अक्तूबर पहला सप्ताह

1 अक्तूबर/जन्म-दिवस     

भारत भक्त विदेशी महिला डा. एनी बेसेंट

डा. एनी वुड बेसेंट का जन्म एक अक्तूबर, 1847 को लंदन में हुआ था। इनके पिता अंग्रेज तथा माता आयरिश थीं। जब ये पांच वर्ष की थीं, तब इनके पिता का देहांत हो गया। अतः इनकी मां ने इन्हें मिस मेरियट के संरक्षण में हैरो भेज दिया। उनके साथ वे जर्मनी और फ्रांस गयीं और वहां की भाषाएं सीखीं। 17 वर्ष की अवस्था में वे फिर से मां के पास आ गयीं।

1867 में इनका विवाह एक पादरी रेवरेण्ड फ्रेंक से हुआ। वह संकुचित विचारों का था। अतः दो संतानों के बाद ही तलाक हो गया। ब्रिटिश कानून के अनुसार दोनों बच्चे पिता पर ही रहे। इससे इनके दिल को ठेस लगी। उन्होंने मां से बच्चों को अलग करने वाले कानून की निन्दा करते हुए अपना शेष जीवन निर्धन और अनाथों की सेवा में लगाने का निश्चय किया। इस घटना से इनका विश्वास ईश्वर, बाइबिल और ईसाई मजहब से भी उठ गया।

श्रीमती एनी बेसेंट इसके बाद लेखन और प्रकाशन से जुड़ गयीं। उन्होंने झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले मजदूरों की समस्याओं को सुलझाने के लिए अथक प्रयत्न किये। आंदोलन करने वाले मजदूरों के उत्पीड़न को देखकर उन्होंने ब्रिटिश सरकार के इन काले कानूनों का विरोध किया। वे कई वर्ष तक इंग्लैंड के सबसे शक्तिशाली महिला मजदूर यूनियन की सचिव भी रहीं।

वे 1883 में समाजवादी और 1889 में ब्रह्मविद्यावादी (थियोसोफी) विचारों के सम्पर्क में आयीं। वे एक कुशल वक्ता थीं और सारे विश्व में इन विचारों को फैलाना चाहती थीं। वे पाश्चात्य विचारधारा की विरोधी और प्राचीन भारतीय व्यवस्था की समर्थक थीं। 1893 में उन्होंने वाराणसी को अपना केन्द्र बनाया। यहां उनकी सभी मानसिक और आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान हुआ। अतः वे वाराणसी को ही अपना वास्तविक घर मानने लगीं।

1907 में वे थियोसोफिकल सोसायटीकी अध्यक्ष बनीं। उन्होंने धर्म, शिक्षा, राजनीति और सामाजिक क्षेत्र में पुनर्जागरण के लिए 1916 में होम रूल लीगकी स्थापना की। उन्होंने वाराणसी में सेंट्रल हिन्दू कॉलेजखोला तथा 1917 में इसे महामना मदनमोहन मालवीय जी को समर्पित कर दिया। वाराणसी में उन्होंने 1904 में हिन्दू गर्ल्स स्कूलभी खोला। इसी प्रकार इन्द्रप्रस्थ बालिका विद्यालय, दिल्लीतथा निर्धन एवं असहाय लोगों के लिए 1908 में थियोसोफिकल ऑर्डर ऑफ सर्विसकी स्थापना की।

उन्होंने धार्मिक एवं राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार, महिला जागरण, स्काउट एवं मजदूर आंदोलन आदि में सक्रिय भूमिका निभाई। सामाजिक बुराइयां मिटाने के लिए उन्होंने ब्रदर्स ऑफ सर्विससंस्था बनाई। इसके सदस्यों को एक प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर करने पड़ते थे। कांग्रेस और स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय होने के कारण उन्हें जेल में भी रहना पड़ा। 1917 के कोलकाता अधिवेशन में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। यद्यपि फिर लोकमान्य तिलक और गांधी जी से उनके भारी मतभेद हो गये। इससे वे अकेली पड़ गयीं। वे गांधीवाद का उग्र विरोध करते हुए कहती थीं कि इससे भारत में अराजकता फैल जाएगी।

डा. एनी बेसेंट एक विदुषी महिला थीं। उन्होंने सैकड़ों पुस्तक और लेख लिखे। वे स्वयं को पूर्व जन्म का हिन्दू एवं भारतीय मानती थीं। 20 सितम्बर, 1933 को चेन्नई में उनका देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी अस्थियों को वाराणसी में सम्मान सहित गंगा में विसर्जित कर दिया गया।

(संदर्भ  : केन्द्र भारती अक्तूबर 2006/विकीपीडिया)
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1 अक्तूबर/जन्म-दिवस
      

संगत के सेवादार सरदार चिरंजीव सिंह

पंजाब भारत की खड्गधारी भुजा है। पंजाबियों ने सर्वत्र अपनी योग्यता और पौरुष का लोहा मनवाया है; पर एक समय ऐसा भी आया, जब कुछ सिख समूह अलग खालिस्तान का राग गाने लगे। इस माहौल को संभालने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ का गठन कर इसकी जिम्मेदारी वरिष्ठ प्रचारक श्री चिरंजीव सिंह को दी।

चिरंजीव जी का जन्म एक अक्तूबर, 1930 (आश्विन शु. 9) को पटियाला में एक किसान श्री हरकरण दास (तरलोचन सिंह) तथा श्रीमती द्वारकी देवी (जोगेन्दर कौर) के घर में हुआ। मां सरकारी विद्यालय में पढ़ाती थीं। उनसे पहले दो भाई और भी थे; पर वे बचे नहीं। मंदिर और गुरुद्वारों में पूजा के बाद जन्मे इस बालक का नाम मां ने चिरंजीव रखा। 1952 में उन्होंने राजकीय विद्यालय, पटियाला से बी.ए. किया। वे बचपन से ही सब धर्म और पंथों के संतों के पास बैठते थे। 

1944 में कक्षा सात में पढ़ते समय वे अपने मित्र रवि के साथ पहली बार शाखा गये। वहां के खेल, अनुशासन, प्रार्थना और नाम के साथ ‘जी’ लगाने से वे बहुत प्रभावित हुए। शाखा में वे अकेले सिख थे। 1946 में वे प्राथमिक वर्ग और फिर 1947, 50 और 52 में तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्गों में गये। 1946 में गीता विद्यालय, कुरुक्षेत्र की स्थापना पर सरसंघचालक श्री गुरुजी के भाषण ने उनके मन पर अमिट छाप छोड़ी। गला अच्छा होने के कारण वे गीत कविता आदि खूब बोलते थे। श्री गुरुजी को ये सब बहुत अच्छा लगता था। अतः उनका प्रेम चिरंजीव जी को खूब मिला।

1948 के प्रतिबंध काल में वे सत्याग्रह कर दो मास जेल में रहे। बी.ए. के बाद वे अध्यापक बनना चाहते थे; पर विभाग प्रचारक बाबू श्रीचंद जी के आग्रह पर 1953 में वे प्रचारक बन गये। वे मलेर कोटला, संगरूर, पटियाला, रोपड़, लुधियाना में तहसील, जिला, विभाग व सह संभाग प्रचारक रहे। लुधियाना 21 वर्ष तक उनका केन्द्र रहा। संघ शिक्षा वर्ग में वे 20 वर्ष शिक्षक और चार बार मुख्य शिक्षक रहे। 1984 में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद, पंजाब का संगठन मंत्री बनाया गया। इस दायित्व पर वे 1990 तक रहे।

इससे पूर्व ‘पंजाब कल्याण फोरम’ बनाकर सभी पंजाबियों में प्रेम बनाये रखने के प्रयास किये जा रहे थे। 1982 में अमृतसर में एक धर्म सम्मेलन भी हुआ। 1987 में स्वामी वामदेव जी व स्वामी सत्यमित्रानंद जी के नेतृत्व में 600 संतों ने हरिद्वार से अमृतसर तक यात्रा की और अकाल तख्त के जत्थेदार दर्शन सिंह जी से मिलकर एकता का संदेश गंुजाया। अक्तूबर 1986 में दिल्ली में एक बैठक हुई। उसमें गहन चिंतन के बाद गुरु नानकदेव जी के प्रकाश पर्व (24 नवम्बर, 1986) पर अमृतसर में ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ का गठन हो गया। सरदार शमशेर सिंह गिल इसके अध्यक्ष तथा चिरंजीव जी महासचिव बनाये गये। 1990 में शमशेर जी के निधन के बाद चिरंजीव जी इसके अध्यक्ष बने।

चिरंजीव जी ने संगत के काम के लिए देश के साथ ही इंग्लैड, कनाडा, जर्मनी, अमरीका आदि में प्रवास किया। उनके कार्यक्रम में हिन्दू और सिख दोनों आते थे। उन्होंने दोनों को एक परिवार का अंग बताते हुए कहा कि खालिस्तान आंदोलन को अधिक समर्थन नहीं है; पर भयवश लोग चुप रहते हैं। 1999 में ‘खालसा सिरजना यात्रा’ पटना में सम्पन्न हुई। वर्ष 2000 में न्यूयार्क के ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में वे 108 संतों के साथ गये, जिनमें आनंदपुर साहिब के जत्थेदार भी थे। ऐसे कार्यक्रमों से संगत का काम विश्व भर में फैल गया। इसे वैचारिक आधार देने में पांचवे सरसंघचालक सुदर्शन जी का भी बड़ा योगदान रहा।
वर्ष 2003 में वृद्धावस्था के कारण उन्होंने अध्यक्ष पद छोड़ दिया तथा दिल्ली में पहाड़गंज स्थित संगत के कार्यालय में रहने लगे। वहां कार्यकर्ता उनसे मिलने आते रहते थे। 20 नवम्बर, 2023 को लुधियाना में उनका देहांत हुआ।

(संदर्भ : संगत संसार के सम्पादक राकेश रिखी से प्राप्त जानकारी)
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2 अक्तूबर/जन्म-दिवस

राष्ट्रपुरुष गांधी जी

मोहनदास करमचन्द गांधी का जन्म दो अक्तूबर, 1869 को पोरबन्दर( गुजरात) में हुआ था। उनके पिता करमचन्द गांधी पहले पोरबन्दर और फिर राजकोट के शासक के दीवान रहे। गांधी जी की माँ बहुत धर्मप्रेमी थीं। वे प्रायः रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों का पाठ करती रहती थीं। वे मन्दिर जाते समय अपने साथ मोहनदास को भी ले जाती थीं। इस धार्मिक वातावरण का बालक मोहनदास के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा।

