1 अगस्त/पुण्य-तिथि
उपन्यासकार बाबू देवकीनन्दन खत्री
हिन्दी
में ग्रामीण पृष्ठभूमि पर सामाजिक समस्याओं को जाग्रत करने वाले उपन्यास लिखने के
लिए जहाँ प्रेमचन्द को याद किया जाता है; वहाँ जासूसी उपन्यास विधा को लोकप्रिय करने का श्रेय बाबू
देवकीनन्दन खत्री को है। बीसवीं सदी के प्रारम्भ में एक समय ऐसा भी आया था, जब खत्री जी के उपन्यासों को पढ़ने के लिए ही लाखों
लोगों ने हिन्दी सीखी थी।
बाबू
देवकीनन्दन खत्री का जन्म अपने ननिहाल पूसा (मुजफ्फरपुर, बिहार) में 18 जून, 1861 को हुआ था। इनके पिता श्री ईश्वरदास तथा माता श्रीमती गोविन्दी थीं। इनके
पूर्वज मूलतः लाहौर निवासी थे। महाराजा रणजीत सिंह के देहान्त के बाद उनके पुत्र
शेरसिंह के राज्य में वहाँ अराजकता फैल गयी। अतः ये लोग काशी में बस गये। इनकी
प्रारम्भिक शिक्षा अपने ननिहाल में उर्दू-फारसी में ही हुई। काशी आकर इन्होंने हिन्दी, संस्कृत व अंग्रेजी सीखी।
गया के
टिकारी राज्य में इनकी पैतृक व्यापारिक कोठी थी। वहाँ रहकर इन्होंने अच्छा कारोबार
किया। टिकारी का प्रबन्ध अंग्रेजों के हाथ में जाने के बाद ये स्थायी रूप से काशी
आ गये। काशी नरेश श्री ईश्वरी नारायण सिंह जी से इनके बहुत निकट सम्बन्ध थे। चकिया
तथा नौगढ़ के जंगलों के ठेके मिलने पर इन्होंने वहाँ प्राचीन किले, गुफाओं, झाड़ियों आदि का भ्रमण किया। भावुक प्रवृति के खत्री जी को
इन निर्जन और बीहड़ जंगलों में व्याप्त रहस्यों ने ऐसी प्रेरणा दी कि वे ठेकेदारी
छोड़कर साहित्य की साधना में लग गये।
उन दिनों
सामान्य शिक्षित वर्ग उर्दू तथा फारसी की शिक्षा को ही महत्व देता था। चारों ओर
उर्दू शायरी, कहानी, उपन्यास आदि का प्रचलन था; पर इसमें शराब तथा शबाब का प्रचुर वर्णन होता था।
इसका नयी पीढ़ी पर बहुत खराब असर पड़ रहा था। ऐसे में 1888 में प्रकाशित श्री देवकीनन्दन खत्री के उपन्यासों
ने साहित्य की दुनिया में प्रवेशकर धूम मचा दी। उन दिनों बंगला उपन्यासों के
हिन्दी अनुवाद भी बहुत लोकप्रिय थे; पर हिन्दी में उपन्यास विधा का पहला मौलिक लेखक इन्हें ही
माना जाता है।
इनके
उपन्यासों के ‘गूढ़ पुरुष’ सदा अपने राजा के पक्ष की रक्षा तथा शत्रु-पक्ष को
नष्ट करने की चालें चलते रहते हैं। इसकी प्रेरणा उन्हें संस्कृत के नीति साहित्य
से मिली। उन्होंने चन्द्रकान्ता और चन्द्रकान्ता सन्तति के अतिरिक्त नरेन्द्र
मोहिनी, वीरेन्द्र वीर, कुसुम कुमारी, कटोरा भर खून, लैला-मजनू, अनूठी बेगम, काजर की कोठरी, नौलखा हार, भूतनाथ, गुप्त गोदना नामक उपन्यास भी लिखे।
चन्द्रकान्ता सन्तति के 24 खण्ड प्रकाशित हुए। भूतनाथ के छह खण्ड इनके सामने
तथा 15 इनके बाद प्रकाशित
हुए। इनमें रहस्य, जासूसी और कूटनीति के साथ तत्कालीन राजपूती आदर्श और फिर पतनशील राजपूती जीवन
का जीवन्त वर्णन है। आगे चलकर इन्होंने सुदर्शन, साहित्य सुधा तथा उपन्यास लहरी नामक साहित्यिक पत्र
भी निकाले थे।
गत
वर्षों में दूरदर्शन ने अनेक साहित्यिक कृतियों को प्रसारित किया। इनमें
चन्द्रकान्ता पर बना धारावाहिक बहुत लोकप्रिय हुआ। रामायण और महाभारत के बाद
लोकप्रियता के क्रम में चन्द्रकान्ता का ही नाम लिया जाता है। अपनी यशस्वी लेखनी
से हिन्दी में रहस्य को जीवित-जाग्रत कर हिन्दी को लोकप्रिय करने वाले अमर
उपन्यासकार श्री देवकीनन्दन खत्री का एक अगस्त, 1913 को देहावसान हो गया।
...................
1 अगस्त/जन्म-दिवस
बंगाल में संघ के पर्याय
केशवराव दीक्षित
संघ के प्रचारक जहां भी
भेजे जाते हैं, वहां की भाषा, बोली, खानपान और वेशभूषा से एकरूप हो जाते हैं। ऐसे ही थे श्री केशवराव दीक्षित।
उनका जन्म महाराष्ट्र के जलगांव में एक अगस्त, 1925 को श्री
दत्तात्रेय दीक्षित और माता सगुणा देवी के घर में हुआ था। आठ भाई-बहिनों में उनका
नंबर दूसरा था। यद्यपि परम्परा से उनके परिजन पूजा-पाठ से जीवनयापन करते थे; पर दत्तात्रेय जी ने कपास मिल में नौकरी की।
केशवजी के पिता संघचालक
थे। अतः जलगांव प्रवास में संघ संस्थापक डा. हेडगेवार उनके घर आते ही थे। केशवजी
भी छह वर्ष की अवस्था से ही शाखा में जाने लगे थे। 1939, 40 और 41 में उन्होंने संघ शिक्षा वर्ग के तीनों वर्ष के प्रशिक्षण लिये थे। एक बार
डा. जी ने दत्तात्रेय जी से आग्रह किया कि वे केशव को संघ कार्य के लिए दे दें। 1940 में डा. जी का देहांत हो गया; पर उनकी कही बात केशवजी
को याद रही। अतः 1949 में जलगांव से मराठी और संस्कृत में बी.ए. आनर्स करने के
बाद वे प्रचारक हो गये।
1950 में संघ योजना से वे कोलकाता आये। बड़ा बाजार और फिर विधान
सरणी में रहकर उन्होंने संघ कार्य का विस्तार किया। कोलकाता महानगर से लेकर प्रांत
संपर्क प्रमुख, प्रांत प्रचारक, क्षेत्र बौद्धिक
प्रमुख और पूर्वोत्तर भारत के क्षेत्र प्रचारक की जिम्मेदारी उन पर रही। संघ कार्य
में शारीरिक, बौद्धिक और घोष आदि सभी में वे माहिर थे। संघ के गीत और
प्रार्थना वे बड़ी रुचि से सिखाते थे। वे कहते थे कि संघ कार्य को समझने के लिए
डा. हेडगेवार और उस काल की परिस्थिति को समझना जरूरी है। इससे पता लगेगा कि संघ की
स्थापना किसी तात्कालिक प्रतिक्रिया में नहीं हुई। संघ का काम करने के लिए उच्च
शिक्षा या पैसे की नहीं, मन में सेवा भाव की जरूरत है।
जब कोलकाता में संघ का
अपना भवन बना, तो उसे संघ संस्थापक के नाम पर ‘केशव भवन’ नाम दिया गया; पर केशवराव दीक्षित संघ
से इतने एकरूप हो गये थे कि बहुत से नये लोग इसे उनका घर ही मानते थे। उन्होंने 72 वर्ष तक बंगाल और पूरे पूर्वोत्तर भारत में संघ का काम किया। अतः केशव भवन
में बड़ी संख्या में लोग उनसे मिलने आते थे। वे सबसे बहुत प्रेम से उसका नाम लेकर
बात करते थे। एक बुजुर्ग की तरह उनके घर-परिवार का हालचाल लेते थे तथा आग्रहपूर्वक
कुछ अल्पाहार भी कराते थे।
बंगाल में वामपंथियों और
पूर्वोत्तर भारत में ईसाई प्रभाव के कारण संघ के कार्यकर्ताओं को बहुत कठिनाइयों
का सामना करना पड़ा। संघ को वहां उच्च वर्ग के बंगाली और मारवाड़ी व्यापारियों की
संस्था माना जाता था। इस माहौल में केशव जी ने अथक परिश्रम करते हुए हजारों
स्थानीय कार्यकर्ता तैयार किये। इसका प्रगटीकरण 1992 के जनवरी मास
में बंगाल में हुए एक शीत शिविर में हुआ, जिसमें 20 हजार स्वयंसेवक शामिल हुए। इससे संपूर्ण क्षेत्र में उत्साह का वातावरण बना। 1975 के आपातकाल में तथा 1992 में बाबरी ढांचे के
ध्वंस के बाद संघ पर प्रतिबंध लगाया गया। उस दौर में केशवजी के नेतृत्व में
स्वयंसेवकों ने धैर्यपूर्वक सत्याग्रह कर इस संकट का सामना किया।
केशवजी बड़े दायित्व पर
रहने के बाद भी स्वयं को सामान्य स्वयंसेवक समझते थे। अतः दैनिक शाखा, कार्यालय के प्रातःस्मरण, गीतापाठ आदि में वे
नियमित रूप से शामिल होते थे। वे बहुत शांत, सौम्य और
प्रसिद्धि से दूर रहने वाले थे। विचार की बजाय व्यवहार से सिखाने के कारण वे बंगाल
में संघ कार्य के पर्याय बन गये। लोग उन्हें ‘बंगाली भद्र
मानुष’ ही समझते थे।
लम्बी बीमारी के बाद 20 सितम्बर,
2022 को कोलकाता में उनका देहांत हुआ। हजारों
कार्यकर्ता उन्हें अपना अभिभावक और मार्गदर्शक मानते थे। उनकी प्रेरणा से वे सब
लगातार संघ और विविध क्षेत्रों में काम कर रहे हैं।
(अद्वैत जी, महावीर बजाज, पांचजन्य 2.10.22)
---------------------------
2 अगस्त/प्रेरक-प्रसंग
मंदिर का पुनर्निर्माण
