सितम्बर पहला सप्ताह

1 सितम्बर/इतिहास-स्मृति
              अध्यात्म पुरुष बाबा बुड्ढा
सिख इतिहास में बाबा बुड्ढा का विशेष महत्त्व है। वे पंथ के पहले गुरु नानकदेव जी से लेकर छठे गुरु हरगोविन्द जी तक के उत्थान के साक्षी बने। बाबा बुड्ढा का जन्म अमृतसर के पास गांव कथू नंगल में अक्तूबर, 1506 ई. में हुआ था। बाद में उनका परिवार गांव रमदास में आकर बस गया।  

जब उनकी अवस्था 12-13 वर्ष की थी, तब गुरु नानकदेव जी धर्म प्रचार करते हुए उनके गांव में आये। उनके तेजस्वी मुखमंडल से बालक बाबा बुड्ढा बहुत प्रभावित हुए। वे प्रायः घर से कुछ खाद्य सामग्री लेकर जाते और उन्हें भोजन कराते। एक बार उन्होंने पूछा कि जैसे भोजन करने से शरीर तृप्त होता है, ऐसे ही मन की तृप्ति का उपाय क्या है ? मृत्यु से मुक्ति और शरीर का आवागमन बार-बार न हो, इसकी विधि क्या है ?

गुरु नानकदेव ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा और कहा कि तुम्हारी उम्र तो अभी खाने-खेलने की है; पर तुम बातें बुड्ढों जैसी कर रहे हो। इसके बाद गुरु जी ने उनकी शंका का समाधान करने के लिए कुछ उपदेश दिया। तब से उस बालक ने नानकदेव जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। उन्होंने गुरुओं की सेवा एवं आदेश पालन को ही अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया। इसके बाद से ही उनका नाम ‘बाबा बुड्ढा’ पड़ गया। 

बाबा बुड्ढा के समर्पण और निष्ठा को देखते हुए गुरु नानकदेव जी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में जब गुरु अंगददेव का चयन किया, तो उन्हें तिलक लगाकर गुरु घोषित करने की जिम्मेदारी बाबा बुड्ढा ने ही निभाई। यह परम्परा छठे गुरु हरगोविन्द जी तक जारी रही। इतना ही नहीं, जब एक सितम्बर, 1604 को गुरु अर्जुनदेव जी ने श्री हरिमन्दिर साहिब, अमृतसर में श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की स्थापना की, तो उसके पहले ग्रन्थी का गौरव भी बाबा बुड्ढा जी को ही प्रदान किया गया। इतना महत्वपूर्ण स्थान पाने के बाद भी वे सेवा, विनम्रता और विनयशीलता की प्रतिमूर्ति बने रहे। उन्होंने घास काटने, मिट्टी ढोने या पानी भरने जैसे किसी काम को कभी छोटा नहीं समझा।

जब गुरु हरगोविन्द जी को मुगल शासक जहांगीर ने गिरफ्तार कर ग्वालियर के किले में कैद कर दिया, तो सिख संगत का मनोबल बनाये रखने के लिए बाबा बुड्ढा ने एक नयी परम्परा प्रारम्भ की। उनके नेतृत्व में सिख लोग समूह में गुरुवाणी का गायन करते हुए हरिमन्दिर की परिक्रमा करते तथा फिर अरदास कर वापस घर जाते थे। यह परिक्रमा रात को की जाती थी। जब गुरु हरगोविन्द जी कैद से छूट कर आये, तो उन्हें यह बहुत अच्छा लगा, तब से यह परम्परा हरिमन्दिर साहिब में चल रही है।

जब गुरु अर्जुनदेव जी को बहुत समय तक सन्तान की प्राप्ति नहीं हुई, तो उन्होंने अपनी पत्नी माता गंगादेवी को बाबा बुड्ढा से आशीर्वाद लेकर आने को कहा। वे तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान बनाकर अपने सेवकों के साथ सवारी में बैठकर बाबा जी के पास गयी। बाबा बुड्ढा ने कहा कि मैं तो गुरुओं का दास हूं। आशीर्वाद देने की क्षमता तो स्वयं गुरु जी में ही है। माता जी निराश होकर खाली हाथ वापस लौट गयीं। 

जब गुरु अर्जुनदेव जी को यह पता लगा, तो उन्होंने पत्नी को समझाया। अगली बार गुरुपत्नी मिस्सी रोटी, प्याज और लस्सी लेकर नंगे पांव गयीं, तो बाबा बुड्ढा ने हर्षित होकर भरपूर आशीष दिये, जिसके प्रताप से हरगोविन्द जैसा तेजस्वी बालक उनके घर में जन्मा। तब से बाबा बुड्ढा के जन्मदिवस पर उनके जन्मग्राम कथू नंगल में बने गुरुद्वारे में मिस्सी रोटी, प्याज और लस्सी का लंगर ही वितरित किया जाता है। 
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1 सितम्बर/जन्म-दिवस
हिन्दीभक्त फादर कामिल बुल्के
फादर कामिल बुल्के का जन्म एक सितम्बर, 1909 को बेल्जियम में हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव से ही पूरी करने के बाद 1930 में उन्होंने लुवेन विश्वविद्यालय से अभियन्ता की परीक्षा उत्तीर्ण की। इस दौरान उनका सम्पर्क कैथोलिक ईसाइयों के जेसुइट पन्थ से हुआ। उन्होंने वहाँ से धार्मिक शिक्षा प्राप्त की। पादरी बनकर 1935 में वे संस्था के आदेशानुसार ईसाइयत के प्रचार-प्रसार के लिए अध्यापक बनकर भारत आ गये।

सर्वप्रथम उन्होंने दार्जिलिंग और फिर बिहार के अति पिछड़े क्षेत्र गुमला में अध्यापन किया। इस दौरान उन्हें भारतीय धर्म, संस्कृति, भाषा तथा दर्शन का अध्ययन करने का अवसर मिला। इससे उनके जीवन में भारी परिवर्तन हुआ। अंग्रेजों द्वारा भारत पर किया जा रहा शासन उनकी आँखों में चुभने लगा।

निर्धन और अशिक्षित हिन्दुओं को छल-बल और लालच से ईसाई बनाने का काम भी उन्हें निरर्थक लगा। अतः उन्होंने सदा के लिए भारत को ही अपनी कर्मभूमि बनाने का निश्चय कर लिया। उन्होंने बेल्जियम की नागरिकता छोड़ दी और पूरी तरह भारतीय बनकर स्वतन्त्रता के आन्दोलन में कूद पड़े।

यद्यपि वे फ्रेंच, अंग्रेजी, फ्लेमिश, आइरिश आदि अनेक भाषाओं के विद्वान थे; पर उन्होंने भारत से जुड़ने के लिए हिन्दी को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। वे राँची में विज्ञान पढ़ाते थे; पर इसके साथ उन्होंने हिन्दी का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. की डिग्री ली। इस दौरान उनका गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य से विस्तृत परिचय हुआ। फिर तो तुलसीदास उनके सबसे प्रिय कवि हो गये।

अब वे तुलसी साहित्य पर शोध करने लगे। 1949 में उन्हें रामकथा: उद्भव और विकासविषय पर पी-एच.डी की उपाधि मिली। इसके बाद वे राँची के सेण्ट जेवियर कालिज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष हो गये। तुलसी साहित्य पर गहन अध्ययन के कारण उन्हें पूरे देश से व्याख्यानों के लिए निमन्त्रण मिलने लगे। उनका नाम फादर की जगह बाबा कामिल बुल्के प्रसिद्ध हो गया।

एक बार उन्होंने बताया था कि कविकुल शिरोमणि तुलसीदास जी से मेरा संक्षिप्त परिचय अपने देश में ही हुआ था। उस समय मैं विश्व के श्रेष्ठ साहित्य की जानकारी देने वाला एक जर्मन ग्रन्थ पढ़ रहा था। उसमें तुलसीदास और श्री रामचरितमानस का संक्षिप्त वर्णन था। जर्मन भाषा में वह पढ़कर मेरे हृदय के तार झंकृत हो उठे। भारत आकर मैंने इसका और अध्ययन किया। मेरा आजीवन भारत में ही रहने का विचार है; पर यदि किसी कारण से मुझे भारत छोड़ना पड़ा, तो मैं मानस की एक प्रति अपने साथ अवश्य ले जाऊँगा।

श्री बुल्के का अनुवाद कार्य भी काफी व्यापक है। इनमें न्यू टेस्टामेण्ट, पर्वत प्रवचन, सन्त लुकस का सुसमाचार, प्रेरित चरित आदि ईसाई धर्म पुस्तकें प्रमुख हैं। अपनी पुस्तक दि सेवियरतथा विश्वप्रसिद्ध फ्रे॰च नाटक दि ब्लूबर्डका नीलपक्षी के नाम से उन्होंने अनुवाद किया। हिन्दी तथा अंग्रेजी में उन्होंने 29 पुस्तक, 60 शोध निबन्ध तथा 100 से अधिक लघु निबन्ध लिखे। उनका हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश आज भी एक मानक ग्रन्थ माना जाता है। 1974 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषणसे सम्मानित किया।

हिन्दीसेवी बाबा बुल्के का देहान्त 17 अगस्त, 1982 को हुआ।
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1 सितम्बर/जन्म-दिवस
सबके हितचिंतक केशवराव गोरे
माता-पिता प्रायः अपने बच्चों के काम, मकान, दुकान, विवाह आदि की चिन्ता करते ही हैं; पर 1 सितम्बर, 1915 को गोंदिया (महाराष्ट्र) में जन्मे केशव नरहरि गोरे ने प्रचारक बनने से पूर्व पिताजी के लिए मकान बनवाकर एक बहिन का विवाह भी किया। 
ये लोग मूलतः वाई (महाराष्ट्र) के निवासी थे। केशवराव के पिता श्री नरहरि वामन गोरे तथा माता श्रीमती यशोदा गोरे थीं। रेलवे में तारबाबू होने के कारण श्री नरहरि का स्थानान्तरण होता रहता था। अतः केशवराव की प्रारम्भिक शिक्षा गोंदिया तथा उच्च शिक्षा मिदनापुर (बंगाल) में हुई। मेधावी छात्र होने के कारण उन्होंने मराठी के साथ ही हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, उड़िया और संस्कृत बोलना सीख लिया था। वे नाटकों में अभिनय भी करते थे।

बचपन में वे बहुत क्रोधी थे। एक बार माताजी ने इन्हें किसी बात पर बहुत पीटा और कमरे में बंद कर दिया। उनके लौटने तक केशव ने आल्मारी में रखे सब कीमती वस्त्र फाड़ डाले। एक बार बड़े भाई इनके कपड़े पहन कर विद्यालय चले गये; पर केशव ने बीच रास्ते से उन्हें लौटाकर कपड़े उतरवा लिये। वे अपने को बड़ा अफसर समझते थे। विद्यालय से आने पर उनके जूते उनकी बहनें उतारती थी। वे अत्यधिक सफाई और व्यवस्था प्रिय भी थे।  

1938 में उनके पिताजी का स्थानान्तरण बिलासपुर (म.प्र) में हुआ, तो केशवराव ने वहां किराने की दुकान खोल ली। साथ में जीवन बीमा का कार्य भी किया। कुछ समय में काम जम गया। फिर उन्होंने अपनी छोटी बहिन के लिए वर खोजकर धूमधाम से उसका विवाह किया। 

1939-40 में पूज्य श्रीगुरुजी प्रवास के समय इनके घर आये। उन्होंने श्री नरहरि से कहा कि वे अपने चार में से एक बेटे को प्रचारक बनने दें; पर वे तैयार नहीं हुए। लेकिन केशवराव के बड़े भाई श्री यशवंत गोरे के मन को बात लग गयी। एक पैर खराब होने पर भी वे संघ में सक्रिय थे। वे भी रेलवे में कर्मचारी थे। उन्होंने केशव को कहा कि घर की जिम्मेदारी मैं लेता हूं; पर तुम प्रचारक बनो। उनकी प्रेरणा और आज्ञा से अंततः केशवराव प्रचारक बनने को तैयार हो गये।

पर श्री नरहरि के पास कोई निजी मकान नहीं था। उन दिनों पेंशन भी नहीं होती थी। अतः केशवराव ने बिलासपुर में एक भूखंड लेकर उस पर मकान बनवाया। दुकान एक मित्र मधु देशपांडे का सौंप दी और 1942 में प्रचारक बन गये। प्रारम्भ में उन्हें दुर्ग भेजा गया। इसके बाद उन्होंने मुख्यतः मध्यभारत, महाकौशल, छत्तीसगढ़ में विभिन्न दायित्वों पर कार्य किया। बिलासपुर प्रवास के समय वे सदा संघ कार्यालय या किसी कार्यकर्ता के घर पर ही रहते थे। अपने परिजनों से मिलने के लिए वे कुछ देर को ही घर आते थे।

केशवराव की रुचि निर्माण कार्यों में बहुत थी। वे जन्मजात वास्तुकार थे। महाकौशल प्रांत प्रचारक रहते हुए उन्होंने जबलपुर में प्रांतीय कार्यालय केशव कुंजका निर्माण कराया। इंदौर कार्यालय के निर्माण में भी उनकी प्रमुख भूमिका रही। आयु बढ़ने से वे अनेक रोगों के घिरते चले गये। अतः उनका केन्द्र नागपुर बनाकर उन्हें केन्द्रीय कार्यालय एवं व्यवस्था प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी।

धीरे-धीरे उनका शरीर शिथिल होता गया। अक्तूबर, 2001 में स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर उनके भतीजे वामन गोरे उन्हें अपने घर भिलाई ले आये। कुछ सुधार न होने पर उन्हें बिलासपुर और फिर रायपुर के अस्पताल में भर्ती कराया गया; पर हालत बिगड़ती गयी और अंततः वहीं 28 अक्तूबर को उनका शरीरांत हुआ। अगले दिन बिलासपुर में ही उनका दाह संस्कार किया गया। उनकी शव यात्रा उसी मकान से निकली, जिसे उन्होंने अपने परिजनों के लिए स्वयं खड़े होकर बनवाया था।
(संदर्भ : नागपुर वाली बहिन श्रीमती चितले एवं भतीजे के पत्र)
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2 सितम्बर/बलिदान-दिवस
अनाथ बन्धु एवं मृगेन्द्र दत्त का बलिदान
अंग्रेजों के जाने के बाद भारत की स्वतन्त्रता का श्रेय भले ही कांग्रेसी नेता स्वयं लेते हों; पर वस्तुतः इसका श्रेय उन क्रान्तिकारी युवकों को है, जो अपनी जान हथेली पर लेकर घूमते रहते थे। बंगाल ऐसे युवकों का गढ़ था। ऐसे ही दो मित्र थे अनाथ बन्धु प॰जा एवं मृगेन्द्र कुमार दत्त, जिनके बलिदान से शासकों को अपना निर्णय बदलने को विवश होना पड़ा।

उन दिनों बंगाल के मिदनापुर जिले में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ जोरों पर थीं। इससे परेशान होकर अंग्रेजों ने वहाँ जेम्स पेड्डी को जिलाधिकारी बनाकर भेजा। यह बहुत क्रूर अधिकारी था। छोटी सी बात पर 10-12 साल की सजा दे देता था। क्रान्तिकारियों ने शासन को चेतावनी दी कि वे इसके बदले किसी भारतीय को यहाँ भेजें; पर शासन तो बहरा था। अतः एक दिन जेम्स पेड्डी को गोली से उड़ा दिया गया।

अंग्रेज इससे बौखला गये। अब उन्होंने पेड्डी से भी अधिक कठोर राबर्ट डगलस को भेजा। एक दिन जब वह अपने कार्यालय में बैठा फाइलें देख रहा था, तो न जाने कहाँ से दो युवक आये और उसे गोली मार दी। वह वहीं ढेर हो गया। दोनों में से एक युवक तो भाग गया; पर दूसरा प्रद्योत कुमार पकड़ा गया। शासन ने उसे फाँसी दे दी।

दो जिलाधिकारियों की हत्या के बाद भी अंग्रेजों की आँख नहीं खुली। अबकी बार उन्होंने बी.ई.जे.बर्ग को भेजा। बर्ग सदा दो अंगरक्षकों के साथ चलता था। इधर क्रान्तिवीरों ने भी ठान लिया था कि इस जिले में किसी अंग्रेज जिलाधिकारी को नहीं रहने देंगे। 

बर्ग फुटबाल का शौकीन था और टाउन क्लब की ओर से खेलता था। 2 सितम्बर, 1933 को टाउन क्लब और मौहम्मदन स्पोर्टिंग के बीच मुकाबला था। खेल शुरू होने से कुछ देर पहले बर्ग आया और अभ्यास में शामिल हो गया। अभी बर्ग ने शरीर गरम करने के कलए फुटब१ल में दो-चार किक ही मारी थी कि उसके सामने दो खिलाड़ी, अनाथ बन्धु प॰जा और मृगेन्द्र कुमार दत्त आकर खड़े हो गये। दोनों ने जेब में से पिस्तौल निकालकर बर्ग पर खाली कर दीं। वह हाय कहकर धरती पर गिर पड़ा और वहीं मर गया।

यह देखकर बर्ग के अंगरक्षक इन पर गोलियाँ बरसाने लगे। इनकी पिस्तौल तो खाली हो चुकी थी, अतः जान बचाने के लिए दोनों दौड़ने लगे; पर अंगरक्षकों के पास अच्छे शस्त्र थे। दोनों मित्र गोली खाकर गिर पड़े। अनाथ बन्धु ने तो वहीं प्राण त्याग दिये। मृगेन्द्र को पकड़ कर अस्पताल ले जाया गया। अत्यधिक खून निकल जाने के कारण अगले दिन वह भी चल बसा।

इस घटना के बाद पुलिस ने मैदान को घेर लिया। हर खिलाड़ी की तलाशी ली गयी। निर्मल जीवन घोष, ब्रजकिशोर चक्रवर्ती और रामकृष्ण राय के पास भी भरी हुई पिस्तौलें मिलीं। ये तीनों भी क्रान्तिकारी दल के सदस्य थे। यदि किसी कारण से अनाथ बन्धु और मृगेन्द्र को सफलता न मिलती, तो इन्हें बर्ग का वध करना था। पुलिस ने इन तीनों को पकड़ लिया और मुकदमा चलाकर मिदनापुर के केन्द्रीय कारागार में फाँसी पर चढ़ा दिया।

तीन जिलाधिकारियों की हत्या के बाद अंग्रेजों ने निर्णय किया कि अब कोई भारतीय अधिकारी ही मिदनापुर भेजा जाये। अंग्रेज अधिकारियों के मन में भी भय समा गया था। कोई वहाँ जाने को तैयार नहीं हो रहा था। इस प्रकार क्रान्तिकारी युवकों ने अपने बलिदान से अंग्रेज शासन को झुका दिया।
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2 सितम्बर/पुण्य-तिथि
चित्र मढ़ते हुए प्रचारक बने मथुरादत्त पांडेय

श्री मथुरादत्त पांडेय का जन्म ग्राम विजयपुर पाटिया (अल्मोड़ा, उत्तराखंड)  में श्री धर्मानन्द पांडेय के घर में हुआ था। मथुरादत्त जी छह भाई-बहिन थे। प्रारम्भिक शिक्षा अल्मोड़ा में लेने के बाद इन्होंने बरेली से आई.टी.आई का एक वर्षीय प्रशिक्षण लिया। इसके बाद वे अपने मामा जी के पास लखनऊ आ गये। आगे चलकर इन्होंने अमीनाबाद में श्रीराम रोड पर चित्र मढ़ने का कार्य प्रारम्भ किया। थोड़े समय में ही इनकी दुकान प्रसिद्ध हो गयी।

मथुरादत्त जी उन दिनों कांग्रेस में खूब सक्रिय थे। यहां तक कि जवाहर लाल नेहरू भी एक-दो बार उनकी दुकान पर आये थे। नेहरू जी की खाती स्टेट (अल्मोड़ा) में कुछ सम्पत्ति थी। उसे देखने के लिए वे मथुरादत्त जी को ही भेजते थे; पर 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की विफलता, गांधी जी और नेहरू जी के मुस्लिम तुष्टीकरण आदि से मथुरादत्त जी का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। उन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटित हुई, जिसने उन्हें सदा के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जोड़ दिया।

1945-46 में लखनऊ में कार्यकर्ताओं ने एक अभियान लिया कि सब स्वयंसेवकों के घर पर पूज्य डा. हेडगेवार और श्री गुरुजी के चित्र होने चाहिए। चित्र तो कार्यालय से मिल जाते थे, पर उन्हें मढ़वाने के लिए बाजार जाना पड़ता था। कई स्वयंसेवकों ने मथुरादत्त जी की दुकान पर वे चित्र मढ़ने के लिए दिये। इससे मथुरादत्त जी के मन में इन दोनों महापुरुषों के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। उन्होंने कुछ स्वयंसेवकों से यह पूछा। इस प्रकार उनका संघ से सम्पर्क हुआ। 

फिर तो वे संघ में इतने रम गये कि दिन-रात संघ और शाखा के अतिरिक्त उन्हें कुछ सूझता ही नहीं था। यहां तक कि उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय ले लिया। उनकी दुकान बहुत अच्छी चलती थी। घर-परिवार के लोगों और मित्रों ने बहुत समझाया; पर उन्होंने वह दुकान बिना मूल्य लिए एक स्वयंसेवक को दे दी और 1947 में प्रचारक बन कर कर्मक्षेत्र में कूद पड़े। इसके बाद वे अनेक स्थानों पर नगर, तहसील, जिला और विभाग प्रचारक रहे। 1948 के प्रतिबंध के समय वे लखनऊ जेल में रहे। भाऊराव देवरस और श्री गुरुजी के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। 

वे बहुत परिश्रमी, स्वभाव के कठोर और व्यवस्थाप्रिय थे। वे अपना छोटा बिस्तर सदा साथ रखते थे। शाखा में सदा समय से, निकर पहनकर और दंड लेकर ही जाते थे। दिन भर में 10-15 कि.मी पैदल चलना उनके लिए सामान्य बात थी। उनके भाषण युवा स्वयंसेवकों के दिल में आग भर देते थे।

मथुरादत्त जी के मन में अपनी जन्मभूमि उत्तराखंड के प्रति बहुत अनुराग था। पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानीवहां नहीं रह पाती, वे इस मानसिकता को बदलना चाहते थे। उनका मत था कि शिक्षा के प्रसार से इस स्थिति को सुधारा जा सकता है। इसलिए 1960 में उन्होंने अपने हिस्से में आयी पैतृक सम्पत्ति विद्या भारतीको दान कर दी। आज वहां पर एक बड़ा कृषि विद्यालय चलता है, जो उत्तरांचल का पहला कृषि विद्यालय है।