बचपन में गांधी जी ने श्रवण की मातृ-पितृ भक्ति तथा राजा हरिश्चन्द्र नामक नाटक देखे। इन्हें देखकर उन्होंने माता-पिता की आज्ञापालन तथा सदा सत्य बोलने का संकल्प लिया। 13 वर्ष की छोटी अवस्था में ही उनका विवाह कस्तूरबा से हो गया। विवाह के बाद भी गांधी जी ने पढ़ाई चालू रखी। जब उन्हें ब्रिटेन जाकर कानून की पढ़ाई का अवसर मिला, तो उनकी माँ ने उन्हें शराब और माँसाहार से दूर रहने की प्रतिज्ञा दिलायी। गांधी जी ने आजीवन इस व्रत का पालन किया।

कानून की पढ़ाई पूरी कर वे भारत आ गये; पर यहाँ उनकी वकालत कुछ विशेष नहीं चल पायी। गुजरात के कुछ सेठ अफ्रीका से भी व्यापार करते थे। उनमें से एक दादा अब्दुल्ला के वहाँ कई व्यापारिक मुकदमे चल रहे थे। उन्होंने गांधी जी को उनकी पैरवी के लिए अपने खर्च पर अफ्रीका भेज दिया। अफ्रीका में उन्हें अनेक कटु अनुभव हुए। वहाँ भी भारत की तरह अंग्रेजों का शासन था। वे स्थानीय काले लोगों से बहुत घृणा करते थे।

एक बार गांधी जी प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर रेल में यात्रा कर रहे थे; एक स्टेशन पर रात में उन्हें अंग्रेज यात्री के लिए अपनी सीट छोड़ने को कहा गया। मना करने पर उन्हें सामान सहित बाहर धक्का दे दिया गया। इसका उनके मन पर बहुत गहरा असर पड़ा। उन्होंने अफ्रीका में स्थानीय नागरिकों तथा भारतीयों के अधिकारों के लिए सत्याग्रह के माध्यम से संघर्ष प्रारम्भ कर दिया। इसमें उन्हें सफलता भी मिली।

इससे उत्साहित होकर वे भारत लौटे और कांग्रेस में शामिल होकर अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने लगे। उनकी इच्छा थी कि भारत के सब लोग साथ मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला करें। इसके लिए उन्होंने मुसलमानों से अनेक प्रकार के समझौते किये, जिससे अनेक लोग उनसे नाराज भी हो गये; पर वे अपने सिद्धान्तों पर अटल रहकर काम करते रहे।

सविनय अवज्ञा, दाण्डी यात्रा, अंग्रेजो भारत छोड़ो..आदि आन्दोलनों में उन्होंने लाखों लोगों को जोड़ा। जब अंग्रेजों ने अलग चुनाव के आधार पर हिन्दू समाज के वंचित वर्ग को अलग करना चाहा, तो गांधी जी ने आमरण अनशन कर इस षड्यन्त्र को विफल कर दिया। 15 अगस्त, 1947 को देश को स्वतन्त्रता मिली; पर देश का विभाजन भी हुआ। अनेक लोगों ने विभाजन के लिए उन्हें और कांग्रेस को दोषी माना।

उन दिनों देश दंगों से त्रस्त था। विभाजन के दौरान लाखों हिन्दू मारे गये थे। फिर भी गांधी जी हिन्दू-मुस्लिम एकता के पीछे पड़े थे। इससे नाराज होकर नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को सायंकाल प्रार्थना सभा में जाते समय उन्हें गोली मार दी। गांधी जी का वहीं प्राणान्त हो गया।

गांधी जी के ग्राम्य विकास एवं स्वदेशी अर्थ व्यवस्था सम्बन्धी विचार आज भी प्रासंगिक हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि जिन नेहरू जी को उन्होंने जिदपूर्वक प्रधानमन्त्री बनाया, उन्होंने ही उनके सब विचारों को ठुकरा दिया।
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2 अक्तूबर/जन्म-दिवस

कर्मपथ के पथिक जुगल किशोर जैथलिया

राजस्थान में जन्म लेकर कोलकाता को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले श्री जुगल किशोर जैथलिया का जन्म दो अक्तूबर, 1937 को छोटीखाटू (जिला नागौर) में हुआ था। उनके पिता श्री कन्हैया लाल एवं माता श्रीमती पुष्पादेवी थीं। अकेले पुत्र होने के कारण 15 वर्ष में ही उनका विवाह कर दिया गया। 

1953 में वे कोलकाता आ गये, जहां उनके पिताजी एक राजस्थानी फर्म में काम करते थे। जुगलजी ने यहां काम के साथ पढ़ाई जारी रखी और कानून और एम.काॅम की उपाधि प्राप्त की। इसी दौरान वे एक वकील के पास बैठने लगे और फिर अलग से आयकर सलाहकार के रूप में काम शुरू कर दिया।

जुगलजी का रुझान साहित्यिक गतिविधियों की ओर विशेष था। कोलकाता आकर भी वे अपनी जन्मभूमि से जुड़े रहे। उन्होंने अपने मित्रों के साथ 1958 में ‘श्री छोटीखाटू हिन्दी पुस्तकालय’ की स्थापना की। यहां पत्र-पत्रिकाओं के अध्ययन के साथ विचार गोष्ठियां भी होती थीं, जिसमें वे सामाजिक, साहित्यिक और राजनीतिक जगत की बड़ी हस्तियों को बुलाते थे। 

पुस्तकालय के भवन का उद्घाटन उन्होंने प्रख्यात साहित्यकार वैद्य गुरुदत्त से कराया। इससे उस गांव की पहचान पूरे प्रदेश में हो गयी। इसके बाद ‘पंडित दीनदयाल साहित्य सम्मान’ तथा ‘महाकवि कन्हैयालाल सेठिया मायड़ भाषा सम्मान’ प्रारम्भ किये। कई स्मारिकाएं भी प्रकाशित की गयीं। गांव में टेलीफोन, पेयजल, अस्पताल जैसे लोक कल्याण के कामों में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।

कोलकाता में राजस्थान परिषद, सेठ सूरजमल जालान पुस्तकालय, बड़ाबाजार लाइब्रेरी आदि के उन्नयन में उनकी भूमिका सदा याद की जाएगी। 1973 में उन्होंने ‘श्री बड़ाबाजार कुमारसभा पुस्तकालय’ का काम संभाला और उसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलाई। इसमें श्री विष्णुकांत शास्त्री का भी विशेष योगदान रहा। 

उनके संयोजन में आपातकाल के दौरान हल्दीघाटी चतुःशती समारोह एवं कवि सम्मेलन हुआ। 1994 में अटल बिहारी वाजपेयी का एकल काव्यपाठ तो अद्भुत था। आज अटलजी की जो कविताएं उनके स्वर में उपलब्ध हैं, वे उसी कार्यक्रम की देन हैं। संस्था द्वारा 1986 से ‘स्वामी विवेकानंद सेवा सम्मान’ तथा 1990 से ‘डा. हेडगेवार प्रज्ञा सम्मान’ भी दिया जा रहा है। 

जुगलजी स्मारिकाओं के प्रकाशन पर विशेष जोर देते थे। इससे जहां संस्था की आर्थिक स्थिति सुधरती थी, वहां उस विषय पर अधिकृत जानकारी भी पाठकों को उपलब्ध होती थी। गद्य एवं पद्य के कई गं्रथों का सम्पादन उन्होंने स्वयं किया। 65 वर्ष के होने पर उन्होंने वकालत छोड़ दी और पूरा समय सामाजिक कामों में लगाने लगे। 

वे कोलकाता की कई संस्थाओं के सदस्य थे। उनके प्रयास से कोलकाता में महाराणा प्रताप की स्मृति में एक पार्क तथा सड़क का नामकरण हुआ तथा एक बड़ी कांस्य प्रतिमा स्थापित हुई। वे भारत सरकार द्वारा संचालित ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ के निदेशक एवं न्यासी भी थे। उनके प्रयास से इस संस्था ने राजस्थानी भाषा में भी पुस्तकें प्रकाशित कीं।

जुगलजी 1946 में अपने गांव में शाखा जाने लगे थे। कोलकाता में वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और फिर संघ में सक्रिय रहे। उन पर महानगर बौद्धिक प्रमुख और फिर प्रांत के सह बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी रही। 1982 में वे भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर जोड़ाबागान विधानसभा से चुनाव लड़े। वे बंगाल भा.ज.पा. के कोषाध्यक्ष तथा वरिष्ठ उपाध्यक्ष भी रहे। 

कोलकाता में बड़ी संख्या में राजस्थानी व्यापारी रहते हैं। अपने मूल स्थानों के अनुसार उनकी संस्थाएं भी हैं। उन्हें एक साथ लाने और संघ से जोड़ने में जुगलजी की भूमिका बड़े महत्व की रही। वे पृष्ठभूमि में रहकर सभी शैक्षिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं का सहयोग करते थे। अनेक सम्मानों से विभूषित जुगल किशोर जैथलिया का एक जून, 2016 को कोलकाता में ही निधन हुआ। 


(संदर्भ : पांचजन्य 7.1.18)
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3 अक्तूबर/बलिदान-दिवस

स्वाभिमानी राजा विजय सिंह

सामान्यतः भारत में स्वाधीनता के संघर्ष को 1857 से प्रारम्भ माना जाता है; पर सत्य यह है कि जब से बाहरी आक्रमण भारत पर होने लगे, तब से ही यह संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। भारत के स्वाभिमानी वीरों ने मुगल, तुर्क, हूण, शक, पठान, बलोच और पुर्तगालियों से लेकर अंग्रेजों तक को धूल चटाई है। ऐसे ही एक वीर थे राजा विजय सिंह।

उत्तराखंड राज्य में हरिद्वार एक विश्वप्रसिद्ध तीर्थस्थल है। यहां पर ही गंगा पहाड़ों का आश्रय छोड़कर मैदानी क्षेत्र में प्रवेश करती है। इस जिले में एक गांव है कुंजा बहादुरपुर। यहां के बहादुर राजा विजय सिंह ने 1857 से बहुत पहले 1824 में ही अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता का संघर्ष छेड़ दिया था।

कुंजा बहादुरपुर उन दिनों लंढौरा रियासत का एक भाग था। इसमें उस समय 44 गांव आते थे। 1813 में लंढौरा के राजा रामदयाल सिंह के देहांत के बाद रियासत की बागडोर उनके पुत्र राजा विजय सिंह ने संभाली। उन दिनों  प्रायः सभी भारतीय राजा और जमींदार अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे; पर गंगापुत्र राजा विजय सिंह किसी और ही मिट्टी के बने थे।

राजा विजय सिंह ने अंग्रेजों के आगे सिर झुकाने की बजाय उन्हें अपनी रियासत से बाहर निकल जाने का आदेश सुना दिया। वीर सेनापति कल्याण सिंह भी राजा के दाहिने हाथ थे। 1822 ई. में सेनापति के सुझाव पर राजा विजय सिंह ने अपनी जनता को आदेश दिया कि वे अंग्रेजों को मालगुजारी न दें, ब्रिटिश राज्य के प्रतीक सभी चिन्हों को हटा दें, तहसील के खजानों को अपने कब्जे में कर लें तथा जेल से सभी बन्दियों को छुड़ा लें। जनता भी अपने राजा और सेनापति की ही तरह देशाभिमानी थी। उन्होंने इन आदेशों का पालन करते हुए अंग्रेजों की नींद हराम कर दी।

अंग्रेजों ने सोचा कि यदि ऐसे ही चलता रहा, तो सब ओर विद्रोह फैल जाएगा। अतः सबसे पहले उन्होंने राजा विजय सिंह को समझा बुझाकर उसके सम्मुख सन्धि का प्रस्ताव रखा; पर स्वाभिमानी राजा ने इसे ठुकरा दिया। अब दोनों ओर से लड़ाई की तैयारी होने लगी। सात सितम्बर, 1824 की रात को अंग्रेजों ने गांव कुंजा बहादुरपुर पर हमला बोल दिया। उनकी सेना में अनेक युद्ध लड़ चुकी गोरखा रेजिमेंट की नौवीं बटालियन भी शामिल थी।

राजा विजय सिंह और सेनापति कल्याण सिंह जानते थे कि अंग्रेजों के पास सेना बहुत अधिक है तथा उनके पास अस्त्र-शस्त्र भी आधुनिक प्रकार के हैं; पर उन्होंने झुकने की बजाय संघर्ष करने का निर्णय लिया। राजा विजय सिंह के नेतृत्व में गांव के वीर युवकों ने कई दिन तक मोर्चा लिया; पर अंततः तीन अक्तूबर, 1824 को राजा को युद्धभूमि में वीरगति प्राप्त हुई।

इससे अंग्रेज सेना मनमानी पर उतर आयी। उन्होंने गांव में जबरदस्त मारकाट मचाते हुए महिला, पुरुष, बच्चे, बूढ़े.. किसी पर दया नहीं दिखाई। उन्होंने सैकड़ों लोगों को गिरफ्तार कर लिया। गांव में स्थित सुनहरा केवट वृक्ष पर लटका कर एक ही दिन में 152 लोगों को फांसी दे दी गयी। इस भयानक नरसंहार का उल्लेख तत्कालीन सरकारी गजट में भी मिलता है।

कैसा आश्चर्य है कि दो-चार दिन की जेल काटने वालों को स्वाधीनता सेनानी प्रमाण पत्र और पेंशन दी गयी; पर अपने प्राण न्यौछावर करने वाले राजा विजय सिंह और कुंजा बहादुरपुर के बहादुरों को बहुत कम याद किया जाता है। 

(संदर्भ : जनसत्ता 3.1.2012)
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4 अक्तूबर/बलिदान-दिवस

जयमंगल पांडे और नादिर अली का बलिदान

1857 के स्वाधीनता संग्राम की ज्योति को अपने बलिदान से जलाने वाले मंगल पाण्डे को तो सब जानते हैं; पर उनके नाम से काफी मिलते-जुलते बिहार निवासी जयमंगल पाण्डे का नाम कम ही प्रचलित है।

बैरकपुर छावनी में हुए विद्रोह के बाद देश की अन्य छावनियों में भी क्रान्ति-ज्वाल सुलगने लगी। बिहार में सैनिक क्रोध से जल रहे थे। 13 जुलाई को दानापुर छावनी में सैनिकों ने क्रान्ति का बिगुल बजाया, तो 30 जुलाई को रामगढ़ बटालियन की आठवीं नेटिव इन्फैण्ट्री के जवानों ने हथियार उठा लिये। भारत माता को दासता की जंजीरों से मुक्त करने की चाहत हर जवान के दिल में घर कर चुकी थी। बस, सब अवसर की तलाश में थे।

सूबेदार जयमंगल पाण्डे उन दिनों रामगढ़ छावनी में तैनात थे। उन्होंने अपने साथी नादिर अली को तैयार किया और फिर वे दोनों 150 सैनिकों को साथ लेकर राँची की ओर कूच कर गये। वयोवृद्ध बाबू कुँवरसिंह जगदीशपुर में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। इस अवस्था में भी उनका जीवट देखकर सब क्रान्तिकारियों ने उन्हें अपना नेता मान लिया था। जयमंगल पाण्डे और नादिर अली भी उनके दर्शन को व्याकुल थे। 11 सितम्बर, 1857 को ये दोनों अपने जवानों के साथ जगदीशपुर की ओर चल दिये।

वे कुडू, चन्दवा, बालूमारथ होते हुए चतरा पहुँचे। उस समय चतरा का डिप्टी कमिश्नर सिम्पसन था। उसे यह समाचार मिल गया था कि ये दोनों अपने क्रान्तिकारी सैनिकों के साथ फरार हो चुके हैं। उन दिनों अंग्रेज अधिकारी बाबू कुँवरसिंह से बहुत परेशान थे। उन्हें लगा कि इन दोनों को यदि अभी न रोका गया, तो आगे चलकर ये भी सिरदर्द बन जाएंगे। अतः उसने मेजर इंगलिश के नेतृत्व में सैनिकों का एक दल भेजा। उसमें 53 वें पैदल दस्ते के 150 सैनिकों के साथ सिख दस्ते ओर 170 वें बंगाल दस्ते के सैनिक भी थे। इतना ही नहीं, तो उनके पास आधुनिक शस्त्रों का बड़ा जखीरा भी था।

इधर वीर जयमंगल पाण्डे और नादिर अली को भी सूचना मिल गयी कि मेजर इंगलिश अपने भारी दल के साथ उनका पीछा कर रहा है। अतः उन्होंने चतरा में जेल के पश्चिमी छोर पर मोर्चा लगा लिया। वह दो अक्तूबर, 1857 का दिन था। थोड़ी देर में ही अंग्रेज सेना आ पहुँची।

जयमंगल पाण्डे के निर्देश पर सब सैनिक मर मिटने का संकल्प लेकर टूट पड़े; पर इधर संख्या और अस्त्र शस्त्र दोनों ही कम थे, जबकि दूसरी ओर ये पर्याप्त मात्रा में थे। फिर भी दिन भर चले संघर्ष में 58 अंग्रेज सैनिक मारे गये। उन्हें कैथोलिक आश्रम के कुँए में हथियारों सहित फेंक दिया गया। बाद में शासन ने इस कुएँ को ही कब्रगाह बना दिया।

इधर क्रान्तिवीरों की भी काफी क्षति हुई। अधिकांश सैनिकों ने वीरगति पायी। तीन अक्तूबर को जयमंगल पाण्डे और नादिर अली पकड़े गये। अंग्रेज अधिकारी जनता में आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए अगले दिन चार अक्तूबर को पन्सीहारी तालाब के पास एक आम के पेड़ पर दोनों को खुलेआम फाँसी दे दी गयी। बाद में इस तालाब को फाँसी तालाब, मंगल तालाब, हरजीवन तालाब आदि अनेक नामों से पुकारा जाने लगा। स्वतन्त्रता के बाद वहाँ एक स्मारक बनाया गया। उस पर लिखा है -

जयमंगल पाण्डेय नादिर अली दोनों सूबेदार रे
दोनों मिलकर फाँसी चढ़े हरजीवन तालाब रे।।
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5 अक्तूबर/जन्म-दिवस

केरल में हिन्दू शक्ति के सर्जक भास्कर राव कलम्बी

छोटा होने पर भी केरल में संघ की सर्वाधिक शाखाएं हैं। इसका बहुतांश श्रेय पांच अक्तूबर, 1919 को ब्रह्मदेश में रंगून के पास ग्राम डास (टिनसा) में जन्मे श्री भास्कर राव कलंबी को है। उनके पिता श्री शिवराम कलंबी वहां चिकित्सक थे। 

जब वे 11 वर्ष के थे, तो उनकी मां श्रीमती राधाबाई का और अगले वर्ष पिताजी का निधन हो गया। अतः सब भाई-बहिन अपनी बुआ के पास मुंबई आ गये। मुंबई के प्रथम प्रचारक श्री गोपालराव येरकुंटवार के माध्यम से वे 1935 में शिवाजी उद्यान शाखा में जाने लगे। डा. हेडगेवार के मुंबई आने पर वे प्रायः उनकी सेवा में रहते थे। 1940 में उन्होंने तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। वहां पूज्य डा. जी ने अपना अंतिम बौद्धिक दिया था। इससे उनके जीवन की दिशा निर्धारित हो गयी। मुंबई में वे दादर विभाग के कार्यवाह थे।


1945 में वकालत उत्तीर्ण कर वे प्रचारक बने और उन्हें केरल में कोच्चि भेजा गया। अलग प्रांत बनने पर वे केरल के प्रथम प्रांत प्रचारक बने। तब से 1982 तक वही उनका कार्यक्षेत्र रहा। वे वहां की भाषा, भोजन, वेष और नाम (के.भास्करन्) अपनाकर पूर्णतः समरस हो गये। उन दिनों वहां हिन्दुओं का भारी उत्पीड़न होता था। यदि हिन्दू दुकान पर बैठकर चाय पी रहा हो और ईसाई या मुसलमान आ जाए, तो उसे खड़े होना पड़ता था। ऊपर लपेटी हुई लुंगी भी नीचे करनी पड़ती थी। शासन पूरी तरह हिन्दू विरोधी था ही। 1951 में ईसाइयों ने केरल में 105 मंदिर तोड़े थे। ऐसे माहौल में काम करना सरल न था।


पर भास्कर राव जुझारू प्रकृति के थे। उन्होंने मछुआरों में रात्रि शाखाएं शुरू कीं। इससे हिन्दू ईंट का जवाब पत्थर से देने लगे। शुक्रवार को विद्यालयों में नमाज की छुट्टी होती थी। उन्होंने इस समय में विद्यालय शाखाओं का विस्तार किया। मछली के कारोबार में मुसलमान प्रभावी थे। वे शुक्रवार को छुट्टी रखते थे। इससे हिन्दुओं को भारी हानि होती थी। भास्करराव ने ‘मत्स्य प्रवर्तक संघ’ बनाकर इस एकाधिकार को तोड़ा। 


उन दिनों कम्यूनिस्ट भी शाखा पर हमले करते थे। स्वयंसेवकों ने उन्हंे उसी शैली में जवाब दिया। कई स्वयंसेवक मारे गये, कई को लम्बी सजाएं हुईं; पर भास्कर राव डटे रहे। एक बार तो कम्युनिस्टों को सत्ता से हटाने के लिए उन्होंने कांग्रेस का साथ दिया। सरकार बनने पर कांग्रेस नेता व्यालार रवि ने संघ कार्यालय आकर उन्हें धन्यवाद दिया।


उन्होंने शहरों या पैसे वालों की बजाय मछुआरे, भूमिहीन किसान, मजदूर, छोटे कारीगर, अनुसूचित जाति व जनजाति के बीच काम बढ़ाया। इससे हजारों संघर्षशील कार्यकर्ता निर्माण हुए। इसके बाद उन्होंने जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, मजदूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बाल गोकुलम्, मंदिर संरक्षण समिति जैसे कामों के लिए भी कार्यकर्ता उपलब्ध कराये। छुआछूत के माहौल में उनके प्रयास से गुरुवायूर मंदिर में सबका प्रवेश संभव हुआ। उन्होंने कामकोटि के शंकराचार्य जी की अनुमति से सभी वर्गों के लिए पुजारी प्रशिक्षण शुरू किया। 

1981 में हृदयाघात तथा 1983 में बाइपास सर्जरी के बाद 1984 में उन्हें ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के अ.भा.संगठन मंत्री का कार्य दिया गया। उन्होंने सबसे कहा कि ईसाइयों की तरह वनवासियों की गरीबी और अशिक्षा का ढिंढोरा बंद कर उनके गौरवशाली इतिहास और परम्पराओं को सामने लाएं। इससे वनवासियों का स्वाभिमान जागा और उनमें से ही सैकड़ों प्रचारक एवं पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने। खेल प्रतियोगिता से भी हजारों जनजातीय युवक व युवतियां काम में जुड़े। जबलपुर में उन्होंने ‘वनस्वर अकादमी’ की स्थापना की।


भास्करराव 14 भाषाएं जानते थे। 1996 में कैंसरग्रस्त हो जाने से उन्होंने सब दायित्वों से मुक्ति ले ली। मुंबई में चिकित्सा के दौरान जब उन्हें लगा कि अब ठीक होना संभव नहीं है, तो वे आग्रहपूर्वक अपने पहले कार्यक्षेत्र कोच्चि में आ गये। 12 जनवरी, 2002 को कोच्चि के संघ कार्यालय पर ही उन्होंने संतोषपूर्वक अंतिम सांस ली।  


(संदर्भ : हमारे महान वन नायक)
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5 अक्तूबर/जन्म-दिवस

तपस्वी राजनीतिज्ञ कैलाशपति मिश्र



राजनीति को प्रायः उठापटक और जिन्दाबाद-मुर्दाबाद वाला क्षेत्र माना जाता है; पर संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री कैलाशपति मिश्र ने यहां रहकर अपने आदर्श आचरण से समर्थक ही नहीं, तो घोर विरोधियों तक को प्रभावित किया। बिहार और झारखंड में उन्होंने जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। सबसे वरिष्ठ होने के कारण वे ‘भीष्म पितामह’ माने जाते थे।

श्री कैलाशपति मिश्र का जन्म पांच अक्तूबर, 1923 को बिहार के बक्सर जिले में स्थित ग्राम दुधारचक में श्री हजारीप्रसाद मिश्र के घर में हुआ था। इस परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; लेकिन कैलाशपति जी की रुचि पढ़ने में बहुत थी। 1942 में वे कक्षा दस के छात्र थे। उन दिनों देश भर में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ आंदोलन का जोर था। श्री कैलाशपति मिश्र ने भी उस आंदोलन में सहभाग करते हुए जेल की यात्रा की।


जेल से आकर वे फिर पढ़ाई में लग गये। 1945 में उनका सम्पर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ और फिर वही उनके जीवन का ध्येय बन गया। उन्होंने अविवाहित रहकर संघ के माध्यम से देशसेवा का व्रत ले लिया।  शिक्षा पूर्ण कर उनके प्रचारक जीवन की यात्रा 1947 में प्रारम्भ हुई। क्रमशः आरा, पटना और पूर्णिया में संघ का काम करने के बाद 1959 में उन्हें जनसंघ के बिहार प्रदेश संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी। इससे पूर्व संघ पर 1948 में लगे प्रतिबंध के विरोध में वे जेल भी गये थे। 


उन दिनों सब ओर कांग्रेस और नेहरू जी का डंका बज रहा था। ऐसे विपरीत माहौल में श्री कैलाशपति मिश्र के परिश्रम से बिहार के हर जिले और तहसील तक जनसंघ का नाम और काम पहुंचा गया। आपातकाल की समाप्ति के बाद उन्होंने संगठन के निर्देश पर प्रत्यक्ष चुनावी राजनीति में प्रवेश किया और पटना की विक्रम विधानसभा से विजयी होकर विधायक बने। मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने उनकी योग्यता देखकर उन्हें वित्तमंत्री की जिम्मेदारी दी।


1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन होने पर उन्हें उसकी बिहार इकाई का पहला अध्यक्ष बनाया गया। 1987 तक वे इस पद पर रहे। 1984 में उन्हें राज्यसभा में भेजा गया। भाजपा के राष्ट्रीय मंत्री और उपाध्यक्ष के नाते उन्हें समय-समय पर अनेक राज्यों में चुनाव तथा संगठन सम्बन्धी कार्यों की जिम्मेदारी दी गयी, जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक निभाया।


जीवन के संध्याकाल में उन्होंने सक्रिय राजनीति से अवकाश ले लिया; पर जिन दिनों केन्द्र में भाजपा एवं सहयोगियों का शासन था, तब उनके अनुभव को देखते हुए उन्हें गुजरात का राज्यपाल बनाया गया। कुछ समय उन पर राजस्थान के राज्यपाल का अतिरिक्त प्रभार भी रहा। 2004 में केन्द्र में शासन बदलने पर वे इस जिम्मेदारी से मुक्त होकर पटना में ही रहने लगे।


श्री कैलाशपति मिश्र राजनीतिक क्षेत्र में कार्यरत एक निष्कंलक व्यक्तित्व वाले तपस्वी राजनीतिज्ञ थे। लगभग 50 वर्षीय राजनीतिक यात्रा में उन पर न कभी कोई आरोप लगा और न ही वे कभी किसी विवाद में फंसे। राजनीति के दलदल में कमल के समान अहंकार, बुराई, द्वेष, लोभ-लालच आदि से वे मीलों दूर रहे। वे सत्ता में भी रहे और विरोध पक्ष में भी; पर अपने विचारों से कभी विचलित नहीं हुए। इस कारण विरोधी भी उनका सम्मान करते थे।


आगे चलकर बिहार और झारखंड में भाजपा ने कई बार सत्ता का सुख भोगा। यह श्री कैलाशपति मिश्र की तपस्या का ही सुपरिणाम था। तीन नवम्बर, 2012 को पटना में लम्बी बीमारी के बाद उनका देहांत हुआ। प्रखर विचारों और विशुद्ध आचरण वाले ऐसे मनीषी राजनेता को बिहार में भाजपा के कार्यकर्ता आज भी अपना प्रेरणास्रोत मानते हैं।     


(संदर्भ : पांचजन्य 18.11.2012)

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5 अक्तूबर/जन्म-दिवस

तेजस्वी पत्रकार वेदप्रकाश भाटिया

श्री वेदप्रकाश भाटिया अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले प्रखर एवं तेजस्वी पत्रकार थे। उनका जन्म अखंड भारत में पांच अक्तूबर, 1929 को झेलम जिले के पिंड गादरखान ग्राम में हुआ था। 1947 में देश के विभाजन के बाद यह क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा झेलम में ही हुई।


शिक्षा के प्रेमी वेदप्रकाश जी ने मैट्रिक की शिक्षा पंजाब विश्वविद्यालय से प्राप्त की। 1945-46 में उन्होंने बी.ए. करने के लिए लाहौर के डी.ए.वी. काॅलिज में प्रवेश लिया; पर इसी बीच देश का विभाजन हो गया। उस समय के सब झंझटों और संकटों को झेलते हुए उनका परिवार हरियाणा में यमुनानगर आ गया। यहां आकर उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की।


बी.ए. के बाद पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने एक शिक्षण संस्थान की स्थापना की। बचपन से ही अंग्रेजी भाषा और साहित्य में उनकी बहुत रुचि थी। पंजाब वि.वि. से अंग्रेजी में एम.ए. करते हुए उन्होंने सर्वाधिक अंक प्राप्त किये। इसके बाद वे अम्बाला के एस.के.जैन काॅलिज में तथा 1957-58 में वहां के ही डी.ए.वी. काॅलिज में अंग्रेजी के प्राध्यापक हो गये।


वेदप्रकाश जी यों तो अध्यापन कर रहे थे; पर उनके मन में पत्रकारिता के बीज विद्यमान थे। अतः 1968 में वे परिवार सहित दिल्ली आ गये। यहां ‘भारत प्रकाशन’ की ओर से हिन्दी में साप्ताहिक ‘पांचजन्य’ तथा अंग्रेजी में ‘आर्गनाइजर’ का प्रकाशन होता है। वेदप्रकाश जी को आर्गनाइजर के सम्पादक श्री केवल रतन मलकानी का सहायक बनाया गया। उनके सान्निध्य में वे पत्रकारिता के गुर सीखते हुए अपनी लेखनी की धार तेज करते रहे।


कुछ वर्ष बाद ‘भारत प्रकाशन’ ने अंग्रेजी में एक दैनिक पत्र ‘मदरलैंड’ प्रारम्भ कर उसका सम्पादक श्री मलकानी को बनाया। उनके वहां जाने से आर्गनाइजर के सम्पादन की पूरी जिम्मेदारी वेदप्रकाश जी पर आ गयी। इसके बाद 1993 में अपनी सेवा-निवृत्ति तक वे ही उसके सम्पादक रहे। वेदप्रकाश जी के लेखन की धार तो प्रखर थी ही, पर उनके अध्ययन  और चिंतन-मनन का दायरा भी बहुत विशाल था। अतः उनके लेख तथा ताजी सम्पादकीय टिप्पणियों की पाठक उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे। उनके लेखन में हिन्दू और हिन्दुत्व के प्रति अटूट निष्ठा सदा झलकती थी।


‘भारत प्रकाशन’ की आर्थिक स्थिति उन दिनों अच्छी नहीं रहती थी। कांग्रेस विरोधी होने के कारण उन्हें विज्ञापनों का अभाव झेलना पड़ता था। अतः सम्पादक तथा अन्य सहयोगियों को बहुत कम वेतन मिलता था। वेदप्रकाश जी की योग्यता देखकर कई अंग्रेजी पत्रों ने कई गुने वेतन, भत्ते और सुविधाओं पर उन्हें अपने संस्थान में बुलाना चाहा; पर वेदप्रकाश जी के लेखन का उद्देश्य धन कमाना न होकर राष्ट्रीय विचारों का प्रचार और प्रसार था।


वेदप्रकाश जी ने विभाजन अपनी आंखों से देखा था। उसकी विभीषिका के वे भुक्तभोगी थे। अतः इस बारे में वे खूब पढ़ते थे। भारत-पाक संबंधों पर उपलब्ध प्रायः सभी पुस्तकें उनके पास थीं। आर्गनाइजर से सेवा-निवृत्ति के बाद भी उनका साप्ताहिक स्तम्भ ‘किंग्स एंड कैबेजेस’ बहुत लोकप्रिय था।


यों तो वे मूलतः अंग्रेजी के पत्रकार थे; पर सेवा-निवृत्त होकर उन्होंने पांचजन्य के लिए हिन्दी में भी काफी समय तक नियमित रूप से लिखा। लेखन और सम्पादन में किसी तरह की भूल वे सहन नहीं करते थे। अपने लेखों के प्रूफ पढ़ने में उन्हें कभी संकोच नहीं होता था। उनके पास हजारों पुस्तकें थीं, फिर भी वे सदा नई पुस्तकों और संदर्भ ग्रन्थों की तलाश में रहते थे।


15 दिसम्बर, 2003 को 74 वर्ष की आयु में तेजस्वी और तपस्वी पत्रकार श्री वेदप्रकाश भाटिया की लेखनी सदा के लिए मौन हो गयी।      


(संदर्भ : पांचजन्य 28.12.2003)

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5 अक्तूबर/जन्म-दिवस

मध्य प्रदेश में विद्या भारती के पर्याय रोशनलालजी

विद्या भारती शिक्षा क्षेत्र में दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। इसका प्रारंभ 1952 में उ.प्र. के गोरखपुर नगर से हुआ था। सरस्वती शिशु मंदिर का प्रयोग सफल होने पर देश भर में इन विद्यालयों की मांग होने लगी। म.प्र. में इस संस्था के काम को विस्तार देने वाले श्री रोशनलाल सक्सेना का जन्म म.प्र. के ही सीधी नगर में पांच अक्तूबर, 1931 को हुआ था। 

1943 में वे संघ के स्वयंसेवक बने और गटनायक, गणशिक्षक, मुख्यशिक्षक से लेकर रीवा नगर कार्यवाह तक की जिम्मेदारी संभाली। 1962, 63 तथा 1966 में उन्होंने क्रमशः तीनों संघ शिक्षा वर्ग पूर्ण किये। उन्होंने एम.एस-सी. (गणित) में संपूर्ण विश्व विद्यालय में प्रथम श्रेणी में भी प्रथम स्थान पाया था। अतः उन्हें तुरंत ही महाविद्यालय में अध्यापन कार्य मिल गया।

पर उनके जीवन का उद्देश्य केवल नौकरी करना या परिवार बसाना नहीं था। अतः 1964 में उन्होंने शासकीय नौकरी छोड़ दी। रीवा के विभाग प्रचारक सुदर्शनजी को उस वर्ष प्रांत प्रचारक की जिम्मेदारी मिली थी। उनके स्थान पर रोशनलालजी को विभाग प्रचारक बनाया गया। रोशनलालजी एक मेधावी छात्र तथा योग्य अध्यापक रहे थे। उनकी इच्छा थी कि उ.प्र. की तरह म.प्र. में भी सरस्वती शिशु मंदिरों की स्थापना हो। उनके प्रयास से 12 फरवरी, 1959 (वसंत पंचमी) को रीवा की एक धर्मशाला में पहला सरस्वती शिशु मंदिर खुला। रोशनलालजी उसकी प्रबंध समिति के सचिव बनाये गये। उसकी सफलता से म.प्र. में शिशु मंदिरों का विस्तार होने लगा।

धीरे-धीरे विन्ध्य क्षेत्र में 12 विद्यालय प्रारम्भ हो गये। 1974 में इन्हें व्यवस्थित करने के लिए रोशनलालजी को सचिव बनाकर प्रांतीय समिति बनायी गयी। इस प्रकार वे शिशु मंदिर योजना के लिए ही समर्पित हो गये। बस्तर का क्षेत्र नक्सलवादियों का गढ़ है; पर वहां भी विद्यालय प्रारम्भ हुए। आपातकाल में दमोह पुलिस ने उन्हें पकड़ कर मीसा में बंद कर दिया। 16 जुलाई, 1975 से 20 जनवरी, 1977 तक वे भोपाल केन्द्रीय कारागार में रहे। आपातकाल के बाद विद्यालयों के काम को अखिल भारतीय स्वरूप दिया गया। रोशनलालजी राष्ट्रीय सचिव तथा म.प्र. विद्या भारती के संगठन मंत्री बनाये गये।

रोशनलालजी की इच्छा एक संस्कारप्रद बाल पत्रिका निकालने की थी। उनके सम्पादन में 14 नवम्बर, 1978 (बाल दिवस) पर इंदौर से मासिक पत्रिका देवपुत्रप्रारम्भ हुई। 1984 में मा. रज्जू भैया तथा भाऊराव देवरस ने भोपाल के आसपास एक आवासीय विद्यालय बनाने को कहा। जो जगह मिली, वह बहुत बड़ी थी। संस्था पर पैसे भी नहीं थे। ऐसे में म.प्र. के सभी विद्यालयों से उधार लेकर जगह ले ली गयी। राज्य के भा.ज.पा. विधायकों ने भी सहयोग दिया। 1985 से वहां शारदा विहार आवासीय विद्यालय चल रहा है।

विद्या भारती के राष्ट्रीय संगठन मंत्री लज्जारामजी की इच्छा एक योग एवं अध्यात्म केन्द्रित विद्यालय बनाने की थी। अतः अमरकंटक में वनवासी आवासीय विद्यालय शुरू किया गया। सरसंघचालक बालासाहब देवरस का पैतृक गांव म.प्र. में बालाघाट है। वहां भी एक सेवा न्यास तथा आवासीय विद्यालय चल रहा है। ग्रामीण तथा वनवासी विद्यालयों पर उनका विशेष जोर रहता था। वे छात्रों के साथ ही आचार्य, उनके परिवार, प्रबंध समिति के सदस्य तथा भवन निर्माण में लगे मजदूरों तक की पूरी चिंता करते थे। उनके स्वभाव में जुझारूपन के साथ ही प्रेम का सागर भी बहता था। म.प्र. में विद्या भारती की हर बड़ी योजना की नींव में वही थे।

विद्या भारती में उन पर वनवासी शिक्षा प्रमुख से लेकर राष्ट्रीय मार्गदर्शक तक की जिम्मेदारी रही। नवम्बर 2011 में सरसंघचालकजी ने इंदौर में उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया। म.प्र. में विद्या भारती के पर्याय रोशनलालजी ने 21 अगस्त, 2018 को सुदीर्घ आयु में भोपाल में अंतिम सांस ली।


(संदर्भ : विद्या भारती मध्य भारत तथा देवपुत्र)
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6 अक्तूबर/पुण्य-तिथि

गीत के विनम्र स्वर दत्ता जी उनगांवकर

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में देशप्रेम से परिपूर्ण अनेक गीत गाये जाते हैं। उनका उद्देश्य होता है, स्वयंसेवकों को देश एवं समाज के साथ एकात्म करना। इनमें से अधिकांश के लेखक कौन होते हैं, प्रायः इसका पता नहीं लगता। ऐसा ही एक लोकप्रिय गीत है, ‘‘पूज्य माँ की अर्चना का, एक छोटा उपकरण हूँ’’ इसके लेखक थे मध्य भारत के वरिष्ठ प्रचारक दत्ताजी उनगाँवकर, जिन्होंने अन्तिम साँस तक संघ-कार्य करने का व्रत निभाया।

दत्ताजी का जन्म 1924 में तराना, जिला उज्जैन में हुआ था। उनके पिता श्री कृष्णराव का डाक विभाग में सेवारत होने के कारण स्थानान्तरण होता रहता था। अतः दत्ताजी की शिक्षा भानपुर, इन्दौर, अलीराजपुर, झाबुआ तथा उज्जैन में हुई। उज्जैन में उनका एक मित्र शंकर शाखा में जाता था। एक बार भैया जी दाणी का प्रवास वहाँ हुआ। शंकर अपने साथ दत्ताजी को भी उनकी बैठक में ले गया। दत्ताजी उस दिन बैठक में गये, तो फिर संघ के ही होकर रह गये। वे क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे; पर फिर उन्हें शाखा का ऐसा चस्का लगा कि वे सब भूल गये।

उनके मन में सरसंघचालक श्री गुरुजी के प्रति अत्यधिक निष्ठा थी। इण्टर की परीक्षा के दिनों में ही इन्दौर में उनका प्रवास था। उसी दिन दत्ताजी की प्रायोगिक परीक्षा थी। शाम को 4.30 पर गाड़ी थी। दत्ताजी ने 4.30 बजे तक जितना काम हो सकता था किया और फिर गाड़ी पकड़ ली।

इसके बाद वे बी.एस-सी करने कानपुर आ गये। वहाँ उनके पेट में एक गाँठ बन गयी। बड़े   परेशन से वे ठीक तो हो गये; पर शारीरिक रूप से सदा कमजोर ही रहे। प्रथम और द्वितीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग तो उन्होंने किसी प्रकार किये; पर तृतीय वर्ष का वर्ग नहीं किया।

1947 में उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया। साइकिल चलाने की उन्हें मनाही थी। अतः वे पैदल ही अपने क्षेत्र में घूमते थे। वे छात्रावास को केन्द्र बनाकर काम करते थे। जब वे मध्य प्रदेश में शाजापुर के जिला प्रचारक बने, तो छात्रों के माध्यम से ही उस जिले में 100 शाखाएँ हो गयीं।

1948 में प्रतिबन्ध के समय वे आगरा में सत्याग्रह कर जेल गये और वहाँ से लौटकर फिर संघ कार्य में लग गये। 1951 में उन्हें गुना जिला प्रचारक के साथ वहाँ से निकलने वाले देशभक्तनामक समाचार पत्र का काम देखने को कहा गया। उन्हें इसका कोई अनुभव नहीं था; पर संघ का आदेश मानकर उन्होंने सम्पादन, प्रकाशन और प्रसार जैसे सब काम सीखे। काम करते हुए रात के बारह बज जाते थे। भोजन एवं आवास का कोई उचित प्रबन्ध नहीं था। इसके बाद भी किसी ने उन्हें उदास या निराश नहीं देखा।

प्रचारक जीवन में अनेक स्थानों पर रहकर उन्होंने नगर, तहसील, जिला, विभाग प्रचारक, प्रान्त बौद्धिक प्रमुख, प्रान्त कार्यालय प्रमुख, प्रान्त एवं क्षेत्र व्यवस्था प्रमुख जैसे दायित्व निभाये। अनेक रोगों से घिरे होने के कारण 84 वर्ष की सुदीर्घ आयु में छह अक्तूबर, 2006 को उनका देहान्त हो गया। अपने कार्य और निष्ठा से उन्होंने स्वलिखित गीत की निम्न पंक्तियों को साकार किया।

आरती भी हो रही है, गीत बनकर क्या करूँगा
पुष्प माला चढ़ रही है, फूल बनकर क्या करूँगा
मालिका का एक तन्तुक, गीत का मैं एक स्वर हूँ
पूज्य माँ की अर्चना का एक छोटा उपकरण हूँ।।
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6 अक्तूबर/जन्म-दिवस

वनवासियों के हितचिंतक स्वामी आत्मानंद

रामकृष्ण मिशन से संबंधित स्वामी आत्मानंद जी का जन्म छह अक्तूबर, 1929 को ग्राम कपसदा (रायपुर, छत्तीसगढ़) निवासी धनीराम वर्मा के घर हुआ था। जन्म से एक दिन पूर्व उनकी माता श्रीमती भाग्यवती देवी को सपना आया कि साक्षात भगवान उनकी गोदी में बैठे हैं और वे उन्हें दूध पिला रही हैं। धर्मपे्रमी मां ने इसे ईश्वरीय संकेत समझ कर बच्चे का नाम रामेश्वररखा। तुला राशि में जन्म के कारण वे तुलेन्द्र भी कहलाए।

धनीराम जी अध्यापक थे; पर 1942 के आंदोलन में जेल जाने से उनकी सरकारी नौकरी समाप्त हो गयी थी। कुछ समय बाद तुलेन्द्र पढ़ने नागपुर गये। वहां रामकृष्ण मिशन के छात्रावास में उनके रहने और भोजन की व्यवस्था हो गयी। वहां उन्होंने मंत्र दीक्षा ली। वे संन्यास भी लेना चाहते थे, पर गुरु के आदेश से एम.एस-सी कर अति प्रतिष्ठित आई.सी.एस. परीक्षा उत्तीर्ण की; पर उसके प्रति अनिच्छा के कारण मौखिक परीक्षा छोड़ दी।

1960 में बुद्ध पूर्णिमा पर उन्होंने अमरकंटक में नर्मदा तट पर रामकृष्ण परमहंस के चित्र के सम्मुख स्वयं ही संन्यास लेकर अपना नाम आत्मानंद रख लिया। कई वर्ष बाद नागपुर आश्रम की अनुमति से वे कोलकाता में बेलूड़ मठ गये और ब्रह्मचर्य दीक्षा ली। अब उनका नाम ब्रह्मचारी तेज चैतन्य हो गया। इसके बाद ऋषिकेश में छह माह स्वामी पुरुषोत्तमानंद के पास योग वशिष्ठ का अध्ययन किया। वहां से वे अपने गृह नगर रायपुर आये।

रायपुर में दो मास तक विवेकानंद अपने माता-पिता के साथ रहे थे। आत्मानंद जी की इच्छा वहां एक भव्य स्मारक बनाने की थी; पर बेलूड़ मठ ने अनुमति नहीं दी। अतः उन्होंने रामकृष्ण सेवा समितिका गठन कर अपने बलपर इसे बनाने का निर्णय लिया। इसमें उन्हें बहुत कष्ट और अपमान झेलने पड़े। वे स्वामी विवेकानंद के जन्मशती वर्ष (1963) तक स्मारक पूरा करना चाहते थे। इसके लिए काफी धन चाहिए था। अतः उन्होंने रायपुर के नगरपालिका भवन में प्रति रविवार गीता पर प्रवचन शुरू किया। इससे कुछ धन आने लगा। यह देखकर शासन ने उन्हें एक बड़ा भूखंड स्मारक के लिए दे दिया।

कुछ समय में वहां आश्रम जैसा स्वरूप बन गया। 30 युवकों ने संन्यास की दीक्षा भी ली। 14 नवम्बर, 1969 को मिशन के अध्यक्ष स्वामी वीरेश्वरानंद ने रामकृष्ण मंदिर का शिलान्यास तथा दो फरवरी, 1976 को उद्घाटन किया। इस बीच म.प्र. में अकाल पड़ने से मंदिर के लिए एकत्रित काफी धन जनसेवा में लग गया। फिर भी क्रमशः मंदिर, छात्रावास, पत्रिका, डाकघर, पुस्तकालय, चिकित्सालय आदि बनते चले गये। यद्यपि यह स्मारक उन्होंने अपने बल पर बनाया था; लेकिन उनके आग्रह पर 1968 में यह बेलूड़ मठ में विलीन कर दिया गया और इसका नाम रामकृष्ण मिशन विवेकानंद आश्रमहो गया।

यद्यपि वे तन और मन से संन्यासी थे; पर रामकृष्ण मिशनउन्हें अलग मानता था। 1968 में मां सारदा के जन्मदिवस पर बेलूड़ मठ में उन्हें विधिवत संन्यास की दीक्षा दी गयी। उन्होंने हिन्दी, अंगे्रजी और बांग्ला के कई ग्रंथों का परस्पर अनुवाद किया। वे टेनिस, वाॅलीबाॅल, शतरंज के खिलाड़ी तथा गीत और संगीत प्रेमी थे। नागपुर के आश्रम में तो प्रायः वे ही आरती आदि गाते थे। गीता और मानस पर उनके अपने प्रवचन भी प्रकाशित हुए हैं।

इसके बाद मिशन की योजना से वे जहां भी रहे, अध्यात्म साधना के साथ जनसेवा में भी लगे रहे। वनवासी कल्याण आश्रम के हर काम में वे पूरा सहयोग देते थे। 27 अगस्त, 1989 को रायपुर आते समय राजनादगांव में उनकी जीप एक पुलिया से टकरा गयी। दरवाजे के पास बैठे स्वामी आत्मानंद जी नीचे गिर पड़े। तभी जीप पीछे पलटी और उनके सीने को कुचल दिया। इससे सेवा पथ के पथिक स्वामी जी का वहीं दुखद प्राणांत हो गया।

(हमारे महान वननायक, भाग 3, त्रिलोकी नाथ सिनहा)

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7 अक्तूबर राज्यारोहण-दिवस

दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य


अपने शौर्य से इतिहास की धारा मोड़ने वाले वीर हेमू का जन्म दो अक्तूबर, 1501 (विजयादशमी) को ग्राम मछेरी (अलवर, राजस्थान) में हुआ था। उनके पिता राय पूरणमल पहले पुरोहित थे; पर फिर वे रिवाड़ी (हरियाणा) आकर नमक और बारूद में प्रयुक्त होने वाले शोरे का व्यापार करने लगे। हेमू ने यहां आकर शस्त्र के साथ ही संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी तथा गणित की शिक्षा ली। इसके बाद वह आगरा आ गये और तत्कालीन अफगान सुल्तान सलीम शाह के राज्य में बाजार निरीक्षक की नौकरी करने लगे।


जब सलीम के बेटे फिरोजशाह को मारकर मुहम्मद आदिल सुल्तान बना, तो हेमू की उन्नति होती चली गयी और वह कोतवाल, सामन्त, सेनापति और फिर प्रधानमन्त्री बन गये। जब भरे दरबार में सिकन्दर खां लोहानी ने आदिलशाह को मारना चाहा, तो हेमू ने ही उसकी रक्षा की। इससे वह आदिलशाह का विश्वासपात्र हो गये। उन्होंने कई युद्धों में भाग लिया और सबमें विजयी हुए। इससे उनकी गणना भारत के श्रेष्ठ वीरों में होने लगी। उन्होंने इब्राहीम खां, मुहम्मद खां गोरिया, ताज कर्रानी, रुख खान नूरानी आदि अनेक विद्रोहियों को पराजित कर पंजाब से लेकर बिहार और बंगाल तक अपनी वीरता के झंडे गाड़ दिये। यद्यपि ये अभियान उन्होंने दूसरों के लिए ही किये थे; पर उनके मन में अपना स्वतन्त्र हिन्दू राज्य स्थापित करने की प्रबल इच्छा विद्यमान थी।


हुमायूं की मृत्यु के बाद घटनाक्रम तेजी से बदला। अतः हेमू ने आगरा पर धावा बोल दिया। वहां का मुगल सूबेदार इस्कंदर खान उजबेक तो उनका नाम सुनते ही मुख्य सेनापति तर्दीबेग के पास दिल्ली भाग गया। हेमू ने अब दिल्ली को निशाना बनाया। भयंकर मारकाट के बाद तर्दीबेग भी मैदान छोड़ गया। इस प्रकार हेमू की इच्छा पूरी हुई और वह सात अक्तूबर, 1556 को हेमचन्द्र विक्रमादित्य के नाम से दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ हुए। उस समय कुछ अफगान और पठान सूबेदारों का समर्थन भी उन्हें प्राप्त था।


उस समय राजनीतिक दृष्टि से भारत विभक्त था। बंगाल, उड़ीसा और बिहार में आदिलशाह द्वारा नियुक्त सूबेदार राज्य कर रहे थे। राजस्थान की रियासतें आपस में लड़ने में ही व्यस्त थीं। गोंडवाना में रानी दुर्गावती, तो दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य प्रभावी था। उत्तर भारत के अधिकांश राज्य भी स्वतन्त्र थे। अकबर उस समय केवल नाममात्र का ही राजा था। ऐसे में दिल्ली और आगरा का शासक होने के नाते हेमू का प्रभाव काफी बढ़ गया। मुगल अब उसे ही अपना शत्रु क्रमांक एक मानने लगे। अकबर ने अपने संरक्षक बैरम खां के नेतृत्व में सम्पूर्ण मुगल शक्ति को हेमू के विरुद्ध एकत्र कर लिया। 


पांच नवम्बर, 1556 को पानीपत के मैदान में दूसरा युद्ध हुआ। हेमू के डर से अकबर और बैरमखां युद्ध से दूर ही रहे। प्रारम्भ में हेमू ने मुगलों के छक्के छुड़ा दिये; पर अचानक एक तीर उनकी आंख को वेधता हुआ मस्तिष्क में घुस गया। हेमू ने उसे खींचकर आंख पर साफा बांध लिया; पर अधिक खून निकलने से वह बेहोश होकर हौदे में गिर गये। यह सूचना पाकर बैरमखां ने अविलम्ब अकबर के हाथों उनकी हत्या करा दी। उनका सिर काबुल भेज दिया गया और धड़ दिल्ली में किले के द्वार पर लटका दिया। इसके बाद दिल्ली में भयानक नरसंहार हुआ। मृत सैनिकों तथा नागरिकों के सिर का टीला बनाया गया। हेमू के पुतले में बारूद भरकर उसका दहन किया गया। फिर अकबर ने हेमू की समस्त सम्पत्ति के साथ आगरा पर भी अधिकार कर लिया।


इस प्रकार साधारण परिवार का होते हुए भी हेमचंद्र ने 22 युद्ध जीतकर ‘विक्रमादित्य’ उपाधि धारण की और दिल्ली में हिन्दू साम्राज्य स्थापित किया। कई इतिहासकारों ने उन्हें ‘मध्यकालीन भारत का नेपोलियन’, तो अत्यधिक घृणा के कारण मुगलों के चाटुकार इतिहासकारों ने उन्हें ‘हेमू बक्काल’ कहा है। 



(संदर्भ : अ.भा.इति.संकलन योजना का पत्रक आदि)
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7 अक्तूबर/जन्म-दिवस

पत्रकारिता के शलाका पुरुष माणिकचन्द वाजपेयी

सात अक्तूबर, 1919 को बटेश्वर (आगरा, उ.प्र.) में श्रीदत्त वाजपेयी के घर जन्मे माणिकचन्द वाजपेयी को अधिकांश लोग मामा जी के नाम से जानते हैं। यों तो मूलतः वह पत्रकार थे; पर उनमें एक साथ अनेक प्रतिभाओं के दर्शन होते थे। इसे उन्होंने समय-समय पर सिद्ध भी करके दिखलाया।

मामाजी की कर्मभूमि प्रारम्भ से मध्य प्रदेश ही रही। वे पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के चाचा थे; पर उन्होंने कभी इस बात का प्रचार नहीं किया। तेजस्वी बुद्धि के धनी मामाजी ने मिडिल की परीक्षा में ग्वालियर बोर्ड में और इण्टर में अजमेर बोर्ड में प्रथम स्थान लेकर स्वर्ण पदक पाया था। बी.ए. और कानून की परीक्षाएँ भी उन्होंने इसी प्रकार उत्तीर्ण कीं।

विद्यार्थी जीवन में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये और 1944 में प्रचारक बन गये। नौ वर्ष तक उन्होंने भिण्ड के बीहड़ों में राष्ट्रभक्ति की अलख जगायी। यह क्षेत्र सदा से ही बागियों और दस्युओं से प्रभावित रहा है; पर मामाजी ने इसकी चिन्ता नहीं की। 1953 में उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। इसके बाद भी संगठन उनके जीवन में प्राथमिकता पर रहा।

मामाजी को जब, जो काम सौंपा गया, उन्होंने उसे स्वीकार किया। 1951 से 1954 तक वे जनसंघ के संगठन मन्त्री रहे। 1952 के चुनाव के समय उन्हें कांग्रेस प्रत्याशी राजमाता विजयाराजे सिन्धिया के विरुद्ध चुनाव लड़ने को कहा गया। वे जानते थे कि दीपक और तूफान के इस संघर्ष में पराजय निश्चित है, फिर भी दल का निर्णय मानकर उन्होंने पूरी शक्ति से चुनाव लड़ा। इसके बाद वे अध्यापक बन गये। 1964 तक वे लहरौली, भिण्ड में अध्यापक और फिर 1966 तक विद्यालोक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाचार्य रहे।

1966 में इन्दौर से स्वदेश नामक दैनिक समाचार पत्र प्रारम्भ किया गया। वे तभी से उससे जुड़ गये। 1968 से 1985 तक वे स्वदेश के प्रधान सम्पादक रहे। राष्ट्रवादी स्वर के कारण स्वदेश को अनेक संकटों से जूझना पड़ा, फिर भी उसके अनेक संस्करण निकले और उसने मध्य प्रदेश में प्रमुख समाचार पत्र के रूप में स्थान बनाया। इसका श्रेय मामाजी की प्रखर लेखनी को ही है।

1975 में आपातकाल लगने पर मामाजी को जेल में ठूँस दिया गया। वे 20 महीने तक इन्दौर जेल में बन्द रहे; पर इस बीच भी उनकी लेखनी चलती रही। जेल में रहते हुए ही उनकी पत्नी का देहान्त हो गया। 1985 में उन्होंने फिर से वानप्रस्थी प्रचारक जीवन स्वीकार कर लिया। इसके बाद उन्हें संघ, स्वदेशी जागरण मंच, इतिहास लेखन आदि अनेक काम दिये गये। हर काम को उन्होंने पूरी निष्ठा एवं समर्पण से किया।

मामाजी ने कई पुस्तकें लिखीं। केरल में मार्क्स नहीं महेश, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: अपने संविधान के आइने में, समय की शिला पर, पहली अग्नि परीक्षा, आपातकालीन संघर्ष गाथा, भारतीय नारी: विवेकानन्द की दृष्टि में, कश्मीर का कड़वा सच, पोप का कसता शिक॰जा, ज्योति जला निज प्राण की.. आदि पुस्तकों को लाखों पाठकों ने पढ़ा।

सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति मामा जी ने किसी सम्पत्ति का निर्माण नहीं किया। 27 दिसम्बर, 2005 को उन्होंने ग्वालियर संघ कार्यालय पर ही अन्तिम साँस ली। अटल जी ने श्रद्धांजलि देते हुए उन्हें पत्रकारिता का शलाका पुरुष ठीक ही कहा है।
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7 अक्तूबर/जन्म-दिवस

क्रान्तिकारी दुर्गा भाभी

भारत के क्रान्तिकारी इतिहास में पुरुषों का इतिहास तो अतुलनीय है ही; पर कुछ वीर महिलाएँ भी हुई हैं, जिन्होंने अपने साथ अपने परिवार को भी दाँव पर लगाकर मातृभूमि को स्वतन्त्र कराने के लिए संघर्ष किया। दुर्गा भाभी ऐसी ही एक महान् विभूति थीं।

दुर्गादेवी का जन्म प्रयाग में सेवानिवृत्त न्यायाधीश पण्डित बाँके बिहारी नागर के घर में सात अक्तूबर, 1907 को हुआ था। जन्म के कुछ समय बाद ही माँ का देहान्त हो जाने के कारण उनका पालन बुआ ने किया। 11 वर्ष की अल्पायु में दुर्गा का विवाह लाहौर के सम्पन्न परिवार में भगवती चरण बोहरा से हुआ। भगवती भाई के अंग्रेज भक्त पिता अवकाश प्राप्त रेलवे अधिकारी थे। उन्हें रायबहादुर की उपाधि भी मिली थी; पर भगवती भाई के मन में तो शुरू से ही अंग्रेजों को बाहर निकालने की धुन सवार थी। अतः वे क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल हो गये।

दुर्गा भाभी ने भी स्वयं को पति के काम में सहभागी बना लिया। कुछ समय बाद उनके घर में एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम शचीन्द्र रखा गया। भगवती भाई प्रायः दल के काम से बाहर या फिर भूमिगत रहते थे, ऐसे में सूचनाओं के आदान-प्रदान का काम दुर्गा भाभी ही करती थीं। वे प्रायः तैयार बम या बम की सामग्री को भी एक से दूसरे स्थान तक ले जाती थीं। महिला होने के कारण पुलिस को उन पर शक नहीं होता था।

जब भगतसिंह आदि क्रान्तिवीरों ने लाहौर में पुलिस अधिकारी साण्डर्स का दिनदहाड़े उसके कार्यालय के सामने वध किया, तो उनकी खोज में पुलिस नगर के चप्पे-चप्पे पर तैनात हो गयी। ऐसे में उन्हें लाहौर से निकालना बहुत जरूरी था। तब दुर्गा भाभी सामने आयीं। भगतसिंह ने अपने बाल कटा दिये और हैट लगाकर एक आधुनिक व शिक्षित युवक बन गये। उनके साथ दुर्गा भाभी अपने छोटे शिशु शचीन्द्र को गोद में लेकर बैठीं। सुखदेव उनके नौकर बने, चन्द्रशेखर आजाद ने भी वेष बदल लिया। इस प्रकार सब पुलिस की आँखों में धूल झोंक कर रेल में बैठकर लाहौर से निकल गये।

दुर्गा भाभी के जीवन में सर्वाधिक दुखद क्षण तब आया, जब भगवती भाई की रावी के तट पर बम का परीक्षण करते हुए 28 मई, 1930 को मृत्यु हो गयी। साथियों ने श्रद्धा॰जलि देकर वहीं उनकी समाधि बना दी। दुर्गा भाभी पति के अन्तिम दर्शन भी नहीं कर सकीं। इसके बाद भी उन्होंने धैर्य नहीं खोया और क्रान्तिकारी आन्दोलन में सहयोग देती रहीं। 12 सितम्बर, 1931 में वे भी पुलिस की पकड़ में आ गयीं। उन्हें 15 दिन तक हवालात में और फिर तीन साल तक शहर में ही नजरबन्द रहना पड़ा।

भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, आजाद आदि की मृत्यु के बाद दुर्गा भाभी 1936 में गाजियाबाद आकर प्यारेलाल कन्या विद्यालय में पढ़ाने लगीं। कुछ समय तक वे कांग्रेस से भी जुड़ीं; पर जल्दी ही उससे उनका मोह भंग हो गया। अब उन्होंने अडयार (तमिलनाडु) जाकर मोण्टेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लिया और 20 जुलाई, 1940 को लखनऊ में एक बाल विद्यालय खोला। लखनऊ में ही उन्होंने शहीद स्मारक शोध केन्द्र एवं संग्रहालयकी भी स्थापना की, जिससे शोधार्थियों को आज भी भरपूर सहयोग मिलता है।

अन्तिम दिनों में वे अपने पुत्र शचीन्द्र के पास गाजियाबाद में रहती थीं। जीवन का हर पल समाज को समर्पित करने वाली क्रान्तिकारी दुर्गा भाभी का 14 अक्तूबर, 1999 को देहान्त हुआ।
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7 अक्तूबर/जन्म-दिवस

गजल गायिका बेगम अख्तर

भारत के प्रसिद्ध तीर्थस्थल अयोध्या के निकट स्थित फैजाबाद में सात अक्तूबर, 1914 को जन्मी बेगम अख्तर उर्दू गजल के साथ ही दादरा, ठुमरी आदि शास्त्रीय रागों को गाकर विश्वप्रसिद्ध हुईं। इनकी मां मुश्तरी बेगम और पिता एक वकील असगर हुसैन थे। दो बेटियों के जन्म के बाद असगर हुसैन ने पत्नी और दोनों बेटियों को छोड़ दिया। इससे दुखी होकर दोनों बेटियों ने जहर खा लिया। बड़ी बेटी जोहरा तो मर गयी; पर छोटी अख्तरी बच गयी।

उन दिनों महिलाएं केवल कोठों पर ही गाती थीं; पर अख्तरी की रुचि देखकर, परिवार के विरोध के बावजूद उनकी मां और चाचा ने प्रयासपूर्वक उन्हें गायन की शिक्षा दिलवाई। एक बार इनके उस्ताद अता मोहम्मद खान ने बिहार के भूकम्प पीड़ितों की सहायतार्थ कोलकाता में एक संगीत समारोह किया। उसमें फैयाज खान, विलायत खान, केसरबाई, मोगूबाई कुर्डीकर जैसे विख्यात गायक आने वाले थे। इन्हें सुनने के लिए बड़ी संख्या में श्रोता आये थे।

पर किसी कारण से इन कलाकारों को आने में देर हो गयी। इससे श्रोता शोर करने लगे। यह देखकर उस्ताद ने अपनी 14 वर्षीय शिष्या अख्तरीबाई को गाने को कहा। उसका गायन प्रारम्भ होते ही सब शांत हो गये। जो लोग बाहर चले गये थे, वे भी लौट आये। इस कार्यक्रम से अख्तरीबाई रातोंरात प्रसिद्ध हो गयी। प्रसिद्ध ग्रामोफोन कम्पनी एच.एम.वी के मालिक ने उनके रिकार्ड बनाने का प्रस्ताव किया। इस प्रकार अख्तरी का सार्वजनिक गायन प्रारम्भ हो गया।

कुछ समय बाद अख्तरीबाई ने नाटकों तथा मुंबई जाकर कई फिल्मों में अभिनय भी किया; पर उनका मुख्य ध्यान गायन की ओर ही था। 1945 में बैरिस्टर इश्ताक अहमद अब्बासी से निकाह कर वे बेगम अख्तर हो गयीं। देश विभाजन के बाद उनके पति पाकिस्तान जाना चाहते थे; पर बेगम अख्तर ने भारत छोड़ना पसंद नहीं किया। अतः पति ने भी इसका विचार त्याग दिया।

उनके पति चाहते थे कि वे सार्वजनिक जीवन से दूर रहें। उनकी इच्छा का सम्मान कर अपने गायन का शौक वे घर पर ही पूरा करने लगीं; पर इसका प्रभाव उनके स्वास्थ्य पर हुआ और वे बीमार रहने लगीं। एक बार उनके पति के मित्र और लखनऊ रेडियो के निदेशक सुशील बोस ने उन्हें गाते सुना, तो उनके आग्रह और पति की अनुमति से वे फिर रेडियो पर गाने लगीं। इस प्रकार पांच वर्ष बाद सार्वजनिक गायन का क्रम फिर चल पड़ा।

बेगम अख्तर ने शास्त्रीय गायन से प्रारम्भ किया था; पर उनके स्वर में जो दर्द था, उसे देखते हुए लोगों के आग्रह पर वे मुख्यतः गजल गाने लगीं। वे बचपन से ही श्रीकृष्ण के भजन बड़ी रुचि से सुनती और गाती थीं। जब कुछ मुसलमानों ने इसका विरोध किया, तो उन्होंने कहा कि श्रीकृष्ण प्रेम के देवता हैं। जो उनसे प्रेम नहीं करता, वह अच्छा गायक नहीं हो सकता।

देश-विदेश में सम्मानित बेगम अख्तर को भारत सरकार ने पद्म विभूषणसे अलंकृत किया। हृदयाघात के बाद जब चिकित्सक ने उन्हें गाने से रोका, तो उन्होंने कहा कि वे गाते हुए ही मरना चाहती हैं; और सचमुच ऐसा ही हुआ। कर्णावती (अमदाबाद) के एक कार्यक्रम में उनका स्वास्थ्य अचानक बहुत बिगड़ गया और कुछ दिन बाद वहां पर ही 30 अक्तूबर, 1974 को उनका देहांत हो गया। उनकी इच्छानुसार उन्हें लखनऊ में लाकर दफनाया गया।  

(संदर्भ  : कलाकुंज भारती, फरवरी 2009 तथा अंतरजाल सेवा)
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7 अक्तूबर/जन्म-दिवस

बंगाल की प्रथम शाखा के स्वयंसेवक कालिदास बसु

कोलकाता उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता तथा पूर्वोत्तर भारत में संघ कार्य के एक प्रमुख स्तम्भ श्री कालिदास बसु (कालीदा) का जन्म सात अक्तूबर, 1924 (विजयादशमी) पर फरीदपुर (वर्तमान बंगलादेश) में हुआ था। 1939 में कक्षा नौ में पढ़ते समय उन्होंने पहली बार श्री बालासाहब देवरस का बौद्धिक सुना, जो उन दिनों नागपुर से बंगाल में शाखा प्रारम्भ करने के लिए आये थे। इस बौद्धिक से प्रभावित होकर वे नियमित शाखा जाने लगे।

इसके बाद तो बालासाहब और उनके बाद वहां आने वाले सभी प्रचारकों से उनकी घनिष्ठता बढ़ती गयी। 1940 में वे संघ शिक्षा वर्ग में भाग लेने नागपुर गये। श्री गुरुजी उस वर्ग में कार्यवाह थे। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने वहां अपने जीवन का अंतिम बौद्धिक दिया था। वर्ग समाप्ति के कुछ दिन बाद ही डा. जी का निधन हो गया। इन दोनों महामानवों के पुण्य सान्निध्य से कालीदा के जीवन में संघ-विचार सदा के लिए रच-बस गया।

कक्षा 12 की परीक्षा देकर वे बंगाल की सांस्कृतिक नगरी नवद्वीप में विस्तारक बन कर आ गये। यहां रहकर वे संघ कार्य के साथ ही अपनी पढ़ाई भी करते रहे। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। लोगों में बड़ी दहशत फैली थी। जापानी बमबारी के भय से कोलकाता तथा अन्य बड़े नगरों से लोग घर छोड़-छोड़कर भाग रहे थे। बंगाल में उन दिनों संघ कार्य बहुत प्रारम्भिक अवस्था में था; पर समाज में साहस बनाये रखने में संघ के सभी कार्यकर्ताओं ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कालीदा भी इनमें अग्रणी रहे।

शिक्षा पूर्ण कर कालीदा नवद्वीप में ही जिला प्रचारक बनाये गये। 1947 में देश का विभाजन हो गया और बंगाल का बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) बन गया। बड़ी संख्या में हिन्दू लुट-पिट कर भारतीय बंगाल में आने लगे। संघ ने ऐसे लोगों की भरपूर सहायता की। कालीदा दो वर्ष तक नवद्वीप में ही रहकर इन सब कामों की देखभाल करते रहे। इसके बाद 1949 में उन्हें महानगर प्रचारक के नाते कोलकाता बुला लिया गया।

1952 तक प्रचारक रहने के बाद उन्होंने फिर से शिक्षा प्रारम्भ कर कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की और कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। एक सफल वकील के नाते उन्होंने भरपूर धन और ख्याति अर्जित की। संघ कार्य में लगातार सक्रिय रहने से उनके दायित्व भी क्रमशः बढ़ते गये। महानगर कार्यवाह, प्रान्त कार्यवाह, प्रान्त संघचालक, क्षेत्र संघचालक और फिर केन्द्रीय कार्यकारिणी के वे सदस्य रहे। इसके साथ ही वे अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषदके मार्गदर्शक तथा कोलकाता में विधान नगर विवेकानंद केन्द्रके उपसभापति थे। अध्यात्म के प्रति रुझान होने के कारण उन्होंने रामकृष्ण मिशनसे विधिवत दीक्षा भी ली थी।

बंगाल में राजनीतिक रूप से कांग्रेस और वामपंथियों के प्रभाव के कारण स्वयंसेवकों को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इन बाधाओं में कालीदा सदा चट्टान बनकर खड़े रहे। वे कोलकाता से प्रकाशित होने वाले हिन्दू विचारों के साप्ताहिक पत्र स्वस्तिकाके न्यासी थे। पूर्वोत्तर भारत को प्रायः बाढ़, तूफान तथा चक्रवात जैसी आपदाओं का सामना करना पड़ता है। स्वयंसेवक ऐसे में वास्तुहारा सहायता समितिके नाम से धन एवं सहायता सामग्री एकत्र कर सेवा कार्य करते हैं। कालीदा इस समिति में भी सक्रिय रूप से जुड़े थे।

स्वयं सक्रिय रहने के साथ ही उन्होंने अपने परिवारजनों को भी संघ विचार से जोड़ा। उनकी पत्नी श्रीमती प्रतिमा बसु राष्ट्र सेविका समितिकी प्रांत संचालिका थीं। ऐसे निष्ठावान कार्यकर्ता कालिदास बसु का 11 दिसम्बर, 2010 को न्यायालय में अपने कक्ष में हुए भीषण हृदयाघात से देहावसान हुआ।

(संदर्भ: पांचजन्य, आर्गनाइजर, हिन्दू चेतना, स्वस्तिका, अंतरजाल)

2 टिप्‍पणियां:

  1. 🙏कृपया २ अक्टूबर की तिथि में स्व.लालबहादुर शास्त्री जी का जीवन-वृत सम्मिलित करें, धन्यवाद

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  2. सरदार चिरंजीव सिंह जी का आज 20 नवम्बर 2023 को निधन हो गया है

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