जन्मजात संघचालक बबुआ जी
बिहार में राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ की बहुविध गतिविधियों के पर्याय बने श्री कृष्णवल्लभ प्रसाद नारायण सिंह (बबुआ
जी) का जन्म 16 सितम्बर, 1914 को नालन्दा जिले के रामी बिगहा ग्राम में रायबहादुर ऐदल सिंह के घर में हुआ
था। बाल्यकाल में परिवार के सभी सदस्यों के नालन्दा से गया आ जाने के कारण उनका
अधिकांश समय गया में ही बीता।
संघ की स्थापना के बाद डा. हेडगेवार जब बिहार गये, तो वहाँ उनका सम्पर्क बबुआ जी से हुआ। डा. जी की पीठ में बहुत दर्द रहता था। इसीलिए वे राजगीर (राजगृह) गये थे। वहाँ के
गर्म झरने में बैठने से इस रोग में आराम मिलता है। उस समय डा. जी की सब प्रकार की चिन्ता और व्यवस्था बबुआ जी ने ही की थी। डा. जी की दृष्टि बहुत पारखी थी। वे समझ गये कि बबुआ जी संघ कार्य के लिए बहुत
उपयोगी होंगे। डा0 जी ने उन्हें सर्वप्रथम गया नगर का संघचालक नियुक्त किया। इस प्रकार 24 वर्ष की युवावस्था
में वे संघ से जुड़े और फिर जीवन भर काम करते रहे।
बबुआ जी से डा. जी का परिचय हिन्दू महासभा के भागलपुर अधिवेशन में हुआ था। वहाँ डाक्टर
हेडगेवार ने उन्हें पुणे और नागपुर के संघ शिक्षा वर्गों को देखने के लिए
आमन्त्रित किया। बबुआ जी मुम्बई होते हुए डा. हेडगेवार के साथ
नागपुर आये। रेलवे स्टेशन पर डा. जी का स्वागत करने के लिए नागपुर वर्ग के सर्वाधिकारी
श्री गुरुजी माला लेकर उपस्थित थे। डा. हेडगेवार ने हँसते
हुए कहा कि माला मुझे नहीं इन्हें पहनाइये। इस पर गुरुजी ने बबुआ जी का माला
पहनाकर अभिनन्दन किया।
बबुआ जी का सम्पर्क सामाजिक
क्षेत्र की सैकड़ों महान हस्तियों से था। पटना स्थित उनके घर पर अनेक ऐसे लोग पधारे
थे। उन्होंने आँगन में एक शिलापट पर ऐसे महान् लोगों के नाम लिखे थे, जिनके आने से वह घर पवित्र हुआ। बबुआ जी ऐसे व्यक्ति
थे, जिन्होंने संघ के पाँच सरसंघचालकों के साथ काम किया।
ऐसे सौभाग्यशाली लोग कम ही होते हैं। जब तक उनका शरीर सक्रिय रहा, वे संघ कार्य करते रहे।
अत्यधिक सम्पन्न परिवार के होने
के बाद भी बबुआ जी सदा स्वयं को सामान्य स्वयंसेवक ही समझते थे। जब भी कोई संकट का
समय आया, उन्होंने आगे बढ़कर उसे अपने सीने पर झेला। वीर सावरकर
के कहने पर वे 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के समय भागलपुर जेल में बन्द रहे। 1948 और 1977 में संघ पर
प्रतिबन्ध के समय तथा 1992 में श्री रामजन्मभूमि आन्दोलन के समय भी वे जेल गये। जीवन की चौथी अवस्था में
भी उन्होंने जेल का भोजन किया और सबके साथ जमीन पर ही सोये।
बबुआ जी को डा. हेडगेवार ने संघचालक नियुक्त किया था। इस प्रकार वे जन्मजात संघचालक थे। नगर
संघचालक से लेकर क्षेत्र संघचालक और अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य तक के दायित्व
उन्होंने निभाये। जब शरीर थकने लगा, तो उन्होंने संघ के वरिष्ठ अधिकारियों से निवेदन किया कि अब उन्हें दायित्व से
मुक्त किया जाये, वे सामान्य स्वयंसेवक की तरह भी कुछ समय रहना चाहते
हैं। उनकी इच्छा का सम्मान किया गया।
18 दिसम्बर, 2007 को 93 वर्ष की सुदीर्घ आयु में उनका देहान्त हुआ। उनकी इच्छानुसार उनका अन्तिम
संस्कार अधिकांश समय तक उनके कार्यक्षेत्र रहे गया नगर में ही किया गया।
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16 सितम्बर/जन्म-दिवस
भारतीय संगीत की आत्मा शुभलक्ष्मी
1998 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत तथा एम.एस के नाम से प्रसिद्ध मदुरै षण्मुखवडिवु शुभलक्ष्मी का जन्म 16 सितम्बर, 1916 को तमिलनाडु के मदुरै नगर में हुआ था। उनकी माता वीणा तथा दादी वायलिन बजाती
थीं। उन्होंने शुभलक्ष्मी को श्री आर्यकुड़ी, श्रीनिवास अय्यर तथा रामानुज आयंगर जैसे गुरुओं से संगीत की शिक्षा दिलाई।
प्रारम्भ से ही कर्नाटक संगीत
की ओर रुझान होने के कारण कक्षा पांच तक पढ़ने के बाद वे अपना पूरा समय संगीत
शिक्षण में ही लगाने लगीं। 10 वर्ष की अवस्था में ही उनकी पहली संगीत डिस्क बाजार में आ गयी थी। 17 वर्ष की होने पर उन्होंने
चेन्नई की प्रसिद्ध ‘संगीत अकादमी’ में अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया। इसके बाद उन्होंने पंडित नारायण व्यास से
भारतीय शास्त्रीय गायन सीखकर भारत की अनेक भाषाओं में गीत गाये। इस प्रकार तीन
पीढ़ियों की विरासत के साथ ही अच्छे गुरुओं का स्नेह भी उन्हें मिला।
उन्होंने कई फिल्मों में अभिनय
भी किया। इसमें सबसे प्रसिद्ध तमिल तथा हिन्दी में बनी ‘मीरा’ थी। 1945 में बनी इस फिल्म में उन्होंने मीरा के कई भजनों को स्वर भी दिया। इसके
प्रारम्भ में ‘भारत कोकिला’ श्रीमती सरोजिनी नायडू ने उनका परिचय दिया है। उनके अभिनय की प्रशंसा गांधी जी
ने भी की। गांधी जी के कहने पर उन्होंने हिन्दी सीखकर हिन्दी में भी गीत गाये।
1947 में मीरा फिल्म के उद्घाटन के बाद वे दिल्ली के बिड़ला हाउस में गांधी जी से
मिलीं। वहां उन्होंने रामधुन तथा मीरा के भजन सुनाए। गांधी जी ने कहा कि यदि तुम
बिना गाये भी मीरा के भजन बोलो, तो वे बहुत अच्छे
लगते हैं। सुचेता कृपलानी के आग्रह पर उन्होंने गांधी जी का प्रिय भजन ‘हरि तुम हरो, जनन की पीर’ रिकार्ड कर भेजा। 1941 में सेवाग्राम की प्रार्थना सभा में उनके भजन सुनकर गांधी जी ने उन्हें ‘आधुनिक मीरा’ की उपाधि दी।
1953 में दिल्ली में आयोजित कर्नाटक संगीत के एक समारोह में उनके गीत सुनकर नेहरू
जी ने कहा, ‘‘शुभलक्ष्मी के संगीत में दिल के तारों को हिला देने
की शक्ति है। वे संगीत की रानी हैं। उनके सामने मैं क्या हूं, केवल भारत का प्रधानमंत्री ही तो।’’ गायनाचार्य श्री ओंकार ठाकुर उनके कंठ से ‘शंकराभरणम्’ सुनकर अभिभूत हो उठे। उन्होंने मंच पर जाकर
शुभलक्ष्मी को बधाई दी।
एक समारोह में जब उन्होंने ‘पन्तुवराली राग’ गाया, तो 90 वर्षीय उस्ताद अल्लादिया खां की आंखों में आंसू आ गये। भारत के सभी प्रसिद्ध
गायकों और संगीतकारों ने उन्हें तपस्विनी, सुस्वरलक्ष्मी, सुखलक्ष्मी, संगीत का आठवां स्वर जैसी उपाधियां दीं। उन्होंने गायन की अपनी शैली भी विकसित
की। उन्होंने
भारत के सांस्कृतिक राजदूत के नाते दुनिया भर के संगीत समारोहों में भाग लिया। 24 अक्तूबर, 1966 को संयुक्त राष्ट्र संघ दिवस पर आयोजित महासभा में उन्होंने कांची पीठ के
श्रीमद् परमाचार्य द्वारा रचित ‘मैत्री राग’ गाया। देश-विदेश से उन्हें सैकड़ों उपाधियां तथा मान-सम्मान प्राप्त हुए।
1940 में उनका विवाह एक क्रांतिकारी श्री त्यागराज सदाशिवन् से हुआ। उन्होंने
शुभलक्ष्मी की प्रतिभा को बहुत निखारा। 1996 में पति की मृत्यु के बाद उन्होंने सार्वजनिक गायन बंद कर दिया। चार दिसम्बर 2004 को स्मृतिभ्रंश की
शिकार होकर यह ‘आधुनिक मीरा’ सदा के लिए मौन हो गयीं।
(संदर्भ : कलाकुंज भारती, फरवरी 2009 तथा अंतरजाल सेवा)
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16 सितम्बर/इतिहास-स्मृति
जब गांधीजी संघ की शाखा में आये
1948 में गांधीजी की हत्या के बाद नेहरुजी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। उन्हें संदेह था कि इस षड्यंत्र में संघ भी शामिल है; पर न्यायालय ने संघ को साफ बरी कर दिया। प्रतिबंध भी हटा दिया गया। इस दौरान कांग्रेसियों ने संघ के खिलाफ बहुत जहर उगला। सरकारी प्रचार माध्यम भी उनके ही पास थे। इससे यह धारणा बन गयी कि गांधीजी संघ के विरोधी हैं; पर सच ये है कि वे संघ के अनुशासन, सादगी और छुआछूत विरोधी विचारों के बड़े प्रशंसक थे। वे 1934 में वर्धा में संघ के शिविर में तथा 1947 में दिल्ली में संघ की शाखा में आये थे।
दिल्ली में मंदिर मार्ग पर एक वाल्मीकि बस्ती है। तब उसे भंगी कालोनी कहते थे। वहां बिड़लाजी ने एक मंदिर तथा पुजारियों के लिए तीन कमरे बनवा दिये थे; पर कोई पुजारी वहां रहता नहीं था। कमरों के पीछे मैदान में संघ की प्रभात शाखा लगती थी। खाली पड़ा देखकर स्वयंसेवकों ने वे कमरे साफ कर लिये और कुछ लोग वहां रहने लगे। वहां प्रायः संघ की बैठक आदि भी होने लगीं। इससे वह स्थान अघोषित रूप से संघ कार्यालय जैसा हो गया। एक बार गांधीजी के कुछ साथी (बृजकृष्ण चांदीवाला, कृष्णन नायर, प्यारेलाल, सुशीला नैयर आदि) वहां आये। उन्होंने कहा कि गांधीजी कुछ समय यहां रहना चाहते हैं। इस पर स्वयंसेवकों ने कमरे खाली कर दिये। वे लोग अपना सामान वहां ले आये। फिर उन्होंने मैदान में दो मिलट्री वाली छोलदारियां (टैंट) लगाकर उनमें दरी आदि बिछवा दीं। स्वयंसेवक उनमें रहने लगे।
वहां एक बड़ा कमरा था। उसमें उन्होंने दरी, गद्दे, तकिये आदि लगा लिये। छोटे कमरे में गांधीजी का आवास था और बड़े कमरे में बाकी सबका। गांधीजी बड़े कमरे में ही सबसे मिलते थे। प्रतिदिन प्रार्थना सभा भी उसी में होती थी। उस दौरान जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद जैसे कांग्रेस के बड़े नेता और लार्ड माउंटबेटन आदि उनसे मिलने आते रहते थे।
शाखा के कार्यक्रमों के शोर से गांधीजी को कष्ट न हो, ये सोचकर स्वयंसेवकों ने कुछ दिन बाद शाखा का स्थान कुछ दूर कर लिया। गांधीजी प्रतिदिन सुबह टहलते थे। एक दिन वे शाखा पर आ गये। 60-70 युवाओं को देखकर उन्होंने कुछ पूछताछ की और किसी दिन स्वयंसेवकों से बात करने की इच्छा व्यक्त की। दिल्ली में उन दिनों श्री वसंतराव ओक प्रांत प्रचारक थे। वे यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए। गांधीजी से मिलकर 16 सितम्बर, 1947 को सुबह छह बजे का समय तय हुआ। उस दिन वहां दिल्ली की सभी शाखाओं के गटनायक तथा उससे ऊपर के कार्यकताओं का पूर्ण गणवेश में एकत्रीकरण हुआ। लगभग 600 कार्यकर्ता वहां उपस्थित थे।
मैदान में सादगीपूर्ण सज्जा और रेखांकन किया गया था। ध्वजस्थान के पास एक मंच भी बना था। ठीक छह बजे गांधीजी आ गये। उनके आने पर ध्वजारोहण, प्रार्थना और फिर ध्वजावतरण हुआ। गांधीजी ने भी सबके साथ दक्ष में खड़े रहकर प्रार्थना की। फिर उनसे मंच पर आने का निवेदन किया गया। गांधीजी और उनके साथी मंच पर आ गये। विशेष बात यह थी कि संघ का कोई पदाधिकारी मंच पर नहीं बैठा। वे सब सामने पंक्तियों में ही बैठे थे। गांधीजी ने अपने भाषण में मुख्यतः देश की एकता को बनाये रखने की बात की। सब स्वयंसेवक शांतिपूर्वक उन्हें सुनते रहेे। कहीं कोई व्यवधान नहीं था। उन्होंने मुसलमानों को भी संघ में लाने का आग्रह किया।
भाषण के बाद उन्होंने कहा कि किसी को कोई प्रश्न पूछना हो तो कहे; पर किसी ने प्रश्न नहीं पूछा। अतः कार्यक्रम समाप्त हो गया। संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी गांधीजी को उनके आवास तक छोड़कर आये। इस प्रकार गांधीजी का दिल्ली की संघ शाखा पर प्रवास पूरा हुआ।
(संदर्भ : चाणक्य वार्ता पाक्षिक, 16.3.2020)
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17
सितम्बर/पुण्य-तिथि
पहले विमान के
निर्माता शिवकर बापूजी तलपड़े
1895 की बात है।
मुंबई की चैपाटी पर हर दिन की तरह घूमने वालों की भीड़ थी। अचानक लोगों ने देखा कि
एक राजसी बग्घी वहां आकर रुकी। उससे बड़ोदरा के राजा सयाजीराव गायकवाड़ उतरे। इससे
लोगों को लगा कि आज यहां कुछ खास होने वाला है। कुछ ही देर में महान समाज सुधारक
