विरक्त सन्त श्री दिगम्बर स्वामी
अनादि काल से भारत भूमि पर हजारों सन्त महात्माओं ने जन्म लेकर अपने उपदेशों से जनता जर्नादन का कल्याण किया है। इन्हीं ऋषि-मुनियों की परम्परा में थे श्री दिगम्बर स्वामी, जिनके सत्संग का लाभ उठाकर हजारों भक्तों ने अपना जीवन सार्थक किया।
स्वामी जी का जन्म ग्राम सिरवइया (जिला उन्नाव, उ.प्र.) में आठ नवम्बर, 1903 को श्री नन्दकिशोर मिश्र तथा श्रीमती सुखदेई के घर में हुआ। इनका नाम गंगाप्रसाद रखा गया। जन्म से ही इनके बायें पैर में छह उँगलियाँ थीं। लोगों ने कहा कि यह बड़ा होकर घुमक्कड़ साधु बनेगा। इस भय से माता पिता ने 11 वर्ष की छोटी अवस्था में ही इनका विवाह कर दिया।
परन्तु गंगाप्रसाद तो बचपन से ही वैराग्य वृत्ति से परिपूरित थे। उनकी घर परिवार में कोई रुचि नहीं थी। अतः उन्होंने गृहस्थ धर्म को त्याग दिया और वाराणसी आकर कठोर तप किया। लम्बी साधना के बाद अपने गुरुजी की आज्ञा पाकर ये भ्रमण पर निकले और अन्ततः उन्नाव जिले के सुम्हारी गाँव में आकर पुनः योग साधना में लग गये। यहाँ रहकर उन्होंने गायत्री के तीन पुरश्चरण यज्ञ किये और फिर संन्यास आश्रम स्वीकार कर लिया।
हिन्दू धर्म ग्रन्थों का गहन अध्ययन होने के कारण इन्होंने अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ में विजय पायी। कुछ समय बाद जब विरक्ति भाव में और वृद्धि हुई, तो इन्होंने दण्ड, कमण्डल तथा लंगोट भी त्याग दिया और दिगम्बर अवस्था में रहने लगे। इसी से भक्त इन्हें दिगम्बर स्वामी कहने लगे और आगे चलकर इनका यही नाम प्रसिद्ध हो गया।
इसके बाद इनकी साधना और कठोर होने लगी। घोर सर्दी में भी ये भूमि पर पुआल बिछाकर तथा चटाई ओढ़कर सो जाते थे। भयंकर शीत में किसी ने इन्हें आग तापते नहीं देखा। इसी प्रकार ये भीषण वर्षा, गर्मी या लू की भी चिन्ता नहीं करते थे।
जून 1956 में स्वामी जी केदारनाथ गये। वहाँ तपस्या से इन्हें प्रभु का साक्षात्कार हुआ और उनसे इसी तीर्थक्षेत्र में निर्वाण का आश्वासन मिला। इसके बाद ये अपने आश्रम लौट आये। स्वामी जी ने अनेक बार पूरे भारत के महत्वपूर्ण तीर्थों की पदयात्रा की। प्रायः इनके साथ इनके भक्त भी चल देते थे। इन्होंने धन, सम्पत्ति, वस्त्र, अन्न आदि किसी वस्तु का कभी संग्रह नहीं किया। अपरिग्रह एवं विरक्ति को इन्होंने अपनी साधना का अंग बना लिया।
कभी-कभी ये लम्बा मौन धारण कर लेते थे। कई वर्ष तक यह क्रम चला कि एक बार हाथ में जितना अन्न आ जाये, उसे ही खड़े-खड़े खाकर ये तृप्त हो जाते थे। हिमालय से इन्हें अतिशय प्रेम था। बदरीनाथ और केदारनाथ के दर्शन करने ये प्रतिवर्ष ही जाते थे। 23 अक्तूबर, 1985 को श्री केदारनाथ धाम में बैठे-बैठे ही प्राणायाम के द्वारा श्वास रोककर इन्होंने शरीर त्याग दिया। केदारनाथ मन्दिर के पीछे आदि शंकराचार्य की समाधि से कुछ दूर मन्दाकिनी के तट पर इन्हें समाधि दी गयी।
कई वर्ष बाद लोगों ने देखा कि इनकी समाधि नदी में बह गयी है; पर इनका शरीर पद्मासन की मुद्रा में वहीं विराजमान है। शरीर अच्छी अवस्था में था तथा नमक डालने पर भी गला नहीं था। अतः 1993 में पुनः बड़ी-बड़ी शिलाओं से इनकी समाधि बनायी गयी तथा उसके ऊपर इनकी मूर्ति स्थापित कर वहाँ छोटी सी मठिया बना दी गयी। इनके भक्त आज भी इनके आश्रम तथा समाधि स्थल पर आकर धन्यता का अनुभव करते हैं।
.............................................
9 नवम्बर/जन्म-दिवस
राजनीतिक कीचड़ में कमल जगदीश प्रसाद माथुर
राजनीति एक ऐसा दलदली क्षेत्र है, जहाँ जाकर आदर्षवादी कार्यकर्ताओं के भी डिग जाने का खतरा रहता है; पर श्री जगदीश प्रसाद माथुर ऐसे आदर्ष कार्यकर्ता थे, जिन्होंने उस कीचड़ में भी कमलवत जीवन बिता कर दिखाया।
जगदीश प्रसाद जी का जन्म शेरकोट (जिला बिजनौर, उ.प्र.) में नौ नवम्बर, 1921 को हुआ था। छात्र जीवन में जगदीश जी ने मुस्लिम नेताओं की देष विरोधी और विभाजन समर्थक गतिविधियों को निकट से देखा। उनका मन इससे बहुत दुखी होता था।
1942 में उन्होंने भारत छोड़ो आन्दोलन में भी भाग लिया; पर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के विचार और व्यवहार का अन्तर देखकर उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया। ऐसे में ही उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ, जो हिन्दू युवकों को संगठित कर रहा था। एक बार का सम्पर्क जीवन भर का सम्बल बन गया और फिर तो जगदीश प्रसाद जी संघ के ही होकर रह गये।
अपनी षिक्षा पूर्ण कर 1945 में जगदीष जी ने अपना जीवन संघ कार्य के लिए समर्पित कर दिया। प्रारम्भ में उन्हें मुरादाबाद जिले में भेजा गया। फिर वे बदायूँ के जिला प्रचारक रहे। 1952 में जब जनसंघ की स्थापना हुई, तो उनकी संगठन एवं व्यवस्था कुषलता देखकर उन्हें दीनदयाल जी के साथ वहाँ भेज दिया गया। इसके बाद जब तक दीनदयाल जी जीवित रहे, उनकी सारी व्यवस्था जगदीष जी ही सँभालते रहे।
जगदीश जी बहुत अध्ययनषील और तार्किक स्वभाव के व्यक्ति थे। उनकी प्रत्येक बात तथ्यात्मक होती थी। उनके परिवार में उर्दू के अध्ययन का माहौल था, अतः वे उर्दू के अच्छे जानकार थे। जनसंघ में आने के बाद उन्होंने अपनी अंग्रेजी को भी परिमार्जित किया; क्योंकि उन्हें देष विदेष के अनेक विषयों का अध्ययन करना पड़ता था। डा. मुखर्जी ने जब कष्मीर आन्दोलन छेड़ा, तो जुझारू स्वभाव के जगदीश जी उनके साथ रहे।
समय-समय पर जगदीश प्रसाद जी पर अनेक राजनीतिक दायित्व रहे। वे जनसंघ के राष्ट्रीय सचिव भी रहे। 1977 में जब जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हुआ, तब जगदीश जी को उसकी राष्ट्रीय परिषद् का स्थायी आमन्त्रित सदस्य बनाया गया; पर जनता पार्टी का बेमेल खोमचा जल्दी ही बिखर गया। 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के बाद वे उसके प्रवक्ता, राष्ट्रीय सचिव और उपाध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे।
जगदीश जी की कोई निजी महत्वाकांक्षा नहीं थी। फिर भी उनकी प्रभावी वक्तष्त्व शैली एवं विषयों के तार्किक विष्लेषण की क्षमता को देखते हुए उन्हें दो बार राज्यसभा में भेजा गया। इस दौरान दल के मुख्य सचेतक और सदन में दल के उपनेता के रूप में उनका कार्य अविस्मरणीय है। जब उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा, तो उन्होंने संगठन के महत्त्वपूर्ण कामों से मुक्ति ले ली। इसके बाद भी वे दिल्ली भाजपा कार्यालय पर रहते हुए अपने अनुभवसिद्ध परामर्ष के लिए सदा उपलब्ध रहते थे।
ध्येयनिष्ठ व मधुर मुस्कान के धनी जगदीश प्रसाद माथुर का 86 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 20 अक्तूबर, 2007 को दिल्ली में ही देहान्त हुआ। जनसंघ और भाजपा के सन्देष को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जिन लोगों ने अपना जीवन होम किया, उनमें जगदीष जी का नाम सदा याद किया जाता रहेगा।
.......................................
9 नवम्बर/जन्म-दिवस
भारतीयता के मनीषी राजदूत डा. लक्ष्मीमल सिंघवी
ईश्वर सबको कुछ न कुछ प्रतिभा देकर भेजता है; पर कुछ लोग उसे अपने परिश्रम से और अधिक तराश लेते हैं। डा. लक्ष्मीमल सिंघवी ऐसे ही प्रतिभावान पुरुष थे, जिन्होंने लेखन, सम्पादन, राजनेता, सांसद, अधिवक्ता से लेकर समाजसेवा आदि सभी क्षेत्रों में अपनी योग्यता का लोहा मनवाया।
डा. सिंघवी का जन्म 9 नवम्बर, 1931 (दीपावली) को हुआ था। उन्होंने भारत में राजस्थान, प्रयाग, कोलकाता, दिल्ली, उस्मानिया, आन्ध्र, तमिलनाडु और जबलपुर विश्वविद्यालय सहित अमरीका के हावर्ड, कारनेल, ब्रेकले तथा इंग्लैण्ड के कैम्ब्रिज, आक्सफोर्ड, एडिनबर्ग, वेस्ट मिन्स्टर आदि विश्वविद्यालयों में शिक्षा पायी। व्यवसाय के रूप में वकालत को अपनाने के बाद वे भारत के सर्वोच्च न्यायालय की अधिवक्ता परिषद के कई बार अध्यक्ष रहे।
डा. सिंघवी ने सर्वोच्च न्यायालय बार एसोसिएशन न्यास की स्थापना भी की। वे भारत ही नहीं तो वैश्विक स्तर पर विधि एवं मानवाधिकार से जुड़े अनेक अध्ययन एवं शोध संस्थानों के संस्थापक रहे। विधि क्षेत्र के अनेक अध्ययन दलों का उन्होंने नेतृत्व किया। उनके सुझाए गये अनेक उपाय अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किये गये। भारत में लोकपाल एवं लोकायुक्त शब्दों का प्रचलन डा0 सिंघवी ने ही प्रारम्भ और स्वीकृत कराया।
भारत विकास परिषद, रोटरी क्लब आदि सैकड़ों समाजसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध डा. सिंघवी राजनीति में भी सक्रिय थे। उन्होंने 1962 से 1967 तक लोकसभा में निर्दलीय सांसद के रूप में जोधपुर का प्रतिनिधित्व किया। इसके बाद वे 1998 से 2004 तक राज्यसभा के सदस्य रहे।
इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर के आजीवन न्यासी एवं संस्थापक अध्यक्ष डा. सिंघवी 2003 तथा 2004 में आयोजित प्रथम एवं द्वितीय ‘भारतीय प्रवासी दिवस’ आयोजनों के भी अध्यक्ष रहे। 9 जनवरी को प्रतिवर्ष मनाये जाने वाले इस दिवस को वे भारत और विदेशों में रह रहे भारतीयों के बीच सेतु मानते थे।
ब्रिटेन में उच्चायुक्त के नाते उनका सात वर्ष का कार्यकाल सदा याद किया जाएगा। उनके प्रयास से अनेक भारतीय धरोहरें वापस भारत लायी जा सकीं। वे प्रिन्स चार्ल्स को पूजा के लिए हिन्दू मन्दिर भी ले गये। उन्हें ब्रिटिश संसद भवन वेस्टमिन्स्टर में एक दिन के लिए ब्रिटेन के झण्डे के साथ भारत के तिरंगे झण्डे को फहराने में सफलता मिली।
उन्होंने वहाँ श्री अटल बिहारी वाजपेयी का एकल कविता पाठ भी धूमधाम से कराया। ब्रिटिश शासन ने उन्हें अपने देश में विधि एवं न्याय का प्रतिष्ठित सम्मान ‘ऑनरेरी बेंचर एण्ड मास्टर ऑफ दि मिडिल टेंपल’ प्रदान किया।
गोहत्या रुकवाने के लिए उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में बहस की। इससे गोवंश में गाय के साथ ही बछड़े, बछड़ी, बैल आदि को भी शामिल किया गया। साहित्य के क्षेत्र में भी उनका योगदान अप्रतिम था। देश-विदेश के सैकड़ों साहित्यिक आयोजनों एवं न्यासों से वे जुड़े थे। इनके द्वारा उन्होंने जहाँ एक ओर कालजयी लेखक व कवियों का साहित्य प्रकाशित कराया, वहीं नये रचनाकारों की कृतियों को भी प्रकाश में लाये।
अन्तिम दिनों में वे ‘साहित्य अमृत’ मासिक पत्रिका के सम्पादक थे। 2007 में न्यूयार्क में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन की आयोजन समिति में भी वे थे; पर स्वास्थ्य खराबी के कारण वहाँ जा नहीं सके। इस पर उन्होंने अपना हस्तलिखित वक्तव्य वहाँ भेजा। भारत और भारतीयता के इस मनीषी राजदूत का देहान्त छह अक्तूबर, 2007 को हुआ।
.................................
9 नवम्बर/जन्म-दिवस
हिन्द केसरी मास्टर चंदगीराम
भारतीय कुश्ती को विश्व भर में सम्मान दिलाने वाले मास्टर चंदगीराम का जन्म 9 नवम्बर, 1937 को ग्राम सिसई, जिला हिसार, हरियाणा में हुआ था। मैट्रिक और फिर उसके बाद कला एवं शिल्प में डिप्लोमा लेने के बाद वे भारतीय थलसेना की जाट रेजिमेण्ट में एक सिपाही के रूप में भर्ती हो गये। कुछ समय वहां काम करने के बाद वे एक विद्यालय में कला के अध्यापक बन गये। तब से ही उनके नाम के साथ मास्टर लिखा जाने लगा।
कुश्ती के प्रति चंदगीराम की रुचि बचपन से ही थी। हरियाणा के गांवो में सुबह और शाम को अखाड़ों में जाकर व्यायाम करने और कुश्ती लड़ने की परम्परा रही है। चंदगीराम को प्रसिद्धि तब मिली, जब 1961 में अजमेर और 1962 में जालंधर की कुश्ती प्रतियोगिता में वे राष्ट्रीय चैम्पियन बने। इसके बाद तो वे हर प्रतियोगिता को जीत कर ही वापस आये। कलाई पकड़ उनका प्रिय दांव था। इसमें प्रतिद्वन्द्वी की कलाई पकड़कर उसे चित किया जाता है।
चंदगीराम ने हिन्द केसरी, भारत केसरी, भारत भीम, महाभारत केसरी, रुस्तम ए हिन्द जैसे कुश्ती के सभी पुरस्कार अपनी झोली में डाले। 1970 में उनका नाम अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ, जब वे बैंकाक एशियाई खेल में भाग लेने गये। वहां 100 किलो वर्ग में उनका सामना तत्कालीन विश्व चैम्पियन ईरान के अमवानी अबुइफाजी से हुआ।
अमवानी डीलडौल में चंदगीराम से सवाया था; पर चंदगीराम ने अपने प्रिय दांव का प्रयोग कर उसकी कलाई पकड़ ली। अमवानी ने बहुत प्रयास किया, पर चंदगीराम ने कलाई नहीं छोड़ी। इससे वह हतोत्साहित हो गया और चंदगीराम ने मौका पाकर उसे धरती सुंघा दी। इस प्रकार उन्होंने स्वर्ण पदक जीत कर भारत का मस्तक ऊंचा किया।
इसे बाद चंदगीराम 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक में भी गये; पर वहां उन्हें ऐसी सफलता नहीं मिली। भारत सरकार ने 1969 में उन्हें ‘अर्जुन पुरस्कार’ और 1971 में ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया। इसके बाद चंदगीराम ने कुश्ती लड़ना तो छोड़ दिया; पर दिल्ली में यमुना तट पर अखाड़ा स्थापित कर वे नयी पीढ़ी को को कुश्ती के लिए तैयार करने लगे। कुछ ही समय में यह अखाड़ा प्रसिद्ध हो गया। उनके अनेक शिष्यों ने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में पदक जीतकर अपने गुरू के सम्मान में वृद्धि की।
अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में लड़कियों की कुश्ती प्रतियोगिता भी होती थी; पर भारत का प्रतिनिधित्व वहां नहीं होता था। चंदगीराम ने इस दिशा में भी कुछ करने की ठानी; पर उनके इस विचार को अधिक समर्थन नहीं मिला। इस पर उन्होंने अपनी पुत्री सोनिका कालीरमन को ही कुश्ती सिखाकर एक श्रेष्ठ पहलवान बना दिया। उसने भी दोहा के एशियाई खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया। धीरे-धीरे अन्य लड़कियां भी कुश्ती में आगे आने लगीं। उन्होंने अपने पुत्र जगदीश कालीरमन को भी कुश्ती का अच्छा खिलाड़ी बनाया।
हरियाणा शासन ने कुश्ती एवं अन्य भारतीय खेलों को प्रोत्साहन देने के लिए चंदगीराम को खेल विभाग का सहसचिव नियुक्त किया। आगे चलकर उन्होंने ‘वीर घटोत्कच’ और ‘टार्जन’ नामक फिल्मों में भी काम किया। उन्होंने ‘भारतीय कुश्ती के दांवपेंच’ नामक एक पुस्तक भी लिखी।
सिर पर सदा हरियाणवी पगड़ी पहनने वाले चंदगीराम जीवन भर कुश्ती को समर्पित रहे। 1970 से पूर्व तक भारतीय कुश्ती की विश्व में कोई पहचान नहीं थी; पर चंदगीराम ने इस कमी को पूरा किया। 29 जून, 2010 को अपने अखाड़े में ही हृदयगति रुकने से इस महान खिलाड़ी का देहांत हुआ।
.................................