भारत के दक्षिणी राज्य केरल के मल्लापुरम् जिले में मुस्लिम जनसंख्या 71 प्रतिशत है। समुद्रतटीय होने के कारण यहां अरब देशों से मुस्लिम व्यापारी सैकड़ों साल से आते रहे हैं। केरल के लोग भी अरब देशों में नौकरी के लिए बड़ी संख्या में जाते हैं। उनके द्वारा भेजे गये धन से स्थानीय मुसलमान काफी धनी हुए हैं। इसका प्रभाव उनके मकान, दुकान, खानपान और रहन-सहन पर स्पष्ट दिखता है। उनकी मस्जिदें भी बहुत आलीशान बनी हैं।
इसी जिले के मालापरम्बा में स्थित श्री नरसिंहमूर्ति मंदिर लगभग 4000 साल पुराना है। मंदिर के स्वामित्व में हजारों एकड़ भूमि थी। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर और क्षेत्र में कई ऋषियों ने तपस्या की है। अतः दूर-दूर से धर्मप्रेमी लोग यहां पूजा करने आते थे; पर काल के थपेड़ों में मंदिर कई बार गिरा और फिर बना। एक स्थानीय नायर परिवार इसकी देखरेख करता था। लगभग 250 साल पूर्व टीपू सुल्तान ने मंदिर तोड़ा और हजारों लोगों को धर्मान्तरित कर लिया। उनके वंशज आज भी उस क्षेत्र में रहते हैं।
आजादी से कुछ वर्ष पूर्व खान साहब उन्नीन साहब नामक एक धनी व्यापारी ने मंदिर की 600 एकड़ जमीन लीज पर लेकर वहां रबड़ की खेती शुरू कर दी। उसके मन में हिन्दू धर्म के प्रति इतनी घृणा थी कि उसने खंडित मंदिर के पत्थरों से अपने घर में शौचालय बनवाये; पर कुछ ही समय बाद उसके परिवार में भारी बीमारी फैल गयी। उसका कारोबार और खेती भी चैपट हो गया। उसने कुछ ज्योतिषियों से परामर्श किया तो उन्होंने यह देवी-देवताओं का कोप बताकर उसे फिर से मंदिर निर्माण कराने को कहा।
मरता क्या न करता, उसने 1947 में मंदिर का निर्माण करा दिया। कुछ समय बाद उनके घर से बीमारी दूर हो गयी। उनका कारोबार और खेती भी पटरी पर आ गयी। इस चमत्कार से उनके मन में फिर से हिन्दू धर्म के प्रति आस्था दृढ़ हुई और उन्होंने कालीकट के आर्य समाज मंदिर में जाकर सपरिवार हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया। उनका नाम राम सिम्हन और उनके भाई का दया सिम्हन रखा गया। दया सिम्हन आगे चलकर नम्बूदरी ब्राह्मण हो गये और उनका नाम नरसिम्हन नम्बूदरी हो गया।
पर इससे मजहबी नेता भड़क गये। उन्होंने तो आज तक हिन्दुओं को ही धर्मान्तरित होते देखा था; पर कोई फिर से पूर्वजों का पवित्र हिन्दू धर्म स्वीकार करे, यह उन्हें मान्य नहीं था। उनको लगा कि यदि उन्हें सजा नहीं दी गयी, तो हजारों मुसलमान फिर से हिन्दू हो जाएंगे। अतः उन्होंने राम सिम्हन को धमकियां दीं; पर वे विचलित नहीं हुए। अंततः दो अगस्त, 1947 को उन्होंने पूरे परिवार की निर्मम हत्या कर दी और मंदिर भी तोड़ दिया।
इससे पूरे क्षेत्र में आतंक फैल गया। हिन्दू लोग भयभीत होकर चुप बैठ गये; पर धीरे-धीरे वहां संघ आदि संस्थाओं का काम बढ़ा। अतः 60 साल बाद पास के गांव के स्वयंसेवकों ने राम सिम्हन के पौत्रों से संपर्क कर उन्हें फिर से इस काम को आगे बढ़ाने का आग्रह किया। सबने मिलकर न्यायालय में अपील की, तो मंदिर की जमीन ‘श्री नरसिंहमूर्ति मंदिर ट्रस्ट’ को मिल गयी।
इससे पूरे जिले के हिन्दुओं में उत्साह की लहर दौड़ गयी। सबने मिलकर फिर से मंदिर का निर्माण किया। यह मंदिर का चौथा निर्माण था। जुलाई, 2010 में एक भव्य समारोह में भगवान गणेश, भगवान सुब्रह्मण्यन, देवी भगवती और स्वामी अयय्पा की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की गयी। राज्य के कई श्रेष्ठ संतों ने भी मंदिर निर्माण में सहयोग दिया। इस प्रकार हिन्दुओं के संगठित प्रयास से भव्य मंदिर का पुनर्निमाण हुआ। आज यह मंदिर केवल मल्लापुरम् जिले का ही नहीं, पूरे केरल के हिन्दुओं के लिए गौरव का स्थान है।
(संदर्भ : कृ.रू.सं.दर्शन, भाग छह/132) --------------------------------------------------
2 अगस्त/ इतिहास-गाथा
जब तिरंगा गर्व से लहरा उठा
भारत का स्वतन्त्रता दिवस 15 अगस्त, 1947 है। उस दिन अंगे्रज भारत से वापस गये थे। फ्रान्स के कब्जे वाले पांडिचेरी, कारिकल तथा चन्द्रनगर भी उस दिन भारत को मिल गये थे; पर भारत के वे भूभाग, जो पुर्तगालियों के कब्जे में थे, तब भी गुलाम ही बने रहे। इनमें से दादरा और नगर हवेली को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने दो अगस्त, 1954 को अपने शौर्य और पराक्रम से स्वतन्त्र कराया। यह गाथा भी स्वयं में बड़ी रोचक एवं प्रेरक है।
भारत के गुजरात और महाराष्ट्र प्रान्तों के मध्य में बसे गोवा, दादरा, नगर हवेली, दमन एवं दीव पुर्तगाल के अधीन थे। 15 अगस्त के बाद पंडित नेहरु के नेतृत्व में बनी कांग्रेस सरकार ने जब इनकी मुक्ति का कोई प्रयास नहीं किया, तो स्वयंसेवकों ने जनवरी 1954 में संघ के प्रचारक राजाभाऊ वाकणकर के नेतृत्व में यह बीड़ा उठाया। वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से अनुमति लेकर वे इस काम के योग्य साथी तथा साधन एकत्र करने लगे। गुजराती, मराठी आदि 14 भाषाओं के ज्ञाता विश्वनाथ नरवणे ने पूरे समय सिल्वासा में रहकर व्यूह रचना की। हथियारों के लिए काफी धन की आवश्यकता थी। यह कार्य प्रसिद्ध मराठी गायक व संगीतकार सुधीर फड़के को सौंपा गया।
1948 में गांधी जी की हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। यद्यपि प्रतिबन्ध हट चुका था, फिर भी लोग संघ को अच्छी नजर से नहीं देखते थे। ऐसे में सुधीर फड़के ने लता मंगेशकर के साथ मिलकर संगीत कार्यक्रमों के आयोजन से धन एकत्र किया। सब व्यवस्था हो जाने पर राजाभाऊ ने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी को सारी योजना बताकर उनका आशीर्वाद भी ले लिया। इस दल को ‘मुक्तिवाहिनी’ नाम दिया गया। 31 जुलाई, 1954 की तूफानी रात में सब पुणे रेलवे स्टेशन पर एकत्र हुए। वहाँ से कई टुकडि़यों में बँटकर एक अगस्त को मूसलाधार वर्षा में मुम्बई होते हुए सब सिल्वासा पहुँच गये।
योजनानुसार एक निश्चित समय पर सबने हमला बोल दिया और पुलिस थाना, न्यायालय, जेल आदि को मुक्त करा लिया। पुर्तगाली सैनिक यह देखकर डर गये और उन्होंने तुरन्त ही हथियार डाल दिये। अब सब पुर्तगाली शासन के मुख्य भवन पर पहुँच गये। थोड़े से संघर्ष में ही प्रमुख प्रशासक फिंदाल्गो और उसकी पत्नी को बन्दी बना लिया; पर उनकी प्रार्थना पर उन्हें सुरक्षित बाहर जाने दिया गया। दो अगस्त, 1954 को प्रातः जब सूर्योदय हुआ, तो शासकीय भवन पर तिरंगा गर्व से फहरा उठा।
आज सुनने में बड़ा आश्चर्य लगता है; पर यह सत्य है कि केवल 116 स्वयंसेवकों ने एक रात में ही इस क्षेत्र को स्वतन्त्र करा लिया था। इनमें सर्वश्री बाबूराव भिड़े, विनायकराव आप्टे, बाबासाहब पुरन्दरे, डा. श्रीधर गुप्ते, बिन्दु माधव जोशी, मेजर प्रभाकर कुलकर्णी, श्रीकृष्ण भिड़े, नाना काजरेकर, ×यम्बक भट्ट, विष्णु भोंसले, श्रीमती ललिता फड़के व श्रीमती हेमवती नाटेकर आदि की भी प्रमुख भूमिका थी।
एक अन्य बात भी इस बारे में उल्लेखनीय है कि स्वतन्त्रता के लिए कष्ट भोगने वाले स्वाधीनता सेनानियों को कांग्रेस सरकार ने अनेक सुविधाएँ तथा पेंशन दी; पर चूंकि यह क्षेत्र संघ के स्वयंसेवकों ने स्वतन्त्र कराया था, इसलिए नेहरु जी ने इन्हें स्वतन्त्रता सेनानी ही नहीं माना। 1998 में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में इन्हें यह मान्यता मिली।
आगे चलकर भारतीय सेना ने 19 दिसम्बर 1961 को गोवा को भी मुक्त करा लिया।
.............................
2 अगस्त /जन्म-दिवस
गोभक्त प्रचारक राजाराम जी
श्री राजाराम जी का जन्म दो अगस्त, 1960 को राजस्थान के बारां जिले के ग्राम टांचा (तहसील छीपाबड़ौद) में हुआ था। उनके पिता श्री रामप्रताप यादव एक किसान थे। इस कारण खेती और गाय के प्रति उनके मन में बचपन से ही प्रेम और आदर का भाव था। आगे चलकर संघ के प्रचारक बनने के बाद भी उनका यह भाव बना रहा और वह कार्यरूप में परिणत भी हुआ।
राजाराम जी की लौकिक शिक्षा केवल कक्षा 11 तक ही हुई थी। 1977 में आपातकाल और संघ से प्रतिबंध समाप्त होने के बाद संघ के कार्यकर्ताओं ने नये क्षेत्रों में पहुंचने के लिए जनसंपर्क का व्यापक अभियान हाथ में लिया। इसी दौरान राजाराम जी संपर्क में आये। उन्हें यह काम अपने मन और स्वभाव के अनुकूल लगा। अतः 1981 में घर छोड़कर वे प्रचारक बन गये। 1985 तक वे बिलाड़ा में तहसील प्रचारक और फिर एक वर्ष धौलपुर के जिला प्रचारक रहे।
इन दिनों पंजाब में खालिस्तान आंदोलन चरम पर था। हर दिन हिन्दुओं की हत्याएं हो रही थीं। हिन्दू अपनी खेती, व्यापार और सम्पत्ति छोड़कर पलायन कर रहे थे। ऐसे में संघ के कार्यकर्ताओं ने पूरे देश के हर प्रांत से एक साहसी एवं धैर्यवान युवा प्रचारक को पंजाब भेजा। इससे पलायन कर रहे हिन्दुओं में साहस का संचार हुआ।
यद्यपि यह काम बहुत खतरे वाला था। संघ की शाखा पर भी एक बार आतंकियों का हमला हो चुका था। फिर भी देश भर से प्रचारक पंजाब आये। 1986 में राजाराम जी को भी इसी योजना के अन्तर्गत पंजाब भेजा गया। यहां उन्हें रोपड़ जिले के प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी।
कुछ ही समय में वे पंजाब की भाषा, बोली और रीति रिवाजों से समरस हो गये। 1992 तक यह जिम्मेदारी संभालने के बाद वे ‘भारतीय किसान संघ’ के प्रांतीय संगठन मंत्री बनाये गये। इसके बाद 1995 से 98 तक वे कपूरथला और फिर 2002 तक फरीदकोट के जिला प्रचारक रहे।
जब संघ के काम में ग्राम विकास का आयाम जोड़ा गया, तो राजाराम जी को इसकी पंजाब प्रांत की जिम्मेदारी दी गयी। 2004 से 2006 तक पटियाला में विभाग प्रचारक, 2010 तक ग्राम विकास के प्रांत प्रमुख और फिर वे गो संवर्धन के पंजाब प्रांत के प्रमुख बनाये गये। हंसमुख होने के कारण वे हर काम में लोगों को जुटा लेते थे।
यों तो राजाराम जी सभी कार्यों में दक्ष थे; पर गोसेवा में उनके प्राण बसते थे। वे इसे देशभक्ति के साथ ही श्रीकृष्ण की भक्ति भी मानते थे। उनके प्रयास से पंजाब में ‘गोसेवा बोर्ड’ का गठन हुआ। सरकार ने गोहत्या के विरुद्ध बने ढीले कानून को बदलकर गोहत्यारों के लिए 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा निर्धारित की।
इतना होने पर भी वे शांत नहीं बैठे। उनका मत था कि गाय की दुर्दशा का एक बड़ा कारण गोचर भूमि पर गांव के प्रभावी लोगों द्वारा कब्जा कर लेना है। पहले गोवंश इस भूमि पर चरता था; पर अब गोपालकों को चारा खरीदना पड़ता है। अतः गोपालन बहुत महंगा हो गया है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद उन्होंने गोचर भूमि की मुक्ति का अभियान प्रारम्भ किया। उनके प्रयास से पंजाब शासन ने इसके लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया।
इस बीच वे हृदय रोग से पीडि़त हो गये। चिकित्सकों ने उन्हें शल्य क्रिया कराने को कहा; पर वे राज्य में चलने वाली गोशालाओं की स्थिति सुधारने तथा विभिन्न विद्यालयों में चल रही गो-विज्ञान परीक्षा की सफलता हेतु भागदौड़ करते रहे। इसके लिए ही वे मंडी गोविंदगढ़ आये थे। वहां स्वामी कृष्णानंद जी द्वारा गो-कथा का पारायण कराया जा रहा था।
24 नवम्बर, 2013 को कथा के बाद स्वामी जी से चर्चा करते हुए उन्हें भीषण हृदयाघात हुआ और वहीं उनका प्राणांत हो गया। गोभक्त राजाराम जी का अंतिम संस्कार उनके गांव में ही किया गया।
(संदर्भ : वि.सं.केन्द्र, जालंधर/अभिलेखागार, भारती भवन, जयपुर)
--------------------------
3 अगस्त/जन्म-दिवस
राष्ट्रकवि
मैथिलीशरण गुप्त
यों तो
दुनिया की हर भाषा और बोली में काव्य रचने वाले कवि होते हैं। भारत भी इसका अपवाद
नहीं हैं; पर अपनी रचनाओं से
राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाने वाले कवि कम ही होते हैं। श्री मैथिलीशरण गुप्त
हिन्दी भाषा के एक ऐसे ही महान कवि थे, जिन्हें राष्ट्रकवि का गौरव प्रदान किया गया।
श्री
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव (झाँसी, उ.प्र.) में तीन अगस्त, 1886 को सेठ रामचरणदास कनकने के घर में हुआ था। घर में जमींदारी और घी की आढ़त थी।
ऐसे सम्पन्न वातावरण में उनका बचपन सुखपूर्वक बीता। उन दिनों व्यापारी अपना
व्यापारिक हिसाब-किताब प्रायः उर्दू में रखते थे। अतः इनके पिता ने प्रारम्भिक
शिक्षा के लिए इन्हें मदरसे में भेज दिया। वहाँ मैथिलीशरण गुप्त अपने भाई सियाराम
के साथ जाते थे।
पर मदरसे
में उनका मन नहीं लगता था। वे बुन्देलखण्ड की सामान्य वेशभूषा अर्थात ढीली
धोती-कुर्ता, कुर्ते पर देशी कोट, कलीदार और लाल मखमल पर जरी के काम वाली टोपियाँ पहन
कर आते थे। वे प्रायः अपने बड़े-बड़े बस्ते कक्षा में छोड़कर घर चले जाते थे। सहपाठी
उनमें से कागज और कलम निकाल लेते। उनकी दवातों की स्याही अपनी दवातों में डाल लेते; पर वे कभी किसी से कुछ नहीं कहते थे।
उन दिनों
सम्पन्न घरों के बच्चे ईसाइयों द्वारा स॰चालित अंग्रेजी विद्यालयों में पढ़ते थे।
अतः पिताजी ने इन्हें आगे पढ़ने के लिए झाँसी के मैकडोनल स्कूल में भेज दिया; पर भारत और भारतीयता के प्रेमी मैथिलीशरण का मन
अधिक समय तक यहाँ भी नहीं लग सका। वे झाँसी छोड़कर वापस चिरगाँव आ गये। अब घर पर ही
उनका अध्ययन चालू हो गया और उन्होंने संस्कृत, बंगला और उर्दू का अच्छा अभ्यास कर लिया।
इसके बाद
गुप्त जी ने मुन्शी अजमेरी के साथ अपनी काव्य प्रतिभा को परिमार्जित किया। झाँसी
में उन दिनों आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी रेलवे में तारबाबू थे। उनके सम्पर्क
में आकर गुप्त जी ने खड़ी बोली में लिखना प्रारम्भ कर दिया। बोलचाल में वे
बुन्देलखण्डी में करते थे; पर साहित्य लेखन में उन्होंने प्रायः शुद्ध और परिमार्जित हिन्दी का प्रयोग
किया। उनके साहित्य में हर पग पर राष्ट्र और राष्ट्रभाषा से प्रेम की सुगन्ध आती
है।
गुप्त जी
को अपनी भाषा, बोली, क्षेत्र, वेशभूषा और परम्पराओं पर गर्व था। वे प्रायः बुन्देलखण्डी
धोती और बण्डी पहनकर, माथे पर तिलक लगाकर बड़ी मसनद से टिककर अपनी विशाल हवेली में बैठे रहते थे।
उनका हृदय सन्त की तरह उदार और विशाल था। साहित्यप्रेमी हो या सामान्य जन, कोई भी किसी भी समय आकर उनसे मिल सकता था।
राष्ट्रकवि के रूप में ख्याति पा लेने के बाद भी बड़प्पन या अहंकार उन्हें छू नहीं
पाया था।
यों तो
गुप्त जी की रचनाओं की संख्या बहुत अधिक है; पर विशेष ख्याति उन्हें ‘भारत-भारती’ से मिली। उन्होंने लिखा है -
मानस भवन
में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती
भगवान्
भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।।
मैथिलीशरण
गुप्त जी के साहित्य पर हिन्दीभाषी क्षेत्र के सभी विश्वविद्यालयों में शोध हुए
हैं। सभी साहित्यकारों ने उनके कृतित्व पर लिखकर अपनी लेखनी को धन्य किया है। भारत
भारती के इस अमर गायक का निधन 12 दिसम्बर, 1964 को
चिरगाँव में ही हुआ।
.................................
