पत्नी तथा बेटी की अकाल मृत्यु से वे जीवन के प्रति अनासक्त हो गये। उसके बाद अपना पूरा जीवन उन्होंने संगीत की साधना में ही समर्पित कर दिया। उन दिनों संगीत की पुस्तकें प्रचलित नहीं थीं। गुरु-शिष्य परम्परा के आधार पर ही लोग संगीत सीखते थे; पर पंडित जी इसे सर्वसुलभ बनाना चाहते थे। वे चाहते थे कि संगीत का कोई पाठ्यक्रम हो तथा इसके शास्त्रीय पक्ष के बारे में भी विद्यार्थी जानें।
वे देश भर में संगीत के अनेक उस्तादों व गुरुओं से मिले; पर अधिकांश गुरू उनसे सहमत नहीं थे। अनेक संगीतज्ञ तो अपने राग तथा बंदिशें सबको सुनाते भी नहीं थे। कभी-कभी तो अपनी किसी विशेष बंदिश को वे केवल एक बार ही गाते थे, जिससे कोई उसकी नकल न कर ले। ध्वनिमुद्रण की तब कोई व्यवस्था नहीं थी। ऐसे में पंडित जी इन उस्तादों के कार्यक्रम में पर्दे के पीछे या मंच के नीचे छिपकर बैठते थे तथा स्वरलिपियां लिखते थे। इसके आधार पर बाद में उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे।
आज छात्रों को पुराने प्रसिद्ध गायकों की जो स्वरलिपियां उपलब्ध हैं, उनका बहुत बड़ा श्रेय पंडित भातखंडे को है। संगीत के एक अन्य महारथी पंडित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर भी इनके समकालीन थे। ये दोनों ‘द्विविष्णु’ के नाम से विख्यात थे। जहां पंडित पलुस्कर का योगदान संगीत के क्रियात्मक पक्ष को उजागर करने में रहा, वहां पंडित भातखंडे क्रियात्मक और सैद्धांतिक दोनों पक्ष में सिद्धहस्त थे।
देश की भावी पीढ़ी को संगीत सीखना सुलभ हो सके, इसके लिए पंडित जी ने हिन्दुस्तानी संगीत तथा कर्नाटक संगीत पद्धति का गहन अध्ययन कर ‘स्वर मालिका’ नामक पुस्तक लिखी। रागों की पहचान सुलभता से हो सके, इसके लिए ‘थाट’ को आधार माना। इसी प्रकार कर्नाटक संगीत शैली के आधार पर ‘लक्षण गीतों’ का गायन प्रारम्भ किया।
पंडित जी ने अनेक संगीत विद्यालय प्रारम्भ किये। वे चाहते थे कि संगीत की शिक्षा को एक सुव्यवस्थित स्वरूप मिले। उनकी प्रतिभा को पहचान कर बड़ौदा नरेश ने 1916 में अपनी रियासत में संगीत विद्यालय स्थापित किया। इसके बाद ग्वालियर महाराजा ने भी इसकी अनुमति दी, जो आज ‘माधव संगीत महाविद्यालय’ के नाम से विख्यात है। 1926 में उन्होंने लखनऊ में एक विद्यालय खोला, जिसका नाम अब ‘भातखंडे संगीत विद्यालय’ है। पंडित जी द्वारा बनाये गये पाठ्यक्रम को पूरे भारत में आज भी मान्यता प्राप्त है।
संगीत से सामान्य जनता को जोड़ने के लिए उन्होंने ‘अखिल भारतीय संगीत सम्मेलन’ प्रारम्भ किये। इसमें कोई भी अपनी कला का प्रदर्शन कर सकता था। इससे कई पीढ़ी के संगीतज्ञों को एक साथ मंच पर आने का अवसर मिला। 1933 में उनके पांव की हड्डी टूट गयी। इसके बाद उन्हें पक्षाघात भी हो गया। तीन वर्ष तक वे बीमारी से संघर्ष करते रहे; पर अंततः सृष्टि के अटल विधान की जीत हुई और पंडित जी का 19 सितम्बर 1936 (गणेश चतुर्थी) को देहांत हो गया। उनकी स्मृति में 1961 में उनके जन्म दिवस (जन्माष्टमी) पर भारत सरकार ने एक डाक टिकट जारी किया।
(संदर्भ : केन्द्र भारती जून 2009)
10 अगस्त/पुण्य-तिथि
आदर्श कार्यकर्ता मधुकरराव भागवत
संघ के वर्तमान सरसंघचालक श्री मोहन भागवत के पिता श्री मधुकर राव भागवत एक आदर्श गृहस्थ कार्यकर्ता थे। गुजरात की भूमि पर संघ बीज को रोपने का श्रेय उन्हें ही है। विवाह से पूर्व और बाद में भी प्रचारक के नाते उन्होंने वहां कार्य किया। वे गुजरात के प्रथम प्रांत प्रचारक थे।
श्री मधुकर राव का जन्म नागपुर के पास चन्द्रपुर में हुआ। उनके पिता श्री नारायण राव भागवत सुप्रसिद्ध वकील तथा जिला संघचालक थे। मधुकर राव 1929 में चंद्रपुर में ही स्वयंसेवक बने। डा. हेडगेवार से उनका निकट संपर्क था। मैट्रिक उत्तीर्ण करते तक वे तृतीय वर्ष प्रशिक्षित हो गये।
संघ के घोष और संगीत में उनकी अच्छी रुचि थी। उनके निर्देशन में श्री हरि विनायक दात्ये ने ‘गायनी कला’ नामक एक पुस्तक भी लिखी थी। पुणे से बी.एस-सी कर उन्होंने 1941 में श्री एकनाथ रानाडे के साथ कटनी (म.प्र.) में प्रचारक के नाते काम किया। इसके बाद उन्हें गुजरात में संघ कार्य प्रारम्भ करने के लिए भेजा गया। उन्होंने क्रमशः सूरत, बड़ोदरा तथा कर्णावती में शाखा प्रारम्भ कीं।
माता जी के देहांत के कारण मधुकर राव को विवाह करना पड़ा। कुछ समय बाद पिताजी का भी देहांत हो गया; पर वे इनसे विचलित नहीं हुए। घर का वातावरण संभलते ही वे फिर निकल पड़े। पहले उन्हें श्री गुरुजी के साथ प्रवास की जिम्मेदारी दी गयी। फिर उन्हें गुजरात में प्रांत प्रचारक बनाया गया।
1947 में राजकोट तथा कर्णावती में हुए शिविरों में 4,000 से भी अधिक स्वयंसेवकों ने पूर्ण गणवेश में भाग लिया था। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने तक उनके संगठन कौशल से गुजरात के 115 नगरों में शाखा प्रारम्भ हो गयीं। प्रतिबंध काल में वे जेल में रहे तथा बाद में 1951 तक प्रांत प्रचारक रहे।
प्रचारक जीवन से लौटक्र मधुकर राव ने नागपुर से कानून की उपाधि ली। उस समय उन पर नागपुर नगर और फिर प्रांत कार्यवाह की जिम्मेदारी थी। चंद्रपुर में वकालत प्रारम्भ करते समय वे जिला और फिर विभाग संघचालक बने। उनकी पत्नी श्रीमती मालतीबाई भी राष्ट्र सेविका समिति, भगिनी समाज, वनवासी कल्याण आश्रम, जनसंघ आदि में सक्रिय थीं। 1975 के आपातकाल में पति-पत्नी दोनों गिरफ्तार हुए। बड़े पुत्र श्री मोहन भागवत अकोला में भूमिगत रहकर कार्य कर रहे थे। छोटे पुत्र रंजन ने नागपुर विद्यापीठ में सत्याग्रह किया। इस प्रकार पूरे परिवार ने तानाशाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में आहुति दी।
संघ कार्य के साथ-साथ चंद्रपुर की अन्य सामाजिक गतिविधियों में भी मधुकर राव सक्रिय रहते थे। चंद्रपुर में विधि क१लिज की स्थापना के बाद अनेक वर्ष तक उन्होंने वहां निःशुल्क पढ़ाया। लोकमान्य तिलक स्मारक समिति के वे अध्यक्ष थे। 70 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि के लिए हुई कारसेवा में भाग लिया। वे हर तरह से एक आदर्श कार्यकर्ता थे।
श्री मधुकर राव भागवत का 85 वर्ष की आयु में 10 अगस्त, 2001 को निधन हुआ। उनके प्रशंसक तथा गुजरात के मुख्य मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें संगठन शास्त्र का जीवंत विश्वविद्यालय ठीक ही कहा है।
10 अगस्त/जन्म-दिवस