9 नवम्बर/प्रेरक-प्रसंग
राम मंदिर के सिंहद्वार
का शिलान्यास
अब अयोध्या में श्रीराम
जन्मभूमि पर भव्य मंदिर बन चुका है; पर इसके मार्ग में अनेक
बाधाएं आयीं। कुछ बाधाएं मुस्लिम पक्ष ने प्रस्तुत कीं, तो कुछ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की सरकारों ने; पर रामजी की कृपा और रामभक्तों के उत्साह के आगे किसी की नहीं चली और 22 जनवरी,
2024 को भगवान श्रीराम अपने जन्मस्थान पर पूरी
भव्यता और दिव्यता से विराजित हो गये।
इस सारे अभियान में 9 नवम्बर,
1989 एक ऐतिहासिक दिवस है, जिस दिन पहली बार मंदिर के लिए शिलान्यास हुआ था। पूरे देश से रामशिलाएं पूजित
होकर अयोध्या आ रही थीं। संतों और राम मंदिर का आंदोलन चला रहे विश्व हिन्दू परिषद
के कार्यकर्ताओं ने देवोत्थान एकादशी का दिन शिलान्यास के लिए घोषित कर दिया। राम
मंदिर के लिए जो नक्शा बना था, उसमें एक स्थान को
निर्धारित कर दो नवंबर को वहां झंडा लगा दिया गया। इससे सब रामभक्तों को पता लग
गया कि यहां शिलान्यास होगा।
पर दिल्ली और लखनऊ में
बैठी कांग्रेस सरकार यह नहीं होने देना चाहती थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव
गांधी, गृहमंत्री बूटासिंह और उ.प्र. के मुख्यमंत्री नारायण दत्त
तिवारी ने छह नवंबर को देवरहा बाबा से भेंट की और उनसे आग्रह किया कि वे यह स्थान
बदलवा दें; पर बाबा ने इसे ठुकरा दिया। अब सरकार ने न्यायालय का आश्रय
लिया। सात नवंबर को उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने कहा कि जहां झंडा लगाया गया है, वह स्थान विवादित है, इसलिए वहां शिलान्यास
नहीं हो सकता।
इससे अयोध्या से लखनऊ और
दिल्ली तक तनाव बढ़ गया। चार स्तरीय सुरक्षा चक्र बनाकर शिलान्यास स्थल को सुरक्षा
बलों ने घेर लिया। इधर अयोध्या में उपस्थित साधु संत और युवा बजरंगी भी हर सीमा
पार करने को तैयार थे। संतों ने वहां कीर्तन शुरू कर दिया। पुलिस और सेना के
जवानों के बीच यह हलचल शुरू हो गयी कि क्या हमें रामभक्तों पर गोली चलानी पड़ेगी।
वे इसके लिए तैयार नहीं थे। इसकी जानकारी शासन को मिली, तो उनके हाथ पांव फूल गये। वे कोई मध्य मार्ग निकालने का उपाय सोचने लगे।
गोरक्ष पीठाधीश्वर महंत
अवेद्यनाथ जी ‘श्रीराम जन्मभूमि मुक्ति समिति’ के अध्यक्ष थे। आठ नवंबर को सरकार ने सरकारी विमान भेजकर उन्हें गोरखपुर से
लखनऊ बुलाया। उनसे कहा गया कि झंडे वाला स्थान विवादित है, अतः वहां शिलान्यास नहीं हो सकता। महंत जी ने कहा कि जहां झंडा लगाया गया है, वह प्रस्तावित मंदिर के सिंहद्वार का मध्यबिन्दु है। अतः शिलान्यास वहीं होगा।
यदि सरकार रोकेगी,
तो हम सत्याग्रह करेंगे।
मुख्यमंत्री ने दिल्ली
फोन कर गृहमंत्री बूटासिंह से तुरंत आने को कहा। वे भी थोड़ी देर में आ गये। उनका
कहना था कि कुछ दिनों बाद चुनाव हैं। इससे पूरे देश में तनाव उत्पन्न हो जाएगा।
महंत जी ने कहा कि हमारे कार्यक्रम चुनाव के आधार पर नहीं होते। नौ नवंबर को
देवोत्थान एकादशी है। इसलिए यह दिन तय हुआ है। इसलिए शिलान्यास होगा और उसी स्थान
पर होगा।
अब बूटासिंह भी लाचार हो
गये। अतः पीछे हटने का कोई बहाना ढूंढा जाने लगा। उनके साथ दिल्ली और लखनऊ के सब
बड़े अधिकारी बैठे। काफी देर सिर खपाने के बाद उन्होंने महंत जी को कहा कि हमारी
नापजोख में कुछ गड़बड़ थी। जो स्थान आपने शिलान्यास के लिए तय किया है, वह विवादित नहीं है। अतः आप शिलान्यास कर सकते हैं।
इस सूचना से सर्वत्र हर्ष
की लहर दौड़ गयी। अगले दिन नौ नवंबर को पूरे विधि विधान से भूमि पूजन और दस नवंबर
को शिलान्यास सम्पन्न हुआ। संगठन शक्ति और सशक्त नेतृत्व के कारण हिन्दू समाज की
जीत हुई।
(विहिप की 42 वर्षीय विकास
यात्रा/201, रघुनंदन प्रसाद शर्मा)
--------------------
10 नवम्बर/जन्म-दिवस
राष्ट्रयोगी दत्तोपंत ठेंगड़ी
श्री दत्तोपन्त ठेंगड़ी का जन्म दीपावली वाले दिन (10 नवम्बर, 1920) को ग्राम आर्वी, जिला वर्धा, महाराष्ट्र में हुआ था। वे बाल्यकाल से ही स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय रहे। 1935 में वे ‘वानरसेना’ के आर्वी तालुका के अध्यक्ष थे। जब उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से हुआ, तो संघ के विचार उनके मन में गहराई से बैठ गये।
उनके पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे; पर दत्तोपन्त जी एम.ए. तथा कानून की शिक्षा पूर्णकर 1941 में प्रचारक बन गये। शुरू में उन्हें केरल भेजा गया। वहाँ उन्होंने ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति’ का काम भी किया। केरल के बाद उन्हें बंगाल और फिर असम भी भेजा गया।
श्री ठेंगड़ी ने संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के कहने पर मजदूर क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ किया। इसके लिए उन्होंने इण्टक, शेतकरी कामगार फेडरेशन जैसे संगठनों में जाकर काम सीखा। साम्यवादी विचार के खोखलेपन को वे जानते थे। अतः उन्होंने ‘भारतीय मजदूर संघ’ नामक अराजनीतिक संगठन शुरू किया, जो आज देश का सबसे बड़ा मजदूर संगठन है।
श्री ठेंगड़ी के प्रयास से श्रमिक और उद्योग जगत के नये रिश्ते शुरू हुए। कम्युनिस्टों के नारे थे ‘‘चाहे जो मजबूरी हो, माँग हमारी पूरी हो; दुनिया के मजदूरो एक हो; कमाने वाला खायेगा’’। मजदूर संघ ने कहा ‘‘देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम; मजदूरो दुनिया को एक करो; कमाने वाला खिलायेगा’’। इस सोच से मजदूर क्षेत्र का दृश्य बदल गया। अब 17 सितम्बर को श्रमिक दिवस के रूप में ‘विश्वकर्मा जयन्ती’ पूरे देश में मनाई जाती है। इससे पूर्व भारत में भी ‘मई दिवस’ ही मनाया जाता था।
श्री ठेंगड़ी 1951 से 1953 तक मध्य प्रदेश में 'भारतीय जनसंघ' के संगठन मन्त्री रहे; पर मजदूर क्षेत्र में आने के बाद उन्होंने राजनीति छोड़ दी। 1964 से 1976 तक दो बार वे राज्यसभा के सदस्य रहे। उन्होंने विश्व के अनेक देशों का प्रवास किया। वे हर स्थान पर मजदूर आन्दोलन के साथ-साथ वहाँ की सामाजिक स्थिति का अध्ययन भी करते थे। इसी कारण चीन और रूस जैसे कम्युनिस्ट देश भी उनसे श्रमिक समस्याओं पर परामर्श करते थे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, स्वदेशी जागरण म॰च, भारतीय किसान संघ, सामाजिक समरसता मंच आदि की स्थापना में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही।
26 जून, 1975 को देश में आपातकाल लगने पर ठेंगड़ी जी ने भूमिगत रहकर ‘लोक संघर्ष समिति’ के सचिव के नाते तानाशाही विरोधी आन्दोलन को संचालित किया। जनता पार्टी की सरकार बनने पर जब अन्य नेता कुर्सियों के लिए लड़ रहे थे; तब ठेंगड़ी जी ने मजदूर क्षेत्र में काम करना ही पसन्द किया।
2002 में राजग शासन द्वारा दिये जा रहे 'पद्मभूषण' अलंकरण को उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया कि जब तक संघ के संस्थापक पूज्य डा. हेडगेवार और श्री गुरुजी को 'भारत रत्न' नहीं मिलता, तब तक वे कोई अलंकरण स्वीकार नहीं करेंगे। मजदूर संघ का काम बढ़ने पर लोग प्रायः उनकी जय के नारे लगा देते थे। इस पर उन्होंने यह नियम बनवाया कि कार्यक्रमों में केवल भारत माता और भारतीय मजदूर संघ की ही जय बोली जाएगी।
14 अक्तूबर, 2004 को उनका देहान्त हुआ। श्री ठेंगड़ी अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने हिन्दी में 28, अंग्रेजी में 12 तथा मराठी में तीन पुस्तकें लिखीं। इनमें लक्ष्य और कार्य, एकात्म मानवदर्शन, ध्येयपथ, बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर, सप्तक्रम, हमारा अधिष्ठान, राष्ट्रीय श्रम दिवस, कम्युनिज्म अपनी ही कसौटी पर, संकेत रेखा, राष्ट्र, थर्ड वे आदि प्रमुख हैं।
----------------------------
10 नवम्बर/जन्म-दिवस
गुलबर्गा के गांधी वेंकटेश गुरुनायक
संघ के स्वयंसेवक शाखा के साथ सैकड़ों अन्य कार्य भी करते हैं। इनमें से एक है सेवा कार्य, जिसकी व्यापकता और प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। 10 नवम्बर, 1939 को बीजापुर जिले के भुयार ग्राम में जन्मे श्री वेंकटेश गुरुनायक संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक थे। कुष्ठ रोगियों के क्षेत्र में काम करने का निश्चय कर उन्होंने प्रसिद्ध कुष्ठ चिकित्सक डा. मंगलदेडकर से यह काम सीखा। उनके समर्पण को देखकर लोग उन्हें ‘गुलबर्गा का गांधी’ कहने लगे।
1967 से 70 तक वेंकटेश जी ने सरकारी कुष्ठ विभाग में काम किया था; पर वहां काम के स्थान पर औपचारिकता और भ्रष्टाचार ही अधिक होता देख उन्होंने 1970 में ‘स्वामी विवेकानंद कुष्ठ सेवा समिति’ की स्थापना की। कुष्ठ के बारे में फैले भ्रम के कारण रोगी को लोग घर से निकाल देते हैं। ऐसे लोग प्रायः भीख मांगने लगते हैं। इनके बच्चों को समुचित शिक्षा, भोजन तथा आवास मिले, इसके लिए वेंकटेश जी ने 1995 में गांणगापुर में एक किराये का कमरा लेकर आठ बच्चों के साथ ‘दत्त बाल सेवा आश्रम’ बनाया।
प्रारम्भ में कुष्ठ रोगी अपने बच्चों को वहां भेजने में संकोच करते थे। वे समझते थे कि शायद ये भी मिशनरियों की तरह देश-विदेश से चंदा जुटाकर सेवा का ढोंग करना चाहते हैं; पर वेंकटेश जी का त्याग देखकर उनके भ्रम दूर हो गये। फिर तो जिदपूर्वक वे बच्चों को वहां छोड़ने लगे।
उनके इस कार्य को देखकर उदारमना लोगों ने मुक्त हस्त से दान दिया। अतः अब यह प्रकल्प दो एकड़ भूमि पर अपने निजी भवन में स्थापित है, जहां 80 बालक शिक्षा प्राप्त करते हैं। इनमें 35 बालिकाएं भी हैं। इसके बाद उन्होंने अनाथ बच्चों के लिए गुलबर्गा में ‘नंदगोकुलम् शिशुगृह’ की स्थापना की।
इन प्रकल्पों में बच्चों को शिक्षा के साथ ही कुछ काम भी सिखाये जाते हैं। अतः युवावस्था में पहुंचकर वे समाज के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित हो जाते हैं। कुछ नौकरी करते हैं, तो कुछ अपना छोटा-मोटा कारोबार। इन आश्रमों में पली और शिक्षित हुई कई कन्याओं का विवाह भी हो चुका है। ये सब वेंकटेश जी को अपना अभिभावक मानकर इन प्रकल्पों की सहायता भी करते हैं।
आजकल प्रायः सभी नगरों में सरकारी तथा निजी वृद्धाश्रम बन गये हैं; पर उनमें वही लोग रहते हैं, जो शिक्षित तथा आर्थिक रूप से समर्थ हैं। अतः वेंकटेश जी ने तीसरे प्रकल्प के रूप में ऐसा वृद्धाश्रम बनाया, जहां निर्धन पुरुष एवं महिलाएं भी सम्मान के साथ रह सकें। यहां समाज के सहयोग से उनके भोजन, आवास, दवा, मनोरंजन आदि का समुचित प्रबन्ध किया जाता है। ये सभी सेवा प्रकल्प विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम से चलाये जाते हैं, जिसमें अनेक युवक और वानप्रस्थी कार्यकर्ता भी अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
इन सेवा कार्यों के लिए वर्ष 2000 में वेंकटेश जी को कर्नाटक शासन ने तथा चार फरवरी, 2006 को अन्तरराष्ट्रीय बाल कल्याण दिवस पर केन्द्र शासन ने राजीव गांधी राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया।
वेंकटेश जी संधिवात, हृदय रोग तथा कैंसर जैसे रोगों से ग्रस्त थे। फिर भी उनके उत्साह में कमी नहीं थी। वे प्रकल्प के बच्चों तथा वृद्धों के बीच बहुत सहज तथा प्रसन्न अनुभव करते थे। ऐसे सेवाभावी श्री वेंकटेश गुरुनायक का 72 वर्ष की आयु में आठ जनवरी, 2012 को गुलबर्गा में ही देहांत हुआ।
(संदर्भ : टाइम्स ऑफ इंडिया तथा अन्य पत्र-पत्रिकाएं)
.................................
12 नवम्बर/जन्म-दिवस
समाजसेवी क्रांतिकारी सेनापति बापट
सेनापति बापट के नाम से प्रसिद्ध पांडुरंग महादेव बापट का जन्म 12 नवम्बर, 1880 को पारनेर (महाराष्ट्र) में श्री महादेव एवं गंगाबाई बापट के घर में हुआ था। पारनेर तथा पुणे में शिक्षा पाकर उन्होंने कुछ समय मुंबई में पढ़ाया। इसके बाद वे मंगलदास नाथूभाई की छात्रवृत्ति पाकर यांत्रिक अभियन्ता की उच्च शिक्षा पाने स्कॉटलैंड चले गये। वहां उन्होंने पढ़ाई के साथ ही राइफल चलाना भी सीखा। इस बीच उनकी भेंट श्यामजी कृष्ण वर्मा और वीर सावरकर से हुई। इससे उनके मन में भी स्वाधीनता के बीज प्रस्फुटित हो उठे।
शेफर्ड सभागृह के एक कार्यक्रम में उन्होंने ब्रिटिश शासन में भारत की दशा पर निबन्ध पढ़ा। इसके प्रकाशित होते ही उन्हें भारत से मिल रही छात्रवृत्ति बंद हो गयी। वीर सावरकर ने इन्हें बम बनाने की तकनीक सीखने फ्रांस भेजा। उनकी इच्छा ब्रिटेन के प्रधानमंत्री को गोली से उड़ाने तथा हाउस ऑफ कॉमन्स में बम फोड़ने की थी; पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी गयी।
इसके बाद सावरकर तथा वर्मा जी की सलाह पर वे कोलकाता आकर कुछ क्रांतिकारी घटनाओं में शामिल हुए। पुलिस ने उन्हें इंदौर में गिरफ्तार किया; पर तब तक उनका नाम बताने वाले मुखबिर को क्रांतिकारियों ने मार दिया। अतः उन पर अभियोग सिद्ध नहीं हुआ और वे जमानत पर छूट गये।
अब बापट जी ने अपना ध्यान समाजसेवा तथा प्रवचन द्वारा धर्म जागरण की ओर लगाया। वे महार बच्चों को पढ़ाने लगे। प्रायः वे सफाई कर्मियों के साथ सड़क साफ करने लगते थे। अपने पुत्र के नामकरण पर उन्होंने पंडितों के बदले हरिजनों का पहले भोजन कराया। उन्होंने तिलक, वासु काका, श्री पराड़कर तथा डा. श्रीधर वेंकटेश केलकर के साथ कई पत्रों में भी काम किया।
1920 में उन्होंने अपनी संस्था ‘झाड़ू-कामगार मित्र मंडल’ द्वारा मुंबई में हड़ताल कराई। वे जनजागृति के लिए गले में लिखित पट्टी लटकाकर भजन गाते हुए घूमते थे। इससे श्रमिकों को उनके अधिकार प्राप्त हुए। ‘राजबन्दी मुक्ति मंडल’ के माध्यम से उन्होंने अंदमान में बंद क्रांतिकारियों की मुक्ति के लिए अनेक लेख लिखे, सभाएं कीं तथा हस्ताक्षर अभियान चलाया।
टाटा कंपनी की योजना सह्याद्रि की पहाड़ियों पर एक बांध बनाने की थी। इससे सैकड़ों गांव डूब जाते। इसके विरोध में बापट जी तथा श्री विनायक राव भुस्कुटे ने आंदोलन किया। इस कारण उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया। छूटते ही वे फिर जन जागरण में लग जाते। उनके ‘रेल रोको अभियान’ से नाराज होकर शासन ने उन्हें सात वर्ष के लिए सिन्ध हैदराबाद की जेल में भेज दिया। इस आंदोलन से ही उन्हें ‘सेनापति’ की उपाधि मिली।
वहां से लौटकर वे महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष बने। इस दौरान किये गये आंदोलनों के कारण उन्हें दस वर्ष का कारावास हुआ। इसमें से सात साल वे अंदमान में रहे। इसके बाद वे सुभाष बाबू द्वारा स्थापित फारवर्ड ब्लॉक में सक्रिय हुए। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उग्र भाषणों के लिए वे कई बार गिरफ्तार हुए। नासिक जेल में तो वे अपने पुत्र वामनराव के साथ बंद रहे।
1946 के अकाल में उन्होंने श्रमिकों के लिए धन संग्रह किया। जवानी के अधिकांश वर्ष जेल में बिताने वाले बापट जी को 15 अगस्त, 1947 को पुणे में ध्वजारोहण करने का गौरव प्राप्त हुआ। इसके बाद भी गोवा मुक्ति तथा संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। भक्ति, सेवा तथा देशप्रेम के संगम सेनापति बापट का निधन 28 नवम्बर, 1967 को हुआ। पुणे-मुंबई में उनके नाम पर एक सड़क का नामकरण किया गया है।
(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश, भाग एक/विकीपीडिया)
.................................
12 नवम्बर/प्रेरक-प्रसंग
मस्जिद में खाकी निक्कर व भगवा पट्टी का सम्मान
विमान यात्रा सुखद तो है; पर उसकी दुर्घटनाएं बहुत दुखद होती हैं। ऐसा ही एक दुखद प्रसंग 12 नवम्बर, 1996 को घटित हुआ, जब हरियाणा में भिवानी के पास चरखी दादरी गांव के ऊपर दो विमान टकरा गये। इनमें से एक सऊदी अरब का तथा दूसरा कजाक एयरवेज का था। दोनों में आग लग गयी और वे ढाणी फोगाट, खेड़ी सनवाल तथा मालियावास गांवों के खेतों में आ गिरे। सऊदी विमान के कुल 312 लोगों में से 42 हिन्दू, 12 ईसाई तथा शेष सब मुसलमान थे। कजाक विमान में भी कुल 39 लोग थे। इस प्रकार देखते ही देखते 351 लोग काल के मुख में समा गये।
दुर्घटना के कुछ समय बाद ही भिवानी के जिला संघचालक श्री जीतराम जी के साथ सैकड़ों स्वयंसेवक घटनास्थल पर पहुंच गये। वहां के डा0 हेडगेवार चिकित्सालय के चिकित्सक भी आ गये। अंधेरे के कारण पैट्रोमैक्स तथा एक जेनरेटर का प्रबंध कर सबसे पहले जीवित लोगों को ढूंढा गया, तो दो लोग ऐसे मिल गये; पर अस्पताल जाते समय मार्ग में ही वे भी चल बसे।
एक स्थानीय किसान श्री चंद्रभान अपना टैªक्टर ले आये। स्वयंसेवकों ने उसमें बुरी तरह जले हुए शवों को लादा। रात में ही एक बर्फ के कारखाने को चालू कराया और 169 शवों को प्रातः पांच बजे तक भिवानी के चिकित्सालय में पहुंचाया गया। स्वयंसेवकों ने तत्काल ही ‘विमान दुर्घटना पीड़ित सहायता समिति’ का गठन कर लिया। इसमें संघ के साथ ही विश्व हिन्दू परिषद, सेवा भारती, भारत विकास परिषद, भारतीय जनता पार्टी, विद्यार्थी परिषद, आर्य समाज तथा अन्य सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि रखे गये।
समिति ने तत्काल कफन तथा ताबूतों का प्रबंध किया। यह समाचार फैलते ही मृतकों के संबंधी, पत्रकार तथा पुलिस-प्रशासन वाले वहां आने लगे। अतः पूछताछ विभाग के साथ ही उनके लिए चाय, पानी, भोजन तथा वाहन आदि की व्यवस्था की गयी।
कुछ मृतकों के शव पुलिस की उपस्थिति में उनके परिजनों को सौंप दिये गये। जिनके बारे में ठीक जानकारी नहीं मिली, ऐसे 76 मुसलमान तथा तीन ईसाइयों को उनके धार्मिक विधान के अनुसार दफनाया गया। इसमें स्थानीय मौलवी, दिल्ली से आये मुमताज चावला तथा मुंबई से आये इस्लामिया समिति के प्रतिनिधियों ने भी सहयोग दिया।
तीन दिन बाद 15 नवम्बर को दादरी की मस्जिद में एक धन्यवाद सभा का आयोजन कर जिला संघचालक श्री जीतराम जी तथा भारत विकास परिषद के श्री ईश्वर जी को सम्मानित किया गया। अधिकांश समाचार पत्रों ने शीर्षक लगाया - मस्जिद में खाकी निक्कर व भगवा पट्टी का सम्मान।
घटनास्थल पर आये केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री श्री इब्राहिम तथा पूर्व केन्द्रीय मंत्री जी.कुरियन ने कहा - आपकी जितनी प्रशंसा की जाए, वह कम है। मैं आपको धन्यवाद देता हूं। सीकर के जाफर अली और हाकिम खान ने कहा - इन खुदा के फरिश्तों को न जाने क्या-क्या कहा जाता है; पर आज भ्रम मिट गया। पुलिस अधीक्षक मोहम्मद शकील का कथन था - संकट के समय में सर्वाधिक सहयोग संघ वालों का रहा। मुझे उनसे यही आशा थी।
ऐसे ही उद्गार वहां आये सभी लोगों के थे। धन्यवाद सभा में श्री जीतराम जी ने कहा कि जो धन एवं सामग्री लोगों ने दी है, उसमें से जो कुछ भी बचा है, उसे आंध्र के तूफान-पीड़ितों की सहायता हेतु भेजा जा रहा है।
.............................
13 नवम्बर/जन्म-दिवस
वनवासियों के सच्चे मित्र भोगीलाल पण्ड्या
राजस्थान के वनवासी क्षेत्र में भोगीलाल पंड्या का नाम जन-जन के लिए एक सच्चे मित्र की भाँति सुपरिचित है। उनका जन्म 13 नवम्बर, 1904 को ग्राम सीमलवाड़ा में श्री पीताम्बर पंड्या के घर में माँ नाथीबाई की कोख से हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई। इसके बाद डूँगरपुर और फिर अजमेर से से उच्च शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने राजकीय हाईस्कूल, डूँगरपुर में अध्यापन को अपनी जीविका का आधार बनाया। 1920 में मणिबेन से विवाह कर उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया।
भोगीलाल जी की रुचि छात्र जीवन से ही सामाजिक कार्यों में थी। गृहस्थ जीवन अपनाने के बाद भी उनकी सक्रियता इस दिशा में कम नहीं हुई। उनकी पत्नी ने भी हर कदम पर उनका साथ दिया। 1935 में जब गांधी जी ने देश में हरिजन उद्धार का आन्दोलन छेड़ा, तो उसकी आग राजस्थान में भी पहुँची। भोगीलाल जी इस आन्दोलन में कूद पड़े। उनका समर्पण देखकर जब डूँगरपुर में ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की गयी, तो भोगीलाल जी को उसका संस्थापक महामन्त्री बनाया गया।
समाज सेवा के लिए एक समुचित राष्ट्रीय मंच मिल जाने से भोगीलाल जी का अधिकांश समय अब इसी में लगने लगा। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैलने लगी। अतः उनका कार्यक्षेत्र भी क्रमशः बढ़ने लगा। हरिजन बन्धुओं के साथ ही जनजातीय समाज में भी उनकी व्यापक पहुँच हो गयी। वनवासी लोग उन्हें अपना सच्चा मित्र मानते थे। उनके सेवा और समर्पण भाव को देखकर लोग उन्हें देवता की तरह सम्मान देने लगे।
भोगीलाल जी का विचार था कि किसी भी व्यक्ति और समाज की स्थायी उन्नति का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम शिक्षा है। इसलिए उन्होंने जनजातीय बहुल वागड़ अंचल में शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। इससे सब ओर उनकी प्रसिद्धि ‘वागड़ के गांधी’ के रूप में हो गयी। गांधी जी द्वारा स्थापित भारतीय आदिम जाति सेवक संघ, राजस्थान हरिजन सेवक संघ आदि अनेक संस्थाओं में उन्होंने मेरुदण्ड बनकर काम किया।
भोगीलाल जी की कार्यशैली की विशेषता यह थी कि काम करते हुए उन्होंने सेवाव्रतियों की विशाल टोली भी तैयार की। इससे सेवा के नये कामों के लिए कभी लोगों की कमी नहीं पड़ी। 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय राजकीय सेवा से त्यागपत्र देकर वे पूरी तरह इसमें कूद पड़े। वागड़ अंचल में उनका विस्तृत परिचय और अत्यधिक सम्मान था। उन्होंने उस क्षेत्र में सघन प्रवास कर स्वतन्त्रता की अग्नि को दूर-दूर तक फैलाया।
1942 से उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः राजनीतिक हो गया; फिर भी प्राथमिकता वे वनवासी कल्याण के काम को ही देते थे। 1944 में उन्होंने प्रजामंडल की स्थापना की। रियासतों के विलीनीकरण के दौर में जब पूर्व राजस्थान का गठन हुआ, तो भोगीलाल जी उसके पहले मन्त्री बनाये गये। स्वतन्त्रता के बाद भी राज्य शासन में वे अनेक बार मन्त्री रहे। 1969 में उन्हें राजस्थान खादी ग्रामोद्योग बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया।
समाज सेवा के प्रति उनकी लगन के कारण 1976 में शासन ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया। 31 मार्च, 1981 को वनवासियों का यह सच्चा मित्र अनन्त की यात्रा पर चला गया।
.............................
14 नवम्बर/जन्म-दिवस
वनस्पति शास्त्री बीरबल साहनी
स्वतन्त्र भारत के पहले शिक्षा मन्त्री मौलाना आजाद ने एक वैज्ञानिक को शिक्षा सचिव जैसा महत्वपूर्ण पद सँभालने के लिए आमन्त्रित किया। सुख-सुविधाओं और सत्ता के लाभ वाले ऐसे पद पर आने के लिए प्रायः सब उत्सुक रहते हैं; पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक इसके लिए मना कर दिया। उनका कहना था कि उनके जीवन का लक्ष्य नवीन शोध को प्रोत्साहित करना है। वे थे प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री बीरबल साहनी, जिनका जन्म 14 नवम्बर, 1891 को भेरा, जिला शाहपुर (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था।
बीरबल के पिता श्री रुचिराम साहनी भी देशभक्त शिक्षाशास्त्री और समाजसेवी थे। उन्होंने अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलायी। उनके घर स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़े लोग आते रहते थे। इससे बीरबल के मन पर देशसेवा के अमिट संस्कार पड़े। वे नयी जानकारी प्राप्त करने को सदा उत्सुक रहते थे।
1911 में वे अपने पिताजी के साथ दुर्गम जोजिला घाटी की यात्रा पर गये। वहाँ उन्होंने अत्यधिक खतरनाक मचोई हिमनद को पार किया और अनेक गहरी घाटियों में उतरकर हजारों साल पुरानी काई और बर्फ के नमूने एकत्र किये। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के बाद भी वे संस्कृत, जर्मन, फ्रे॰च और पर्शियन भाषा के अच्छे जानकार थे।
बी.एस-सी. की परीक्षा में वनस्पतिशास्त्र का प्रश्नपत्र बहुत सरल था। वे उसे छोड़कर चले आये। उन्होंने कहा कि ऐसे प्रश्नों से योग्यता नहीं जाँची जा सकती। मजबूर होकर विश्वविद्यालय ने उनके लिए नया और कठिन प्रश्नपत्र बनाया; पर उन्होंने उसे आसानी से हल कर लिया। उनके पिता की इच्छा थी कि वे प्रशासनिक सेवा में जायें; पर बीरबल ने उन्हें बता दिया कि उनकी रुचि वनस्पतिशास्त्र में शोध की ही है।
यह देखकर उनके पिता ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए कैम्ब्रिज भेज दिया। वहाँ उन्होंने अनेक वरिष्ठ वैज्ञानिकों के साथ शोधकार्य किया। दक्षिण फ्रान्स और मलयेशिया की वनस्पति पर उनके लेख अन्तरराष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। 1919 में लन्दन विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘प्राचीन वनस्पति जीवाश्म’ पर कार्य के लिए डी.एस-सी. की उपाधि दी।
उनकी योग्यता देखकर अनेक विदेशी संस्थानों ने उन्हें आमन्त्रित किया; पर वे भारत आकर काशी तथा पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यापन करने लगे। 1920 में उनका विवाह सावित्री देवी से हुआ। 1921 में लखनऊ विश्वविद्यालय की स्थापना हुई और उन्हें वनस्पति शास्त्र में विभागाध्यक्ष बनाया गया।
1929 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें ‘ड१क्टर अ१फ साइंस’ की उपाधि से सम्मानित किया। वे चाहते थे कि वनस्पति विज्ञान के छात्र भूगर्भशास्त्र का भी अध्ययन करें। 1943 में जब लखनऊ में इस विभाग की स्थापना हुई, तो उन्हें इसका भी अध्यक्ष बनाया गया। उनका एकमात्र प्रेम अनुसन्धान से था। उन्होंने अपने पिताजी की स्मृति में पुरस्कार की स्थापना भी की।
उनका सपना था कि वनस्पति अवशेषों पर शोध के लिए एक विशिष्ट संस्थान हो। 3 अपै्रल, 1949 को लखनऊ में इस संस्थान की नींव रखी गयी। उसके लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया; पर इससे उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। एक सप्ताह बाद 10 अपै्रल, 1949 को दिल के भीषण दौरे से उनका देहान्त हो गया। 1952 में प्रधानमन्त्री नेहरू जी ने संस्थान का उद्घाटन करते हुए उसका नाम ‘बीरबल साहनी इन्स्टिट्यूट ऑफ़ पेलिओबोटनी’ रखा।
....................................
14 नवम्बर/जन्म-दिवस
कथक की साधिका रोहिणी भाटे
विश्व में नृत्य की अनेक विधाएं प्रचलित हैं; पर भारतीय नृत्य शैली की अपनी विशेषता है। उसमें गीत, संगीत, अंग संचालन, अभिनय, भाव प्रदर्शन आदि का सुंदर तालमेल होता है। इससे न केवल दर्शक बल्कि नर्तक भी अध्यात्म की ऊंचाइयों तक पहुंच जाता है; पर ऐसा केवल वही कलाकार कर पाते हैं, जो नृत्य को मनोरंजन या पैसा कमाने का साधन न समझकर साधना और उपासना समझते हैं। भारत की ऐसी ही एक विशिष्ट नृत्य शैली कथक की साधिका थीं डा. रोहिणी भाटे।
रोहिणी भाटे का जन्म 14 नवम्बर 1924 को पटना, बिहार में हुआ; पर इसके बाद का उनका जीवन पुणे में ही बीता। विद्यालयीन शिक्षा के बाद उन्होंने स्नातकोत्तर और फिर कथक में पी-एच.डी की। 1947 में उन्होंने पुणे में ‘नृत्य भारती’ की स्थापना कर सैकड़ों छात्र-छात्राओं को कथक की शिक्षा दी। उनकी योग्यता को देखकर खैरागढ़ विश्वविद्यालय और कथक केन्द्र, दिल्ली ने उन्हें अपनी परामर्श समिति में स्थान दिया। पुणे विश्वविद्यालय में कथक शिक्षण का पाठ्यक्रम भी उनकी सहायता से ही प्रारम्भ हुआ था।
रोहिणी भाटे विख्यात कथक नर्तक लच्छू महाराज और पंडित मोहनराव कल्याणपुरकर की शिष्या थीं। इसके साथ ही उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में विधिवत प्रशिक्षण केशवराव भोले व डा. वसंतराव देशपांडे से पाया था। संस्कृत और मराठी साहित्य से उन्हें बहुत प्रेम था। उन्होंने अनेक प्राचीन व नवीन साहित्यिक कृतियों पर नृत्य प्रस्तुत किये। इसलिए उनके नृत्य गीत और संगीत प्रेमियों के साथ ही साहित्य प्रेमियों को भी आकृष्ट करते थे।
उन्हें कथक नृत्य को प्रसिद्धि दिलाने के लिए अनेक मान-सम्मानों से अलंकृत किया गया। 1979 में उन्हें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी सम्मान मिला। इसके बाद वर्ष 2007 में केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी ने उन्हें अपनी ‘रत्न सदस्यता’ प्रदान की। इससे पूर्व महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार, महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार, कालिदास सम्मान जैसे अनेक पुरस्कार भी उन्हें मिले। इसके बाद भी उनकी विनम्रता और सीखने की वृत्ति बनी रही। यदि किसी विश्वविद्यालय से उन्हें प्रयोगात्मक परीक्षा लेने के लिए बुलावा आता, तो वे अवश्य जाती थीं। कथक की नयी प्रतिभाओं से मिलकर उन्हें प्रसन्नता होती थी।
वे साल में एक-दो महीने लखनऊ रहकर लच्छू महाराज से लखनऊ घराने की तथा जयपुर में मोहनराव कल्याणपुरकर से जयपुर घराने की विशेषताएं सीखतीं थीं। वहां से उन्हें जो पाथेय मिलता, पुणे जाकर उसका अनुशीलन और विश्लेषण करती थीं। इस प्रकार प्राप्त निष्कर्ष को फिर अपने तथा अपनी शिष्य मंडली के नृत्य में समाहित करने में लग जातीं। इससे उनके नृत्यों में सदा नूतन और पुरातन का सुंदर समन्वय दिखायी देता था।
नृत्य के साथ उनकी रुचि लेखन में भी थी। उनके शोधपूर्ण लेख कथक गोष्ठियों में बहुत आदर से पढ़े जाते थे। उन्होंने मराठी में अपनी आत्मकथा ‘माझी नृत्यसाधना’ लिखी और आधुनिक नृत्य की प्रणेता आइसाडोरा डंकन की आत्मकथा का मराठी अनुवाद ‘मी आइसाडोरा’ किया। नंदिकेश्वर के अभिनय दर्पण की संहिता का अन्वय, हिन्दी अनुवाद और टिप्पणियों सहित ‘कथक दर्पण दीपिका’ उनके गहरे अध्ययन और अनुभव का निचोड़ है।
जीवन के अंतिम क्षण तक कथक को समर्पित डा. रोहिणी भाटे ने अपने घुंघरुओं की ताल व गति को अपनी कर्मस्थली पुणे में 10 अक्तूबर, 2008 को सदा के लिए विराम दे दिया।
........................................
14 नवम्बर/जन्म-दिवस
असमिया साहित्य की विभूति इंदिरा गोस्वामी
श्रेष्ठ असमिया साहित्यकार मामोनी अर्थात इंदिरा गोस्वामी को बाइदेउ (बड़ी दीदी) भी कहा जाता है। उनका जन्म 14 नवम्बर, 1942 को एक पारम्परिक वैष्णव परिवार में हुआ, जो दक्षिण कामरूप के अमरंगा में एक सत्र का स्वामी था। उनके उच्च शिक्षाधिकारी पिता श्री उमाकांत गोस्वामी शिलांग में कार्यरत थे। अतः प्राथमिक शिक्षा वहीं पाकर उन्होंने गुवाहाटी से असमिया में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। उनकी जन्मकुंडली देखकर ज्योतिषी ने उसे ब्रह्मपुत्र में बहा देने को कहा था; पर उनकी मां इसके लिए तैयार नहीं हुई।
मामोनी का बचपन वैष्णव सत्र में बीता था। उन्होंने वहां धार्मिक वातावरण के बीच फैली अव्यवस्था को देखा था। अतः उनका मन इनके प्रति विद्रोही हो गया। इसका प्रभाव उनके लेखन पर सर्वत्र दिखाई देता है। कक्षा आठ में लिखी गयी उनकी पहली लघुकथा का शीर्षक भी ‘संघर्ष-संघर्ष-संघर्ष’ ही था।
इंदिरा गोस्वामी जीवन को अपने हिसाब से जीना चाहती थीं; पर घर का वातावरण इसकी अनुमति नहीं देता था। इससे उनके मन का विद्रोह बढ़ता चला गया। 1965 में इन्होंने कश्मीर में कार्यरत अभियन्ता माधवन रायसम आयंगार से प्रेम विवाह किया। इस अंतरजातीय और अंतरप्रांतीय विवाह का परिवार और समाज ने बहुत विरोध किया। दुर्भाग्यवश विवाह के डेढ़ साल बाद ही उनके पति की एक जीप दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। इससे ये विक्षिप्त सी हो गयीं; पर फिर इन्होंने स्वयं को शोधकार्य तथा रचनात्मक लेखन में डुबा दिया।
पति के निधन के बाद वे वापस असम आकर गोलपाड़ा के सैनिक स्कूल में पढ़ाने लगीं। शोधकार्य के लिए जब वे वृन्दावन आयीं, तो वहां रह रही विधवाओं के जीवन के कटु यथार्थ से उनका परिचय हुआ। इसकी पृष्ठभूमि पर उन्होंने बहुचर्चित उपन्यास ‘नीलकंठी ब्रज’ लिखा। उनके पहले उपन्यास ‘चिनावर स्रोत’ में कश्मीर में कार्यरत मजदूरों की व्यथा-कथा दर्शायी गयी है। ‘अहिरन’ तथा ‘जंग लगी तलवार’ भी मजदूरों के शोषण पर आधारित उपन्यास हैं। उनके सभी पात्र तथा घटनाएं कहीं न कहीं सत्य को स्पर्श करते हैं।
‘छिन्नमस्ता’ में कामाख्या मंदिर में होने वाली पशुबलि का विरोध करने पर उन्हें हत्या की धमकी दी गयी; पर वे अपने विचारों से पीछे नहीं हटीं। वे कहती थीं कि जैसे दर्पण चेहरे की सुंदरता और असंुदरता दोनों दिखाता है, ऐसे ही साहित्य भी समाज के दोनों पक्ष प्रस्तुत करता है। इसका स्वागत होना चाहिए, विरोध नहीं। असम के बाद उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में भी पढ़ाया।
असम में लम्बे समय तक हिंसा का वातावरण रहा है। वहां की मूल निवासी होने के कारण इंदिरा गोस्वामी का मन इससे बहुत दुखता था। उग्रवादियों की बात को ठीक से समझने के लिए वे उनके गुप्त केन्द्रों पर गयीं। आंखों पर पट्टी बांध कर उन्हें वहां ले जाया जाता था। उन्होंने दोनों पक्षों को वार्ता की मेज पर बैठाया। उनका स्पष्ट मत था कि हिंसा किसी समस्या का स्थायी समाधान नहीं है। इस विषय पर भी उन्होंने ‘यात्रा’ नामक उपन्यास लिखा।
इंदिरा गोस्वामी को देश और विदेश में अपने लेखन व सामाजिक काम के लिए पदम्श्री तथा ज्ञानपीठ सहित सैकड़ों पुरस्कार मिले। उनके कई उपन्यासों पर फिल्में भी बनीं। ‘आधा लिखा दस्तावेज’ उनकी आत्मकथा है। 29 नवम्बर, 2011 को गुवाहाटी में असम साहित्य की इस सजग, संवेदनशील और सामाजिक रूप से सक्रिय विभूति का देहावसान हुआ।
(संदर्भ : समकालीन पत्र-पत्रिकाएं व अंतरजाल सेवा आदि)
..........................................
थालाक्कल चंडु का बलिदान
अंग्रेजों ने अपने शासन के दौरान कई जगह स्थानीय लोगों पर घोर अत्याचार किये। यद्यपि उन दिनों देश भर में स्थानीय जमींदार तथा छोटे राजाओं के राज्य थे। कर तो वे भी लेते थे; पर उनमें से अधिकांश जनता को पुत्रवत स्नेह भी करते थे। लेकिन इन शासकों को अंग्रेजों की बड़ी शक्ति के आगे दबना पड़ता था। दक्षिण भारत में केरल राज्य भी इससे अछूता नहीं था।
17 वीं सदी के अंत में वहां के वाइनाड जिले में स्थानीय राजा की अनुमति के बिना अंग्रेजों ने अत्यधिक कर वसूली शुरू कर दी। सूखा हो या अतिवृष्टि, अंग्रेजों को इससे कुछ मतलब नहीं था। इससे जनता में आक्रोश फैल गया। वहां के जनजातीय कुरिचियार समुदाय के लोगों ने राजा के सेनापति थालाक्कल चंडु के नेतृत्व में इसके विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध छेड़ दिया। इन युवाओं के आदर्श थे शिवाजी महाराज, जिन्होंने अपनी युवा मंडली के साथ मिलकर किये गये छुटपुट हमलों से मुगलों की नाक में दम कर दिया था।
अंग्रेजों ने पन्नमरम् के एक किले में अस्त्र-शस्त्रों का विशाल भंडार बना लिया। यह किला सामरिक दृष्टि से बहुत अच्छी जगह पर था। यहीं से वे थालाक्कल चंडु के युवा साथियों के दमन की गतिविधियां चलाते थे। इसका नियंत्रण कैप्टन डिक्सन और कर्नल मैक्सवेली के हाथों में था। दोनों ही अच्छे योद्धा थे। आंदोलनकारियों की निगाह भी इस किले और हथियारों पर थी। वे बिना किसी सूचना के अचानक इस पर हमला कर देते थे। दिन हो या रात, थालाक्कल चंडु के वीर सैनिक इस पर कब्जे का प्रयास करते रहते थे।
इन हमलों में कई बार अंग्रेजों को, तो कई बार थालाक्कल चंडु के वीरों को नुकसान उठाना पड़ा; पर भारतीय सैनिकों ने साहस नहीं खोया। एक बार थालाक्कल चंडु का प्रयास सफल हुआ। अंग्रेजों की अधिक संख्या और आधुनिक हथियारों के बावजूद उन्होंने किले पर कब्जा कर लिया। जो अंग्रेज उनके हाथ लगे, सबका वध कर दिया गया। जो स्थानीय लोग अंग्रेजों का साथ दे रहे थे, उन्हें भी भरपूर दंड दिया गया। सारे अस्त्र-शस्त्र और खाद्यान अपने अधीन कर लिये गये। यह थालाक्कल चंडु के साथियों की बड़ी जीत थी।
पर अंग्रेजों के हाथ बहुत लम्बे थे। उन्होंने बाहर से सैनिक और हथियार मंगाकर थालाक्कल चंडु के विरुद्ध युद्ध जारी रखा। इस बार भाग्य उनके साथ था। अतः 1905 में उन्होंने छलपूर्वक थालाक्कल चंडु और उसके साथियों को पकड़ लिया। लगभग एक साल तक शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताडि़त करने के बाद 15 नवम्बर, 1906 को पन्नमरम् दुर्ग के पास स्थित एक कोली के वृक्ष पर लटका कर उस वीर का मस्तक काट दिया गया।
वाइनाड की कुरिचियार तथा अन्य जनजातियों में थालाक्कल चंडु और उसके साथियों द्वारा दिये गये बलिदान से अद्भुत जागृति आयी। अतः अंग्रेजों के विरुद्ध छुटपुट युद्ध जारी रहा। यद्यपि सेनापति के अभाव में उसमें वह तेजी नहीं रही। वह स्थान अब पन्नमरम् के एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के भीतर स्थित है। वहां पर अब भी एक कोली का वृक्ष खड़ा है। यद्यपि वह इतना पुराना नहीं है; पर स्थान वही होने के कारण उसका ऐतिहासिक महत्व है।
केरल वनवासी विकास केन्द्र, केरल आदिवासी संघ, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा कई स्थानीय संस्थाओं ने मिलकर ‘थालाक्कल चंडु स्मारक समिति’ बनायी है। जो 1997 से प्रति वर्ष 15 नवम्बर को वहां ‘थालाक्कल चंडु बलिदान दिवस’ आयोजित करती है। इसमें स्थानीय जनता बड़े उत्साह से भाग लेकर उस वीर स्वाधीनता सेनानी को श्रद्धांजलि देती है। थालाक्कल चंडु की स्मृति को स्थायी रखने के लिए वहां एक भव्य स्मारक बनाने की योजना विचाराधीन है। शासन ने इसके लिए एक भूखंड आवंटित किया है, जिस पर एक स्मृति शिला का निर्माण किया गया है।
(संदर्भ : कृ.रू.सं.द. भाग छह)
---------------------------------------------
प्रयोगधर्मी शिक्षक गिजूभाई
शिक्षक वह दीपक है, जो स्वयं जलकर दूसरों को प्रकाशमान करता है। इस प्रसिद्ध कहावत को गिजूभाई के नाम से प्रसिद्ध प्रयोगधर्मी शिक्षक श्री गिरिजाशंकर वधेका ने पूरा कर दिखाया। 15 नवम्बर, 1885 को चित्तल (सौराष्ट्र, गुजरात) में जन्मे गिजूभाई के पिता अधिवक्ता थे। आनन्द की बात यह रही कि वे अध्यापन छोड़कर वकील बने, जबकि गिजूभाई उच्च न्यायालय की अच्छी खासी चलती हुई वकालत छोड़कर शिक्षक बने।
गिजूभाई वकालत के सिलसिले में एक बार अफ्रीका गये। उन दिनों वहाँ बड़ी संख्या में भारतीय काम के लिए गये हुए थे। उनके मुकदमों के लिए भारत से वकील वहाँ जाते रहते थे। गांधी जी भी इसी प्रकार अफ्रीका गये थे। उस दौरान 1923 में गिजूभाई को पुत्र नरेन्द्र की प्राप्ति हुई। नरेन्द्र ने उनके जीवन में ऐसा परिवर्तन किया कि गिजूभाई अधिवक्ता से शिक्षक बन गये।
अफ्रीका में उन दिनों भारतीय बच्चों के लिए कोई विद्यालय नहीं था। ऐसे में गिजूभाई ने नरेन्द्र को स्वयं जो पाठ पढ़ाये, उससे उन्हें लगा कि उनके भीतर एक शिक्षक छिपा है। ‘मोण्टेसरी मदर’ नामक एक छोटी पुस्तक में यह पढ़कर कि ‘बालक स्वतन्त्र और सम्मान योग्य है। वह स्वयं क्रियाशील और शिक्षणप्रिय है’ गिजूभाई का मन एक नये प्रकाश से जगमगा उठा।
अब उन्होंने वकालत को त्याग दिया और पूरी तरह बाल शिक्षा को समर्पित हो गये। उन्होंने विश्व के प्रख्यात बालशिक्षकों की पुस्तकों का अध्ययन किया। अपने मित्रों, परिजनों, शिक्षकों तथा समाजशास्त्रियों से इस विषय में चर्चा की। फिर उनमें दिये गये विचार, प्रयोग तथा सूत्रों को भारतीय परिप्रेक्ष्य में लागू करने के लिए गिजूभाई ने एक बालमन्दिर की स्थापना की।
इसमें उन्होंने गन्दे, शरारती और कामचोर बच्चों पर कई प्रयोगकर उन्हें स्वच्छ, अनुशासनप्रिय तथा स्वाध्यायी बना दिया। इससे उनके अभिभावक ही नहीं, तो तत्कालीन शिक्षा अधिकारी भी चकित रह गये। इन प्रयोगों की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने लगी। गिजूभाई ने अपने प्रयोगों तथा अनुभवों का लाभ सब तक पहुँचाने के लिए ‘दक्षिणामूर्ति’ नामक पत्रिका भी निकाली।
गिजूभाई शिक्षण को संसार का श्रेष्ठतम कार्य तथा सत्ता और धन के लोभ को शिक्षक की निष्ठा डिगाने वाले दो विषधर सर्प मानते थे। वे बच्चों की पिटाई को शिक्षक की मानसिक निर्बलता, कायरता तथा अत्याचार मानते थे। इसी प्रकार वे बच्चों को लालच देने को घूसखोरी से भी बड़ा अपराध मानते थे।
गिजूभाई अपने जीवन में पर्यावरण संरक्षण को भी बहुत महत्व देते थे। वे अपने विद्यालय को शिक्षा का मन्दिर तथा अध्यापक व छात्रों की प्रयोगभूमि मानते थे। उन्होंने भावनगर स्थित ‘दक्षिणामूर्ति बाल भवन’ में नाटकशाला, खेल का मैदान, उद्यान, कलाकुंज, संग्रहालय आदि बनाये।
गिजूभाई का मत था कि परीक्षा बाहर के बदले भीतर की, ज्ञान के बदले शक्ति की, यथार्थ के बदले विकास की, परार्थ के बदले आत्मार्थ की होनी चाहिए। वे चाहते थे कि परीक्षक भी बाहर के बदले भीतर का ही हो। उन्होंने बच्चों, अध्यापकों तथा अभिभावकों के लिए अनेक पुस्तकें लिखीं, जो आज भी बाल शिक्षा के क्षेत्र में आदर्श मानी जाती हैं।
वे बच्चों से इतना अधिक प्यार करते थे कि बच्चे उनको मूँछाली माँ (मूँछों वाली माँ) कहते थे। बाल शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाले गिजूभाई का देहान्त 23 जून, 1939 को हुआ।
15 नवम्बर/प्रेरक-प्रसंग
महावीर कोयला खदान में बचाव अभियान
बिजली निर्माण के अनेक नये साधनों के बाद भी भारत में अधिकतम बिजली कोयले से ही प्राप्त की जाती है। यहां खदानों में कोयला प्रचुर मात्रा में उपलब्ध भी है। इन खदानों में धरती से सैकड़ों फुट नीचे से कोयला निकालते हैं। सुरक्षा के प्रबंधों के बावजूद कभी-कभी दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं। ऐसी ही एक दुर्घटना 13 नवम्बर, 1989 को हुई। बंगाल के रानीगंज में महावीर कोयला खदान में 220 मजदूर काम कर रहे थे। विस्फोट से कोयले की दीवारें तोड़ी जा रही थीं कि अचानक खदान में पानी भरने लगा। किसी की समझ में कुछ नहीं आया। कुछ ही देर में बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी।
खतरे की घंटी बजते ही खदान में कार्यरत दो लिफ्टों से मजदूरों को ऊपर भेजा जाने लगा; पर कुछ देर बाद उनमें भी पानी भर गया और वे बंद हो गयीं। इससे 71 मजदूर 350 फुट नीचे फंस गये। इनमें से छह की पानी में डूबने से मृत्यु हो गयी। शेष 65 को बचाने के लिए खदान के पास सुरंग बनाकर अंदर जाने की कोशिश की गयी; पर इसमें सफलता नहीं मिली। इधर खदान में आॅक्सीजन घट रही थी। उसकी छत गिरने का भी खतरा था। अतः खदान के पास एक बोरवेल बनाकर मजदूरों तक खाना, पानी और दवा आदि भेजी जाने लगी; पर असली चुनौती उन्हें बाहर निकालने की थी।
ऐसे में वहां कार्यरत मुख्य खदान इंजीनियर जसवंत सिंह गिल ने एक अनूठा उपाय निकाला। उन्होंने लोहे की एक चादर से कैप्सूल बनाने का विचार प्रस्तुत किया। फिर इसे नीचे भेजकर एक-एक कर सबको बाहर निकालने की योजना थी; पर जिस मशीन से गड्ढा किया जा रहा था उसके ब्लेड की चैड़ाई केवल आठ इंच थी। अतः वेल्डिंग कर कुछ और ब्लेड उसमें जोड़े गये। इससे वह 22 इंच चैड़ाई तक खोदाई करने लगी।
पर स्टील का कैप्सूल बनाना भी एक समस्या थी। पता लगा कि पास में एक लोहे की फैक्ट्री है। जसवंत सिंह ने उसे यह काम सौंपा। इस सब में 14 तारीख निकल गयी। मजदूर, उनके परिजन और आम जनता का धैर्य जवाब देने लगा। लोग खदान के पास आकर नारेबाजी करने लगे। अंततः 15 नवंबर की शाम को ढाई मीटर लंबा कैप्सूल बनकर आ गया। उसमें एक आदमी खड़ा हो सकता था। उसे लोहे की तार से बांधकर नीचे भेजना था।
पर नीचे जाने को कोई तैयार नहीं था। सबको अपनी जान प्यारी थी। ऐसे में जसवंत सिंह स्वयं नीचे उतर गये। उन्होंने जैसे ही कैप्सूल का दरवाजा खोला, सामने डर से कांप रहे 65 मजदूर खड़े थे। गिल ने उन्हें दिलासा दिया और सबसे पास खड़े मजदूर को कैप्सूल में खड़ा कर दिया। कैप्सूल पर हथौड़े की चोट का संकेत पाकर ऊपर खड़े लोगों ने उसे खींचा और इस प्रकार पहला मजदूर बाहर आ गया। इससे सबका उत्साह बढ़ गया।
अब गिल ने मजदूरों से एक से 65 नंबर तक की पर्चियां उठवाईं और इस नंबर से ही सबको बाहर भेजा गया। पहले मानव शक्ति से कैप्सूल खींचा जा रहा था; पर लिफ्ट आने से इसमें तेजी आ गयी और छह घंटे में सब मजदूर बाहर आ गये। जसवंत सिंह सबसे अंत में ऊपर आये। इस प्रकार यह कठिन अभियान पूरा हुआ। ढाई दिन तक मजदूर अंधकार, विषैली गैस और तनाव के बीच रहे थे। अतः उन्हें तुरंत अस्पताल भेजा गया। जसवंत सिंह के साहस और बुद्धिमत्ता की दुनिया भर में प्रशंसा हुई। वे ‘कैप्सूल गिल’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। यह तकनीक फिर दुनिया में कई जगह काम आयी।
1991 में राष्ट्रपति श्री आर.वेंकटरामन ने उन्हें नागरिक वीरता का सर्वोच्च पुरस्कार ‘सर्वोत्तम जीवन रक्षा पदक’ प्रदान किया। इस अभियान पर फिल्म ‘मिशन रानीगंज’ बनी है। 1939 में अमृतसर के पास सठियाल में जन्मे जसवंत सिंह गिल का 26 नवंबर, 2019 को देहांत हुआ।
(हस्तक्षेप 2 या 9.12.23, विकी, फिल्म आदि)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें