24 सितम्बर/जन्म-दिवस
तिरंगे की प्रथम निर्माता भीकाजी कामा
आज स्वतन्त्र भारत के झण्डे के रूप में जिस तिरंगे
को हम प्राणों से भी अधिक सम्मान देते हैं, उसका
पहला रूप बनाने और उसे जर्मनी में फहराने का श्रेय जिस स्वतन्त्रता सेनानी को है,
उन मादाम भीकाजी रुस्तम कामा का जन्म मुम्बई के एक पारसी
परिवार में 24 सितम्बर, 1861
को हुआ था। उनके पिता सोराबजी फ्रामजी मुम्बई के सम्पन्न व्यापारी थे। भीकाजी में
बचपन से ही देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी थी।
1885 में भीकाजी का विवाह रुस्तमजी कामा के साथ हुआ;
पर यह विवाह सुखद नहीं रहा। रुस्तमजी अंग्रेज शासन को भारत
के विकास के लिए वरदान मानते थे, जबकि भीकाजी उसे हटाने के
लिए प्रयासरत थीं। 1896 में मुम्बई में भारी हैजा
फैला। भीकाजी अपने साथियों के साथ हैजाग्रस्त बस्तियों में जाकर सेवाकार्य में जुट
गयीं। उनके पति को यह पसन्द नहीं आया। उनकी रुचि सामाजिक कार्यों में बिल्कुल नहीं
थी। मतभेद बढ़ने पर मादाम कामा ने उनका घर सदा के लिए छोड़ दिया।
अत्यधिक परिश्रम के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया।
अतः वे इलाज कराने के लिए 1901 में ब्रिटेन चली गयीं। वहाँ
प्रारम्भ में उन्होंने दादा भाई नौरोजी के साथ काम किया; पर
उनकी अनुनय-विनय की शैली उन्हें पसन्द नहीं आयी। अतः भीकाजी उग्रपन्थी श्यामजी
कृष्ण वर्मा और सरदार सिंह राव के साथ भारत की स्वतन्त्रता के प्रयासों में जुट
गयीं। लन्दन का ‘इण्डिया हाउस’ तथा
‘इण्डिया होम रूल सोसायटी’ उनकी
गतिविधियों का केन्द्र थे। वीर सावरकर, मदनलाल धींगरा आदि
क्रान्तिकारी भी इन संस्थाओं से जुड़े थे। 1907
में वे पेरिस आ गयीं।
1907 में जर्मनी के स्टुटगर्ट नगर में एक
अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा था। वहाँ जाकर उन्होंने भारत की स्वतन्त्रता का
विषय उठाया। वहाँ सब देशों के झण्डे फहरा रहे थे। लोगों ने मादाम कामा से भारत के
झण्डे के विषय में पूछा। वहाँ अधिकांश देशों के झण्डे तीन रंग के थे, अतः उन्होंने अपनी कल्पना से एक तिरंगा झण्डा बनाकर 18
अगस्त, 1907 को वहाँ फहरा दिया।
इसमें सबसे ऊपर हरे रंग की पट्टी में आठ कमल बने
थे। ये तत्कालीन भारत के आठ राज्यों के प्रतीक थे। बीच की पीली पट्टी में
देवनागरी लिपि में वन्दे मातरम् लिखा था। सबसे नीचे लाल रंग की पट्टी पर बायीं ओर
सूर्य तथा दायीं ओर अर्द्धचन्द्र बना था। इस सम्मेलन के बाद वे अमरीका चली गयीं।
वहाँ भी वे भारत की स्वतन्त्रता के पक्ष में वातावरण बनाने के लिए सभाएँ तथा
सम्मेलन करती रहीं।
1909 में वे फ्रान्स आ गयीं तथा वहाँ से 'वन्दे मातरम्' नामक समाचार पत्र निकाला। प्रथम विश्व युद्ध के प्रारम्भ होने तक यह पत्र निकलता
रहा। इन सब कार्यों से वे ब्रिटिश शासन की निगाहों में आ गयीं। ब्रिटिश खुफिया
विभाग उनके पत्रों तथा गतिविधियों पर नजर रखने लगा; पर
वे बिना भयभीत हुए विदेशी धरती से चलाये जा रहे स्वतन्त्रता के अभियान में लगी
रहीं।
उनकी इच्छा भारत आने की थी; पर
उनकी गतिविधियों से भयभीत ब्रिटिश शासन ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी। धीरे-धीरे
उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। उनकी इच्छा थी कि वे अन्तिम साँस अपनी जन्मभूमि पर
ही लें। 1935 में बड़ी कठिनाई से वे भारत आ सकीं। एक वर्ष बाद 30 अगस्त, 1936 को मुम्बई में उनका देहान्त हो गया।
...........................
24 सितम्बर/जन्म-दिवस
जनसेवक पंडित बच्छराज व्यास
पहले संघ और फिर भारतीय जनसंघ के काम में अपना जीवन
खपाने वाले पंडित बच्छराज व्यास का जन्म नागपुर में 24
सितम्बर, 1916 को हुआ था। उनके पिता श्री श्यामलाल मूलतः डीडवाना
(राजस्थान) के निवासी थे, जो एक व्यापारिक फर्म में
मुनीम होकर नागपुर आये थे।
बच्छराज जी एक मेधावी छात्र थे। बी.ए. (ऑनर्स) और
फिर एल.एल-बी. कर वे वकालत करने लगे। महाविद्यालय में पढ़ते समय वे अपने समवयस्क
श्री बालासाहब देवरस के सम्पर्क में आकर शाखा आने लगे। दोनों का निवास भी निकट ही
था। बालासाहब के माध्यम से उनकी भेंट संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुई। व्यक्ति को पहचाने की कला में माहिर डा. जी ने एक-दो भेंट के बाद बालासाहब से कहा कि यह बड़े काम का आदमी है, इसे पास में रखना चाहिए। बालासाहब ने इस जिम्मेदारी को पूरी तरह निभाया।
बच्छराज जी के घर खानपान में छुआछूत का बहुत विचार
होता था। पहली बार शिविर में आने पर डा. जी ने उन्हें अपना
भोजन अलग बनाने की अनुमति दे दी। शिविर के बाद बच्छराज जी संघ के काम में खूब रम
गये और उनके माध्यम से अनेक मारवाड़ी युवक स्वयंसेवक बने। अगली बार वे सब भी शिविर
में आये और उन्होंने अपना भोजन अलग बनाया; पर तीसरे शिविर तक वे
सब संघ के संस्कारों में ढलकर सामूहिक भोजन करने लगे। संघ में समरसता का विचार
कैसे जड़ पकड़ता है, बच्छराजजी इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
धीरे-धीरे बच्छराजजी की वकालत अच्छी चलने लगी;
पर इसके साथ ही शाखा की ओर भी उनका पूरा ध्यान रहता था।
उनके प्रयास से मारवाड़ियों के साथ ही गुजराती, सिन्धी,
उत्तर भारतीय तथा महाराष्ट्र से बाहर के मूल निवासी युवक
बड़ी संख्या में शाखा आने लगे। श्री गुरुजी का उन पर बहुत विश्वास था। संघ विचार से
चलने वाले विविध संगठनों को धन की आवश्यकता होने पर श्री गुरुजी यह काम उन्हें
सौंप देते थे। बच्छराज जी अपनी वकालत का काम सहयोगियों को देकर स्वयं कोलकाता,
मुंबई, चेन्नई, सूरत, भाग्यनगर आदि बड़े नगरों में जाकर अपने परिचित
मारवाड़ी व्यापारियों से धन ले आते थे।
तृतीय वर्ष शिक्षित बच्छराजजी का विवाह छात्र जीवन
में ही हो गया था। इसके बाद भी उनके जीवन में प्राथमिकता संघ कार्य को ही रहती थी।
उन दिनों राजस्थान छोटी-छोटी रियासतों में बंटा था। संघ का काम वहां नगण्य होने के
कारण दिल्ली से श्री वसंतराव ओक के निर्देशन में चलता था। ऐसे में श्री बालासाहब
ने श्री गुरुजी को सुझाव दिया कि बच्छराजजी को वहां भेजा जाये। बच्छराजजी सहर्ष
इस आज्ञा को शिरोधार्य कर वकालत और गृहस्थी छोड़कर राजस्थान चले गये। 1944 से 47 तक उन्होंने सतत प्रवास कर वहां संघ कार्य की नींव
को मजबूत किया। वहां सब लोग उन्हें ‘भैयाजी’ कहते थे।
राजस्थान से लौटकर वे फिर से नागपुर में सक्रिय हो
गये। 1948 के प्रतिबंध काल में नागपुर केन्द्र को संभालते
हुए उन्होंने देश भर के सत्याग्रह को गति दी। प्रतिबंध समाप्ति के बाद जब कुछ
वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने संघ की दिशा बदलने का आग्रह किया, तो
उन्होंने इसका प्रबल विरोध किया। 1965 में श्री गुरुजी और
बालासाहब के आदेश पर वे भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। 14 वर्ष तक वे स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य भी
रहे। संघ जीवन के आदर्श उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में भी बनाये रखे। वे एक
शिवभक्त थे, तो कवि भी; पर इन सबसे पहले वे
स्वयंसेवक थे।
जनसेवा को ही अपना जीवनधर्म मानने वाले बच्छराजजी 15 मार्च, 1972 को गोलोकवासी हो गये।
(संदर्भ : राष्ट्रसाधना भाग 2/पाथेयकण अक्तूबर 2000)
.........................................
24 सितम्बर/बलिदान-दिवस
आत्मबलिदानी प्रीतिलता वादेदार
युवा क्रांतिकारी प्रीतिलता का जन्म 1911 में गोलपाड़ा (चटगांव, वर्तमान बांग्लादेश) के एक
ऐसे परिवार में हुआ था, जहां लड़कियों की शिक्षा को
महत्व नहीं दिया जाता था। उसके भाइयों को पढ़ाने के लिए घर में एक शिक्षक प्रतिदिन
आते थे। प्रीतिलता भी जिदपूर्वक वहां बैठने लगी। कुछ ही समय में घर वालों के ध्यान
में यह आ गया कि प्रीतिलता पढ़ने में अपने भाइयों से अधिक तेज है। तब जाकर उसकी
पढ़ाई का विधिवत प्रबन्ध किया गया।
अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुए नरसंहार ने उनके
मन में स्वाधीनता की आग सुलगा दी। कोलकाता में स्नातक की पढ़ाई करते समय उन्होंने ‘छात्र संघ’ तथा ‘दीपाली संघ’ नामक दो क्रांतिकारी दलों की सदस्यता लेकर तलवार, भाला
तथा पिस्तौल चलाना सीखा। स्नातक कशक्षा पूर्ण कर वे चटगांव के नंदन कानन हाई स्कूल
में अध्यापक और फिर प्रधानाध्यापक हो गयीं। उन दिनों विद्यालय में प्रार्थना के
समय बच्चे ब्रिटिश सम्राट के प्रति निष्ठा की शपथ लेते थे; पर
प्रीतिलता उन्हें भारत माता के प्रति निष्ठा की शपथ दिलवाने लगीं।
चटगांव में उनका सम्पर्क क्रांतिवीर मास्टर
सूर्यसेन से हुआ। उनके आग्रह पर प्रीतिलता नौकरी छोड़कर ‘इंडियन
रिपब्लिक आर्मी’ के महिला विभाग की सैनिक बन गयी। अब वह पूरा समय
क्रांतिकारी गतिविधियों में लगाने लगीं।
मास्टर सूर्यसेन के आदेश पर कई बार वह वेश बदलकर जेल जाती थीं और वहां बंद
क्रांतिकारियों से संदेशों का आदान-प्रदान करती थीं।
जब रामकृष्ण विश्वास को फांसी घोषित हो गयी,
तो प्रीतिलता उनकी रिश्तेदार बन कर कई बार जेल में उनसे मिल
कर आयीं। 12 जून, 1932 को सावित्री देवी के
मकान में पुलिस ने उनके दल को घेर लिया। प्रीतिलता ने साहसपूर्वक गोली चलाते हुए
स्वयं को तथा अपने नेता को भी बचा लिया। 14 सितम्बर,
1932 को घलघाट में हुई मुठभेड़ में क्रांतिवीर निर्मल सेन और
अपूर्व सेन मारे गये; पर प्रीतिलता और मास्टर सूर्यसेन फिर बच गये।
प्रीतिलता बचाव की अपेक्षा आक्रमण को अधिक अच्छा
मानती थीं। एक बार क्रांतिकारियों ने पहारताली के यूरोपियन क्लब पर हमलेे की योजना
बनाई। अंग्र्रेज अधिकारी वहां एकत्र होकर खाते, पीते
और मौजमस्ती करते हुए भारतीयों के दमन के षड्यन्त्र रचते थे। मास्टर सूर्यसेन ने
शैलेश्वर चक्रवर्ती को इस हमले की जिम्मेदारी दी; पर
किसी कारणवश यह अभियान हो नहीं सका। इस पर प्रीतिलता ने स्वयं आगे बढ़कर इस काम की
जिम्मेदारी ली।
24 सितम्बर, 1932
की रात में यूरोपियन क्लब में एकत्र हुए अंग्रेज अधिकारी आमोद-प्रमोद में व्यस्त
थे। अचानक सैनिक वेशभूषा में आये क्रांतिकारी दल ने वहां हमला बोल दिया। क्रमशः
वहां तीन बम फेंके गये। उनके विस्फोट से आतंकित होकर लोग इधर-उधर भागने लगे। जिसे
जहां जगह मिली, वह वहीं छिपने लगा। तभी क्रांतिकारी दल ने
गोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी। अनेक अंग्रेज अधिकारियों तथा क्लब की सुरक्षा टुकड़ी के
पास भी शस्त्र थे। इस युद्ध में एक वृद्ध अंग्रेज की तत्काल मृत्यु हो गयी तथा कई
बुरी तरह घायल हो गये।
इस अभियान में कई क्रांतिकारी भी घायल हुए। अभियान
की नेता प्रीतिलता को सबसे अधिक गोलियां लगी थीं। जब प्रीतिलता ने देखा कि उनका
बचना असंभव है तथा उनके कारण क्रांतिकारी दल पर संकट आ सकता है, तो उन्होंने सभी साथियों को लौट जाने का आदेश दिया तथा अपनी जेब में रखी
साइनाइड की गोली मुंह में रखकर आत्मोसर्ग के पथ पर चल पड़ीं।
(संदर्भ : क्रांतिकारी कोश/स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश)
....................................
24 सितम्बर/जन्म-दिवस
सरल, सहज और विनम्र डा. कृष्ण कुमार बवेजा
संघ कार्य करते हुए अपनी जीवन यात्रा पूर्ण करने वाले डा. कृष्ण कुमार बवेजा का जन्म हरियाणा राज्य के सोनीपत नगर में 24 सितम्बर, 1949 को हुआ था। उनके पिता श्री हिम्मतराम बवेजा तथा माता श्रीमती भागवंती देवी के संस्कारों के कारण घर में संघ का ही वातावरण था। पांच भाई-बहिनों में वे सबसे बड़े थे। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत ही सामान्य थी।
पटियाला से गणित में पी-एच.डी. कर, कुछ समय हिन्दू काॅलेज, रोहतक में अध्यापक रहकर, 1980 में लुधियाना महानगर से उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हुआ। क्रमशः हरियाणा और पंजाब में अनेक दायित्व निभाते हुए वे दिल्ली में सहप्रांत प्रचारक, हरियाणा के प्रांत प्रचारक और फिर उत्तर क्षेत्र (दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, जम्मू-कश्मीर व हिमाचल) के बौद्धिक प्रमुख बने। ‘श्री गुरुजी जन्मशती’ के साहित्य निर्माण की केन्द्रीय टोली में रहते हुए उन्होंने ‘श्री गुरुजी: व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ नामक पुस्तक लिखी। 2013 में ‘स्वामी विवेकानंद सार्धशती’ आयोजनों में वे उत्तर क्षेत्र के सह संयोजक थे।
पतले-दुबले शरीर वाले कृष्ण कुमार जी मन के बहुत पक्के थे। 1975 में चंडीगढ़ में अध्ययन करते समय आपातकाल विरोधी गतिविधियों में सक्रिय रहने के कारण पुलिस ने उन्हें पकड़कर मीसा में बंद कर दिया। इससे पूर्व थाने में उन्हें लगातार दो दिन और दो रात सोने नहीं दिया गया। मारपीट के साथ ही सरदी होने के बावजूद उन पर बार-बार ठंडा पानी डाला गया। फिर भी पुलिस उनसे भूमिगत आंदोलन के बारे में कोई जानकारी नहीं ले सकी।
उनके छोटे भाई टैम्पो चलाकर सारे परिवार को चलाते थे। 1987 में राजस्थान में डाकुओं ने उनकी हत्या कर दी। ऐसे विकट समय में कृष्ण कुमार जी परिवार के दबावों के बावजूद प्रचारक रहते हुए ही कुछ वर्ष चंडीगढ़ के डी.ए.वी. काॅलिज में फिर प्राध्यापक रहे। उन दिनों पंजाब में आतंकवाद चरम पर था। पूरे देश से कई साहसी प्रचारकों को पंजाब में काम के लिए बुलाया गया था। ऐसे में कृष्ण कुमार जी ने पीछे न हटते हुए पंजाब में ही डटकर काम किया। कुछ समय बाद उनके छोटे भाई ने अपना निजी कारोबार प्रारम्भ कर दिया। अतः उन्होंने नौकरी छोड़ दी और फिर पूरी तरह संघ कार्य में जुट गये।
1979 में पटियाला से पी-एच.डी. करते समय उन्होंने अमर बलिदानी चंद्रशेखर आजाद की स्मृति में रक्तदान शिविर आयोजित किया। उनके प्रयास से कई छात्र, छात्राएं तथा प्राध्यापकों ने भी रक्तदान किया। निर्धारित लक्ष्य पूरा होने पर जब मैडिकल टीम वाले अपना सामान समेटने लगे, तो कृष्ण कुमार जी अड़ गये कि आप लोग मेरा रक्त लिये बिना नहीं जा सकते। उन लोगों ने कहा कि आप बहुत दुबले-पतले हैं। अतः आपके लिए रक्त देना ठीक नहीं रहेगा; पर वे अड़े रहे और चिकित्सकों को उनका रक्त लेना ही पड़ा।
कृष्ण कुमार जी जो कहते थे, उसे पहले स्वयं करते थे। जब शाखा पर दंड लेकर जाने का आग्रह हुआ, तो वे स्वयं अपने स्कूटर पर दंड लेकर चलते थे। नये प्रचारक-विस्तारक निकालने पर उनका बहुत जोर रहता था। प्रवास में सुयोग्य विद्यार्थियों के नाम वे अपनी डायरी में लिख लेते थे और फिर पत्र तथा व्यक्तिगत संपर्क से उसे प्रचारक बनाने का प्रयास करते थे। प्रचारक बनने के बाद भी उसकी सार-संभाल पर उनका विशेष ध्यान और आग्रह रहता था। इस प्रकार उन्होंने नये और युवा प्रचारकों एक बड़ी शृंखला निर्माण की।
18 सितम्बर, 2013 को वे सहक्षेत्र प्रचारक श्री प्रेम कुमार जी के साथ हिमाचल प्रदेश के ऊना में प्रवास पर थे। अचानक मोटर साइकिल फिसलने से उनके सिर में गंभीर चोट आ गयी। चोट इतनी भीषण थी कि एक-डेढ़ घंटे में ही उनका प्राणांत हो गया। इस प्रकार सरल, सहज और विनम्र स्वभाव वाले प्रचारक डा. कृष्ण कुमार बवेजा ने अपने कार्यक्षेत्र में ही चिर विश्रांति ली।
(संदर्भ : पांचजन्य 29.9.2013, रामेश्वर जी आदि)
------------------------------------
25 सितम्बर/जन्म-दिवस
एकात्म मानववाद के प्रणेता दीनदयाल उपाध्याय
सुविधाओं में पलकर कोई भी सफलता पा सकता है;
पर अभावों के बीच रहकर शिखरों को छूना बहुत कठिन है। 25 सितम्बर, 1916 को जयपुर से अजमेर मार्ग पर स्थित ग्राम धनकिया
में अपने नाना पण्डित चुन्नीलाल शुक्ल के घर जन्मे दीनदयाल उपाध्याय ऐसी ही विभूति
थे।
दीनदयाल जी के पिता श्री भगवती प्रसाद ग्राम नगला
चन्द्रभान, जिला मथुरा, उत्तर
प्रदेश के निवासी थे। तीन वर्ष की अवस्था में ही उनके पिताजी का तथा आठ वर्ष की
अवस्था में माताजी का देहान्त हो गया। अतः दीनदयाल का पालन रेलवे में कार्यरत उनके
मामा ने किया। ये सदा प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण होते थे। कक्षा आठ में उन्होंने
अलवर बोर्ड, मैट्रिक में अजमेर बोर्ड तथा इण्टर में पिलानी में
सर्वाधिक अंक पाये थे।
14 वर्ष की आयु में इनके छोटे भाई शिवदयाल का देहान्त
हो गया। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कालिज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी.ए. पास किया। यहीं उनका सम्पर्क संघ के उत्तर प्रदेश
के प्रचारक श्री भाऊराव देवरस से हुआ। इसके बाद वे संघ की ओर खिंचते चले गये।
एम.ए. करने के लिए वे आगरा आये; पर घरेलू परिस्थितियों के
कारण एम.ए. पूरा नहीं कर पाये। प्रयाग से इन्होंने एल.टी की परीक्षा भी उत्तीर्ण
की। संघ के तृतीय वर्ष की बौद्धिक परीक्षा में उन्हें पूरे देश में प्रथम स्थान
मिला था।
अपनी मामी के आग्रह पर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की
परीक्षा दी। उसमें भी वे प्रथम रहे; पर तब तक वे नौकरी और
गृहस्थी के बन्धन से मुक्त रहकर संघ को सर्वस्व समर्पण करने का मन बना चुके थे।
इससे इनका पालन-पोषण करने वाले मामा जी को बहुत कष्ट हुआ। इस पर दीनदयाल जी ने
उन्हें एक पत्र लिखकर क्षमा माँगी। वह पत्र ऐतिहासिक महत्त्व का है। 1942 से उनका प्रचारक जीवन गोला गोकर्णनाथ (लखीमपुर, उ.प्र.) से प्रारम्भ हुआ। 1947 में वे उत्तर प्रदेश के
सहप्रान्त प्रचारक बनाये गये।
1951 में डा. श्यामाप्रसाद
मुखर्जी ने नेहरू जी की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीतियों के विरोध में केन्द्रीय
मन्त्रिमण्डल छोड़ दिया। वे राष्ट्रीय विचारों वाले एक नये राजनीतिक दल का गठन करना
चाहते थे। उन्होंने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से सम्पर्क किया। गुरुजी
ने दीनदयाल जी को उनका सहयोग करने को कहा। इस प्रकार 'भारतीय जनसंघ' की स्थापना हुई।
दीनदयाल जी प्रारम्भ में उसके संगठन मन्त्री और फिर महामन्त्री बनाये गये।
1953 के कश्मीर सत्याग्रह में डा. मुखर्जी की रहस्यपूर्ण परिस्थितियों में मृत्यु के बाद जनसंघ की पूरी जिम्मेदारी
दीनदयाल जी पर आ गयी। वे एक कुशल संगठक, वक्ता, लेखक, पत्रकार और चिन्तक भी थे। लखनऊ में राष्ट्रधर्म
प्रकाशन की स्थापना उन्होंने ही की थी। एकात्म मानववाद के नाम से उन्होंने नया
आर्थिक एवं सामाजिक चिन्तन दिया, जो साम्यवाद और पूँजीवाद की
विसंगतियों से ऊपर उठकर देश को सही दिशा दिखाने में सक्षम है।
उनके नेतृत्व में जनसंघ नित नये क्षेत्रों में पैर
जमाने लगा। 1967 में कालीकट अधिवेशन में वे सर्वसम्मति से अध्यक्ष
बनायेे गये। चारों ओर जनसंघ और दीनदयाल जी के नाम की धूम मच गयी। यह देखकर
विरोधियों के दिल फटने लगे। 11 फरवरी, 1968 को वे लखनऊ से पटना जा रहे थे। रास्ते में
किसी ने उनकी हत्या कर मुगलसराय रेलवे स्टेशन पर लाश नीचे फेंक दी। इस
प्रकार अत्यन्त रहस्यपूर्ण परिस्थिति में एक मनीषी का निधन हो गया।
...........................
25 सितम्बर/जन्म-दिवस
अपने काम से नाम बनाने
वाले जगमोहन
शासन और प्रशासन के साथ
ही राजनीति में भी अपने काम से पहचान बनाने वाले जगमोहन का जन्म 25 सितम्बर,
1927 को पंजाब के हाफिजाबाद में अमीरचंद मल्होत्रा
और द्रोपदी देवी के घर में हुआ था। विभाजन के भयावह दर्द को लाखों अन्य लोगों की तरह
युवा जगमोहन ने भी झेला था। इसलिए तुष्टीकरण, अवसरवाद तथा समझौतापरस्ती के वे सदा विरुद्ध रहे।
भारतीय प्रशासनिक सेवा
में रहते हुए वे 70 के दशक में दिल्ली विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष बने। उस
दौरान अपनी सख्त कार्यशैली से वे इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी के चहेते बन
गये। तब दिल्ली में विधानसभा न होने से सब कार्यकारी शक्तियां उपराज्यपाल के पास
थीं। वे दो बार इस पद पर रहे। इस दौरान उन्होंने अवैध बस्तियां हटाकर शहर संवारने
में बड़ा योगदान दिया। इसमें सबसे कठिन जामा मस्जिद के पास तुर्कमान गेट की बस्ती थी। उसमें सब तरह के अवैध धंधे होते थे; पर जगमोहन ने उसे भी हटा दिया।
संजय गांधी की असमय
मृत्यु के बाद वे राजीव गांधी के भी विश्वस्त बने। 1982 में दिल्ली में
हुए एशियाड खेल की सारी व्यवस्था उनके पास ही थी। उसकी सफलता से उनकी छवि एक
प्रामाणिक और कार्यकुशल अधिकारी की बन गयी। 90 के दशक में जब
जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद फैल रहा था, तब प्रधानमंत्री राजीव
गांधी ने उन्हें राज्यपाल बनाकर वहां भेजा। उन्होंने आतंकवाद को प्रश्रय दे रहे
सभी क्षेत्रीय राजनीतिक दल के नेताओं पर नकेल कसी तथा फारुख अब्दुल्ला की सरकार
बर्खास्त कर दी।
राजीव गांधी के बाद विश्वनाथ
प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने। उन्होंने भी जगमोहन पर भरोसा करते हुए उन्हें
राज्यपाल बनाया;
पर यह कमजोर तथा मिलीजुली सरकार थी। इन छद्म सेक्यूलरों ने वी.पी.सिंह पर
दबाव डालकर उन्हें हटवा दिया; पर इससे पूर्व 19 जनवरी,
1990 की रात में घाटी में होने वाले नरसंहार से
पहले उन्होंने हिन्दुओं को निकाल कर सुरक्षित दिल्ली और जम्मू पहुंचाया। इससे घाटी के अलगाववादी तथा पाकिस्तान में बैठे भारत विरोधी उनकी जान के प्यासे हो गये। बेनजीर भुट्टो तो उन्हें खुलेआम ‘भगमोहन’ बनाने और मो-मो की तरह टुकड़े कर देने की धमकी देती थी; पर जगमोहन भयभीत नहीं हुए।
राज्य में केन्द्र से आने
वाला अधिकांश पैसा कश्मीर घाटी वाले हड़प जाते थे। जगमोहन ने इससे जम्मू और लद्दाख
क्षेत्र के विकास के लिए भी कई काम किये। उन्होंने ‘श्री माता
वैष्णोदेवी श्राइन बोर्ड’ बनाकर चढ़ावे में
पारदर्शिता स्थापित की तथा इससे विश्वविद्यालय और अस्पताल आदि संचालित कियेे।
उन्होंने वैष्णोदेवी और अमरनाथ यात्रा को व्यवस्थित किया। इससे वे राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी वालों की निगाह में आ गये।
भा.ज.पा ने उन्हें 1990 में राज्यसभा में भेजा। फिर वे 1996, 98 तथा 99 में नयी दिल्ली से लोकसभा का चुनाव जीते। वाजपेयी सरकार में उन्हें शहरी
विकास, संचार और पर्यटन मंत्री बनाया गया। यहां भी उन्होंने अपने
काम की अलग छाप छोड़ी। सार्वजनिक जीवन में अपने विशिष्ट योगदान और देशसेवा के लिए
उन्हें पद्म श्री,
पद्म भूषण और फिर पद्म विभूषण से अलंकृत किया
गया। वे मानते थे कि अनुच्छेद 370 तथा 35 ए जम्मू-कश्मीर के विकास और राष्ट्रीय एकीकरण में बड़ी बाधा है। पांच अगस्त, 2019 को मोदी सरकार ने इसे हटा दिया। इसका सुपरिणाम आज सामने है।
अपने काम को पूजा मानने
वाले दूरदर्शी, कर्तव्यनिष्ठ और सिद्धांतप्रिय जगमोहन का तीन मई, 2021 को दिल्ली में देहांत हुआ। जम्मू-कश्मीर के अनुभव उन्होंने अपनी पुस्तक ‘माई फ्रोजन टर्बुलेंस इन कश्मीर’ में लिखे हैं। इतिहास और
राजनीति के अध्येताओं के लिए वह गंभीर पुस्तक है।
(पंजाब केसरी, 6.5.21/9, प्रो. रिसाल
सिंह)
------------
25 सितम्बर/जन्म-दिवस
केरल में धर्मरक्षक स्वामी सत्यानन्द सरस्वती
केरल भारत का ऐसा तटवर्ती राज्य है, जहां विरोधी शक्तियां मिलकर हिन्दू अस्मिता को मिटाना चाहती हैं। यद्यपि वहां के हिन्दुओं में धर्म भावना असीम है; पर संगठन न होने के कारण उन्हें अपमान झेलना पड़ता है। जातिगत भेदभाव की अत्यधिक प्रबलता के कारण एक बार स्वामी विवेकानन्द ने केरल को पागलखाना कहा था। इसके बाद भी अनेक साधु सन्त वहां हिन्दू समाज के स्वाभिमान को जगाने में सक्रिय हैं।
25 सितम्बर, 1933 को तिरुअनन्तपुरम् के अंडुरकोणम् ग्राम में जन्मे स्वामी सत्यानन्द उनमें से ही एक थे। उनका नाम पहले शेखरन् पिल्लै था। शिक्षा पूर्ण कर वे माधव विलासम् हाई स्कूल में पढ़ाने लगे। 1965 में उनका सम्पर्क रामदास आश्रम से हुआ और फिर वे उसी के होकर रह गये। आगे चलकर उन्होंने संन्यास लिया और उनका नाम स्वामी सत्यानन्द सरस्वती हुआ।
केरल में ‘हिन्दू ऐक्य वेदी’ नामक संगठन के अध्यक्ष के नाते स्वामीजी अपने प्रखर भाषणों से जन जागरण का कार्य सदा करते रहे। 1970 के बाद राज्य में विभिन्न हिन्दू संगठनों को जोड़ने में उनकी भूमिका अति महत्वपूर्ण रही। वे ‘पुण्यभूमि’ नामक दैनिक पत्र के संस्थापक और सम्पादक भी थे। आयुर्वेद और सिद्धयोग में निष्णात स्वामीजी ने ‘हर्बल कोला’ नामक एक स्वास्थ्यवर्धक पेय बनाया था, जो अत्यधिक लोकप्रिय हुआ।
स्वामी सत्यानन्दजी के मन में केरल के हिन्दू समाज की चिन्ता सदा बसती थी। वे श्री रामदास आश्रम चेंगोट्टूकोणम (तिरुअनन्तपुरम्) के पीठाधिपति तथा विश्व हिन्दू परिषद द्वारा गठित मार्गदर्शक मंडल के सदस्य थे। उन्होंने देश विदेश में अनेक रामदास आश्रमों की स्थापना की। ‘यंग मैन्स हिन्दू ऐसोसियेशन’ तथा ‘मैथिली महिला मंडलम्’ के माध्यम से उन्होंने बड़ी संख्या में हिन्दू परिवारों को जोड़ा। केरल की राजधानी तिरुअनन्तपुरम् में प्रतिवर्ष लगने वाले रामनवमी मेले का प्रारम्भ उन्होंने ही किया।
एक बार मिशनरियों ने केरल के प्रसिद्ध शबरीमला तीर्थ की पवित्रता भंग करने का प्रयास किया। उन्होंने 24 मार्च, 1983 की अंधेरी रात में मन्दिर के मार्ग में ‘नीलक्कल’ नामक स्थान पर सीमेंट का एक क्र१स गाड़ दिया। उनकी योजना वहां एक बड़ा चर्च बनाने की थी, जिससे शबरीमला मन्दिर के दर्शनार्थ आने वाले लाखों तीर्थयात्रियों को फुसलाया जा सके। ऐसा वे पहले भी कई बार कर चुके थे। उन्होंने कहा कि पहली शती का यह क्राॅस खुद ही प्रगटा है। यद्यपि पुरातत्ववेत्ताओं की जांच में यह दावा झूठा सिद्ध हो गया।
पर केरल के हिन्दू संगठन इस बार चुप नहीं रहे। स्वामीजी तथा कुम्मनम् राजेशखरन के नेतृत्व में एक सर्वदलीय समिति बनाकर व्यापक आन्दोलन किया गया। शासन ने आंदोलन दबाने के लिए बल प्रयोग भी किया; पर हिन्दू समाज की उग्रता देखकर उसे पीछे हटना पड़ा। 19 मई को शासन ने वहां एक हेक्टेयर जमीन चर्च को दे दी। इस पर स्वामीजी ने उग्र सत्याग्रह करने की घोषणा कर दी। इससे घबराकर शासन ने दबाव डाला और अंततः 19 अगस्त को वहां से क्राॅस हटा लिया गया। केरल में चर्च के पीछे हटने का यह पहला ही प्रसंग था। स्वामीजी की इस आन्दोलन में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही। उनके प्रति सभी साधु संन्यासियों तथा हिन्दू संगठनों में इतना आदर था कि सब थोड़े प्रयास से ही एक मंच पर आ गये।
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण के लिए चले आन्दोलन में भी स्वामीजी बहुत सक्रिय रहे। इसीलिए जब-जब भी कारसेवा या अन्य कोई आह्नान हुआ, केरल से भारी संख्या में नवयुवक अयोध्या गये। हिन्दू समाज को 73 वर्ष तक अपनी अनथक सेवाएं देने वाले स्वामीजी का 24 नवम्बर, 2006 को देहान्त हो गया। (पाथेय कण 16.9.2019)
------------------
26 सितम्बर/जन्म-दिवस
समाजसेवी रानी रासमणि
कोलकाता के दक्षिणेश्वर मंदिर और उसके पुजारी श्री रामकृष्ण परमहंस का नाम प्रसिद्ध है; पर वह मंदिर बनवाने वाली रानी रासमणि को लोग कम ही जानते हैं। रानी का जन्म बंगाल के 24 परगना जिले में गंगा के तट पर बसे ग्राम कोना में हुआ था। उनके पिता श्री हरेकृष्ण दास एक साधारण किसान थे। परिवार का खर्च चलाने के लिए वे खेती के साथ ही जमींदार के पास कुछ काम भी करते थे। उसकी चर्चा से रासमणि को भी प्रशासनिक कामों की जानकारी होने लगी। रात में उनके पिता लोगों को रामायण, भागवत आदि सुनाते थे। इससे रासमणि को भी निर्धनों के सेवा में आनंद मिलने लगा।
रासमणि जब बहुत छोटी थीं, तभी उनकी मां का निधन हो गया। ऐसे में उनका पालन उनकी बुआ ने किया। तत्कालीन प्रथा के अनुसार 11 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह बंगाल के बड़े जमींदार प्रीतम बाबू के पुत्र रामचंद्र दास से हो गया। ऐसे घर में आकर भी रासमणि को अहंकार नहीं हुआ। 1823 की भयानक बाढ़ के समय उन्होंने कई अन्नक्षेत्र खोले तथा आश्रय स्थल बनवाये। इससे उन्हें खूब ख्याति मिली और लोग उन्हें ‘रानी’ कहने लगे।
विवाह के कुछ वर्ष बाद उनके पति का निधन हो गया। तब तक वे चार बेटियों की मां बन चुकी थीं; पर उनके कोई पुत्र नहीं था। अब सारी सम्पत्ति की देखभाल का जिम्मा उन पर ही आ गया। उन्होंने अपने दामाद मथुरानाथ के साथ मिलकर सब काम संभाला। सुव्यवस्था के कारण उनकी आय काफी बढ़ गयी। सभी पर्वों पर रानी गरीबों की खुले हाथ से सहायता करती थीं। उन्होंने जनता की सुविधा के लिए गंगा के तट पर कई घाट और सड़कें तथा जगन्नाथ भगवान के लिए सवा लाख रु. खर्च कर चांदी का रथ भी बनवाया।
रानी का ब्रिटिश साम्राज्य से कई बार टकराव हुआ। एक बार अंग्रेजों ने दुर्गा पूजा उत्सव के ढोल-नगाड़ों के लिए उन पर मुकदमा कर दिया। इसमें रानी को जुर्माना देना पड़ा; पर फिर रानी ने वह पूरा रास्ता ही खरीद लिया और वहां अंग्रेजों का आवागमन बंद करा दिया। इससे शासन ने रानी से समझौता कर उनका जुर्माना वापस किया। एक बार शासन ने मछली पकड़ने पर कर लगा दिया। रानी ने मछुआरों का कष्ट जानकर वह सारा तट खरीद लिया। इससे अंग्रेजों के बड़े जहाजों को वहां से निकलने में परेशानी होने लगी। इस बार भी शासन को झुककर मछुआरों से सब प्रतिबंध हटाने पड़े।
एक बार रानी को स्वप्न में काली माता ने भवतारिणी के रूप में दर्शन दिये। इस पर रानी ने हुगली नदी के पास उनका भव्य मंदिर बनवाया। कहते हैं कि मूर्ति आने के बाद एक बक्से में रखी थी। तब तक मंदिर अधूरा था। एक बार रानी को स्वप्न में मां दुर्गा ने कहा कि बक्से में मेरा दम घुट रहा है। मुझे जल्दी बाहर निकालो। रानी ने सुबह देखा, तो प्रतिमा पसीने से लथपथ थी। इस पर रानी ने मंदिर निर्माण का काम तेज कर दिया और अंततः 31 मई, 1855 को मंदिर में मां दुर्गा की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा हो गयी।
इस मंदिर में मुख्य पुजारी रामकुमार चटर्जी थे। वृद्ध होने पर उन्होंने अपने छोटे भाई गदाधर को वहां बुला लिया। यही गदाधर रामकृष्ण परमहंस के नाम से प्रसिद्ध हुए। परमहंस जी सिद्ध पुरुष थे। एक बार उन्होंने पूजा करती हुई रानी को यह कहकर चांटा मार दिया कि मां के सामने बैठकर अपनी जमींदारी का हिसाब मत करो। रानी अपनी गलती समझकर चुप रहीं।
रानी ने अपनी सम्पत्ति का प्रबंध ऐसे किया, जिससे उनके द्वारा संचालित मंदिर तथा अन्य सेवा कार्यों में भविष्य में भी कोई व्यवधान न पड़े। अंत समय निकट आने पर उन्होंने अपने कर्मचारियों से गंगा घाट पर प्रकाश करने को कहा। इस जगमग प्रकाश के बीच 19 फरवरी, 1861 को देश, धर्म और समाजसेवी रानी रासमणि का निधन हो गया। दक्षिणेश्वर मंदिर के मुख्य द्वार पर लगी प्रतिमा उनके कार्यों की सदा याद दिलाती रहती है।
(संदर्भ : देवपुत्र अक्तूबर 2018)
--------------------------------------
26 सितम्बर/जन्म-दिवस
कर्मयोगी पंडित सुन्दरलाल
भारत के स्वाधीनता आंदोलन के अनेक पक्ष थे। हिंसा
और अहिंसा के साथ कुछ लोग देश तथा विदेश
में पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से जन जागरण भी कर रहे थे। अंग्रेज इन सबको अपने लिए
खतरनाक मानते थे।
26 सितम्बर, 1886
को खतौली (जिला मुजफ्फरनगर, उ.प्र.)
में सुंदरलाल नामक एक तेजस्वी बालक ने जन्म लिया। खतौली में
गंगा नहर के किनारे बिजली और सिंचाई विभाग के कर्मचारी रहते हैं। इनके पिता श्री
तोताराम श्रीवास्तव उन दिनों वहां उच्च सरकारी पद पर थे। उनके परिवार में प्रायः
सभी लोग अच्छी सरकारी नौकरियों में थे।
मुजफ्फरनगर से हाईस्कूल करने के बाद सुंदरलाल जी
प्रयाग के प्रसिद्ध म्योर क१लिज में पढ़ने गये। वहां क्रांतिकारियों के सम्पर्क
रखने के कारण पुलिस उन पर निगाह रखने लगी। गुप्तचर विभाग ने उन्हें भारत की एक
शिक्षित जाति में जन्मा आसाधारण क्षमता का युवक कहा, जो
समय पड़ने पर तात्या टोपे और नाना फड़नवीस की तरह खतरनाक हो सकता है।
1907 में वाराणसी के शिवाजी महोत्सव में 22 वर्षीय सुन्दर लाल ने ओजस्वी भाषण दिया। यह समाचार पाकर कॉलेज वालों ने उसे
छात्रावास से निकाल दिया। इसके बाद भी उन्होंने प्रथम श्रेणी में बी.ए. की परीक्षा
उत्तीर्ण की। अब तक उनका संबंध लाला लाजपतराय, श्री
अरविन्द घोष तथा रासबिहारी बोस जैसे क्रांतिकारियों से हो चुका था। दिल्ली के
चांदनी चौक में लार्ड हार्डिंग की शोभायात्रा पर बम फेंकने की योजना में सुंदरलाल
जी भी सहभागी थे।
उत्तर प्रदेश में क्रांति के प्रचार हेतु लाला लाजपतराय
के साथ सुंदरलाल जी ने भी प्रवास किया। कुछ समय तक उन्होंने सिंगापुर आदि देशों
में क्रांतिकारी आंदोलन का प्रचार किया। इसके बाद उनका रुझान पत्रकारिता की ओर
हुआ। उन्होंने पंडित सुंदरलाल के नाम से ‘कर्मयोगी’ पत्र निकाला। इसके बाद
उन्होंने अभ्युदय, स्वराज्य, भविष्य और हिन्दी
प्रदीप का भी सम्पादन किया।
ब्रिटिश अधिकारी कहते थे कि पंडित सुन्दर लाल की कलम
से शब्द नहीं बम-गोले निकलते हैं। शासन ने जब प्रेस एक्ट की घोषणा की, तो कुछ समय के लिए ये पत्र बंद करने पड़े। इसके बाद वे भगवा वस्त्र पहनकर
स्वामी सोमेश्वरानंद के नाम से देश भर में घूमने लगे। इस समय भी क्रांतिकारियों से
उनका सम्पर्क निरन्तर बना रहा और वे उनकी योजनाओं में सहायता करते रहे। 1921 से लेकर 1947 तक उन्होंने उन्होंने आठ बार जेल यात्रा की।
इतनी व्यस्तता और लुकाछिपी के बीच उन्होंने अपनी
पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ प्रकाशित
कराई। यद्यपि प्रकाशन के दो दिन बाद ही शासन ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया; पर तब तक इसकी प्रतियां पूरे भारत में फैल चुकी थी। इसका जर्मन, चीनी तथा भारत की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ।
1947 में स्वतंत्रता प्रप्ति के बाद गांधी जी के आग्रह
पर विस्थापितों की समस्या के समाधान के लिए वे पाकिस्तान गये। 1962-63 में ‘इंडियन पीस काउंसिल’ के
अध्यक्ष के रूप में उन्होंने कई देशों की यात्रा की। 95
वर्ष की आयु में 8 मई, 1981 को दिल्ली में
हृदयगति रुकने से उनका देहांत हुआ। जब कोई उनके दीर्घ जीवन की कामना करता था,
तो वे हंसकर कहते थे -
होशो हवास ताबे तबां, सब
तो जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं, सामान तो गया।।
(संदर्भ : मातृवंदना, मार्च-अपै्रल 2008/स्वतंत्रता सेनानी सचित्र
कोश)
..................................
27 सितम्बर/जन्म-दिवस
अमृत बांटती मां अमृतानन्दमयी
आज जिन्हें सम्पूर्ण विश्व में माँ अमृतानन्दमयी के
नाम से जाना जाता है, उनका जन्म 27
सितम्बर, 1953 को केरल के समुद्र तट पर स्थित आलप्पाड ग्राम के
एक अति निर्धन मछुआरे परिवार में हुआ। वे अपने पिता की चौथी सन्तान हैं। बचपन में
उनका नाम सुधामणि था। जब वे कक्षा चार में थीं, तब
उनकी माँ बहुत बीमार हो गयीं। उनकी सेवा में सुधामणि का अधिकांश समय बीतता था। अतः
उसके बाद की उसकी पढ़ाई छूट गयी।
सुधामणि को बचपन से ही ध्यान एवं पूजन में बहुत
आनन्द आता था। माँ की सेवा से जो समय शेष बचता, वह
इसी में लगता था। पाँच वर्ष की अवस्था से ही वह कृष्ण-कृष्ण बोलने लगी थीं। इस
कारण उन्हें मीरा और राधा का अवतार मानकर लोग श्रद्धा व्यक्त करने लगे।
माँ के देहान्त के बाद सुधामणि की दशा अजीब हो गयी।
वह अचानक खेलते-खेलते योगियों की भाँति ध्यानस्थ हो जाती। लोगों ने समझा कि माँ की
मृत्यु का आघात न सहन कर पाने के कारण उसकी मानसिक दशा बिगड़ गयी है। अतः उसे वन
में निर्वासित कर दिया गया। पर वन में सुधा ने पशु-पक्षियों को अपना मित्र बना
लिया। वे ही उसके खाने पीने की व्यवस्था करते। एक गाय उसे दूध पिला देती, तो पक्षी फल ले आते। यहाँ सुधा ने प्रकृति के साथ समन्वय का पाठ सीखा कि
प्रकृति का रक्षण करने पर वह भी हमें संरक्षण देगी। धीरे-धीरे उसके विचारों की
सुगन्ध चारों ओर फैल गयी। लोग उन्हें अम्मा या माँ अमृतानन्दमयी कहने लगे।
जब कोई भी दुखी व्यक्ति उनके पास आता, तो वे उसे गले से लगा लेतीं। इस प्रकार वे उसके कष्ट लेकर अपनी आध्यात्मिक
ऊर्जा का स॰चार उसमें कर देती हैं। इससे वह हल्कापन एवं रोगमुक्त अनुभव करता है।
हजारों लोगों को हर दिन गले लगाने के कारण लोग उन्हें ‘गले
लगाने वाली सन्त’ (Hugging saint) कहने लगे हैं।
एक पत्रकार ने उनसे गले लगाने का रहस्य पूछा,
तो वे हँसकर बोली - माँ अपने बच्चों को गले ही लगाती है। इसी से बच्चे के
अधिकांश रोग-शोक एवं भय मिट जाते हैं। उसने फिर पूछा- यदि आपको दुनिया का शासक
बना दिया जाये, तो आप क्या करना पसन्द करेंगी। अम्मा का उत्तर था - मैं झाड़ू लगाने
वाली बनना पसन्द करूँगी; क्योंकि लोगों के
दिमाग में बहुत कचरा जमा हो गया है। वह पत्रकार देखता ही
रह गया।
अम्मा ने निर्धनों के लिए हजारों सेवाकार्य चलाये
हैं। इनमें आवास, गुरुकुल, विधवाओं को
जीवनवृत्ति, अस्पताल एवं हर प्रकार के विद्यालय हैं। गुजरात के
भूकम्प और सुनामी आपदा के समय अम्मा ने अनेक गाँवों को गोद लेकर उनका पुनर्निर्माण
किया।
यद्यपि अम्मा केवल मलयालम भाषा जानती हैं; पर
सारे विश्व में उनके भक्त हैं। वे उन सबको अपनी सन्तान मानती हैं। जब 2003 में उनका 50 वाँ जन्मदिवस मनाया गया, तो
उसमें 192 देशों से भक्त आये थे। इनमें शीर्ष वैज्ञानिक,
समाजशास्त्री, पर्यावरणविद, मानवाधिकारवादी सब थे। वे अम्मा को धरती पर ईश्वर का वरदान मानते हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने कार्यक्रमों में तीन
बार अतिविशिष्ट वक्ता के रूप में उनका सम्मान किया है। शिकागो के विश्व धर्म
सम्मेलन में उनकी अमृतवाणी से सारे धर्माचार्य अभिभूत हो उठे थे। ईश्वर उन्हें
दीर्घायु करे, जिससे वे अमृत पुत्रों के सृजन में लगी रहें।
...............................