समाजसेवी पुलिस अधिकारी आचार्य किशोर कुणाल
भारत में पुलिस के नाम और खाकी वरदी से प्रायः लोग डरते हैं; पर आचार्य किशोर
कुणाल ने अपने नये एवं अभिनव प्रयोगों से शासन, प्रशासन, समाजसेवा एवं सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत
किया।
उनका जन्म 10 अगस्त, 1950 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के ग्राम बरुराज में हुआ था। 1970 में उन्होंने
पटना वि.वि. से इतिहास और संस्कृत विषय में बी.ए. किया। 1972 में वे पुलिस
सेवा में आ गये और उन्हें गुजरात काडर मिला। यद्यपि शिक्षा के प्रति अनुराग के
चलते उन्होंने 1983 में इतिहास में
एम.ए. की परीक्षा भी उत्तीर्ण की। इस दौरान उन्हें रामशरण शर्मा एवं द्विजेन्द्र
नारायण झा जैसे विख्यात इतिहासकारों का सान्निध्य मिला।
इसके बाद वे पटना के पुलिस प्रमुख बनाये गये। उन दिनों बिहार की कानून व्यवस्था बहुत खराब थी। जाति, माफिया और परिवारवाद का सर्वत्र बोलबाला था। राजधानी पटना उससे सर्वाधिक दुष्प्रभावित थी; पर किशोर कुणाल ने अपनी बुद्धिमत्ता, व्यवहार कौशल तथा प्रशासनिक कठोरता से उसे ठीक किया।
1985 में उन्होंने पटना जंक्शन के पास स्थित 250 साल पुराने
महावीर मंदिर का जीर्णोद्धार कर उसे विश्वविख्यात धार्मिक केन्द्र बनाया। अतः जनता
ने उन्हें मंदिर न्यास का सचिव बना दिया। शीघ्र ही उन्होंने इसे देश के शीर्ष आय
वाले मंदिरों में ला दिया। उसकी आय का उपयोग महावीर कैंसर संस्थान, महावीर आरोग्य
संस्थान, महावीर नेत्रालय, महावीर वात्सल्य
अस्पताल, महावीर हृदय
अस्पताल तथा वेद विद्यालय आदि संस्थानों के निर्माण में किया। इससे हर जाति और
धर्म के निर्धन लोगों को लाभ मिला।
उनकी मान्यता थी कि पुजारी बनने का अधिकार किसी एक वर्ग को
ही नहीं है। इसके लिए धार्मिक प्रवृत्ति तथा कर्मकांड की जानकारी जरूरी है। अतः
उन्होंने रामानंद संप्रदाय से सम्बद्ध पिछड़ी जाति के व्यक्ति को अनेक प्रख्यात
संतों की उपस्थिति में मुख्य पुजारी बनाया। यह प्रयोग देश भर में सराहा गया। इस
मंदिर में सभी पुजारी और सेवादारों को मंदिर से मासिक दक्षिणा दी जाती है। चढ़ावे
में आने वाली शेष राशि का उपयोग सेवा कार्य में होता है।
किशोर कुणाल में धर्म और समाजसेवा के प्रति भारी रुझान था। 2001 में स्वैच्छिक
सेवा निवृत्ति के बाद शासन ने उन्हें ‘बिहार धर्मस्व न्यास’ का अध्यक्ष बनाया। उन्होंने बिहार के प्रसिद्ध साहित्यकार
आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव के साथ ‘दलित देवोभव’ नामक ग्रंथ लिखा, जिसे भारत सरकार ने प्रकाशित किया। उन्होंने संस्कृत
साहित्य तथा प्राचीन पांडुलिपियों के संकलन एवं उद्धार का भी प्रयास किया। कैमूूर
पहाडि़यों पर स्थित गुप्तकालीन मुुंडेश्वरी भवानी मंदिर को देश का प्राचीनतम मंदिर
सिद्ध करने के लिए अनेक गोष्ठियां कीं। महावीर मंदिर से ‘धर्मायण’ नामक त्रैमासिक
शोध पत्रिका भी निकाली।
श्रीराम मंदिर विवाद के दौरान प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और
विश्वनाथ प्रताप सिंह के कहने पर उन्होंने दोनों पक्षों से वार्ता की; पर कोई परिणाम
नहीं निकला। इस मुकदमे में उनकी पुस्तक ‘अयोध्या रिविजिटेड’ का भी उपयोग हुआ। राम मंदिर के लिए उन्होंने महावीर मंदिर
न्यास की ओर से दस करोड़ रु. का चंदा दिया तथा वहां नियमित भंडारे की व्यवस्था की।
वे अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और
सामाजिक संगठनों के प्रणेता; भारतीय वांग्मय, इतिहास तथा संस्कृति के मूर्धन्य विद्वान थे। इसके लिए
उन्हें अनेक मान और सम्मान भी प्राप्त हुए।
बिहार के प्राचीन मंदिरों के उद्धार और प्रबंधन में भी उनकी
बड़ी भूमिका रही। उन्होंने बिहार के चंपारण में ‘विराट रामायण मंदिर’ का निर्माण शुरू
कराया, जो पूरा होने पर
कंबोडिया के अंगकोरवाट मंदिर से भी बड़ा होगा; पर उसके पूरा होने से पहले ही 29 दिसम्बर, 2024 को हुए हृदयाघात
से उनकी आत्मा हनुमत चरणों में विलीन हो गयी। (hardinpavan.blogspot.com)
(संदर्भ : विकी तथा पांचजन्य 12.1.25/66)
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लोकतन्त्र के सेनानी डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी
प्रयाग उच्च न्यायालय से अपने विरुद्ध आये निर्णय से बौखलाकर 26 जून, 1975 की रात में इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल थोप दिया। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद तथा मंत्रिमंडल के सभी सदस्य इंदिरा गांधी से डरते थे। उन सबने बिना चूं-चपड़ किये इस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिये। विपक्ष के सभी प्रमुख नेताओं को रात में ही घरों से उठाकर जेलों में ठूंस दिया गया। सारे देश में दहशत फैल गयी। पत्र-पत्रिकाओं पर सेंसर थोप दिया गया।
इधर राज्यसभा में लगातार अनुपस्थिति के कारण उनकी सदस्यता समाप्त होने का खतरा था। ऐसे में 10 अगस्त, 1976 को वे अचानक संसद में प्रस्तुत हो गये। राज्यसभा के सभापति श्री बी.डी.जत्ती श्रद्धांजलि वक्तव्य पढ़ रहे थे। इसी बीच खड़े होकर सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा, ‘‘मान्यवर आपने लोकतंत्र को श्रद्धांजलि नहीं दी। उसकी भी तो मृत्यु हो चुकी है।’’
सुब्रह्मण्यम स्वामी को देखते ही वहां हड़कम्प मच गया। कई सांसद तो डर के मारे कुर्सियों की नीचे छिप गये। श्री जत्ती ने सबसे दो मिनट मौन रखने को कहा। इस बीच श्री स्वामी संसद भवन से निकलकर अपनी कार से बिड़ला मंदिर आ गये। यहां उन्होंने अपनी कार खड़ी कर दी। उस समय संजय गांधी की जनसभा के बाद एक जुलूस निकल रहा था। वे कपड़े बदल कर उसमें शामिल होकर रेलवे स्टेशन आ गये। वहां से मथुरा, नागपुर, मुंबई, नेपाल और फिर अमरीका पहुंच गये। भारत सरकार हाथ मलती रह गयी।
15 सितम्बर, 1939 को मायलापुर (चेन्नई) में श्री सीताराम सुब्रह्मण्यम के घर जन्मे डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी राजनीति में भी सक्रिय हैं। वे आई.आई.टी, दिल्ली में प्राध्यापक, चंद्रशेखर मंत्रिमंडल में केन्द्रीय वित्त मंत्री तथा योजना आयोग के सदस्य रहे हैं। प्रखर हिन्दुत्ववादी श्री स्वामी ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। श्री रामसेतु आंदोलन को परिणति तक पहुंचाने का श्रेय उन्हें ही है।