तथा कांग्रेस के बड़े नेता न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे भी वहां आ गये।
तभी लोगों ने
देखा कि वहां लकड़ी से बना पक्षी जैसा एक यंत्र लाया गया है। उसे लाने वाले थे 31 वर्षीय शिवकर बापूजी तलपड़े। उन्होंने कहा कि
यह एक विमान है, जिसका नाम मैंने ‘मरुत्सखा’ रखा है। मरुत$सखा अर्थात वायु का मित्र। रामकथा में जिस पुष्पक विमान की चर्चा हुई है,
यह उसी का प्रतिरूप है। यह विमान मैंने अपने
गुरु श्री सुब्बाराय शास्त्री के निर्देशन में बनाया है। इस मानवरहित विमान का
परीक्षण अब मैं आपके सामने करूंगा।
इतना कहकर
उन्होंने उसे उड़ाया। वह लगभग 15 मिनट तक हवा में
रहकर गिर गया। इस दौरान वह 1,500 फुट की ऊंचाई तक
गया। पूरा चैपाटी तालियों से गूंज उठा। अगले दिन लोकमान्य तिलक के अखबार ‘केसरी’ में इस पर संपादकीय प्रकाशित हुआ। अब तक विमान का आविष्कार नहीं हुआ था। इसलिए
यह घटना दुनिया भर के लिए आश्चर्यजनक थी। प्रयोग के बाद काफी समय तक वह विमान
बापूजी के घर पर ही रखा रहा। उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई भी उस समय वहीं थीं। वे भी वेद
तथा वास्तुकला की विद्वान थीं।
शिवकर बापूजी
तलपड़े का जन्म 1864 में मुंबई के
पठारे प्रभु परिवार में हुआ था। वे बचपन से ही आर्य समाज और महर्षि दयानंद से
प्रभावित थे। ‘जे.जे.स्कूल आॅफ
आटर््स’ से पढ़ाई कर वे वहीं
अध्यापक हो गये। अपने गुरु चिरंजीलाल वर्मा से उन्होंने संस्कृत सीखी। फिर
उन्होंने महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा लिखित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ऋग्वेद एवं यजुर्वेद भाष्य तथा महर्षि भरद्वाज
की विमान संहिता का अध्ययन किया। वहां से प्राचीन विमान विद्या के सूत्र खोजकर
उन्होंने एक प्रयोगशाला बनायी। फिर बंगलुरु निवासी ‘वैमानिक शास्त्र’ के लेखक सुब्बाराय शास्त्री के निर्देशन में यह विमान बनाया।
कहते हैं कि
शास्त्री जी ने कर्नाटक के कोलार में एक तपस्वी से यह विद्या सीखी थी। उन्होंने एक
प्रशिक्षु इंजीनियर टी.के.अलापा तथा एक स्थानीय पुजारी जी.वी.शर्मा से सहयोग लिया।
लकड़ी और बांस से बने इस विमान में तरल पारे का प्रयोग हुआ था। सूर्य की गरमी से
इसमें से हाइड्रोजन बनने लगी, जो हवा से हल्की
होती है। इससे विमान उड़ने लगा।
पर उस समय देश
पराधीन था। अंग्रेज भला यह कैसे सहन करते कि किसी भारतीय ने विमान बनाया है। अतः
देश और विदेश के अंग्रेजी मीडिया ने यह समाचार प्रकाशित नहीं किया। इससे बापूजी को
कहीं से सहायता नहीं मिली और धनाभाव में यह काम आगे नहीं बढ़ सका। 1903 में अमरीका के कैरोलिना समुद्र तट पर राइट
भाइयों ने भी विमान उड़ाया। उनका विमान 11 सैकंड में केवल 120 फुट की ऊंचाई तक
ही पहुंचा। पर उन्हें ही
विमान का आविष्कारक माना जाता है।
बापूजी ने अनेक
पुस्तकें लिखीं। इनमें प्राचीन विमान कला का शोध; ऋग्वेद प्रथम सूक्त व उसका अर्थ; पातंजलि योग दर्शनान्तर्गत शब्दों का अर्थ; मन और उसका बल; गुरुमंत्र महिमा आदि प्रमुख हैं। उन्होंने संस्कृत एवं
मराठी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। 17 सितम्बर, 1917 को इस विमान वैज्ञानिक का निधन हो गया। उनके काम पर 2015 में ‘हवाईजादा’ फिल्म बनी है।
यद्यपि उनके काम को आज भी कई लोग मान्यता नहीं देते।
(विकी/पाथेय कण 1.9.2024/9,
हरिशंकर गोयल ‘श्री हरि’)
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17 सितम्बर/जन्म-दिवस
अमर चित्रकथा के शिल्पी अनंत पै
कहानी पढ़ना किसे अच्छा नहीं
लगता; शायद ही कोई बच्चा हो, जिसने अपनी दादी-नानी या मां से कहानी न सुनी हो। बड़े होने पर अपने विद्यालय
की पुस्तकों के साथ ही पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाली कहानी और कविताएं भी बच्चे
बड़ी रुचि से पढ़ते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें चित्र देखने में भी बहुत मजा आता है।
इसमें से ही साहित्य की चित्रकथा विधा का जन्म हुआ।
भारतीय इतिहास तथा पौराणिक
पात्रों के आधार पर चित्रकथा बनाने वाले अनंत पै का जन्म 17 सितम्बर, 1929 को करकाला (कर्नाटक) में श्री वैंकटार्य एवं सुशीला पै के घर में हुआ था। दो
वर्ष के होते-होते उनके माता-पिता का देहांत हो गया। अनंत 12 वर्ष की अवस्था में
मुंबई आ गये और माहिम स्थित ओरियेंट स्कूल में पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने मुंबई
विश्वविद्यालय से भौतिकी, रसायन और रसायन तकनीक में एक साथ दो उपाधियां प्राप्त
की।
चित्र और छपाई कला में रुचि
होने के कारण अनंत पै ने 1954 में ‘मानव’ नामक बाल पत्रिका निकाली; पर उसमें सफल न
होने पर वे ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में काम करने लगे। उन दिनों उसमें बेताल और फैंटम जैसे विदेशी पात्रों पर
आधारित ‘इंद्रजाल कामिक्स’ नामक चित्रकथा छपती थी। 1967 में अनंत पै ने दूरदर्शन के एक प्रश्नोत्तर कार्यक्रम में देखा कि बच्चे
विदेशी नायकों के बारे में तो जानते हैं; पर श्रीराम और श्रीकृष्ण के बारे में नहीं। इससे उनके मन को चोट लगी और
उन्होंने टाइम्स ऑफ़ इंडिया से त्यागपत्र दे दिया।
अब वे स्वतन्त्र रूप से इस दिशा
में काम करना चाहते थे; पर उनके पास इतना धन नहीं था। अनेक प्रकाशकों ने उनके
विचारों को ठुकरा दिया; पर ‘इंडिया बुक हाउस’ के श्री मीरचंदानी के सहयोग से ‘अमर चित्रकथा’ प्रकाशित होने लगी। बच्चों के साथ ही उनके अभिभावक और अध्यापकों ने भी इनका
भरपूर स्वागत किया। भारत के महापुरुष, वीर महिलाएं, पौराणिक पात्र, प्रख्यात वैज्ञानिक, स्वाधीनता सेनानी आदि विषयों पर उन्होंने लगभग 450 पुस्तकें बनाईं।
इनकी देश की 20 भाषाओं में दस करोड़ प्रतियां बिकीं।
अब वे बच्चों में ‘अनंत चाचा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। 1969 में उन्होंने ‘रंग रेखा फीचर्स’ तथा 1980 में अंग्रेजी बालपत्रिका ‘टिंकल’ प्रारम्भ की। इसके पहले अंक की 40 हजार प्रतियां बिकीं। इसके कार्टून पात्र कपीश, रामू और शामू, सुपंडी, शिकारी शंभू और तंत्री दि मंत्री आदि बच्चों में खूब लोकप्रिय हुए। इसके ‘अनु क्लब’ द्वारा उन्होंने बच्चों में विज्ञान को लोकप्रिय
बनाया। उनके पास हर मास चार से पांच हजार पाठकों के पत्र आते थे।
अनंत चाचा की सफलता का कारण
उनकी विशिष्ट शैली थी। वे काम करते समय स्वयं बच्चों की मानसिकता में डूब जाते थे।
उन्होंने अनेक साथी बनाये, जिनमें श्री राम वेरकर प्रमुख हैं। उन्होंने हिन्दी
तथा अंग्रेजी में बच्चों के लिए सफलता के रहस्य, व्यक्तित्व विकास, स्मृति शास्त्र आदि पुस्तकें तथा वेदों की जानकारी
देने के लिए ‘एकम् सत्’ नामक वीडियो फिल्म भी बनाई। कहानी सुनाते हुए उनके कई आडियो टेप भी लोकप्रिय
हुए।
श्री अनंत पै सदा नये विचारों
पर काम करते रहते थे। वृद्ध होने पर भी वे भारत के विभिन्न तीर्थों तथा भारतीय
इतिहास की 40 महत्वपूर्ण घटनाओं पर आधारित एक बड़े प्रकल्प पर काम कर रहे थे; पर सीढ़ियों से गिर जाने के कारण उनकी कूल्हे ही हड्डी
टूट गयी। अतः उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। वहीं 24 फरवरी, 2011 को हुए भीषण हृदयाघात से बच्चों के प्रिय अनंत चाचा सचमुच अनंत की यात्रा पर
चले गये। दूरदर्शन और अंतरजाल के वर्तमान दौर में भी उनकी पुस्तकों की लगभग तीन
लाख प्रतियां प्रतिवर्ष बिकती हैं।
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17 सितम्बर/जन्म-दिवस
अक्षर पुरुष बापू वाकणकर
दुनिया भर में लिपि विशेषज्ञ के
नाते प्रसिद्ध श्री लक्ष्मण श्रीधर वाकणकर लोगों में बापू के नाम से जाने जाते थे।
उनके पूर्वज बाजीराव पेशवा के समय मध्य प्रदेश के धार नगर में बस गये थे। उनके
अभियन्ता पिता जब गुना में कार्यरत थे, उन दिनों 17 सितम्बर, 1912 को बापू का जन्म हुआ था।
ग्वालियर, नीमच व धार में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त कर बापू
इंदौर आ गये। यहां उनका परिचय कई क्रांतिकारियों से हुआ। वे जिस अखाड़े में जाते थे, उसमें अगस्त 1929 में संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार आये थे। यहां पर ही मध्य भारत की पहली शाखा
लगी, जिसमें बापू भी शामिल हुए थे। इस प्रकार वे प्रांत की
पहली शाखा के पहले दिन के स्वयंसेवक हो गये।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा
क्रांतिकारियों से बढ़ते सम्बन्धों से चिंतित पिताजी ने उन्हें अभियन्ता की पढ़ाई
करने मुंबई भेज दिया। वहां उनका आवास बाबाराव सावरकर के घर के पास था। इससे उनके
मन पर देशभक्ति के संस्कार और दृढ़ हो गये। पुणे में लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित
केसरी समाचार पत्र के कार्यालय में पत्रकारिता का अध्ययन करते समय 1935 में उन्होंने संघ
का द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। निशानेबाजी एवं परेड में वे बहुत तज्ञ थे।
इसके बाद उज्जैन आकर उन्होंने दशहरा मैदान में शाखा प्रारम्भ की।
बापू वाकणकर ने बनारस हिन्दू
विश्वविद्यालय में भी शिक्षा पाई थी। वहां उनके गुरु प्रो. गोडबोले तथा श्री गोलवलकर ने उनके मन में स्वदेशी का भाव भरा। इससे प्रेरित
होकर उन्होंने ‘आशा’ नामक उद्योग
स्थापित कर सुगन्धित द्रव्य तथा दैनिक उपयोग की कई चीजें बनाईं। ये उत्पाद इतने
अच्छे थे कि द्वितीय विश्व युद्ध के समय विदेशी भी उन्हें खरीदने को लालायित रहते
थे।
यह काम एक युवा उद्यमी को देकर
बापू ने सिरेमिक्स के छोटे बर्तनों पर छपाई की सुगम तकनीक विकसित की। फिर इसे भी
एक सहयोगी को देकर भारतीय लिपियों को संगणक (कम्प्यूटर) पर लाने के शोध में लग
गये। उनकी प्रतिभा देखकर केन्द्र शासन ने उन्हें ‘लिपि सुधार समिति’ का सदस्य बना दिया। फिर भूटान, सिक्किम और श्रीलंका सरकार के आमन्त्रण पर उन्होंने वहां की स्थानीय लिपियों
को भी सफलतापूर्वक कम्प्यूटरीकृत किया।
इसके बाद संगणक निर्माण में
अग्रणी जर्मनी तथा डेनमार्क ने उन्हें अपने यहां बुलाया। उनके शोध की उपयोगिता
देखकर बड़ोदरा के उद्योगपति श्री अमीन ने उन्हें आवश्यक आर्थिक सहायता देकर पुणे
में अंतरराष्ट्रीय लिपि के क्षेत्र में शोध को कहा। इस प्रकार ‘इंटरनेशनल
टायपोग्राफी इंस्टीट्यूट’ की स्थापना हुई। यहां ‘अक्षर’ नामक प्रकाशन भी प्रारम्भ हुआ। बापू के प्रयास से भारतीय लिपि के क्षेत्र में
एक नये युग का सूत्रपात हुआ। विश्व की अनेक भाषा एवं लिपियों के ज्ञाता होने से
लोग उन्हें ‘अक्षरपुरुष’ और ‘पुराणपुरुष’ कहने लगे।
‘पद्म श्री’ से अलंकृत उनके छोटे
भाई डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर अंतरराष्ट्रीय ख्याति के पुरातत्ववेत्ता थे। उन्होंने
उज्जैन में इतिहास संबंधी शोध के लिए ‘वाकणकर शोध संस्थान’ स्थापित किया था। 1988 में उनके असमय निधन के बाद बापू उज्जैन में रहकर उनके अधूरे शोध को पूरा करने
लगे। उन्होंने सरस्वती नदी के लुप्त यात्रा पथ को खोजने में महत्वपूर्ण योगदान
दिया। बापू ने गणेश जी की स्तुति में रचित ‘अथर्वशीर्ष’ नामक स्तवन का अध्ययन कर यह बताया कि आद्य अक्षर ‘ओम्’ में से लिपि का उदय कैसे हुआ है ?
आज संगणक और उसमें भारतीय भाषा
व लिपियों का महत्व बहुत बढ़ गया है। इसे पर्याप्त समय पूर्व पहचान कर, इसके शोध में जीवन समर्पित करने वाले श्री वाकणकर का 15 जनवरी, 1999 को उज्जैन में ही निधन हुआ।
(संदर्भ : मध्यभारत की संघगाथा/पांचजन्य 7.2.1999)
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18 सितम्बर/जन्म-दिवस
सतनामी पन्थ के संस्थापक गुरु घासीदास
छत्तीसगढ़ वन, पर्वत व नदियों से घिरा प्रदेश है। यहाँ प्राचीनकाल
से ही ऋषि मुनि आश्रम बनाकर तप करते रहे हैं। ऐसी पवित्र भूमि पर 18 सितम्बर, 1756 (माघ पूर्णिमा) को ग्राम गिरोदपुरी में एक सम्पन्न
कृषक परिवार में विलक्षण प्रतिभा के धनी एक बालक ने जन्म लिया। माँ अमरौतिन बाई
तथा पिता महँगूदास ने प्यार से उसका नाम घसिया रखा। वही आगे चलकर गुरु घासीदास के
नाम से प्रसिद्ध हुए।
घासीदास जी प्रायः सोनाखान की
पहाड़ियों में जाकर घण्टों ध्यान में बैठे रहते थे। सन्त जगजीवनराम के प्रवचनों का
उन पर बहुत प्रभाव पड़ा। इससे उनके माता पिता चिन्तित रहते थे। उनका एकमात्र पुत्र
कहीं साधु न हो जाए, इस भय से उन्होंने अल्पावस्था में ही उसका विवाह
ग्राम सिरपुर के अंजोरी मण्डल की पुत्री सफूरा देवी से कर दिया। इस दम्पति के घर
में तीन पुत्र अमरदास, बालकदास, आगरदास तथा एक पुत्री सुभद्रा का जन्म हुआ।
उन दिनों भारत में अंग्रेजों का
शासन था। उनके साथ-साथ स्थानीय जमींदार भी निर्धन किसानों पर खूब अत्याचार करते
थे। सिंचाई के साधन न होने से प्रायः अकाल और सूखा पड़ता था। किसान, मजदूर भूख से तड़पते हुए प्राण त्याग देते थे; पर इससे शासक वर्ग को कोई फर्क नहीं पड़ता था। वे बचे
लोगों से ही पूरा लगान वसूलते थे। हिन्दू समाज अशिक्षा, अन्धविश्वास, जादू टोना, पशुबलि, छुआछूत जैसी कुरीतियों में जकड़ा था। इन समस्याओं पर विचार करने के लिए घासीदास
जी घर छोड़कर जंगलों में चले गये। वहाँ छह मास के तप और साधना के बाद 1820 में उन्हें ‘सतनाम ज्ञान’ की प्राप्ति हुई।
अब वे गाँवों में भ्रमण कर
सतनाम का प्रचार करने लगे। पहला उपदेश उन्होंने अपने गाँव में ही दिया। उनके
विचारों से प्रभावित लोग उन्हें गुरु घासीदास कहने लगे। वे कहते थे कि सतनाम ही
ईश्वर है। उन्होंने नरबलि, पशुबलि, मूर्तिपूजा आदि का निषेध किया। पराई स्त्री को माता मानने, पशुओं से दोपहर में काम न लेने, किसी धार्मिक सिद्धान्त का विरोध न करने, अपने परिश्रम की कमाई खाने जैसे उपदेश दिये। वे सभी
मनुष्यों को समान मानते थे। जन्म या शरीर के आधार पर भेदभाव के वे विरोधी थे।
धीरे-धीरे उनके साथ चमत्कारों
की अनेक कथाएँ जुड़ने लगीं। खेत में काम करते हुए वे प्रायः समाधि में लीन हो जाते
थे; पर उनका खेत जुता मिलता था। साँप के काटे को जीवित
करना, बिना आग व पानी के भोजन बनाना आदि चमत्कारों की चर्चा
होने लगी। निर्धन लोग पण्डों के कर्मकाण्ड से दुःखी थे, जब गुरु घासीदास जी ने इन्हें धर्म का सरल और सस्ता
मार्ग दिखाया, तो वंचित वर्ग उनके साथ बड़ी संख्या में जुड़ने लगा।
सतनामी पन्थ के प्रचार से एक
बहुत बड़ा लाभ यह हुआ कि जो निर्धन वर्ग धर्मान्तरित होकर ईसाइयों के चंगुल में फँस
रहा था, उसे हिन्दू धर्म में ही स्वाभिमान के साथ जीने का
मार्ग मिल गया। गुरु घासीदास जी ने भक्ति की प्रबल धारा से लोगों में नवजीवन की
प्रेरणा जगाई। गान्धी जी ने तीन बन्दरों की मूर्ति के माध्यम से ‘बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो’ नामक जिस सूत्र को लोकप्रिय बनाया, उसके प्रणेता गुरु घासीदास जी ही थे।
सतनामी पन्थ के अनुयायी मानते
हैं कि ब्रह्मलीन होने के बाद भी गुरुजी प्रायः उनके बीच आकर उन्हें सत्य मार्ग
दिखाते रहते हैं।
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18 सितम्बर/बलिदान-दिवस
कविता सुनाकर मृत्यु को गले
लगाया
1857 ई0 में जबलपुर में तैनात अंग्रेजों की 52वीं रेजिमेण्ट का कमाण्डर क्लार्क बहुत क्रूर था। वह
छोटे राजाओं, जमीदारों एवं जनता को बहुत परेशान करता था। यह देखकर
गोण्डवाना (वर्तमान जबलपुर) के राजा शंकरशाह ने उसके अत्याचारों का विरोध करने का
निर्णय लिया। राजा एवं राजकुमार दोनों अच्छे कवि थे। उन्होंने कविताओं द्वारा
विद्रोह की आग पूरे राज्य में सुलगा दी। राजा ने एक भ्रष्ट कर्मचारी गिरधारीलाल
दास को निष्कासित कर दिया था। वह क्लार्क को अंग्रेजी में इन कविताओं का अर्थ
समझाता था।
क्लार्क समझ गया कि राजा किसी
विशाल योजना पर काम रहा है। उसने हर ओर गुप्तचर तैनात कर दिये। कुछ गुप्तचर साधु
वेश में महल में जाकर सारे भेद ले आये। उन्होंने क्लार्क को बता दिया कि दो दिन
बाद छावनी पर हमला होने वाला है। क्लार्क ने आक्रमण ही सबसे अच्छी सुरक्षा (offence is the
best defence) वाले नियमानुसार 14 सितम्बर को राजमहल
को घेर लिया। राजा की तैयारी अभी अधूरी थी, अतः बिना किसी विशेष संघर्ष के राजा शंकरशाह और उनके 32 वर्षीय पुत्र
रघुनाथ शाह बन्दी बना लिये गये।
क्लार्क उन्हें सार्वजनिक रूप
से मृत्युदण्ड देकर जनता में आतंक फैलाना चाहता था। अतः 18 सितम्बर, 1858 को दोनों को अलग-अलग तोप के मुँह पर बाँध दिया गया। मृत्यु से पूर्व उन्होंने
अपनी प्रजा को एक-एक छन्द सुनाने चाहे। पहला छन्द राजा ने सुनाया।
मूँद मूख डण्डिन को चुगलों की
चबाई खाई
खूब दौड़ दुष्टन को शत्रु
संहारिका।
मार अंगरेज रेज कर देई मात
चण्डी
बचे नाहिं बैरी बाल बच्चे
संहारिका।
संकर की रक्षा कर दास प्रतिपाल
कर
वीनती हमारी सुन अब मात पालिका।
खाई लेइ मलेच्छन को झेल नाहिं
करो अब
भच्छन ततत्छन कर बैरिन कौ
कालिका।।
दूसरा छन्द पुत्र ने और भी उच्च
स्वर में सुनाया।
कालिका भवानी माय अरज हमारी सुन
डार मुण्डमाल गरे खड्ग कर धर
ले।
सत्य के प्रकासन औ असुर बिनासन
कौ
भारत समर माँहि चण्डिके संवर
ले।
झुण्ड-झुण्ड बैरिन के रुण्ड
मुण्ड झारि-झारि
सोनित की धारन ते खप्पर तू भर
ले।
कहै रघुनाथ माँ फिरंगिन को
काटि-काटि
किलिक-किलिक माँ कलेऊ खूब कर
ले।।
कविता पूरी होते ही जनता में
राजा एवं राजकुमार की जय के नारे गूँज उठे। क्लार्क को लगा कि कहीं विद्रोह यहाँ
पर ही न फूट पड़े। तोपची तो तैयार थे ही। संकेत मिलते ही मशाल लगाकर तोपें दाग दी
गयीं। भीषण गर्जना के साथ चारों ओर धुआँ भर गया। महाराजा शंकर शाह और राजकुमार
रघुनाथ शाह की हड्डियों और माँस के लोथेड़ों से आकाश भर गया।
जहाँ ये दोनों वीर बलिदान हुए, वहाँ वे दोनों तोपें आज भी खड़ी उनके साहस की गाथा कह
रही हैं।
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18 सितम्बर/बलिदान-दिवस
गोभक्तों का अनुपम बलिदान
स्वतन्त्रता से पूर्व देश में अनेक स्थानों पर मुसलमान खुलेआम गोहत्या करते थे। इससे हिन्दू भड़क जाते थे और दोनों समुदाय आपस में लड़ने लगते थे। अंग्रेज तो यही चाहते थे। इसलिए वे गोहत्या को प्रश्रय देते थे।
1918 में ग्राम कटारपुर (हरिद्वार) के कुछ मुसलमानों ने बकरीद पर सार्वजनिक रूप से गोहत्या की घोषणा की। मायापुरी क्षेत्र में कभी ऐसा नहीं हुआ था। अतः हिन्दुओं ने ज्वालापुर थाने पर शिकायत की; पर वहां के थानेदार मसीउल्लाह तथा अंग्रेज प्रशासन की शह पर ही यह हो रहा था। हरिद्वार में शिवदयाल सिंह थानेदार थे। उन्होंने हिन्दुओं को हर प्रकार से सहयोग देने का वचन दिया। अतः हिन्दुओं ने घोषणा कर दी कि चाहे जो हो; पर गोहत्या नहीं होने देंगे।
17 सितम्बर, 1918 को बकरीद थी। हिन्दुओं के विरोध के कारण उस दिन तो कुछ नहीं हुआ; पर अगले दिन मुसलमानों ने पांच गायों का जुलूस निकालकर उन्हें पेड़ से बांध दिया। वे भड़कीले नारे लगा रहे थे। दूसरी ओर हनुमान मंदिर के महंत रामपुरी जी महाराज के नेतृत्व में सैकड़ों हिन्दू युवक भी अस्त्र-शस्त्रों के साथ सन्नद्ध थे। उन्होंने ‘जयकारा वीर बजंरगी, हर हर महादेव’ कहकर धावा बोला और सब गाय छुड़ा लीं। लगभग 30 लोग मारे गये। बाकी भाग खड़े हुए। इस मुठभेड़ में अनेक हिन्दू भी हताहत हुए। महंत रामपुरी जी के शरीर पर चाकुओं के 48 घाव लगे। अतः वे भी बच नहीं सके।
पुलिस और प्रशासन को जैसे ही यह पता लगा, तो वह सक्रिय हो उठा। हिन्दुओं के घरों में घुसकर लोगों को पीटा गया। महिलाओं का अपमान किया गया। 172 लोगों को थाने में बन्द कर दिया गया। जेल का डर दिखाकर कई लोगों से भारी रिश्वत ली गयी। गुरुकुल महाविद्यालय के कुछ छात्र भी इसमें फंसा दिये गये। फिर भी हिन्दुओं का मनोबल नहीं टूटा।
कुछ दिन बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। गुरुकुल महाविद्यालय के प्राचार्य आचार्य नरदेव शास्त्री ‘वेदतीर्थ’ ने वहां जाकर गांधी जी को सारी बात बतायी; पर उन्होंने कुछ नहीं किया। पर महामना मदनमोहन मालवीय जी परम गोभक्त थे। उनका हृदय पीड़ा से भर उठा। उन्होंने इन निर्दोष गोभक्तों पर चलने वाले मुकदमे में अपनी पूरी शक्ति लगा दी।
इसके बावजूद आठ अगस्त, 1919 को न्यायालय द्वारा घोषित निर्णय में चार गोभक्तों को फांसी और थानेदार शिवदयाल सिंह सहित 135 लोगों को कालेपानी की सजा दी गयी। इनमें सभी जाति, वर्ग और अवस्था के लोग थे। जो लोग अन्दमान भेजे गये, उनमें से कई भारी उत्पीड़न सहते हुए वहीं मर गये। महानिर्वाणी अखाड़ा, कनखल के महंत रामगिरि जी भी प्रमुख अभियुक्तों में थे; पर वे घटना के बाद गायब हो गये और कभी पुलिस के हाथ नहीं आये। पुलिस के आतंक से डरकर अधिकांश हिन्दुओं ने गांव छोड़ दिया। अतः अगले आठ वर्ष तक कटारपुर के खेतों में कोई फसल नहीं बोई गयी।
आठ फरवरी, 1920 को उदासीन अखाड़ा, कनखल के महंत ब्रह्मदास (45 वर्ष) तथा चौधरी जानकीदास (60 वर्ष) को प्रयाग में; डा. पूर्णप्रसाद (32 वर्ष) को लखनऊ एवं मुक्खा सिंह चौहान (22 वर्ष) को वाराणसी जेल में फांसी दी गयी। चारों वीर ‘गोमाता की जय’ कहकर फांसी पर झूल गये। प्रयाग वालों ने इन गोभक्तों के सम्मान में उस दिन हड़ताल रखी। इस घटना से गोरक्षा के प्रति हिन्दुओं में भारी जागृति आयी। महान गोभक्त लाला हरदेव सहाय ने प्रतिवर्ष आठ फरवरी को कटारपुर में ‘गोभक्त बलिदान दिवस’ मनाने की प्रथा शुरू की। वहां स्थित पेड़ और स्मारक आज भी उन वीरों की याद दिलाता है।
(गोसम्पदा अपै्रल, 2012/कटारपुर से प्रकाशित स्मारिका)
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18 सितम्बर/जन्म-दिवस
उत्कृष्ट लेखक भैया जी सहस्रबुद्धे
प्रभावी वक्ता, उत्कृष्ट लेखक, कुशल संगठक, व्यवहार में विनम्रता व मिठास के धनी प्रभाकर गजानन सहस्रबुद्धे का जन्म खण्डवा (मध्य प्रदेश) में 18 सितम्बर, 1917 को हुआ था। उनके पिताजी वहाँ अधिवक्ता थे। वैसे यह परिवार मूलतः ग्राम टिटवी
(जलगाँव, मध्य प्रदेश) का निवासी था। भैया जी जब नौ वर्ष के ही
थे, तब उनकी माताजी का देहान्त हो गया। इस कारण तीनों
भाई-बहिनों का पालन बदल-बदलकर किसी सम्बन्धी के यहाँ होता रहा। मैट्रिक तक की
शिक्षा इन्दौर में पूर्णकर वे अपनी बुआ के पास नागपुर आ गये और वहीं 1935 में संघ के
स्वयंसेवक बने।
1940 में उन्होंने मराठी में एम.ए. और फिर वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की। कुछ समय
उन्होंने नागपुर के जोशी विद्यालय में अध्यापन भी किया। भैया जी का संघ के
संस्थापक डा. हेडगेवार के घर आना-जाना होता रहता था। 1942 में बाबा साहब आप्टे की प्रेरणा से भैया जी प्रचारक बन गये। प्रारम्भ में वे
उत्तर प्रदेश के देवरिया, आजमगढ़, जौनपुर, गाजीपुर आदि में जिला व विभाग प्रचारक और फिर
ग्वालियर नगर व विभाग प्रचारक रहे।
1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो उन्हें लखनऊ
केन्द्र बनाकर सहप्रान्त प्रचारक के नाते कार्य करने को कहा गया। उस समय भूमिगत
रहकर भैया जी ने सभी गतिविधियों का स॰चालन किया। इन्हीं दिनों कांग्रेसी
उपद्रवियों ने उनके घर में आग लगा दी। कुछ भले लोगों के सहयोग से उनके पिताजी
जीवित बच गये, अन्यथा षड्यन्त्र तो उन्हें भी जलाकर मारने का था।
प्रतिबन्ध हटने पर 1950 में वे मध्यभारत
प्रान्त प्रचारक बनाये गये। 1952 में घरेलू स्थिति अत्यन्त बिगड़ने पर श्री गुरुजी की अनुमति से वे घर लौट आये।
उन्होंने अब गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर इन्दौर में वकालत प्रारम्भ की। 1954 तक इन्दौर में रहकर
वे खामगाँव (बुलढाणा, महाराष्ट्र) के एक विद्यालय में प्राध्यापक हो गये।
इस दौरान उन्होंने सदा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दायित्व लेकर काम किया। 1975 में देश में
आपातकाल लगने पर वे नागपुर जेल में बन्द रहे। वहाँ से आकर उन्होंने नौकरी से अवकाश
ले लिया और पूरा समय अध्ययन और लेखन में लगा दिया।
भैया जी से जब कोई उनसे सहस्रबुद्धे गोत्र की चर्चा करता, तो वे कहते कि हमारे पूर्वजों में कोई अति बुद्धिमान
व्यक्ति हुआ होगा; पर मैं तो सामान्य बुद्धि का व्यक्ति हूँ। 1981 में वे संघ शिक्षा
वर्ग (तृतीय वर्ष) के सर्वाधिकारी थे। वर्ग के पूरे 30 दिन वे दोनों समय संघस्थान पर सदा समय से पहले ही पहुँचते रहे। भैया जी अपने
भाषण से श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। तथ्य, तर्क और सही जगह पर सही उदाहरण देना उनकी विशेषता थी।
भैया जी एक सिद्धहस्त लेखक भी
थे। संघ कार्य के साथ-साथ उन्होंने पर्याप्त लेखन भी किया। उन्होेंने बच्चों से
लेकर वृद्धों तक के लिए मराठी में 125 पुस्तकों की रचना की। इनमें ‘जीवन मूल्य’ बहुत लोकप्रिय हुई। उनकी अनेक पुस्तकों का कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। लखनऊ
के लोकहित प्रकाशन ने उनकी 25 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की हैं। उन्होंने प्रख्यात इतिहासकार हरिभाऊ वाकणकर
के साथ वैदिक सरस्वती नदी के शोध पर कार्य किया और फिर एक पुस्तक भी लिखी।
माँ सरस्वती के इस विनम्र साधक
का देहान्त यवतमाल (वर्धा, महाराष्ट्र) में 14 मई, 2007 को 90 वर्ष की सुदीर्घ आयु में हुआ।
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19 सितम्बर/जन्म-दिवस
वेदमूर्ति पंडित श्रीपाद सातवलेकर
वेदों के सुप्रसिद्ध भाष्यकार
पंडित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर का जन्म 19 सितम्बर, 1867 को महाराष्ट्र के सावंतवाड़ी रियासत के कोलगाव में हुआ था। जन्मपत्री के अनुसार 16 वें वर्ष में उनकी
मृत्यु का योग था; पर ईश्वर की कृपा से उन्होंने 102 की आयु पाई।
वेदपाठी परिवार होने से उनके कानों में सदा वेदमंत्र गूंजते रहते थे। मामा श्री
पेंढारकर के घर सावंतवाड़ी में रहकर उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ली। 1887 में एक अंग्रेज
वेस्ट्रॉप ने वहां चित्रशाला प्रारम्भ की। श्रीपाद ने यहां चित्र और मूर्तिकला का
रुचिपूर्वक गहन अध्ययन किया।
22 वर्ष की अवस्था में विवाह के बाद वे मुंबई आ गये। यहां उनकी कला परिमार्जित
हुई तथा अनेक पुरस्कार मिले। इसके साथ वे संस्कृत अध्ययन की अपनी परम्परा भी
निभाते रहे। वेदों के बारे में लिखे उनके लेख लोकमान्य तिलक ने ‘केसरी’ में प्रकाशित किये। 1900 ई. में हैदराबाद आकर वे आर्य समाज से जुड़े और ऋषि दयानंद के कई ग्रन्थों का
अनुवाद किया। वेदों में बलिप्रथा नहीं है, इसे सिद्ध करते हुए उन्होंने कई लेख लिखे। उन्होंने अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त
को ‘वैदिक राष्ट्रगीत’ बताकर एक पुस्तिका लिखी। कुछ समय बाद वे थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य भी बने।
श्रीपाद जी की स्वाधीनता आंदोलन
में सक्रियता को देखकर अंग्रेजों ने अपने मित्र हैदराबाद के निजाम को इसे रोकने को
कहा। अतः वे गुरुकुल कांगड़ी (हरिद्वार) आकर चित्रकला तथा वेद पढ़ाने लगे। उनके एक
लेख के लिए कोल्हापुर में उन पर राजद्रोह का मुकदमा चला, जिसमें तीन वर्ष की सजा सुनाई गयी। वे चुपचाप वहां से
निकल गये; पर हरिद्वार पुलिस ने उन्हें हथकड़ी और बेड़ी डालकर
बिजनौर जेल में बंद कर दिया। रेल से कोल्हापुर ले जाते समय रास्ते भर लोगों ने
उनका भव्य सत्कार किया। कोल्हापुर न्यायालय में हुई बहस में पंडित जी ने स्वयं को
वेदों का पुजारी कहकर देश के क्षत्रियत्व को जाग्रत करना अपना धर्म बताया। अतः
न्यायाधीश ने उन्हें छोड़ दिया।
सातवलेकर जी फिर हरिद्वार आये; पर प्रशासन उनके कारण गुरुकुल के छात्रों को परेशान न
करे, यह सोचकर वे लाहौर आ गये। यहां उन्होंने ‘सातवलेकर आर्ट
स्टूडियो’ स्थापित कर चित्रकला के साथ फोटोग्राफी भी प्रारम्भ
कर दी। ‘हिन्द केसरी’ पत्र में उनके वेद-विषयक लेख छपने से उन्हें व्याख्यान के लिए भी निमन्त्रण
मिलने लगे। कांग्रेस में सक्रियता के कारण पुलिस फिर उनके पीछे पड़ गयी। उनके बच्चे
छोटे थे। अतः 1919 में वे लाहौर छोड़कर औंध आ गये। यहां ‘स्वाध्याय मंडल’ स्थापित कर वे वेदों का अनुवाद करने लगे। दक्षिण की अनेक रियासतों में
उन्होंने ‘प्रजा परिषद’ का गठन कर जागृति फैलाई। उनके प्रयास से औंध में स्वराज्य का संविधान लागू
हुआ।
1936 में वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े और औंध में संघचालक बने। देश स्वाधीन
होने पर वे वे बलसाड़ (गुजरात) के पारडी ग्राम में बस गये। यहां उन्होंने एक चर्च
खरीद कर उसमें वेदमंदिर स्थापित किया। 90 वर्ष पूर्ण होने पर मुंबई में उनका भव्य सत्कार किया गया। 100 वर्ष पूर्ण होने पर
आयोजित समारोह में सरसंघचालक श्री गुरुजी ने उन्हें मानपत्र समर्पित किया।
31 जुलाई, 1969 को वेदों के भाष्यकार, स्वाधीनता सेनानी तथा श्रेष्ठ चित्रकार पंडित
सातवलेकर जी के सक्रिय जीवन का समापन हुआ।
(संदर्भ : पं. सातवलेकर, श्री भारती प्रकाशन, नागपुर)
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19 सितम्बर/जन्म-दिवस
राजनीति में आदर्श स्वयंसेवक राजेन्द्र शर्मा
राजनीति में रहकर स्वयं को
शुद्ध बनाये रखना सरल नहीं है; पर संघ के वरिष्ठ
प्रचारक श्री राजेन्द्र शर्मा ऐसे ही एक आदर्श स्वयंसेवक थे। वे लम्बे समय तक
जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी के संसदीय सचिव रहे; पर पद, प्रतिष्ठा और चुनाव की लिप्सा से वे सदा दूर ही रहे।
राजेन्द्र शर्मा का जन्म 19 सितम्बर, 1924 को हाथरस (उ.प्र.) में हुआ था। उनके पिता श्री ताराचंद जी का पुस्तकों का व्यापार था, अतः उनमें बचपन से ही पुस्तकें पढ़ने के प्रति रुचि
जाग गयी। उनकी स्मरण शक्ति गजब की थी। एक बार पढ़ा या सुना हुआ वे जस का तस दोहरा
देते थे। आगे चलकर तो उन्होंने अनेक महाविद्यालयों में छात्रों के बीच इस कला का
प्रदर्शन किया तथा इसकी विधि भी सिखाई।
पढ़ाई में अग्रणी रहने के कारण
वे शिक्षा में तेजी से आगे बढ़ते चले गये और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से मैकेनिकल
एवं इलैक्ट्रिकल इंजीनियर की डिग्री ली। यदि वे चाहते तो इस डिग्री के बल पर
स्वर्णिम वेतन वाली नौकरी पा सकते थे; पर उन्होंने संघ कार्य को अपने जीवन का व्रत बनाया और 1944 में प्रचारक बन
गये।
प्रचारक के नाते उन्होंने बरेली, देहरादून, सहारनपुर व जम्मू में कार्य किया। इसके बाद 1964-65 में उन्हें जनसंघ में संसदीय दल के कार्यालय की जिम्मेदारी दी गयी, जिसे उन्होंने आजीवन निभाया। आपातकाल में वे कुछ समय
के लिए हिमाचल भी गये; पर फिर उन्हें दिल्ली बुला लिया गया। संसद में जनसंघ
के किस सदस्य को क्या प्रश्न पूछना है, उसका निर्णय कर वे सदस्य को उसकी तैयारी कराते थे। अध्ययनशील होने के कारण
उनके पास तथ्यों का विशाल भंडार रहता था। नये सांसदों को वे संसदीय प्रणाली व
परम्पराओं की जानकारी देते थे। इस नाते संसद में वे जनसंघ और फिर भाजपा के एक
प्रमुख आधार स्तम्भ थे। यद्यपि वे सदा पर्दे के पीछे रहकर ही काम करते थे।
एक बार वे भयंकर साइटिका रोग से
पीड़ित हो गये। कई प्रकार और स्थानों के इलाज से जब लाभ नहीं हुआ, तो खुर्जा (उ.प्र.) के एक आयुर्वेदज्ञ ने उन्हें ठीक किया। इस चिकित्सा
में उन्हें एक वर्ष तक घोर गर्मियों में भी गरम कपड़े, रजाई आदि प्रयोग करनी थी। वर्ष भर पानी नहीं पीना था
और थोड़े से दूध के साथ दवाएं लेनी थीं। राजेन्द्र जी ने इस कठिन दिनचर्या का पालन
किया। स्वभाव की यह दृढ़ता उनकी कार्यशैली में भी दिखाई देती थी। उनके कार्यालय में
आने-जाने को देखकर लोग अपनी घड़ी मिलाया करते थे।
सादगी और सरलता की प्रतिमूर्ति
राजेन्द्र जी को अचानक हृदयरोग ने आ घेरा। पहले उन्हें दिल्ली के राममनोहर लोहिया
अस्पताल और फिर अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कराया गया। वहां से वे
ठीक तो हुए; पर रोग पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ। दूसरी बार समस्या
होने पर आयुर्विज्ञान संस्थान में उनकी बाइपास सर्जरी की गयी। इससे वे ठीक होकर
फिर काम में लग गये; पर वे समझ गये कि जीवन का अब भरोसा नहीं है। अतः
उन्होंने बैंक के कागज, नकद राशि आदि अपने सहयोगी श्री जना कृष्णमूर्ति को
सौंप दी।
यद्यपि वे चिकित्सकों के
निर्देश का कठोरता से पालन करते थे, पर आयु अपना असर दिखा रही थी। इस बार बीमार होने पर उन्हें तिरुअनंतपुरम्
(केरल) में इलाज के लिए भेजा गया; पर वहां 13 नवम्बर, 1999 को उन्होंने शरीर छोड़ दिया। राजनीतिक कोलाहल के बीच संत की तरह शांत रहने वाले
राजेन्द्र जी का 14 नवम्बर को वहीं अंतिम संस्कार किया गया।
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19 सितम्बर/जन्म-दिवस
भारत माता मंदिर के संस्थापक स्वामी सत्यमित्रानंद
हरिद्वार जाने वाले हर
तीर्थयात्री की प्राथमिकता हर की पैड़ी जाकर गंगा माँ के अमृत रूपी जल में स्नान करना
होती है। इसके बाद वह वहाँ के प्राचीन और नूतन मन्दिरों के दर्शन करता है। नये
मन्दिरों में भारत माता मन्दिर का प्रमुख स्थान है। इसके संस्थापक हैं
महामण्डलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरि जी।
स्वामी जी का जन्म 19 सितम्बर, 1932 को आगरा (उ.प्र.) में हुआ था। उनके पिता श्री शिवशंकर पाण्डेय एक सरकारी
विद्यालय में पढ़ाते थे। अपने पुत्र का नाम उन्होंने अम्बिका रखा। अम्बिका का झुकाव
शुरू से ही अध्यात्म की ओर था। दस वर्ष की अवस्था में ही वह नैमिषारण्य आ गये और
प्राचीन धर्मग्रन्थों का अध्ययन करने लगे।
नैमिषारण्य में स्वामी
वेदव्यासानन्द सरस्वती ने उनकी शिक्षा की व्यवस्था की। एक बार वहाँ संघ का शीत
शिविर लगा, जिसमें सरसंघचालक श्री गुरुजी भी आये थे। अम्बिका के
मन में गुरुजी के लिए बहुत श्रद्धा थी। वह पैदल चलकर शिविर में पहुँचे और उनसे
आग्रह किया कि वे कुछ देर के लिए उनके आश्रम में चलें। गुरुजी ने उन्हें अपनी रजाई
में बैठाया और गर्म दूध पिलवाया।
इससे उनका उत्साह दूना हो गया; पर गुरुजी का प्रवास दूसरे स्थान के लिए निश्चित था।
अतः अम्बिका ने दुराग्रह नहीं किया। श्री गुरुजी से हुई इस भेंट ने उनके मन में
संघ की जो अमिट छाप छोड़ी, वह आज भी उनके मन में बसी है। 1949 में उन्होंने संघ
के वरिष्ठ प्रचारक व समाजसेवी नानाजी देशमुख का भाषण सुना। तब से वे संघ के अति
निकट आ गये।
शिक्षा पूर्ण होने पर अक्षय
तृतीया विक्रमी सम्वत 2017 (1960 ई.) में उन्हें भानुपुरा पीठ, मध्य प्रदेश के शंकराचार्य स्वामी सदानन्द गिरि ने
संन्यास की दीक्षा दी। अब उनका नाम सत्यमित्रानन्द गिरि हो गया और वे पीठ के
शंकराचार्य के रूप में अभिषिक्त हो गये; पर उनका मन आश्रम के वैभव और पूजा पाठ में कम ही लगता था। वे तो गरीबों के बीच
जाकर उनकी सेवा करना चाहते थे; पर शंकराचार्य पद
की मर्यादा इसमें बाधक थी। अतः उन्होंने इसके लिए योग्य उत्तराधिकारी ढूँढकर
उन्हें सब काम सौंप दिया।
उस समय श्री गुरुजी इन्दौर में
थे। स्वामी जी सीधे वहाँ गये और उन्हें यह सूचना दी। श्री गुरुजी ने कहा कि अब आप
समाज सेवा अधिक अच्छी तरह कर पायेंगे। इसके बाद हरिद्वार आकर उन्होंने ‘भारत माता मन्दिर’ की स्थापना की। श्री गुरुजी के प्रति इस अपार श्रद्धा
के कारण 2006 ई. में ‘श्री गुरुजी जन्मशती समारोह समिति’ का अध्यक्ष पद उन्होंने ही सँभाला।
भारतमाता मन्दिर में विभिन्न
तलों पर भारत के महान पुरुषों, नारियों, क्रान्तिकारियों, समाजसेवियों आदि की प्रतिमाएँ लगी हैं। इनको देखते हुए दर्शक जब सबसे नीचे आता
है, तो वहाँ अखण्ड भारत के मानचित्र के आगे सुजलाम्, सुफलाम् भारत माता की विराट मूर्ति के दर्शन कर वह
अभिभूत हो उठता है। अन्य मन्दिरों की तरह यहाँ पूजा, भोग, स्नान आदि कर्मकाण्ड नहीं होते।
भारत माता मन्दिर और समन्वय सेवा ट्रस्ट द्वारा अनेक सेवा कार्य चलाये जाते हैं। इनमें वेद विद्यालय, विकलांग एवं कुष्ठजन सेवा, चिकित्सा वाहन, वृद्धाश्रम, दृष्टिहीन सेवा, शहीद परिवार सेवा, सफाईकर्मी सेवा आदि प्रमुख हैं। उनकी देश, धर्म एवं समाज के प्रति सेवाओं को ध्यान में रखते हुए 2015 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ सम्मान प्रदान किया।
25 जून, 2019 को हरिद्वार में ही उनका परलोकगमन हुआ। आश्रम में ही उन्हें भू समाधि दी गयी। उनकी श्रद्धांजलि सभा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत के साथ ही देश के अनेक प्रतिष्ठित संत, महात्मा तथा समाजसेवी शामिल हुए। भारत माता मंदिर जाने वाले भक्त उनकी समाधि के दर्शन करने भी अवश्य जाते हैं।
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20 सितम्बर/पुण्य-तिथि
एकात्मता के पुजारी नारायण गुरु
हिन्दू धर्म विश्व का
सर्वश्रेष्ठ धर्म है; पर छुआछूत और ऊंचनीच जैसी कुरीतियों के कारण हमें
नीचा भी देखना पड़ता है। इसका सबसे अधिक प्रकोप किसी समय केरल में था। इससे संघर्ष
कर एकात्मता का संचार करने वाले श्री नारायण गुरु का जन्म 1856 ई. में तिरुअनंतपुरम् के पास चेम्बा जनती कस्बे में ऐजवा जाति के श्री मदन एवं
श्रीमती कुट्टी के घर में हुआ था।
नारायण के पिता अध्यापक एवं
वैद्य थे; पर प्राथमिक शिक्षा के बाद कोई व्यवस्था न होने से वे
अपने साथियों के साथ गाय चराने जाने लगे। वे इस दौरान संस्कृत श्लोक याद करते रहते
थे। कुछ समय बाद वे खेती में भी हाथ बंटाने लगे। 1876 में गुरुकुल में भर्ती होकर उनकी शिक्षा फिर प्रारम्भ हुई। वे खेलकूद का समय
प्रार्थना एवं ध्यान में बिताते थे। स्वास्थ्य खराबी के कारण उनकी शिक्षा पूरी
नहीं हो सकी। घर आकर उन्होंने एक विद्यालय खोल लिया। इसी समय उन्होंने काव्य रचना
और गीता पर प्रवचन भी प्रारम्भ कर दिये। उन्होंने गृहस्थ जीवन के बंधन में बंधने
से मना कर दिया।
अध्यात्म एवं एकांत प्रेमी
नारायण भोजन, आवास और हिंसक पशुओं की चिन्ता किये बिना जंगलों में
साधनारत रहते थे। अतः लोग उन्हें चमत्कारी पुरुष मानकर स्वामी जी एवं नारायण गुरु
कहने लगे। यह देखकर ईसाई और मुसलमान विद्वानों ने उन्हें धर्मान्तरित करने का
प्रयास किया; पर वे सफल नहीं हुए। 1888 में वे नयार नदी के पास अरूबीपुर में साधना करने लगे। वहां उन्होंने शिवरात्रि
पर मंदिर बनाने की घोषणा की। आधी रात में भक्तों की भीड़ के बीच वे नदी में से एक
शिवलिंग लेकर आये और उसे वैदिक मंत्रों के साथ एक चट्टान पर स्थापित कर दिया। इस
प्रकार अरूबीपुर नूतन तीर्थ बन गया। कई लोगों ने यह कहकर इसका विरोध किया कि छोटी
जाति के व्यक्ति को मूर्ति स्थापना का अधिकार नहीं है; पर स्वामी जी चुपचाप काम में लगे रहे।
समाज सुधार के अगले चरण के रूप
में 100 से अधिक मंदिरों से उन्होंने मदिरा एवं पक्षीबलि से जुड़े देवताओं की मूर्तियां
हटवा कर शिव, गणेश और सुब्रह्मण्यम की मूर्तियां स्थापित कीं।
उन्होंने नये मंदिर भी बनवाये, जो उद्यान, विद्यालय एवं पुस्तकालय युक्त होते थे। इनके पुजारी
तथाकथित छोटी जातियों के होते थे; पर उन्हें तंत्र, मंत्र एवं शास्त्रों का नौ साल का प्रशिक्षण दिया
जाता था। मंदिर की आय का उपयोग विद्यालयों में होता था। दिन भर काम में व्यस्त
रहने वालों के लिए रात्रि पाठशालाएं खोली गयीं। अनेक तीर्थों में अनुष्ठानों की
उचित व्यवस्था कर पंडों द्वारा की जाने वाली ठगाई को बंद किया। बरकला की शिवगिरी
पहाड़ी पर उन्होंने ‘शारदा मठम्’ नामक वैदिक विद्यालय एवं सरस्वती मंदिर की स्थापना की। इसी प्रकार अलवै में ‘अद्वैत आश्रम’ बनाया।
1924 ई. की शिवरात्रि को स्वामी जी ने अलवै में सर्वधर्म सम्मेलन कर सब धर्मों को
जानने का आग्रह किया। वे तर्क-वितर्क और कुतर्क से दूर रहते थे। इससे लोगों के
विचार बदलने लगे। ‘वैकोम सत्याग्रह’ के माध्यम से कई मंदिरों एवं उनके पास की सड़कों पर सब जाति वालों का मुक्त
प्रवेश होने लगा। इसमें उच्च जातियों के लोग भी सहभागी हुए। यह सुनकर गांधी जी
उनसे मिलने आये और उन्हें ‘पवित्र आत्मा’ कहकर सम्मानित किया।
स्वामी जी ने सहभोज, अंतरजातीय विवाह तथा कर्मकांड रहित सस्ते विवाहों का प्रचलन
किया। बाल विवाह तथा वयस्क होने पर कन्या के पिता द्वारा दिये जाने वाले भोज को
बंद कराया। उन्होंने अपने विचारों के प्रसार हेतु ‘विवेक उदयम्’ पत्रिका प्रारम्भ की। 20 सितम्बर, 1928 को एकात्मता के इस पुजारी का देहांत हुआ। केरल में उनके द्वारा स्थापित मंदिर, आश्रम तथा संस्थाएं समाज सुधार के उनके काम को आगे
बढ़ा रही हैं।
(संदर्भ : नररत्न नारायण गुरु - वीरेश्वर द्विवेदी)
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20 सितम्बर/जन्म-दिवस
गायत्री के आराधक आचार्य श्रीराम शर्मा
गायत्री परिवार नामक संस्था के
संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा का जन्म 20 सितम्बर, 1911 को ग्राम आँवलखेड़ा (जिला आगरा, उ.प्र.) में हुआ था। यद्यपि वे एक जमींदार घराने में जन्मे थे; पर उनका मन प्रारम्भ से ही अध्यात्म साधना के साथ-साथ
निर्धन एवं निर्बल की पीड़ा के प्रति संवेदनशील था। जब गाँव की एक हरिजन महिला
कुष्ठ से पीड़ित हो गयी, तो बालक श्रीराम ने घर वालों का विरोध सहकर भी उसकी
भरपूर सेवा की। उस महिला ने स्वस्थ होकर उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिये।
15 वर्ष की अवस्था में वसन्त पंचमी पर काशी में पण्डित मदनमोहन मालवीय ने बालक
श्रीराम को गायत्री की दीक्षा दी। तबसे उनका जीवन बदल गया। उसी समय उन्हें अदृश्य
छायारूप में अपनी गुरुसत्ता के दर्शन हुए, जिसने उन्हें हिमालय आकर गायत्री की साधना करने का आदेश दिया। उनका आदेश पाकर
वे हिमालय जाकर कठोर तप में लीन हो गये।
वहाँ से लौटकर वे समाजसेवा के
साथ स्वतन्त्रता आन्दोलन में भी कूद पड़े। नमक आन्दोलन के दौरान सत्याग्रह करने वे
आगरा गये। पुलिस ने उनसे तिरंगा छीनने का बहुत प्रयास किया। उन्हें पीटा गया; पर उन्होंने झण्डा नहीं छोड़ा। उन्होंने झण्डा मुँह
में दबा लिया, जिसके टुकड़े उनके बेहोश होने के बाद ही मुँह से
निकाले जा सके। इस कारण उन्हें श्रीराम ‘मत्त’ नाम मिला।
1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ। वे ऋषि अरविन्द से मिलने पांडिचेरी, श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने शान्ति निकेतन तथा
गांधी जी से मिलने सेवाग्राम गये। वहाँ से लौटकर उन्होंने ‘अखण्ड ज्योति’ नामक मासिक पत्रिका प्रारम्भ की। आज भी यह लाखों की
संख्या में भारत की अनेक भाषाओं में छप रही है।
इसी बीच वे समय-समय पर हिमालय
पर जाकर साधना एवं अनुष्ठान भी करते रहे। गायत्री तपोभूमि, मथुरा और शान्तिकुंज, हरिद्वार को उन्होंने अपने क्रियाकलापों का केन्द्र बनाया। वहाँ हिमालय के
किसी पवित्र स्थान से लायी गयी ‘अखण्ड ज्योति’ का दीपक आज भी निरन्तर प्रज्वलित है।
आचार्य श्रीराम शर्मा जी का मत
था कि पठन-पाठन तथा यज्ञ करने एवं कराने का अधिकार सभी को है। अतः उन्होंने 1958 में कार्तिक
पूर्णिमा के अवसर पर दस लाख लोगों को गायत्री की दीक्षा दी। इसमें सभी वर्ग, वर्ण और अवस्था के लोग शामिल थे। उनके कार्यक्रमों की एक विशेषता
यह थी कि वे सबसे सपरिवार आने का आग्रह करते थे। इस प्रकार केवल घर-गृहस्थी में
उलझी नारियों को भी उन्होंने समाजसेवा एवं अध्यात्म की ओर मोड़ा। नारी शक्ति के
जागरण से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि इससे परिवारों का वातावरण सुधरने लगा।
आचार्य जी ने वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति, आरण्यक, ब्राह्मण ग्रन्थ, योगवाशिष्ठ, तन्त्र एवं मन्त्र महाविज्ञान आदि सैकड़ों ग्रन्थों की
व्याख्याएँ लिखीं। वे बीच-बीच में साधना के लिए जाते रहते थे। इस दौरान सारा कार्य
उनकी धर्मपत्नी श्रीमती भगवती देवी सँभालती थीं। इसमें से ही ‘युग निर्माण योजना’ जैसे प्रकल्प का जन्म हुआ। इसके द्वारा आयोजित यज्ञ
में सब भाग लेते हैं। अवैज्ञानिक एवं कालबाह्य हो चुकी सामाजिक रूढ़ियों के बदले
नयी मान्यताएँ स्थापित करने का यह एक सार्थक प्रयास है। दो जून, 1990 को गायत्री जयन्ती पर आचार्य जी ने स्वयं को परमसत्ता में विलीन कर लिया।
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20 सितम्बर/पुण्य-तिथि
देश से दूर प्राणान्त : मौलाना बरकतउल्ला
भारतीय स्वतन्त्रता का संघर्ष
स्वयं में अभूतपूर्व था। जहाँ एक ओर यह देश के अन्दर लड़ा गया, वहाँ देश से बाहर भी इसके लिए लड़ने वालों की कमी नहीं
थी। अनेक नेता एवं क्रान्तिकारी ऐसे भी थे, जिन्होंने विदेशी धरती पर अन्तिम साँस ली। ऐसे ही एक स्वतन्त्रता सेनानी थे
मौलाना बरकतउल्ला।
बरकतउल्ला का जन्म भोपाल में
हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर वे उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड चले गये।
वहाँ से कुछ साल बाद वे लिवरपूल गये और वहाँ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध ओरियण्टल कॉलेज में अरबी भाषा एवं साहित्य के प्राध्यापक बन गये; पर उनका उद्देश्य पढ़ाना मात्र नहीं था। उनके मन में
तो भारत की स्वतन्त्रता का सपना पल रहा था। वे ऐसे लोगों की तलाश में लग गयेे, जो इस कार्य में उन्हें राह दिखा सकें।
कहते हैं जिन खोजा, तिन पाइयाँ। सौभाग्य से उनकी भेंट प्रख्यात
क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा से हो गयी, जो विदेशों में भारत की स्वतन्त्रता के लिए प्रयासरत थे। अब वे श्यामजी के
निर्देश पर काम करने लगे। इंग्लैण्ड में 11 वर्ष बिताकर वे न्यूयार्क चले गये। वहाँ उन्हें अरबी भाषा पढ़ाने का काम मिल
गया। इसके बाद वे एक प्रतिनिधिमण्डल के साथ जापान गये, तो टोक्यो विश्वविद्यालय में उन्हें उर्दू का
प्राध्यापक नियुक्त कर दिया गया। यहाँ उन्होंने जापानी और अंग्रेजी भाषा में ‘इस्लामिक
फ्रैटर्निटी’ नामक पत्र निकाला। इसके द्वारा वे ब्रिटिश साम्राज्य
की नीतियों का खुला विरोध करने लगे।
धीरे-धीरे इस पत्र और मौलाना
बरकतुल्ला की लोकप्रियता बढ़ने लगी। इस पर ब्रिटिश राजदूत ने जापान सरकार पर उन्हें
हटाने के लिए दबाव डाला। जापान शासन को मजबूर होकर इन्हें विश्वविद्यालय की सेवा
से मुक्त करना पड़ा। इस पर वे फ्रान्स आ गये और चौधरी रहमत अली तथा पण्डित
रामचन्द्र के साथ ‘इन्कलाब’ नामक पत्र निकालने में सहयोग करने लगे; पर कुछ समय बाद उन्हें फ्रान्स भी छोड़ना पड़ा।
अब वे कैलिफोर्निया के प्रमुख
नगर सैनफ्रान्सिस्को आ गये। यहाँ उनका सम्पर्क भाई परमानन्द और लाला हरदयाल से
हुआ। इन तीनों ने अमरीका और कनाडा के प्रमुख नगरों में सभाएँ कीं। इससे इन देशों
में भारत की स्वतन्त्रता का मामला गरमाने लगा और बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय
इनके साथ जुड़ने लगे। इन नगरों के गुरुद्वारे आजादी के प्रयासों के केन्द्र बन गये।
इसी के परिणामस्वरूप आगे चलकर ‘गदर पार्टी’ का जन्म हुआ, जिसने विदेशों में क्रान्ति की अलख जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। 1857 की क्रान्ति की
स्मृति में वहाँ जो सभा हुई, उसमें पहली बार 1,500 डॉलर एकत्र हुए।
मौलाना बरकतउल्ला ने वहाँ जो भाषण दिया, वह बहुत चर्चित हुआ। आगे चलकर जब काबुल में भारत की पहली अन्तरिम निर्वासित
सरकार का गठन हुआ, तो क्रान्तिकारी राजा महेन्द्र प्रताप को राष्ट्रपति
और मौलाना बरकतउल्ला को प्रधानमन्त्री बनाया गया।
1927 में ब्रुसेल्स के साम्राज्यवाद विरोधी सम्मेलन में गदर पार्टी के प्रतिनिधि के
रूप में बरकतउल्ला सम्मिलित हुए। वहाँ से लौटकर वे बहुत बीमार पड़ गये। 20 सितम्बर, 1927 को उनका देहान्त हो
गया और कैलिफोर्निया में ही उन्हें दफना दिया गया। मौलाना ने परतन्त्र भारत की
धरती पर पैर न रखने की शपथ ली थी। इसे उन्होंने अन्तिम समय तक निभाया।
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संस्कृति के संवाहक डा. हरवंशलाल ओबराय
भारत में अनेक मनीषी ऐसे हुए
हैं, जिन्होंने दुनिया के अन्य देशों में जाकर भारतीय धर्म
एवं संस्कृति का प्रचार किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डा. हरवंशलाल ओबराय ऐसे ही एक विद्वान् थे, जो एक दुर्घटना के कारण असमय ही दुनिया छोड़ गये।
डा. हरवंशलाल का जन्म रावलपिंडी में 21 अक्तूबर, 1925 को हुआ था। प्रारम्भ से ही उनकी रुचि
हिन्दू धर्म के अध्ययन के प्रति अत्यधिक थी। 1947 में देश विभाजन के बाद वे अपनी माता जी एवं छह भाई-बहिनों सहित भारत आ गये।
यहाँ उन्होंने सम्मानपूर्वक हिन्दी साहित्य, भारतीय संस्कृति (इण्डोलॉजी) एवं दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया। इसके बाद 1948 में उन्होंने
दर्शनशास्त्र में पी-एच.डी. पूर्ण की। इस दौरान उनका स्वतन्त्र अध्ययन भी चलता रहा
और वे प्राच्य विद्या के अधिकारी विद्वान माने जाने लगे।
सामाजिक क्षेत्र में वे 'अखिल
भारतीय विद्यार्थी परिषद' से जुड़े और 1960 एवं 61 में उसके अध्यक्ष रहे। 1963 में यूनेस्को के निमन्त्रण पर वे यूरोप, अमरीका, कनाडा और एशियाई देशों में भारतीय संस्कृति पर
व्याख्यान देने के लिए गये। इसके बाद भी उनका विदेश यात्राओं का क्रम चलता रहा।
उन्होंने 105 देशों की यात्रा
की। हर यात्रा में वे उस देश के प्रभावी लोगों से मिले और वहाँ भारतीय राजाओं, संन्यासियों एवं धर्माचार्याें द्वारा किये कार्यों
को संकलित किया। इस प्रकार ऐसे शिलालेख, भित्तिचित्र और प्रकाशित सामग्री का एक अच्छा संग्रह उनके पास हो गया।
एक बार अमरीका में उनका भाषण
सुनकर बिड़ला प्रौद्योगिकी संस्थान, राँची के श्री चन्द्रकान्त बिड़ला ने उन्हें अपने संस्थान में काम करने का
निमन्त्रण दिया। 1964 में वहाँ दर्शन एवं मानविकी शास्त्र का विभाग खोलकर डा. ओबराय को उसका अध्यक्ष बनाया गया। उनके सुझाव पर सेठ जुगलकिशोर बिड़ला ने छोटा
नागपुर में ‘सरस्वती विहार’ की स्थापना कर भारतीय संस्कृति के शोध, अध्ययन एवं प्रचार की व्यवस्था की।
सेठ जुगलकिशोर बिड़ला को इस बात
का बहुत दुःख था कि वनवासी क्षेत्र में ईसाई मिशनरियाँ सक्रिय हैं तथा वे निर्धन, अशिक्षित लोगों को छल-बल से ईसाई बना रही हैं। यह
देखकर डा. ओबराय ने ‘सरस्वती विहार’ की गतिविधियों में ऐसे अनेक आयाम जोड़े, जिससे धर्मान्तरण को रोका जा सके। इसके साथ ही उन्होंने शुद्धीकरण के काम को
भी तेज किया।
डा. ओबराय हिन्दी, संस्कृत, पंजाबी, उर्दू, अंग्रेजी तथा फ्रेंच के विद्वान थे। सम्पूर्ण भागवत, रामायण, गीता एवं रामचरितमानस उन्हें कण्ठस्थ थे। उनके सैकड़ों शोध प्रबन्ध देश-विदेश
की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपे। अनेक भारतीय एवं विदेशी छात्रों ने उनके
निर्देशन में शोध कर उपाधियाँ प्राप्त कीं। उनकी विद्वत्ता देखकर देश-विदेश के
अनेक मठ मन्दिरों से उनके पास गद्दी सँभालने के प्रस्ताव आये; पर उन्होंने विनम्रतापूर्वक सबको मना कर दिया।
एक बार वे रेल से इन्दौर जा रहे
थे। मार्ग में रायपुर स्टेशन पर उनके एक परिचित मिल गये। उनसे वे बात कर ही रहे थे
कि गाड़ी चल दी। डा. ओबराय ने दौड़कर गाड़ी में बैठना चाहा; पर अचानक ठोकर खाकर वे गिर पड़े। उन्हें तत्काल राँची लाया गया; पर चोट इतनी घातक थी कि उन्हें बचाया नहीं जा सका। इस
प्रकार सैकड़ों देशों में हिन्दुत्व की विजय पताका फहराने वाला योद्धा 20 सितम्बर, 1983 को चल बसा।
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21 सितम्बर/पुण्य-तिथि
पंडित गेंदालाल को अपनों ने ही ठुकराया
प्रायः ऐसा कहा जाता है कि
मुसीबत में अपनी छाया भी साथ छोड़ देती है। क्रांतिकारियों के साथ तो यह पूरी तरह
सत्य था। जब कभी वे संकट में पड़े, तो उन्हें आश्रय
देने के लिए सगे-संबंधी ही तैयार नहीं हुए। क्रांतिवीर पंडित गेंदालाल दीक्षित के
प्रसंग से यह भली-भांति समझा जा सकता है।
पंडित गेंदालाल दीक्षित का जन्म 30 नवम्बर, 1888 को उत्तर प्रदेश में आगरा जिले की बाह तहसील के ग्राम मई में हुआ था। आगरा से
हाईस्कूल कर वे डी.ए.वी. पाठशाला, औरैया में अध्यापक
हो गये। बंग-भंग के दिनों में उन्होंने ‘शिवाजी समिति’ बनाकर नवयुवकों में देशप्रेम जाग्रत किया; पर इस दौरान उन्हें शिक्षित, सम्पन्न और तथाकथित
उच्च समुदाय से सहयोग नहीं मिला। अतः उन्होंने कुछ डाकुओं से सम्पर्क कर उनके मन
में देशप्रेम की भावना जगाई और उनके माध्यम से कुछ धन एकत्र किया।
इसके बाद गेंदालाल जी अध्ययन के
बहाने मुंबई चले गये। वहां से लौटकर ब्रह्मचारी लक्ष्मणानंद के साथ उन्होंने ‘मातृदेवी’ नामक संगठन बनाया और युवकों को शस्त्र चलाना सिखाने
लगे। इस दल ने आगे चलकर जो काम किया, वह ‘मैनपुरी षड्यंत्र’ के नाम से प्रसिद्ध है। उस दिन 80 क्रांतिकारियों का दल डाका डालने के लिए गया। दुर्भाग्य से उनके साथ एक मुखबिर
भी था। उसने शासन को इनके जंगल में ठहरने की जानकारी पहले ही दे रखी थी। अतः 500 पुलिस वालों ने उस
क्षेत्र को घेर रखा था।
जब ये लोग वहां रुके, तो सबको बहुत भूख लगी थी। वह मुखबिर कहीं से पूड़ियां
ले आया; पर उनमें जहर मिला था। खाते ही कई लोग धराशायी हो
गये। मौका पाकर वह मुखबिर भागने लगा। यह देखकर ब्रह्मचारी जी ने उस पर गोली चला
दी। गोली की आवाज सुनते ही पुलिस वाले भी आ गये और फिर सीधा संघर्ष शुरू हो गया, जिसमें दल के 35 व्यक्ति मारे गये। शेष लोग पकड़े गये। एक अन्य सरकारी गवाह सोमदेव ने पंडित
गेंदालाल दीक्षित को इस योजना का मुखिया बताया। अतः उन्हें मैनपुरी लाया गया। तब
तक उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ चुका था। इसके बाद भी वे एक रात मौका पाकर एक अन्य
सरकारी गवाह रामनारायण के साथ फरार हो गये।
पंडित जी अपने एक संबंधी के पास
कोटा पहुंचे; पर वहां भी उनकी तलाश जारी थी। इसके बाद वे किसी तरह
अपने घर पहुंचे; पर वहां घर वालों ने साफ कह दिया कि या तो आप यहां से
चले जाएं, अन्यथा हम पुलिस को बुलाते हैं। अतः उन्हें वहां से
भी भागना पड़ा। तब तक वे इतने कमजोर हो चुके थे कि दस कदम चलने मात्र से मूर्छित हो
जाते थे। किसी तरह वे दिल्ली आकर पेट भरने के लिए एक प्याऊ पर पानी पिलाने की
नौकरी करने लगे।
कुछ समय बाद उन्होंने अपने एक
संबंधी को पत्र लिखा, जो उनकी पत्नी को लेकर दिल्ली आ गये। तब तक उनकी दशा
और बिगड़ चुकी थी। पत्नी यह देखकर रोने लगी। वह बोली कि मेरा अब इस संसार में कौन
है ? पंडित जी ने कहा - आज देश की लाखों
विधवाओं, अनाथों, किसानों और दासता की बेड़ी में जकड़ी भारत माता का कौन है ? जो इन सबका मालिक है, वह तुम्हारी भी रक्षा करेगा।
उन्हें सरकारी अस्पताल में
भर्ती करा दिया। वहीं पर मातृभूमि को स्मरण करते हुए उन नरवीर ने 21 सितम्बर 1920 को प्राण त्याग
दिये।
(संदर्भ : मातृवंदना, क्रांतिवीर नमन अंक, मार्च-अपै्रल 2008)
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21 सितम्बर/जन्म-दिवस
वकील साहब लक्ष्मणराव इनामदार
गुजरात में वकील साहब के नाम से
लोकप्रिय श्री लक्ष्मण माधवराव इनामदार का जन्म 21 सितम्बर, 1917 (भाद्रपद शुदी 5, ऋषि पंचमी) को ग्राम खटाव (जिला सतारा, महाराष्ट्र) में हुआ था। इनके पूर्वज श्रीकृष्णराव खटावदार ने शिवाजी के काल
में स्वराज की बहुत सेवा की थी, अतः शिवाजी के
पौत्र छत्रपति शाहूजी महाराज ने उन्हें इनाम में कुछ भूमि और ‘सरदार’ की उपाधि दी। तबसे यह परिवार ‘इनामदार’ कहलाने लगा।
वकील साहब एक बड़े कुटुंब के
सदस्य थे। सात भाई और दो बहिन, चार विधवा बुआ तथा
उनके बच्चे सब साथ रहते थे। आर्थिक कठिनाई के बाद भी उनके पिता तथा दादाजी ने इन
सबको निभाया। इससे वकील साहब के मन में सबको साथ लेकर चलने का संस्कार निर्माण
हुआ। उनकी शिक्षा ग्राम दुधोंडी, खटाव तथा सतारा में
हुई।1939 में सतारा में एल.एल.बी. करते समय हैदराबाद निजाम के विरुद्ध आंदोलन जोरों पर
था। लक्ष्मणराव ने शिक्षा अधूरी छोड़कर 150 महाविद्यालयीन छात्रों के साथ आंदोलन में भाग लिया।
1943 में महाराष्ट्र के अनेक युवक एक वर्ष के लिए प्रचारक बने। उनमें से एक वकील
साहब को गुजरात में नवसारी नामक स्थान पर भेजा गया; पर वह एक वर्ष जीवन की अंतिम सांस तक चलता रहा। 1952 में वे गुजरात के प्रांत प्रचारक बने। उनके परिश्रम से अगले चार साल में वहां 150 शाखाएं हो गयीं। वे
स्वास्थ्य ठीक रखने के लिए आसन, व्यायाम, ध्यान, प्राणायाम तथा साप्ताहिक उपवास आदि का निष्ठा से पालन करते थे।
सबसे सम्पर्क बनाकर रखना उनकी
एक बड़ी विशेषता थी। पूर्व प्रचारक या जो कार्यकर्ता किसी कारणवश कार्य से अलग हो
गये, अपने प्रवास में ऐसे लोगों से वे अवश्य मिलते थे।
छोटे से छोटे कार्यकर्ता की चिंता करना उनका स्वभाव था। संघ कार्य के कारण
कार्यकर्ता के जीवनयापन या परिवार में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो, यह भी वे ध्यान रखते थे।
1973 में क्षेत्र प्रचारक का दायित्व मिलने पर गुजरात के साथ महाराष्ट्र, विदर्भ तथा नागपुर में भी उनका प्रवास होने लगा। अखिल
भारतीय व्यवस्था प्रमुख बनने पर उनके अनुभव का लाभ पूरे देश को मिलने लगा।
स्वयंसेवक का मन और संस्कार ठीक बना रहे, इसका वे बहुत ध्यान रखते थे।
1982-83 में उनका स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया। एक सम्पन्न स्वयंसेवक ने उन्हें इलाज के
लिए कुछ राशि देनी चाही; पर वकील साहब ने वह राशि निर्धनों के लिए चल रहे
चिकित्सा केन्द्र को दिलवा दी। एक स्वयंसेवक ने संघ कार्यालय के लिए एक पंखा भेंट
करना चाहा। वकील साहब ने उसे यह राशि श्री गुरुदक्षिणा में ही समर्पित करने को
कहा।
प्रचारक बाहर का निवासी होने पर
भी जिस क्षेत्र में काम करता है, उसके साथ एकरूप हो
जाता है। वकील साहब भाषा, बोली या वेशभूषा से सौराष्ट्र के एक सामान्य गुजराती
लगते थे। देश का विभाजन, 1948 और 1975 का प्रतिबंध, सोमनाथ मंदिर का निर्माण, गोहत्या बंदी सत्याग्रह, चीन और पाकिस्तान के आक्रमण, विवेकानंद जन्मशती, गुजरात में बार-बार आने वाले अकाल, बाढ़ व भूकम्प, मीनाक्षीपुरम् कांड ... आदि जो भी चुनौतियां उनके
कार्यकाल में संघ कार्य या देश के लिए आयीं, सबका उन्होंने डटकर सामना किया।
गुजरात में संघ कार्य के शिल्पी
श्री लक्ष्मणराव इनामदार ने 15 जुलाई, 1985 को पुणे में अपना शरीर छोड़ा। गुजरात में न केवल संघ, अपितु संघ प्रेरित हर कार्य में आज भी उनके विचारों
की सुगंध व्याप्त है।
(संदर्भ : ज्योतिपुंज, लेखक नरेन्द्र मोदी)
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22 सितम्बर/जन्म-दिवस
देशभक्त श्रीनिवास शास्त्री
अपने विचारों की स्पष्टता के
साथ ही दूसरे के दृष्टिकोण को भी ठीक से सुनने, समझने एवं स्वीकार करने की क्षमता होने के कारण श्री वी.एस श्रीनिवास शास्त्री
एक समय गांधी जी और लार्ड इरविन में समझौता कराने में सफल हुए। इसके लिए 4 मार्च, 1931 को वायसराय ने पत्र द्वारा उन्हें धन्यवाद दिया - गांधी जी से समझौता कराने में आपने जो भूमिका निभाई है, उसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। आपकी भूमिका बहुत
महत्त्वपूर्ण थी।
वालंगइमान शंकरनारायण श्रीनिवास
शास्त्री का जन्म ग्राम वालंगइमान (जिला तंजौर, कर्नाटक) में 22 सितम्बर, 1869 को हुआ था। यह ग्राम प्रसिद्ध तीर्थस्थल कुम्भकोणम के पास है, जहाँ हर 12 वर्ष बाद विशाल रथयात्रा निकाली जाती है। इनके पिता एक मन्दिर में पुजारी थे।
माता जी भी अति धर्मनिष्ठ थीं। अतः इनका बचपन धार्मिक कथाएं एवं भजन सुनते हुए
बीता। इसका इनके मन पर गहरा प्रभाव हुआ और इन संस्कारों का उनके भावी जीवन में
बहुत उपयोग हुआ।
शिक्षा के प्रति अत्यधिक अनुराग
होने के कारण वे कुम्भकोणम् के ‘नेटिव हाईस्कूल’ में पढ़ने के लिए पैदल ही जाते थे। 1884 में मैट्रिक करने के बाद उन्होंने मद्रास प्रेसिडेन्सी से एफ.ए किया और फिर
मायावरम् नगर पालिका विद्यालय में पढ़ाने लगे। इस दौरान छात्रों में लोकप्रियता और
अनूठी शिक्षण शैली के कारण इनकी उन्नति होती गयी और ये सलेम म्यूनिसिपल कॉलेज में
उपप्राचार्य हो गये। इसके बाद वे मद्रास के पचइप्पा कॉलेज में भी रहे।
इनकी पत्नी का नाम श्रीमती
पार्वती था। 1927 में श्रीनिवास शास्त्री भारत के राजनीतिक प्रतिनिधि बन कर दक्षिण अफ्रीका गये।
वहाँ उनके सामाजिक और राजनीतिक कार्यों से प्रभावित होकर तत्कालीन प्रधानमन्त्री
जे.बी.एच.हरजॉग ने कहा - यदि किसी ने यहां
आकर हमारे दिलों को जीता है, तो वह हैं शास्त्री जी। वहाँ के प्रशासन को उन पर बहुत विश्वास था।
दक्षिण अफ्रीका के समाचार
पत्रों ने उन्हें विश्व के प्रमुख राजनेताओं में एक बताया। उनके प्रभाव को देखकर
लन्दन में आयोजित ‘गोलमेज कान्फ्रेन्स’ में उन्हें कई बार आमन्त्रित किया गया। जेनेवा में ‘लीग ऑफ़ नेशन्स’ के प्रतिनिधियों ने इनकी भाषण कला और विचारों की
गहनता की खूब प्रशंसा की।
राजनीतिक क्षेत्र में शास्त्री
जी ने गोपालकृष्ण गोखले को अपना गुरू माना था। उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा को
उन्होंने अनेक लेखों तथा ‘माई मास्टर गोखले’ नामक पुस्तक में व्यक्त किया है। गोखले जी के देहान्त के बाद वे ‘सर्वेंट्स ऑफ़ इण्डिया सोसायटी’ के अध्यक्ष बने। जब लार्ड पेण्टलैण्ड को 1913 में मद्रास का
गवर्नर बनाकर भेजा गया, तो उन्होंने शास्त्री को विधान मण्डल का सदस्य नामित
कर दिया। मद्रास विधान मण्डल के सदस्यों ने इन्हें 1916 में दिल्ली विधान मण्डल में भेजा।
1920 में वे ‘काउन्सिल ऑफ़ स्टेट’ के लिए निर्वाचित हुए। 1921 में उन्हें ‘प्रिवी काउन्सिल’ का सदस्य बनाया गया तथा इसी वर्ष वायसराय ने इन्हें ‘इम्पीरियल
कान्फ्रेन्स’ का सदस्य मनोनीत किया; पर धीरे-धीरे राजनीति से उनका मोहभंग हो गया और वे फिर शिक्षा जगत में लौट
आये। 1935 में उन्हें अन्नामलै विश्वविद्यालय का कुलपति बनाया गया। इसके बाद भी विदेश
में बसे भारतीयों की समस्याओं पर विचार के लिए कनाडा, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड के प्रधानमन्त्रियों ने
उन्हें आमन्त्रित किया।
देश एवं विदेश में बसे भारतीयों
की सेवा को समर्पित श्रीनिवास शास्त्री का 76 वर्ष की आयु में 17 अपै्रल, 1946 को मद्रास में देहांत हुआ।
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22 सितम्बर/जन्म-दिवस
मधुर वाणी के धनी देबव्रत सिंह
‘देबू दा’ के नाम से प्रसिद्ध श्री देबव्रत सिंह का जन्म 22 सितम्बर, 1929 को बंगाल के दीनाजपुर में हुआ था। आजकल यह क्षेत्र बांग्लादेश में है। मुर्शिदाबाद जिले के बहरामपुर में उनका पैतृक निवास था। श्री भवानी चरण सिंह उनके पिता तथा श्रीमती वीणापाणि देवी उनकी माता थीं। चार भाई और तीन बहिनों वाले परिवार में देबू दा सबसे बड़े थे। उनकी शिक्षा अपने पैतृक गांव बहरामपुर में ही हुई। पढ़ने में वे बहुत अच्छे थे। मैट्रिक की परीक्षा में अच्छे अंक लाने के कारण उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली थी।
बंगाल में श्री शारदा मठ का व्यापक प्रभाव है। यह परिवार भी परम्परागत रूप से उससे जुड़ा था। अतः घर में सदा अध्यात्म का वातावरण बना रहता था। उनकी तीनों बहिनें मठ की शरणागत होकर संन्यासी बनीं। देबू दा भी वहां से दीक्षित थे। यद्यपि वे और उनके छोटे भाई सत्यव्रत सिंह प्रचारक बने।
देबू दा छात्र जीवन में ही स्वयंसेवक बन गये थे। बाल और शिशुओं को खेल खिलाने में उन्हें बहुत आनंद आता था। उनका यह स्वभाव जीवन भर बना रहा। अतः लोग उन्हें ‘छेले धोरा’ (बच्चों को घेरने वाला) कहते थे। संघ पर प्रतिबंध के विरोध में 1949 में सत्याग्रह कर वे जेल गये।
इसके बाद उन्होंने कुछ समय सरकारी नौकरी की। शिक्षानुरागी होने के कारण इसी दौरान उन्होंने होम्योपैथी की पढ़ाई करते हुए डी.एम.एस. की उपाधि भी प्राप्त कर ली। उन दिनों शाखा में एक गीत गाया जाता था, जो देबू दा को बहुत प्रिय था। इसमें देशसेवा के पथिकों को सावधान किया जाता था कि इस मार्ग पर स्वप्न में भी सुख नहीं है। यहां तो केवल दुख ही दुख है। अपने पास यदि कुछ धन-दौलत है, तो उसे भी देश के लिए ही अर्पण करना है। इस गीत से प्रभावित होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और प्रचारक बन गये।
सर्वप्रथम उन्हें आसनसोल जिले में भेजा गया। क्रमशः उनका कार्यक्षेत्र बढ़ता गया और वे उत्तर बंगाल के संभाग प्रचारक बने। देबू दा से भेंट और उनकी प्यार भरी मधुर वाणी से प्रचारक और विस्तारकों की आधी समस्याएं स्वतः हल हो जाती थीं। आपातकाल में वे पुलिस की निगाह में आ गये और जेल भेज दिये गये। वे बहुत कम खाते और कम ही बोलते थे। बंगाल में ‘विद्या भारती’ का काम प्रारम्भ करने तथा कई नये विद्यालय खोलने का श्रेय उन्हें ही है।
1992 में भारत सरकार ने ‘तीन बीघा क्षेत्र’ बंगलादेश को देने का निर्णय किया। बंगाल की जनता इसके घोर विरुद्ध थी। अतः भारतीय जनता पार्टी, अ0भा0विद्यार्थी परिषद जैसी कई देशभक्त संस्थाओं ने ‘सीमांत शांति सुरक्षा समिति’ बनाकर देबू दा के नेतृत्व में इसके विरुद्ध भारी जनांदोलन किया। 25 जून, 1992 को आडवानी जी भी इस आंदोलन में शामिल हुए। इस आंदोलन में देबू दा की समन्वयकारी प्रतिभा तथा नेतृत्व की क्षमता प्रगट हुई। वे इसमें गिरफ्तार भी हुए थे। 1993 में उन्हें बंगाल में भारतीय जनता पार्टी का संगठन मंत्री बनाया गया। इस दायित्व पर वे 2003 तक रहे।
गुणग्राही देबू दा कला, साहित्य और संस्कृति के प्रेमी थे। वे ‘अवसर’ नामक पत्रिका के संचालक सदस्य थे। व्यस्तता के बीच भी वे प्रतिदिन ध्यान एवं पूजा अवश्य करते थे। वृद्धावस्था में वे सिलीगुड़ी के संघ कार्यालय (माधव भवन) में रहते थे। 13 अपै्रल को मस्तिष्काघात के बाद उन्हें चिकित्सालय ले जाया गया, जहां 26 अपै्रल, 2013 को उनका देहांत हुआ।
देबू दा ने काफी समय तक बंगाल के प्रांत प्रचारक श्री वसंतराव भट्ट के निर्देशन में काम किया था। यह भी एक संयोग है कि उसी दिन प्रातः कोलकाता के संघ कार्यालय पर वसंतराव ने भी अंतिम सांस ली थी।
(संदर्भ : स्वस्तिका 6.5.13 तथा 27.5.13)
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22 सितम्बर/जन्म-दिवस
निरहंकारी व्यक्तित्व बाबाराव पुराणिक
श्री अनंत वासुदेव (बाबाराव) पुराणिक का जन्म 22 सितम्बर, 1931 को ग्राम हिंगणी (वर्धा, महाराष्ट्र) में एक पुरोहित श्री वासुदेव पुराणिक एवं श्रीमती यमुनाबाई के घर में हुआ था। आठ भाई और छह बहिनों वाला यह परिवार बहुत निर्धन था। बाबाराव पर अपनी मां का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा।
कक्षा छह की छमाही परीक्षा में वे गणित में फेल हो गये। इस पर गणित के अध्यापक घर आकर उन्हें पढ़ाने लगे; पर बाबाराव चंचल स्वभाव के थे। एक बार वे अध्यापक को आते देख चुपचाप बाहर निकल गये। रात को सात बजे वे घर आये, तो मां ने दरवाजा बंद कर दिया। काफी रोने-धोने के बाद मां ने बारह बजे दरवाजा खोला और तब दोनों ने मिलकर भोजन किया।
इसके बाद बाबाराव रुचि लेकर पढ़ने लगे और वार्षिक परीक्षा में अच्छे अंक लेकर उत्तीर्ण हुए। कक्षा दस में फीस जुटाने के लिए उन्होंने एक महीने तक एक पुस्तक की दुकान पर दिन भर काम किया। वर्धा कॉमर्स कॉलिज से बी.कॉम और फिर प्रथम श्रेणी में एम.कॉम कर वे यवतमाल में प्राध्यापक हो गये।
बाबाराव बाल्यकाल में वर्धा में ही स्वयंसेवक बने। वर्धा निवासी, संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता तथा डा. हेडगेवार के सहयोगी श्री अप्पाजी जोशी का उन पर बहुत प्रभाव था। उनके मार्गदर्शन में उन्होंने वहां छह नयी शाखाएं प्रारम्भ कीं। उनके आग्रह पर ही वे 1964 में प्रचारक बने। वरिष्ठ प्रचारक श्री केशवराव गोरे और मोरोपंत पिंगले के लिए भी उनके मन में बहुत श्रद्धाभाव था।
उन्होंने प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग वर्धा से तथा द्वितीय व तृतीय वर्ष नागपुर से किया। प्रचारक बनने पर वे बिलासपुर विभाग तथा फिर विदर्भ प्रांत प्रचारक रहे। 1987-88 में उन्हें दक्षिण बिहार में सहप्रांत प्रचारक बनाया गया। फिर दक्षिण बिहार प्रांत प्रचारक, उत्तर बिहार प्रांत प्रचारक तथा बिहार क्षेत्र के प्रचारक प्रमुख रहे।
बाबाराव सब तरह के लोगों से सम्बन्ध बना लेने में माहिर थे। 1948 में संघ पर प्रतिबंध के समय वे नागपुर के केन्द्रीय कारागार में बंद थे; पर वहां रहते हुए भी वे कुछ गुप्त गतिविधियां चलाते रहे। 1975 के आपातकाल और संघ पर प्रतिबंध के समय भी उनके विरुद्ध वारंट था। एक गुप्तचर अधिकारी ने उन्हें पहचान कर पकड़ लिया। फिर उसने यह कहकर उन्हें छोड़ भी दिया कि तुम अच्छा काम कर रहे हो, इसलिए सावधान रहो और जाओ।
बाबाराव बहुत मितव्ययी स्वभाव के थे। उनकी दिनचर्या बहुत नियमित थी। वे प्रातः चार बजे उठकर, शौचादि से निवृत्त होकर इतना कठोर व्यायाम करते थे कि शरीर पसीने से भीग जाता था। इसके बाद वे स्नान करके ही प्रातः शाखा पर जाते थे। उनका कंठ भी बहुत अच्छा था। उन्हें बालपन से ही गीत-संगीत में रुचि थी। नागपुर में होने वाले संघ के कार्यक्रमों में वे प्रायः गीत गाते थे। उनकी आवाज भी बहुत बुलंद थी। उन्होंने कई गीतों की लय भी बनायी। उनका प्रिय गीत था -
ऋषि मुनि राजा प्रजा सभी ने, इस पर तन-मन वारा।
प्राणों से भी बढ़कर हमको, है यह भारत प्यारा।।
इसे गाते समय वे भाव विभोर हो जाते थे। वृद्धावस्था में वे छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव नगर स्थित अपने छोटे भाई रमाकांत के साथ रहने लगे। वर्ष 2014 में वहां के स्वयंसेवकों ने बाबाराव की अनुमति और जानकारी के बिना ही उनके नागरिक अभिनंदन का एक कार्यक्रम बना लिया। जब वे कार्यक्रम के लिए तैयार हो रहे थे, तब किसी ने उन्हें बताया कि आज आपका अभिनंदन होना है। इस पर वे नाराज हो गये और वहां जाने से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि सम्मान से अहंकार पैदा होता है, जो पतन का कारण बनता है। सभी कार्यकर्ताओं और परिजनों ने बहुत आग्रह किया; पर वे नहीं माने। ऐसे निरहंकारी व्यक्तित्व के धनी बाबाराव पुराणिक का दस जून, 2015 को राजनांदगांव में निधन हुआ।
(संदर्भ : महेश पुराणिक, राजनांदगांव/वीरेन्द्र जी, एकल योजना, दिल्ली)
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23 सितम्बर/पुण्य-तिथि
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी आचार्य तुलसी
भारत की पुण्य धरा पर अनेक
ऋषियों, सन्तों तथा मनीषियों ने जन्म लेकर अपना तथा समाज का
जीवन सार्थक किया है। ऐसे ही एक मनीषी थे आचार्य श्री तुलसी, जिनका जन्म 20 सितम्बर, 1914 को हुआ था। वे महावीर स्वामी द्वारा प्रवर्तित जैन पन्थ की तेरापन्थ शाखा में
मात्र 11 वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए और 22 वर्ष में इस धर्मसंघ के नौवें अधिशास्ता बन गये।
आचार्य तुलसी यों तो एक पन्थ के
प्रमुख थे; पर उनका व्यक्तित्व सीमातीत था। अपनी मर्यादाओं का
पालन करते हुए भी उनके मन में सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रेम था। इसलिए सभी धर्म, मत और पन्थ, सम्प्रदायों के लोग उनका सम्मान करते थे। उनका जीवन एक खुली किताब की तरह था, जिसे पढ़ने के लिए किसी तरह के अक्षरज्ञान की भी
आवश्यकता नहीं थी। इतना ही नहीं, उसे जितनी बार पढ़ो, हर बार नये अर्थ उद्घाटित होते थे। श्रद्धालु घण्टों
उनके पास बैठकर उनके प्रवचन का आनन्द लेते थे।
आचार्य तुलसी अपने प्रवचन में
गूढ़ तथ्यों को इतनी सरलता से समझाते थे कि सामान्य व्यक्ति को भी वे आसानी से समझ
में आ जाते थे। यद्यपि उनकी भाषा व भाष्य अत्यन्त शुद्ध होते थे; फिर भी उनके चुम्बकीय आकर्षण से बँधकर लोग बैठे रहते
थे। प्रवचन के समय उनकी वाणी ही नहीं, आँखें भी बोलती थीं। आचार्य जी कभी अनावश्यक बात नहीं करते थे; पर उनकी आँखों के संकेत मात्र से ही तेरापन्थ धर्मसंघ
का अनुशासन चलता था। यह उनकी प्रशासनिक कुशलता का परिचायक है।
प्रखर बुद्धि एवं वक्तृत्व कौशल
के धनी आचार्य जी आचरण व व्यवहार को भी अध्यात्म जितनी ही प्राथमिकता देते थे।
इसलिए उनके प्रवचन एवं वार्तालाप में दैनन्दिन जीवन की समस्याओं एवं उनके समाधान
की चर्चा भी होती थी। अपने पन्थ में काम करते हुए भी उनके मन में अनेक नये विषयों
पर मन्थन होता रहता था। इसी को व्यवहार रूप देने के लिए दो मार्च, 1949 को राजस्थान के सरदार शहर कस्बे में विशाल जनसमूह के सम्मुख उन्होंने ‘अणुव्रत’ नामक एक नये आन्दोलन की नींव रखी।
अणुव्रत लोगों में नैतिकता
जगाने का आन्दोलन था। अणु का अर्थ है छोटा और व्रत अर्थात संकल्प। आचार्य जी का मत
था कि हम यदि जीवन में छोटा सा व्रत लेकर उसका निष्ठा से पालन करें, तो न केवल अपना अपितु परिवार एवं आसपास वालों का जीवन
भी बदल जाता है। यह विषय इतना आसान था कि इससे जुड़ने वालों की संख्या क्रमशः बढ़ने
लगी। लाखों लोगों ने अणुव्रत आन्दोलन से प्रेरित होकर हिंसा, मद्यपान, माँसाहार, झूठ, छल, कपट, फरेब आदि अवगुणों
को त्याग दिया।
आचार्य जी जन-जन के कल्याण के
लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहे। अणुव्रत को और अधिक सहज बनाने के लिए उन्होंने इसके
साथ प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान को प्रचलित किया। प्रेक्षाध्यान के माध्यम से
व्यक्ति अन्तर्मुखी होकर स्वयं की अच्छाई एवं कमियों को जानने का प्रयास करता है।
इसी प्रकार जीवन विज्ञान के द्वारा वे जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों के
पीछे छिपे विज्ञान को सबके सम्मुख लाये।
अणुव्रत के प्रचार-प्रसार के
लिए उन्होंने व्यापक भ्रमण किया। जैन मत को वे व्यापक हिन्दू धर्म का एक अभिन्न
अंग मानते थे। वे विश्व हिन्दू परिषद् के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। जन-जन
में जागृति का प्रचार-प्रसार करते हुए 23 सितम्बर, 1999 को उन्होंने सदा के लिए आँखें मूँद लीं।
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23 सितम्बर/जन्म-दिवस
नवदधीचि अनंत रामचंद्र गोखले
अनुशासन के प्रति अत्यन्त कठोर श्री अनंत रामचंद्र गोखले का जन्म 23 सितम्बर, 1918 (अनंत चतुर्दशी) को म.प्र. के खंडवा नगर में एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनका हवेली जैसा निवास ‘गोखले बाड़ा’ कहलाता था। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के पिता श्री सदाशिव गोलवलकर जब खंडवा में अध्यापक थे, तब वे इस घर में ही रहते थे।
नागपुर से इंटर करते समय गोखले जी धंतोली सायं शाखा में जाने लगे। एक सितम्बर, 1938 को वहीं उन्होंने प्रतिज्ञा ली। इंटर की प्रयोगात्मक परीक्षा वाले दिन उन्हें सूचना मिली कि डा. हेडगेवार ने सब स्वयंसेवकों को तुरंत रेशीम बाग बुलाया है। उन दिनों शाखा पर ऐसे आकस्मिक बुलावे (urgent call) के कार्यक्रम भी होते थे। जब गोखले जी वहां पहुंचे, तो डा. जी ने कहा कि तुम्हारी परीक्षा है, इसलिए तुम वापस जाओ। युवा गोखले जी इससे बहुत प्रभावित हुए कि डा. जी जैसे बड़े व्यक्ति को भी उनकी परीक्षा का ध्यान था।
डा. जी के निधन के बाद दिसम्बर, 1940 में नागपुर में अम्बाझरी तालाब के पास तरुण-शिविर लगा था। उसमें श्री गुरुजी ने युवाओं से प्रचारक बनने का आह्नान किया। गोखले जी कानून की प्रथम वर्ष की परीक्षा दे चुके थे; पर पढ़ाई छोड़कर वे प्रचारक बन गये। सर्वप्रथम उन्हें उ.प्र. के कानपुर नगर में भेजा गया। वहां के बाद उन्होंने उरई, उन्नाव, कन्नौज, फरुखाबाद, बांदा आदि में भी शाखाएं खोलीं। प्रवास और भोजन आदि के व्यय का कुछ भार कानपुर के संघचालक जी वहन करते थे, शेष गोखले जी अपने घर से मंगाते थे।
1948-49 में संघ पर प्रतिबंध लगा हुआ था; पर तब तक ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ का गठन हो चुका था। गोखले जी ने 150 स्वयंसेवकों को परिषद की ओर से ‘साक्षरता प्रसार’ के लिए गांवों में भेजा। ये युवक बालकों को खेल खिलाते थे तथा बुजुर्गो में भजन मंडली चलाते थे। प्रतिबंध हटने पर ये खेलकूद और भजन मंडली ही शाखा में बदल गयीं। इस प्रकार उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता से प्रतिबंध काल में भी सैकड़ों शाखाओं की वृद्धि कर दी।
गोखले जी 1942 से 51 तक कानुपर, 1954 तक लखनऊ, 1955 से 58 तक कटक (उड़ीसा) और फिर 1973 तक दिल्ली में रहे। आपातकाल के दौरान उनका केन्द्र नागपुर रहा। तब उन पर मध्यभारत, महाकौशल और विदर्भ का काम था। आपातकाल के बाद उन पर कुछ समय मध्य भारत प्रांत का काम रहा। इस समय उनका केन्द्र इंदौर था। 1978 में वे फिर उ.प्र. में आ गये और पूर्वी उ.प्र. में जयगोपाल जी के साथ सहप्रांत प्रचारक बनाये गये।
गोखले जी को पढ़ने और पढ़ाने का शौक था। जब प्रवास में कष्ट होने लगा, तो उन्हें लखनऊ में ‘लोकहित प्रकाशन’ का काम दिया गया। उन्होंने इस दौरान 150 नयी पुस्तकें प्रकाशित कीं। तथ्यों की प्रामाणिकता और प्रूफ आदि पर वे बहुत ध्यान देते थे। वर्ष 2002 में वृद्धावस्था के कारण उन्होंने सब दायित्वों से मुक्ति ले ली और लखनऊ के ‘भारती भवन’ कार्यालय पर ही रहने लगे। घंटे भर की शाखा के प्रति उनकी श्रद्धा अंत तक बनी रही। चाय, भोजन आदि के लिए समय से पहुंचना उनके स्वभाव में था। अपने कमरे की सफाई और कपड़े धोने से लेकर पौधों की देखभाल तक वे बड़ी रुचि से करते थे।
1991 में पुश्तैनी सम्पत्ति के बंटवारे से उन्हें जो भूमि मिली, वह उन्होंने संघ को दे दी। कुछ साल बाद प्रशासन ने पुल बनाने के लिए 19 लाख रु. में उसका 40 प्रतिशत भाग ले लिया। उस धन से वहां संघ कार्यालय भी बन गया, जिसका नाम ‘शिवनेरी’ रखा गया है। इसके बाद वहां एक इंटर कॉलिज की स्थापना की गयी, जिसमें दो पालियों में 2,500 छात्र-छात्राएं पढ़ते हैं।
नारियल की तरह ऊपर से कठोर, पर भीतर से मृदुल, सैकड़ों प्रचारक और हजारों कार्यकर्ताओं के निर्माता गोखले जी का 25 मई, 2014 को लखनऊ में ही निधन हुआ।
(सितम्बर, 2006 में हुई वार्ता पर आधारित)
http://hi.m.wikipedia.org/wiki/तुलसी_(जैन_संत)
जवाब देंहटाएंwikipidea में आचार्य तुलसी जी का निर्वान दिवस 23 जून 1997 बताया गया है ।
🙏 कृपया स्वामी सत्यमित्रानंद जी का ब्योरा अपडेट करें, उनकी २०१९ में मृत्यु हो चुकी है
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