16 जून/बलिदान-दिवस
नलिनीकान्त बागची का बलिदान
भारतीय स्वतन्त्रता के इतिहास
में यद्यपि क्रान्तिकारियों की चर्चा कम ही हुई है; पर सच यह है कि उनका
योगदान अहिंसक आन्दोलन से बहुत अधिक था। बंगाल क्रान्तिकारियों का गढ़ था। इसी से
घबराकर अंग्रेजों ने राजधानी कोलकाता से हटाकर दिल्ली में स्थापित की थी। इन्हीं
क्रान्तिकारियों में एक थे नलिनीकान्त बागची, जो सदा अपनी जान हथेली पर
लिये रहते थे।
एक बार बागची अपने साथियों के
साथ गुवाहाटी के एक मकान में रह रहे थे। सब लोग सारी रात बारी-बारी जागते थे; क्योंकि पुलिस उनके पीछे पड़ी थी। एक बार रात में पुलिस ने मकान को घेर लिया।
जो क्रान्तिकारी जाग रहा था, उसने सबको जगाकर सावधान
कर दिया। सबने निश्चय किया कि पुलिस के मोर्चा सँभालने से पहले ही उन पर हमला कर
दिया जाये।
निश्चय करते ही सब गोलीवर्षा
करते हुए पुलिस पर टूट पड़े। इससे पुलिस वाले हक्के बक्के रह गये। वे अपनी जान
बचाने के लिए छिपने लगे। इसका लाभ उठाकर क्रान्तिकारी वहाँ से भाग गये और जंगल में
जा पहुँचे। वहाँ भूखे प्यासे कई दिन तक वे छिपे रहे; पर पुलिस उनके पीछा करती
रही। जैसे तैसे तीन दिन बाद उन्होंने भोजन का प्रबन्ध किया। वे भोजन करने बैठे ही
थे कि पहले से बहुत अधिक संख्या में पुलिस बल ने उन्हें घेर लिया।
वे समझ गये कि भोजन आज भी उनके
भाग्य में नहीं है। अतः सब भोजन को छोड़कर फिर भागे; पर पुलिस इस बार अधिक
तैयारी से थी। अतः मुठभेड़ चालू हो गयी। तीन क्रान्तिकारी वहीं मारे गये। तीन बच
कर भाग निकले। उनमें नलिनीकान्त बागची भी थे। भूख के मारे उनकी हालत खराब थी। फिर
भी वे तीन दिन तक जंगल में ही भागते रहे। इस दौरान एक जंगली कीड़ा उनके शरीर से
चिपक गया। उसका जहर भी उनके शरीर में फैलने लगा। फिर भी वे किसी तरह हावड़ा पहुँच
गये।
हावड़ा स्टेशन के बाहर एक पेड़
के नीचे वे बेहोश होकर गिर पड़े। सौभाग्यवश नलिनीकान्त का एक पुराना मित्र उधर से
निकल रहा था। वह उन्हें उठाकर अपने घर ले गया। उसने मट्ठे में हल्दी मिलाकर पूरे
शरीर पर लेप किया और कई दिन तक भरपूर मात्रा में मट्ठा उसे पिलाया। इससे कुछ दिन
में नलिनी ठीक हो गये। ठीक होने पर नलिनी मित्र से विदा लेकर कुछ समय अपना हुलिया
बदलकर बिहार में छिपे रहे; पर चुप बैठना उनके स्वभाव में नहीं थी। अतः वे अपने
साथी तारिणी प्रसन्न मजूमदार के पास ढाका आ गये।
लेकिन पुलिस तो उनके पीछे पड़ी
ही थी। 15 जून को पुलिस ने उस मकान को भी
घेर लिया, जहाँ से वे अपनी गतिविधियाँ चला रहे थे। उस समय तीन
क्रान्तिकारी वहाँ थे। दोनों ओर से गोलीबारी शुरू हो गयी। पास के मकान से दो पुलिस
वालों ने इधर घुसने का प्रयास किया; पर क्रान्तिवीरों की गोली
से दोनों घायल हो गये। क्रान्तिकारियों के पास सामग्री बहुत कम थी, अतः तीनों दरवाजा खोलकर गोली चलाते हुए बाहर भागे। नलिनी की गोली से पुलिस
अधिकारी का टोप उड़ गया; पर उनकी संख्या बहुत अधिक थी। अन्ततः नलिनी गोली से
घायल होकर गिर पड़े।
पुलिस वाले उन्हें बग्घी में
डालकर अस्पताल ले गये, जहाँ अगले दिन 16 जून, 1918 को नलिनीकान्त बागची ने भारत माँ को स्वतन्त्र कराने की
अधूरी कामना मन में लिये ही शरीर त्याग दिया।
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17 जून/बलिदान-दिवस
खूब लड़ी मर्दानी वह तो....
भारत में अंग्रेजी सत्ता के आने
के साथ ही गाँव-गाँव में उनके विरुद्ध विद्रोह होने लगा; पर व्यक्तिगत या बहुत छोटे स्तर पर होने के कारण इन संघर्षों को सफलता नहीं
मिली। अंग्रेजों के विरुद्ध पहला संगठित संग्राम 1857 में हुआ। इसमें जिन वीरों ने अपने साहस से अंग्रेजी
सेनानायकों के दाँत खट्टे किये, उनमें झाँसी की रानी
लक्ष्मीबाई का नाम प्रमुख है।
19 नवम्बर, 1835 को वाराणसी में जन्मी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मनु था।
प्यार से लोग उसे मणिकर्णिका तथा छबीली भी कहते थे। इनके पिता श्री मोरोपन्त ताँबे
तथा माँ श्रीमती भागीरथी बाई थीं। गुड़ियों से खेलने की अवस्था से ही उसे घुड़सवारी, तीरन्दाजी, तलवार चलाना, युद्ध करना जैसे पुरुषोचित कामों में बहुत आनन्द आता
था। नाना साहब पेशवा उसके बचपन के साथियों में थे।
उन दिनों बाल विवाह का प्रचलन
था। अतः सात वर्ष की अवस्था में ही मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधरराव से हो
गया। विवाह के बाद वह लक्ष्मीबाई कहलायीं। उनका वैवाहिक जीवन सुखद नहीं रहा। जब वह 18 वर्ष की ही थीं, तब राजा का देहान्त हो
गया। दुःख की बात यह भी थी कि वे तब तक निःसन्तान थे। युवावस्था के सुख देखने से
पूर्व ही रानी विधवा हो गयीं।
उन दिनों अंग्रेज शासक ऐसी बिना
वारिस की जागीरों तथा राज्यों को अपने कब्जे में कर लेते थे। इसी भय से राजा ने
मृत्यु से पूर्व ब्रिटिश शासन तथा अपने राज्य के प्रमुख लोगों के सम्मुख दामोदर
राव को दत्तक पुत्र स्वीकार कर लिया था; पर उनके परलोक सिधारते ही
अंग्रेजों की लार टपकने लगी। उन्होंने दामोदर राव को मान्यता देने से मनाकर झाँसी
राज्य को ब्रिटिश शासन में मिलाने की घोषणा कर दी। यह सुनते ही लक्ष्मीबाई सिंहनी
के समान गरज उठी - मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।
अंग्रेजों ने रानी के ही एक
सरदार सदाशिव को आगे कर विद्रोह करा दिया। उसने झाँसी से 50 कि.मी दूर स्थित करोरा किले पर अधिकार कर लिया; पर रानी ने उसे परास्त कर दिया। इसी बीच ओरछा का दीवान नत्थे खाँ झाँसी पर चढ़
आया। उसके पास साठ हजार सेना थी; पर रानी ने अपने शौर्य व
पराक्रम से उसे भी दिन में तारे दिखा दिये।
इधर देश में जगह-जगह सेना में
अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह शुरू हो गये। झाँसी में स्थित सेना में कार्यरत
भारतीय सैनिकों ने भी चुन-चुनकर अंग्रेज अधिकारियों को मारना शुरू कर दिया। रानी
ने अब राज्य की बागडोर पूरी तरह अपने हाथ में ले ली; पर अंग्रेज उधर नयी
गोटियाँ बैठा रहे थे।
जनरल ह्यू रोज ने एक बड़ी सेना
लेकर झाँसी पर हमला कर दिया। रानी दामोदर राव को पीठ पर बाँधकर 22 मार्च, 1858 को
युद्धक्षेत्र में उतर गयी। आठ दिन तक युद्ध चलता रहा; पर अंग्रेज आगे नहीं बढ़ सके। नौवें दिन अपने बीस हजार सैनिकों के साथ तात्या
टोपे रानी की सहायता को आ गये; पर अंग्रेजों ने भी नयी
कुमुक मँगा ली। रानी पीछे हटकर कालपी जा पहुँची।
कालपी से वह ग्वालियर आयीं।
वहाँ 17 जून, 1858 को ब्रिगेडियर स्मिथ के साथ हुए युद्ध में उन्होंने
वीरगति पायी। रानी के विश्वासपात्र बाबा गंगादास ने उनका शव अपनी झोंपड़ी में
रखकर आग लगा दी। रानी केवल 22 वर्ष और
सात महीने ही जीवित रहीं। पर ‘‘खूब लड़ी मरदानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी.....’’ गाकर उन्हें सदा याद किया
जाता है।
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17 जून/जन्म-दिवस
हिन्दी के उत्प्रेरक : हरिबाबू कंसल
हिन्दी और हिन्दू के लिए
समर्पित श्री हरिबाबू कंसल का जन्म 17 जून, 1922 को
बुलंदशहर (उ.प्र.) में श्री रेवतीशरण एवं
श्रीमती परमेश्वरी देवी के घर में हुआ था। छात्र जीवन में ही वे संघ के स्वयंसेवक
बने। डाक-तार विभाग से उन्होंने सरकारी सेवा प्रारम्भ की। इसके बाद वे केन्द्रीय
सचिवालय में आ गये। इस दौरान उन्हें अनेक विभागों तथा देशों में काम करने का अवसर
मिला। नौकरी करते हुए ही उन्होंने अर्थशास्त्र में एम.ए. किया।
हरिबाबू हिन्दी के दीवाने थे।
हिन्दी राजभाषा घोषित होने के बाद सरकारी काम में हिन्दी का प्रचलन करने के लिए
उन्होंने अनथक प्रयत्न किये। वे जहां भी रहे, वहां इसके लिए एक अच्छी
टोली बना दी। उनका विचार था कि केवल शासकीय प्रयत्नों से हिन्दी का प्रसार नहीं
होगा। इसके लिए कर्मचारियों तथा जनता को भी जागरूक होना होगा। अतः वे स्वयं इस
प्रयास में लग गये। वे कहते थे कि 'हिन्दी को लादो नहीं ला-दो।'
हिन्दी साहित्य सम्मेलन के
अध्यक्ष सेठ गोविंददास के साथ हरिबाबू ने ‘हिन्दी व्यवहार वर्ष’ की योजना बनाई। इसके अन्तर्गत कर्मचारियों के लिए नेमी कार्यालय टिप्पणियां, कार्यालयों में हिन्दी काम, कार्यालय सहायिका, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के मसौदे, सेवा पंजी प्रविष्टियां, सरल हिन्दी शब्दकोश, कार्यालय दीपिका, कार्यालय प्रवीणता जैसी
पुस्तकें प्रकाशित की गयीं।
हरिबाबू ने केन्द्रीय सचिवालय
के हिन्दीप्रेमी मित्रों के साथ मिलकर तीन मई, 1960 को ‘केन्द्रीय सचिवालय हिन्दी परिषद’ का गठन किया। कार्यालय के
बाद वे इसके काम में लग जाते थे। उनका मत था कि किसी काम के लिए धन से अधिक धुन की
आवश्यकता है। अतः केन्द्रीय कार्यालयों में काम की धुन सवार होने की प्रवृत्ति को
ही ‘कंसलाइटिस’कहा जाने लगा।
असम में बोड़ो भाषा के लिए
असमिया लिपि चलती थी। ईसाई मिशनरी चाहते थे कि यह रोमन लिपि में लिखी जाए।