वे कानून के भी अच्छे ज्ञाता हैं। अतः न्यायालय में अपने मुकदमे स्वयं लड़ते हैं। शासकीय भ्रष्टाचार के विरुद्ध चलाये जा रहे उनके अभियान से कई घोटालों से परदा उठा है तथा कई बड़े लोगों को जेल जाना पड़ा है।
(संदर्भ : राजस्थान पत्रिका 5.2.2012)
11 अगस्त/बलिदान-दिवस
अमर बलिदानी खुदीराम बोस
भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास में अनेक कम आयु के वीरों ने भी अपने प्राणों की आहुति दी है। उनमें खुदीराम बोस का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता है। उन दिनों अनेक अंग्रेज अधिकारी भारतीयों से बहुत दुर्व्यवहार करते थे। ऐसा ही एक मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड उन दिनों मुज्जफरपुर, बिहार में तैनात था। वह छोटी-छोटी बात पर भारतीयों को कड़ी सजा देता था। अतः क्रान्तिकारियों ने उससे बदला लेने का निश्चय किया।
कोलकाता में प्रमुख क्रान्तिकारियों की एक बैठक में किंग्सफोर्ड को यमलोक पहुँचाने की योजना पर गहन विचार हुआ। उस बैठक में खुदीराम बोस भी उपस्थित थे। यद्यपि उनकी अवस्था बहुत कम थी; फिर भी उन्होंने स्वयं को इस खतरनाक कार्य के लिए प्रस्तुत किया। उनके साथ प्रफुल्ल कुमार चाकी को भी इस अभियान को पूरा करने का दायित्व दिया गया।
योजना का निश्चय हो जाने के बाद दोनों युवकों को एक बम, तीन पिस्तौल तथा 40 कारतूस दे दिये गये। दोनों ने मुज्जफरपुर पहुँचकर एक धर्मशाला में डेरा जमा लिया। कुछ दिन तक दोनों ने किंग्सफोर्ड की गतिविधियों का अध्ययन किया। इससे उन्हें पता लग गया कि वह किस समय न्यायालय आता-जाता है; पर उस समय उसके साथ बड़ी संख्या में पुलिस बल रहता था। अतः उस समय उसे मारना कठिन था।
अब उन्होंने उसकी शेष दिनचर्या पर ध्यान दिया। किंग्सफोर्ड प्रतिदिन शाम को लाल रंग की बग्घी में क्लब जाता था। दोनों ने इस समय ही उसके वध का निश्चय किया। 30 अपै्रल, 1908 को दोनों क्लब के पास की झाड़ियों में छिप गये। शराब और नाच-गान समाप्त कर लोग वापस जाने लगे। अचानक एक लाल बग्घी क्लब से निकली। खुदीराम और प्रफुल्ल की आँखें चमक उठीं। वे पीछे से बग्घी पर चढ़ गये और परदा हटाकर बम दाग दिया। इसके बाद दोनों फरार हो गये।
परन्तु दुर्भाग्य की बात कि किंग्सफोर्ड उस दिन क्लब आया ही नहीं था। उसके जैसी ही लाल बग्घी में दो अंग्रेज महिलाएँ वापस घर जा रही थीं। क्रान्तिकारियों के हमले से वे ही यमलोक पहुँच गयीं। पुलिस ने चारों ओर जाल बिछा दिया। बग्घी के चालक ने दो युवकों की बात पुलिस को बतायी। खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी सारी रात भागते रहे। भूख-प्यास के मारे दोनों का बुरा हाल था। वे किसी भी तरह सुरक्षित कोलकाता पहुँचना चाहते थे।
प्रफुल्ल लगातार 24 घण्टे भागकर समस्तीपुर पहुँचे और कोलकाता की रेल में बैठ गये। उस डिब्बे में एक पुलिस अधिकारी भी था। प्रफुल्ल की अस्त व्यस्त स्थिति देखकर उसे संदेह हो गया। मोकामा पुलिस स्टेशन पर उसने प्रफुल्ल को पकड़ना चाहा; पर उसके हाथ आने से पहले ही प्रफुल्ल ने पिस्तौल से स्वयं पर ही गोली चला दी और बलिपथ पर बढ़ गये।
इधर खुदीराम थक कर एक दुकान पर कुछ खाने के लिए बैठ गये। वहाँ लोग रात वाली घटना की चर्चा कर रहे थे कि वहाँ दो महिलाएँ मारी गयीं। यह सुनकर खुदीराम के मुँह से निकला - तो क्या किंग्सफोर्ड बच गया ? यह सुनकर लोगों को सन्देह हो गया और उन्होंने उसे पकड़कर पुलिस को सौंप दिया। मुकदमे में खुदीराम को फाँसी की सजा घोषित की गयी। 11 अगस्त, 1908 को हाथ में गीता लेकर खुदीराम हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गये। तब उनकी आयु 18 साल 8 महीने और 8 दिन थी। जहां वे पकड़े गये, उस पूसा रोड स्टेशन का नाम अब खुदीराम के नाम पर रखा गया है।
12 अगस्त/जन्म-दिवस
महान वैज्ञानिक डा. विक्रम साराभाई
जिस समय देश अंग्रेजों के चंगुल से स्वतन्त्र हुआ, तब भारत में विज्ञान सम्बन्धी शोध प्रायः नहीं होते थे। गुलामी के कारण लोगों के मानस में यह धारणा बनी हुई थी कि भारतीय लोग प्रतिभाशाली नहीं है। शोध करना या नयी खोज करना इंग्लैण्ड, अमरीका, रूस, जर्मनी, फ्रान्स आदि देशों का काम है। इसलिए मेधावी होने पर भी भारतीय वैज्ञानिक कुछ विशेष नहीं कर पा रहे थे।
पर स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश का वातावरण बदला। ऐसे में जिन वैज्ञानिकों ने अपने परिश्रम और खोज के बल पर विश्व में भारत का नाम ऊँचा किया, उनमें डा. विक्रम साराभाई का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। उन्होंने न केवल स्वयं गम्भीर शोध किये, बल्कि इस क्षेत्र में आने के लिए युवकों में उत्साह जगाया और नये लोगों को प्रोत्साहन दिया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. कलाम ऐसे ही लोगों में से एक हैं।
डा. साराभाई का जन्म 12 अगस्त, 1919 को कर्णावती (अमदाबाद, गुजरात) में हुआ था। पिता श्री अम्बालाल और माता श्रीमती सरला बाई ने विक्रम को अच्छे संस्कार दिये। उनकी शिक्षा माण्टसेरी पद्धति के विद्यालय से प्रारम्भ हुई। इनकी गणित और विज्ञान में विशेष रुचि थी। वे नयी बात सीखने को सदा उत्सुक रहते थे। श्री अम्बालाल का सम्बन्ध देश के अनेक प्रमुख लोगों से था। रवीन्द्र नाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरू, डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन और सरोजिनी नायडू जैसे लोग इनके घर पर ठहरते थे। इस कारण विक्रम की सोच बचपन से ही बहुत व्यापक हो गयी।
डा. साराभाई ने अपने माता-पिता की प्रेरणा से बालपन में ही यह निश्चय कर लिया कि उन्हें अपना जीवन विज्ञान के माध्यम से देश और मानवता की सेवा में लगाना है। स्नातक की शिक्षा के लिए वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय गये और 1939 में ‘नेशनल साइन्स ऑफ ट्रिपोस’ की उपाधि ली। द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत लौट आये और बंगलौर में प्रख्यात वैज्ञानिक डा. चन्द्रशेखर वेंकटरामन के निर्देशन में प्रकाश सम्बन्धी शोध किया। इसकी चर्चा सब ओर होने पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.एस-सी. की उपाधि से सम्मानित किया। अब उनके शोध पत्र विश्वविख्यात शोध पत्रिकाओं में छपने लगे।