3 अगस्त/जन्म-दिवस
सतत सक्रिय चेतराम जी
पंजाब में जन्म लेकर हिमाचल प्रदेश को कर्मभूमि बनाने वाले चेतराम जी प्रचारक जीवन में और उसके बाद भी प्रचारक की ही तरह सक्रिय रहे। उनका जन्म तीन अगस्त, 1948 को गांव झंडवाला हनुमंता (जिला अबोहर) के एक किसान श्री रामप्रताप एवं श्रीमती दाखा देवी के घर में हुआ था। लगभग 250 साल पहले उनके पूर्वज हनुमंत जी राजस्थान के उदयपुर से यहां आये थे। उनके सत्कार्यों से वह गांव ही झंडवाला हनुमंता कहलाने लगा।
चेतराम जी की शिक्षा गांव मोजगढ़ और फिर अबोहर में हुई। अबोहर में ही वे स्वयंसेवक बने। शिक्षा पूरी होने पर उनकी सरकारी नौकरी लग गयी; पर संघ की लगन होने के कारण 1971 में नौकरी छोड़कर वे प्रचारक बन गये। मुक्तसर नगर और फाजिल्का तहसील के बाद 1973 से 82 तक वे रोपड़ जिला प्रचारक रहे। इस बीच आपातकाल भी लगा; पर पुलिस उन्हें पकड़ नहीं सकी। प्रायः वे रेंजर की वरदी पहन कर वन और पहाड़ों में होते हुए इधर से उधर निकल जाते थे। वे तैरने में भी बहुत कुशल थे।
1982 में उन्हें हिमाचल में बिलासपुर जिले का काम मिला। इसके बाद अंत तक बिलासपुर ही उनका केन्द्र रहा। इस दौरान उन्होंने बिलासपुर के काम को बहुत मजबूत बनाया। कुछ साल बाद वे मंडी विभाग के प्रचारक बने। वे अध्यापकों से बहुत संपर्क रखते थे। इससे छात्रों से भी संपर्क हो जाता था। फिर इसका लाभ शाखा विस्तार के लिए मिलता था। शाखा तथा कार्यकर्ताओं के नाम उन्हें याद रहते थे। अतः वे डायरी आदि का प्रयोग कम ही करते थे।
1990 में किसी मानसिक उलझन के चलते उन्होंने प्रचारक जीवन छोड़ दिया; पर गृहस्थी फिर भी नहीं बसायी। उन्होंने एक गोशाला खोली तथा फिर एक कार्यकर्ता के साथ साझे में ट्रक खरीदा। इससे कुछ आय होने लगी, तो वे प्रांत कार्यवाह के नाते फिर पूरी गति से संघ के काम में लग गये; पर अब प्रवास का व्यय वे अपनी जेब से करते थे। गोशाला का काम उन्होंने अपने भतीजे को सौंप दिया। उन दिनों शिक्षा के क्षेत्र में संघ के कदम बढ़ रहे थे। सबकी निगाह उन पर गयी और उन्हें ‘हिमाचल शिक्षा समिति’ का काम दे दिया गया। चेतराम जी अब विद्यालयों के विस्तार में लग गये।
संघ के वरिष्ठ प्रचारक ठाकुर रामसिंह को चेतराम जी पर बहुत विश्वास था। जब ठाकुर जी पर ‘इतिहास संकलन समिति’ का काम आया, तो उन्होंने हिमाचल प्रदेश में यह काम भी चेतराम जी को ही सौंप दिया। इसके बाद ‘ठाकुर जगदेव चंद स्मृति शोध संस्थान, नेरी (हमीरपुर)’ की देखभाल भी उनके ही जिम्मे आ गयी। चेतराम जी का अनुभव बहुत व्यापक था। इसके साथ ही वे हर काम के बारे में गहन चिंतन करते थे। कार्यकर्ताओं के स्वभाव और प्रवृत्ति को भी वे खूब पहचानते थे। इस कारण उन्हें सर्वत्र सफलता मिलती थी। हिमाचल में आने वाले सभी प्रांत प्रचारक भी उनके परामर्श से ही काम करते थे।
इस भागदौड़ और अस्त-व्यस्तता में वे पार्किन्सन नामक रोग के शिकार हो गये। इससे उन्हें चलने में असुविधा होने लगी। बहुत सी बातें उन्हें अब याद नहीं रहती थीं। दवाओं से कुछ सुधार तो हुआ; पर अब पहले जैसी बात नहीं रही। अतः उनके साथ राकेश नामक एक गृहस्थ कार्यकर्ता को नियुक्त कर दिया गया। राकेश तथा उसकी पत्नी ने चेतराम जी की भरपूर सेवा की। चेतराम जी जहां प्रवास पर जाते थे, तो राकेश भी साथ में जाता था।
चार साल ऐसे ही काम चला; पर फिर कष्ट बढ़ने पर प्रवास से विश्राम देकर बिलासपुर में ही उनके रहने की व्यवस्था कर दी गयी। अंतिम समय में कुछ दिन शिमला मैडिकल कॉलिज में भी उनका इलाज चला। वहां पर ही पांच अगस्त, 2017 को उनका निधन हुआ। उनके परिजनों की इच्छानुसार उनका अंतिम संस्कार उनके पैतृक गांव झंडवाला हनुमंता में ही किया गया।
(संदर्भ : इतिहास दिवाकर, वर्ष 10, अंक 3, अक्तूबर 2017)
----------------------------------------------------------------------------------------
4 अगस्त/जन्म-दिवस
हिमाचल
के गौरव डा. यशवंत सिंह परमार
1947 में देश
स्वतन्त्र होने के बाद 15 अपै्रल, 1948 को
हिमाचल प्रदेश का एक केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में गठन हुआ। तब इसे एक दूरदर्शी
तथा राजनीतिक सूझबूझ वाले नेता व कुशल प्रशासक की आवश्यकता थी। स्वतन्त्रता सेनानी
वैद्य सूरत सिंह ने डा. यशवन्त सिंह परमार की योग्यता को पहचान कर पच्छाद क्षेत्र से उन्हें विधानसभा का
चुनाव लड़ाया। यद्यपि जनता की इच्छा थी कि वैद्य जी स्वयं चुनाव लड़ें। चुनाव जीतने
के बाद डा0 परमार हिमाचल के
प्रथम मुख्यमन्त्री बने।
डा. परमार का जन्म चार अगस्त, 1906 को सिरमौर रियासत के ग्राम चन्हालग में हुआ था।
उन्होंने एम.ए, एल.एल.बी. तथा लखनऊ
विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर सिरमौर रियासत में जिला एवं सत्र
न्यायाधीश तथा फिर दिल्ली में अनेक महत्वपूर्ण शासकीय पदों पर काम किया।
पहाड़ों
में सड़क, बिजली, शिक्षा, व्यापार, उद्योग आदि का अभाव ही रहता है। छोटे-छोटे खेत होने के कारण खेती भी कुछ खास
नहीं होती। लोग प्रायः सेना में या मैदानी भागों में ही नौकरी करते हैं। वे हर
महीने अपने घर धनादेश (मनीआर्डर) से पैसा भेजते हैं, तब परिवार के बाकी लोगों का काम चलता है।
इन
समस्याओं के बीच डा. परमार ने प्रदेश की शिक्षा, कृषि, बागवानी, यातायात, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्र में सुदृढ़ नींव डाली। इससे वह भी
अन्य राज्यों की तरह प्रगति के पथ पर चल पड़ा।डा. यशवन्त सिंह परमार एक दूरदर्शी राजनेता व कुशल
प्रशासक तो थे ही; मनसा, वाचा, कर्मणा वे ठेठ पहाड़ी भी थे। पहाड़ी संस्कृति उनके
रोम-रोम में बसी थी।
नगरीय क्षेत्र में पहाड़ के लोगों का शोषण देखकर उन्होंने
स्वयं को सगर्व पहाड़ी घोषित किया। प्रायः लोग पहाड़ी वस्त्र पहनने में शर्म अनुभव
करते हैं; पर वे सदा लम्बी कमीज, चूड़ीदार पाजामा और लोइया आदि ही पहनते थे। उन्हें
देखकर अन्य लोगों ने इसका अनुसरण किया। इस प्रकार डा. परमार ने पहाड़ी वेशभूषा को गौरव प्रदान किया।
डा. परमार अपनी बोलचाल में प्रायः हिमाचली भाषा-बोली
का ही प्रयोग करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि अपनी बात सब तक पहुँचानी है, तो स्थानीय बोली से अच्छी कोई चीज नहीं है। उन्होंने
हिमाचली भाषा को देवनागरी में लिखने को प्रोत्साहन दिया। उनका मत था कि इससे
हिन्दी को लाभ ही मिलेगा। पहाड़ी भाषा एवं लोक कलाओं के संरक्षण के लिए उन्होंने
हिमाचल कला, संस्कृति व भाषा
अकादमी की स्थापना की।
मुख्यमन्त्री
बनने के बाद भी वे सदा मिट्टी से जुड़े रहे। उनके स्वागत में ग्रामीण लोग जब
लोकनृत्य करतेे, तो वे भी उसमें शामिल
हो जाते थे। लोकपर्व, मेले व तीज-त्योहारों आदि में वे प्रयासपूर्वक उपस्थित रहते थे। ग्रामीण
क्षेत्र में वे असकली, सिड़कु, पटण्डे, लुश्के जैसे स्थानीय पकवानों की माँग करते और
ग्रामीण जनों के बीच में बैठकर पत्तल पर ही भोजन करते थे। उन्होंने अपने लिए कोई
सम्पत्ति एकत्र नहीं की। उनका पैतृक मकान गाँव में आज भी साधारण अवस्था में ही है।
सरलता, सादगी एवं परिश्रम की प्रतिमूर्ति, हिमाचल के निर्माता एवं हिमाचल गौरव जैसे सम्मानों
से विभूषित डा. यशवन्त सिंह परमार
ने 25 वर्ष तक राज्य की
अथक सेवा की। दो मई, 1981 को उनका देहान्त हुआ।
..............................
4 अगस्त/जन्म-दिवस
साहस एवं मनोबल के धनी राधेश्याम जी
संघ के वरिष्ठ प्रचारक राधेश्याम जी का जन्म चार अगस्त, 1949 को उ.प्र. के हाथरस
नगर में श्री राजबहादुर एवं श्रीमती द्रौपदी देवी के घर में हुआ था। उनके घर में पहले
हलवाई का कारोबार था; पर फिर उनके पिताजी
ने डेरी के व्यवसाय को अपना लिया। इस कारण तीन भाई और एक बहिन वाले इस परिवार के खानपान
में सदा दूध, घी आदि की प्रचुरता
रही।
राधेश्याम जी 1961 में हाथरस में स्वयंसेवक
बने। अपने एक कक्षामित्र सतीश के साथ वे दुर्ग सायं शाखा पर जाने लगे। धीरे-धीरे संघ
के प्रति उनका अनुराग बढ़ता गया। 1962, 64, 65 और 71 में उन्होंने क्रमशः
प्राथमिक शिक्षा वर्ग तथा फिर तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण प्राप्त किया। कक्षा
बारह तक की पढ़ाई उन्होंने हाथरस में ही पूर्ण की। इस दौरान वे सायं शाखा के मुख्यशिक्षक, मंडल कार्यवाह तथा
फिर सायं कार्यवाह रहे।
इसके बाद तत्कालीन जिला प्रचारक ज्योति जी के आग्रह पर अलीगढ़ संघ कार्यालय पर रहकर
उन्होंने बी.ए. किया। यहां वे खंड कार्यवाह और फिर सायं कार्यवाह रहे। 1972 में बी.ए. पूर्ण कर
वे प्रचारक बने। दो वर्ष अलीगढ़ नगर के बाद वे बरेली नगर, जिला और फिर विभाग प्रचारक रहे। आपातकाल में वे बरेली में ही
भूमिगत रहे। 1982 से 84 तक वे अलीगढ़ विभाग
प्रचारक; 84 में विद्यार्थी परिषद
में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संगठन मंत्री और फिर 1989 में पूरे उ.प्र. के संगठन मंत्री बनाये गये। इस दौरान अनेक नये कार्यालय तथा बड़ी
संख्या में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने। जिन महाविद्यालयों में कभी परिषद ने छात्रसंघ
चुनाव नहीं जीता था, वहां भी भगवा लहराने
लगा।
पर काम की इस अस्त-व्यस्तता में वे भीषण तनाव के शिकार हो गये। 1995 में मथुरा में एक कार्यकर्ता
के साथ स्कूटर पर जाते समय हुए भीषण मस्तिष्काघात से वे बेहोश हो गये। कई वर्ष तक उनका
इलाज हुआ। दक्षिण की तैल चिकित्सा से काफी ठीक होकर दो वर्ष उन्होंने जबलपुर में वनवासी
क्षेत्र में कार्य किया। फिर बृज प्रांत में सायं शाखाओं का काम संभाला। आजकल वे पश्चिमी
उ.प्र. में संघ द्वारा संचालित छात्रावासों की देखरेख कर रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने
कई पुस्तकों का लेखन एवं संकलन भी किया है।
राधेश्याम जी बहुत साहसी तथा उच्च मनोबल के धनी हैं। वे स्वयं पर ईश्वर की बड़ी
कृपा मानते हैं। मस्तिष्काघात के बाद उनके शरीर का एक भाग निष्क्रिय हो गया। मुंह से
आवाज निकलनी भी बंद हो गयी। ऐसे में उन्होंने करुण हृदय होकर भगवान से कहा कि या तो
वाणी दे दो या फिर प्राण ले लो। भगवान ने उन्हें निराश नहीं किया। एक दिन प्रातः छह
बजे उन्हें लगा कि आकाश से कोई ज्योति उनकी तरफ आ रही है। उन्होंने अपना मुंह खोल दिया।
वह ज्योति उनके मुंह में प्रविष्ट हो गयी। उनके मुंह से रामनाम निकला और वाणी खुल गयी।
तब से वे प्रतिदिन एक घंटा पूजा और राम रक्षास्तोत्र का पाठ करते हैं।
1971 में अलीगढ़ में हुए
दंगे में वे हिन्दुओं को रक्षा में लगे थे। उनके हाथ में गोली लगी, जबकि उनका साथी गुलशन
मारा गया। 1987 में आगरा में वि.परिषद
के राष्ट्रीय अधिवेशन के लिए दो माह पूर्व तक उनकी जेब खाली थी। इस पर परिषद के राष्ट्रीय
संगठन मंत्री मदनदास जी स्वयं धनसंग्रह के लिए तत्पर हुए; पर राधेश्याम जी ने उन्हें मना कर दिया। अगले ही दिन प्रभु कृपा
से दो ऐसे कार्यकर्ता काम में जुड़े कि हर व्यवस्था होती चली गयी।
स्व. माधवराव देवड़े,
रतन भट्टाचार्य तथा ज्योति जी के प्रति राधेश्याम जी के मन में बहुत आदर है। यद्यपि
अब वे काफी ठीक हैं; पर उस भीषण रोग का
दुष्प्रभाव उनकी वाणी,
चाल और स्मृति पर शेष है। ईश्वर उन्हें शीघ्र पूर्ण स्वस्थ करे, जिससे वे स्वयंस्वीकृत
राष्ट्रकार्य को पूरी शक्ति से कर सकें।
(संदर्भ : 19.9.14 को दे.दून में वार्तालाप)
---------------------------------------------------------------------------------
5 अगस्त/जन्म-दिवस
ओजस्वी कवि डा. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
इन दिनों कविता के नाम पर प्रायः चुटकुले और फूहड़ता को ही मंचों पर अधिक स्थान मिल रहा है। यद्यपि श्रेष्ठ काव्य के श्रोताओं की कमी नहीं है; पर फिल्मों और दूरदर्शन के स्तरहीन कार्यक्रमों ने काव्य जैसी दैवी विधा को भी बाजार की वस्तु बना दिया है। वरिष्ठ कवि डा. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ अपने ओजस्वी स्वर से आजीवन इस प्रवृत्ति के विरुद्ध गरजते रहे।
पांच अगस्त, 1916 को ग्राम झगरपुर (जिला उन्नाव, उ.प्र.) में जन्मे मेधावी छात्र शिवमंगल सिंह ने प्रारम्भिक शिक्षा अपने जन्मक्षेत्र में ही पाकर 1937 में ग्वालियर के विक्टोरिया काॅलिज से बी.ए. किया। इसके बाद 1940 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए. तथा 1950 में डी.लिट. की उपाधियां प्राप्त कर उन्होंने अध्यापन को अपनी आजीविका बनाया। वे अच्छे सुघढ़ शरीर के साथ ही तेजस्वी स्वर के भी स्वामी थे। फिर भी उन्होंने अपना उपनाम ‘सुमन’ रखा, जो सुंदरता और कोमलता का प्रतीक है।
जिन दिनों वे ग्वालियर में अध्यापक थे, उन दिनों श्री अटल बिहारी वाजपेयी भी वहां पढ़ते थे, जो आगे चलकर देश के प्रधानमंत्री बने। अटल जी स्वयं भी बहुत अच्छे कवि हैं। उन्होंने अपनी कविताओं पर सुमन जी के प्रभाव को कई बार स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। ग्वालियर के बाद इंदौर और उज्जैन में अध्यापन करते हुए वे विक्रम विश्वविद्यालय के कुलपति बने।
स्वाधीनता के संघर्ष में सहभागी बनने के कारण उनके विरुद्ध वारंट भी जारी हुआ। एक बार आंखों पर पट्टी बांधकर उन्हें किसी अज्ञात स्थान पर ले जाया गया। जब पट्टी खोली गयी, तो सामने क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद खड़े थे। आजाद ने उन्हें एक रिवाल्वर देकर पूछा कि क्या इसे दिल्ली ले जा सकते हो ? सुमन जी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर रिवाल्वर दिल्ली पहुंचा दी।
सुमन जी का अध्ययन गहन और बहुआयामी था। इसलिए उनके भाषण में तथ्य और तर्क के साथ ही इतिहास और परम्परा का समुचित समन्वय होता था। उन्होंने गद्य और नाटक के क्षेत्र में भी काम किया; पर मूलतः वे कवि थे। जब वे अपने ओजस्वी स्वर से काव्यपाठ करते थे, तो मंच का वातावरण बदल जाता था। वे नये रचनाकारों तथा अपने सहयोगियों की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते थे। इस प्रकार उन्होंने कई नये लेखक व कवि तैयार किये।
जिन दिनों सुमन जी युवा थे, उन दिनों वामपंथ की तूती बोल रही थी। अतः वे भी प्रगतिशीलता की इस तथाकथित दौड़ में शामिल हो गये; पर उन्होंने अंतरराष्ट्रीयता के आडम्बर और वाद की गठरी को अपने सिर पर बोझ नहीं बनने दिया। इसलिए उनकी रचनाओं में भारत और भारतीयता के प्रति गौरव की भावना के साथ ही निर्धन और निर्बल वर्ग की पीड़ा सदा मुखर होती थी।
1956 से 1961 तक नेपाल के भारतीय दूतावास में संस्कृति सचिव रहते हुए उन्होंने नेपाल तथा विश्व के अन्य देशों में भारतीय साहित्य के प्रचार व प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें साहित्य अकादमी, पदम्श्री, पदम्भूषण, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार आदि अनेक प्रतिष्ठित सम्मान मिले। 1981 से 1983 तक वे ‘उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान’ के उपाध्यक्ष भी रहे।
हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय-सृजन, विश्वास बढ़ता ही गया, पर आंखें नहीं भरीं, विंध्य-हिमालय, मिट्टी की बारात, वाणी की व्यथा, कटे अंगूठों की वंदनवारें उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं। गद्य में महादेवी की काव्य साधना, गीति काव्य: उद्यम और विकास उल्लेखनीय हैं। प्रकृति पुरुष कालिदास उनका प्रसिद्ध नाटक है। उनकी हर रचना में अनूठी मौलिकता के दर्शन होते हैं।
27 नवम्बर, 2002 को 86 वर्ष की आयु में हिन्दी मंचों के वरिष्ठ कवि तथा समालोचक शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ का उज्जैन में ही निधन हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य 8.12.2002/विकीपीडिया, भारतकोश)
-------------------------
5
अगस्त/पुण्य-तिथि
राष्ट्रीय
वीरता पुरस्कार से सम्मानित मनोज
चौहान
किनारे बसा है। यद्यपि बढ़ते शहरीकरण और
प्रदूषण के कारण अब वह सिकुड़ कर एक नाले जैसी रह गयी है। नदी के तट पर धनपतियों
की विशाल अट्टालिकाओं के साथ-साथ निर्धन और मध्यमवर्गीय परिवारों की बस्तियाँ भी
हैं। वह एक अगस्त, 2005 की काली रात थी, जब इन्दौर और उसके आसपास का क्षेत्र भीषण वर्षा की चपेट में था। सब
लोग गहरी नींद में थे; पर भगवान इन्द्र न जाने
क्यों अपना पूरा क्रोध प्रकट करने को आतुर थे।
कच्चे-पक्के
मकानों की ऐसी ही एक बस्ती का नाम है मारुति नगर। वह अपेक्षाकृत कुछ नीचे की ओर
बसी है। वर्षा के कारण जब नगर की नालियाँ उफनने लगीं, तो सारा पानी इस मारुतिनगर की ओर ही आ गया। थोड़ी ही
देर में पानी ने ऐसा रौद्र रूप दिखाया मानो वह इस बस्ती को डुबा ही देगा। ऐसे में
वहाँ हाहाकार मचना ही था। सब लोग जागकर अपने सामान, बच्चों और पशुओं की सुरक्षा में लग गये।
पर उस
बस्ती में मनोज चौहान नामक एक 17 वर्षीय नवयुवक भी था। वह वहाँ लगने वाली शाखा का मुख्यशिक्षक था। उसके घर की
आर्थिक स्थिति सामान्य थी। पिता मोहल्ले में ही छोटी सी किराने की दुकान चलाते थे।
मनोज की माँ भी कुछ परिवारों में घरेलू काम कर कुछ धन जुटा लेती थीं। इस प्रकार
गृहस्थी की गाड़ी किसी तरह खिंच रही थी।
मनोज
अत्यधिक उत्साही एवं सेवाभावी नवयुवक था। शाखा के संस्कार उसके आचरण में प्रकट
होते थे। बस्ती में किसी पर कोई भी संकट हो, वह सबसे आगे आकर वहाँ सहायता में जुट जाता था। यद्यपि वह
स्वयं घातक हृदयरोग से पीड़ित था। उसके हृदय के दोनों वाल्व खराब होने के कारण
चिकित्सकों ने उसे अत्यधिक परिश्रम से मना किया था; पर मनोज निश्चिन्त भाव से शाखावेश पहनकर बस्ती
वालों की सेवा में लगा रहता था।
बस्ती
में पानी भरने से जब हाहाकार मचा, तो मनोज के लिए शान्त रहना असम्भव था। उसने अपने परिवार को ऊँचे स्थान पर जाने
को कहा और स्वयं पानी में फँसे लोगों को निकालने लगा। उसने 30 लोगों की प्राणरक्षा की और अनेक परिवारों का सामान
भी निकाला। मनोज के साथ उसकी शाखा के सब स्वयंसेवक भी जुट गये। पूरी बस्ती मनोज का
साहस देखकर दंग थी। इस प्रकार पूरी रात बीत गयी। मनोज की माँ ने कई बार उसे पुकारा, उसे याद भी दिलाया कि उसे अत्यधिक परिश्रम की मनाही
है;
पर मनोज की प्राथमिकता आज
केवल बस्ती की रक्षा ही थी।
सारी रात
के इस परिश्रम से मनोज के फेफड़ों में वर्षा का गन्दा पानी भर गया। अगले दिन लोगों
ने बेहोशी की हालत में उसे चिकित्सालय में भर्ती कराया। उसे भीषण निमोनिया हो चुका
था। वहाँ काफी प्रयासों के बाद भी उसे बचाया नहीं जा सका। पाँच अगस्त को उसने
प्राण त्याग दिये। मृत्यु के बाद उसकी शाखा वाली निकर की जेब से बस्ती के निर्धन
परिवारों की सूची मिली, जिन्हें कम्बल, बर्तन, दवा आदि की आवश्यकता
थी।
उसके इस
सेवाकार्य की चर्चा पूरे प्रदेश में फैल गयी। 26 जनवरी, 2006 को गणतन्त्र दिवस के अवसर राष्ट्रपति डा0 अब्दुल कलाम ने मनोज चौहान के कार्य को स्मरण करते हुए उसे
मरणोपरान्त ‘राष्ट्रीय वीरता
पुरस्कार’ से सम्मानित किया।
.................................