27 सितम्बर/जन्म-दिवस
हिन्दू जागरण के सूत्रधार अशोक सिंहल
श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान जिनकी हुंकार से रामभक्तों के हृदय हर्षित हो जाते थे, वे श्री अशोक सिंहल संन्यासी भी थे और योद्धा भी; पर वे स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक ही मानते थे।
उनका जन्म आश्विन कृष्ण पंचमी (27 सितम्बर, 1926) को आगरा (उ.प्र.) में हुआ। सात भाई और एक बहिन में वे चौथे स्थान पर थे। मूलतः यह परिवार ग्राम बिजौली (जिला अलीगढ़, उ.प्र.) का निवासी था। उनके पिता श्री महावीर जी शासकीय सेवा में उच्च पद पर थे।
घर में संन्यासी तथा विद्वानों के आने के कारण बचपन से ही उनमें हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। 1942 में प्रयाग में पढ़ते समय प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) ने उन्हें स्वयंसेवक बनाया। उन्होंने अशोकजी की मां विद्यावतीजी को संघ की प्रार्थना सुनायी। इससे प्रभावित होकर उन्होंने अशोकजी को शाखा जाने की अनुमति दे दी।
1947 में देश विभाजन के समय कांग्रेसी नेता सत्ता पाने की खुशी मना रहे थे; पर देशभक्तों के मन इस पीड़ा से सुलग रहे थे कि ऐसे सत्तालोलुप नेताओं के हाथ में देश का भविष्य क्या होगा ? अशोकजी भी उन्हीं में से एक थे। इस माहौल को बदलने हेतु उन्होंने अपना जीवन संघ को समर्पित कर दिया।
बचपन से ही उनकी रुचि शास्त्रीय गायन में रही। संघ के सैकड़ों गीतों की लय उन्होंने बनायी। उन्होंने काशी हिन्दू वि.वि. से धातुविज्ञान में अभियन्ता की उपाधि ली थी। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो वे सत्याग्रह कर जेल गये। वहां से आकर उन्होंने अंतिम परीक्षा दी और 1950 में प्रचारक बन गये।
प्रचारक के नाते वे गोरखपुर, प्रयाग, सहारनपुर और फिर मुख्यतः कानपुर रहे। सरसंघचालक श्री गुरुजी से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। कानपुर में उनका सम्पर्क वेदों के प्रकांड विद्वान श्री रामचन्द्र तिवारी से हुआ। अशोकजी अपने जीवन में इन दोनों का विशेष प्रभाव मानते थे। 1975 के आपातकाल के दौरान वे इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में लोगों को जुटाते रहे। 1977 में वे दिल्ली प्रांत (वर्तमान दिल्ली व हरियाणा) के प्रान्त प्रचारक बने।
1981 में डा. कर्णसिंह के नेतृत्व में दिल्ली में ‘विराट हिन्दू सम्मेलन’ हुआ; पर उसके पीछे शक्ति अशोकजी और संघ की थी। उसके बाद उन्हें ‘विश्व हिन्दू परिषद’ की जिम्मेदारी दे दी गयी। एकात्मता रथ यात्रा, संस्कृति रक्षा निधि, रामजानकी रथयात्रा, रामशिला पूजन, रामज्योति आदि कार्यक्रमों से परिषद का नाम सर्वत्र फैल गया।
अब परिषद के काम में बजरंग दल, परावर्तन, गाय, गंगा, सेवा, संस्कृत, एकल विद्यालय आदि कई नये आयाम जोड़े गयेे। श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन ने तो देश की सामाजिक और राजनीतिक दिशा ही बदल दी। वे परिषद के 1982 से 86 तक संयुक्त महामंत्री, 1995 तक महामंत्री, 2005 तक कार्याध्यक्ष, 2011 तक अध्यक्ष और फिर संरक्षक रहे।
सन्तों को संगठित करना बहुत कठिन है; पर अशोकजी की विनम्रता से सभी पंथों के लाखों संत इस आंदोलन से जुड़े। इस दौरान कई बार उनके अयोध्या पहुंचने पर प्रतिबंध लगाये गये; पर वे हर बार प्रशासन को चकमा देकर वहां पहुंच जाते थे। उनकी संगठन और नेतृत्व क्षमता का ही परिणाम था कि युवकों ने छह दिसम्बर, 1992 को वह राष्ट्रीय कलंक गिरा दिया। कार्य विस्तार के लिए वे सभी प्रमुख देशों में गये। अगस्त-सितम्बर, 2015 में भी वे इंग्लैंड, हालैंड और अमरीका के दौरे पर गये थे।
अशोक जी काफी समय से फेफड़ों के संक्रमण से पीड़ित थे। इसी के चलते 17 नवम्बर, 2015 को उनका निधन हुआ। वे प्रतिदिन परिषद कार्यालय में लगने वाली शाखा में आते थे। अंतिम दिनों में भी उनकी स्मृति बहुत अच्छी थी। वे आशावादी दृष्टिकोण से सदा काम को आगे बढ़ाने की बात करते रहते थे। अयोध्या में श्री रामजन्मभूमि मंदिर निर्माण से उनका एक सपना पूरा हुआ।
......................................................................
28 सितम्बर/जन्म-दिवस
हिन्दी के दधीचि पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी
हिन्दी माता की सेवा में अपना जीवन सर्वस्व अर्पित
कर देने वाले पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का जन्म 28
सितम्बर, 1893 को इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ
था। बचपन से ही उनके मन में हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्थान के प्रति अत्यधिक अनुराग था। यद्यपि वे अंग्रेजी और उर्दू के भी
अप्रतिम विद्वान् थे। अंग्रेजी का अध्ययन उन्होंने लन्दन में किया था; पर हिन्दी को भारत की राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक एकता के लिए आवश्यक मानकर उसे
राजभाषा का स्थान प्रदान कराने के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे।
वे अंग्रेजी काल में उत्तर प्रदेश में शिक्षा
प्रसार अधिकारी थे। एक बार तत्कालीन प्रदेश सचिव ने उन्हें यह आदेश जारी करने को
कहा कि भविष्य में हिन्दी रोमन लिपि के माध्यम से पढ़ायी जाएगी। इस पर वे उससे भिड़
गये। उन्होंने साफ कह दिया कि चाहे आप मुझे बर्खास्त कर दें; पर मैं यह आदेश नहीं दूँगा। इस पर वह अंग्रेज अधिकारी चुप हो गया। उनके इस
साहसी व्यवहार से देवनागरी लिपि की हत्या होने से बच गयी।
अवकाश प्राप्ति के बाद दुर्लभ पुस्तकों के प्रकाशन
हेतु उन्होंने अपनी जीवन भर की बचत 25,000 रु. लगाकर ‘हिन्दी वांगमय निधि’ की
स्थापना की। वे 20 वर्ष तक हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘सरस्वती’ के सम्पादक भी रहे। वे ‘श्रीवर’
उपनाम से कविताएँ भी लिखते थे। इसके अतिरिक्त वे एक श्रेष्ठ
वास्तुविद भी थे। इस बारे में भी उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं।
उनकी हिन्दी के प्रति की गयी सेवाओं के लिए उत्तर
प्रदेश हिन्दी संस्थान ने 1989 में उन्हें एक लाख रु. का सर्वोच्च ‘भारत-भारती’ सम्मान
देने की घोषणा की। ‘हिन्दी दिवस’ 14
सितम्बर को यह पुरस्कार दिया जाने वाला था; पर
उससे एक दिन पूर्व कांग्रेसी मुख्यमन्त्री नारायणदत्त तिवारी ने उर्दू को प्रदेश
की द्वितीय राजभाषा घोषित कर दिया। इससे उनका मन पीड़ा से भर उठा। उन्होंने
पुरस्कार लेने से मना कर दिया।
इसके बारे में मुख्यमन्त्री को पत्र लिखते हुए कहा
कि मैंने आज तक कभी एक लाख रु. एक साथ नहीं देखे; इस नाते मेरे लिए इस राशि का बहुत महत्व है; पर
हिन्दी के हृदय प्रदेश में उर्दू को
द्वितीय राजभाषा बनाने से मैं स्वयं को बहुत अपमानित अनुभव कर रहा हूँ। इसलिए मैं
यह पुरस्कार लेने में असमर्थ हूँ। उनके मन-मस्तिष्क पर इस प्रकरण से इतनी चोट
पहुँची कि एक महीने बाद वे पक्षाघात से पीड़ित होकर बिस्तर पर पड़ गये।
सारे देश में उनके इस त्याग की चर्चा होने लगी।
लखनऊ के सांसद और भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री अटलबिहारी वाजपेयी ने यह सुनकर
उन्हें ‘जनता भारत-भारती’ सम्मान
देने की घोषणा की। प्रदेश की हिन्दीप्रेमी जनता के सहयोग से 1,11,111 रु. एकत्र कर 31
जनवरी, 1990 को अटल जी ने लखनऊ में उन्हें सम्मानित किया।
पक्षाघात के कारण उनके पुत्र ने यह राशि स्वीकार की। अटल जी के मन में उनके प्रति
बहुत श्रद्धा थी। वे कार्यक्रम के बाद हिन्दीप्रेमियों के साथ उनके घर गये और
श्रीफल, मानपत्र और अंगवस्त्र उन्हें बिस्तर पर ही भेंट
किया। जनता इस अनोखे समारोह से अभिभूत हो उठी। पक्षाघात की अवस्था में ही हिन्दी के इस दधीचि का 18 अगस्त, 1990 को देहान्त हो गया।
........................
28 सितम्बर/जन्म-दिवस
स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर
अपने सुरीले स्वर में 20 से भी अधिक भाषाओं में 50,000 से भी अधिक गीत गाकर ‘‘गिनीज बुक आॅफ वल्र्ड रिकार्ड’ में नाम लिखा चुकीं स्वर सम्राज्ञी लता मंगेषकर को कौन नहीं जानता ? लता मंगेषकर का जन्म 28 सितम्बर, 1929 को म.प्र. के इन्दौर नगर में हुआ था। उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेषकर मराठी रंगमंच से जुडे़ हुए थे। पाँच वर्ष की छोटी अवस्था में ही लता ने अपने पिता के साथ नाटकों में अभिनय प्रारम्भ कर दिया और उनसे ही संगीत की षिक्षा भी लेने लगीं। जब वे केवल 13 वर्ष की थीं, तब उनके सिर से पिता का वरद हस्त उठ गया। सबसे बड़ी होने के कारण पूरे परिवार के भरण पोषण की जिम्मेवारी उन पर आ गयी। उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सपरिवार मुम्बई आ गयीं। पैसे के लिए उन्हें न चाहते हुए भी फिल्मों में अभिनय करना पड़ा; पर वे तो केवल गाना चाहती थीं। काफी प्रयास के बाद उन्हें 1949 में गाने का अवसर मिला।
फिल्म ‘महल’ और ‘बरसात’ के गीतों से वे गायिका के रूप में फिल्म जगत में स्थापित हो गयीं। पैसा और प्रसिद्धि पाकर भी लता ने अपने परिवार से मुँह नहीं मोड़ा। उन्होंने अपने सब छोटे भाई-बहिनों को फिल्मी दुनिया में काम दिलाया और उनके परिवार बसाये; पर स्वयं वे अविवाहित ही रहीं। अब तक फिल्मी दुनिया के सभी बड़े निर्माता और संगीतकार उनके आसपास चक्कर लगाने लगे थे। गुलाम हैदर, शंकर जयकिषन, एस.डी.बर्मन, सी. रामचन्द्र, मदन मोहन, हेमन्त कुमार और सलिल चौधरी इनमें प्रमुख थे। फिल्म ‘हम दोनों’ में लता द्वारा गाया भजन ‘अल्लाह तेरो नाम’ तथा ‘आनन्द मठ’ में गाया ‘वन्दे मातरम्’ काफी लोकप्रिय हुआ। 1962 में चीन से पराजय के बाद पूरा देश दुखी था। ऐसे में 27 जनवरी, 1963 को दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में आयोजित एक समारोह में सी. रामचन्द्र के निर्देषन में लता ने प्रदीप का लिखा गीत ‘ए मेरे वतन के लोगो’ गाया। इसे सुनकर नेहरू जी की आँखों में आँसू आ गये। आज भी जब यह गीत बजता है, तो हृदय भर आता है।
लता मंगेषकर ने शंकर जयकिषन के संगीत निर्देषन में गीतकार हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र के लिखे गीत गाकर इन दोनों को भी अमर कर दिया। राजकपूर तो उन्हें ‘सरस्वती’ का अवतार मानते थे। साठ के द्शक में वे पाष्र्व गायिकाओं की महारानी कही जाने लगीं। संगीतकार नौशाद गीत की धुन बनाते समय लता जी के स्वर की गहराई और माधुर्य का विशेष ध्यान रखते थे। इसी कारण उनके अनेक गीत आज भी उतनी ही रुचि से सुने जाते हैं। लता जी को भारत और भारतीयता से भी अतीव प्रेम था। वीर सावरकर से अंग्रेज ही नहीं, तो स्वाधीन भारत में नेहरू जी भी बहुत घृणा करते थे। उनके लिखे गीत रेडियो पर कोई नहीं गाता था; पर लता जी ने साहसपूर्वक उनके गीत गाये। अंदमान प्रवास के समय उस काल-कोठरी को देखकर उनकी आंखों में आंसू आ गये, जिसमें वीर सावरकर ने कालेपानी की सजा काटी थी। उन्होंने कहा कि इस छोटी सी कोठरी में कोई कैसे रह सकता है ?
15 अगस्त, 1947 को अंग्रेज तो भारत को छोड़ गये; पर गोवा, दादरा, नगर हवेली, दमन और दीव अभी पुर्तगालियों के ही कब्जे में थे। उनकी मुक्ति की ओर शासन का भी ध्यान नहीं था। ऐसे में संघ के स्वयंसेवकों ने उन्हें मुक्त कराया। इस अभियान हेतु धन जुटाने के लिए लता मंगेशकर ने प्रसिद्ध मराठी गायक व संगीतकार सुधीर फड़के के साथ मिलकर कई कार्यक्रम किये। लता मंगेषकर को गायन के लिए देश और विदेश में हजारों पुरस्कार और सम्मान मिले। कला के क्षेत्र में उनकी व्यापक सेवाओं को देखते हुए राष्ट्रपति ने उन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया। उन्हें पद्म भूषण, पद्म विभूषण और सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ भी दिया गया। छह फरवरी, 2022 को गीत और संगीत की इस देवी का देहांत हुआ।
...............................
28 सितम्बर/जन्म-दिवस
संघनिष्ठ जीवन के प्रतीक सुरेशराव केतकर
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री सुरेश रामचंद्र केतकर का जन्म 28 सितम्बर, 1934 को महाराष्ट्र प्रान्त के पुणे नगर में हुआ था। उनका संघ जीवन भी पुणे से ही प्रारम्भ हुआ और वे वहां की शिवाजी मंदिर सायं शाखा के मुख्यशिक्षक बने। शरीर सौष्ठव एवं शारीरिक कार्यक्रमों के प्रति उनका शुरू से ही रुझान था। शाखा के कार्यक्रमों के साथ अन्य खेलकूद व शारीरिक गतिविधियों में भी उनकी बहुत रुचि थी। इस बारे में उनकी जानकारी भी काफी गहन होती थी।
बी.एस-सी. तथा बी.पीएड. करने के बाद वे एक वर्ष तक अध्यापक रहे और फिर उसे छोड़कर 1959 में प्रचारक बन गये। यह यात्रा क्रमशः सांगली जिला प्रचारक से प्रारम्भ होकर विभाग, प्रांत और क्षेत्र प्रचारक; तथा फिर अखिल भारतीय शारीरिक प्रमुख, सह सरकार्यवाह, अ.भा.प्रचारक प्रमुख से लेकर केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य तक अविराम चलती रही। 1983 में पुणे की तलजाई पहाड़ियों पर हुए विशाल प्रांतीय शिविर तथा 1993 में लातूर में आये भूकम्प के बाद हुए सेवा कार्याें में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
सुरेशराव अपने स्वास्थ्य के प्रति बहुत जागरूक रहते थे। कठोर व्यायाम और संतुलित भोजन से वे सदा स्वस्थ बने रहे। गणवेश के अलावा उन्होंने पैरों में कभी मोजे नहीं पहनेे। पहाड़ी क्षेत्रों में सब स्वाभाविक रूप से गरम पाजामा पहनते हैं। अधिक ऊंचे स्थानों पर तो उसके नीचे एक दूसरा चुस्त ऊनी पाजामा भी पहना जाता है; पर सुरेशराव ने वहां भी सदा धोती और बिना मोजे के जूते ही प्रयोग किये। वे प्रायः रात का भोजन नहीं करते थे। इसके साथ ही वे गणेश चतुर्थी, एकादशी और मंगल के व्रत भी रखते थे।
सुरेशराव की कार्यशैली भाषण की बजाय निजी व्यवहार से दूसरों को सिखाने की थी। वे हर कार्यक्रम में समय से पांच मिनट पहले पहुंच जाते थे। इससे किसी को समयपालन की बात कहने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। जब कोई और कार्यकर्ता बैठक लेता या बौद्धिक देता था, तो वे बहुत वरिष्ठ होने पर भी सब श्रोताओं के साथ सामने जमीन पर ही बैठते थे। कई बार उनसे आग्रह किया गया कि वे मंच पर या नीचे ही कुरसी पर बैठें, पर वे नहीं माने।
सुरेशराव मूलतः शारीरिक विभाग के व्यक्ति थे। शारीरिक के प्रत्येक विषय की वे पूरी जानकारी रखते थे। केन्द्रीय जिम्मेदारियों पर रहने के बावजूद प्रशिक्षण वर्गों में गण लेने में वे कभी संकोच नहीं करते थे। संघ में जब नियुद्ध विषय शुरू हुआ, तो उसमें एकरूपता लाने के लिए 1982-83 में नागपुर में एक प्रशिक्षण वर्ग हुआ। प्रतिदिन आठ घंटे अभ्यास वाले उस वर्ग में सुरेशराव पूरे समय उपस्थित रहे। उनके भाषण भी सूत्रबद्ध, तर्कपूर्ण, सटीक, स्पष्ट और पूरी तरह विषय केन्द्रित होते थे। केन्द्रीय कार्यकर्ताओं पर संघ विचार के कई संगठनों की देखभाल की जिम्मेदारी भी रहती है। सुरेशराव ने इस नाते लम्बे समय तक भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ तथा संस्कार भारती जैसे बड़े धरातल वाले संगठनों की देखभाल की।
केन्द्रीय दायित्व पर रहते हुए कई वर्ष तक उनका केन्द्र लखनऊ रहा। यहां रहते हुए उन्होंने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के प्रत्येक जिले का प्रवास किया। उ.प्र. जनसंख्या के हिसाब से देश का सबसे बड़ा राज्य है। यहां की राजनीतिक गतिविधियां सारे देश को प्रभावित करती हैं। अतः सुरेशराव को राज्य की सत्ता और भारतीय जनता पार्टी में चलने वाली गुटबाजी और उठापटक को भी झेलना पड़ा। उन्होंने यथासंभव इनके समाधान का प्रयास भी किया।
सुरेशराव कर्मठता और समर्पण के मूर्तिमान स्वरूप थे। वृद्धावस्था में जब उन्हें प्रवास में कष्ट होने लगा, तो वे सक्रिय जिम्मेदारियों से मुक्त हो गये। सोलापुर में विभाग प्रचारक रहते हुए उनके प्रयास से कुछ सेवाभावी चिकित्सकों ने लातूर जैसे अत्यन्त पिछड़े क्षेत्र में ‘विवेकानंद चिकित्सालय’ की स्थापना की थी। वहां पर ही 16 जुलाई, 2016 को उन्होंने अंतिम सांस ली।
(संदर्भ : पांचजन्य 31.7.16/संघ प्रवाह एवं हिन्दी विवेक सितम्बर 2016)
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------
28 सितम्बर/जन्म दिवस
सरलचित्त परमानंद मनोहर
विद्यार्थी जीवन में ‘मनोहर’ उपनाम से कविता लिखने वाले श्री परमानंद मनोहर का जन्म राजस्थान के झालावाड़ जिले के एक छोटे नगर मनोहरथाना में 28 सितम्बर, 1946 को श्री हीरालालजी एवं श्रीमती बदरीबाई के घर में हुआ था। उनके परिवार में खेती एवं अनाज की आढ़त होती थी।
प्राथमिक शिक्षा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, मनोहरथाना से और फिर राजगढ़ से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण कर 1967 में वे प्रचारक बन गये। इसके बाद 1971 में विक्रम विश्वविद्यालय से उन्होंने कानून की उपाधि भी ली। 1966, 67 तथा 69 में क्रमशः उन्होंने संघ के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण वर्ग भी पूरे किये। विधि स्नातक होने के बाद वे वकालत कर सकते थे; पर उन्होंनेे जीवन भर प्रचारक रहकर संघ कार्य करने का व्रत ले लिया था।
उनका संघ जीवन 1961 में अपने नगर में लगने वाली शाखा से प्रारम्भ हुआ और फिर क्रमशः संघ के प्रति समर्पण बढ़ता चला गया। तत्कालीन जिला प्रचारक श्री संतोष त्रिवेदी की प्रेरणा से उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय लिया। जून 1967 से 1977 तक वे बड़नगर, खाचरौद तथा शुजालपुर तहसीलों में प्रचारक रहे। आपातकाल में राजगढ़ एवं शाजापुर में उन्होंने संघ पर प्रतिबंध के विरुद्ध जनजागरण किया। इसके लिए ‘महाकाल’ नामक एक साप्ताहिक पत्र भी निकाला, जिसका वितरण करते हुए वे पकड़े गये और ‘मीसा’ में राजगढ़ जेल में बंद रहे। आपातकाल के बाद उन्होंने 1984 तक राजगढ़ और फिर 1992 तक खंडवा के जिला प्रचारक के नाते कार्य किया। इस दौरान मा. भाऊसाहब भुस्कुटे, सुदर्शनजी, बाबासाहब नातू, दत्ताजी उनगांवकर तथा शरद मेहरोत्रा आदि वरिष्ठ प्रचारकों का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
1993 में परमानंदजी को विश्व हिन्दू परिषद में भोपाल एवं ग्वालियर संभाग का संगठन मंत्री बनाया गया। वे 1997 से 2000 तक महाकौशल और वर्ष 2003 तक छत्तीसगढ़ प्रांत संगठन मंत्री रहे। फिर श्री रामजन्मभूमि मंदिर के मुकदमों का कानूनी पक्ष संभालने के लिए वे दिल्ली आ गये। वर्ष 2006 से दिल्ली के केन्द्रीय कार्यालय से निकलने वाले विश्व हिन्दू परिषद के मुखपत्र ‘हिन्दू विश्व’ के प्रचार-प्रसार और प्रकाशन का काम उन पर था।
1996 में कश्मीर में मुस्लिम आतंकियों ने अमरनाथ यात्रा को बाधित करने की चेतावनी दी थी। विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल ने इसे स्वीकार किया और पूरे देश से हर बार की अपेक्षा कई गुना यात्री अमरनाथ पहुंचे। परमानंदजी भी अपने क्षेत्र से 5,000 लोगों को लेकर अमरनाथ गये।
यात्रा से लौटते समय वे हिमपात में घिर गये और 15 दिन तक वहीं फंसे रहे। इससे उनके पैरों और विशेषकर एक अंगूठे में ‘स्नोबाइट’ रोग हो गया। कई तरह के इलाज के बाद चिकित्सकों ने कहा कि यदि उस अंगूठे को नहीं काटेंगे, तो पूरा पैर सड़ जाएगा। कार्यकर्ताओं ने निर्णय लिया यह शल्य क्रिया भोपाल में करानी चाहिए। अतः वे भोपाल आ गये और वहां फिर से इलाज प्रारम्भ हुआ। उन्हीं दिनों वे बैरागढ़ में एक कार्यकर्ता श्री टेकचंदानी के घर गये। वे प्रातःकाल जंगल से कुछ पत्तियां लाये और उन्हें पीसकर लगाने को कहा। उन पत्तियों के प्रभाव और भगवान की कृपा से वह अंगूठा ठीक हो गया।
27 फरवरी, 2002 को गोधरा में मुस्लिम उपद्रवियों ने अयोध्या से लौट रहे 59 तीर्थयात्रियों को जलाकर मार डाला। इससे चारों ओर भय फैल गया। 28 फरवरी को अयोध्या जाने के लिए छत्तीसगढ़ प्रांत की बारी थी। इस भीषण कांड के बाद भी लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ और पूरे 5,000 भक्त वहां गये। ऐसे अनेक प्रसंगों से परमानंदजी का ईश्वर के प्रति विश्वास और दृढ़ हो गया। पिछले कुछ समय से बीमार थे तथा अपने भाई-भतीजों के साथ ही रह रहे थे। वहीं सात अगस्त, 2019 को उनका निधन हुआ।
(संदर्भ : व्यक्तिगत वार्ता)
--------------------------------------------------------------------
29 सितम्बर/बलिदान-दिवस
स्वतन्त्रता सेनानी मातंगिनी हाजरा
भारत के स्वाधीनता आन्दोलन में पुरुषों के साथ-साथ
महिलाओं ने भी कदम से कदम मिलाकर संघर्ष किया था। मातंगिनी हाजरा एक ऐसी ही
बलिदानी माँ थीं, जिन्होंने अपनी अशिक्षा, वृद्धावस्था
तथा निर्धनता को इस संघर्ष में आड़े नहीं आने दिया।
मातंगिनी का जन्म 1870 में ग्राम होगला, जिला मिदनापुर, पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में एक अत्यन्त निर्धन परिवार में हुआ था। गरीबी के कारण 12
वर्ष की अवस्था में ही उनका विवाह ग्राम अलीनान के 62
वर्षीय विधुर त्रिलोचन हाजरा से कर दिया गया; पर
दुर्भाग्य उनके पीछे पड़ा था। छह वर्ष बाद वह निःसन्तान विधवा हो गयीं। पति की पहली
पत्नी से उत्पन्न पुत्र उससे बहुत घृणा करता था। अतः मातंगिनी एक अलग झोपड़ी में
रहकर मजदूरी से जीवनयापन करने लगी। गाँव वालों के दुःख-सुख में सदा सहभागी रहने के
कारण वे पूरे गाँव में माँ के समान पूज्य हो गयीं।
1932 में गान्धी जी के नेतृत्व में देश भर में
स्वाधीनता आन्दोलन चला। वन्देमातरम् का घोष करते हुए जुलूस प्रतिदिन निकलते थे। जब
ऐसा एक जुलूस मातंगिनी के घर के पास से निकला, तो
उसने बंगाली परम्परा के अनुसार शंख ध्वनि से उसका स्वागत किया और जुलूस के साथ चल
दी। तामलुक के कृष्णगंज बाजार में पहुँचकर एक सभा हुई। वहाँ मातंगिनी ने सबके साथ
स्वाधीनता संग्राम में तन, मन, धन
पूर्वक संघर्ष करने की शपथ ली।
मातंगिनी को अफीम की लत थी; पर
अब इसके बदले उनके सिर पर स्वाधीनता का नशा सवार हो गया। 17
जनवरी, 1933 को ‘कर बन्दी आन्दोलन’
को दबाने के लिए बंगाल के तत्कालीन गर्वनर एण्डरसन तामलुक
आये, तो उनके विरोध में प्रदर्शन हुआ। वीरांगना मातंगिनी हाजरा
सबसे आगे काला झण्डा लिये डटी थीं। वह ब्रिटिश शासन के विरोध में नारे लगाते हुई
दरबार तक पहुँच गयीं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और छह माह का सश्रम
कारावास देकर मुर्शिदाबाद जेल में बन्द कर दिया।
1935 में तामलुक क्षेत्र भीषण बाढ़ के कारण हैजा और चेचक
की चपेट में आ गया। मातंगिनी अपनी जान की चिन्ता किये बिना राहत कार्य में जुट
गयीं। 1942 में जब ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’
ने जोर पकड़ा, तो मातंगिनी उसमें
कूद पड़ीं। आठ सितम्बर को तामलुक में हुए एक प्रदर्शन में पुलिस की गोली से तीन
स्वाधीनता सेनानी मारे गये। लोगों ने इसके विरोध में 29
सितम्बर को और भी बड़ी रैली निकालने का निश्चय किया।
मातंगिनी ने गाँव-गाँव में घूमकर रैली के लिए 5,000 लोगों को तैयार किया। सब दोपहर में सरकारी डाक बंगले पर पहुँच गये। तभी पुलिस
की बन्दूकें गरज उठीं। मातंगिनी एक चबूतरे पर खड़ी होकर नारे लगवा रही थीं। एक गोली
उनके बायें हाथ में लगी। उन्होंने तिरंगे झण्डे को गिरने से पहले ही दूसरे हाथ में
ले लिया। तभी दूसरी गोली उनके दाहिने हाथ में और तीसरी उनके माथे पर लगी। मातंगिनी
की मृत देह वहीं लुढ़क गयी।
इस बलिदान से पूरे क्षेत्र में इतना जोश उमड़ा कि दस
दिन मंे ही लोगों ने अंग्रेजों को खदेड़कर वहाँ स्वाधीन सरकार स्थापित कर दी,
जिसने 21 महीने तक काम किया। दिसम्बर,
1974 में प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गान्धी ने अपने प्रवास
के समय तामलुक में मांतगिनी हाजरा की मूर्ति का अनावरण कर उन्हें अपने श्रद्धासुमन
अर्पित किये।
...............................
30 सितम्बर/जन्म-दिवस
आरती लेखक श्रद्धाराम फिल्लौरी
भारत के उत्तरी भाग के मंदिरों में या किसी भी धार्मिक समारोह के अन्त में प्रायः ‘‘ओम जय जगदीश हरे..’’ आरती बोली जाती है। कई जगह इसके साथ ‘कहत शिवानन्द स्वामी’ या ‘कहत हरीहर स्वामी’ सुनकर लोग किन्हीं शिवानन्द या हरिहर स्वामी को इसका लेखक मान लेते हैं; पर सच यह है कि इसके लेखक पंडित श्रद्धाराम फिल्लौरी थे। आरती में आयी एक पंक्ति ‘‘श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ...’’ में उनके नाम का उल्लेख होता है।
श्रद्धाराम जी का जन्म पंजाब में सतलुज नदी के किनारे बसे फिल्लौर नगर में 30 सितम्बर, 1837 को पंडित जयदयालु जोशी एवं श्रीमती विष्णुदेवी के घर में हुआ था। उनके पिताजी कथावाचक थे। अतः बचपन से ही श्रद्धाराम जी को धार्मिक संस्कार मिले। उनका कण्ठ भी बहुत अच्छा था। भजन कीर्तन के समय वे जब मस्त होकर गाते थे, तो लोग झूमने लगते थे।
आगे चलकर श्रद्धाराम जी जब स्वयं भजन आदि रचने लगे, तो फिल्लौर के निवासी होने के कारण वे अपने नाम के आगे ‘फिल्लौरी’ लिखने लगे। श्रद्धाराम जी हिन्दी, पंजाबी, उर्दू, संस्कृत, गुरुमुखी आदि अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। इनमें उन्होंने धर्मिक पुस्तकें भी लिखीं। उनके उपन्यास ‘भाग्यवती’ को हिन्दी के प्रारम्भिक उपन्यासों में से एक माना जाता है।
उन दिनों अंग्रेजी शासन का लाभ उठाकर मिशनरी संस्थाएं पंजाब में लोगों का धर्मान्तरण करा रही थीं। ऐसे में श्रद्धाराम जी ने धर्म-प्रचार के माध्यम से इनका सामना किया। एक बार महाराजा रणधीर सिंह भी धर्म बदलने को तैयार हो गये। जैसे ही श्रद्धाराम जी को यह पता लगा, वे तुरन्त वहां गये और महाराज से कई दिन तक बहस कर उनके विचार बदल दिये।
श्रद्धाराम जी मुख्यतः कथावाचक थे। श्रेष्ठ वक्ता होने के कारण गीता, भागवत, रामायण, महाभारत आदि पर प्रवचन करते समय उनमें वर्णित युद्ध के प्रसंगों का वे बहुत जीवन्त वर्णन करते थे। श्रोताओं को लगता था कि वे प्रत्यक्ष युद्ध क्षेत्र में बैठे हैं; परन्तु इस दौरान वे लोगों को विदेशी और विधर्मी अंग्रेजों का विरोध करने के लिए भी प्रेरित करते रहते थे। एक बार युद्ध का प्रसंग सुनाते हुए वे 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की मार्मिक कहानी बताने लगे। कथा में कुछ सिपाही भी बैठे थे। उनकी शिकायत पर श्रद्धाराम जी को पकड़कर महाराज के किले में बन्द कर दिया गया।
पर उन्होंने कोई सीधा अपराध तो किया नहीं था। फिर उनकी लोकप्रियता को देखते हुए पुलिस वाले उन्हें जेल भेजना भी नहीं चाहते थे। इसलिए उन पर क्षमा मांगने के लिए दबाव डाला गया; पर श्रद्धाराम जी इसके लिए तैयार नहीं हुए। झक मारकर प्रशासन को उन्हें छोड़ना पड़ा। इसके बाद श्रद्धाराम जी फिल्लौर छोड़कर पटियाला रियासत में आ गये। वहां कई दिन प्रतीक्षा करने के बाद उनकी भेंट महाराजा से हुई। महाराज उनकी विद्वत्ता से बहुत प्रभावित हुए। इस प्रकार उन्हंे पटियाला में आश्रय मिल गया। अब उन्होंने फिर से अपना धर्म-प्रचार का काम शुरू कर दिया।