उन्होंने इसके लिए आंदोलन भी चलवाया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देवनागरी के पक्ष
में थीं। अधिकारियों ने कहा कि यदि दस दिन बाद प्रारम्भ होने वाले सत्र से पूर्व
पहली कक्षा की चार पुस्तकें देवनागरी लिपि में मिल जाएं, तभी यह संभव है। वे जानते थे कि सरकारी काम इतनी तेजी से नहीं होगा और फिर
रोमन लिपि ही चल पड़ेगी।
पर जब यह बात हरिबाबू को पता
लगी, तो उन्होंने सरकारी एवं कुछ निजी प्रेस वालों को तैयार कर लिया। रात-रात भर
बैठकर उन्होंने स्वयं प्रूफ पढ़े और समय से पूर्व चारों पुस्तकों की चार लाख प्रतियां
छपवाकर अधिकारियों को सौंप दीं। इस प्रकार बोड़ो भाषा के लिए देवनागरी लिपि चल
पड़ी।
हरिबाबू ने हिन्दी के प्रसार के
लिए लगभग 50,000 पत्र लिखे।
हिन्दी लिखने एवं बोलने के लिए कर्मचारियों को प्रेरित करने के लिए लाखों पोस्टर
एवं पत्रक कार्यालयों में लगवाए। कई विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भी उन्होंने भाग
लिया। इस सेवा के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए अनेक शासकीय तथा निजी संस्थाओं ने
उन्हें सम्मानित किया। उन्होंने अपने धन से एक धर्मार्थ न्यास बनाया, जो प्रतिवर्ष हिन्दीसेवियों को सम्मानित करता है।
1979 में भारत सरकार के उपसचिव पद से अवकाश
प्राप्ति के बाद वे विश्व हिन्दू परिषद में सक्रिय हो गये। अपनी नौकरी के दौरान वे
दुनिया के 50 से भी अधिक देशों में गये थे। उन
संबंधों का लाभ उठाकर केवल पत्र-व्यवहार के माध्यम से उन्होंने कई देशों में परिषद
की इकाइयां गठित कीं।
हिन्दी और हिन्दू की सेवा के
लिए समर्पित श्री हरिबाबू कंसल का 18 फरवरी, 2000 को निधन हुआ।
(संदर्भ : सेवाव्रती हरिबाबू कंसल)
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18 जून/इतिहास-स्मृति
हल्दीघाटी का महासमर
18 जून, 1576 को सूर्य प्रतिदिन की भाँति उदित हुआ; पर वह उस दिन कुछ अधिक लाल दिखायी दे रहा था। चूँकि उस दिन हल्दीघाटी में खून
की होली खेली जाने वाली थी। एक ओर लोसिंग में अपने प्रिय चेतक पर सवार हिन्दुआ
सूर्य महाराणा प्रताप देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए डटे थे, तो दूसरी ओर मोलेला गाँव में मुगलों का पिट्ठू मानसिंह पड़ाव डाले था।
सूर्योदय के तीन घण्टे बाद
मानसिंह ने राणा प्रताप की सेना की थाह लेने के लिए अपनी एक टुकड़ी घाटी के मुहाने
पर भेजी। यह देखकर राणा प्रताप ने युद्ध प्रारम्भ कर दिया। फिर क्या था; मानसिंह तथा राणा की सेनाएँ परस्पर भिड़ गयीं। लोहे से लोहा बज उठा। खून के
फव्वारे छूटने लगे। चारों ओर लाशों के ढेर लग गये। भारतीय वीरों ने हमलावरों के
छक्के छुड़ा दिये।
यह देखकर मुगल सेना ने तोपों के
मुँह खोल दिये। ऊपर सूरज तप रहा था, तो नीचे तोपें आग उगल रही
थीं। प्रताप ने अपने साथियों को ललकारा - साथियो, छीन लो इनकी तोपें। आज
विधर्मियों की पूर्ण पराजय तक युद्ध चलेगा। धर्म व मातृभूमि के लिए मरने का अवसर
बार-बार नहीं आता। स्वातन्त्र्य योद्धा यह सुनकर पूरी ताकत से शत्रुओं पर पिल पड़े।
राणा की आँखें युद्धभूमि में
देश और धर्म के द्रोही मानसिंह को ढूँढ रही थीं। वे उससे दो-दो हाथकर धरती को उसके
भार से मुक्त करना चाहते थे। चेतक भी यह समझ रहा था। उसने मानसिंह को एक हाथी पर
बैठे देखा, तो वह उधर ही बढ़ गया। पलक झपकते ही उसने हाथी के मस्तक पर अपने दोनों अगले
पाँव रख दिये।
राणा प्रताप ने पूरी ताकत से निशाना साधकर अपना भाला फेंका; पर अचानक महावत सामने आ गया। भाले ने उसकी ही बलि ले ली। उधर मानसिंह हौदे में
छिप गया। हाथी बिना महावत के ही मैदान छोड़कर भाग गया। भागते हुए उसने अनेक मुगल
सैनिकों को कुचल दिया।
मुगल सेना में इससे निराशा फैल
गयी। तभी रणभूमि से भागे मानसिंह ने एक चालाकी की। उसकी सेना के सुरक्षित दस्ते ने
ढोल नगाड़ों के साथ युद्धभूमि में प्रवेश किया और यह झूठा शोर मचा दिया कि बादशाह
अकबर खुद लड़ने आ गये हैं। इससे मुगल सेना के पाँव थम गये। वे दुगने जोश से युद्ध
करने लगे।
इधर राणा प्रताप घावों से निढाल हो चुके थे। मानसिंह के बच
निकलने का उन्हें बहुत खेद था। उनकी सेना सब ओर से घिर चुकी थी। मुगल सेना
संख्याबल में भी तीन गुनी थी। फिर भी वे पूरे दम से लड़ रहे थे।
ऐसे में यह रणनीति बनायी गयी कि
पीछे हटते हुए मुगल सेना को पहाड़ियों की ओर खींच लिया जाये। इस पर कार्यवाही
प्रारम्भ हो गयी। ऐसे समय में झाला मानसिंह ने आग्रहपूर्वक उनका छत्र और मुकुट
स्वयं धारण कर लिया। उन्होंने कहा, "महाराज, एक झाला के मरने से कोई
अन्तर नहीं आयेगा। यदि आप बच गये, तो कई झाला तैयार हो
जायेंगे;पर यदि आप नहीं बचे, तो देश किसके भरोसे विदेशी हमलावरों से युद्ध करेगा ?"
छत्र और मुकुट के धोखे में मुगल
सेना झाला से ही युद्ध में उलझी रही और राणा प्रताप सुरक्षित निकल गये। मुगलों के
हाथ कुछ नहीं आया। इस युद्ध में राणा प्रताप और चेतक के कौशल का जीवन्त वर्णन श्यामनारायण पाण्डेय ने अपने काव्य ‘हल्दीघाटी’ में किया है।
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19 जून/जन्म-दिवस
आत्मविलोपी व्यक्तित्व : श्रीपति शास्त्री
संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता, इतिहास के प्राध्यापक तथा राजनीति, समाजशास्त्र, साहित्य आदि विषयों के गहन अध्येता श्रीपति सुब्रमण्यम शास्त्री का जन्म 19 जून, 1935 को
कर्नाटक राज्य के चित्रदुर्ग जिले के हरिहर ग्राम में हुआ था। बालपन में ही वे
स्वयंसेवक बने तथा अपने संकल्प के अनुसार अविवाहित रहकर अंतिम सांस तक संघ कार्य
करते रहे।
1956 में वे मैसूर नगर कार्यवाह बने। उस
दौरान उन्होंने मैसूर वि.वि. से इतिहास में स्वर्ण पदक लेकर एम.ए किया और ‘संवैधानिक इतिहास’ विषय पर पी-एच.डी करने पुणे आ गये। इसी बीच उन्होंने
संघ का तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण भी पूर्ण किया।
1961 में वे पुणे के वाडिया महाविद्यालय में
अध्यापक तथा फिर पुणे वि.वि. में इतिहास के विभागाध्यक्ष बने। यहां उन्हें सायं शाखाओं
का काम दिया गया। वे अपनी साइकिल पर दिन-रात घूमने लगे। छात्रावासों तथा वहां के
जलपान गृहों को उन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। वे प्राध्यापक होते
हुए भी छात्रों में मित्र की तरह घुलमिल जाते थे।
शास्त्री जी के भाषण बहुत
तर्कपूर्ण होते थे। सैकड़ों संदर्भ व तथ्य उन्हें याद थे। पुणे एक समय समाजवादियों
का गढ़ था। उनका ‘साधना’ नामक पत्र प्रायः संघ पर झूठे आरोप लगाता था। शास्त्री जी हर बार उसका
तर्कपूर्ण उत्तर देते थे। इससे उनका मनोबल टूट गया और उन्होंने यह मिथ्याचार बंद
कर दिया। दूसरी ओर शास्त्री जी की बैठकें बड़ी रोचक और हास्यपूर्ण होती थीं। बैठक
के बाद भी कार्यकर्ता घंटों उनके साथ बैठकर गप्प लड़ाते थेे। वे संघ के काम में
बौद्धिकता से अधिक महत्व श्रद्धा और विनम्रता को देते थे।
महाराष्ट्र में काफी समय तक संघ
को ब्राह्मणों का संगठन माना जाता था। हिन्दू समाज का निर्धन व निर्बल वर्ग इस
कारण संघ से दूर ही रहता था। अतः तात्या बापट व दामु अण्णा दाते के साथ ‘पतित पावन’ संस्था बनाकर वे इन वर्गाें में पहुंचे। संघ में व्यस्त रहते हुए भी वे
विद्यालय में पूरी तैयारी से पढ़ाते थे। इसलिए उन्हें ‘अर्जेंट प्रोफेसर’ कहा जाता था। उनकी रोचक शैली के कारण कक्षा में अन्य
विद्यालयों के छात्र भी आकर बैठ जाते थे।
उनके प्रयास से कुछ ही वर्ष में
पुणे में नये, जुझारू तथा युवा कार्यकर्ताओं की टोली खड़ी हो गयी। शास्त्री जी ने उनके हाथ में संघ का
पूरा काम सौंप दिया। तब तक उन पर भी प्रांत, क्षेत्र तथा फिर अखिल
भारतीय सहबौद्धिक प्रमुख, सह संपर्क प्रमुख आदि दायित्व आ गये। इस नाते उनका
प्रवास देश और विदेशों में भी होने लगा। वे कन्नड़, तमिल, हिन्दी और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। पुणे आकर उन्होंने मराठी भी सीख ली।
कुछ समय बाद उन्हें मराठी में बोलते सुनकर किसी को नहीं लगता था कि वे मूलतः
महाराष्ट्र के नहीं हैं।
उनकी विद्वत्ता की धाक संघ के
अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी थी। इसलिए सब तरह के लोग उनसे परामर्श के लिए आते
थे। 1983 में पुणे
में एक ईसाई संस्था ‘सेमिनरी’ ने उन्हें ‘ईसाइयों का भारत में
स्थान’ विषय पर व्याख्यान के लिए बुलाया। उनका वह स्पष्ट भाषण बहुचर्चित और प्रकाशित
भी हुआ।
शास्त्री जी ने महाराष्ट्र की ‘जन कल्याण समिति’ को भी व्यवस्थित किया। लातूर के भूकंप के बाद इसके
सेवा और पुनर्वास कार्य की दुनिया भर में प्रशंसा हुई। डा. हेडगेवार जन्मशती पर महाराष्ट्र में प्रवास कर उन्होंने
धन संग्रह कराया। श्री गुरुजी की जन्मशती पर उन्होंने अनेक व्याख्यानमालाओं का
आयोजन किया। इस भागदौड़ से वे अनेक रोगों से घिर गये, जिसमंे मधुमेह प्रमुख था। इस पर भी वे लगातार काम में लगे रहे।
कार्यकर्ताओं के दुख-सुख को
निजी दुख-सुख मानने वाले, सदा दूसरों को आगे रखने वाले आत्मविलोपी व्यक्तित्व
के धनी श्रीपति शास्त्री का 27 फरवरी, 2010 को हृदयाघात से पुणे में ही देहांत हुआ।
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19 जून/बलिदान-दिवस
भील बालिका कालीबाई का बलिदान
15 अगस्त 1947 से पूर्व भारत में अंग्रेजों का शासन था। उनकी शह पर अनेक
राजे-रजवाड़े भी अपने क्षेत्र की जनता का दमन करते रहते थे। फिर भी स्वाधीनता की
ललक सब ओर विद्यमान थी, जो समय-समय पर प्रकट भी
होती रहती थी।
राजस्थान की एक रियासत डूंगरपुर
के महारावल चाहते थे कि उनके राज्य में शिक्षा का प्रसार न हो। क्योंकि शिक्षित
होकर व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाता था; लेकिन अनेक शिक्षक अपनी जान पर खेलकर विद्यालय चलाते थे। ऐसे ही एक अध्यापक थे
सेंगाभाई, जो रास्तापाल गांव में पाठशाला चला रहे थे।
इस सारे क्षेत्र में महाराणा प्रताप के वीर अनुयायी भील
बसते थे। विद्यालय के लिए नानाभाई खांट ने अपना भवन दिया था। इससे महारावल नाराज
रहते थे। उन्होंने कई बार अपने सैनिक भेजकर नानाभाई और सेंगाभाई को विद्यालय बन्द
करने के लिए कहा; पर स्वतंत्रता और शिक्षा के प्रेमी ये दोनों महापुरुष
अपने विचारों पर दृढ़ रहे।
यह घटना 19 जून, 1947 की
है। डूंगरपुर का एक पुलिस अधिकारी कुछ जवानों के साथ रास्तापाल आ पहुंचा। उसने
अंतिम बार नानाभाई और सेंगाभाई को चेतावनी दी; पर जब वे नहीं माने, तो उसने बेंत और बंदूक की बट से उनकी पिटाई शुरू कर
दी। दोनों मार खाते रहे; पर विद्यालय बंद करने पर राजी नहीं हुए। नानाभाई का
वृद्ध शरीर इतनी मार नहीं सह सका और उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। इतने पर भी
पुलिस अधिकारी का क्रोध शांत नहीं हुआ। उसने सेंगाभाई को अपने ट्रक के पीछे रस्सी
से बांध दिया।
उस समय वहां गांव के भी अनेक
लोग उपस्थित थे; पर डर के मारे किसी का बोलने का साहस नहीं हो रही था।
उसी समय एक 12 वर्षीय भील बालिका कालीबाई वहां
आ पहुंची। वह साहसी बालिका उसी विद्यालय में पढ़ती थी। इस समय वह जंगल से अपने
पशुओं के लिए घास काट कर ला रही थी। उसके हाथ में तेज धार वाला हंसिया चमक रहा था।
उसने जब नानाभाई और सेंगाभाई को इस दशा में देखा, तो वह रुक गयी।
उसने पुलिस अधिकारी से पूछा कि
इन दोनों को किस कारण पकड़ा गया है। पुलिस अधिकारी पहले तो चुप रहा; पर जब कालीबाई ने बार-बार पूछा, तो उसने बता दिया कि
महारावल के आदेश के विरुद्ध विद्यालय चलाने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा
है। कालीबाई ने कहा कि विद्यालय चलाना अपराध नहीं है। गोविन्द गुरुजी के आह्नान पर
हर गांव में विद्यालय खोले जा रहे हैं। वे कहते हैं कि शिक्षा ही हमारे विकास की
कुंजी है।
पुलिस अधिकारी ने उसे इस प्रकार
बोलते देख बौखला गया। उसने कहा कि विद्यालय चलाने वाले को गोली मार दी जाएगी।
कालीबाई ने कहा,तो सबसे पहले मुझे गोली मारो। इस वार्तालाप से गांव
वाले भी उत्साहित होकर महारावल के विरुद्ध नारे लगाने लगे। इस पर पुलिस अधिकारी ने
ट्रक चलाने का आदेश दिया। रस्सी से बंधे सेंगाभाई कराहते हुए घिसटने लगे। यह देखकर
कालीबाई आवेश में आ गयी। उसने हंसिये के एक ही वार से रस्सी काट दी।
पुलिस अधिकारी के क्रोध का
ठिकाना न रहा। उसने अपनी पिस्तौल निकाली और कालीबाई पर गोली चला दी। इस पर गांव
वालों ने पथराव शुरू कर दिया, जिससे डरकर पुलिस वाले
भाग गये। इस प्रकार कालीबाई के बलिदान से सेंगाभाई के प्राण बच गये। इसके बाद
पुलिस वालों का उस क्षेत्र में आने का साहस नहीं हुआ। कुछ ही दिन बाद देश स्वतंत्र
हो गया। आज डूंगरपुर और सम्पूर्ण राजस्थान में शिक्षा की जो ज्योति जल रही है।
उसमें कालीबाई और नानाभाई जैसे बलिदानियों का योगदान अविस्मरणीय है।
(संदर्भ : बालवाटिका, अप्रैल 2008)
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19 जून/पुण्य-तिथि
योगीराज ब्रह्मर्षि देवरहा बाबा
भारत के संतों के
बारे में अनेक चमत्कार एवं भ्रांतियां प्रचलित हैं। देवरहा बाबा ऐसे ही महान संत
थे, जिनकी आयु 250 से लेकर 900 वर्ष तक कही
जाती थी। अधिकांश लोग उनका संबंध उ.प्र. के देवरिया जिले से जोड़ते हैं। वह या तो
उनकी जन्मभूमि थी या तपोभूमि। शायद इसीलिए उनका यह नाम पड़ा। हठयोग की दसों मुद्रा
तथा महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग में वे पारंगत थे; पर वे इसे केवल
योग्य व्यक्ति को ही सिखाते थे। सम्मेलनों में वे ध्यान, योग, प्राणायाम, त्राटक, समाधि आदि पर
विस्तार से बोलते थे।
बाबा सदा धरती से 12 फुट ऊंचे लकड़ी
के मचान पर रहते थे। वहां से उतरकर नदी में स्नान करते थे और फिर लौट जाते थे। बस
इसी दौरान वे लंगोट पहनते थे। हर श्रद्धालु को वे प्रसाद अवश्य देते थे। यह
सामग्री कहां से आती थी, पता नहीं। उन्हें
खेचरी मुद्रा सिद्ध थी। अतः वे जल, थल या वायु में कहीं भी जा सकते थे। उन्हें किसी ने वाहन पर
बैठते नहीं देखा। उनके आसपास उगे बबूल में कांटे नहीं होते थे और सर्वत्र सुंगध फैली
रहती थी।
बाबा सांस रोक कर
नदी में 30 मिनट तक रह लेते
थे। जंगली जानवरों की भाषा जानने से वे उन्हें नियंत्रित कर लेते थे। उनकी अनुमति
के बिना कोई फोटो लेता या आवाज रिकार्ड करता, तो वह आती ही नहीं थी। एक बार वंृदावन में प्रधानमंत्री
राजीव गांधी उनके दर्शन को आने वाले थे। इसके लिए एक पेड़ कटने वाला था। उनके मना
करने पर भी प्रशासन वाले नहीं माने। ऐसे में बाबा ने कुछ चमत्कार किया कि वह दौरा
निरस्त हो गया और पेड़ बच गया।
बाबा ने हिमालय से
लेकर अनेक स्थानों पर वर्षों लम्बी साधना की थी। उनके चमत्कार तथा ज्ञान का यही
रहस्य था। वे प्रायः देवरिया में मइल नामक स्थान पर सरयू के किनारे मचान पर रहते
थे। बाबा श्रीराम और श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। जब राममंदिर आंदोलन के दौरान अशोक
सिंहल उनके दर्शन को आये,
तो बाबा ने कहा, ‘‘बच्चा, लाखों लोग आएंगे
और एक-एक ईंट उठाकर ले जाएंगे। तुम तो बस रामनाम की आंधी चलाओ।’’ और छह दिसम्बर, 1992 को सचमुच ऐसा ही
हुआ। वे सचमुच अवतारी पुरुष थे।
बाबा अन्न की बजाय
केवल नदी का जल, शहद, दूध और श्रीफल का
रस लेते थे। वे सबके सिर पर पैर रखकर आशीर्वाद देते थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत
थी। वे वर्षों बाद मिले व्यक्ति को भी पहचान लेते थे। बाबा हर कुंभ मेें प्रयागराज
अवश्य आते थे। इसके साथ ही काशी, मथुरा, वृंदावन आदि उनके प्रिय स्थल थे। वे काफी समय जल में ही
रहते थे। वे हर भक्त को जनसेवा और गोसेवा के लिए कहते थे। उनका प्रिय मंत्र था, ‘‘ऊं कृष्णाय
वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतः क्लेश नाशाय, गोविंदाय नमो नमः।
बाबा के दर्शन को
देश-विदेश से हजारों लोग आते थे। इनमें जार्ज पंचम से लेकर डा. राजेन्द्र प्रसाद, मालवीय जी, पुरुषोत्तम दास
टंडन, अटल बिहारी
वाजपेयी, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, बालासाहब देवरस, लाल बहादुर
शास्त्री आदि शामिल हैं। कहते हैं कि 1977 के चुनाव में हार के बाद इंदिरा गांधी को बाबा ने ‘हाथ का पंजा’ दिखाकर आशीर्वाद
दिया था। अतः कांग्रेस ने गाय-बछड़े की जगह इसे चुनाव चिन्ह बनाया और विजय प्राप्त
की।
19 जून, 1990 (योगिनी एकादशी) को ऐसे महान संत ने श्री
वृंदावन धाम में अपनी जीवन लीला समेट ली। इससे पूर्व 11 जून से उन्होंने
भक्तों को दर्शन देना बंद कर दिया। इससे सबको अनहोनी का आभास हो गया था। शरीर
त्याग के समय वे मचान पर ही त्रिबंध आसन में बैठे थे। यमुना मैया की लहरें भी
बार-बार वहां तक आकर अभिषेक कर रहीं थीं। बाबा के भक्तों ने देश के अनेक मंदिरों
में मचान स्थापित कर उनके चित्र एवं मूर्तियां स्थापित की हैं।
(विकी, सैन्य संदेश/19, फरवरी-मार्च 2022, मुकेश सिंघल)
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19 जून/प्रेरक-प्रसंग
नालंदा में
नवजागरण का शंखनाद
किसी समय नालंदा
वि.वि. दुनिया भर में विख्यात था। दूर-दूर से छात्र यहां पढ़ने आते थे; पर फिर हमलावरों ने इसे नष्ट कर दिया। 2016 में नालंदा के खंडहरों को यूनेस्को ने विश्व
धरोहर घोषित किया। 19 जून,
2024 को प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी ने नालंदा के पुनर्निमित भवन का उद्घाटन करते हुए कहा कि आग
पुस्तकों को जला सकती हैं; पर ज्ञान को
नहीं। ऐसा लगा मानो सदियों की धूल झाड़कर देश के गौरवशाली इतिहास ने फिर करवट ली
है।
एक समय लाल
पत्थरों से निर्मित नालंदा महाविहार के भवन में 10,000 छात्र रहते और पढ़ते थे। उन्हें 1,500 अध्यापक पढ़ाते थे। यह स्थान पटना से 90 कि.मी दूर है। किसी समय यहां के एक सेठ ने
गौतम बुद्ध को अपना आम्रवन दान में दिया था। बौद्ध भिक्षुओं और उपासकों के लिए
यहां एक चैत्य बनाया गया। फिर गुप्त शासकों ने इसका विकास शिक्षा के बड़े केन्द्र
के रूप में किया। सुचारू व्यवस्था के लिए अनेक गांव इससे सम्बद्ध कर दियेे। उनसे
कर के रूप में धन तथा खाद्य सामग्री आती थी। ह्वेनसांग, इत्सिंग आदि अनेक विदेशी इतिहासकारों ने अपने यात्रा
वृत्तांत में इसकी भरपूर प्रशंसा की है।
नालंदा महाविहार
में प्रवेश जाति, वर्ण, समुदाय या क्षेत्र की बजाय द्वारपंडित द्वारा
ली गयी मौखिक परीक्षा के आधार पर होता था। 90 लाख हस्तलिखित ग्रंथों वाले पुस्तकालय को ‘धर्मगंज’ कहते थे। इसके रत्नसागर, रत्नोदधि तथा रत्नरंजन नामक तीन भाग थे। रत्नसागर का भवन
नौमंजिला था। बख्तियार खिलजी ने जब इसे जलाया, तो ये लगभग छह महीने तक जलते रहे।
नालंदा महाविहार
मुख्यतया बौद्ध धर्म के महायान दर्शन का केन्द्र था; पर यहां वेद, वेदांत, धर्मशास्त्र,
पुराण, ज्योतिष, चिकित्सा,
सांख्यदर्शन आदि सभी प्रमुख विषय पढ़ाये जाते
थे। तत्कालीन संघस्थविर शीलभद्र योगशास्त्र के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने
ह्वेनसांग को दंडनीति तथा पाणिनीय व्याकरण पढ़ाया था। नालंदा की एक बड़ी देन
भारतीय न्यायशास्त्र तथा प्रमाणशास्त्र का विकास है। यहां के धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति, स्थितमति,
बुद्धभद्र, देवविद आदि आचार्यों का उल्लेख ह्वेनसांग ने भी किया है।
अनेक देश एवं राजा अपने लोगों को यहां पढ़ने भेजते थे। यहां के स्नातकों को बहुत
सम्मान मिलता था।
नालंदा महाविहार
कई बार नष्ट हुआ। कई बार इसे धन के लिए लूटा गया। एक बार यहां आग भी लगी; पर कुछ ही समय बाद यह फिर से खड़ा हो गया;
लेकिन 12वीं सदी में मुहम्मद गोरी के सेनापति इख्तियारुद्दीन
मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के हमले में यह पूरी तरह नष्ट हो गया। अधिकांश बौद्ध
भिक्षु एवं विद्वान मार दिये गये। यहां स्थित बुद्ध प्रतिमा को एक दीवार के पीछे
छिपाकर शेष जंगलों में जा छिपे। कुछ समय बाद 90 वर्षीय आचार्य राहुल शीलभद्र एवं चार अध्यापकों ने फिर से 70 छात्रों को पढ़ाना शुरू किया।
लेकिन फिर बौद्ध
धर्म क्रमशः ढलने लगा। अतः अगली सात शताब्दी तक नालंदा गुमनामी में डूबा रहा। इसके
खंडहर मिट्टी के टीले बन गये। 19वीं सदी में
फ्रांसिस बुकानन हैमिल्टन, मेजर मार्खम
किट्टो तथा सर अलेक्जेंडर कनिंघम आदि इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ताओं ने इसकी खोज
की। तब यह फिर से चर्चा में आया। आजादी के बाद बिहार सरकार ने 1951 में ‘नवनालंदा महाविहार’ की स्थापना कर
पालि, इतिहास, बौद्ध दर्शन आदि की पढ़ाई शुरू की।
28 मार्च,
2006 को तत्कालीन राष्ट्रपति
डा. कलाम ने बिहार विधानसदन के संयुक्त सत्र में इसके पुनरुद्धार का प्रस्ताव रखा।
2010 में संसद के दोनों सदनों
तथा राष्ट्रपति की सहमति से नालंदा वि.वि. अधिनियम बना। भारत के राष्ट्रपति इसके
कुलाध्यक्ष होते हैं। 2014 से यहां प्रवेश
और पढ़ाई शुरू हो गयी। नरेन्द्र मोदी द्वारा 19 जून, 2024 को नये भवन के
उद्घाटन से नालंदा में नवजागरण का जो शंखनाद हुआ है, उसकी गूंज दूर तक सुनाई देगी।
(पांचजन्य 7.7.24/गुंजन अग्रवाल, पृष्ठ 26 से 29)
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20 जून/बलिदान-दिवस
राजा दाहरसेन का बलिदान
भारत को लूटने और इस पर कब्जा
करने के लिए पश्चिम के रेगिस्तानों से आने वाले मजहबी हमलावरों का वार सबसे पहले
सिन्ध की वीरभूमि को ही झेलना पड़ता था। इसी सिन्ध के राजा थे दाहरसेन, जिन्होंने युद्धभूमि में लड़ते हुए प्राणाहुति दी। उनके बाद उनकी पत्नी, बहिन और दोनों पुत्रियों ने भी अपना बलिदान देकर भारत में एक नयी परम्परा का
सूत्रपात किया।
सिन्ध के महाराजा चच के असमय
देहांत के बाद उनके 12 वर्षीय
पुत्र दाहरसेन गद्दी पर बैठे। राज्य की देखभाल उनके चाचा चन्द्रसेन करते थे;पर छह वर्ष बाद चन्द्रसेन का भी देहांत हो गया। अतः राज्य की जिम्मेदारी 18 वर्षीय दाहरसेन पर आ गयी। उन्होंने देवल को राजधानी बनाकर
अपने शौर्य से राज्य की सीमाओं का कन्नौज, कंधार, कश्मीर और कच्छ तक विस्तार किया।
राजा दाहरसेन एक प्रजावत्सल
राजा थे। गोरक्षक के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। यह देखकर ईरान के
शासक हज्जाम ने 712 ई. में अपने सेनापति मोहम्मद बिन कासिम को एक विशाल सेना
देकर सिन्ध पर हमला करने के लिए भेजा। कासिम ने देवल के किले पर कई आक्रमण किये; पर राजा दाहरसेन और हिन्दू वीरों ने हर बार उसे पीछे धकेल दिया।
सीधी लड़ाई में बार-बार हारने
पर कासिम ने धोखा किया। 20 जून, 712 ई. को उसने सैकड़ों सैनिकों को हिन्दू महिलाओं जैसा वेश पहना
दिया। लड़ाई छिड़ने पर वे महिला वेशधारी सैनिक रोते हुए राजा दाहरसेन के सामने आकर
मुस्लिम सैनिकों से उन्हें बचाने की प्रार्थना करने लगे। राजा ने उन्हें अपनी
सैनिक टोली के बीच सुरक्षित स्थान पर भेज दिया और शेष महिलाओं की रक्षा के लिए
तेजी से उस ओर बढ़ गये, जहां से रोने के स्वर आ
रहे थे।
इस दौड़भाग में वे अकेले पड़
गये। उनके हाथी पर अग्निबाण चलाये गये, जिससे विचलित होकर वह खाई
में गिर गया। यह देखकर शत्रुओं ने राजा को चारों ओर से घेर लिया। राजा ने बहुत देर
तक संघर्ष किया; पर अंततः शत्रु सैनिकों के भालों से उनका शरीर
क्षत-विक्षत होकर मातृभूमि की गोद में सदा को सो गया। इधर महिला वेश में छिपे
मुस्लिम सैनिकों ने भी असली रूप में आकर हिन्दू सेना पर बीच से हमला कर दिया। इस
प्रकार हिन्दू वीर दोनों ओर से घिर गये और मोहम्मद बिन कासिम का पलड़ा भारी हो
गया।
राजा दाहरसेन के बलिदान के बाद
उनकी पत्नी लाड़ी और बहिन पद्मा ने भी युद्ध में वीरगति पाई। कासिम ने राजा का कटा
सिर, छत्र और उनकी दोनों पुत्रियों (सूर्या और परमाल) को बगदाद के खलीफा के पास
उपहारस्वरूप भेज दिया। जब खलीफा ने उन वीरांगनाओं का आलिंगन करना चाहा, तो उन्होंने रोते हुए कहा कि कासिम ने उन्हें अपवित्र कर आपके पास भेजा है।
इससे खलीफा भड़क गया। उसने
तुरन्त दूत भेजकर कासिम को सूखी खाल में सिलकर हाजिर करने का आदेश दिया। जब कासिम
की लाश बगदाद पहुंची, तो खलीफा ने उसे गुस्से से लात मारी। दोनों बहिनें
महल की छत पर खड़ी थीं। जोर से हंसते हुए उन्होंने कहा कि हमने अपने देश के अपमान
का बदला ले लिया है। यह कहकर उन्होंने एक दूसरे के सीने में विष से बुझी कटार घोंप
दी और नीचे खाई में कूद पड़ीं। खलीफा अपना सिर पीटता रह गया।
(संदर्भ : केन्द्र भारती, अक्तूबर 2008/राष्ट्रधर्म, दिसम्बर 2012)
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20 जून/इतिहास-स्मृति
पंडित बीरबल धर का श्रीनगर प्रवेश
भारत के नंदनवन कश्मीर ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। किसी समय काशी से भी अधिक महत्व होने के कारण पूरे देश से छात्र यहां पढ़ने आते थे। फिर वह समय भी आया जब आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी से हिन्दुओं को उजाड़ दिया; पर कश्मीर का यह इस्लामीकरण एक दिन में नहीं हुआ। शाहमीर के शासन से लेकर अफगान सूबेदार आजिम खान तक यह चलता रहा। इस दमन और धर्मान्तरण की प्रक्रिया का ही यह प्रसंग है।
आजिम खान के समय में जब अत्याचार बहुत बढ़ गये, तो सब हिन्दुओं ने अपने मुखिया पंडित बीरबल धर को पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह के पास भेजा। वे वेष बदलकर अपने पुत्र राजा काक के साथ जम्मू चल दिये। जाने से पूर्व उनकी पत्नी ने वचन दिया कि वह प्राण देकर भी अपने पवित्र हिन्दू धर्म और सम्मान की रक्षा करेगी। उनके जाने की जानकारी सूबेदार को मिली, तो उसने सैनिक दौड़ाए; पर तब तक कुछ स्थानीय मुसलमानों के सहयोग से वे पीरपंजाल पर्वत पारकर बहुत दूर निकल गये थे। गुस्से में उसने सैकड़ों हिन्दुओं को मारकर बीरबल धर की पत्नी और पुत्रवधू को बंदी बना लिया।
बीरबल धर को पहले से ही इसका अनुमान था। इसलिए वे अपने एक विश्वस्त मुस्लिम मित्र कादिस खान गोजावरी को उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी देकर गये थे। उसने दोनों महिलाओं को अपने घर में छिपा लिया। आजिम खान के सैनिक जब निराश होकर वापस लौट रहे थे, तभी कादिस खान के एक साथी ने उनके छिपने की जानकारी सैनिकों को दे दी। इस पर कादिस खान को मारकर दोनों महिलाओं को पकड़ लिया गया।
उन दोनों को दरबार में प्रस्तुत किया गया; पर उससे कुछ समय पूर्व सास ने चुपचाप एक हीरा निगल लिया। उसने आजिम खान को खूब खरी-खोटी सुनाई और फिर वहीं उसकी मृत्यु हो गयी। इसका बदला आजिम खान ने बहू पर उतारा और उसे एक अफगान सरदार के साथ काबुल भेज दिया। वहां उस पर क्या बीती और कैसे अत्याचार हुए होंगे, कोई नहीं जानता।
इस घटनाक्रम के बीच बीरबल धर तेजी से आगे बढ़ते हुए जम्मू के राजा गुलाब सिंह के पास पहुंच गये। गुलाब सिंह ने उन्हें महाराजा रणजीत सिंह के प्रधानमंत्री ध्यानसिंह के नाम एक पत्र देकर उनके सुरक्षित लाहौर पहुंचने की व्यवस्था कर दी। उनकी व्यथा सुनकर महाराजा बहुत दुखी हुए। उन्होंने अपनी सेना को तुरन्त उधर कूच करने का आदेश दिया। बीरबल धर ने अपने पुत्र राजा काक को जमानत के तौर पर लाहौर दरबार में छोड़ दिया और सेना के साथ उन्हें रास्ता बताते हुए कश्मीर की ओर चल दिये।
महाराजा की इस सेना में जम्मू के राजा गुलाब सिंह, हरिसिंह नलवा, ज्वाला सिंह, हुकम सिंह और श्याम सिंह जैसे पांच श्रेष्ठ सेनानायक थे। इनके नेतृत्व में सेना ने आजिम खान को धूल चटा दी। उसका सेनापति जबर खान दुम दबाकर भाग खड़ा हुआ। इस प्रकार कश्मीर से क्रूर अफगान शासन समाप्त हुआ। 20 जून, 1819 का वह शुभ दिन था, जब पंडित बीरबल धर विजयी सेनाओं के साथ श्रीनगर पहुंचे। महिलाओं ने मंगल आरती और तिलक के साथ उनका स्वागत किया। पूरे क्षेत्र में दीवाली जैसा उत्साह छा गया।
कश्मीर में अगले 27 साल तक महाराजा रणजीत सिंह का शासन रहा। इस दौरान दस गवर्नर नियुक्त हुए। शासन की नीतियां सबके लिए समान थीं। किसी भी धर्म या मजहब वाले पर अत्याचार नहीं होता था। मुस्लिम जागीरदारों का दमनचक्र समाप्त हो गया। मंदिरों में घंटे और आरती के स्वर फिर से गूंजने लगे। कश्मीर घाटी में स्वर्ण युग लौट आया; पर इसके लिए पंडित बीरबल धर के परिवार ने जो बलिदान दिया, उसे सदा याद रखा जाएगा।
(व्यथित जम्मू कश्मीर/57, नरेन्द्र सहगल, सूर्यभारती प्रका. दिल्ली)
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20 जून/जन्म-दिवस
वन्य जीवन के चित्रकार : रामेश बेदी
अपने कैमरे से वन्य जीवन की
विविधता एवं रोमा॰च का सम्पूर्ण विश्व को दर्शन कराने वाले अद्भुत चित्रकार रामेश
बेदी का जन्म 20 जून, 1915 को कालाबाग (वर्त्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। श्री बेदी गुरु नानक की 16 वीं पीढ़ी में थे। इनके पिता रेलवे में स्टेशन मास्टर थे, जो इनके जन्म से पूर्व ही लायलपुर में आकर बस गये थे।
श्री बेदी का परिवार आर्य समाज
से प्रभावित था। 1922 में
शिक्षा के लिए इन्हें हरिद्वार के गुरुकुल कांगड़ी में भेजा गया। यहाँ चारों और
प्रकृति की अनुपम छटा बिखरी हुई थी। एक ओर कल-कल निनाद करती माँ गंगा, तो दूसरी ओर हिमालय की शिवालिक पर्वत शृंखलाएँ। छुट्टियों में छात्र गुरुजनों
के साथ वनों में जाते थे। वहाँ उन्हें जड़ी बूटियों की पहचान, उनके गुण-अवगुण, विभिन्न रोगों में उनका उपयोग तथा पदचिन्हों के आधार
पर पशुओं की जानकारी दी जाती थी।
गुरुकुल में प्राथमिक कक्षाओं
में हिन्दी तथा संस्कृत पढ़ाई जाती थी,जबकि अंग्रेजी शिक्षण
कक्षा छह से शुरू होता था। रामेश बेदी ने इन तीनों भाषाओं का अच्छा अभ्यास कर
लिया। गुरुकुल से आयुर्वेद की स्नातक उपाधि लेकर वे उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता आ
गये।
हरिद्वार में रहते समय एक बार
एक ग्रामीण ने आकर बताया कि जंगल में एक अजगर हिरण को निगल रहा है। रामेश जी जब
वहाँ पहुँचे, तो उनके मन में इच्छा हुई कि यदि कैमरा होता, तो यह चित्र लिया जा सकता
था। कुछ समय बाद उन्होंने 150 रु. में एक कैमरा खरीद लिया। कोलकाता में उन्होंने अपने
अध्ययन और अनुभव के आधार पर विभिन्न वनस्पतियों, औषधीय पौधों तथा वन्य जीवों के बारे में पत्र पत्रिकाओं में लेख लिखने शुरू
किये। साथ में उनके द्वारा खींचे दुर्लभ चित्र भी होते थे। इनके प्रकाशन से उनका
उत्साह बढ़ा और कुछ आय भी होने लगी।
कोलकाता से आयुर्वेद की उच्च
शिक्षा लेकर रामेश बेदी 1940 में
लाहौर आ गये और वहाँ एक चिकित्सालय खोल लिया। 1943 में इनका विवाह हो गया। देश स्वतन्त्र होने से दस दिन
पूर्व ही वे परिवार सहित हरिद्वार आ गये। यहाँ वे सुबह होते ही चने और सत्तू लेकर
जड़ी बूटियों की तलाश में निकल जाते। कभी-कभी तो रात जंगल में ही बितानी पड़ती।
1960 में जब केन्द्र शासन ने देशी चिकित्सा
पद्धति का विभाग खोला, तो इन्हें अनुसन्धान
अधिकारी की नौकरी मिल गयी। इस दौरान उन्होंने दुर्लभ औषधियों की खोज में देश विदेश
में पर्वतीय क्षेत्रों की सघन यात्राएँ कीं। उनके द्वारा खोजे 10,000 से अधिक नमूने विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। 1972 में इस पद से अवकाश लेकर भी वे स्वतन्त्र रूप से इस काम
में लगे रहे।
श्री रामेश बेदी जंगल में कभी
हथियार लेकर नहीं गये। कई बार उनका खतरों से सामना भी हुआ। उनका मत था कि यदि
पशुओं के बारे में अच्छी जानकारी हो, तो हथियार की आवश्यकता
नहीं पड़ती। अपने लेखन में वे प्राचीन वेद और पुराणों के उद्धरण देते थे। उन्होंने 100 से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिनका देश विदेश की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ। उन्होंने वन्य जीवन पर अनेक
फिल्में बनायीं, जो प्रायः दूरदर्शन पर दिखायी जाती हैं। बी.बी.सी
लन्दन ने उन्हें इस विषय पर अपना परामर्शदाता बनाया था।
9 अपै्रल, 2003 को दिल्ली में उनका देहान्त हुआ। उनके दोनों पुत्र अपने
पिता के काम को आज भी आगे बढ़ा रहे हैं।
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20 जून/इतिहास-स्मृति
वह भेंट, जो नहीं हो सकी
इतिहास में कई तारीखों को उनके सुखद या दुखद परिणाम के कारण याद किया जाता है। 20 जून, 1940 को सुभाष चंद्र बोस डा. हेडगेवार से मिलने नागपुर आये; पर उनकी अत्यधिक बीमारी के कारण भेंट नहीं हो सकी; और अगले दिन डा. हेडगेवार का निधन हो गया।
20 जून की सुबह नागपुर के संघचालक बाबासाहब घटाटे के घर एक कार आयी। उसमें श्री रामभाऊ रुईकर के साथ थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस। वे डा. हेडगेवार से मिलना चाहते थे। वहां उपस्थित स्वयंसेवकों ने बताया कि पिछले कई दिन से उनका बुखार 103-104 से नीचे नहीं उतरा है। उन्हें नींद भी नहीं आती। अभी झपकी लगी है। यदि कोई जरूरी काम हो, तो जगाएं। नेताजी ने कहा, ‘‘काम तो बहुत जरूरी है; पर उनकी बीमारी की बात सुनकर फिलहाल तो उन्हें देखने ही आया था। मैं फिर कभी आऊंगा।’’ यह कहकर उन्होंने डा. हेडगेवार की ओर देखा, प्रणाम किया और चले गये।
उनके जाते ही डा. हेडगेवार की आंख खुल गयी। जब उन्हें सुभाष बाबू के आने का पता लगा, तो भेंट न होने का उन्हें बहुत दुख हुआ। वे कल शाम से ही इसकी प्रतीक्षा में थे। एक दिन पूर्व डा. हेडगेवार के एक पुराने मित्र आये थे। वे कोलकाता में उनके क्रांतिकारी जीवन के साथी थे। उन्होंने ही सुभाष बाबू के आने की बात कही थी; पर अब कुछ नहीं हो सकता था। उन्होंने भी सुभाष बाबू का नाम लेकर हाथ जोड़े और मन ही मन उन्हें प्रणाम किया।
असल में सुभाष बाबू को डा. हेडगेवार और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में पूरी जानकारी थी। वे आजादी की अपनी योजना में उनका सहयोग लेना चाहते थे। इसीलिए वे डा. हेडगेवार से मिलना चाहते थे। इससे पहले भी वे एक बार ऐसा प्रयत्न कर चुके थे। जुलाई, 1939 में डा. हेडगेवार नासिक के पास देवलाली में थे। तब सुभाष बाबू मुंबई में थे। उन्होंने भेंट का समय निश्चित करने के लिए अपने परिचित डा. वसंतराव रामराव संझगिरि को डा. हेडगेवार के पास देवलाली भेजा। डा. संझगिरि ने संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता बालाजी हुद्दार को साथ लेकर डा. हेडगेवार से भेंट की।
पर उस समय भी डा. हेडगेवार तेज बुखार एवं निमोनिया से ग्रस्त थे। दोनों लोग लगभग आधा घंटा वहां बैठे तथा सुभाष बाबू की इच्छा एवं योजना उन्हें बताई; पर डा. हेडगेवार अधिक बात करने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने डा. संझगिरि से कहा कि आप फिर कभी नागपुर आयें। तब आपसे विस्तार से बात हो सकेगी। कुछ दिन बाद डा. हेडगेवार नागपुर लौट आये।
18 जुलाई, 1939 को बालाजी हुद्दार और डा. संझगिरि का लिखा एक पत्र डा. हेडगेवार को मिला। उसमें लिखा था, ‘‘हम जिस काम के लिए आपसे मिलने आये थे, उसका महत्व आप समझते ही हैं। आपने आग्रहपूर्वक नागपुर आने का निमंत्रण दिया, इसके लिए हम आभारी हैं; पर कुछ अड़चन के कारण अभी यह संभव नहीं है। क्या आप 20 जुलाई को बंबई आ सकेंगे। हमारी प्रबल इच्छा है कि उस दिन आप हमें यहां मिलें। हमें विश्वास है कि आप निराश नहीं करेंगे। संबंधित व्यक्ति 20 जुलाई की रात को यहां से चले जाएंगे। अतः केवल एक दिन के लिए ही आइये। इससे हम सबके हित की कोई योजना बना सकेंगे।’’
यह ‘संबंधित व्यक्ति’ और कोई नहीं, सुभाष बाबू ही थे। परन्तु इन दोनों महापुरुषों की भेंट शायद विधाता को स्वीकार नहीं थी। 21 जून, 1940 को डा. हेडगेवार का निधन हो गया। उसके 11 दिन बाद ब्रिटिश सरकार ने सुभाष बाबू को बंदी बना लिया। इसकी परिणिति उनके विदेश पलायन में हुई और फिर भारतवासी कभी उनके दर्शन नहीं कर सके।
(संघ वृक्ष के बीज/41, देवेन्द्र स्वरूप, प्रभात प्रका तथा डा. हेड.चरित/402, ना.ह.पालकर, लोकहित)
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21 जून/जन्म-दिवस
आवारा मसीहा : विष्णु प्रभाकर
बंगला उपन्यासकार शरद चंद्र के
जीवन पर ‘आवारा मसीहा’ जैसी कालजयी रचना लिखने वाले हिन्दी कथाकार श्री विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून, 1912 को
मीरापुर (मुजफ्फरनगर, उ.प्र.) में हुआ था।
उनका प्रारम्भिक जीवन हरियाणा के हिसार नगर में व्यतीत हुआ। वहां से ही उन्होंने 1929 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद वे नौकरी
करने लगे। साथ-साथ ही उन्होंने हिन्दीभूषण, प्राज्ञ, हिन्दी प्रभाकर तथा बी.ए. भी किया। 1944 में वे दिल्ली आ गये। कुछ समय अखिल भारतीय आयुर्वेद
महामंडल तथा आकाशवाणी में काम करने के बाद वे पूरी तरह मसिजीवी हो गये।
विष्णु जी स्वतंत्रता आंदोलन
में 1940 और 42 में गिरफ्तार हुए और शासनादेश के कारण उन्हें पंजाब
छोड़ना पड़ा। उन्हीं दिनों उन्होंने खादी पहनने का संकल्प लिया और उसे जीवन भर
निभाया। उन्होंने हिन्दी की प्रायः सभी विधाओं कहानी, नाटक, उपन्यास, यात्रावृत, रेखाचित्र, संस्मरण, निबंध, अनुवाद, बाल साहित्य आदि में उन्होंने प्रचुर लेखन किया। फिर भी वे स्वयं को मुख्यतः
कहानीकार ही मानते थे।
अपने प्रारम्भिक जीवन में वे रंगमंच से भी सम्बद्ध रहे।
उन्होंने अनेक पुस्तकों का सम्पादन किया। हिन्दी की इस सेवा के लिए उन्हंे
देश-विदेश की हजारों संस्थाओं ने सम्मानित किया। राष्ट्रपति डा. कलाम ने भी उन्हें ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया था।
विष्णु जी ने अपना जीवन अपने
ढंग से जिया, इसके लिए उन्होंने किसी से समझौता नहीं किया। भारत देश और हिन्दी भाषा के
प्रति उनके मन में बहुत प्रेम था। अंत्यन्त स्वाभिमानी विष्णु जी ने कभी सत्ता के
सम्मुख घुटने नहीं टेके। स्वामी दयानंद और गांधी जी के विचारों की छाप उनके मन, वचन और कर्म से सर्वत्र दिखाई देती थी। वे स्वतंत्र चिंतन के पक्षधर थे, अतः विरोधी विचारों का भी खुलकर स्वागत करते थे।
उन्होंने देश के हर भाग की
यात्रा कर समाज जीवन का व्यापक अनुभव बटोरा था। इसीलिए उनका लेखन रोचक और जीवंत
होता था। जब वे दिल्ली में होते थे, तो सुबह गांधी समाधि पर
टहलने अवश्य जाते थे। इसी प्रकार वे शाम को मोहन सिंह प्लेस स्थित काफी हाउस पहुंचते थे, जहां कई पीढ़ी के लेखकों से उनकी भेंट हो जाती थी।
वहां साहित्य पर गहरा विमर्श तो होता ही था, हंसी-मजाक भी भरपूर होती
थी। देश भर के हजारों लेखकों व पाठकों से वे पत्र-व्यवहार द्वारा सम्पर्क बनाकर
रखते थे।
अपनी रचनाओं में वे जाति, भाषा, धर्म के आधार होने वाले भेद तथा नारी समस्याओं को प्रखरता से उठाते थे। समय, समाज व संस्कृति पर की गयी उनकी टिप्पणियां शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण
दस्तावेज हैं। आकाशवाणी के लिए लिखे गये रूपक व नाटकों में उन्होंने कई नये प्रयोग
किये, जिसे श्रोताओं ने बहुत सराहा।
'आवारा मसीहा' उनकी सर्वाधिक चर्चित रचना है। इसके लिए
उन्होंने जीवन के 14 वर्ष लगाये।
उन्होंने बंगला भाषा सीखकर शरदचंद्र के सैकड़ों समकालीन लोगों से बात की और बिहार, बंगाल तथा बर्मा का व्यापक भ्रमण किया। इससे पूर्व शरदचंद्र की कोई प्रामाणिक
जीवनी नहीं थी। अतः हिन्दी के साथ ही बंगलाभाषियों ने भी इसका भरपूर स्वागत किया।
भारतीय साहित्य के इस भीष्म
पितामह का 11 अपै्रल, 2009 को 97वर्ष की सुदीर्घ आयु में
देहांत हुआ। वे जीवन भर अतिवाद, रूढ़िवाद और कर्मकांडों
से मुक्त रहे। उनकी इच्छानुसार मृत्यु के बाद उनका शरीर छात्रों के उपयोग के लिए अ.भा.आयुर्विज्ञान संस्थान को दान कर दिया गया।
(संदर्भ : साहित्य अमृत, जून 2009)
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अविश्रांत पथिक ओमप्रकाश गर्ग
संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री ओमप्रकाश गर्ग का जन्म ग्राम मोरटा (गाजियाबाद) में 21 जून, 1926 को श्री बेनीप्रसाद एवं श्रीमती रामकली देवी के घर में हुआ था। समाजसेवी श्री बेनीप्रसाद जी बच्चों को निःशुल्क पढ़ाते थे। फिर उन्हें सरकारी विद्यालय में काम मिल गया। वे जातिभेद के विरुद्ध थे। ओमप्रकाश जी पांच भाइयों में सबसे छोटे हैं। सबसे बड़े भाई लक्ष्मी जी गांव में पहले स्नातक थे। दूसरे कैलाश जी 1942 के आंदोलन में सक्रिय रहे।
प्राथमिक शिक्षा गांव में लेकर उन्होंने शंभूदयाल विद्यालय, गाजियाबाद से हाई स्कूल किया। 1942 में वहीं वे कम्पनी बाग की शाखा में जाने लगे। फिर वे बड़े भाई के पास कानपुर चले गये। वहां से इंटर और बी.एस-सी. कर तिर्वा (कन्नौज, उ.प्र.) के दुर्गा नारायण उच्चतर महाविद्यालय में पढ़ाने लगे। अध्यापन के बाद का पूरा समय वे संघ कार्य में ही लगाते थे। नवम्बर, 1947 में कानपुर के प्रचारक श्री अनंत रामचंद्र गोखले के आग्रह पर वे प्रचारक बने; पर विद्यालय वाले उन्हें सत्र के बीच में छोड़ने को तैयार नहीं थे। अतः उन्होंने एक अन्य कार्यकर्ता को काम पर रखवा दिया। 1946 (काशी), 47 (भरतपुर) और 1954 में उन्होंने तीनों वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग किये।
प्रचारक जीवन में वे उ.प्र. में फरुखाबाद, कन्नौज, लखीमपुर, लखनऊ, आगरा और मथुरा में नगर, तहसील तथा जिला प्रचारक रहे। बिहार में वे पटना और भागलपुर में रहे। लखनऊ और भागलपुर में वे जनसंघ के संगठन मंत्री थे। आपातकाल में उन्हें फिर पटना भेजा गया। वहां वे विभाग, संभाग, सहप्रांत और फिर उत्तर बिहार प्रांत प्रचारक रहे। उनके प्रयास से श्री जयप्रकाश नारायण के ‘अमृत महोत्सव’ में सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस शामिल हुए। इससे संघ के प्रति उनके भ्रम दूर हुए और इसका भविष्य में बहुत लाभ मिला।
1991 में उन्हें नेपाल अधिराज्य में ‘हिन्दू स्वयंसेवक संघ’ की जिम्मेदारी दी गयी। वहां चीन की शह पर वामपंथियों तथा अमरीकी सहयोग से ईसाई मिशन का काम बढ़ रहा था। उन्होंने शाखाएं बढ़ाकर इन पर नियन्त्रण का प्रभावी प्रयास किया। शंकराचार्य श्री जयेन्द्र सरस्वती के प्रवास के समय उन्होंने राजा बीरेन्द्र से सम्पर्क कर उन्हें भी इन गतिविधियों की जानकारी दी। उ.प्र. और बिहार से लगी नेपाली सीमा पर मुस्लिम हलचल बढ़ती देख वर्ष 2000 में ‘सीमा जागरण मंच’ बनाकर उन्हें इसका काम दिया गया। उन्होंने गांवों में मंदिर तथा महापुरुषों की मूर्तियां स्थापित करवाईं। ‘सरस्वती शिशु मंदिर’ तथा ‘ग्राम सुरक्षा समिति’ का गठन किया। लखीमपुर जिले में महाराणा प्रताप की भव्य प्रतिमा का अनावरण सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने किया।
ओमप्रकाश जी ने 1948 तथा 1975 के प्रतिबंध में जेल यात्रा की। 1948 में बस से कायमगंज जाते हुए उन्हें पकड़कर पहले फरुखाबाद और फिर बरेली जेल में रखा गया, जहां से वे जून, 1949 में छूटे। आपातकाल में वे अपै्रल, 1976 में दानापुर में पकड़े गये। ‘मीसा’ लगाकर उन्हें फुलवारी शरीफ कैम्प जेल में रखा गया। वहां से भी वे प्रतिबंध समाप्ति के बाद ही बाहर आये। इसलिए बिहार के सभी राजनेताओं से उनके अच्छे संबंध रहे।
ओमप्रकाश जी वर्ष 2007 से ‘विश्व हिन्दू परिषद’ में केन्द्रीय मंत्री और फिर केन्द्रीय प्रबन्ध समिति के सदस्य रहते हुए मुख्यतः नेपाल के काम की देखरेख करते रहे। सादगी और सरलता उनकी विशेषता थी। वे लम्बी यात्राएं भी प्रायः रेलगाड़ी के साधारण डिब्बे में बैठकर कर लेते थे। पर्वतीय क्षेत्र में बस, ट्रक या जीप की यात्रा में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। घोर सर्दी में भी वे धोती ही पहनते थे। सामान भी वे बहुत कम रखते थे। छह नवम्बर, 2021 को पटना में उनका देहांत हुआ। उनकी इच्छानुसार उनके नेत्र और देह ‘दधीचि देहदान समिति’ के माध्यम से मैडिकल काॅलिज को दान कर दी गयी।
(संदर्भ : 2.2.2016 को हुई वार्ता)
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21 जून/जन्म-दिवस
प्रखर वक्ता एवं
लेखक धर्मनारायण शर्मा
संघ के वरिष्ठ
प्रचारक श्री धर्मनारायण शर्मा का जन्म उदयपुर (राजस्थान) में 21 जून, 1940 (आषाढ़ प्रतिपदा) को श्री देवीलाल जी एवं माणकबाई चौबीसा के
घर में हुआ था। इसी दिन नागपुर में डा. हेडगेवार का देहांत भी हुआ था। आठ भाई
बहिनों में उनका नंबर दूसरा था। देवीलाल जी मेवाड़ राज्य के मठ मंदिरों की देखरेख
करने वाली धर्मसभा में कार्यरत थे। 1947 के बाद यह राजस्थान के देवस्थान विभाग में मिल गयी।
स्कूली पढ़ाई के
दौरान 15 वर्ष की अवस्था में वे
शाखा जाने लगे। 1959 में कक्षा दस
उत्तीर्ण कर वे प्रचारक बने। यद्यपि लौकिक पढ़ाई कुछ आगे भी हुई। उन दिनों
ठाकुरदास जी यहां प्रचारक थे। दादाजी ने नाराज होकर उनके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट
लिखाई; पर धर्मनारायण जी पीछे
नहीं हटे। 1962 में उन्होंने
तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण पूर्ण किया। 1959 से 1969 तक वे राजस्थान
में ब्यावर, डीडवाना, अलवर, दौसा, जयपुर में नगर तथा फिर
जिला प्रचारक रहे। 1970 में उन्हें
अजमेर विभाग की जिम्मेदारी मिली।
आपातकाल में वे
पकड़े नहीं जा सके। आपातकाल के बाद 1977 से 84 तक वे जोधपुर विभाग एवं
फिर संभाग प्रचारक रहे। 1984 से 94 वे महाकौशल के सहप्रांत और फिर प्रांत प्रचारक
रहे। संघ के शारीरिक कार्यक्रमों, मुख्यतः दंड और
नियुद्ध में उनकी बहुत रुचि थी। अतः 1994 में भोपाल केन्द्र बनाकर उन्हें मध्य प्रदेश क्षेत्र का शारीरिक प्रमुख बनाया
गया।
धर्मनारायण जी एक
प्रभावी वक्ता थे। 1995 में कोलकाता
केन्द्र बनाकर उन्हें विश्व हिन्दू परिषद में अंचल सह संगठन मंत्री बनाया गया।
वर्ष 2000 में उन्हें दिल्ली
बुलाकर केन्द्रीय मंत्री तथा वि.हि.प के अन्र्तगत ‘एकल अभियान’ में जिम्मेदारी
दी गयी। 2003 से 2017 तक वे श्री मोहन जोशी के साथ ‘धर्मप्रसार विभाग’ के सहप्रमुख और फिर अ.भा.प्रमुख रहे। इस दौरान उन्होंने
सैकड़ों सेवा केन्द्र खोले और हजारों लोगों की हिन्दू धर्म में वापसी कराई।
राजस्थान में
ब्यावर जिला वनवासी बहुल है। वहां वि.हि.प के अनेक प्रकल्प चलते हैं। उसमें खर्च
भी बहुत होता है। जब उनके दिल की बाइपास सर्जरी हुई, तब अस्पताल में रहते हुए भी वे उसकी चिन्ता करते रहते थे।
सर्जरी के बाद प्रवास से विश्राम देकर उन्हें वि.हि.प की केन्द्रीय प्रबंध समिति
का सदस्य बनाया गया। जीवन के अंत तक वे इस जिम्मेदारी का निर्वहन करते रहे।
उनकी दिनचर्या
बहुत नियमित थी। वे नहाकर ही प्रातः स्मरण एवं फिर शाखा में आते थे। उनके धार्मिक
एवं सामाजिक लेख अनेक पत्रिकाओं में छपते थे। वि.हि.प की केन्द्रीय बैठकों में
हिन्दी प्रस्ताव प्रायः वही बनाते थे। वि.हि.प द्वारा प्रकाशित उनकी प्रमुख
पुस्तकंे हैं - शाश्वत हिन्दुत्व, व्यक्ति से
व्यक्तित्व, भगवान बलराम,
संस्कृति के उज्जवल नक्षत्र, राष्ट्रमाता भारतमाता की वंदना, ईसाइयत की विकृत कृति, धर्मग्रंथों में रामराज्य, अमरयोगी महाराजा भृतहरि, मोहन जोशी की जीवनी, लोकदेवता बाबा रामदेव, लोकदेवता जाहरवीर गोगा, लव जिहाद, भगवान सूर्य एवं
संध्या (दो खंड), भगवान
सत्यनारायण..आदि। वर्तमान आवश्यकता के अनुसार वे आदर्श हिन्दू आचार संहिता पर
लम्बे समय से काम कर रहे थे। उनके आधार पर वि.हि.प के विश्व विभाग के प्रमुख
स्वामी विज्ञानानंद ने अंग्रेजी में ‘हिन्दू मैनिफेस्टो’ लिखा है।
आयुवृद्धि स्वयं
में एक रोग है। धर्मनारायण जी भी उसके अपवाद नहीं थे। पिछले वर्ष दिल का वाल्व
खराब होने पर डाॅक्टरों ने आॅपरेशन से मना कर दिया। वे समझ गये कि अब चलने का समय
आ गया है। वे प्रायः कहते थे कि यह शरीर पुराना हो गया है। मैं इसे छोड़ने को
तैयार हूं। पुनर्जन्म लेकर फिर आऊंगा और अधूरे काम पूरे करूंगा। 21 मार्च, 2025 को दिल्ली स्थित वि.हि.प. के केन्द्रीय कार्यालय पर उनका
देहावसान हुआ।
(हिन्दू विश्व 1.4.22/25,
गो सम्पदा, कार्यालय प्रपत्र तथा घर से प्राप्त जानकारी)
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22 जून/बलिदान-दिवस
नगर सेठ अमरचन्द बांठिया को
फांसी
स्वाधीनता समर के अमर सेनानी
सेठ अमरचन्द मूलतः बीकानेर (राजस्थान) के निवासी थे। वे अपने पिता श्री अबीर चन्द
बाँठिया के साथ व्यापार के लिए ग्वालियर आकर बस गये थे। जैन मत के अनुयायी अमरचन्द
जी ने अपने व्यापार में परिश्रम, ईमानदारी एवं सज्जनता के
कारण इतनी प्रतिष्ठा पायी कि ग्वालियर राजघराने ने उन्हें नगर सेठ की उपाधि देकर
राजघराने के सदस्यों की भाँति पैर में सोने के कड़े पहनने का अधिकार दिया। आगे
चलकर उन्हें ग्वालियर के राजकोष का प्रभारी नियुक्त किया।
अमरचन्द जी बड़े धर्मप्रेमी
व्यक्ति थे। 1855 में
उन्होंने चातुर्मास के दौरान ग्वालियर पधारे सन्त बुद्धि विजय जी के प्रवचन सुने।
इससे पूर्व वे 1854 में अजमेर में भी उनके प्रवचन सुन चुके
थे। उनसे प्रभावित होकर वे विदेशी और विधर्मी राज्य के विरुद्ध हो गये। 1857 में जब अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय सेना और क्रान्तिकारी
ग्वालियर में सक्रिय हुए, तो सेठ जी ने राजकोष के
समस्त धन के साथ अपनी पैतृक सम्पत्ति भी उन्हें सौंप दी।
उनका मत था कि राजकोष जनता से ही एकत्र किया गया है। इसे
जनहित में स्वाधीनता सेनानियों को देना अपराध नहीं है और निजी सम्पत्ति वे चाहे
जिसे दें; पर अंग्रेजों ने राजद्रोही घोषित कर उनके विरुद्ध वारण्ट जारी कर दिया।
ग्वालियर राजघराना भी उस समय अंग्रेजों के साथ था।
अमरचन्द जी भूमिगत होकर
क्रान्तिकारियों का सहयोग करते रहे; पर एक दिन वे शासन के
हत्थे चढ़ गये और मुकदमा चलाकर उन्हें जेल में ठूँस दिया गया। सुख-सुविधाओं में
पले सेठ जी को वहाँ भीषण यातनाएँ दी गयीं। मुर्गा बनाना, पेड़ से उल्टा लटका कर चाबुकों से मारना, हाथ पैर बाँधकर चारों ओर
से खींचना, लोहे के जूतों से मारना, अण्डकोषों पर वजन बाँधकर
दौड़ाना, मूत्र पिलाना आदि अमानवीय अत्याचार उन पर किये गये। अंग्रेज चाहते थे कि वे
क्षमा माँग लें; पर सेठ जी तैयार नहीं हुए। इस पर अंग्रेजों ने उनके
आठ वर्षीय निरपराध पुत्र को भी पकड़ लिया।
अब अंग्रेजों ने धमकी दी कि यदि
तुमने क्षमा नहीं माँगी, तो तुम्हारे पुत्र की हत्या कर दी जाएगी। यह बहुत
कठिन घड़ी थी; पर सेठ जी विचलित नहीं हुए। इस पर उनके पुत्र को तोप के मुँह पर बाँधकर गोला
दाग दिया गया। बच्चे का शरीर चिथड़े-चिथड़े हो गया। इसके बाद सेठ जी के लिए 22 जून, 1858 को
फाँसी की तिथि निश्चित कर दी गयी। इतना ही नहीं, नगर और ग्रामीण क्षेत्र की जनता में आतंक फैलाने के लिए अंग्रेजों ने यह भी तय
किया गया कि सेठ जी को 'सर्राफा बाजार' में ही फाँसी दी जाएगी।
अन्ततः 22 जून भी आ गया। सेठ जी तो अपने शरीर का मोह छोड़ चुके थे।
अन्तिम इच्छा पूछने पर उन्होंने नवकार मन्त्र जपने की इच्छा व्यक्त की। उन्हें
इसकी अनुमति दी गयी; पर धर्मप्रेमी सेठ जी को फाँसी देते समय दो बार
ईश्वरीय व्यवधान आ गया। एक बार तो रस्सी और दूसरी बार पेड़ की वह डाल ही टूट गयी, जिस पर उन्हें फाँसी दी जा रही थी। तीसरी बार उन्हें एक मजबूत नीम के पेड़ पर
लटकाकर फाँसी दी गयी और शव को तीन दिन वहीं लटके रहने दिया गया।
सर्राफा बाजार स्थित जिस नीम के
पेड़ पर सेठ अमरचन्द बाँठिया को फाँसी दी गयी थी, उसके निकट ही सेठ जी की
प्रतिमा स्थापित है। हर साल 22 जून को वहाँ बड़ी संख्या में लोग आकर देश की स्वतन्त्रता
के लिए प्राण देने वाले उस अमर हुतात्मा को श्रद्धा॰जलि अर्पित करते हैं।
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22 जून/पुण्य-तिथि
सेवापथ की सहभागी : भागीरथी जैन
भारत में लम्बे समय तक नारी
समाज रूढ़ियों, अन्धविश्वास और अशिक्षा से ग्रस्त रहा। ऐसे वातावरण में सरदारशहर, राजस्थान के एक सम्पन्न घर में भागीरथी जैन का जन्म हुआ। 10 वर्ष की अवस्था में उसका विवाह 20 वर्षीय मोहन जैन से हो गया। उनके पति मोहन जी की रुचि
व्यापार से अधिक समाजसेवा और स्वातन्×य आन्दोलन में थी। अतः
उन्होंने सर्वप्रथम अपनी पत्नी भागीरथी को ही पढ़ने के लिए प्रेरित किया।
उन दिनों सरदारशहर में आन्दोलन
की गतिविधियों का केन्द्र मोहनभाई का घर ही था। बीकानेर नरेश गंगासिंह जी इसके
विरोधी थे। इसके बावजूद मोहन भाई ने अपने कदम पीछे नहीं हटाये। यद्यपि भागीरथी के
पिता राजघराने के साथ थे; पर उन्होंने सदा अपने पति का साथ दिया। गान्धी जी से
प्रेरित होकर भागीरथी ने आजीवन खादी पहनने का व्रत निभाया।
उनके मायके और ससुराल दोनों अत्यन्त समृद्ध थे। उनके पास भी
एक से एक अच्छे कपड़े और कीमती गहने थे। घरेलू आयोजनों में अन्य महिलाओं को इनसे
लदा देखकर उनका मन विचलित होता; पर अपने व्रत का स्मरण कर
वे शान्त हो जातीं।
मोहन भाई ने निर्धन वर्ग के
बच्चों की शिक्षा के लिए अनेक विद्यालय स्थापित किये। कई बार अध्यापकों को देने के
लिए वेतन भी नहीं होता था। ऐसे में भागीरथी अपने आभूषण ही उनको दे देतीं। एक समय
तो उनके हाथ में एक सोने की चूड़ी ही शेष रह गयी। उन दिनों सम्पत्ति दान आन्दोलन
चल रहा था। गोकुलभाई भट्ट ने सरदारशहर की भरी सभा में जब इसका आग्रह किया, तो सब ओर सन्नाटा छा गया। यह देखकर भागीरथी ने वह अन्तिम चूड़ी भी अपने हाथ से
निकालकर गोकुलभाई की झोली में डाल दी।
सरदारशहर में गान्धी विद्या
मन्दिर की स्थापना के समय वे अपने पति के साथ कई वर्ष शहर से दूर एक झोपड़ी में
रहीं। वे छुआछूत और पर्दा प्रथा की बहुत विरोधी थीं। उनके घर के द्वार सभी के लिए
खुले थे। जैन समाज में विवाह के समय होने वाले आडम्बर के विरोधी मोहन भाई ने अपने
सभी आठ बच्चों का विवाह दहेज, भोज, बारात और बाजे-गाजे जैसे दिखावों के बिना किया।
मोहन भाई एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार के थे; पर वे समाजसेवा में ही व्यस्त रहते थे। ऐसे में भागीरथी ने अध्यापन के साथ ही
सिलाई केन्द्र,पापड़ उद्योग, दवा विक्रय केन्द्र आदि चलाकर परिवार का स्वाभिमान
बनाये रखा। बच्चों ने भी इसमें उनका पूरा साथ दिया।
आचार्य तुलसी के प्रति
पति-पत्नी दोनों के मन में असीम श्रद्धा थी। दिल्ली के विशाल अणुव्रत सम्मेलन में
आचार्य जी के आदेश पर भागीरथी जैन ने सभा को संबोधित कर सबको सम्मोहित कर दिया। 1982 में मोहन भाई ने उदयपुर से 65 कि.मी दूर राजसमन्द की वीरान पहाड़ी पर ‘अणुव्रत विश्वभारती’ का शुभारम्भ किया, तो वे पति के साथ वहीं
रहने लगीं। वहाँ चारों ओर साँप, बिच्छुओं के साथ असामाजिक
तत्वों का भी साम्राज्य था। मोहन भाई इस प्रकल्प के संचालन के लिए प्रायः बाहर ही
रहते थे। ऐसे में सारी व्यवस्थाएँ भागीरथी जैन ने ही सँभाली।
इस महान् समाजसेवी नारी का 22 जून, 1997 को
अणुविभा परिसर में ही शरीरान्त हुआ। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि नारी यदि चाहे, तो वह न केवल पति के सांसारिक अपितु सामाजिक जीवन में भी बराबर की सहभागी बन
सकती है। उनके देहान्त के बाद उनके परिवारजन ‘भागीरथी सेवा न्यास’ के माध्यम से अनेक सेवाकार्य चला रहे हैं।
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23 जून/बलिदान-दिवस
डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का बलिदान
छह जुलाई, 1901 को कोलकाता में श्री आशुतोष मुखर्जी एवं योगमाया देवी के
घर में जन्मे डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी को दो कारणों से
सदा याद किया जाता है। पहला तो यह कि वे योग्य पिता के योग्य पुत्र थे। श्री
आशुतोष मुखर्जी कलकत्ता विश्वविद्यालय के संस्थापक उपकुलपति थे।1924 में उनके देहान्त के बाद केवल 23 वर्ष की अवस्था में ही श्यामाप्रसाद को विश्वविद्यालय की
प्रबन्ध समिति में ले लिया गया। 33 वर्ष की छोटी अवस्था में
ही उन्हें कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति की उस कुर्सी पर बैठने का गौरव मिला, जिसे किसी समय उनके पिता ने विभूषित किया था। चार वर्ष के अपने कार्यकाल में
उन्होंने विश्वविद्यालय को चहुँमुखी प्रगति के पथ पर अग्रसर किया।
दूसरे जिस कारण से डा. मुखर्जी को याद किया जाता है, वह है जम्मू कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय की माँग को लेकर उनके द्वारा किया
गया सत्याग्रह एवं बलिदान। 1947 में
भारत की स्वतन्त्रता के बाद गृहमन्त्री सरदार पटेल के प्रयास से सभी देसी रियासतों
का भारत में पूर्ण विलय हो गया; पर प्रधानमन्त्री
जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तिगत हस्तक्षेप के कारण जम्मू कश्मीर का विलय पूर्ण नहीं
हो पाया। उन्होंने वहाँ के शासक राजा हरिसिंह को हटाकर शेख अब्दुल्ला को सत्ता
सौंप दी।
शेख ने जम्मू कश्मीर में आने
वाले हर भारतीय को अनुमति पत्र लेना अनिवार्य कर दिया। 1953 में प्रजा परिषद तथा भारतीय जनसंघ ने इसके विरोध में
सत्याग्रह किया। नेहरू तथा शेख ने पूरी ताकत से इस आन्दोलन को कुचलना चाहा; पर वे विफल रहे। पूरे देश में यह नारा गूँज उठा - एक देश में दो प्रधान, दो विधान, दो निशान: नहीं चलेंगे।
डा. मुखर्जी जनसंघ के अध्यक्ष थे। वे सत्याग्रह करते हुए बिना
अनुमति जम्मू कश्मीर में गये। इस पर शेख अब्दुल्ला ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 20 जून को उनकी तबियत खराब होने पर उन्हें कुछ ऐसी दवाएँ दी
गयीं, जिससे उनका स्वास्थ्य और बिगड़ गया। 22 जून को उन्हें अस्पताल में भरती किया गया। उनके साथ जो लोग
थे, उन्हें भी साथ नहीं जाने दिया गया। रात में ही अस्पताल में ढाई बजे रहस्यमयी
परिस्थिति में उनका देहान्त हुआ।
मृत्यु के बाद भी शासन ने
उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया। उनके शव को वायुसेना के विमान से दिल्ली ले जाने की
योजना बनी; पर दिल्ली का वातावरण गरम देखकर शासन ने विमान को अम्बाला और जालन्धर होते हुए
कोलकाता भेज दिया। कोलकाता में दमदम हवाई अड्डे से रात्रि 9.30 बजे चलकर पन्द्रह कि.मी दूर उनके घर तक पहुँचने में सुबह के पाँच बज गये। 24 जून को दिन में ग्यारह बजे शुरू हुई शवयात्रा तीन बजे
शमशान पहुँची। हजारों लोगों ने उनके अन्तिम दर्शन किये।
आश्चर्य की बात तो यह है कि डा. मुखर्जी तथा उनके साथी शिक्षित तथा अनुभवी लोग थे; पर पूछने पर भी उन्हें दवाओं के बारे में नहीं बताया गया। उनकी मृत्यु जिन
सन्देहास्पद स्थितियों में हुई तथा बाद में उसकी जाँच न करते हुए मामले पर
लीपापोती की गयी, उससे इस आशंका की पुष्टि होती है कि यह वस्तुत: चिकित्सकीय हत्या थी।
डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अपने बलिदान से जम्मू-कश्मीर को
बचा लिया।
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23 जून/जन्म-दिवस
कर्नाटक केसरी जगन्नाथ राव जोशी
भारतीय जनसंघ के जन्म से लेकर
अपनी मृत्यु तक सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अलख देश भर में जगाने वाले, कर्नाटक केसरी के नाम से विख्यात श्री जगन्नाथ राव जोशी का जन्म कर्नाटक के
नरगुंड गांव में 23 जून, 1920 को हुआ था। उनके पिताजी पर उस गांव के धर्मस्थलों की
देखभाल की जिम्मेदारी थी। कर्नाटक मूल के पिता और महाराष्ट्र मूल की मां के कारण
जगन्नाथ जी को बचपन से ही दोनों भाषाओं में महारत प्राप्त हो गयी।
कक्षा तीन तक की शिक्षा गांव में
पाकर वे अपने मामा के पास पुणे चले गये। उनकी शेष शिक्षा वहीं हुई। उन्होंने
अंग्रेजी विषय लेकर बी.एड किया था। अतः अंग्रेजी पर भी उनका प्रभुत्व हो गया। पुणे
में ही उनका सम्पर्क संघ शाखा से हुआ। शिक्षा पूर्ण कर वे सरकारी सेवा में लग गये;पर कुछ समय बाद वे प्रचारक बन कर कर्नाटक ही पहुंच गये। वहां उनकी तत्कालीन
प्रांत प्रचारक श्री यादवराव जोशी से अत्यधिक घनिष्ठता हो गयी। इस कारण उनके जीवन
पर श्री यादवराव का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
संघ के पहले प्रतिबन्ध के समय
वे जेल में रहे। जब गोवा मुक्ति के लिए सत्याग्रह हुआ, तब पहले जत्थे का नेतृत्व उन्होंने किया। वे लगभग पौने दो साल जेल में रहे।
वहां उन पर जो अत्याचार हुए, उसका प्रभाव जीवन भर रहा; पर उन्होंने कभी इसकी चर्चा नहीं की। गोवा मुक्त होने पर शासन ने अनेक
सत्याग्रहियों को मकान दिये; पर जगन्नाथ जी ने यह
स्वीकार नहीं किया।
जनसंघ में रहकर भी वे संघर्ष के
काम में सदा आगे रहते थे। 1965 में
कच्छ समझौते के विरोध में हुए आंदोलन के लिए उन्होंने पूरे देश में भ्रमण कर अपनी
अमोघ वाणी से देशवासियों को जाग्रत किया। 1967 में वे सांसद बने। आपातकाल के प्रस्ताव का उन्होंने प्रबल
विरोध किया। एक सांसद ने जेल का भय दिखाया, तो वे उस पर ही बरस पड़े, ‘‘ जेल का डर किसेे दिखाते हो; जो सालाजार से नहीं डरे, जो पुर्तगालियों ने नहीं डरे, तो क्या तुमसे डरेंगे ? ऐसी धमकी से डरने वाले नामर्द तुम्हारी बगल में बैठे हैं।’’
इस पर उन्हें दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद कर दिया गया।
जनता पार्टी के शासन में उन्हें राज्यपाल का पद प्रस्तावित किया गया; पर उन्होंने इसके बदले देश भर में घूम कर संगठन को सबल बनाने का काम स्वीकार
किया।
जगन्नाथ जी कथा, कहानी, शब्द पहेली, चुटकुलों और गपशप के सम्राट थे। हाजिरजवाबी में वे
बीरबल के भी उस्ताद थे। व्यक्तिगत वार्ता में ही नहीं, तो जनसभाओं में भी उनके ऐसे किस्सों का लोग खूब आनंद उठाते थे। उनके क्रोध को
एक मित्र ने 'प्रेशर कुकर' की उपाधि दी थी, जो सीटी तो बहुत तेज
बजाता है; पर उसके बाद तुरन्त शांत भी हो जाता है।
जनसंघ और फिर भारतीय जनता
पार्टी के काम को देश भर में पहुंचाने के लिए जगन्नाथ जी ने 40 वर्ष तक अथक परिश्रम किया। कर्नाटक में उन्होंने संगठन को
ग्राम स्तर तक पहुंचाया। अतः उन्हें ‘कर्नाटक केसरी’कहा जाता है। प्रवास की इस अनियमितता के कारण वे मधुमेह के शिकार हो गये। अंगूठे
की चोट से उनके पैर में गैंग्रीन हो गया और उसे काटना पड़ा। लेकिन फिर भी वे ठीक
नहीं हो सके और 15 जुलाई, 1991 को उनका देहांत हो गया।
जगन्नाथ जी यद्यपि अनेक वर्ष
सांसद रहे; पर देहांत के समय उनके पास कोई व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं थी। गांव में उनके
हिस्से की खेती पट्टेदार कानून में चली गयी। मां की मृत्यु के बाद उन्होंने
पुश्तैनी घर से भी अधिकार छोड़ दिया। इस प्रकार प्रचारक वृत्ति का एक श्रेष्ठ
आदर्श उन्होंने स्थापित किया।
(संदर्भ : राष्ट्रसाधना, भाग एक)
१६जून महाराजा दाहिरसेन सिन्धुपति के बलिदान दिवस को भी हर दिन पावन में जगह मिलनी चाहिए जिनका पूरा परिवार देश की रक्षा हेतु आत्मोसर्ग कर गया व् उनकी दो पुत्रियों ने भी अपनी आबरू की रक्श्रार्थ दुअह्मन को मारकर एक दुसरे को कतार गोंप कर एटीएम बलिदान कर दिया ।
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