8 जून/जन्म-दिवस
तपस्वी प्रचारक मधुसूदन देव
यों तो राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ की परम्परा में पले-बढ़े सभी प्रचारक परिश्रम, सादगी, प्रेमभाव और
सरलता की प्रतिमूर्ति होते हैं; पर उनमें से कुछ के तपस्वी जीवन की छाप सामान्य
कार्यकर्त्ता के मन-मस्तिष्क पर बहुत गहराई से अंकित हो जाती है। श्री मधुसूदन
गोपाल देव जी ऐसे ही एक प्रचारक थे। कार्यकर्ताओं में वे ‘देव जी’ के नाम से
लोकप्रिय थे।
देव जी का जन्म
आठ जून, 1918 को धन्तोली, नागपुर में श्री
गोपाल देव एवं श्रीमती उमाबाई के घर में हुआ था। श्री गोपाल देव जी की डा. हेडगेवार से
घनिष्ठ मित्रता थी। अतः वे उनके घर में प्रायः आते रहते थे। इस कारण देव जी को संघ
के विचार और कार्यप्रणाली घुट्टी में ही प्राप्त हुए। जब वे धन्तोली सायं शाखा के
मुख्य शिक्षक बने, तो वह नागपुर में एक आदर्श शाखा मानी जाती थी। 100 बाल और 200 तरुण स्वयंसेवक प्रतिदिन वहाँ आते थे। वे मुख्यतः बाल विभाग का काम देखते
थे।
1937 में मैट्रिक और 1940 में बी.एस-सी. करने के बाद वे नागपुर के एक विद्यालय में विज्ञान के
अध्यापक हो गये। 1940 में डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद श्री गुरुजी सरसंघचालक बने। उन्होंने युवा
स्वयंसेवकों को आह्नान किया कि वे प्रचारक बनें और पूरा जीवन देश-धर्म की सेवा में
लगायें।
देव जी के मन को
भी इस आह्वान ने छू लिया और वे 1942 में अच्छे वेतन वाली पक्की नौकरी छोड़कर प्रचारक बन गये। श्री गुरुजी ने
उन्हें बिहार भेजा। इसके बाद तो वे यहीं के होकर रह गये। 1948 के प्रतिबन्ध के समय प्रचारकों को अनुमति दी गयी थी कि यदि वे चाहें, तो घर वापस जा
सकते हैं; पर देव जी ने बिहार नहीं छोड़ा। अपनी अन्तिम साँस भी
उन्होंने बिहार में ही ली।
मधु जी की रुचि
शारीरिक कार्यक्रमों में बहुत थी। उनका शरीर भी अत्यन्त सुगठित था। संघ के घोष और
सामान्य संगीत से भी उन्हें बहुत प्रेम था। इसलिए वे जहाँ भी रहे, वहाँ अच्छा घोष
पथक निर्माण किया। पटना में गीत-संगीत के कार्यक्रम होते रहते थे। ऐसे में वे सड़क
पर ही खड़े होकर संगीत का आनन्द लिया करते थे। मुंगेर, दरभंगा, पटना आदि स्थानों
पर उन्होंने संघ कार्य को गति दी। 1957 में वे बिहार के प्रान्त प्रचारक तथा आपातकाल के बाद 1977 में उत्तर प्रदेश और बिहार के सहक्षेत्र प्रचारक बने। 1980 में बिहार को अलग क्षेत्र तथा उन्हें क्षेत्र प्रचारक बनाया गया।पटना केन्द्र
होने के कारण बिहार के प्रमुख लोगों से देव जी का सम्पर्क रहता था। जयप्रकाश
नारायण उनमें से एक थे। यद्यपि वे संघ के प्रबल विरोधी थे; पर लगातार
सम्पर्क से उन्हें संघ कार्य समझ में आया। 1975में जब इन्दिरा
गान्धी ने देश में आपातकाल थोपा, तो उसके विरुद्ध हुए आन्दोलन में संघ के योगदान को
देखकर जयप्रकाश जी चकित रह गये। अब वे संघ के प्रशंसक बन गये। इतना ही नहीं, वे पटना में ‘संघ शिक्षा वर्ग’ के समापन में सात
अक्तूबर, 1977 को मुख्य अतिथि बनकर आये।
आगे चलकर देव जी
को बिहार, बंगाल और उड़ीसा का काम सौंपा गया। बढ़ती आयु के कारण
जब प्रवास कठिन होने लगा, तो 1995 में उन्हें बिहार में ‘विद्या भारती’ का संरक्षक बनाया
गया। 12 दिसम्बर 2006 को पटना में ही उनका देहान्त हुआ। उनके निधन से डा. हेडगेवार के समय में निर्माण हुए कार्यकर्त्ताओं की शृंखला का एक सुवर्ण
मोती और टूट गया।
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9 जून/बलिदान-दिवस
बन्दा बैरागी का बलिदान
बन्दा बैरागी का जन्म 27 अक्तूबर, 1670 को ग्राम तच्छल किला, पुंछ में श्री रामदेव के घर में हुआ। उनका बचपन का नाम लक्ष्मणदास था। युवावस्था में शिकार खेलते समय उन्होंने एक गर्भवती हिरणी पर तीर चला दिया। इससे उसके पेट से एक शिशु निकला और तड़पकर वहीं मर गया। यह देखकर उनका मन खिन्न हो गया। उन्होंने अपना नाम माधोदास रख लिया और घर छोड़कर तीर्थयात्रा पर चल दिये। अनेक साधुओं से योग साधना सीखी और फिर नान्देड़ में कुटिया बनाकर रहने लगे।
इसी दौरान गुरु गोविन्दसिंह जी माधोदास की कुटिया में आये। उनके चारों पुत्र बलिदान हो चुके थे। उन्होंने इस कठिन समय में माधोदास से वैराग्य छोड़कर देश में व्याप्त मुस्लिम आतंक से जूझने को कहा। इस भेंट से माधोदास का जीवन बदल गया। गुरुजी ने उसे बन्दा बहादुर नाम दिया। फिर पाँच तीर, एक निशान साहिब, एक नगाड़ा और एक हुक्मनामा देकर दोनों छोटे पुत्रों को दीवार में चिनवाने वाले सरहिन्द के नवाब से बदला लेने को कहा।
बन्दा हजारों सिख सैनिकों को साथ लेकर पंजाब की ओर चल दिये। उन्होंने सबसे पहले श्री गुरु तेगबहादुर जी का शीश काटने वाले जल्लाद जलालुद्दीन का सिर काटा। फिर सरहिन्द के नवाब वजीरखान का वध किया। जिन हिन्दू राजाओं ने मुगलों का साथ दिया था, बन्दा बहादुर ने उन्हें भी नहीं छोड़ा। इससे चारों ओर उनके नाम की धूम मच गयी।
उनके पराक्रम से भयभीत मुगलों ने दस लाख फौज लेकर उन पर हमला किया और विश्वासघात से 17 दिसम्बर, 1715 को उन्हें पकड़ लिया। उन्हें लोहे के एक पिंजड़े में बन्दकर, हाथी पर लादकर सड़क मार्ग से दिल्ली लाया गया। उनके साथ हजारों सिख भी कैद किये गये थे। इनमें बन्दा के वे 740 साथी भी थे, जो प्रारम्भ से ही उनके साथ थे। युद्ध में वीरगति पाए सिखों के सिर काटकर उन्हें भाले की नोक पर टाँगकर दिल्ली लाया गया। रास्ते भर गर्म चिमटों से बन्दा बैरागी का माँस नोचा जाता रहा।
काजियों ने बन्दा और उनके साथियों को मुसलमान बनने को कहा; पर सबने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। दिल्ली में आज जहाँ हार्डिंग लाइब्रेरी है,वहाँ 7 मार्च, 1716 से प्रतिदिन सौ वीरों की हत्या की जाने लगी। एक दरबारी मुहम्मद अमीन ने पूछा - तुमने ऐसे बुरे काम क्यों किये, जिससे तुम्हारी यह दुर्दशा हो रही है ?
बन्दा ने सीना फुलाकर सगर्व उत्तर दिया - मैं तो प्रजा के पीड़ितों को दण्ड देने के लिए परमपिता परमेश्वर के हाथ का शस्त्र था। क्या तुमने सुना नहीं कि जब संसार में दुष्टों की संख्या बढ़ जाती है, तो वह मेरे जैसे किसी सेवक को धरती पर भेजता है।
बन्दा से पूछा गया कि वे कैसी मौत मरना चाहते हैं ? बन्दा ने उत्तर दिया, मैं अब मौत से नहीं डरता; क्योंकि यह शरीर ही दुःख का मूल है। यह सुनकर सब ओर सन्नाटा छा गया। भयभीत करने के लिए उनके पाँच वर्षीय पुत्र अजय सिंह को उनकी गोद में लेटाकर बन्दा के हाथ में छुरा देकर उसको मारने को कहा गया।
बन्दा ने इससे इन्कार कर दिया। इस पर जल्लाद ने उस बच्चे के दो टुकड़ेकर उसके दिल का माँस बन्दा के मुँह में ठूँस दिया; पर वे तो इन सबसे ऊपर उठ चुके थे। गरम चिमटों से माँस नोचे जाने के कारण उनके शरीर में केवल हड्डियाँ शेष थी। फिर भी 9 जून, 1716 को उस वीर को हाथी से कुचलवा दिया गया। इस प्रकार बन्दा वीर बैरागी अपने नाम के तीनों शब्दों को सार्थक कर बलिपथ पर चल दिये।
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9 जून/पुण्य तिथि
समरसता के नव
संशोधक रामफल सिंह

अस्पृश्यता, जातिभेद तथा ऊंचनीच हिन्दू परम्परा का अंग नहीं हैं। यह बीमारियां मुसलमान आक्रांताओं की देन हैं, जिन्हें अंग्रेजों ने अपने हित के लिए खूब हवा दी। इस विचार को समाज में स्थापित कर समरसता अभियान को नयी दिशा देने वाले श्री रामफल सिंह का जन्म ग्राम मऊ मयचक (अमरोहा, उ.प्र.) में 15 अगस्त, 1934 को श्री दलसिंह के घर में हुआ था।
छात्र जीवन में उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और श्री अशोक सिंहल से हुआ। शिक्षा पूर्ण कर वे अध्यापक बन गये। इस बीच घर वालों ने उनका विवाह निश्चित कर दिया; पर विवाह से कुछ दिन पूर्व ही वे घर छोड़कर संघ के प्रचारक बन गये और फिर 20 साल बाद घर लौटे। सहारनपुर, रुड़की, बाराबंकी, फरूखाबाद, कानपुर आदि में संघ कार्य करने के बाद वे छह वर्ष तक हिमाचल प्रदेश में संभाग प्रचारक रहे।
1991 में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद के कार्य में भेजा गया। प्रारम्भ में वे उ.प्र. एवं मध्य प्रदेश के संगठन मंत्री रहे। ‘श्री रामजन्मभूमि आंदोलन’ में इन राज्यों के रामभक्तों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। कुछ वर्ष बाद उन्हें विश्व हिन्दू परिषद का केन्द्रीय मंत्री और ‘सामाजिक समरसता आयाम’ का प्रमुख बनाकर दिल्ली बुला लिया गया। पर यह काम कुछ अलग प्रकार का था।
निर्धन, निर्बल, वनवासियों, वंचित जातियों और जनजातियों को सेवा कार्य द्वारा समाज की मुख्यधारा में लाना इसका एक पहलू था; पर रामफलजी का ध्यान इसके दूसरे पहलू पर गया और वे इस बारे में शोध व अध्ययन करने लगे। शोध के दौरान उनके ध्यान में आया कि हिन्दू समाज के जिन वर्गों को अस्पृश्य या निम्न माना जाता है, वे सब वस्तुतः क्षत्रिय हैं। उन्होंने ही विधर्मी आक्रमणों को अपने सीने और तलवारों पर झेला था। इतना ही नहीं, उनके बड़े-बड़े राज्य भी थे।
युद्ध में सफल होकर विधर्मियों ने दमन एवं धर्मान्तरण का व्यापक चक्र चलाया। धर्मान्तरित लोगों को धन, धरती और दरबार में ऊंचा स्थान दिया गया; पर जिन्होंने किसी भी लालच, भय और दबाव के बावजूद अपना पवित्र हिन्दू धर्म नहीं छोड़ा, उनके घर, दुकान और खेती की जमीनें छीन ली गयीं। उन्हें मानव मल साफ करने जैसा गन्दा काम करने और गांव से बाहर रहने को मजबूर किया गया। सैकड़ों साल तक, पीढ़ी दर पीढ़ी यही काम करते रहने से वे हिन्दू समाज की मुख्य धारा से कट गये। उनकी आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्थिति खराब हो गयी। लोग उन्हें हीन मानकर उनसे दूर रहने लगे। इसी में से फिर छुआछूत और अस्पृश्यता का जन्म हुआ।
रामफलजी ने इन तथ्यों के आधार पर अनेक पुस्तकें लिखीं। छुआछूत गुलामी की देन है; आदिवासी या जनजाति नहीं, ये हैं मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानी; सिद्ध संत गुरु रविदास; प्रखर राष्ट्रभक्त डा. भीमराव अम्बेडकर; समरसता के सूत्र; घर के दरवाजे बन्द क्यों; सोमनाथ से अयोध्या-मथुरा-काशी; और मध्यकालीन धर्मयोद्धा उनकी बहुचर्चित कृतियां हैं। उन्होंने अध्ययनशील लोगों को इस विषय में और अधिक शोध के लिए प्रेरित भी किया।
इसके लिए उन्होंने देश भर में प्रवास कर सभी राज्यों में इन जातियों तथा जनजातियों के इतिहास को उजागर किया। इससे इन वर्गों का खोया आत्मविश्वास वापस आया। उनमें नयी चेतना जाग्रत हुई तथा कार्यकर्ताओं को बहुत सहयोग मिला। लगातार प्रवास से उनके यकृत (लीवर) में कई तरह के रोग उभर आये। काफी इलाज के बाद भी वे नियन्त्रित नहीं हो सके और 9 जून, 2010 को दिल्ली के एक चिकित्सालय में उनका शरीरांत हुआ।
समरसता के काम में उनके मौलिक चिन्तन, अध्ययन और शोध से जो नये अध्याय जुड़े, वे आज भी सबके लिए दिशा सूचक एवं प्रेरक हैं।
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10 जून/विजय दिवस
पराक्रमी राजा सुहेलदेव
विदेशी एवं विधर्मी हमलावर सालार मसूद को बहराइच (उ.प्र.) में उसकी एक लाख बीस हजार सेना सहित पराजित करने वाले राजा सुहेलदेव का जन्म श्रावस्ती के राजा त्रिलोकचंद के वंशज पासी मंगलध्वज (मोरध्वज) के घर में माघ कृष्ण 4, विक्रम संवत 1053 (सकट चतुर्थी) को हुआ था। अत्यन्त तेजस्वी होने के कारण इनका नाम सुहेलदेव (चमकदार सितारा) रखा गया।
वि.सं. 1078 में इनका विवाह हुआ तथा पिता के देहांत के बाद वसंत पंचमी वि.सं. 1084 को ये राजा बने। इनके राज्य में आज के बहराइच, गोंडा, बलरामपुर, बाराबंकी, फैजाबाद तथा श्रावस्ती के अधिकांश भाग आते थे। बहराइच में बालार्क (बाल+अर्क = बाल सूर्य) मंदिर था, जिस पर सूर्य की प्रातःकालीन किरणें पड़ती थीं। मंदिर में स्थित तालाब का जल गंधकयुक्त होने के कारण कुष्ठ व चर्म रोग में लाभ करता था। अतः दूर-दूर से लोग उस कुंड में स्नान करने आते थेे।
महमूद गजनवी ने भारत में अनेक राज्यांे को लूटा तथा सोमनाथ सहित अनेक मंदिरों का विध्वंस किया। उसकी मृत्यु के बाद उसका बहनोई सालार साहू अपने पुत्र सालार मसूद, सैयद हुसेन गाजी, सैयद हुसेन खातिम, सैयद हुसेन हातिम, सुल्तानुल सलाहीन महमी, बढ़वानिया, सालार, सैफुद्दीन, मीर इजाउद्दीन उर्फ मीर सैयद दौलतशाह, मियां रज्जब उर्फ हठीले, सैयद इब्राहिम बारह हजारी तथा मलिक फैसल जैसे साथियों सहित भारत आया। बाराबंकी के सतरिख (सप्तऋषि आश्रम) पर कब्जा कर उसने अपनी छावनी बनायी।
यहां से पिता सेना का एक भाग लेकर काशी की ओर चला; पर हिन्दू वीरों ने उसे प्रारम्भ में ही मार गिराया। पुत्र मसूद अनेक क्षेत्रों को रौंदते हुए बहराइच पहुंचा। उसका इरादा बालार्क मंदिर को तोड़ना था; पर राजा सुहेलदेव भी पहले से तैयार थे। उन्होंने निकट के अनेक राजाओं के साथ उससे लोहा लिया।
कुटिला नदी के तट पर हुए राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में हुए इस धर्मयुद्ध में उनका साथ देने वाले राजाओं में प्रमुख थे रायब, रायसायब, अर्जुन, भग्गन, गंग, मकरन, शंकर, वीरबल, अजयपाल, श्रीपाल, हरकरन, हरपाल, हर, नरहर, भाखमर, रजुन्धारी, नरायन, दल्ला, नरसिंह, कल्यान आदि। वि.सं. 1091 के ज्येष्ठ मास के पहले गुरुवार के बाद पड़ने वाले रविवार (10 जून, 1034 ई.) को राजा सुहेलदेव ने उस आततायी का सिर धड़ से अलग कर दिया। तब से ही क्षेत्रीय जनता इस दिन चित्तौरा (बहराइच) में विजयोत्सव मनाने लगी।
इस विजय के परिणामस्वरूप अगले 200 साल तक विधर्मी हमलावरों का इस ओर आने का साहस नहीं हुआ। पिता और पुत्र के वध के लगभग 300 साल बाद दिल्ली के शासक फीरोज तुगलक ने बहराइच के बालार्क मंदिर व कुंड को नष्ट कर वहां मजार बना दी। अज्ञानवश लोग उसे सालार मसूद गाजी की दरगाह कहकर विजयोत्सव वाले दिन ही पूजने लगे, जबकि उसकी मृत्यु वहां से पांच कि.मी. दूर चित्तौरा में हुई थी।
कालान्तर में इसके साथ कई अंधविश्वास जुड़ गये। वह चमत्कारी तालाब तो नष्ट हो गया था; पर एक छोटे पोखर में ही लोग चर्म रोगों से मुक्ति के लिए डुबकी लगाने लगे। ऐसे ही अंधों को आंख और निःसंतानों को संतान मिलने की बातें होने लगीं। हिन्दुओं की इसी मूर्खता को देखकर तुलसी बाबा ने कहा था -
लही आंख कब आंधरो, बांझ पूत कब जाय
कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाय।।
उ.प्र. की राजधानी लखनऊ में राजा सुहेलदेव की वीर वेष में घोड़े पर सवार मनमोहक प्रतिमा स्थापित है।
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10 जून/जन्म-दिवस
आपातकाल के शिकार
पांडुरंग पंत क्षीरसागर
पांडुरंग पंत क्षीरसागर
का जन्म 10 जून, 1918 को वर्धा
(महाराष्ट्र) के हिंगणी गांव में हुआ था। बालपन में ही वे यहां की शाखा में जाने
लगे। आगामी शिक्षा के लिए नागपुर आकर वे इतवारी शाखा के स्वयंसेवक बने, जो संख्या, कार्यक्रम तथा वैचारिक रूप से बहुत प्रभावी थी। श्री
बालासाहब देवरस उस शाखा के कार्यवाह थे। शीघ्र ही वे बालासाहब के विश्वस्त मित्र
बन गये। उनकी प्रेरणा से पांडुरंग जी ने आजीवन संघ कार्य करने का निश्चय कर लिया।
प्रारम्भ में उन्हें
बंगाल भेजा गया। बंगाल उन दिनों संघ कार्य के लिए एक कठिन प्रांत माना जाता था; पर उनके प्रयास से कुछ स्थानीय युवक प्रचारक बने। उन्होंने चार-पांच साल वहां
काम किया। इस बीच उन्हें ‘फ्लुरसी’ रोग हो गया। वहां के इलाज से उन्हें कुछ लाभ नहीं हुआ, अतः 1946 में उन्हें महाराष्ट्र के वाई गांव में तीन वर्ष तक
चिकित्सा हेतु रखा गया। वहां से स्वास्थ्य लाभ कर उन्हें 1950 में नागपुर कार्यालय प्रमुख का काम दिया गया।
उन दिनों सब केन्द्रीय
कार्यकर्ताओं का केन्द्र नागपुर ही था। सब केन्द्रीय बैठकें भी वहीं होती थीं।
उनकी व्यवस्था बहुत कुशलता से पांडुरंगजी करते थे। महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानों
से अनेक कार्यकर्ता चिकित्सा के लिए नागपुर आते थे। उनकी तथा उनके परिवारों की
व्यवस्था भी पांडुरंगजी ही देखते थे। इससे संघ कार्य को दूरस्थ क्षेत्रों तक
पहुंचाने में बहुत सहयोग हुआ। नागपुर से जाने वाले तथा साल में एक-दो बार घर आने
वाले प्रचारकों के वस्त्र आदि की भी वे व्यवस्था करते थे। इस प्रकार वे कार्यालय
आने वाले सब कार्यकर्ताओं के अभिभावक की भूमिका निभाते थे।
1955 में उन्हें ‘अखिल भारतीय व्यवस्था
प्रमुख’ की जिम्मेदारी दी गयी। वे अन्य कामों की तरह हिसाब-किताब भी
बहुत व्यवस्थित ढंग से रखते थे। आपातकाल में पुलिस ने संघ कार्यालय का सब साहित्य
जब्त कर लिया। संघ को बदनाम करने के लिए हिसाब-किताब बहुत बारीकी से जांचा गया; पर वह इतना व्यवस्थित था कि शासन कहीं आपत्ति नहीं कर सका। आपातकाल के बाद वे
बहियां वापस करते हुए सरकारी अधिकारियों ने कहा कि सार्वजनिक संस्थाओं का हिसाब
कैसा हो, यह संघ से सीखना चाहिए।
1962 में ‘स्मृति मंदिर’ का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। उसकी देखरेख पांडुरंगजी पर ही थी। वहां
राजस्थान के अनेक मुसलमान कारीगर भी काम कर रहे थे। उन्हीं दिनों वहां दंगा भड़क
उठा। ऐसे में नागपुर के मुसलमानों ने कारीगरों से कहा कि संघ वाले तुम्हें नहीं
छोड़ेंगे; पर वे पांडुरंगजी से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने काम नहीं
छोड़ा। इतना ही नहीं, तो स्मृति मंदिर बनने के बाद जब श्री गुरुजी
राजस्थान के प्रवास पर गये, तो वे कारीगर उनसे मिलने
आये।
आपातकाल में उन्हें ठाणे
जेल में रखा गया। वहां अन्य दलों के लोग भी थे। उन सबसे पांडुरंगजी ने बहुत आत्मीय
संबंध बना लिये। इसलिए अन्य दलों के लोग भी उनका बहुत आदर करते थे। ठाणे का मौसम
उनके लिए अनुकूल नहीं था, अतः उनका ‘फ्लुरसी’ का रोग फिर उभर आया। उन्होंने शासन को अपना स्थान बदलने का
आवेदन दिया, जो व्यर्थ गया और अंततः 23 सितम्बर, 1976 को उसी जेल में उनका देहांत हो गया।
पांडुरंगजी का अंतिम
संस्कार नागपुर में ही किया गया। आपातकाल के बावजूद हजारों लोग उनकी अंतिम यात्रा
में शामिल हुए। इस प्रकार कांग्रेस शासन की निर्ममता ने एक वरिष्ठ कार्यकर्ता के
प्राण ले लिये। पांडुरंगजी पर सब वरिष्ठ कार्यकर्ताओं का दृढ़ विश्वास था। इसीलिए
सरसंघचालक श्री गुरुजी ने वे तीन पत्र उनके पास रखे थे, जो उनके देहांत के बाद ही खोले गये। ‘रेशीम बाग’ में बने एक भवन का नाम उनकी स्मृति में ‘पांडुरंग भवन’ रखा गया है।
(संदर्भ: राष्ट्रसाधना भाग दो/नागपुर कार्यालय पर लगा
चित्र/हमारे बालासाहब देवरस/176, प्रभात प्रकाशन)
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11 जून/जन्म-दिवस
काकोरी कांड के
नायक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल
पंडित रामप्रसाद
का जन्म 11 जून, 1897 को शाहजहाँपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता श्री मुरलीधर
शाहजहाँपुर नगरपालिका में कर्मचारी थे; पर आगे चलकर
उन्होंने नौकरी छोड़कर निजी व्यापार शुरू कर दिया। रामप्रसाद जी बचपन से महर्षि
दयानन्द तथा आर्य समाज से बहुत प्रभावित थे। शिक्षा के साथ साथ वे यज्ञ, सन्ध्या वन्दन, प्रार्थना आदि भी
नियमित रूप से करते थे।
स्वामी दयानन्द
द्वारा विरचित ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़कर उनके मन
में देश और धर्म के लिए कुछ करने की प्रेरणा जगी। इसी बीच शाहजहाँपुर आर्य समाज
में स्वास्थ्य लाभ करने के लिए स्वामी सोमदेव नामक एक संन्यासी आये। युवक
रामप्रसाद ने बड़ी लगन से उनकी सेवा की। उनके साथ वार्तालाप में रामप्रसाद को अनेक
विषयों में वैचारिक स्पष्टता प्राप्त हुई। रामप्रसाद जी ‘बिस्मिल’ उपनाम से हिन्दी
तथा उर्दू में कविता भी लिखतेे थे।
1916 में भाई परमानन्द को ‘लाहौर षड्यन्त्र
केस’ में फाँसी की सजा घोषित हुई। बाद में उसे आजीवन
कारावास में बदलकर उन्हें कालेपानी (अन्दमान) भेज दिया गया। इस घटना को सुनकर
रामप्रसाद बिस्मिल ने प्रतिज्ञा कर ली कि वे ब्रिटिश शासन से इस अन्याय का बदला
अवश्य लेंगे। इसके बाद वे अपने जैसे विचार वाले लोगों की तलाश में जुट गये।
लखनऊ में उनका
सम्पर्क क्रान्तिकारियों से हुआ। मैनपुरी को केन्द्र बनाकर उन्होंने प्रख्यात
क्रान्तिकारी गेंदालाल दीक्षित के साथ गतिविधियाँ शुरू कीं। जब पुलिस ने पकड़ धकड़
शुरू की, तो वे फरार हो गये। कुछ समय बाद शासन ने वारंट वापस
ले लिया। अतः ये घर आकर रेशम का व्यापार करने लगे; पर इनका मन तो
कहीं और लगा था। उनकी दिलेरी,सूझबूझ देखकर क्रान्तिकारी दल ने उन्हें अपने कार्यदल
का प्रमुख बना दिया।
क्रान्तिकारी दल
को शस्त्रास्त्र मँगाने तथा अपनी गतिविधियों के संचालन के लिए पैसे की बहुत
आवश्यकता पड़ती थी। अतः बिस्मिल जी ने ब्रिटिश खजाना लूटने का सुझाव रखा। यह बहुत
खतरनाक काम था; पर जो डर जाये, वह क्रान्तिकारी
ही कैसा ? पूरी योजना बना
ली गयी और इसके लिए नौ अगस्त, 1925 की तिथि निश्चित हुई।
निर्धारित तिथि
पर दस विश्वस्त साथियों के साथ पंडित रामप्रसाद बिस्मिल ने लखनऊ से खजाना लेकर
जाने वाली रेल को काकोरी स्टेशन से पूर्व दशहरी गाँव के पास चेन खींचकर रोक लिया।
गाड़ी रुकते ही सभी साथी अपने-अपने काम में लग गये। रेल के चालक तथा गार्ड को
पिस्तौल दिखाकर चुप करा दिया गया। सभी यात्रियों को भी गोली चलाकर अन्दर ही रहने
को बाध्य किया गया। कुछ साथियों ने खजाने वाले बक्से को घन और हथौड़ों से तोड़
दिया और उसमें रखा सरकारी खजाना लेकर सब फरार हो गये।
परन्तु आगे चलकर
चन्द्रशेखर आजाद को छोड़कर इस कांड के सभी क्रान्तिकारी पकड़े गये। इनमें से
रामप्रसाद बिस्मिल, रोशन सिंह, अशफाक उल्ला खाँ
तथा राजेन्द्र लाहिड़ी को फाँसी की सजा सुनायी गयी। रामप्रसाद जी को गोरखपुर जेल
में बन्द कर दिया गया। वे वहाँ फाँसी वाले दिन तक मस्त रहे। अपना नित्य का व्यायाम, पूजा, सन्ध्या वन्दन उन्होंने
कभी नहीं छोड़ा।
19 दिसम्बर, 1927 को बिस्मिल को गोरखपुर, अशफाक उल्ला को
फैजाबाद तथा रोशन सिंह को प्रयाग में फाँसी दे दी गयी।
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12 जून/बलिदान-दिवस
महासमर के योद्धा बाबासाहब
नरगुन्दकर
भारत माँ को
दासता की शृंखला से मुक्त कराने के लिए 1857 में हुए महासमर के सैकड़ों ऐसे ज्ञात और अज्ञात योद्धा हैं, जिन्होंने अपने
शौर्य,पराक्रम और उत्कट देशभक्ति से ने केवल उस संघर्ष को
ऊर्जा दी, बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी वे प्रेरणास्पद बन
गये। बाबा साहब नरगुन्दकर ऐसे ही एक योद्धा थे।
इस महासंग्राम के
नायक श्रीमन्त नाना साहब पेशवा ने 1855 से ही देश भर के राजे, रजवाड़ों, जमीदारों आदि से
पत्र व्यवहार शुरू कर दिया था। इन पत्रों में अंग्रेजों के कारण हो रही देश की
दुर्दशा और उन्हें निकालने के लिए किये जाने वाले भावी संघर्ष में सहयोग का आह्नान
किया जाता था। प्रायः बड़ी रियासतों ने अंग्रेजों से मित्रता बनाये रखने में ही
अपना हित समझा; पर छोटी रियासतों ने उनके पत्र का अच्छा प्रतिसाद
दिया।
10 मई को मेरठ में क्रान्ति की
ज्वाला प्रकट होने पर सम्पूर्ण उत्तर भारत में स्वातन्त्र्य चेतना जाग्रत
हुई। दिल्ली, कानपुर, अवध आदि से
ब्रिटिश शासन समाप्त कर दिया गया। इसके बाद नानासाहब ने दक्षिणी राज्यों से
सम्पर्क प्रारम्भ किया। कुछ ही समय में वहाँ भी चेतना के बीज प्रस्फुटित होने लगे।
कर्नाटक के
धारवाड़ क्षेत्र में नरगुन्द नामक एक रियासत थी। उसके लोकप्रिय शासक भास्कर राव
नरगुन्दकर जनता में बाबा साहब के नाम से प्रसिद्ध थे। वीर होने के साथ-साथ वे स्वाभिमानी
और प्रकाण्ड विद्वान भी थे। उन्होंने अपने महल में अनेक भाषाओं की 4,000 दुर्लभ पुस्तकों का एक विशाल
पुस्तकालय बना रखा था। अंग्रेजी शासन को वे बहुत घृणा की दृष्टि से देखते थे।
उत्तर भारत में क्रान्ति का समाचार और नाना साहब का सन्देश पाकर उन्होंने भी अपने
राज्य में स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी।
ईस्ट इण्डिया
कम्पनी को जैसे ही यह सूचना मिली, उन्होंने मुम्बई के पोलिटिकल एजेण्ट जेम्स मेंशन के
नेतृत्व में एक सेना बाबा साहब को सबक सिखाने के लिए भेज दी। इस सेना ने नरगुन्द
के पास पड़ाव डाल दिया। सेनापति मेंशन भावी योजना बनाने लगा। बाबा साहब के पास
सेना कम थी, अतः उन्होंने शिवाजी की गुरिल्ला प्रणाली का प्रयोग
करते हुए रात के अंधेरे में इस सेना पर हमला बोल दिया। अंग्रेज सेना में अफरा-तफरी
मच गयी। जेम्स मेंशन जान बचाकर भागा; पर बाबा साहब ने
उसका पीछा किया और पकड़कर मौत के घाट उतार दिया।
इसके बाद
अंग्रेजों ने सेनापति माल्कम को और भी बड़ी सेना लेकर भेजा। इस सेना ने नरगुन्द को
चारों ओर से घेर लिया। बाबा साहब ने इसके बाद भी हिम्मत नहीं हारी। ‘पहले मारे सो मीर’ के सिद्धान्त का
पालन करते हुए उन्होंने किले से नीचे उतरकर माल्कम की सेना पर हमला कर अंग्रेजों
को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया; पर उसी समय ब्रिटिश सेना की एक नयी टुकड़ी माल्कम की
सहायता को आ गयी।
अब नरगुन्द का
घेरा और कस गया। बाबा साहब की सेना की अपेक्षा ब्रिटिश सेना पाँच गुनी थी। एक दिन
मौका पाकर बाबा साहब कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ किले से निकल गये। माल्कम ने
किले पर अधिकार कर लिया। अब उसने अपनी पूरी शक्ति बाबा साहब को ढूँढने में लगा दी।
दुर्भाग्यवश एक विश्वासघाती के कारण बाबा साहब पकड़े गये। 12 जून, 1858 को बाबा साहब ने मातृभूमि की जय बोलकर फाँसी का फन्दा चूम लिया।
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13 जून/बलिदान-दिवस
ओबरी युद्ध के
नायक राजा बलभद्र सिंह चहलारी
भारत माँ को
दासता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए देश का कोई कोना ऐसा नहीं था, जहाँ छोटे से
लेकर बड़े तक, निर्धन से लेकर धनवान तक, व्यापारी से लेकर
कर्मचारी और कवि, कलाकार, साहित्यकार तक
सक्रिय न हुए हों। यह बात और है किसी को इस संग्राम में सफलता मिली, तो किसी को
निर्वासन और वीरगति।
चहलारी, बहराइच (उत्तर
प्रदेश) के 18 वर्षीय जमींदार बलभद्र सिंह ऐसे
ही वीर थे। उनका जन्म 10 जून, 1840 को चहलारी रियासत के ग्राम मुरौबाडीह में हुआ था। 1970-71 की बाढ़ में घाघरा नदी की कटान से यह गांव पूरी तरह नदी में विलीन हो गया। उनके पास 33 गाँवों की जमींदारी थी। उनकी
गाथाएँ आज भी लोकगीतों में जीवित हैं। 1857 में जब भारतीय वीरों ने मेरठ में
युद्ध प्रारम्भ किया, तो अंग्रेजों ने सब ओर भारी दमन किया। अवध के नवाब
वाजिद अली शाह की गिरफ्तारी के बाद उनकी बेगम हजरत महल ने लखनऊ छोड़कर राजा हरदत्त
सिंह (बौड़ी) के गढ़ को केन्द्र बनाया। उन्होंने वहाँ अपने विश्वासपात्र राजाओं, जमींदारों तथा
स्वाधीनता सेनानियांे की बैठक बुलाकर सबको इस महासंग्राम में कूदने का आह्नान किया।
अपने छोटे भाई
छत्रपाल सिंह के विवाह के कारण बलभद्र सिंह इस बैठक में आ नहीं पाये। बेगम ने
उन्हें बुलाने के लिए एक विशेष सन्देशवाहक भेजा। इस पर बलभद्र सिंह बारात को बीच में ही छोड़कर बौड़ी आ गये। बेगम ने
उन्हें सारी योजना बतायी, जिसके अनुसार सब राजा अपनी सेना लेकर महादेवा
(बाराबंकी) में एकत्र होने थे। बलभद्र सिंह ने इससे पूरी सहमति व्यक्त की और अपने
गाँव लौटकर सेनाओं को एकत्र कर लिया।
जब बलभद्र सिंह
सेना के साथ प्रस्थान करने लगे, तो वे अपनी गर्भवती पत्नी के पास गये। वीर पत्नी ने
उनके माथे पर रोली-अक्षत का टीका लगाया और अपने हाथ से कमर में तलवार बाँधी। इसी
प्रकार राजमाता ने भी बेटे को आशीर्वाद देकर अन्तिम साँस तक अपने वंश और देश की
मर्यादा की रक्षा करने को कहा। बलभद्र सिंह पूरे उत्साह से महादेवा जा पहुँचे।
महादेवा में
बलभद्र सिंह के साथ ही अवध क्षेत्र के सभी देशभक्त राजा एवं जमींदार अपनी सेना के
साथ आ चुके थे। वहाँ राम चबूतरे पर एक सम्मेलन हुआ, जिसमें सबको
अलग-अलग मोर्चे सौंपे गये। बलभद्र सिंह को नवाबगंज के मोर्चे का नायक बनाकर बेगम
ने शाही चिन्हों के साथ ‘राजा’ की उपाधि और 100 गाँवों की जागीर प्रदान की।
बलभद्र सिंह ने 16,000 सैनिकों के साथ मई 1958 के अन्त में ओबरी (नवाबगंज) में मोर्चा लगाया। वे यहाँ से आगे बढ़ते हुए
लखनऊ को अंग्रेजों से मुक्त कराना चाहते थे। उधर अंग्रेजों को भी सब समाचार मिल
रहे थे। अतः ब्रिगेडियर होप ग्राण्ट के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी गयी, जिसके पास
तोपखाने से लेकर अन्य सभी आधुनिक शस्त्र थे।
13 जून को दोनों सेनाओं में भयानक
युद्ध हुआ। बलभद्र सिंह ने अपनी सेना को चार भागों में बाँट कर युद्ध किया। एक बार
तो अंग्रेजों के पाँव उखड़ गये; पर तभी दो नयी
अंग्रेज टुकड़ियाँ आ गयीं, जिससे पासा पलट गया। कई जमींदार और राजा डर कर भाग
खड़े हुए; पर बलभद्र सिंह चहलारी वहीं डटे रहे। अंग्रेजों ने
तोपों से गोलों की झड़ी लगा दी, जिससे अपने हजारों साथियों के साथ राजा बलभद्र सिंह
भी वीरगति को प्राप्त हुए।
इस युद्ध में
राजा बलभद्र सिंह चहलारी के साहस की अंग्रेज सेनानायकों ने भी बहुत प्रशंसा की है; पर इसमें पराजय
से भारत की स्वतन्त्रता का स्वप्न अधूरा रह गया।
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13 जून/बलिदान-दिवस
गंगापुत्र : स्वामी निगमानंद
मां गंगा भारत की
प्राण रेखा है। भारत की एक तिहाई जनसंख्या गंगा पर ही आश्रित है; पर उसका अस्तित्व
आज संकट में है। उसे बड़े-बड़े बांध बनाकर बन्दी बनाया जा रहा है। उसके किनारे बसे
नगरों की संपूर्ण गंदगी उसी में बहा दी जाती है। वहां के उद्योगों के अपशिष्ट
पदार्थ उसी में डाल दिये जाते हैं। इस प्रकार गंगा को मृत्यु की ओर धकेला जा रहा
है।
गंगा एवं
हरिद्वार के सम्पूर्ण कुंभ क्षेत्र की इस दुर्दशा की ओर जनता तथा शासन का ध्यान
दिलाने के लिए अनेक साधु-सन्तों और मनीषियों ने कई बार धरने, प्रदर्शन और अनशन
किये; पर पुलिस, प्रशासन और
माफिया गिरोहों की मिलीभगत से हर बार आश्वासन के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिला।
गंगा में बहकर
आने वाले पत्थरों को छोटे-बड़े टुकड़ों में तोड़कर उसका उपयोग निर्माण कार्य में
होता है। इसके लिए शासन ठेके देता है; पर ठेकेदार
निर्धारित मात्रा से अधिक पत्थर निकाल लेते हैं। वे गंगा के तट पर ही पत्थर तोड़ने
वाले स्टोन क्रेशर लगा देते हैं। इसके शोर तथा धूल से आसपास रहने वाले लोगों का
जीना कठिन हो जाता है।
हरिद्वार एक
तीर्थ है। वहां स्थित हजारों आश्रमों में रहकर सन्त लोग साधना एवं स्वाध्याय करते
हैं। ऐसे ही एक आश्रम ‘मातृसदन’ के संत निगमानंद
ने गंगा के साथ हो रहे इस अत्याचार के विरुद्ध अनशन करते हुए 13 जून, 2011 को अपने प्राणों की आहुति दे दी।
स्वामी निगमानंद
का जन्म ग्राम लदारी, जिला दरभंगा (बिहार) में 1977में हुआ था। श्री
प्रकाशचंद्र झा के विज्ञान, पर्यावरण एवं अध्यात्मप्रेमी इस तेजस्वी पुत्र का नाम
स्वरूपम् कुमार था। दरभंगा के सर्वोदय इंटर क१लिज से मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण
कर वे हरिद्वार आ गये तथा मातृसदन के संस्थापक स्वामी शिवानंद से दीक्षा लेकर
स्वामी निगमानंद हो गये। घर छोड़ते समय उन्होंने अपने पिताजी को पत्र में लिखा कि
मां जानकी की धरती पर जन्म लेने के कारण सत्य की खोज करना उनकी प्राथमिकता है।
मातृसदन के
संन्यासियों ने गंगा की रक्षा के लिए कई बार आंदोलन किये हैं। न्यायालय ने इन अवैध
क्रेशरों पर रोक भी लगाई; पर समस्या का स्थायी समाधान नहीं हुआ। स्वामी
निगमानंद ने इसके लिए 2008में भी 73 दिन का अनशन किया था। इससे उनके
शरीर के कई अंग स्थायी रूप से कमजोर हो गये। इस बार 19 फरवरी, 2011 से उन्होंने फिर अनशन प्रारम्भ
किया था।
पर इस बार का
अनशन प्राणघातक सिद्ध हुआ। उनकी हालत बिगड़ती देख 27 अपै्रल, 2011 को शासन ने उन्हें हरिद्वार के जिला चिकित्सालय में भर्ती करा दिया। तब तक
उनकी बोलने, देखने और सुनने की शक्ति क्षीण हो चुकी थी। इलाज से
उनकी स्थिति कुछ सुधरी;पर दो जून को वे अचानक कोमा में चले गये। इस पर शासन
उन्हें जौलीग्रांट स्थित हिमालयन मैडिकल क१लिज में ले गया, जहां 13 जून, 2011 को उनका शरीरांत हो गया।
स्वामी निगमानंद
के गुरु स्वामी शिवानंद जी का आरोप है कि हरिद्वार के चिकित्सालय में उन्हें जहर
दिया गया। आरोप-प्रत्यारोप के बीच इतना तो सत्य ही है कि गंगा में हो रहे अवैध खनन
के विरुद्ध अनशन कर एक 34 वर्षीय युवा संत ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। 16 जून को उन्हें विधि-विधान सहित मातृसदन में ही समाधि दे दी गयी।
स्वामी निगमानंद
ने यह सिद्ध कर दिया कि भजन और पूजा करने वाले संत समय पड़ने पर सामाजिक व धार्मिक
विषयों पर अहिंसक मार्ग से आंदोलन करते हुए अपने प्राण भी दे सकते हैं। उनकी समाधि
हरिद्वार में गंगाप्रेमियों का एक नया तीर्थ बन गयी है। (संदर्भ : तत्कालीन
पत्र-पत्रिकाएं)
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14 जून/जन्म-दिवस
प्रसिद्धि से दूर : भाऊसाहब भुस्कुटे
संघ संस्थापक डा. हेडगेवार की दृष्टि बड़ी अचूक थी। उन्होंने ढूँढ-ढूँढकर ऐसे हीरे एकत्र
किये, जिन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन और परिवार की चिन्ता
किये बिना पूरे देश में संघ कार्य के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। ऐसे
ही एक श्रेष्ठ प्रचारक थे 14 जून, 1915 को बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) में
जन्मे श्री गोविन्द कृष्ण भुस्कुटे, जो भाऊसाहब
भुस्कुटे के नाम से प्रसिद्ध हुए।
18 वीं सदी में इनके अधिकांश
पूर्वजों को जंजीरा के किलेदार सिद्दी ने मार डाला था। जो किसी तरह बच गयेे, वे पेशवा की सेना
में भर्ती हो गयेे। उनके शौर्य से प्रभावित होकर पेशवा ने उन्हें बुरहानपुर, टिमरनी और
निकटवर्ती क्षेत्र की जागीर उपहार में दे दी थी। उस क्षेत्र में लुटेरों का बड़ा
आतंक था; पर इनके पुरखों ने उन्हें कठोरता से समाप्त किया। इस
कारण इनके परिवार को पूरे क्षेत्र में बड़े आदर से देखा जाता था।
इनका परिवार
टिमरनी की विशाल गढ़ी में रहता था। भाऊसाहब सरदार कृष्णराव एवं माता अन्नपूर्णा की
एकमात्र सन्तान थे। अतः इन्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं देखना पड़ा। प्राथमिक
शिक्षा अपने स्थान पर ही पूरी कर वे पढ़़ने के लिए नागपुर आ गये। 1932 की विजयादशमी से वे नियमित शाखा
पर जाने लगे।
1933 में उनका सम्पर्क डा. हेडगेवार से हुआ। भाऊसाहब ने 1937 में बी.ए आनर्स, 1938 में एम.ए तथा 1939 में कानून की परीक्षाएँ प्रथम
श्रेणी में उत्तीर्ण की। इसी दौरान उन्होंने संघ शिक्षा वर्गों का प्रशिक्षण भी
पूरा किया और संघ योजना से प्रतिवर्ष शिक्षक के रूप में देश भर के वर्गों में जाने
लगे।
जब भाऊसाहब ने
प्रचारक बनने का निश्चय किया, तो वंश समाप्ति के भय से घर में खलबली मच गयी; क्योंकि वे अपने
माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। प्रारम्भ में उन्हें झाँसी भेजा गया; पर फिर डा. हेडगेवार ने
उन्हें गृहस्थ जीवन अपनाकर प्रचारक जैसा काम करने की अनुमति दी। 1941 में उनका विवाह हुआ और इस प्रकार
वे प्रथम गृहस्थ प्रचारक बने। वे संघ से केवल प्रवास व्यय लेते थे, शेष खर्च वे अपनी
जेब से करते थे।
यद्यपि भाऊसाहब
बहुत सम्पन्न परिवार के थे; पर उनका रहन सहन इतना साधारण था कि किसी को ऐसा अनुभव
ही नहीं होता था। प्रवास के समय अत्यधिक निर्धन कार्यकर्त्ता के घर रुकने में भी
उन्हें कोई संकोच नहीं होता था। धार्मिक वृत्ति के होने के बाद भी वे देश और धर्म
के लिए घातक बनीं रूढ़ियांे तथा कार्य में बाधक धार्मिक परम्पराओं से दूर रहते थे।
द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी सब कार्यकर्त्ताओं को भाऊसाहब से प्रेरणा लेने को
कहते थे।
1948 में गांधी हत्याकाण्ड के समय
उन्हें गिरफ्तार कर छह मास तक होशंगाबाद जेल में रखा गया; पर मुक्त होते ही
उन्होंने संगठन के आदेशानुसार फिर सत्याग्रह कर दिया। इस बार वे प्रतिबंध समाप्ति
के बाद ही जेल से बाहर आये। आपातकाल में 1975 से 1977 तक पूरे समय वे जेल में रहे। जेल
में उन्होंने अनेक स्वयंसेवकों को संस्कृत तथा अंग्रेजी सिखाई। जेल में ही उन्होंने ‘हिन्दू धर्म:
मानव धर्म’ नामक ग्रन्थ की रचना की।
उन पर प्रान्त
कार्यवाह से लेकर क्षेत्र प्रचारक तक के दायित्व रहे। भारतीय किसान संघ की स्थापना
होने पर श्री दत्तोपन्त ठेेंगड़ी के साथ भाऊसाहब भी उसके मार्गदर्शक रहे। 75 वर्ष पूरे होने पर
कार्यकर्त्ताओं ने उनके ‘अमृत महोत्सव’ की योजना बनायी।
भाऊसाहब इसके लिए बड़ी कठिनाई से तैयार हुए। वे कहते थे कि मैं उससे पहले ही भाग
जाऊँगा और तुम ढूँढते रह जाओगे। वसंत पंचमी (21 जनवरी, 1991) की तिथि इसके लिए
निश्चित की गयी; पर उससे बीस दिन पूर्व एक जनवरी, 1991 को वे सचमुच चले गये।
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14 जून/जन्म-दिवस
अहिंसा यात्रा के
पथिक : आचार्य महाप्रज्ञ
आतंकवाद, अशांति, अनुशासनहीनता और
अव्यवस्था से विश्व को बचाने का एकमात्र उपाय अंिहंसा ही है। देश के दूरस्थ गांवों
में लाखों कि.मी पदयात्रा कर यह संदेश फैलाने वाले जैन सन्त आचार्य महाप्रज्ञ का
जन्म14 जून, 1920 (आषाढ़ कृष्ण 13) को राजस्थान के
झुंझनू जिले के ग्राम तमकोड़ में हुआ था।
बचपन में इनका
नाम नथमल था। पिता श्री तोलाराम चोरड़िया का देहांत जल्दी हो जाने से इनका पालन
माता श्रीमती बालू ने किया। धार्मिक स्वभाव की माताजी का नथमल पर बहुत प्रभाव
पड़ा। अतः माता और पुत्र दोनों ने एक साथ 1929 में संत श्रीमद् कालूगणी से दीक्षा ले ली।
श्रीमद् कालूगणी
की आज्ञा से इन्होंने आचार्य तुलसी को गुरु बनाकर उनके सान्निध्य में दर्शन, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद, मनोविज्ञान, न्याय शास्त्र, जैन, बौद्ध और वैदिक
साहित्य का अध्ययन किया। संस्कृत, प्राकृत तथा हिन्दी पर उनका अच्छा अधिकार था। वे संस्कृत
में आशु कविता भी करते थे। जैन मत के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ ‘आचरांग सूत्र’ पर उन्होंने
संस्कृत में भाष्य लिखा। उनकी प्रवचन शैली भी रोचक थी। इससे उनकी प्रसिद्धि बढ़ने
लगी।
उनके विचार और
व्यवहार को देखकर आचार्य तुलसी ने 1965 में उन्हें अपने धर्मसंघ का निकाय सचिव बनाया। इस प्रशासनिक दायित्व का
समुचित निर्वाह करने पर उन्हें 1969 में युवाचार्य एवं 1978 में महाप्रज्ञ घोषित किया गया। 1998 में आचार्य तुलसी ने अपना पद विसर्जित कर इन्हें जैन श्वेताम्बर तेरापंथ
धर्मसंघ के दसवें आचार्य पद पर अभिषिक्त कर दिया।
आचार्य महाप्रज्ञ
ने अपने गुरु आचार्य तुलसी द्वारा 1949 में प्रारम्भ किये गये ‘अणुव्रत आंदोलन’ के विकास में
भरपूर योगदान दिया। 1947के बाद जहां एक
ओर भारत में भौतिक समृद्धि बढ़ी, वहीं अशांति, हिंसा,दंगे आदि भी
बढ़ने लगे। वैश्वीकरण भी अनेक नई समस्याएं लेकर आया। आचार्य जी ने अनुभव किया कि
इन समस्याओं का समाधान अहिंसा ही है। अतः उन्होंने 2001 से 2009 तक ‘अहिंसा यात्रा’ का आयोजन किया।
इस दौरान लगभग एक लाख कि.मी की पदयात्रा कर वे दस हजार ग्रामों में गये। लाखों
लोगों ने उनसे प्रभावित होकर मांस, मदिरा आदि को सदा
के लिए त्याग दिया।
भौतिकवादी युग
में मानसिक तनाव, व्यस्तता व अवसाद आदि के कारण लोगों के व्यक्तिगत एवं
पारिवारिक जीवन को चौपट होते देख आचार्य जी ने साधना की सरल पद्धति ‘प्रेक्षाध्यान’ को प्रचलित किया।
इसमें कठोर कर्मकांड, उपवास या शरीर को अत्यधिक कष्ट देने की आवश्यकता नहीं
होती। किसी भी अवस्था तथा मत, पंथ या सम्प्रदाय को मानने वाला इसे कर सकता है। अतः
लाखों लोगों ने इस विधि से लाभ उठाया।
आचार्य जी
प्राचीन और आधुनिक विचारों के समन्वय के पक्षधर थे। वे कहते थे कि जो धर्म सुख और
शांति न दे सके, जिससे जीवन में परिवर्तन न हो, उसे ढोने की बजाय
गंगा में फेंक देना चाहिए। जहां समाज होगा, वहां समस्या भी
होगी; और जहां समस्या होगी, वहां समाधान भी
होगा। यदि समस्या को अपने साथ ही दूसरे पक्ष की दृष्टि से भी समझने का प्रयास करें, तो समाधान शीघ्र
निकलेगा। इसे वे ‘अनेकांत दृष्टि’ का सूत्र कहते थे।
आचार्य जी ने
प्रवचन के साथ ही प्रचुर साहित्य का भी निर्माण किया। विभिन्न विषयों पर उनके लगभग 150 ग्रन्थ उपलब्ध हैं। उन्होंने
विश्व के अनेक देशों में यात्रा कर अहिंसा, प्रेक्षाध्यान और
अनेकांत दृष्टि के सूत्रों का प्रचार किया। उन्हें अनेक उपाधियों से भी विभूषित
किया गया। नौ मई, 2010 को जिला चुरू (राजस्थान) के सरदारशहर में हृदयाघात से उनका निधन हुआ।
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14 जून/जन्म-दिवस
कर्मठ कार्यकर्ता : सदानंद काकड़े
संगठन द्वारा
निर्धारित कार्य में पूरी शक्ति झांेक देने वाले श्री सदाशिव नीलकंठ (सदानंद)
काकड़े का जन्म 14 जून, 1921 को बेलगांव (कर्नाटक) में हुआ
था। उनके पिता वहीं साहूकारी करते थे। बलिष्ठ शरीर वाले पांच भाई और नौ बहनों के
इस परिवार की नगर में धाक थी। बालपन में उन्होंने रंगोली, प्रकृति चित्रण, तैल चित्र आदि
में कई पारितोषिक लिये। वे नाखून से चित्र बनाने में भी निपुण थे। मेधावी छात्र
होने से उन्हें छात्रवृत्ति भी मिलती रही। उन्हें तेज साइकिल चलाने में मजा आता
था। वास्तु शास्त्र, हस्तरेखा विज्ञान, सामुद्रिक शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान, अंक ज्ञान आदि भी
उनकी रुचि के विषय थे।
रसायन शास्त्र
में स्नातक सदानंद जी 1938 में स्वयंसेवक और 1942 में प्रचारक बने। नागपुर में
श्री यादवराव जोशी से हुई भेंट ने उनके जीवन में निर्णायक भूमिका निभाई। प्रारम्भ
में वे बेलगांव नगर और तहसील कार्यवाह रहे। प्रचारक बनने पर वे बेलगांव नगर, जिला और फिर
गुलबर्गा विभाग प्रचारक रहे। 1969 में उन्हें 'विश्व हिन्दू परिषद' में भेजा गया।
उन दिनों विश्व
हिन्दू परिषद का काम प्रारम्भिक अवस्था में था। सदानंद जी को कर्नाटक प्रान्त के
संगठन मंत्री की जिम्मेदारी दी गयी। 1979 में प्रयाग में हुए द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मेलन में वे 700 कार्यकर्ताओं को एक विशेष रेल से लेकर आये। 1983 तक वे प्रांत और 1993 तक दक्षिण भारत के क्षेत्रीय
संगठन मंत्री रहे। 1993 में उनका केन्द्र दिल्ली हो गया
और वे केन्द्रीय मंत्री, संयुक्त महामंत्री, उपाध्यक्ष और फिर
परामर्शदाता मंडल के सदस्य रहे। 1983 में स्वामी विवेकानंद के शिकागो भाषण की शताब्दी मनाने के लिए उन्होंने
श्रीलंका, इंग्लैंड और अमरीका की यात्रा भी की।
बेलगांव में
सदानंद जी का सम्पर्क श्री जगन्नाथ राव जोशी से हुआ, जो आगे चलकर
प्रचारक और फिर दक्षिण में जनसंघ और भाजपा के आधार स्तम्भ बने। 'इतिहास संकलन समिति' के श्री हरिभाऊ वझे और वि.हि.प. के श्री बाबूराव देसाई भी अपने प्रचारक जीवन का श्रेय
उन्हें ही देते हैं। गांधी हत्या के बाद एक क्रुद्ध भीड़ ने बेलगांव जिला संघचालक
अप्पा साहब जिगजिन्नी पर प्राणघातक हमला कर दिया। इस पर सदानंद जी भीड़ में कूद
गये और अप्पा साहब के ऊपर लेटकर सारे प्रहार झेलते रहे। इससे वे सब ओर प्रसिद्ध हो
गये।
प्रारम्भ में संघ
की सब गतिविधियों का केन्द्र बेलगांव ही था। कई वर्ष तक उनकी देखरेख में संघ
शिक्षा वर्ग लगातार वहीं लगा; पर उसमें कभी घाटा नहीं हुआ। गोवा मुक्ति आंदोलन के
समय देश भर से लोग बेलगांव होकर ही गोवा जाते थे। वर्ष 1995 में हुई द्वितीय एकात्मता यात्रा
के वे संयोजक थे। इसमें सात बड़े और 700 छोटे रथ थे, जिन पर भारत माता,गंगा माता और
गोमाता की मूर्तियां लगी थीं। सभी बड़े रथों के रेशीम बाग, नागपुर में मिलन
के समय निवर्तमान सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस, सरसंघचालक श्री
रज्जू भैया और महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री गोपीनाथ मुंडे भी उपस्थित हुए।
बहुभाषी सदानंद
जी ने हिन्दी और मराठी में कई पुस्तकें लिखीं। ‘हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दू राष्ट्र’ नामक पुस्तक का
देश की नौ भाषाओं में अनुवाद हुआ। जगन्नाथ राव जोशी से उनके संबंध बहुत
मित्रतापूर्ण थे। जोशी जी के देहांत के बाद उन्होंने आग्रहपूर्वक पुणे के श्री
अरविन्द लेले से उनका जीवन परिचय लिखवाया और श्री ओंकार भावे से उसका हिन्दी
अनुवाद कराया।
वर्ष 2005 से वे अनेक रोगों से पीड़ित हो
गये। कई तरह के उपचार के बावजूद प्रवास असंभव होने पर वे आग्रहपूर्वक अपनी
जन्मभूमि बेलगांव ही चले गये। वहां एक अनाथालय का निर्माण उन्होंने किसी समय कराया
था। उसमें रहते हुए 12 जुलाई, 2010 को उनका शरीरांत हुआ।
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14 जून/पुण्य-तिथि
शुद्धता के
अनुरागी उस्ताद असद अली खां
आजकल संगीत में
सब ओर मिलावट (फ्यूजन) का जोर है। कई तरह के देशी और विदेशी वाद्य एक साथ मंच पर
स्थान पा रहे हैं। कभी-कभी तो शास्त्रीय और विदेशी शैलियों को मिलाकर बने
कार्यक्रम को देख और सुनकर सच्चे संगीत प्रेमी सिर पीट लेते हैं। एक ओर कान फाड़ने
वाला विदेशी संगीत, तो दूसरी ओर मन को अध्यात्म की ऊंचाई और सागर की
गहराई तक ले जाने वाला शास्त्रीय गायन; पर नये प्रयोग के
नाम पर सब चल रहा है।
लेकिन संगीत की
इस भेड़चाल के बीच अनेक कलाकार ऐसे भी हैं,जिन्होंने
शुद्धता से कभी समझौता नहीं किया। ऐसे ही एक संगीतकार थे उस्ताद असद अली खां, जिन्होंने
रुद्रवीणा बजाकर अपार ख्याति अर्जित की।
असद अली खां का
जन्म 1937 में राजस्थान के अलवर में हुआ
था। उनके दादा और परदादा वहां राज दरबार के संगीतकार थे। जब वे बहुत छोटे थे, तो उनके पिता उ.प्र. के रामपुर में आकर बस गये। छह वर्ष की अवस्था से ही असद अली अपने गुरु से
रुद्रवीणा सीखने लगे। अगले 15वर्ष तक उन्होंने
प्रतिदिन 14 घंटे इसका अभ्यास किया। 1965 में पिता के देहांत के बाद उन्होंने दिल्ली के भारतीय कला केन्द्र और फिर
दिल्ली विश्वविद्यालय में रुद्रवीणा की शिक्षा दी। जहां एक ओर वे इस बात से
असंतुष्ट रहते थे कि युवा पीढ़ी शुद्धता के प्रति आग्रही नहीं है, वहां दूसरी ओर
शासन और दिल्ली वि.वि. के संगीत विभाग ने भी रुद्रवीणा
की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया।
उस्ताद असद अली
खां ध्रुपद की चार बानियों में से एक ‘खंडारबानी’ के महान संगीतकार
थे। धारदार फरसे जैसे शस्त्र ‘खंडे’ के नाम से बनी इस
बानी की धार, चोट और तीक्ष्णता भी वैसी ही थी। उनका मानना था कि
रुद्रवीणा को भगवान शंकर ने बनाया है। अतः इसके राग और अवययों के साथ छेड़छाड़
नहीं की जा सकती। वे कहते थे भारतीय शास्त्रीय गायन को केवल पुस्तकों से पढ़कर और
कैसेट या सी.डी से सुनकर नहीं सीखा जा सकता। इसके लिए श्रद्धाभाव से गुरु के चरणों
में बैठना आवश्यक है।
उस्ताद असद अली
खां का कहना था कि जिस क्षेत्र में राजनीति पहुंच जाती है, वहां का सत्यानाश
हो जाता है। इसलिए वे संगीत में राजनीति के बहुत विरोधी थे। वे गीत और संगीत को
साधना, पूजा और उपासना की श्रेणी में रखते थे। श्रोताओं को
प्रसन्न करने के लिए किसी भी समय,कुछ भी और कैसे भी गाने-बजाने के वे विरोधी थे। वे
अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करने से पहले उसके शास्त्रीय पक्ष को श्रोताओं को बहुत
देर तक समझाते थे। इस प्रकार वे श्रोताओं के मन और बुद्धि से संबंध जोड़कर फिर
रुद्रवीणा के तारों को छेड़ते थे।
उस्ताद असद अली
खां शास्त्रीय गायन के साथ ही मधुर गायन के भी प्रेमी थी। वे खेमचंद्र प्रकाश, मदन मोहन, नौशाद जैसे
संगीतकारों के प्रशंसक थे। उनका कहना था कि यदि शिष्य ने पूरे मन से किसी सच्चे
गुरु से शिक्षा पाई है, तो आलाप के पहले स्वर से ही उसका प्रकटीकरण हो जाता
है। गुरु और शिष्य के बीच के पवित्र संबंध को वे ‘जिन्दा जादू’ कहते थे।
रुद्रवीणा बहुत
भारी वाद्य है; पर उसे कंधे पर रखते ही वे मानो राजा बन जाते थे।
देश-विदेश से उन्हें अनेक पुरस्कार और सम्मान मिले, जिनमें 2008 में मिला पद्म भूषण भी है। 14 जून, 2011 को शुद्धता और शास्त्रीयता के अनुरागी इस संगीतकार का देहांत हुआ।
(संदर्भ : इंडिया टुडे 29.6.2011/जनसत्ता 19.6.2011)
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सरल, ओजस्वी व हंसमुख ब्रह्मदेव जी
दिल्ली और आसपास
के अनेक राज्यों में संघ के काम को गति देने वाले श्री ब्रह्मदेव जी का जन्म 15 जून, 1920 को नजफगढ़ (दिल्ली) में हुआ था। उनके पिता श्री नेतराम शर्मा एवं माता
श्रीमती भगवती देवी थीं।1936 में उन्होंने हाईस्कूल तथा 1940 में दिल्ली विश्वविद्यालय से विज्ञान स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1937 में हिन्दू महासभा भवन में लगने वाली शाखा में वे स्वयंसेवक बने। इसके बाद
उनका समर्पण संघ के प्रति बढ़ता गया।
शिक्षा पूरी कर
उन्होंने मेरठ के सैन्य लेखा कार्यालय में नौकरी की। वहां एक अंग्रेज अधिकारी ने
उनकी एक छोटी सी गलती पर सभी भारतीयों के लिए अभद्र टिप्पणी की। इससे रुष्ट होकर
उन्होंने नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वे दिल्ली आकर सेना मुख्यालय में नौकरी करने लगे; पर यहां भी उनका
मन नहीं लगा और 1943 में मेरठ से संघ शिक्षा वर्ग प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण लेकर वे प्रचारक बन गये।
इस निर्णय से घर वाले बहुत नाराज हुए। उनके पिताजी ने डांटते हुए कहा कि आज के बाद
मुझे अपना मुंह नहीं दिखाना। ब्रह्मदेव जी सचमुच उसके बाद अपने घर नहीं गये। यह
व्रत 16 वर्ष बाद बहिन के विवाह के समय
पिताजी के आग्रह पर ही टूटा।
प्रचारक बनने पर
सर्वप्रथम उन्हें अम्बाला में जिला प्रचारक बनाकर भेजा गया। इसके बाद वे वहीं
विभाग प्रचारक भी रहे। विभाजन के समय आतताइयों को उन्हीं की भाषा में जवाब देने
वालों में वे अग्रणी पंक्ति में रहते थे। पंजाब में काम का अनुभव लेने के बाद 1959 में उन्हें राजस्थान का प्रान्त
प्रचारक बनाया गया। राजस्थान के नगरों, गांवों और
सीमावर्ती ढांढियों तक फैले संघ के काम का बहुतांश श्रेय उन्हें ही है। वे
प्रतिवर्ष हर जिले में जाते थे। उन्होंने राजस्थान की प्रत्येक तहसील का दौरा
किया। इससे प्रचारक संख्या कम होने पर भी राजस्थान की शाखाओं में संख्यात्मक तथा
गुणात्मक वृद्धि हुई।
आपातकाल की
समाप्ति के बाद उन्हें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान,हिमाचल प्रदेश
तथा जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। सरल व हंसमुख स्वभाव
के होने के बाद भी वे अनुशासन और काम के प्रति बहुत कठोर थे। वे कार्यकर्ता के साथ
उसके घर-परिवार वालों की भी पूरी चिन्ता करते थे। उनके भाषण बहुत भावपूर्ण, तर्कशुद्ध तथा
ओजस्वी होने के कारण मन-मस्तिष्क पर सीधी चोट करते थे। अतः कार्यकर्ता बार-बार
उन्हें सुनना चाहते थे। 1977 से 1989 तक वे इस दायित्व पर रहे।
1989 के बाद उनका स्वास्थ्य प्रवास
करने की स्थिति में नहीं रहा। अतः वे विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय कार्यालय पर
रहने लगे। परिषद के केन्द्रीय मन्त्री के नाते उनके अनुभव का लाभ सबको मिलने लगा।
वे परिवार के मुखिया की तरह वहां रहने वाले सब प्रचारक, पूर्णकालिक कार्यकर्ता
तथा कर्मचारियों को स्नेह देते थे। दिल्ली के झंडेवाला कार्यालय पर होने वाले
कार्यक्रमों में वे जब अपने पुराने साथियों से मिलते थे, तो हंसते हुए हाथ
जोड़कर बड़ी विनम्रता से कहते थे - जरा इन गरीबों की तरफ भी एक नजर हो जाए।
उनके मन में
देशप्रेम और संघ कार्य की तड़प इतनी अधिक थी कि जब उन्हें हृदयाघात हुआ, तो अचेतावस्था
में भी वे ‘धन धान्य पुष्पे
भरा’नामक एक प्रसिद्ध बांग्ला गीत गा रहे थे। इसके अन्त
में आने वाले‘आमार जन्मभूमि’ को वे बहुत जोर
से बोलते थे।
सैकड़ों
प्रचारकों के निर्माता तथा हजारों कार्यकर्ताओं को देश और धर्म के लिए जीना-मरना
सिखाने वाले ब्रह्मदेव जी का दिल्ली में ही 24 फरवरी, 2002 को हृदयाघात से देहांत हुआ। (संदर्भ : पांचजन्य)
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15 जून/जन्म-दिवस
सदा प्रसन्न वीरेन्द्र भटनागर
कुछ लोग हर परिस्थिति में प्रसन्न रहकर सबको प्रसन्न रखते हैं। श्री वीरेन्द्र भटनागर ऐसे ही एक प्रचारक थे। उनके पिता श्री ज्ञानेन्द्र स्वरूप भटनागर लखनऊ के मुख्य डाकपाल कार्यालय में काम करते थे। किसी विवाह कार्यक्रम में वे परिवार सहित मथुरा आये थे। वहीं 15 जून, 1930 को वीरेन्द्र जी का जन्म हुआ। इसलिए इनकी दादी प्यार से इन्हें ‘मथुरावासी’ कहती थीं।
वीरेन्द्र जी बालपन में ही शाखा जाने लगे थे। 1947 में काशी से प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग करते हुए उन्होंने प्रचारक बनने का निर्णय ले लिया। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लग गया। इसके विरुद्ध वे लखनऊ जेल में रहे। जेल से आने के बाद उन्हें उ.प्र. में सीतापुर जिले के खैराबाद में भेजा गया। वहां किसी समय उनके दादा जी स्थानीय तालुकेदार के मुंशी रह चुके थे। अतः उनके भोजन, आवास आदि का प्रबन्ध हो गया। प्रतिबन्ध के कारण उन दिनों शाखा लगाना मना था। अतः वे लोगों से सम्पर्क कर उन्हें संघ के बारे में जानकारी देते रहे। इसी बीच उन्होंने इंटर की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली।
प्रतिबन्ध के बाद उन्हें सीतापुर जिले में ही सिधौली भेजा गया। इसके बाद वे रायबरेली नगर और फिर 1962 में गाजियाबाद तहसील प्रचारक बनाये गये। चीन के आक्रमण और उसमें पराजय से पूरे देश में निराशा छायी थी। ऐसे में संघ के कार्यकर्ताओं से सार्वजनिक सभाएं कर लोगों में आशा भरने को कहा गया। वीरेन्द्र जी ने इस दौरान नगर, गांव और विद्यालयों में सैकड़ों सभाएं कीं। उनका भाषण देने का ढंग बहुत प्रभावी और तथ्यात्मक होता था। लोग समझते थे कि शायद ये युद्ध से लौटकर आये कोई सैनिक हैं। कुछ लोगों ने उन्हें दिल्ली की सभाओं में भी बुलाया। इस भाषण शैली ने ही उनका भारतीय मजदूर संघ में जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
वीरेन्द्र जी 1962 से 86 तक उ.प्र. में मजदूर संघ के विभिन्न दायित्वों पर रहे। उन्होंने सर्वप्रथम उ.प्र. रोडवेज में इकाई गठित कर काम प्रारम्भ किया और फिर उसके महामंत्री बने। इस दौरान बरेली, बनारस आदि कई स्थानों पर उनका केन्द्र रहा। श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी और श्री रामनरेश सिंह (बड़े भाई) से उनके बहुत मधुर संबंध बने। उद्योगपति उन दिनों भारतीय मजदूर संघ के झंडे और वीरेन्द्र भटनागर से बहुत डरते थे; पर मजदूर उन्हें ढूंढकर अपने यहां बुलाते और इकाई का गठन कराते थे। 1980 में जब भारतीय जनता पार्टी बनी, तो उनके संगठन कौशल एवं भाषण शैली के कारण भा.ज.पा. वालों ने इन्हें अपने साथ काम में जोड़ना चाहा; पर बड़े भाई इसके लिए सहमत नहीं हुए।
1986 में वीरेन्द्र जी को उ.प्र. में सेवा कार्यों के विस्तार का काम मिला। 10 वर्ष तक इस हेतु उन्होंने व्यापक प्रवास किया और फिर उत्तरकाशी के भूकम्पग्रस्त क्षेत्र में चलाये जा रहे विद्यालय, छात्रावास, ग्राम्य विकास आदि सेवा कार्यों की देखरेख करने लगे। वहां रहते हुए उन्होंने गढ़वाल के वीर एवं वीरांगनाओं के जीवन तथा सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन पर अनेक लघु नाटक लिखकर सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनका मंचन कराया।
शरीर शिथिल होने पर वे मेरठ के प्रांतीय संघ कार्यालय (शंकर आश्रम) तथा मेरठ में पूर्वोत्तर भारत के बच्चों के लिए चलाये जा रहे छात्रावास में रहने लगे। बच्चों से खेलने और शरारत करने में उन्हें सदा मजा आता था। इसलिए बालक भी उनके साथ स्वयं को सहज अनुभव करते थे। वे अपने दुख-सुख उन्हें ही बताते थे। उन्होंने एक प्रवचन में सुना था कि जो काम करो, प्राणों की बाजी लगाकर करो। प्राण तो एक बार ही जाएंगे; पर सफलता हर बात मिलेगी। इसलिए वे हर काम पूरी ताकत से करते थे। यही उनकी जिंदादिली का रहस्य था। 25 जनवरी, 2015 को वृद्धावस्था सम्बन्धी अनेक समस्याओं के कारण मेरठ में ही उनका निधन हुआ।
(संदर्भ: 29.4.2012 को मेरठ में हुई वार्ता)
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