पर पटियाला में वे लम्बे समय तक नहीं रह सके और तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। इस यात्रा के दौरान उन्होंने धर्मग्रन्थों का गहन अध्ययन किया और अनेक पुस्तकें भी लिखीं। ऐसे विद्वान कथावाचक पंडित श्रद्धाराम जी का केवल 44 वर्ष की अल्पायु में 24 जून, 1881 को देहान्त हो गया। लेकिन ‘ओम जय जगदीश हरे’ आरती रचकर उन्होंने स्वयं को अमर कर लिया। फिल्लौर बस अड्डे पर उनकी मूर्ति लगी है, जहां प्रतिवर्ष जन्मदिन पर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है।
---------------------
30 सितम्बर/जन्म-दिवस
कर्नाटक में हिन्दी के सेवक विद्याधर गुरुजी
यों तो भारत में
देववाणी संस्कृत के गर्भ से जन्मी सभी भाषाएँ राष्ट्रभाषाएँ हैं, फिर भी सबसे अधिक बोली और समझी जाने के कारण
हिन्दी को भारत की सम्पर्क भाषा कहा जाता है। भारत की एकता में हिन्दी के इस महत्व
को अहिन्दी भाषी प्रान्तों में भी अनेक मनीषियों ने पहचाना और विरोध के बावजूद
इसकी सेवा, शिक्षण व संवर्धन में
अपना जीवन खपा दिया। ऐसे ही एक मनीषी थे श्री विद्याधर गुरुजी। उनका जन्म ग्राम
गुरमिठकल (गुलबर्गा, कर्नाटक) में 30 सितम्बर, 1914 को एक मडिवाल (धोबी) परिवार में हुआ था। यद्यपि आर्थिक स्थिति
सुधरने से उनके पिता एवं चाचा अनाज का व्यापार करने लगे थे; पर परिवार की महिलाएं दूसरों के कपड़े ही धोती थीं। ऐसे
अशिक्षित, लेकिन संस्कारवान परिवार
में उनका बचपन बीता।
1931 में जब भगतसिंह
को फांसी हुई, तो वे कक्षा सात
में पढ़ते थे। उन्होंने अपने साथियों के साथ नारे लगाते हुए गांव में जुलूस
निकाला। इस पर उन्हें पाठशाला से निकाल दिया गया। 1938 में जब आर्य समाज ने निजामशाही के विरुद्ध आन्दोलन किया,
तो उन्होंने उसमें बढ़-चढ़ कर भाग लिया। इससे
निजाम शासन ने उनके विरुद्ध वारंट जारी कर दिया। आर्य नेता श्री बंसीलाल ने उन्हें
लाहौर जाकर पढ़ने को कहा। वहां दयानन्द उपदेशक महाविद्यालय, अनारकली से उन्होंने ‘सिद्धान्त शास्त्री’ की उपाधि प्राप्त की।
1942 में जब ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ हुआ, तो वे उसमें कूद
पड़े। इस प्रकार वे निजाम और अंग्रेज दोनों की आंखों के कांटे बन गये; पर वे कभी झुके या दबे नहीं। स्वतन्त्रता के
बाद हैदराबाद और कर्नाटक को जब निजामशाही से मुक्ति मिली, तो विद्याधर जी कांग्रेस से जुड़ गये और नगरपालिका के सदस्य
बने। 1962 में श्री राजगोपालाचारी
द्वारा निर्मित ‘स्वतन्त्र पार्टी’
की ओर से चुनाव जीतकर वे गुरमिठकल से ही विधान
सभा में पहुंच गये।
उनकी इच्छा
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद ही विवाह करने की थी; पर होसल्ली के ग्राम-प्रधान ने बताया कि उनके गांव में
पिछड़े वर्ग की एक लड़की पढ़ना चाहती है। परिवार की निर्धनता को देखकर पादरी दबाव
डाल रहे हैं कि धर्म बदलने पर वे उसकी पढ़ाई का खर्चा उठा लेंगे। विद्याधर जी ने
वहां जाकर पुरुषों को समझाकर उनका यज्ञोपवीत संस्कार कराया। जब कन्या के पिता ने
घर की निर्धनता और उसके विवाह की चर्चा की, तो विद्याधर जी स्वयं तैयार हो गये। उन्होंने विवाह के बाद
अपनी पत्नी की शिक्षा का प्रबन्ध किया। पत्नी भी उनके सामाजिक कार्यों में सदा
सहयोगी रही।
1937 में गांधी जी ने
उन्हें हिन्दी के लिए काम करने को कहा। विद्याधर जी ने यादगिरी में छह पाठशालाएं
प्रारम्भ कर 8,000 बीड़ी मजदूरों
को हिन्दी सिखायी। तबसे उनके नाम के साथ ‘गुरुजी’ स्थायी रूप से
जुड़ गया। भाग्यनगर (हैदराबाद) की ‘हिन्दी प्रचार
सभा’ दक्षिण भारत में हिन्दी
के प्रचार-प्रसार के लिए काम करने वाली प्रमुख संस्था है। विद्याधर गुरुजी 23 वर्ष तक उसके अध्यक्ष रहे। विधानसभा और विधान
परिषद में वे प्रायः हिन्दी में ही बोलते थे। 1962 में कर्नाटक के मुख्यमन्त्री रामकृष्ण हेगड़े ने उन्हें
राज्यसभा में भेजने का प्रस्ताव किया; पर विद्याधर गुरुजी ने मना कर दिया।
आयुर्वेद,
प्राकृतिक चिकित्सा और सादगी प्रिय गुरुजी ने
कभी चश्मा नहीं लगाया। अंग्रेजी दवा नहीं खाई तथा चलने के लाठी या लिफ्ट का प्रयोग
नहीं किया। वे सदा प्रसन्न रहते थे। हिन्दी और हिन्दुस्थान की सेवा में रत ऐसे
तपस्वी और यशस्वी महापुरुष का 30 जुलाई, 2017 को कलबुर्गी में
देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी देह चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के अध्ययन एवं
शोध के लिए महादेवप्पा रामपुर मैडिकल काॅलिज को दान कर दी गयी। .............................
30 सितम्बर/पुण्य-तिथि
प्रखर देशभक्त सूफी अम्बाप्रसाद
सूफी अम्बाप्रसाद का जन्म 1858 में मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) के एक सम्पन्न भटनागर परिवार में हुआ
था। जन्म से ही उनका दाहिना हाथ नहीं था। कोई पूछता, तो
वे हंसकर कहते कि 1857 के संघर्ष में एक हाथ कट गया था। मुरादाबाद,
बरेली और जालंधर में उन्होंने शिक्षा पायी। पत्रकारिता में
रुचि होने के कारण कानून की परीक्षा उत्तीर्ण करने पर भी उन्होंने वकालत के बदले ‘जाम्मुल अमूल’ नामक समाचार पत्र निकाला। उनके विचार पढ़कर नवयुवकों
में जागृति की लहर दौड़ने लगी।
सूफी जी विद्वान तो थे ही; पर
बुद्धिमान भी बहुत थे। उन्हें पता लगा कि भोपाल रियासत में अंग्रेज अधिकारी जनता
को बहुत परेशान कर रहा है। वे वेष बदलकर वहां गये और उसके घर में झाड़ू-पोंछे की
नौकरी कर ली। कुछ ही दिन में उस अधिकारी के व्यवहार और भ्रष्टाचार के विस्तृत
समाचार देश और विदेश में छपने लगे। अतः उसका स्थानांतरण कर दिया गया।
बौखलाकर उसने घोषणा की कि जो भी इस समाचारों को
छपवाने वाले का पता बताएगा, उसे वे पुरस्कार देंगे। यह
सुनकर सूफी जी सूट-बूट पहनकर पुरस्कार के लिए उसके सामने जा खड़े हुए। उन्हें देखकर
वह चौंक गया। सूफी जी ने अंग्रेजी में बोलते हुए उसे बताया कि वे समाचार मैंने ही
छपवाये हैं। उसका चेहरा उतर गया, फिर भी उसने अपने हाथ की घड़ी
उन्हें दे दी।
1897 में उन पर शासन के विरुद्ध विद्रोह का मुकदमा
चलाया गया। उन्होंने अपना मुकदमा स्वयं लड़ा, जिसमें
उन्हें 11 वर्ष के कठोर कारावास का दंड दिया गया। वहां से
छूटकर वे फिर स्वाधीनता की अलख जगाने लगे। इस पर उनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर
उन्हें फिर से जेल भेज दिया गया।
जेल से छूटकर वे लाहौर आ गये और वहां से ‘हिन्दुस्तान’ नामक समाचार पत्र निकाला। जब वहां भी धरपकड़ होने
लगी, तो वे अपने मित्रों के साथ नेपाल चले गये; पर शासन नेपाल से ही उन्हें पकड़कर लाहौर ले आया और पत्र निकालने के लिए उन पर
मुकदमा चलाया। उनकी सारी पुस्तकें व साहित्य जब्त कर लिया गया; पर सूफी जी शासन की आंखों में धूल झोंककर ईरान चले गये और वहां से ‘आबे हयात’ नामक पत्र निकालने लगे। ईरान के लोग आदरपूर्वक
उन्हें ‘आका सूफी’ कहते थे।
1915 में अंग्रेजों ने ईरान पर कब्जा करना चाहा। जिस
समय शीराज पर घेरा डाला गया, तो ईरान के स्वतंत्रता प्रिय
लोगों के साथ ही सूफी जी भी बायें हाथ में ही पिस्तौल लेकर युद्ध करने लगे;
पर अंग्रेज सेना संख्या में बहुत अधिक थी और उनके पास
अस्त्र-शस्त्र भी पर्याप्त थे। अतः वे पकड़े गये और उन्हें कारावास में डाल दिया
गया। अंग्रेज उन्हें फांसी पर चढ़ाकर मृत्युदंड देना चाहते थे; पर सूफी जी ने उससे पूर्व ही 30 सितम्बर, 1915 को योग साधना द्वारा अपना शरीर छोड़ दिया।
थोड़े ही समय में यह समाचार सब ओर फैल गया। सूफी जी
के प्रति लोगों में अत्यधिक श्रद्धा थी। अतः उनकी शवयात्रा में हजारों लोग शामिल
हुए। एक सुंदर स्थान पर उनको दफना कर समाधि बना दी गयी। उस स्थान पर आज भी ईरान के
लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं।
(संदर्भ :
मातृवंदना, क्रांतिवीर नमन अंक, मार्च-अपै्रल
2008)
मैं नियमित रूप से आज का पावन दिन पड़ता हूँ ।मुझे लगता है सोशल मीडया का जमाना है उसको देखते हुए इसमें एक दो चीजो को और जोड़ा जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएं1. प्रथम तो जहाँ तक हो सके जिनके भी फोटो उपलब्ध हूँ वे साथ में होने से प्रभाव भादेगा ।
2. दिव्तीय पोस्ट को शेयर करने का आप्शन होने से फेसबुक व् ट्विटर पर जयादा लोगो तक पहुच बनेगी ।
।। जय श्री कृष्ण ।।
मैं नियमित रूप से आज का पावन दिन पड़ता हूँ ।मुझे लगता है सोशल मीडया का जमाना है उसको देखते हुए इसमें एक दो चीजो को और जोड़ा जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएं1. प्रथम तो जहाँ तक हो सके जिनके भी फोटो उपलब्ध हूँ वे साथ में होने से प्रभाव भादेगा ।
2. दिव्तीय पोस्ट को शेयर करने का आप्शन होने से फेसबुक व् ट्विटर पर जयादा लोगो तक पहुच बनेगी ।
।। जय श्री कृष्ण ।।
माननीय सत्यनारायण जी जन्मदिवस १०सितंबर १९२७ है, कृपया २७ सितंबर से यह वृत १० सितंबर में स्थानांतरित कर, धन्यवाद
जवाब देंहटाएं🙏 श्रद्धेय अशोक जी सिंहल की जीवन-वृत के अंतिम पद्यांश में श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र की जानकारी के साथ परिवर्तन आवश्यक है, धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं🙏 विजय जी,श्री विद्याधर गुरूजी का १०३ वर्ष की सुदीर्घ व यशस्वी आयु में ३० जुलाई २०१७ के परलोक गमन हो गया। कृपया ब्लॉग में सम्मिलित करें।
जवाब देंहटाएंहर दिन पावन आप यूट्यूब के https://www.youtube.com/c/HansBhaktiMala चैनल भी देख सकते हैं |
जवाब देंहटाएं