24 अगस्त/जन्म-दिवस
बलिदान को उत्सुक राजगुरु
सामान्यतः लोग धन, पद या प्रतिष्ठा प्राप्ति के लिए एक-दूसरे से होड़ करते हैं; पर क्रांतिवीर राजगुरु सदा इस होड़ में रहते थे कि किसी भी खतरनाक काम का मौका भगतसिंह से पहले उन्हें मिलना चाहिए।
श्री हरि नारायण और श्रीमती पार्वतीबाई के पुत्र शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे के पास खेड़ा (वर्तमान राजगुरु नगर) में हुआ था। उनके एक पूर्वज पंडित कचेश्वर को छत्रपति शिवाजी के प्रपौत्र साहू जी ने राजगुरु का पद दिया था। तब से इस परिवार में यह नाम लगने लगा।
छह वर्ष की अवस्था में राजगुरु के पिताजी का देहांत हो गया। पढ़ाई की बजाय खेलकूद में अधिक रुचि लेने से उनके भाई नाराज हो गये। इस पर राजगुरु ने घर छोड़ दिया और कई दिन इधर-उधर घूमते हुए काशी आकर संस्कृत पढ़ने लगे। भोजन और आवास के बदले उन्हें अपने अध्यापक के घरेलू काम करने पड़ते थे। एक दिन उस अध्यापक से भी झगड़ा हो गया और पढ़ाई छोड़कर वे एक प्राथमिक शाला में व्यायाम सिखाने लगे।
यहां उनका परिचय स्वदेश साप्ताहिक, गोरखपुर के सह सम्पादक मुनीश अवस्थी से हुआ। कुछ ही समय में वे क्रांतिकारी दल के विश्वस्त सदस्य बन गये। जब दल की ओर से दिल्ली में एक व्यक्ति को मारने का निश्चय हुआ, तो इस काम में राजगुरु को भी लगाया गया। राजगुरु इसके लिए इतने उतावले थे कि उन्होंने रात के अंधेरे में किसी और व्यक्ति को ही मार दिया।
राजगुरु मस्त स्वभाव के युवक थे। उन्हें सोने का बहुत शौक था। एक बार उन्हें एक अभियान के लिए कानपुर के छात्रावास में 15 दिन रुकना पड़ा। वे 15 दिन उन्होंने रजाई में सोकर ही गुजारे। राजगुरु को यह मलाल था कि भगतसिंह बहुत सुंदर है, जबकि उनका अपना रंग सांवला है। इसलिए वह हर सुंदर वस्तु से प्यार करते थे। यहां तक कि सांडर्स को मारने के बाद जब सब कमरे पर आये, तो राजगुरु ने सांडर्स की सुंदरता की प्रशंसा की।
भगतसिंह से आगे निकलने की होड़ में राजगुरु ने सबसे पहले सांडर्स पर गोली चलाई थी। लाहौर से निकलतेे समय सूटधारी अफसर बने भगतसिंह के साथ हाथ में बक्सा और सिर पर होलडाल लेकर नौकर के वेष में राजगुरु ही चले थे। इसके बाद वे महाराष्ट्र आ गये। संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार ने अपने एक कार्यकर्ता के फार्म हाउस पर उनके रहने की व्यवस्था की। जब दिल्ली की असेम्बली में बम फंेकने का निश्चय हुआ, तो राजगुरु ने चंद्रशेखर आजाद से आग्रह किया कि भगतसिंह के साथ उसे भेजा जाए; पर उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली। इससे वे वापस पुणे आ गये।
राजगुरु स्वभाव से कुछ वाचाल थे। पुणे में उन्होंने कई लोगों से सांडर्स वध की चर्चा कर दी। उनके पास कुछ शस्त्र भी थे। क्रांति समर्थक एक सम्पादक की शवयात्रा में उन्होंने उत्साह में आकर कुछ नारे भी लगा दिये। इससे वे गुप्तचरों की निगाह में आ गये। पुणे में उन्होंने एक अंग्रेज अधिकारी को मारने का प्रयास किया; पर दूरी के कारण सफलता नहीं मिली।
इसके अगले ही दिन उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा सांडर्स वध का मुकदमा चलाकर मृत्यु दंड घोषित किया गया। 23 मार्च, 1931 को भगतसिंह और सुखदेव के साथ वे भी फांसी पर चढ़ गये। मरते हुए उन्हें यह संतोष रहा कि बलिदान प्रतिस्पर्धा में वे भगतसिंह से पीछे नहीं रहे।
(संदर्भ : क्रांति साधना, संकलन - राजकुमार)
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25 अगस्त/पुण्य-तिथि
राजयोगिनी दादी प्रकाशमणि
भारत तथा विश्व के 130 देशों में अपनी हजारों शाखाओं एवं संस्थाओं के माध्यम से कार्यरत प्रजापिता ब्रह्मकुमारी विश्वविद्यालय एक आध्यात्मिक संस्था है। इसकी विशेषता यह है कि इसके सारे प्रमुख सूत्र महिलाओं के हाथ में रहते हैं। इस नाते यह नारी शक्ति के जागरण एवं उनकी प्रशासकीय कुशलता के प्रकटीकरण का एक महान आध्यात्मिक आन्दोलन है।
इस संस्था की स्थापना सिन्ध हैदराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मे श्री लेखराज ने अक्तूबर, 1937 में की थी। ऐसा माना जाता है कि उन्हें शिव के स्वरूप में परमात्मा का साक्षात्कार हुआ था। भगवान शिव ने उन्हें सतयुग के आदर्शों पर चलने वाली नयी दुनिया बनाने के लिए प्रेरित किया।
उन्होंने लेखराज जी को प्रजापिता ब्रह्मा कहा। लेखराज जी ने आध्यात्मिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए सर्वप्रथम ओम मण्डली बनायी। इसी क्रम में आगे चलकर ‘प्रजापिता ब्रह्मा ईश्वरीय विश्वविद्यालय’ की स्थापना हुई। सिन्धी भाषा में बड़े भाई को ‘दादा’ कहते है। अतः लेखराज जी सब ओर दादा के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
दादा लेखराज का विचार था कि महिलाएँ जैसे घर का कुशल प्रबन्ध करती हैं, उसी प्रकार वे अन्य व्यवस्थाएँ भी कुशलतापूर्वक कर सकती हैं। अतः 1938 में उन्होंने आठ महिलाओं की प्रबन्ध समिति बनायी। उनमें से कुछ को उन्होंने दिल्ली, मुम्बई आदि भेजा, ताकि राजयोग और आध्यात्मिक केन्द्र विकसित किये जा सकें।1947 तक 400 लोग इस संस्था से जुड़ चुके थे। देश के विभाजन के बाद दादा लेखराज राजस्थान में आबू पर्वत आ गये और फिर 1950 में यही संस्था का मुख्यालय बन गया।
1969 में दादा लेखराज का शरीरान्त हुआ। उससे पूर्व ही उन्होंने दादी प्रकाशमणि को अपना उत्तराधिकारी एवं संस्था का मुख्य प्रशासक नियुक्त कर दिया। 1954 में जब दादा लेखराज जी को जापान में हुए ‘विश्व धर्म सम्मेलन’ में भाग लेने के लिए निमन्त्रण मिला, तो उन्होंने अपने बदले दादी प्रकाशमणि को वहाँ भेजा। दादी ने गुण, विवेक और प्रतिभा के आधार पर आठ महिला न्यासी नियुक्त किये, जिनके माध्यम से प्रजापिता ब्रह्मकुमारी विश्वविद्यालय के अनेक नये केन्द्रों की स्थापना हुई।
दादी का अर्थ है बड़ी बहन। दादी प्रकाशमणि का जन्म भी 1922 में सिन्ध हैदराबाद में ही हुआ था। 14 वर्ष की अल्पायु में वे लेखराज जी के सम्पर्क में आयीं थीं। इसके बाद उन्हें अनेक दिव्य साक्षात्कार हुए, जिसमें उन्होंने ज्योति स्वरूप शिव एवं नयी दुनिया के दर्शन हुए। यद्यपि यह संगठन केवल महिलाओं का नहीं है; पर इसमें प्रशासकीय व्यवस्था महिलाओं के हाथ में ही रहती है। दादी ने संस्था के प्रचार-प्रसार के लिए थाइलैण्ड, इण्डोनेशिया, हांगकांग, सिंगापुर,
श्रीलंका आदि देशों का प्रवास किया।
दादी प्रकाशमणि की सामाजिक सेवाओं के लिए उन्हें अनेक मान-सम्मान प्राप्त हुए। आबू पर्वत पर स्थित इस संस्था के मुख्यालय का सुगन्धित एवं शान्त वातावरण, ध्यान करते लोगों का समूह अध्यात्मप्रेमियों को आकर्षित करता है। संस्था की इन सब गतिविधियों का विस्तार दादी के कुशल नेतृत्व में ही हुआ।
सेवा, शिक्षा, पर्यावरण एवं स्वास्थ्य सुधार के अनेक प्रकल्प संस्था द्वारा चलाये जाते हैं। प्रेमभाव की देवी एवं कुशल प्रशासक दादी प्रकाशमणि का 25 अगस्त, 2007 को देहान्त हुआ।
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25 अगस्त/बलिदान-दिवसआजाद हिन्द फौज
के सेनानी मेजर दुर्गामल्ल
मेजर दुर्गामल्ल
का जन्म डोइवाला (देहरादून) में एक जुलाई, 1913 को गोरखा राइफल्स में नायब सूबेदार गंगाराम एवं पार्वती
देवी मल्ल के घर में हुआ था। यहां भारतीय सेना से अवकाश प्राप्त नेपाली मूल के
गोरखा लोग बड़ी संख्या में बसे हैं। आज भी गोरखाली युवाओं की प्राथमिकता सेना ही
होती है। एक बार फील्ड मार्शल मानेकशाॅ ने कहा था कि यदि कोई कहे कि मैं मौत से
नहीं डरता, तो या तो वो झूठ बोल रहा
है या फिर वह गोरखा है।
दुर्गामल्ल की
पढ़ाई गोरखा मिडिल स्कूल में हुई। वे खेलकूद तथा पढ़ाई दोनों में ही आगे रहते थे।
कविता तथा नाटक में भी उनकी रुचि थी। वे कविता लिखते भी थे। कक्षा दस में पढ़ते
समय स्वाधीनता सेनानी खड़क बहादुर सिंह बिष्ट और रामसिंह ठाकुर से प्रेरित होकर
उन्होंने मित्रों के साथ जुलूस निकाला। वे गोरखा पल्टन की दीवारों पर छिपकर पोस्टर
भी लगाने लगे। इस पर पुलिस छात्रों को पकड़ने लगी। यह देखकर दुर्गामल्ल के पिता
उसे अपने भाई केदार मल्ल के घर ग्राम माग्सू, जिला कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) में छोड़ आये।
पर दुर्गामल्ल तो
फौज में जाना चाहते थे। अतः 1931 में वे धर्मशाला
छावनी में जाकर गोरखा राइफल्स में भरती हो गये। 1941 में उनका विवाह शारदादेवी से हुआ। विवाह के बाद दुर्गामल्ल
अपने घर डोइवाला आये ही थे कि मुख्यालय से बुलावा आ गया। उनके विवाह को केवल नौ
दिन ही हुए थे; पर दुर्गामल्ल
सैन्य अनुशासन का पालन करते हुए तुरंत चल दिये।
उन दिनों द्वितीय
विश्व युद्ध का दूसरा चरण चल रहा था। दुर्गामल्ल को सिंगापुर और फिर मलाया भेज दिया गया। वहां
जापान से लड़ते हुए वे और उनके सैकड़ों साथी बंदी बना लिये गये। उन्हीं दिनों आजाद
हिन्द फौज का गठन हुआ था। सुभाष चंद्र बोस जापान का सहयोग लेकर भारत से अंग्रेजों
को निकालना चाहते थे। अतः उनसे सहानुभूति रखने वाले सैनिकों को जापान ने मुक्त कर
आजाद हिन्द फौज में भेज दिया।
दुर्गामल्ल की
योग्यता देखकर उन्हें मेजर पद तथा गुप्तचर विभाग में काम दिया गया। वे गुप्त
सूचनाएं रंगून मुख्यालय में भेजते थे। आजाद हिन्द फौज आगे बढ़ रही थी; पर युद्ध में जीत के साथ हार भी लगी ही रहती
है। 27 मार्च, 1944 को माशीपुर अखरूल (कोहिमा) में ब्रिटिश सेना
ने उन्हें पकड़ लिया और युद्धबंदी के रूप में दिल्ली के लालकिले में बंद कर दिया।
यहां सैन्य
न्यायालय में मेजर दुर्गामल्ल का कोर्ट मार्शल हुआ। गोरखा राइफल्स के सैनिक होते
हुए भी वे आजाद हिन्द फौज में शामिल होकर ब्रिटिश फौज से ही लड़े थे। अतः उन पर
धारा 121 के अन्तर्गत मुकदमा
चलाया गया। उन पर कई बार क्षमा मांगने के लिए दबाव डाला गया; पर उन्होंने झुकना नहीं सीखा था। ऐसे व्यक्ति
के लिए ब्रिटिश कानून में मृत्युदंड ही लिखा था।
यह सुनते ही
दुर्गामल्ल के घर में हाहाकार मच गया। उनकी पत्नी और परिजनों को अंतिम भेंट के लिए
दिल्ली लाया गया। पत्नी उन्हें देखकर बेहोश हो गयी; पर दुर्गामल्ल ने उन्हें संभाला और साहस दिया। अंग्रेज
सोचते थे कि युवा पत्नी उन्हें माफी के लिए तैयार कर लेगी; पर दुर्गामल्ल के तकिये के पास ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ रखी थी। इससे स्पष्ट होता था कि वे मृत्यु के लिए तैयार थे। 25 अगस्त, 1944 को उन्हें दिल्ली के केन्द्रीय कारागार में फांसी दी गयी।
वे यह गौरव पाने वाले आजाद हिन्द फौज के पहले गोरखा सेनानी थे।
यहां पति के साथ
केवल नौ दिन बिताने वाली शारदादेवी का त्याग भी अनुकरणीय है। वे इंटरमीडियेट तक
पढ़ी थीं। उन्होंने पुनर्विवाह न करते हुए स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर जीवन
भर बच्चों को पढ़ाती रहीं। मेजर दुर्गामल्ल की स्मृति में डोइवाला में एक डिग्री
काॅलिज बनाया गया है तथा उन पर पांच रु. का डाक टिकट भी जारी किया गया है।
(विकी तथा
उत्तराखंड स्वराज/239, डा.एस.के
कुडि़याल तथा जसप्रीत कौर)
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25 अगस्त/जन्म-दिवस
शिक्षानुरागी सुशीला देवी
सुशीला देवी का जन्म 25 अगस्त, 1914 को जम्मू-कश्मीर राज्य के दीवान बद्रीनाथ जी एवं श्रीमती विद्यावती जी के घर में ज्येष्ठ पुत्री के रूप में हुआ था। उन्हें अपने पिताजी से प्रशासनिक क्षमता तथा माताजी से धर्मप्रेम विरासत में मिला था। जब वे कानपुर के प्रख्यात समाजसेवी रायबहादुर विक्रमाजीत सिंह की पुत्रवधू बन कर आयीं, तो ससुराल पक्ष से उन्हें शिक्षा संस्थाओं के प्रति प्रेम भी प्राप्त हुआ। इन गुणों को विकसित करते हुए उन्होंने समाजसेवा के माध्यम से अपार प्रतिष्ठा अर्जित की।
सुशीला जी के पूर्वज ऐमनाबाद (वर्तमान पाकिस्तान) के निवासी थे। पंजाब व जम्मू-कश्मीर में इनकी विशाल जागीरें थीं। इनके परदादा श्री कृपाराम ने जम्मू के राजा गुलाबसिंह को कश्मीर राज्य खरीदने में सहयोग दिया था। बद्रीनाथ जी राजा हरिसिंह के निजी सचिव भी थे। इस परिवार की ओर से कई शिक्षा संस्थाओं, अनाथाश्रम, विधवाश्रम व धर्मशालाओं आदि का संचालन किया जाता था। विभाजन के बाद उनकी अथाह सम्पत्ति पाकिस्तान व पाक अधिकृत कश्मीर में रह गयी; पर सुशीला जी ने कभी उसकी चर्चा नहीं की।
1935 में सुशीला जी का विवाह बैरिस्टर नरेन्द्रजीत सिंह से हुआ, जो आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रांत संघचालक बने। इस प्रकार उनके जीवन में धर्म के साथ समाज व संगठन प्रेम का भी समावेश हुआ। कानपुर में सुशीला जी को सब ‘रानी साहिबा’ कहने लगे; पर यह सम्बोधन धीरे-धीरे ‘बूजी’ में बदल गया।
विवाह के बाद भी सुशीला जी प्रायः कश्मीर जाती रहती थीं, चूंकि उनके पिता जी का देहांत 1919 में ही हो चुका था। अतः उनकी सम्पत्ति की देखभाल उन्हें ही करनी पड़ती थी। विभाजन के समय और फिर 1965 में जब श्रीनगर में संकट के बादल छा गये, तो सबने उन्हें तुरंत श्रीनगर छोड़ने को कहा; पर वे अपने सब कर्मचारियों के साथ ही जम्मू गयीं।
धीरे-धीरे बूजी ने स्वयं को कानपुर के गरम
मौसम व घरेलू वातावरण के अनुरूप ढाल लिया। बैरिस्टर
साहब जब संघ में सक्रिय हुए, तो उनके घर वरिष्ठ
कार्यकर्ता प्रायः आने लगे। बूजी स्वयं रुचि लेकर सबकी आवभगत करती थीं। इस प्रकार
वे भी संघ से एकरूप हो गयीं। उन्होंने आग्रहपूर्वक अपने एक पुत्र को तीन वर्ष के
लिए प्रचारक भी बनाया। जब भी उनके घर में कोई शुभ कार्य होता, वे
हजारों निर्धनों को भोजन कराती थीं।
1947 में संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी से भेंट के बाद राजा हरिसिंह ने जम्मू-कश्मीर राज्य का भारत में विलय किया। इसमें सरदार पटेल के साथ ही पर्दे के पीछे बूजी की भी बड़ी भूमिका थी। 1948 में संघ पर प्रतिबंध के समय बैरिस्टर साहब जेल चले गये। इस दौरान एक साध्वी की तरह बूजी भी साधारण भोजन करते हुए भूमि पर ही सोयीं। दीनदयाल जी से बूजी को बहुत प्रेम था। वे उनमें अपने भाई की छवि देखती थीं। उनकी हत्या के बाद बूजी ने श्रद्धांजलि सभा में ही संकल्प लिया कि एक दीनदयाल चला गया, तो क्या हुआ, मैं ऐसी संस्था बनाऊंगी, जिससे सैकड़ों दीनदयाल निकलेंगे।
इस प्रकार कानपुर में दीनदयाल उपाध्याय सनातन धर्म विद्यालय की स्थापना हुई। यों तो इस परिवार द्वारा कानपुर में अनेक विद्यालय चलाये जाते हैं; पर बूजी इस विद्यालय की विशेष देखरेख करती थीं। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने सब पूर्वजों के नाम से भी शिक्षा संस्थाओं का निर्माण किया। अपनी पारिवारिक संस्थाओं के अतिरिक्त अन्य सामाजिक संस्थाओं को भी वे सहयोग करती थीं।
अनंतनाग के पास नागदंडी आश्रम के स्वामी अशोकानंद उनके आध्यात्मिक गुरु थे। बूजी द्वारा किया गया उनके प्रवचनों का संकलन ‘तत्व चिंतन के कुछ क्षण’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इस प्रकार जीवन भर सक्रिय रहते हुए दो मई, 1973 को शिक्षानुरागी श्रीमती सुशीला देवी का देहांत हुआ।
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25 अगस्त/पुण्य-तिथि
संघ समर्पित ठाकुर राजनीति सिंह
किसी भी व्यक्ति की जीवन यात्रा में विवाह की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती है; पर अनेक ऐसे दीवाने भी हुए, जिन्होंने संघ कार्य को उससे भी अधिक महत्व दिया। ऐसे ही थे ठाकुर राजनीति सिंह।
राजनीति सिंह जी का जन्म 1925 में ग्राम रहेटी नवादा (जिला जौनपुर, उ.प्र.) में हुआ था। उनके पिता एक प्राथमिक विद्यालय में प्राचार्य थे। राजनीति सिंह जी अपने भाई-बहिनों में सबसे बड़े थे। 1942 मंे जब जौनपुर जिले में माधव जी देशमुख जिला प्रचारक थे, तब वे स्वयंसेवक बने। इसके बाद संघ के प्रति उनका प्रेम और समर्पण बढ़ता चला गया। जौनपुर के तिलकधारी इंटर कालिज से इन्होंने कक्षा बारह तक की शिक्षा पाई थी।
इनके विवाह का प्रसंग बड़ा रोचक है। 22 जून, 1943 को इनका विवाह था और 23 जून से वाराणसी में संघ शिक्षा वर्ग प्रारम्भ होना था। विवाह की सभी रस्में निबटाकर ये सीधे संघ शिक्षा वर्ग में आ गये। घर वालों ने इन्हें बहुत समझाया; पर इनके सिर पर संघ की धुन सवार थी। इस पर इनके पिताजी ने दो ऊंटों पर लदवाकर बताशे संघ शिक्षा वर्ग में भेजे, जिससे सबको इनके विवाह का पता लग जाये। इनके हाथ में कंगना बंधा था। वह पूरे समय बंधा ही रहा। वर्ग की समाप्ति के बाद जब ये घर वापस गये, तब पूजा के बाद उसे खोला गया और तब ही इनका विवाहित जीवन विधिवत प्रारम्भ हुआ।
1944 में द्वितीय वर्ष और 1946 में तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त कर राजनीति सिंह जी ने प्रचारक बनने का निर्णय लिया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही जौनपुर, आजमगढ़, गोरखपुर आदि अनेक स्थानों पर वे जिला, विभाग और फिर संभाग प्रचारक रहे। शारीरिक कार्यक्रमों के प्रति इनमें अत्यधिक रुचि थी और ये संघ शिक्षा वर्ग में शूल के शिक्षक रहते थे। 1948 के प्रतिबंध के समय ये आजमगढ़ जेल में थे। दूसरे प्रतिबंध अर्थात आपातकाल में पुलिस इन्हें तलाशती रही; पर राजनीति सिंह जी बाहर रहकर ही सत्याग्रह का संचालन करते रहे। पुलिस इन्हें अन्त तक पकड़ नहीं सकी।
आपातकाल के बाद 1977 में इन्हें सहप्रांत प्रचारक बनाकर महाकौशल भेजा गया; परन्तु वहां की जलवायु और खानपान में इनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रह सका। उन दिनों विश्व हिन्दू परिषद का कार्य भी गति पकड़ रहा था। अतः इन्हें वापस बुलाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में परिषद का काम सौंपा गया। उन दिनों माधव जी देशमुख पर भी विश्व हिन्दू परिषद का ही काम था। इन दोनों में अत्यधिक प्रेम व पुरानी घनिष्ठता थी। अतः राजनीति सिंह जी पूर्ण मनोयोग से परिषद के संगठन के विस्तार में लग गये।
1957 में इनके दांतों में कष्ट प्रारम्भ हुआ। दांत बार-बार टेढ़े-तिरछे होकर बढ़ जाते थे। काशी के संघचालक डा. बनर्जी दांतों के चिकित्सक थे। उन्होंने इलाज के लिए इन्हें कोलकाता भेजा। इस बीच श्री गुरुजी कोलकाता आये, उनके सचिव डा. आबाजी थत्ते ने पत्र देकर इन्हें मंुबई के जसलोक अस्पताल में भेज दिया। वहां चिकित्सकों ने इनका ऊपरी मसूढ़ा निकाल कर नकली मसूढ़ा लगा दिया, जो एक बटन से संचालित होता था।
इसी बीच इनके पेट में एक घाव हो गया, जो बहुत प्रयास के बाद भी ठीक नहीं हुआ। वह वस्तुतः कैंसर था, जिसकी पहचान नहीं हो सकी। काशी में उसकी शल्य क्रिया की गयी; पर उस दौरान ही 25 अगस्त, 1987 को इनका देहांत हो गया। उस समय इनके पुत्र अशोक सिंह इनके पास ही थे।
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25 अगस्त/जन्म-दिवस
संघव्रती प्रचारक बाबूराव देसाई
संघ और फिर विश्व
हिन्दू परिषद में अंतिम सांस तक कार्यरत वरिष्ठ प्रचारक बाबूराव देसाई का जन्म 25 अगस्त, 1925 को गोवा में हुआ था। उनका पूरा नाम रघुनाथ नारायणराव प्रभु
देसाई था। उनके पिता श्री नारायणराव प्रभु देसाई फल बेचकर अपने परिवार का भरण पोषण
करते थे।
बाबूराव शुरू से
ही मेधावी होने के कारण स्वर्ण पदक एवं छात्रवृत्तियां पाते रहे। छात्र जीवन में
वे स्वाधीनता आंदोलन में भी सक्रिय रहे। स्नातक परीक्षा में उन्होंने कला और
अंग्रेजी में विशेष उपाधि प्राप्त की। इसके साथ वे कोंकणी, मराठी, हिन्दी, कन्नड़, पुर्तगाली तथा फ्रेंच भाषा भी बोल लेते थे। उनका
कार्यक्षेत्र मुख्यतः दक्षिण भारत रहा। अतः वे दक्षिण की अन्य भाषाएं भी समझ लेते
थे। वे सादगी, संयम और
प्रसन्नता की प्रतिमूर्ति थे।
मृदुभाषी बाबूराव
1942 में स्वयंसेवक तथा 1949 में प्रचारक बने। सर्वश्री यादवराव जोशी,
जगन्नाथराव जोशी, भाउराव देवरस, बाबूराव देशपांडे तथा सदानंद काकड़े आदि वरिष्ठ प्रचारक उनके प्रेरणास्रोत थे।
उनके प्रचारक जीवन की यात्रा वर्तमान कर्नाटक के करवाड़ नगर से शुरू हुई। इसके बाद
वे धारवाड़, बेलगांव, गुलबर्गा, बेल्लारी आदि में जिला और विभाग प्रचारक रहे। 1971 में सरसंघचालक श्री गुरुजी स्वास्थ्य लाभ के
लिए 35 दिन तक कर्नाटक के सिरसी
नगर में रहे। वहां उनकी देखभाल के लिए बाबूराव भी साथ रहे। वे दिन बाबूराव अपने
जीवन के स्वर्णिम दिन मानते थे।
कांग्रेस सरकार
ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर 1948 तथा 1975 में प्रतिबंध लगाया। दोनों बार बाबूराव ने
सहर्ष जेलयात्रा की। 1975 में तो उन्हें ‘मीसा’ में बंद किया गया। अतः वे प्रतिबंध की समाप्ति पर ही जेल से बाहर आये। 1980 के दशक में जब विश्व हिन्दू परिषद के माध्यम
से राम मंदिर आंदोलन का शंखनाद हुआ, तो अनेक वरिष्ठ प्रचारक इसमें लगाये गये। बाबूराव भी उनमें से एक थे। 1983 में वे कर्नाटक प्रांत के संगठन मंत्री बनाये
गये। कुछ समय बाद उन्हें संपूर्ण दक्षिण भारत का काम दिया गया। उस दौरान हुए
आंदोलनों में वहां से भी बड़ी संख्या में कार्यकर्ता और कारसेवक अयोध्या आते थे।
दक्षिण भारत में
संघ और विश्व हिन्दू परिषद को प्रायः उत्तर भारत की उच्च जातियों तथा
हिन्दीभाषियों की संस्था माना जाता था। अनेक राजनेता भी भाषण में यही बोलते थे।
ऐसे में विनम्र स्वभाव के बाबूराव ने सभी मत, पंथ, जाति और बिरादरी
के संतों से संपर्क किया। उन्होंने सभी मठ, आश्रम और मंदिरों के धर्माचार्यों से अच्छे संबंध बनाये। कई
जगह उनका अपमान और उपेक्षा भी हुई, पर वे स्थितप्रज्ञ
की तरह शांत रहते थे। इससे वातावरण बदला और हिन्दुत्व और मंदिर आंदोलन की लहर चल
पड़ी। बाबरी ढांचे के ध्वंस के बाद वि.हि.प. पर प्रतिबंध लगाया गया। उस समय
बाबूराव के प्रयास से दक्षिण में भी इसका प्रबल विरोध हुआ।
बाबूराव की संगठन
क्षमता देखकर संगठन ने उन्हें विश्व हिन्दू परिषद में केन्द्रीय मंत्री की
जिम्मेदारी दी। इस नाते उन्होंने मंदिर आंदोलन के साथ ही गोरक्षा, परावर्तन तथा एकल विद्यालय के अभियान में विशेष
योगदान दिया। वे किसी भी समस्या का समाधान सरल उदाहरण देकर आसानी से कर देते थे।
आयुवृद्धि के कारण उनका काम हल्का कर उन्हें केन्द्रीय प्रबंध समिति का सदस्य
बनाया गया। इस नाते उनके अनुभव का लाभ सबको मिलता था। मंगलुरू में उनका नागरिक
अभिनंदन भी किया गया था।
22 जनवरी,
2021 को 96 वर्ष की परिपूर्ण आयु में बंगलुरू में उनका
देहांत हुआ। भगवान पर अटूट श्रद्धा रखने वाले बाबूराव ने देश की आजादी तथा फिर
राममंदिर को अपनी पूर्णता पर पहुंचते हुए देखा। इन दोनों को वे अपने जीवन और
भारतीय इतिहास की सर्वाधिक परिवर्तनकारी घटना मानते थे।
(हि.वि. 16.2.21,
विनोद बंसल तथा पटना से गौरव अग्रवाल)
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25 अगस्त/जन्म-दिवस
हिन्दुत्व के व्याख्याकार तनसुखराम गुप्त
हिन्दू
और हिन्दुत्व के जागरण को पूर्णतः समर्पित प्रखर लेखक, पत्रकार
व प्रकाशक श्री तनसुखराम गुप्त का जन्म 25 अगस्त, 1928 को हरियाणा में सोनीपत जिले के निवासी श्री ताराचंद एवं श्रीमती
किशनदेई के घर में हुआ था। उनका बचपन पुरानी दिल्ली के कूचा नटवा की गलियों में
बीता।
तनसुखराम जी 1939 में राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये। शाखा जाने से उनके मन में देशभक्ति के संस्कार
और प्रबल हो गये। 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’
में भाग लेने के कारण उन्हें विद्यालय से निकाल
दिया गया; पर एक सहृदय अध्यापक के कहने से फिर प्रवेश मिल गया।
1943 में पिताजी के देहांत से
परिवार के पालन का भार उनके सिर पर आ गया। अतः उन्होंने प्रथम श्रेणी में हाई
स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर नियमित पढ़ाई को विराम दे दिया और दिल्ली नगरपालिका
में लिपिक बन गये। 1946 में विवाह के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्कूल सामग्री तथा अन्य
दैनिक उपयोगी वस्तुओं की दुकान खोल ली। कुछ समय बाद उन्होंने अपना पूरा ध्यान
पुस्तक बिक्री और फिर पुस्तक प्रकाशन पर ही केन्द्रित कर लिया।
पुस्तक और प्रकाशन व्यवसाय में लगे व्यक्ति में
साहित्य सृजन के प्रति प्रायः अनुराग होता ही है। अतः तनसुखराम जी ने कहानी लेखन
के माध्यम से इस क्षेत्र में प्रवेश किया। 1946 में उनका पहला कहानी
संग्रह ‘तीन कहानियां’ प्रकाशित हुआ। उनकी कहानियां मुख्यतः देश, धर्म
और समाज के प्रति त्याग व समर्पण की प्रेरणा देती थीं। इसके बाद मेरा रंग दे बसंती
चोला, नैतिक कथाएं तथा कई अन्य कहानी संग्रह भी प्रकाशित और लोकप्रिय हुए।
तनसुखराम जी को पारिवारिक कारणों से नियमित पढ़ाई
छोड़नी पड़ी थी; पर उनकी पढ़ने की इच्छा बनी हुई थी। अतः निजी रूप से अध्ययन करते हुए
उन्होंने संस्कृत की ‘विशारद’ और ‘प्रभाकर’ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लीं। अध्ययन और चिंतन-मनन का दायरा बढ़ने के
कारण अब वे कहानी के साथ निबन्ध भी लिखने लगे और 361 निबन्धों
की पुस्तक ‘निबन्ध सौरभ’ प्रकाशित की।
जीवन की यात्रा में पग-पग पर ऐसे लोग मिलते हैं, जो
किसी न किसी कारण से मन-मस्तिष्क पर अमिट छाप छोड़ देते हैं। तनसुखराम जी ने ऐसे
लोगों के साथ अपने संस्मरणों को तीन पुस्तकों में संकलित किया है। ये हैं - जीवन
के कुछ क्षणों में, विस्तृति के भय से तथा संघर्ष के पथ पर। इसके साथ ही दीनदयाल
उपाध्याय: महाप्रस्थान, लाल बहादुर शास्त्री: महाप्रयाण तथा रग-रग हिन्दू मेरा परिचय उनकी
अन्य प्रसिद्ध पुस्तकें हैं।
तनसुखराम जी ने ‘श्रीरामचरितमानस’ का
अध्ययन कर मानस मंथन, वैदेही विवाह तथा श्रीरामचरितमानस भाष्य नामक पुस्तकें लिखीं। इनमें
मानस के धार्मिक व आध्यात्मिक पक्ष के साथ ही सामाजिक पक्ष के दर्शन भी होते हैं।
उनकी एक अन्य उल्लेखनीय पुस्तक ‘हिन्दू धर्म परिचय’
है, जिसमें हिन्दू मान्यताओं और
परम्पराओं की सरल और आधुनिक व्याख्या की गयी है।
तनसुखराम जी हिन्दी काव्य एवं साहित्य के क्षेत्र
में वरिष्ठ कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ से
बहुत प्रभावित थे। अतः उन्होंने अपने प्रकाशन का नाम ‘सूर्य
प्रकाशन’ रखा। यहां से तीन खंडों में प्रकाशित ‘व्यावहारिक हिन्दी
व्याकरण कोश’ हिन्दी के अध्येताओं के लिए एक अति उपयोगी ग्रन्थ है।
प्रतिष्ठित प्रकाशन प्रायः नये लेखकों की पुस्तकें
नहीं छापते; लेकिन तनसुखराम जी ने दर्जनों नये और युवा लेखकों की पुस्तकें छापकर
उन्हें प्रतिष्ठा दिलाई। अपनी लेखनी और प्रकाशन द्वारा हिन्दुत्व की महान सेवा
करने वाले श्री तनसुखराम गुप्त का 26 जनवरी, 2004 को दिल्ली में देहांत हुआ।
(संदर्भ : पांचजन्य 15.2.2004)
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25 अगस्त/जन्म-दिवस
परिवार के संरक्षक श्री कृष्णप्पा
इन दिनों सब तरफ लोग परिवार में हो रहे विघटन से चिन्तित हैं। पैसा बढ़ा है, पर लोगों के मन गरीब हो गये हैं। तेज वाहनों ने दूरियां घटायी हैं; पर पड़ोसी से सम्बन्ध टूट गये हैं। मोबाइल फोन ने सारी दुनिया को जोड़ा है; पर घरेलू सदस्यों में बात बंद हो गयी है। इसी का परिणाम है तलाक, आत्महत्या और अवसाद जैसे रोग। अनेक सामाजिक संस्थाएं इस बारे में विचार करती रहती हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसकी जिम्मेदारी वरिष्ठ प्रचारक श्री कृष्णप्पा को दी। इससे ‘परिवार प्रबोधन’ जैसी अवधारणाएं विकसित हुईं।
मैसूर में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (25 अगस्त, 1932) को एक पुरोहित परिवार में जन्म लेने के कारण इनका नाम ‘कृष्णप्पा’ रखा गया। उनसे बड़े एक भाई और भी थे। घोर गरीबी के कारण बचपन में ये एक अनाथालय में भोजन करने जाते थे। वहां इनकी मित्रता एस.एल.भैरप्पा से हुई, जो जीवन भर बनी रही। वे भी वहीं खाना खाते थे। ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ प्राप्त श्री भैरप्पा आगे चलकर कन्नड़ के श्रेष्ठ साहित्यकार बने। उनके जीवन में देश, धर्म और समाज के प्रति प्रेम के संस्कार श्री कृष्णप्पा के कारण ही प्रविष्ट हुए।
यद्यपि एक समय श्री कृष्णप्पा शाखा पर पत्थर फेंकते थे; पर 13 वर्ष की अवस्था में वे स्वयंसेवक बने और 1954 में संस्कृत में बी.ए. उत्तीर्ण कर प्रचारक बन गये। उन पर सर्वश्री यादवराव जोशी, हो.वे.शेषाद्रि तथा सूर्यनारायण राव का विशेष प्रभाव रहा। बंगलोर, तुम्कुर, शिमोगा, मंगलूर आदि में जिला और विभाग प्रचारक रहने के बाद वे 1978 में कर्नाटक प्रांत बौद्धिक प्रमुख और फिर 1980 में कर्नाटक प्रांत प्रचारक बने। प्रवास में वे कार्यकर्ताओं के घर पर ही रुकते थे। 1975 में आपातकाल और संघ पर प्रतिबंध के समय वे मंगलौर में विभाग प्रचारक थे। संघ के निर्देश के अनुसार भूमिगत रहकर काम करते हुए एक दिन वे पुलिस की निगाह में आ गये। उन्हें पकड़कर ‘मीसा’ में बंद कर दिया गया। अतः वे आपातकाल की समाप्ति के बाद ही जेल से छूट सके।
1989 में उन्हें क्षेत्र प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। उनके क्षेत्र में केरल, कर्नाटक तथा तमिलनाडु प्रांत थे। इसके बाद वे दक्षिण क्षेत्र के प्रचारक प्रमुख भी रहे; पर इसी दौरान वे प्रोस्टेट कैंसर के शिकार हो गये। अंग्रेजी चिकित्सकों ने कहा कि वे अधिकतम तीन वर्ष तक जीवित रह सकेंगे; पर कृष्णप्पा जी को आयुर्वेद, होम्योपैथी, पिरामिड, योग व प्राकृतिक चिकित्सा पर पूरा विश्वास था। इनसे उन्होंने स्वयं को ठीक किया और अगले 28 वर्ष तक सक्रिय रहे।
वे बहुत समय से वर्ष में एक बार श्रीरंगपट्टनम में अपने भाई के घर आसपास के नवयुगलों को बुलाते थे। कावेरी में स्नान और पूजा के बाद सहभोज होता था। इससे ही ‘परिवार प्रबोधन’ का विचार विकसित हुआ। 2014 में संघ की ओर से यह काम मिलने पर वे कार्यकर्ताओं के पूरे परिवार के साथ बैठने लगे। परिवार में सुख, शांति, संस्कार और समन्वय बना रहे, इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने एक पुस्तक ‘मंगल भवन अमंगल हारी’ भी लिखी।
वे अध्यात्म और विज्ञान, दोनों में समन्वय बनाकर चलते थे। उनकी रुचि संस्कृत भारती, हिन्दू सेवा प्रतिष्ठान तथा वेद विज्ञान गुरुकुल में भी थी। गुरुकुल में आयुर्वेद, योग, वेद, गोसेवा, जैविक खेती आदि का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है। 10 से 16 वर्ष के छात्र और छात्राओं के लिए अलग-अलग तीन निःशुल्क गुरुकुल कर्नाटक में हैं। इनमें कोई लिखित पाठ्यक्रम नहीं है; पर वार्ता, अभ्यास और अनुभव के आधार पर प्रशिक्षण आगे बढ़ता रहता है।
अनुशासन और सादगीप्रिय श्री कृष्णप्पा का दस अगस्त, 2015 को बंगलौर संघ कार्यालय पर निधन हुआ। प्रबल इच्छशक्ति से कैंसर को हराने वाले इस महान योद्धा को संघ के सह सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होस्बले ने ‘मृत्युमित्र’ कहा है।
(संदर्भ : पांचजन्य 30.8.15/विक्रम 23.8.15)
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26 अगस्त/बलिदान-दिवस
हैदराबाद सत्याग्रह के बलिदानी पुरुषोत्तम जी ज्ञानी
देश की स्वतन्त्रता की तरह ही हैदराबाद रियासत की स्वतन्त्रता के लिए भी अनेक हिन्दू वीरों ने अपने प्राण गँवाये हैं। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतन्त्र होने के बाद वहाँ का निजाम अपनी रियासत को पाकिस्तान में मिलाना या फिर स्वतन्त्र रखना चाहता था। बहुसंख्यक होते हुए भी वहां हिन्दुओं पर अत्याचार होते थे। ऐसे वातावरण में देश भर के हिन्दुओं ने आर्य समाज और हिन्दू महासभा के नेतृत्व में वहाँ सत्याग्रह आन्दोलन किया और इस व्यवस्था को बदलने में सफल हुए।
1867 में बुरहानपुर के श्री जगन्नाथ जी के घर में एक बालक ने जन्म लिया, जिसका नाम पुरुषोत्तम ज्ञानी रखा गया। शिक्षार्जन हेतु वे जबलपुर चले गये। यहाँ मैट्रिक कर कुछ समय नौकरी की; पर बीमार होने से वापस घर आ गये। फिर इन्दौर में तार का काम सीखा और अजमेर रेलवे में तारबाबू बन गये।
छात्र जीवन में इनका सम्पर्क आर्य समाज से हुआ और ये निष्ठापूर्वक उससे जुड़ गये। ये अपने विचारों को साफ-साफ प्रकट करते थे। इस कारण इनके कई शत्रु बन गये और इन पर कई बार हमले हुए। छह वर्ष बाद उनका स्थानान्तरण डाक विभाग में हो गया और वे राजस्थान और मालवा में रहकर काम करते रहे। ये जहाँ भी रहे, वहीं आर्य समाज का प्रचार किया।
इस विभाग में भी उनकी स्पष्टवादिता और प्रामाणिकता से कई अधिकारी नाराज हो गये और उनकी पेंशन रोक दी गयी। इस पर उन्होंने कपास का व्यापार कर लिया। यहाँ भी उन्हें भ्रष्टाचार से लड़ना पड़ा। इनके प्रयासों से भ्रष्टाचार पर रोक लगी और कपास उत्पादक किसानों को लाभ हुआ।
हिन्दू समाज में फैले छूत-अछूत के रोग से वे बहुत दुखी थे। अछूतों को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के उन्होंने अनेक कार्यक्रम किये। ऐसे एक कार्यक्रम में शंकराचार्य डा. कुर्तकोटि भी बुरहानपुर पधारे थे।
जब हैदराबाद सत्याग्रह का आह्नान हुआ, तो इन्होंने पहले जत्थे में शामिल होकर गुलबर्गा में सत्याग्रह किया। निजाम की जेलों में बन्दियों की दुर्दशा रहती थी। फिर ये तो निजाम का ही विरोध कर रहे थे, अतः इनसे खूब शारीरिक श्रम कराया जाता और गन्दा भोजन दिया जाता। इससे दो महीने में ही वे संग्रहणी रोग के शिकार हो गये। इसके बाद भी ये वहीं डटे रहे। एक बार इनका पुत्र वहाँ आया, तो जेल अधिकारियों ने मिलने के बाद इन्हें अन्दर नहीं आने दिया। शायद वे इनकी मृत्यु का कलंक अपने सिर लेना नहीं चाहते थे। मजबूरी में इन्हें घर जाना पड़ा।
इस दौरान शासन ने यह बात उड़ा दी कि ये क्षमा माँग कर छूटे हैं। इससे इनके मन को बहुत चोट लगी और बहुत बीमार होते हुए भी ये फिर सत्याग्रह कर जेल पहुँच गये। इन्हें सजा हुई; पर वृद्ध होने के कारण तुरन्त ही छोड़ भी दिया गया। इस पर ये गुलबर्गा के आर्य समाज में डेरा डालकर बैठ गये और दिन भर शहर में घूम-घूमकर निजाम के विरोध में प्रचार करने लगे।
इस बीच इनका रोग बहुत बढ़ चुका था। सब साथियों ने इन्हें जबरन घर भेज दिया। वहाँ जेल से मिले इस भीषण रोग के कारण 26 अगस्त, 1941 (श्रावण कृष्ण 12) को ज्ञानी जी का देहान्त हो गया। इनके बड़े पुत्र पंडित रामदत्त ज्ञानी भी सत्याग्रह कर हैदराबाद की चंचलगुडा जेल में रहे थे। पिताजी के देहान्त से कुछ समय पूर्व ही वे छूट कर आये थे।
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26 अगस्त/इतिहास-स्मृति
चित्तौड़ का पहला जौहर
जौहर की गाथाओं से भरे पृष्ठ भारतीय इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं। ऐसे अवसर एक नहीं, कई बार आये हैं, जब हिन्दू ललनाओं ने अपनी पवित्रता की रक्षा के लिए ‘जय हर-जय हर’ कहते हुए हजारों की संख्या में सामूहिक अग्नि प्रवेश किया था। यही उद्घोष आगे चलकर ‘जौहर’ बन गया। जौहर की गाथाओं में सर्वाधिक चर्चित प्रसंग चित्तौड़ की रानी पद्मिनी का है, जिन्होंने 26 अगस्त, 1303 को 16,000 क्षत्राणियों के साथ जौहर किया था।
पद्मिनी का मूल नाम पद्मावती था। वह सिंहलद्वीप के राजा रतनसेन की पुत्री थी। एक बार चित्तौड़ के चित्रकार चेतन राघव ने सिंहलद्वीप से लौटकर राजा रतनसिंह को उसका एक सुंदर चित्र बनाकर दिया। इससे प्रेरित होकर राजा रतनसिंह सिंहलद्वीप गया और वहां स्वयंवर में विजयी होकर उसे अपनी पत्नी बनाकर ले आया। इस प्रकार पद्मिनी चित्तौड़ की रानी बन गयी।
पद्मिनी की सुंदरता की ख्याति अलाउद्दीन खिलजी ने भी सुनी थी। वह उसे किसी भी तरह अपने हरम में डालना चाहता था। उसने इसके लिए चित्तौड़ के राजा के पास धमकी भरा संदेश भेजा; पर राव रतनसिंह ने उसे ठुकरा दिया। अब वह धोखे पर उतर आया। उसने रतनसिंह को कहा कि वह तो बस पद्मिनी को केवल एक बार देखना चाहता है।
रतनसिंह ने खून-खराबा टालने के लिए यह बात मान ली। एक दर्पण में रानी पद्मिनी का चेहरा अलाउद्दीन को दिखाया गया। वापसी पर रतनसिंह उसे छोड़ने द्वार पर आये। इसी समय उसके सैनिकों ने धोखे से रतनसिंह को बंदी बनाया और अपने शिविर में ले गये। अब यह शर्त रखी गयी कि यदि पद्मिनी अलाउद्दीन के पास आ जाए, तो रतनसिंह को छोड़ दिया जाएगा।
यह समाचार पाते ही चित्तौड़ में हाहाकार मच गया; पर पद्मिनी ने हिम्मत नहीं हारी। उसने कांटे से ही कांटा निकालने की योजना बनाई। अलाउद्दीन के पास समाचार भेजा गया कि पद्मिनी रानी हैं। अतः वह अकेले नहीं आएंगी। उनके साथ पालकियों में 800 सखियां और सेविकाएं भी आएंगी।
अलाउद्दीन और उसके साथी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्हें पद्मिनी के साथ 800 युवतियां अपने आप ही मिल रही थीं; पर उधर पालकियों में पद्मिनी और उसकी सखियों के बदले सशस्त्र हिन्दू वीर बैठाये गये। हर पालकी को चार कहारों ने उठा रखा था। वे भी सैनिक ही थे। पहली पालकी के शिविर में पहुंचते ही रतनसिंह को उसमें बैठाकर वापस भेज दिया गया और फिर सब योद्धा अपने शस्त्र निकालकर शत्रुओं पर टूट पड़े।
कुछ ही देर में शत्रु शिविर में हजारों सैनिकों की लाशें बिछ गयीं। इससे बौखलाकर अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर हमला बोल दिया। इस युद्ध में राव रतनसिंह तथा हजारों सैनिक मारे गये। जब रानी ने देखा कि अब जीतने की आशा नहीं है, तो उसने जौहर का निर्णय किया।
रानी और किले में उपस्थित सभी नारियों ने सम्पूर्ण शृंगार किया। हजारों बड़ी चिताएं सजाई गयीं। ‘जय हर-जय हर’ का उद्घोष करते हुए सर्वप्रथम पद्मिनी ने चिता में छलांग लगाई और फिर क्रमशः सभी हिन्दू वीरांगनाएं अग्नि प्रवेश कर गयीं। जब युद्ध में जीत कर अलाउद्दीन पद्मिनी को पाने की आशा से किले में घुसा, तो वहां जलती चिताएं उसे मुंह चिढ़ा रही थीं।
(संदर्भ: राष्ट्रधर्म नवम्बर 2010 तथा विकीपीडिया आदि)
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27 अगस्त/पुण्य-तिथि
बहुमुखी प्रतिभा के धनी प्रताप नारायण जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक मुख्यतः संगठन कला के मर्मज्ञ होते हैं; पर कई कार्यकर्ताओं ने कई अन्य क्षेत्रों में भी प्रतिभा दिखाई है। ऐसे ही थे श्री प्रताप नारायण जी। स्वास्थ्य की खराबी के कारण जब उन्हें प्रवास न करने को कहा गया, तो वे लेखन के क्षेत्र में उतर गये और शीघ्र ही इस क्षेत्र के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हो गये।
प्रताप जी का जन्म 1927 में ग्राम करमाडीह, जिला गोण्डा, उत्तर प्रदेश के एक सामान्य परिवार में हुआ था। कक्षा 10 में पढ़ते समय वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से प्रभावित होकर शाखा जाने लगे। आगे चलकर वे संघ के प्रति ही पूर्णतः समर्पित हो गये। उन्होंने विवाह के झ॰झट में न पड़कर जीवन भर संघ कार्य करने की प्रतिज्ञा ली। घर-परिवार के सम्बन्ध पीछे छूट गये और वे विशाल हिन्दू समाज के साथ एकरस हो गये।
प्रचारक के रूप में उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करते हुए वे अवध के प्रान्त प्रचारक का गुरुतर दायित्व सम्भालते रहे। इस दौरान उनका केन्द्र लखनऊ था, जो सदा से राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र रहा है। प्रताप जी ने केवल जनसंघ के ही नहीं, तो विरोधी दल के अनेक नेताओं से भी अच्छे सम्बन्ध बना लिये। उन दिनों भाऊराव जी का केन्द्र भी लखनऊ था। उनका दिशा निर्देश पग-पग पर मिलता ही था।
भाऊराव ने उन्हें जो भी काम उन्हें सौंपा, प्रताप जी ने तन-मन से उसे पूरा किया। सबके साथ समन्वय बनाकर चलने तथा बड़ी-बड़ी समस्याओं को भी धैर्य से सुलझाने का उनका स्वभाव देखकर भाऊराव जी ने ही उन्हें भारतीय जनता पार्टी में काम करने को भेजा। यद्यपि प्रताप जी की रुचि का क्षेत्र संघ शाखा ही था; उनका मन भी युवाओं के बीच ही लगता था। फिर भी पूर्णतः अनासक्त की भाँति उन्होंने इस दायित्व को निभाया।
संघ और राजनीतिक क्षेत्र के काम
में लगातार प्रवास करना पड़ता है। प्रवास, अनियमित खानपान और व्यस्त दिनचर्या के कारण प्रताप जी को हृदय रोग, मधुमेह और वृक्क रोग ने घेर लिया। अतः इन्हें फिर से
संघ-कार्य में भेज दिया गया। चिकित्सकों ने इन्हें प्रवास न करने और ठीक से दवा
लेने को कहा। भाऊराव ने प्रताप जी को लेखन
कार्य की ओर प्रोत्साहित किया। प्रताप जी की इतिहास के अध्ययन में बहुत रुचि
थी। संघ के शिविरों में वे रात में सब शिक्षार्थियों को बड़े रोचक ढंग से इतिहास
की कथाएँ सुनाते थे। इन्हीं कथाओं को लिखने का काम उन्होंने प्रारम्भ किया।
प्रताप जी अब प्रवास बहुत कम करते थे; पर जहाँ भी जाते, थोड़ा सा समय मिलते ही तुरन्त लिखना शुरू कर देते थे। कागज और कलम वे सदा साथ रखते थे। इस प्रकार मेवाड़, गुजरात, असम, पंजाब आदि की इतिहास-कथाओं की अनेक पुस्तकें तैयार हो गयीं। लोकहित प्रकाशन, लखनऊ ने उन्हें प्रकाशित किया। पूरे देश में इन पुस्तकों का व्यापक स्वागत हुआ। आज भी प्रायः उन पुस्तकों के नये संस्करण प्रतिवर्ष प्रकाशित होते रहते हैं।
इसके बाद भी हृदय रोग क्रमशः बढ़ रहा था। प्रताप जी यमराज की पास आती पदचाप सुन रहे थे। अतः जितना समय उनके पास था, उसमें अधिकतम साहित्य वे नयी पीढ़ी को दे जाना चाहते थे। अन्त समय तक लेखनी चलाते हुए 27 अगस्त, 1993 को उन्होंने अपने नश्वर शरीर को त्याग दिया।
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27 अगस्त/जन्म-दिवस
वचन के धनी शारदाचरण जोशी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अनेक ऐसे जीवनव्रती प्रचारक हुए हैं, जिनके जीवन की किसी घटना ने उन्हें राष्ट्रसेवा के पथ पर चलने की जीवन भर प्रेरणा दी। ऐसे ही एक प्रचारक थे श्री शारदाचरण जोशी। उन्होंने संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी को दिये वचन को जीवन भर निभाया।
शारदा जी का जन्म 27 अगस्त, 1923 को अल्मोड़ा में हुआ था। उनका पैतृक निवास उत्तरा॰चल के अल्मोड़ा में था। प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर वे उच्च शिक्षा के लिए काशी आ गये। वहाँ 1946 ई0 में उन्होंने प्रथम श्रेणी में कृषि विज्ञान में एम.एस-सी किया। छात्रावास में वे और श्री अशोक सिंहल एक ही कमरे में रहते थे। इसी समय वे संघ की शाखा में जाने लगे।
प्रयाग में एक बार श्री गुरुजी का प्रवास हुआ। वहाँ नवयुवक और छात्रों की बैठक में उन्होंने सबसे संघ एवं राष्ट्र कार्य हेतु समय देने का आह्नान किया। शारदा जी ने श्री गुरुजी को वचन दिया कि वे शिक्षा पूरी कर आजीवन प्रचारक के रूप में संघ की योजनानुसार कार्य करेंगे।
एम.एस-सी. करने के बाद वे अपने पिताजी के पास अजमेर गये, जो वहाँ सरकारी विद्यालय में प्राचार्य थे। पिताजी की इच्छा थी कि उनकी तरह उनका बेटा भी सरकारी सेवा करे; पर शारदा जी ने संघ कार्य करने का संकल्प ले रखा था। पिताजी की सन्तुष्टि के लिए उन्होंने कुछ समय कृषि अधिकारी की नौकरी की और फिर पिताजी से अपने संकल्प की बात की। पिताजी बड़ी कठिनाई से इसके लिए तैयार हुए। इस प्रकार नौकरी छोड़कर 1947 में शारदा जी का प्रचारक जीवन प्रारम्भ हो गया।
प्रचारक जीवन में उन्होंने हरदोई, साकेत, बुलन्दशहर आदि में संघ कार्य किया। जब विश्व हिन्दू परिषद का कार्य प्रारम्भ हुआ, तो उन्हें इस कार्य में लगा दिया गया। समय-समय पर उन्हें अनेक महत्वपूर्ण आयोजनों की जिम्मेदारी दी गयी। उन सभी को उन्होंने अपनी सम्पूर्ण योग्यता एवं क्षमता से पूरा किया। इस दौरान अधिकांश समय उनका केन्द्र आगरा रहा।
उत्तरांचल राज्य का गठन होने पर उन्हें यहीं के प्रान्त मन्त्री का काम दिया गया। 1989 में स्वास्थ्य खराब होने पर वे अल्मोड़ा में अपने छोटे भाई मुकुल जोशी के साथ रहने लगे। उनका मत था कि जब प्रवास सम्भव नहीं है, तो संगठन पर बोझ क्यों बनें ? यह सोचकर वे अल्मोड़ा आ गये।
इसके बाद भी वे निष्क्रिय होकर नहीं बैठे। श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के हर कार्यक्रम में वे अल्मोड़ा, हल्द्वानी तथा कुमायूँ क्षेत्र से कार्यकर्त्ताओं की टोली लेकर आते थे। शेष समय वे अपने निवास में ही गीता सत्संग चलाते थे। हिन्दू हित के लिए काम करने वाली सभी संस्थाओं और कार्यकर्त्ताओं में समन्वय बनाये रखने का कार्य वे अन्त समय तक करते रहे। उनके त्याग, तपस्या और प्रेमभाव के कारण उनकी बात कोई टालता नहीं था।
शारदा जी प्रारम्भ से ही दुबली-पतली काया के व्यक्ति थे; अपने भोजन, वस्त्र आदि के प्रति वे प्रायः उदासीन रहते थे। अपना आवास भी उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद को दान दे दिया। जून में स्वास्थ्य बिगड़ने पर उन्हें अल्मोड़ा के चिकित्सालय में भर्ती कराया गया। स्थानीय कार्यकर्ताओं ने पुत्र के समान पूरे मन से उनकी सेवा की; फिर भी विधि के विधान के अनुसार 84 वर्ष की सुदीर्घ आयु में 28 जून, 2007 को उनका शरीरान्त हुआ।
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27 अगस्त/जन्म-दिवस
उत्कृष्टता के पुजारी अजीत कुमार जी
कुछ लोग बनी-बनायी लीक पर चलना पसंद करते हैं, जबकि कुछ अपनी कल्पनाशीलता से काम में नये आयाम भी जोड़ते हैं। संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री अजीत जी दूसरी श्रेणी के कार्यकर्ता थे। उनका जन्म 27 अगस्त, 1934 को कर्नाटक के जिला गुडीवंडेयवर में कोलार नामक स्थान पर हुआ था। श्रीमती पुट्टताईम्म तथा वरिष्ठ सरकारी अधिकारी श्री ब्रह्मसुरय्य की आठ संतानों में से केवल तीन जीवित रहे। इनमें अजीत जी भी थे।
प्राथमिक शिक्षा ननिहाल में पूरी कर वे पिताजी के साथ बंगलौर आ गये। यहां उनका संघ से सम्पर्क हुआ। कर्नाटक प्रांत प्रचारक श्री यादवराव जोशी से वे बहुत प्रभावित थे। अभियन्ता की शिक्षा प्राप्त करते समय वे 'अ.भा.विद्यार्थी परिषद' में भी सक्रिय रहे। अपनी कक्षा में सदा प्रथम श्रेणी पाने वाले अजीत जी ने इलैक्ट्रिक एवं मैकेनिकल इंजीनियर की डिग्री स्वर्ण पदक सहित प्राप्त की। उनकी रुचि खेलने, परिश्रम करने तथा साहसिक कार्यों में थी। नानी के घर में कुएं से 100 बाल्टी पानी वे अकेले निकाल देते थे। एक शिविर में उन्होंने 1,752 दंड-बैठक लगाकर पुरस्कार पाया था।
1957 में शिवगंगा में आयोजित एक वन-विहार कार्यक्रम में उन्होंने प्रचारक बनने का निश्चय किया। उन्हें क्रमशः नगर, महानगर, विभाग प्रचारक आदि जिम्मेदारियां मिलीं। संघ शिक्षा वर्ग में कई बार वे मुख्यशिक्षक रहे। वे हर काम उत्कृष्टता से करते थे। कपड़े धोने से लेकर सुखाने तक को वे एक कला मानते थे। गणवेश कैसा हो, इसके लिए लोग उनका उदाहरण देते थे। कार्यक्रम के बाद भी वे पेटी और जूते पॉलिश कर के ही रखते थे।
अजीत जी ने प्रख्यात योगाचार्य श्री पट्टाभि तथा श्री आयंगर से योगासन सीखे। फिर उन्होंने संघ शिक्षा वर्ग के लिए इसका पाठ्यक्रम बनाया। इसके बाद उन्होंने बंगलौर के डा.कृष्णमूर्ति से आरोग्य संबंधी कुछ आवश्यक सूत्र सीखकर उनका प्रयोग भी विभिन्न प्रशिक्षण वर्गों में किया। योग और शरीर विज्ञान के समन्वय का अभ्यास उन्होंने डा. नागेन्द्र के पास जाकर किया। अपने ये अनुभव उन्होंने ‘योग प्रवेश’ तथा ‘शरीर शिल्प’ नामक पुस्तक में छपवाये।
1975 में आपातकाल लगने पर वे भूमिगत होकर काम करते रहे; पर एक सत्याग्रह कार्यक्रम के समय वे पहचान लिये गये। पहले बंगलौर और फिर गुलबर्गा जेल में उन्हें रखा गया। वहां भी उन्होंने योग की कक्षाएं लगायीं।
अजीत जी की मान्यता थी कि समाज में अच्छे लोगों की संख्या बहुत अधिक है। अतः उन्होंने ‘हिन्दू सेवा प्रतिष्ठान’ संस्था के माध्यम से ऐसे सैकड़ों युवक व युवतियों को जोड़ा। उन्हें थोड़ा मानदेय एवं प्रशिक्षण देकर अनेक सेवा कार्यों में लगाया गया। संस्कृत संभाषण योजना के सूत्रधार भी अजीत जी ही थे। 1980 के दशक में उन्होंने ऐसी कई योजनाओं को साकार किया।
उनके मन में और भी अनेक योजनाएं थीं, जिनके बारे में वे चर्चा किया करते थे। उनका परिश्रम और काम के प्रति छटपटाहट देखकर लोग उन्हें saint in a hurry कहते थे। 1990 में वे कर्नाटक प्रान्त प्रचारक बनाये गये। दिसम्बर मास में बंगलौर में विश्व संघ शिविर होने वाला था। तीन दिसम्बर, 1990 को उसकी तैयारी के लिए अजीत जी के साथ नरेन्द्र जी, विजयेन्द्र नरहरि तथा गणेश नीर्कजे कार से कहीं जा रहे थे; पर नेलमंगल के पास एक ट्रक से हुई भीषण टक्कर में चारों कार्यकर्ता असमय काल-कवलित हो गये।
एक बार भैया जी दाणी के पूछने पर अजीत जी ने कहा था कि जब तक दम है, तब तक काम करूंगा। उन्होंने मर कर भी अपना यह संकल्प पूरा कर दिखाया।
(संदर्भ : मित्राय नमः, पल्लव प्रकाशन - बंगलौर)
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28 अगस्त/जन्म-तिथि
गीतकार स्वाधीनता सेनानी
झवेरचंद मेघाणी
स्वाधीनता संग्राम में एक
ओर गांधी जी के अहिंसावादी अनुयायी थे, तो दूसरी ओर बम
और गोली के पुजारी। सबके समन्वित प्रयास से आजादी प्राप्त हुई। गांधीवादी झवेरचंद
मेघाणी ने अपने गीतों से आजादी की अलख जगाई। उनका जन्म 28 अगस्त,
1896 को गुजरात के चोटिला गांव में श्री कालीदास
तथा धोलीबाई मेघाणी के घर में हुआ था।
गांधी जी की दांडी यात्रा
12 मार्च 1930 को साबरमती से शुरू होकर
छह अपै्रल, 1930 को पूर्ण हुई। वहां उन्होंने एक चुटकी नमक बनाकर पूरे देश
को आंदोलित कर दिया। इसी दिन मेघाणी जी की 15 क्रांति गीतों
वाली पुस्तक ‘सिंधुडो’ प्रकाशित हुई। शासन ने
इसे जब्त कर लिया;
पर लोगों ने इसकी सैकड़ों प्रतियां हाथ से बना
लीं। जिसके पास ये पुस्तक मिलती, उसे भी बंद कर दिया जाता
था। धोलेरा तथा बरवाला गांव के ऐसे कुछ बंदियों से मिलने झवेरभाई धंधुका थाने में
गये, तो उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। इस पर पूरे क्षेत्र में
जुलूस, हड़ताल और विरोध सभाएं हुईं। राणपुर में नदी के किनारे हुई
सभा में तो कई हजार लोग शामिल हुए।
28 अपै्रल, 1930 को मुकदमा शुरू
हुआ। उन पर आरोप था कि बरवाला की सभा में उन्होंने उत्तेजनापूर्ण भाषण दिया।
झवेरभाई ने अपने लिखित वक्तव्य में शासन की पोल खोल दी। फिर उन्होंने एक
प्रार्थना गीत गाने की अनुमति मांगी। गीत सुनकर न्यायाधीश की आंखें भी भीग गयीं।
अगले दिन उन्हें दो साल की सजा सुनाई गयी। न्यायाधीश ने कहा कि झवेरचंद मेघाणी
सुशिक्षित व्यक्ति हैं; पर काठियावाड़ क्षेत्र में शासन के विरुद्ध
वातावरण बनाने में उनकी बड़ी भूमिका है। साहित्य तथा पत्रकारिता में उनके योगदान
को देखते हुए मैं जेल में उन्हें ‘अ’ श्रेणी देने की अनुशंसा करता हूं।
सारे न्यायालय में ‘भारत माता की जय’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे गूंजने लगे। उनकी मां और पत्नी ने तिलक कर उन्हें जेल के लिए विदा
किया। यह अदालत धंधुका के डाक बंगले में जिस नीम के पेड़ के नीचे आयोजित हुई थी, वहां बना चबूतरा ‘मेघाणी ओटला’ कहलाता है।
झवेरभाई का गुजरात एवं
सिंध के लोक साहित्य में बड़ा स्थान है। उनकी लगभग 100 पुस्तकें
प्रकाशित हुई हैं। इसके लिए उन्हें रणजीतराम स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रति उनके मन में बहुत आदर था। टैगोर का ‘नववर्षा’ काव्य झवेरभाई ने उनके मुंह से ही सुना था। 1944 में उन्होंने इसका अनुवाद किया। यह गीत ‘मन मोर बनी थनगाट
करे’ आज भी गरबा कार्यक्रमों में गाया जाता है। इसे फिल्मों में
भी लिया गया है।
गांधी जी के गोलमेज
सम्मेलन में जाने पर झवेरभाई ने ‘झेरनो कटोरो’ काव्य लिखा। इससे प्रभावित होकर गांधी जी ने उन्हें ‘राष्ट्रीय शायर’ कहा। वे चार साल तक गुजराती साहित्य परिषद में
साहित्य प्रमुख भी रहे। 1922 से 35 तक वे ‘सौराष्ट्र’ अखबार तथा 1936 से 45 तक ‘फूलछाब’ अखबार के संपादक रहे। उनके गुजरात नो जय, रोढियाली रात तथा
सौराष्ट्रनी रसधार काव्य बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्होंने बंगला साहित्य का अनुवाद भी
किया। उनके सैकड़ों लेख, नाटक, कहानी, निबंध तथा उपन्यास आदि प्रकाशित हुए हैं।
झवेरभाई ने अंग्रेजी तथा
संस्कृत में स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की थी। 26 वर्ष में उनका
विवाह दमयंती बेन से हुआ। उन्होंने तीन साल इंग्लैंड में भी नौकरी की; पर देशप्रेम उन्हें वापस खींच लाया। कुछ समय उन्होंने कोलकाता में भी नौकरी
की। वहीं उनका बंगला साहित्य से संपर्क हुआ। 50 वर्ष की आयु में
नौ मार्च, 1947 को सौराष्ट्र के बोटाद में हृदयाघात से उनका देहांत हुआ। 1999 में उन पर तीन रु. का डाक टिकट जारी किया गया है।
(विकी, न्यू इंडिया समाचार 16.8.22, दै.जा.13.12.21/राजेन्द्र निगम)
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28 अगस्त/जन्म-दिवस
प्रथम प्रचारक : बाबासाहब आप्टे
28 अगस्त, 1903 को यवतमाल, महाराष्ट्र के एक निर्धन परिवार में जन्मे उमाकान्त केशव आप्टे का प्रारम्भिक जीवन बड़ी कठिनाइयों में बीता। 16 वर्ष की छोटी अवस्था में पिता का देहान्त होने से परिवार की सारी जिम्मेदारी इन पर ही आ गयी।
इन्हें पुस्तक पढ़ने का बहुत शौक था। आठ वर्ष की अवस्था में इनके मामा ‘ईसप की कथाएँ’ नामक पुस्तक लेकर आये। उमाकान्त देर रात तक उसे पढ़ता रहा। केवल चार घण्टे सोकर उसने फिर पढ़ना शुरू कर दिया। मामा जी अगले दिन वापस जाने वाले थे। अतः उमाकान्त खाना-पीना भूलकर पढ़ने में लगे रहे। खाने के लिए माँ के बुलाने पर भी वह नहीं आया, तो पिताजी छड़ी लेकर आ गये। इस पर उमाकान्त अपनी पीठ उघाड़कर बैठ गया। बोला - आप चाहे जितना मार लें; पर इसेे पढ़े बिना मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा। उसके हठ के सामने सबको झुकना पड़ा।
छात्र जीवन में वे लोकमान्य तिलक से बहुत प्रभावित थे। एक बार तिलक जी रेल से उधर से गुजरने वाले थे। प्रधानाचार्य नहीं चाहते थे कि विद्यार्थी उनके दर्शन करने जाएँ। अतः उन्होंने फाटक बन्द करा दिया। विद्यालय का समय समाप्त होने पर उमाकान्त ने जाना चाहा; पर अध्यापक ने जाने नहीं दिया। जिद करने पर अध्यापक ने छड़ी से उनकी पिटाई कर दी।
इसी बीच रेल चली गयी। अब अध्यापक ने सबको छोड़ दिया। उमाकान्त ने गुस्से में कहा कि आपने भले ही मुझे नहीं जाने दिया; पर मैंने मन ही मन तिलक जी के दर्शन कर लिये हैं और उनके आदेशानुसार अपना पूरा जीवन देश को अर्पित करने का निश्चय भी कर लिया है। अध्यापक अपना सिर पीटकर रह गये।
मैट्रिक करने के बाद घर की स्थिति को देखकर उन्होंने कुछ समय धामण गाँव में अध्यापन कार्य किया; पर पढ़ाते समय वे हर घटना को राष्ट्रवादी पुट देते रहते थे। एक बार उन्होंने विद्यालय में तिलक जयन्ती मनाई। इससे प्रधानाचार्य बहुत नाराज हुए। इस पर आप्टे जी ने त्यागपत्र दे दिया तथा नागपुर आकर एक प्रेस में काम करने लगे। इसी समय उनका परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार से हुआ। बस फिर क्या था, आप्टे जी क्रमशः संघ के लिए समर्पित होते चले गये।
पुस्तकों के प्रति उनकी लगन के कारण डा. हेडगेवार उन्हें ‘अक्षर शत्रु’ कहते थे। आप्टे जी ने हाथ से लिखकर दासबोध तथा टाइप कर वीर सावरकर की प्रतिबन्धित पुस्तक ‘सन 1857 का स्वाधीनता संग्राम’ अनेक नवयुवकों को पढ़ने को उपलब्ध करायीं। उन्होंने अनेक स्थानों पर नौकरी की; पर नौकरी के अतिरिक्त शेष समय वे संघ कार्य में लगाते थे।
संघ कार्य के लिए अब उन्हें नागपुर से बाहर भी प्रवास करना पड़ता था। अतः उन्होंने नौकरी छोड़ दी और पूरा समय संघ के लिए लगाने लगे। इस प्रकार वे संघ के प्रथम प्रचारक बने। आगे चलकर डा0 जी उन्हें देश के अन्य भागों में भी भेजने लगे। इस प्रकार वे संघ के अघोषित प्रचार प्रमुख हो गये।
उनकी अध्ययनशीलता, परिश्रम, स्वाभाविक प्रौढ़ता तथा बातचीत की निराली शैली के कारण डा. जी ने उन्हें ‘बाबासाहब’ नाम दिया था। दशावतार जैसी प्राचीन कथाओं को आधुनिक सन्दर्भों में सुनाने की उनकी शैली अद्भुत थी। संघ में अनेक दायित्वों को निभाते हुए बाबासाहब आप्टे 26 जुलाई, 1972 (गुरुपूर्णिमा) को दिवंगत हो गये।
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28 अगस्त/जन्म-दिवस
सादगी और गोसेवा के प्रतिरूप
श्रीधर हनुमंत आचार्य
विश्व हिन्दू परिषद में कार्यरत वरिष्ठ प्रचारक श्रीधर हनुमंत आचार्य का जन्म रक्षाबंधन 28 अगस्त, 1928 को उडुपी (कर्नाटक) में हुआ था। 1946 में उनकी संघ यात्रा प्रारम्भ हुई, जो जीवन की अंतिम सांस तक चलती रही।
प्रभात और सायं शाखा के मुख्यशिक्षक रहने के बाद वे अलीबाग, चोपड़ा, धनुपाली गांव आदि में विस्तारक रहे। विज्ञान और कानून में स्नातक श्रीधर जी ने श्री दामोदाते की प्रेरणा से 1950 में अपना जीवन संघ कार्य हेतु समर्पित कर दिया। उस समय वे दस कार्यकर्ताओं के साथ नागपुर आये थे।
उन्हें सर्वप्रथम उड़ीसा में बालांगीर जिले का काम मिला। बाबूराव पालधीकर वहां प्रांत प्रचारक थे। उन दिनों संघ के पास साधन के नाम पर कुछ नहीं था। किसी तरह उन्होंने 12 रु. महीने पर एक कमरा लिया। उड़ीसा में महाराष्ट्र के लोगों को वर्गी (लुटेरा) माना जाता था। पुलिस का व्यवहार भी ठीक नहीं था। थाने में हर दिन हाजिरी देनी पड़ती थी। एक दिन कमरे का ताला तोड़कर सब सामान चुरा लिया गया। फिर भी वे लोगों से सम्पर्क करते रहे।
1951 में उनके प्रयास सफल हुए और एक मंदिर में शाखा लगने लगी। लाठी सिखाने के कारण लोग उन्हें ‘बॉडी मास्टर’ कहते थे। क्रमशः उन पर जिला और विभाग प्रचारक के नाते कालाहांडी और कोरापुट का काम भी रहा। साधनों के अभाव में अधिकांश प्रवास पैदल या साइकिल से ही होता था। उन्होंने क्रमशः 1949, 50 तथा 55 में तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण लिया।
1965 में वे उड़ीसा में जनसंघ के प्रांत संगठन मंत्री बने। आपातकाल में वे ‘मीसा’ बन्दी के नाते कटक जेल में रहे। वे 1977 में संबलपुर विभाग प्रचारक तथा 1980 में ‘संस्कृति रक्षा योजना’ के प्रांत संयोजक बने। संस्कृत के प्रति रुचि देखकर 1984 में उन्हें ‘संस्कृत प्रशिक्षण वर्ग’ लगाने का तथा फिर 1986 में वाराणसी में ‘विश्व संस्कृत प्रतिष्ठानम्’ का कार्य मिला। 1990 में उन्हें लखनऊ में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा संचालित सत्संगों की देखभाल के लिए भेजा गया। 1993 में वे वि.हि.प. के मुख्यालय (संकटमोचन आश्रम) में आ गये तथा प्रकाशन संबंधी न्यास के मंत्री बनाये गये।
दिल्ली रहते हुए श्रीधर जी नागपुर गोशाला में निर्मित दवाएं मंगाकर बेचते थे। इसी दौरान वे ग्राहक को संघ विचार भी ठीक से समझा देते थे। आश्रम की गोशाला से एकत्र गोमूत्र तथा कंडे वे निःशुल्क बांटते थे। वे पत्र, पत्रिका तथा निमंत्रण पत्र आदि की रद्दी को बेचकर वह राशि गोसेवा में लगा देते थे। वे सड़क पर घूमते समय कांच और प्लास्टिक की बोतलें भी उठा लाते थे। लोग उन्हें ‘रद्दी का राजा’ कहकर हंसते थे; पर उन्होंने कभी इसकी चिन्ता नहीं की। आश्रम के निकटवर्ती साप्ताहिक बाजार में वे पत्रक आदि बांटते रहते थे। आश्रम में तैनात सरकारी सुरक्षाकर्मी भी उनका बहुत आदर करते थे।
श्रीधर जी का अध्ययन बहुत गहरा था। वे हिन्दी, मराठी, कन्नड़, अंग्रेजी, संस्कृत, बंगला, ओडिया आदि कई भाषाएं जानते थे। आश्रम में कई राज्यों से पत्र-पत्रिकाएं आती हैं। उनमें से काम की चीज निकालकर वे संबंधित कार्यकर्ता को दे देते थे।
उनका जीवन बहुत सादा था। वे प्रायः साबुन, तेल आदि भी प्रयोग नहीं करते थे। अपने बाल भी वे खुद ही काट लेते थे। गर्मी में वे आधी धोती पहनते और आधी ओढ़ लेते थे। ऐसे में किसी भी अव्यवस्था तथा फिजूलखर्ची से वे विचलित हो जाते थे। कुछ वर्ष से वे मधुमेह तथा उच्च रक्तचाप आदि से पीड़ित थे। कभी-कभी तो वे मस्तिष्क से नियंत्रण ही खो बैठते थे।
28 फरवरी, 2015 को संकटमोचन आश्रम में ही उनका निधन हुआ। एक सप्ताह पूर्व से उन्होंने अन्न-जल लेना छोड़ दिया था। उन्होंने कई वर्ष पूर्व ‘दधीचि देहदान समिति’ का संकल्प पत्र भरा था। अतः निधन के बाद उनके नेत्र और फिर पूरी देह 'अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान' को दे दी गयी।
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29 अगस्त/जन्म-दिवस
हॉकी के जादूगर : ध्यानचन्द
कोई समय था, जब भारतीय हॉकी का पूरे विश्व में दबदबा था। उसका श्रेय जिन्हें जाता है, उन मेजर ध्यानचन्द का जन्म प्रयाग, उत्तर प्रदेश में 29 अगस्त, 1905 को हुआ था। उनके पिता सेना में सूबेदार थे। उन्होंने 16 साल की अवस्था में ध्यानचन्द को भी सेना में भर्ती करा दिया। वहाँ वे कुश्ती में बहुत रुचि लेते थे; पर सूबेदार मेजर बाले तिवारी ने उन्हें हॉकी के लिए प्रेरित किया। इसके बाद तो वे और हॉकी एक दूसरे के पर्याय बन गये।
वे कुछ दिन बाद ही अपनी रेजिमेण्ट की टीम में चुन लिये गये। उनका मूल नाम ध्यानसिंह था; पर वे प्रायः चाँदनी रात में अकेले घण्टों तक हॉकी का अभ्यास करते रहते थे। इससे उनके साथी तथा सेना के अधिकारी उन्हें ‘चाँद’ कहने लगे। फिर तो यह उनके नाम के साथ ऐसा जुड़ा कि वे ध्यानसिंह से ध्यानचन्द हो गये। आगे चलकर वे ‘दद्दा’ ध्यानचन्द कहलाने लगे।
चार साल तक ध्यानचन्द अपनी रेजिमेण्ट की टीम में रहे। 1926 में वे सेना एकादश और फिर राष्ट्रीय टीम में चुन लिये गये। इसी साल भारतीय टीम ने न्यूजीलैण्ड का दौरा किया। इस दौरे में पूरे विश्व ने उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखा। गेंद उनके पास आने के बाद फिर किसी अन्य खिलाड़ी तक नहीं जा पाती थी। कई बार उनकी हॉकी की जाँच की गयी, कि उसमें गोंद तो नहीं लगी है। अनेक बार खेल के बीच में उनकी हॉकी बदली गयी; पर वे तो अभ्यास के धनी थे। वे उल्टी हॉकी से भी उसी कुशलता से खेल लेते थे। इसीलिए उन्हें लोग हॉकी का जादूगर’ कहते थे।
भारत ने सर्वप्रथम 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक में भाग लिया। ध्यानचन्द भी इस दल में थे। इससे पूर्व इंग्लैण्ड ही हॉकी का स्वर्ण जीतता था; पर इस बार भारत से हारने के भय से उसने हॉकी प्रतियोगिता में भाग ही नहीं लिया। भारत ने इसमें स्वर्ण पदक जीता। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के समय उन्हें भारतीय दल का कप्तान बनाया गया। इसमें भी भारत ने स्वर्ण जीता। इसके बाद 1948 के ओलम्पिक में भारतीय दल ने कुल 29 गोल किये थे। इनमें से 15 अकेले ध्यानचन्द के ही थे। इन तीन ओलम्पिक में उन्होंने 12 मैचों में 38 गोल किये।
1936 के बर्लिन ओलम्पिक के तैयारी खेलों में जर्मनी ने भारत को 4-1 से हरा दिया था। फाइनल के समय फिर से दोनों टीमों की भिड़न्त हुई। प्रथम भाग में दोनों टीम 1-1 से बराबरी पर थीं। मध्यान्तर में ध्यानचन्द ने सब खिलाड़ियों को तिरंगा झण्डा दिखाकर प्रेरित किया। इससे सबमें जोश भर गया और उन्होंने धड़ाधड़ सात गोल कर डाले। इस प्रकार भारत 8-1 से विजयी हुआ। उस दिन 15 अगस्त था। कौन जानता था कि 11 साल बाद इसी दिन भारतीय तिरंगा पूरी शान से देश भर में फहरा उठेगा।
1926 से 1948 तक ध्यानचन्द दुनिया में जहाँ भी हॉकी खेलने गये, वहाँ दर्शक उनकी कलाइयों का चमत्कार देखने के लिए उमड़ आते थे। आस्ट्रिया की राजधानी वियना के एक स्टेडियम में उनकी प्रतिमा ही स्थापित कर दी गयी। 42 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय हॉकी से संन्यास ले लिया। कुछ समय वे राष्ट्रीय खेल संस्थान में हॉकी के प्रशिक्षक भी रहे।
भारत के इस महान सपूत को शासन ने 1956 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। 3 दिसम्बर, 1979 को उनका देहान्त हुआ। उनका जन्मदिवस 29 अगस्त भारत में ‘खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
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30 अगस्त/जन्म-दिवस
परिश्रम के अवतार ओमप्रकाशजी
उ.प्र. में संघ विचार के हर काम को मजबूत करने वाले श्री ओमप्रकाशजी का जन्म 30 अगस्त, 1927 को पलवल (हरियाणा) में श्री कन्हैयालालजी तथा श्रीमती गेंदी देवी के घर में हुआ था। उनकी पढ़ाई मुख्यतः मथुरा में हुई। जिला प्रचारक श्री कृष्णचंद्र गांधी के संपर्क में आकर 1944 में वे स्वयंसेवक बने।
1945, 46 और 47 में तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग तथा पढ़ाई पूर्ण कर 1947 में अलीगढ़ के अतरौली से उनका प्रचारक जीवन प्रारम्भ हुआ। क्रमशः वे मथुरा नगर (1952), मथुरा जिला (1953-57), बिजनौर जिला (1957-67), बरेली जिला (1967-69) और फिर बरेली विभाग प्रचारक रहे। उन दिनों उत्तराखंड का कुमाऊं क्षेत्र बरेली विभाग में ही था। 1948 के प्रतिबंध काल में वे अलीगढ़ जेल में रहे। बिजनौर में पूरे जिले का प्रवास वे साइकिल से ही करते थे। उन्होंने साइकिल के हैंडल पर रखकर किताब पढ़ने का अभ्यास भी कर लिया था। चाय और प्याज-लहसुन का उन्होंने कभी सेवन नहीं किया। वे होम्योपैथी तथा आयुर्वेदिक दवाएं ही प्रयोग करते थे।
आपातकाल के दौरान वे बरेली और मुरादाबाद के विभाग प्रचारक थे। वहीं रामपुर जिले के शाहबाद में पुलिस ने उन्हें तत्कालीन प्रांत प्रचारक माधवराव देवड़े के साथ गिरफ्तार कर लिया। फिर पूरे आपातकाल वे मीसा के अंतर्गत रामपुर जेल में ही रहे। आपातकाल के बाद 1978 में वे पश्चिमी उ.प्र. के प्रांत प्रचारक बनाये गये। 1989 में वे सहक्षेत्र प्रचारक तथा 1994 में क्षेत्र प्रचारक बने। 2004 में उन्हें अखिल भारतीय सहसेवा प्रमुख और 2006 में केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य की जिम्मेदारी मिली।
ओमप्रकाशजी परिश्रम के अवतार थे। सुबह चार बजे के बाद और रात को 11 बजे से पहले वे कभी सोते नहीं थे। दोपहर में भी वे कभी विश्राम नहीं करते थे। वे कहते थे कि प्रचारक की सबसे बड़ी विशेषता उसकी हर समय उपलब्धता है। अपने भारी थैले के साथ वे सदा प्रवास में रहते थे। लोग हंसी में कहते थे, ‘‘रात में यात्रा दिन में काम, ओमप्रकाशजी को नहीं आराम।’’ बिना डायरी के ही सैकड़ों फोन नंबर उन्हें याद रहते थे। प्रचारक हो या गृहस्थ कार्यकर्ता, वे सबकी पूरी चिंता करते थे। उनके साथ रहे कई प्रचारक आज संघ तथा समविचारी संगठनों में राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे हैं।
गोवंश के प्रति उनकी भक्ति अनुपम थी। दिल्ली में उन्हें ‘गोऋषि’ की उपाधि दी गयी थी। वे कहते थे कि दूध के अलावा बाकी चीजें भी जब आर्थिक रूप से लाभकारी होंगी, तभी लोग बूढ़ी गायों को घर पर रखेंगे। उन्होंने गोबर और गोमूत्र से मनुष्य, पशु और खेती के उपयोगी कई उत्पाद बनवाये तथा इनके उद्योग भी लगवाये। दिल्ली में आई.आई.टी के वैज्ञानिकों को भी इसमें लगाया। छत्तीसगढ़ शासन के सहयोग से भी इस दिशा में कई सफल प्रयोग किये।
चुनावों में वे फोन पर 24 घंटे उपलब्ध रहकर राज्य की हर विधानसभा और लोकसभा सीट की चिंता करते थे। इसी से आज उ.प्र. भारतीय जनता पार्टी का गढ़ बन सका है। राममंदिर आंदोलन में सभी योजनाओं की पृष्ठभूमि में रहकर हर तनाव और दबाव को उन्होेंने झेला। लखनऊ में विश्व संवाद केन्द्र और माधव सेवाश्रम तथा मथुरा में दीनदयालजी के पैतृक गांव नगला चंद्रभान में हुए निर्माण में उनकी भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी।
भावुक प्रवृत्ति के ओमप्रकाशजी निराशा और हताशा से सदा दूर रहे। उन्होंने उ.प्र. में पूर्व सैनिक सेवा परिषद, अधिवक्ता परिषद, शैक्षिक महासंघ, विश्व आयुर्वेद परिषद, आरोग्य भारती, प्रकृति भारती आदि कई संगठन बनाये, जो अब अखिल भारतीय बन चुके हैं। 2003 में लखनऊ कार्यालय में सीढि़यों से गिरकर उनके सिर में गंभीर चोट आ गयी; पर ठीक होकर वे फिर काम में लग गये। फेफड़े एवं हृदय में संक्रमण के कारण चार अगस्त, 2019 को लखनऊ में ही उनका निधन हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी देह छात्रों के अनुसंधान के लिए लखनऊ के मैडिकल काॅलिज को दे दी गयी।
(संदर्भ : व्यक्तिगत वार्ता एवं वि.सं.केन्द्र, लखनऊ)
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30 अगस्त/पुण्य-तिथि
तरुण तपस्वी रामानुज दयाल
उ.प्र. में गाजियाबाद के पास पिलखुवा नगर वस्त्र-निर्माण के लिए प्रसिद्ध है। यहीं के एक प्रतिष्ठित व्यापारी व निष्ठावान स्वयंसेवक श्री रामगोपाल तथा कौशल्या देवी के घर में 1943 में जन्मे रामानुज दयाल ने अपना जीवन संघ को अर्पित किया; पर काल ने अल्पायु में ही उन्हें उठा लिया।
1948 में संघ पर प्रतिबंध लगा, तो पिलखुवा के पहले सत्याग्रही दल का नेतृत्व रामगोपाल जी ने किया। रामानुज पर इसका इतना प्रभाव पड़ा कि उनके लौट आने तक वह हर शाम मुहल्ले के बच्चों को लेकर खेलता और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगवाता।
पिलखुवा में हुए गोरक्षा सम्मेलन में संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी व लाला हरदेव सहाय के सामने उसने मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘दांतों तले तृण दाबकर...’ पढ़कर प्रशंसा पायी। 1953 में भारतीय जनसंघ ने जम्मू-कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए आंदोलन किया, तो कौशल्या देवी महिला दल के साथ सत्याग्रह कर जेल गयीं। रामानुज जनसंघ का झंडा लेकर नगर में निकले जुलूस के आगे-आगे चला।
शाखा में सक्रिय होने के कारण वे अपने साथ स्वयंसेवकों की पढ़ाई की भी चिन्ता करते थे। ग्रीष्मावकाश में प्रायः हर साल वे विस्तारक बनकर जाते थे। सरधना, बड़ौत, दोघट आदि में उन्होंने शाखा कार्य किया। संस्कृत में रुचि के कारण बी.ए. में उन्होंने पिलखुवा से 10 कि.मी. दूर धौलाना के डिग्री कॉलेज में प्रवेश लिया। वहां छात्रों से खूब संपर्क होता था। इससे ग्रामीण क्षेत्र में शाखाओं का विस्तार हुआ। मेरठ के विभाग प्रचारक कौशल किशोर जी तथा उ.प्र. के प्रांत प्रचारक रज्जू भैया का उन पर विशेष प्रभाव था।
शाखा के साथ ही अन्य सामाजिक कार्यों में भी वे आगे रहते थे। एक बार एक कसाई गोमांस ले जा रहा था। पता लगते ही उन्होंने गोमांस छुड़ाकर कसाई को इतना मारा कि उसने फिर कभी गोहत्या न करने की शपथ ली। एक बार उन्हें पता लगा कि ग्रामीण क्षेत्र में एक पादरी धर्मान्तरण का प्रयास कर रहा है। वे अपने मित्रों तथा छोटी बहिन सरस्वती के साथ वहां गये और इस षड्यंत्र को विफल कर दिया।
पिलखुवा में हो रहे भारत-सोवियत सांस्कृतिक मैत्री संघ के समारोह में तिरंगा झंडा उल्टा टंगा देख वे आयोजक से ही भिड़ गये। हिन्दी को सम्मान दिलाने के लिए हुए हस्ताक्षर अभियान में भी वे सक्रिय रहे। दुर्गाष्टमी की शोभायात्रा में अश्लील नाच का उन्होंने विरोध किया। सत्साहित्य में रुचि के कारण लखनऊ से प्रकाशित हो रहे राष्ट्रधर्म मासिक तथा पांचजन्य साप्ताहिक के लिए उन्होंने कई ग्राहक बनाये। कुछ धन भी संग्रह कर वहां भेजा।
1965 में तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण कर प्रचारक बनने पर उन्हें मुजफ्फरनगर की कैराना तहसील में भेजा गया। उनके परिश्रम से सब ओर शाखाएं लहलहाने लगीं। उन्होंने कैराना में विवेकानंद पुस्तकालय की स्थापना कर उसके उद्घाटन पर वीर रस कवि सम्मेलन करवाया। पिलखुवा में जब उनके बड़े भाई परमानंद जी ने स्कूटर खरीदा, तो उन्होंने पिताजी से कहकर अपने लिए भी एक छोटा वाहन (विक्की) खरीद लिया। वे खूब प्रवास कर कैराना तहसील के हर गांव में शाखा खोलना चाहते थे; पर विधि का विधान किसे पता था ?
30 अगस्त 1966 को रक्षाबंधन पर्व था। रामानुज जी अपनी विक्की पर बनत से शामली आ रहे थे कि सामने से आते हुए तांगे से टकरा गये। उनके सीने पर गहरी चोट आयी। लोगों ने एक बस में लिटाकर उन्हें शामली पहुंचाया; पर तब तक उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। इस प्रकार एक तरुण तपस्वी असमय काल कवलित हो गया। पिलखुवा में उनके परिजनों ने उनकी स्मृति में रामानुज दयाल सरस्वती शिशु मंदिर का निर्माण किया है।
(संदर्भ : तरुण तपस्वी, लेखक परमानंद मित्तल)
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31 अगस्त/जन्म-दिवस
वात्सल्य की प्रतिमूर्ति उषाताई चाटी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से नारी वर्ग में राष्ट्र सेविका समिति नामक संगठन चलता है। इसकी तीसरी प्रमुख संचालिका वंदनीया उषाताई चाटी का जन्म भंडारा (महाराष्ट्र) के फणसे परिवार में 31 अगस्त, 1927 (गणेश चतुर्थी) को हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा भंडारा के मनरो हाई स्कूल में हुई। वहां श्रीमती नानी कोलते समिति की शाखा लगाती थीं। उसी में उषाजी ने जाना प्रारम्भ किया। मधुर कंठ की धनी उषाजी धीरे-धीरे समिति से एकाकार हो गयीं। इसी दौरान उन्होंने बी.ए और बी.टी. की डिग्री भी प्राप्त की।
1948 में उनका विवाह नागपुर में एक स्वयंसेवक श्री गुणवंत चाटी (बाबा) से हुआ। उषाजी ने भंडारा की जकातदार कन्याशाला में और विवाह के बाद नागपुर की हिन्दू मुलींची शाला में पढ़ाया। भूगोल और मराठी उनके प्रिय विषय थे। छात्राओं के विकास एवं उन्हें अच्छा वक्ता बनाने के लिए उन्होंने ‘वाग्मिता विकास समिति’ बनायी, जिसकी 30 साल तक वे अध्यक्ष रहीं। श्री गुणवंत चाटी 1948 में संघ के प्रतिबंध काल में सत्याग्रह कर जेल गये थे। उषाजी कुछ समय पूर्व ही घर में सबसे बड़ी बहू बनकर आयी थीं। उस कठिन परिस्थिति में धैर्यपूर्वक उन्होंने पूरे परिवार को संभाला।
सामाजिक कामों में रुचि होने के चलते परिवार और अध्यापन में संतुलन बनाते हुए वे क्रमशः समिति में सक्रिय होने लगीं। पहले उन्हें नागपुर नगर कार्यवाह और फिर विदर्भ प्रांत कार्यवाह का काम दिया गया। इससे उनका प्रवास का क्रम प्रारम्भ हो गया। अब वे सबके लिए उषाताई हो गयीं। उनका कंठ बहुत मधुर था। वे आकाशवाणी नागपुर से कार्यक्रम भी देती थीं। 1970 में समिति में उन्हें अखिल भारतीय गीत प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी। 1975 में देश में आपातकाल लगने पर उषाताई ने सत्याग्रह कर इसका विरोध किया। अतः उन्हें जेल में भी रहना पड़ा। उन्होंने अपने प्रेमपूर्ण व्यवहार से वहां बंदी महिलाओं को धैर्य बंधाया और कष्ट सहने की मानसिकता निर्माण की।
आपातकाल के बाद 1977 में उन्हें उ.प्र. जैसे बड़े राज्य में संगठन विस्तार पर ध्यान देने को कहा गया। सब कामों में सामंजस्य बैठाते हुए उन्होंने कई बार उ.प्र. का सघन प्रवास किया। 1982 में पति के निधन के बाद उन्होंने पूरा समय समिति के काम में ही लगा दिया। वे घर की बजाय अब समिति के कार्यालय (अहल्या मंदिर) में ही रहने लगीं। वहां वनवासी बालिकाओं का एक छात्रावास भी चलता है। उन दिनों ताई आप्टे राष्ट्र सेविका समिति की प्रमुख संचालिका थीं। उन्होंने उषाताई को समिति में सह प्रमुख संचालिका की जिम्मेदारी दी। 1991 से वे विश्व हिन्दू परिषद की केन्द्रीय बैठकों में भी जाती थीं। 1994 में ताई आप्टे के निधन के बाद वे समिति की प्रमुख संचालिका बनीं।
2005 में नागपुर के पास खापरी में उनके नेतृत्व में दस हजार सेविकाओं का एक भव्य कार्यक्रम हुआ। प्रवास के दौरान समस्याग्रस्त क्षेत्रों में कई बार पुलिस की गाड़ी या सेना के ट्रक पर भी उन्हें यात्रा करनी पड़ी; पर उन्होंने कभी इसकी चिंता नहीं की। वृद्धावस्था में उन्हें कई रोगों ने घेर लिया। इनमें घुटने का दर्द विशेष था। फिर भी उन्होंने अपना प्रवास कभी स्थगित नहीं किया। अपनी सहयोगी एवं युवा कार्यकर्ताओं पर उन्हें बहुत विश्वास था। वे खुलकर उनकी प्रशंसा करती थीं तथा बहुत सहजता से उन्हें काम सौंप देती थीं। वे सब भी पूरी ताकत लगाकर उसे पूरा करती थीं। सेविकाओं के आग्रह पर वृद्धावस्था में भी वे गीत गाने में संकोच नहीं करती थीं।
उषाताई को देश की अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया। कई पुरस्कारों के साथ कुछ धनराशि भी मिलती थी। वह सारी राशि वे ‘संघमित्रा सेवा संस्थान’ को दे देती थीं। 17 अगस्त, 2017 को त्याग, प्रेम और समर्पण की प्रतिमूर्ति वंदनीय उषाताई चाटी का निधन समिति के नागपुर कार्यालय में ही हुआ।
(शाश्वत राष्ट्रबोध एवं हिन्दी विवेक सितम्बर 2017)
31 अगस्त/प्रेरक-प्रसंग
देशद्रोही का वध
स्वाधीनता प्राप्ति के प्रयत्न में लगे क्रांतिकारियों को जहां एक ओर अंग्रेजों ने लड़ना पड़ता था, वहां कभी-कभी उन्हें देशद्रोही भारतीय, यहां तक कि अपने गद्दार साथियों को भी दंड देना पड़ता था।
बंगाल के प्रसिद्ध अलीपुर बम कांड में कन्हाईलाल दत्त, सत्येन्द्रनाथ बोस तथा नरेन्द्र गोस्वामी गिरफ्तार हुए थे। अन्य भी कई लोग इस कांड में शामिल थे, जो फरार हो गयेे। पुलिस ने इन तीन में से एक नरेन्द्र को मुखबिर बना लिया। उसने कई साथियों के पते-ठिकाने बता दिये। इस चक्कर में कई निरपराध लोग भी पकड़ लिये गये। अतः कन्हाई और सत्येन्द्र ने उसे सजा देने का निश्चय किया और एक पिस्तौल जेल में मंगवा ली।
सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस ने नरेन्द्र गोस्वामी को जेल में सामान्य वार्ड की बजाय एक सुविधाजनक यूरोपीय वार्ड में रख दिया था। एक दिन कन्हाई बीमारी का बहाना बनाकर अस्पताल पहुंच गया। कुछ दिन बाद सत्येन्द्र भी पेट दर्द के नाम पर वहां आ गया। अस्पताल उस यूरोपीय वार्ड के पास था, जहां नरेन्द्र रह रहा था। एक-दो दिन बाद सत्येन्द्र ने ऐसा प्रदर्शित किया, मानो वह इस जीवन से तंग आकर मुखबिर बनना चाहता है। उसने नरेन्द्र से मिलने की इच्छा भी व्यक्त की। यह सुनकर नरेन्द्र को बहुत प्रसन्नता हुई।
31 अगस्त, 1908 को नरेन्द्र जेल के एक अधिकारी हिंगिस के साथ उससे मिलने अस्पताल चला गया। सत्येन्द्र अस्पताल की पहली मंजिल पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। वहां कन्हाई को देखकर एक बार नरेन्द्र को शक हुआ; पर फिर वह सत्येन्द्र के संकेत पर हिंगिस को पीछे छोड़कर उनसे एकांत वार्ता करने के लिए कमरे से बाहर बरामदे में आ गया।
कन्हाई और सत्येन्द्र तो इस अवसर की प्रतीक्षा में ही थे। मौका देखकर कन्हाई ने नरेन्द्र गोस्वामी पर गोली दाग दी। वह चिल्लाते हुए नीचे की ओर भागा। इस पर सत्येन्द्र ने उसे पकड़ लिया। गोली की आवाज सुनकर हिंगिस और एक अन्य जेल अधिकारी लिंटन आ गये। लिंटन ने सत्येन्द्र को गिराकर कन्हाई को जकड़ लिया। इस पर कन्हाई ने पिस्तौल की नाल उसके सिर में दे मारी। इस हाथापाई में कई गोलियां व्यर्थ हो गयीं। अब केवल एक गोली शेष थी। कन्हाई ने झटके से स्वयं को छुड़ाकर बची हुई गोली नरेन्द्र पर दाग दी। इस बार निशाना ठीक लगा और देशद्रोही धरती पर लुढ़क गया।
दोनों ने अपना उद्देश्य पूरा होने पर समर्पण कर दिया। मुकदमे में कन्हाई ने अपना अपराध स्वीकार कर किसी वकील की सहायता लेने से मना कर दिया। अतः उसे फांसी की सजा सुनाई गयी। न्यायालय ने सत्येन्द्र को फांसी योग्य अपराधी नहीं माना। शासन ने इसकी अपील ऊपर के न्यायालय में की। वहां से सत्येन्द्र के लिए भी फांसी की सजा घोषित कर दी गयी।
अलीपुर केन्द्रीय कारागार में 10 नवम्बर, 1908 को कन्हाई को फांसी दी गयी। वह इतना मस्त था कि फांसी वाले दिन तक उसका भार 16 पौंड बढ़ गया। फांसी वाली रात वह इतनी गहरी नींद में सोया कि उसे आवाज देकर जगाना पड़ा। उसके शव की विशाल शोभायात्रा निकालकर चंदन के ढेर पर उसका दाह संस्कार किया गया। अंत्यक्रिया पूरी होने तक हजारों लोग वहां डटे रहे। चिता शांत होने पर लोगों ने भस्म से तिलक किया। सैकड़ों लोगों ने भस्म के ताबीज बच्चों के हाथ पर बांधे। हजारों ने उसे पूजागृह में रख लिया।
21 नवम्बर, 1908 को सत्येन्द्र को भी फांसी दे दी गयी। कन्हाई की शवयात्रा से घबराये शासन ने उसका शव परिवार वालों को न देकर जेल में ही उसका दाह संस्कार कर दिया।
(संदर्भ : क्रांतिकोश भाग एक)
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