अब उन्होंने कर्णावती (अमदाबाद) के डाइकेनाल और त्रिवेन्द्रम स्थित अनुसन्धान केन्द्रों में काम किया। उनका विवाह प्रख्यात नृत्यांगना मृणालिनी देवी से हुआ। उनकी विशेष रुचि अन्तरिक्ष कार्यक्रमों में थी। वे चाहते थे कि भारत भी अपने उपग्रह अन्तरिक्ष में भेज सके। इसके लिए उन्होंने त्रिवेन्द्रम के पास थुम्बा और श्री हरिकोटा में राकेट प्रक्षेपण केन्द्र स्थापित किये।
डा. साराभाई भारत के ग्राम्य जीवन को विकसित देखना चाहते थे। ‘नेहरू विकास संस्थान’ के माध्यम से उन्होंने गुजरात की उन्नति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वह देश-विदेश की अनेक विज्ञान और शोध सम्बन्धी संस्थाओं के अध्यक्ष और सदस्य थे। अन्तरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करने के बाद भी वे गुजरात विश्वविद्यालय में भौतिकी के शोध छात्रों को सदा सहयोग करते रहे।
डा. साराभाई 20 दिसम्बर, 1971 को अपने साथियों के साथ थुम्बा गये थे। वहाँ से एक राकेट का प्रक्षेपण होना था। दिन भर वहाँ की तैयारियाँ देखकर वे अपने होटल में लौट आये; पर उसी रात में अचानक उनका देहान्त हो गया।
12 अगस्त/जन्म-दिवस
देह एवं सम्पत्तिदानी रामजीदास शर्मा
भारतीय मजदूर संघ में कार्यरत, संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री रामजीदास शर्मा का जन्म 12 अगस्त, 1931 को नूरमहल (जालंधर, पंजाब) में हुआ था। श्री छज्जूराम कटवाल उनके पिता तथा श्रीमती चंद्रकांता देवी उनकी माता थीं। नौ भाई-बहिनों वाले परिवार में रामजीदास जी आठवें नंबर पर थे।
लाहौर में कार्यरत अपने बड़े भाई के पास रहते हुए वे 1942-43 में स्वयंसेवक बने। अपने बड़े भाइयों के साथ उन दिनों होने वाली प्रभात फेरियों में भी वे जाते थे। शिक्षा पूरी कर उन्होंने कुछ वर्ष सेना में काम किया। विभाजन के समय हिन्दुओं को बचाकर सुरक्षित भारत पहुंचाने में स्वयंसेवकों की बड़ी भूमिका रही। रामजीदास जी भी इसमें पूरी तरह सक्रिय थे। शत्रुओं से टक्कर लेने के लिए अस्त्र-शस्त्रों के संग्रह से लेकर विस्फोटकों का निर्माण जैसे काम स्वयंसेवकों ने किये। उस दौरान एक बार उनके पैर के पास बम फट गया। इससे उनके पैर काले पड़ गये, जो फिर जीवन भर ऐसे ही रहे।
रामजीदास जी का प्रचारक जीवन 1954 में उत्तर प्रदेश से प्रारम्भ हुआ। वे कुछ समय मध्य प्रदेश में भी रहे। शुरू में उन्होंने ‘अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद’ में काम किया। इस दौरान प्रचारक बैठकों में आते-जाते उनका श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी से अच्छा सम्पर्क हो गया। अतः 1966 में जब वामपंथियों के गढ़ बंगाल में ‘भारतीय मजदूर संघ’ का काम प्रारम्भ हुआ, तो उन्हें मजदूर संघ की राज्य इकाई का संगठन मंत्री बनाकर वहां भेज दिया गया।
1967 में वहां वामपंथियों की सरकार बनी। हिंसा और विदेशी विचारों पर आधारित कम्यूनिस्ट पार्टी अपना एक नंबर का शत्रु देशभक्त संघ वालों को ही मानती रही है। अतः वामपंथियों के शासन में भारतीय मजदूर संघ सहित संघ विचार के सभी संगठनों के कार्यकर्ताओं को भारी कष्ट उठाने पड़े।
संघर्षशील होने के कारण रामजीदास जी ने वहां वामपंथियों से हर मोर्चे पर टक्कर ली तथा सभी जगह भारतीय मजदूर संघ की सशक्त यूनियनें स्थापित कीं। वे बंगला भाषा सीखकर शीघ्र ही कार्यकर्ताओं तथा आम लोगों के बीच घुलमिल गये। उनके द्वारा स्थापित मजबूत संगठन ही आज भी वहां काम का आधार बना है। कुछ समय उन्होंने केरल तथा कोंकण में भी काम किया।
भारतीय मजदूर संघ के कार्यकर्ताओं को मजदूरों के हित में शासन-प्रशासन से तालमेल बनाने का काम भी करना पड़ता है। ऐसी अधिकांश गतिविधियां देश की राजधानी दिल्ली से ही संचालित होती हैं। रामजीदास जी के व्यापक अनुभव को देखते हुए उन्हें 1996 में दिल्ली के केन्द्रीय कार्यालय का व्यवस्था प्रमुख बनाया गया। इस जिम्मेदारी को उन्होंने मृत्युपर्यन्त निभाया।
बहुभाषी रामजीदास जी हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी, बंगला और संस्कृत में सहजता से बात कर लेते थे। वे हर काम पूर्ण मनोयोग से करते थे। इसलिए कठिनाई के बावजूद उन्हें हर जगह सफलता मिलती थी। ‘नहीं’ और ‘असंभव’ शब्द उनके शब्दकोश में नहीं थे। वे अपनी बात सदा निर्भीक होकर कहते थे। कार्यकर्ताओं के दुख-सुख में शामिल होकर वे शीघ्र ही उन्हें अपना बना लेते थे। अतः कार्यकर्ता भी उनके कंधे से कंधा मिलाकर काम में लग जाते थे।
रामजीदास जी का अपना जीवन तो संघमय था ही; पर उन्होंने अपने परिजनों को भी संघ से जोड़कर रखा। उन्होंने नूरमहल का अपना पैतृक मकान संघ कार्यालय के लिए दान कर दिया। सात नवम्बर, 2015 को उन्होंने दिल्ली में भारतीय मजदूर संघ के पहाड़गंज स्थित कार्यालय में अंतिम सांस ली। उन्होंने अपने देहदान का संकल्प पत्र भरा था। अतः उनकी इच्छानुसार ‘दधीचि देहदान समिति’ के माध्यम से उनकी देह चिकित्सा विज्ञान के छात्रों के व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए ‘मौलाना आजाद मैडिकल काॅलिज’ को दे दी गयी।
(संदर्भ : रवीन्द्रपाल जी, गुड़गांव/जगदीश जी, भा.म.संघ/पांचजन्य 29.11.2015)
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13 अगस्त/जन्म-दिवस
मारवाड़ के रक्षक वीर दुर्गादास राठौड़
अपनी जन्मभूमि मारवाड़ को मुगलों के आधिपत्य से मुक्त कराने वाले वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त, 1638 को ग्राम सालवा में हुआ था। उनके पिता जोधपुर राज्य के दीवान श्री आसकरण तथा माता नेतकँवर थीं। आसकरण की अन्य पत्नियाँ नेतकँवर से जलती थीं। अतः मजबूर होकर आसकरण ने उसे सालवा के पास लूणवा गाँव में रखवा दिया। छत्रपति शिवाजी की तरह दुर्गादास का लालन-पालन उनकी माता ने ही किया। उन्होंने दुर्गादास में वीरता के साथ-साथ देश और धर्म पर मर-मिटने के संस्कार डाले।
उस समय मारवाड़ में राजा जसवन्त सिंह (प्रथम) शासक थे। एक बार उनके एक मुँहलगे दरबारी राईके ने कुछ उद्दण्डता की। दुर्गादास से सहा नहीं गया। उसने सबके सामने राईके को कठोर दण्ड दिया। इससे प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें निजी सेवा में रख लिया और अपने साथ अभियानों में ले जाने लगे। एक बार उन्होंने दुर्गादास को ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ कहा; पर वीर दुर्गादास सदा स्वयं को मारवाड़ की गद्दी का सेवक ही मानते थे।
उस समय उत्तर भारत में औरंगजेब प्रभावी था। उसकी कुदृष्टि मारवाड़ के विशाल राज्य पर भी थी। उसने षड्यन्त्रपूर्वक जसवन्त सिंह को अफगानिस्तान में पठान विद्रोहियों से लड़ने भेज दिया। इस अभियान के दौरान नवम्बर 1678 में जमरूद में उनकी मृत्यु हो गयी। इसी बीच उनकी रानी आदम जी ने पेशावर में एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम अजीत सिंह रखा गया। जसवन्त सिंह के मरते ही औरंगजेब ने जोधपुर रियासत पर कब्जा कर वहाँ शाही हाकिम बैठा दिया। उसने अजीतसिंह को मारवाड़ का राजा घोषित करने के बहाने दिल्ली बुलाया। वस्तुतः वह उसे मुसलमान बनाना या मारना चाहता था।
इस कठिन घड़ी में दुर्गादास अजीत सिंह के साथ दिल्ली पहुंचे। एक दिन अचानक मुगल सैनिकों ने अजीत सिंह के आवास को घेर लिया। अजीत सिंह की धाय गोरा टांक ने पन्ना धाय की तरह अपने पुत्र को वहां छोड़ दिया और उन्हें लेकर गुप्त मार्ग से बाहर निकल गयी। उधर दुर्गादास ने हमला कर घेरा तोड़ दिया और वे भी जोधपुर की ओर निकल गये। उन्होेंने अजीत सिंह को सिरोही के पास कालिन्दी गाँव में पुरोहित जयदेव के घर रखवा कर मुकुनदास खीची को साधु वेश में उनकी रक्षा के लिए नियुक्त कर दिया। कई दिन बाद औरंगजेब को जब वास्तविकता पता लगी, तो उसने बालक की हत्या कर दी।
अब दुर्गादास मारवाड़ के सामन्तों के साथ छापामार शैली में मुगल सेनाओं पर हमले करने लगे। उन्होंने मेवाड़ के महाराणा राजसिंह तथा मराठों को भी जोड़ना चाहा; पर इसमें उन्हें पूरी सफलता नहीं मिली। उन्होंने औरंगजेब के छोटे पुत्र अकबर को राजा बनाने का लालच देकर अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह के लिए तैयार किया; पर दुर्भाग्यवश यह योजना भी पूरी नहीं हो पायी।
अगले 30 साल तक वीर दुर्गादास इसी काम में लगे रहे। औरंगजेब की मृत्यु के बाद उनके प्रयास सफल हुए। 20 मार्च, 1707 को महाराजा अजीत सिंह ने धूमधाम से जोधपुर दुर्ग में प्रवेश किया। वे जानते थे कि इसका श्रेय दुर्गादास को है, अतः उन्होंने दुर्गादास से रियासत का प्रधान पद स्वीकार करने को कहा; पर दुर्गादास ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया। उनकी अवस्था भी अब इस योग्य नहीं थी। अतः वे अजीतसिंह की अनुमति लेकर उज्जैन के पास सादड़ी चले गये। इस प्रकार उन्होंने महाराजा जसवन्त सिंह द्वारा उन्हें दी गयी उपाधि ‘मारवाड़ का भावी रक्षक’ को सत्य सिद्ध कर दिखाया। उनकी प्रशंसा में आज भी मारवाड़ में निम्न पंक्तियाँ प्रचलित हैं -
माई ऐहड़ौ पूत जण, जेहड़ौ दुर्गादास
13 अगस्त/जन्म-दिवस
सद्गुरु श्री टेम्बे महाराज
भारत भूमि का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं, जहाँ किसी पवित्र आत्मा ने जन्म न लिया हो। ऐसे ही एक श्रेष्ठ सन्त थे सदगुरु वासुदेवानन्द सरस्वती, जो टेम्बे महाराज के नाम से विख्यात हुए। महाराज का जन्म 13 अगस्त, 1854 (श्रावण कृष्ण पंचमी) को कोकणपट्टी (महाराष्ट्र) के सिन्धुदुर्ग जिले के माणगाँव में हुआ था। इनका अध्ययन इनके दादा श्री हरिभट्ट जी की देखरेख में हुआ।
उपनयन संस्कार के बाद इन्हें शास्त्रों के ज्ञान के लिए श्री विष्णु उकीडवे जी के पास भेजा गया। प्रखर बुद्धि होने के कारण इन्हें एक ही बार में पाठ याद हो जाता था। इसलिए 12 वर्ष की छोटी अवस्था में ही ये दशग्रन्थी शास्त्री के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
महाराज जी ने शास्त्रों के अध्ययन से अनेक सिद्धियाँ प्राप्त कीं; पर उनका उपयोग उन्होंने कभी अपने लिए नहीं किया। हाँ, दूसरों की सेवा एवं सहायता के लिए वे सदैव तत्पर रहते थे। शास्त्र ज्ञान के बाद अपने गुरु उकीडवे जी के आदेश पर उन्होंने अन्नपूर्णा बाई के साथ गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। यद्यपि इस ओर उनकी कोई रुचि नहीं थी।
कालान्तर में अन्नपूर्णा देवी ने एक मृत पुत्र को जन्म दिया। पत्नी ने इनसे आग्रह किया कि वे अपनी सिद्धि से बालक को जीवित कर दें; पर टेम्बे महाराज ने अपनी पत्नी को यथास्थिति स्वीकार करने का उपदेश दिया। कुछ समय बाद वे पत्नी के साथ ही पण्ढरपुर की यात्रा पर गये; पर मार्ग में ही उसका स्वर्गवास हो गया।
गृहस्थ के इस बन्धन से मुक्त होने के बाद महाराज जी देश भ्रमण पर निकले। उन्होंने नंगे पैर चलने, कभी वाहन तथा छाता प्रयोग न करने का व्रत लिया था, जिसे उन्होंने जीवन भर निभाया। इस प्रकार कठोर जीवन अपनाते हुए उन्होंने अनेक बार देश भ्रमण किया। दत्त जयन्ती के अवसर पर महाराज जी नरसोबाड़ी में चार मास रहे, तब स्वप्न में आकर दत्त महाराज ने इन्हें मन्त्रोपदेश दिया। वहाँ से लौटते समय वे कागल गाँव से दत्त महाराज की पीतल की मूर्त्ति लाये और अपने जन्मस्थान माणगाँव में अपने हाथ से मन्दिर बनाकर उसमें उसकी प्राण प्रतिष्ठा की। इसके बाद वे लगातार सात वर्ष तक वहीं रहे।
अध्यात्म क्षेत्र में इनके गुरु गोविन्द जी महाराज थे। उनके शरीरान्त के समय इन्होंने उनकी हर प्रकार सेवा की। जब लोग इनसे प्रश्न पूछते थे, तो स्वप्न में दत्त महाराज इन्हें उत्तर देते थे। उनके आदेश पर ही ये उज्जयिनी आये और यहाँ नारायणानन्द सरस्वती स्वामी से विधिवत संन्यास की दीक्षा लेकर दण्ड धारण किया। अब उनका नाम वासुदेवानन्द सरस्वती हो गया।
महाराज जी अपने पास केवल चार लंगोट, दो धोती, दण्ड, लकड़ी या बेल का कमण्डल, उपनिषद की पोथी, पंचायतन का सम्पुष्ट, चादर, दत्त महाराज की दो मूर्तियाँ तथा पानी निकालने की डोर ही रखते थे। वे किसी की सेवा लेना पसन्द नहीं करते थे। द्वारका में चातुर्मास करते समय वहाँ के विद्वानों ने उन्हें शंकराचार्य जी की गद्दी स्वीकार करने का आग्रह किया; पर महाराज जी ने विनम्रतापूर्वक मना कर दिया।
सम्वत् 1835 में टेम्बे महाराज का अन्तिम चातुर्मास नर्मदा नदी के तट पर गरुडे़श्वर में हुआ। यह स्थान महाराज जी को अति प्रिय था। यहीं दत्तप्रभु की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने आषाढ़ शुद्ध प्रतिपदा को योगबल से शरीर छोड़ दिया।
14 अगस्त/बलिदान-दिवस
उनका वजन बढ़ गया
अपनी मृत्यु की बात सुनते ही अच्छे से अच्छे व्यक्ति का दिल बैठ जाता है। उसे कुछ खाना-पीना अच्छा नहीं लगता; पर भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐसे क्रान्तिकारी भी हुए हैं, फाँसी की तिथि निश्चित होते ही प्रसन्नता से जिनका वजन बढ़ना शुरू हो गया। ऐसे ही एक वीर थे सरदार बन्तासिंह।
एक बार लाहौर के अनारकली बाजार में एक थानेदार ने उनकी तलाशी लेनी चाही। बन्तासिंह ने उसे टालना चाहा; पर वह नहीं माना। उसकी जिद देखकर बन्तासिंह ने आव देखा न ताव; पिस्तौल निकालकर दो गोली उसके सिर में उतार दी। थानेदार वहीं ढेर हो गया।
अब बन्तासिंह का फरारी जीवन शुरू हो गया। एक दिन उनका एक प्रमुख साथी प्यारासिंह पकड़ा गया। क्रान्तिकारियों ने छानबीन की, तो पता लगा कि जेलर चन्दासिंह उनके पीछे पड़ा है। 25 अपै्रल, 1915 को बन्तासिंह, बूटासिंह और जिवन्द सिंह ने जेलर को उसके घर पर ही गोलियों से भून दिया। इसी प्रकार चार जून, 1915 को एक अन्य मुखबिर अच्छरसिंह को भी ठिकाने लगाकर यमलोक पहुँचा दिया गया।
गदर पार्टी पूरे देश में क्रान्ति की आग भड़काना चाहती थी। इसके लिए बड़ी मात्रा में शस्त्रों की आवश्यकता थी। बन्तासिंह और उसके साथियों ने एक योजना बनायी। उन दिनों क्रान्तिकारियों के भय से रेलगाड़ियों के साथ कुछ सुरक्षाकर्मी चलते थे। एक गाड़ी प्रातः चार बजे बल्ला पुल पर से गुजरती थी। उस समय उसकी गति बहुत कम हो जाती थी। 12 जून, 1915 को क्रान्तिकारी उस गाड़ी में सवार हो गये। जैसे ही पुल आया, उन्होंने सुरक्षाकर्मियों पर ही हमला कर दिया। अचानक हुए हमले से डर कर वे हथियार छोड़कर भाग गये। अपना काम पूरा कर क्रान्तिकारी दल भी फरार हो गया।
अब तो प्रशासन की नींद हराम हो गयी। उन्होंने क्रान्तिकारियों का पीछा किया। बन्तासिंह जंगल में साठ मील तक भागते रहे। वे बच तो गये; पर उनके पैर लहूलुहान हो गये। थकान और बीमारी से सारा शरीर बुरी तरह टूट गया। वे स्वास्थ्य लाभ के लिए घर पहुँचे; पर उनके एक सम्बन्धी को लालच आ गया। वह उन्हें अपने घर ले गया और पुलिस को सूचना दे दी।
पर अब क्या हो सकता था ? उनकी गिरफ्तारी का समाचार मिलते ही उनके दर्शन के लिए पूरा नगर उमड़ पड़ा। हथकड़ी और बेड़ियों में जकड़े बन्तासिंह ने नगरवासियांे को देखकर कहा कि मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। कुछ समय बाद ही ये अंग्रेज आपके पैरों पर लोटते नजर आयेंगे। ‘भारत माता की जय’ ओर ‘बन्तासिंह जिन्दाबाद’ के नारों से न्यायालय गूँज उठा।
बन्तासिंह को 25 जून को पकड़ा गया था। उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर 14 अगस्त, 1915 को फाँसी दे दी गयी। देश के लिए बलिदान होने की खुशी में इन 50 दिनों में उनका वजन 4.5 किलो बढ़ गया था।
14 अगस्त/जन्म-दिवस
वरिष्ठ प्रचारक शशिकांत चौथाइवाले
श्री शशिकांत कृष्णराव चौथाइवाले का जन्म 14 अगस्त, 1937 (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) को कलमेश्वर (महाराष्ट्र) में हुआ था। यह परिवार मूलतः बारसी (सोलापुर) का निवासी है। इनकी माता श्रीमती इंदिरा चौथाइवाले थीं।
उस समय सबसे बड़े भाई बाबूराव शाखा के मुख्यशिक्षक थे। शाखा का ध्वज उनके घर पर ही रहता था। सब भाइयों ने मिलकर ध्वज को अनाज के कुठार में छिपा दिया। कुछ देर तक उपद्रवी घर को छानते रहे; पर जब कुछ नहीं मिला, तो निराश होकर चले गये। बाबूराव के कारण इस घर में संघ के सभी कार्यकर्ताओं का आवागमन लगा रहता है। श्री गुरुजी इसे अपना दूसरा घर कहते थे।
शशिकांत जी अपने बड़े भाइयों श्री बाबूराव, मधुकरराव, सुधाकरराव तथा शरदराव के साथ नागपुर में ही स्वयंसेवक बने। उन्होंने नागपुर के प्रख्यात साइंस कॉलिज से सांख्यिकी विषय लेकर प्रथम श्रेणी में एम.एस-सी की उपाधि ली थी। इसके बाद उन्हें साइंस कॉलिज में ही प्राध्यापक बनने का निमन्त्रण मिला; पर उन्होंने इसे ठुकराकर प्रचारक बनने का निश्चय कर लिया था।
इससे उनके कई मित्र और अध्यापक नाराज हुए। उन्होंने कहा कि यदि प्रचारक ही बनना था, तो इतने परिश्रम से एम.एस-सी क्यों की ? शशिकांत जी ने उत्तर दिया कि पढ़ाई का उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करना है, नौकरी करना नहीं। इससे पूर्व उनके बड़े भाई शरदराव भी प्रचारक बन कर विदर्भ में काम कर रहे थे। शशिकांत जी के बाद उनके छोटे भाई अरविंद चौथाइवाले भी प्रचारक बने। सबसे बड़े भाई बाबूराव चौथाइवाले ने अध्यापन कार्य तथा परिवार चलाते हुए 1954 से 94 तक नागपुर के केन्द्रीय कार्यालय पर सरसंघचालक श्री गुरुजी और फिर बालासाहब देवरस का पत्र-व्यवहार संभाला था।
इस प्रकार 1962 में उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हुआ। उन दिनों असम में काम बहुत नया तथा कम था। वहां प्रतिभावान, सुयोग्य तथा कष्टों में भी काम करने वाले प्रचारकों की आवश्यकता थी। अतः शशिकांत जी को असम में तिनसुकिया जिले में प्रचारक का कार्य दिया गया। असम में अनेक भाषा और बोलियां प्रचलित हैं। खानपान की भिन्नता भी वहां पर्याप्त है; पर शशिकांत जी ने सबसे सामंजस्य बैठाते हुए दूरस्थ स्थानों पर शाखाएं स्थापित कीं।
इसके बाद वे विभाग प्रचारक, प्रान्तीय शारीरिक प्रमुख, सह प्रान्त प्रचारक, प्रान्त प्रचारक और क्षेत्र प्रचारक रहते हुए असम में काम करते रहे। असम में वनवासी एवं पर्वतीय क्षेत्र की बहुलता है। अतः वहां वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती आदि के कार्य को भी उन्होंने सशक्त किया। इन दिनों उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा नहीं रहता। अतः वे क्षेत्रीय कार्यकारिणी के सदस्य के नाते सबको अपने अनुभव से लाभान्वित करते रहते हैं।
1975 के प्र्रतिबंध के समय शशिकांत जी भूमिगत रहकर असम में ही सत्याग्रह का संचालन करते रहे। वे कई बार ब्रह्मदेश की सीमा तक होकर आये तथा वहां रह रहे हिन्दुओं से संबंध स्थापित किया। सरल स्वभाव वाले शशिकांत जी की आवाज बहुत मधुर है। अपनी बात को सरल और स्पष्टता से रखने के कारण उनकी बात को लोग ध्यान से सुनते और समझते हैं।
(संदर्भ : नागपुर, शरदराव से वार्तालाप 14.4.2012)
संघ के वरिष्ठ प्रचारक लक्ष्मीकांत पांडुरंग मुकादम (अन्ना)
का जन्म 14 अगस्त, 1941 को इंदौर में
श्रीमती रुक्मिणी एवं पांडुरंग शंकर मुकादम के घर में हुआ था। चार भाई-बहिन के बीच
वे तीसरे नंबर पर थे। वे एक मेधावी छात्र थे। भौतिक शास्त्र में उन्होंने स्वर्ण
पदक लेकर एम.एस-सी. किया था।
अन्ना की संघ यात्रा 1952 में शाखा जाने से शुरू हुई। 1960 में उन्होंने
तृतीय वर्ष का संघ शिक्षा वर्ग पूर्ण किया तथा 1964 में पढ़ाई पूरी कर प्रचारक बन गये। इंदौर में
उन दिनों सुदर्शन जी प्रचारक थे। अन्ना उनकी बौद्धिक और शारीरिक क्षमता से विशेष
प्रभावित हुए। प्रचारक जीवन में वे भोपाल, खंडवा, खरगौन, मंदसौर, नीमच, बड़वानी, रतलाम आदि स्थानों पर जिला और विभाग प्रचारक तथा फिर मध्य
भारत के प्रांत बौद्धिक प्रमुख रहे।
उनकी सादगी और परिश्रमशीलता से अनेक युवा प्रचारक बने। वे
आज भी प्रचारक या गृहस्थ होकर संघ तथा अन्य सामाजिक कामों में सक्रिय हैं। अन्ना
का ध्यान कार्यकर्ताओं के निर्माण के साथ उनके विकास पर भी रहता था। संघ की
रीति-नीति से अलग होते देखकर वे बड़े से बड़े कार्यकर्ता को भी टोक देते थे। इससे
कुछ लोग नाराज होते थे; पर बाद में
उन्हें अपनी भूल समझ में आ जाती थी। अन्ना की एक अन्य विशेषता यह भी थी कि वे
संबंधों को जीवंत रखते थे। कई साल बाद मिलने पर भी वे कार्यकर्ता को नाम लेकर
बुलाते थे और उनके परिजनों तक का हालचाल पूछते थे।
आपातकाल में अन्ना भूमिगत रहकर सत्याग्रह के संचालन तथा जन
जागरण में लगे रहे; पर 1976 में एक दिन
भोपाल में वे पुलिस के हत्थे चढ़ गये और जेल भेज दिये गये। आपातकाल के बाद अनेक
वरिष्ठ प्रचारकों को विश्व हिन्दू परिषद के काम में भेजा गया। अन्ना भी उनमें से
एक थे। लम्बे समय तक वे मध्य प्रदेश में संगठन मंत्री रहे। उसी दौरान एकात्मता रथ
यात्रा का आयोजन हुआ। उसकी सफलता से म.प्र में परिषद का काम और नाम दूरस्थ गांवों
तक पहुंच गया। सैकड़ों नये और युवा कार्यकर्ता संगठन से जुड़े। अब अन्ना के अनुभव
का लाभ उठाने के लिए उन्हें बिहार क्षेत्र में संगठन मंत्री बनाकर भेजा गया। वहां
भी उन्होंने संगठन को मजबूत किया।
इसके बाद उन्हें केन्द्रीय सहमंत्री और समन्वय विभाग जैसे
काम दिये गये। उनका केन्द्र दिल्ली हो गया तथा वे पूरे भारत में प्रवास करने लगे।
वरिष्ठ प्रचारक होने के नाते उनका कुशाभाऊ ठाकरे, केशवराव गोरे, बालासाहब देवरस, उत्तमचंद इसराणी तथा विश्व हिन्दू परिषद में
अशोक सिंहल, बालकृष्ण नाइक और
चंपतराय जी से विशेष स्नेह संबंध रहे।
मराठा योद्धा बाजीराव पेशवा का देहांत खरगौन में नर्मदा के
पास रावेरखेड़ी में हुआ था। वहां उनकी समाधि बनी है। किसी समय वह नर्मदा के डूब
क्षेत्र में आ रही थी। अन्ना को इससे बहुत पीड़ा हुई। उन्होंने एक समिति बनाकर
अनेक प्रभावी लोगों को प्रेरित किया, जिससे समाधि का पुनरुद्धार हुआ और वह अब पहले से भी अधिक
सुंदर बन गयी है। हजारों लोग वहां आते हैं। इसके लिए अन्ना ने घोर परिश्रम किया।
वे म.प्र., महाराष्ट्र और
दिल्ली में अनेक राजनेताओं से मिले और उन्हें इसके लिए राजी किया।
म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान को उनके गांव से
भोपाल लाकर पढ़ने की प्रेरणा अन्ना ने ही दी तथा उनके रहने की व्यवस्था संघ
कार्यालय पर की। आपातकाल में भोपाल कार्यालय पर जब पुलिस आयी, तो वहां जो बाल
स्वयंसेवक मिले, उनमें शिवराज
सिंह भी थे। सात सितम्बर,
2022 को इंदौर में अन्ना मुकादम का निधन हुआ। इंदौर में हुई श्रद्धांजलि सभा में
शिवराज सिंह ने अपने जीवन पर अन्ना के प्रभाव को आदरपूर्वक याद किया।
(भाई गणेश मुकादम, श्रीपाद कुलकर्णी, पांचजन्य 25.9.22)
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स्वतन्त्रता के उद्घोषक श्री अरविन्द
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में श्री अरविन्द का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उनका बचपन घोर विदेशी और विधर्मी वातावरण में बीता; पर पूर्वजन्म के संस्कारों के बल पर वे महान आध्यात्मिक पुरुष कहलाये।
उनका जन्म 15 अगस्त, 1872 को डा. कृष्णधन घोष के घर में हुआ था। उन दिनों बंगाल का बुद्धिजीवी और सम्पन्न वर्ग ईसाइयत से अत्यधिक प्रभावित था। वे मानते थे कि हिन्दू धर्म पिछड़ेपन का प्रतीक है। भारतीय परम्पराएँ अन्धविश्वासी और कूपमण्डूक बनाती हैं। जबकि ईसाई धर्म विज्ञान पर आधारित है। अंग्रेजी भाषा और राज्य को ऐसे लोग वरदान मानते थे।
डा. कृष्णधन घोष भी इन्हीं विचारों के समर्थक थे। वे चाहते थे कि उनके बच्चों पर भारत और भारतीयता का जरा भी प्रभाव न पड़े। वे अंग्रेजी में सोचें, बोलें और लिखें। इसलिए उन्होंने अरविन्द को मात्र सात वर्ष की अवस्था में इंग्लैण्ड भेज दिया। अरविन्द असाधारण प्रतिभा के धनी थे।उन्होंने अपने अध्ययन काल में अंग्रेजों के मस्तिष्क का भी आन्तरिक अध्ययन किया। अंग्रेजों के मन में भारतीयों के प्रति भरी द्वेष भावना देखकर उनके मन में अंग्रेजों के प्रति घृणा उत्पन्न हो गयी। उन्होंने तब ही संकल्प लिया कि मैं अपना जीवन अंग्रेजों के चंगुल से भारत को मुक्त करने में लगाऊँगा।
भारत में 1893 से 1906 तक उन्होंने बड़ोदरा (गुजरात) में रहते हुए राजस्व विभाग, सचिवालय और फिर महाविद्यालय में प्राध्यापक और उपप्राचार्य जैसे स्थानों पर काम किया। यहाँ उन्होंने हिन्दी, संस्कृत, बंगला, गुजराती, मराठी भाषाओं के साथ हिन्दू धर्म एवं संस्कृति का गहरा अध्ययन किया; पर उनके मन में तो क्रान्तिकारी मार्ग से देश को स्वतन्त्र कराने की प्रबल इच्छा काम कर रही थी। अतः वे इसके लिए युवकों को तैयार करने लगे।
अपने विचार युवकों तक पहुँचाने के लिए वे पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखने लगेे। वन्दे मातरम्, युगान्तर, इन्दु प्रकाश आदि पत्रों में प्रकाशित उनके लेखों ने युवाओं के मन में हलचल मचा दी। इनमें मातृभूमि के लिए सर्वस्व समर्पण की बात कही जाती थी। इन क्रान्तिकारी विचारों से डर कर शासन ने उन्हें अलीपुर बम काण्ड में फँसाकर एक वर्ष का सश्रम कारावास दिया।
कारावास में उन्हें स्वामी विवेकानन्द की वाणी सुनायी दी और भगवान् श्रीकृष्ण से साक्षात्कार हुआ। अब उन्होंने अपने कार्य की दिशा बदल ली और 4 अपै्रल, 1910 को पाण्डिचेरी आ गये। यहाँ वे योग साधना, अध्यात्म चिन्तन और लेखन में डूब गये। 1924 में उनकी आध्यात्मिक उत्तराधिकारी श्रीमाँ का वहाँ आगमन हुआ। 24 नवम्बर, 1926 को उन्हें विशेष सिद्धि की प्राप्ति हुई। इससे उनके शरीर का रंग सुनहरा हो गया।
15 अगस्त/पुण्य-तिथि
वे देश का विभाजन न सह सके
