16 अगस्त/पुण्य-तिथि
रामकृष्ण परमहंस की
महासमाधि
श्री रामकृष्ण
परमहंस का जन्म फागुन शुक्ल 2, विक्रमी सम्वत् 1893 (18 फरवरी, 1836) को कोलकाता के समीप ग्राम कामारपुकुर में हुआ था।
पिता श्री खुदीराम चट्टोपाध्याय एवं माता श्रीमती चन्द्रादेवी ने अपने पुत्र का नाम
गदाधर रखा था। सब उन्हें स्नेहवश 'गदाई' भी कहते थे।
बचपन से ही उन्हें साधु-सन्तों का साथ
तथा धर्मग्रन्थों का अध्ययन अच्छा लगता था। वे पाठशाला जाते थे; पर मन वहाँ नहीं लगता था। इसी कारण छोटी अवस्था में
ही उन्हें रामायण, महाभारत आदि पौराणिक कथाएँ याद हो गयीं थीं। बड़े होने के साथ ही
प्रकृति के प्रति इनका अनुराग बहुत बढ़ने लगा। प्रायः ये प्राकृतिक दृश्यों को
देखकर भावसमाधि में डूब जाते थे। एक बार वे मुरमुरे खाते हुए जा रहे थे कि आकाश
में काले बादलों के बीच उड़ते श्वेत बगुलों को देखकर इनकी समाधि लग गयी। ये वहीं निश्चेष्ट
होकर गिर पड़े। काफी प्रयास के बाद इनकी समाधि टूटी।
पिता के देहान्त के बाद बड़े
भाई रामकुमार इन्हें कोलकाता ले आये और हुगली नदी के तट पर स्थित रानी रासमणि
द्वारा निर्मित माँ काली के मन्दिर में पुजारी नियुक्ति करा दिया। मन्दिर में आकर
उनकी दशा और विचित्र हो गयी। प्रायः वे घण्टों काली माँ की मूर्त्ति के आगे बैठकर
रोते रहते थे। एक बार तो वे माँ के दर्शन के लिए इतने उत्तेजित हो गये कि कटार के
प्रहार से अपना जीवन ही समाप्त करने लगे; पर तभी माँ काली ने उन्हें दर्शन दिये। मन्दिर में वे कोई भेदभाव नहीं चलने
देते थे; पर वहाँ भी सांसारिक बातों में डूबे रहने वालों से वे
नाराज हो जाते थे।
एक बार तो मन्दिर
की निर्मात्री रानी रासमणि को ही उन्होंने चाँटा मार दिया। क्योंकि वह माँ की
मूर्त्ति के आगे बैठकर भी अपनी रियासत के बारे में ही सोच रही थी। यह देखकर कुछ
लोगों ने रानी को इनके विरुद्ध भड़काया; पर रानी इनकी मनस्थिति समझती थी, अतः वह शान्त रहीं।
इनके भाई ने सोचा
कि विवाह से इनकी दशा सुधर जाएगी; पर कोई इन्हें अपनी
कन्या देने को तैयार नहीं होता था। अन्ततः इन्होंने अपने भाई को रामचन्द्र
मुखोपाध्याय की पुत्री सारदा के बारे में बताया। उससे ही इनका विवाह हुआ; पर इन्होंने अपनी पत्नी को सदैव माँ के रूप में ही
प्रतिष्ठित रखा।
मन्दिर में आने
वाले भक्त माँ सारदा के प्रति भी अतीव श्रद्धा रखते थे। धन से ये बहुत दूर रहते
थे। एक बार किसी ने परीक्षा लेने के लिए दरी के नीचे कुछ पैसे रख दिये; पर लेटते ही ये चिल्ला पड़े। मन्दिर के पास गाय चरा
रहे ग्वाले ने एक बार गाय को छड़ी मार दी। उसके चिन्ह रामकृष्ण की पीठ पर भी उभर आये। यह एकात्मभाव देखकर लोग इन्हें परमहंस कहने
लगे।
मन्दिर में आने
वाले युवकों में से नरेन्द्र को वे बहुत प्रेम करते थे। यही आगे चलकर विवेकानन्द
के रूप में प्रसिद्ध हुए। सितम्बर 1893 में शिकागो धर्मसम्मेलन में जाकर उन्होंने हिन्दू धर्म की जयकार विश्व भर में
गुँजायी। उन्होंने ही ‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना की। इसके माध्यम से देश भर में सैकड़ों विद्यालय, चिकित्सालय तथा समाज सेवा के प्रकल्प चलाये जाते हैं।
एक समय ऐसा था, जब पूरे बंगाल में ईसाइयत के प्रभाव से लोगों की
आस्था हिन्दुत्व से डिगने लगी थी; पर रामकृष्ण परमहंस
तथा उनके शिष्यों के प्रयास से फिर से लोग हिन्दू धर्म की ओर आकृष्ट हुए। 16 अगस्त, 1886 को श्री रामकृष्ण ने महासमाधि ले ली।
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16 अगस्त/बलिदान-दिवस
सर्वस्व बलिदानी फुलेना दम्पति
स्वाधीनता संग्राम
में देश के हर भाग से लोगों ने प्राणाहुति दी। सिवान, बिहार के फुलेना बाबू तथा उनकी पत्नी श्रीमती तारा
रानी ने इस यज्ञ में अपना पूरा परिवार अर्पण कर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित
कराया है।
अगस्त 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के लिए गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। फुलेना बाबू और उनकी पत्नी तारा रानी दोनों आंदोलन में कूद
पड़े। तारा रानी को राष्ट्रीयता के संस्कार विरासत में मिले थे। जब वे डेढ़ वर्ष की
ही थीं, तब एक अंग्रेज गुप्तचर ने उनके पिता से मित्रता बढ़ाकर
उन्हें जहर दे दिया। इस कारण तारा रानी का पालन उनके बाबा ने किया। बाबा ने
देशभक्ति की कहानियां सुनाकर तारा के मन में स्वाधीनता की आग भर दी। छोटी अवस्था
में ही उनका विवाह सिवान के प्रसिद्ध राजनीतिक कार्यकर्ता फुलेना प्रसाद
श्रीवास्तव से हो गया। अपने स्वभाव और संस्कारों के अनुरूप देशभक्त ससुराल पाकर
तारा रानी बहुत प्रसन्न हुईं।
फुलेना बाबू जहां
एक ओर गांधी जी के भक्त थे, वहां वे क्रांतिकारियों की भी भरपूर सहायता करते थे।
बुद्धिमान, स्पष्टवादी और साहसी होने के कारण फुलेना बाबू की
समाज और शासन में समान प्रतिष्ठा थी। जीवन यात्रा के साथ ही स्वाधीनता संग्राम में
भी पत्नी का साथ पाकर फुलेना बाबू उत्साहित हुए। दोनों एक साथ सभा-सम्मेलन व विरोध
प्रदर्शन में भाग लेते थे। फुलेना बाबू जहां पुरुषों को संगठित करते थे, तो तारा रानी महिलाओं का मोर्चा संभालती थीं। इससे
अंग्रेज शासन को सिवान में परेशानी होने लगी।
1941 में तारा रानी व्यक्तिगत सत्याग्रह कर जेल गयीं। जेल से आते ही वे ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में जुट गयीं। यद्यपि उस समय उनकी मां तथा बाबा
अस्वस्थ थे; पर उनके लिए देश का महत्व परिवार से अधिक था। 16 अगस्त, 1942 को सिवान में शासन
के विरुद्ध बड़ा जुलूस निकला। उसमें तारा रानी के साथ उनकी मां, बाबा और पति तीनों शामिल थे। एक साथ पूरे परिवार
द्वारा जुलूस में सहभागिता के उदाहरण प्रायः कम ही मिलते हैं।
विरोध प्रदर्शन
अपनी गति से आगे बढ़ रहा था। ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ तथा ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लग रहे थे। सिवान पुलिस थाने पर तिरंगा झंडा फहराना आंदोलनकारियों का
लक्ष्य था। फुलेना बाबू इसके लिए आगे बढ़े। पुलिस को यह अपनी सीधी हार नजर आयी। अतः
उन्होंने लाठीचार्ज कर दिया। इसके बाद भी जब फुलेना बाबू बढ़ते रहे, तो पुलिस ने गोली चला दी। फुलेना बाबू के साथ ही तारा
रानी की मां और बाबा को भी गोली लगी।
फुलेना बाबू के नौ
गोलियां लगीं थीं। यह देखकर तारा रानी सिंहनी की तरह भड़क उठीं। तब तक उनका हाथ भी
गोली से घायल हो गया। इसके बाद भी उन्होंने अपनी साड़ी फाड़कर पति के माथे पर बांधी
और तिरंगा लेकर थाने के ऊपर चढ़ गयीं। जब वे तिरंगा फहरा कर लौटीं, तब तक उनके पति, मां और बाबा के प्राण पखेरू उड़ चुके थे। इस प्रकार कुछ ही क्षणों में उनका
घर-संसार उजड़ गया। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वे नारे लगाकर आंदोलनकारियों
को उत्साहित करती रहीं।
पुलिस ने तारा रानी
को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, जहां से आंदोलन की
समाप्ति के बाद ही वे छूट सकीं।
(संदर्भ : मातृवंदना, क्रांतिवीर नमन अंक, मार्च-अपै्रल 2008)
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16 अगस्त/बलिदान-दिवस
स्वतन्त्रता प्रेमी
वीर बालक उदयचन्द
15 अगस्त, 1947 भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, चूँकि इसी दिन देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था; पर इसके लिए न जाने कितने बलिदानियों ने अपने जीवन को
होम कर डाला। ऐसा ही एक वीर बालक था उदयचन्द, जिसने 16 अगस्त, 1942 को आत्माहुति देकर स्वतन्त्रता की यज्ञ ज्वाल को धधका दिया।
1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन जोरों पर था। हजारों लोगों ने सत्याग्रह कर जेल स्वीकार की। कुछ लोगों
को अंग्रेजों की पुलिस घर से ही उठाकर ले गयी। मध्य प्रदेश के मण्डला जिला कांग्रेस
के तत्कालीन जिलाध्यक्ष पण्डित गिरजाशंकर अग्निहोत्री को भी पुलिस ने 9 अगस्त, 1942 को रक्षा अधिनियम के अन्तर्गत बन्द कर दिया।
यह समाचार सुनते ही
बाजार स्वयंस्फूर्त ढंग से बन्द हो गये। अगले दिन से सभी विद्यालयों में भी हड़ताल
हो गयी। मण्डला के आसपास के क्षेत्र में लोगों ने टेलीफोन की तारें काट दीं, रेल की पटरियाँ उखाड़ दीं, कई पुलों को ध्वस्त कर दिया। इससे बाहर की पुलिस
मण्डला शहर में नहीं आ सकी।
उन दिनों रेडियो
पूरी तरह सरकारी कब्जे में था, वहाँ से निष्पक्ष
समाचार प्राप्त करना असम्भव था। अतः लोग बर्लिन रेडियो सुनते थे। यद्यपि उसे सुनने
पर भी प्रतिबन्ध था; पर लोग चोरी छिपे उसे सुनकर समाचारों को कानाफूसी
द्वारा सब ओर फैला देते थे। दो चार दिन की शान्ति के बाद 15 अगस्त, 1942 को पूरे मण्डला शहर में पुलिस की गाड़ियाँ घूमने लगीं। पुलिसकर्मी घरों व बाजार
से लोगों को सन्देह के आधार पर ही पकड़ने लगे।
इससे जनता में
आक्रोश फैल गया। लोग डरने की बजाय सड़कों पर निकल आये और शासन के विरुद्ध नारे
लगाने लगे। ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ ‘वन्दे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारों से आकाश गूँजने लगा। लोग शहर के एक प्रमुख चौराहे पर आ गये। इनमें
युवकों की संख्या बहुत अधिक थी। पुलिस अधिकारी ने संख्या बढ़ती देख और पुलिस बुला
ली।
धीरे-धीरे दोनों ओर
से तनाव बढ़ने लगा। कमानियाँ गेट और फतह दरवाजा स्कूल के पास पुलिस ने मोर्चा लगा लिया। 17 वर्षीय मन्नूमल मोदी हाथ में तिरंगा लेकर एकत्रित लोगों को सम्बोधित करने लगे।
इस पर पुलिस अधिकारियों ने आगे बढ़कर उन्हें गिरफ्तार कर लिया। लोग डरने की बजाय और
जोर से नारे लगाने लगे। इस पर पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया।
इस लाठीचार्ज में
कई लोग घायल हुए। कुछ युवकों ने पुलिस पर पथराव कर दिया। इसी बीच कक्षा 11 के छात्र उदयचन्द
ने तिरंगा सँभाल लिया। उसने सबसे पथराव न करने और शान्तिपूर्वक नारे लगाने को कहा।
पुलिस अधिकारी ने उससे कहा कि भाग जाओ, अन्यथा गोली मार देंगे। इस पर उदयचन्द ने अपनी कमीज फाड़कर सीना खोल दिया और
कहा मारो गोली।
पुलिस अधिकारी भी
काफी गरमी में था। उसने गोली चलाने का आदेश दे दिया। पहली गोली उदयचन्द के सीने
में ही लगी। खून से लथपथ वह वीर बालक धरती पर गिर पड़ा। पुलिस वाले उसे उठाकर
अस्पताल ले गये, जहाँ सुबह होते-होते उस वीर ने प्राण त्याग दिये।
अगले दिन उसकी शवयात्रा में पूरा शहर उमड़ पड़ा। उसके बलिदान से केवल मण्डला ही नहीं, तो पूरे मध्य प्रदेश में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन और प्रबल हो गया। जहाँ उस वीर को गोली लगी, उसे आजकल ‘उदय चौक’ कहा जाता है।
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16 अगस्त/जन्म-दिवस
वीरता एवं शौर्य की
गायिका सुभद्रा कुमारी चौहान
‘खूब लड़ी मरदानी वह तो झांसी वाली रानी थी’ कविता की लेखक सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त, 1904 (नागपंचमी) को प्रयाग (उ.प्र.) के पास ग्राम निहालपुर में ठाकुर रामनाथ सिंह के घर में हुआ था। उन्हें बचपन
से ही कविता लिखने का शौक था। प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा प्रयाग में उनकी
सहपाठी थीं। दोनों ने ही आगे चलकर खूब प्रसिद्धि प्राप्त की।
15 वर्ष की अवस्था मेें ठाकुर लक्ष्मण सिंह से विवाह के बाद वे जबलपुर आ गयीं।
प्रयाग सदा से ही हिन्दी साहित्य का गढ़ तथा कई प्रसिद्ध साहित्यकारों की कर्मभूमि
रहा है। जबलपुर भी मध्य भारत की संस्कारधानी कहा जाता है। सुभद्रा जी के
व्यक्तित्व में इन दोनों स्थानों की सुगंध दिखाई देती है।
ठाकुर लक्ष्मण सिंह
स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय थे। वे कविता भी लिखते थे; पर सुभद्रा जी का काव्य कौशल देखकर उन्होंने कविता
लिखना बंद कर दिया। इतना ही नहीं, तो उन्होंने
सुभद्रा जी को उच्च शिक्षा प्राप्त करने और सार्वजनिक जीवन में आने को प्रेरित
किया। उन दिनों महिलाएं प्रायः पर्दा करती थीं; पर पति से प्रोत्साहन पाकर सुभद्रा जी ने इसे छोड़ दिया।
1921 के असहयोग आंदोलन के समय लक्ष्मण सिंह जी जबलपुर में अग्रिम पंक्ति में रहकर
कार्य कर रहे थे। सुभद्रा जी भी पति के साथ आंदोलन में कूद गयीं और कारावास का वरण
किया। मध्य भारत में जेल जाने वाली वे पहली महिला थीं। 1942 के भारत छोड़ो
आंदोलन में भी वे सहर्ष जेल गयीं। घर में छोटे बच्चों को छोड़कर जेल जाना आसान नहीं
था; पर वे कहती थीं कि मैं क्षत्राणी हूं, अतः ब्रिटिश सरकार से टक्कर लेना मेरा धर्म है।
सुभद्रा जी के मन
में झांसी की रानी के प्रति बहुत श्रद्धा थी। वे उन्हें अपना आदर्श मानती थीं।
रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी हुई उनकी कविता ने हजारों युवकों को राष्ट्रीय आंदोलन में
कूदने को प्रेरित किया। पति-पत्नी दोनों जाति, प्रांत और ऊंच-नीच के भेदभाव से मुक्त थे। उनका घर सबके लिए खुला था। उनके सभी
परिचित रसोई में एक साथ बैठकर खाना खाते थे।
स्वाधीनता प्राप्ति
के बाद वे मध्य प्रदेश विधानसभा तथा राज्य शिक्षा समिति की सदस्य बनीं। 15 फरवरी, 1948 को वसंत पंचमी थी। वे कार द्वारा नागपुर से वापस आ रही थीं। नागपुर-जबलपुर
राजमार्ग पर ग्राम कलबोड़ी के पास अचानक कुछ मुर्गी के बच्चे कार के सामने आ गये।
यह देखकर सुभद्रा जी का मातृहृदय विचलित हो उठा। वे जोर से बोलीं - भैया इन्हें बचाना।
इस आवाज से चालक
चौंक गया और कार एक बड़े पेड़ से टकरा गयी। यह दुर्घटना इतनी भीषण थी कि सुभद्रा जी
का वहीं प्राणांत हो गया। सुभद्रा जी का एक प्रसिद्ध गीत है, ‘वीरों का कैसा हो वसंत ?’ इसके भाव के अनुरूप उन्होंने वसंत पंचमी के पवित्र
दिन कर्मक्षेत्र में ही प्राण त्याग दिये।
सुभद्रा जी के दो
कविता संग्रह (मुकुल और त्रिधारा) तथा तीन कहानी संग्रह (बिखरे मोती, उन्मादिनी तथा सीधे सादे चित्र) छपे हैं। उनकी पुत्री
सुधा चौहान ने उनकी जीवनी ‘मिला तेज से तेज’ प्रकाशित की है। भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अपै्रल, 2006 को एक जहाज को उनका नाम दिया। 16 अगस्त, 1976 को उन पर 25 पैसे का डाक टिकट भी जारी किया गया है।
(संदर्भ : स्वतंत्रता सेनानी सचित्र कोश, भारतवाणी फरवरी 2005, विकीपीडिया आदि)
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16 अगस्त/इतिहास-स्मृति
कोलकाता का रक्षक महावीर गोपाल मुखर्जी पाठा
स्वाधीनता के इतिहास में 16 अगस्त, 1946 को बड़ा महत्व है। इस दिन जिन्ना ने ‘सीधी कार्यवाही’ की घोषणा की थी। वह चाहता था कि व्यापार का बड़ा केन्द्र कोलकाता पाकिस्तान में रहे। 64 प्रति. हिन्दू और 33 प्रति. मुसलमानों के साथ वहां की जनसंख्या भी भारत में सर्वाधिक थी। इसलिए उसे हिन्दूविहीन करना जरूरी था। यह काम उसने बंगाल के मुख्यमंत्री और अपने खास साथी सुहरावर्दी को दिया।
16 अगस्त को शुक्रवार था। वह रमजान का महीना था। शाम की नमाज में मुसलमान मस्जिद में आते थे। वहां हथियार जुटा लिये गये। पुलिस में भी मुसलमान बहुत बड़ी संख्या में थे। योजना के अनुसार उन्होंने
अपनी दुकानें बंद कर दीं तथा नमाज के बाद हिन्दू बस्तियों और बाजार में घुस गये। सबसे पहले हथियारों की दुकानें लूटी गयीं। भीषण आगजनी के बीच हजारों हिन्दू मारे गये। महिलाओं का अपहरण हुआ। 17 और 18 अगस्त को भी यही हुआ। केसोराम काॅटन मिल्स में उड़ीसा से आये सैकड़ों हिन्दू मजदूर काम करते थे। वहां भयंकर हिंसा हुई। अतः कोलकाता से हिन्दू भागने लगे। सुहरावर्दी ने जिन्ना को कहा था कि 19 अगस्त तक कोलकाता हिन्दुओं से खाली हो जाएगा; पर 18 अगस्त को एक हिन्दू वीर सामने आया और उसने बाजी पलट दी।
कोलकाता में उन दिनों 33 वर्षीय गोपाल पांडा/मुखर्जी नामक युवक मांस की दुकान चलाता था। इसलिए उसे गोपाल पाठा भी कहते थे। वह ‘भारत जाति वाहिनी’ नामक संस्था का मुखिया था। उसमें उस जैसे ही 500 से अधिक दिलेर हिन्दू युवा थे। वे सब सुभाष चंद्र बोस के समर्थक थे। बंगला भाषा में जाति का अर्थ देश या राष्ट्र होता है। उन्होंने निर्णय लिया कि हम भागने की बजाय हिन्दुओं की सुरक्षा और फिर मुसलमानों पर हमला करेंगे।
उसने अपने साथियों को एकत्र किया। उन पर वैध/अवैध शस्त्र भी थे। कुछ हथियारों के लिए व्यापारियों ने पैसे दिये। गोपाल के पास दो निजी पिस्तौल थी, जो उसे आजाद हिन्द फौज के किसी सैनिक ने दी थी। कोलकाता के चप्पे-चप्पे से वे परिचित थे। 18 अगस्त की दोपहर से उन्होंने कार्यवाही शुरू कर दी। सबसे पहले उन्होंने हिन्दू बस्तियों की सुरक्षा मजबूत की। अबकी बार जब हमलावर आये, तो उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से मिला। सैकड़ों मारे गये। जो बचे वे भाग खड़े हुए। 19 अगस्त को भी ऐसा ही हुआ।
20 अगस्त से मुस्लिम बस्तियों पर हमले शुरू कर दिये गये। एक-एक अपराधी को ढूंढकर मारा गया। लेकिन उन्होंने किसी महिला को हाथ नहीं लगाया। इससे माहौल बदल गया। हजारों अन्य हिन्दू युवा भी अब उसके दल में आ मिले। दो दिन में मरने वाले मुसलमानों की संख्या हिन्दुओं से अधिक हो गयी। अतः वे कोलकाता से भागने लगे। सुहरावर्दी ने कांग्रेस के नेताओं से अनुरोध किया कि वे गोपाल और उसके साथियों को रोकें।
कांग्रेस नेताओं की अपील पर गोपाल ने कहा कि यदि सब मुसलमान अपने हथियार सौंप दें, तो वह कार्यवाही बंद कर देगा। इसे सुहरावर्दी ने मान लिया; पर मुसलमानों ने जो हथियार सौंपे, वे सब बेकार थे। अतः गोपाल ने भी अपने शस्त्र वापस नहीं किये। कुछ दिन बाद गांधी जी कोलकाता आये। उन्होंने उसे मिलने और हथियार डालने के लिए बुलाया; पर वह नहीं गया। उसने कहा कि जब हिन्दू मारे जा रहे थे, तब वे कहां थे ?
कोलकाता के हिन्दू हर 16 अगस्त को महावीर गोपाल पाठा को याद करते हैं। यद्यपि गांधीवादी न होने से उसका नाम इतिहास में नहीं है; पर वह लोगों के दिलों में जीवित है। उनके कारण ही आज कोलकाता भारत में है। अन्यथा वह पाकिस्तान या वर्तमान बंगलादेश में होता।
(सैन्य संदेश, जून-जुलाई 2022, जे.बी.एस.चैहान/विकी)
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17 अगस्त/इतिहास-स्मृति
और वे निकल भागे
मिर्जा राजा जयसिंह
के आग्रह पर शिवाजी ने आगरा में औरंगजेब से मिलने का निश्चय कर लिया। उनकी योजना
थी कि औरंगजेब का वध उसके दरबार में ही कर दें, जिससे सारे देश में फैला आतंक मिट जाये। अतः अपने पुत्र सम्भाजी और 350 विश्वस्त सैनिकों
के साथ वे आगरा चल दिये।
औरंगजेब ने दरबार में शिवाजी का अपमान किया और पिता-पुत्र दोनों को
पकड़कर जेल में डाल दिया। अब वह इन दोनों को यहीं समाप्त करने की योजना बनाने लगा। शिवाजी
समझ गये कि अधिक दिन तक यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है। आगरा तक के मार्ग में
उनके विश्वस्त लोग तथा समर्थ स्वामी रामदास द्वारा स्थापित अखाड़े विद्यमान थे। इसी
आधार पर उन्होंने योजना बनायी।
कुछ ही दिन में यह
सूचना फैल गयी कि शिवाजी बहुत बीमार हैं। उन्हें कोई ऐसा रोग हुआ है कि
दिन-प्रतिदिन वजन कम हो रहा है। उनके साथ आये हुए वैद्य ही नहीं, आगरा नगर के वैद्य भी निराश हो गये हैं। औरंगजेब यह
जानकर बहुत खुश हुआ। उसे लगा कि यह काँटा तो स्वयं ही निकला जा रहा है; पर उधर तो कुछ और तैयारियाँ हो रही थीं।
शिवाजी ने खबर
भिजवायी कि वे अन्त समय में कुछ दान-पुण्य करना चाहते हैं। औरंगजेब को भला क्या
आपत्ति हो सकती थी ? हर दिन मिठाइयों से भरे 20-30 टोकरे शिवाजी के
कमरे तक आते। शिवाजी उन्हें हाथ से स्पर्श कर देते। जाते समय जेल के द्वार पर
एक-एक टोकरे की तलाशी होती और फिर उन्हें गरीबों और भिखारियों में बँटवा दिया
जाता।
कई दिन ऐसे ही बीत
गये। 17 अगस्त, 1666 फरारी की तिथि निश्चित की गयी थी। दो दिन पूर्व ही व्यवस्था के लिए कुछ खास
साथी बाहर चले गये। वह दिन आया। आज दो टोकरों में शिवाजी और सम्भाजी बैठे। शिवाजी
की हीरे की अँगूठी पहनकर हिरोजी फर्जन्द चादर ओढ़कर बिस्तर पर लेट गया। नाटक में
कमी न रह जाये, इसलिए शिवाजी का अति विश्वस्त सेवक मदारी मेहतर उनके
पाँव दबाने लगा। कहारों ने टोकरे उठाये और द्वार पर पहुँच गये।
इतने दिन से यह सब
चलने के कारण पहरेदार लापरवाह हो गये थे। उन्होंने एक-दो टोकरों में झाँककर देखा, फिर सबको जाने दिया। मिठाई वाली टोकरियाँ गरीब
बस्तियों में पहुँचा दी गयीं; पर शेष दोनों नगर
के बाहर। वहाँ शिवाजी के साथी घोड़े लेकर तैयार थे। रात में ही सब सुरक्षित मथुरा
पहुँच गये।
काफी समय बीतने पर
बिस्तर पर लम्बाई में तकिये लगाकर उस पर चादर ढक दी गयी। अब हिरोजी और मदारी भी
दवा लाने बाहर निकल गये। रात भर जबरदस्त पहरा चलता रहा। सुबह जब यह भेद खुला, तो सबके होश उड़ गये। चारों ओर घुड़सवार दौड़ाये गये; पर अब तो प॰छी उड़ चुका था।
शिवाजी ने सम्भाजी
को मथुरा में ही कृष्णाजी त्रिमल के पास छोड़ दिया और स्वयं साधु वेष में पुणे की
ओर चल दिये। मार्ग में अनेक बार वे संकट में फँसे; पर कहीं धनबल और कहीं बुद्धिबल से वे बच निकले। 20 नवम्बर को एक साधु ने जीजामाता के चरणों में जब माथा टेका, तो माता की आँखें भर आयीं। वे शिवाजी ही थे।
कुछ दिन बाद
सम्भाजी को भी सकुशल बुलवा लिया गया।
(संदर्भ : युगावतार - श्री हो.वे.शेषाद्रि)
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17 अगस्त/पुण्य-तिथि
आधुनिक भगीरथ दशरथ मांझी
स्वर्ग से धरती पर
गंगा लाने वाले तपस्वी राजा भगीरथ को कौन नहीं जानता। उनके प्रयासों के कारण ही
भारत के लोग लाखों साल से माँ गंगा में स्नान, पूजन और आचमन से पवित्र हो रहे हैं। आज भी यदि कोई व्यक्ति निस्वार्थ भाव से
लगातार किसी सद् संकल्प को लेकर काम करता रहे, तो उसे भगीरथ ही कहते हैं। ऐसे ही एक आधुनिक भगीरथ थे, दशरथ मांझी।
दशरथ मांझी का जन्म
कब हुआ, यह तो पता नहीं; पर वे बिहार के गया प्रखण्ड स्थित गहलौर घाटी में रहते थे। उनके गांव अतरी और
शहर के बीच में एक पहाड़ था, जिसे पार करने के लिए 20 कि.मी का चक्कर लगाना पड़ता था। 1960 ई. में दशरथ मांझी की पत्नी फगुनी देवी गर्भावस्था में पशुओं के लिए पहाड़ से घास काट रही थी कि उसका पैर फिसल गया। दशरथ उसे लेकर शहर के अस्पताल गये; पर दूरी के कारण वह समय पर नहीं पहुंच सके, जिससे उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी।
बस, बात दशरथ के मन को लग गयी। उन्होंने निश्चय किया कि
जिस पहाड़ के कारण मेरी पत्नी की मृत्यु हुई है, मैं उसे काटकर उसके बीच से रास्ता बनाऊंगा, जिससे भविष्य में किसी अन्य बीमार को अस्पताल पहुंचने से पहले ही मृत्यु का
ग्रास न बनना पड़े। उसके बाद सुबह होते ही दशरथ औजार लेकर जुट जाते और पहाड़ तोड़ना
शुरू कर देते। सुबह से दोपहर होती और फिर शाम; पर दशरथ पसीना बहाते रहते। अंधेरा होने पर ही वे घर लौटते। लोग समझे कि पत्नी
की मृत्यु से इनके मन-मस्तिष्क पर चोट लगी है। उन्होंने कई बार दशरथ को समझाना
चाहा; पर वे उनके संकल्प को शिथिल नहीं कर सके।
अन्ततः 22 साल के लगातार
परिश्रम के बाद पहाड़ ने हार मान ली। दशरथ की छेनी, हथौड़ी के आगे 1982 में पहाड़ ने घुटने टेक दिये और रास्ता दे दिया। यद्यपि तब तक दशरथ मांझी का
यौवन बीत चुका था; पर 20 कि.मी की बजाय अब केवल एक कि.मी. की पगडण्डी से शहर पहुंचना संभव हो गया। तब
मजाक उड़ाने वाले लोगों को उनके दृढ़ संकल्प के आगे नतमस्तक होना पड़ा। अब लोग उन्हें 'साधु बाबा' के नाम से बुलाने लगे।
दशरथ बाबा इसके बाद
भी शान्त नहीं बैठे। अब उनकी इच्छा थी कि यह रास्ता पक्का हो जाये, जिससे पैदल की बजाय लोग वाहनों से इस पर चल सकें।
इससे श्रम और समय की भारी बचत हो सकती थी; पर इसके लिए उन्हें शासन और प्रशासन की जटिलताओं से लड़ना पड़ा। वे एक बार गया
से पैदल दिल्ली भी गये; पर सड़क पक्की नहीं हुई। उनके नाम की चर्चा पटना में
सत्ता के गलियारों तक पहुंच तो गयी; पर निष्कर्ष कुछ नहीं निकला।
इन्हीं सब समस्याओं
से लड़ते हुए दशरथ बाबा बीमार पड़ गये। क्षेत्र में उनके सम्मान को देखते हुए राज्य
प्रशासन ने उन्हें दिल्ली के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया, जहां 17 अगस्त, 2007 को उन्होंने अन्तिम सांस ली।
देहांत के बाद उनका
पार्थिव शरीर गांव लाया गया। गया रेलवे स्टेशन पर बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश
कुमार ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। उनकी कर्मभूमि गहलौर घाटी में ही पूरे राजकीय
सम्मान के साथ उन्हें भू समाधि दी गयी। राज्य शासन ने ‘पद्म श्री’ के लिए भी उनके नाम की अनुशंसा की।
दशरथ मांझी की
मृत्यु के बाद बिहार के बच्चों की पाठ्यपुस्तकों में एक पाठ जोड़ा गया है। उसका
शीर्षक है - पहाड़ से ऊंचा आदमी। यह बात दूसरी है कि पहाड़ तोड़कर रास्ता बनाने वाले इस आधुनिक भगीरथ के संकल्प
का मूल्य उनके जीवित रहते प्रशासन नहीं समझा।
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17 अगस्त/बलिदान-दिवस
वजीर रामसिंह
पठानिया
अंग्रेजी साम्राज्य
के विरुद्ध भारत के चप्पे-चप्पे पर वीरों ने संग्राम किया है। हिमाचल प्रदेश की
नूरपूर रियासत के वजीर रामसिंह पठानिया ने 1848 में ही स्वतन्त्रता का बिगुल फूँक दिया था। इनका जन्म वजीर
शामसिंह एवं इन्दौरी देवी के घर 1824 में हुआ था। पिता के बाद इन्होंने 1848 में वजीर का पद सम्भाला। उस समय रियासत के राजा वीरसिंह का देहान्त हो चुका
था। उनका बेटा जसवन्त सिंह केवल दस साल का था।
अंग्रेजों ने
जसवन्त सिंह को नाबालिग बताकर राजा मानने से इन्कार कर दिया तथा उसकी 20,000 रु. वार्षिक पेन्शन निर्धारित कर दी। इस पर रामसिंह बौखला गये। उन्होंने जम्मू से
मनहास, जसवाँ से जसरोटिये, अपने क्षेत्र से पठानिये और कटोच राजपूतों को एकत्र किया। पंजाब से सरनाचन्द 500 हरिचन्द राजपूतों
को ले आया। 14 अगस्त, 1848 की रात में सबने शाहपुर कण्डी दुर्ग पर हमला बोल दिया। वह दुर्ग उस समय
अंग्रेजों के अधिकार में था। भारी मारकाट के बाद 15 अगस्त को रामसिंह ने अंग्रेजी सेना को खदेड़कर दुर्ग पर अपना झण्डा लहरा दिया।
इसके बाद रामसिंह
ने सब ओर ढोल पिटवाकर मुनादी करवाई कि नूरपूर रियासत से अंग्रेजी राज्य समाप्त हो
गया है। रियासत का राजा जसवन्त सिंह है और मैं उनका वजीर। इस घोषणा से पहाड़ी
राजाओं में उत्साह की लहर दौड़ गयी। वे सब भी रामसिंह के झण्डे के नीचे आने लगे; लेकिन अंग्रेजों ने और रसद लेकर फिर से दुर्ग पर धावा
बोल दिया। शस्त्रास्त्र के अभाव में रामसिंह को दुर्ग छोड़ना पड़ा; पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।
वे पंजाब के रास्ते
गुजरात गये और रसूल के कमाण्डर से 1,000 सिख सैनिक और रसद लेकर लौटे। इनकी सहायता से उन्होंने फिर से दुर्ग पर अधिकार
कर लिया। अंग्रेजी सेना पठानकोट भाग गयी। यह सुनकर जसवाँ, दातारपुर, कांगड़ा तथा ऊना के शासकों ने भी स्वयं को स्वतन्त्र घोषित कर दिया; पर अंग्रेज भी कम नहीं थे, उन्होंने कोलकाता से कुमुक बुलाकर फिर हमला किया।
रामसिंह पठानिया को एक बार फिर दुर्ग छोड़ना पड़ा। उन्होंने राजा शेरसिंह के 500 वीर सैनिकों की
सहायता से ‘डल्ले की धार’ पर मोर्चा बाँधा। अंग्रेजों ने ‘कुमणी दे बैल’ में डेरा डाल दिया।
दोनों दलों में
मुकेसर और मरीकोट के जंगलों में भीषण युद्ध हुआ। रामसिंह पठानिया की ‘चण्डी’ नामक तलवार 25 सेर वजन की थी। उसे लेकर वे जिधर घूमते, उधर ही अंग्रेजों का सफाया हो जाता। भीषण युद्ध का समाचार कोलकाता पहुँचा, तो ब्रिगेडियर व्हीलर के नेतृत्व में नयी सेना आ गयी।
अब रामसिंह चारों ओर से घिर गये। ब्रिटिश रानी विक्टोरिया का भतीजा जॉन पील
पुरस्कार पाने के लिए स्वयं ही रामसिंह को पकड़ने बढ़ा; पर चण्डी के एक वार से वह धराशायी हो गया।
अब कई अंग्रेजों ने
मिलकर षड्यन्त्रपूर्वक घायल वीर रामसिंह को पकड़ लिया। उन पर फौजी अदालत में मुकदमा
चलाकर आजीवन कारावास के लिए पहले सिंगापुर और फिर रंगून भेज दिया गया। रंगून की
जेल में ही मातृभूमि को याद करते हुए उन्होंने 17 अगस्त, 1849 को अपने प्राण त्याग दिये।
‘डल्ले की धार’ पर लगा शिलालेख आज भी उस वीर की याद दिलाता है। नूरपुर के जनमानस में इनकी
वीरगाथा ‘रामसिंह पठानिया की वार’ के नाम से गायी जाती है।
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17 अगस्त/बलिदान-दिवस
अमर बलिदानी मदनलाल धींगड़ा
तेजस्वी तथा
लक्ष्यप्रेरित लोग किसी के जीवन को कैसे बदल सकते हैं, मदनलाल धींगड़ा इसका उदाहरण है। उनका जन्म अमृतसर में
हुआ था। उनके पिता तथा भाई वहाँ प्रसिद्ध चिकित्सक थे। बी.ए. करने के बाद मदनलाल को
उन्होंने लन्दन भेज दिया। वहाँ उसे क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा
स्थापित ‘इण्डिया हाउस’ में एक कमरा मिल गया।
उन दिनों विनायक
दामोदर सावरकर भी वहीं थे। 10 मई, 1908 को इण्डिया हाउस में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की अर्द्धशताब्दी मनायी गयी। उसमें बलिदानी वीरों को
श्रद्धा॰जलि दी गयी तथा सभी को स्वाधीनता के बैज भेंट दिये गये। सावरकर जी के भाषण
ने मदनलाल के मन में हलचल मचा दी।
अगले दिन बैज लगाकर
वह जब क१लिज गया, तो अंग्रेज छात्र मारपीट करने लगे। धींगड़ा का मन बदले
की आग में जल उठा। उसने वापस आकर सावरकर जी को सब बताया। उन्होंने पूछा, क्या तुम कुछ कष्ट उठा सकते हो ? मदनलाल ने अपना हाथ मेज पर रख दिया। सावरकर के हाथ में एक सूजा था। उन्होंने
वह उसके हाथ पर दे मारा। सूजा एक क्षण में पार हो गया; पर मदनलाल ने उफ तक नहीं की। सावरकर ने उसे गले लगा
लिया। फिर तो दोनों में ऐसा प्रेम हुआ कि राग-रंग में डूबे रहने वाले मदनलाल का जीवन
बदल गया।
सावरकर की योजना से
मदनलाल ‘इण्डिया हाउस’ छोड़कर एक अंग्रेज परिवार में रहने लगे। उन्होंने अंग्रेजों से मित्रता बढ़ायी; पर गुप्त रूप से वह शस्त्र संग्रह, उनका अभ्यास तथा शस्त्रों को भारत भेजने के काम में
सावरकर जी के साथ लगे रहे। ब्रिटेन में भारत सचिव का सहायक कर्जन वायली था। वह
विदेशों में चल रही भारतीय स्वतन्त्रता की गतिविधियों को कुचलने में स्वयं को
गौरवान्वित समझता था। मदनलाल को उसे मारने का काम सौंपा गया।
मदनलाल ने एक कोल्ट
रिवाल्वर तथा एक फ्रै॰च पिस्तौल खरीद ली। वह अंग्रेज समर्थक संस्था ‘इण्डियन नेशनल
एसोसिएशन’ का सदस्य बन गया। एक जुलाई, 1909 को इस संस्था के वार्षिकोत्सव में कर्जन वायली मुख्य अतिथि था। मदनलाल भी सूट
और टाई में सजकर म॰च के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गये। उनकी जेब में पिस्तौल, रिवाल्वर तथा दो चाकू थे। कार्यक्रम समाप्त होते ही
मदनलाल ने म॰च के पास जाकर कर्जन वायली के सीने और चेहरे पर गोलियाँ दाग दीं। वह
नीचे गिर गया। मदनलाल को पकड़ लिया गया। 5 जुलाई को इस हत्या की निन्दा में एक सभा हुई; पर सावरकर ने वहाँ निन्दा प्रस्ताव पारित नहीं होने दिया। उन्हें देखकर लोग भय
से भाग खड़े हुए।
अब मदनलाल पर
मुकदमा शुरू हुआ। मदनलाल ने कहा - मैंने जो किया है, वह बिल्कुल ठीक किया है। भगवान से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा जन्म फिर से
भारत में ही हो। उन्होंने एक लिखित वक्तव्य भी दिया। शासन ने उसे वितरित नहीं किया; पर उसकी एक प्रति सावरकर के पास भी थी। उन्होंने उसे
प्रसारित करा दिया। इससे ब्रिटिश राज्य की दुनिया भर में थू-थू हुई।
17 अगस्त, 1909 को पेण्टनविला जेल में मदनलाल धींगड़ा ने खूब बन-ठन कर भारत माता की जय बोलते
हुए फाँसी का फन्दा चूम लिया। उस दिन वह बहुत प्रसन्न थे। इस घटना का इंग्लैण्ड के
भारतीयों पर इतना प्रभाव पड़ा कि उस दिन सभी ने उपवास रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी।
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17 अगस्त/जन्म-दिवस
पत्रकार प्रचारक
वीरेश्वर द्विवेदी
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ में कई तरह के लोग आते हैं। वे शाखा या अन्य कोई काम करते हुए भी
अपने मूल स्वभाव को नहीं भूलते। 17 अगस्त,
1945 को कानपुर जिले के भाल
गांव में जन्मे वीरेश्वर द्विवेदी ऐसे ही एक प्रचारक थे। वे मूलतः पत्रकार थे।
उनका असली नाम बटेश्वर द्विवेदी था, जो न जाने कब और कैसे वीरेश्वर हो गया। फिर यही उनकी पहचान बन गया।
जालौन के इंटर
काॅलिज में उनके स्वयंसेवक चाचा अंग्रेजी के अध्यापक थे। अतः उन्होंने वहीं से हाई
स्कूल और इंटर किया। इसी दौरान चाचा जी के साथ वे भी शाखा जाने लगे। बी.ए.
उन्होंने उरई के डी.ए.वी. महाविद्यालय से किया तथा वहां विद्यार्थी परिषद की इकाई
गठित की। वहां पहली बार हुए छात्रसंघ चुनाव में वे अध्यक्ष चुने गये। प्रथम श्रेणी
में बी.ए. करने के बाद उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया। इसके बाद 1969-70 में वे दैनिक जागरण के कानपुर संस्करण के
संपादकीय विभाग में काम करने लगे।
उन दिनों श्री
अशोक सिंहल कानपुर में संभाग प्रचारक थे। उनसे प्रभावित होकर 1971 में वीरेश्वर जी नौकरी छोड़कर प्रचारक बन गये।
सर्वप्रथम उन्हें प्रयागराज भेजा गया। 1973 में मेरठ केन्द्र बनाकर उन्हें विद्यार्थी परिषद में उ.प्र. के संगठन मंत्री
की जिम्मेदारी दी गयी। आपातकाल में वे राजाराम शर्मा के नाम से एक गुप्त पत्रक ‘अंगारा’ निकालते थे। 1984 में वे लखनऊ से प्रकाशित होने वाली ‘राष्ट्रधर्म’ मासिक पत्रिका
में संपादक बने। यह काम उनके स्वभाव के अनुकूल था। अगले 11 साल उन्होंने यह जिम्मेदारी संभाली।
राममंदिर आंदोलन
के दिनों में उन्होंने इससे संबंधित अनेक विशेषांक निकाले। इससे राष्ट्रधर्म को
भरपूर प्रसिद्धि और प्रसार मिला। आतंकवाद के दिनों में वचनेश त्रिपाठी के साथ
उन्होेंने पंजाब जाकर कई आंतकियों से साक्षात्कार लिया और वहां की ताजी जानकारी
पाठकों को दी। उनका अध्ययन गहरा और भाषण शैली प्रभावी थी। उन्होंने कई साल पूर्वी
उ.प्र. के जागरण पत्रक ‘पथ संकेत’
का भी संपादन किया। लखनऊ के बाद उन्हें विश्व
हिन्दू परिषद में प्रवक्ता, केन्द्रीय मंत्री
तथा प्रचार विभाग का प्रमुख बनाकर दिल्ली बुला लिया गया। वहां से वे परिषद के
पाक्षिक पत्र ‘हिन्दू विश्व’
का संपादन भी करते थे। उन्होंने लखनऊ और दिल्ली
में अनेक नये कार्यकर्ताओं को पत्रकारिता तथा लेखन का प्रशिक्षण दिया और फिर
उन्हें फिर स्थापित भी किया। वे पश्चिम उ.प्र. क्षेत्र के बौद्धिक और प्रचारक प्रमुख भी रहे।
वीरेश्वर जी को
एक और काम के लिए याद किया जाता है। राजनीतिक गुटबाजी से दूर रहने के कारण लखनऊ के
सांसद और फिर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चुनाव संयोजक वे ही रहते थे।
दिल्ली रहते हुए भी अटल जी के आग्रह पर चुनाव के समय उन्हें कुछ महीने के लिए लखनऊ
भेज दिया जाता था। चुनाव सम्पन्न होने पर वे निरासक्त भाव से फिर संगठन द्वारा
निर्धारित काम में लग जाते थे। अपने राजनीतिक संपर्कों से उन्होंने कई
कार्यकर्ताओं के कष्ट दूर किये; पर स्वयं कभी
उससे लाभ नहीं लिया। दिल्ली में भी केवल एक बार अटल जी के बुलाने पर वे
प्रधानमंत्री आवास पर गये थे।
वीरेश्वर जी पर
संघ के वरिष्ठ प्रचारक अशोक सिंहल, जयगोपाल जी तथा
बालकृष्ण त्रिपाठी का विशेष प्रभाव रहा। आयुवृद्धि के कारण पिछले कई साल से वे
रक्तचाप, मधुमेह तथा गुरदे के रोग
से ग्रस्त थे। उस दौरान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, केन्द्रीय मंत्री राजनाथ सिंह आदि उनके मिलने दिल्ली में
विश्व हिन्दू परिषद कार्यालय पर आते थे। प्रचारक जीवन के 50 वर्ष पूरे होने पर वे सब जिम्मेदारियों से मुक्त होकर लखनऊ
के विश्व संवाद केन्द्र में रहने लगे। चार सितम्बर, 2023 को वहीं के लोहिया अस्पताल में उनका देहांत हुआ। उनकी कई
पुस्तकें लखनऊ के ‘लोकहित प्रकाशन’
ने छापी हैं। इसमें ‘संघ नींव में विसर्जित’ विशेष उल्लेखनीय है।
(संदर्भ: राष्ट्रधर्म अक्तूबर 2023)
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18 अगस्त/जन्म-दिवस
अपराजेय नायक पेशवा बाजीराव
छत्रपति शिवाजी
महाराज ने अपने भुजबल से एक विशाल भूभाग मुगलों से मुक्त करा लिया था। उनके बाद इस ‘स्वराज्य’ को सँभाले रखने में जिस वीर का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण
योगदान रहा, उनका नाम था बाजीराव पेशवा।
बाजीराव का जन्म 18 अगस्त, 1700 को अपने ननिहाल ग्राम डुबेर में हुआ था। उनके दादा श्री विश्वनाथ भट्ट ने शिवाजी
महाराज के साथ युद्धों में भाग लिया था। उनके पिता बालाजी विश्वनाथ छत्रपति शाहू
जी महाराज के महामात्य (पेशवा) थे। उनकी वीरता के बल पर ही शाहू जी ने मुगलों तथा
अन्य विरोधियों को मात देकर स्वराज्य का प्रभाव बढ़ाया था।
बाजीराव को
बाल्यकाल से ही युद्ध एवं राजनीति प्रिय थी। जब वे छह वर्ष के थे, तब उनका उपनयन संस्कार हुआ। उस समय उन्हें अनेक उपहार
मिले। जब उन्हें अपनी पसन्द का उपहार चुनने को कहा गया, तो उन्होंने तलवार को चुना। छत्रपति शाहू जी ने एक
बार प्रसन्न होकर उन्हें मोतियों का कीमती हार दिया, तो उन्होंने इसके बदले अच्छे घोड़े की माँग की। घुड़साल में ले जाने पर उन्होंने
सबसे तेज और अड़ियल घोड़ा चुना। यही नहीं, उस पर तुरन्त ही सवारी गाँठ कर उन्होंने अपने भावी जीवन के संकेत भी दे दिये।
चौदह वर्ष की
अवस्था में बाजीराव प्रत्यक्ष युद्धों में जाने लगे। 5,000 फुट की खतरनाक
ऊँचाई पर स्थित पाण्डवगढ़ किले पर पीछे से चढ़कर उन्होंने कब्जा किया। कुछ समय बाद
पुर्तगालियों के विरुद्ध एक नौसैनिक अभियान में भी उनके कौशल का सबको परिचय मिला।
इस पर शाहू जी ने इन्हें ‘सरदार’ की उपाधि दी। दो अप्रैल, 1720 को बाजीराव के पिता विश्वनाथ पेशवा के देहान्त के बाद
शाहू जी ने 17 अपै्रल, 1720 को 20 वर्षीय तरुण बाजीराव को पेशवा बना दिया। बाजीराव ने पेशवा बनते ही सर्वप्रथम
हैदराबाद के निजाम पर हमलाकर उसे धूल चटाई।
इसके बाद मालवा के
दाऊदखान, उज्जैन के मुगल सरदार दयाबहादुर, गुजरात के मुश्ताक अली, चित्रदुर्ग के मुस्लिम अधिपति तथा श्रीरंगपट्टनम के सादुल्ला खाँ को पराजित कर
बाजीराव ने सब ओर भगवा झण्डा फहरा दिया। इससे स्वराज्य की सीमा हैदराबाद से
राजपूताने तक हो गयी। बाजीराव ने राणो जी शिन्दे, मल्हारराव होल्कर, उदा जी पँवार, चन्द्रो जी आंग्रे जैसे नवयुवकों को आगे बढ़ाकर कुशल सेनानायक बनाया।
पालखिण्ड के भीषण
युद्ध में बाजीराव ने दिल्ली के बादशाह के वजीर निजामुल्मुल्क को धूल चटाई थी।
द्वितीय विश्वयुद्ध में प्रसिद्ध जर्मन सेनापति रोमेल को पराजित करने वाले अंग्रेज
जनरल माण्टगोमरी ने इसकी गणना विश्व के सात श्रेष्ठतम युद्धों में की है। इसमें
निजाम को सन्धि करने पर मजबूर होना पड़ा। इस युद्ध से बाजीराव की धाक पूरे भारत में
फैल गयी। उन्होंने वयोवृद्ध छत्रसाल की मोहम्मद खाँ बंगश के विरुद्ध युद्ध में
सहायता कर उन्हें बंगश की कैद से मुक्त कराया। तुर्क आक्रमणकारी नादिरशाह को
दिल्ली लूटने के बाद जब बाजीराव के आने का समाचार मिला, तो वह वापस लौट गया।
सदा अपराजेय रहे
बाजीराव अपनी घरेलू समस्याओं और महल की आन्तरिक राजनीति से बहुत परेशान रहते थे।
जब वे नादिरशाह से दो-दो हाथ करने की अभिलाषा से दिल्ली जा रहे थे, तो मार्ग में नर्मदा के तट पर रावेरखेड़ी नामक स्थान
पर गर्मी और उमस भरे मौसम में लू लगने से मात्र 40 वर्ष की अल्पायु में 28 अपै्रल, 1740 को उनका देहान्त हो गया। उनकी युद्धनीति का एक ही सूत्र था कि जड़ पर प्रहार
करो, शाखाएं स्वयं ढह जाएंगी। पूना के शनिवार बाड़े में
स्थित महल आज भी उनके शौर्य की याद दिलाता है।
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18 अगस्त/जन्म-दिवस
सिन्ध में संघ कार्य के प्रणेता राजपाल पुरी
श्री राजपाल पुरी का जन्म 18 अगस्त, 1919 को स्यालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में एक वकील श्री बिशम्भर नाथ एवं श्रीमती बिन्द्रा देवी के घर में हुआ था। उनका घर हकीकत राय की समाधि के सामने था। पढ़ाई में वे सदा प्रथम श्रेणी तथा छात्रवृत्ति पाते रहे। 1929 में उनके पिताजी का निधन हो गया।
1937 में उत्तर पंजाब के प्रांत प्रचारक श्री के.डी.जोशी के सम्पर्क में आकर वे स्वयंसेवक बने। 1938 तथा 39 में उन्होंने नागपुर से प्रथम व द्वितीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया। 1939 में पंजाब वि.वि. से बी.ए. करते ही उन्हें दिल्ली में रक्षा विभाग में नौकरी मिल गयी; पर एक महीने बाद त्यागपत्र देकर वे संघ कार्य के लिए हैदराबाद पहुंच गये। वहां हिन्दू महासभा के नेता श्री धर्मदास बेलाराम ने उनके रहने का प्रबंध किया। घर की जिम्मेदारी होने से वे वहां एक विद्यालय में पढ़ाने लगे; पर छोटे भाई संतोष की नौकरी लगते ही पढ़ाना छोड़कर वे पूरी तरह संघ के काम में लग गये।
नागपुर में हुए 1940 के संघ शिक्षा वर्ग में सिन्ध से छह स्वयंसेवक गये। राजपाल जी ने भी तभी अपना तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूरा किया। 1945 में वे सिन्ध के प्रांत प्रचारक बने। उन्हें सब ‘श्रीजी’ कहकर बुलाते थे। सिन्ध में हिन्दू केवल 13 लाख थे। विभाजन की तलवार सिर पर लटकी थी। मुसलमानों के अत्याचार बढ़ रहे थे। कई गांव और कस्बों में हिन्दू केवल दो-तीन प्रतिशत ही थे; पर शाखाओं के कारण हिन्दुओं में भारी जागृति आयी।
राजपाल जी के प्रयास से बैरिस्टर खानचंद गोपालदास कराची के तथा बैरिस्टर होतचंद गोपालदास अडवानी हैदराबाद के संघचालक बने। एक बार श्री अडवानी एक बम कांड में पकड़े गये। सरसंघचालक श्री गुरुजी तथा राजपाल जी के प्रयास से वे रिहा हुए। 1942 में संघ कार्यालय, हैदराबाद पर छापा मारकर पुलिस ने राजपाल जी तथा दो अन्य को पकड़ लिया। ऐसे में बैरिस्टर अडवानी ने मार्शल लॉ प्रशासक से मिलकर उन्हें रिहा कराया।
मार्च 1947 में राजपाल जी ने पूरे प्रान्त में हिन्दू जनगणना की। इससे 1947 में हिन्दुओं की रक्षा में बड़ा लाभ हुआ। उन्होंने ‘पंजाब सहायता समिति’ बनाकर पांच लाख रु. एकत्र किये तथा शस्त्रों के संग्रह, निर्माण व प्रशिक्षण का प्रबन्ध किया। विभाजन के बाद जोधपुर को केन्द्र बनाकर उन्होंने सिन्ध से आये हिन्दुओं के पुनर्वास का काम किया। 1948 के प्रतिबंध काल में संघ का संविधान बनाने में उन्होंने दीनदयाल जी तथा एकनाथ जी का साथ दिया। प्रतिबंध समाप्ति के बाद वे गुजरात और फिर महाराष्ट्र के प्रांत प्रचारक बनाये गये।
1952 में छोटे भाई की असामयिक मृत्यु से वृद्ध मां की जिम्मेदारी फिर उन पर आ गयी। अतः 1954 में उन्होंने विवाह कर लिया। इससे पूर्व 1953 में उन्होंने ‘मुंबई हाइकोर्ट बार काउंसिल’ की परीक्षा दी। वहां भी प्रथम श्रेणी तथा प्रथम स्थान पाने पर उन्हें ‘सर चिमनलाल सीतलवाड़ पदक’ मिला। वकालत के साथ वे विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद, विवेकानंद शिला स्मारक, फ्रेंडस ऑफ इंडिया सोसायटी आदि में सक्रिय रहे।
वे उद्योग कानूनों के विशेषज्ञ थे। उन्होंने विश्व मजदूर संघ (आई.एल.ओ) के जेनेवा अधिवेशन में भी भाग लिया था।आपातकाल में उनके वारंट थे; पर वे विदेश चले गये और वहीं जनजागरण करते रहे। मार्च 1977 में वे लौटे; पर कुछ ही दिन बाद 27 मार्च, 1977 को हुए भीषण हृदयाघात से उनका निधन हो गया।
राजपाल जी हिन्दी, अंग्रेजी, पंजाबी, सिन्धी, मराठी, गुजराती आदि कई भाषाएं जानते थे। सिन्ध में उनके आठ वर्ष के कार्यकाल में बलूचिस्थान तक शाखाओं का विस्तार हुआ। लगभग 75 युवक प्रचारक भी बने। पांच अगस्त, 1947 को कराची में सरसंघचालक श्री गुरुजी की सभा में दस हजार गणवेशधारी स्वयंसेवक तथा एक लाख हिन्दू आये। सिन्ध आज भारत में नहीं है; पर वहां से सुरक्षित भारत आये सभी हिन्दू राजपाल जी को श्रद्धापूर्वक याद करते हैं।
(संदर्भ : पुत्र रोहित पुरी से प्राप्त जानकारी)
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19 अगस्त/जन्म-दिवस
उत्तम साहित्य के
प्रकाशक पुरुषोत्तम दास मोदी
सामान्य जन तक
अच्छा साहित्य पहुँचाने के लिए लेखक, प्रकाशक और विक्रेता के बीच सन्तुलन और समझ होनी अति आवश्यक है। श्री पुरुषोत्तम
दास मोदी एक ऐसे प्रकाशक थे, जिन्होंने प्रकाशन
व्यवसाय में अच्छी प्रतिष्ठा पायी। उनका जन्म 19 अगस्त, 1928 को गोरखपुर में हुआ था। पुरुषोत्तम मास में जन्म लेेने से उनका यह नाम रखा
गया। मोदी जी की रुचि छात्र जीवन से ही साहित्य की ओर थी। उनकी सारी शिक्षा
गोरखपुर में हुई। उन्होंने हिन्दी में एम.ए. किया। विद्यालयों में होने वाले
साहित्यिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वे सदा आगे रहते थे।
1945 में उनके संयोजन में सेण्ट एण्ड्रूज कालेज में विराट कवि सम्मेलन हुआ, जिसमें माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर, सुभद्रा कुमारी चौहान, सुमित्रा कुमारी सिन्हा जैसे वरिष्ठ कवि पधारे। इसमें
तब के युवा कवि धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त आदि ने
भी काव्यपाठ किया। ऐसी गतिविधियों के कारण मोदी जी का सम्पर्क तत्कालीन श्रेष्ठ
साहित्यकारों से हो गया।
1950 में शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने घरेलू वस्त्र व्यवसाय के बदले प्रकाशन व्यवसाय
में हाथ डाला, चूँकि इससे उनकी साहित्यिक क्षुधा शान्त होती थी। उन्होंने नये और
पुराने लेखकों से सम्पर्क किया। 1956 में उन्होंने शिवानी का प्रथम उपन्यास ‘चौदह फेरे’ प्रकाशित किया। इसके बाद माखनलाल चतुर्वेदी और शिवानी के कथा संग्रह प्रकाशित
किये। उन दिनों गोरखपुर में मुद्रण सम्बन्धी सुविधाएँ कम थीं। अतः 1964 में वे विद्या की
नगरी काशी आ गये।
यहाँ उन्होंने
महामहोपाध्याय पण्डित गोपीनाथ कविराज, पण्डित बलदेव उपाध्याय, ठाकुर जयदेव सिंह, डा. मोतीचन्द, डा. भगीरथ मिश्र जैसे प्रतिष्ठित लेखकों की पुस्तकें
छापीं। इससे उनके संस्थान ‘विश्वविद्यालय प्रकाशन’ की प्रतिष्ठा में चार चाँद लग गये। अपनी प्रकाशन और प्रबन्ध क्षमता के कारण वे 'अखिल भारतीय प्रकाशक संघ' के लगातार दो बार महामन्त्री भी बने।
मोदी जी का
उद्देश्य केवल पैसा कमाना नहीं था। उनकी इच्छा थी कि व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध
और श्रेष्ठ साहित्य जनता तक पहुँचे। इसके लिए वे स्वयं पुस्तकों के प्रूफ जाँचा
करते थे। जो कार्य आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका को माध्यम बनाकर किया, वही काम मोदी जी ने अपने प्रकाशन में रहते हुए किया।
उन्होंने हजारों ग्रन्थों की भाषा शुद्ध की।
मोदी जी बड़े
सिद्धान्तवादी व्यक्ति थे। जब उनकी माताजी का देहान्त हुआ, तो घर में ढेरों मेहमान आये थे। उन दिनों गैस की बड़ी
समस्या थी। उनकी पत्नी ने पाँच रुपये अधिक देकर एक सिलेण्डर मँगा लिया। जब मोदी जी
को यह पता लगा, तो उन्होंने तुरन्त कर्मचारी के हाथ वह गैस सिलेण्डर
वापस भिजवाया। उनका सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं से भी बहुत लगाव था। काशी में
हिन्दू सेवा सदन, मारवाड़ी अस्पताल, काशी गौशाला, मुमुक्ष भवन जैसी अनेक संस्थाओं को उन्होंने नवजीवन
प्रदान किया।
अपने प्रकाशन की
जानकारी सर्वदूर पहुँचाने के लिए उन्होंने ‘भारतीय वांगमय’ नामक एक मासिक लघु पत्रिका भी निकाली। इसमें उनके सम्पादकीय बहुत सामयिक हुआ
करते थे। उन्होंने अन्तिम सम्पादकीय श्रीरामसेतु विवाद पर शासन को सद्बुद्धि देने
के लिए लिखा था। अनेक रोगों से घिरे होने पर भी वे सदा सक्रिय रहते थे। सात
अक्तूबर, 2007 को उनका देहान्त हो गया।
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19 अगस्त/जन्म-दिवस
महासती रूपकंवर
माता
पिछले कुछ समय से
सती के बारे में भ्रामक धारणा बन गयी है। लोग अपने पति के शव के साथ जलने वाली
नारी को ही सती कहने लगे हैं, जबकि सत्य यह है कि
इस प्रकार देहत्याग की परम्परा राजस्थान में तब पड़ी, जब मुगलों से युद्ध में बड़ी संख्या में हिन्दू सैनिक मारे
जाते थे। उनकी पत्नियाँ शत्रुओं द्वारा भ्रष्ट होने के भय से अपनी देहत्याग देती
थीं; यह परम्परा वैदिक नहीं है और समय के साथ ही समाप्त हो
गयी।
सच तो यह है कि जो
नारी मन, वचन और कर्म से अपने पति, परिवार, समाज और धर्म पर दृढ़ रहे, उसे ही सती का स्थान दिया जाता था। इसीलिए भारतीय
धर्मग्रन्थों में सती सीता, सावित्री आदि की चर्चा होती रही है। वीरभूमि राजस्थान
में ऐसी ही एक महासती रूपकँवर हुई हैं। उनका जन्म जोधपुर जिले के रावणियाँ गाँव
में 19 अगस्त, 1903 (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) को हुआ था। उनकी स्मृति में अब
वह गाँव ‘रूपनगर’ कहलाता है।
रूपकँवर के पिता
श्री लालसिंह तथा माता श्रीमती जड़ाव कँवर थीं। बचपन से ही उसकी रुचि धर्म एवं पूजा
पाठ के प्रति बहुत थी। रूपकँवर के ताऊ श्री चन्द्रसिंह घर के बाहर बने शिवलिंग की
पूजा में अपना अधिकांश समय बिताते थे। उनका प्रभाव रूपकँवर पर पड़ा। उन्हें वह अपना
प्रथम गुरु मानती थीं। 10 मई, 1919 को रूपकँवर का विवाह बालागाँव निवासी जुझारसिंह से हुआ; पर केवल 15 दिन बाद ही वह विधवा हो गयी।
लेकिन रूपकँवर ने
धैर्य नहीं खोया। उन्होंने पूरा जीवन विधवा की भाँति बिताने का निश्चय किया। वह
भूमि पर सोती तथा एक समय भोजन करती थीं। घरेलू काम के बाद शेष समय वह भजन में
बिताने लगीं। 15 फरवरी, 1942 को उन्हें कुछ विशेष आध्यात्मिक अनुभूति हुई। लोगों ने देखा कि उनकी वाणी से
चमत्कार होने लगे हैं। उन्होंने गाँव के चम्पालाल व्यापारी के पुत्र गजराज तथा
महन्त दर्शन राम जी को मृत्यु के बाद भी जिला दिया।
यह देखकर लोग
उन्हें जीवित सती माता मानकर ‘बापजी’ कहने लगे। वे अधिकांश समय मौन रहतीं। उन्होंने सन्त गुलाबदास जी महाराज से
दीक्षा ली और श्वेत वस्त्र धारण कर लिये। उन्होंने आहार लेना बन्द कर दिया। लोगों
ने उनकी खूब परीक्षा ली; पर वे पवहारी बाबा की तरह बिना खाये पिये केवल हवा के
सहारे ही जीवनयापन करती रहीं। उन्होंने दो बार तीर्थयात्रा भी की।
मान्यता यह है कि
उन्हें भगवान शंकर ने दर्शन दिये थे। जिस स्थान पर उन्हें दर्शन हुए, वहाँ उन्होंने शिवमन्दिर बनवाया और 18 जनवरी, 1948 को उसमें मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की। उन्होंने एक अखण्ड ज्योति की स्थापना
की, जो आज तक जल रही है। उसकी विशेषता यह है कि बन्द आले
में जलने के बावजूद वहाँ काजल एकत्र नहीं होता। वे कभी पैसे को छूती नहीं थी, उनका कहना था कि इससे उन्हें बिच्छू के डंक जैसा
अनुभव होता है।
भारत के प्रथम
राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद इनके भक्त थे। उनके आग्रह पर वे सात दिन राष्ट्रपति भवन में
रहीं। भोपालगढ़ में गोशाला के उद्घाटन में हवन के लिए उन्होंने एक बछिया को दुह कर
दूध निकाला। वह बछिया अगले 14 साल तक प्रतिदिन एक लोटा दूध देती रही। ऐसी महासती माता रूपकँवर ने पहले से ही
निर्धारित एवं घोषित दिन 16 नवम्बर, 1986 (कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी, विक्रमी संवत् 2043) को महासमाधि ले ली।
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19 अगस्त/बलिदान-दिवस
देवनागरी के नवदेवता बिनेश्वर ब्रह्म
पूर्वोत्तर भारत में चर्च वाले हिन्दू धर्म ही नहीं, तो हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि का भी विरोध करते हैं। ‘बोडो साहित्य सभा’ के अध्यक्ष श्री बिनेश्वर ब्रह्म भी उनके इस षड्यन्त्र के शिकार बने, चूंकि वे बोडो भाषा के लिए रोमन लिपि की बजाय देवनागरी लिपि के प्रबल समर्थक थे।
श्री बिनेश्वर ब्रह्म का जन्म 28 फरवरी, 1948 को असम में कोकराझार के पास भरतमुरी ग्राम में श्री तारामुनी एवं श्रीमती सानाथी ब्रह्म के घर में हुआ था। प्राथमिक शिक्षा उन्होंने अपने गांव से ही पूरी की। 1965 में कोकराझार से हाई स्कूल करते हुए उन्होंने ‘हिन्दी विशारद’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली।
1971 में असम की सभी स्थानीय भाषाओं के संरक्षण तथा संवर्धन के लिए हुए आंदोलन में वे 45 दिन तक डिब्रूगढ़ जेल में भी रहे। प्रारम्भ में कुछ वर्ष वे डेबरगांव तथा कोकराझार में हिन्दी के अध्यापक रहे। 1972 में उन्होंने जोरहाट से कृषि विज्ञान में बी.एस-सी. की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वे कृषि विभाग की सरकारी सेवा में आ गये। कोकराझार तथा जोरहाट वि.वि. में पढ़ते समय वे उन विद्यालयों की छात्र इकाई के सचिव भी चुने गये।
श्री बिनेश्वर ब्रह्म को साहित्य के प्रति प्रेम तो था ही; पर वे एक अच्छे लेखक और ओजस्वी वक्ता भी थे। उन्होंने गद्य और पद्य की कई पुस्तकें लिखीं। ‘बोडो साहित्य सभा’ में उनकी सक्रियता को देखकर उन्हें क्रमशः उसका सचिव, उपाध्यक्ष तथा 1996 और 1999 में अध्यक्ष बनाया गया। असम में बोडो भाषा की लिपि के लिए कई बार आंदोलन हुए। श्री बिनेश्वर ब्रह्म ने इसके लिए सदा देवनागरी का समर्थन किया। उनके प्रयासों से इसे स्वीकार भी कर लिया गया; पर चर्च के समर्थक बार-बार सभा की बैठकों में रोमन और देवनागरी का विवाद पैदा करते थे।
पूर्वोत्तर भारत में सैकड़ों आतंकी गिरोह कार्यरत हैं। सरकारी अधिकारी, व्यापारी तथा उद्योगपतियों से फिरौती वसूलना इनका मुख्य धंधा है। इसी से इनकी अवैध गतिविधियां चलती हैं। ईसाई वोट खोने के भय से सेक्यूलरवादी राज्य और केन्द्र शासन भी इनके विरुद्ध कठोर कार्यवाही नहीं करते।
एन.डी.एफ.बी. (नेशनल डैमोक्रैटिक फ्रंट आॅफ बोडोलैंड) ऐसा ही एक उग्रवादी गिरोह है। यह बंदूक के बल पर धर्मान्तरण करता है। अपनी मांग मनवाने के लिए यह हत्या, अपहरण, बम विस्फोट तथा जबरन धन वसूली जैसे अवैध काम भी करता रहता है। यह गिरोह काफी समय से ‘स्वतन्त्र बोडोलैंड’ राज्य की मांग के लिए हिंसक आंदोलन कर रहा है; पर आम जनता इनके साथ नहीं है। श्री बिनेश्वर ब्रह्म ने कई बार इन उग्रवादी गुटों तथा असम सरकार को मेज पर आमने-सामने बैठाया, जिससे समस्याओं का समाधान शांतिपूर्वक हो सके।
देवनागरी के समर्थक होने के कारण प्रायः श्री ब्रह्म को इन उग्रवादियों की धमकी मिलती रहती थी; पर उन्होंने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। वे देवनागरी को एक वैज्ञानिक लिपि तथा सभी भारतीय भाषाओं के बीच सम्बन्ध बढ़ाने वाला सेतु मानते थे। उनके प्रयास से बोडो पुस्तकें देवनागरी लिपि में छपकर लोकप्रिय होने लगीं। इससे उग्रवादी बौखला गये और 19 अगस्त, 2000 की रात में उनके निवास पर ही गोलीवर्षा कर उनकी निर्मम हत्या कर दी गयी। हत्या के बाद एन.डी.एफ.बी. ने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए श्री बिनेश्वर ब्रह्म को ‘भारतीय जनता पार्टी’ का एजेंट बताया। देवनागरी के माथे पर अपने लहू का तिलक लगाने वाले ऐसे बलिदानी नवदेवता स्तुत्य हैं।
(संदर्भ : पांचजन्य 15.10.2000 तथा विकीपीडिया)
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20 अगस्त/मच्छर-दिवस
मलेरिया के संवाही मच्छर की खोज
आज तो मच्छर से फैलने वाला मलेरिया लगभग समाप्ति की ओर है; पर कभी यह दुनिया भर में सबसे भीषण रोग था। जंगल या गांवों में रहने वालों पर इसका हमला सबसे अधिक होता था। लाखों लोग प्रतिवर्ष मारे जाते थे। यह कैसे और क्यों होता है, इसका पता नहीं था। अतः मरीजों को कुनैन की गोलियां दे दी जाती थीं; पर कोई अचूक दवा नहीं बन पा रही थी।
इसके संवाही मच्छर को खोजने वाले चिकित्सा वैज्ञानिक डा. रोनाल्ड राॅस का जन्म 13 मई, 1857 को अल्मोड़ा में हुआ था। 1857 के भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अनेक अंग्रेज अधिकारी जान बचाने के लिए पहाड़ों में आ गये थे। रोनाल्ड के पिता सर कैम्पबैल क्लेब्रांट राॅस भी उनमें से एक थे। उनकी अधिकांश शिक्षा इंग्लैंड में हुई; पर 1880 में भारत आकर वे सेना के चिकित्सा विभाग में भरती हो गये। उन दिनों सैनिकों को मलेरिया बहुत होता था। डा. राॅस उनकी चिकित्सा करते हुए इसका मूल कारण खोजने लगे। उन्होंने इंग्लैंड में भी अनेक साथी चिकित्सकों से इसकी चर्चा की। एक वरिष्ठ चिकित्सक डा. पेट्रिक मैन्सन कहा कि यह रोग मच्छर से ही फैलता है। अतः डा. राॅस दूने उत्साह से इस काम में लग गये।
भारत में मच्छरों की कोई कमी नहीं थी। अलग-अलग क्षेत्र में मच्छरों की कई तरह की प्रजातियां विद्यमान थीं। अतः डा. राॅस इस पर शोध करने लगे। जो भी रोगी उनके पास आता, वे उसके खून के नमूने में रोग का कारण खोजते रहते थे। एक बार तो उन्हें खुद ही मलेरिया हो गया; पर उनका उत्साह कम नहीं हुआ। अपनी प्रयोगशाला में कई प्रजातियों के मच्छर पालकर वे उनकी चीरफाड़ करते रहते थे। हजारों मच्छर इस शोध की भेंट चढ़ गये। सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर वे इन मच्छरों के पेट में पलने वाले जीवाणुओं को देखते रहते थे।
एक बार मलेरिया से पीडि़त हुसेन खान नामक मरीज उनके पास आया। डा. राॅस ने उसे लालच देकर इस बात के लिए तैयार किया कि वह खुद को मच्छरों से कटवाएगा। वह राजी हो गया और इसके लिए उसे आठ आने दिये गये। डा. राॅस ने अपनी प्रयोगशाला के 20 वयस्क मच्छर उस पर छोड़ दिये। मच्छरों ने उसका भरपूर खून पिया और उसे काटा। उन्हें किसी ने उड़ाया नहीं। पेट भरने पर जब वे खुद ही हट गये, तो उन्हें पानी की कुछ बंूद के साथ फिर अलग-अलग परखनलियों में बंद कर दिया गया।
अब डा. राॅस एक-एक को चीरते और घंटों उसे सूक्ष्मदर्शी यंत्र पर रखकर अध्ययन करते रहते। कई दिन ऐसे ही बीत गये। 19 मच्छरों में उन्हें कोई खास चीज नहीं मिली। आज 20 अगस्त, 1897 को बीसवें की बारी थी। वह एक मादा थी। उसका रंग हल्का भूरा, चितकबरे पैर, लंबा डंक और पतली काली पट्टियों वाले पंख थे। उसके पेट की 12 कोशिकाओं में छोटे-छोटे दानों का समूह था। ये वास्तव में मलेरिया के परजीवी थे, जो वहां पल रहे थे। यही परजीवी उन्हें मलेरिया से ग्रस्त रोगियों के खून में मिले थे। डा. राॅस खुशी से उछल पड़े। उन्हें जिस मच्छर की तलाश थी, वह सामने था।
मानव जाति के लिए यह निर्णायक क्षण था। डा. राॅस ने उसका पूरा ब्यौरा लिख लिया। रात में उन्होंने पत्नी को लिखे पत्र में अपनी खुशी का वर्णन किया। उन्होंने बता दिया कि मलेरिया की संवाहक एनाफिलीज प्रजाति की मादा मच्छर है। इसके बाद तो मलेरिया की दवा बनाने के द्वार खुल गये। डा. राॅस को इस खोज के लिए 1902 में नोबेल सम्मान दिया गया। 16 सितम्बर, 1932 को लंदन में मानवता के इस महान उपकारक का देहांत हुआ। इस खोज की स्मृति में 20 अगस्त को ‘विश्व मच्छर दिवस’ मनाया जाता है।
(विकी/अ.उ.20.8.23 सुनील शर्मा/हि. 20.8.23 ज्ञानेश उपाध्याय)
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20 अगस्त/पुण्य-तिथि
इतिहासकार गंगाराम
सम्राट
श्री गंगाराम
सम्राट का जन्म 1918 ई. में सिन्धु नदी के तट पर स्थित सन गाँव में हुआ था। उनके गाँव में शिक्षा की
अच्छी व्यवस्था थी। पढ़ाई पूरी कर वे उसी विद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाने लगे। इसी समय
उनका सम्पर्क आर्य समाज से हुआ। आर्य संन्यासियों की अनेक पुस्तकों का अंग्रेजी
में अनुवाद कर उन्होंने साहित्य की दुनिया में प्रवेश किया। इसके बाद नौकरी छोड़कर
वे सिन्धी समाचार पत्र ‘संसार समाचार’ से जुड़ गये और अनेक वर्ष तक उसका संचालन किया।
कुछ समय बाद उनकी ‘आर्यावर्त’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसमें आर्यों को भारत का
मूल निवासी सिद्ध किया गया था। इससे उन्हें काफी प्रसिद्धि मिली। लोग उन्हें
गंगाराम सम्राट कहने लगे। पुस्तक में इस्लाम के बारे में अनेक सच लिखे थे।
मुसलमानों ने उसका विरोध किया। इस पर शासन ने पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया; पर तब तक वह पूरी तरह बिक चुकी थी।
उनके लेखन का
प्रमुख विषय इतिहास था। उनके पुस्तकालय में अंग्रेजी, हिन्दी, गुजराती, अरबी तथा फारसी की 4,000 पुस्तकें थीं। 1953 के बाद के भारत, पाकिस्तान तथा अमरीका के सरकारी गजट भी उनके पास थे।
वे कभी तथ्यहीन बात नहीं लिखते थे तथा लिखते समय देशी-विदेशी तथ्यों की पूरी
जानकारी देते थे। उन्होंने सिकन्दर की पराजय, सिन्धु सौवीर, भयंकर धोखा, शुद्ध गीता, मोहनजोदड़ो..आदि अनेक पुस्तकें लिखीं। इन पुस्तकों का
अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। उनके पत्रों में शीर्ष स्थान पर ‘गो बैक टु वेदास’ (वेदों की ओर लौट चलो) लिखा रहता था।
देश विभाजन के समय
गंगाराम जी ने सिन्ध छोड़कर भारत आ रहे हिन्दुओं की बहुत सहायता की। इसके लिए
उन्होंने कराची बन्दरगाह पर ही नौकरी कर ली; पर वे स्वयं अपनी जन्मभूमि में ही रहना चाहते थे। उनका विचार था कि पाकिस्तान
में शायद अब शान्ति का माहौल रहे। अतः वे 1952 तक वहीं रुके रहे; पर जब उन्होंने वहाँ हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचार
क्रमशः बढ़ते देखे, तो वे अपना दोमंजिला मकान वहीं छोड़कर भारत आ गये। हाँ, वे अपनी पुस्तकों की पूँजी साथ लाना नहीं भूले।
भारत आकर वे
कर्णावती, गुजरात में बस गये। यहाँ रहकर भी वे सतत लेखन एवं
इतिहास के शोध में लगे रहे। 1969 में उन्होंने अपना मुद्रणालय प्रारम्भ किया और 1970 में वहाँ से ‘सिन्धु मित्र’ नामक साप्ताहिक पत्र निकाला। ‘लघु समाचार पत्र संघ’ के सहमन्त्री के रूप में भी उन्होंने अपनी सेवाएँ प्रदान कीं। इतिहास, पत्रकारिता तथा सिन्धी साहित्य के लिए उनकी सेवाओं को
देखते हुए भारत में प्रायः सभी प्रान्तों में बसे सिन्धी समाज ने तथा राष्ट्रपति
ज्ञानी जैलसिंह ने उन्हें सम्मानित किया। ‘राष्ट्रीय सिन्धी बोली विकास परिषद’ ने उन्हें 50 हजार रु. एवं शील्ड प्रदान की।
भारत आने के बाद भी
उनका पाकिस्तान के सिन्धी बुद्धिजीवियों से सम्पर्क बना रहा। उनके लेख पाकिस्तानी
पत्रों में नियमित प्रकाशित होते रहे। उनकी अन्तिम पुस्तक ‘मताँ असाँखे विसायो’ का प्रकाशन पाकिस्तान के सिन्धु विश्वविद्यालय ने ही
किया। उन्हें सिन्धु विश्वविद्यालय ने भाषण के लिए भी आमन्त्रित किया; पर वे भारत आने के बाद फिर पाकिस्तान नहीं गये।
20 अगस्त, 2004 को इतिहासकार गंगाराम सम्राट का निधन हो गया। उनकी इच्छानुसार मरणोपरान्त उनके
नेत्र दान कर दिये गये।
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20 अगस्त/जन्म-दिवस
सेवा कार्य के आग्रही के.सूर्यनारायण राव
संघ में ‘सुरुजी’ के नाम से प्रसिद्ध वरिष्ठ प्रचारक श्री के.सूर्यनारायण राव का जन्म 20 अगस्त, 1924 को कर्नाटक के मैसूर नगर में हुआ था। वैसे यह परिवार इसी राज्य के ग्राम कोरटगेरे (जिला तुमकूर) का मूल निवासी था। उनके पिता श्री कोरटगेरे कृष्णप्पा मैसूर संस्थान में सहायक सचिव थे। उन्होंने पूज्य गोंडवलेकर महाराज से तथा उनकी पत्नी श्रीमती सुंदरप्पा ने ब्रह्मानंदजी से दीक्षा ली थी। अतः धर्म के प्रति प्रेम सुरुजी को घर से ही प्राप्त हुआ।
इस परिवार का संघ से भी बहुत लगाव था। संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी मैसूर प्रवास के समय उनके घर में ही रुकते थे। ‘सुरुजी’ से छोटे चार भाई और एक बहिन भी थी। उनके एक भाई के.नरहरि भी प्रचारक थे; पर पिताजी की सेवानिवृत्ति के बाद घर की आर्थिक परेशानी को देखकर श्री गुरुजी ने स्वयं उन्हें गृहस्थ जीवन में जाने की अनुमति दी। ‘सुरुजी’ की बहिन रुक्मणि अक्का भी राष्ट्र सेविका समिति की अ.भा.सहकार्यवाहिका रहीं।
‘सुरुजी’ 1942 में बंगलुरू में स्वयंसेवक बने। बी.एस-सी. कर 1946 में उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हुआ। 1948 में गांधीजी की हत्या के बाद पुलिस ने उन्हें बहुत प्रताडि़त किया। उनके घर की तलाशी ली गयी। स्थानीय कांग्रेसी सांसद केशव अयंगर ने हजारों लोगों के साथ उनके घर पर हमला बोल दिया। दो महीने बाद वे जेल से छूटकर नागपुर गये और बालासाहब देवरस से मिले। फिर उनके कहने पर तुमकूर में एक आश्रम में रहकर वे भूमिगत गतिविधियां चलाते रहे। सितम्बर में वे फिर गिरफ्तार कर लिये गये। वहां से छह महीने बाद 10 मार्च, 1949 को वे रिहा हुए।
प्रचारक जीवन में ‘सुरुजी’ 1970 तक कर्नाटक में ही रहे। इसके बाद 1972 से 84 तक तमिलनाडु के प्रांत प्रचारक तथा 1989 तक दक्षिण भारत में क्षेत्रप्रचारक के नाते काम किया। इस दौरान उनका केन्द्र चेन्नई रहा। 1970 से 72 तक वे सहक्षेत्र प्रचारक भी रहे। तमिलनाडु में संघ को उत्तर भारतीय और ब्राह्मणों का संगठन माना जाता था। हिन्दी और हिन्दू का वहां भारी विरोध था; पर ‘सुरुजी’ वहां डटे रहे। संघ के शारीरिक विभाग और घोष में भी उनकी बहुत रुचि थी। स्वामी विवेकानंद के साहित्य का उन्हें गहरा अध्ययन था। विवेकानंद केन्द्र, कन्याकुमारी के मार्गदर्शक के नाते उन्होंने कई जटिल समस्याएं सुलझाईं।
‘सुरुजी’ सामाजिक क्षेत्र के प्रमुख लोगों से लगातार संपर्क बनाये रखते थे। साधु-संतों के प्रति भी उनके मन में बहुत आदर था। दक्षिण में विश्व हिन्दू परिषद की कार्य वृद्धि में उनका बड़ा योगदान रहा। 1969 में उडुपि में विश्व हिन्दू परिषद का एक बड़ा सम्मेलन हुआ। इसमें संतों ने ‘हिन्दवः सोदराः सर्वेः, न हिन्दू पतितो भवेत। मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र समानता’ का उद्घोष किया। यह सम्मेलन ‘सुरुजी’ के परिश्रम और संपर्कों से ही संभव हो सका था।
1989 में संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार की जन्मशती के अवसर पर संघ में ‘सेवा विभाग’ का गठन कर सेवा कार्य बढ़ाने पर जोर दिया गया। पूरे देश में ‘सेवा निधि’ एकत्र हुई। इससे सेवा कार्यों का विस्तार तथा पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का व्यापक तंत्र खड़ा हुआ। इन्हें संभालने के लिए पहले यादवराव जोशी और फिर 1990 में ‘सुरुजी’ को अखिल भारतीय सेवा प्रमुख बनाया गया। यह काम नया था; पर ‘सुरुजी’ ने पूरे देश में प्रवास कर इसे व्यवस्थित रूप प्रदान किया। उन्होंने ‘एक शाखा, एक सेवा कार्य’ का मंत्र दिया। इसीलिए आज संघ की पहचान शाखा के साथ ही सेवा कार्यों से भी होती है।
‘सुरुजी’ संघ के चलते-फिरते अभिलेखागार थे। वयोवृद्ध होने पर भी वे तनाव से मुक्त तथा उत्साह से युक्त रहते थे। संघ का काम नये क्षेत्रों तथा नयी पीढ़ी में पहुंचते देखकर वे बहुत प्रसन्न होते थे। इसी संतोष के साथ 91 वर्ष की दीर्घायु में 18 नवम्बर, 2016 को बंगलुरू में उनका निधन हुआ।
(पांचजन्य 4.12.16/हि.वि. 1.12.16)
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21 अगस्त बलिदान-दिवस
देशभक्त पत्रकार शोएबुल्लाह का बलिदान
देशसेवा एवं सत्य की रक्षा में जिन पत्रकारों ने अपना बलिदान दिया, उनमें भाग्यनगर (हैदराबाद) के शोएबुल्लाह का नाम भी स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। शोएब का जन्म 12 अक्तूबर, 1920 को आन्ध्र प्रदेश के वारंगल जिले के महबूबाबाद में हुआ था। उनके पिता वहाँ रेलवे स्टेशन पर पुलिस
अधिकारी थे। घर में स्वतन्त्रता आन्दोलन की चर्चाओं का प्रभाव बालक शोएब के मन पर भी पड़ा। क्रान्तिकारी अशफाक उल्ला खाँ के बलिदान के बाद उनका मन भी देशसेवा के लिए मचलने लगा।
शोएब को बचपन से ही लिखने का शौक था। उन दिनों बहुत कम मुसलमान अच्छी शिक्षा पाते थे; पर शोएब ने स्नातक तक की शिक्षा पायी। ऐसे में उन्हें कोई भी अच्छी सरकारी नौकरी मिल सकती थी; पर वह पत्रकार बनना चाहते थे। उन दिनों वहाँ श्री नरसिंहराव के ‘रैयत’ नामक उर्दू अखबार की बड़ी धूम थी। उसमें अंग्रेजों तथा निजाम के अत्याचारों की खुली आलोचना होती थी। शोएब पचास रु. महीने पर वहाँ उपसम्पादक बन गये।
उन दिनों निजाम उस्मान अली के राज्य में रजाकारों का आंतक फैला था। वे हिन्दुओं को बुरी तरह सताते थे। लूटपाट, हत्या, हिंसा, आगजनी, अपहरण, धर्मान्तरण उनके लिए सामान्य बात थी। निजाम उन्हें समर्थन देता ही था। 15 अगस्त को भारत स्वतन्त्र हो गया; पर अंग्रेजों ने रजवाड़ों को भारत या पाकिस्तान के साथ जाने अथवा स्वतन्त्र रहने की छूट दे दी। निजाम के राज्य में 90 प्रतिशत जनता हिन्दू थी। फिर भी वह स्वतन्त्र रहना या फिर पाकिस्तान के साथ जाना चाहता था। आर्यसमाज एवं हिन्दू महासभा के नेतृत्व में वहाँ की जनता इसके विरुद्ध आन्दोलन चला रही थी।
रजाकारों ने बिहार और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को बड़ी संख्या में वहां बुलाकर बसा लिया। रैयत समाचार पत्र इन सबका पर्दाफाश करता था। इस कारण निजाम ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया; पर इससे नरसिंहराव और शोएब ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने ‘इमरोज’ नामक पत्र निकाला और अब वे इसके माध्यम से स्वाधीनता की चिन्गारी धधकाने लगे।
19 अगस्त, 1948 को हैदराबाद के ‘जमरूद थियेटर’ में रजाकारों का सम्मेलन था। वहाँ रजाकारों के मुखिया कासिम रिजवी ने अपने भाषण में देशभक्तों के विरुद्ध आग उगलते हुए कहा कि जो हाथ हमारे खिलाफ लिखते हैं, उन्हें काट दिया जाएगा। यह शोएबुल्लाह के लिए खुली धमकी थी। फिर भी ‘इमरोज’ ने अगले दिन इस भाषण की प्रखर आलोचना की।
21 अगस्त, 1948 की रात में जब शोएब काम समाप्त कर अपने साले रहमत के साथ घर वापस जा रहा था, तो रजाकारों ने उन्हें घेर लिया। उन्होंने शोएब पर पीछे से गोली चलायी। जब वह गिर गया, तो उन्होंने तलवार से उसके दोनों हाथ काट दिये। रहमत का भी एक हाथ और दूसरे हाथ की उंगली काट दी गयी। लोगों ने घायल शोएब को घर पहुँचाया। कुछ ही देर में अपनी माँ, पत्नी और बेटी के सम्मुख उसने प्राण त्याग दिये।
भारत के गृहमन्त्री सरदार पटेल के पास सब समाचार पहुँच रहे थे। उन्होंने 13 सितम्बर को वहाँ सेना भेजकर तीन दिन में ही इस आतंक से जनता को मुक्ति दिला दी। हैदराबाद का विलय भारत में तो हो गया; पर 17 सितम्बर, 1948 को जब वहाँ तिरंगा झण्डा फहराया, तो उसे देखने के लिए स्वाधीनता प्रेमी पत्रकार शोएबुल्लाह जीवित नहीं था।
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22 अगस्त/जन्म-दिवस
संकल्प के धनी डा. जगमोहन गर्ग
‘‘भारत की उन्नति
स्वदेशी उद्योगों के बल पर ही हो सकती है। इसलिए हमें विदेशों का मुँह देखने की
बजाय स्वयं आगे आना होगा।’’
संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के ये शब्द सुनकर युवा
वैज्ञानिक जगमोहन ने अमरीका की चमकदार नौकरी छोड़ दी। डा. जगमोहन गर्ग का जन्म
गाजियाबाद में 22 अगस्त,
1933 को हुआ था। एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे जगमोहनजी बचपन से
ही अति प्रतिभावान थे। प्रारम्भिक शिक्षा गाजियाबाद में पाकर उन्होंने बनारस से
बी.एस-सी. की उपाधि विश्वविद्यालय में स्वर्ण पदक लेकर पायी। वहां वे संघ के
संपर्क में आये। 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगने पर केवल 15 वर्ष की अवस्था में
सत्याग्रह कर वे जेल गये।
उन्होंने इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ साइंस, बंगलुरू से
बी.टेक और फिर अमरीका के ‘परड्यू
वि.वि.’ से
एम.ई. किया। यहां भी वे विश्वविद्यालय में प्रथम रहे। जगमोहनजी ने वहां कई विश्वविद्यालयों
में अध्यापन भी किया। शीघ्र ही वे छात्रों में लोकप्रिय हो गये। वे पहले भारतीय थे, जिन्होंने वहां
सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का सम्मान पाया। कुछ समय उन्होंने सिंद्री के बिहार
इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलोजी में भी पढ़ाया। न्यू याॅर्क वि.वि. से उन्होंने इलैक्ट्रिकल
इंजीनियरिंग में पी.एच-डी की उपाधि प्राप्त की।
1966 में उन्होंने गाजियाबाद में अपना उद्योग
स्थापित किया। इसमें उच्च ताप सहने योग्य विशेष प्रकार का तार बनता था, जो टैंक, पनडुब्बी, राडार, वायुयान तथा
जलयानों में प्रयोग होता था। इसकी आवश्यकता रक्षा विभाग को पड़ती थी। वह सारी
सामग्री विदेश से आयात करता था; पर अब उनकी विदेशों पर निर्भरता समाप्त हो गयी।
आपातकाल में जेल जाने से उनके उद्योग में उत्पादन घट गया। अतः सेना के बड़े
अधिकारियों ने केन्द्र शासन से आग्रह कर उन्हें मुक्त कराया। इससे उत्पादन फिर ठीक
हो गया।
जगमोहनजी द्वारा उत्पादित तार विदेशों से अच्छा
और सस्ता भी पड़ता था। वे चाहते, तो उसे बहुत अधिक मूल्य पर बेच सकते थे; क्योंकि पूरे
भारत में इस तार का केवल उनका ही उद्योग था; पर अनुचित लाभ उठाने का विचार कभी उनके मन में
नहीं आया। इस तार के लिए कच्चा माल विदेश से आता था। मुम्बई में सीमा शुल्क विभाग
के लोग बिना रिश्वत लिये उसे छोड़ते नहीं थे। डा. जगमोहनजी ने निश्चय किया कि चाहे
कितनी भी कठिनाई आये; पर
वे रिश्वत नहीं देंगे। वे कई दिन तक मुम्बई में पड़े रहते और अपना माल छुड़ा कर ही
मानते। कई बार के संघर्ष के बाद सीमा अधिकारी समझ गये कि इन तिलों से तेल नहीं
निकलेगा, तो
वे बिना रिश्वत लिये ही माल छोड़ने लगे।
वे व्यवसाय के सिलसिले में प्रायः विदेश जाते
थे। वहां वे स्वयंसेवकों और वैज्ञानिकों से मिलकर उन्हें भारत में काम करने को
प्रेरित करते थे। जो लोग इसके लिए तैयार होते, उन्हें वे पूरा
सहयोग देते थे। उनका घर और जीवन बहुत सादा था। साधारण पलंग और कुर्सियों वाले उनके
कमरे में कोई भी आ सकता था। संघ में वे गाजियाबाद नगर कार्यवाह, क्षेत्र संघचालक
तथा केन्द्रीय सम्पर्क प्रमुख तक रहे। वे अपने कारचालक को अपने साथ ही बैठाकर भोजन
करातेे थे। संघ शिक्षा वर्ग में वे प्रायः खड्ग के शिक्षक रहते थे।
सामाजिक कार्यों की प्राथमिकता के कारण
उन्होंने गृहस्थी नहीं बसायी। शहर में रहते हुए भी उन्हें ग्रामीण क्षेत्र में
शिक्षा की चिन्ता रहती थी। उन्हांेने इस बारे में प्रयोग एवं शोध हेतु पिलखुवा में
‘ग्राम
भारती’ प्रकल्प
स्थापित किया। वे स्वयं भी वहां काफी समय बिताते थे। वे चाहते थे कि गांवों के
बच्चे पढ़ने के बाद भी खेती,
पशु पालन आदि से जुड़े रहें। पार्किन्सन रोग से पीडि़त होने के कारण
उन्होंने उद्योग अपने छोटे भाई को सौंप दिया। 11 अक्तूबर, 2007 की रात्रि
में संकल्प के धनी वैज्ञानिक डा. जगमोहन गर्ग का देहान्त हुआ।
(संदर्भ महेश जी, गा.बाद तथा
देहांत बाद के पत्र आदि)
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23 अगस्त/इतिहास-स्मृति
लखनऊ में झंडे
वाले पार्क का सत्याग्रह
भारत की
स्वाधीनता के आंदोलन में लाखों लोगों ने बलिदान दिया है। उन दिनों गांधी जी और
कांग्रेस के आह्वान पर हर गली, मोहल्ले, गांव और नगर में लोग तिरंगा झंडा लेकर नारे
लगाते हुए जुलूस निकालते थे। पुलिस उन्हें रोकती, मारती और गिरफ्तार कर लेती थी। यह आंदोलन अहिंसक था। अतः
लोग चुपचाप यह सब सह लेते थे; पर इससे उनका
उत्साह कम नहीं होता था। वे अगले दिन दूने उत्साह से फिर सड़कों पर आ जाते थे।
ऐसा ही आंदोलन
उ.प्र. की राजधानी लखनऊ में भी हो रहा था। लखनऊ में अमीनाबाद एक प्रसिद्ध स्थान
है। शहर का प्रमुख बाजार होने के कारण वहां दिन भर भीड़भाड़ रहती थी। उसके पास ही
एक बड़ा पार्क है, जहां बाजार में
आये लोग दिन में सुस्ता लेते थे। स्वाधीनता सेनानियों ने इसी पार्क में तिरंगा
फहराने की घोषणा कर दी।
इसके लिए अलग अलग
स्थानों से सत्याग्रहियों के जत्थे आते थे; पर वहां पुलिस और फौज का कड़ा पहरा रहता था। वे उन्हें
मारपीट कर भगा देते थे। ऐसे ही एक जत्था उन्नाव जिले से आया था। उसमें शामिल एक
युवक का नाम था गुलाब सिंह लोधी। उसका जन्म 1903 में ग्राम चंदीकाखेड़ा (फतेहपुर चैरासी) में श्रीराम
रतनसिंह लोधी के घर में हुआ था। उसके पिताजी उस क्षेत्र के बड़े किसान एवं जमींदार
थे।
23 अगस्त,
1935 को हर दिन की तरह पार्क
के आसपास अच्छी भीड़ थी। कुछ लोग माल बेच रहे थे, तो कुछ खरीद रहे थे। सत्याग्रही अपने घोषित समय पर वहां आये
और झंडा लेकर पार्क में घुसने लगे। पुलिस और फौज भी मुस्तैद थी। अतः वे अपने
प्रयास में सफल नहीं हो सके। कुछ लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया तो कुछ वापस
चले गये। बाजार वालों के लिए यह रोज की बात थी। अतः वे अपने काम में लगे रहे।
पर थोड़ी देर बाद
हुई हलचल से सबका ध्यान भंग हो गया। असल में गुलाब सिंह अपने जत्थे के साथ आया तो
था; पर वह उनसे कुछ हटकर
चुपचाप खड़ा हो गया। जत्थे के नेता के पास बड़ा तिरंगा झंडा था, जो पुलिस ने जब्त कर लिया; पर गुलाब सिंह अपने साथ एक छोटा झंडा भी लेकर
आया था। उसे एक बैल हांकने वाले डंडे (पैना) पर बांधकर उसने कपड़ों में इस प्रकार
छिपा लिया कि वह किसी को दिखाई नहीं देता था। उसके माथे पर साफा बंधा था। ऐसा लगता
था कि वह अपनी बैलगाड़ी में गांव से कुछ माल बेचने आया है और खाली समय में पेड़ के
नीचे सुस्ता रहा है।
सत्याग्रहियों की
गिरफ्तारी और उनके जाने के बाद पुलिस भी कुछ उदासीन हो गयी। इसका लाभ उठाकर गुलाब
सिंह ने चुपचाप एक कोने की तारबाड़ उठाई और उसके नीचे से पार्क में घुस गया। इसके
बाद वह एक बड़े पेड़ पर चढ़ गया और वहां तिरंगा झंडा फहराकर उच्च स्वर में नारे
लगाने लगा। इससे पुलिस हड़बड़ा गयी और पार्क का द्वार छोड़कर उसकी ओर दौड़ी। इसी
बीच हजारों लोग पार्क में घुस गये और वे भी नारे लगाने लगे।
इस सबसे पुलिस
बौखला गयी। उसकी सुरक्षा के बावजूद सत्याग्रह सफल हो गया था। उनके कप्तान को जब
कुछ समझ में नहीं आया तो उसने गुलाब सिंह की ओर बंदूक तानकर गोली चला दी। गोली
लगते ही गुलाब सिंह धरती पर गिर पड़ा और कुछ ही देर में उसके प्राण छूट गये। उस
समय भी उसके मुंह से भारत माता की जय और वंदे मातरम् के नारे निकल रहे थे।
इसके बाद से वह ‘झंडेवाला पार्क’ कहलाने लगा। आजादी के बाद वहां गुलाब सिंह लोधी की प्रतिमा स्थापित की गयी। 23 अगस्त को हजारों लोग वहां उन्हें श्रद्धांजलि
देने आते हैं। उस वीर की स्मृति में 23 दिसम्बर, 2013 को पांच रु.
मूल्य का एक डाक टिकट भी जारी किया गया है।
(साक्षात्कार,
अक्तूबर से दिसम्बर 2022/90, ब्रह्मानंद राजपूत)
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23 अगस्त/बलिदान-दिवस
उड़ीसा में हिन्दू जागरण के अग्रदूत स्वामी लक्ष्मणानंद
कंधमाल उड़ीसा का वनवासी बहुल पिछड़ा क्षेत्र है। पूरे देश की तरह वहां भी 23 अगस्त, 2008 को जन्माष्टमी पर्व मनाया जा रहा था। तभी 30-40 आतंकियों ने फुलबनी जिले के तुमुडिबंध से तीन कि.मी दूर स्थित जलेसपट्टा कन्याश्रम में हमला बोल दिया। 84 वर्षीय देवतातुल्य स्वामी लक्ष्मणानंद उस समय शौचालय में थे। हत्यारों ने दरवाजा तोड़कर पहले उन्हें गोली मारी और फिर कुल्हाड़ी से उनके शरीर के टुकड़े कर दिये।
स्वामीजी का जन्म ग्राम गुरुजंग, जिला तालचेर (उड़ीसा) में 1924 में हुआ था। वे गत 45 साल से वनवासियों के बीच चिकित्सालय, विद्यालय, छात्रावास, कन्याश्रम आदि प्रकल्पों के माध्यम से सेवा कार्य कर रहे थे। गृहस्थ और दो पुत्रों के पिता होने पर भी जब उन्हें अध्यात्म की भूख जगी, तो उन्होंने हिमालय में 12 वर्ष तक कठोर साधना की; पर 1966 में प्रयाग कुुंभ के समय संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी तथा अन्य कई श्रेष्ठ संतों के आग्रह पर उन्होंने ‘नर सेवा, नारायण सेवा’ को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।
इसके बाद उन्होेंने फुलबनी (कंधमाल) में सड़क से 20 कि.मी दूर घने जंगलों के बीच चकापाद में अपना आश्रम बनाया और जनसेवा में जुट गये। इससे वे मिशन की आंख की किरकिरी बन गये। स्वामीजी ने भजन मंडलियों के माध्यम से अपने कार्य को बढ़ाया। उन्होंने एक हजार से भी अधिक गांवों में भागवत घर (टुंगी) स्थापित कर श्रीमद्भागवत की स्थापना की। उन्होंने हजारों कि.मी पदयात्रा कर वनवासियों में हिन्दुत्व की अलख जगाई। उड़ीसा के राजा गजपति एवं पुरी के शंकराचार्य ने स्वामीजी की विद्वत्ता को देखकर उन्हें ‘वेदांत केसरी’ की उपाधि दी थी।
जगन्नाथजी की रथ यात्रा में हर वर्ष लाखों भक्त पुरी जाते हैं; पर निर्धनता के कारण वनवासी प्रायः इससे वंचित ही रहते थे। स्वामीजी ने 1986 में जगन्नाथ रथ का प्रारूप बनवाकर उस पर श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की प्रतिमाएं रखवाईं। इसके बाद उसे वनवासी गांवों में ले गये। वनवासी भगवान को अपने घर आया देख रथ के आगे नाचने लगे। जो लोग मिशन के चंगुल में फंस चुके थे, वे भी उत्साहित हो उठे। जब मिशन वालों ने आपत्ति की, तो उन्होंने अपने गले में पड़े क्र१स फेंक दिये। तीन माह तक चली रथ यात्रा के दौरान हजारों लोग हिन्दू धर्म में लौट आये। उन्होंने नशे और सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति हेतु जनजागरण भी किया। इस प्रकार मिशन के 50 साल के काम पर स्वामीजी ने झाड़ू फेर दिया।
स्वामीजी धर्म प्रचार के साथ ही सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों से भी जुड़े थे। जब-जब देश पर आक्रमण हुआ या कोई प्राकृतिक आपदा आई, उन्होंने जनता को जागरूक कर सहयोग किया; पर मिशन को इससे कष्ट हो रहा था, इसलिए उन पर नौ बार हमले हुए। हत्या से कुछ दिन पूर्व ही उन्हें धमकी भरा पत्र मिला था। इसकी सूचना उन्होंने पुलिस को दे दी थी; पर पुलिस ने कुछ नहीं किया। यहां तक कि उनकी सुरक्षा को और ढीला कर दिया गया। इससे संदेह होता है कि मिशन और नक्सलियों के साथ कुछ पुलिस वाले भी इस षड्यन्त्र में शामिल थे।
स्वामीजी का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी हत्या के बाद पूरे कंधमाल और निकटवर्ती जिलों में वनवासी हिन्दुओं में आक्रोश फूट पड़ा। लोगों ने मिशनरियों के अनेक केन्द्रों को जला दिया। उनके समर्थक अपने गांव छोड़कर भाग गये। स्वामी जी के शिष्यों तथा अनेक संतों ने हिम्मत न हारते हुए सम्पूर्ण उड़ीसा में हिन्दुत्व के ज्वार को और तीव्र करने का संकल्प लिया है।
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