6 अगस्त/जन्म-दिवस
पानीबाबा राजेन्द्र सिंह
इन दिनों
विश्व पानी की समस्या से जूझ रहा है। लोग अपनी आवश्यकता से बहुत अधिक पानी प्रयोग
कर रहे हैं। अत्यधिक भौतिकता के कारण पर्यावरण को बहुत हानि हो रही है। हिमनद
सिकुड़ रहे हैं और गंगा-यमुना जैसी सदानीरा नदियाँ सूख रही हैं। कुछ
समाजशास्त्रियों का मत है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। जहाँ पानी पिलाना
पुण्य समझा जाता था, उस भारत में आज पानी 15 रु. लीटर बिक रहा है।
ऐसी
समस्याओं की ओर अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं का ध्यान गया। उनमें से एक हैं ‘पानीबाबा’ के नाम से प्रसिद्ध राजेन्द्र सिंह, जिनका जन्म जिला बागपत (उ.प्र.) के एक गाँव
में छह अगस्त, 1956 को हुआ।
उन्होंने आयुर्वेद में स्नातक तथा हिन्दी में एम.ए. किया। नौकरी के लिए वे
राजस्थान गये; पर नियति ने इन्हें
अलवर जिले में समाजसेवा की ओर मोड़ दिया।
राजेन्द्र
सिंह छात्र जीवन में ही जयप्रकाश नारायण के विचारों से प्रभावित थे। उन्होंने 1975 में राजस्थान विश्वविद्यालय परिसर में हुए
अग्निकाण्ड के पीड़ितों की सेवा के लिए ‘तरुण भारत संघ’ का गठन किया। एक बार जब वे अलवर के एक गाँव में भ्रमण कर
रहे थे, तो एक वृद्ध ने
इन्हें चुनौती देते हुए कहा कि ग्राम विकास करना है, तो बातें छोड़कर गेंती और फावड़ा पकड़ो। गाँव की
सहायता करनी है, तो गाँव में पानी
लाओ।
राजेन्द्र
सिंह ने यह चुनौती स्वीकार कर ली। उन्होंने फावड़ा उठाया और काम में जुट गये।
धीरे-धीरे उनके पीछे युवकों की कतार लग गयी। उन्होंने वर्षा का जल रोकने के लिए 4,500 जोहड़ बनाये। इससे अलवर और उसके पास के सात जिलों
में जलस्तर 60 से 90 फुट तक उठ गया। परिणाम यह हुआ कि उस क्षेत्र की
अरवरी, भगाणी, सरसा, जहाजवाली और रूपारेल जैसी छोटी-बड़ी कई नदियाँ पुनर्जीवित हो
गयीं।
अब तो ‘तरुण भारत संघ’ की चर्चा सब ओर होने लगी। लगन, परिश्रम और कुछ करने की प्रबल इच्छा के साथ-साथ
देशज ज्ञान के प्रति राजेन्द्र सिंह की निष्ठा ने रंग दिखाया। अकाल के कारण पलायन
कर गये ग्रामीण वापस आ गये और क्षेत्र की सूखी धरती फिर से लहलहा उठी। अन्न के साथ
ही वनौषधियों, फलों एवं सब्जियों की
उपज से ग्रामवासियों की आर्थिक दशा सुधरने लगी। कुपोषण, बेरोजगारी और पर्यावरण की समस्या कम हुई। मानव ही
नहीं, पशुओं का स्वास्थ्य
भी अच्छा होने लगा। तत्कालीन राष्ट्रपति श्री नारायणन भी इस चमत्कार को देखने
आये।
इस
अद्भुत सफलता का सुखद पक्ष यह है कि पानी संरक्षण के लिए आधुनिक संयन्त्रों के
बदले परम्परागत विधियों का ही सहारा लिया गया। ये पद्धतियाँ सस्ती हैं और इनके कोई
दुष्परिणाम नहीं हैं। आज राजेन्द्र सिंह के काम को देखने देश-विदेश के हजारों लोग
आते हैं। उन्हें प्रतिष्ठित ‘रेमन मैगसेसे पुरस्कार’ के अतिरिक्त सैकड़ों मान-सम्मान मिले हैं।
लेकिन
राजेन्द्र सिंह को यह सफलता आसानी से नहीं मिली। शासन, प्रशासन, राजनेताओं तथा भूमाफियों ने उनके काम में हर तरह की बाधा
डाली। उन पर हमले किये और सैकड़ों मुकदमों में उन्हें फँसाया; पर कार्यकर्ताओं के दृढ़ निश्चय के आगे सब बाधाएँ
धराशायी हो गयीं। राजेन्द्र सिंह इन दिनों पूरे देश में घूमकर जल संरक्षण के लिए
लोगों को जागरूक कर रहे हैं।
........................
6 अगस्त/इतिहास-स्मृति
त्रिपुरा में चार कार्यकर्ताओं का अपहरण
लोकतन्त्र विरोधी वाममार्गी अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए सदा हत्या, हिंसा, अपहरण आदि अवैध साधनों का प्रयोग करते हैं। दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक प्रखर देशभक्त संगठन है। अतः पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में इनकी सत्ता के दौरान स्वयंसेवकों को शारीरिक हानि उठानी पड़ती है। इन्हें विदेश प्रेरित आतंकी संस्थाओं से भी सहयोग मिलता है।
छह अगस्त, 1999 ऐसा ही एक अशुभ दिन था। उस दिन त्रिपुरा राज्य के कंचनपुर में स्थित ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के एक छात्रावास से संघ के चार वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का अपहरण कर लिया गया। वे थे - पूर्वांचल क्षेत्र कार्यवाह श्री श्यामलकांति सेनगुप्त, विभाग प्रचारक सुधामय दत्त, उत्तर त्रिपुरा जिला प्रचारक शुभंकर चक्रवर्ती और शारीरिक शिक्षण प्रमुख दीपेन्द्र डे। इनमें से श्री श्यामलकांति सेनगुप्त एक सेवानिवृत्त शासकीय अधिकारी थे, जबकि शेष तीन प्रचारक। एक वक्तव्य द्वारा ‘नेशनल लिबरेशन फ्रंट आॅफ त्रिपुरा’ (एन.एल.एफ.टी.) ने इस अपहरण की जिम्मेदारी लेकर इनकी मुक्ति के लिए दो करोड़ रु. और ‘त्रिपुरा स्टेट राइफल्स’ को भंग करने की मांग रखी।
एन.एल.एफ.टी. संगठन बैपटिस्ट मिशन के साथ मिलकर काम करता है। चाय बागानों के धनी मालिक और शासन-प्रशासन के अधिकारियों के अपहरण कर उनसे मोटी राशि वसूलना इसका काम है। शासन सब जानते हुए भी इनसे भयभीत और मौन रहता है। आतंकी जानते थे कि दो करोड़ रु. देना संघ के लिए कोई कठिन काम नहीं है। इससे पूर्व आतंकी गिरोहों या डाकुओं द्वारा अपहृत लोगों की रिहाई के लिए उनके परिजनों या शासन द्वारा पैसा देने के समाचार प्रायः समाचार पत्रों में छपते रहते थे। इस बार ये आतंकी संघ को अपने सामने झुकाना और अपमानित करना चाहते थे।
देश-विदेश में फैले लाखों स्वयंसेवक इस घटना से उद्वेलित थे। अपहृत कार्यकर्ताओं का कैसा शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न किया गया होगा, उनके घर वालों पर क्या बीत रही होगी, यह कल्पना करना कठिन था। फिर भी संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं ने सीने पर पत्थर रखकर आतंकियों के सामने न झुकने का निर्णय किया। कुछ मध्यस्थों द्वारा वार्तालाप का प्रयास भी हुआ; पर कोई परिणाम नहीं निकला। त्रिपुरा शासन ने भी विशेष सहयोग नहीं दिया।
पैसा मिलने में देर होते देखकर आतंकी बौखला गये। उन दिनों दिल्ली में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी। इसमें अटलजी प्रधानमंत्री और लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री थे। उनके आदेश से ‘सीमा सुरक्षा बल’ द्वारा विशेष कमांडो अभियान चलाया गया। इस पर आतंकवादी उन चारों को चटगांव (बंगलादेश) के अपने शिविर में ले गये। भारत सरकार के आग्रह पर बंगलादेश ने दिखावे के लिए कुछ कार्यवाही की; पर उससे क्या होना था ?