आगे चलकर जब उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा, तो वे फिर से तहसील प्रचारक का दायित्व लेकर मेरठ की बागपत तहसील में काम करने लगे। कुछ वर्ष बाद जब आयु की अधिकता के कारण स्वास्थ्य संबंधी अनेक समस्याओं ने उन्हें घेर लिया, तो उन्हें सरस्वती कुंज, निराला नगर, लखनऊ में बुला लिया गया। लम्बी बीमारी के बाद लखनऊ के चिकित्सा महाविद्यालय में दो सितम्बर, 1981 को उनका देहावसान हुआ। उनके गांव विजयपुर पाटिया में बना कृषि विद्यालय उनकी स्मृति को आज भी जीवंत बनाये है।
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2 सितम्बर/जन्म-दिवस
आदर्श कार्यकर्ता रामेश्वर दयाल जी
श्री रामेश्वर दयाल शर्मा का जन्म दो सितम्बर, 1927 को अपनी ननिहाल फिरोजाबाद (उ.प्र.) में हुआ था। इनके पिता पंडित नत्थीलाल शर्मा तथा माता श्रीमती चमेली देवी थीं। 1935 में इनके पिताजी का देहांत हो गया, अतः माताजी चारों बच्चों को लेकर अपने मायके फिरोजाबाद आ गयीं। इस कारण सब बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा फिरोजाबाद में ही हुई।

1942-43 में रामेश्वर जी स्वाधीनता सेनानी श्री रामचन्द्र पालीवाल तथा श्री रामगोपाल पालीवाल से प्रभावित होकर फिरोजाबाद के भारतीय भवन पुस्तकालय का संचालन करने लगे। इसी समय आगरा जिले में प्रचारक श्री भाऊ जी जुगाधे के छोटे भाई भैया जी जुगाधे के साथ वे शाखा में जाने लगे। फिरोजाबाद संघ कार्यालय पर श्री बाबासाहब आप्टे के दर्शन एवं वार्तालाप से उनके मन पर संघ के विचारों की अमिट छाप पड़ गयी।

1945 में वे फिरोजाबाद से आगरा आ गये और यमुना प्रभात शाखा में  सक्रिय हो गये। इसी समय वे छत्ता वार्ड की कांग्रेस कमेटी के महामंत्री भी थे। 1948 में गांधी जी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लग गया। रामेश्वर जी प्रारम्भ में तो भूमिगत रहकर काम करते रहे, फिर संगठन का आदेश मिलने पर श्री भाऊ साहब जुगाधे के साथ सत्याग्रह कर दिया।

जेल से छूटने और प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद वे फिर संघ कार्य में सक्रिय हो गये। परिवार के पालन के लिए वे आगरा में सेना की कार्यशाला में नौकरी करने लगे। 1954, 58 और 60 में उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण पूरे किये। नौकरी, परिवार और संघ कार्य में उन्होंने सदा संतुलन बनाकर रखा। उनके तीन पुत्र और चार पुत्रियां थीं; पर उन्होंने सादगीपूर्ण जीवन बिताते हुए अपने खर्चे सदा नियन्त्रित रखे। 1960 से 66 तक वे भारतीय मजदूर संघ के प्रदेश सहमंत्री तथा प्रतिरक्षा मजदूर संघ के केन्द्रीय कोषाध्यक्ष भी रहे।

1967 में वे विश्व हिन्दू परिषद में सक्रिय हुए। साधु-संतों के प्रति श्रद्धा होने के कारण उन्हें उ0प्र0 में धर्माचार्य संपर्क का काम दिया गया। प्रतिदिन दफ्तर जाने से पहले और बाद में वे परिषद कार्यालय पर आते थे। 1987 में सरकारी सेवा से अवकाश प्राप्त कर वे वि.हि.प के दिल्ली स्थित केन्द्रीय कार्यालय में आ गये। यहां उन्हें केन्द्रीय सहमंत्री की जिम्मेदारी और विश्व हिन्दू महासंघ में नेपाल डेस्क का काम दिया गया। 1996 से वे श्री अशोक सिंहल के निजी सहायक के नाते उनके पत्राचार को संभालने लगे।

अध्यात्म के क्षेत्र में वे पूज्य स्वामी अड़गड़ानंद जी को अपना गुरु मानते थे। उनके प्रवचनों की छोटी-छोटी पुस्तकें बनाकर वे निःशुल्क वितरण करते रहते थे। वर्ष 2009 में उनकी मूत्र ग्रन्थी में कैंसर का पता लगा। शल्य क्रिया से कैंसरग्रस्त भाग हटाने पर कुछ सुधार तो दिखाई दिया; पर रोग समाप्त नहीं हुआ। अतः कमजोरी लगातार बढ़ती रही। यह देखकर वे अपने हिस्से के काम दूसरों को सौंपकर अपने बच्चों के पास आगरा चले गये।

आगरा में उपचार तथा देखभाल के साथ कैंसर भी अपना काम करता रहा और धीरे-धीरे वह पूरे शरीर में फैल गया। 10 जून, 2010 को संत बच्चा बाबा ने घर आकर उनके गुरु पूज्य स्वामी अड़गड़ानंद जी का संदेश सुनाया कि अब तुम यह शरीर छोड़ दो। नये शरीर में आकर प्रभु भजन करना। यह संदेश सुनने के कुछ घंटे बाद ही रामेश्वर जी ने संसार छोड़ दिया।

रामेश्वर जी के छोटे भाई राजेश्वर जी संघ के जीवनव्रती प्रचारक थे। वे पहले संघ और फिर भारतीय मजदूर संघ में सक्रिय रहे। उनका देहांत भी आगरा के संघ कार्यालय, माधव भवन में 10 जून, 2007 को ही हुआ था।
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3 सितम्बर/जन्म-दिवस
दक्षिण के सेनापति यादवराव जोशी
दक्षिण भारत में संघ कार्य का विस्तार करने वाले श्री यादव कृष्ण जोशी का जन्म अनंत चतुर्दशी (3 सितम्बर, 1914) को नागपुर के एक वेदपाठी परिवार में हुआ था। वे अपने माता-पिता के एकमात्र पुत्र थे। उनके पिता श्री कृष्ण गोविन्द जोशी एक साधारण पुजारी थे। अतः यादवराव को बालपन से ही संघर्ष एवं अभावों भरा जीवन बिताने की आदत हो गयी।

यादवराव का डा. हेडगेवार से बहुत निकट सम्बन्ध थे। वे डा. जी के घर पर ही रहते थे। एक बार डा. जी बहुत उदास मन से मोहिते के बाड़े की शाखा पर आये। उन्होंने सबको एकत्र कर कहा कि ब्रिटिश शासन ने वीर सावरकर की नजरबन्दी दो वर्ष के लिए बढ़ा दी है। अतः सब लोग तुरन्त प्रार्थना कर शांत रहते हुए घर जाएंगे। इस घटना का यादवराव के मन पर बहुत प्रभाव पड़ा। वे पूरी तरह डा. जी के भक्त बन गये।

यादवराव एक श्रेष्ठ शास्त्रीय गायक थे। उन्हें संगीत का बाल भास्करकहा जाता था। उनके संगीत गुरू श्री शंकरराव प्रवर्तक उन्हें प्यार से बुटली भट्ट (छोटू पंडित) कहते थे। डा. हेडगेवार की उनसे पहली भेंट 20 जनवरी, 1927 को एक संगीत कार्यक्रम में ही हुई थी। 

वहां आये संगीत सम्राट सवाई गंधर्व ने उनके गायन की बहुत प्रशंसा की थी; पर फिर यादवराव ने संघ कार्य को ही जीवन का संगीत बना लिया। 1940 से संघ में संस्कृत प्रार्थना का चलन हुआ। इसका पहला गायन संघ शिक्षा वर्ग में यादवराव ने ही किया था। संघ के अनेक गीतों के स्वर भी उन्होंने बनाये थे।

एम.ए. तथा कानून की परीक्षा उत्तीर्ण कर यादवराव को प्रचारक के नाते झांसी भेजा गया। वहां वे तीन-चार मास ही रहे कि डा. जी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। अतः उन्हें डा. जी की देखभाल के लिए नागपुर बुला लिया गया। 1941 में उन्हें कर्नाटक प्रांत प्रचारक बनाया गया। 

इसके बाद वे दक्षिण क्षेत्र प्रचारक, अ.भा.बौद्धिक प्रमुख, प्रचार प्रमुख, सेवा प्रमुख तथा 1977 से 84 तक सह सरकार्यवाह रहे। दक्षिण में पुस्तक प्रकाशन, सेवा, संस्कृत प्रचार आदि के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी। राष्ट्रोत्थान साहित्य परिषदद्वारा भारत भारतीपुस्तक माला के अन्तर्गत बच्चों के लिए लगभग 500 छोटी पुस्तकों का प्रकाशन हो चुका है। यह बहुत लोकप्रिय प्रकल्प है।

छोटे कद वाले यादवराव का जीवन बहुत सादगीपूर्ण था। वे प्रातःकालीन अल्पाहार नहीं करते थे। भोजन में भी एक दाल या सब्जी ही लेते थे। कमीज और धोती उनका प्रिय वेष था; पर उनके भाषण मन-मस्तिष्क को झकझोर देते थे। एक राजनेता ने उनकी तुलना सेना के जनरल से की थी। 

उनके नेतृत्व में कर्नाटक में कई बड़े कार्यक्रम हुए। 1948 तथा 62 में बंगलौर में क्रमशः आठ तथा दस हजार गणवेशधारी तरुणों का शिविर, 1972 में विशाल घोष शिविर, 1982 में बंगलौर में 23,000 संख्या का हिन्दू सम्मेलन, 1969 में उडुपी में वि.हि.परिषद का प्रथम प्रांतीय सम्मेलन, 1983 में धर्मस्थान में वि.हि.परिषद का द्वितीय प्रांतीय सम्मेलन, जिसमें 70,000 प्रतिनिधि तथा एक लाख पर्यवेक्षक शामिल हुए। विवेकानंद केन्द्र की स्थापना तथा मीनाक्षीपुरम् कांड के बाद हुए जनजागरण में उनका योगदान उल्लेखनीय है।

1987-88 वे विदेश प्रवास पर गये। केन्या के एक समारोह में वहां के मेयर ने जब उन्हें आदरणीय अतिथि कहा, तो यादवराव बोले, मैं अतिथि नहीं आपका भाई हूं। उनका मत था कि भारतवासी जहां भी रहें, वहां की उन्नति में योगदान देना चाहिए। क्योंकि हिन्दू पूरे विश्व को एक परिवार मानते हैं।

जीवन के संध्याकाल में वे अस्थि कैंसर से पीड़ित हो गये। 20 अगस्त, 1992 को बंगलौर संघ कार्यालय में ही उन्होंने अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की।   

(संदर्भ : यशस्वी यादवराव - वीरेश्वर द्विवेदी)
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3 सितम्बर/बलिदान-दिवस
बाल बलिदानी कुमारी मैना
1857 के स्वाधीनता संग्राम में प्रारम्भ में तो भारतीय पक्ष की जीत हुई; पर फिर अंग्रेजों का पलड़ा भारी होने लगा। भारतीय सेनानियों का नेतृत्व नाना साहब पेशवा कर रहे थे। उन्होंने अपने सहयोगियों के आग्रह पर बिठूर का महल छोड़ने का निर्णय कर लिया। उनकी योजना थी कि किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर फिर से सेना एकत्र करें और अंग्रेजों ने नये सिरे से मोर्चा लें।

मैना नानासाहब की दत्तक पुत्री थी। वह उस समय केवल 13 वर्ष की थी। नानासाहब बड़े असमंजस में थे कि उसका क्या करें ? नये स्थान पर पहुंचने में न जाने कितने दिन लगें और मार्ग में न जाने कैसी कठिनाइयां आयें। अतः उसे साथ रखना खतरे से खाली नहीं था; पर महल में छोड़ना भी कठिन था। ऐसे में मैना ने स्वयं महल में रुकने की इच्छा प्रकट की।

नानासाहब ने उसे समझाया कि अंग्रेज अपने बन्दियों से बहुत दुष्टता का व्यवहार करते हैं। फिर मैना तो एक कन्या थी। अतः उसके साथ दुराचार भी हो सकता था; पर मैना साहसी लड़की थी। उसने अस्त्र-शस्त्र चलाना भी सीखा था। उसने कहा कि मैं क्रांतिकारी की पुत्री होने के साथ ही एक हिन्दू ललना भी हूं। मुझे अपने शरीर और नारी धर्म की रक्षा करना आता है। अतः नानासाहब ने विवश होकर कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ उसे वहीं छोड़ दिया।

पर कुछ दिन बाद ही अंग्रेज सेनापति हे ने गुप्तचरों से सूचना पाकर महल को घेर लिया और तोपों से गोले दागने लगा। इस पर मैना बाहर आ गयी। सेनापति हे नाना साहब के दरबार में प्रायः आता था। अतः उसकी बेटी मेरी से मैना की अच्छी मित्रता हो गयी थी। मैना ने यह संदर्भ देकर उसे महल गिराने से रोका; पर जनरल आउटरम के आदेश के कारण सेनापति हे विवश था। अतः उसने मैना को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।

पर मैना को महल के सब गुप्त रास्ते और तहखानों की जानकारी थी। जैसे ही सैनिक उसे पकड़ने के लिए आगे बढ़े, वह वहां से गायब हो गयी। सेनापति के आदेश पर फिर से तोपें आग उगलने लगीं और कुछ ही घंटों में वह महल ध्वस्त हो गया। सेनापति ने सोचा कि मैना भी उस महल में दब कर मर गयी होगी। अतः वह वापस अपने निवास पर लौट आया।

पर मैना जीवित थी। रात में वह अपने गुप्त ठिकाने से बाहर आकर यह विचार करने लगी कि उसे अब क्या करना चाहिए ? उसे मालूम नहीं था कि महल ध्वस्त होने के बाद भी कुछ सैनिक वहां तैनात हैं। ऐसे दो सैनिकों ने उसे पकड़ कर जनरल आउटरम के सामने प्रस्तुत कर दिया।

नानासाहब पर एक लाख रु. का पुरस्कार घोषित था। जनरल आउटरम उन्हें पकड़ कर आंदोलन को पूरी तरह कुचलना तथा ब्रिटेन में बैठे शासकों से बड़ा पुरस्कार पाना चाहता था। उसने सोचा कि मैना छोटी सी बच्ची है। अतः पहले उसे प्यार से समझाया गया; पर मैना चुप रही। यह देखकर उसे जिन्दा जला देने की धमकी दी गयी; पर मैना इससे भी विचलित नहीं हुई।

अंततः आउटरम ने उसे पेड़ से बांधकर जलाने का आदेश दे दिया। निर्दयी सैनिकों ने ऐसा ही किया। तीन सितम्बर, 1857 की रात में 13 वर्षीय मैना चुपचाप आग में जल गयी। इस प्रकार उसने देश के लिए बलिदान होने वाले बच्चों की सूची में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवा लिया।

(संदर्भ  : क्रांतिकारी कोश, स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश, वीरांगनाएं)
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4 सितम्बर/जन्म-दिवस

प्रातःस्मरणीय दादाभाई नौरोजी

दादाभाई नौरोजी का जन्म चार सितम्बर, 1825 को मुम्बई के एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री नौरोजी पालनजी दोर्दी तथा माता श्रीमती मानिकबाई थीं। जब वे छोटे ही थे, तो उनके पिता का देहान्त हो गया; पर उनकी माता ने बड़े धैर्य से उनकी देखभाल की। यद्यपि वे शिक्षित नहीं थीं; पर उनके दिये गये संस्कारों ने दादाभाई के जीवन पर अमिट छाप छोड़ी।
पिता के देहान्त के बाद घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ने से इन्हें पढ़ने में कठिनाई आ गयी। ऐसे में उनके अध्यापक श्री मेहता ने सहारा दिया। वे सम्पन्न छात्रों की पुस्तकें लाकर इन्हें देते थे। निर्धन छात्रों की इस कठिनाई को समझने के कारण आगे चलकर दादाभाई निःशुल्क शिक्षा के बड़े समर्थक बने। 
11 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हो गया। इनकी योग्यता देखकर मुम्बई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सर एर्सकिनपेरी ने इन्हें इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टर बनने को प्रेरित किया; पर कुछ समय पूर्व ही बैरिस्टर बनने के लिए इंग्लैण्ड गये दो पारसी युवकों की मजबूरी का लाभ उठाकर उन्हें धर्मान्तरित कर लिया गया था। इस कारण इनके परिवारजनों ने इन्हें वहाँ नहीं भेजा।
आगे चलकर जब ये व्यापार के लिए इंग्लैण्ड गये, तो इन्होंने वहाँ भारतीय छात्रों के भोजन और आवास का उचित प्रबन्ध किया, जिससे किसी को मजबूरी में धर्म न बदलना पड़े। गान्धी जी की इंग्लैण्ड में शिक्षा पूर्ण कराने में दादाभाई का बहुत योगदान था। दादाभाई व्यापार में ईमानदारी के पक्षधर थे। इससे उनके अपनी फर्म के साथ मतभेद उत्पन्न हो गये। अतः वे अपनी निजी फर्म बनाकर व्यापार करने लगे। 
अमरीकी गृहयुद्ध के दौरान इन्हें व्यापार में बहुत लाभ हुआ; पर गृहयुद्ध समाप्त होते ही एकदम से बहुत घाटा भी हो गया। बैंकों का भारी कर्ज होने पर दादाभाई ने अपने खाते सार्वजनिक निरीक्षण के लिए खोल दिये। यह पारदर्शिता देखकर बैंकों तथा उनके कर्जदाताओं ने कर्ज माफ कर दिया। कुछ ही समय में उनकी प्रतिष्ठा भारत की तरह इंग्लैण्ड में भी सर्वत्र फैल गयी।
दादाभाई का मत था कि अंग्रेजी शासन को समझाकर ही हम अधिकाधिक लाभ उठा सकते हैं। अतः वे समाचार पत्रों में लेख तथा तर्कपूर्ण ज्ञापनों से शासकों का ध्यान भारतीय समस्याओं की ओर दिलाते रहते थे। जब एक अंग्रेज अधिकारी ए.ओ.ह्यूम ने 27 दिसम्बर, 1885 को मुम्बई में कांग्रेस की स्थापना की, तो दादाभाई ने उसमें बहुत सहयोग दिया। अगले साल कोलकाता में हुए दूसरे अधिवेशन में वे कांग्रेस के अध्यक्ष बनाये गये।
दादाभाई नौरोजी की इंग्लैण्ड में लोकप्रियता को देखकर उन्हें कुछ लोगों ने इंग्लैण्ड की संसद के लिए चुनाव लड़ने को प्रेरित किया। शुभचिन्तकों की बात मानकर वे पहली बार चुनाव हारे; पर दूसरे प्रयास में विजयी हुए। इस प्रकार वे भारत तथा इंग्लैण्ड के बीच सेतु बन गये। उन्होंने ब्रिटिश संसद में भारत से सम्बन्धित अनेक विषय उठाये तथा शासन की गलत नीतियों को बदलवाया। ब्रिटिश शासन के अन्य उपनिवेशों में रहने वाले भारतीयों के अधिकारों के लिए भी उन्होंने संघर्ष किया। उन्हें रेल की उच्च श्रेणी में यात्रा तथा अंग्रेजों की तरह अच्छे मकानों में रहने की सुविधा दिलायी। 
91 वर्ष के सक्रिय जीवन के बाद 20 अगस्त, 1917 को दादाभाई नौरोजी ने आँखें मूँद लीं। पारसी परम्पराओं के अनुसार उनके पार्थिव शरीर को ‘शान्ति मीनार’ पर विसर्जित कर दिया गया।
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4 सितम्बर/जन्म-दिवस
मिशनरी षड्यन्त्रों के अध्येता कृष्णराव सप्रे
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना से कई प्रचारक वनवासी क्षेत्र में सेवा एवं संगठन का काम करते हैं। यहां मिशन वालों की सक्रियता से कई अलगाववादी आंदोलन भी चलते हैं। शासन का ध्यान स्वाधीनता प्राप्ति के बाद इस ओर गया। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल ने इन षड्यन्त्रों की जानकारी के लिए ‘नियोगी आयोग’ बनाया था। संघ ने भी उनका सहयोग करने के लिए कुछ कार्यकर्ता लगाये। इनमें से ही एक थे श्री कृष्णराव दामोदर सप्रे।
कृष्णराव सप्रे (नाना) का जन्म म.प्र. की संस्कारधानी जबलपुर में चार सितम्बर, 1931 को हुआ था। यह परिवार मूलतः ग्राम रहेली (जिला सागर, म.प्र.) का निवासी था। यद्यपि नाना की लौकिक शिक्षा केवल इंटर तक ही हुई थी; पर हर विषय का गहन अध्ययन करना उनके स्वभाव में था। संघप्रेमी परिवार होने के कारण उनके पिताजी संघ में, तो माताजी ‘राष्ट्र सेविका समिति’ में सक्रिय थीं। अतः नाना और शेष तीनों भाई भी स्वयंसेवक बने। उनमें से एक डा. प्रसन्न दामोदर सप्रे प्रचारक के नाते आज भी ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ में सक्रिय हैं, जबकि डा. सदानंद सप्रे प्राध्यापक रहते हुए तथा अब अवकाश प्राप्ति के बाद पूरी तरह संघ के ही काम में लगे हैं।
जिन दिनों नाना ने शाखा जाना प्रारम्भ किया, उन दिनों युवाओं में कम्युनिस्ट विचार बहुत प्रभावी था। उसे पराजित करने के लिए नाना और उनके मित्रों ने अध्ययनप्रेमी युवकों की एक टोली बनायी। पांचवें सरसंघचालक श्री सुदर्शनजी भी उसके एक सदस्य थे। जबलपुर विभाग प्रचारक श्री ओमप्रकाश कुंद्रा की प्रेरणा से नाना 1954 में प्रचारक बने। सर्वप्रथम उन्हें रायगढ़ जिले का काम दिया गया। फिर ‘नियोगी आयोग’ को सहयोग देने के लिए श्री बालासाहब देशपांडे के साथ उन्हें भी लगाया गया। उनके प्रयास से वनवासियों ने मिशनरी षड्यन्त्रों के विरुद्ध सैकड़ों शपथपत्र भरकर दिये, जिससे ‘नियोगी आयोग’ पूरी बात समझकर ठीक निष्कर्ष निकाल सका। 
1956 में नियोगी आयोग की रिपोर्ट आने के बाद नाना छिंदवाड़ा विभाग प्रचारक बनाये गये। अगले 20 वर्ष वे इसी क्षेत्र में रहे। आपातकाल के बाद ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के काम को देशव्यापी करने की योजना बनी। मिशनरियों का सर्वाधिक प्रभाव पूर्वोत्तर भारत में ही है। अतः नाना के अनुभव को देखकर 1979 में उन्हें उधर ही भेज दिया गया। नाना ने ‘भारतीय जनजातीय सांस्कृतिक मंच’ की स्थापना कर वहां अनेक गतिविधियां प्रारम्भ कीं। इससे हिन्दू समाज की मुख्यधारा से दूर हो चुके लोग फिर पास आने लगे। अतः धर्मान्तरण रुका और परावर्तन प्रारम्भ हुआ। नगा समुदाय में प्रतिष्ठित श्री एन.सी.जेलियांग तथा रानी मां गाइडिन्ल्यू भी कल्याण आश्रम से जुड़ गये।
वनवासी क्षेत्र में भाषा और भोजन की कठिनाई के साथ ही बीहड़ों में यातायात के साधन भी नहीं है। इस पर भी नाना सदा हंसते हुए काम करते रहे। 1992 में उनका केन्द्र दिल्ली हो गया। एक बार अमरीका ने ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में भारत के जनजातीय समुदाय को ‘इंडीजिनस पीपुल’ कहकर अलग देश के रूप में मान्यता दिलवाने का षड्यन्त्र रचा; पर नाना की जागरूकता से इसका पहले ही भंडाफोड़ हो गया। जनता और कार्यकर्ताओं को जागरूक करने के लिए उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। इनमें ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के संस्थापक ‘वनयोगी श्री बालासाहब देशपांडे की जीवन झांकी’ बहुत महत्वपूर्ण है। 
1995 में शरीर अशक्त होने पर वे पुणे के ‘कौशिक आश्रम’ में रहने लगे; पर फिर वे अपनी जन्मभूमि जबलपुर ही आ गये। 27 जनवरी, 1999 को संघ कार्यालय ‘केशव कुटी’ पर ही उनका निधन हुआ। इस प्रकार जबलपुर से प्रारम्भ हुई संघ यात्रा वहां पर ही समाप्त हुई। उनकी स्मृति में छिंदवाड़ा में प्रतिवर्ष एक व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता है।  
(संदर्भ: पांचजन्य/धर्मनारायणजी, विहिप/हिन्दी विवेक फरवरी 2014)
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5 सितम्बर/इतिहास-स्मृति
पर्यावरण संरक्षण हेतु अनुपम बलिदान
प्रतिवर्ष पांच जून को हम विश्व पर्यावरण दिवसमनाते हैं; लेकिन यह दिन हमारे मन में सच्ची प्रेरणा नहीं जगा पाता। क्योंकि इसके साथ इतिहास की कोई प्रेरक घटना के नहीं जुड़ी। इस दिन कुछ जुलूस, धरने, प्रदर्शन, भाषण तो होते हैं; पर उससे सामान्य लोगों के मन पर कोई असर नहीं होता। दूसरी ओर भारत के इतिहास में पाँच सितम्बर, 1730 को एक ऐसी घटना घटी है, जिसकी विश्व में कोई तुलना नहीं की जा सकती।

राजस्थान तथा भारत के अनेक अन्य क्षेत्रों में बिश्नोई समुदाय के लोग रहते हैं। उनके गुरु जम्भेश्वर जी ने अपने अनुयायियों को हरे पेड़ न काटने, पशु-पक्षियों को न मारने तथा जल गन्दा न करने जैसे 29 नियम दिये थे। इन 20 + 9 नियमों के कारण उनके शिष्य बिश्नोई कहलाते हैं। 

पर्यावरण प्रेमी होने के कारण इनके गाँवों में पशु-पक्षी निर्भयता से विचरण करते हैं। 1730 में इन पर्यावरण-प्रेमियों के सम्मुख परीक्षा की वह महत्वपूर्ण घड़ी आयी थी, जिसमें उत्तीर्ण होकर इन्होंने विश्व-इतिहास में स्वयं को अमर कर लिया।

1730 ई. में जोधपुर नरेश अजय सिंह को अपने महल में निर्माण कार्य के लिए चूना और उसे पकाने के लिए ईंधन की आवश्यकता पड़ी। उनके आदेश पर सैनिकों के साथ सैकड़ों लकड़हारे निकटवर्ती गाँव खेजड़ली में शमी वृक्षों को काटने चल दिये। 

जैसे ही यह समाचार उस क्षेत्र में रहने वाले बिश्नोइयों को मिला, वे इसका विरोध करने लगेे। जब सैनिक नहीं माने, तो एक साहसी महिला इमरती देवीके नेतृत्व में सैकड़ों ग्रामवासी; जिनमें बच्चे और बड़े, स्त्री और पुरुष सब शामिल थे; पेड़ों से लिपट गये। उन्होंने सैनिकों को बता दिया कि उनकी देह के कटने के बाद ही कोई हरा पेड़ कट पायेगा।

सैनिकों पर भला इन बातों का क्या असर होना था ? वे  राजज्ञा से बँधे थे, तो ग्रामवासी धर्माज्ञा से। अतः वृक्षों के साथ ही ग्रामवासियों के अंग भी कटकर धरती पर गिरने लगे। सबसे पहले वीरांगना इमरती देवीपर ही कुल्हाड़ियों के निर्मम प्रहार हुए और वह वृक्ष-रक्षा के लिए प्राण देने वाली विश्व की पहली महिला बन गयी। 

इस बलिदान से उत्साहित ग्रामवासी पूरी ताकत से पेड़ों से चिपक गये। 20वीं शती में गढ़वाल (उत्तराखंड) में गौरा देवी, चण्डीप्रसाद भट्ट तथा सुन्दरलाल बहुगुणा ने वृक्षों के संरक्षण के लिए चिपको आन्दोलनचलाया, उसकी प्रेरणास्रोत इमरती देवी ही थीं।

भाद्रपद शुक्ल 10 (5 सितम्बर, 1730) को प्रारम्भ हुआ यह बलिदान-पर्व 27 दिन तक चलता रहा। इस दौरान 363 लोगों ने बलिदान दिया। इनमें इमरती देवी की तीनों पुत्रियों सहित 69 महिलाएँ भी थीं। अन्ततः राजा ने स्वयं आकर क्षमा माँगी और हरे पेड़ों को काटने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। ग्रामवासियों को उससे कोई बैर तो था नहीं, उन्होंने राजा को क्षमा कर दिया।

उस ऐतिहासिक घटना की याद में आज भी वहाँ भाद्रपद शुक्ल 10’ को बड़ा मेला लगता है। राजस्थान शासन ने वन, वन्य जीव तथा पर्यावरण-रक्षा हेतु अमृता देवी बिश्नोई स्मृति पुरस्कारतथा केन्द्र शासन ने अमृता देवी बिश्नोई पुरस्कारदेना प्रारम्भ किया है। यह बलिदान विश्व इतिहास की अनुपम घटना है। इसलिए यही तिथि (भाद्रपद शुक्ल 10 या पाँच सितम्बर) वास्तविक विश्व पर्यावरण दिवसहोने योग्य है।
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5 सितम्बर/जन्म-दिवस
आदर्श शिक्षक डा. राधाकृष्णन
प्रख्यात दर्शनशास्त्री, अध्यापक एवं राजनेता डा. राधाकृष्णन का जन्म पाँच सितम्बर 1888 को ग्राम प्रागानाडु (जिला चित्तूर, तमिलनाडु) में हुआ था। इनके पिता वीरस्वामी एक आदर्श शिक्षक तथा पुरोहित थे। अतः इनके मन में बचपन से ही हिन्दू धर्म एवं दर्शन के प्रति भारी रुचि जाग्रत हो गयी।

उनकी सारी शिक्षा तिरुपति, बंगलौर और चेन्नई के ईसाई विद्यालयों में ही हुई। उन्होंने सदा सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण कीं। 1909 में दर्शनशास्त्र में एम.ए कर वे चेन्नई के प्रेसिडेन्सी कॉलेज में प्राध्यापक नियुक्त हो गये। 1918 में अपनी योग्यता के कारण केवल 30 वर्ष की अवस्था में वे मैसूर विश्वविद्यालय में आचार्य बना दिये गये। 1921 में कोलकाता विश्वविद्यालय के कुलपति के आग्रह पर इन्हें मैसूर के किंग जार्ज महाविद्यालय में नैतिक दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक पद पर नियुक्त किया गया।

1926 में डा. राधाकृष्णन ने विश्वविख्यात हार्वर्ड विश्वविद्यालय में आयोजित दर्शनशास्त्र सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उस प्रवास में अन्य अनेक स्थानों पर भी उनके व्याख्यान हुए। उन्होंने भारतीय संस्कृति, धर्म, परम्परा एवं दर्शन की जो आधुनिक एवं विज्ञानसम्मत व्याख्याएँ कीं, उससे विश्व भर के दर्शनशास्त्री भारतीय विचार की श्रेष्ठता का लोहा मान गये। भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड इर्विन की संस्तुति पर इन्हें 1931 में नाइटउपाधि से विभूषित किया गया।

1936 में वे विश्वविख्यात अ१क्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक बने। वे पहले भारतीय थे, जिन्हें विदेश में दर्शनशास्त्र पढ़ाने का अवसर मिला था। डा. राधाकृष्णन संस्कृत के तो विद्वान् तो थे ही; पर अंग्रेजी पर भी उनका उतना ही अधिकार था। यहाँ तक कि जब वे अंग्रेजी में व्याख्यान देते थे, तो विदेश में रहने वाले अंग्रेजीभाषी छात्र और अध्यापक भी शब्दकोश खोलने लगते थे। 1937 से 1939 तक वे आन्ध्र विश्वद्यिालय तथा महामना मदनमोहन मालवीय जी के आग्रह पर 1939 से 1948 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति रहे।

उनकी योग्यता तथा कार्य के प्रति निष्ठा देखकर उन्हें यूनेस्को के अधिशासी मण्डल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष के नाते उन्होंने भारतीय शिक्षा पद्धति में सुधार के सम्बन्ध में ठोस सुझाव दिये। 1946 में उन्हें संविधान सभा का सदस्य बनाया गया। डा. राधाकृष्णन ने अपने पहले ही भाषण में स्वराज्यशब्द की दार्शनिक व्याख्या कर सबको प्रभावित कर लिया।

1949 में वे सोवियत संघ में भारत के राजदूत बनाकर भेजे गये। वहाँ के बड़े अधिकारी अपने देश में नियुक्त राजदूतों में से केवल डा0 राधाकृष्णन से ही मिलते थे। इस दौरान उन्होंने भारत और सोवियत संघ के बीच मैत्री की दृढ़ आधारशिला रखी। 1952 में उन्हें भारतीय गणतन्त्र का पहला उपराष्ट्रपति बनाया गया। 1954 में उन्हें भारत रत्नसे सम्मानित किया गया। 13 मई, 1962 को उन्होंने भारत के दूसरे राष्ट्रपति का कार्यभार सँभाला।

देश-विदेश के अनेक सम्मानों से अलंकृत डा. राधाकृष्णन स्वयं को सदा एक शिक्षक ही मानते थे। इसलिए उनका जन्म-दिवस शिक्षक दिवसके रूप में मनाया जाता है। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं। राष्ट्रपति पद से अवकाश लेकर वे चेन्नई चले गये और वहीं अध्ययन और लेखन में लग गये। 16 अपै्रल, 1976 को तीव्र हृदयाघात से उनका निधन हुआ।
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5 सितम्बर/जन्म-दिवस

स्वाधीनता सेनानी कवि घासीराम व्यास

साहित्य को समाज का दर्पण तथा कवियों को क्रांतिदर्शी कहा जाता है। कई कवियों ने अपनी कलम और वीरवाणी से समाज में चेतना जगाई है। पंडित घासीराम व्यास भी ऐसे ही एक स्वाधीनता सेनानी एवं कवि थे। उनका जन्म पांच सितम्बर, 1903 (अनंत चतुर्दशी) को झांसी जिले के मऊरानीपुर कस्बे में श्रीमती राधारानी तथा श्री मदनमोहन व्यास के घर में हुआ था। उनके पिताजी पंडिताई करते थे। माताजी स्वाधीनता सेनानी थीं। अतः उन्हें देशप्रेम के संस्कार बचपन से ही मिले। उन्होंने हिन्दी में मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण कर फिर संस्कृत का अध्ययन किया। वे मैथिलीशरण गुप्त के अभिन्न मित्र थे।

18 साल की अवस्था में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें छह माह की जेल हुई। सत्याग्रह पर जाते समय मां ने उन्हें तिलक लगाकर विदा किया तथा किसी भी कीमत पर पीछे न हटने की शपथ दिलाई। गिरफ्तारी के समय हजारों लोग वहां उपस्थित थे। गांधीवादी होने के कारण घासीराम जी ने सत्य, अहिंसा और न्याय के सिद्धांत का सदा पालन किया।

बुंदेलखंड क्षेत्र सदा से ही काव्य रसिकों की भूमि रहा है। यहां कवि सम्मेलन के साथ ही काव्य दंगल भी होते थे। लोग मीलों पैदल चलकर इनका आनंद उठाने आते थे। उन दिनों यहां तीन काव्य मंडलियां प्रसिद्ध थीं। मऊ की व्यास मंडली तथा पांडे मंडली के साथ ही तीसरी झांसी की माहौर मंडली थी। व्यास और माहौर मंडली एक दूसरे का साथ देती थीं। 1928 में मऊरानीपुर में हुए एक कवि सम्मेलन में श्रोताओं में क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद भी छद्म वेश में बैठे थे। वहां व्यास जी ने कविता सुनाई -

कूद पड़ सिंह सा दहाड़ शत्रु सेना पर

विश्व को दिखा दे व्यासविक्रम सिरोही का।

बेजा मत मान लेजा लेजा शीघ्र भेजा फाड़

नेजा पर टांग दे कलेजा देशद्रोही का।

यह सुनकर आजाद के साथ ही सारे श्रोता वाह-वाह कर उठे। आजाद 1924 में जब झांसी आये, तो उनकी भेंट भगवान दास माहौर से हुई, जो आगे चलकर क्रांति कार्यों में उनके साथी बने। माहौर जी ने ही आजाद को घासीराम व्यास से मिलवाया। इसके बाद दोनों की मित्रता जीवन पर्यन्त बनी रही। यद्यपि आजाद बम-गोली वाले थे और व्यास जी गांधीवादी।

1932 में मऊरानीपुर में एक किसान सम्मेलन हुआ। व्यास जी आदि कार्यकर्ता इसे सफल बनाने में लगे थे; पर सरकार इसे असफल करना चाहती थी। शासन को चकमा देने के लिए व्यास जी ने दो मंच बनवाये। एक किसान मंच और दूसरा लोक साहित्य के लिए ईसुरी मंच। पुलिस वाले किसान मंच को घेरे रहे; पर जवाहर लाल नेहरू दूसरे मंच से भाषण देकर चले गये।

व्यास जी के काव्य में जहां एक ओर रीतिकाल के दृश्य मिलते हैं, तो स्वाधीनता, अछूत समस्या, किसान आंदोलन आदि राष्ट्रीय विषय भी भरपूर हैं। उन्होंने बुंदेलखंड काव्य मंडलीबनाकर अनेक नये कवियों को साहित्य पथ पर आगे बढ़ाया। इससे छंदकाव्य की लोकप्रियता में अतिशय वृद्धि हुई।

पंडिताई के अपने पैतृक पेशे को छोड़कर व्यास जी ने स्वाधीनता पथ अपनाया। इस दौरान वे 1921, 1930, 1932 तथा फिर 1940 में जेल गये। अंतिम जेल यात्रा से आकर वे बीमार पड़ गये। गरीबी के कारण इलाज भी ठीक से नहीं हो सका। इसी स्थिति में 16 अपै्रल, 1942 को उनका देहांत हो गया। उनकेे आठ काव्य ग्रंथ उपलब्ध हैं। इसमें से वीर ज्योति, जवाहर ज्योति, श्याम संदेश, अर्चना, रुक्मणी मंगल, अंजुली, चक्रव्यूह पियूषिनी तथा चंद्रलोक की यात्रा में से पहले चार प्रकाशित हुए हैं।

(विकी/दै.जा. 21.2.22, सप्तरंग/सुरेन्द्र अग्निहोत्री)

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5 सितम्बर/जन्म-दिवस

भीलों के देवता मामा बालेश्वर दयाल

भारत में म.प्र. और गुजरात की सीमा पर बड़ी संख्या में वनवासी भील बसे हैं। श्री बालेश्वर दयाल (मामा) जी ने अपने सेवा कार्यों से महाराणा प्रताप के वीर सैनिकों के इन वशंजों के बीच देवता जैसी प्रतिष्ठा अर्जित की।
मामा जी का जन्म पाँच सितम्बर, 1906 को ग्राम नेवाड़ी (जिला इटावा, उत्तर प्रदेश) में हुआ था। छात्र जीवन में ही उन्होंने इटावा के पास रेलगाड़ी रोककर गांधी जी का भाषण कराया था। स्टेशन मास्टर ने इसका विरोध किया, तो उसकी पिटाई भी की गयी। सेवा कार्य में रुचि होने के कारण नियति उन्हें मध्य प्रदेश ले आयी और फिर जीवन भर वे भीलों के बीच काम करते रहे। 
1937 में उन्होंने झाबुआ जिले में ‘बामनिया आश्रम’ की नींव रखी तथा भीलों में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने में जुट गये। इससे तत्कालीन जमींदार, महाजन और राजा उनसे नाराज हो गये और उन्हें जेल में बन्द कर दिया; पर वहाँ की यातनाओं को सहते हुए उनके संकल्प और दृढ़ हो गये।
कुछ समय बाद एक सेठ ने उन्हें ‘थांदला’ में अपने मकान की ऊपरी मंजिल बिना किराये के दे दी। यहाँ मामा जी ने छात्रावास बनाया। आगे चलकर वे वर्धमान जैन विद्यालय के प्राचार्य बने। वे स्वयं तो स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय थे ही; पर अपने छात्रों को उसमें सक्रिय किया। 1937 के भीषण अकाल के बाद मिशनरी वहाँ राहत कार्य हेतु आये; पर उनकी रुचि सेवा में कम और लोगों को धर्मान्तरित करने में अधिक थी। 
यह देखकर मामा जी ने पुरी के शंकराचार्य की लिखित सहमति से भीलांे को क्राॅस के बदले जनेऊ दिलवाया। कुछ रूढि़वादी हिन्दुओं ने इसका विरोध किया; पर मामा जी इस कार्य में लगे रहे। इससे वहाँ धर्मान्तरण पर काफी रोक लगी। खाचरौद के बाजार में उन्होंने सत्यनारायण कथा का आयोजन किया तथा उसमें हरिजनों से आरती और प्रसाद वितरण कराया। धीरे-धीरे उनकी चर्चा सर्वत्र होने लगी। सेठ जुगलकिशोर बिड़ला ने बामनिया स्टेशन के पास पहाड़ी पर एक भव्य राम मन्दिर बनवाया। मिशन के लोग वहां चर्च बनाने वाले थे; पर मामा जी ने उनका यह षड्यन्त्र विफल कर दिया। 
मामा जी आर्य समाज तथा सोशलिस्ट पार्टी से भी जुड़े थे। उनके आश्रम में सुभाषचन्द्र बोस, आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, डा. राममनोहर लोहिया, चैधरी चरणसिंह, जार्ज फर्नांडीस जैसे नेता आते रहते थे; पर उन्होंने राजनीति की अपेक्षा सेवा-कार्य को ही प्रधानता दी। आपातकाल में वे इंदौर जेल में बंद रहे। सुदर्शन जी आदि संघ के सैकड़ों कार्यकर्ता भी वहां थे। उनके साथ रहकर मामा जी के मन में संघ के बारे में जो भ्रम थे, वे दूर हो गये।
मामा जी का जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था; पर जब उन्होंने सेवा व्रत स्वीकार किया, तो फिर वे भीलों की बीच उनकी तरह ही रहने लगे। वे भी उनके साथ चना, जौ और चुन्नी के आटे की मोटी रोटी खाते थे। आश्रम द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘गोबर’ का छह वर्ष तक मामा जी ने सम्पादन किया। उनका देहान्त 26 दिसम्बर, 1998 को आश्रम में ही हुआ। 
मामा जी के निधन के बाद आश्रम में ही उनकी समाधि तथा प्रतिमा बनायी गयी है। तत्कालीन खाद्यमन्त्री शरद यादव एवं रेलमन्त्री नीतीश कुमार उसके अनावरण के समय वहां आये थे। निकटवर्ती जिलों के भील मामा जी को देवता मानकर आज भी साल की पहली फसल आश्रम को भेंट करते हैं। 
प्रतिवर्ष तीन बार वहाँ बड़े सम्मेलन होते हैं, जहाँ हजारों वनवासी एकत्र होकर मामा जी को श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। ‘बामनिया आश्रम’ से पढ़े अनेक छात्र आज ऊँची सरकारी एवं निजी सेवाओं में हैं। उनके नेत्र सेवामूर्ति ‘मामा जी’ को याद कर अश्रुपूरित हो उठते हैं।
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6 सितम्बर/जन्म-दिवस
क्रांतिवीर दिनेश गुप्त
क्रांतिवीर दिनेश गुप्त का जन्म छह सितम्बर, 1911 को पूर्वी सिमलिया (वर्तमान बांग्लादेश) में हुआ था। आगे चलकर वह भारत की स्वतंत्रता के समर में कूद गया। उसके साथियों में सुधीर गुप्त एवं विनय बोस प्रमुख थे। उन दिनों जेल में क्रांतिकारियों को शारीरिक एवं मानसिक रूप से तोड़ने के लिए बहुत यातनाएं दी जाती थीं। कोलकाता जेल भी इसकी अपवाद नहीं थी। वहां का जेल महानिरीक्षक कर्नल एन.एस.सिम्पसन बहुत क्रूर व्यक्ति था। अतः क्रांतिदल ने उसे मारने का निर्णय किया। इसकी जिम्मेदारी इन तीनों को सौंपी गयी। तीनों सावधानी से इस अभियान की तैयारी करने लगे।

इन दिनों बंगाल राज्य का मुख्यालय जिस भवन में हैं, कर्नल सिम्पसन का कार्यालय कोलकाता की उसी राइटर्स बिल्डिंगमें था। आठ दिसम्बर, 1930 को तीनों अंग्रेजी वेशभूषा पहन कर वहां जा पहुंचे। उनके प्रभावी व्यक्तित्व के कारण मुख्य द्वार पर उन्हें किसी ने नहीं रोका। सिम्पसन के कमरे के बाहर एक चपरासी बैठा था। उसने तीनों से कहा कि वे एक पर्चे पर अपना नाम और काम लिख दें, तो वह उस पर्चे को साहब तक पहुंचा देगा।

पर उन्हें इतना अवकाश कहां था ? वे चपरासी को धक्का देकर अंदर घुस गये। इस धक्कामुक्की और शोर से सिम्पसन चौंक गया; पर जब तक वह सावधान होता, इन तीनों ने उसके शरीर में छह गोलियां घुसा दीं। वह तुरंत ही धरती पर लुढ़क गया। तीनों अपना काम पूरा कर वापस लौट चले।

पर इस गोलीबारी और शोर से पूरे भवन में हड़कम्प मच गया। वहां के सुरक्षाकर्मी भागते हुए तीनों क्रांतिवीरों के पीछे लग गये। कुछ ही देर में पुलिस भी आ गयी। तीनों गोली चलाते हुए बाहर भागने का प्रयास करने लगे। भागते हुए तीनों एक बरामदे में पहुंच गये, जो दूसरी ओर से बंद था। यह देखकर वे बरामदे के अंतिम कमरे में घुस गये और उसे अंदर से बंद कर लिया।

जो लोग उस कमरे में काम कर रहे थे, वे डर कर बाहर आ गये और उन्होंने बाहर से कमरे की कुंडी लगा दी। कमरे को पुलिस ने घेर लिया। दोनों ओर से गोली चलती रही; पर फिर अंदर से गोलियां आनी बंद हो गयीं। पुलिस से खिड़की से झांककर कर देखा, तो तीनों मित्र धरती पर लुढ़के हुए थे।

वस्तुतः तीनों ने अभियान पर जाने से पहले ही यह निश्चय कर लिया था कि भले ही आत्मघात करना पड़े; पर वे पुलिस के हाथ नहीं आएंगे। इस संघर्ष में दिनेश गुप्त पुलिस की गोली से बुरी तरह घायल हुआ था। सुधीर ने अपनी ही पिस्तौल से गोली मार कर आत्मघात कर लिया। विनय ने भी अपनी दोनों कनपटियों पर गोली मार ली थी; पर उसकी मृत्यु नहीं हुई।

पुलिस ने तीनों को अपने कब्जे में ले लिया। दिनेश और विनय को अस्पताल भेजा गया। विनय ने दवाई खाना स्वीकार नहीं किया। अतः उसकी हालत बहुत बिगड़ गयी और 13 दिसम्बर को उसका प्राणांत हो गया। दिनेश गुप्त का ऑपरेशन कर गोली निकाल दी गयी और फिर उसे जेल भेज दिया गया। मुकदमे के बाद सात जुलाई, 1931 को उसे फांसी दे दी गयी।

इस प्रकार तीनों मित्रों ने देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाते हुए अमर बलिदानियों की सूची में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा लिया। फांसी के 20 दिन बाद कन्हाई लाल भट्टाचार्य ने उस जज को न्यायालय में ही गोली से उड़ा दिया, जिसने दिनेश गुप्त को फांसी की सजा दी थी।

(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश/स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश)
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7 सितम्बर/जन्म-दिवस
राष्ट्रऋषि राजनारायण बसु
बंगाल की अनेक विभूतियों ने भारत देश और हिन्दू धर्म को सार्थक दिशा दी है। 7 सितम्बर, 1826 को बोड़ाल ग्राम में जन्मे राष्ट्रऋषि राजनारायण बसु भी उनमें से एक थे। इनके पूर्वज बल्लाल सेन के युग में गोविन्दपुर में बसे थे। कुछ समय बाद अंग्रेजों ने इसे फोर्ट विलियम में मिला लिया। अतः इनका परिवार पहले ग्राम सिमला और फिर बोड़ाल आ गया।

सात वर्ष की अवस्था में बसु ने शिक्षारम्भ कर अंग्रेजी, लेटिन, संस्कृत और बंगला का गहन अध्ययन किया। 1843 में ब्राह्मधर्म के अनुयायी बनकर ये महर्षि देवेन्द्रनाथ के संपर्क में आये। इनके आग्रह पर उन्होंने चार विद्वानों को काशी भेजकर वेदाध्यन की परम्परा को पुनर्जीवित किया था। 1847 में इन्होंने केन, कठ, मुण्डक तथा श्वेताश्वर उपनिषद का अंग्रेजी में अनुवाद किया।

शिक्षा पूर्णकर 1851 में इन्होंने अध्यापन कार्य को अपनाया। राजकीय विद्यालय में ये पहले भारतीय प्राचार्य बने। उन्होंने 1857 के स्वाधीनता संग्राम के उत्साह और उसकी विफलता को निकट से देखा। मेदिनीपुर में नियुक्ति के समय इन्हें प्रशासनिक सेवा में जाने का अवसर मिला; पर इन्होंने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। 

उस समय बंगाल के बुद्धिजीवियों में ब्राह्म समाज तेजी से फैल रहा था। यह हिन्दू धर्म का ही एक सुधारवादी रूप था; पर कुछ लोग इसे अलग मानते थे। हिन्दुओं को बांटने के इच्छुक अंग्रेज भी इन अलगाववादियों के पीछे थेे; पर श्री बसु ने अपने तर्कपूर्ण भाषण और लेखन द्वारा इस षड्यन्त्र को विफल कर दिया। उन्होंने अपनी बड़ी पुत्री स्वर्णलता का विवाह डा. कृष्णधन घोष से ब्राह्म पद्धति से ही किया। श्री अरविन्द इसी दम्पति के पुत्र थे।

देश, धर्म और राष्ट्रभाषा के उन्नायक श्री बसु ने अनेक संस्थाएं स्थापित कीं। 1857 के स्वाधीनता संग्राम की विफलता के बाद उन्होंने महचूणोमुहाफनामक गुप्त क्रांतिकारी संगठन बनाया। नवयुवकों में चरित्र निर्माण हेतु इन्होंने राष्ट्रीय गौरवेच्छा सम्पादिनी सभाकी स्थापना की। इनकी प्रेरणा से ही हिन्दू मेलाप्रारम्भ हुआ। बंगाल में देवनागरी लिपि, हिन्दी और संस्कृत शिक्षण तथा गोरक्षा के लिए भी इन्होंने अनेक प्रयास किये। बंकिमचंद्र चटर्जी ने वन्दे मातरम् गीत 1875 में लिखा था। श्री बसु ने जब उसका अंग्रेजी अनुवाद किया, तो उसकी गूंज ब्रिटिश संसद तक हुई।

श्री बसु ने धर्मान्तरित हो चुके लोगों के परावर्तन के लिए ‘महाहिन्दू समिति’ बनाई। इसके कार्यक्रम जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसीतथा वन्दे मातरम्के गान से प्रारम्भ होते थे। यद्यपि शासन के कोप से बचने के लिए ‘गॉड सेव दि क्वीनभी बोला जाता था। इसके सदस्य एक जनवरी के स्थान पर प्रथम बैसाख को नववर्ष मनाते थे। वे गुड नाइटके बदले सु रजनीकहते थे तथा विदेशी शब्दों को मिलाये बिना शुद्ध भाषा बोलते थे। एक विदेशी शब्द के व्यवहार पर एक पैसे का अर्थदंड देना होता था। युवकों में शराब की बढ़ती लत को देखकर इन्होंने सुरापान निवारिणी सभाभी बनाई।

हिन्दू धर्म की श्रेष्ठतानामक तर्कपूर्ण भाषण में उन्होंने इसे वैज्ञानिक  और युगानुकूल सिद्ध किया। मैक्समूलर तथा जेम्स रटलेज जैसे विदेशी विद्वानों ने इसे कई बार उद्धृत किया है। इस विद्वत्ता के कारण उन्हें हिन्दू कुल चूड़ामणितथा राष्ट्र पितामहजैसे विशेषणों से विभूषित किया गया। तत्कालीन सभी प्रमुख विचारकों से इनका सम्पर्क था। ऋषि दयानंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी अखंडानद, मालवीय जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, माइकेल मधुसूदन दत्त तथा कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ.ह्यूम से भी इनकी भेंट होती रहती थी।

1868 में सेवानिवृत्त होकर ये 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक देवधर वैद्यनाथ धाम में बस गये। 18 दिसम्बर, 1899 को वहीं इनका देहांत हुआ।  

(संदर्भ : हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता, अनुवादक देवदत्त, पांडिचेरी)
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7 सितम्बर/जन्म-दिवस
महायोगी गोपीनाथ कविराज
भारत योगियों की भूमि है। यहाँ अनेक योगी ऐसे हैं, जो हजारों सालों से हिमालय की कन्दराओं में तपस्यारत हैं। ऐसे योगियों की साधना एवं चमत्कार देख सुन कर आश्चर्य होता है। ऐसे योगियों से मिलकर उनकी साधना की जानकारी लेखन द्वारा जनसामान्य तक पहुँचाने का काम जिन महान आत्मा ने किया, वे थे महामहोपाध्याय डा. गोपीनाथ कविराज।

श्री गोपीनाथ कविराज का जन्म 7 सितम्बर, 1887 को अपने ननिहाल धामराई (अब बांग्लादेश) में हुआ था। दुर्भाग्यवश इनके जन्म से पाँच महीने पूर्व ही इनके पिता का देहान्त हो गया। अतः इनका पालन माता सुखदा सुन्दरी ने अपने मायके और ससुराल काँठालिया में रहते हुए किया। गोपीनाथ जी बचपन से ही मेधावी छात्र थे। शिक्षा की लगन के कारण ये ढाका, जयपुर और काशी आदि अनेक स्थानों पर भटकते रहे।

छात्र जीवन में इन्होंने अपने पाठ्यक्रम के अतिरिक्त विश्व के अनेक देशों के इतिहास तथा भाषाओं का अध्ययन किया। 13 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह भी हो गया। इनके एक पुत्र एवं एक पुत्री थी। जयपुर से बी.ए. करने के बाद बनारस संस्कृत क१लिज के प्राचार्य डा. वेनिस के सुझाव पर इन्होंने एम.ए. में न्यायशास्त्र, पुरालेखशास्त्र, मुद्राविज्ञान तथा पुरालिपि का गहन अध्ययन किया। प्रख्यात राजनेता आचार्य नरेन्द्र देव इनके सहपाठी थे।

गोपीनाथ जी ने एम.ए. प्रथम श्रेणी और पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम रहकर उत्तीर्ण किया। उन्हें लाहौर और राजस्थान विश्वविद्यालय से अध्यापन के प्रस्ताव मिले; पर डा. वेनिस के परामर्श पर उन्होंने तीन वर्ष तक और अध्ययन किया। अब उनकी नियुक्ति इसी विद्यालय में संस्कृत विभाग में हो गयी। यहाँ रहकर उन्होंने अनेक प्राचीन हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थों को प्रकाशित कर अमूल्य ज्ञाननिधि से जन सामान्य का परिचय कराया।

1924 में गोपीनाथ जी प्राचार्य बने। बचपन से ही उनका मन योग साधना में बहुत लगता था। अतः 1937 में उन्होंने समय से पूर्व अवकाश ले लिया। अब उनके पास पूरा समय स्वाध्याय एवं साधना के लिए था। काशी में ही रहने का निश्चय कर उन्होंने वहीं एक मकान भी बनवा लिया। काशी में उनका सम्पर्क अनेक सिद्ध योगियों तथा संन्यासियों से हुआ। इनमें से अनेक देहधारी थे, तो अनेक विदेह रूप में विचरण करने वाले भी थे। इनसे जो वार्तालाप होता था, उसे वे लिखते रहते थे। इस प्रकार इनके पास अध्यात्म सम्बन्धी अनुभवों का विशाल भण्डार हो गया।

अध्यात्म क्षेत्र में परमहंस विशुद्धानन्द जी इनके गुरु थे; पर स्वामी शिवराम किंकर योगत्रयानन्द, माँ आनन्दमयी आदि विद्वानों से इनका निरन्तर सम्पर्क रहता था। 1961 में ये कैन्सर से पीड़ित हुए, तो माँ आनन्दमयी ने मुम्बई ले जाकर इनका समुचित इलाज कराया। स्वस्थ होकर वे फिर काशी चले आये और पूर्ववतः स्वाध्याय एवं साधना में लग गये। इसी प्रकार जनसेवा करते हुए 12 जून, 1976 को उन्होंने अपनी देह लीला का विसर्जन किया।

पं. गोपीनाथ कविराज के अध्यात्म, योग एवं साधना सम्बन्धी हजारों लेख विभिन्न पत्रों में प्रकाशित हुए हैं। पत्र द्वारा भी हजारों लोग उनसे इस सम्बन्ध में समाधान प्राप्त करते थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थ तथा सैकड़ों ग्रन्थों की भूमिका लिखी। आज भी उनके हजारों लेख हस्तलिखित रूप में अप्रकाशित हैं।
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7 सितम्बर/जन्म-दिवस
वरिष्ठ प्रचारक शरदराव चौथाइवाले
श्री शरद कृष्णराव चौथाइवाले का जन्म सात सितम्बर, 1935 (भाद्रपद शुक्ल अष्टमी) को कलमेश्वर (महाराष्ट्र) में हुआ था। इनके सबसे बड़े भाई श्री मुरलीधर कृष्णराव (बाबूराव) चौथाइवाले नागपुर में संघ कार्यालय के पास रहते थे। वे सरसंघचालक श्री गुरुजी और फिर बालासाहब देवरस का पत्र-व्यवहार संभालते थे। यह परिवार मूलतः बारसी (सोलापुर) का निवासी है।

शरदराव का नंबर भाइयों में चौथा था। उनके बाद के दोनों भाई शशिकांत एवं अरविन्द चौथाइवाले भी प्रचारक बने। शशिकांत जी प्रारम्भ से ही असम में कार्यरत हैं। अरविंद चौथाइवाले उड़ीसा में प्रांत प्रचारक रहने के बाद विश्व हिन्दू परिषद में केन्द्रीय मंत्री रहते हुए सेवा विभाग संभालते रहे। अरविन्द जी का 2011 में देहांत हुआ। शरदराव के पिता श्री कृष्णराव पहले कलमेश्वर और फिर नागपुर के न्यू इरा हाई स्कूल (वर्तमान नवयुग विद्यालय) में अध्यापक थे। आगे चलकर बाबूराव भी उसी विद्यालय में प्रधानाचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए।

शरदराव 1956 में नागपुर से बी.एस-सी. पूर्णकर तृतीय वर्ष का संघ शिक्षा वर्ग कर रहे थे। वहां एकनाथ जी ने पूछा कि अब क्या करने का विचार है ? शरदराव ने कहा कि अभी कुछ निश्चय नहीं किया। इस पर एकनाथ जी ने कहा कि तुम छह भाई हो, अतः तुम्हें प्रचारक बनना चाहिए। शरदराव ने हां कर दी और इस प्रकार उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हो गया।

मंगरूलनाथ तथा खामगांव जिला प्रचारक (66-71) के बाद 1971 में शरदराव अकोला में विभाग प्रचारक बने। 1975 में प्रतिबंध काल में वे भूमिगत रहकर प्रवास कर रहे थे; पर एक दिन वे पुलिस की नजर में आ गये। उन्हें पकड़कर पहले अकोला और फिर नागपुर कारागार में बंद कर दिया गया। मीसा लगने के कारण वे फिर आपातकाल की समाप्ति के बाद ही जेल से छूटे।

जिन दिनों वे अकोला में विभाग प्रचारक थे, उन्हीं दिनों श्री मोहन भागवत ने वहां से पढ़ाई पूरी की थी। शरदराव बहुत समय से उन्हें जानते थे। वे उन्हें प्यार से मोहन कहते थे। जब मोहन जी कार्यालय आये, तो शरदराव ने उनसे प्रचारक बनने का आग्रह किया। यद्यपि उनका संकल्प पहले से ही पक्का था; पर शरदराव के आग्रह ने सोने में सुहागे के समान उसे और दृढ़ कर दिया और वे प्रचारक बन गये। आजकल वे हमारे परम पूज्य सरसंघचालक हैं।

प्रतिबंध समाप्ति के बाद वे 1982 तक अकोला तथा फिर 1986 तक अमरावती में विभाग प्रचारक रहे। 1986 से 1999 तक वे नागपुर स्थित डा0 हेडगेवार स्मृति भवन की व्यवस्था देखते रहे। 1991 में जब श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान संघ पर प्रतिबंध लगा, तो पुलिस स्मृति भवन को भी सील करने आई। इस पर शरदराव ने कहा कि यह विद्यालय और छात्रावास का संचालन करने वाला स्वतन्त्र न्यास है। भवन का कुछ भाग सार्वजनिक उपयोग के लिए उपलब्ध रहता है। कई सरकारी विभाग भी यहां अपने कार्यक्रम करते हैं। ऐसे में इसे बंद करना अनुचित होगा। उनके तर्क एवं आवश्यक कागज-पत्र देखकर पुलिस और प्रशासन के लोग वापस लौट गये।

जीवन के संध्याकाल में शरदराव को अनेक रोगों ने घेर लिया। फिर भी वे स्मृति भवन में लगने वाली शाखा में खाकी निक्कर पहन कर, बिना किसी का सहयोग लिये, धीरे-धीरे पहुंच जाते थे। उनकी स्मृति अंत तक बहुत ठीक रही। सात दिसम्बर, 2012 को नागपुर में ही उनका देहांत हुआ। 

(संदर्भ : नागपुर, शरदराव से वार्तालाप 14.4.2012)
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7 सितम्बर/जन्म-दिवस
प्रचारक परिवार के रत्न अरविन्द कृष्णराव चौथाइवाले
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य को देश-विदेश में फैलाने में प्रचारकों का बहुत बड़ा योगदान है। कई परिवार ऐसे हैं, जहां एक से अधिक भाई प्रचारक बने हैं। ऐसे ही प्रचारक परिवार के एक सुशोभित रत्न थे श्री अरविन्द कृष्णराव चौथाइवाले। ये छह भाई थे, जिसमें से तीन जीवनव्रती प्रचारक बने।

अरविन्द जी का जन्म सात सितम्बर, 1939 को एक अध्यापक श्री कृष्णराव चौथाइवाले के घर में नागपुर के पास कलमेश्वर नामक स्थान पर हुआ था। मूलतः यह परिवार महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के बारशी गांव का निवासी था। सबसे बड़े बाबूराव ने सर्वप्रथम शाखा जाना प्रारम्भ किया। इसके बाद क्रमशः सभी भाई स्वयंसेवक बने। तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी और फिर श्री बालासाहब देवरस से सभी के बहुत मधुर संबंध थे।

सबसे बड़े भाई मुरलीधर कृष्णराव (बाबूराव) चौथाइवाले ने नागपुर में पढ़ाते हुए 1954 से 1994 तक केन्द्रीय कार्यालय पर सरसंघचालक श्री गुरुजी और फिर बालासाहब का पत्रव्यवहार संभाला। दूसरे मधुकर राव और तीसरे सुधाकर राव भी नौकरी करते हुए संघ में सक्रिय रहे। चौथे भाई शरदराव 1956 में और पांचवे शशिकांत चौथाइवाले 1961 में प्रचारक बने।

अरविन्द जी ने सिविल इंजीनियर का डिप्लोमा लेकर कुछ वर्ष नागपुर और अमरावती में पी.डब्ल्यू.डी. में नौकरी की। 1970 में जब वे प्रचारक बने, तो बालासाहब देवरस ने भी कहा कि तुम्हारे दो भाई पहले ही प्रचारक हैं, तो तुम क्यों जाते हो ? पर उनका निश्चय अटल था। अतः उन्हें सर्वप्रथम उड़ीसा में बालासोर जिले का कार्य दिया गया। शीघ्र ही वे वहां के जनजीवन में समरस हो गये। उन दिनों श्री बाबूराव पालधीकर वहां प्रांत प्रचारक थे। उनके साथ कार्य करते हुए अरविन्द जी विभाग और फिर प्रांत प्रचारक बने।

उड़ीसा वनवासी बहुल निर्धन प्रांत है। वहां काम करना आसान नहीं था; पर अरविन्द जी ने सघन प्रवास कर दूरस्थ क्षेत्रों में शाखा तथा सेवा केन्द्र प्रारम्भ किये। उन्होंने कई साधु-सन्तों को भी संघ, विश्व हिन्दू परिषद और वनवासी कल्याण आश्रम से जोड़ा। आपातकाल में कुछ समय भूमिगत रहकर वे पुलिस के हाथ आ गये और फिर उन्हें कटक की जेल में रहना पड़ा।

1998 में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद में बंगाल और उड़ीसा का क्षेत्रीय संगठन मंत्री बनाया गया। कोलकाता केन्द्र बनाकर उन्होंने परिषद के कार्य का चहुंओर विस्तार किया। 2001 में उन्हें केन्द्रीय सहमंत्री तथा सेवा विभाग का सहप्रमुख बनाकर दिल्ली बुला लिया गया। पूरे देश में प्रवास कर उन्होंने सेवा कार्यों की एक विशाल मालिका निर्माण की तथा विभिन्न न्यासों के माध्यम से उनके स्थायित्व का प्रबन्ध किया। 2010 में तत्कालीन सेवा प्रमुख श्री सीताराम अग्रवाल के देहांत के बाद वे केन्द्रीय मंत्री तथा सेवा प्रमुख बने। 

27 फरवरी को अरविन्द जी को दिल्ली में ही भीषण हृदयाघात हुआ। वे अपने कक्ष में अकेले थे, अतः इसका पता लोगों को काफी देर से लगा। उन्हें शीघ्र ही चिकित्सालय ले जाया गया। चिकित्सकों के अथक प्रयासों के बावजूद तीन मार्च, 2011 को प्रातः तीन बजे उनका निधन हो गया।

सादा जीवन, उच्च विचार के धनी, अध्ययनशील और शान्त स्वभाव वाले, प्रचारक परिवार के रत्न अरविन्द जी का जीवन न केवल प्रचारकों अपितु सब कार्यकर्ताओं के लिए प्रेरणास्पद है।

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