15 अगस्त, 1947 को देश भर में स्वतन्त्रता प्राप्ति की खुशियाँ मनायी जा रही थीं। लोग सड़कों पर नाच गाकर एक-दूसरे को मिठाई खिला रहे थे। जिन नेताओं के हाथ में सत्ता की बागडोर आने वाली थी, वे रागरंग में डूबे थे; पर दूसरी ओर एक क्रान्तिकारी ऐसा भी था, जिससे मातृभूमि के विभाजन का वियोग न सहा गया। उसने उस दिन इच्छामृत्यु स्वीकार कर देह त्याग दी। वे थे आजादी के लिए हँसते-हँसते फाँसी का फन्दा चूमने वाले शहीद भगतसिंह के चाचा सरदार अजीतसिंह। इनका पूरा परिवार ही देशभक्त था।
अजीतसिंह का जन्म पंजाब के खटकड़ कलाँ गाँव में 23 फरवरी, 1881 को हुआ था। बंग-भंग तथा अंग्रेजों की किसान विरोधी नीतियों के विरुद्ध होने वाले प्रदर्शनों में वे लाला लाजपत राय के साथ बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। उनके भाषण से जनता उत्तेजित हो उठती थी। पूरा पंजाब क्रान्ति की आग में सुलगने लगा। इससे भयभीत होकर अंग्रेज शासन ने इन्हें पकड़ कर बर्मा की माण्डले जेल भेज दिया। जेल से छूटकर वे पत्रकार बन गये तथा अनेक नामों से समाचारपत्र निकालने लगे।
इस पर वे फिर अंग्रेजों की आँख में खटकने लगे। इससे पहले कि अंग्रेज उन पर हाथ डालते, वे अपने दो साथियों के साथ ईरान चले गये। वहाँ से आस्ट्रिया, जर्मनी, ब्राजील तथा अमरीका होते हुए इटली चले गये। इस प्रकार वे लगातार विदेशों में रहकर भारतीय स्वतन्त्रता की अलख जगाते रहे। जब आजादी का समय निकट आने लगा, तो वे फिर से भारत आ गये; पर उन्हें क्या पता था कि कांग्रेसी नेता सत्ता की मलाई खाने के लालच में स्वतन्त्रता के साथ विभाजन की भी खिचड़ी पका रहे हैं। अजीतसिंह विचलित हो उठे, क्योंकि वे भारत को अखण्ड रूप से ही स्वतन्त्र देखना चाहते थे।
15 अगस्त, 1947 को जब रेडियो पर अंग्रेजों से भारतीयों के हाथ में सत्ता हस्तान्तरण के कार्यक्रम का आँखों देखा हाल प्रस्तुत किया जा रहा था, तो 66 वर्षीय उस क्रान्तिकारी का मन विभाजन की वेदना से भर उठा। उनका दिल टूट गया। उन्होंने परिवार के सब लोगों को बुलाकर कहा कि मेरा उद्देश्य पूरा हो गया है, अतः मैं जा रहा हूँ। परिवार वालों ने समझा कि वे फिर किसी यात्रा पर बाहर जाने वाले हैं। अतः उन्होंने समझाया कि पूरे 48 साल विदेश में बिताकर आप लौटे हैं, अब फिर से जाना ठीक नहीं है।
अजीतसिंह अपने कमरे में चले गये। जब उनकी पत्नी उन्हें समझाने के लिए वहाँ गयी, तो वे सोफे पर पैर फैलाकर बैठे थे। पत्नी को देखकर बोले – "मुझे माफ कर दो। मैं भारत माता की सेवा में लगा रहा। इस कारण तुम्हारे प्रति अपने कर्त्तव्य पूरे नहीं कर सका।" यह कहकर वे उठे और अपनी पत्नी के पैर छू लिये।
पत्नी संकोचवश पीछे हट गयी। इसके बाद अजीतसिंह सोफे पर लेट गये। उन्होंने उच्च स्वर से ‘जय हिन्द’ का नारा लगाया और आँखें बन्द कर लीं। पत्नी ने सोचा कि वे सोना चाहते हैं, अतः बिना कुछ बोले वह बाहर चली गयी; पर अजीतसिंह तो कुछ और ही निश्चय कर चुके थे। उन्होंने अपने श्वास ऊपर चढ़ाकर देह त्याग दी।
15 अगस्त को जब देश भर में तिरंगा झण्डा गाँव-गाँव और गली-गली में फहरा रहा था, ठीक उसी समय अजीतसिंह की चिता में अग्नि दी जा रही थी। इस प्रकार भारत माता के अखण्ड स्वरूप के विभाजन के वियोग में वह वीर क्रान्तिकारी अनन्त की यात्रा पर चला गया।
15 अगस्त/बलिदान-दिवस
गोवा के स्वाधीनता सेनानी : राजाभाऊ महाकाल
1948 के प्रतिबन्धकाल में सरसंघचालक श्री गुरुजी से किसी ने भगवा ध्वज और तिरंगे झंडे के संबंध के बारे में पूछा। उन्होंने कहा कि भगवे की तरह तिरंगे झंडे के लिए भी स्वयंसेवक अपने प्राणों की बाजी लगा देंगे। श्री नारायण बलवन्त (राजाभाऊ) महाकाल ने उनकी बात को सत्य कर दिखाया।
राजाभाऊ का जन्म भगवान महाकाल की नगरी उज्जैन (म.प्र.) में महाकाल मंदिर के पुजारी परिवार में 26 जनवरी, 1923 को हुआ था। उज्जैन में प्रचारक रहे श्री दिगम्बर राव तिजारे के संपर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने और उन्हीं की प्रेरणा से 1942 में प्रचारक जीवन स्वीकार किया।
1948 के प्रतिबन्ध काल में अनेक प्रचारक घर वापस लौट गये; पर राजाभाऊ ने बाबासाहब के साथ सोनकच्छ में एक होटल खोल दिया। इससे भोजन की समस्या हल हो गयी। घूमने-फिरने के लिए पैसा मिलने लगा और होटल कार्यकर्ताओं के मिलने का एक ठिकाना भी बन गया। प्रतिबन्ध समाप्ति के बाद उन्होंने फिर से प्रचारक की तरह पूर्ववत कार्य प्रारम्भ कर दिया।
1955 में गोवा की मुक्ति के लिए आंदोलन प्रारम्भ होने पर देश भर से स्वयंसेवक इसके लिए गोवा गये। उज्जैन के जत्थे का नेतृत्व राजाभाऊ ने किया। 14 अगस्त की रात में लगभग 400 सत्याग्रही सीमा पर पहुंच गये। योजनानुसार 15 अगस्त को प्रातः दिल्ली के लालकिले से प्रधानमंत्री का भाषण प्रारम्भ होते ही सीमा से सत्याग्रहियों का कूच होने लगा। सबसे पहले श्री बसंतराव ओक और उनके पीछे चार-चार की संख्या में सत्याग्रही सीमा पार करने लगे। लगभग दो कि.मी चलने पर सामने सीमा चौकी आ गयी।
यह देखकर सत्याग्रहियों का उत्साह दुगना हो गया। बंदूकधारी पुर्तगाली सैनिकों ने चेतावनी दी; पर सत्याग्रही नहीं रुकेे। राजाभाऊ तिरंगा झंडा लेकर जत्थे में सबसे आगे थे। सबसे पहले बसंतराव ओक के पैर में गोली लगी। फिर पंजाब के हरनाम सिंह के सीने पर गोली लगी और वे गिर पड़े। इस पर भी राजाभाऊ बढ़ते रहे। अतः सैनिकों ने उनके सिर पर गोली मारी। इससे राजाभाऊ की आंख और सिर से रक्त के फव्वारे छूटने लगे और वे मूर्च्छित होकर गिर पड़े। साथ के स्वयंसेवकों ने तिरंगे को संभाला और उन्हें वहां से हटाकर तत्काल चिकित्सालय में भर्ती कराया। उन्हें जब भी होश आता, वे पूछते कि सत्याग्रह कैसा चल रहा है; अन्य साथी कैसे हैं; गोवा स्वतन्त्र हुआ या नहीं ?
चिकित्सकों के प्रयास के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। राजाभाऊ तथा अन्य बलिदानियों के शव पुणे लाये गये। वहीं उनका अंतिम संस्कार होना था। प्रशासन ने धारा 144 लगा दी; पर जनता सब प्रतिबन्धों को तोड़कर सड़कों पर उमड़ पड़ी। राजाभाऊ के मित्र शिवप्रसाद कोठारी ने उन्हें मुखाग्नि दी। उनकी अस्थियां जब उज्जैन आयीं, तो नगरवासियों ने हाथी पर उनका चित्र तथा बग्घी में अस्थिकलश रखकर भव्य शोभायात्रा निकाली। बंदूकों की गड़गड़ाहट के बाद उन अस्थियों को पवित्र क्षिप्रा नदी में विसर्जित कर दिया गया।
आज के हर दिन पावन 12 अगस्त डॉ साराभाई के जीवन परिचय में एक जगह उलेख आया है कि उनकी शिक्षा मोंटेसरी पद्धिति के आधार पर हुई इसका क्या तात्पर्य है ?
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