मई चौथा सप्ताह

24 मई/जन्म-दिवस

समर्पण और निष्ठा के प्रतिरूप के.जनाकृष्णमूर्ति

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा एक ऐसी अद्भुत तथा अनुपम कार्यशाला है, जिससे प्राप्त संस्कारों के कारण व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में रहे, वहीं अपने कार्य और व्यवहार की सुगन्ध छोड़ जाता है। 

24 मई, 1928 को मदुरै (तमिलनाडु) के एक अधिवक्ता परिवार में जन्मे श्री के. जनाकृष्णमूर्ति ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे, जिन्होंने संघ के साधारण स्वयंसेवक से आगे बढ़ते हुए भारतीय जनता पार्टी जैसे विशाल राजनीतिक संगठन के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया।

प्राथमिक शिक्षा मदुरै में पूरी कर वे चेन्नई आ गये और वहाँ के विधि महाविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की। इसके बाद वे मदुरै में ही वकालत करने लगे। 1940 में मदुरै में संघ का कार्य प्रारम्भ हुआ, तो वे भी शाखा जाने लगे। 1945 में उन्होंने तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण प्राप्त किया और फिर मदुरै में ही नगर प्रचारक बन गये। 1951 के बाद वे फिर वकालत करने लगे। इस दौरान उन पर प्रान्त बौद्धिक प्रमुख का दायित्व भी रहा।

जनसंघ की स्थापना के बाद उत्तर भारत में तो वह फैल गया; पर दक्षिण भारत अछूता था। तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी की इच्छा पर वे 1965 में जनसंघ से जुड़े और उन्हें तमिलनाडु का राज्य सचिव बनाया गया। दीनदयाल जी के देहान्त के बाद अटल जी के आग्रह पर 1968 में उन्होंने वकालत छोड़ दी और ‘भारतीय जनसंघ’ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गये। अब वे तमिलनाडु के संगठन महासचिव बनाये गये। 1975 में आपातकाल लगने पर उन्होंने तमिलनाडु में इस आन्दोलन की कमान संभाली।

1977 में जनता पार्टी का गठन होने के बाद उन्हें इसकी तमिलनाडु इकाई का महासचिव तथा राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। 1980 में भा.ज.पा. की स्थापना के बाद वे इसके संस्थापक महासचिव तथा 1985 में उपाध्यक्ष बने। इस दौरान दक्षिण के चारों राज्यों तमिलनाडु, आन्ध्र, केरल और कर्नाटक में भा.ज.पा. के आधार को विस्तृत करने में उनकी बड़ी भूमिका रही। 1993 में श्री भा.ज.पा. के वरिष्ठ नेता श्री लालकृष्ण आडवाणी के अनुरोध पर वे दिल्ली आ गये और यहाँ उन्होंने भा.ज.पा. के बौद्धिक प्रकोष्ठ तथा आर्थिक, सुरक्षा, विदेश मामलों आदि का काम संभाला।

1995 में श्री जना कृष्णमूर्ति भा.ज.पा. मुख्यालय के प्रभारी और दल के प्रवक्ता बने। स्वभाव से हँसमुख, वाणी से विनम्र और व्यक्तित्व से अत्यन्त सरल श्री कृष्णमूर्ति कार्यकर्ताओं और दल के सहयोगियों में शीघ्र ही लोकप्रिय हो गये। उनके गहन अध्ययन और अनुभव के कारण छोटे-बड़े सभी नेता प्रायः उनसे विभिन्न विषयों पर परामर्श करते रहते थे। 

उनकी योग्यता देखते हुए सभी नेताओं ने 14 मार्च, 2001 को एकमत से उन्हें भा.ज.पा. का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना। श्री कामराज के बाद तमिलनाडु से किसी राष्ट्रीय दल के अध्यक्ष बनने वाले वे दूसरे नेता थे। इस पद पर उन्होंने सवा साल काम किया। फिर उन्हें राज्यसभा में भेजा गया। सदन में विद्वत्तापूर्ण भाषण के कारण विरोधी सांसद भी उनका सम्मान करते थे। श्री वाजपेयी के मंत्रिमंडल में वे एक वर्ष तक विधि विभाग के कैबिनेट मंत्री भी रहे।

श्री जना कृष्णमूर्ति समर्पण की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। पहले संघ और फिर भा.ज.पा. में जो काम उन्हें सौंपा गया, उन्होंने उसे पूर्ण निष्ठा से निभाया। 25 सितम्बर, 2007 को चेन्नई के एक चिकित्सालय में उनका देहान्त हुआ। उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए पूर्व प्रधानमन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ठीक ही कहा कि श्री जना कृष्णमूर्ति के निधन से एक समर्पित, संस्कारित, कर्मठ, कुशल प्रशासक और संवेदनशील व्यक्तित्व हमारे बीच से उठ गया।
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25 मई/जन्म-दिवस

क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस

बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में प्रत्येक देशवासी के मन में भारत माता की दासता की बेडि़याँ काटने की उत्कट अभिलाषा जोर मार रही थी। कुछ लोग शान्ति के मार्ग से इन्हें तोड़ना चाहते थे, तो कुछ जैसे को तैसा वाले मार्ग को अपना कर बम-गोली से अंग्रेजों को सदा के लिए सात समुन्दर पार भगाना चाहते थे। ऐसे समय में बंगभूमि ने अनेक सपूतों को जन्म दिया, जिनकी एक ही चाह और एक ही राह थी - भारत माता की पराधीनता से मुक्ति।

25 मई, 1886 को बंगाल के चन्द्रनगर में रासबिहारी बोस का जन्म हुआ। वे बचपन से ही क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में आ गये थे। हाईस्कूल उत्तीर्ण करते ही वन विभाग में उनकी नौकरी लग गयी। यहाँ रहकर उन्हें अपने विचारों को क्रियान्वित करने का अच्छा अवसर मिला, चूँकि सघन वनों में बम, गोली का परीक्षण करने पर किसी को शक नहीं होता था।

रासबिहारी बोस का सम्पर्क दिल्ली, लाहौर और पटना से लेकर विदेश में स्वाधीनता की अलख जगा रहे क्रान्तिवीरों तक से था। 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की शोभा यात्रा निकलने वाली थी। रासबिहारी बोस ने योजना बनाई कि वायसराय की सवारी पर बम फंेककर उसे सदा के लिए समाप्त कर दिया जाये। इससे अंग्रेजी शासन में जहाँ भय पैदा होगा, वहाँ भारतीयों के मन में उत्साह का संचार होगा।

योजनानुसार रासबिहारी बोस तथा बलराज ने चाँदनी चौक से यात्रा गुजरते समय एक मकान की दूसरी मंजिल से बम फेंका; पर दुर्भाग्यवश वायसराय को कुछ चोट ही आयी, वह मरा नहीं। रासबिहारी बोस फरार हो गये। पूरे देश में उनकी तलाश जारी हो गयी। ऐसे में उन्होंने अपने साथियों की सलाह पर विदेश जाकर देशभक्तों को संगठित करने की योजना बनाई। उसी समय विश्वकवि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर जापान जा रहे थे। वे भी उनके साथ उनके सचिव पी.एन.टैगोर के नाम से जापान चले गये।

पर जापान में वे विदेशी नागरिक थे। जापान और अंग्रेजों के समझौते के अनुसार पुलिस उन्हें गिरफ्तार कर भारत भेज सकती थी। अतः कुछ मित्रों के आग्रह पर उन्होंने अपने शरणदाता सोमा दम्पति की 20 वर्षीय बेटी तोसिको से उसके आग्रह पर विवाह कर लिया। इससे उन्हें जापान की नागरिकता मिल गयी। यहाँ तोसिको का त्याग भी अतुलनीय है। उसने रासबिहारी के मानव कवच की भूमिका निभाई। जापान निवास के सात साल पूरे होने पर उन्हें स्वतन्त्र नागरिकता मिल गयी। अब वे कहीं भी जा सकते थे।

उन्होंने इसका लाभ उठाकर दक्षिण एशिया के कई देशों में प्रवास कर वहाँ रह रहे भारतीयों को संगठित कर अस्त्र-शस्त्र भारत के क्रान्तिकारियों के पास भेजे। उस समय द्वितीय विश्व युद्ध की आग भड़क रही थी। रासबिहारी बोस ने भारत की स्वतन्त्रता हेतु इस युद्ध का लाभ उठाने के लिए जापान के साथ आजाद हिन्द की सरकार के सहयोग की घोषणा कर दी। उन्होंने जर्मनी से सुभाषचन्द्र बोस को बुलाकर ‘सिंगापुर मार्च’ किया तथा 1941 में उन्हें आजाद हिन्द की सरकार का प्रमुख तथा फौज का प्रधान सेनापति घोषित किया।

देश की स्वतन्त्रता के लिए विदेशों में अलख जगाते और संघर्ष करते हुए रासबिहारी बोस का शरीर थक गया। उन्हें अनेक रोगों ने घेर लिया था। 21 जनवरी, 1945 को वे भारत माता को स्वतन्त्र देखने की अपूर्ण अभिलाषा लिये हुए ही चिरनिद्रा में सो गये।
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26 मई/प्रेरक-प्रसंग

सती रामरखी देवी

दिल्ली में मुगल शासक औरंगजेब के बन्दीगृह में जब गुरु तेगबहादुर जी ने देश और हिन्दू धर्म की रक्षार्थ अपना शीश कटाया, तो उससे पूर्व उनके तीन अनुयायियों ने भी प्रसन्नतापूर्वक यह हौतात्मय व्रत स्वीकार किया था। वे थे भाई मतिदास, भाई सतीदास और भाई दयाला। इस कारण इतिहास में उन्हें और उनके वंशजों को नाम से पूर्व ‘भाई’ लगाकर सम्मानित किया जाता है। 

भाई मतिदास के वंशज थे भाई बालमुकुंद, जिन्होंने 23 दिसम्बर, 1912 को दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग की शोभायात्रा पर बम फेंका था। इस कांड में चार युवा क्रांतिवीरों (भाई बालमुकुंद, अवधबिहारी, वसंत कुमार विश्वास तथा मास्टर अमीरचंद) को फांसी दी गयी थी। इनमें से एक भाई बालमुकुंद की पत्नी रामरखी के आत्मबलिदान का प्रसंग भी अत्यन्त प्रेरक है।

भाई बालमुकुंद का विवाह किशोरावस्था में ही लाहौर की रामरखी से हो गया था; पर अभी गौना होना बाकी था। अर्थात रामरखी अभी ससुराल नहीं आई थी। इधर बालमुकुंद जी क्रांतिकार्य करते हुए दिल्ली की जेल में पहुंच गये। जब रामरखी को यह पता लगा, तो वह उनसे मिलने अपने परिजनों के साथ दिल्ली आयी। रामरखी ने उनसे पूछा कि वे क्या खाते हैं और कहां सोते हैं ? 

बालमुकुंद जी ने बताया कि उन्हें एक समय भोजन मिलता है। रामरखी के आग्रह पर उन्होंने अपनी रोटी लाकर दिखाई। मोटे अन्न से बनी उस रोटी में कुछ घासफूस भी मिली थी। रामरखी ने उसका एक टुकड़ा अपने पल्लू में बांध लिया। फिर बालमुकुंद जी ने बताया कि उन्हें दो कंबल मिले हैं। गरमी होने पर भी उसमें से एक को वे ओढ़ते और दूसरे को बिछाकर सोते हैं।

लाहौर वापस आकर रामरखी वैसी ही मोटी और कंकड़ मिली रोटी बनाकर एक समय खाने लगी। रात में सब लोग छत पर सोते थे; पर वह घर की नीचे वाली कोठरी में कंबल बिछाकर और ओढ़कर सोने लगी। कुछ ही समय में उसकी हड्डियां निकल आयीं। मच्छरों के काटने से शरीर सूज गया; पर उसने उफ तक नहीं की। वह दिन भर पूजा-पाठ में लगी रहती थी। इस कठोर तपस्या से मानो वह अपने पति के कष्ट बांट रही थी। 

इस तरह कई महीने बीत गयी। अंततः फांसी की सजा घोषित हो गयी। रामरखी धैर्यपूर्वक पति से अंतिम बार मिलने फिर दिल्ली आई। आठ मई, 1915 को भाई बालमुकुंद और साथियों को फांसी दे दी गयी। फांसी वाले दिन से ही रामरखी ने अन्न-जल त्याग दिया। वह दिन भर पूजा में ही बैठी रहती। इस प्रकार 17 दिन बीत गये। 26 मई को 18 वां दिन था। उस दिन उसने स्वयं पानी लाकर स्नान किया, साफ वस्त्र पहने और अपने स्थान पर आकर लेट गयी। इसके बाद उसने अपनी सांस ऊपर खींच ली। कुछ समय बाद घर वालों ने देखा कि वहां उसका निर्जीव शरीर ही शेष है। 

इस प्रकार रामरखी ने महान सती नारियों की परम्परा में अपना नाम लिखा लिया। यद्यपि गौना न होने के कारण वह अभी कुमारी अवस्था में ही थी; पर उसने जो किया, उससे भारत की समस्त नारी जगत गौरवान्वित है।

(संदर्भ : राष्ट्रधर्म नवम्बर 2010 में भाई बालमुकुंद के चचेरे भाई, भाई परमानंद जी का लेख)
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26 मई/जन्म-दिवस

हिन्दू चेतना के प्रचार पुरुष आनंद शंकर पंड्या

विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ कार्यकर्ता आनंद शंकर पंड्या का जन्म 26 मई, 1922 को म.प्र. के हटा गांव में श्री रेवाशंकर जी तथा श्रीमती रुक्मिणी देवी के घर में हुआ था। यद्यपि यह परिवार मूलतः गुजरात का था। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने गांव में ही ली। इसके बाद पूरा परिवार बनारसी साडि़यों के कारोबार के लिए काशी आ गया। आनंद जी ने काशी हिन्दू वि.वि. से बी.ए किया। तत्कालीन उपकुलपति डा. राधाकृष्णन हर रविवार को गीता पर व्याख्यान देते थे। आनंद जी को धर्म के संस्कार परिवार से तो मिले ही थे; पर गीता के इन व्याख्यानों से उनमें हिन्दू धर्म के प्रति आस्था और दृढ़ हो गयी।

आनंद जी की माता स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय रहती थीं। उन्होंने अपने बच्चों को तीन शिक्षाएं दीं। पहली किसी के साथ अन्याय न करो और करने दो। दूसरी समय नष्ट मत करो तथा तीसरी सदा सावधान रहो। आनंद जी ने जीवन भर इनका पालन किया। काशी के बाद उनका परिवार मुंबई आकर हीरे-जवाहरात का काम करने लगा। इसमें उन्हें भरपूर धन और यश प्राप्त हुआ। कुछ ही समय में वे मुंबई के बड़े कारोबारी बन गये।

धर्मप्रेमी होने के नाते आनंद जी हिन्दू समाज की वर्तमान स्थिति पर बहुत चिंतित रहते थे। एक बार वे मुंबई में विश्व हिन्दू परिषद की बैठक में गये। वहां वि.हि.प के कोषाध्यक्ष सदाजीवत लाल जी के भाषण से प्रभावित होकर वे भी वि.हि.प. से जुड़ गये। उन्होंने एक अच्छी राशि भी संगठन को दी। कुछ समय बाद उनका संपर्क श्री अशोक सिंहल से हुआ। इसके बाद तो वे पूरी तरह अशोक जी और वि.हि.प. के प्रति समर्पित हो गये। कुछ समय बाद उन्हें संगठन में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गयी। अपने कारोबार के सिलसिले में वे विदेश जाते ही थे। उस दौरान वे वि.हि.परिषद का काम भी करने लगे। इससे कई नये देशों में परिषद का नाम और काम पहुंच गया।

आनंद जी ने अपनी सारगर्भित लेखनी से हिन्दुओं की भरपूर सेवा की। वे अध्ययन के शौकीन थे। उनके पास देश-विदेश की पुस्तकों तथा पत्रिकाओं का बड़ा संग्रह था। उसके आधार पर वे लिखते थे तथा उन्हें पुस्तक एवं पत्रक के रूप में बांटते थे। यह काम उन्होंने 50 साल तक किया। पत्रक में उनका नाम और पता लिखा रहता था। वे यह भी उल्लेख करते थे कि इसका हर शब्द सत्य है। इसे बांटने के इच्छुक लोगों को ये पत्रक वे निःशुल्क भेजते भी थे। इस प्रकार उन्होंने करोड़ों पत्रक निजी व्यय से छापे और बांटे। जो पत्रिकाएं ना-नुकुर करती थीं, वहां वे विज्ञापन के रूप में इन्हें छपवाते थे।

इसके साथ ही मुंबई के अन्य सभी सामाजिक कामों में भी वे सक्रिय रहते थे। वर्ष 2000 में वंदे मातरम् की 125 जयंती मनायी गयी। संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री मोरोपंत पिंगले की इच्छा थी कि इसे भव्य रूप से मनाया जाए। इसके लिए आनंद जी की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गयी। समारोह के बाद समिति ने वंदे मातरम् फांउडेशनका रूप ले लिया। उसी के बैनर पर 2008 में आनंद जी की 85वीं वर्षगांठ मनायी गयी। उसमें देश के अनेक बड़े संत, समाजसेवी, राजनेता तथा सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी भी उपस्थित थे। चार अक्तूबर, 2007 को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के अभिनंदन का भी अति भव्य कार्यक्रम इसी संस्था ने किया।

आनंद जी ने शिक्षा में नवोन्मेष तथा राष्ट्रपति डा. कलाम के विजन 2020’ को मूर्त रूप देने के लिए समर्थ न्यासका गठन किया। यह केन्द्र तथा राज्य सरकारों के साथ मिलकर काम करता है। इसमें देश के कई विद्वान एवं शिक्षाविद् जुड़े हैं। ऐसे महामनीषी श्री आनंद शंकर पंड्या का 10 नवंबर, 2021 में मुंबई में ही देहांत हुआ। अपनी लेखनी के माध्यम से की गयी उनकी सेवाओं के लिए उन्हें सदा याद किया जाता रहेगा।

(हि.विवेक, दिसम्बर 2021/59, वीरेन्द्र याज्ञिक)

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26 मई/जन्म-दिवस

निष्ठावान कार्यकर्ता हो.वे.शेषाद्रि

आज तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का साहित्य हर भाषा में प्रचुर मात्रा में निर्माण हो रहा है; पर इस कार्य के प्रारम्भ में जिन कार्यकर्ताओं की प्रमुख भूमिका रही, उनमें श्री होंगसन्द्र वेंकटरमैया शेषाद्रि जी का नाम शीर्ष पर है। 

26 मई, 1926 को बंगलौर में जन्मे शेषाद्रि जी 1943 में स्वयंसेवक बने। 1946 में मैसूर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में प्रथम श्रेणी में स्वर्ण पदक पाकर उन्होंने एम.एस-सी. किया और अपना जीवन प्रचारक के नाते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हेतु समर्पित कर दिया।

प्रारम्भ में उनका कार्यक्षेत्र मंगलौर विभाग, फिर कर्नाटक प्रान्त और फिर पूरा दक्षिण भारत रहा। 1986 तक वे दक्षिण में ही सक्रिय रहे। वे श्री यादवराव जोशी से बहुत प्रभावित थे। 1987 से 2000 तक वे संघ के सरकार्यवाह रहे। इस नाते उन्होंने पूरे भारत तथा विश्व के कुछ देशों में भी प्रवास किया। 

कार्य की व्यस्तता के बाद भी वे प्रतिदिन लिखने के लिए समय निकाल लेते थे। वे दक्षिण के विक्रम साप्ताहिक, उत्थान मासिक, दिल्ली के पांचजन्य और आर्गनाइजर साप्ताहिक तथा लखनऊ के राष्ट्रधर्म मासिक के लिए प्रायः लिखते रहते थे। उनके लेखों की पाठक उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे। उन्होंने संघ तथा अन्य हिन्दू साहित्य के प्रकाशन के लिए श्री यादवराव के निर्देशन में बंगलौर में ‘राष्ट्रोत्थान परिषद्’ की स्थापना की। सेवा कार्यों के विस्तार एवं संस्कृत के उत्थान के लिए भी उन्होंने सघन कार्य किया।

शेषाद्रि जी ने यों तो सौ से अधिक छोटी-बड़ी पुस्तकंे लिखीं; पर उन्होंने ही सर्वप्रथम द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी के भाषणों को ‘बंच ऑफ थॉट्स'  के रूप में संकलित किया। आज भी इसके संस्करण प्रतिवर्ष छपते हैं। इसके अतिरिक्त कृतिरूप संघ दर्शन, युगावतार, और देश बँट गया, नान्यः पन्था, मूल्यांकन, द वे, हिन्दूज अब्रोड डाइलेमा, उजाले की ओर.. आदि उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं। इन सबके कई भाषाओं में अनुवाद हुए हैं। ‘तोरबेरलु’ को 1982 में कन्नड़ साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत किया।

शेषाद्रि जी की भाषण शैली भी अद्भुत थी। वे सरल एवं रोचक उदाहरण देकर अपनी बात श्रोताओं के मन में उतार देते थे। 1984 में न्यूयार्क (अमरीका) के विश्व हिन्दू सम्मेलन तथा ब्रेडफोर्ड (ब्रिटेन) के हिन्दू संगम में उन्हें विशेष रूप से आमन्त्रित किया गया था। उनके भाषणों से वहां लोग बहुत प्रभावित हुए।

अत्यधिक शारीरिक एवं मानसिक श्रम के कारण उनका शरीर अनेक रोगों का घर बन गया। जब चैथे सरसंघचालक रज्जू भैया अपने खराब स्वास्थ्य के कारण अवकाश लेना चाहते थे, तो सब कार्यकर्ता चाहते थे कि शेषाद्रि जी यह दायित्व संभालें; पर वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। उनका कहना था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, अतः किसी युवा कार्यकर्ता को यह काम दिया जाये। अन्ततः सह सरकार्यवाह श्री सुदर्शन जी को यह दायित्व दिया गया। शेषाद्रि जी निरहंकार भाव से सह सरकार्यवाह और फिर प्रचारक प्रमुख के नाते कार्य करते रहे।

अन्तिम दिनों में वे बंगलौर कार्यालय पर रह रहे थे। वहाँ सायं शाखा पर फिसलने से उनके पैर की हड्डी टूट गयी। एक बार पहले भी उनकी कूल्हे की हड्डी टूट चुकी थी। इस बार इलाज के दौरान उनके शरीर में संक्रमण फैल गया। इससे उनके सब अंग क्रमशः निष्क्रिय होते चले गये। 

कुछ दिन उन्हें चिकित्सालय में रखा गया। जब उन्हें लगा कि अब इस शरीर से संघ-कार्य सम्भव नहीं रह गया है, तो उन्होंने सब जीवन-रक्षक उपकरण हटवा दिये। उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें संघ कार्यालय ले आया गया। वहीं 14 अगस्त, 2005 की शाम को उनका देहान्त हो गया।
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27 मई/बलिदान-दिवस

प्रताप सिंह बारहठ का बलिदान

एक पुलिस अधिकारी और कुछ सिपाही उत्तर प्रदेश की बरेली जेल में हथकडि़यों और बेडि़यों से जकड़े एक तेजस्वी युवक को समझा रहे थे, ‘‘कुँअर साहब, हमने आपको बहुत समय दे दिया है। अच्छा है कि अब आप अपने क्रान्तिकारी साथियों के नाम हमें बता दें। इससे सरकार आपको न केवल छोड़ देगी, अपितु पुरस्कार भी देगी। इससे आपका शेष जीवन सुख से बीतेगा।’’

उस युवक का नाम था प्रताप सिंह बारहठ। वे राजस्थान की शाहपुरा रियासत के प्रख्यात क्रान्तिकारी केसरी सिंह बारहठ के पुत्र थे। प्रताप के चाचा जोरावर सिंह भी क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय थे।वे रासबिहारी बोस की योजना से राजस्थान में क्रान्तिकार्य कर रहे थे। इस प्रकार उनका पूरा परिवार ही देश की स्वाधीनता के लिए समर्पित था।

पुलिस अधिकारी की बात सुनकर प्रताप सिंह हँसे और बोले, ‘‘मौत भी मेरी जुबान नहीं खुलवा सकती। हम सरकारी फैक्ट्री में ढले हुए सामान्य मशीन के पुर्जे नहीं हैं। यदि आप मुझसे यह आशा कर रहे हैं कि मैं मौत से बचने के लिए अपने साथियों के गले में फन्दा डलवा दूँगा, तो आपकी यह आशा व्यर्थ है। सरकार के गुलाम होने के कारण आप सरकार का हित ही चाहंेगे; पर हम क्रान्तिकारी तो उसकी जड़ उखाड़कर ही दम लेंगे।’’

पुलिस अधिकारी ने फिर समझाया, ‘‘हम आपकी वीरता के प्रशंसक हैं; पर यदि आप अपने साथियों के नाम बता देंगे, तो हम आपके आजन्म कालेपानी की सजा पाये पिता को भी मुक्त करा देंगे और आपके चाचा के विरुद्ध चल रहे सब मुकदमे भी उठा लेंगे।  सोचिये, इससे आपकी माता और परिवारजनों को कितना सुख मिलेगा ?’’

प्रताप ने सीना चैड़ाकर उच्च स्वर में कहा, ‘‘वीर की मुक्ति समरभूमि में होती है। यदि आप सचमुच मुझे मुक्त करना चाहते हैं, तो मेरे हाथ में एक तलवार दीजिये। फिर चाहे जितने लोग आ जायें। आप देखेंगे कि मेरी तलवार कैसे काई की तरह अंग्रेजी नौकरशाहों को फाड़ती है। जहाँ तक मेरी माँ की बात है, अभी तो वह अकेले ही दुःख भोग रही हैं; पर यदि मैं अपने साथियों के नाम बता दूँगा, तो उन सबकी माताएँ भी ऐसा ही दुख पायेंगी।’’

प्रताप सिंह लार्ड हार्डिंग की शोभायात्रा पर फंेके गये बमकांड में पकड़े गये थे। इस कांड में उनके साथ कुछ अन्य क्रान्तिकारी भी थे। पहले उन्हें आजीवन कालेपानी की सजा दी गयी; पर फिर उसे मृत्युदंड में बदल दिया गया। फाँसी के लिए उन्हें बरेली जेल में लाया गया था। वहाँ दबाव डालकर उनसे अन्य साथियों के बारे में जानने का प्रयास पुलिस अधिकारी कर रहे थे।

जब जेल अधिकारियों ने देखा कि प्रताप सिंह किसी भी तरह मुँह खोलने को तैयार नहीं हैं, तो उन पर दमनचक्र चलने लगा। उन्हें बर्फ की सिल्ली पर लिटाया गया। मिर्चों की धूनी उनकी नाक और आँखों में दी गयी। बेहोश होने तक कोड़ों के निर्मम प्रहार किये गये। होश में आते ही फिर यह सिलसिला शुरू हो जाता।लगातार कई दिन पर उन्हें भूखा-प्यासा रखा गया। उनकी खाल को जगह-जगह से जलाया गया। फिर उसमें नमक भरा गया; पर आन के धनी प्रताप सिंह ने मुँह नहीं खोला।

लेकिन 25 वर्षीय उस युवक का शरीर यह अमानवीय यातनाएँ कब तक सहता ? 27 मई, 1918 को उनके प्राण इस देहरूपी पिंजरे को छोड़कर अनन्त में विलीन हो गये।


(प्रताप सिंह बारहठ सेवा संस्थान, शाहपुरा (भीलवाड़ा) के अनुसार जन्मतिथि 24.5.1893 तथा बलिदान दिवस 24.5.1918 है।)

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27 मई/पुण्य-तिथि

प्रभुभक्त तुलसीराम प्रभु

महाराष्ट्र के बीड़ जिले में ‘श्रीक्षेत्र परली वैद्यनाथ’ स्थित है। एक समय यहाँ के रावल मठ के अधिकारी श्रीगुरु धर्मनाथ जी महाराज थे। उनके एक शिष्य आत्माराम को कोई सन्तान नहीं थी। एक बार आत्माराम एवं उनकी पत्नी मंजुला देवी ने बहुत व्याकुल होकर महाराज जी से कहा कि आप कुछ ऐसी प्रार्थना करें, जिससे हमारे घर में सन्तान हो जाये। यदि पहली सन्तान पुत्र होगा, तो हम उसे मठ की सेवा में अर्पण कर देंगे।

प्रभु की कृपा से कुछ समय बाद मंजुला देवी को गर्भ ठहर गया और ठीक समय पर उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। उसका नाम तुलसीराम रखा गया। उन्होंने अपने संकल्प के अनुसार कुछ समय तक पुत्र का पालन किया और फिर उसे मठ में जाकर महाराज जी को समर्पित कर दिया। उसके बाद इस दम्पति को फिर कोई सन्तान नहीं हुई। वे फिर महाराज जी के पास आये कि अब हम इस अवस्था में पहुँच गये हैं कि सन्तान हो ही नहीं सकती। अतः कृपया तुलसीराम को हमें वापस कर दें।

महाराज जी ने जैसी तुम्हारी इच्छा कह कर तुलसीराम को घर जाने की आज्ञा दे दी। कुछ दिन तो ठीक रहा; पर जैसे ही तुलसीराम के विवाह की बात चली, वह पागल जैसा व्यवहार करने लगे। यह देखकर माता-पिता को वैराग्य हो गया और तुलसीराम उसी विक्षिप्त स्थिति में परली वैद्यनाथ आ गये। वहाँ कभी वे ठीक रहते, तो कभी फिर पुरानी अवस्था में आ जाते।

इसके बाद तुलसीराम प्रभु वन, पर्वत, तीर्थ, शमशान, मन्दिरों आदि में भ्रमण करने लगे। लोग उन्हें पागल समझ कर छेड़ते, कुछ पत्थर मारते, कुछ काँटों में ढकेलते; पर वे अपनी धुन में मस्त रहते। कभी-कभी वे 15 मिनट तक पानी में डूबे रहते। यदि कोई सर्प मिलता, तो उससे खेलते रहते। 

एक बार किसी को साँप ने काट लिया। वह चिल्लाते हुए मठ में आकर महाराज के चरणों में गिर गया। थोड़ी देर बाद लोगों ने देखा कि वह ऐसे उठकर खड़ा हो गया, मानो नींद से उठा हो। एक बार भक्तों के साथ बैठे वे भजन गा रहे थे। अचानक वे चीखे कि गाँव में कहीं आग लग गयी है। लोग भागकर गये, तो उनकी वाणी सत्य ही थी। इन चमत्कारों के बाद सब समझ गये कि पागल जैसा दिखने वाला यह व्यक्ति साक्षात परमात्मा स्वरूप है। 

एक बार नागपंचमी पर तुलसीराम प्रभु झूला झूल रहे थे। अचानक उनका हाथ छूट गया और वे धरती पर आ गिरे; पर महाप्रभु प्रसन्नता से उठ खड़े हुए। इससे उनके हाथ चोटग्रस्त होकर मुड़ गये, जो अन्त तक ऐसे ही रहे। एक बार उन्हें दो दिन तक भीषण ज्वर रहा। उसमें वे अण्ट सण्ट बोलने लगे। लोग उन्हें रावल मठ में ले आये। यहाँ आकर वे फिर पूर्ववत हो गये।

तुलसीराम प्रभु राजा-रंक, पापी-पुण्यात्मा सबको एक दृष्टि से ही देखते थे। अब उनमें एक परिवर्तन और आया। वे कभी-कभी किसी भक्त को पीटने लगते; परन्तु लोगों के मन में उनके प्रति इतनी श्रद्धा थी कि वे इसे भी उनका प्रसाद मानते थे। कभी वे बिल्कुल चुप हो जाते और कई दिन तक नहीं बोलते। 

धीरे-धीरे महाप्रभु की स्थिति ऐसी हो गयी कि उन्हें अपने तन, वस्त्र, स्नान, खानपान आदि की सुध भी नहीं रह गयी। भक्तजन ही यह सब करते थे। इसी प्रकार प्रभुभक्ति में लीन रहते हुए तुलसीराम प्रभु ने 27 मई, 1948 को अपनी देह त्याग दी।
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27 मई/पुण्य-तिथि

कर्मवीर धर्मचंद नाहर

श्री धर्मचंद नाहर का जन्म राजस्थान में अजमेर से लगभग 150 कि.मी. दूर स्थित ग्राम हरनावां पट्टी में वर्ष 1944 की कार्तिक कृष्ण 13 (धनतेरस) को हुआ था। जब वे केवल तीन वर्ष के थे, तब उनके पिता श्री मिश्रीमल जी बच्चों की समुचित शिक्षा के लिए लाडनू आ गये। यह परिवार जैन मत के तेरापंथ से सम्बन्धित था। लाडनू उन दिनों तेरापंथ का प्रमुख स्थान था।

सात भाई और एक बहिन वाला यह परिवार एक ओर धर्मप्रेमी, तो दूसरी ओर संघ के लिए भी समर्पित था। घर में जैन संतों के साथ ही संघ के कार्यकर्ता भी आते रहते थे। लाडनू से मैट्रिक उत्तीर्ण कर धर्मचंद जी 1960 में कोलकाता आ गये। उनका काफी समय शाखा कार्य में लगता था। कोलकाता आते समय जब वे सामान में गणवेश रखने लगे, तो बड़े भाई ने उसे बाहर निकलवा दिया और डांटते हुए बोले कि बहुत हो गई शाखा। अब इसे यहीं छोड़ दो।

इस पर धर्मचंद जी ने शांत भाव से कहा कि यह सामान तो वहां जाकर नया भी खरीदा जा सकता है; पर मैं शाखा जाना नहीं छोड़ूंगा। कोलकाता में एक फर्म में सेल्स मैनेजर के रूप में काम करते हुए उन्होंने बी.काॅम भी किया तथा 1965 में नौकरी से त्यागपत्र देकर संघ के प्रचारक बन गये।

बंगाल में उन दिनों संघ का काम बहुत कम, और वह भी मुख्यतः मारवाड़ी व्यापारियों में ही था; पर धर्मचंद जी ने शीघ्र ही बंगला भाषा पर अधिकार कर लिया। धीरे-धीरे वे ‘धर्मदा’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। उन्हें सर्वप्रथम बांकुड़ा तथा फिर मिदनापुर जिले में भेजा गया। इसके बाद उन्हें नवद्वीप विभाग प्रचारक तथा प्रांतीय शारीरिक प्रमुख की जिम्मेदारी मिली। 

इसके बाद उन्होंने सिलीगुड़ी, दार्जिलिंग, सिक्किम, भूटान आदि में काम करते हुए कई विद्या मंदिरों की स्थापना की। लगभग 30 वर्ष तक बंगाल मे काम करने के बाद उन्हें दक्षिण असम में प्रांत सम्पर्क प्रमुख बनाकर भेजा गया। इसमें नगालैंड, मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर व सिल्चर का क्षेत्र आता है। 

यहां बंगलाभाषियों के साथ ही सैकड़ों जनजातियों के लोग रहते हैं, जिनकी अपनी-अपनी बोलियां तथा रीति-रिवाज हैं। इनके बीच ईसाइयों ने काफी जड़ जमा रखी हैं। अतः धर्मदा ने यहां संघ शाखा के साथ ही वनवासी कल्याण आश्रम तथा विश्व हिन्दू परिषद के काम का भी विस्तार किया। 

चार वर्ष असम में काम करने के बाद धर्मचंद जी को हरियाणा में करनाल विभाग तथा तीन वर्ष बाद हिसार विभाग प्रचारक व प्रांत घोष प्रमुख की जिम्मेदारी दी गयी। वे कई बार संघ शिक्षा वर्ग में मुख्यशिक्षक भी रहे।

12 मई, 2001 को वे मोटरसाइकिल से सिरसा से अग्रोहा की ओर जा रहे थे। संघ शिक्षा वर्ग की तैयारी चल रही थी। रात में सामने से आ रहे ट्रक की तेज रोशनी से बचने के लिए उन्होंने मोटरसाइकिल को नीचे उतार दिया; पर मार्ग में आधा झुका हुआ एक पेड़ खड़ा था। धर्मचंद जी ने तेजी से झुककर उसे पार करना चाहा; पर उससे टकराकर वे गिर पड़े और बेहोश हो गये।

पीछे समाचार पत्र लेकर आ रही एक जीप वालों ने उन्हें अग्रोहा के चिकित्सालय में भर्ती कराया तथा उनकी जेब से मिले नंबरों पर फोन कर दिया। तुरंत ही कई कार्यकर्ता आ गये और उन्हें हिसार के बड़े चिकित्सालय में ले जाया गया। हालत में सुधार न होते देख अगले दिन उन्हें दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में भर्ती कराया गया। वहां भी भरपूर प्रयास हुए; पर विधि के विधान के अनुसार 27 मई, 2001 को उनका शरीरांत हो गया।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि धर्मचंद जी के बड़े भाई श्री विजय कृष्ण नाहर ने 25 वर्ष तक राजस्थान व हरियाणा में प्रचारक रहकर, मृत्युशैया पर पड़े पिताजी के अत्यधिक आग्रह पर गृहस्थ जीवन स्वीकार किया था।

(संदर्भ : लो श्रद्धांजलि कर्मवीर - मासिक श्राद्धदिवस पर प्रकाशित)
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28 मई/जन्म-दिवस

क्रान्तिकारियों के सिरमौर वीर सावरकर

विनायक दामोदर सावरकर का जन्म ग्राम भगूर (जिला नासिक, महाराष्ट्र) में 28 मई, 1883 को हुआ था। छात्र जीवन में इन पर लोकमान्य तिलक के समाचार पत्र ‘केसरी’ का बहुत प्रभाव पड़ा। इन्होंने भी अपने जीवन का लक्ष्य देश की स्वतन्त्रता को बना लिया। 1905 में उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आन्दोलन चलाया। जब तीनों चाफेकर बन्धुओं को फाँसी हुई, तो इन्होंने एक मार्मिक कविता लिखी। फिर रात में उसे पढ़कर ये स्वयं ही हिचकियाँ लेकर रोने लगे। इस पर इनके पिताजी ने उठकर इन्हें चुप कराया।

सावरकर जी सशस्त्र क्रान्ति के पक्षधर थे। उनकी इच्छा विदेश जाकर वहाँ से शस्त्र भारत भेजने की थी। अतः वे श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा दी जाने वाली छात्रवृत्ति लेकर ब्रिटेन चले गये। लन्दन का ‘इंडिया हाउस’ उनकी गतिविधियों का केन्द्र था। वहाँ रहने वाले अनेक छात्रों को उन्होंने क्रान्ति के लिए प्रेरित किया। कर्जन वायली को मारने वाले मदनलाल धींगरा उनमें से एक थे।

उनकी गतिविधियाँ देखकर ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें 13 मार्च, 1910 को पकड़ लिया। उन पर भारत में भी अनेक मुकदमे चल रहे थे, अतः उन्हें मोरिया नामक जलयान से भारत लाया जाने लगा। 10 जुलाई, 1910 को जब वह फ्रान्स के मोर्सेल्स बन्दरगाह पर खड़ा था, तो वे शौच के बहाने शौचालय में गये और वहां से समुद्र में कूदकर तैरते हुए तट पर पहुँच गये। 

तट पर उन्होंने स्वयं को फ्रान्सीसी पुलिसकर्मी के हवाले कर दिया। उनका पीछा कर रहे अंग्रेज सैनिकों ने उन्हें फ्रान्सीसी पुलिस से ले लिया। यह अन्तरराष्ट्रीय विधि के विपरीत था। इसलिए यह मुकदमा हेग के अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय तक पहुँचा; जहाँ उन्हें अंग्रेज शासन के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने तथा शस्त्र भारत भेजने के अपराध में आजन्म कारावास की सजा सुनाई गयी। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी।

सावरकर जी ने ब्रिटिश अभिलेखागारों का गहन अध्ययन कर ‘1857 का स्वाधीनता संग्राम’ नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा। फिर इसे गुप्त रूप से छपने के लिए भारत भेजा गया। ब्रिटिश शासन इस ग्रन्थ के लेखन एवं प्रकाशन की सूचना से ही थर्रा गया। विश्व इतिहास में यह एकमात्र ग्रन्थ था, जिसे प्रकाशन से पहले ही प्रतिबन्धित कर दिया गया। 

प्रकाशक ने इसे गुप्त रूप से पेरिस भेजा। वहाँ भी ब्रिटिश गुप्तचर विभाग ने इसे छपने नहीं दिया। अन्ततः 1909 में हालैण्ड से यह प्रकाशित हुआ। यह आज भी 1857 के स्वाधीनता समर का सर्वाधिक विश्वसनीय ग्रन्थ है।

1911 में उन्हें एक और आजन्म कारावास की सजा सुनाकर कालेपानी भेज दिया गया। इस प्रकार उन्हें दो जन्मों का कारावास मिला। वहाँ इनके बड़े भाई गणेश सावरकर भी बन्द थे। जेल में इन पर घोर अत्याचार किये गये। कोल्हू में जुतकर तेल निकालना, नारियल कूटना, कोड़ों की मार, भूखे-प्यासे रखना, कई दिन तक लगातार खड़े रखना, हथकड़ी और बेड़ी में जकड़ना जैसी यातनाएँ इन्हें हर दिन ही झेलनी पड़ती थीं।

1921 में उन्हें अन्दमान से रत्नागिरी भेजा गया। 1937 में वे वहाँ से भी मुक्त कर दिये गये; पर सुभाषचन्द्र बोस के साथ मिलकर वे क्रान्ति की योजना में लगे रहे। 1947 में स्वतन्त्रता के बाद उन्हें गांधी हत्या के झूठे मुकदमे में फँसाया गया; पर वे निर्दोष सिद्ध हुए। वे राजनीति के हिन्दूकरण तथा हिन्दुओं के सैनिकीकरण के प्रबल पक्षधर थे। स्वास्थ्य बहुत बिगड़ जाने पर वीर सावरकर ने प्रायोपवेशन द्वारा 26 फरवरी, 1966 को देह त्याग दी।
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29 मई/बलिदान-दिवस

हैदराबाद सत्याग्रह के बलिदानी नन्हू सिंह

15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों ने भारत को स्वतन्त्र कर दिया; पर इसके साथ ही वे यहाँ की सभी रियासतों, राजे-रजवाड़ों को यह स्वतन्त्रता भी दे गये, कि वे अपनी इच्छानुसार भारत या पाकिस्तान में जा सकती हैं। देश की सभी रियासतें भारत में मिल गयीं; पर जूनागढ़ और भाग्यनगर (हैदराबाद) टेढ़ी-तिरछी हो रही थीं। इन दोनों के मुखिया मुसलमान थे। हैदराबाद में यों तो हिन्दुओं की जनसंख्या सर्वाधिक थी, पर पुलिस शत-प्रतिशत मुस्लिम थी। अतः हिन्दुओं का घोर उत्पीड़न होता था। उनकी कहीं सुनवाई नहीं थी। 

हैदराबाद के निजाम की इच्छा स्वतन्त्र रहने या फिर पाकिस्तान में मिलने की थी। वह इसके लिए प्रयास कर रहा था। तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार पटेल ने वहाँ पुलिस कार्यवाही कर उसे भारत में मिला लिया; पर इस मिलन से अनेक वर्ष पूर्व वहाँ की स्थानीय हिन्दू जनता ने हिन्दू महासभा तथा आर्य समाज के साथ मिलकर एक बड़ा आन्दोलन चलाया, जिसमें सैकड़ों लोग बलिदान हुए और हजारों ने चोट खाई। इस सत्याग्रह में देश भर से लोग सहभागी हुए।

बुन्देलखंड के निवासी धार्मिक प्रवृत्ति के श्री गणेश सिंह के सुपुत्र नन्हू सिंह अमरावती में मजदूरी कर जीवनयापन करते थे। स्पष्ट है कि उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी; पर जब सत्याग्रह का आह्नान हुआ, तो वे भी अमरावती के नानासाहब भट्ट के साथ इस पथ पर चल दिये। इस काम में उनकी गरीबी बाधा नहीं बनी। वे उस समय 52 वर्ष के थे। उन्होंने भी हैदराबाद जाकर सत्याग्रह किया और गिरफ्तारी दी।

नन्हू सिंह जी को चंचलगुडा जेल में रखा गया। जेल में इन सत्याग्रहियों के साथ पशुओं जैसा व्यवहार किया जाता था। यद्यपि जेल में रहने वालों के लिए सब जगह कुछ नियम हैं; पर हैदराबाद जेल में इन नियमों को कोई नहीं पूछता था। सत्याग्रहियों को गन्दा और स्वादहीन भोजन बहुत कम मात्रा में मिलता था। छोटी सी बात पर मारपीट करना सामान्य सी बात थी।

26 मई, 1939 को नन्हू सिंह जी नहा रहे थे कि वहाँ खड़े मुस्लिम जेलरक्षक ने नल बन्द कर दिया। इस पर दोनों में कहासुनी हो गयी और जेलरक्षक ने लाठी प्रहार से उनका सिर फोड़ दिया। उन्हें जेल के अस्पताल भेजा गया, जहाँ इलाज के अभाव में 29 मई को उनके प्राण पखेरू उड़ गये। उनके शव को एक कपड़े व टाट में लपेट कर एक अँधेरे स्थान पर फंेक दिया गया, जिससे किसी को उनकी मृत्यु का पता न लगे। इसके बाद आधे-अधूरे ढंग से चुपचाप उनके शव को फूँक दिया गया। 

सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा ने निजाम को कई बार तार भेजे; पर उनका कोई उत्तर नहीं आया। इस पर सत्याग्रह समिति की ओर से श्री हरिश्चन्द्र विद्यार्थी जेल अधिकारियों से मिले, जिन्होेंने उनकी मृत्यु का कारण निमोनिया बताया। काफी प्रयत्न के बाद नन्हू सिंह जी का आधा जला शव मिल सका। उनका धड़ तथा खोपड़ी के टुकड़े अलग-अलग पड़े थे।

अन्ततः ऐसे वीरों का बलिदान रंग लाया। 17 सितम्बर, 1948 को हैदराबाद का भारत में विलय हो गया। यह दुर्भाग्य की बात है कि दो-चार दिन के लिए जेल जाने वालों को शासन ने स्वतन्त्रता सेनानी मान कर अनेक सुविधाएँ दीं; पर इस आन्दोलन के सत्याग्रहियों और बलिदानियों को शासन ने याद भी नहीं किया; क्योंकि यह आन्दोलन कांग्रेस के नेतृत्व में नहीं हुआ था। 
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29 मई/सागरमाथा-विजय                  

पर्वत प्रेमी सर एडमंड हिलेरी

देवातात्मा हिमालय अध्यात्म प्रेमियों की तरह खतरों के खिलाडि़यों को भी अपनी ओर आकृष्ट करता है। 8,848 मीटर ऊंचे, विश्व के सर्वोच्च पर्वत शिखर सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) पर नेपाली शेरपा तेनसिंग के साथ सर्वप्रथम चढ़ने वाले सर एडमंड हिलेरी ऐसे ही एक साहसी पर्वतारोही थे। 

हिलेरी का जन्म न्यूजीलैंड के आकलैंड में 20 जुलाई, 1919 को एक किसान परिवार में हुआ था। उन्होंने मधुमक्खी पालन को व्यवसाय के रूप में अपनाया; पर खतरों से खेलने का स्वभाव होने के कारण न्यूजीलैंड के पर्वत उन्हें सदा आकर्षित करते थे। 1939 में उन्होंने आल्पस पर्वत पर चढ़ाई की और उसके बाद न्यूजीलैंड के सब पहाड़ों को जीता। उन्होंने एक वायुसैनिक के नाते द्वितीय विश्व युद्ध में अपने देश की ओर से भाग भी लिया।

हिलेरी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन 29 मई, 1953 था, जब उन्होंने सर्वप्रथम सागरमाथा के शिखर पर झंडा फहराया। इसके बाद तो साहसिक अभियानों पर जाने का उन्हें चस्का ही लग गया। सागरमाथा के बाद उन्होंने हिमालय सहित विश्व की दस और प्रमुख चोटियों पर झंडा फहराया। 

टैªक्टर से दक्षिणी धु्रव पर जाने वाले दल का नेतृत्व करते हुए वे चार जून, 1958 को वहां जा पहुंचे। 1985 में वे एक छोटे विमान से उत्तरी धु्रव पर गये। उनके साथ चंद्रमा पर सर्वप्रथम पैर रखने वाले अमरीकी यात्री नील आर्मस्ट्रांग भी थे। इस प्रकार विश्व के सर्वोच्च शिखर तथा पृथ्वी के दोनों धु्रवों पर जाने वाले वे विश्व के एकमात्र व्यक्ति बन गये।

1977 में उन्होंने एक और दुःसाहसी योजना ‘सागर से आकाश’ बनाई। इसमें तीन जेट नौकाओं द्वारा कोलकाता से बदरीनाथ तक प्रवाह के विरुद्ध जाना था। अभियान के 18 सदस्यों में उनका 22 वर्षीय पुत्र पीटर भी था। बाधाओं के बावजूद अभियान चलता रहा; पर बदरीनाथ से पहले नन्दप्रयाग में नदी के  बीचोबीच एक चट्टान रास्ता रोके खड़ी थी। हिलेरी ने आसपास से निकलने का बहुत प्रयास किया; पर अंततः उन्हें प्रकृति के सम्मुख झुकना पड़ा।

1953 में सागरमाथा विजय के बाद उन्हें नेपाल के निर्धन शेरपाओं से प्रेम हो गया। उन्होंने धन एकत्र कर ‘हिमालय न्यास’ की स्थापना की तथा इसके माध्यम से शिक्षा, स्वास्थ्य, वनीकरण, जलापूर्ति, हवाई अड्डे एवं पुलों का निर्माण आदि काम किये। शेरपा भी उन्हें एक देवता के समान आदर देते थे। उनके देहांत पर नेपाल के सैकड़ों शेरपा परिवारों में चूल्हा नहीं जला। नेपाल की ही तरह भारत के प्रति भी उनके मन में बहुत आदर था।

1975 में एक हवाई दुर्घटना में पत्नी तथा छोटी बेटी के देहांत से हिलेरी कुछ उदास हो गये। तब तक उनका शरीर भी वृद्ध हो चला था। अतः अब वे सामाजिक व राजनयिक क्षेत्र में सक्रिय हो गये। 1985 से 1989 तक वे भारत में न्यूजीलैंड के राजदूत रहे। 1992 में न्यूजीलैंड शासन ने उनके जीवित होते हुए भी अपने नोटों पर उनका चित्र प्रकाशित किया।

11 जून, 2008 को पर्वतपुत्र सर हिलेरी का हृदयाघात से देहांत हुआ। सागरमाथा पर अब तक लगभग 5,000 सफल अभियान हो चुके हैं; फिर भी उस पहले अभियान की गरिमा कम नहीं हुई है। शिखर पर पहुंचने वाला हर पर्वतारोही हिमालय के साथ ही सर हिलेरी को भी श्रद्धा से सिर झुकाता है।

(संदर्भ : 12 जनवरी, 2008 के समाचार पत्र)
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30 मई/बलिदान-दिवस

गुरु अर्जुनदेव का बलिदान

हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा के लिए यों तो अनेक वीरों एवं महान् आत्माओं ने अपने प्राण अर्पण किये हैं; पर उनमें भी सिख गुरुओं के बलिदान का उदाहरण मिलना कठिन है। पाँचवे गुरु श्री अर्जुनदेव जी ने जिस प्रकार आत्मार्पण किया, उससे हिन्दू समाज में अतीव जागृति का संचार हुआ।

सिख पन्थ का प्रादुर्भाव गुरु नानकदेव द्वारा हुआ। उनके बाद यह धारा गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास से होते चैथे गुरु रामदास जी तक पहुँची। रामदास जी के तीन पुत्र थे। एक बार उन्हें लाहौर से अपने चचेरे भाई सहारीमल के पुत्र के विवाह का निमन्त्रण मिला। रामदास जी ने अपने बड़े पुत्र पृथ्वीचन्द को इस विवाह में उनकी ओर से जाने को कहा; पर उसने यह सोचकर मना कर दिया कि कहीं इससे पिताजी का ध्यान मेरी ओर से कम न हो जाये। उसके मन में यह इच्छा भी थी कि पिताजी के बाद गुरु गद्दी मुझे ही मिलनी चाहिए।

इसके बाद गुरु रामदास जी ने दूसरे पुत्र महादेव को कहा; पर उसने भी यह कह कर मना कर दिया कि मेरा किसी से वास्ता नहीं है। इसके बाद रामदास जी ने अपने छोटे पुत्र अर्जुनदेव से उस विवाह में शामिल होने को कहा। पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर अर्जुनदेव जी तुरन्त लाहौर जाने को तैयार हो गये। पिताजी ने यह भी कहा कि जब तक मेरा सन्देश न मिले, तब तक तुम वहीं रहकर संगत को सतनाम का उपदेश देना।

अर्जुनदेव जी लाहौर जाकर विवाह में सम्मिलित हुए, इसके बाद उन्हें वहाँ रहते हुए लगभग दो वर्ष हो गये; पर पिताजी की ओर से कोई सन्देश नहीं मिला। अर्जुनदेव जी अपने पिताजी के दर्शन को व्याकुल थे। उन्होंने तीन पत्र पिताजी की सेवा में भेजे; पर पहले दो पत्र पृथ्वीचन्द के हाथ लग गये। उसने वे अपने पास रख लिये और पिताजी से इनकी चर्चा ही नहीं की। तीसरा पत्र भेजते समय अर्जुनदेव जी ने पत्रवाहक को समझाकर कहा कि यह पत्र पृथ्वीचन्द से नजर बचाकर सीधे गुरु जी को ही देना।

जब श्री गुरु रामदास जी को यह पत्र मिला, तो उनकी आँखें भीग गयीं। उन्हें पता लगा कि उनका पुत्र उनके विरह में कितना तड़प रहा है। उन्होंने तुरन्त सन्देश भेजकर अर्जुनदेव जी को बुला लिया।  अमृतसर आते ही अर्जुनदेव जी ने पिता जी के चरणों में माथा टेका। उन्होंने उस समय यह शब्द कहे -

भागु होआ गुरि सन्त मिलाइया
प्रभु अविनासी घर महि पाइया।।

इसे सुनकर गुरु रामदास जी अति प्रसन्न हुए। वे समझ गये कि सबसे छोटा पुत्र होने के बावजूद अर्जुनदेव में ही वे सब गुण हैं, जो गुरु गद्दी के लिए आवश्यक हैं। उन्होंने भाई बुड्ढा, भाई गुरदास जी आदि वरिष्ठ जनों से परामर्श कर भादों सुदी एक, विक्रमी सम्वत् 1638 को उन्हें गुरु गद्दी सौंप दी। 

उन दिनों भारत में मुगल शासक अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे। वे पंजाब से होकर ही भारत में घुसते थे। इसलिए सिख गुरुओं को संघर्ष का मार्ग अपनाना पड़ा। गुरु अर्जुनदेव जी को एक अनावश्यक विवाद में फँसाकर बादशाह जहाँगीर ने लाहौर बुलाकर गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद उन्हें गरम तवे पर बैठाकर ऊपर से गरम रेत डाली गयी। इस प्रकार अत्यन्त कष्ट झेलते हुए उनका प्राणान्त हुआ। 

बलिदानियों के शिरोमणि गुरु अर्जुनदेव जी का जन्म 15 अपै्रल, 1556 को तथा बलिदान 30 मई, 1606 को हुआ।
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30 मई/इतिहास-स्मृति

राजशाही का क्रूर दमनचक्र तिलाड़ी कांड

15 अगस्त, 1947 को विदेशी और विधर्मी अंग्रेज अपना बोरिया बिस्तर समेट कर वापस चले गये; पर अनेक रियायतों ने तब तक भारत में विलय नहीं किया था। उत्तराखंड में टिहरी गढ़वाल भी ऐसी ही रियासत थी, जिसका विलय 1949 में हुआ। वहां के राजा को बुलांदा बदरी (बोलता हुआ बदरीनाथ) कहा जाता था। चूंकि बदरीनाथ मंदिर के कपाट खुलने की तिथि औपचारिक रूप से वही घोषित करता था। गढ़वाल के सभी मंदिर उसकी देखरेख में रहते थे। 

एक ओर इसके कारण लोग राजा के प्रति श्रद्धा रखते थे, तो दूसरी ओर जनता करों के बोझ से दबी थी। औताली, गयाली, मुयाली, नजराना, दाखिल खारिज, दरबार के मंगल कार्यों पर देवखेण, आढ़त, पौणटोटी, निर्यातकर, भूमि कर, आबकारी, भांग-सुलफा और अफीम पर चिलमकर, दास-दासियों का विक्रय कर, डोमकर, प्रधानचारी दस्तूर, बरा-बिसली, छूट, तूलीपाथा, पाला, बिसाऊ, जारी, चंद्रायण आदि अनेक प्रकार के कर लगाये गये थे। 

इसके साथ ही हर परिवार को दरबार के पशुओं के लिए एक बोझ घास, कुछ चावल, गेहूं, दाल, घी तथा एक बकरा भी प्रतिवर्ष देना पड़ता था। राजा, उसके परिजन या अतिथि जिस क्षेत्र में जाते थे, वहां के युवकों को बेगार के रूप में उनका बोझ लेकर चलना पड़ता था। गांव वालों को उनके भोजन, आवास आदि का भी प्रबंध करना पड़ता था। इससे भी लोग नाराज थे।

1930 में राजा ने वन में पशुओं के घास चरने पर भी कर लगा दिया। इससे लोगों के मन में विद्रोह की आग सुलगने लगी। वर्तमान यमुनोत्री जिले में यमुना से हिमाचल प्रदेश की ओर का क्षेत्र रवांई और जौनपुर कहलाता है। यहां के लोग सभा और पंचायतों द्वारा इस अन्याय का विरोध करने लगे। 

यह जानकर राजा ने अपने एक मंत्री हरिकृष्ण को लोगों से वार्ता करने भेजा। दूसरी ओर पुलिस भेजकर 20 मई, 1930 को आंदोलन के नेता जमात सिंह, दयाराम, रुद्रसिंह एवं रामप्रसाद को गिरफ्तार करवा लिया। गिरफ्तार लोगों को टिहरी के न्यायालय में ले जाते समय मार्ग में पुलिस एवं ग्रामीणों में झड़प हुई। इससे दो किसान मारे गये तथा एक अधिकारी घायल हो गया।

इससे दोनों पक्षों में तनाव बढ़ गया। आंदोलन के कुछ नेता राजा के इस अत्याचार की बात वायसराय को बताने के लिए शिमला चले गये। शेष लोगों ने तिलाड़ी गांव के मैदान में 30 मई, 1930 को एक बड़ी पंचायत करने का निश्चय किया। इस मैदान के तीन ओर पहाड़ तथा चैथी ओर यमुना थी। राजा के दीवान चक्रधर जुयाल ने लोगों को डराने के लिए वहां सेना भेज दी।

फिर भी निर्धारित समय पर पंचायत प्रारम्भ हो गयी। इस पर दीवान ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। इससे वहां भगदड़ मच गयी। अनेक लोग मारे गये। कई लोगों ने पेड़ों पर चढ़कर जान बचाई। सैकड़ों लोग यमुना में कूद गये। उसमें से कई नदी के तेज प्रवाह में बह गये। इस प्रकार उस दिन कुल 17 आंदोलनकारी अपने प्राणों से हाथ धो बैठे। 

इसके बाद सैनिकों ने गांवों में जाकर उन लोगों को पकड़ लिया, जो पंचायत में गये थे। उन पर टिहरी में मुकदमा चलाया गया। इनमें से 68 लोगों को एक से 20 वर्ष तक के कारावास का दंड दिया गया। इनमें से 15 की जेल में ही मृत्यु हो गयी। 

इन 32 वीरों के बलिदान से स्वाधीनता की आग पूरी रियासत में फैल गयी। इनकी स्मृति में प्रतिवर्ष 30 मई को तिलाड़ी में मेला होता है।

(संदर्भ : अभिप्रेरणा पाक्षिक, देहरादून, 30.5.2006)
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31 मई/जन्म-दिवस

तपस्वी राजमाता अहल्याबाई होल्कर

भारत में जिन महिलाओं का जीवन आदर्श, वीरता, त्याग तथा देशभक्ति के लिए सदा याद किया जाता है, उनमें रानी अहल्याबाई होल्कर का नाम प्रमुख है। उनका जन्म 31 मई, 1725 को ग्राम छौंदी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री मनकोजी राव शिन्दे परम शिवभक्त थे। अतः यही संस्कार बालिका अहल्या पर भी पड़े। 

एक बार इन्दौर के राजा मल्हारराव होल्कर ने वहां से जाते हुए मन्दिर में हो रही आरती का मधुर स्वर सुना। वहां पुजारी के साथ एक बालिका भी पूर्ण मनोयोग से आरती कर रही थी। उन्होंने उसके पिता को बुलवाकर उस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव रखा। मनकोजी राव भला क्या कहते; उन्होंने सिर झुका दिया। इस प्रकार वह आठ वर्षीय बालिका इन्दौर के राजकुंवर खांडेराव की पत्नी बनकर राजमहलों में आ गयी।

इन्दौर में आकर भी अहल्या पूजा एवं आराधना में रत रहती। कालान्तर में उन्हें दो पुत्री तथा एक पुत्र की प्राप्ति हुई। 1754 में उनके पति खांडेराव एक युद्ध में मारे गये। 1766 में उनके ससुर मल्हार राव का भी देहांत हो गया। इस संकटकाल में रानी ने तपस्वी की भांति श्वेत वस्त्र धारण कर राजकाज चलाया; पर कुछ समय बाद उनके पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधू भी चल बसे। इस वज्राघात के बाद भी रानी अविचलित रहते हुए अपने कर्तव्यमार्ग पर डटी रहीं। 

ऐसे में पड़ोसी राजा पेशवा राघोबा ने इन्दौर के दीवान गंगाधर यशवन्त चन्द्रचूड़ से मिलकर अचानक हमला बोल दिया। रानी ने धैर्य न खोते हुए पेशवा को एक मार्मिक पत्र लिखा। रानी ने लिखा कि यदि युद्ध में आप जीतते हैं, तो एक विधवा को जीतकर आपकी कीर्ति नहीं बढ़ेगी। और यदि हार गये, तो आपके मुख पर सदा को कालिख पुत जाएगी। मैं मृत्यु या युद्ध से नहीं डरती। मुझे राज्य का लोभ नहीं है, फिर भी मैं अन्तिम क्षण तक युद्ध करूंगी।

इस पत्र को पाकर पेशवा राघोबा चकित रह गया। इसमें जहां एक ओर रानी अहल्याबाई ने उस पर कूटनीतिक चोट की थी, वहीं दूसरी ओर अपनी कठोर संकल्पशक्ति का परिचय भी दिया था। रानी ने देशभक्ति का परिचय देते हुए उन्हें अंगे्रजों के षड्यन्त्र से भी सावधान किया था। अतः उसका मस्तक रानी के प्रति श्रद्धा से झुक गया और वह बिना युद्ध किये ही पीछे हट गया।

रानी के जीवन का लक्ष्य राज्यभोग नहीं था। वे प्रजा को अपनी सन्तान समझती थीं। वे घोड़े पर सवार होकर स्वयं जनता से मिलती थीं। उन्होंने जीवन का प्रत्येक क्षण राज्य और धर्म के उत्थान में लगाया। एक बार गलती करने पर उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र को भी हाथी के पैरों से कुचलने का आदेश दे दिया था; पर फिर जनता के अनुरोध पर उसे कोड़े मार कर ही छोड़ दिया। 

धर्मप्रेमी होने के कारण रानी ने अपने राज्य के साथ-साथ देश के अन्य तीर्थों में भी मंदिर, कुएं, बावड़ी, धर्मशालाएं आदि बनवाईं। काशी का वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर 1780 में उन्होंने ही बनवाया था। उनके राज्य में कला, संस्कृति, शिक्षा, व्यापार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों का विकास हुआ।

13 अगस्त, 1795 ई0 को 70 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हुआ। उनका जीवन धैर्य, साहस, सेवा, त्याग और कर्तव्यपालन का पे्ररक उदाहरण है। इसीलिए एकात्मता स्तोत्र के 11वें श्लोक में उन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, चन्नम्मा, रुद्रमाम्बा जैसी वीर नारियों के साथ याद किया जाता है।

(संदर्भ : राष्ट्रधर्म मासिक, मई 2011)
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31 मई/जन्म-दिवस

केरल की प्रथम शाखा के स्वयंसेवक पी.माधव

केरल के कार्यकर्ताओं में श्री पी.माधव का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। वहां शाखा कार्य का प्रारम्भ 1942 में कोझीकोड (कालीकट) में श्री दत्तोपंत ठेंगड़ी ने किया। श्री पी.माधव उसी शाखा के स्वयंसेवक थे। 

माधव जी का जन्म कोझीकोड के प्रतिष्ठित सामोरिन राजपरिवार में 31 मई, 1926 को हुआ था। उनके पिता श्री मानविक्रमन राजा वकील थे। लोग उन्हें सम्मानपूर्वक कुन्मुणि राजा कहते थे। उनकी माता जी का नाम श्रीमती सावित्री था। इस दम्पति की आठ सन्तानों में माधव सबसे बड़े थे।

कोझीकोड से प्रारम्भिक शिक्षा लेकर माधव जी चेन्नई चले गये और वहां से रसायनशास्त्र में बी.एस-सी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। गणित तथा संस्कृत में उनकी विशेष रुचि थी। वहां पढ़ते समय तमिलनाडु के तत्कालीन प्रान्त प्रचारक श्री दादाराव परमार्थ से भी उनका अच्छा सम्पर्क हो गया। 

चेन्नई में श्री गुरुजी के आगमन पर माधव जी को उनकी सेवा व्यवस्था में रखा गया। श्री गुरुजी के आग्रह पर वे प्रचारक बन गयेे। सर्वप्रथम उन्हें 1947-48 में केरल के कन्नूर जिले में तलसेरि में भेजा गया। उसी दौरान देश स्वतन्त्र हुआ और फिर कुछ समय बाद गांधी जी की हत्या हो गयी।

इस समय तक केरल में मुस्लिम और ईसाई बहुत प्रभावी हो चुके थे। संघ का काम शिशु अवस्था में था। अतः न केवल संघ अपितु सम्पूर्ण हिन्दू समाज को अपार कष्ट उठाने पड़े। मल्लापुरम में हिन्दुओं का नरसंहार हुआ तथा शबरीमला अयप्पा मंदिर को जला दिया गया। संघ पर प्रतिबन्ध के विरोध में हुए सत्याग्रह में माधव जी अनेक स्वयंसेवकों को लेकर जेल गये।

प्रतिबन्ध की समाप्ति के बाद 1950 में माधव जी को त्रावणकोर भेजा गया। वहां उन्होंने ‘हिन्दू महामंडलम्’ के नाम से एक बड़ा सम्मेलन किया। इसके माध्यम से उन्होंने सुप्रसिद्ध नायर नेता श्री पद्मनाभम् और एक अन्य वरिष्ठ एस.एन.डी.पी. नेता श्री आर.शंकरन को अपने साथ जोड़ा। इस सम्मेलन से संघ के काम को बहुत सहारा मिला। केरल में मुसलमान और ईसाइयों के साथ ही कम्युनिस्ट भी संघ का विरोध करते थे। अतः माधव जी तथा अन्य प्रचारकों को अनेक शारीरिक व मानसिक कष्ट उठाने पड़े।

माधव जी जिला और विभाग प्रचारक के बाद केरल में प्रथम प्रान्त बौद्धिक प्रमुख रहे। वे तन्त्र-मन्त्र तथा मंदिर वास्तुशास्त्र के भी विशेषज्ञ थे। उन्हें यह देखकर बहुत कष्ट होता था कि लोग वंश परम्परा से पुजारी तो बन जाते हैं; पर उन्हें पूजा-पाठ और कर्मकांड की प्राथमिक जानकारी भी नहीं है। अतः पुजारियों के प्रशिक्षण के लिए उन्होंने ‘तंत्रविद्या पीठम्’ तथा मंदिरों की देखभाल के लिए ‘केरल क्षेत्र संरक्षण समिति’ बनाई।

माधव जी जन्म से जाति व्यवस्था को मान्य नहीं करते थे। उन्होंने केरल के वरिष्ठ पुजारियों और घटमाचार्यों को एकत्रकर यह प्रस्ताव पारित कराया कि मंदिर में सब जाति के हिन्दुओं को निर्बाध प्रवेश मिले तथा सबके उपनयन आदि संस्कारों की वहां व्यवस्था हो। वे मंदिर को भी शाखा की तरह संस्कार प्रदान करने वाला सबल केन्द्र बनाना चाहते थे। 1982 में केरल में हुए विशाल हिन्दू सम्मेलन के मुख्य संगठनकर्ता माधव जी ही थे। 

श्री पी.माधव एक अच्छे वक्ता तथा लेखक थे। उनके भाषण सब आयु वर्ग के लोगों में स्फूर्ति भर देते थे। उन्होंने संस्कृत के छात्र और आचार्यों के लिए ‘क्षेत्र चैतन्य रहस्यम्’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। उन्होंने श्री गुरुजी की ही तरह ब्रह्मकपाल में स्वयं का श्राद्ध किया था। केरल के कार्यकर्ताओं में नवस्फूर्ति का संचार करने वाले इस मंत्रदाता का सितम्बर 1988 में शरीरांत हो गया।
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31 मई/जन्म-दिवस

हिन्दी व हिन्दुत्व के पुजारी रामनारायण त्रिपाठी ‘पर्यटक’

‘पर्यटक’ तथा ‘दद्दा बैसवारी’ के नाम से कई विधाओं में कविता लिखने वाले श्री रामनारायण त्रिपाठी का जन्म 31 मई, 1958 को ग्राम टेढ़वा (जिला उन्नाव, उ.प्र.) में श्रीमती मायादेवी तथा श्री महादेव त्रिपाठी के घर में हुआ था। घर में मिले धर्म और देशप्रेम के संस्कार स्वयंसेवक बनने पर और प्रगाढ़ हो गये। अतः बी.ए. कर वे डेढ़ वर्ष तक पुरवा तहसील में प्रचारक रहे। 1978 में वे लखनऊ स्थित ‘राष्ट्रधर्म प्रकाशन’ में काम करने लगे। 

1984 में तुलसी जयन्ती पर उन्होंने ‘नवोदित साहित्यकार परिषद’ की स्थापना की। ‘नवोदित स्वर साधना’ नामक पत्र में नये साहित्यकारों की रचनाएं छापकर उन्होंने सैकड़ों नये और युवा राष्ट्रप्रेमी लेखक तैयार किये। कुछ समय बाद वे मासिक ‘राष्ट्रधर्म’ में सह सम्पादक बनाये गये। निर्धारित काम को जिदपूर्वक समय से पूरा करना उनके स्वभाव का अंग था। ‘राष्ट्र साधना विशेषांक’ के प्रकाशन से पूर्व सम्पादक श्री आनंद मिश्र ‘अभय’ एक दुर्घटना के कारण बिस्तर पर पड़े थे। ऐसे में पर्यटक जी ने बुरी तरह बीमार होते हुए भी कार्यालय में तख्त पर लेटकर काम पूरा किया। 

उ.प्र. के मुख्यमंत्री श्री नारायण दत्त तिवारी ने 13 सितम्बर, 1989 को एक अध्यादेश द्वारा उर्दू को प्रदेश में द्वितीय राजभाषा घोषित कर दिया। अगले दिन 14 सितम्बर को हिन्दी के साहित्यकारों को पुरस्कार दिये जाने वाले थे। पर्यटक जी ने अपने मित्रों के साथ समारोह में प्रखर विरोध प्रदर्शन किया। इससे राज्यपाल महोदय पुरस्कार बांटे बिना ही लौट गये। 

लेकिन वे इतने पर ही चुप नहीं बैठे। उन्होंने सैकड़ों हिन्दीप्रेमियों तथा साहित्यकारों के हस्ताक्षरों से युक्त ज्ञापन राज्यपाल को सौंपा। इससे पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन होने लगे। शासन ने डर कर उस विधेयक को विधानसभा में नहीं रखा। इस प्रकार ‘द्वितीय राजभाषा संशोधन अध्यादेश’ अपनी मौत मर गया। इस बारे में उन्होंने एक व्यंग्य चित्र प्रदर्शिनी भी कई स्थानों पर लगाई।

संसद भवन के केन्द्रीय कक्ष में तुलसीदास जी का चित्र भी उनके प्रयास से ही लगा। इसके लिए उन्होंने लगभग 10,000 लोगों के हस्ताक्षर वाला ज्ञापन राष्ट्रपति डा. शंकरदयाल शर्मा को दिया था। लखनऊ आकाशवाणी से बच्चों के कार्यक्रम में हिन्दी विरोधी एक कविता प्रसारित होने पर भी उन्होंने धरना और प्रदर्शन कर कार्यक्रम निदेशक को क्षमा मांगने पर मजबूर किया। 

‘श्री रामजन्मभूमि आंदोलन’ के समय कारसेवा के लिए अयोध्या जाते हुए उन्हें ‘मंडी परिषद’ की अस्थायी जेल में रखा गया। वहां उन्होंने सब कारसेवकों के सहयोग से एक शिव मंदिर बना दिया। उनके मोहल्ले में स्थानीय मुसलमान एक खाली मैदान में मजार बनाने का षड्यन्त्र रच रहे थे। यह देखकर उन्होंने वहां शरद पूर्णिमा की रात में हनुमान जी की मूर्ति स्थापित कर दी। इससे मुसलमानों का षड्यन्त्र विफल हो गया। इन दोनों स्थानों पर आज भव्य मंदिर बन गये हैं। गोधरा में रामसेवकों के बलिदान के बाद उन्होंने पोस्टर लगाकर लोगों से होली न मनाने का आह्वान किया।

संघ कार्य में कई जिम्मेदारियां निभाते हुए उन्हें ‘अखिल भारतीय साहित्य परिषद’ के महामंत्री का महत्वपूर्ण काम दिया गया। इस नाते उन्होंने देश भर में प्रवास कर संगठन को दृढ़ किया। अपने से अधिक वे अपने मित्रों की चिन्ता करते थे। हर साल तीन-चार बार रक्तदान करना उनका स्वभाव था। 

इस दौड़भाग में वे कब भीषण कर्क रोग से घिर गये, यह पता ही नहीं लगा। जब पता लगा, तब तक वह दुर्जेय हो चुका था। 29 जनवरी, 2012 को वे पर्यटन के लिए वहां चले गये, जहां से कोई लौटकर नहीं आता।

(संदर्भ : राष्ट्रधर्म एवं पुष्पवाटिका, मार्च 2012)

3 टिप्‍पणियां:

  1. भाई जी जून पहला सप्ताह नहीं खुल रहा पवनअग्रवाल

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  2. गूगल में प्रताप सिंह बारहठ का निधन भी 24 मई ही दिखाया गया है। कृपया जाँच करें।

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