इसी असमंजस में दो वर्ष बीत गये। सब लोग निराश हो चले थे। इसी बीच बी.बी.सी. की हिन्दी समाचार सेवा ने उन चारों की निर्मम हत्या का समाचार प्रसारित किया। इसके बाद शासन ने एक बार फिर प्रयास किया; पर अब कुछ शेष नहीं था। अंततः 28 जुलाई, 2001 को शासन की ओर से उनकी हत्या की विधिवत घोषणा कर दी गयी। उनकी हत्या कैसे और कहां की गयी, उनके शवों का क्या हुआ, यह कुछ पता नहीं लगा।
‘पतत्वेषकायो नमस्ते नमस्ते..’ गाते हुए वे चारों कार्यकर्ता तो अमर हो गये; पर उनके परिजन और स्वयंसेवकों को आज भी उनकी प्रतीक्षा है। इन दिनों त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है; पर क्या उन दिवंगत कार्यकर्ताओं के बारे में कुछ सही बात पता लग सकेगी, कहना कठिन है।
(संदर्भ: ध्येययात्री, हो.वे.शेषाद्रि/मेरा देश मेरा जीवन, ला.कृ.आडवाणी)
........................
7 अगस्त/जन्म-दिवस
पुरातत्ववेत्ता : डा. वासुदेवशरण अग्रवाल
ऐतिहासिक
मान्यताओं को पुष्ट एवं प्रमाणित करने में पुरातत्व का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
सात अगस्त, 1904 को
ग्राम खेड़ा (जिला हापुड़, उ.प्र) में जन्मे डा. वासुदेव शरण अग्रवाल ऐसे ही एक मनीषी थे, जिन्होंने अपने शोध से भारतीय इतिहास की अनेक मान्यताओं को
वैज्ञानिक आधार प्रदान किया।
वासुदेव
शरण जी ने 1925 में
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से कक्षा 12 की परीक्षा प्रथम श्रेणी में तथा राजकीय विद्यालय से
संस्कृत की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकी प्रतिभा देखकर उनकी प्रथम श्रेणी की बी.ए की
डिग्री पर मालवीय जी ने स्वयं हस्ताक्षर किये। इसके बाद लखनऊ विश्वविद्यालय से
उन्होंने प्रथम श्रेणी में एम.ए. तथा कानून की उपाधियाँ प्राप्त कीं। इस काल में
उन्हें प्रसिद्ध इतिहासज्ञ डा. राधाकुमुद मुखर्जी का अत्यन्त स्नेह मिला।
कुछ समय
उन्होंने वकालत तथा घरेलू व्यापार भी किया; पर अन्ततः डा. मुखर्जी के आग्रह पर वे मथुरा संग्रहालय से जुड़ गये।
वासुदेव जी ने रुचि लेकर उसे व्यवस्थित किया। इसके बाद उन्हें लखनऊ प्रान्तीय
संग्रहालय भेजा गया, जो अपनी अव्यवस्था के कारण मुर्दा अजायबघर कहलाता था।
1941 में
उन्हें लखनऊ विश्वविद्यालय ने पाणिनी पर शोध के लिए पी-एच.डी की उपाधि दी। 1946 में भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रमुख डा0 मार्टिमर व्हीलर ने मध्य एशिया से प्राप्त सामग्री
का संग्रहालय दिल्ली में बनाया और उसकी जिम्मेदारी डा0 वासुदेव शरण जी को दी। 1947 के बाद दिल्ली में राष्ट्रीय पुरातत्व संग्रहालय
स्थापित कर इसका काम भी उन्हें ही सौंपा गया। उन्होंने कुछ ही समय बाद दिल्ली में
एक सफल प्रदर्शिनी का आयोजन किया। इससे उनकी प्रसिद्धि देश ही नहीं, तो विदेशों तक फैल गयी।
पर
दिल्ली में डा. व्हीलर तथा उनके
उत्तराधिकारी डा. चक्रवर्ती से उनके मतभेद हो गये और 1951 में वे राजकीय सेवा छोड़कर काशी विश्वविद्यालय के
नवस्थापित पुरातत्व विभाग में आ गये। यहाँ उन्होंने ‘कालिज ऑफ़ इंडोलोजी’ स्थापित किया। यहीं रहते हुए उन्होंने हिन्दी तथा
अंग्रेजी में लगभग 50 ग्रन्थों की रचना की।
इनमें भारतीय कला, हर्षचरित: एक सांस्कृतिक अध्ययन, मेघदूत: एक सांस्कृतिक अध्ययन, कादम्बरी: एक सांस्कृतिक अध्ययन, जायसी पद्मावत संजीवनी व्याख्या, कीर्तिलता संजीवनी व्याख्या, गीता नवनीत, उपनिषद नवनीत तथा अंग्रेजी में शिव महादेव: दि ग्रेट ग१ड, स्टडीज इन इंडियन आर्ट.. आदि प्रमुख हैं।
डा. वासुदेवशरण अग्रवाल की मान्यता थी कि भारतीय
संस्कृति ग्राम्य जीवन में रची-बसी लोक संस्कृति है। अतः उन्होंने जनपदीय संस्कृति, लोकभाषा, मुहावरे आदि पर शोध के लिए छात्रों को प्रेरित किया। इससे
हजारों लोकोक्तियाँ तथा गाँवों में प्रचलित अर्थ गम्भीर वाक्यों का संरक्षण तथा
पुनरुद्धार हुआ। उनके काशी आने से रायकृष्ण दास के ‘भारत कला भवन’ का भी विकास हुआ।
भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र के वंशज डा. मोतीचन्द्र तथा डा. वासुदेव शरण के संयुक्त प्रयास से इतिहास, कला तथा संस्कृति सम्बन्धी अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए। उनकी
प्रेरणा से ही डा. मोतीचन्द्र ने ‘काशी का इतिहास’ जैसा महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। वासुदेव जी मधुमेह से
पीड़ित होने के बावजूद अध्ययन, अध्यापन, शोध और निर्देशन में
लगे रहते थे। इसी रोग के कारण 27 जुलाई को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अस्पताल में उनका निधन हुआ।
.......................
7 अगस्त/जन्म-दिवस
हरित क्रांति के पुरोधा डा. स्वामीनाथन
भारत में एक समय अपनी जनसंख्या का पेट भरने के लिए पर्याप्त
अन्न पैदा नहीं होता था। इसे चुनौती के रूप में स्वीकार करने वाले कृषि विज्ञानी
डा. मनकोम्बु संबासिवन स्वामीनाथन का जन्म सात अगस्त, 1925 को तमिलनाडु के
कुंभकोणम में हुआ था। उन्होंने उन्नत आनुवांशिक गेहूं और चावल के बीजों से भारत को
इस भयावह स्थिति से उबारा।
1943 में बंगाल के
भीषण अकाल मेें लाखों लोग मारे गये। युवा स्वामीनाथन के मन पर इससे चोट लगी और
उन्होंने कृषि वैज्ञानिक बनने की ठान ली। यद्यपि 1950 में उनका चयन पुलिस सेवा में हो गया था; पर उन्होंने
नीदरलैंड तथा कैम्ब्रिज में शोध को प्राथमिकता दी। 1965 के युद्ध में अमरीका का हाथ पाकिस्तान के साथ
था। तब वहां से हमें पी.एल.480 गेहूं आता था। उसे अमरीका में जानवर खाते थे; पर हमारे पास कोई
विकल्प नहीं था। ऐसे में तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने देशवासियों
से सोमवार की रात को भोजन छोड़ने का आग्रह किया था; पर समस्या का स्थायी समाधान तो अधिक उपज ही था।
डा. स्वामीनाथन इसी पर काम करने लगे।
1960 में उन्होंने
नोबेल विजेता कृषि विज्ञानी नार्मन बोरलाॅग को उन्नत प्रजाति के मैक्सिकन गेहूं के
बीज भेजने का आग्रह किया। 1963 में बोरलाग ने
भारत में कुछ क्षेत्रों का अध्ययन किया और 100 कि.ग्रा. बीज भेजे। इनका पंतनगर, लुधियाना, कानपुर, पूसा और फिर
दिल्ली के पास जौंती गांव में परीक्षण हुआ, जिसके अच्छे परिणाम मिले। इसके बाद डा. स्वामीनाथन ने बौनी
प्रजातियों पर काम शुरू किया। इससे कम समय में उपज होने लगी तथा किसान दो की बजाय
तीन फसल लेने लगे। इसे ही ‘हरित क्रांति’ कहा गया। यद्यपि
इसमें रासायनिक खादों का अत्यधिक प्रयोग हुआ तथा तीन फसल के कारण जलस्तर गिरने लगा।
अतः कई लोगों ने इसकी आलोचना भी की। इसके कई विपरीत परिणाम अब सर्वत्र दिखाई भी दे
रहे हैं।
अब डा. स्वामीनाथन ने मैक्सिको के बौने गेहूं को जापानी
गेहूं से मिलाकर मिश्रित बीज बनाया। फिर इसमें भारत की परिस्थिति के अनुसार बदलाव
किये। इससे 1968 में गेहूं का उत्पादन
50 लाख टन बढ़ गया।
इसके बाद इनका व्यापक प्रयोग होने से भारत भुखमरी से निकल गया। अतः भारत ने 1971 में अमरीका से
पी.एल.480 समझौता समाप्त
कर दिया। ऐसे प्रयोग उन्होंने चावल पर भी किये। इसी का परिणाम है कि अन्न आयात कर
पेट भरने वाला भारत आज दुनिया को गेहूं और चावल निर्यात करता है। इससे जहां
किसानों की आय बढ़ी, वहां भारत की
खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित हुई।
इस उपलब्धि पर देश-विदेश में डा. स्वामीनाथन को अनेक
उपाधियां और सम्मान मिले। इनमें 84 मानद डाॅक्टरेट हैं। भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म विभूषण’ सम्मान दिया और 2007 में राज्यसभा
में भेजा। 2004 में बने ‘राष्ट्रीय किसान
आयोग’ के द्वारा
उन्होंने किसानों की आवाज बुलंद की। उन्होंने कहा कि किसान को लागत से डेढ़ गुना
दाम मिलना चाहिए। क्योंकि खेती पूरा परिवार मिलकर करता है। उसमें परिश्रम के साथ
मौसम संबंधी खतरे भी हैं। महिला किसानों के लिए उन्होंने क्रेडिट कार्ड लागू
करवाया। यद्यपि उनकी अधिकांश सिफारिशें लागू नहीं हुईं; पर हर जगह उनकी चर्चा
जरूर होती है।
डा. स्वामीनाथन ने अनेक प्रशासनिक पदों पर भी रहे। उन्होंने
कृषि संबंधी नवाचार, शिक्षण और
अनुसंधान पर विशेष जोर दिया। अतः देश में कई कृषि विश्वविद्यालय खोले गये। आज भारत
सरकार मोटे अनाज पर जोर दे रही थी। यह सुझाव उन्होंने पहले ही दिया था। वे किसान
और विज्ञान के बीच में सेतु थे। ऐसे महान कृषि वैज्ञानिक का 28 सितम्बर, 2023 को चेन्नई में
निधन हुआ। देश का हर नागरिक उनका ऋणी है।
(29.9.23 के अखबार)
-----------------------------
7 अगस्त/जन्म-दिवस
ग्राम्य विकास के पुरोधा सुरेन्द्र सिंह चौहान
गांव का विकास केवल सरकारी योजनाओं से नहीं हो सकता। इसके लिए तो ग्रामवासियों की सुप्त शक्ति को जगाना होगा। म.प्र. के नरसिंहपुर जिले में स्थित मोहद ग्राम के निवासी श्री सुरेन्द्र सिंह चौहान ने इस विचार को व्यवहार रूप में परिणत कर अपने गांव को आदर्श बनाकर दिखाया।
‘भैयाजी’ के नाम से प्रसिद्ध श्री सुरेन्द्र सिंह का जन्म सात अगस्त, 1933 को ग्राम मोहद में हुआ था। 1950 से 54 तक जबलपुर में पढ़ते समय वे संघ के स्वयंसेवक बने। इसके बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्होंने अंग्रेजी में स्वर्ण पदक लेकर एम.ए. किया। वे आठ वर्ष तक एक डिग्री काॅलिज में प्राध्यापक भी रहे; पर उनके मन में अपने गांव के विकास की ललक थी। अतः नौकरी छोड़कर वे गांव आ गये और खेतीबाड़ी में लग गये।
संघ की शाखा के प्रति अत्यधिक श्रद्धा होने के कारण उन्होंने गांव की शाखा को ही ग्राम्य विकास का माध्यम बनाया। अंग्रेजी के विद्वान होने पर भी वे व्यवहार में हिन्दी और संस्कृत का ही प्रयोग करते थे। उनके प्रयास से गांव के सब लोग संस्कृत सीख गये। उनका लेख मोती जैसा सुंदर था। संघ में उन्होंने अपने गांव और जिले के कार्यवाह से लेकर महाकौशल प्रांत के सहकार्यवाह और फिर अखिल भारतीय सह सेवाप्रमुख तक की जिम्मेदारी निभाई।
मधुर वाणी और हंसमुख स्वभाव के धनी सुरेन्द्र जी की गांव में बहुत विशाल पुश्तैनी खेती थी। उसमें सभी जाति-वर्ग के लोग काम करते थे। वे उन्हें अपने परिवार का सदस्य मानकर उनके दुख-सुख में शामिल होते थे। छुआछूत और ऊंच-नीच आदि से वे मीलों दूर थे। वे कई वर्ष तक गांव के निर्विवाद सरपंच रहे। समाजसेवी अन्ना हजारे की प्रेरणा से संघ ने भी ग्राम्य विकास का काम हाथ में लिया तथा हर जिले में एक गांव को आदर्श बनाने की योजना बनाई; पर इससे बहुत पूर्व सुरेन्द्र जी स्वप्रेरणा से यह काम कर रहे थे।
उनके गांव में कन्याएं रक्षाबंधन पर पेड़ों को राखी बांधती थीं। इससे हजारों पेड़ बच गये। फ्लश के शौचालय बनने से खुले में शौच जाना बंद हुआ। पर्यावरण शुद्धि के लिए घर में, सड़क के किनारे तथा गांव की फालतू भूमि पर फलदार वृक्ष लगवाये। बच्चे के जन्म पर पेड़ लगाने की प्रथा प्रारम्भ हुई।
हर घर में तुलसी, फुलवाड़ी एवं गाय, बाहरी दीवार पर ॐ तथा स्वस्तिक के चिन्ह, गोबर गैस के संयंत्र एवं निर्धूम चूल्हे, हर गली में कूड़ेदान, रासायनिक खाद एवं कीटनाशक रहित जैविक खेती आदि प्रयोगों से भी लाभ हुआ। हर इंच भूमि को सिंचित किया गया। विद्यालय में प्रेरक वाक्य लिखवाये गये। अध्यापकों के नियमित आने से छात्र अनुशासित हुए और शिक्षा का स्तर सुधर गया। घरेलू विवाद गांव में ही निबटाये जाने लगे। 53 प्रकार के ग्राम आधारित लघु उद्योग भी खोले गये। उनके गांव में कोई धूम्रपान या नशा नहीं करता था।
ग्राम विकास की सरकारी योजना का अर्थ केवल आर्थिक विकास ही होता है; पर सुरेन्द्र जी ने इससे आगे नैतिकता, संस्कार तथा ‘गांव एक परिवार’ जैसे विचारों पर काम किया। उनके गांव को देखने दूर-दूर से लोग आते थे। इन अनुभवों का लाभ सबको मिले, इसके लिए उन्हें संघ में अखिल भारतीय सह सेवाप्रमुख बनाया गया। उन्होंने किरण, उदय तथा प्रभात ग्राम नामक तीन श्रेणी बनाकर ‘ग्राम्य विकास’ को सामाजिक अध्ययन का विषय बना दिया।
विख्यात समाजसेवी नानाजी देशमुख ने चित्रकूट में ‘ग्रामोदय विश्वविद्यालय’ की स्थापना की थी। उन्होंने सुरेन्द्र जी के सफल प्रयोग तथा ग्राम्य विकास के प्रति उनका समर्पण देखकर उन्हें इस वि.वि. का उपकुलपति बनाया। सुरेन्द्र जी ने चार वर्ष तक इस जिम्मेदारी को निभाया। आदर्श ग्राम, स्वावलम्बी ग्राम तथा आदर्श हिन्दू परिवार के अनेक नये प्रयोगों के सूत्रधार श्री सुरेन्द्र सिंह चौहान का एक फरवरी, 2013 को अपने गांव मोहद में ही निधन हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य/आर्गनाइजर/वनस्वर..आदि)
-----------------------------------
7 अगस्त/जन्म-दिवस
अंतिम
सांस तक राष्ट्र-धर्म निभाया :
भानुप्रताप
शुक्ल
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और वरिष्ठ पत्रकार श्री भानुप्रताप शुक्ल का जन्म सात
अगस्त, 1935 को
ग्राम राजपुर बैरिहवाँ, जिला बस्ती( उ.प्र.) में हुआ
था। वे अपने पिता पण्डित अभयनारायण शुक्ल की एकमात्र सन्तान थे। उनके जन्म के 12 दिन बाद ही उनकी जन्मदात्री माँ का देहान्त हो
गया। इस कारण उनका लालन-पालन अपने नाना पण्डित जगदम्बा प्रसाद तिवारी के घर
सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश में
हुआ।
भानु जी
की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में पण्डित राम अभिलाष मिश्र के कठोर अनुशासन
में पूरी हुई। 1951 में वे
संघ के सम्पर्क में आये और 1955 में वे प्रचारक बन गये। भानु जी मेधावी छात्र थे। साहित्य के बीज उनके मन में
सुप्तावस्था में पड़े थे। अतः उन्होंने छुटपुट कहानियाँ, लेख आदि लिखने प्रारम्भ कर दिये। यत्र-तत्र उनके
प्रकाशन से उनका उत्साह बढ़ने लगा।
प्रचारक
जीवन में वे कम ही स्थानों पर रहे। उन दिनों संघ की ओर से अनेक हिन्दी
पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा था। इनका केन्द्र लखनऊ था। उत्तर प्रदेश के
तत्कालीन प्रान्त प्रचारक भाऊराव देवरस और सहप्रान्त प्रचारक दीनदयाल उपाध्याय
इनकी देखरेख करते थे। इन दोनों ने भानु जी की लेखन प्रतिभा को पहचाना और उन्हें
लखनऊ बुला लिया। यहाँ उनका सम्पर्क सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानन्दन पन्त, महादेवी वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर एवं श्रीनारायण चतुर्वेदी जैसे साहित्यकारों
से हुआ।
लखनऊ आकर
भानु जी ने पण्डित अम्बिका प्रसाद वाजपेयी के सान्निध्य में पत्रकारिता के सूत्र
सीखे। धीरे-धीरे उनका आत्मविश्वास बढ़ता गया और वे राष्ट्रधर्म (मासिक) और फिर तरुण
भारत (दैनिक) के सम्पादक बनाये गये। 1975 में आपातकाल लगने पर पांचजन्य (साप्ताहिक) को लखनऊ
से दिल्ली ले जाया गया। इसके साथ भानु जी भी दिल्ली आ गये और फिर अन्त तक दिल्ली
ही उनकी गतिविधियों का केन्द्र रहा।
आपातकाल
में भूमिगत रहकर उन्होंने इन्दिरा गान्धी की तानाशाही के विरुद्ध संघर्ष किया। आगे
चलकर वे पांचजन्य के सम्पादक बने। इस नाते उनका परिचय देश-विदेश के पत्रकारों से
हुआ। उन्होंने भारत से बाहर अनेक देशों की यात्राएँ भी कीं। 1990 के श्रीराम मन्दिर आन्दोलन में वे पूरी तरह सक्रिय
रहे। 31 अक्तूबर और दो
नवम्बर, 1990 को हुए
हत्याकाण्ड के वे प्रत्यक्षदर्शी थे और इसकी जानकारी पांचजन्य के माध्यम से
उन्होंने पूरे देश को दी।
1994 में पांचजन्य से अलग होकर वे स्वतन्त्र रूप से देश के अनेक पत्रों में लिखने लगे। ‘राष्ट्रचिन्तन’ नामक उनका साप्ताहिक स्तम्भ बहुत लोकप्रिय हुआ। उन्होंने
अनेक पुस्तकें लिखीं तथा अनेकों का सम्पादन किया। इनमें राष्ट्र जीवन की दिशा, सावरकर विचार दर्शन, अड़तीस कहानियाँ, आँखिन देखी कानन सुनी..आदि प्रमुख हैं। उन्होंने राष्ट्र, ईमानवाले जैसी अनेक वैचारिक पुस्तकों की लम्बी
भूमिकाएँ भी लिखीं।
कलम के
सिपाही भानु जी ने अपने शरीर की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। कैंसर जैसे गम्भीर
रोग से पीड़ित होने पर भी उन्होंने लेखन का क्रम नहीं तोड़ा। 17 अगस्त, 2006 को दिल्ली के एक अस्पताल में उन्होंने अन्तिम साँस
ली। उनके देहान्त से तीन दिन पहले तक उनका साप्ताहिक स्तम्भ ‘राष्ट्रचिन्तन’ देश के अनेक पत्रों में विधिवत प्रकाशित हुआ था।
............................
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें