहीं फंसे और जीवन भर संगठन के जिस कार्य में उन्हें लगाया गया, पूर्ण मनोयोग से उसे करते रहे। 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद' के कार्य के तो वे जीवन भर पर्यायवाची ही रहेे।
सरसंघचालक श्री गुरुजी ने आदर्श महापुरुष की चर्चा करते हुए एक बार कहा था कि वह कभी परिस्थिति का गुलाम नहीं बनता। उसके सामने घुटने नहीं टेकता, अपितु उससे संघर्ष कर अपने लिए निर्धारित कार्य को सिद्ध करता है। वह अशुभ शक्तियों को कभी अपनी शुभ शक्तियों पर हावी नहीं होने देता। इस कसौटी पर देखें, तो दत्ता जी सदा खरे उतरते हैं। दत्ता जी विद्यार्थी परिषद के संस्थापक सदस्य तो थे ही, लम्बे समय तक उसके अध्यक्ष भी रहे। उस समय विद्यार्थी परिषद को एक प्रभावी अध्यक्ष की आवश्यकता थी। उन्होंने अपने मजबूत इरादों तथा कर्तत्व शक्ति के बलपर परिषद के कार्य को देशव्यापी बनाया।
दक्षिण के राज्यों को इस नाते कुछ कठिन माना जाता था; पर दत्ता जी ने वहां भी विजय प्राप्त की। उन्होंने साम्यवादियों के गढ़ केरल की राजधानी त्रिवेन्द्रम में परिषद का राष्ट्रीय अधिवेशन करने का निर्णय लिया। उनके प्रयास से वह अधिवेशन अत्यन्त सफल हुआ।
उनका मत था कि विद्यार्थी परिषद किसी राजनीतिक दल की गुलामी के लिए नहीं बना है। बल्कि एक समय ऐसा आएगा, जब सब राजनीतिक दल ईर्ष्या करेंगे कि विद्यार्थी परिषद जैसे कार्यकर्ता हमारे पास क्यों नहीं हैं ? उनके समय के परिषद के कार्यकर्ता आज राजनीति में जो प्रभावी भूमिका निभा रहे हैं, उससे वह बात शत-प्रतिशत सत्य हुई दिखाई देती है।
दत्ता जी की अवस्था चाहे जो हो; पर वे मन से चिरयुवा थे। अतः वे सदा विद्यार्थियों और युवकों के बीच ही रहना चाहते थे। प्रचारक जीवन से निवृत्त होकर उन्होंने 'जयंत ट्यूटोरियल' की स्थापना की। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने अनेक छात्रों की सहायता की। इसके पाठ्यक्रम में पढ़ाई के सामान्य विषय तो रहते ही थे; पर कुछ अन्य विषयों के माध्यम से वे छात्र के अन्तर्निहित गुणों को उभारने का प्रयास करते थे। केवल पढ़ाना ही नहीं, तो वे अपने छात्रों की हर प्रकार की सहायता करने को सदा तत्पर रहते थे।
जब कन्याकुमारी में विवेकानंद शिला स्मारक बनाने का निश्चय हुआ, तो दत्ता जी उस समिति के संस्थापक तथा फिर कुछ समय तक महामंत्री भी रहे। 1989 में जब संघ संस्थापक डा. हेडगेवार की जन्म शताब्दी मनाई गयी, तो उसके क्रियान्वयन के लिए बनी समिति के भी वे केन्द्रीय सहसचिव थे।
वे विश्व हिन्दू परिषद के पश्चिमांचल क्षेत्र के संगठन मंत्री भी रहे। छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्यारोहण की 300 वीं जयन्ती उत्साहपूर्वक मनाई गयी। उस समारोह समिति के भी वे सचिव थे। नागपुर में नागपुर विद्यापीठ की एक विशेष पहचान है। वे उसकी कार्यकारिणी के सदस्य थे।
इतना सब होने पर भी उनके मन में प्रसिद्धि की चाह नहीं थी। उन्होंने जो धन कमाया था, उसका कुछ भाग अपने निजी उपयोग के लिए रखकर शेष सब बिना चर्चा किये संघ तथा उसकी संस्थाओं को दे दिया। सदा हंसते रहकर शेष सब को भी हंसाने वाले चिर युवा, सैकड़ों युवकों तथा कार्यकर्ताओं के आदर्श दत्ता जी डिडोलकर का 14 अक्तूबर, 1990 को देहांत हुआ।
(संदर्भ : राष्ट्रसाधना भाग 2)
.....................................
14 अक्तूबर/बलिदान-दिवस
आपातकाल के प्रखर प्रतिरोधी प्रभाकर शर्मा
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल का विशेष स्थान है। इंदिरा गांधी ने अपनी तानाशाही स्थापित करने के लिए संविधान के इस प्रावधान का दुरुपयोग किया, जिससे 26 जून, 1975 को देश एक कालरात्रि में घिर गया।
इसके साथ ही इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य अनेक संस्थाओं पर प्रतिबन्ध लगाकर उनके हजारों कार्यकर्ताओं को झूठे आरोप में जेल में ठूंस दिया। सारे देश में भय व्याप्त था। लोग बोलने से डरते थे। सेंसर के कारण समाचार पत्र भी सत्य नहीं छाप सकते थे। जेल में लोगों का उत्पीड़न हो रहा था। ऐसे में 85 वर्षीय वयोवृद्ध सर्वोदयी कार्यकर्ता श्री प्रभाकर शर्मा ने एक ऐसा कदम उठाया, जिसने वे इतिहास में अमर हो गये। यद्यपि सरकारी साधु विनोबा भावे ने आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कहा था।
श्री प्रभाकर शर्मा ने गांधी जी के आह्नान पर 1935 में ग्राम सेवा का व्रत स्वीकार किया था। तब से वे इसी काम में लगे थे। उनकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी; पर जब उन्होंने निर्दोष लोगों का उत्पीड़न होते देखा, तो उनकी आत्मा चीत्कार उठी और उन्होंने इसका विरोध करने का निश्चय किया।
श्री प्रभाकर शर्मा ने 14 अक्तूबर, 1976 को सुरगांव (वर्धा, महाराष्ट्र) में अपने हाथों से अपनी चिता बनाई। शरीर पर चंदन का लेपकर उस पर खूब घी डाला, जिससे आग पूरी तरह भभक कर जल सके। इसके बाद वे स्वयं ही चिता पर बैठ गये। उन्होंने आसपास उपस्थित अपने सहयोगियों और मित्रों को हाथ उठाकर निर्भय रहने का संदेश दिया और चिता में आग लगा ली।
कुछ ही देर में चिता और उनका शरीर धू-धू कर जलने लगा; पर उनके मुंह से एक बार भी आह या कराह नहीं निकली। इस प्रकार लोकतंत्र और वाणी के स्वातं×य की रक्षा हेतु एक स्वाधीनता सेनानी ने बलिदान दे दिया। चिता पर चढ़ने से पूर्व उन्होंने एक खुले पत्र में इंदिरा गांधी और उनके काले कानूनों को खूब लताड़ा है। यह पत्र आपातकाल के इतिहास में बहुत चर्चित हुआ।
वे लिखते हैं - ईश्वर और मानवता को भूली हुई, पशुबल से सम्पन्न सरकार ने लोगों की स्वतंत्रता छीनकर सत्य पर प्रहार किया है। मुगलों के काल में भी ऐसे अत्याचार होते थे; पर इस बार तो वह सरकार ऐसा कर रही है, जिसने गांधी जी के नेतृत्व में अहिंसा की शिक्षा ली थी।
उन्होंने सेंसर की आलोचना करते हुए लिखा - इस प्रकार के अत्याचारों के समाचार भी प्रकाशित नहीं हो सकते। अंग्रेजों के समय में मुकदमा और सजा होती थी। समाचार पत्रों में छपने के कारण बाहर के लोगों को इसका पता लगता था। इससे शेष लोग भी उत्साहित होते थे। जनता में नैतिक जागृति आती थी; पर आपके काले कानूनों ने इसे भी असंभव कर दिया।
मीसा के बारे में वे लिखते हैं - यह कानून नौकरशाही को राक्षस तथा जनता को कायर बनाता है। न्यायाधीश भी आपके पिट्ठू बने हैं। जो इन कानूनों का विरोध करेगा, उसे न जाने कब तक जेल में रहना पड़ेगा। जेल जाना भी अन्याय सहना ही है। अतः मैं आपकी जेल में भी नहीं जाऊंगा। आपके राज्य में मनुष्य के नाते जीवित रहना कठिन है। अतः मैं जीवित रहना नहीं चाहता। मैंने इसके विरोध में अपनी बलि देने का निश्चय किया है।
उनके आत्मदाह के बाद भी इस पत्र को सार्वजनिक करने का साहस शासन में नहीं हुआ। संघ के स्वयंसेवक अनेक गुप्त पत्रक उन दिनों निकालते थे। उनके माध्यम से ही यह घटना लोगों का पता लगी।
(संदर्भ : आह्वान, लोकहित प्रकाशन)
.............................................
15 अक्तूबर/जन्म-दिवस
मिसाइल मैन डा. अब्दुल कलाम
क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि उस युवक के मन पर क्या बीती होगी, जो वायुसेना में विमान चालक बनने की न जाने कितनी सुखद आशाएं लेकर देहरादून गया था; पर परिणामों की सूची में उसका नाम नवें क्रमांक पर था, जबकि चयन केवल आठ का ही होना था। कल्पना करने से पूर्व हिसाब किताब में यह भी जोड़ लें कि मछुआरे परिवार के उस युवक ने नौका चलाकर और समाचारपत्र बांटकर जैसे-तैसे अपनी शिक्षा पूरी की थी।
देहरादून आते समय केवल अपनी ही नहीं, तो अपने माता-पिता और बड़े भाई की आकांक्षाओं का मानसिक बोझ भी उस पर था, जिन्होंने अपनी अनेक आवश्यकताएं ताक पर रखकर उसे पढ़ाया था; पर उसके सपने धूल में मिल गये। निराशा के इन क्षणों में वह जा पहुंचा ऋषिकेश, जहां जगतकल्याणी मां गंगा की पवित्रता, पूज्य स्वामी शिवानन्द के सान्निध्य और श्रीमद्भगवद्गीता के सन्देश ने उसेे नये सिरे से कर्मपथ पर अग्रसर किया। उस समय किसे मालूम था कि नियति ने उसके साथ मजाक नहीं किया, अपितु उसके भाग्योदय के द्वार स्वयं अपने हाथों से खोल दिये हैं।
15 अक्तूबर, 1931 को धनुष्कोटि (रामेश्वरम्, तमिलनाडु) मंे जन्मा अबुल पाकिर जैनुल आबदीन अब्दुल कलाम नामक वह युवक भविष्य में ‘मिसाइल मैन’ के नाम से प्रख्यात हुआ। उनकी उपलब्धियों को देखकर अनेक विकसित और सम्पन्न देशों ने उन्हें मनचाहे वेतन पर अपने यहां बुलाना चाहा; पर उन्होंने देश में रहकर ही काम करने का व्रत लिया था। चार दशक तक उन्होंने ‘रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन’ तथा ‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ में विभिन्न पदों पर काम किया। यही डा. कलाम 2002 ई. में भारत के 11वें राष्ट्रपति बने और अपनी सादगी के कारण ‘जनता के राष्ट्रपति’ कहलाये।
डा. कलाम की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वे राष्ट्रपति बनने के बाद भी आडम्बरों से दूर रहे। वे जहां भी जातेे, वहां छात्रों से अवश्य मिलते थे। वे उन्हें कुछ निरक्षरों को पढ़ाने तथा देशभक्त नागरिक बनने की शपथ दिलाते थे। उनकी आंखों में अपने घर, परिवार, जाति या प्रान्त की नहीं, अपितु सम्पूर्ण देश की उन्नति का सपना पलता था। वे 2020 ई. तक भारत को दुनिया के अग्रणी देशों की सूची में स्थान दिलाना चाहते थे। साहसी डा. कलाम ने युद्धक विमानों से लेकर खतरनाक पनडुब्बी तक में सैनिकों के साथ यात्रा की।
मुसलमान होते हुए भी वे सब धर्मों का आदर करते थे। वे अमृतसर में स्वर्ण मन्दिर गये, तो श्रवण बेलगोला में भगवान बाहुबलि के महामस्तकाभिषेक समारोह में भी शामिल हुए। उनकी आस्था कुरान के साथ गीता पर भी थी तथा वे प्रतिदिन उसका पाठ करते थे। उनके राष्ट्रपति काल में जब भी उनके परिजन दिल्ली आये, तब उनके भोजन, आवास, भ्रमण आदि का व्यय उन्होंने अपनी जेब से किया। उन्होंने राष्ट्रपति भवन में होने वाली ‘इफ्तार पार्टी’ को बंदकर उस पैसे से भोजन सामग्री अनाथालयों में भिजवाई। उनके नेतृत्व में भारत ने पृथ्वी, अग्नि, आकाश जैसे प्रक्षेपास्त्रों का सफल परीक्षण किया, जिससे सेना की मारक क्षमता बढ़ी। भारत को परमाणु शक्ति सम्पन्न देश बनाने का श्रेय भी डा. कलाम को ही है। शासन ने उन्हें ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया।
आजीवन अविवाहित रहे डा. कलाम अत्यधिक परिश्रमी और अनुशासन प्रेमी थे। वे कुछ वर्ष रक्षामंत्री के सुरक्षा सलाहकार भी रहे। राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद भी वे विश्वविद्यालयों में जाकर छात्रों से बात करते रहते थे। वे चाहते थे कि लोग उन्हें एक अध्यापक के रूप में याद रखें। 27 जुलाई, 2015 को शिलांग में छात्रों के बीच बोलते समय अचानक हुए भीषण हृदयाघात से उनका निधन हुआ। 30 जुलाई को उन्हें पूरे राजकीय सम्मान के साथ रामेश्वर में ही दफनाया गया। उन्नत भारत के स्वप्नद्रष्टा, ऋषि वैज्ञानिक डा. कलाम द्वारा लिखित पुस्तकें युवकों को सदा प्रेरणा देती रहेंगी।
.................................................
15 अक्तूबर/बलिदान-दिवस
मंगल गाडिया और सैयद हुसैन का बलिदान
1857 के स्वातंत्र्य समर को भले ही अंग्रेज या उनके चाटुकार इतिहासकार कुछ भी नाम दें; पर इसमें संदेह नहीं कि वह सम्पूर्ण देश को आप्लावित करने वाला स्वयंस्फूर्त समर था। मुम्बई में भी उस समय अनेक क्रान्तिकारी हुए, जिनमें से मंगल गाडिया एवं सैयद हुसैन को 15 अक्तूबर, 1857 को तोप से उड़ाकर अंग्रेजों ने अपने मुँह पर कालिख पोती थी।
नाना ने हजारों लोगों से इस विषय में हस्ताक्षर संग्रह किये और गर्वनर एलफिंस्टन को दिये; पर उसकी योजना से तो सब हो ही रहा था। अतः उसने ज्ञापन लेकर रख लिया। 10 मई को जब मेरठ में भारतीय वीर सैनिकों ने क्रान्ति का सूत्रपात किया, तो एलफिंस्टन ने भावी को भाँपते हुए छावनी से 400 सैनिकों को मुम्बई बुला लिया। उसे सन्देह था कि नाना भी क्रान्तिकारियों से मिला हुआ है, अतः उसने मुम्बई के पुलिस कमिश्नर चार्ल्स फोरजेट को नाना की गतिविधियों पर नजर रखने को कहा।
इधर नाना साहब पेशवा भी देश से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के प्रयास में लगे थे। इसके लिए 31 मई की तिथि निर्धारित हुई थी; पर उससे पूर्व क्रान्ति का वातावरण बनाने के लिए साधु, सन्त, ज्योतिषी और कीर्तनकार के रूप में देश भर में उनके लोग घूम रहे थे। ऐसे जो लोग मुम्बई आते थे, वे नाना की ताड़देव स्थित धर्मशाला में ही ठहरते थे। इसी प्रकार मुम्बई में नाखुदा मोहम्मद रोगे नामक एक देशभक्त मुसलमान था। वह ऐसे लोगों को सहर्ष अपने घर में टिका लेता था।
पर देशप्रेमियों के साथ ही देशद्रोहियों की भी भारत में कभी कमी नहीं रही। इन सब गतिविधियों की सूचना एलफिंस्टन को भी मिल रही थीं। एक बार मुखबिर की सूचना पर उसने इन दोनों स्थानों पर छापा मारा और अनेक क्रान्तिवीरों को पकड़ लिया। मुकदमा चलाकर उनमें से दो को मृत्युदंड और छह को आजीवन कारावास की सजा दी गयी।
एलफिंस्टन ने इन दोनों को सार्वजनिक रूप से मृत्युदंड देने का निर्णय लिया, जिससे पूरे नगर में भय एवं आतंक का वातावरण बने। इसके लिए एस्तालेनेड कैम्प (वर्तमान आजाद मैदान) में दो तोपें लगायी गयीं। शाम को 4.30 बजे अंग्रेज अधिकारी कैप्टेन माइल्स के निर्देश पर तोपें दाग दी गयीं। अगले ही क्षण भारत माँ के वीर सपूत मंगल गाडिया और सैयद हुसैन चिथड़ेे होकर भारत माँ की गोदी में सदा के लिए सो गये।
...................................
15 अक्तूबर/पुण्य-तिथि
अवतारी सन्त शिरडी वाले साईंबाबा
भारत अवतारों की भूमि है। यहाँ हर युग और काल में देश के हर भाग में समय-समय पर ऐसी अनेक विभूतियों का पदार्पण हुआ, जिन्होंने अपनी लीलाओं से जनसामान्य को लाभ पहुँचाया और फिर स्वयं को समेट लिया। ऐसे ही एक महान सन्त थे शिरडी वाले साईं बाबा।
साईं बाबा का जन्म कब और कहाँ हुआ, इसका पता किसी को नहीं है। 1854 ई. में पहली बार बाबा को जब शिरडी में देखा गया, तो उनकी अवस्था लगभग 16 वर्ष की थी। वे एक नीम के वृक्ष के नीचे समाधि में लीन थे। उन्हें सर्दी गर्मी की जरा भी चिन्ता नहीं थी। वे दिन में साधना में लीन रहते और रात में निर्भय होकर वनों में घूमते थे। वे किसी के घर नहीं जाते थे। युवक होने पर भी उनका आचरण एक ज्ञानी जैसा था।
कुछ समय शिरडी में रहकर वे कहीं चले गये। इसके कई वर्ष बाद वे चाँद पाटिल की बारात के साथ फिर आये। खण्डोबा मन्दिर के पुजारी ने तब उनका स्वागत ‘आओ साईं’ कहकर किया। तब से उनका यही नाम प्रसिद्ध हो गया। अब वे स्थायी रूप से शिरडी में रहने लगे। उन्होंने एक पुरानी मस्जिद में अपना ठिकाना बनाया और उसे ‘द्वारकामाई’ नाम दिया। वे गाँव में नित्य भिक्षा लेने जाते और बहुत सादगी से रहते थे।
उनके सद्व्यवहार से उनकी ख्याति फैलने लगी। इससे घबरा कर कुछ लोगों ने उनके विरुद्ध अनेक षड्यन्त्र किये; पर बाबा को कुछ नहीं हुआ। वे सबमें समान रूप से करुणा और प्रेम बाँटते रहे। द्वारकामाई के द्वार सबके लिए खुले रहते थे। साईं बाबा के हृदय की तरह उसमें भी हिन्दू और मुस्लिम, गरीब और अमीर, साधु और असाधु सबके लिए स्थान था।
बाबा द्वारकामाई को नित्य सायंकाल दीपों से सजाते थे। इसके लिए वे गाँव के दुकानदारों से तेल लेते थे। एक बार दुकानदारों ने निश्चय किया कि अब मुफ्त में तेल नहीं देंगे। इस पर साईं बाबा ने सब दीपों में पानी भर दिया। उनके प्रताप से दीपक रात भर जलते रहे।
एक बार शिरडी में हैजे का प्रकोप हुआ। साईं बाबा चक्की पर गेहूँ पीसने लगे। यह देखकर चार महिलाओं ने बाबा से लेकर स्वयं पीसना शुरू किया। जब पर्याप्त आटा हो गया, तो बाबा ने उसे गाँव की सीमाओं पर छिड़कवा दिया। हैजा गायब हो गया। सब ओर साईं बाबा की जयकार गूँज उठी।
साईं बाबा के पास एक ईंट थी, वे उस पर हाथ टिकाकर बैठते थे तथा रात को उसे सिर के नीचे रखकर सो जाते थे। 1918 के सितम्बर माह में सफाई करते समय एक भक्त के हाथ से गिरकर वह टूट गयी। बाबा जब भिक्षा से लौटे, तो बोले, यह ईंट मेरी जीवनसंगिनी थी। अब यह टूट गयी है, तो मेरा समय भी पूरा हो गया है। यह उनकी महासमाधि का स्पष्ट संकेत था। उन्होंने उस विजयादशमी पर सीमोल्लंघन करने की घोषणा की।
नागपुर के एक भक्त बाबू साहिब बूटी ने बाबा के लिए शिरडी में एक मन्दिर और भवन बनाया। विजयादशमी (15 अक्तूबर 1918) को बाबा ने अपनी एक भक्त श्रीमती लक्ष्मीबाई शिन्दे को आशीर्वाद स्वरूप नौ सिक्के दिये और कहा, अब मेरा मन द्वारकामाई में नहीं लगता। अब में बूटी के बाड़े में जाना चाहता हूँ। यह कहकर दोपहर ढाई बजे बाबा ने शरीर छोड़ दिया। बूटी साहिब द्वारा निर्मित बाड़े में ही उन्हें समाधि दी गयी।
कलियुग के अवतारी सन्त साईं बाबा के चमत्कार उनके देहावसान के बाद भी जारी हैं, जिसका प्रमाण उनके भक्तों को प्रायः मिलता रहता है।
........................................
15 अक्तूबर/जन्म-दिवस
प्रेरक व्यक्तित्व महात्मा आनन्द स्वामी
आर्य समाज के वरिष्ठ नेता महात्मा आनन्द स्वामी का जन्म 15 अक्तूबर, 1883 को हुआ था। उनके पिता मुंशी गणेश दास हिन्दू समाज की कुरीतियों से दुखी होकर ईसाई बनने जा रहे थे; पर तभी उनकी भेंट महर्षि दयानन्द सरस्वती से हो गयी। उन्होंने मुंशी जी को बताया कि ये कुरीतियाँ सनातन हिन्दू धर्म का अंग नहीं है। देश, काल परिस्थिति के कारण कुछ लोग या समूह अज्ञानवश इन्हें अपनाते हैं। अतः ईसाई बनने के बदले उन्हें हिन्दू समाज की कुरीतियों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए।
मुंशी जी की आँखें खुल गयीं। अब वे महर्षि दयानन्द सरस्वती और आर्यसमाज के भक्त बन गये। इनके घर में एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम खुशहाल चन्द रखा गया; पर जैसे-जैसे बालक बड़ा हुआ, तो सबके ध्यान में आया कि यह बालक मन्दबुद्धि है। यह देखकर स्वामी नित्यानन्द ने बालक को गायत्री की साधना करने को कहा। इससे खुशहाल चन्द की बुद्धि जाग्रत हो गयी और उसका जीवन बदल गया।
कुछ समय बाद खुशहाल का विवाह और एक सन्तान हुई। अब मुंशी जी उसे व्यापार में लगाना चाहते थे; पर उसका मन तो अब पढ़ने-लिखने में ही अधिक लगता था। एक बार आर्य समाज जलालपुर के वार्षिकोत्सव में महात्मा हंसराज जी आये। खुशहाल ने उनके भाषण की रिपोर्ट बनाकर उन्हें दिखाई, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने खुशहाल को लाहौर आने को कहा।
लाहौर में हंसराज जी ने खुशहाल को ‘आर्य गजट’ के सम्पादक श्री रामप्रसाद जी के पास लेखन कला के अभ्यास को भेजा; पर रामप्रसाद जी ने उन्हें लेखा विभाग में लगा दिया। उन्हें 30 रु. वेतन मिलता था, जिसमें से काफी धन कार्यालय के हिसाब की पूर्ति में लग जाता था। शेष से उनका पेट ही नहीं भरता था। जब हंसराज जी को यह पता लगा, तो उन्होंने खुशहाल को आर्य गजट का सह सम्पादक बनवा दिया। अब तो वे दिन-रात काम में लगे रहते। इससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। यह देखकर उनकी पत्नी मेलादेवी भी लाहौर आ गयी। अब खर्च और बढ़ गया, जबकि आय सीमित थी।
एक बार मेलादेवी ने अपने मायके से 15 रु. मँगा लिये। जब खुशहाल जी को यह पता लगा, तो उन्होंने कहा कि पैसे तो मैं भी मँगा सकता था; पर इससे मेरी तपस्या भंग हो जाती। इसके बाद मेलादेवी ने घोर कष्टों में भी ससुराल या मायके से पैसे मँगाने की बात नहीं की। जब ‘दैनिक मिलाप’ का प्रकाशन शुरू हुआ, तो खुशहाल चन्द को उसके काम में लगा दिया गया।
एक बार घी समाप्त होने पर मेलादेवी ने अपने पुत्र को उनके पास भेजा। तभी खुशहाल जी को मिलाप के लिए अनेक धनादेश मिले थे; पर उन्होेंने उसे घी के लिए खर्च करने से मना कर दिया। संन्यास के बाद उनका नाम आनन्द स्वामी हो गया। दिल्ली आने पर वे अपने पुत्र के घर न जाकर आर्य समाज भवन में ही ठहरते थे। एक बार बेटा उन्हें लेने आया, तो वे किसी के घर से माँगी हुई रोटी खा रहे हैं। बेटे के नाराज होने पर उन्होंने स्पष्ट कहा कि संन्यासी को भिक्षावृत्ति से ही पेट भरना चाहिए।
विरक्त सन्त महात्मा आनन्द स्वामी का जीवन उस प्रकाश स्तम्भ की भाँति है, जिसके प्रकाश में हम कभी भी अपने जीवन का मार्ग निर्धारित कर सकते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें