1 जून/इतिहास-स्मृति
कोहनूर हीरे की वापसी
कोहनूर हीरे का इतिहास बहुत पुराना है। कुछ इसे महाभारत काल की प्रसिद्ध स्यमंतक मणि बताते हैं। गोलकुंडा की खान से निकले इस हीरे को अत्यधिक आभा के कारण प्रकाश का पर्वत (कोह-ए-नूर) कहा गया। इसे पाने की अभिलाषा हर राजा की रही। एक समय यह भारत के मुगल शासकों के पास था। इसके बाद यह नादिरशाह तथा फिर अफगानिस्तान की सत्ता के साथ क्रमशः अहमद शाह अब्दाली, तैमूर, शाह जमन और फिर शाह शुजा के पास स्थानांतरित होता रहा। आगे चलकर असली सत्ता प्रधानमंत्री फतेह खान के पास आ गयी; पर हीरा शाह शुजा और उसकी बेगम के पास ही रहा। फतेह खान ने शुजा के छोटे भाई शाह महमूद को गद्दी पर बैठा दिया।
इन दिनों पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह का शासन था। शुजा के याचना करने पर महाराजा ने अपनी सेना भेजकर उसे सत्ता दिलवा दी;पर कुछ समय बाद फतेहखान ने फिर महमूद को गद्दी पर बैठा दिया। शुजा भाग कर अटक जा पहुंचा। वहां के सूबेदार जहांदाद ने पहले उसे शरण दी; पर फिर शक होने पर उसे बन्दी बनाकर रावलपिंडी भेज दिया। उस समय उसका सबसे बड़ा भाई जमन भी वहां बन्दी था, जिसकी आंखें महमूद ने निकलवा दी थीं।
कुछ समय बाद रणजीत सिंह ने इन दोनों भाइयों को लाहौर बुलवा लिया। उधर अफगान प्रधानमंत्री फतेहखान ने कश्मीर जीतने के लिए महाराजा से सहयोग मांगा। लूट का आधा माल तथा प्रतिवर्ष नौ लाख रु0 देने की शर्त पर महाराजा तैयार हो गये। इससे शरणार्थी शाह परिवार को लगा कि महाराजा फतेहखान के प्रभाव में आकर कहीं उन्हें मार न दें। अतः शुजा की बेगम ने शुजा की जान के बदले कोहनूर हीरा महाराजा को देने का प्रस्ताव रखा।
1812 की वसंत ऋतु में योजनाबद्ध रूप से एक ओर से हिन्दू तथा दूसरी ओर से अफगान सेनाओं ने कश्मीर में प्रवेश किया; पर फतेहखान के मन में धूर्तता थी। उसने कुछ सेनाएं पंजाब में भी घुसा दीं। इसी प्रकार उसने कश्मीर के दो किलों को जीत कर वहां का आधा खजाना भी हिन्दू सेना को नहीं दिया। महाराजा को अपने सेनापति दीवान मोहकमचंद और दलसिंह से सब सूचना मिल रही थी; पर वे शांत रहकर सन्धि को निभाते रहे।
उन दिनों शाह शुजा शेरगढ़ के किले में बन्दी था। फतेहखान की इच्छा उसे मारने की थी। यह देखकर मोहकमचंद एक छोटे रास्ते से वहां गये और उसे उठाकर अपने खेमे में ले आये। फतेहखान को जब यह पता लगा, तो उसने शुजा की मांग की; पर मोहकमचंद ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर फतेहखान ने आधा माल तथा नौ लाख रु0 प्रतिवर्ष की सन्धि तोड़ दी। इस प्रकार लूट का माल तथा कश्मीर की भूमि फतेहखान के पास ही रह गयी।
इस अभियान में भी महाराजा को काफी हानि हुई। उनके 1,000 सैनिक मारे गये तथा खजाना भी लगभग खाली हो गया। शुजा लाहौर आकर अपनी बेगम से मिला। अब महाराजा ने शर्त के अनुसार कोहनूर की मांग की; पर बेगम उसे देने में हिचक रही थी। अंततः महाराजा ने उसे तीन लाख रु0 नकद तथा 50,000 रु0 की जागीर देकर कोहनूर प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार एक जून, 1813 को यह दुर्लभ हीरा फिर से भारत को मिला;पर दुर्भाग्यवश कुछ समय बाद यह अंग्रेजों के पास चला गया और तब से आज तक वहीं है।
(संदर्भ : खुशवंत सिह, पंजाब केसरी, 29.2.2008)
(संदर्भ : खुशवंत सिह, पंजाब केसरी, 29.2.2008)
----------------------------------
1 जून/पुण्य-तिथि
भगतसिंह की वीर माता विद्यावती कौर
इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश, धर्म और समाज की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वालों के मन पर ऐसे संस्कार उनकी माताओं ने ही डाले हैं। भारत के स्वाधीनता संग्राम में हंसते हुए फांसी चढ़ने वाले वीरों में भगतसिंह का नाम प्रमुख है। उस वीर की माता थीं श्रीमती विद्यावती कौर।
विद्यावती जी का पूरा जीवन अनेक विडम्बनाओं और झंझावातों के बीच बीता। सरदार किशनसिंह से विवाह के बाद जब वे ससुराल आयीं, तो यहां का वातावरण देशभक्ति से परिपूर्ण था। उनके देवर सरदार अजीतसिंह देश से बाहर रहकर स्वाधीनता की अलख जगा रहे थे। स्वाधीनता प्राप्ति से कुछ समय पूर्व ही वे भारत लौटे; पर देश को विभाजित होते देख उनके मन को इतनी चोट लगी कि उन्होंने 15 अगस्त, 1947 को सांस ऊपर खींचकर देह त्याग दी।
उनके दूसरे देवर सरदार स्वर्णसिंह भी जेल की यातनाएं सहते हुए बलिदान हुए। उनके पति किशनसिंह का भी एक पैर घर में, तो दूसरा जेल और कचहरी में रहता था। विद्यावती जी के बड़े पुत्र जगतसिंह की 11 वर्ष की आयु में सन्निपात से मृत्यु हुई। भगतसिंह 23 वर्ष की आयु में फांसी चढ़ गये, तो उससे छोटे कुलतार सिंह और कुलवीर सिंह भी कई वर्ष जेल में रहे।
इन जेलयात्राओं और मुकदमेबाजी से खेती चैपट हो गयी तथा घर की चैखटें तक बिक गयीं। इसी बीच घर में डाका भी पड़ गया। एक बार चोर उनके बैलों की जोड़ी ही चुरा ले गये, तो बाढ़ के पानी से गांव का जर्जर मकान भी बह गया। ईष्र्यालु पड़ोसियों ने उनकी पकी फसल जला दी। 1939-40 में सरदार किशनसिंह जी को लकवा मार गया। उन्हें खुद चार बार सांप ने काटा; पर उच्च मनोबल की धनी माताजी हर बार घरेलू उपचार और झाड़फंूक से ठीक हो गयीं। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी का समाचार सुनकर उन्होंने दिल पर पत्थर रख लिया क्योंकि भगतसिंह ने उनसे एक बार कहा था कि तुम रोना नहीं, वरना लोग क्या कहेंगे कि भगतसिंह की मां रो रही है।
भगतसिंह पर उज्जैन के विख्यात लेखक श्री श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने एक महाकाव्य लिखा। नौ मार्च, 1965 को इसके विमोचन के लिए माताजी जब उज्जैन आयीं, तो उनके स्वागत को सारा नगर उमड़ पड़ा। उन्हें खुले रथ में कार्यक्रम स्थल तक ले जाया गया। सड़क पर लोगों ने फूल बिछा दिये। इतना ही नहीं, तो छज्जों पर खड़े लोग भी उन पर पुष्पवर्षा करते रहे।
पुस्तक के विमोचन के बाद सरल जी ने अपने अंगूठे से माताजी के भाल पर रक्त तिलक किया। माताजी ने वही अंगूठा एक पुस्तक पर लगाकर उसे नीलाम कर दिया। उससे 3,331 रु. प्राप्त हुए। माताजी को सैकड़ों लोगों ने मालाएं और राशि भेंट की। इस प्रकार प्राप्त 11,000 रु. माताजी ने दिल्ली में इलाज करा रहे भगतसिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त को भिजवा दिये। समारोह के बाद लोग उन मालाओं के फूल चुनकर अपने घर ले गये। जहां माताजी बैठी थीं, वहां की धूल लोगों ने सिर पर लगाई। सैकड़ों माताओं ने अपने बच्चों को माताजी के पैरों पर रखा, जिससे वे भी भगतसिंह जैसे वीर बन सकें।
1947 के बाद गांधीवादी सत्याग्रहियों को अनेक शासकीय सुविधाएं मिलीं; पर क्रांतिकारी प्रायः उपेक्षित ही रह गये। उनमें से कई गुमनामी में बहुत कष्ट का जीवन बिता रहे थे। माताजी उन सबको अपना पुत्र ही मानती थीं। वे उनकी खोज खबर लेकर उनसे मिलने जाती थीं तथा सरकार की ओर से उन्हें मिलने वाली पेंशन की राशि चुपचाप वहां तकिये के नीचे रख देती थीं।
इस प्रकार एक सार्थक और सुदीर्घ जीवन जीकर माताजी ने दिल्ली के एक अस्पताल में एक जून, 1975 को अंतिम सांस ली। उस समय उनके मन में यह सुखद अनुभूति थी कि अब भगतसिंह से उनके बिछोह की अवधि सदा के लिए समाप्त हो रही है।
(संदर्भ : साहित्य अमृत, अक्तूबर 2013)
भगतसिंह की वीर माता विद्यावती कौर
इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश, धर्म और समाज की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वालों के मन पर ऐसे संस्कार उनकी माताओं ने ही डाले हैं। भारत के स्वाधीनता संग्राम में हंसते हुए फांसी चढ़ने वाले वीरों में भगतसिंह का नाम प्रमुख है। उस वीर की माता थीं श्रीमती विद्यावती कौर।
विद्यावती जी का पूरा जीवन अनेक विडम्बनाओं और झंझावातों के बीच बीता। सरदार किशनसिंह से विवाह के बाद जब वे ससुराल आयीं, तो यहां का वातावरण देशभक्ति से परिपूर्ण था। उनके देवर सरदार अजीतसिंह देश से बाहर रहकर स्वाधीनता की अलख जगा रहे थे। स्वाधीनता प्राप्ति से कुछ समय पूर्व ही वे भारत लौटे; पर देश को विभाजित होते देख उनके मन को इतनी चोट लगी कि उन्होंने 15 अगस्त, 1947 को सांस ऊपर खींचकर देह त्याग दी।
उनके दूसरे देवर सरदार स्वर्णसिंह भी जेल की यातनाएं सहते हुए बलिदान हुए। उनके पति किशनसिंह का भी एक पैर घर में, तो दूसरा जेल और कचहरी में रहता था। विद्यावती जी के बड़े पुत्र जगतसिंह की 11 वर्ष की आयु में सन्निपात से मृत्यु हुई। भगतसिंह 23 वर्ष की आयु में फांसी चढ़ गये, तो उससे छोटे कुलतार सिंह और कुलवीर सिंह भी कई वर्ष जेल में रहे।
इन जेलयात्राओं और मुकदमेबाजी से खेती चैपट हो गयी तथा घर की चैखटें तक बिक गयीं। इसी बीच घर में डाका भी पड़ गया। एक बार चोर उनके बैलों की जोड़ी ही चुरा ले गये, तो बाढ़ के पानी से गांव का जर्जर मकान भी बह गया। ईष्र्यालु पड़ोसियों ने उनकी पकी फसल जला दी। 1939-40 में सरदार किशनसिंह जी को लकवा मार गया। उन्हें खुद चार बार सांप ने काटा; पर उच्च मनोबल की धनी माताजी हर बार घरेलू उपचार और झाड़फंूक से ठीक हो गयीं। भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी का समाचार सुनकर उन्होंने दिल पर पत्थर रख लिया क्योंकि भगतसिंह ने उनसे एक बार कहा था कि तुम रोना नहीं, वरना लोग क्या कहेंगे कि भगतसिंह की मां रो रही है।
भगतसिंह पर उज्जैन के विख्यात लेखक श्री श्रीकृष्ण ‘सरल’ ने एक महाकाव्य लिखा। नौ मार्च, 1965 को इसके विमोचन के लिए माताजी जब उज्जैन आयीं, तो उनके स्वागत को सारा नगर उमड़ पड़ा। उन्हें खुले रथ में कार्यक्रम स्थल तक ले जाया गया। सड़क पर लोगों ने फूल बिछा दिये। इतना ही नहीं, तो छज्जों पर खड़े लोग भी उन पर पुष्पवर्षा करते रहे।
पुस्तक के विमोचन के बाद सरल जी ने अपने अंगूठे से माताजी के भाल पर रक्त तिलक किया। माताजी ने वही अंगूठा एक पुस्तक पर लगाकर उसे नीलाम कर दिया। उससे 3,331 रु. प्राप्त हुए। माताजी को सैकड़ों लोगों ने मालाएं और राशि भेंट की। इस प्रकार प्राप्त 11,000 रु. माताजी ने दिल्ली में इलाज करा रहे भगतसिंह के साथी बटुकेश्वर दत्त को भिजवा दिये। समारोह के बाद लोग उन मालाओं के फूल चुनकर अपने घर ले गये। जहां माताजी बैठी थीं, वहां की धूल लोगों ने सिर पर लगाई। सैकड़ों माताओं ने अपने बच्चों को माताजी के पैरों पर रखा, जिससे वे भी भगतसिंह जैसे वीर बन सकें।
1947 के बाद गांधीवादी सत्याग्रहियों को अनेक शासकीय सुविधाएं मिलीं; पर क्रांतिकारी प्रायः उपेक्षित ही रह गये। उनमें से कई गुमनामी में बहुत कष्ट का जीवन बिता रहे थे। माताजी उन सबको अपना पुत्र ही मानती थीं। वे उनकी खोज खबर लेकर उनसे मिलने जाती थीं तथा सरकार की ओर से उन्हें मिलने वाली पेंशन की राशि चुपचाप वहां तकिये के नीचे रख देती थीं।
इस प्रकार एक सार्थक और सुदीर्घ जीवन जीकर माताजी ने दिल्ली के एक अस्पताल में एक जून, 1975 को अंतिम सांस ली। उस समय उनके मन में यह सुखद अनुभूति थी कि अब भगतसिंह से उनके बिछोह की अवधि सदा के लिए समाप्त हो रही है।
(संदर्भ : साहित्य अमृत, अक्तूबर 2013)
--------------------------------
2 जून/पुण्य-तिथि
निष्ठावान गुडविन
स्वामी विवेकानन्द के विश्वप्रसिद्ध भाषण लिखने का श्रेय जोशिया जॉन गुडविन को है। स्वामी जी उसे प्रेम से ‘मेरा निष्ठावान गुडविन’ (My faithful Goodwin) कहते थे। उसका जन्म 20 सितम्बर, 1870 को इंग्लैंड के बैथेस्टोन में हुआ था। उसके पिता श्री जोशिया गुडविन भी एक आशुलिपिक (stenographer) एवं सम्पादक थे। गुडविन ने भी कुछ समय पत्रकारिता की; पर सफलता न मिलने पर वह ऑस्ट्रेलिया होते हुए अमरीका आ गया।
स्वामी जी के 1895 में न्यूयार्क प्रवास के दौरान एक ऐसे आशुलिपिक की आवश्यकता थी, जो उनके भाषण ठीक और तेजी से लिख सके। इसमें कई लोग लगाये गये; पर कसौटी पर केवल गुडविन ही खरा उतरा, जो 99 प्रतिशत शुद्धता के साथ 200 शब्द प्रति मिनट लिखता था। वह इससे पहले कई वरिष्ठ और प्रसिद्ध लोगों के साथ काम कर चुका था। अतः उसे उचित पारिश्रमिक पर नियुक्त कर लिया गया; पर स्वामी जी के भाषण सुनते-सुनते गुडविन का मन बदल गया। उसने पारिश्रमिक लेने से स्पष्ट मना कर दिया और अपनी सेवाएँ निःशुल्क देेने लगा। उसने अपने एक मित्र को लिखा, ‘‘मुझे अब पैसा मिले या नहीं, पर मैं उनके प्रेमजाल में फँस चुका हूँ। मैं पूरी दुनिया घूमा हूँ। अनेक महान लोगों से मिला हूँ; पर स्वामी विवेकानन्द जैसा महापुरुष मुझे कहीं नहीं मिला।’’
एक निष्ठावान शिष्य की तरह गुडविन स्वामी जी की निजी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखते थे। वे उनके भाषणों को आशुलिपि में लिखकर शेष समय में उन्हें टाइप करते थे। इसके बाद उन्हें देश-विदेश के समाचार पत्रों में भी भेजते थे। स्वामी जी प्रायः हर दिन दो-तीन भाषण देते थे। अतः गुडविन को अन्य किसी काम के लिए समय ही नहीं मिलता था। 1895-96 में स्वामी जी ने कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग पर जो भाषण दिये, उसके आधार पर उनके सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ बने हैं। स्वामी जी ने स्वयं ही कहा था कि ये ग्रन्थ उनके जाने के बाद उनके कार्यों का आधार बनेंगे। इन दिनों गुडविन छाया के समान उनके साथ रहते थे।
स्वामी जी भाषण देते समय किसी ओर लोक में खो जाते थे। कई बार तो उन्हें स्वयं ही याद नहीं आता था कि उन्होंने व्याख्यान या श्रोताओं के साथ हुए प्रश्नोत्तर में क्या कहा था ? ऐसे में गुडविन उन्हें उनके भाषणों का सार दिखाते थे। स्वामी जी ने उसकी प्रशंसा करते हुए एक बार कहा कि गुडविन ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है। उसके बिना मैं कठिनाई में फँस जाता।
अपै्रल 1896 में स्वामी जी के लंदन प्रवास के समय भी गुडविन उनके साथ थे। जनवरी 1897 में वे स्वामी जी के साथ कोलकाता आ गये। गुडविन वहाँ सब मठवासियों की तरह धरती पर सोते तथा दाल-भात खाते थे। वे दार्जिलिंग, अल्मोड़ा, जम्मू तथा लाहौर भी गये। लाहौर में उन्होंने स्वामी जी का अंतिम भाषण लिखा। फिर वे मद्रास आकर रामकृष्ण मिशन के काम में लग गये। उन्होंने ‘ब्रह्मवादिन’ नामक पत्रिका के प्रकाशन में भी सहयोग दिया।
पर मद्रास की गरम जलवायु से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। अतः वे ऊटी आ गये। वहीं दो जून, 1898 को केवल 28 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। स्वामी जी उस समय अल्मोड़ा में थे। समाचार मिलने पर उनके मुँह से निकला, ‘‘मेरा दाहिना हाथ चला गया।’’ ऊटी में ही स्वामी विवेकानन्द के इस प्रिय शिष्य का स्मारक बनाया गया है।
गुडविन इस लिखित सामग्री को ‘आत्मन’ कहते थे। शार्टहैंड में लिखे ऐसे हजारों पृष्ठ उन्होंने एक छोटे संदूक में रखकर अपनी मां के पास इंग्लैंड भेज दिये थे, जिनका अब कुछ भी पता नहीं है। इनमें स्वामी जी के भाषणों के साथ ही उनके कई भाषाओं में लिखे पत्र भी हैं।
(संदर्भ : विकीपीडिया, साहित्य अमृत अगस्त 2013..आदि)
निष्ठावान गुडविन
स्वामी विवेकानन्द के विश्वप्रसिद्ध भाषण लिखने का श्रेय जोशिया जॉन गुडविन को है। स्वामी जी उसे प्रेम से ‘मेरा निष्ठावान गुडविन’ (My faithful Goodwin) कहते थे। उसका जन्म 20 सितम्बर, 1870 को इंग्लैंड के बैथेस्टोन में हुआ था। उसके पिता श्री जोशिया गुडविन भी एक आशुलिपिक (stenographer) एवं सम्पादक थे। गुडविन ने भी कुछ समय पत्रकारिता की; पर सफलता न मिलने पर वह ऑस्ट्रेलिया होते हुए अमरीका आ गया।
स्वामी जी के 1895 में न्यूयार्क प्रवास के दौरान एक ऐसे आशुलिपिक की आवश्यकता थी, जो उनके भाषण ठीक और तेजी से लिख सके। इसमें कई लोग लगाये गये; पर कसौटी पर केवल गुडविन ही खरा उतरा, जो 99 प्रतिशत शुद्धता के साथ 200 शब्द प्रति मिनट लिखता था। वह इससे पहले कई वरिष्ठ और प्रसिद्ध लोगों के साथ काम कर चुका था। अतः उसे उचित पारिश्रमिक पर नियुक्त कर लिया गया; पर स्वामी जी के भाषण सुनते-सुनते गुडविन का मन बदल गया। उसने पारिश्रमिक लेने से स्पष्ट मना कर दिया और अपनी सेवाएँ निःशुल्क देेने लगा। उसने अपने एक मित्र को लिखा, ‘‘मुझे अब पैसा मिले या नहीं, पर मैं उनके प्रेमजाल में फँस चुका हूँ। मैं पूरी दुनिया घूमा हूँ। अनेक महान लोगों से मिला हूँ; पर स्वामी विवेकानन्द जैसा महापुरुष मुझे कहीं नहीं मिला।’’
एक निष्ठावान शिष्य की तरह गुडविन स्वामी जी की निजी आवश्यकताओं का भी ध्यान रखते थे। वे उनके भाषणों को आशुलिपि में लिखकर शेष समय में उन्हें टाइप करते थे। इसके बाद उन्हें देश-विदेश के समाचार पत्रों में भी भेजते थे। स्वामी जी प्रायः हर दिन दो-तीन भाषण देते थे। अतः गुडविन को अन्य किसी काम के लिए समय ही नहीं मिलता था। 1895-96 में स्वामी जी ने कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग और राजयोग पर जो भाषण दिये, उसके आधार पर उनके सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ बने हैं। स्वामी जी ने स्वयं ही कहा था कि ये ग्रन्थ उनके जाने के बाद उनके कार्यों का आधार बनेंगे। इन दिनों गुडविन छाया के समान उनके साथ रहते थे।
स्वामी जी भाषण देते समय किसी ओर लोक में खो जाते थे। कई बार तो उन्हें स्वयं ही याद नहीं आता था कि उन्होंने व्याख्यान या श्रोताओं के साथ हुए प्रश्नोत्तर में क्या कहा था ? ऐसे में गुडविन उन्हें उनके भाषणों का सार दिखाते थे। स्वामी जी ने उसकी प्रशंसा करते हुए एक बार कहा कि गुडविन ने मेरे लिए बहुत कुछ किया है। उसके बिना मैं कठिनाई में फँस जाता।
अपै्रल 1896 में स्वामी जी के लंदन प्रवास के समय भी गुडविन उनके साथ थे। जनवरी 1897 में वे स्वामी जी के साथ कोलकाता आ गये। गुडविन वहाँ सब मठवासियों की तरह धरती पर सोते तथा दाल-भात खाते थे। वे दार्जिलिंग, अल्मोड़ा, जम्मू तथा लाहौर भी गये। लाहौर में उन्होंने स्वामी जी का अंतिम भाषण लिखा। फिर वे मद्रास आकर रामकृष्ण मिशन के काम में लग गये। उन्होंने ‘ब्रह्मवादिन’ नामक पत्रिका के प्रकाशन में भी सहयोग दिया।
पर मद्रास की गरम जलवायु से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। अतः वे ऊटी आ गये। वहीं दो जून, 1898 को केवल 28 वर्ष की अल्पायु में उनका देहांत हो गया। स्वामी जी उस समय अल्मोड़ा में थे। समाचार मिलने पर उनके मुँह से निकला, ‘‘मेरा दाहिना हाथ चला गया।’’ ऊटी में ही स्वामी विवेकानन्द के इस प्रिय शिष्य का स्मारक बनाया गया है।
गुडविन इस लिखित सामग्री को ‘आत्मन’ कहते थे। शार्टहैंड में लिखे ऐसे हजारों पृष्ठ उन्होंने एक छोटे संदूक में रखकर अपनी मां के पास इंग्लैंड भेज दिये थे, जिनका अब कुछ भी पता नहीं है। इनमें स्वामी जी के भाषणों के साथ ही उनके कई भाषाओं में लिखे पत्र भी हैं।
(संदर्भ : विकीपीडिया, साहित्य अमृत अगस्त 2013..आदि)
----------------------------------
3 जून/जन्म-दिवस
बुन्देलखण्ड का शेर : छत्रसाल
झाँसी के आसपास उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश की विशाल सीमाओं में फैली बुन्देलखण्ड की वीर भूमि में तीन जून, 1649 (ज्येष्ठ शुक्ल 3,विक्रम संवत 1706) को चम्पतराय और लालकुँवर के घर में छत्रसाल का जन्म हुआ था। चम्पतराय सदा अपने क्षेत्र से मुगलों को खदेड़ने के प्रयास में लगे रहते थे। अतः छत्रसाल पर भी बचपन से इसी प्रकार के संस्कार पड़ गये।
जब छत्रसाल केवल 12 साल के थे, तो वह अपने मित्रों के साथ विन्ध्यवासिनी देवी की पूजा के लिए जा रहे थे। रास्ते में कुछ मुस्लिम सैनिकों ने उनसे मन्दिर का रास्ता जानना चाहा। छत्रसाल ने पूछा कि क्या आप लोग भी देवी माँ की पूजा करने जा रहे हैं ? उनमें से एक क्रूरता से हँसते हुए बोला- नहीं, हम तो मन्दिर तोड़ने जा रहे हैं। यह सुनते ही छत्रसाल ने अपनी तलवार उसके पेट में घोंप दी। उसके साथी भी कम नहीं थे। बात की बात में सबने उन दुष्टों को यमलोक पहुँचा दिया।
बुन्देलखण्ड के अधिकांश राजा और जागीरदार मुगलों के दरबार में हाजिरी बजाते थे। वे अपनी कन्याएँ उनके हरम में देकर स्वयं को धन्य समझते थे। उनसे किसी प्रकार की आशा करना व्यर्थ था। एकमात्र शिवाजी ही मुगलों से टक्कर ले रहे थे। छत्रसाल को पता लगा कि औरंगजेब के आदेश पर मिर्जा राजा जयसिंह शिवाजी को पकड़ने जा रहे हैं, तो वे जयसिंह की सेना में भर्ती हो गये और मुगल सेना की कार्यशैली का अच्छा अध्ययन किया।
जब शिवाजी आगरा जेल से निकलकर वापस रायगढ़ पहुँचे, तो छत्रसाल ने उनसे भेंट की। शिवाजी के आदेश पर फिर से बुन्देलखण्ड आकर उन्होंने अनेक जागीरदारों और जनजातियों के प्रमुखों से सम्पर्क बढ़ाया और अपनी सेना में वृद्धि की। अब उन्होंने मुगलों से अनेक किले और शस्त्रास्त्र छीन लिये। यह सुनकर बड़ी संख्या में नवयुवक उनके साथ आ गये।
उधर औरंगजेब को जब यह पता लगा, तो उसने रोहिल्ला खाँ और फिर तहव्वर खाँ को भेजा; पर हर बार उन्हें पराजय ही हाथ लगी। छत्रसाल के दो भाई रतनशाह और अंगद भी वापस अपने भाई के साथ आ गये। अब छत्रसाल ने दक्षिण की ओर से जाने वाले मुगलों के खजाने को लूटना शुरू किया। इस धन से उन्होंने अपनी सैन्य शक्ति में वृद्धि की। एक बार छत्रसाल शिकार के लिए जंगल में घूम रहे थे, तो उनकी स्वामी प्राणनाथ से भेंट हुई। स्वामी जी के मार्गदर्शन में छत्रसाल की गतिविधियाँ और बढ़ गयीं। विजयादशमी पर स्वामी जी ने छत्रसाल का राजतिलक कर उसे‘राजाधिराज’ की उपाधि दी।
एक बार मुगलों की शह पर हिरदेशाह, जगतपाल और मोहम्मद खाँ बंगश ने बुन्देलखण्ड पर तीन ओर से हमला कर दिया। वीर छत्रसाल की अवस्था उस समय 80 वर्ष की थी। उन्हें शिवाजी का वचन याद आया कि संकट के समय में हम तुम्हारी सहायता अवश्य करेंगे। इसे याद कर छत्रसाल ने मराठा सरदार बाजीराव पेशवा को सन्देश भेजा। सन्देश मिलते ही बाजीराव ने तुरन्त ही वहाँ पहुँचकर मुगल सेना को खदेड़ दिया। इस प्रकार छत्रसाल ने जीवन भर मुगलों को चैन नहीं लेने दिया।
जिन महाकवि भूषण ने छत्रपति शिवाजी की स्तुति में ‘शिवा बावनी’लिखी, उन्होंने ही ‘छत्रसाल दशक’ में आठ छन्दों में छत्रसाल की वीरता और शौर्य का वर्णन किया है। आज भी बुन्देलखण्ड के घर-घर में लोग अन्य देवी देवताओं के साथ छत्रसाल को याद करते हैं। - छत्रसाल महाबली, करियों भली-भली।।
----------------------------------
3 जून/जन्म-दिवस
महान नारी उद्धारक देवीदास आर्य
श्री देवीदास आर्य का जन्म तीन जून, 1922 को ग्राम केहर (जिला सक्खर, सिन्ध) में श्री विद्याराम एवं श्रीमती पद्मादेवी हजारानी के घर में हुआ था। 1939 में मजहबी दंगों के कारण उन्हें अपनी पढ़ाई तथा गांव छोड़ना पड़ा। निजाम हैदराबाद द्वारा हिन्दुओं के दमन के विरुद्ध हुए आंदोलन में वे 149 दिन जेल में रहेे। इसके बाद मैट्रिक कर उन्होंने आठ साल तक पढ़ाया। 1942 के आंदोलन में भी वे सक्रिय रहे। 1945 में सक्खर में आर्य वीर दल में शामिल होने से उनका नाम देवीदास आर्य प्रसिद्ध हो गया।
आर्य समाज और संघ के माध्यम से उन्होंने हजारों नवयुवकों को संगठित किया। इससे वे विरोधी गुंडों की आंख की किरकिरी बन गये। 1947 में भारत आते समय भी वे पीछे पड़े रहे। उनके एक मित्र नारायण दास ने अपना टिकट देकर जिदपूर्वक उन्हें कराची में जलयान में बैठा दिया। रात में गुंडों ने हमला कर आर्य जी के भ्रम में नारायण दास को ही मार डाला। अपने शेष जीवन को प्रभु का प्रसाद समझ उन्होंने समाज सेवा को ही जीवन का व्रत बना लिया।
उ.प्र. के कानपुर नगर में आकर उन्होंने शासन से संघर्ष कर विस्थापितों को दुकानें तथा आर्थिक सहायता दिलवायी। 1950 में डी.ए.वी. स्कूल की स्थापना कर वे उसके प्राचार्य तथा फिर प्रबन्धक बने। पत्रकारिता में रुचि होने के कारण उन्होंने ‘दीपक’ समाचार पत्र भी निकाला। गोविन्दपुरी रेलवे स्टेशन, आर्य समाज, श्मशान घाट तथा कई संस्थाओं की स्थापना उनके प्रयास से हुई।
आर्य जी जनसंघ की ओर से नगर महापालिका का चुनाव लड़े और उ.प्र. में सर्वाधिक वोट पाने वाले सभासद बने। भ्रष्टाचार के 50 से अधिक मामले उजागर करने पर नगर महापालिका ने उनका सम्मान किया। 1975 के आपातकाल में उन्हें ‘मीसा’ में ठूंस दिया गया। जेल में गलत इलाज से उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया। शासन उन्हें इस शर्त पर छोड़ने को तैयार था कि वे कानपुर में नहीं रहेंगे; पर आर्य जी ने इसे ठुकरा दिया। अपने जीवन में 14 बार वे जेल गये; पर शासन से कोई पेंशन आदि नहीं ली।
आर्य जी की सर्वाधिक ख्याति नारी उद्धार हेतु की गयी उनकी सेवाओं के कारण हुई। विभाजन के समय गुंडों ने जिन हिन्दू कन्याओं से दुव्र्यवहार किया था, देवीदास जी ने ऐसी सैकड़ों कन्याओं का विवाह कराया। उन्होंने पुलिस के सहयोग से 3,500 से भी अधिक नारियों को असामाजिक तत्वों और वेश्यालयों से मुक्त कराया। वे इनके विवाह की भी व्यवस्था करते थे। 600 विवाह तो उन्होंने स्वयं धर्मपिता बन कर कराये। उन पर कई बार प्राणघातक हमले हुए; पर वे डरे नहीं।
आर्य जी ने 2,000 से अधिक वृद्धों, विधवाओं तथा निराश्रित लोगों को शासन से पेंशन दिलाई। उन्होंने 4,000 से अधिक विधर्मियों को हिन्दू बनाया। इनमें कई पादरी, मौलवी तथा इमाम भी थे। घर से भागी, भगाई या ठुकराई गयी विधर्मी कन्याओं के विवाह वे प्रयासपूर्वक हिन्दू युवकों से करा देते थे। 700 अन्तरजातीय विवाह कराने वाले आर्य जी ने 300 दम्पतियों के मनभेद मिटाकर उनके गृहस्थ जीवन को नष्ट होने से बचाया।
1983 में राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह तथा देश की अनेक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया। 1988 में उनके नागरिक अभिनंदन में भी श्री जैलसिंह उपस्थित हुए। 25 अक्तूबर, 2001 को इस महान समाज सुधारक का देहांत हुआ। उनकी शवयात्रा में हजारों नर-नारी शामिल हुए। इनमें सैकड़ों वे महिलाएं भी थीं, जिनके जीवन में आशा का दीप देवीदास जी ने ही जलाया था।
(संदर्भ: महान नारी उद्धारक देवीदास आर्य)
----------------------------------
4 जून/ जन्म-दिवस
पिंगलवाड़ा के संत : भगत पूर्णसिंह
सेवा को जीवन का लक्ष्य मानने वालों के लिए पिंगलवाड़ा धमार्थ संस्थान, अमृतसर के संस्थापक भगत पूर्णसिंह एक आदर्श हैं। उनका जन्म 4 जून, 1904 को लुधियाना के राजेवाल गांव में हुआ था। उनका जन्म का नाम रामजीदास था। उनकी मां और पिता का विधिवत विवाह नहीं हुआ था। उनकी जाति अलग थी और दोनों ही पूर्व विवाहित भी थे। गांव-बिरादरी के झंझट और पति के दुराग्रह के कारण उनकी मां को अपने तीन गर्भ गिराने पड़े थे। बहुत रोने-धोने पर पिता की सहमति से चौथी बार रामजीदास का जन्म हुआ।
1914 के अकाल में उनके पिता का साहूकारी का कारोबार चौपट हो गया और वे चल बसे। मां ने मिंटगुमरी, लाहौर आदि में घरेलू काम कर अपनी इस एकमात्र संतान को पाला और पढ़ाया; पर सेवा कार्य में व्यस्त रहने से वह कक्षा दस में अनुत्तीर्ण हो गया। मां ने उसे हिम्मत बंधाई; पर रामजीदास ने समाज सेवा को ही जीवन का व्रत बना लिया और लाहौर के गुरुद्वारा डेहरा साहब में बिना वेतन के काम करने लगा।
1924 में एक चारवर्षीय गूंगे, बहरे, अपाहिज और लकवाग्रस्त बच्चे को उसके अभिभावक गुरुद्वारे में छोड़ गये। कोई अनाथालय उसे रखने को तैयार नहीं था। इस पर रामजीदास ने उसे गोद लेकर उसका नाम प्यारासिंह रखा और जीवन भर उसकी दैनिक क्रियाएं स्वयं कराते रहेे।1932 में रामजीदास ने सिख पंथ अपना लिया और उनका नाम पूर्णसिंह हो गया। मां द्वारा प्रदत्त संस्कारों के कारण वे मंदिर और गुरुद्वारे दोनों में माथा टेकते थे। उन्होंने अविवाहित रहकर सेवा करने का ही निश्चय कर लिया। वे गुरुद्वारे में हर तरह की सेवा के लिए सदा तत्पर रहते थे। यह देखकर लोग उन्हें भगत जी कहने लगे।
एक बार गुरुद्वारे की छत से एक व्यक्ति गिर गया। भगत जी रात में ही उसे अस्पताल ले गये। एक व्यक्ति के पैर में कीड़े पड़े थे। भगत जी ने पैर साफ कर उसे भी अस्पताल पहुंचाया। एक भिखारिन की मृत्यु से पूर्व छह दिन तक उन्होंने उसकी हर प्रकार से सेवा की। उनके जीवन के ऐसे सैकड़ों प्रसंग हैं।
विभाजन के बाद वे अमृतसर के शरणार्थी शिविर में आ गये। अधिकांश लोगों के चले जाने पर शिविर बंद कर दिया गया। इससे जो अनाथ,बीमार, पागल और अपाहिज थे, वे संकट में पड़ गये। भगत जी ने एक खाली मकान में डेरा डालकर सबको वहां पहुंचा दिया और भीख मांगकर इनके पेट भरने लगे। इस प्रकार ‘पिंगलवाड़ा’ का जन्म हुआ, जो आज अपनी कई शाखाओं के साथ सेवारत है। अमृतसर में कोई अपाहिज,अनाथ या भिखारी दिखाई देता, तो भगत जी पिंगलवाड़ा लाकर उसे सम्मान से जीना सिखाते। 1958 में शासन ने संस्था को अमृतसर में कुछ भूमि दे दी, जो अब कम पड़ रही है।
लाहौर में रहते हुए उन्होंने देश-विदेश के विख्यात लेखकों की पुस्तकें पढ़ीं। वे पर्यावरण संरक्षण के लिए बहुत चिंतित रहते थे। वे पैदल चलने के समर्थक और स्कूटर, कार आदि के अनावश्यक उपयोग के विरोधी थे। वे स्वयं रिक्शा चलाकर बाजार से सब्जी आदि लाते थे। पर्यावरण एवं संस्कारों की रक्षा, सादगीपूर्ण जीवन आदि पर यदि कोई लेख किसी पत्र-पत्रिका में छपता, तो वे उसकी छाया प्रतियां या पुस्तिकाएं बनवाकर गुरुद्वारे आने वालों को निःशुल्क बांटते थे। वे प्रतिदिन स्वर्ण मंदिर के मार्ग की सफाई भी करते थे।
1981 में शासन ने उन्हें पदम्श्री से सम्मानित किया; पर अ१परेशन ब्लू स्टार के बाद उन्होंने उसे लौटा दिया। उन्हें सद्भावना सम्मान भी दिया गया। वे सेवा करते समय धर्म, मजहब या पंथ का विचार नहीं करते थे। सेवा धर्म के उपासक पिंगलवाड़ा के इस संत का देहांत 5 अगस्त, 1992को हुआ। (संदर्भ : कहानी रह जाएगी, भक्त पूर्णसिंह की)
----------------------------------
5 जून/पुण्य-तिथि
सेवक से प्रचारक तक : हरीश जी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी अनूठी संस्था है। इसमें कैसे-कैसे कार्यकर्ता किन परिस्थितियों में प्रचारक बनते हैं और फिर उस व्रत को किस प्रकार आजीवन निभाते हैं, यह समझना आश्चर्यजनक पर बहुत प्रेरणादायी है। श्री हरीश जी ऐसे ही एक प्रचारक थे, जिनका पांच जून, 2009 को 87वर्ष की आयु में लुधियाना में देहांत हुआ।
हरीश जी का जन्म ग्राम दिड़बा, जिला संगरूर, पंजाब में हुआ था। घर की आर्थिक आवश्यकताओं को देखते हुए वे 1950-51 में संगरूर कार्यालय में रसोई का काम करने के लिए आये। वहां बाहर के प्रचारक भी प्रवास पर आते थे। संगरूर कार्यालय पर काम करते हुए उन्होंने संघ के प्रचारकों के तपोमय जीवन का देखा। उन्हें ऐसा लगा कि यदि ये लोग प्रचारक बन सकते हैं, तो मैं क्यों नहीं ? बस, फिर क्या था, उन्होंने वरिष्ठ प्रचारकों से बात की और प्रचारक जीवन स्वीकार करने का संकल्प ले लिया।
अब कार्यालय की व्यवस्था तथा वस्तु भंडार का काम देखने के साथ ही वे संघ साहित्य के प्रचार में भी समय लगाने लगे। उन दिनों पांचजन्य और आर्गनाइजर के प्रसार पर संघ की ओर से बहुत जोर दिया जाता था,उन्होंने संगरूर में इसके सैकड़ों ग्राहक बनाये और अपनी साइकिल पर घर-घर और दुकान-दुकान जाकर उन्हें पहुंचाने लगे। साहित्य के प्रचार-प्रसार में उनकी रुचि देखकर उन्हें कुछ समय बाद अपेक्षाकृत बड़े स्थान पटियाला भेजा गया। वहां भी अथक परिश्रम कर उन्होंने इन पत्रों की ग्राहक संख्या में विस्तार किया।
1960 में उन्हें दिल्ली, झंडेवाला के केन्द्रीय कार्यालय पर भेज दिया गया। यहां भोजनालय और वस्तु भंडार को उन्होंने बहुत व्यवस्थित रूप दिया। दिल्ली कार्यालय पर देश भर से लोग आते हैं। संघ के अधिकारियों के साथ ही अन्य लोगों का भी आवागमन लगा रहता है। इसलिए भोजनालय को ठीक से चलाने में उन्हें अथक परिश्रम करना पड़ा; पर शरीर की चिन्ता किये बिना उन्हें जो काम सौंपा गया, उसमें निष्ठापूर्वक लगे रहे। यहां वरिष्ठ अधिकारियों से सम्पर्क एवं वार्ता से उनके संकल्प को और दृढ़ता मिली।
लम्बे समय तक दिल्ली कार्यालय पर काम करने से उनका शरीर शिथिल हो गया। अतः उन्हें पठानकोट कार्यालय प्रमुख की जिम्मेदारी देकर भेजा गया। वहां भी वे अपनी शारीरिक अस्वस्थता के बावजूद यथासंभव कार्य करते रहे। जब उनकी अस्वस्थता बहुत बढ़ गयी, तो उन्हें लुधियाना लाया गया, जिससे उन्हें ठीक से विश्राम और चिकित्सा मिल सके।
सादा जीवन तथा मितव्ययी स्वभाव वाले हरीश जी अपने लिए किसी से कुछ अपेक्षा नहीं करते थे। लुधियाना कार्यालय पर व१कर की सहायता से चलते हुए वे प्रातःस्मरण, शाखा आदि में जाते थे। पांच जून की प्रातः भी उन्होंने इन सबमें भाग लिया। दोपहर में उन्हें भीषण हृदयाघात होने पर अस्पताल में भर्ती कराया गया; पर अनेक प्रयत्नों के बाद भी चिकित्सक उन्हें बचा नहीं सके। इस प्रकार संकल्प के धनी एक प्रचारक का व्रत पूर्ण हुआ।
----------------------------------
6 जून/ जन्म-दिवस
असम के रक्षक : गोपीनाथ बारदोलोई
भारत रत्न से विभूषित श्री गोपीनाथ बारदोलोई का जन्म छह जून, 1890को असम के नागांव जिले के राहा गांव में हुआ था। इनके पिता श्री बुद्धेश्वर तथा माता श्रीमती प्राणेश्वरी थीं। उन्होंने एम.ए तथा फिर कानून की परीक्षाएं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कीं। 1922 में एक स्वयंसेवक के नाते वे कांग्रेस में शामिल हुए। सविनय अवज्ञा तथा असहयोग आंदोलन में वे कई बार जेल गये। पूर्वोत्तर भारत प्रायः शेष भारत से कटा रहता है; पर श्री बारदोलोई ने वहां के स्वाधीनता संग्राम को देश की मुख्य धारा से जोड़कर रखा।
1946 में बनी अंतरिम सरकार में वे असम के मुख्यमंत्री बने। इसके बाद अंग्रेजों ने स्वाधीनता और विभाजन की योजना के लिए ‘कैबिनेट कमीशन’ बनाया। जिन्ना असम को भी पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। 1905 में बंग-भंग के समय अंग्रेज इस षड्यन्त्र का बीज बो ही चुके थे। नेहरू इस सबसे बेखबर सत्ता प्राप्ति की सुखद कल्पनाओं में गोते लगा रहे थे। ऐसे विकट समय में श्री गोपीनाथ बारदोलोई ने सैकड़ों रैलियों का आयोजन किया। समाज के प्रबुद्ध लोगों के प्रतिनिधि मंडल शासन तथा कांग्रेस के केन्द्रीय नेताओं के पास भेजे। इससे जिन्ना का षड्यन्त्र विफल हो गया। सरदार पटेल ने इस पर उन्हें ‘शेेर-ए-असम’ की उपाधि दी।
स्वतंत्रता के बाद असम के मुख्यमंत्री बनते ही उन्हें शरणार्थी समस्या का सामना करना पड़ा। पूर्वी पाकिस्तान के बनते ही वहां के हिन्दुओं पर कट्टरपंथी टूट पड़े। लाखों लोग जान बचाकर बंगाल और असम में आ गये। श्री बारदोलोई ने सम्पूर्ण प्रशासनिक तंत्र को काम में लगाकर हिन्दुओं के पुनर्वास की सुचारु व्यवस्था की। इस समय असम के मुसलमान नेताओं ने अपने समर्थकों को भड़काया कि लाखों बाहरी हिन्दुओं के आने से यहां हम अल्पसंख्यक हो जाएंगे। इससे वहां दंगे भड़क गयेे। इस समस्या को भी श्री बारदोलोई ने बड़े धैर्य से संभालकर वातावरण शांत किया।
उस समय पूरा पूर्वोत्तर भारत असम ही कहलाता था। उसकी सीमाएं चीन और पाकिस्तान से मिलती थीं। राज्य में छोटे-छोटे अनेक जनजातीय समूह थे। यहां ईसाई मिशनरियों ने भी अपना जाल बिछा रखा था। वे इन्हें भारत से अलग होने के लिए प्रेरित करने के साथ ही आर्थिक तथा सामरिक सहयोग भी देते थे। पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण यातायात की भी समस्या थी। ऐसे वातावरण में श्री बारदोलोई ने बड़ी कुशलता से शासन का संचालन किया।
श्री बारदोलोई का मत था कि असम की दुर्दशा का मुख्य कारण अशिक्षा है। अतः उन्होंने कई विश्वविद्यालय तथा तकनीकी, चिकित्सा, पशु विद्यालय आदि प्रारम्भ कराये। उन्होंने गुवाहाटी में उच्च न्यायालय की भी स्थापना की। संवैधानिक उपसमिति के अध्यक्ष के नाते उन्होंने जनजातियों के अधिकारों की रक्षा की। इस प्रकार जहां एक ओर उन्होेंने असम को भारत में बनाये रखा, वहां अपने राज्य के लोगों के हितों की भी उपेक्षा नहीं होने दी।
श्री बारदोलोई एक अच्छे लेखक भी थे। जेल में रहकर उन्होंने अनासक्ति योग, श्री रामचंद्र, हजरत मोहम्मद, बुद्धदेव आदि पुस्तकें लिखीं। वे सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे। सदा खादी के वस्त्र पहनने वाले, गांधी जी के परम भक्त श्री गोपीनाथ का पांच अगस्त, 1950 को निधन हो गया। भारत सरकार ने मरणोपरांत 1999 में उन्हें भारत रत्न से विभूषित किया। (संदर्भ : दैनिक जागरण, विकीपीडिया आदि)
----------------------------------
7 जून/बलिदान-दिवस
गौतम डोरे एवं साथियों का बलिदान
आंध्र प्रदेश में स्वाधीनता के लिए अल्लूरी सीताराम राजू ने युवकों का एक दल बनाया था। वे सब गांधी जी के असहयोग आंदोलन में सक्रिय थे; पर जब गांधी जी ने आंदोलन को अचानक स्थगित कर दिया, तो इन युवकों के दिल को बहुत ठेस लगी और वे हिंसा के मार्ग पर चल दिये।
वनवासी जहां एक ओर वनों की रक्षा करते हैं, वहां वे वन से अपनी आवश्यकता की लकड़ी और खाद्य सामग्री भी प्राप्त करते हैं; पर अंग्रेजों ने ‘जंगल आरक्षण नीति’ बनाकर इसे प्रतिबंधित कर दिया। इससे भी राजू और उनके साथी बहुत नाराज थे। गोदावरी के तटवर्ती क्षेत्र के दो सगे भाई मल्लू और गौतम डोरा इस नीति से क्रुद्ध होकर राजू के साथ आ गये।
इन सबने मिलकर ‘रम्पा क्रांति दल’ की स्थापना की। हथियार जुटाने के लिए उन्होंने चिंतापल्ली और कृष्णादेवी पुलिस स्टेशनों को लूटा। वहां से भारी मात्रा में हथियार हाथ लगे। शासन ने इन्हें नियन्त्रित करने के लिए पूरे रम्पा क्षेत्र को असम राइफल्स के हवाले कर दिया। शासन और क्रांतिकारियों की टक्कर में कभी इनका पलड़ा भारी रहता, तो कभी उनका। राजू की तलाश में पुलिस उसके गांव वालों को पकड़कर प्रताड़ित करने लगी। अतः राजू ने आत्मसमर्पण कर दिया और उसे सात मई, 1924 को फांसी दे दी गयी।
राजू की फांसी से उसके साथियों के के मन में आग लग गयी। मल्लू और गौतम डोरे ने राजू के बचे हुए काम को पूरा करने का संकल्प कर लिया। दूसरी ओर पुलिस भी उन दोनों की तलाश में जुट गयी। वह बार-बार उनके गांव में छापा मारती; पर उन दोनों ने गांव आना ही छोड़ दिया था। अब वे अन्य गांवों में छिपकर अपनी गतिविधियां चलाने लगेे।
एक बार जब वे एक गांव पहुंचे, तो वहां के लोगों ने बताया कि पुलिस दल कुछ देर पहले ही उनकी तलाश में वहां आया था। पुलिस ने बहुत कठोरता से गांव के मुखिया से पूछताछ की थी; पर उन्होंने कोई भेद नहीं दिया। मुखिया तथा अन्य लोगों ने उन्हें सलाह दी कि वे कुछ समय तक अपनी गतिविधियां बंद रखें। उनकी बात मान कर दोनों एक महीने तक शांत रहे।
पर पुलिस को संदेह था कि वे लोग इसी क्षेत्र में छिपे हैं। अतः उन्होंने भी वहीं डेरा डाल दिया। काफी दिन बाद पुलिस वालों ने क्षेत्र छोड़ने से पूर्व एक बार फिर सघन तलाशी अभियान चलाने का निश्चय किया। सात जून, 1924 को पूरा पुलिस दल तीन भागों में बंटकर इस काम में लग गया।
पुलिस के एक समूह को नदी के बीहड़ों में युवकों का एक दल छिपने का प्रयत्न करता हुआ दिखाई दिया। पुलिस वाले समझ गये कि यही वे लोग हैं, जिनकी उन्हें तलाश है। अतः दोनों ओर से गोली चलने लगी। गोली की आवाज सुनकर बाकी पुलिस वाले भी वहां पहुंच गये और इस प्रकार क्रांतिवीर तीन ओर से घिर गये। इसके बाद भी उनका साहस कम नहीं हुआ। एक बार तो उन्होंने शत्रुओं को पीछे धकेल दिया; पर पुलिस की संख्या तो अधिक थी ही, उनके पास हथियार भी अच्छे थे। अतः गौतम डोरे और कई अन्य क्रांतिकारी युवक लड़ते हुए बलिदान हो गये।
मल्लू डोरे भी इस संघर्ष में बुरी तरह घायल हुआ। वह किसी तरह वहां से निकलने में सफल तो हो गया; पर अत्यधिक घायल होने के कारण बहुत दूर नहीं जा सका और पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। उस पर मुकदमा चलाया गया और 19 जून, 1924 को उसे फांसी दे दी गयी। इस प्रकार दो सगे भाइयों ने देश की स्वाधीनता के लिए मृत्यु का वरण किया। (संदर्भ : क्रांतिकोश भाग एक तथा स्वंतत्रता सेनानी सचित्र कोश)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें